स्क्रीन पर चारों कमाण्डो ओर सोहनलाल दिखाई दे रहे थे, फिर तीन कमाण्डो गनमैन के साथ वापस चले गये और महेश, सोहनलाल को साथ लिये गैलरी में सीधा आगे बढ़ने लगा ।

ये देखकर तीरथराम पाहवा ने हाथ बढ़ाकर टेबल पर लगा स्विच ऑन किया और कुर्सी से टेल लगाकर झूलने लगा । सामने तीस फुट लंबी और इतनी चौड़ी टेबिल पर काफी सारा साजो-सामान रखा हुआ था, जिनमें एक रंग-बिरंगा बटनों का स्विच बोर्ड था । जिनमें एक स्विच से दबाते ही रोशनी स्क्रीन बुझ चुकी थी। टेलीफोन टेबिल पर मौजूद थे । कुछ फाइलें करीने में लगा रखी थी । तथा कुछ जरूरत का सामान यहां मौजूद था ।

तीरथराम पाहवा साठ वर्षीय आकर्षक व्यक्ति का मालिक था । सिर पर बहुत कम बाल थे और सारे सफेद हो चुके थे । उसके हाव-भाव से ही चुस्ती-फुर्ती झलकती थी । पिछले बीस सालों से वह अंडरवर्ल्ड का बादशाह बना बैठा था ।

पाहवा ने टेबल पर मौजूद स्विच बोर्ड का एक बटन दबाया, तो पचास फुट दूर ठीक सामने दिखाई दे रहा मजबूत दरवाजा खामोशी से खुल गया।

अगले ही पल वहां पर महेश, सोहनलाल के साथ नजर आया, फिर सोहनलाल भीतर प्रवेश कर गया और दरवाजा बन्द हो गया। महेश ने भीतर आने की चेष्टा न की । सोहनलाल हैरानी से सजे हुए खूबसूरत हॉल को देखने लगा ।

तीरथराम पाहवा शांति से उसे देख रहा था, फिर वो अपनी जगह से उठा और आगे बढ़कर दीवार पर लगा बटन दबाया । शीशे के बड़े-बड़े दरवाजों पर पड़े पर्दे खामोशी से एक तरफ सरक गये फिर दो क्षण को ऐसा लगा, जैसे जादू के जोर पर, सारा शहर सामने आ गया हो । नीचे आदमी और वाहन किन्हीं कीड़े-मकोड़ों की तरह लग रहे थे । सामने गगन-चुम्बी इमारतें सिर उठाये खड़ी थीं । इतने ऊंचे से शहर को देखना वास्तव में अच्छा लगता था।

सोहनलाल अभी तक पाहवा का चेहरा न देख पाया था । उसके चेहरे पर कई तरह के भाव आ-जा रहे थे । जिसमें भय, घबराहट और कम्पन मौजूद था । वो काफी देर तक उसको देखता रहा । जब पाहवा न पलटा तो सोहनलाल उसके करीब जा पहुँचा । फर्श पर गद्देदार कालीन होने के कारण, सुई के बराबर भी कदमों की आवाज न हुई, परन्तु सोहनलाल को हैरान रह जाना पड़ा । जब उसके पास पहुँचते ही तीरथराम पाहवा ने भारी स्वर में पूछा ।

"कौन हो तुम ?"

सोहनलाल को अपना गला खुश्क होता हुआ लगा । वो इस बात को हर क्षण याद रख रहा था कि सामने खड़ा शख्स अण्डरवर्ड का सबसे बड़ा दादा है । इस शहर में इसकी बात टालना किसी के वश में नहीं था। और वो उसी के सामने खड़ा था । बेहद कठिनाइयों के पश्चात सोहनलाल अपना चेहरा सामान्य बना पाया । परन्तु भीतरी हालात से सिर्फ वही वाकिफ था ।

"कौन हो तुम ?"

तीरथराम पाहवा का स्वर पुनः गुंजा, सोहनलाल उसी प्रकार स्थित खड़ा उसकी पीठ पर निगाहें जमाये रहा ।

तीरथराम पाहवा ने दोनों हाथ अपनी सीट पर बांधे और पलटकर सोहनलाल को घूरने लगा। सोहनलाल यथासंभव चेष्टा के पश्चात, उससे निगाहें मिलाने में कामयाब रहा । पाहवा का चेहरा पत्थर की मानिंद सख्त हो चुका था ।

"तुम जानते हो किसके सामने खड़े हो ?" तीरथराम पाहवा बर्फ के समान स्वर में बोला ।

'तीरथराम पाहवा के ।" सोहनलाल ने शांत स्वर में कहा ।

"तुम इस समय एक ऐसे इंसान के सामने खड़े हो जा इस शहर पर हुकूमत करता है और इस समय तुम भी शहर में रहने वाले एक मामूली इंसान हो।"

सोहनलाल कुछ क्षण तो अपलक पाहवा का सुर्ख चेहरा देखता रह गया--- "हैरानी है ।" सोहनलाल एकाएक व्यंग से हंसा, "इस शहर पर हुकूमत करने वाले इंसान का मुझसे क्या काम पड़ गया जो अपने कमाण्डो भेजकर...।"

"तुम्हें तुम्हारी हर बात का जवाब मिलेगा ।" पाहवा पूर्वतः स्वर में बोला, "पहले मेरी बात का उत्तर दो, कौन हो तुम ?"

"बात तो तुम ऐसे कर रहे हो जैसे तुम्हें मालूम न हो ।" सोहनलाल के चेहरे पर क्रोध उमड़ आया--- "बच्चों की तरह सवाल मत पूछो पाहवा।"

तीरथराम पाहवा के चेहरे पर कई तरह के भाव आकर गुजर गये। वो टटोलने वाली निगाहों से सोहनलाल को देखने लगा ।

"ये आंखें फाड़-फाड़कर क्या देख रहे हो ?" सोहनलाल उखड़े अन्दाज में बोला ।

"तुम सोहनलाल हो ?"

"सरासर हूँ ।" सोहनलाल एक-एक शब्द चबाकर बोला ।

"कौन-से सोहनलाल ?"

"जो हैसियत तुम्हारी इस शहर में है । इससे कई गुना ज्यादा हैसियत सिर्फ दो महीने पहले, बम्बई में मेरी थी । शायद उड़ते- उड़ते तुमने बम्बई के अंडरवर्ल्ड से सोहनलाल की हस्ती के बारे में सुना हो । मेरा अपना गैंग था, पूरे हिन्दुस्तान में मुझसे खतरनाक गैंगस्टर आज तक पैदा नहीं हुआ ।" सोहनलाल सख्त स्वर में बोला ।

"ये तुम्हारा ख्याल है, लेकिन मेरा नहीं । हो सकता है, मैं तुमसे भी ज्यादा खतरनाक इंसान...।"

"होने को छोड़ो, मतलब की बात करो । मुझे यहां क्यों बुलाया गया है ?"

तीरथराम पाहवा अपनी जगह से हिला और वापस कुर्सी पर बैठा । निगाहें बराबर सोहनलाल पर टिकी हुई थीं।

"तुम साबित कर सकते हो कि तुम ही बम्बई के अंडरवर्ल्ड के बादशाह सोहनलाल हो ।" पाहवा ने शांत स्वर में कहा ।

"मुझे क्या जरूरत पड़ी है, जो साबित करता फिरू ?"

"जरूरत है । क्योंकि तुम बम्बई के अंडरवर्ल्ड के बादशाह थे । पुलिस से मुठभेड़ में तुम्हारा गैंग समाप्त हो गया । यहां तक कि पुलिस ने तुम्हारे मरे की तस्वीरें देश के सारे अखबारों में छापी, लेकिन तुम पुनः जिंदा होकर सामने आ गये । कोई बात नहीं, हो सकता है, पुलिस ने किसी और की लाश को, तुम्हारी लाश समझ लिया हो और तुम बच निकले । अब सबसे बड़ा सवाल तो ये उठता है कि तुम बम्बई से सैकड़ों मील दूर यहां क्या कर रहे हो ? वहां तुम्हारे इशारे पर पत्ता नहीं हिलता था । गैंग समाप्त हो जाने के पश्चात भी तुम किसी से भी सहायता लेकर पुनः पहले वाली स्थिति में सामने आ सकते थे, फिर बादशाह बन सकते थे, लेकिन तुम बम्बई से भाग निकले, यही सबसे कमजोर कड़ी है तुम्हारी कहानी में ।"

सोहनलाल ने शांति से सिगरेट सुलगाई। परन्तु उसे ऐसा लग रहा था, जैसे उसकी उंगलियाँ जोरों से कांप रही हों । वो आगे बढ़ा और कुर्सी पर बैठकर एक साथ कुछ कश खींचे । उसकी आंखें बता रही थी कि वो तेजी से सोच रहा है।

तीरथराम पाहवा ध्यान पूर्वक उसके चेहरे पर आने वाले भावों को देख रहा था--- "जिस कड़ी को तुम कमजोर समझ रहे हो, वही सबसे मजबूत है ।"

पाहवा प्रश्न भरी निगाहों से उसे देखने लगा ।

"तुमने अवतार सिंह का नाम सुना है मिस्टर तीरथराम पाहवा ?"

"हाँ, सुना है ।"

"तो फिर ये भी जानते होगे कि वो भी बम्बई का बहुत बड़ा दादा है और उसकी जिंदगी की सबसे बड़ी ख्वाहिश रही कि वो बम्बई अंडरवर्ल्ड का सबसे बड़ा दादा बने । हर सुबह-शाम वो मेरे मरने की मिन्नतें मांगता था । यानी मेरे मरने के बाद ही वो दादा अंडरवर्ल्ड का बादशाह बन सकता था, उससे पहले नहीं, और मुझे मारना उसके वश में नहीं था। इस बात से हम दोनों भलीभांति वाकिफ थे ।" सोहनलाल ने सर्द स्वर में कहा ।

"तुम कहना क्या चाहते हो ?"

"सुनते जाओ । जब पुलिस से मेरी निर्णायक मुठभेड़ हुई, तो उसे सुनहरा अवसर मिल गया । जाने कौन-सी बुरी घड़ी थी, मुठभेड़ में मेरा गैंग समाप्त हो गया और मैं किसी तरह अपनी जान बचा गया । पुलिस ने जाने किसकी लाश को मेरी समझकर मशहूर कर दिया कि मैं मर गया हूं। तब मैं अजीब-सी मुसीबत में फंस गया । मेरा गैंग समाप्त हो चुका था, मैं अकेला था । तभी मुझे खबर मिली कि अंडरवर्ल्ड में मेरी जगह अवतार सिंह ने ले ली है । ये सब बारह घंटों में हो गया । अब अगर मैं अवतार सिंह से टक्कर लेने के लिए पुनः अपना गैंग स्थापित करने की चेष्टा करता, तो तब तक मेरे जिंदा होने की खबर चारों तरफ फैल जाती । अवतार मेरी हत्या के लिए पूरी बम्बई में पहरा बिछा देता और पुलिस भी मेरी घात में बैठ जाती। यानी कि कुछ कर गुजरने से पहले ही मैं पुलिस की या अवतार सिंह के किसी हरामजादे की गोली का शिकार हो जाता, क्योंकि उससे टक्कर लेने के लिए मेरे पास पर्याप्त साधन नहीं थे । इसलिए खामखाह मैंने मौत के मुंह कूदना मुनासिब नहीं समझा और चुपचाप बम्बई से निकलकर इस शहर में आ गया । अगर तुम्हें मेरी ये कहानी भी कमजोर लगी हो, तो नई कहानी सुना देता हूं, शायद वो कमजोर न लगे और तुम्हें विश्वास आ जाये कि बम्बई के अंडरवर्ल्ड का बादशाह दो महीने पहले तक मैं ही था ।" आखिरी शब्द सोहनलाल ने व्यंग से कहे।

उसकी व्यंग पर पाहवा को कोई तकलीफ न हुई । उसने टेबल की दराज में से सिगार निकाला और उसे सुलगाकर गहरा कश लिया ।

"मेरा ये मतलब नहीं था कि तुम 'वह' सोहनलाल हो कि नहीं ।" तीरथ राम पाहवा के होंठों पर अजीब-सी मुस्कान आ गई--- "दरसअल मैं खुद को विश्वास दिलाना चाहता हूं कि मैं तुम्हारे मामले में कोई धोखा तो नहीं खा रहा ।"

"तो अब विश्वास आ गया ?"

"नहीं ।"

"अभी भी नहीं ?"

"बिल्कुल नहीं ।" पाहवा हंस पड़ा, "तुमने अपने सोहनलाल होने के तर्क जुबानी पेश किये हैं । कोई सबूत पेश नहीं किया ।"

सोहनलाल उसे घूरने लगा।

"इसमें तुम्हारी कोई गलती नहीं मिस्टर पाहवा, अगर बम्बई में तुम इसी तरह मेरे सामने आते तो यकीनन मैं भी ऐसा ही करता । हर तरह से अपना पूरा इत्मीनान करता । वैसे जब तुम्हें विश्वास आ जायेगा कि मैं ही वो सोहनलाल हूँ, तो तब तुम मेरा क्या करोगे ? मुझे यहां क्यों बुलाया गया है ?"

तीरथराम पाहवा ने सिगार का कश लेने के पश्चात बेहद शांति से कहा ।

"हाँ । जब मुझसे विश्वास आ जायेगा कि तुम वही सोहनलाल हो तो मैं तुम्हारे सामने बहुत बढ़िया ऑफर रखूँगा ।"

"मैं समझा नहीं ।" सोहनलाल के माथे पर बल पड़ गये।

"दरअसल इस शहर में दो गैंग जबरदस्त शक्ति के साथ उभरे हैं । उनकी हरकतें बता रही है कि वो कभी भी मेरे खिलाफ खड़े हो सकते हैं । मेरे पास जबरदस्त लड़ाके हैं, जो शहर में खून का दरिया बहा सकते हैं । अभी मैं इन बातों पर विचार कर ही रहा था कि तुम्हारे बारे में खबर सुनी फिर सोचा कि तुम भी मेरे साथ काम करो, तो मेरी शक्ति बहुत बढ़ जायेगी । तुम चुटकियों में उन दोनों गैंग को मसल सकते हो । यानि कि सारा काम तुम बखूबी संभाल सकते हो । मुझे परेशानी नहीं उठानी पड़ेगी । वैसे भी मैं दो-एक दिन में विलायत जा रहा हूँ । वह मेरा लड़का पढ़ता है । वो वहां किसी कानूनी पचड़े में फंस गया है ।"

सोहनलाल का दिल जोर-जोर से उछलने लगा । चेहरा भावहीन रहा । फौरन सिगरेट होंठों से फंसाकर तीन-चार कश खींचे ।

"अब तुम क्या कहना चाहते हो ?"

"मैं अपनी तसल्ली करना चाहूँगा कि तुम वही सोहनलाल हो ?"

"कैसे करोगे ?"

"आज शाम की फ्लाइट से मैं अपना आदमी बम्बई भेजूँगा, जो किसी प्रकार तुम्हारी तस्वीर हासिल करेगा । उस तस्वीर को देखकर मुझे तुम्हारी बात पर विश्वास हो जायेगा।"

सोहनलाल के गले में बहुत बड़ा कांटा चुभने लगा ।

"अगर मैं कहूं कि मैं तुम्हारे साथ मिलकर काम नहीं करना चाहता, तो ?"

"गलत बात ।" तीरथराम पाहवा स्थिर स्वर में बोला--- "मुझे इंकार सुनने की आदत नहीं है । इस दुनिया में ऐसा कोई इंसान नहीं, जो मुझे इंकार करने के पश्चात जिंदा रहा हो । आगे तुम्हारी मर्जी।"

सोहनलाल के जिस्म में ठंडी सिरहन दौड़ती चली गई।

"ये तुम बहुत गलत कर रहे हो, मत भूलो कि तुम्हारे सामने कोई ऐरा-गैरा नहीं, बम्बई में आतंक फैला देने वाला सोहनलाल खड़ा है । मैं चाहूं तो इस शहर में भी आतंक फैला सकता हूं । तुम्हारे सिंहासन की टांगें तोड़ सकता हूं।  तुम कल्पना भी नहीं कर सकते कि मैं क्या कर सकता हूं ?"

"तुम सोहनलाल हो, तभी तो मैं तुम्हारे शब्दों को सह रहा हूँ ।" तीरथराम पाहवा की आवाज सख्त हो गई--- "कोई और यहां पर आकर बदतमीजी से बोलता तो अब तक मर चुका होता।"

सोहनलाल का जोश ठंडा पड़ गया । सकपकाया-सा वो पाहवा को देखने लगा । पाहवा कठोर निगाहों से उसे देखे जा रहा था ।

तभी कमरे में अजीब-सी ध्वनि गूंजने लगी । सोहनलाल चौंका । परन्तु तीरथराम पर खास असर न हुआ । उसने टेबल पर लगे बटनों में से एक बटन दबाया तो दरवाजा खुलता चला गया ।

महेश चन्द्र भीतर आया और सामने आ खड़ा हुआ ।

"सर...इंस्पेक्टर पाल देशमुख आपके आदेश का पालन करने से इंकार कर रहा है ।"

"हूँ ।" तीरथराम पाहवा का स्वर एकाएक बेहद ठंडा हो गया, "यानी वो हमारे आदमियों को छोड़ने के लिए रजामंद नहीं ?"

"नो सर ।" महेश चंद्र ने कहा, "उसने पहली गलती हमारे आदमियों को गिरफ्तार करके की । दूसरी गलती आपकी आज्ञा ना मानकर की है । बेहतर होगा आप उस पर ऊपर से दबाव डलवायें ताकि... ?"

"नहीं महेश, नहीं ।" पाहवा ने हाथ उठाकर हिलाया--- "ऐसे छोटे-छोटे कामों के लिये हम किसी को तकलीफ नहीं देते । सुना है ये इंस्पेक्टर...क्या नाम है ?"

"पाल देशमुख ।"

"हाँ, देशमुख बहुत ही शरीफ और फर्ज  की राह पर जान देने वाला है ।"

"यस सर ।"

"कोई बात नहीं, इसे अपना फर्ज पूरा करने दो, हम अपना फर्ज पूरा करेंगे । वैसे इसका कोई सगा-वगा है या नहीं ?"

"है सर । बूढ़ी माँ । बीवी और एक बच्चा है।"

"बस इतना ही बहुत है । इन तीनों को गोलियों से उड़ा दो । ताकि अन्य कोई पुलिस वाला तीरथराम पाहवा की ओर हमेशा पीठ करके खड़ा रहे।"

"राईट सर ।"

"जाओ ।"

महेश चन्द्र पलटा और तेज-तेज कदमों से बाहर निकल गया ।

सोहनलाल का गला खुश्क होने लगा । उसके सामने पाहवा ने बेहद शांत भाव से तीन को क़त्ल करने का हुक्म नामा जारी कर दिया था। और आज शाम को उसकी तस्वीर प्राप्त करने के लिये पाहवा अपने आदमी को बम्बई भेज रहा था । सोहनलाल ने नई सिगरेट सुलगाकर गहरा कश लिया।

"मिस्टर तीरथराम पाहवा ।" सोहनलाल उठने के पश्चात स्थिर स्वर में बोला--- "मेरे ख्याल से हमसे जो बात होनी थी, हो चुकी । मैं अब यहां अपनी जरूरत नहीं समझता । तुम अपना आदमी बम्बई भेज सकते हो, ताकि वो मेरी तस्वीर लाये और तुम उस तस्वीर को देखकर मेरी बात की सच्चाई जान सको।  मेरा ठिकाना, तुम्हारे आदमी जानते हैं, जब जरूरत पड़े मुझे बुला लेना। अब  मैं चलता हूं ।" कहने के पश्चात सोहनलाल, पाहवा को प्रश्न भरी निगाहों से देखने लगा ।

पाहवा के होंठों पर एकाएक मुस्कान आ गई ।

"हॉं-हाँ क्यों नहीं ? तुम बेशक जा सकते हो, लेकिन किसी प्रकार की गड़बड़ करने की चेष्टा न करना । हमेशा इस बात का ध्यान रखना कि तुम मेरी निगाहों में हो ।"

सोहनलाल ने सिर हिलाया और दरवाजे की तरफ बढ़ गया ।

सोहनलाल के जाने के पश्चात पाहवा ने रिसीवर उठाकर एक्सटेंशन दबाया, दूसरी तरफ से फौरन रिवाल्वर उठाया गया ।

"जो आदमी अभी-अभी मेरे ऑफिस से निकला है, उस पर नजर रखो । उसका नाम सोहनलाल है ।" कहने के पश्चात तीरथराम ने रिसीवर रख दिया।

■■■

इंस्पेक्टर पाल देशमुख का दो कमरों का छोटा-सा मकान था । पुलिस की नौकरी करके वो अपनी बूढ़ी माँ और बीवी-बच्चे का पेट पाल रहा था । वो अपनी छोटी-सी दुनिया में खुश था । पत्नी कंचन, सावित्री का अवतार थी जैसे । सासू माँ को तो वो हमेशा सिर आंखों पर बिठाये रखती । जैसे वो उसकी ही माँ हो । ऐसी बहू पाकर इंस्पेक्टर पाल की माँ भी धन्य हो गई थी।

इंस्पेक्टर पाल देशमुख इस समय ड्यूटी पर था । उसकी माँ नन्हे से बच्चे को उठाये उसे हंसाने की चेष्टा कर रही थी । कंचन किचन में अपनी सास के लिए चाय बना रही थी ।

बीता हुआ वक्त तो ठीक था, परन्तु आने वाला वक्त उनके जेहन से कोसों दूर था । सब कुछ खत्म होने जा रहा था, इसका तो उन्हें गुमान भी नहीं था।

तभी घर के ठीक सामने सफेद रंग की कार रुकी । ड्राइवर इत्मीनान से बीच में बैठा रहा । पिछली सीट पर बैठे दोनों व्यक्ति नीचे उतरे और शांत भाव से आगे बढ़ते हुए, खुले दरवाजे से भीतर प्रवेश कर गये ।

सामने ही इंस्पेक्टर पाल की माँ फर्श पर बैठी, बच्चे से खेल रही थी । वो दोनों को प्रश्न भरी निगाहों से देखने लगी ।

"इंस्पेक्टर साहब है ।"

"नहीं बेटे, वो तो पुलिस स्टेशन में होगा, उससे मिलना है तो...।" अभागिन बूढ़ी अपने शब्द भी पूरे न कर सकी ।

दोनों ने रिवाल्वरें निकाली और गोलियां चलानी शुरू कर दी।

गोलियों की आवाज सुनकर, कंचन चीखती हुई किचन से भागती हुई वहां पहुंची ही थी कि कई गोलियां उसके शरीर में धंस गई ।

बारूद की गंध वहां फैल चुकी थी । गोलियों के धमाके अभी तक गूंजते महसूस हो रहे थे ।

इंस्पेक्टर पाल देशमुख की बूढ़ी माँ जवान बीवी और नन्हा-सा बच्चा मर चुके थे । खून से उनके शरीर और फर्क लथपथ हो चुका था। दोनों ने बेहद शांति से रिवाल्वर जेब में डाली और बाहर निकल गये। गली, मोहल्ले के लोगों ने, सबने उन्हें देखा, परन्तु किसी ने उनकी तरफ बढ़ने की कोशिश न की । आगे बढ़कर, वे कार में बैठे और कार तेजी से आगे बढ़ गई ।

उसके बाद सारा इलाका इंस्पेक्टर देशमुख के मकान पर उमड़ने लगा । सबके चेहरों पर दहशत स्पष्ट देखी जा सकती थी । मकान को घेरकर तो सब खड़े थे, परन्तु किसी ने भी भीतर जाने की चेष्टा न की।

■■■

"हैलो, लाल चौक पुलिस स्टेशन ।"

"यस ।"

"मुझे इंस्पेक्टर पाल देशमुख से बात करनी है ।"

"जस्ट होल्ड ऑन प्लीज ।"

"दो पल तक लाईन में खामोशी छाई रही । सोहनलाल रिसीवर पकड़े होंठ काटता हुआ पब्लिक टेलीफोन बूथ के फर्श पर जोर- जोर से जूता मारने लगा । कदाचित भी पता हुआ एक-एक पल उसे दिन के बराबर लग रहा था ।

"हैलो ।"

"कौन ? सोहनलाल का दिल धड़कने लगा ।

"इंस्पेक्टर पाल देशमुख, आप कौन हैं ?"

"सब कुछ भूलकर पहले मेरी बात का उत्तर दो । तुमने तीरथराम पाहवा के कुछ चमचों को गिरफ्तार कर रखा है ?"

"हाँ, लेकिन...।"

"उसने तुम्हें, अपने आदमियों को छोड़ने कहा और तुम नहीं माने ।"

"ठीक कहा आपने, लेकिन...।"

"अब मेरी बात ध्यान से सुनो । तीरथराम पाहवा ने मेरे सामने, तुम्हारे परिवार को समाप्त करने का फरमान जारी किया है ?"

"क्या ?"

"तुम्हारे परिवार में बूढ़ी माँ, बीवी और बच्चा है ना ?"

"ह...हाँ ।" इंस्पेक्टर पाल देशमुख का स्वर एकाएक कांपने लगा, "तुम...क...कौन हो ?"

"मैं निहायत शरीफ इंसान हूं और आदतन खून-खराबा पसंद नहीं करता । बदकिस्मती से उस वक्त मैं पाहवा की पास ही था।  अब जो होने वाला है, तुम्हें बता दिया है । चाहे तो खुद को बर्बादी से...।"

"तुम्हारा नाम ?" इंस्पेक्टर पाल देशमुख एकाएक चीखा ।

"उल्लू के पट्ठे, जाकर अपने परिवार को बचा, मेरी नाम का क्या अचार डालेगा क्या ?" सोहनलाल ने दांत किटकिटाना कर कहा रिसीवर रखने के पश्चात आस्तीन से माथे का पसीना पोंछा और बूथ से बाहर निकल आया।

दिन के तीन बज रहे थे । सूर्य पश्चिम की ओर जाने की तैयारियां कर रहा था । अब उसे भी इस शहर को छोड़कर जाना था । क्योंकि तीरथराम पाहवा को अपना आदमी बम्बई भेजकर सोहनलाल की तस्वीरें मंगवानी थी, जो उसकी हो ही नहीं सकती थी, क्योंकि वो सोहनलाल था ही नहीं ।

■■■

सोहनलाल का मस्तिष्क तेजी से दौड़ रहा था । उसे इस शहर से फौरन निकल जाना था, जबकि तीरथराम पाहवा ने खासतौर से चेतावनी दी थी कि वो हर समय उसकी निगरानी में रहेगा । तो क्या पाहवा का कोई आदमी आसपास मंडरा रहा है ? सोहनलाल सतर्कता से इधर-उधर देखने लगा । वहां काफी ज्यादा भीड़ थी। और इनमें कोई भी उसे निगरानी करता हो सकता था ।

सोहनलाल ने चौराहे से टैक्सी पकड़ी और एक खास दिशा में चलने को कहा । सोहनलाल ने सोचा कि मुमकिन है, पाहवा ने खाली उसे डराने के लिये ये कहा हो ?

खैर, जो भी होगा, अभी सामने आ जायेगा ।

पन्द्रह मिनट के पश्चात टैक्सी सुनसान इलाके में पहुंच चुकी थी । सोहनलाल टैक्सी के पीछे लगी हरे रंग की कार को पहचान गया था कि वो लगातार टैक्सी के पीछे है ।

"टैक्सी किसी फोन बूथ के पास रोकना ।" सोहनलाल ने गम्भीर स्वर में कहा और सिगरेट सुलगाकर कश लेने लगा ।

कुछ देर बाद टैक्सी बूथ के बाहर जा रुकी । सोहनलाल नीचे उतरा और बिना दायें-बायें देखे, बूथ में प्रवेश करके रिसीवर उठाया और डायल घुमाने लगा। उसी समय पीछे आ रहे हरे रंग की कार फर्राटे से आगे निकल गई ।

सोहनलाल ने रिसीवर रखा और वापस टैक्सी में जा बैठा ।

तभी उसकी निगाह, सामने सीधी खाली सड़क पर पड़ी  । कोई तीन गज के फासले पर, हरे रंग की कार रुकी हुई थी ।

"वापस चलो ड्राईवर ।" सोहनलाल ने सिगरेट का कश लेकर कहा ।

ड्राइवर ने फौरन टैक्सी घुमाई और पूरी रफ्तार से दौड़ने लगा । सड़क खाली थी । सोहनलाल ने पलटकर देखा । हरे रंग की कार बराबर उसके पीछे आ रही थी । वो सूख रहे होंठों पर जीभ फेरकर सामने देखने लगा । उसकी आंखों से जाहिर हो रहा था कि उसका दिमाग तेजी से दौड़ रहा है । रह-रहकर चेहरे पर तनाव की रेखाएँ उजागर हो रही थीं।

टैक्सी में बैठे-बैठे ही उसने किराया चुकता किया और भीड़भाड़ वाली जगह पर उतर गया । उतरने से पहले वो शहर से निकल जाने की योजना बना चुका था । दोनों हाथ जेबों में डाले वो बाजार में लापरवाही से टहलता रहा । आधा घंटा उसने यूं ही व्यतीत किया, फिर एक ऐसी दुकान में प्रवेश कर गया जहां से ड्रामा, नाटक वगैरा का सामान मिलता था ।

उसने वहां से बिल्कुल असली लगने वाली नकली रिवाल्वर खरीदा और उसे जेब में डालकर बाहर आ गया । दो कदम चलने के पश्चात वो तुरन्त पलटा और दुकान में इस तरह प्रवेश कर गया जैसे वहाँ कुछ भूल गया हो । फिर वो तूफान की भांति दुकान के दूसरे रास्ते से बाहर निकला और लगभग भागने की-सी गति से चलने लगा। उसका पीछा कौन-सा व्यक्ति कर रहा है...यह जानने में उसने खामखाह वक्त बर्बाद नहीं किया । भीड़ में कुछ उल्टे-सीधे चक्कर काटने के पश्चात उसने टैक्सी पकड़ी और वहां से पांच-सात मील दूर उतरकर पैदल ही आगे बढ़ गया ।

फिर उसे रेस्टोरेंट दिखाई दिया, तो वहां प्रवेश कर गया । वेटर को चाय, बटर, टोस्ट लाने को कहकर सिगरेट सुलगा ली । उसमें से किसी ने भी तवज्जो नहीं दी कि सोहनलाल क्या कर रहा है और सोहनलाल ने जरा भी परवाह नहीं कि रेस्टोरेंट में आने वालों में से कोई उसे देख रहा है या नहीं। सोहनलाल को देखने पर महसूस हो रहा था कि उसके लिए कुछ समय सबसे अहम काम, सिर्फ चाय पीना था । बटर, टोस्ट खाने के पश्चात यह सोहनलाल की पांचवी चाय थी । उसे सर्व करने वाले वेटर के चेहरे पर परेशानी थी उभरने लगी थी कि साला चाय पर चाय मंगवाये जा रहा है ।

कोई एक घंटा बिताने के पश्चात सोहनलाल ने वेटर को इशारे से पास बुलाकर बिल चुकता किया और पाँच रुपये टिप देने के पश्चात बाहर निकल गया । सिगरेट सुलगाकर, उसने तीन-चार कश एक साथ लिए और पलटकर रेस्टोरेंट के मुख्यद्वार को देखा, जहां से तीन व्यक्ति निकले । दो ने उसे देखा भी, फिर वहां अपने-अपने रास्ते पर बढ़ गये ।

सोहनलाल लापरवाही से भरी चाल से चलने लगा   कुछ आगे जाने के पश्चात सड़क के दोनों ओर दुकानें शुरू हो गई । एक साड़ी की दुकान से उसने लाल साड़ी और लाल ही रेडीमेड ब्लाउज खरीदा, फिर रेडीमेड कपड़ों की दुकान से ड्राइवर की सफेद यूनिफार्म ले ली।

इसके साथ ही वो आस-पास भी देखता रहा था । आखिरकार उसे वो व्यक्ति नजर आ गया, जो साये के समान उसके पीछे था । वो तीस साल की उम्र का होगा । सिर पर पुलिसियों की तरह छोटे-छोटे बाल थे । तंग मोरी की पैंट के नीचे हंटर शू पहन रखे थे। ऊपर हाफ बाजू की कमीज थी । बदन गठा हुआ था । इसे उसने रेस्टोरेंट में बैठे भी देखा था और उसके बाहर निकलने के पश्चात, यही व्यक्ति सबसे पहले बाहर निकला था और अब उसे ये नजर आया था।

सोहनलाल के चेहरे पर कोई भाव न आया । दोनों हाथों से पकड़े पैकिटों को संभालते हुए वो टैक्सी स्टैंड की तरफ बढ़ गया ।

टैक्सी में बैठने के तीन मिनट पश्चात ही उसे इस बात का अहसास हो गया कि काले रंग की एम्बेसडर कार उसका पीछा कर रही है । पहले हरे रंग की कार और अब काले रंग की । यानी उस पर निगाह रखने वाली एक नहीं, एक से ज्यादा व्यक्ति हैं ।

"तुम...।" सोहनलाल टैक्सी ड्राइवर से बोला-"सौ रुपये कमाना चाहते हो।"

"बिल्कुल साहब...लेकिन मुझे करना क्या होगा ?"

"पीछे काले रंग की कार आ रही है । उससे पीछा छुड़ाना है ।

टैक्सी ड्राइवर ने बैंक मिरर में काले रंग की कार का निरीक्षण किया--- "ठीक है साहब, आप सौ का नोट तैयार कर लीजिये... कहने के पश्चात टैक्सी ड्राइवर ने गियर बदलकर एक्सीलेटर पर पूरा पांव दबा दिया ।

सोहनलाल ने जेल में से सौ का नोट निकालकर हाथ में ले लिया।

■■■

शाम के आठ बज रहे थे । अंधेरा चारों तरफ फैल चुका था । शहर में चारों तरफ जगमगाहट होने लगी थी । सोहनलाल जानता था कि तीरथराम पाहवा इस शहर की हस्ती था, पगड़ी हस्ती । उसके आदमियों को धोखा देना कोई मामूली बात नहीं थी, लेकिन वो धोखा दे चुका था। वो ये भी जानता था कि बेसब्री से उसे तलाश किया जा रहा होगा और किसी भी समय वो तीरथराम पाहवा की गिरफ्त में वापस पहुंच सकता था।

सोहनलाल पूरी तत्परता के साथ लवर्स लेन में टहल रहा था ।

ये पतली और लम्बी सड़क थी । जिसके दोनों ओर जंगल था । चूँकि उसका इस्तेमाल नहीं होता था इसलिए सड़क पर लाइट का प्रबंध नहीं था । वहां घुप्प अंधेरा था और अंधेरा होने पर, अवसर की तलाश में लड़के-लड़कियां यहां आ जाते थे । कोई कार में, कोई स्कूटर पर और मोटर साइकिलों पर।

नौ बजने तक वहां अच्छा-खासा तांता लग चुका था । जोड़े आ रहे थे, जा रहे थे । आखिरकार सोहनलाल को अपनी मनपसंद का जोड़ा मिल गया । नई फिएट कार में बैठे अपनी ड्यूटी भुगता रहे थे । लड़की बीस के आस-पास थी और लड़का पच्चीस के ।

दोनों ही खूबसूरत थे । उनकी कार पेड़ों के झुरमुट में खड़ी थी ।

सोहनलाल सावधानी से आस-पास देखता हुआ कार के पास पहुंचा और बिना क्षण गंवाये ड्राइवर की सीट वाला डोर खोलकर भीतर प्रवेश कर गया । पलक झपकते ही, जेब से निकली रिवाल्वर निकालकर उन पर तान दिया ।

दोनों पिछली सीट पर मौजूद थे । फौरन छिटककर अलग हो गये। चेहरों पर हड़बड़ाहट और बौखलाहट उभर आई । परन्तु रिवाल्वर को देखकर आंखें भय से फट गईं । दोनों ने कसकर एक-दूसरे को पकड़ लिया । उनके बदन थर-थर कांपने आरंभ हो गये थे । चेहरे पीले पड़ गये ।

सोहनलाल रिवाल्वर ताने बेहद शांति से उनके चेहरे देखता रहा । कुछ देर तक वहां चुप्पी छाई रही । लड़के-लड़की का आतंक चरम सीमा पर पहुंच गया तो सोहनलाल ने अपनी आवाज में दरिंदगी भरकर कहा ।

"अगर चिल्लाने की कोशिश की तो मैं तुम दोनों को शूट कर दूंगा। और किसी को मालूम भी नहीं होगा, क्योंकि रिवाल्वर में साइलेंसर लगा हुआ है । गोली की आवाज भी नहीं आयेगी । अरे रिवाल्वर को क्या घूर रहे हो । साइलेंसर तुम्हें दिखाई नहीं देगा, ये रिवाल्वर का बिल्कुल नया मॉडल है । साइलेंसर इसके बीच में ही फिट है । कहो तो गोली चलाकर दिखाऊँ।"

लड़की के कंठ से घुटी-घुटी चीख निकली और उसने भय से लड़के को दोनों बांहों में जकड़ लिया । दोनों थर-थर कांप रहे थे ।

"हमारे प-पास कुछ नहीं है जो है, वो तुम्हें दे देते हैं । लड़की ने साहस करके कहा ।

"नहीं बच्चों, तुम मुझे गलत समझ रहे हो...। मैं कोई लुटेरा नहीं हूं ।" सोहनलाल की आवाज एकाएक मुलायम हो गई--- "दरअसल मैं मुसीबत में फंसा इंसान हूँ । कुछ खतरनाक लोग मेरे पीछे हैं। वो मेरी जान लेना चाहते हैं और मेरी तलाश में शहर का चप्पा-चप्पा छान रहे हैं । मैं शहर से बाहर निकलना चाहता हूं, और तुम दोनों मेरी सहायता कर सकते हो ।"

"म-मैं समझा नहीं, अ-आप क्या कह रहे हैं ।"

"बात आने पर सब कुछ समझा दूंगा...आज रात तुम दोनों को मेरे साथ-साथ रहना होगा । कोई चालाकी की तो गोली मार दूंगा ।"

"न-नहीं हम कोई चालाकी नहीं करेंगे ।" लड़का घबराकर बोला ।

"ये तो बहुत अच्छी बात कही तुमने, क्योंकि मैं जब भी किसी का कत्ल करता हूँ तो मुझे बहुत दुख होता है। अब तुम यहां आ जाओ और मैं लड़की के साथ पिछली सीट पर बैठ जाऊंगा ।

"न...नहीं....।" लड़की के कंठ से चीख निकली ।

"क्या नहीं...?" सोहनलाल गुर्राया ।

लड़की की घिघ्घी बंध गई । लड़का घबरा उठा ।

"आप फिक्र न करें, ये घबरा गई है । अभी ठीक हो जायेगी । लड़के ने शीघ्रता से कहा । वो डर रहा था कि सोहनलाल कहीं गोली न मार दे ।

"तुम आगे आओ ।" सोहनलाल क्रोध से बोला ।

लड़का फौरन कार के भीतर ही सीट पार करके आगे आया और सोहनलाल पिछली सीट पर पहुंच गया । लड़की सहमकर सीट के कोने में सिमट गई ।

"कार स्टार्ट करो और यहां से निकलो।"

लड़के ने कार स्टार्ट करके बैक की और फिर तेज रफ्तार से चलाते हुए लवर्स लेन से बाहर, खुली सड़क पर आ गया ।

"तुम दोनों का क्या रिश्ता है ? शादी का प्रोग्राम है या खाली-पीली मौज-मस्ती हो रही है ?" सोहनलाल ने शांत भाव में पूछा।

"शादी करने वाले हैं ।" लड़की ने सूखे होंठों पर जीभ फेरकर कहा ।

दस मिनट तक सोहनलाल के बताये रास्ते पर चलकर कार्ड रुक गई । सोहनलाल ने आसपास देखा । ये शहर की उजाड़ जगह थी।

"तुम नीचे उतरो और वो सामने पुलिया के पीछे कुछ पैकेट पड़े हैं । उन्हें लेकर आओ । मेरी तरफ क्या देख रहे हो । जल्दी करो ।"

लड़का दरवाजा खोलकर, तेज-तेज कदमों से पुलिया की तरफ बढ़ गया ।

सोहनलाल ने लड़की को देखा । अकेली होने पर वो थरथर कांपने लगी थी ।

"घबराओ नहीं बेटी ! मैं तुम्हारे बाप के बराबर हूँ । मुसीबत में न होता, तो तुम दोनों की तरफ आंख उठाकर भी न देखता।

लड़की गहरी सांस लेने लगी ।

लड़का पुलिया के पीछे पड़े पैकेट उठाकर ले आया । सोहनलाल ने पैकेट थामे और एक डिब्बा लड़की की तरफ बढ़ाकर बोला ।

"इसमें दुल्हन की साड़ी, पेटीकोट और ब्लाउज है । इसे ले जाओ और बिना कोई सवाल किये, पेड़ों के पीछे जाकर पहन आओ। एक बात का ध्यान रखना अगर तुमने भागने की कोशिश की तो मैं तेरे आशिक को गोलियों से भून दूंगा और तेरे आशिक ने भागने की कोशिश की तो मैं तुझे गोलियों से भून दूंगा । तीसरे अगर तुम दोनों ने भागने की चेष्टा की तो, मैं तुम दोनों को गोलियों से भून दूंगा।"

लड़की ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी और डिब्बा थामे बाहर निकलकर सामने दिखाई दे रहे पेड़ों की तरफ बढ़ गई।

"ज-जल्दी आना...।" लड़के ने गले में बड़ा-सा कांटा चुभ रहा था।

लड़की के जाने के बाद, सोहनलाल हाथ में रिवाल्वर लिये कार से नीचे उतर आया, फिर रिवाल्वर दांतों में दबाया और अपने कपड़े उतारने के पश्चात ड्राइवर वाली वर्दी पहनी तथा सिर पर वर्दी से मैच करती टोपी पहन ली।

कुछ ही देर में लड़की सुर्ख साड़ी और ब्लाउज पहने वहां आ गई ।

"गुड ।" सोहनलाल ने प्रसन्नता से लड़के से कहा--- "अब तुम कार ले आओ और इसे फूलों से सजाकर ऐसे लाओ, जैसे ब्याह के पश्चात डोली सजी कार होती है।"

लड़का सिर हिलाकर कार में बैठा जैसा कि सोहनलाल ने कहा ।

"तुम्हें याद है न कि अगर तुम वापस न आये तो मैं क्या करूंगा ?"

"हाँ। त-तुम लड़की को मार दोगे ।"

"तुम्हारी याददाश्त बहुत अच्छी है । पुलिस को इन्फॉर्म करने पर भी यही होगा ।"

"मैं...में कुछ नहीं करूंगा । आधे घंटे में वापस आ जाऊंगा ।

"तुम्हारी मर्जी है । आना हो तो जाना, नहीं तो घर जाकर सो जाना।"

लड़का कार तेजी से आगे बढ़ा ले गया ।

सोहनलाल कमर पर हाथ बांधे बेचैनी से टहलने लगा । लड़की चंद कदम दूर पेड़ से टेक लगाकर सोहनलाल को देखती रही । अब उसे विश्वास हो रहा था कि सोहनलाल किसी और तरह का नुकसान नहीं पहुंचायेगा । उसे सिर्फ अपने काम से मतलब है ।

आधे घंटे में लड़का कार को फूलों से सजाकर ले आया ।

सोहनलाल को राहत मिली, वरना उसे शक था कि लड़का उड़न-छू न हो जाये ।

"चलो । अब किसी ब्यूटी पार्लर जाकर, लड़की पर दुल्हन का मेकअप कराना है ।"

■■■

"तुम दोनों के नाम...?"

"मेरा दीपक है, ये रजनी ।" लड़के ने फौरन उत्तर दिया।

सोहनलाल ड्राइवर की वर्दी पहने कार चला रहा था । पिछली सीट पर दीपक और उसके साथ रजनी दुल्हन के मेकअप में बैठी थी । साड़ी के घूंघट के कारण आधा माथा ढका हुआ था ।

कार तेजी से शहर की सीमा की तरफ दौड़ी जा रही थी । कार पर फूल-ही-फूल, हार के रूप में चारों तरफ पड़े हुए थे । बिल्कुल डोली से सजी कार लग रही थी । सोहनलाल जानता था कि तीरथराम पाहवा की निगाहों से बचना आसान काम नहीं था।  शहर के हर नाके पर उसके आदमी मौजूद होंगे । इसलिए डोली से सजी कार में ड्राइवर के रूप में छिपकर, उसने भागने की योजना बनाई थी । उसे पूरा विश्वास था कि इस तरह उस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जायेगा ।

"आप...हमें कहां ले जा रहे हैं ?" दीपक ने साहस इकट्ठा करके पूछा ।

"घबरा मत बेटे । हम सिर्फ राजगढ़ तक ही जा रहे हैं । वहां पहुंचकर तुम दोनों आजाद हो और कहीं भी जा सकते हो।"

कार तेजी से भागती रही । सोहनलाल का ख्याल गलत नहीं था । शहर की सीमा पर नाकाबंदी की गई थी । सीमा, बैरियर पर कारें खड़ी दिखाई दे रही थी । पुलिसिये दूर से ही मुस्तैद दिखाई दे रहे थे ।

सोहनलाल ने कार आखिरी कार के पीछे खड़ी कर दी ।

"तुम्हें मालूम है ना, क्या और कैसे बात करनी है ?"

"ज...जी...।" दीपक सूखे होंठों पर जीभ फेरकर बोला ।

"चेहरे पर बारह क्यों बज रहे हैं ? मुस्कुराओ, ये मत भूलो कि तुम शादी करके आ रहे हो, अपनी माँ की चिता की आग देकर नहीं।"

दीपक सकपकाया, और कठिनता से चेहरे को सामान्य बनाया । टूटी-फूटी मुस्कुराहट भी किसी प्रकार अपने चेहरे पर ले आया ।

"साला ठुल्ला आ रहा है ।"

सोहनलाल की आवाज सुनकर दीपक ने खिड़की से बाहर देखा । एक हवलदार डंडा घुमाते हुए कार तक आ पहुंचा था । सोहनलाल खानदानी ड्राइवर की तरह अपनी सीट पर चुप्पी साधे बैठा रहा । कार के भीतर की 'डोम लाइट' ऑन थी । रजनी  घूंघट ओढ़े पूर्वतः मुद्रा में थी।

"कार में क्या है ?" हवलदार ने पूछा और भीतर झांकने लगा ।

"कुछ नहीं हवलदार साहब ।" दीपक बोला, "डोली की कार है । साथ में मेरा ड्राइवर है, लेकिन बात क्या है, इतनी पूछताछ क्यों ?"

"एक बहुत ही खतरनाक मुजरिम की तलाश की जा रही है। ठहरो, मैं साब से बात करके आता हूँ...।" कहने के पश्चात हवलदार वापस चला गया ।

आगे वाली कार की जांच-पड़ताल हो रही थी ।

"सुनो तुमने...?" सोहनलाल हंसा--- "यहां लोग खतरनाक मुजरिम की तलाश कर रहे हैं । यानी मुझे, जबकि मैंने यहां कोई जुर्म नहीं किया । ये हरामजादे जनता के रक्षक हैं । तीरथराम पाहवा के हाथों के खिलौने ।"

"तीरथराम पाहवा ?"

"ये तो अंडरवर्ल्ड का दादा है ।"

"हाँ । उसी हरामजादे से बचने की कोशिश कर रहा हूँ । मुझे तलाश करने के लिये कुत्ते ने शहर की पुलिस भी बिखरा दी है ।"

दीपक मुंह फाड़े सोहनलाल को, देखता रह गया ।

"आपकी तीरथराम पाहवा से दुश्मनी है ?"

"सुनकर, तेरी माँ क्यों मरी जा रही है ?" सोहनलाल ने कड़वे स्वर में कहा, तो दीपक सकपकाकर बाहर देखने लगा ।

तभी हवलदार इंस्पेक्टर के साथ आता दिखाई दिया । कार की हैडलाइट में उनके शरीर चमक रहे थे । साथ में एक बिना वर्दी का व्यक्ति था।  सोहनलाल की आंखें सिकुड़ गई।  इसमें दो राय नहीं कि वो व्यक्ति का आदमी था और उन्हीं कमांडो में से एक था जो उसे फ्लैट पर लेने आये थे। सोहनलाल की दोनों हाथ स्टेयरिंग पर कस गये । चेहरा भी पत्थर की भांति सपाट हो गया ।

"डोली कहां से आ रही है...?" पास आते ही इंस्पेक्टर ने पूछा ।

"सिकंदराबाद से इंस्पेक्टर साहब...। आपको अगर किसी मुजरिम की तलाश है, तो उसे तलाश कीजिए। हमसे इतने प्रश्न क्यों पूछ रहे हैं ?" दीपक ने झल्लाहट का प्रदर्शन किया। ।

पाहवा का आदमी आगे बढ़ा । उसने पहले दीपक के चेहरे को देखा, फिर रजनी का चेहरा घूंघट उठाकर देखा, तत्पश्चात उसकी निगाहें सोहनलाल की पीठ पर केंद्रित हो गयीं, जो वर्दी में बुत की भांति सीधा बैठा था ।

"ड्राइवर साहब, अपना चेहरा तो दिखाइये ।" पाहवा का आदमी बोला ।

सोहनलाल दांत किटकिटा कर रह गया । ये आदमी उसका चेहरा बहुत अच्छी तरह पहचानता था । गर्दन घुमाने का मतलब था मुसीबत में फंसना । उसे पहचानते ही उसने रिवाल्वर निकाल लेनी थी । वक्त गंवाना यहां मूर्खता थी । सोहनलाल ने पहली गियर डाली और एक्सीलेटर पर पूरा पांव दबा दिया।

कार जोरो से उछली, पाहवा का आदमी और इंस्पेक्टर छिटककर दूर हो गये । स्टेयरिंग घुमाते हुए सोहनलाल ने सामने खड़ी कारों से कार को बचाया और आगे बढ़ाता ले गया ।

पचास गज के फासले पर खाली ड्रम सड़क के बीचो-बीच कतार के रूप में खड़े थे । सोहनलाल ने परवाह न की और ड्रामों को टक्कर मारता हुआ, कार भगाता ले गया ।

ये सब सिर्फ चन्द सेकेण्डों में हो गया।

पाहवा का आदमी तेज रफ्तार से भागा और इंस्पेक्टर की मोटरसाइकिल स्टार्ट करके, कार के पीछे डाल दी।

"ये आपने क्या किया...?" दीपक हड़बड़ाया-सा बोला ।

सोहनलाल के दोनों हाथ स्टेयरिंग पर और पांव एक्सीलेटर का दबाये हुए था ।

"वो पाहवा का आदमी था और मुझे पहचानता था...।"

सोहनलाल ने भिंचे दांतों से कहा--- "तुम आगे वाली सीट पर आ जाओ ।"

"क-क्यों ?"

"कोई हरामजादा ।" सोहनलाल बैक मिरर में देखता हुआ बोला--- "मोटरसाइकिल पर हमारा पीछा कर रहा है । तुम ड्राइविंग सीट संभालो मैं कार छोड़ना चाहता हूँ ।"

दीपक बिना आनाकानी किए आगे वाली सीट पर आया ।

ड्राइविंग सीट संभाल ली । अदला-बदली करते समय कार थोड़ी-सी ठहराई और फिर सीधी चलने लगी । इतने में ही दीपक का चेहरा पसीने से भर गया था । वह बार-बार बैक मिरर में पीछे आ रही मोटरसाइकिल को देख रहा था ।

"कार की रफ्तार पूरी तेज कर दो ।"

दीपक ने ऐसा ही किया । रजनी ने घूंघट उठा दिया था । वह आतंकित दिखाई दे रही थी । चेहरे का मेकअप पसीने से खराब हो रहा था ।

"आगे-पीछे की लाइट बुझा दो।"

दीपक ने सोहनलाल के शब्दों पर तवज्जो दी और हैडलाइट, टेल लाइट बुझा दी । डोम लाइट तो पहले ही बुझा दी गई थी ।

"एक्सीडेंट हो जायेगा ।" हैडलाइट बुझाने के कारण दीपक अंधेरे में ठीक तरह से देख भी नहीं पा रहा था । वहां स्ट्रीट लाइट गायब थी।

"हो जाने दो ।" सोहनलाल गर्दन घुमाकर, पीछे आ रही मोटरसाइकिल को देख रहा था । जबड़े भिंचे हुए थे । कार और मोटरसाइकिल के बीच दो सौ गज का फासला था । जो कि कम-अधिक हो रहा था ।

"कुछ आगे जाकर कार की स्पीड कम करना ।" सोहनलाल बोला ।

"क्यों ?"

"मैं कार से कूद जाऊंगा । उसके बाद तुम कार को सीधा बढ़ाते ले जाना । तुम लोग वापस जा सकते हो । पीछे आने वाले को समझा देना कि तुम दोनों रिवाल्वर के दबाव के तहत सब कुछ कर रहे थे।"

कार में दिखा सन्नाटा व्याप्त रहा ।

दीपक ने कार सीधी की और सोहनलाल लम्बी कूद के सहारे सड़क किनारे बनी झाड़ियों में गिरा । बदन में कई जगहों से खरोचें आ गई । वो फौरन सीधा हुआ और दूर जा रही कार को देखने लगा । जिसकी लाइटें अब रोशन हो उठी थीं।

तभी कुछ गज दूर तेज शोर के साथ सड़क पर मोटरसाइकिल निकल गई । सोहनलाल के होंठों पर मुस्कान आ गई । वो उठकर कपड़े झाड़ने लगा । सिर पर पड़ी कैप तो छलांग लगाते समय ही गिर गई थी, फिर वो जंगल के रास्ते वापस उसी शहर चल पड़ा जहां से वो भागा था।

■■■

रात भर पैदल चलते-चलते जब थक गया, तो जंगल में ही कोई मुनासिब जगह देख कर सो गया । सुबह मुंह अंधेरे ही चल पड़ा । सूर्य की पहली किरण के साथ ही सोहनलाल ने शहर में प्रवेश किया । उसे पूरा विश्वास था कि पाहवा को उसके शहर से फरार होने की खबर मिल गई होगी । रात साढ़े दस बजे वो बैरियर तोड़कर भागा था । इस बात को अब साढ़े आठ घंटे बीत चुके थे।  अब तक तो रो-धोकर भी शांत हो चुका होगा । साथ ही उसे इस बात का शत-प्रतिशत विश्वास था कि उसकी कमरे की निगरानी नहीं हो रही होगी, क्योंकि पाहवा एंड कंपनी की निगाह में वो शहर से बाहर था।

टैक्सी पकड़कर वो अपने फ्लैट की तरफ रवाना हो गया । रास्ते में लाल बत्ती पर जब टैक्सी रुकी तो उसने अखबार खरीद लिया ।

फ्लैट से कुछ पहले टैक्सी रुकवाकर उसे चलता किया और कुछ सावधानी से पैदल ही आगे बढ़ने लगा।

जब उसे पूरा विश्वास हो गया कि उसके फ्लैट की निगरानी नहीं हो रही तो, वो आगे बढ़ा और ताला खोलकर कमरे में प्रवेश कर गया । गंदे नाले से उठती दुर्गंध का भभका उसके सांसो में टकराया । उसने आहत भाव से खिड़की को देखा, जिसके पीछे पानी का नाला बह रहा था, फिर कपड़े उतार कर बाथरूम में प्रवेश कर गया ।

नहा-धोकर उसने कपड़े बदले और सिगरेट सुलगाकर, अखबार लिए चारपाई पर जा बैठा । अखबार के प्रथम पृष्ठ पर निगाह पड़ते ही उसके जिस्म में सनसनी-सी दौड़ गई । मस्तिष्क झनझनाकर रह गया । शरीर के रोयें, बदन में सिहरन-सी पैदा करने लगे । आंखें फटकर चौड़ी हो गई । धोखे वाली बात बिल्कुल नहीं थी।

प्रथम पृष्ठ पर दीपक और रजनी की लाशों की तस्वीरें थीं । जिन्हें नेशनल हाईवे नम्बर छः पर मारा गया था । दीपक के शरीर में दो गोलियां पाई गईं और रजनी को मारने से पूर्व उसके साथ बलात्कार किया गया, फिर उसे शूट किया गया । पुलिस हत्यारे के की तलाश कर रही है । तस्वीरों के साथ न्यूज़ में सिर्फ यहां छपा था । उसके नीचे इंस्पेक्टर पाल देशमुख के परिवार वालों की हत्या का विवरण और मृतकों की तस्वीरें छपी हुई थी । खबर में कहा गया था कि यह हत्यायें जाति रंजिश की वजह से की गई हैं। पुलिस सरगर्मी से हत्यारों को पकड़ने की चेष्टा कर रही है।

■■■

दो मासूमों को बिना वजह मार दिया गया । सोहनलाल का मस्तिष्क पागल हुआ जा रहा था । दीपक और रजनी उसके कारण ही मारे गये थे । उनको दरिंदगी से मारा गया था । रजनी के साथ बलात्कार किया गया और ये सब उसी ने किया होगा जो मोटरसाइकिल पर उनके पीछे आ रहा था ।

उसका चेहरा सोहनलाल की आंखों के सामने घूम गया । मन-ही-मन उसने दृढ़ निश्चय किया कि दीपक और रजनी की मौत का बदला उसकी जान लेकर लेगा, जबकि आज तक सोहनलाल ने किसी का कत्ल नहीं किया था । आदतन वह खून-हत्या से खार खाने वाला व्यक्ति था। परन्तु अगर दिमाग बदल जाये, तो उससे बड़ा जिद्दी कोई नहीं था । हथियार रखना उसके उसूल के खिलाफ था, लेकिन अब उसे हथियार की सख्त जरूरत महसूस होने लगी ।

वह बाहर निकला और कमरे को ताला मारकर बाजार की तरफ बढ़ गया।  नाश्ता करने के पश्चात, बिल चुकाया और सिगरेट सुलगाकर बाहर आ गया । उसे कोई ऐसी जगह तलाश करनी थी, जहां से रिवाल्वर मिल सके ।

तभी सोहनलाल की पीठ पर किसी ने हाथ रखा । सोहनलाल बिजली की-सी तेजी से घूमा। वो हर प्रकार के खतरे से निपटने के लिये तैयार था । परन्तु पीछे वाले का चेहरा देखते ही ठिठक गया । वह सुन्दर लाल था । जेबकतरा सुन्दर लाल।

सुन्दर लाल ने आस-पास देखा, फिर दबे स्वर में बोला।

"उस्ताद, मेरे पीछे आओ ।"

कहने के पश्चात वो मुड़ा और आगे बढ़ गया । सोहनलाल असमंजसता से भरी निगाहों से उसे देखता रहा, फिर होंठ काटते हुए उसके पीछे चलने लगा ।

दस मिनट चलने के पश्चात वो एक मकान में घुसा और दाईं तरफ बने कमरे के बाहर लटक रहा ताला खोलकर भीतर प्रवेश कर गया। सोहनलाल उसके साथ था । भीतर आते ही सुन्दर लाल ने दरवाजा बंद किया और बोला ।

"क्यों उस्ताद जीने से तंग आ गये हो क्या ?"

सोहनलाल ने गहरी निगाहों से उसे देखते हुए सिगरेट सुलगाई फिर कुर्सी पर बैठकर, एक टांग दूसरी टांग पर रखकर कह  उठा ।

"क्या हुआ है ?"

सुन्दर लाल ने हड़बड़ाकर, सोहनलाल को घूरा 

"तुम पूछ रहे हो, क्या हुआ है ? हैरानी है।  तीरथराम पाहवा से दुश्मनी मोल लेने के पश्चात सरेआम घूम रहे हो । शायद मालूम नहीं, आज सुबह से ही अंडरवर्ल्ड में हंगामा मचा हुआ है । हर किसी की जुबान पर तीरथराम पाहवा और सोहनलाल यानी कि तुम्हारी ही चर्चा है पाहवा तुम्हें हर कीमत पर जिंदा पाना चाहता है । उसने इस शहर के दादाओं में भी ऐलान कर दिया है कि जो तुम्हें जिंदा पकड़कर उसके हुजूर में पेश करेगा, उसे वो मोटा इनाम देगा । रात तुम शायद भागने के चक्कर में विशालगढ़ की तरफ गये थे, इसलिये उसने विशालगढ़ के दादाओं में भी यही ऐलान किया है । अब हर कोई तुम्हें पकड़कर तीरथराम पाहवा की आंखों का तारा बनने का सपना देख रहा है।

"तुमने तारा बनने की चेष्टा क्यों नहीं की ?"

"उस्ताद, एक बार तो मैं जरूर कोशिश करता, अगर तुम्हारी जगह कोई और होता । मैं एहसान-फरामोश नहीं हूँ, जो भूल जाऊं मेरी ये जिंदगी तुम्हारी दी हुई है । उस दिन तुम मुझे न बचाते तो वो हरामजादे दादा लोग मुझे काटकर किसी गंदे नाले में बहा देते तुम्हारे कहने पर ही उन लोगों ने मेरी जिंदगी बख्शी थी, फिर मैं तुम्हें मौत के मुंह में ले जाने की कोशिश कैसे कर सकता हूँ ?"

सोहनलाल के चेहरे पर अजीब-सी मुस्कान आ गई ।

"हो तो जेबकतरे, लेकिन ईमान बहुत ऊंचा पाया है ।"

"लेकिन उस्ताद तुम बम्बई वाले सोहनलाल नहीं हो, यहां तो सबको मालूम हो चुका है । अब ये बताओ कि तुमने झूठ क्यों बोला ?"

"मेरा तो धंधा ही यही है ।" सोहनलाल हंसा, "किसी नये शहर में जाता हूँ और खुद को दूसरे शहर के अंडरवर्ल्ड का दादा साबित करके माल झाड़कर रफूचक्कर हो जाता हूँ।  बहुत माल पीटा है इस धंधे से, लेकिन इस बार पाहवा के बीच में कूद पड़ने के कारण पासा पलट गया ।

"खैर कुछ भी हो उस्ताद, मैं ये नहीं दे सकता कि तुमने मेरी जान बचाई थी । तुम मुझे पूरी बात बताओ क्या हुआ था, अभी कई प्रश्न मेरे मस्तिष्क में अधूरे हैं ।"

सोहनलाल ने उसे सब कुछ बता दिया । कुछ देर वहां सन्नाटा छाया रहा ।

"उस्ताद, मैं कोशिश करूंगा अभी तुम्हें इस शहर से बाहर निकाल सकूं ।"

"नहीं ।" सोहनलाल शांत, किन्तु दृढ़ स्वर में बोला, "अभी तो इस शहर से बाहर जाने की इच्छा बिल्कुल भी नहीं है ।"

"क्यों उस्ताद ?"

"दरिंदगी की भी हद होती है । दीपक और रजनी बेकसूर थे ।

उन्हें खामखाह बर्बता से मार दिया गया।  मैं इन दो हत्याओं का सबक पाहवा को सिखाना चाहता हूँ । जिसने उन दोनों को मारा है, मैं उसे पहचानता हूँ और उसकी हत्या करने के पश्चात ही, इस शहर से बाहर जाऊंगा ।"

"क्या कह रहे हो उस्ताद ? तु-तुम पाहवा के आदमी की हत्या करोगे ?"

"हाँ ।" सोहनलाल के दांत भिंच गये, "उस हरामजादे को उसके किये की सजा जरूर दूंगा । तु...तुम...कहीं से मुझे रिवाल्वर दिलवा सकते हो ?"

सुन्दर लाल के ने गले से थूक निगली और सहमति से सिर हिला दिया । चेहरे पर भय और सफेदी उभर आई थी ।

■■■

इंस्पेक्टर पाल देशमुख ने अपनी अपनी बूढ़ी माँ, जवान बीवी की चिताओं को आग दी और नन्हे से बच्चे को पानी में बहा दिया । उसकी आंखें अंगारों की तरह लाल हो रही थी । एकाएक वो कई बरस बूढ़ा लगने लगा था । आंखों के सामने बार-बार लाशें घूम रही थीं। लाशों को अग्नि देते समय उसके डिपार्टमेंट के कई बड़े ऑफिसर वहां मौजूद थे । स्वयं एस०पी० खन्ना आया था ।

अब घर में दो-चार पुलिसवाले और चंद पड़ोसी थे।

फिर वो भी चले गये । पड़ोस की बूढ़ी और उसके साथ काम करने वाला सब-इंस्पेक्टर मेहर चंद रात भर उसके साथ रहा । इंस्पेक्टर पाल देशमुख की आंखों में नींद का नामो-निशान भी नहीं था । दिन निकलने पर वो नहा-धोकर कपड़े बदलने के पश्चात सीधा हैडक्वार्टर पहुंचा ।

इसमें कोई दो राय नहीं थी कि तीरथराम पाहवा ने ही उसके परिवार का खात्मा कराया है । गर्मा-गर्मी में वक्त नहीं मिला था । अब इस बारे में एस०पी० से बात करना चाहता था। दरवाजा धकेलकर वो भीतर आया तो एस०पी० खन्ना किसी फाईल में व्यस्त था ।

"आओ देशमुख ।" एस०पी० खन्ना सहानुभूति भरे स्वर में बोला ।

पाल देशमुख के होंठ हिले, परन्तु कोई शब्द न निकला ।

"आराम से बैठो इंस्पेक्टर पाल ।

इंस्पेक्टर पाल टूटे कदमों से चलता हुआ कुर्सी पर जा बैठा।

"जो कुछ भी हुआ उसका सख्त अफसोस है । डिपार्टमेंट पूरी कोशिश करेगा कि हत्यारों को पकड़कर, फांसी पर चढ़ा दिया जाये ।

"मुझे आपकी बात पर पूरा विश्वास है ।"

इंस्पेक्टर पाल की बात बीच में ही अधूरी रह गई । टेबल पर पड़ा फोन बजने लगा । एस०पी० खन्ना ने हाथ जोड़कर रिसीवर उठाया।

"हैलो...ओह पाहवा, कहो भई, हमारी कैसे याद आ गई । हाँ-हाँ ऐसा ही कहोगे, तुम हो ही ऐसी चीज । हाँ-हाँ-हाँ कहो । क्या आज शाम को तुम्हारा जन्मदिन है, मेरा आना जरूरी है क्या ? नहीं भई, मैं गरीब बंदा हूँ और तुम्हारे जन्मदिन पर मामूली-सा तोहफा भी दे सकता हूँ । ओ०के० माई डियर तीरथराम पाहवा । मैं शाम को हाजिर हो जाऊंगा । दोस्तों का जन्मदिन हो और मैं न आऊं ये कैसे हो सकता है ?" हंसते हुए एस० पी० खन्ना ने रिसीवर रख दिया । चेहरे पर खुशी झलक रही थी।

इंस्पेक्टर पाल देशमुख का चेहरा पत्थर की भांति सपाट हो चुका था । मस्तिष्क में सिर्फ एक ही नाम गूंज रहा था--- तीरथराम पाहवा ? क्षण भर के सौंवे हिस्से में उसने अपने मस्तिष्क से ये विचार निकाल दिया कि वो अपने परिवार के समूचे नाश कारण, "पाहवा को नहीं बतायेगा । एस०पी० खन्ना और तीरथराम पाहवा दोस्त हैं । कुछ भी कहना फिजूल होगा ।

"हाँ तो तुम क्या कह रहे थे इंस्पेक्टर पाल।"

इंस्पेक्टर पाल देशमुखी की विचारतंद्रा भंग हुई । वो सपाट स्वर में बोला।

"जी मैं कह रहा था कि मुझे पूरा विश्वास है कि डिपार्टमेंट मेरे परिवार के हत्यारों को अवश्य खोज निकालेगा ।"

"क्यों नहीं ?" आखिर ये पुलिस डिपार्टमेंट की इज्जत का सवाल है ।" एस०पी० खन्ना ने फौरन सिर हिलाया, "मैं समझ नहीं पा रहा हूँ । तुम्हारा दुख किस प्रकार बांटूँ ? अगर हत्यारे मेरे सामने आ जायें, तो मैं...मैं...।"

इंस्पेक्टर पाल देशमुख उठ खड़ा हुआ ।

"मैं चलता हूं सर ।"

"हाँ-हाँ क्यों नहीं ? तुम चाहो तो दो महीने की छुट्टी ले लो ।"

"तेहरवीं तक तो तुझे वक़्त नहीं मिलेगा, उसके बाद मैं इस बारे में सोचूंगा ।" इंस्पेक्टर पाल ने हौले से सिर हिलाया, फिर इजाजत लेकर बाहर निकल गया।

बाहर आकर वहां छांव में खड़ा हुआ और सड़क पर दौड़ते वाहनों को देखने लगा । उसका मस्तिष्क जाने कहां-कहां भटक रहा था । आंखों के कोने-कोने तक परेशानी की लहर थी। होंठ कभी भिंच जाते तो कभी लटकने लगते ।

फिर वो वहां से हिला और पैदल ही आगे बढ़ने लगा ।

जाने कब तक चलता रहा । सुबह उठने के पश्चात से अब तक कुछ भी नहीं खाया था । इसी कारण ही एकाएक पेट में दर्द-सा उठा । उसने सूखे होंठों पर जीभ फेरी और आस-पास देखा, फिर एक गली में प्रवेश कर गया।

गली के कोने में रेस्टोरेंट था । वहां से उसने चार अंडों का आमलेट खाया और बाहर निकलकर टैक्सी पकड़ ली । खाने के बीच वो फैसला कर चुका था कि उसे क्या करना है ।

तीरथराम पाहवा जैसी खतरनाक हस्ती से टकराना, उसके लिये मुमकिन नहीं था, लेकिन अपने परिवार की सामूहिक हत्या का प्रतिशोध लेना उसकी जिंदगी का अब हम हिस्सा था । कानून द्वारा उसको सजा नहीं दिलवाई जा सकती थी, क्योंकि इस शहर के कानून की धारणा सिर्फ उसके इशारे पर चलती थी । वो कानून का मामूली-सा नुमाइंदा था और कानून पाहवा के लिए खेल था, उसकी उंगलियों पर नचाता था । कानून की धाराएं तोड़कर उन्हें जोड़ना उसका शौक था । पाहवा जैसी हस्ती से टकराने का साहस आम आदमी में नहीं हो सकता था । कुछ ऐसा ही उसके साथ था । वो पुलिस ऑफिसर जरूर था, लेकिन इतना हिम्मती नहीं था कि तीरथराम पाहवा के खिलाफ जेहाद छोड़ सकता।

इन्हीं विचारों में खोया हुआ था कि टैक्सी सेंट्रल जेल के सामने रुकी । इंस्पेक्टर पाल ने किराया चुकता किया और बड़े से फाटक की तरफ बढ़ गया । वहां खड़े दोनों पहरेदार उसे बहुत अच्छी तरह जानते थे । उन्होंने इंस्पेक्टर पाल को सैल्यूट की दिया और बड़े से फाटक के बीच लगा छोटा-सा दरवाजा खोल दिया, तो वो भीतर प्रवेश कर गया । चेहरे पर सर्द भाव खा चुके थे । सिकुड़ी-सी निगाहें वहां दिखाई दे रहे कैदियों को देखने लगी । साथ ही कदम जेलर के कमरे की तरफ बढ़ते जा रहे थे । अब टांगों में कंपन नहीं हो रहा था, बल्कि चाल में दृढ़ता व्याप्त थी । चेहरा अपने द्वारा किये गये फैसले के प्रति, निर्णायक ढंग से खामोश सहमति प्रदान कर रहा था।

जेलर रामसरन गुप्ता बावन वर्षीय अच्छी सेहत वाला चुस्त व्यक्ति था । सिर पर नहीं के बराबर बाल थे । चेहरा किसी सेब की भांति सुर्ख था । पेट सामान्य ढंग से आगे बढ़ा हुआ था । किसी जमाने में होंठों पर मूंछे रखता था । परन्तु अब वो क्लीन शेव रहना ही पसंद करता था ।

कमरे के बाहर ही जेल रामरसरन गुप्ता के नाम की तख्ती लगी हुई थी । बाहर खड़ा चपरासी बीड़ी फूँकने में व्यस्त था । दूर से कैदियों का शोर, कानों में पड़ रहा था । चूँकि इंस्पेक्टर पाल यहां कई बार आ चुका था । इसलिए अमूमन हर कोई उसे पहचानता था । चपरासी ने उसे देखकर सैल्यूट दिया, बीड़ी वाला हाथ फौरन पीठ पीछे पहुंच गया।

इंस्पेक्टर पाल अपने विचारों में खोया, दरवाजा धकेलकर भीतर प्रवेश कर गया । जेलर रामसरन गुप्ता अपने ऑफिस में टहल रहा था । किसी के भीतर आने की आहट पाकर वो ठिठका और पलटकर देखा।

दोनों क्षण भर एक-दूसरे को देखते रहे । जेलर रामसरन गुप्ता के चेहरे पर दर्द के भाव विद्यमान होने लगे, जबकि इंस्पेक्टर पाल का चेहरा पत्थर की भांति हो रहा था ।

जेलर रामसरन गुप्ता आगे बढ़ा और उसके कंधे पर हाथ रखकर बोला, "कैसे हो पाल ?"

"अच्छा हूँ ।" इंस्पेक्टर पाल ने स्थिर स्वर में कहा ।

"मैंने तुम्हारे परिवार के बारे में अखबार में पढ़ा तो...।"

"बहुत दुख हुआ, यही ना ?" इंस्पेक्टर पाल ने उसकी बात काटकर अजीब-से लहजे में कहा ।

जेलर रामसरन गुप्ता ने गम्भीरता से सहमति दी ।

"सबको ही दुख होता है, ऐसी बातें सुनकर खुशी नहीं होती ।"

इंस्पेक्टर पाल वहां से हिला और शांत स्वर में कहते हुए आगे बढ़कर कुर्सी पर बैठ गया--- "आपकी बेटी राधिका कैसी है ?"

"अच्छी है । उसे बहुत अच्छे ससुराल वाले मिले हैं ।" रामसरन गुप्ता उसे गहरी निगाहों को देखने लगा। 

इंस्पेक्टर पाल काफी देर तक कुछ नहीं बोला । खामोश बैठा टेबिल पर फैला रखे अपने हाथों को देखता रहा ।

रामसरन गुप्ता उसके सामने टेबल कुर्सी पर बैठता हुआ बोला ।

"अपने पर काबू रखो पाल, जिंदगी में कभी-कभी ऐसा...।"

"जेलर साहब ।" इंस्पेक्टर पाल की आंखें जल उठीं, चेहरा सुलग उठा, "मेरी बूढ़ी माँ, जवान बीबी, छोटा-सा बच्चा निर्ममता से मार डाला गया और आप कहते हैं, मैं खुद पर काबू रखूं, बहुत खूब । दूसरों को तसल्ली देने की कला सबको आती है, परन्तु खुद को तसल्ली पर रखना बहुत कठिन होता है । सिर्फ तीन साल पहले की बात है जब कुछ बदमाशों ने आपकी बेटी राधिका का अपहरण कर लिया था । तब रोते हुए आपने मेरे पांव पकड़ लिए थे कि मैं आपकी बेटी को बचा लूंगा । तब, जबकि वो जिंदा थी, आप दहाड़े मार-मार कर रो रहे थे । मेरा तो सब कुछ खत्म हो चुका है और आप कहते हैं कि मैं अपने पर काबू रखूं।"

जेलर रामसरन गुप्ता ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी । चेहरे पर दर्द के भाव लहरा रहे थे । आंखों में इंस्पेक्टर पाल के प्रति दया थी ।

"तब, जबकि आपकी बेटी बदमाशों के कब्जे में थी, मैंने तीन दिन, बिना सोये भाग-दौड़ करके आपकी बेटी को बचा लिया था । याद है आपको ?"

"म...मैं ये कैसे भूल सकता हूं ?" रामसरन गुप्ता मन-ही-मन तड़प उठा--- "तुमने तब मुझे नई जिंदगी दी थी । मेरे परिवार को तबाह होने से बचाया था। मेरी बेटी की जिंदगी आज तुम्हारी ही दी हुई है, लेकिन तु-तुम कहना क्या चाहते हो ?"

"जब मैंने आपकी बेटी को आपके हवाले किया था, तो याद है आपने क्या कहा था ?" इंस्पेक्टर पाल की हालत विक्षिप्तों की भांति हो रही थी । आंखों में आंसुओं से डूबे अंगारे भड़क रहे थे--- "आपने कहा था कि जिंदगी में कभी मेरी जान की जरूरत पड़े तो बेटा, बेहिचक मेरे पास आ जाना है ।"

"हाँ ।" रामशरण गुप्ता के चेहरे के भाव बदल गये--- "मैं एक बार कहने के पश्चात भूलता नहीं । मुझे अच्छी तरह याद है कि मैंने यही कहा था और आज भी यही कहता हूँ, बोलो किस रूप में आज तुम्हें मेरी जान की जरूरत है ? चूँकि मैं तुम्हारे अहसान के नीचे हूँ, इसलिए तुम्हारा एक इशारा मेरे लिये काफी होगा। मेरे होंठों से न नहीं निकलेगी, आजमाकर देख लो । बोलो क्या चाहते हो ?" जेलर रामसरन गुप्ता के चेहरे पर असीम दृढ़ता के भाव छा चुके थे ।

इंस्पेक्टर पाल ने सर्द निगाहों से रामसरन गुप्ता को देखा, फिर कुर्सी से उठकर पीछे खुला दरवाजा बंद किया और पलटकर बोला---

"जेलर साहब, मुझे आपकी जान नहीं, शंकर दास चाहिये ।"

"शंकर दास ?" जेलर रामसरन गुप्ता चौंककर, उछल पड़ा । हैरानी से फटी-फटी निगाहें उस पर जा टिकीं ।

"हाँ जेलर साहब । मुझे शंकरदास चाहिये ।" इंस्पेक्टर पाल एक-एक शब्द चबाकर बोला, "आज ये जानने का वक्त आ गया है कि आप वास्तव में मेरे अहसान के नीचे हैं या आज तक डायलॉग ही बोलते रहे हैं।"

"तु-तुम पागल हो गये हो क्या ?" जेलर रामसरन गुप्ता स्थिर स्वर में कह उठा । शंकर दास बहुत ही बर्बर, जालिम और दरिंदा है । शहर में शेर आ जाये तो इतना आतंक नहीं उठेगा । जितना कि शंकर दास की खुलेआम सड़क पर आ जाने से पैदा होगा । तु-तुम तो शंकर दास को भलीभांति जानते हो । उसे तुमने ही तो पकड़ा था । मैं आज तक हैरान हूँ कि वो तुम्हारे काबू में कैसे आ गया, जबकि तुम्हारे जिस्म में, उसके द्वारा चलाई गई दो गोलियां धंसी हुई थीं।"

"तभी तो शंकरदास की जरूरत है मुझे, क्योंकि ये मैं हीं जानता हूँ, वो कितना खतरनाक दरिंदा है । लोगों ने तो उसके कारनामे सुने हैं, जबकि मैंने उसे टक्कर दी थी । आज वही दरिंदा मेरे दिल में जल रही तीन चिताओं की आग को ठंडा कर सकता है ।"

"क-क्या मतलब ?" जेलर रामसरन गुप्ता ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी ।

"जेलर साहब मेरे खानदान को जिसने गोली से उड़ा दिया है, उसे मैं बहुत अच्छी तरह जानता हूँ और इतनी अच्छी तरह ये भी जानता हूं कि मैं उससे अपने खानदान की तबाही का बदला नहीं ले सकता, लेकिन शंकरदास बखूबी उसे टक्कर ले सकता है । मैं शंकर दास को मोहरा बनाना चाहता हूँ । शंकर दास उस इंसान का एक-एक जर्रा बिखरा कर रख देगा।"

"नहीं ।" जेल रामसरन गुप्ता बेचैनी से दोनों हाथ मलता हुआ बोला, "ये सरासर असंभव बात है । आज सत्रह तारीख है । इक्कीस को उसे फांसी हो रही है । शंकरदास तुम्हें नहीं मिल सकता पाल ।"

"आप चाहें तो मुझे मिल सकता है ।" इंस्पेक्टर पाल के जबड़े भिंच गये । आंखों में लाली व्याप्त हो गई, "शंकर दास को फरार करवाया जा सकता है । मैंने आपकी बेटी की इज्जत और उसकी जान बचाई थी । इस बात को ध्यान में रखकर मेरी बात का जवाब दीजियेगा जेलर साहब । आपने मुझे वचन दिया था कि वक्त आने पर आप मुझे अपनी जान भी दे सकते हैं । आज मैं मुसीबत में हूँ पर आपकी जान नहीं, सिर्फ सहायता चाहिये । शंकर दास को फांसी नहीं होनी चाहिये । आज की तारीख में शंकरदास मेरे लिए बहुत ही कीमती चीज है ।"

"पागल मत बनो पाल...मैं...।"

"मुझे बहलाने की चेष्टा ना कीजिये जेलर साहब, क्योंकि जब आपकी जवान बेटी का अपहरण किया गया था, तो मैंने आपको बहलाया नहीं था बल्कि अपनी औकात से ज्यादा मेहनत और दौड़-धूप करके उसे अपनी ही बहन समझकर, तलाश करने की चेष्टा की और कामयाब भी रहा । आपकी बेटी को तलाश करने का वायदा किया था और वायदा पूरा करके दिखाया था जेलर साहब । दोनों हाथ फैलाकर, मजबूरी जाहिर करते हुए नहीं कहा था कि नब्बे करोड़ जनसंख्या में से आपकी बेटी को कैसे तलाश करूँ । क्योंकि आपने अपनी इज्जत की दुहाई देते हुए मेरे पांव पकड़ लिए थे और रो रहे थे। जवान बेटी के अपहरण होने के दुख का अहसास तो मुझे नहीं हो सकता था, लेकिन मैं महसूस अवश्य कर सकता था और मैंने महसूस किया था, तभी तो मैंने आपसे वायदा किया था कि आपकी बेटी को जल्द-से-जल्द ढूंढ कर ला दूंगा।  ठीक इसी तरह आप ये महसूस कीजिए कि मेरे परिवार को गोलियों से उड़ा दिया गया है उनकी चिताओं के अंगारे मेरी छाती पर बोझ बने सुलग रहे हैं।

जेलर रामसरन गुप्ता बुत की मानिंद उसे देखता रहा ।

"आपने कहा था कि मेरे परिवार की मौत का आपको दुख है । अगर वास्तव में दुख है, तो मेरा दुख बाँटिये जेलर साहब । आपकी बेटी तलाश करके मैंने आपसे वास्तव में अहसान किया था कि वक्त आने पर आप मेरे लिए अपनी जान भी दे देंगे, अगर ये वायदा सच्चा था तो इस वादे को पूरा कीजिये जेलर साहब ! अगर आप ये सब नहीं कर सकते तो मर्दों की तरह मुंह खोलकर इंकार कर दीजिये, ताकि मैं किसी और शंकर दास की तलाश कर सकूं।"

जेलर रामसरन गुप्ता की मुद्रा में कोई परिवर्तन नहीं आया ।

भिंचे दांतो से इंस्पेक्टर पाल ने टेबल पर रखी घंटी पर हाथ मारा । बाहर घंटी बजने की आवाज सुनाई दी ।

"मैं शंकर दास से मिलना चाहता हूँ । किसी को मेरे साथ कर दीजिये ताकि मुझे उसके साथ छोड़ आये।" इंस्पेक्टर पाल की आंखों में देखता हुआ कह रहा था--- "वापसी पर मैं आपसे अपनी बात का जवाब लूँगा, तब तक सोच लीजियेगा।"

तभी दरवाजा खुला और बाहर खड़े चपरासी ने भीतर प्रवेश करके सैल्यूट दिया--- "हुकुम साब ।"

जेलर साहब कुछ सामान्य स्थिति में आया ।

"वार्डन राजकिशोर को बुलाओ ।" जेलर ने धीमे स्वर में कहा और चपरासी उससे सैल्यूट मारकर बाहर निकल गया ।

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