1 मई : शुक्रवार

“बाप!”
एक हैरान आवाज़ उसके कान में पड़ी।
वो किचन का कुछ सामान खरीदने बाजार आया था। उसके हाथ में खरीदे सामान से भरा कैनवस का झोला था जबकि वो आवाज़ उसे सुनाई दी थी। वो नहीं जानता था कि कोई उससे, ख़ास उससे, मुख़ातिब था फिर भी रिफ़्लैक्स एेक्‍शन में वो घूमा, उसने अपने सामने निगाह डाली।
दाता!
सामने विक्टर खड़ा था।
टैक्सी ड्राइवर विक्टर। उसका मुरीद विक्टर।
केवल एक क्षण के लिए विमल की उससे निगाह मिली थी। फिर उसने ज़ाहिर किया कि पुकार उसके लिए नहीं थी और घूम कर निकल लेने की कोशिश की।
“बाप, जाने का नहीं, वर्ना मैं पैसेंजर छोड़ के, भाड़ा छोड़ के पीछे आता है।”
विमल ठिठका।
वो अपनी टैक्सी से बाहर खड़ा था, उसका पैसेंजर भी टैक्सी से बाहर था और भाड़ा चुकता करने के लिए बटुवे से नोट निकाल कर गिन रहा था।
विमल वापिस घूमा और आगे बढ़ चला।
विक्टर उसके पीछे लपका।
“अबे, भाड़ा!”– पैसेंजर चिल्लाया।
“नहीं माँगता।” – विक्टर बिना घूमे उच्च स्वर में बोला – “आज टैक्सी फ़्री। मे डे है। इस वास्ते।”
“साला, खजूर!”
विक्टर विमल का रास्ता रोक कर उसके सामने जा खड़ा हुआ।
“बाप, मैं . . .”
“अरे, कौन बाप!” – विमल ने नकली नाराज़गी जताई – “मैं गुरुद्वारे का कारसेवक हूँ।”
“अरे, मैं विक्टर . . .”
“मैं गुरुद्वारे का . . .”
“बाप, बोम नहीं मारने का। कुछ महीनों में मैं साला हाफ ब्लाइन्ड या थ्रीक्वार्टर ब्लाइंड नहीं हो गयेला है। मैं अक्‍खा चौकस देख रहेला है, मेरे सामने सोहल खड़ेला है।”
“वो कौन है?”
“मजाख-मजाख करता है, बाप! वो तू है और कौन है!”
“अरे, मैंने बोला न, मैं गुरुद्वारे का कारसेवक हूँ, गुरुद्वारे के लंगर के लिए सामान खरीद के लौट रहा हूँ।”
विमल ने भरा हुआ झोला ऊंचा करके उसके सामने किया।
“वो भी। वो भी। बोले तो काहे वास्ते वो नहीं! तू कुछ भी हो सकता है, बाप। तेरे मायाजाल का कोई ओर-छोर नहीं। पण तू सोहल भी है। अभी हाँ बोल, ताकि मैं आगे बात करे।”
“ख़ामख़ाह, गले न पड़ो।” – विमल ने फिर गुस्सा जताया – “रास्ते से हटो। जाने दो मुझे।”
“बाप, रुक। रुक। फ़िरयाद है। फ़ॉर जीसस सेक, रुक।”
विमल ठिठका।
और कोई चारा नहीं था। वो ऐसे ही नहीं टलने वाला था।
विक्टर ने आँख भरकर उसे देखा।
“अबे, भाड़ा ले।” – पीछे से पैसेंजर बोला।
विक्टर यूँ भड़का जैसे पैसेंजर ने उसकी कोई तपस्या भंग कर दी हो।
“अभी इधरीच है! गया नहीं! मैं साला बोला, नहीं माँगता!”
“अबे, ढक्कन! एक सौ सत्तर रुपिया . . .”
“नहीं मांगता। बोला न, मे डे है। सब फ्री है। निकल ले।”
“साला बेवड़ा! दिन में ही चढ़ा ली!”
यूँ ही बड़बड़ाता पैसेंजर आगे बढ़ चला।
विघ्न से ख़फा विक्टर वापिस विमल की तरफ घूमा, उसने सिर से पांव तक विमल का मुआयना किया।
खद्दर का कुर्ता-पाजामा। अंगूठे वाली मामूली चप्पल। हाथ में कैनवस का सामान से फूला झोला। बढ़ी हुई, बेतरतीब दाढ़ी-मूँछ। सिर पर गोल लपेटा पीला पटका। मुख मलिन, आँखें वीरान, चेहरा निचुड़ा हुआ! एक कंधा झोले के वज़न से एक ओर झुका हुआ।
‘जीसस, मेरी एण्ड जोसेफ! मेरे सामने सोहल ही खड़ेला था या मैं सच में किसी और को सोहल समझ कर उसके गले पड़ रयेला था! ऐसा होना कोई नामुमकिन तो न था! मुम्बई फिल्मों की नगरी थी, आख़िर फिल्मों में भी तो बड़े स्टार्स के डबल होते थे जिनकी शक्ल-सूरत, कदकाठ मोटे तौर पर स्टार से मिलता होता था।’
क्या ऐसा ही कोई इत्तफ़ाक वो अब होता देख रहा था!
‘आंधी-तूफानों से मुकाबिल सोहल! शेर के जबड़े में हाथ डालकर उसकी जुबान खींच लेने वाला सोहल! बखिया का एम्पायर उजाड़ देने वाला, “कम्पनी” का वजूद ख़त्म कर देने वाला आफत का परकाला सोहल! ज़ुल्म के अन्‍धड़ में बरगद के पेड़ की तरह न हिलने वाला सोहल!’ “जीसस!” जीसस! क्यों मेरे को सोहल किधर भी दिखाई नहीं दे रहेला था!
नहीं! नहीं! मेरी निगाह धोखा नहीं खा सकती। जिसकी ख़िदमत में इतना टेम गुज़ारा, उसकी शिनाख्‍़त विक्टर न कर सके, ये नहीं हो सकता।
कोई धोखा नहीं था।
गॉड!
राजा भिखारी बना उसके सामने खड़ेला था।
कोई धोखा नहीं था। यही असलियत थी – नानाकाबिलेयकीं थी लेकिन थी।’
“बाप” – विक्टर भर्राये कण्ठ से बोला – “ये मैं साला क्या देखता है? ये क्या हाल बना रखा है? कब से है मुम्बई में? किसी को ख़बर काहे वास्ते नहीं किया? वाइफ किधर है? बेबी किधर है? तू तो दिल्ली गयेला था न! उधर नवें सिरे से लाइफ़़ सैट करने का वास्ते! इस्ट्रेट करके लाइफ़़ सैट करने का वास्ते! फिर इधर कैसे? लौट क्यों आया? लौट आया तो क्यों इस हाल में है? साला सस्पेंस फिनिश कर न!”
“भाई, मैंने बोला न, मैं वो नहीं हूँ जो तुम मुझे समझ रहे हो।”
“नो! आई कैननॉट बाई दैट। मैं साला कैन बैट माई लाइफ़़ अपाॅन इट कि मेरा सामने बड़ा बाप सोहल खड़ेला है। अपने वक्‍त का बादशाह दीनबन्‍धु, दीनानाथ सोहल मेरे सामने खड़ेला है। ‘चैम्बूर का दाता’ मेरे सामने खड़ेला है। दीन के हेत लड़ने वाला सोहल ख़ुद दीन, दीन से बद्तर बना मेरे सामने खड़ेला है। पण राजा रंक भी बन जाए तो राजा ही रहता है . . .”
विक्टर की आवाज़ इतनी ज़्यादा भर्रा गई कि गले से निकलनी बंद हो गई। उसकी आँखें डबडबा आई ं ।
“भई, मेरी भी तो सुनो . . .”
विक्टर ने कई बार थूक निगली तब जाकर बामुश्किल बोल पाया।
“नहीं सुनने का।” – वो दृढ़ता से बोला – “अभी विद अपॉलोजी बोलता है, नहीं सुनने का। अभी सुनाने का . . .”
“अभी और भी? पहले ही काफी नहीं सुना चुके?”
“वन मिनट, जस्ट वन मोर मिनट मेरे को सुनने का। प्लीज़ करके बोलता है, बाप।”
“अच्छा!” – विमल ने नकली गहरी साँस भरी – “बोलो।”
“ये टेम तेरे को इधरीच ठहरने का। मैं अभी इरफ़ान, शोहाब को फोन लगाता है . . .”
“वो कौन हैं?”
“बाप, तेरे को मालूम वो कौन हैं! अभी बोम नहीं मारने का, नहीं मालूम। मैं फोन लगाता है, उनके इधर पहुँचने तक तेरे को इधरीच ठहरने का।”
‘पागल हुए हो! मैं गुरुद्वारे के लंगर के लिए नमक, मिर्च, हल्दी, मसाला खरीदने आया था, मैंने वापिस लौटना है। प्रधान जी गुस्से होंगे। रास्ता छोड़ो।”
विक्टर तन कर उसके सामने खड़ा रहा।
विमल ने जबरन उसे परे धकेला।
“ऐसे चले जाने से छुपा नहीं रह सकेगा, बाप। गुरुद्वारे से आया बोला न! इरफ़ान, शोहाब के साथ आता है मैं गुरुद्वारे में।”
“तुम्हें क्या मालूम मैं कौन से गुरुद्वारे से आया?”
“परचेज़िंग के लिए वाॅक करके आया न, बाप! तो कहीं पास से ही तो आया होयेंगा! पास में क्या कोई दस बीस गुरुद्वारे हैं!”
विमल ने अवाक् उसे देखा।
“हैं भी तो क्या? साला कोलाबा से महालक्ष्मी तक के अक्‍खे गुरुद्वारे चैक करेंगा मैं।”
“अरे, किस मुसीबत में डाल रहे हो मेरे को?” – विमल कलप कर बोला।
“बाप, मैं तो जो हूँ सो हूँ, इरफ़ान-शोहाब तेरे पुराने साथी हैं, तेरे मुरीद हैं, उनका काम तेरे को किसी मुसीबत में डालना नहीं, मुसीबत से निकालना है। थोड़ा टेम वेट करने का, फिर उनको ये भी बोलना कि तू इस हाल में क्यों है, कब से है!”
“वाहेगुरु! ये वाही-तवाही मुझे इसलिए सुननी पड़ रही है क्योंकि मेरी किसी से शक्ल मिलती है!”
“किसी से नहीं मिलती। सोहल एकीच है, मुम्बई अन्डरवर्ल्ड में जिसके नाम की तूती ‌बोलती है!”
“बोलती होगी! मेरे को क्यों बताते हो?”
“बाप, तेरे को तेरे वाहेगुरु का सदका, या तो मेरे साथ चैम्बूर चल जहाँ इरफ़ान, शोहाब होंगे या उनके इधर पहुँचने का इंतजार कर। वो जहाँ भी होंगे, गोली की माफ़िक इधर पहुँचेंगे। बाप, वेट करने का।”
“नहीं कर सकता। मैंने गुरुद्वारे . . .”
“बाप, तू किसी जुनून या किसी खुफ़िया रूह के हवाले है, जो तेरे को नॉर्मल नहीं रहने दे रही, जो तेरे सोहल होने पर साला क्वेश्‍चन मार्क लगा रयेली है। मैं . . . मैं पंडित भोजराज शास्त्री को भी फोन लगाता है और उनको अभी का अभी इधर बुलाता है। बाप, फिर उस होलीमैन के सामने बोलना कि तू सोहल नहीं है, इरफ़ान, शोहाब के सामने बोलना कि तू सोहल नहीं है . . .”
“हटो, जाने दो मेरे को।”
“हिलने का भी नहीं, बाप। वॉर्निंग देता है ये छोटा भीड़ू तेरे को। बाप, तेरे को बोलने का कि तू किस पिरेशर में है! साला साफ़ मालूम पड़ता है, कि तेरे साथ बड़ा, जास्ती से भी बड़ा, कुछ हैपन हुआ है जो तेरे को भारी पड़ रयेला है। अभी प्लीज़ करके पूछता है, बोलने का कि क्या हुआ है? क्यों तेरा ये हाल है? मैडम किधर है? बेबी किधर है? दिल्ली छोड़ के आया या इधर साथ लेकर आया? गुरुद्वारे में क्या करता है? तेरे को हर बात का जवाब देने का।”
“रास्ता छोड़ो।” – विमल सख़्ती से बोला।
“चला जाने तो नहीं देंगा मैं, बाप, तेरे को, चाहे साला कुछ हो जाए। तू किसी को मुम्बई में अपना प्रेजें़स का ख़बर नहीं लगने देना माँगता तो एक बार इधर से गया तू गुरुद्वारे में नहीं मिलने वाला। मेरे को ये रिस्क लेना नहीं माँगता। अभी तेरे को इधरीच रोक के रखना मेरे वास्ते ज़रूरी। बाप, तू नहीं रूकेगा, बाई फ़ोर्स निकल लेगा तो मैं . . . तो मैं . . .”
“क्या तू?”
“तेरा सामने बस के आगे लेट के लाइफ़़ ऐंड करेंगा।”
“मेरे को क्या?”
“तेरे को है, बाप, तेरे को है। मैं विक्टर, तेरा मुरीद, तेरी भेड़। इधर मुम्बई में साला कितना टेम तेरे अन्डर में चलकर पास किया! तू गरीबों का हमदर्द, अंधे की आँख, लँगड़े की लाठी, भूखे के मुँह में निवाला देने वाला, नंगे के जिस्म पर कपड़ा डालने वाला, मेरे साथ ऐसे पेश आएगा! मेरे को बस के नीचे आकर पैरिश हो जाने देगा? बाप, अगर अपनी आँखों के सामने तू ऐसा हो जाने देगा तो मेरे को ये मौत मंज़ूर। तू एक मिनट, खाली एक मिनट रुक।”
“एक मिनट में क्या होगा?”
“मेरी मौत का तमाशा तेरी आँखों के सामने होयेंगा। देख के जाने का।”
“ये ब्लैकमेल है।” – विमल बदले स्वर में बोला।
“है न! मैं कब बोला, नहीं है। है न!”
“तू मेरे को पशोपेश में डाल रहा है।”
विमल का बदला स्वर विक्टर से छुपा न रहा। अब विमल उससे मुलाहजे में बात नहीं कर रहा था, उसे आत्मीयता से ‘तू’ कह कर पुकार रहा था।
जीसस! जीसस!
विक्टर फिर जज़्बाती होने लगा, फिर उसका गला रुँधने लगा, उसने दयनीय भाव से विमल को देखा।
“दोनों वहीं हैं?” – अब उसे पुराना, अपना जाना-पहचाना सोहल सुनाई दे रहा था – “चैम्बूर में?”
“हाँ, बाप।”
“क्या करते हैं?”
“बोलेंगे न!”
“ठीक है। उनको बोलना कल सुबह ग्यारह बजे मुझे महालक्ष्मी स्टेशन पर बुकिंग विंडोज़ के सामने मिलें।”
“कल सुबह।” – विक्टर याद करता बोला – “ग्यारह बजे! महालक्ष्मी स्टेशन पर! बुकिंग विंडोज़ के सामने!”
“हाँ।”
“कल वो टेम तू उधर होयेंगा?”
“हाँ।”
“बाप, फ़िरयाद की तरह पूछता है, बोम तो नहीं मार रयेला? चक्कर तो नहीं दे रयेला विक्टर को क्योंकि वो तेरा पीछा नहीं छोड़ता? जैसा बोला है, वैसा करेंगा न! होयेंगा न उधर?”
“हाँ।”
“पिरामिस करके बोलता है?”
“हाँ। प्रामिस करके बोलता है।”
“मेरे को ऐतबार है। आख़िर सोहल की जुबान है। अन्डरवर्ल्ड में टकसाली सिक्का बोलते हैं।”
“अब जाने दे मेरे को।”
“हाँ, बाप। कुछ आउट ऑफ़ दि वे बोला हो तो माफ़ी देना।”
सहमति में सिर हिलाता विमल आगे बढ़ चला।
विक्टर बड़े अरमान से उसे जाता देखता रहा। वो भीड़ में विलीन हो गया तो विक्टर वापिस घूमा, उसने उधर कदम बढ़ाया जिधर रोड पर उसकी टैक्सी खड़ी थी।
तत्काल वो ठिठका।
एक हवलदार उसकी टैक्सी का नम्बर नोट कर रहा था।
विक्टर लपक कर उसके करीब पहुँचा।
“क्या करता है, बाप?” – वो बोला।
“अन्‍धा है?” – हवलदार डपट कर बोला – “दिखाई नहीं देता क्या करता है?”
“बोले तो, ये मेरा कैब!”
“साला चलती रोड पर खड़ा करके पता नहीं किधर निकल लिया! चालान होगा।”
“तो कर न! मैं रोका तेरे को?”
हवलदार ने हैरानी से उसकी तरफ देखा।
“कैश पेमेंट करने का या कोरट में हाजिरी भरने का?”
“कैश पेमेंट। कैश नहीं देगा तो कोरट में हाजिरी . . .”
“देता है न! अमाउन्ट बोलने का।”
“कोई टैक्सी वाला ऐसे राजी से चालान नहीं कटाता, साला सौ फरियाद करता है। तेरे को क्या हुआ?”
“खुसी हुआ।”
“ख़ुशी हुआ! कैसी ख़ुशी?”
“अभी गॉड मिला मेरे को। ऐसी खुसी।”
“साला बेवड़ा! डे टेम में बाटली मारता है। ड्रंकन ड्राइविंग का भी चालान होना माँगता है तेरा!”
“तो कर न! कर और भी जो चालान सूझे। वर्दी का। टोकन का।”
“वर्दी तो तू पहने है, साला! टोकन लटकाए है।”
“चालान करते वक्‍त तेरे को नहीं दिखाई दिया। बोल ऐसा।”
“लाफ़ा देगा एक साला ज्यास्ती बात करेगा तो! फाइव फिफ्टी दे मेरे को।”
“देता है। पण फाइव फिफ्टी! मैं कैब राँग पार्क किया तो चालान का रोकड़ा फाइव फिफ्टी?”
“थ्री हंड्रेड। टू फिफ्टी टोई ं ग चार्जिज़।”
“पण टोई ं ग किधर हुआ?”
“पाँच मिनट न आता तो क्रेन ले के जाता न टो कर के तेरा कैब!”
“पाँच मिनट बाद बोला न! अभी तो मैं पाँच मिनट पहले इधर है अपना कैब के पास। क्या!”
“क्या? तू बोल।”
“थ्री हंड्रेड देता है। चालान बना, बाप। कापी मेरे को दे।”
“एक नीली पत्ती दे मेरे को।”
“वन हंड्रेड! काहे वास्ते?”
“तेरा चालान नक्की करता है न!”
“नई ं माँगता। बोला न, आज मेरे को जीसस क्राइस्ट मिला। कम से कम आज का दिन मेरे को सिनर बनना नहीं माँगता। चालान बना।”
वो ख़ामोश रहा।
“अरे, बना न! काहे के वास्ते अपना भी और मेरा भी टेम खोटी करता है? मैं देता है थ्री हंड्रेड।”
“वो . . . वो . . .”
“क्या वो वो?”
“वो . . . चालान बुक . . . एसआई के पास होती है।”
“तो तुम्हेरे पास क्या होता है?”
“कुछ नहीं। मैं खाली नम्बर नोट करता है। एसआई आता है तो उसको लिस्ट देता है। वो आरटीओ के रिकाॅर्ड से मालूम करता है कैब का मालिक कौन! फिर महकमा चालान उसके पते पर भेजता है।”
“देवा रे! तुम साला खाली-पीली बोम मारता है?”
“अबे, खजूर, चालान आख‌िर तो आएगा! टैक्सी अपना कि किराए का?”
“अपना।”
“तो तेरे पते पर चालान आख‌िर तो आएगा! फिर चालान जमा कराने थाने में या आरटीओ में लाइन में लगेगा। साला अक्‍खी दिहाड़ी वेस्ट होगा तेरा चालान जमा कराने में।”
“अक्‍खी नहीं।”
“टेम तो लगेगा न!”
“लगाएगा।” – विक्टर टैक्सी में सवार होता बोला – “वेट करता है चालान का। आता है तो देखता है।”
विक्टर चला गया।
हवलदार मुँह बाये उसे जाता देखता रहा।