वो पुरानी सी काली कार, देवराज चौहान ने देख ली थी। जो कि पचास मीटर आगे जाकर रुक गई थी। उसकी हैडलाइट, टेल लाइट जल रही थी। देवराज चौहान ने इस बात की पूरी तसल्ली की कि वो अकेला ही है। उसके आगे-पीछे कोई नहीं है। उसके बाद ही वो कार के पास गया था। कार का शीशा थपथपाया।

भीतर मौजूद जोगेशा ने दरवाजा खोल दिया।

"आ जाओ।"

देवराज चौहान भीतर बैठा। दरवाजा बंद किया, जोगेशा ने कार आगे बढ़ा दी।

"कहां जा रहे हो?" देवराज चौहान ने उसे देखा।

"जहां तुम कहो।"

देवराज चौहान की निगाह बराबर उस पर टिकी थी।

जोगेशा पचास बरस का खेला-खाया इंसान लग रहा था। तीन-चार दिन की शेव बढ़ी हुई थी।

"ऐसी जगह चलो, जहां हम आराम से बात कर सकें।"

जोगेशा ने सिर हिला दिया।

"मुझे पहचानते हो?"

"नहीं! लेकिन तुम्हारी आवाज से ये जान गया हूं कि तुमने ही मुझसे फोन पर बात की थी। खबर पाने के लिए मुझे नोट दोगे तो पूरा यकीन हो जाएगा कि तुम ही डकैती मास्टर देवराज चौहान हो।"

देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगाई। खामोश रहा।

कार सड़कों पर तेजी से दौड़ती रही। फिर एक होटल की पार्किंग में जोगेशा ने कार रोक दी। यहां पर पार्किंग में पर्याप्त रोशनी थी। दोनों आसानी से एक-दूसरे का चेहरा देख सकते थे।

"तुम देवराज चौहान ही हो।" उसे ध्यान से देखते जोगेशा कह उठा--- "एक बार अखबार में तुम्हारी तस्वीर देखी थी।"

"काम की बात करें?"

"क्यों नहीं।" जोगेशा ने सिर हिलाया--- "मैं तो दोपहर से ही तुमसे मिलने को तरस रहा था।"

"किसकी खबर है तुम्हारे पास?"

जोगेशा दो पल खामोश रहा।

"सुधीर दावरे, सर्दूल, अकबर खान, वंशू करकरे, दीपक चौला?" देवराज चौहान बोला।

"इनमें से किसी की खबर नहीं है।" जोगेशा गंभीर स्वर में बोला--- "ब्रांडी और आप्टे के बारे में पता है।"

"ब्रांडी, सुधीर दावरे का खास आदमी।" देवराज चौहान गुर्रा उठा।

"उस दिन वो भी वहीं था।" जोगेशा की नजरें देवराज चौहान पर थीं।

"आप्टे, वंशू करकरे का आदमी है, ठीक?"

"हां, वो भी उस दिन वहीं था।"

"उस दिन के बारे में तुम क्या जानते हो?" देवराज चौहान का चेहरा दहक उठा।

"असल में तो कुछ नहीं जानता। लेकिन ये पता है कि इन सब लोगों ने उस दिन आर्य निवास होटल के हॉल में तुम्हें और जगमोहन को बहुत मारा था। तुम दोनों को जान से खत्म करने की कोशिश की थी।"

देवराज चौहान के होंठों से गुर्राहट निकली।

दरिन्दा नजर आने लगा था देवराज चौहान।

"जगमोहन का कुछ पता है?"

"उसे हॉस्पिटल से उठा लिया गया था।" जोगेशा सिर हिलाकर बोला।

"हां...।"

"मेरे पास कोई खबर नहीं है, जबकि मैंने ये खबर पाने की चेष्टा की थी। अंडरवर्ल्ड में जब भी कोई नया मामला पैदा होता है तो मैं उसके बारे में खबर पाने को लग जाता हूं। क्योंकि गुप्त खबरें बिकती हैं और मेरा खर्चा निकल जाता है। इस मामले के बारे में भी मैंने जानने की...।"

"जगमोहन के बारे में खबर देकर तुम अच्छा पैसा मुझसे ले सकते हो।" देवराज चौहान बोला।

"अगर खबर उसकी मौत की हुई तो?"

"तब भी...।" देवराज चौहान के दांत भिंच गए--- "तुम्हें पैसा मिलेगा।"

जोगेशा सिर हिलाकर रह गया।

"ब्रांडी और आप्टे के बारे में बताओ कि वो कहां छिपे हैं?" देवराज चौहान ने पूछा।

"एक का एक लाख...।" जोगेशा बोला--- "पैसा पहले...।"

देवराज चौहान ने पैंट की जेब से हजार के नोटों की गड्डियां निकालीं। एक उसे दीं।

"ये तो एक की कीमत हुई।"

"पहले एक के बारे में बताओ। उसे निपटाकर दूसरी जानकारी खरीदूंगा।"

"ठीक है। ब्रांडी के बारे में सुनो। वो अपनी पत्नी के साथ घटोरनी में, सुबाराम फार्म हाउस में छिपा है। दोपहर को ही मैं उसे वहां देखकर आया हूं। तुम आसानी से उसकी गर्दन पकड़ सकते हो।"

देवराज चौहान ने कार का दरवाजा खोला तो जोगेशा कह उठा---

"मेरा फोन नंबर तुम्हारे पास है। काम निपटाकर मुझे फोन जरूर करना।"

"तुम्हारे पास दो शिकारों के पते हैं। उसके बाद आगे की कोई खबर नहीं तुम्हारे पास?"

"खबर कभी भी मिल सकती है। मेरे दो आदमी इन्हीं लोगों के बारे में जानने में लगे हैं।" जोगेशा बोला।

देवराज चौहान बाहर निकला और दरवाजा बंद करके आगे बढ़ गया।

■■■

घटोरनी।

मुम्बई के बाहर का इलाका। पूना जाने वाली सड़क पर। ये फार्म हाउस का इलाका माना जाता था। अक्सर सुनसान रहती थी ये जगह। हर तरफ छोटे-बड़े दो सौ से ज्यादा फार्म हाउस बने हुए थे। यहां सिर्फ मालिकों की लम्बी-लम्बी गाड़ियां ही नजर आतीं, जब वे अपने फार्म हाउस पर आते या जाते थे।

सुबाराम फार्म हाउस को तलाश करने में देवराज चौहान को काफी परेशानी हुई। क्योंकि रात के वक्त, फार्म हाउस का पता बताने वाला भी कोई नहीं था।

जब देवराज चौहान सुबाराम फार्म हाउस के बाहर पहुंचा तो सुबह के चार बज रहे थे।

फार्म हाउस के लोहे के ऊंचे-चौड़े गेट पर कोई चौकीदार नहीं था।

गेट के भीतर से कुंडी लगी हुई थी। देवराज चौहान ने सलाखों के भीतर हाथ डालकर गेट की कुंडी को खोला, फिर गेट का पल्ला धकेलकर भीतर प्रवेश कर गया।

चारों तरफ खामोशी और अंधेरा था।

फार्म हाउस के छोटे से बंगले के पोर्च में तेज रोशनी का एक बल्ब जल रहा था। देवराज चौहान वहां पहुंचा। पोर्च में पुरानी फोर्ड कार खड़ी थी। उसने दरवाजा धकेला। वो बंद था। उसके बाद देवराज चौहान बंगले के दरवाजे खिड़कियों को चैक करता बंगले के गिर्द घूमने लगा।

जल्दी ही उसे एक खुली खिड़की मिल गई।

देवराज चौहान ने उस खिड़की से प्रवेश किया और बे-आवाज सा बंगले में घूमने लगा। ब्रांडी का सांवला चेहरा रह-रहकर उसकी आंखों के सामने नाच रहा था। उसके ठहाके जैसे अभी भी उसके कानों में गूंज रहे थे। हाथ में थमा चाकू और उसकी टांग पर उसने कई वार एक साथ कर दिए थे। वार करते समय वो पागल सा लग रहा था। देवराज चौहान तब बेबस सा उसे देखे जा रहा था। तब उसकी सुनने वाला कोई नहीं था।

देवराज चौहान के होंठों से गुर्राहट निकली।

सारा बंगला उसने देख लिया और एक कमरे के बंद दरवाजे पर जा ठिठका था। बंगले में एकमात्र यही कमरा था जिसका दरवाजा भीतर से बंद था। ब्रांडी और उसकी पत्नी इस कमरे में हो सकते थे।

दरिन्दा लग रहा था देवराज चौहान।

उसने पूरी ताकत से कंधे की चोट दरवाजे पर की।

भीतर से दरवाजे की सिटकनियां खुल गईं। टूट गईं। एक पल्ला एक तरफ झूल गया। देवराज चौहान ने पैंट में फंसी रिवाल्वर निकाली और दरवाजे से भीतर प्रवेश कर गया।

सामने ही डबल बैड था। जहां ब्रांडी और उसकी ही उम्र की औरत हड़बड़ाए से बैठे थे। उनके चेहरे बता रहे थे कि वो दरवाजा खुलने की आवाज सुनकर अभी उठे हैं और मामला समझने की चेष्टा कर रहे हैं।

देवराज चौहान को सामने देखकर ब्रांडी की आंखें फैलती चली गईं।

चेहरे पर अविश्वास और हैरानी दिखने लगी।

औरत के चेहरे पर उलझन थी। उसने ब्रांडी को देखा तो ब्रांडी के चेहरे के भावों को देखकर समझ गई कि भारी गड़बड़ है। उसके चेहरे पर भी डर दिखने लगा था।

देवराज चौहान के हाथ में रिवाल्वर थी और चेहरे पर क्रूरता नाच रही थी। नजरें ब्रांडी पर थीं। भिंचे दांत। गालों की हड्डियां चमक रही थीं। आंखों में वहशीपन से भरी चमक दिखाई दे रही थी।

"तुझे यकीन नहीं आ रहा कि मैं तुझ तक आ गया हूं।" देवराज चौहान खूँखारता भरे स्वर में कह उठा।

इन शब्दों के साथ ब्रांडी को जैसे होश आया।

"त...तुम...?" उसके होंठों से खरखराता स्वर निकला।

"देवराज चौहान।" देवराज चौहान मौत भरे स्वर में बोला।

"तुम...तुम यहां तक कैसे आ गए?" ब्रांडी को अभी भी यकीन नहीं आ रहा था कि देवराज चौहान उस तक पहुंच गया है।

"तुम्हारी खबर पाने के लिए जोगेशा को एक लाख देना पड़ा और उसने मुझे यहां का पता बता दिया।"

"जोगेशा...व...वो खबरी... कमीना! मैं उसे जिंदा नहीं...।"

"तू मरने जा रहा है...।" देवराज चौहान दरिन्दा लग रहा था।

"न...हीं, तुम मुझे नहीं मार...।"

"वो दिन तुम लोगों का था। अब बाकी के दिन मेरे हैं।" देवराज चौहान के होंठों से गुर्राहट निकली--- "जगमोहन कहां है?"

"मैं नहीं जानता।"

"क्या वो मर गया या उसे मार दिया गया?"

"न...नहीं पता, मुझे नहीं...।"

"हॉस्पिटल से उसे तुम लोगों ने ही उठाया...।"

"मुझे नहीं पता। मैं जगमोहन के बारे में कुछ नहीं जानता।"

तभी देवराज चौहान ने ट्रिगर दबा दिया।

कानों को फाड़ देने वाला धमाका हुआ।

बैड पर बैठी औरत के होंठों से भय भरी चीख निकली। वो थर-थर कांपने लगी।

गोली ब्रांडी छाती में जा लगी थी। वो तड़पकर बैड पर जा गिरा। देवराज चौहान आगे बढ़ा और पास पहुंचकर उसने रिवाल्वर की नाल उसके सिर से लगाई और ट्रिगर दबा दिया।

तेज धमाके के साथ ब्रांडी का सिर खुल गया। वो शांत पड़ गया।

वहशी दरिन्दा लग रहा था देवराज चौहान। उसने सिर के पास से रिवॉल्वर हटाई और उस पर लग चुके खून को ब्रांडी की कमीज से पौंछा और औरत को देखा।

औरत के तो होश गुम थे। वो डर से कांपती फटी-फटी आंखों से देवराज चौहान को देखे जा रही थी।

देवराज चौहान ने दांत भींचे रिवाल्वर पैंट में फंसाई और पलटकर बाहर निकलता चला गया।

■■■

जोगेशा उस वक्त गहरी नींद में था, जब उसका मोबाइल फोन बजने लगा था। लगातार जब बजता रहा तो उसकी आंख खुली। खिड़की के बाहर दिन के उजाले पर नजर पड़ी। फिर फोन पर बात की।

"हैलो...।"

"दूसरा लाख रुपया कब लेने आ रहे हो?" देवराज चौहान की आवाज कानों में पड़ी।

गहरी सांस ली जोगेशा ने फिर पूछा।

"पहले दिया लाख वसूल कर लिया?"

"तुम अपना मतलब सिर्फ पैसे लेने तक रखो। बेकार के सवाल मत करो।"

"ठीक है। चार घंटे बाद मिलते हैं। मैं थोड़ी नींद ले लूं। तुम भी तो रात के जगे हो। सोना चाहोगे।"

"कितने बजे, कहां?" उधर से देवराज चौहान ने पूछा।

जोगेशा ने बताया वक्त और जगह भी।

"कुछ और पता चला?"

"अभी तो नहीं, पर चल जाएगा। मिलने पर बात करें।"

■■■

सुबह के दस बज रहे थे।

ब्रांडी की पत्नी इस वक्त अपने घर में मौजूद थी और अपने पति की लाश को वो फार्म हाउस के बैड पर ही छोड़ आई थी। वह डरी हुई थी। रह-रहकर कांप उठती थी। देवराज चौहान का वहशी चेहरा वो नहीं भूल पा रही थी।

12 बजे पुलिस आई और ब्रांडी की मौत की खबर उसे दी। बताया कि उसे दो गोलियां मारी गई हैं। एक छाती में, दूसरी सिर में। पोस्टमार्टम के बाद शाम पांच बजे लाश उसके हवाले कर दी जाएगी।

उसने खबर मिलने पर पुलिस के सामने न तो डर दिखाया, न ही खुशी दिखाई।

पुलिस चली गई। दो घंटे बाद सर्दूल वहां पहुंचा। दरवाजा खुला ही था, वो भीतर आ गया।

"बहुत अफसोस हुआ ब्रांडी की मौत का।" सर्दूल शांत स्वर में बोला।

"त...तुम कौन हो?"

"मैं ब्रांडी का दोस्त हूं। तुम मुझे पहले कभी नहीं देखा। खबर मिली तो आ गया। परन्तु पुलिस नहीं जानती थी कि जब उसकी हत्या हुई, तब तुम उसके साथ थीं।" सर्दूल का स्वर शांत था।

वो घबराकर सर्दूल को देखने लगी।

"घबराओ मत, मैं तुम्हारा अपना हूं। तुम मुझे बताओ कि वहां क्या हुआ था?"

उसने, सर्दूल को सब कुछ बताया।

"तो देवराज चौहान ने ब्रांडी को मारा?" सर्दूल ने सिर हिलाया।

"हां।"

"देवराज चौहान ने ये भी कहा कि लाख रुपए में उसने जोगेशा से उसके ठिकाने की खबर ली?"

उसने हां में सिर हिला दिया।

■■■

दोपहर के तीन बज रहे थे।

देवराज चौहान गोरेगांव के पास खारकवासला नाम की जगह पर पहुंचा। सूर्य सिर पर था। गर्मी और धूप का पूरा बोलबाला था इस वक्त। खारकवासला में लोगों ने घर पर ही तरह-तरह की चीजों की फैक्ट्रियां लगा रखी थीं। ये पूरा इलाका ही इंडस्ट्रियल एरिया जैसा था। गलियां तंग थीं। छोटे-छोटे मकान तीन-चार मंजिलों तक जा रहे थे।

देवराज चौहान ने टैक्सी को छोड़ा और पैदल ही आगे बढ़ता हुआ उस पते को तलाश करने में लगा जो जोगेशा ने उसे, लाख रुपया लेकर बताया था। जोगेशा ने बताया था कि खारकवासला में आप्टे ने धागे की फैक्ट्री लगा रखी है, जिसे कि उसका छोटा भाई संभालता था। जोगेशा ने बताया कि आप्टे इन दिनों इसी जगह पर छुपा बैठा है।

उस मकान का नम्बर भी जोगेशा ने बता दिया था।

पन्द्रह मिनट लगे देवराज चौहान को, उस धागा फैक्ट्री में पहुंचने को। सौ गज का दो-तीन मंजिला मकान था। मशीनें चलने की आवाज बाहर आ रही थी। सामने ही जाली का दरवाजा था। देवराज चौहान जाली के दरवाजे को धकेलकर भीतर प्रवेश कर गया। ये छोटा सा हाल था। जहां मशीनें लगी चल रही थीं। चार-पांच लोग उन पर काम कर रहे थे। धागे की रीलें तैयार की जा रही थीं।

एक ही निगाह में देवराज चौहान ने सब कुछ देख लिया।

देवराज चौहान आगे बढ़ा और काम करते एक व्यक्ति के पास पहुंचा।

"आप्टे कहां है?" देवराज चौहान ने पूछा।

उसने एक दरवाजे की तरफ इशारा किया।

देवराज चौहान ने गर्दन घुमाकर उस दरवाजे को देखा, फिर उस तरफ बढ़ गया। चेहरा शांत और गंभीर था।

वो नहीं जानता था कि वो ठीक जगह पर पहुंचा है या नहीं? आप्टे वही है, जिसकी उसे जरूरत है या दूसरा आप्टे है। उस बंद दरवाजे के पास पहुंचकर देवराज चौहान ने उसका हैंडल दबाकर दरवाजा खोला और भीतर प्रवेश कर गया।

अगले ही पल ठिठक गया देवराज चौहान।

सामने वही आप्टे बैठा था।

उसका शिकार।

वो कुर्सी पर बैठा फोन पर बातें करने में व्यस्त था। उसने एक निगाह देवराज चौहान पर मारी, उसके बाद वो फिर फोन पर बातों में व्यस्त हो गया था। जबकि देवराज चौहान के मस्तिष्क में बिजलियां कौंध रही थीं।

चेहरा क्रोध से स्याह होने लगा था। शरीर एकाएक जोरों से कांपा। फिर आप्टे का वो रूप उसकी आंखों के सामने नाचा, जो देख चुका था। वो बुरी तरह घायल पड़ा था। शरीर पर जगह-जगह चाकूओं के निशान थे। कपड़े खून में रंगे हुए थे, तभी हाथ में चाकू थामें आप्टे उसके सिर पर आ पहुंचा था। चाकू का फल पहले ही खून से सना था। वो हिलने की भी स्थिति में नहीं था। उसका शरीर, उसका साथ छोड़ चुका था। जान जैसे निकल चुकी थी। सिर्फ आंखों की पुतलियां ही हिल रही थीं। आप्टे उस पर झुका और उसकी आंखों के सामने खून से रंगा चाकू लहराकर ठहाका लगा उठा, फिर जूते की जोरदार ठोकर उसके सिर पर मारी। तड़प कर रह गया था वो। उसके बाद आप्टे नीचे झुका और बाएं हाथ से उसके सिर के बालों को मुट्ठी में पकड़ा और उसे फर्श पर घसीटने लगा।

एकाएक देवराज चौहान के शरीर में झुरझुरी दौड़ती चली गई।

वो बीता वक्त, नहीं भूल सकता था वो।

देवराज चौहान सिर से पांव तक दरिन्दा सा लगने लगा। दहक उठा चेहरा। आंखों में पागलपन की सुर्खी दिखाई देने लगी। वो वहीं खड़ा, आप्टे को देखता रहा। तपता रहा।

फोन पर बात करते-करते आप्टे की निगाह देवराज चौहान के चेहरे पर पड़ी तो उसके माथे पर बल पड़े। बातें करता वो ठहर गया, फिर फोन को कान से हटाकर उसने देवराज चौहान से कहा---

"कौन हो तुम और तुम इतने गुस्से में क्यों हो?"

"मुझे इतनी जल्दी भूल गया आप्टे।" देवराज चौहान गुर्रा उठा--- "मौत को भूला नहीं जाता...।"

अगले ही पल आप्टे बुरी तरह चौंका। फोन उसके हाथ से छूट गया।

"दे...देवराज चौहान...।" उसके होंठों से निकला। चेहरा खौफ से फक्क होता चला गया।

"मैंने कहा था न कि मौत को भूला नहीं जाता।" देवराज चौहान वहशी स्वर में कह उठा।

आप्टे बिजली की सी तेजी के साथ खड़ा हो गया। चेहरा पीला पड़ गया था। घबराहट स्पष्ट तौर पर, चेहरे पर नाच रही थी। माथे पर पसीने की बूंदें उभर आई थीं।

"तुम यहां...।" आप्टे कांप कर कह उठा।

"मौत तो हर जगह पहुंच जाती है आप्टे। अब तेरे को कोई नहीं बचा सकता। वो दिन तेरा था, तुम लोगों का था। अब वक्त मेरा है। झंडू, ब्रांडी मेरे हाथों से मरे, अब तेरी बारी है। मैंने तुझे ढूंढ लिया।"

"मुझे...मुझे छोड़ दो देवराज चौहान।" आप्टे भय भरे स्वर में कह उठा--- "मैं तुम्हें सर्दूल का पता बताऊंगा।"

"बता।" देवराज चौहान ने दांत पीसे।

"तुम...तुम मुझे छोड़ दोगे न?'

"सर्दूल का पता बता।" देवराज चौहान गुस्से से चीखा।

एकाएक आप्टे टेबल के पीछे से निकला और देवराज चौहान के पास पहुंचकर बोला---

"तू आराम से बैठ। मैंने जो किया, उसके लिए मैं माफी मांगता...।" इसके साथ ही आप्टे ने देवराज चौहान की बांह को पकड़ा और उसे जोरों से झटका दिया।

देवराज चौहान सीधा टेबल से टकराया, फिर उस पर बिछता चला गया।

इतना वक्त बहुत था आप्टे के लिए।

वो तेजी से बाहर निकला और साथ ही दरवाजा बंद करता हुआ, बाहर से कुंडी लगा गया।

देवराज चौहान के होंठों से गुर्राहट निकली। उसने दरवाजा खोलना चाहा। परन्तु वो बंद था। पागल हुए देवराज चौहान ने कमरे में नजरें दौड़ाईं। अगले ही पल वो खिड़की की तरफ लपका। खिड़की के पल्ले खोलकर देखा तो गली में आप्टे भागता दिखा। देवराज चौहान ने दांत पीसे और दूसरे से ही पल खिड़की से बाहर छलांग लगा दी।

■■■

आप्टे भागता जा रहा था।

हांफ रहा था, भागता जा रहा था। कोई मंजिल नहीं थी, जिधर भी रास्ता मिलता, भागता जा रहा था। देखने वाले उसे पागलों की तरह दौड़ते देख रहे थे। परन्तु वह कुछ न समझ पा रहे थे। पन्द्रह-बीस मिनट तक वो इसी प्रकार बिना रुके भागता रहा। सड़कें-गलियां पार करता रहा। चेहरा, पसीने से भर उठा था। टांगें अब थकान से कांपने लगी थीं। वो नहीं जानता था कि पीछे देवराज चौहान आ रहा है या नहीं, लेकिन वो भागता रहा था।

आखिरकार एक गली में प्रवेश करके रुका आप्टे।

दीवार से पीठ सटाकर गहरी-गहरी सांसें लेने लगा। मुंह खुला हुआ था। सिर के बाल माथे पर आकर पसीने से चिपक रहे थे। छाती तेजी से उठ-बैठ रही थी। टांगों में थकान का तीव्र कम्पन हो रहा था। गली में आते-जाते लोग उसे अजीब सी नजरों से देख रहे थे। मिनट भर में वो कुछ संभला। जेब से रिवाल्वर निकालकर उसे देखा, जैसे रिवाल्वर के पास होने का विश्वास कर रहा हो, फिर रिवाल्वर को वापस जेब में डाल लिया। जैसे कि वो जानता था कि अब रिवाल्वर की जरूरत नहीं। देवराज चौहान को वो बहुत पीछे छोड़ आया है और अब उससे सामना होने वाला नहीं।

पांच-सात-आठ मिनट बीत गये उसे दीवार के साथ सटे खड़े।

अब वो उखड़ी सांसों पर काबू पा चुका था। अपनी घबराहट पर भी काबू पा लिया था। देवराज चौहान का डर मन से बहुत कम हो गया था। उसे हैरानी थी कि कैसे देवराज चौहान उस तक पहुंच गया। उसने जेब में पड़ी रिवाल्वर को थपथपाया और गली से बाहर निकलकर सड़क पर आ गया। वो टैक्सी तलाश कर रहा था। जानता था कि देवराज चौहान उस तक नहीं पहुंच पाएगा। परन्तु मन में आशंका का नाग तो फन फैलाए बैठा ही था।

तभी पास से निकलते लोगों में से एक ने रिवाल्वर निकालकर उसकी कनपटी से लगा दी।

आप्टे कांप उठा। वो देवराज चौहान ही था।

"मौत को धोखा नहीं दिया जा सकता।" देवराज चौहान का स्वर कानों में फुंफकार की तरह पड़ा।

ठंडी सिहरन आप्टे के शरीर में दौड़ती चली गई। आंखों के सामने मौत नाच उठी।

"सर्दूल कहां है?" देवराज चौहान का वहशीपन में भीगा स्वर पुनः उसके कानों में पड़ा।

"मैं...मैं नहीं जानता। वो तो मैंने यूं ही कहा...।"

तभी रिवाल्वर कमर से हटी और सिर पर आ लगी। तेज धमाका हुआ। आप्टे नीचे जा गिरा।

■■■

शाम साढ़े सात बजे देवराज चौहान ने जोगेशा को फोन किया। बेल जाती रही--- फिर कानों में आवाज पड़ी---

"हैलो...।"

देवराज चौहान की आंखें सिकुड़ी। आवाज जोगेशा की नहीं थी, परन्तु उसने इस आवाज को सुन रखा था।

"कौन हो तुम?" देवराज चौहान ने आंखें सिकोड़े पूछा।

पलों की खामोशी के बाद देवराज चौहान के कानों में आवाज पड़ी---

"मेरी आवाज भी भूल गए देवराज चौहान। मैं नहीं भूला मुझे तुम्हारी आवाज याद रही।"

"सर्दूल?" देवराज चौहान के होंठों से निकला।

"अब सही पहचाना तुमने।" सर्दूल का मुस्कुराता स्वर कानों में पड़ा।

जबकि देवराज चौहान का चेहरा सुलग उठा।

"मैं तुम्हें बहुत बुरी मौत मारूंगा।" देवराज चौहान गुर्रा उठा।

"मैं तुम्हें बहुत बुरी मौत मारूंगा।" देवराज चौहान गुर्रा उठा।

"ये तो वक्त बताएगा कि कौन किसे मारता है। वैसे जोगेशा आपसे बहुत सस्ते में तुमने झंडू और आप्टे के बारे में जानकारी ले ली। सिर्फ एक लाख रुपये, एक के?"

"मैं तो दस लाख भी दे देता, परन्तु उसने मांगे ही इतने थे।" देवराज चौहान ने गुर्राकर कहा।

"मैंने जोगेशा को मार दिया।"

"मुझे यकीन है कि तुम सच कह रहे हो। तुम कहां पर हो? अपनी जगह बताओ।" देवराज चौहान ने दांत भींचकर कहा।

"तुम अच्छी तरह जानते हो कि मैं तुमसे कहीं ज्यादा ताकतवर हूं और...।"

"ऐसा है तो तुम्हें सामने आकर मेरा मुकाबला करना चाहिए। फैसला फौरन हो जाएगा।" मौत भरे स्वर में कहता जा रहा था देवराज चौहान--- "उस दिन वही हुआ, जो तुमने चाहा था। अब वही होगा जो मैं चाहूंगा। तब तुम कितने लोग थे और हम सिर्फ दो। जगमोहन के साथ तुमने क्या किया?"

"मैंने हॉस्पिटल से नहीं उठाया उसे। मैंने तो तुम्हारी जिंदगी बचाई देवराज चौहान। वरना अब तक तो तुम मर चुके होते।" सर्दूल का शांत स्वर कानों में पड़ रहा था--- "तुम 'कोमा' में हॉस्पिटल में थे। अकबर खान ने अपने दो आदमी जैकब और तारा को भेजा कि तुम्हें खत्म कर दे और तुम्हारा खतरा पूरी तरह मिट जाए। परन्तु मुझे ये बात पसंद नहीं आई कि एक लाचार, कोमा में पड़े इंसान की हत्या की जाए। हम इतने कमजोर तो हैं नहीं। तब मैंने हॉस्पिटल में पहुंचे तारा और जैकब को मार दिया। वरना अब तो तुम मर चुके होते।"

"तुमने गलती कर दी। अपनी मौत को जिंदा रहने दिया।"

सर्दूल के हंसने की आवाज कानों में पड़ी।

"मैं तुम सब को चुन-चुन कर मारूंगा। उस दिन का बदला गिन-गिन कर लूंगा। तब...।"

"एक बात तो माननी पड़ेगी देवराज चौहान कि तुम 'किस्मत के सुल्तान' हो। वरना आज जिन्दा न होते। तुम्हें मारने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई। परन्तु तुम बच गए। सच में 'किस्मत के सुल्तान' हो। परन्तु हर बार किस्मत साथ नहीं देती।" सर्दूल ने शांत स्वर में कहा और उधर से फोन बंद कर दिया था।

देवराज चौहान का चेहरा दहक रहा था।

आंखों में लाली भर आई थी। भिंचे होंठ। तभी होंठ खुले और गुर्राहट निकली।

■■■

कमिश्नर बाजरे पुलिस हैडक्वार्टर में किसी फाइल को देखने में व्यस्त था कि सब-इंस्पेक्टर कामटे का फोन आया।

"सर।" कामटे की आवाज दुआ-सलाम के बाद बाजरे के कानों में पड़ी--- "देवराज चौहान ने सुधीर दावरे के आदमी ब्रांडी को भी मार दिया है। ब्रांडी भी उस दिन उन सबके साथ था।"

"और शाम को आप्टे को मारा। खारकवासला में देवराज चौहान ने आप्टे को सड़क पर गोली मार दी। ये नजारा कई लोगों ने देखा। देवराज चौहान तेजी से सबको मारता जा रहा है। वो किसी न किसी तरह लोगों को ढूंढे जा रहा है और दो महीनों से पुलिस इनकी हवा भी नहीं पा सकी। कितने शर्म की बात है!"

सब-इंस्पेक्टर कामटे की आवाज नहीं आई।

"तुमने देवराज चौहान को पकड़ लाने का दावा किया था। लेकिन अभी तक तुम उसकी कोई खबर नहीं पा सके कि...।"

"मैं इसी भागदौड़ में लगा...।"

"भागदौड़ में ही लगे रहना और मुझे खबर देते रहना कि कौन-कौन देवराज चौहान का शिकार बनता जा रहा है।" बाजरे ने कड़वे स्वर में कहा--- "अगर तरक्की पाना चाहते हो तो अपने को साबित करके दिखाओ।"

"मैं...मैं साबित करके दिखाऊंगा सर।"

"देवराज चौहान को पकड़कर मेरे सामने लाओ, जैसा कि तुमने कहा था।"

"यस सर।"

"वो हॉस्पिटल में, तुम्हें बेहोश करके भागा था। तुम्हारी रिवाल्वर ले गया। पता किया कि क्या वो तुम्हारी सर्विस रिवाल्वर से हत्याएं कर रहा है या फिर...।"

"सर, सर मैंने अभी पता किया था। झंडू के शरीर से जो गोली निकली, वो उसी .38 रिवाल्वर की थी, जो मेरा था और जिसे देवराज चौहान ले गया था।" सब-इंस्पेक्टर कामटे का दबा स्वर, बाजरे के कानों में पड़ा।

"बहुत अच्छी खबर सुना रहे हो तुम मुझे।" बाजरे ने तीखे स्वर में कहा।

"मैं देवराज चौहान को...।"

"अब तुम दोबारा फोन करो तो मुझे अच्छी खबर सुनाना।" बाजरे ने उखड़े स्वर में कहा और फोन बंद कर दिया।

■■■

सब-इंस्पेक्टर कामटे कई दिनों की भागदौड़ से थक चुका था। पहले 50-55 दिन वो 'कोमा' में पड़े देवराज चौहान के पास ही डेरा जमाए रहा। घर भी नहीं गया और उसकी पत्नी सुनीता नाराज होकर अपने बाप के घर चली गई। तब सोचा था कि ये मामला खत्म होते ही, सुनीता को समझाकर ले आएगा।

परन्तु फिर देवराज चौहान 'कोमा' से बाहर आ गया और उसे बेहोश करके रिवाल्वर ले उड़ा उसकी। उसके बाद से तो उसे एक मिनट का भी वक्त नहीं मिला और देवराज चौहान को ढूंढे जा रहा था। देवराज चौहान नहीं मिल रहा था बल्कि खबर मिलती जा रही थी कि वो बारी-बारी अपने शिकारों को खत्म करता जा रहा है। पहले झंडू, फिर ब्रांडी और फिर आप्टे। चौबीस घंटों में तीन का शिकार कर लिया था उसने।

थका सा आप्टे अपने घर पहुंचा। जिस्म पर पड़ी वर्दी मैली हो रही थी। नहाने का भी मन था। सुनीता के बिना घर को देखकर, गहरी सांस लेकर रह गया। उसने कपड़े उतारे और बाथरूम में जा घुसा।

नहा-धोकर उसने सादे कपड़े पहने। आराम करने का मन था, परन्तु मन में बेचैनी भी थी कि देवराज चौहान को पकड़ना है। उसकी कोई खबर नहीं मिल रही। किचन में जाकर चाय बनाई और प्याला थामें छोटे से ड्राइंगरूम में आ बैठा। घूंट भरा। गंभीरता चेहरे पर नजर आ रही थी। सोचों में गुम था वो।

चाय का प्याला समाप्त किया कि उसका मोबाइल बज उठा।

"हैलो...।" कामटे ने फोन पर बात की।

"इंस्पेक्टर साहब। मैं लालू बोल रहा हूं...।"

लालू पुलिस का मुखबिर था।

"बोल...।"

"साहब, मुझे पता लगा कि पुलिस को कुछ लोगों की तलाश है। सोचा, आपसे बात कर लूं।"

कामटे सतर्क हुआ।

"क्या खबर है तेरे पास...।"

"दीपक चौला के एक आदमी की...।"

"किसकी?"

"सब कुछ फोन पर ही पूछ लेंगे इंस्पेक्टर साहब...।"

"फोन पर बताने में तुझे क्या परेशानी है?"

"एक काम भी है आपसे। मैं आ जाता हूं। आप कहां मिलेंगे?"

कामटे ने उसे बताया कि कहां मिलेगा आधे घंटे में, फिर बोला---

"दीपक चौला के किस आदमी की खबर है तेरे पास?"

"परमजीत...।"

"ठीक है, तू आधे घंटे में मेरी बताई जगह पर मिल...।"

■■■

सब-इंस्पेक्टर कामटे ने सड़क के किनारे मोटरसाइकिल रोकी और इंजन बंद कर दिया। इस वक्त वो सादे कपड़ों में था। उसके पास तीन वर्दियां थीं, तीनों ही मैली हो चुकी थीं। आते वक्त लॉन्ड्री में धोने-प्रेस करने को दे आया था। सुनीता उसकी वर्दियों का पूरा ध्यान रखती थी। हमेशा उसे वर्दी तैयार मिलती थी। कामटे ने गहरी सांस लेकर हर तरफ देखा।

कामटे की नजरें लालू को तलाश कर रही थीं। यहीं मिलने को कहा था लालू से।

पन्द्रह मिनट बाद लालू आता दिखा। वो सड़क पार करके इस तरफ आ रहा था। सफेद पैंट और सफेद ही कमीज में था वो। चालीस का था, खुद को किसी हीरो से कम नहीं समझता था। कामटे जानता था कि छोटे-छोटे गैरकानूनी काम करके वो नोट बनाता है। पुलिस की रहम भरी नजर पाने के लिए वो पुलिस को काम की खबरें भी देता रहता है।

"सलाम साब...।" पास पहुंचकर लालू ने मुस्कुराकर कहा।

"बहुत जंच रहा है।" कामटे मुस्कुरा पड़ा।

"आज रिश्तेदारी में शादी है इसलिए तैयार होकर ही घर से निकला।" लालू ने कहा।

"तेरे को कैसे पता कि परमजीत वाली खबर मेरे काम की होगी?"

"खबर सुनी कि आप देवराज चौहान को पकड़ने के लिए भागे फिर रहे हैं। इसलिए आपको फोन कर दिया, क्योंकि देवराज चौहान दावरे, अकबर खान, सर्दूल, दीपक चौला, वंशू करकरे को ढूंढ रहा है। वो आर्य निवास होटल में जब इन लोगों ने खून-खराबा किया था तो मैंने उनके बारे में सुना और...।"

"चल, काम की बात कर।"

"साब जी, इस मामले में बहुत खतरनाक लोग शामिल हैं। यहां तक कि पाकिस्तान-दुबई भागा सर्दूल भी है। अगर बात खुल गई तो वो मेरी गर्दन काट देंगे।" लालू दबे स्वर में कह उठा--- "मेरा नाम बीच में न आए तो अच्छा है।"

"नहीं आएगा। तेरे को परमजीत की खबर कैसे मिली?"

लालू ने इधर-उधर देखा, फिर कह उठा---

"साब जी, मैंने और परमजीत ने एक साथ ही अपराध की दुनिया में कदम रखा था। वो दीपक चौला की नजरों में चढ़ गया और तरक्की कर गया। मैं पीछे रह गया। आज सुबह ही परमजीत का फोन आया मुझे...।"

"फोन... तुझे?" कामटे सतर्क हुआ।

"वो कहते हैं न कि मुसीबत में पुराने लोग ही काम आते हैं। परमजीत ने मुझे फोन किया। अपना ठिकाना बताकर मुझे वहां पर बुलाया। वो पासपोर्ट बनवाना चाहता है। इसके लिए मुंहमांगी रकम देने को तैयार है।"

"पासपोर्ट?"

"वो दुबई चले जाना चाहता है। वो कहता है कि दो महीने हो गए, परन्तु पुलिस उन लोगों की तलाश में लगी हुई है। देवराज चौहान का मामला तो वो निपटा लेते, परन्तु पुलिस का कैसे निपटें। उसने ही ये कहा मुझसे। दो महीने से छिपे-छिपे वो परेशान हो गया है। मुझे कहा कि जैसे भी हो, मैं उसका पासपोर्ट बनवा दूं।"

"उसका छिपने का ठिकाना बता।"

लालू के चेहरे पर हिचकिचाहट उभरी।

"क्या है?" कामटे ने उसे घूरा।

"एक छोटा सा मेरा अपना काम है।"

"बोल।"

"मैं चाहता हूं रिश्तेदारी में जो शादी है, उसमें अपने भाई को भी ले जाऊं...।"

"मेरे को क्या, मेरी तरफ से पूरे मोहल्ले को ले जा।" कामटे ने उसे घूरा।

"वो... वो मेरा भाई वर्ली पुलिस स्टेशन के लॉकअप में बंद है। सुबह ही लड़ाई-झगड़े के मामले में पुलिस ने उसे पकड़कर बंद कर दिया है। कसम से, मेरे भाई की कोई गलती नहीं है, वो तो यूं ही रगड़े में आ...।"

"तो ये बात है।" कामटे ने होंठ सिकोड़े।

लालू खिसियाकर रह गया।

"नाम बता अपने भाई का।"

"प्रसाद सिंह...।"

कामटे मोटरसाइकिल से उतरा और उसे स्टैंड पर लगाया। मोबाइल निकाला और नम्बर मिलाते हुए, लालू से कई कदम दूर हटता चला गया।

दो-तीन मिनट बात करने के बाद कामटे ने फोन बंद करके जेब में रखा और पास आकर बोला---

"तेरे भाई को छोड़ा जा रहा है। अगली बार अपने भाई के लिए मेरे पास मत आना।"

"शुक्रिया साहब, बहुत-बहुत...।"

"परमजीत किधर है?"

लालू, परमजीत के ठिकाने के बारे में बताने लगा।

■■■

देवराज चौहान जोगेशा के आदमियों के बारे में जानकारी पाने की चेष्टा कर रहा था कि वो कौन हैं जो उसके लिए काम करते हैं। देवराज चौहान अपने शिकारों की तलाश में उनका इस्तेमाल करना चाहता था। जोगेशा को सर्दूल ने मार दिया था। ऐसे में जोगेशा के आदमी, उसके लिए, उसके शिकारों को तलाश करने का काम खुशी से करेंगे। चूंकि वो पहले से ही इस काम पर लगे हुए थे, इसलिए ये काम करने में उन्हें आसानी होगी। ज्यादा समझाना नहीं पड़ेगा।

रात साढ़े ग्यारह बजे देवराज चौहान झोपड़पट्टी के इलाके में पहुंचा।

जोगेशा के एक आदमी बनी प्रसाद के बारे में पता लगा था, जो कि इसी झोपड़पट्टी में किसी मंदिर के पास के घर में रहता है। देवराज चौहान ने झोपड़पट्टी में बने मंदिरों के बारे में जानकारी ली। वहां तीन बंदर थे। देवराज चौहान हर मंदिर के आसपास बनी प्रसाद को पूछने लगा।

रात हो चुकी थी। परन्तु झोपड़पट्टी में लोगों का आना-जाना जारी था।

करीब डेढ़ बजे देवराज चौहान ने बनी प्रसाद का घर तलाश लिया था। वो पच्चीस गज में बना मकान था और पहली-दूसरी मंजिल पर भी एक कमरा था। जो कि किराए पर दे रखे थे। सीढ़ियां साइड से निकलती थीं। नीचे वाले कमरे में बनी प्रसाद खुद रहता था। इस वक्त खिड़की पर लगा कूलर खड़-खड़ करता चल रहा था। यानि कि वो घर में था।

देवराज चौहान ने जोरों से दरवाजा थपथपाया।

दूसरी बार थपथपाने पर भीतर से नशे और नींद से भरी आवाज आई---

"कौन?"

"खोलो।" देवराज चौहान ने कहा।

"तुम हो कौन?" भीतर से बनी प्रसाद की आवाज आई।

"मरने से पहले जोगेशा ने मुझे कुछ दिया था तुम्हें देने को...।"

इसके फौरन बाद भीतर लाइट जली, फिर दरवाजा खुल गया।

बनी प्रसाद का चेहरा बता रहा था कि वो पीकर सोया था।

"क्या दिया था तुम्हें जोगेशा ने देने को...।"

"भीतर नहीं आने दोगे?" देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा।

"ये कोई वक्त है किसी के पास आने का?" पीछे हटता बनी प्रसाद बोला--- "सुबह भी आ सकते थे।"

देवराज चौहान भीतर प्रवेश कर गया।

ये भीड़ भरा कमरा था। कमरे में काफी सामान ठूंस रखा था। देवराज चौहान एक कुर्सी पर बैठा और सिगरेट सुलगा ली। बनी प्रसाद अभी तक दरवाजे पर खड़ा उसे घूर रहा था।

"बैठ जाओ।" देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा--- "तुम्हें ढूंढने में मुझे बहुत मेहनत करनी पड़ी।"

"मेहनत! तुम तो कह रहे थे कि तुम्हें जोगेशा ने भेजा...।"

"मेरा नाम देवराज चौहान है।"

"क्या?" वो चिंहुक उठा--- "त...तुम देवराज चौहान हो...?"

"हां...अब आराम से बैठ जाओ।"

अजीब सी हालत में फंसा बनी प्रसाद आगे बढ़ा और बेड के किनारे बैठता बोला---

"त...तुम मेरे पास क्यों आए हो?"

"जोगेशा की हत्या हो गई है।"

"जानता हूं...।"

"उसने कहा था कि उसके दो आदमी उसके लिए खबर लाते हैं। उनमें से एक तुम हो। मैं चाहता हूं कि तुम जो काम इन दिनों जो जोगेशा के लिए कर रहे थे, वही काम मेरे लिए करो।" देवराज चौहान ने कहा।

"तुम्हारा मतलब कि दीपक चौला, अकबर खान, वंशू करकरे, सुधीर दावरे और सर्दूल को तलाश करूं? साथ ही उन लोगों को जो उस दिन आर्य निवास होटल के उस हॉल में थे...।" बनी प्रसाद व्याकुल सा कह उठा।

"हां...।"

"मैं अब ये काम नहीं करूंगा।" कहते हुए उसने इंकार में सिर हिलाया।

"क्यों?"

"मैं जानता हूं कि जोगेशा की हत्या भी इसी मामले की वजह से हुई है कि वो इस काम में...।"

"उसे सर्दूल ने मारा है।"

"सर्दूल?" बनी प्रसाद कांप उठा।

देवराज चौहान उसे देखता रहा।

"मैं अब इस काम से निकल जाना चाहता हूं। मैं अब इस मामले में हाथ नहीं डालूंगा।" वो कह उठा।

"खामोशी से काम करते रहो। किसी को पता नहीं चलेगा।"

"नहीं, अब नहीं। ये खतरनाक मामला है। मेरे पास प्यारे और भोला की खबर है।" बनी प्रसाद ने बेचैन स्वर में कहा--- "शाम आठ बजे मैंने ये खबर देने को, जोगेशा को फोन किया तो पता चला कि किसी ने उसे मार दिया है।"

"बताओ, प्यारे और भोला कहां हैं?"

"वो दोनों एक साथ जुहू के एक मकान में हैं।"

"कौन सा मकान?"

"मुझे क्या मिलेगा?"

देवराज चौहान ने लाखों रुपए की गड्डी निकालकर उसकी तरफ उछाल दी।

बनी प्रसाद ने तुरंत गड्डी को दोनों हाथों में संभाला और जुहू के उस मकान का पता बता दिया।

"प्यारा, सुधीर दावरे का आदमी है और भोला वंशू करकरे का, फिर दोनों, एक साथ कैसे?"

"प्यारे की बहन, भोले के साथ ब्याही हुई है।" बनी प्रसाद ने बताया।

देवराज चौहान ने सिर हिलाया, फिर बोला---

"मुझे मेरे काम की और खबरें दोगे तो इसी प्रकार नोटों की गड्डियां मिलेंगी।"

"नहीं। मैं अब इस मामले से हट जाना चाहता हूं।"

"तुम्हारी मर्जी...।" देवराज चौहान उठा और बाहर निकल गया। दो और ठिकानों का उसे पता चल गया था।

■■■

सब-इंस्पेक्टर कामटे खुद उस जगह पर नजर रखे था जहां परमजीत छिपा था। उसने एक बार परमजीत की झलक भी देख ली थी। अंधेरे में वो उस दूसरी मंजिल के फ्लैट की बालकनी में कुछ देर आकर खड़ा रहा था। ये दो कमरे के फ्लैट थे। रात भर कामटे उस फ्लैट के सामने सड़क पर, फुटपाथ पर लेटा नजर रखता रहा था। ना तो नींद ले पाया और ना ही ठीक से जाग पाया था। उस फ्लैट की सीढ़ियां भी उसे वहां से नजर आ रही थीं। आने-जाने वालों पर वो नजर रखता रहा था। उसे देवराज चौहान के आने का इंतजार था, परंतु आता नहीं दिखा। सुबह हो गई।

कामटे का बुरा हाल था। रात भर जागते रहने से। वो जानता था कि परमजीत फ्लैट से बाहर नहीं जाने वाला। वो परमजीत के लिए नहीं, देवराज चौहान के लिए वहां था। इस इंतजार में था कि वो आए तो उसे पकड़ सके। इस मामले में वो और किसी पुलिस वाले को अपने साथ नहीं रख रहा था। बात के बाहर निकल जाने का डर था।

दिन निकलने के बाद जब उसकी हिम्मत जवाब दे गई तो मोटरसाइकिल पर अपने घर पहुंचा और गहरी नींद में जा डूबा। फिर दिन के ग्यारह बजे उठा। आंखें लाल हो रही थीं। वो सोच रहा था कि क्या परमजीत को, पुलिस को साथ ले जाकर पकड़ ले या उसे बकरा बनाकर देवराज चौहान के आने का इंतजार करे?

कामटे की सोचें देवराज चौहान के गिर्द घूमने लगीं।

फिर कामटे तैयार होकर निकला और मोटरसाइकिल पर पुलिस हैडक्वार्टर पहुंचकर वानखेड़े के ऑफिस में गया।

जाने क्यों उसके मन में आया कि इस बारे में वो वानखेड़े से बात कर सकता है।

वानखेड़े उसे ऑफिस में ही मिल गया।

"कैसे आना हुआ कामटे?" वानखेड़े की निगाह कामटे पर जा टिकी।

"सर, मैं आपसे कुछ कहना चाहता हूं...।"

"बैठ जाओ।"

"सब-इंस्पेक्टर कामटे बैठा और बोला।

"सर, ऐसा हो सकता है कि हम जो बातें करें, वो किसी दूसरे तक ना पहुंचें।" कामटे का इशारा कमिश्नर बाजरे की तरफ था।

"ऐसा ही होगा।" वानखेड़े ने गंभीरता से सिर हिलाया--- "कहो।"

"सर, मेरे पास जानकारी है कि दीपक चौला का खास आदमी परमजीत कहां पर है। देर-सवेर में देवराज चौहान वहां जरूर आएगा। आप वहां घेरा डलवा दें तो देवराज चौहान को पकड़ा जा सकता है।" कामटे ने कहा--- "देवराज चौहान हर इंसान को मारे जा रहा है, जो उस दिन होटल में था। वो झंडू, आप्टे, ब्रांडी की हत्याएं कर चुका है।"

वानखेड़े शांत निगाहों से कामटे को देखता रहा।

"हमारे सामने एक अच्छा मौका है सर, देवराज चौहान को पकड़ने का।"

"इस काम के लिए मेरे पास वक्त नहीं है कामटे...।" वानखेड़े ने शांत स्वर में कहा।

कामटे चौंका, संभला, फिर बोला।

"ये आप...आप क्या कह रहे हैं सर?"

"क्या गलत कह दिया मैंने?"

"सर आप बरसों से देवराज चौहान को पकड़ने का मौका ढूंढ रहे हैं और...।"

"तुम गलत समय पर मेरे पास आए।"

"मैं समझा नहीं।"

"इस वक्त मैं एक ऐसे बलात्कारी के केस पर काम कर रहा हूं जो दस साल तक की मासूम बच्चियों से बलात्कार करके उन्हें मार देता है। अब तक वो तेरह बच्चियों को मार चुका है। दो महीने की भागदौड़ के बाद मैं उस बलात्कारी तक पहुंच पाया हूं। मुझे आशा है कि अगले दो दिन में मैं उसे रंगे हाथ गिरफ्तार कर लूंगा। पुलिस के लोग मेरे इशारे पर, उस पर नजर रख रहे हैं।"

"तो...तो देवराज चौहान...।"

"तुम ही बताओ कामटे कि देवराज चौहान को पहले पकड़ना जरूरी है या उस बलात्कारी हत्यारे को?"

कामटे, वानखेड़े को देखता रहा।

"तुमने जवाब नहीं दिया?" वानखेड़े मुस्कुरा पड़ा।

"मैं...मैं कुछ समझ नहीं पा रहा हूं कि...।"

"मैंने पूछा है पहले देवराज चौहान को पकड़ना जरूरी है या उस बलात्कारी को?"

"ब...बलात्कारी को।" कामटे के होंठों से निकला।

"क्योंकि वो मासूम बच्चियों के साथ वहशी बर्ताव कर रहा...।"

"सर, वहशी बर्ताव देवराज चौहान भी कर रहा है। वो उन सबको मारे जा रहा...।"

"वो मासूम तो नहीं हैं।"

"लेकिन सर, हम इस तरह हत्याएं होते तो नहीं देख सकते? अगर हमें पता है तो, हमें रोकने की कोशिश...।"

"जरूर करनी चाहिए।" वानखेड़े कह उठा--- "हमने वर्दी पहनी ही इसलिए है कि किसी को कानून हाथ में ना लेने दें और अपराधी को उसके किए की सजा दिलवायें। सजा देने का हक सिर्फ कानून को है।"

"तभी तो कह रहा हूं कि देवराज चौहान को...।"

"कामटे...।" वानखेड़े ने शांत स्वर में कहा--- "कुछ देर के लिए वर्दी उतारकर बात करो।"

"क्या मतलब सर?"

"समझो कि तुम पुलिसवाले नहीं हो।"

"जी...।"

"तुम आम इंसान हो।"

"जी...।"

"देवराज चौहान और जगमोहन के साथ उन लोगों ने जो किया, वो तुम जानते हो।"

"जानता हूं सर।"

"क्या किया?" वानखेड़े ने पूछा।

"उन लोगों ने देवराज चौहान और जगमोहन की लगभग हत्या कर दी। ये तो उनकी किस्मत है कि वो बच गए।"

"हॉस्पिटल में भी नहीं छोड़ा। जगमोहन को उठाकर ले गए। क्या पता वो जिंदा भी है या नहीं।"

"ठीक कहा सर।"

"ऐसे में देवराज चौहान उन पर पलटवार कर रहा है तो क्या बुरा है?"

"देवराज चौहान कानून अपने हाथ में ले रहा है।"

"कानून तो उन लोगों ने भी तब अपने हाथ में लिया था, जब देवराज चौहान और जगमोहन की उन्होंने हत्या की थी। दो महीने हो गए इस बात को और कानून उनमें से किसी को भी नहीं पकड़ सका। जबकि देवराज चौहान को हॉस्पिटल से भागे सप्ताह ही हुआ है और उसने तीन को ढूंढकर मार दिया।"

कामटे वानखेड़े को देखता रहा।

"पुलिस उन लोगों को नहीं ढूंढ सकी, परंतु देवराज चौहान ने उन्हें ढूंढ निकाला, ऐसा क्यों कामटे?"

कामटे चुप रहा।

"जवाब दो।"

"क्योंकि ये पुलिस का व्यक्तिगत मामला नहीं था। फर्ज के तौर पर पुलिस ने उन लोगों को ढूंढा। जबकि देवराज चौहान का ये व्यक्तिगत मामला था। उसने जी-जान मेहनत करके, जैसे भी उन्हें ढूंढ निकाला।"

"इसी से समझ जाओ कि कई पुलिस वालों को उनके ठिकाने के बारे में पता होगा। परंतु किसी ने मुंह नहीं खोला। क्योंकि वो खतरनाक लोग हैं। कोई भी उनसे बिगाड़ना नहीं चाहता। मरना नहीं चाहता या फिर किसी ने चुप रहने के बदले उनसे नोट ले लिए होंगे। जो भी हो, दो महीने से पुलिस किसी को भी तलाश नहीं कर सकी। क्या ये बात तुम्हें अजीब नहीं लगती? तुमने सोचा नहीं कि पुलिस क्यों, किसी तक भी नहीं पहुंच सकी?"

"इस मामले में सर्दूल जैसा मुजरिम है सर। कोई पुलिस वाला उसके मामले में नहीं आना चाहता।"

"मानते हो ना ये बात?"

कामटे ने सहमति से सिर हिलाया।

"तो ऐसे में देवराज चौहान अपना मामला खुद निपटा रहा है तो पुलिस को क्यों परेशानी?"

कामटे कुछ नहीं बोला।

"तुम अपनी ड्यूटी-फर्ज निभाना चाहते हो तो बेशक उसे पूरा करो। परमजीत को पकड़ना चाहते हो तो उसे पकड़ो, या फिर देवराज चौहान के परमजीत तक पहुंचने का इंतजार करो कि उसे पकड़ सको। जो भी करना चाहते हो, करो। परंतु ये जान लो कि ना तो देवराज चौहान तुम्हारा सगा है, ना ही दूसरे लोग। तुम जिस आग में दखल देने की चेष्टा कर रहे हो, वो तुम्हें जला देगी। तुम क्या समझते हो कि तुम देवराज चौहान को पकड़ लोगे?"

कामटे ने बेचैनी से पहलू बदला।

"तुम नहीं पकड़ सकते देवराज चौहान को। ये ठीक है कि उसने आज तक किसी पुलिस वाले का बुरा नहीं किया, परंतु उसने कसम भी नहीं खा रखी होगी, ऐसा ना करने की। ये मामला बहुत गंभीर है, देवराज चौहान के लिए। क्योंकि पहले उसे और जगमोहन को मारने की कोशिश की गई, फिर जगमोहन को मरने की सी हालत में हॉस्पिटल से उठा लिया। जो हुआ, वो देवराज चौहान ही जानता है, परंतु हालातों को देखकर हम समझ सकते हैं कि क्या हुआ होगा। ऐसे में तुमने देवराज चौहान को रोकने या पकड़ने की चेष्टा की तो वो तुम्हें मार सकता है। ये अंडरवर्ल्ड के लोगों का आपसी मामला है। पुलिस को तब तक हरकत में नहीं आना चाहिए, जब तक कि वो आपस में मामला निपटा ना लें। ये नया नहीं हो रहा। ऐसा अक्सर अंडरवर्ल्ड में होता रहता है।"

तभी सब-इंस्पेक्टर कामटे का मोबाइल बजने लगा।

"एक मिनट सर।" कामटे ने मोबाइल निकाला और बात की--- "हैलो...।"

"कामटे...।" कमिश्नर बाजरे का स्वर कानों में पड़ा।

"सर।" कामटे ने सतर्क स्वर में कहा।

"तुम्हारे लिए खबर है। जुहू के एक मकान में आज सुबह छः बजे प्यारे और भोला को शूट कर दिया गया।"

"प्यारे और भोला।" कामटे के होंठों से निकला--- "प्यारा तो सुधीर दावरे का आदमी है। जबकि भोला वंशू करकरे का।"

"दोनों साथ ही थे...।"

"ओह...।"

"गोली मारने वाले की जानकारी मिली है, वो हुलिया देवराज चौहान जैसा ही है।"

कामटे ने गहरी सांस ली।

"तुम पीछे छूटते जा रहे हो कामटे। देवराज चौहान खुला घूम रहा है और तुम कुछ भी नहीं कर पा रहे...।"

"मैं...मैं पूरी कोशिश कर रहा हूं सर... मैं...।"

उधर से कमिश्नर बाजरे ने फोन बंद कर दिया।

कामटे ने व्याकुलता से मोबाइल फोन वापस अपनी जेब में रखा।

वानखेड़े उसे ही देख रहा था।

"देवराज चौहान ने आज सुबह दो को और मार दिया।" कामटे ने कहा।

"वो सबको मारेगा और खुद भी उनका शिकार हो सकता है। कुछ भी हो सकता है।"

"मैं आपसे राय लेना चाहता हूं कि इन हालातों में मैं क्या करूं?"

"मैं तुम्हें राय नहीं दे सकता। परंतु मैंने जो कहना था, वो कह दिया। फैसला तुम खुद करोगे।"

"मैं परमजीत को तो पकड़ सकता हूं। ताकि पुलिस वाले जान सकें कि उस दिन, उनके बीच क्या हुआ था?"

"मेरे से राय मत लो।" वानखेड़े ने गंभीर स्वर में कहा--- "मैं तुम्हें कोई सलाह नहीं दूंगा।"

सब-इंस्पेक्टर कामटे वानखेड़े के ऑफिस से निकला और उस तरफ बढ़ चुका था जहां कमिश्नर बाजरे का कमरा था। वो फैसला कर चुका था कि उसे क्या करना है।"

कामटे ने इजाजत लेकर बाजरे के ऑफिस में प्रवेश किया।

"मैं हैडक्वार्टर में ही था जब आपने फोन किया।" कामटे बोला--- "मेरे पास खबर है सर।"

"क्या?"

"दीपक चौला का खास आदमी परमजीत कहां पर छिपा हुआ है। मैंने उसे वहां देखा है।" कामटे ने कहा।

"अब तक तो वो वहां से निकल गया होगा।" बाजरे के होंठों से निकला।

"वो वहीं है। वहीं पर वो लंबे समय से छिपा हुआ है। हम रेड डालकर उसे पकड़ सकते हैं और उससे जान सकते हैं कि उस दिन आर्य निवास होटल के हॉल में क्या हुआ था।"

"तो देर किस बात की?" बाजरे हाथ बढ़ाकर फोन का रिसीवर उठाता बोला--- "परमजीत को फौरन घेर लो। मैं अभी सारे इंतजाम करा देता हूं। इस सारे काम को तुम संभालोगे कामटे। संभाल लोगे?"

"संभाल लूंगा सर।"

■■■

सब-इंस्पेक्टर कामटे अपने साथ वाइस हथियारबंद पुलिस वालों को लेकर गया था परमजीत को पकड़ने के लिए। कोई पुलिस वाला नहीं जानता था कि वो किसको पकड़ने जा रहे हैं। सब कुछ पूरी तरह गुप्त रखा गया कि कोई भेदी पुलिस वाला दीपक चौला या परमजीत को खबर ना कर दे।

घेरा पड़ने के बाद जब आठ पुलिस वालों के साथ कामटे परमजीत को पकड़ने के लिए सीढ़ियां चढ़ रहा था, तब उसने साथ के पुलिस वालों को बताया कि जिसे पकड़ना है, वो दीपक चौला का खास आदमी परमजीत है।

परमजीत को पकड़ लिया गया।

परमजीत को इतना मौका भी नहीं मिला थी वो मुकाबले पर उतर पाता।

उसे पुलिस हैडक्वार्टर के लॉकअप में लाकर रखा गया।

उसके बाद उससे पूछताछ शुरू हुई।

पूछताछ में कमिश्नर बाजरे, इंस्पेक्टर वानखेड़े, सब-इंस्पेक्टर कामटे, एक अन्य कमिश्नर के अलावा दो एक्सपर्ट थे।

परमजीत ने मुंह खोलने में जरा भी आना-कानी नहीं की।

वो जानता था कि बुरी तरह फंस चुका है।

सबसे पहले उससे पूछा गया कि उस दिन आर्य निवास होटल के हॉल में क्या हुआ था।

"सर्दूल के जन्मदिन के संबंध में लंच रखा गया था वहां।" परमजीत ने बताया।

"हमें खबर मिली है कि वहां उस दिन कोई प्लानिंग हो रही थी।" एक्सपर्ट ने कठोर स्वर में पूछा।

"नहीं वो लंच की सामान्य पार्टी थी। उस दिन काम-धंधा जरा भी नहीं था। सब हंसी-मजाक कर रहे थे।" परमजीत बोला।

"मेहमान के तौर पर तुम सब लोग ही थे वहां थे?"

"हां। सुधीर दावरे का आइडिया था कि सर्दूल के जन्मदिन पर पार्टी दी जाए। सारा इंतजाम उसी ने किया था। उसने ये पार्टी बड़े होटल में ना रखकर साधारण होटल में रखी, ताकि कोई उनकी मौजूदगी पर शक ना कर सके...।"

"देवराज चौहान और जगमोहन को किसने बुलाया पार्टी में?"

"किसी ने भी नहीं। देवराज चौहान और जगमोहन का हमसे कोई वास्ता नहीं था।"

"तो फिर वो पार्टी में कैसे पहुंचे...वो...।"

परमजीत का मुंह खुलता चला गया।

सब कुछ बताता चला गया वो।

उस दिन जो भी हुआ, सबके सामने खुलता चला गया।

वानखेड़े ने सब-इंस्पेक्टर कामटे को देखा।

कामटे गंभीर नजर आ रहा था।

कमिश्नर बाजरे कमर पर हाथ बांधे उस कमरे में टहलने लगा था।

परमजीत से जो-जो पूछा, हर बात का जवाब दिया उसने।

परंतु वो नहीं जानता था कि दीपक चौला या और लोग इस वक्त कहां छुपे हुए हैं।"

■■■

इंस्पेक्टर कामटे जब घर पहुंचा तो रात का एक बज रहा था।

घर के बाहर पहुंचते ही ठिठका। भीतर लाइट जल रही थी। कमरे का दरवाजा खुला हुआ था। चेहरे पर मुस्कान तैरती चली गई। सुनीता का चेहरा आंखों के सामने नाचा। वो वापस आ गई होगी।

कामटे तेजी से खुले दरवाजे से भीतर चला गया।

तीन कदम कमरे के भीतर जाकर एकाएक ठिठक गया।

मस्तिष्क को तीव्र झटका लगा। चेहरे पर हैरानी के भाव आ ठहरे।

ठीक सामने कुर्सी पर देवराज चौहान बैठा था। हाथ में चाय का प्याला था। उसे देखते ही देवराज चौहान ने पास पड़ी रिवाल्वर उठाकर रूख उसकी तरफ कर दिया। दोनों की नजरें मिलीं।

"तुम...यहां?" कामटे के होंठों से निकला। आंखों में अविश्वास भरा था।

"तुमने क्या सोचा दरवाजा खुला देखकर?" देवराज चौहान ने शांत स्वर में पूछा।

"मैंने सोचा सुनीता, मेरी पत्नी मेरा इंतजार कर रही है।"

"तुम कामटे हो?" सब-इंस्पेक्टर कामटे?"

कामटे ने सहमति से सिर हिला दिया।

"दरवाजा बंद करके आराम से बैठ जाओ।"

कामटे ने ऐसा ही किया। परंतु देवराज चौहान को अपने घर पर देखकर हैरान था।

"ये रिवाल्वर वही है, मेरे वाली?" कामटे ने बैठते हुए पूछा।

"हां।"

"इससे तुम आप्टे, ब्रांडी और प्यारे की हत्याएं कर चुके हो।"

"और भी मरे इससे...।"

"और कौन?" कामटे ने गहरी सांस ली।

"तुम्हें ये जानने की जरूरत नहीं है।" देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा।

कामटे, देवराज चौहान को देखने लगा।

"जब मुझे पता चला कि परमजीत को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है तो मैंने इस मामले की पूछताछ की। तब तुम्हारा नाम सामने आया। तुमने परमजीत को गिरफ्तार किया और मुझे पकड़ने के लिए भी भाग-दौड़ कर रहे हो?"

कामटे ने गहरी सांस ली। बेचैनी से पहलू बदला।

"टेबल पर देखो, क्या पड़ा है?"

कामटे ने देखा। टेबल पर सिरिंज पड़ी थी। जिसमें दवा भरी हुई थी।

"इंजेक्शन है।"

"हां, तुम जानते ही हो कि इंजेक्शन कैसे लगाया जाता है।"

कामटे की आंखें सिकुड़ी।

"ये इंजेक्शन तुम परमजीत को लगाओगे। ऐसा करते ही साठ सेकेंड में वो मर जाएगा।"

कामटे के होंठ भिंच गए।

"सुना तुमने कि मैंने क्या कहा?" देवराज चौहान का स्वर कठोर हो गया।

"आज परमजीत से पूछताछ की। उसने बताया कि उस दिन क्या हुआ था?"

देवराज चौहान के दांत भिंच गए।

"इसमें कोई शक नहीं कि तुम्हारे साथ उस दिन बुरा किया गया।" कामटे का स्वर गंभीर था।

"मैं तुमसे ये सब सुनने नहीं आया।"

"लेकिन तुम जो हत्याएं करते फिर रहे हो, वो भी गलत है।"

"अपनी राय मत दो। मैंने जो कहा है वो सुनो।" देवराज चौहान गुर्रा उठा।

"वानखेड़े ने बताया कि तुम पुलिस वालों से झगड़ा नहीं करते।"

"एक बात उसने नहीं बताई...।"

"क्या?"

"पुलिस वालों से झगड़ा करने की वजह ही नहीं थी मेरा पास। परंतु अब वजह है। मेरे शिकार को तुमने गिरफ्तार कर...।"

"वो मेरा फर्ज था...।"

"और इस वक्त मैं भी अपना फर्ज पूरा कर रहा हूं कामटे...।"

"मेरा फर्ज अभी बाकी है। तुम्हें गिरफ्तार करने का फर्ज...।" कामटे ने गंभीर स्वर में कहा।

"ये इंजेक्शन तुम पुलिस हिरासत में मौजूद परमजीत को लगाओगे।" देवराज चौहान ने कठोर स्वर में कहा।

"मैं ये नहीं कर सकता।"

"नहीं?"

"बिल्कुल नहीं।" कामटे ने दृढ़ स्वर में कहा।

देवराज चौहान ने चाय का प्याला रखा और रिवॉल्वर थामें उठा और कामटे की तरफ  बढ़ गया।

कामटे भी खड़ा हो गया।

देवराज चौहान ने रिवाल्वर की नाल उसकी छाती पर रख दी।

कामटे ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी।

"अब बोलो, नहीं...।" देवराज चौहान का चेहरा धधक उठा था।

कामटे के होंठ नहीं खुले। वो देवराज चौहान को देखता रहा।

"तुम ये इंजेक्शन परमजीत को लगाओगे कामटे।" देवराज चौहान गुर्रा उठा।

कामटे के होंठ भिंचे रहे।

"तुमने परमजीत से सब कुछ जाना, जो उस दिन उन्होंने मेरे साथ किया।" देवराज चौहान वहशी स्वर में कह उठा।

कामटे ने सिर हिलाया।

"वो सब जानने के बाद भी तुम्हें लगता है कि जो मैं कर रहा हूं वो गलत है?"

"किसी की जान लेने का तुम्हें कोई हक नहीं देवराज चौहान।" कामटे ने गंभीर स्वर में कहा।

"उन्होंने मुझे और जगमोहन को मार दिया था। फिर भी उन्होंने मेरा पीछा नहीं छोड़ा। वो जगमोहन को हॉस्पिटल से...।"

"वो पुलिस के हाथों से नहीं बचेंगे। सब पकड़े जाएंगे। तुम सब्र रखो...।"

"बकवास मत करो।" देवराज चौहान ने दांत पीसे--- "सब कुछ जानकर भी तुम चुप हो। तुम...।"

"कानून अपना काम कर रहा है।"

"अब तुमने बकवास की तो मैं तुम्हें गोली मार दूंगा।" देवराज चौहान ने खतरनाक स्वर में कहा।

कामटे ने मुंह बंद कर लिया।

"मैं कल आऊंगा। अगर तुमने परमजीत को इंजेक्शन नहीं लगाया तो तुम्हारी मौत पक्की।"

"तुम पुलिस वाले को धमकी दे रहे हो?"

"मैं इतना मानता हूं कि मेरे शिकार को पुलिस ने पकड़ लिया है। मैं उसकी मौत चाहता हूं। अगर तुमने कल तक उसे इंजेक्शन देकर नहीं मारा तो मैं तुम्हें मार दूंगा।" देवराज चौहान ने उसकी छाती से रिवॉल्वर हटाई और उसे घूरते हुए रिवॉल्वर को पैंट में फंसाया और तेज-तेज कदमों से खुले दरवाजे की तरफ बढ़ गया।

कामटे वहीं खड़ा रहा। देवराज चौहान चला गया। वो दरवाजे को देखता रहा। चेहरे पर परेशानी आ गई थी।

रात के 2:30 बज रहे थे।

देवराज चौहान एक साफ-सुथरी कालोनी के एक फ्लैट पर पहुंचा। कॉलबेल बजाई और दरवाजा खुलने का इंतजार करने लगा। साथ ही नजरें आसपास घूम रही थी।

दूसरी बार बेल बजाने के कुछ देर बाद दरवाजा खुला।

"क्या है?"

"वो तीस बरस की युवती थी और नींद से उठकर आ रही थी। चेहरे पर नाराजगी थी।

"मुझे पहचाना।" देवराज चौहान ने पूछा।

"बहुत हैं। किस-किस को पहचानूं! इस वक्त धंधा करने का मेरा मन नहीं है। बाद में आना।"

"इसे पहचानती हो...।"

युवती की नींद से भरी आंखें खुली तो देवराज चौहान को, अपनी कमीज को थोड़ा सा ऊपर उठाए देखा। पैंट में फंसी रिवाल्वर उसने देखी तो उसकी आंखें फैलती चली गईं। वो घबरा उठी।

"तुम्हारे चेहरे से नजर आ गया है कि तुम रिवाल्वर की पहचान रखती हो।" देवराज चौहान बोला--- "पीछे हट, मुझे भीतर आने दे। वरना रिवॉल्वर निकालकर तेरा भेजा उड़ा दूंगा।" स्वर में खतरनाक भाव आ गए थे।

वो जल्दी से पीछे हटी।

देवराज चौहान ने भीतर प्रवेश करते हुए कहा---

"दरवाजा बंद कर दे।"

उसने दरवाजा बंद किया और पलटकर नखरे वाले स्वर में कह उठी---

"तू रिवॉल्वर दिखाकर मेरे से जबर्दस्ती करेगा? करने को इतना मर रहा है जो...।"

"बैठ, तेरे से बात करनी है। तू दीपक चौला की खास है ना?"

उसकी आंखें सिकुड़ी। फिर गहरी सांस ली और आगे बढ़कर सोफे पर बैठ गई।

"तेरे-मेरे बीच दीपक चौला कहां से आ गया?" वो बोली।

"तेरा नाम रेहाना है?"

"हां...।"

"दीपक चौला मुंबई भर के वेश्यालयों से हफ्ता वसूली करता है। जिस्मफरोशी करने वाली, दीपक चौला की नजरों में आ जाए तो वो फिर उसे हफ्ता दिए बिना धंधा नहीं कर सकती। हर हफ्ते करोड़ों की वसूली करता है दीपक चौला।"

"हां। तूने क्या उसे लूटने का प्रोग्राम बना रखा...।" रेहाना बात को समझने की चेष्टा कर रही थी।

"मुझे दीपक चौला चाहिए। उसका ठिकाना बता।"

"सुना है, वो पुलिस के डर से कहीं छिपा बैठा है।" रेहाना ने कहा।

"तेरे को सब मालूम है। मेरे से कुछ मत पूछ। नहीं बताया तो तेरे सिर में गोली मारूंगा।" देवराज चौहान गुर्रा उठा।

रेहाना ने देवराज चौहान को गहरी निगाहों से देखा।

"जुबान खोल...।" देवराज चौहान पुनः गुर्राया।

"मैं अब दीपक चौला की खास नहीं रही।" रेहाना ने कड़वे स्वर में कहा--- "तीन महीने पहले तक मैं उसकी खास थी। मेरे बिना उसे नींद नहीं आती थी। लेकिन फिर उसका दिल एक नई छोकरी पर आ गया। जूना नाम है उस हरामी छोकरी का। अब उसे जूना के बिना नींद नहीं आती। रेहाना को तो तीन महीने से भूल गया है वो। फोन करके मेरी खैर-खबर भी नहीं लेता अब...।"

देवराज चौहान, रेहाना को देखता रहा।

"ये फ्लैट कभी दीपक चौला ने ही मुझे लेकर दिया था। बड़े प्यार से साल भर रखा मुझे। दोनों हाथों से पैसा लुटाता था और उसने कभी पैसे के लिए भी नहीं पूछा। फिर से मुझे सड़कों पर उतरना पड़ा, धंधे के लिए।" रेहाना कड़वे स्वर में बोली।

"मुझे दीपक चौला का ठिकाना बता।"

"कौन सा ठिकाना बताऊं, उसके तो बहुत ठिकाने हैं।"

"जहां पर वो मिल जाए।" देवराज चौहान के दांत भिंच गए।

"मैं नहीं जानती कि वो कहां मिलेगा। आजकल वो छिपा हुआ है, इतना तो पता है। तीन महीनों से मैं उससे मिली भी नहीं। लेकिन बात क्या है, कुछ तो बता।"

"उसे जान से मारना है।" देवराज चौहान ने वहशी स्वर में कहा।

रेहाना, देवराज चौहान को देखती रही, फिर सिर हिलाकर कह उठी---

"वो इसी लायक है। उसे कई लोग जान से खत्म कर देना चाहते हैं। परंतु वो इस बारे में हमेशा सतर्क रहता है कि कोई उसे मार ना सके। तेरा क्या पंगा हो गया उससे? क्या उसने तेरी बहन-बेटी को उठवा लिया जो...।"

"उसने मेरी जान लेनी चाही और मेरा दोस्त लापता हो गया। पता नहीं वो किस हाल में है।"

"चौला के बारे में जानना है तो झंडू, परमजीत, सावरकर के पास जा। उन्हें पता होगा।"

"झंडू को मैं मार चुका हूं। परमजीत पुलिस के पास है और सावरकर भी कहीं छुपा पड़ा है।"

"लंबे ही चक्कर में लगते हो तुम। सबकी खबर है तुम्हारे पास। तेरे को बाजी के पास जाना चाहिए।"

"बाजी?"

"ये दीपक चौला का मैनेजर है। उसकी गैरमौजूदगी में चौला के सारे काम संभालता है। चौला के बारे में कोई बता सकता है तो वो इकलौता शख्स बाजी ही है।"

"बाजी का ठिकाना कहां है?"

रेहाना ने बाजी का ठिकाना बताया।

देवराज चौहान फ्लैट से बाहर आ गया। सुबह के चार बजने जा रहे थे। नींद आंखों में चढ़ने लगी थी। आगे के काम के लिए तरोताजा होकर, कुछ नींद लेकर, आगे बढ़ना चाहता था। टैक्सी की तलाश में सड़क की तरफ चल पड़ा। आंखों के सामने जगमोहन का चेहरा बार-बार आ रहा था कि वो जाने किस हाल में होगा? जिंदा भी होगा या नहीं?

■■■

कामटे सुबह नौ बजे ही पुलिस हैडक्वार्टर जा पहुंचा। रुमाल में इंजेक्शन लपेट रखा था। चेहरे पर गंभीरता नाच रही थी। वो वानखेड़े से मिलना चाहता था। वानखेड़े के कमरे में पहुंचा। उसे यकीन था कि वानखेड़े ऑफिस में नहीं होगा। उसने सोच रखा था कि वानखेड़े से मिलने के लिए, उसके आने के इंतजार तक बैठा रहेगा।

परंतु कमरे में प्रवेश करते ही ठिठक गया।

एक तरफ लम्बे सोफे पर वानखेड़े लेटा हुआ था। नींद में था। शरीर पर कमीज-पैंट और यहां तक कि पांवों में जूते भी पहन रखे थे। कामटे समझ गया कि वानखेड़े कहीं से बुरे हाल में आकर, सोया होगा।

कामटे ने रुमाल में लिपटा इंजेक्शन टेबल पर रखा और खामोशी से कुर्सी पर बैठ गया। वो वानखेड़े की नींद खराब नहीं करना चाहता था। ज्यों-ज्यों वक्त बीतने लगा, पुलिस हैडक्वार्टर में शोर-शराबा बढ़ने लगा।

साढ़े दस के करीब वानखेड़े की आंखें खुली। कामटे को बैठे पाकर उठ बैठा।

"गुड मॉर्निंग सर।" कामटे मुस्कुराया।

वानखेड़े ने सिर हिलाया।

"लगता है रात सोना नहीं मिला?" कामटे पुनः बोला।

"रात उस बलात्कारी को गिरफ्तार किया। सीरियल किलर, बलात्कारी। सुबह सात बजे ही यहां पहुंच सका।" कहने के साथ ही वानखेड़े उठ खड़ा हुआ--- "मैं अभी आया।" कहकर वानखेड़े बाहर निकल गया।

दस मिनट बाद एक कांस्टेबल चाय के दो प्याले टेबल पर रख गया।

वानखेड़े लौटा। हाथ-मुंह धो आया था। बाल भी संवार लिए थे।

"चाय लो।" वानखेड़े ने बैठते हुए टेबल पर पड़े रुमाल को देखा और एक प्याला अपनी तरफ सरका कर घूंट भरा।

"सर।" कामटे चाय का प्याला अपनी तरफ सरकाता कह उठा--- "देवराज चौहान मेरे लिए मुसीबत बन रहा है।"

"क्यों?"

कामटे टेबल पर पड़े रुमाल को खोलते हुए बोला।

"कल रात जब मैं अपने घर पहुंचा तो वो मेरे घर पर बैठा, मेरा इंतजार कर रहा था। उसने मुझे ये इंजेक्शन दिया कि ये परमजीत को लगा दूं। अगर मैंने ऐसा नहीं किया तो वो मुझे मार देगा।"

वानखेड़े के होंठ सिकुड़े। उसने इंजेक्शन को देखा।

"उसने बताया कि इसमें क्या है?"

"नहीं सर। लेकिन उसने कहा कि इसे लगाते ही एक मिनट में परमजीत मर जाएगा। जहर ही होगा इसमें।" कामटे गंभीर स्वर में कह रहा था--- "उसका कहना है कि परमजीत मेरा शिकार है। उसे गिरफ्तार नहीं करना चाहिए था।"

वानखेड़े ने चाय का घूंट भरा। चेहरे पर शांत भाव थे।

"अब मैं क्या करूं सर?" देवराज चौहान आज फिर मेरे पास आएगा।"

"उसने कहा?"

"हां सर। वो खतरनाक है। मुझे तो लगा कि वो रात ही मुझ पर गोली चला देगा।"

"लैबोरेट्री से टेस्ट कराओ तो पता चले कि इंजेक्शन में कैसा जहर है?"

"टेस्ट तो मैं करा लेता हूं, परन्तु देवराज चौहान...।"

"उसकी फिक्र मत करो। वो तुम्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचाएगा। क्योंकि तुम पुलिस वाले हो।" वानखेड़े बोला।

"सर, उसने मुझे मार दिया तो...?" वो रात ही बहुत गुस्से में था।"

"नहीं मारेगा। मेरा विश्वास करो...।"

"आपका विश्वास? उसने मुझे मार दिया तो मैं आपके विश्वास का क्या करूंगा?" कामटे ने आहत स्वर में कहा।

वानखेड़े के चेहरे पर मुस्कान उभरी।

"बेहतर होगा कि तुम अपनी सुरक्षा का इंतजाम कर लो। जब घर जाओ तो बाहर पांच-दस पुलिसवाले...।"

"परन्तु सर, अभी तो आप कह रहे थे कि देवराज चौहान मुझे नहीं मारेगा।" कामटे के होंठों से निकला।

"वो तो मैं अब भी कह रहा हूं। लेकिन तुम्हें मेरी बात का विश्वास नहीं, इसलिए अपनी सुरक्षा का इंतजाम कर लो।"

"ये तो सर, मेरा गला फंसने वाली बात हो गई।" कामटे परेशान स्वर में कह उठा।

वानखेड़े ने चाय का घूंट भरा।

"मैं तो आपके कहने पर देवराज चौहान के मामले से पीछे हट गया था और सिर्फ परमजीत को गिरफ्तार किया। परमजीत से जब जाना कि आर्य निवास होटल में क्या हुआ था तो तब मैंने सोचा कि देवराज चौहान जो कर रहा है, करता रहे। मैं इस मामले में दखल नहीं दूंगा। लेकिन अब देवराज चौहान ही मेरे पीछे पड़ गया है।"

"मेरी मानो तो मस्त हो जाओ। तुम पुलिसवाले हो। देवराज चौहान तुम्हें कुछ नहीं कहेगा।"

"पक्का सर?" कामटे का स्वर शंका से भरा था।

"मेरी तरफ से तो पक्का ही है।"

"अगर देवराज चौहान की तरफ से ये पक्का हुआ कि वो मुझे गोली मार देगा तो...।"

"तुम लैबोरेट्री में टेस्ट कराओ, इंजेक्शन की दवा का। मुझे बताना कि ये कैसा जहर है?" वानखेड़े बोला--- "और इस मामले में घबराने की जरूरत नहीं। मेरी बात का भरोसा करो।"

"भरोसा तो है सर। पर देवराज चौहान का भरोसा नहीं है।" कामटे परेशान सा कह उठा।

■■■

बाजी।

बहुत ज्यादा व्यस्त इंसान था। ऐसा व्यस्त कि दिन-रात काम में लगा रहता था। दीपक चौला का अस्सी प्रतिशत काम वो संभालता था। किस वेश्यालय से कब हफ्ता लेना है। किसे डंडा चढ़ाना है। कौन से सेक्स रैकेट से कितना हफ्ता लेना है। कोई नया ग्रुप इस धंधे में आया है तो उससे बात करना। हर वक्त उसके मोबाइल बजते रहते थे। उसके आदमी हर वक्त दौड़ते रहते थे। हालत ये थी कि खाना खाते-खाते भी वो मोबाइल पर बात करता रहता था। घर-बार तो था नहीं। जिस ठिकाने से सब कुछ संभालता, वहीं पर वो सोता रहता था।

पचास बरस का बाजी, शराब ना पीने वाला, पतला लंबा इंसान था। अक्सर व्यस्तता के कारण उसकी शेव बढ़ी रहती थी। कभी-कभार ही उसका चेहरा चमकता दिखाई देता था।

इन दिनों दीपक चौला अंडरग्राउंड हुआ पड़ा था। हमेशा की तरह बाजी ही उसके सारे काम को संभाले हुए था। बाजी पर दीपक चौला को पूरा भरोसा था। सर्वेसर्वा वही जो था।

इस वक्त दिन का एक बज रहा था। बाजी अपने ठिकाने पर मौजूद कुर्सी पर बैठा मोबाइल पर बात कर रहा था। टेबल पर आठ-दस मोबाइल पड़े थे। जिनमें से दो बज रहे थे। बात खत्म करके बाजी ने दूसरा मोबाइल उठाया और बात करने लगा। इतना व्यस्त रहने की उसे आदत हो चुकी थी।

वहां चार आदमी कुर्सियों पर बैठे थे। हर वक्त उसके पास आदमी रहते थे। जाने कब किसे कहां भेजना पड़ जाए। उसके आदमी आते-जाते रहते थे उसके पास से।

टेबल पर पड़ा बजता फोन बंद हो गया और पुनः बजने लगा।

बाजी ने बात खत्म करके बजता फोन उठाया और बात की।

"हैलो...।"

"बाजी?" देवराज चौहान की आवाज कानों में पड़ी।

"हां, तू कौन?"

"मैं तेरे काम की बात बता सकता हूं।"

"बोल...।"

"मैं दो ऐसे सेक्स रैकेट को जानता हूं जो तुम लोगों से छिपकर धंधा कर रहे हैं, ताकि चौला को हफ्ता ना देना पड़े। एक ग्रुप में बारह लड़कियां हैं, दूसरे में बीस।" देवराज चौहान ने उधर से कहा।

"अच्छा, बता कौन है वो?"

"मुझे क्या मिलेगा?"

"खबर सही है तो पच्चीस हजार...।"

"खबर सही है, परंतु पच्चीस हजार कम है।"

"तू क्या चाहता है?"

"कम से कम पचास हजार तो मिले।"

"पचास मिलेगा तेरे को। अब बता, उन लोगों का पता ठिकाना?"

"नोट पहले लूंगा, फिर बताऊंगा।"

"तेरे को बाजी पर भरोसा नहीं?"

"भरोसा है लेकिन मैं अपने नोट गिन लेना चाहता हूं...।"

"मेरे पास आ जा, पता सुन...।"

"मैं नहीं आ सकता। क्योंकि मैं भी एक ग्रुप के बीच में से ही हूं। अपने को छुपाकर रखना चाहता हूं। तेरे किसी आदमी की नजरों में भी नहीं आना चाहता। तू पचास हजार के साथ अकेले में मुझे मिल...।"

"मेरे पास तेरे को कोई नहीं पहचानेगा?"

"मैं खतरा नहीं लेना चाहता। तू पचास हजार के साथ अकेला मुझे मिलेगा। हां तो बोल, नहीं तो फोन बंद...।"

"तू मुझे तकलीफ देगा आने की। बता किधर आना है?"

"जगह तू पसंद कर ले। लेकिन अकेले आना। मैं किसी की नजरों में नहीं आना चाहता।"

"अकेला ही आऊंगा। तेरा नाम क्या है?"

"तूने मेरे नाम को क्या करना है। पचास हजार दे और अपने काम की खबर ले।"

बाजी ने बताया कि कहां मिलेगा। एक घंटे के बाद।

■■■

गेलार्ड रेस्टोरेंट था वो, जहां बाजी ने प्रवेश किया और ठिठककर नजरें हर तरफ घुमाईं। रेस्टोरेंट में कई लोग बैठे दिख रहे थे, परंतु समस्या ये थी कि वो फोन करने वाले का चेहरा नहीं पहचानता था। मिलने-पहचानने के लिए कोई निशानी भी नहीं रखी थी। पर बाजी के मन में ये बात थी कि फोन करने वाला उसे जरूर पहचानता होगा।

बाजी ने एक टेबल संभाल ली। वेटर ने पानी रखकर ऑर्डर के लिए पूछा।

"मेरा साथी आने वाला है।" बाजी बोला।

वेटर चला गया।

तभी देवराज चौहान ने रेस्टोरेंट में प्रवेश किया। देवराज चौहान बाहर ही था। वो ये देख लेना चाहता था कि बाजी अकेला ही है या अपने आदमी रेस्टोरेंट के बाहर छोड़कर भीतर आता है।

परंतु वादे के मुताबिक बाजी अकेला ही आया था।

देवराज चौहान उसकी टेबल पर पहुंचा। बाजी ने सिर उठाकर उसे देखा।

"मैंने ही तुम्हें फोन किया था।" देवराज चौहान बोला।

"बैठो।" बाजी ने कुर्सी की तरफ इशारा किया।

"पचास हजार लाए हो?"

"हां, तुम...।"

"तो यहां बैठने की जरूरत नहीं। चलो मेरे साथ, मैं तुम्हें उन दोनों जगहों के ठिकाने बता देता हूं।"

बाजी उठा और देवराज चौहान के साथ रेस्टोरेंट के बाहर आ गया।

"उधर मेरी कार खड़ी...।" बाजी ने कहना चाहा।

"चलो, तुम्हारी कार में ही सही।" देवराज चौहान बोला--- "अकेले हो?"

"हां, तुम इतना डर क्यों रहे हो?"

"क्योंकि मैं उन्हीं लोगों का साथी हूं और मैं नहीं चाहता कि वो जानें कि मैंने तुम्हें उनके बारे में बताया है।"

"मैं इस बारे में किसी से कुछ नहीं कहूंगा।"

"शुक्रिया...।"

दोनों कार में बैठे। बाजी ने कार आगे बढ़ा दी।

"कहां जाना है?"

देवराज चौहान ने रिवाल्वर निकाली और बाजी की कमर से लगा दी।

बाजी बुरी तरह चौंका। कार चलाते-चलाते देवराज चौहान को देखा।

"ये क्या...।"

"सामने देखो...।" देवराज चौहान खतरनाक स्वर में गुर्राया।

बाजी सामने देखने लगा। वो परेशान सा दिखने लगा।

"तुम मेरा नाम जानना चाहते थे...।" देवराज चौहान ने शब्दों को चबाकर कहा--- "मेरा नाम देवराज चौहान है।"

बाजी हड़बड़ाया। कार पल भर के लिए डगमगाई फिर संभल गई।

देवराज चौहान ने उसकी कमर से रिवाल्वर हटा ली। परंतु हाथ में पकड़े रहा।

बाजी ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी।

"लगता है मेरा नाम तुमने अच्छी तरह से सुन रखा है, तभी तुम घबरा गए।"

"मेरे से तुम्हें क्या मतलब? तुम्हारा पंगा तो दीपक चौला से है।" वो कह उठा।

"तुम चौला के लिए काम करते हो। इसलिए मेरा तुमसे मतलब पैदा हो गया है।"

बाजी ने पुनः सूखे होंठों पर जीभ फेरी।

"कार को ऐसी जगह ले चलो, जहां सिर्फ तुम और मैं ही हों। तुमसे बात करनी है।"

"ब...बात तो हम में अब भी हो सकती है।"

"मैं आराम से बात करना चाहता हूं।" देवराज चौहान दांत भींचकर बोला--- "जैसा कहा है, वैसा कर।"

बीस मिनट बाद बाजी ने कार को सुनसान जगह पर रोका। यहां कम लोगों का आना-जाना था। बाजी की हालत पतली हो रही थी कि पास में देवराज चौहान है। वो सारा मामला जानता था कि...।

"अब बोल बेटे...।" देवराज चौहान ने दरिंदगी भरे स्वर में कहा और रिवाल्वर की नाल उसके गाल से सटा दी।

बाजी कांप उठा।

"क...क्या?"

"दीपक चौला कहां है? ये तो हो ही नहीं सकता कि तेरे को नहीं पता हो कि वो कहां है। दो महीने से वो कहीं छुपा हुआ है और तू उसका धंधा संभाल रहा है। नोटों की वसूली तो उसके पास भिजवाता ही होगा।"

"मैं...मैं सच में नहीं जानता कि चौला कहां है?" बाजी घबराकर डरे स्वर में बोला।

"झूठ...।" देवराज चौहान गुर्राया।

"सच कह रहा...।"

"तेरी उससे बात भी होती होगी।"

"ह...हां। फोन पर बात होती...।"

"वसूली के पैसे उसे भिजवाता है तू...।"

"मैं नहीं भिजवाता।" बाजी कह उठा--- "उसका कोई आदमी आकर ले जाता है। पहले वो मुझे फोन कर देता है कि नोट तैयार रखूं। ऐसे ही सब कुछ चल रहा है। मैं नहीं जानता कि वो कहां है।"

"मुझे दीपक चौला चाहिए।"

"य...ये रिवाल्वर पीछे करो।"

देवराज चौहान ने उसके गाल से रिवाल्वर की नाल हटाई।

बाजी गहरी-गहरी सांसें लेने लगा।

देवराज चौहान क्रूर नजरों से उसे देखता रहा।

बाजी ने उसे देखा।

"अगर तूने दीपक चौला का पता नहीं बताया तो...।"

"नहीं जानता मैं। मां कसम मैं नहीं...।"

"बाहर निकल...।" देवराज चौहान गुर्राया।

"क...क्या...?" बाजी घबरा उठा।

"बाहर निकल...।"

बाजी ने कांपते हाथ से दरवाजे का हैंडल दबाया और दरवाजा खोलकर बाहर निकला। उसके चेहरे पर भय फैला था। देवराज चौहान ने रिवाल्वर की नाल सीधी की और दरिंदगी से बोला---

"चौला का ठिकाना बता।"

"न-हीं जानता...।"

उसी पल फायर का तेज धमाका हुआ।

बाजी की चीख गूंजी और वो तड़पकर नीचे जा गिरा।

देवराज चौहान ने कार का दरवाजा खोला और बाहर निकलकर बाजी के पास पहुंचा।

बाजी की टांग में गोली लगी थी।

वो नीचे तड़प रहा था।

"अब तूने चौला का पता ना बताया तो गोली तेरे सिर में होगी।" देवराज चौहान क्रूरता से कह उठा।

"चौला का पता ठिकाना नहीं जानता। पर शायद करकरे तक पहुंचने का रास्ता तुम्हें पता चल जाए।" दर्द में तड़पते बाजी ने कहा पीड़ा के कारण आंखों में आंसू आ गए थे। दोनों हाथों से उसने टांग को थाम रखा था।

"वंशू करकरे?"

"ह...हां...वो ही...।"

"बता...।"

"कल मौली उसके पास गई थी। चौला का फोन आया था कि कड़क लड़की करकरे को चाहिए। मैंने मौली को भेजा था। कोई आदमी आकर, किसी बताई जगह से उसे ले गया था। शायद वो जानती हो कि वंशू करकरे कहां है।"

"मौली का पता बता।"

बाजी ने दर्द में फंसे मौली नाम की लड़की का पता बताया।

उसी पल देवराज चौहान ने रिवाल्वर सीधी की ओर ट्रिगर दबा दिया।

गोली, बाजी के सिर में जा लगी।

■■■

मौली बहुत खुश थी। नोट ही नोट थे उसके पास। यूं तो सिक्के खनकते हैं, परंतु आज तो मौली के पर्स में नोट भरे खनक रहे थे। वो इक्कीस बरस की थी। इंतेहाई खूबसूरत थी। हाथ लगे तो मैली हो, ऐसी। सड़क पर निकले तो देखने वाले देखने लगें मुड़-मुड़ के। उसमें खोट थी तो एक ही कि वो जिस्मानी धंधा करती थी।

परंतु उसे देखकर ये बात वो सोच भी नहीं सकता था। यूं वो झोपड़पट्टी में पली-बढ़ी हुई। 18 की हुई तो चौला की नजर उस पर पड़ी तो उसे अपने धंधे में खींच लिया। ले-देकर मौली की मां ही तो थी सिर्फ। उसे भी नोटों की जरूरत थी और इस काम में उसने चौला का पूरा साथ दिया। नतीजा ये हुआ कि झोपड़पट्टी से उठकर, फ्लैटों में पहुंच गई मां बेटी। चौला ने मौली का हुलिया तक बदल डाला। उसकी बोलचाल, उठना-बैठना सब सिखाया-पढ़ाया गया।

बहुत जल्दी मौली ने अपनी अदाओं का कमाल दिखाना शुरू कर दिया।

बाजी, मौली को हर जगह नहीं भेजता था। सिर्फ खास-खास ग्राहक के पास भेजता था, जो कि एक रात की भारी कीमत देते थे। यूं चौला ने मौली का दिल भर कर इस्तेमाल किया था।

तीन सालों में मौली ने खूब नोट कमाए थे।

बाजी उसकी रात का जितना भी वसूले, परंतु उसे पचास हजार देता था। इस तरह उसकी पांच-छः रातें महीने में लग जाती थी और दो-तीन लाख रुपया उसके पल्ले पड़ जाता था। लेकिन बीती रात तो जैसे उसकी लॉटरी खुल गई। बाजी ने उसे ये कहकर भेजा कि चौला के दोस्त के पास जाना है और एक पैसा भी उससे नहीं लेना है। वो गई। वंशू करकरे के पास उसे पहुंचाया गया। वंशू करकरे उसके लटकों-झटकों में रात भर आसमान की सैर करता रहा। मौली ने उसे इतना खुश कर दिया कि करकरे से उसे इनाम के तौर पर तीन लाख मिल गए। इतना पैसा एक साथ पहली बार उसके हाथ आया था। सुबह छः बजे उसे घर छोड़ दिया गया।

चार घंटे की नींद ली, फिर नहा-धोकर मां के हाथ का बना नाश्ता किया और नोटों को पर्स में भरकर शॉपिंग करने बाजार चल पड़ी। कार थी उसके पास। ड्राइवर था।

उसके बाद शाम चार बजे फ्लैट पर पहुंची।

ड्राइवर ने चार चक्कर लगाकर लगभग बीस लिफाफे फ्लैट में पहुंचा दिए।

"ये तू क्या पैसे बर्बाद करती फिर रही है।" उसकी मां कह उठी।

"तेरे लिए चार साड़ियां लाई हूं...।"

"पैसे बचा। इस धंधे का कोई भरोसा नहीं। जब तक तेरे में जान है, तभी तक...।"

"भाषण मत दिया कर।" मौली ने नाराज स्वर में कहा।

"तेरे को कभी अक्ल नहीं आएगी।"

"ये मेरी अक्ल ही है जो तुझे झोपड़े से फ्लैटों में ले आई। वरना वहां तो मेरी जिंदगी बर्बाद हो जाती।"

तभी फ्लैट की बेल बजी।

मां उठकर दरवाजे पर पहुंची और दरवाजा खोला।

सामने देवराज चौहान खड़ा था।

"क्या है?" उसकी मां ने उसे देखा।

देवराज चौहान ने जेब से हजार के नोटों की गड्डी निकालकर दिखाई।

उसकी मां की आंखें चमक उठीं।

"मौली है?"

"हां।" वो पीछे हटती बोली--- "भीतर आओ।"

देवराज चौहान भीतर आ गया।

दरवाजा बंद करते वो ऊंचे स्वर में कह उठी---

"साहब तेरे से मिलने आए हैं मौली...।"

तब तक मौली की निगाह उसके हाथ में थमी नोटों की गड्डी देख चुकी थी।

देवराज चौहान की निगाह मौली पर जा टिकी थी।

"पहली बार है जो कोई नोट इस तरह हाथ में लेकर यहां आया है। बाजी ने भेजा है तुझे?" मौली कह उठी।

"नहीं...।" देवराज चौहान कमरे में नजरें दौड़ाता बोला।

"सीधा आया है?"

"हां।"

"लाख की गड्डी तूने पकड़ रखी है...है ना?"

"ये तुम्हारे लिए है।"

"करेगा। इसी वास्ते आया है ना तू...?" मौली मुस्कुराई--- "किसने दिया मेरा पता तुझे?"

देवराज चौहान ने उसकी मां को देखा।

"तू जा मां...।" मौली बोली--- "हमें बात करने दे।"

मां तुरंत बाहर निकल गई।

"क्या लेगा... व्हिस्की या बीयर?"

"बैठ, तेरे से बात करनी है।"

दोनों आमने-सामने बैठे। देवराज चौहान ने नोटों की गड्डी उसे थमा दी।

"बहुत दिलवाला है।" मौली मुस्कुराई--- "स्वाद देखे बिना ही नोट दे रहा है। काफी रंगीन तबीयत का है तू।" इसके साथ हाथ में थाम रखी गड्डी को फुरेरी दी--- "चल उठ, उधर कमरे में तेरे को लाख वसूल करा दूं। साथ में क्या लेगा, व्हिस्की या बीयर? विदेशी व्हिस्की भी है। मुफ्त में। लाख रुपया देने वालों को तो मैं अपने हाथ से पिलाऊंगी।"

तभी भीतर दरवाजे पर उसकी मां दिखी। वो बोली---

"कुछ चाहिए मौली?"

"तू जल्दी क्यों करती है।" मौली कह उठी--- "आराम कर। मैं सब देख लूंगी।"

मां दरवाजे से चली गई।

"अब मैं बोलूं?" देवराज चौहान ने कहा।

"बोल राजा बोल...।" मौली ने गहरी सांस लेकर कहा।

"रात तू करकरे के पास गई थी?"

मौली के माथे पर पल भर के लिए बल पड़े।

"हां तो...।"

"कैसे गई?"

"करकरे का आदमी आया, ले गया।"

"कहां?"

"मलाड समंदर के किनारे। वहां से छोटी बोट में, समंदर में गई। करकरे समंदर में मौजूद बोट में था। करकरे ने बताया कि आजकल वो बोट में ही रह रहा है। तेरा उससे क्या वास्ता? क्यों पूछ रहा है?" मौली ने सामान्य स्वर में कहा।

"बोट का रंग कैसा था?"

"नीला और सफेद।"

जो जानकारी देवराज चौहान को चाहिए थी, वो मिल गई थी।

"कितने आदमी थे बोट में?"

"चार-पांच ही दिखे। लेकिन तू कौन है और क्यों ये सब पूछ रहा है?"

"चलता हूं...।" देवराज चौहान उठ खड़ा हुआ।

मौली हड़बड़ा उठी।

"कहां जा रहा है?"

"जो तू समझती है, मैं उसके लिए नहीं आया था।" देवराज चौहान दरवाजे की तरफ बढ़ता कह उठा।

"कमाल है! तू पागल तो नहीं जो लाख रुपया यूं ही मुझे देकर जा रहा है?"

देवराज चौहान दरवाजा खोलकर बाहर निकल गया।

मौली हैरान-परेशान सी वहीं बैठी कभी दरवाजे को देखती तो कभी हाथ में थमी नोटों की गड्डी को। वो समझ नहीं पा रही थी कि क्या हुआ है अभी-अभी। वो उसे लाख रुपया क्यों दे गया है?

तभी उसकी मां ने कमरे में कदम रखा और कह उठी---

"गया वो... लाख रुपया भी ले गया क्या...जरूर तूने उसे कोई बात कह दी होगी।"

मौली ने तीखी नजरों से उसे देखा फिर गड्डी दिखाकर बोली---

"लाख रुपया मेरे पास है।"

"ओह, गया वो?"

"हां...।"

उसकी मां ने तुरंत आगे बढ़कर दरवाजा बंद कर लिया।

"लेकिन वो तुझे लाख दे क्यों गया? किया कुछ भी नहीं?"

"उसने करकरे के बारे में पूछा कि मैं उससे कहां मिलने गई थी। मैंने बताया तो सुनकर वो चला गया।"

"पर लाख रुपया वो तेरे को क्यों दे गया?"

"गड़बड़ है मां...।"

"कैसे?"

"करकरे बता रहा था कि उसे पुलिस का और किसी आदमी का खतरा है। तभी वो यहां बोट पर छुपा हुआ है। और ये आदमी मुझसे करकरे का ठिकाना पूछकर चला गया। ये बात मुझे बाजी को बतानी चाहिए।"

"तू चुप बैठ। तेरे को क्या पड़ी है इन बातों में पड़ने की!"

"अगर ये आदमी, करकरे के पास गया और इसने उसे बता दिया, मेरे से उसका पता जाना है तो करकरे मुझे नहीं छोड़ेगा। बाजी को बता दूंगी तो वो करकरे को सावधान कर देगा कि ऐसी कोई बात हुई है।" कहने के साथ ही मौली बाजी का मोबाइल नंबर मिलाने लगी। मिलाती रही, परंतु बाजी तो जिंदा ही नहीं था, जो बात करता।

■■■

शाम हो चुकी थी। छः बज गए थे।

देवराज चौहान मलाड की तरफ से, किराए पर बोट लेकर समंदर में गया। बोट चलाने वाले को यही कहा कि वो समंदर घूमना चाहता है। उसका मांगा किराया भी पहले दे दिया।

बीस मिनट बाद ही समंदर में खड़ी, लहरों संग डोलती, वो नीली और सफेद बोट दिख गई। 6:40 का वक्त हो रहा था। शाम ढलती जा रही थी। ठंडी हवा, समंदर की सतह से टकराती आ रही थी।

देवराज चौहान चालक के पास पहुंचा और बोला---

"वो बोट देख रहे हो?" देवराज चौहान ने नीली-सफेद बोट की तरफ इशारा किया।

"वो नौशाद की बोट है?" उसने बताया।

"नौशाद कौन?"

चालक ने देवराज चौहान को गहरी निगाहों से देखा फिर कहा---

"आपको इस बोट से क्या मतलब?"

"मैंने वहां जाना है।"

"आप तो घूमने आए...।"

"मैं उसी बोट के लिए आया था।"

"हमें वापस चलना चाहिए...।" बोट चलाने वाला कह उठा--- "नौशाद खतरनाक आदमी है और गलत धंधे करता है। मैं उसके किसी मामले में दखल नहीं देना चाहता। पहले पता होता तो मैं तुम्हें लाता ही नहीं...।"

देवराज चौहान ने जेब से हजार-हजार के दस नोट निकालकर उसकी तरफ बढ़ाए।

वो सवालिया निगाहों से देवराज चौहान को देखने लगा।

"तुम्हारा नाम कहीं भी बीच में नहीं आएगा। ये नोट रखो और अंधेरा होने तक बोट घुमाते रहो, कहीं भी। उसके बाद मुझे उस बोट के पास कहीं उतारकर चले जाना।" देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा।

"मेरा नाम कहीं नहीं आएगा?"

"नहीं।"

उसने नोट लेकर जेब में रखे और बोला---

"मामला क्या है?"

"खास कुछ नहीं। उस बोट पर कोई आदमी है, जिसकी मुझे जरूरत है।" देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगा ली।

"नौशाद है वो?"

"नौशाद का नाम तो तुम्हारे मुंह से मैंने पहली बार सुना है। मुझे किसी और की जरूरत है।"

वो बोट को समंदर में घुमाता रहा।

उन्हें अंधेरा होने का इंतजार था।

करीब साढ़े सात बजे अंधेरा होना शुरू हुआ।

देवराज चौहान ने तैयारी शुरू कर दी। लिफाफा तलाश करके उसमें रिवाल्वर और गोलियां डालकर लिफाफे को अच्छी तरह बंद किया कि सामान पानी में गीला ना हो। लिफाफे को कमीज के भीतर डाला और बोट चलाने वाले के पास जा पहुंचा। अंधेरे की स्याही समंदर को घेरने लगी थी।

"वापस चलो। उस बोट की तरफ। बोट के पास मत जाना। मैं पानी में कूद जाऊंगा तो तुम वापस चले जाना।"

"नौशाद को ये पता ना चले कि तुम्हें मैं यहां तक लाया था।" वो बोला।

"निश्चिंत रहो।"

बोट घूमकर वापस चल पड़ी।

कुछ देर बाद देवराज चौहान ने समंदर में छलांग लगा दी।

■■■

बोट के बाहरी तरफ हवा भरी दो ट्यूबें खांचे में फंसा रखी थीं। उन ट्यूबों को पकड़कर आसानी से बोट के ऊपरी हिस्से में जा पहुंचा था देवराज चौहान। अंधेरा उसका सहायक था इस समय। बोट पर पहुंचते ही खड़े होकर इधर-उधर नजरें घुमाईं। गीले कपड़ों से पानी निचुड़ रहा था। जूतों में भी पानी भरा था। अभी देवराज चौहान ठीक से संयत भी नहीं हो पाया था कि उसके कानों में कदमों की आहटें पड़ीं। वो चौंका और फौरन ही सामने, केबिन की दीवार से सटकर खड़ा हो गया। कदमों की दूरी पर मोड़ था। कदमों की आवाजें उस मोड़ पर आ पहुंची थीं, फिर एक आदमी दिखाई दिया। अंधेरे में वो स्पष्ट नहीं दिख रहा था। वो इसी तरफ आ रहा था। उसकी चाल में लापरवाही थी।

ज्योंही वो देवराज चौहान के पास से निकला कि ठिठक गया। उसकी निगाह नीचे, बोट के फर्श पर पड़ी जो कि गीला नजर आ रहा था। देवराज चौहान सतर्क हो गया। उस व्यक्ति को आभास हो गया कि कोई बोट पर आया है। तभी उसकी निगाह आसपास घूमी और दीवार के साथ के साथ सटे खड़े देवराज चौहान पर गई।

उसी पल देवराज चौहान उस पर झपट पड़ा।

देवराज चौहान का दांया हाथ कराटे के रूप में वेग के साथ उसकी गर्दन पर पड़ा।

'कड़ाच।'

हड्डी टूटने की मध्यम-सी आवाज वहां उभरी। इससे पहले कि वो नीचे गिरता, देवराज चौहान ने दोनों हाथों से उसे संभाला और उठाकर बोट की रेलिंग के पार, समंदर में उछाल दिया।

'छपाक' की मध्यम सी आवाज उभरी, फिर सब कुछ शांत पड़ गया।

देवराज चौहान के दांत भिंचे हुए थे। आंखों में वहशी चमक नाच रही थी। उसने कमीज के भीतर हाथ डालकर लिफाफा निकाला और उसे खोला। रिवाल्वर लिफाफे से निकालकर कमीज में रखी और गोलियों को जेब में भर लिया। यही वो पल थे कि उसके कानों में कदमों की आहट पड़ी और उसी ओट से एक आदमी और प्रकट हुआ, जो इसी तरफ आ रहा था।

देवराज चौहान के जिस्म में दरिंदगी भरी लहर दौड़ी। वो खड़ा, उसे आता देखता रहा।

"यहां क्या कर रहा है पप्पू...?" पास आता वो आदमी बोला।

देवराज चौहान खड़ा था।

वो पास आया और पलक झपकते ही जोरदार घूंसा देवराज चौहान के पेट में मारा।

पेट थामें देवराज चौहान कराह के साथ दोहरा होता चला गया।

तभी उस व्यक्ति ने अपनी बांहों का घेरा देवराज चौहान के गले के गिर्द डाला और बांह कस ली।

देवराज चौहान छटपटा उठा।

"अंधेरा ही सही।" वो आदमी गुर्राकर बोला--- "पर मैंने तेरे आकार से इतना तो जान ही लिया था कि तू बोट का कोई आदमी नहीं है। बता, कौन है तू और बोट पर क्यों आया?"

देवराज चौहान ने गले में लिपटी उसकी बांह ढीली करनी चाही, परंतु वो कैसी रही।

"कौन है तू?" वो पुनः गुर्राया।

उसी पल देवराज चौहान ने कोहनी का तीखा वार पीछे, उसके पेट पर किया।

वो कुछ छटपटाया। गले का दबाव ढीला हुआ तो देवराज चौहान ने उसकी बांह पर, दांतों से काट खाया।

उसने तड़पकर गले में लिपटी बांह हटाई।

देवराज चौहान फुर्ती से घूमा और एक हाथ से उसके सिर के बाल पकड़े। दूसरा हाथ उसके पेट पर रखा और एक ही झटके के साथ उसे उछालते हुए समंदर में फेंक दिया।

'छपाक' की आवाज उभरी।

देवराज चौहान ने कमीज में हाथ डालकर रिवाल्वर निकाल ली।

तभी वो आदमी पानी पर दिखा और जोर-जोर से उसे गालियां देने लगा, परंतु उसकी आवाज ज्यादा दूर तक ना सुनाई दे रही थी। खुला समंदर था, आवाज गूंजती भी कैसे?

रिवाल्वर थामें देवराज चौहान उस मोड़ की तरफ बढ़ गया। वो सतर्क था। यहां वंशू करकरे जैसा खतरनाक इंसान था तो उसके साथी भी कम खतरनाक नहीं होंगे। मोड़ पर पल भर के लिए ठिठककर, झांका। उस तरफ कोई नहीं दिखा तो वो दबे पांव आगे बढ़ गया। भिंचे दांत। वहशी चेहरा। कुछ कदमों के बाद वो ठिठका। सामने ही नीचे जाने के लिए सीढ़ियां नजर आ रही थीं। वो छः सीढ़ियां लग रही थीं।

देवराज चौहान ने आसपास देखा, फिर रिवाल्वर थामें सीढ़ियां नीचे उतरने लगा। एक-एक सीढ़ी वो बेहद सावधानी से, बे-आवाज उतर रहा था। चार सीढ़ियां ही उतरा था कि उसके कानों में बातों की मध्यम सी आवाज पड़ने लगी। बाकी की दो सीढ़ियां भी उतरा तो सामने तीन फीट चौड़ी गैलरी के पार रोशनी देखी। आवाजें वहीं से आ रही थीं।

देवराज चौहान रिवाल्वर थामें सावधानी से उसी तरफ बढ़ गया।

वो रोशनी के करीब जा पहुंचा। ठिठका। भीतर झांका।

शानदार कमरा था वो। एक तरफ बेड लगा हुआ था। नीचे कारपेट बिछी थी। टी•वी• चल रहा था। आवाजें उसी की आ रही थीं। दीवारों पर पेंटिंग्स लगी थीं। जरूरत का हर सामान था वहां। बैठने के लिए सोफे की कुर्सियां रखी हुई थीं। परंतु देवराज चौहान की निगाह तो वंशू करकरे पर टिक चुकी थी।

वो बनियान और लुंगी पहने था।

हाथ में टी•वी• रिमोट और नजरें टी•वी• पर थीं।

देवराज चौहान का खून खौल उठा था। धधक उठा था चेहरा। दांत इस कदर भिंच गए कि गालों की हड्डियां बाहर की तरफ होकर, चमक उठी थीं। आंखों में वहशी चमक नाच उठी। मौत के भाव थे चेहरे पर। एकाएक आंखों के सामने वंशू करकरे का ठहाका लगाता उस दिन वाला चेहरा चमक उठा। जीत के नशे में चूर लग रहा था और आप्टे से कह रहा था कि मार...मार साले को, जान ना निकले इसकी, लेकिन तड़पे।

देवराज चौहान दांत किटकिटा उठा। होंठों से गुर्राहट निकली। देवराज चौहान ने रिवाल्वर थामें कदम आगे बढ़ाया और कमरे में प्रवेश करता चला गया।

वंशू करकरे की निगाह उस पर पड़ी तो आंखें फटती चली गईं। मुंह खुल गया। ठगा सा बैठा देवराज चौहान को देखता रह गया। अविश्वास था चेहरे पर, जैसे वो यकीन ना करना चाहता हो कि सामने देवराज चौहान मौजूद है ।

"कैसा है करकरे?" गुर्राहट भरे स्वर में पूछा देवराज चौहान ने।

करकरे को जैसे होश आया। चौंका वो।

ठंडी सिहरन बदन में दौड़ती चली गई।

एकाएक करकरे ने हाथ में पकड़े टी•वी• रिमोट को वेग के साथ देवराज चौहान पर फेंका और साथ ही सोफे से उठते हुए, जोरदार छलांग देवराज चौहान पर लगा दी।

करकरे देवराज चौहान से टकराया।

देवराज चौहान पीछे दीवार से टकराया, सिर लगा दीवार पर। शरीर झनझना उठा। ये सब एक ही पल में हो गया। इससे पहले कि वो संभलता, वंशू करकरे ने देवराज चौहान की रिवाल्वर वाली कलाई पकड़कर दीवार के साथ लगा दी और एक के बाद एक देवराज चौहान के पेट में घूंसे मारता चला गया।

देवराज चौहान के होंठों से चीख निकली।

पीड़ा इतनी हुई की रिवाल्वर वाला हाथ खुद-ब-खुद ही खुलता चला गया। रिवाल्वर हाथ से नीचे जा गिरी। चेहरा पीड़ा से धधक उठा था। तभी करकरे ने सिर की जोरदार चोटें उसके चेहरे पर कीं।

देवराज चौहान तड़प उठा।

सिर पुनः दीवार से जा टकराया।

करकरे ने पुनः उसके पेट में घूंसा मारा।

चंद पलों में ही देवराज चौहान का बुरा हाल हो गया। उसे संभलने का जरा भी मौका नहीं मिला था। उसने सोचा भी नहीं था कि करकरे ऐसा कुछ करने की हिम्मत करेगा, उसके हाथ में रिवाल्वर देखकर।

एकाएक करकरे के होंठों से गुस्से और डर से भरी दहाड़ निकली और उसने कमीज पकड़कर जोरों का झटका दिया तो देवराज चौहान लड़खड़ाता हुआ सा कमरे के बीच पड़ी कुर्सी से टकराया, फिर नीचे जा गिरा।

करकरे ने फुर्ती के साथ देवराज चौहान वाली गिरी रिवॉल्वर उठा ली। रिवॉल्वर हाथ में पाकर उसकी हिम्मत और बढ़ गई। डर से उसका चेहरा बिगड़ा पड़ा था। वो सामान्य होने लगा।

नीचे गिरने तक देवराज चौहान का सिर घूम रहा था।

करकरे ने सिर की जो चोट मारी थी, वो माथे पर लगी थी और उसका सिर घूम रहा था। पेट में अभी तक रह-रह कर पीड़ा भरी लहरें उठ रही थीं। शरीर एकदम टूटा-फूटा लग रहा था।

वंशू करकरे रिवाल्वर थामें, क्रूरता भरी निगाहों से देवराज चौहान को देखने लगा। शरीर और चेहरे की हिम्मत फिर लौट आई थी। देवराज चौहान को देखने पर, जो डर उस पर सवार हुआ था, वो गायब हो गया था।

"तू बोल अब।" वंशू करकरे ठहाका लगा उठा--- "तेरा क्या हाल है देवराज चौहान?"

करकरे पैंतालीस बरस का सांवले रंग का दुबला-पतला, परंतु ताकती इंसान था। पूरी मुंबई में उसकी ही हफ्ता-वसूली चलती थी। इस धंधे में बहुत लोग उतरे, परंतु उसने किसी को टिकने नहीं दिया। दो-चार परेशानी वालों के बारे में सर्दूल से कह दिया तो सर्दूल के गुर्गों ने उन्हें साफ कर दिया। अपने धंधे में अपनी हुकूमत कायम कर रखी थी। परंतु जिस दिन से देवराज चौहान उसकी जिंदगी में आया, तब से ही वो दौड़ा फिर रहा था।

देवराज चौहान अब संभलता जा रहा था।

दिमाग ने फिर से ठीक से काम करना शुरू कर दिया था।

वो जानता था कि बाजी पलट गई है। करकरे उसकी आशा से कहीं ज्यादा फुर्तीला निकला था। गलती उसकी थी, जो उसने नहीं सोचा कि करकरे घबराकर, उस पर हमला भी कर सकता है।

पेट में अभी भी दर्द की लहरें उठ रही थीं।

सिर की टक्कर लगने से, माथा भिन्नाया हुआ था।

देवराज चौहान उठ बैठा।

करकरे उससे पांच कदमों की दूरी पर रिवॉल्वर लिए खड़ा, खतरनाक ढंग से मुस्कुरा रहा था।

"हैरानी है कि तू मेरे तक आ पहुंचा। किसने बताया तुझे मेरा ठिकाना?" करकरे ने कड़वे स्वर में कहा।

"मौली ने...।"

"वो हरामजादी, उसने मेरा ठिकाना तुझे...।"

"वो नहीं जानती थी कि वो क्या कर रही है। उसने तो यूं ही तुम्हारे बारे में बता दिया। वो मुझे नहीं जानती थी।"

"साली कुतिया!"

देवराज चौहान, करकरे को देखने लगा।

"मेरे आदमियों ने तुझे रोका नहीं?"

"एक को मारकर समंदर में फेंक दिया। दूसरे को जिंदा ही फेंक दिया।"

"बाकी दो इंजन केबिन में होंगे।" करकरे ने वहशी स्वर में कहा--- "बोल, अब तेरा क्या करूं?"

देवराज चौहान के दांत भिंच गए।

"मुझे मारने आया था तू?"

"तुझे जिंदा रहने का कोई हक नहीं।"

"तू कौन होता है, हक का तमगा देने वाला? साले तुझे तो पहले ही मर जाना चाहिए था। 50 दिन तू 'कोमा' में रहा लेकिन बच गया। तेरी मौत मेरे ही हाथों लिखी थी। अकेला आया है?"

"हां...।"

"काम शेरों जैसा करता है और हिम्मत गीदड़ों जैसी है।" करकरे दांत किटकिटाकर बोला।

"तभी तुम सब छिपे पड़े हो तब से...।"

"बकवास मत कर। ये तो पुलिस का पंगा है, वरना तेरे से कौन डरता है। उस दिन से ही पुलिस का पंगा पड़ा हुआ है। हम सब की तलाश में पुलिस पीछे हटने का नाम नहीं ले रही।" करकरे खतरनाक स्वर में कह रहा था--- "वरना तेरा काम तो हमने कब का...।"

"जगमोहन का क्या किया?"

"जगमोहन?" करकरे ने उसे देखा।

"इतनी जल्दी भूल गए उसे?"

"सुना कि उसे कोई अस्पताल से उठाकर ले गया। जबकि वो मरने के हाल में था।"

देवराज चौहान के दांत भिंच गए।

"ये काम मैंने किया होता तो मुझे खुशी होती। पर मुझे जगमोहन के बारे में कोई खबर नहीं।"

देवराज चौहान मौत की निगाहों से उसे देखता रहा।

"तूने भोला को मारा। आप्टे को मारा। वो मेरे खास आदमी थे।" वंशू करकरे गुर्रा उठा।

दोनों शेरों की तरह एक-दूसरे को देखते रहे।

"बहुत अच्छा किया जो तू यहां आ गया। तेरी लाश समंदर में फेंक दूंगा और किसी को पता भी नहीं...।"

तभी कदमों की आहट गूंजी।

कोई तेजी से सीढ़ियां उतरा था।

करकरे चौंका और सतर्कता से रिवाल्वर पकड़े एक तरफ हो गया।

"करकरे साहब।" पुकारते हुए एक आदमी ने भीतर प्रवेश किया।

अपना आदमी आया पाकर करकरे ने राहत की सांस ली।

ये वही आदमी था, जिसे देवराज चौहान ने समंदर में फेंका था। इस वक्त वो भी पूरा भीगा हुआ था। वहां पहुंचते ही उसने करकरे को रिवॉल्वर थामें देखा, फिर देवराज चौहान पर नजर पड़ी तो उस पर गुस्से से झपट पड़ा।

"कमीने, हरामी, तूने मुझे समुंदर में फेंका...।"

देवराज चौहान ने पास पहुंच चुके उस व्यक्ति के पेट पर दोनों हाथ रखे और उसे एक तरफ उछाल दिया।

वो कुर्सी से टकराता नीचे जा गिरा।

देवराज चौहान फुर्ती से खड़ा हो गया।

"हिलना मत।" करकरे गुर्रा उठा।

नीचे गिरे व्यक्ति का गुस्सा डबल हो गया। वो तड़पकर उठा कि करकरे बोला---

"नौशाद। कुछ मत करो...।"

"लेकिन ये...।"

"चुप रहो। ये देवराज चौहान है।"

"ओह...।" नौशाद चौंका और देवराज चौहन को घूरने लगा।

"मुझे मारने आया था, लेकिन पासा पलट गया।" देवराज चौहान को घूरता करकरे कड़वे स्वर में बोला--- "इसकी लाश तुझे ही उठाकर समुंदर में फेंकनी है। उठा लेगा? भारी तो नहीं लगता है ये...।"

"ऐसे दो को भी उठा लूंगा।" नौशाद ने जहरीले स्वर में कहा।

"जो कुतिया कल रात आई थी, उसी ने इसे मेरा ठिकाना बताया।"

"माली!" नौशाद के होंठों से निकला।

"वही कमीनी। इसकी लाश को समंदर में फेंक कर, उस कुतिया को भी निपटा देना।"

नौशाद, देवराज चौहान को घूरता रहा।

"इतना ही बता दे कि जगमोहन जिंदा है या मर गया?" देवराज चौहान ने भिंचे स्वर में पूछा।

"नहीं जानता।" खतरनाक स्वर में कहते हुए करकरे ने रिवाल्वर वाला हाथ सीधा किया।

"ये पुलिस वाले की रिवाल्वर है।" देवराज चौहान ने फौरन कहा।

"फिर तो अच्छी बात है।" करकरे ठहाका लगा उठा--- "पुलिस वालों की रिवाल्वर इस्तेमाल करने का मौका भाग्य वालों को ही मिलता है, वरना उनकी रिवाल्वर की गोली हम जैसों पर ही चलती है।"

'धांय।'

फायर की तेज आवाज गूंजी।

देवराज चौहान को दो पल पहले ही एहसास हो गया था कि वो गोली चलाने जा रहा है। देवराज चौहान ने गोली से बचना चाहा। कुछ बचा। परंतु गोली उसकी बांह को छीलती निकल गई। इसके बाद देवराज चौहान रुका नहीं। उसने फुर्ती से पास पड़ी कुर्सी उठाकर करकरे पर फेंकी।

कुर्सी करकरे को बुरी तरह जा लगी।

सीधी छाती और रिवॉल्वर वाले हाथ से टकराई थी।

रिवॉल्वर हाथ से निकली और वो खुद दीवार से जा टकराया।

इतना मौका बहुत था देवराज चौहान के लिए।

देवराज चौहान ने छलांग लगाई और नीचे गिरी रिवाल्वर थाम ली।

नौशाद जो कि हक्का-बक्का था, वो एकाएक देवराज चौहान पर झपटा।

देवराज चौहान ने दांत भींचकर ट्रेगर दबा दिया। आगे बढ़ते नौशाद की छाती पर गोली जा लगी। इसके साथ देवराज चौहान ने जगह छोड़ दी। नौशाद वहां आ गिरा, जहां वो पहले मौजूद था।

तभी करकरे को उसने गैलरी की तरफ भागते देखा।

देवराज चौहान ने रिवाल्वर वाला हाथ सीधा किया और ट्रेगर दबा दिया।

गोली का जोरदार धमाका हुआ और गोली करकरे की पीठ पर जा लगी।

करके की चीख गूंजी और दीवार से टकराता नीचे जा गिरा।

चेहरे पर वहशी भाव समेटे देवराज चौहान करकरे के पास जा पहुंचा। करकरे के चेहरे पर मौत बरस रही थी। मौत के रूप में देवराज चौहान को अपने सिर पर खड़ा देखकर उसने अपने कांपते हाथ जोड़े।

"म...मुझे मत मा...रो देवराज चौहान...।"

देवराज चौहान ने नाल उसके चेहरे की तरफ की और ट्रेगर दबा दिया। गोली करकरे की नाक को तोड़ती भीतर प्रवेश करती चली गई। देवराज चौहान दरिंदा बना कुछ देर तक करकरे की लाश को देखता रहा, फिर लाश को पार करता सीढ़ियों की तरफ बढ़ गया। उन छः सीढ़ियों को चढ़कर देवराज चौहान बोट के ऊपरी हिस्से पर पहुंचा। ठंडी हवा उसके पसीने भरे जिस्म से टकराई तो राहत महसूस हुई।

उसी पल एक तरफ दो आदमी दौड़ते हुए वहां पहुंचे। गोलियां चलने की आवाज सुनकर वो इंजन रूम से दौड़ते आए थे, परंतु सामने अंजान आदमी को रिवाल्वर थामें पाकर ठिठके।

देवराज चौहान ने रिवाल्वर वाला हाथ सीधा किया और एक के बाद एक दो गोलियां चला दीं।

दोनों चीखते हुए नीचे जा गिरे।

मौत नाच रही थी देवराज चौहान के चेहरे पर। उसने रिवाल्वर जेब में रखा और रेलिंग के पास जा पहुंचा। एक पल को समंदर में देखा, फिर रेलिंग पर चढ़ा और समंदर में कूदता चला गया।

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