जब बात सच हो गई
अगस्त 2005
एक बैचलर के लिए कॉलेज का नया सेमेस्टर एक नये ख़ाली कैनवास जैसा होता है, और सेमेस्टर ब्रेक उस समय के जैसे, जिसमें वो उन सारे रंगों और बाक़ी के सामान को इकट्ठा करता है जो ख़ाली कैनवास पर नई तस्वीर बनाने में काम आने होते हैं। और फिर शुरू होती है जीवन की किताब में खट्टे-मीठे अनुभवों से भरे, एक और नये अध्याय के जुड़ने की कहानी।
कुछ ही दिन में नया शुरू होने वाला सेमेस्टर पलाश के लिए नई शुरुआत की उम्मीदों से भरा हुआ था। हालाँकि पिछले सेमेस्टर ब्रेक की शुरुआत पलाश के लिए दुखभरे अनुभवों से हुई थी, लेकिन अब वो ख़त्म होने को था। पिछले सेमेस्टर में घटित हुए सारे घटनाक्रम के चलते ही पलाश के पास अब मोबाइल फ़ोन नहीं था और इसी वजह से वो पिछले 2 महीने में जिग्ना से भी कुछ 2-3 बार ही बात कर पाया था। वैसे भी पलाश अपने घर पर था तो ज़्यादा बात करना संभव नहीं था और जो भी बात हुई थी वो या तो उसके पिताजी के फ़ोन पर या देव के ज़रिये ही हुई थी। अच्छी बात ये थी कि पलाश ने उसके मोबाइल को लेकर हुई सारी घटना की जानकारी देव के ज़रिये पहले ही जिग्ना तक पहुँचा दी थी।
आख़िर नये सेमेस्टर की यात्रा शुरू हुई और पलाश जयपुर से सुबह की ट्रेन पकड़कर दिन में ही दिल्ली पहुँच गया। पंतनगर के लिए रानीखेत एक्सप्रेस तो रात को ही मिलने वाली थी, जिग्ना से मुलाक़ात तो स्वाभाविक ही थी। देव के घर पहुँचने के कुछ ही देर बाद दोनों भाई प्लान के मुताबिक़ पहुँच गए, जिग्ना और जिया से मिलने। पलाश ने मोबाइल फ़ोन और पुलिस वाली सारी कहानी सबको विस्तार से बताई और कुछ ही घंटों की उस मुलाक़ात के बाद दोनों भाई ख़रीदारी करने मार्केट पहुँच गए। दिन के थोड़े समय में ही सारे काम निपटाकर पलाश को रात वाली रानीखेत एक्सप्रेस भी पकड़नी थी।
पलाश नई जोश और नई उम्मीद के साथ पंतनगर पहुँच गया था। यह पंतनगर में पलाश के दूसरे साल की शुरुआत थी। लेकिन अभी पलाश बाबू की मुश्किलें कहाँ ख़त्म होने वाली थी। सेमेस्टर शुरू हुए कुछ ही दिन हुए थे कि पहले साल के नतीजे हाथ में थे। कुल मिलाकर, पलाश बाबू को सेकेंड ग्रेड मिला था और ऊपर से इकोनॉमिक्स में तो फ़ेल ही हो गए थे।
पहले साल के इन निराशाजनक रिज़ल्ट्स से पलाश बहुत परेशान था। हो भी क्यों ना, ये सब पलाश के लिए आशा के विपरीत था क्योंकि वो अब तक के अपने शैक्षिक करियर में बहुत ही होनहार विद्यार्थी रहा था और उसकी गिनती क्लास के टॉप विद्यार्थियों में होती थी। फ़िलहाल, सत्य यही था की पंतनगर के प्रथम वर्ष के रिज़ल्ट्स में उसे सेकेंड ग्रेड मिला था और इकोनॉमिक्स में वो फ़ेल हो गया था। मोबाइल फ़ोन वाली घटना और ऊपर से निराशाजनक रिज़ल्ट्स, सब कुछ पलाश के लिए नकारात्मक ही था, और इसी के चलते माता-पिता का भरोसा भी अब टूटने लगा था। पलाश के माता-पिता ने उसे सिर्फ़ पढ़ाई पर ध्यान देने ही सख़्त हिदायत भी दे दी थी। वैसे भी विद्यार्थी का पहला काम उसकी पढ़ाई ही होता है बाक़ी सब बाद में। अब पलाश भी दृढ़निश्चयी था, एक बार जो ठान लिया वो तो पूरा करना ही था। उसने अपने साथ हो रही सारी नकारात्मक बातों को एक चुनौती की तरह लिया और निश्चय किया कि वो फ़ेल हुए इकोनॉमिक्स के पेपर को अच्छे नंबरों से पास करेगा और आगे कभी अपने रिज़ल्ट्स बिगड़ने नहीं देगा। पलाश अच्छी तरह जनता था कि दृढ़ निश्चय ही सफलता की कुंजी है और दो महीने बाद हुई परीक्षा में उसने इकोनॉमिक्स का पेपर 78% अंकों के साथ पास करके अपने आत्मविश्वास को फिर से हासिल कर ही लिया।
दूसरी ओर अब पहले साल की जूनियर लाइफ़ ख़त्म हो चुकी थी और पलाश गाँधी भवन में आ गया था। गाँधी भवन में दूसरे से चौथे साल तक के सारे सीनियर्स रहते थे और इसीलिए गाँधी भवन जूनियर्स में काफ़ी प्रसिद्ध था। पलाश को अभी भी याद था कि कैसे रैगिंग के समय में सारे जूनियर्स गाँधी भवन के नाम से डरे रहते थे। और जब किसी जूनियर को सीनियर्स गाँधी भवन ले जाते थे तो वो वापस आकार रैगिंग के क़िस्से सबको सुनाता था। पलाश को ख़ुद भी रैगिंग के चलते दो बार गाँधी भवन जाना पड़ा था और वो अनुभव अब यादों की किताब में जुड़ चुके थे।
अब पलाश ख़ुद गाँधी भवन के रूम नंबर 56 में रह रहा था और अब एक कमरे में जूनियर हॉस्टल की तरह तीन नहीं बल्कि सिर्फ़ दो लोग थे। पंतनगर के नेहरू हॉस्टल में गुज़रा हुआ एक साल का समय ये निश्चित करने के लिए काफ़ी था कि गाँधी हॉस्टल जाकर रूम मेट कौन होगा। इसीलिए ज़्यादातर लोग अपने-अपने रूम मेट निश्चित कर चुके थे। अब पलाश के लिए भी यही नियम लागू था, लेकिन उसके पास अपने नेहरू भवन वाले रूम मेट के सिवा कोई और चारा नहीं था। अब ये बात और थी कि पलाश की उससे ज़्यादा नहीं बनती थी, लेकिन समय और परिस्थिति के हिसाब से यही सबसे अच्छा प्रबंध था।
अच्छी बात यह थी कि अब आस-पड़ोस के और भी कई बच्चों ने मोबाइल फ़ोन ले लिए थे और इसीलिए अब पलाश को जिग्ना से बात करने में थोड़ी सहूलियत तो हो ही गई थी। पलाश ने अपनी क्लास के कुछ क़रीबी लोगों के मोबाइल नंबर जिग्ना को देव के ज़रिये दे दिए थे। पलाश के सारे बैचमेट्स बहुत अच्छे थे और वो हमेशा जिग्ना के SMS और फ़ोन कॉल्स की सूचना तुरंत ही उसे दे देते थे और यही ज़रिया अब पलाश के प्यार की यात्रा को आसान बना रहा था। जब इन सब लोगों के पास फ़ोन नहीं थे तो पलाश का फ़ोन ही था जो सबके काम आता था और अब वो ही लोग इस तरह पलाश के भी काम आ रहे थे।
ख़ुद अपना फ़ोन नहीं होते हुए भी अगले कुछ महीनों में पलाश का जिग्ना के साथ मोबाइल पर बातें करने का समय बहुत बढ़ गया था। अब पलाश ज़्यादातर समय जिग्ना से बात करने में ही व्यस्त होता था, मानो जैसे कि वो एक-दूसरे के सामने ही बैठे हों। हालाँकि, गुज़रे हुए सेमेस्टर ब्रेक में पूरे दो महीने में दोनों की मुश्किल से 2-3 बार ही बात हो पाई थी लेकिन उनके बीच जो प्यार का बंधन था उस पर इस बात का कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा। नतीजा यह था कि सिर्फ़ फ़ोन पर बात हो रही थी, वो भी अपना ख़ुद का नहीं, फिर भी दोनों का प्यार दिनों-दिन गहरा और मज़बूत हो रहा था।
अभी जिग्ना से हुई उस पहली मुलाक़ात को कुछ ही महीने गुज़रे थे और पलाश के दिलो-दिमाग़ में जिग्ना के वो शब्द घूम रहे थे, “आज से गुज़रने वाले हर दिन के साथ तुम मुझे अपने और क़रीब पाओगे।”
असल में ऐसा ही हो रहा था, जिग्ना का कहा हुआ एक-एक शब्द सच हो रहा था। पलाश के लिए यह एक विचित्र और अजनबी-सा एहसास था और कहीं-ना-कहीं उसे आगे आने वाले भविष्य की ऐसी घटनाओं का संकेत दे रहा था, जिनको वो चाहकर भी नज़रअंदाज़ नहीं कर पाएगा।
साथ-ही-साथ जिस तेज़ी से पंतनगर के नये और ख़ुशनुमा माहौल में आते ही पलाश नये चेहरों में घुल-मिल गया था, उसी तेज़ी से अब वो बस कुछ ही साथियों के बीच सिमट गया था। अब वो पहले जैसा नहीं रह गया था और अब वो सिर्फ़ कुछ ही लोगों से बात करता था।
यही जीवन कि सच्चाई है। अक्सर जब हम नये लोगों से मिलते हैं तो हमें उनके व्यवहार और तौर-तरीक़ों के बारे में ज़्यादा पता नहीं चल पाता है, लेकिन समय के साथ जैसे-जैसे हम उनके बारे में ज़्यादा जानने लगते हैं, मानव स्वभाव के चलते हम चयनात्मक हो जाते हैं और अपने आप को कुछ ही लोगों के बीच सीमित कर लेते हैं। यह नियम हम सब पर लागू होता है और जीवन में कभी-न-कभी हम पर हावी हो ही जाता है। असल में तो यह मानव स्वभाव है जो कहीं-न-कहीं हमारे अंदर छुपा होता है और हमें इंसान कहलाने पर मजबूर करता है।
सुनहरी चूड़ियाँ
अक्टूबर 2005
अगर प्यार में दूरी ना हो तो प्यार कैसा! असल में दूरी ही तो है जो प्यार को परवान चढ़ाती है और यहाँ तो यह दूरी ही थी जो पलाश और जिग्ना को दिनों-दिन और क़रीब लाती जा रही थी। एक तरफ़ पलाश पंतनगर में था तो दूसरी ओर जिग्ना दिल्ली, NCR में। कहीं-से-कहीं तक दोनों को जोड़ने वाली कोई कड़ी नहीं, था तो बस एक मोबाइल फ़ोन, सिर्फ़ पलाश के पास और वो भी अपना ख़ुद का नहीं। लेकिन ये सारी मुश्किलें पलाश और जिग्ना को रोकने के लिए काफ़ी नहीं थीं, बल्कि वो तो दिन पर दिन एक-दूसरे के और क़रीब होते जा रहे थे। अब पलाश को यक़ीन हो चुका था कि इस रिश्ते में कोई तो बात थी जो हर गुज़रते दिन के साथ उन्हें क़रीब लाती जा रही थी और एक अनजाने से बंधन में बाँध चुकी थी।
पलाश अब दो ही कामों में व्यस्त था, एक तो पंतनगर की रोज़ की लाइफ़, दूसरा जिग्ना के फ़ोन कॉल्स। इसी बीच पलाश ने भावी करियर की तैयारी के मद्देनज़र जयपुर जाकर कुछ किताबें ख़रीदने का विचार बनाया। दो वर्षों की तैयारी के बाद भी ऑल इंडिया प्री मेडिकल परीक्षा में मिली असफलता ने ही पलाश को पंतनगर से एग्रीकल्चर में स्नातक करने के लिए बाध्य कर दिया था। लेकिन अभी उन सब पिछली बातों से आगे बढ़कर वो पंतनगर में पढ़ाई के अच्छे वातावरण का उपयोग करते हुए अपने भावी करियर को सँवारने के लिए प्रेरित था। पलाश ने अब अपना भावी करियर रिसर्च में बनाने का दृढ़निश्चय कर लिया था और इसी के चलते वो कुछ किताबें ख़रीदना चाहता था जो उसे आगे की तैयारी में काम आने वाली थीं।
यहीं से शुरुआत हुई पलाश के भावी करियर की जब उसने अपने रिसर्च करियर की पहली किताब ‘Lehninger : The Principles of Biochemistry’ ख़रीदी। इसी किताब की वजह से पलाश का रिसर्च में करियर बनाने का दृढ़निश्चय और भी मज़बूत हो गया था और यह दृढ़निश्चय ही उसे बाद में उसकी PhD की यात्रा तक ले गया। बहरहाल, इसी काम को अंजाम देने पलाश बाबू जयपुर अपने घर पहुँच गए थे और फिर अगले ही दिन वह जयपुर के प्रसिद्ध पुस्तक बाज़ार ‘चौड़ा-रास्ता’ में था।
किताब ख़रीदकर वापस लौटते हुए पलाश, पास ही के बापू बाज़ार से गुज़र रहा था जो कि राजस्थान की संस्कृति से जुड़ी प्राचीन वस्तुओं और राजस्थानी कपड़ों के लिए प्रसिद्ध था। पलाश के पास किताब ख़रीदने के बाद थोड़े पैसे तो बचे हुए थे ही, उसने तुरंत ही विचार बनाया कि क्यों ना जिग्ना के लिए कुछ ख़रीदा जाए। फिर क्या था, पलाश बाबू जुट गए जिग्ना के लिए गिफ़्ट खोजने में। पलाश बहुत उत्साहित था, यह स्वाभाविक था, आख़िर यह पहला मौक़ा था जब पलाश जिग्ना को कोई गिफ़्ट देने वाला था। बाक़ी सब तो ठीक था और पलाश का विचार भी बहुत अच्छा था लेकिन पलाश का यह पहला मौक़ा था जब उसे किसी लड़की के लिए गिफ़्ट ख़रीदना था। मुश्किल होना तो जायज़ था ही। नतीजा अगला एक घंटा पूरे बाज़ार का चक्कर लगाने में ही निकल गया लेकिन वो कुछ भी निश्चित नहीं कर पाया कि जिग्ना के लिए क्या ले?
पलाश भी ठहरा अपनी ज़िद का पक्का, उसने तो ठान लिया था कि कुछ-न-कुछ तो लेना है आख़िर यह उसकी तरफ़ से जिग्ना के लिए पहला सरप्राइज़ गिफ़्ट जो होने वाला था। इसी बीच पलाश को जिग्ना की बातें भी याद आ रही थीं। पहली मुलाक़ात के दौरान ही जब जिग्ना को पलाश के राजस्थान से होने का पता चला तो उसने कहा था कि उसे राजस्थान और राजस्थानी संस्कृति से बहुत लगाव है। अब तो पलाश का विचार दृढ़ निश्चय में बदल गया था लेकिन वो गिफ़्ट क्या होगा? ये उसे अभी तक नहीं पता था।
आख़िरकार बाज़ार के कई चक्कर लगाने के बाद, पलाश ने अपने आप को समझा ही लिया कि वो जिग्ना के लिए राजस्थानी स्टाइल की सुनहरी चूड़ियाँ ख़रीदेगा। और फिर बिना देर लगाए एक सुलझे हुए ग्राहक की तरह दुकानदार से मोल-भाव करते हुए उसने चूड़ियाँ भी पसंद कर ही ली। अभी मुश्किल ख़त्म कहाँ हुई थी। अब चूड़ियाँ तो ठीक थी लेकिन सवाल ये आकार खड़ा हो गया कि जिग्ना के लिए चूड़ियों का सही माप क्या होगा। पलाश अच्छी तरह जनता था कि उसे जल्द ही कोई निर्णय लेना होगा क्योंकि अब शाम होने को थी और उसे समय से घर भी पहुँचना था। पलाश ने कुछ पलों के लिए पूरे आत्मविश्वास के साथ अपनी आँखें बंद की और एक सटीक निर्णय लेते हुए 2.6 माप की चूड़ियाँ ख़रीद ली। हालाँकि ना तो पलाश ने पहले कभी चूड़ियाँ ख़रीदी थी और ना ही उसने उस दिन से पहले कभी चूड़ियों की माप के बारे में सुना था। आप इसे एक संयोग कह सकते हैं लेकिन यह निश्चित ही प्यार था जिसे पलाश और जिग्ना की नियति पहले ही निर्धारित कर चुकी थी, इसीलिए जब वो चूड़ियाँ पलाश ने जिग्ना को सरप्राइज़ गिफ़्ट की तो चूड़ियों का माप एकदम सही था। वो सुनहरी चूड़ियाँ आज भी जिग्ना के पास एक जीवनपर्यंत याद के समान पलाश के प्यार को बयान कर रही हैं।
जब पलाश अपनी ख़रीदारी पूरी करके घर पहुँचा तो काफ़ी देर हो गई थी लेकिन वो बहुत ख़ुश था। आख़िर उसने जिग्ना के लिए पहला सरप्राइज़ गिफ़्ट ले ही लिया था। उसने चूड़ियों को किताबों और कपड़ों के साथ अपने बैग में ही रख दिया था ताकि घर पर किसी को पता न लगे। वैसे वो अच्छी तरह जनता था कि बाक़ी सब का तो ठीक था, लेकिन माँ से कुछ भी छुपाना मुश्किल था। उसने हमेशा ही देखा था कि जब भी वो माँ से कुछ छुपाने की कोशिश करता था किसी-न-किसी तरह उन्हें पता चल ही जाता था।
आख़िर माँ तो माँ ही होती है।
जैसा कि पलाश को पहले ही अंदेशा था, बैग पैक करते वक़्त माँ की नज़रों से चूड़ियों का बॉक्स बच नहीं पाया और बॉक्स को बिना खोले ही माँ ने पूछा, “ये चूड़ियाँ किसके लिए ख़रीदी है?”
पलाश पहले से ही सतर्क था और तुरंत ही बात को यह कहकर घूमा दिया कि उसके क्लास की एक लड़की बार-बार राजस्थान से कुछ लाने को कह रही थी तो उसी के लिए उसने ये चूड़ियाँ ख़रीदी हैं। माँ तो बिना बोले ही बच्चों का मन पढ़ लेती है, यह तो बस चूड़ियों का बॉक्स था। ख़ैर अभी तो पलाश बाबू बचे किसी तरह।
पलाश बस दो ही दिन के लिए घर आया था और अगली सुबह 4.15 पर उसे दिल्ली के ट्रेन पकड़नी थी और फिर दिल्ली से रात को हर बार की तरह रानीखेत एक्सप्रेस। इस तरह जब भी पलाश अपने घर जाता था वापस लौटते समय उसे कम-से-कम आधा दिन तो जिग्ना से मुलाक़ात करने के लिए मिल ही जाता था। दूसरी ओर जिग्ना के लिए अपनी कोचिंग क्लास बंक करना ही एक मात्र तरीक़ा था पलाश से मिलने का। जैसे भी हो अभी तक तो दोनों के प्यार की गाड़ी ऐसे ही चल रही थी। बाक़ी देव और जिया तो थे ही साथ देने के लिए। हमेशा की तरह पलाश ने इस बार भी देव को पहले ही अपने दिल्ली आने के बारे में बता दिया था। इस बार किसी काम में व्यस्त होने की वजह से देव पलाश के साथ नहीं जा रहा था और उसने पलाश को जिग्ना से इंद्रप्रस्थ पार्क में मिलने का सुझाव पहले ही दे दिया था। पलाश और जिग्ना दोनों पहली बार अकेले मिलने जा रहे थे।
हर बार की तरह पलाश लगभग 12 बजे दिल्ली, देव के घर पहुँच गया था। देव के साथ लंच किया और अपना समान रखकर पलाश निकल गया जिग्ना से मिलने। मिलने का स्थान तो पहले ही तय था, EDM मॉल, जो कि जिग्ना के घर से कुछ ही दूरी पर, दिल्ली NCR बार्डर पर स्थित था। EDM मॉल देव के घर से ज़्यादा दूर नहीं था, पलाश ने मॉल के लिए ऑटो लिया और लगभग 2 बजे वहाँ पहुँच गया। जिग्ना भी अगले 15 मिनट में ही नियत स्थान पर पहुँच गई थी। यह पलाश और जिग्ना की पहली मुलाक़ात थी जब वो दोनों अकेले मिल रहे थे। पलाश ने जिग्ना से इंद्रप्रस्थ पार्क के बारे में पूछा क्योंकि पलाश पहले वहाँ कभी नहीं गया था। जिग्ना ने बताया कि वो पहले अपने दोस्तों के साथ एक-दो बार वहाँ जा चुकी है। अब पलाश बाबू ठहरे हर बात का जाँच-परखकर और सोच-समझकर निर्णय लेने वाले और वैसे भी वो पहली बार एक लड़की के साथ ऐसी जगह जा रहा था जहाँ वो पहले कभी नहीं गया था। ख़ैर, देव के कहे अनुसार पलाश ने आख़िर इंद्रप्रस्थ पार्क जाने का ही निर्णय लिया।
अगले कुछ ही मिनटों में पलाश और जिग्ना दोनों ऑटो में बैठे इंद्रप्रस्थ पार्क की ओर बढ़ रहे थे। असल में इंद्रप्रस्थ पार्क दिल्ली में लव बर्ड्स के लिए एक प्रसिद्ध स्थान था, जो पलाश को बाद में पता चला। पार्क बहुत बड़ा था और पलाश वहाँ मौजूद लव बर्ड्स की संख्या को देखकर हैरान था। पूरे पार्क में सिर्फ़ प्यार करने वाले जोड़े ही थे और माहौल कुछ इस तरह का था कि उन्हें किसी की कोई फ़िकर नहीं थी, जैसे वो जगह सिर्फ़ उन्हीं के लिए बनी हो। छोटे शहरों में तो ऐसे पार्क और वातावरण की कल्पना करना भी मुश्किल था। अब पलाश जिग्ना के साथ वहाँ पहली बार गया था तो दोनों का थोड़ा संकुचित होना तो जायज़ था ही। लेकिन हमारे पलाश बाबू तो तुरंत ही वातावरण के साथ ढल जाने वाले लोगों में से थे। पलाश ने कुछ ही मिनटों में अपने आप को सहज बना लिया और हँसी-मज़ाक़ करते हुए जिग्ना को भी माहौल के अनुकूल ढाल ही लिया। बहुत लोगों के चलते थोड़ी समस्या तो हुई ही लेकिन पार्क भी काफ़ी बड़ा था तो कुछ ही देर में दोनों को एक पेड़ की छाँव में बैठकर समय व्यतीत करने के लिए अनुकूल स्थान भी मिल गया।
मौक़ा पाकर पलाश ने जिग्ना को उसका पहला सरप्राइज़ गिफ़्ट भी दिया। जिग्ना को वो सुनहरी चूड़ियाँ बहुत पसंद आईं। चूड़ियों का माप तो एकदम सही था ही, जिग्ना के चेहरे पर झलकती ख़ुशी में प्यार का एहसास साफ़ झलक रहा था। उस ख़ुशी और एहसास को पलाश के लिए शब्दों में व्यक्त करना मुश्किल था लेकिन जिग्ना के साथ उन ख़ुशी के पलों में वो अपने प्यार की गहराई को बख़ूबी महसूस कर कर पा रहा था।
बातें करते-करते ही अगले तीन घंटे कैसे गुज़र गए दोनों को पता नहीं चला। शाम के लगभग 6 बजने को थे और अँधेरा होने से पहले ही उसे जिग्ना को उसके घर के नज़दीक सुरक्षित छोड़ना भी था। बिना देर किए, पलाश ने आनंद विहार बस टर्मिनल के लिए ऑटो ले लिया, जो की दिल्ली NCR बार्डर का आख़िरी पॉइंट था। वहाँ से आगे जिग्ना का घर ज़्यादा दूर नहीं था लेकिन जाने के लिए रिक्शा ही एक ज़रिया था। आनंद विहार पहुँचकर दोनों ने रिक्शा लिया और जिग्ना के बताए अनुसार रिक्शा वसुंधरा के नज़दीक पहुँच गया। यह स्थान जिग्ना के घर से नज़दीक ही था सो पलाश उसकी सुरक्षा को लेकर सुनिश्चित होने के बाद उसी रिक्शा से वापस आनंद विहार बस टर्मिनल को लौट गया और तुरंत ही आनंद विहार पहुँचकर देव के घर के लिए ऑटो ले लिया।
लगभग 8 बज चुके थे, जब पलाश देव के घर पहुँचा। देव पलाश का इंतज़ार ही कर रहा था। दोनों भाइयों ने साथ ही डिनर किया और थोड़ी गपशप। लगभग 9.15 पर पलाश ऑटो लेकर निकल गया पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के लिए, रानीखेत एक्सप्रेस जो पकड़नी थी। फिर वही हर बार वाला रानीखेत एक्सप्रेस की यात्रा का अनुभव। अब पलाश भी धीरे-धीरे रानीखेत एक्सप्रेस के सामान्य डिब्बे में रेलवे पुलिस बल के भ्रष्ट अधिकारियों द्वारा अतिक्रमण कर पैसे वसूलने और फिर जगह पाकर यात्रा करने का आदि हो गया था।
अगले कुछ ही घंटों में ट्रेन अपने पूरी रफ़्तार से पंतनगर की तरफ़ दौड़ रही थी। उन कभी न भूलने वाली यादों को अपने दिल में सँजोए अपने भविष्य के अगले पड़ाव के बारे में सोचते हुए पलाश कब नींद के आग़ोश में चला गया, उसे पता ही नहीं चला। ये नई-नई शुरू हुई प्यार की दास्ताँ पलाश को आगे ज़िंदगी के किस मुक़ाम पर लेकर जाने वाली थी, यह तो कहीं-न-कहीं नियति ने पहले ही तय कर दिया था मगर समय से पहले नियति को भला कौन जान पाया है।
चार घंटे की मुलाक़ात
मार्च 2006
अब पंतनगर में पलाश के दूसरे साल का पहला सेमेस्टर ख़त्म होने जा रहा था। जिग्ना अब पलाश की ज़िंदगी का एक बड़ा हिस्सा बन गई थी। अब आलम ये था कि दोनों की दिन में दो से तीन बार तो फ़ोन पर बात हो ही जाती थी। साथ-ही-साथ अब पलाश हर समय और हर संभव परिस्थिति में जिग्ना से मिलने के मौक़े ढूँढने लगा था।
अपने जेब ख़र्च से पैसे बचाकर, देव की सहायता से ही पलाश ने अब एक पुराना मोबाइल फ़ोन भी ले लिया था। हालाँकि पलाश के लिए यह सब आसान नहीं था लेकिन जिग्ना के रूप में अपने नये-नये शुरू हुए प्रेम अध्याय को भावी जीवन में साकार करने ले लिए वो हर संभव प्रयत्न कर रहा था। दूसरी ओर जिग्ना के पास तो मोबाइल फ़ोन था नहीं, इसीलिए वो ज़्यादातर STD से ही फ़ोन कॉल करती थी। हाँ, कभी मौक़ा मिल गया तो पिता का फ़ोन भी काम आ ही जाता था। बहरहाल, जैसे भी हो पलाश बाबू के प्यार की नैया तैर रही थी।
अब तो पलाश सेमेस्टर ब्रेक के अलावा भी, जब भी संभव हो, जिग्ना से मिलने के लिए दिल्ली जाने लगा था। ये बात और थी कि पंतनगर की व्यस्त कॉलेज लाइफ़ से समय निकालकर, रानीखेत एक्सप्रेस के जनरल डिब्बे में रात भर सफ़र करके दिल्ली जाना मुश्किल तो था ही, वो भी सिर्फ़ 4-5 घंटों की मुलाक़ात के लिए। लेकिन दिनों-दिन गहरे होते प्यार की पुकार उसे खींचकर ले ही जाती थी। जैसा कि मैंने पहले बताया सिर्फ़ रानीखेत एक्सप्रेस ही एक ट्रेन थी जो हल्दीरोड को दिल्ली से जोड़ती थी। ख़ैर, कुछ नहीं होने से तो कुछ होना ही अच्छा होता है। रेलवे स्टेशन भी हॉस्टल से क़रीब 5 किलोमीटर की दूरी पर था लेकिन प्रत्येक दिन रेलवे स्टेशन के लिए चलने वाली विश्वविद्यालय शटल ने यह भी आसान कर दिया था। हालाँकि ट्रेन के जनरल डिब्बे की रात्री यात्रा आसान नहीं होती थी। RPF अतिक्रमित डिब्बे में सीट के लिए 20 रुपये देने तक तो ठीक था लेकिन भारी भीड़ के चलते, उससे भी मुश्किल उस डिब्बे में घुसना होता था। अब जो जितना जल्दी घुस पाए, सीट मिलने का मौक़ा भी उतना ही ज़्यादा, कभी-कभी तो हालत ये होते थे कि पलाश को सीट ही नहीं मिल पाती थी और फिर साढ़े 7 घंटे की यात्रा खड़े-खड़े ही करनी पड़ती थी। पलाश की दिल्ली तक की यह यात्रा अक्सर ऐसे ही होती थी, कारण उन दिनों ऑनलाइन बुकिंग का चलन तो था नहीं, तो सीट रिज़र्वेशन के लिए रिज़र्वेशन कार्यालय लालकुआँ स्टेशन जाना पड़ता था। सबसे बड़ी बात यह कि पलाश की यात्रा कभी भी पहले से निश्चित नहीं होती थी। इन सारी परिस्थितियों में रानीखेत एक्सप्रेस के जनरल डिब्बे की यात्रा ही आख़िरी रास्ता बचता था। जो भी हो, नियति ने पलाश के लिए सब-कुछ इस तरह नियत किया था कि उसकी प्रेम-कहानी इतनी मुश्किलों के बावजूद चलती जा रही थी।
पलाश ने कभी नहीं सोचा था कि उसे भी कभी प्यार होगा और वो एक लड़की से मिलने के लिए 300 किलोमीटर दूर रातभर ट्रेन के सामान्य डिब्बे में खड़े-खड़े यात्रा करके बार-बार मिलने जाएगा। पलाश ने अब तक यह सब सिर्फ़ बॉलीवुड मूवीज़ में ही देखा था। लेकिन यह सब सच था, यह प्यार था और अब उसके साथ हक़ीक़त में हो रहा था। यह सारी मुश्किलें और कठिन समय कहीं-न-कहीं पलाश में एक नई ऊर्जा का संचार कर रहा था जो उसे आने वाले भविष्य के लिए और मज़बूत बना रही थी।
केवल पंतनगर से दिल्ली तक रातभर की यात्रा ही पलाश के लिए एकमात्र चुनौती नहीं थी। रानीखेत एक्सप्रेस सुबह 5 बजे पुरानी दिल्ली पहुँच जाती थी, अब इतनी सुबह-सुबह तो जिग्ना पलाश को मिलने आ नहीं सकती थी और ना ही पलाश हर बार देव के घर जा सकता था। बार-बार दिल्ली जाने पर उसे कुछ तो बताना ही पड़ता कि, ‘वो दिल्ली क्यों आया था?’ और फिर रिश्तेदारी की वजह से बात पलाश के माता-पिता तक भी पहुँच सकती थी। इन्हीं सब करणों से पलाश अब सिर्फ़ जिग्ना को मिलने ही दिल्ली जाता था और जितनी कोशिश हो देव के घर जाने से बचता था। ये बात और थी कि पलाश को जिग्ना के आने तक या तो रेलवे स्टेशन पर या आस पास के मॉल या पार्क में ही समय व्यतीत करना पड़ता था। जिग्ना अपने कोचिंग क्लासेज़ के समय के हिसाब से 10 बजे से पहले तो कभी आ ही नहीं पाती थी और कभी-कभी तो उसे बाक़ी सारी परेशानियों को देखते हुए आने में 2 भी बज जाते थे। अब तो आप पलाश बाबू कि मुश्किल समझ ही गए होंगे, एक तो पूरी रात ट्रेन के जनरल डिब्बे में बिना सीट के सफ़र, फिर 5 घंटे का इंतज़ार जो कभी-कभी तो 8 घंटे का भी हो जाया करता था। उस पर सबसे बड़ी बात यह कि पलाश के पास जिग्ना के फ़ोन कॉल का इंतज़ार करने के अलावा कोई चारा नहीं होता था और ना कोई अंदेशा कि वो आ पाएगी भी या नहीं, क्योंकि उसके पास मोबाइल फ़ोन नहीं था। तो पलाश के हक़ में था सिर्फ़ जिग्ना और उसके फ़ोन कॉल का इंतज़ार। लेकिन जो भी हो उन दोनों का प्यार और विश्वास ही था कि जैसे भी हो सब कुछ ठीक ठाक हो ही रहा था।
और एक बात, दोनों की ये सारी मुलाक़ातें बहुत ही इकोनॉमिक हुआ करती थी। वो कभी भी किसी रेस्टोरेंट या और किसी ऐसे स्थान पर नहीं जाते थे जहाँ रुपये ख़र्च हों। वो हर बार EDM मॉल पर मिलते और फिर इंद्रप्रस्थ पार्क चले जाते, जहाँ उन्हें बैठकर बात करने के लिए शांतिपूर्ण वातावरण मिलता था। पलाश के रुपये सिर्फ़ ट्रेन की टिकट में और ऑटो के किराए में ही ख़र्च होते थे।
शाम होते ही अँधेरा होने से पहले पलाश की कोशिश रहती थी कि वो जिग्ना को वसुंधरा उसके घर के नज़दीक छोड़ दे। इन सब के बीच जिग्ना को छोड़कर पलाश 8 बजे तक वापस पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुँच ही जाता था और फिर लगभग ढाई घंटे इंतज़ार क्योंकि रानीखेत एक्सप्रेस के चलने का टाइम था रात के पौने 11 बजे। फिर जनरल डिब्बे के सफ़र की मारामारी तो हमेशा की बात थी। आख़िर में जिग्ना के साथ बिताए उन अनमोल पलों की यादों को अपने दिल में संजोए पूरी रातभर दिल्ली से पंतनगर तक का सफ़र। पलाश सुबह 6 बजे तक हॉस्टल पहुँच ही जाता था और आराम करने के लिए होता था बस 1 घंटा क्योंकि फिर 8 बजे कॉलेज की क्लासेज़ भी तो लेनी होती थी। कुल मिलकर पलाश जब भी जिग्ना से मुलाक़ात को दिल्ली जाता था तो यह समय उसके लिए लगभग 36 घंटे की कठिन परीक्षा के समान होता था, जिसमें वो जिग्ना के साथ सुकून के लगभग 4 घंटे तो बिता ही लेता था। प्यार की कश्ती में सफ़र आसान कहाँ होता है, और उस मुश्किल सफ़र का सामना पलाश कुछ इस तरह कर रहा था। पलाश और जिग्ना का दृढ़निश्चय था, एक-दूसरे पर विश्वास था और साथ में मुश्किलें थी, तभी तो यह प्यार था। जो आसानी से निभ जाए वो प्यार ही क्या?
अभी पलाश दो दिन पहले जिग्ना से मिलकर आया ही था कि हॉस्टल में रंग-गुलाल उड़ने लगा था। जी हाँ, अगले ही दिन होली थी लेकिन पलाश तो अपनी ही धुन में मस्त था उसे इन सब बातों का इल्म ही नहीं था। हॉस्टल में सारे लड़के, छुट्टियों में घर जाने से पहले होली खेल रहे थे और तब ही पलाश को पता चला कि होली की छुट्टियाँ आ गई हैं। पंतनगर एक स्टेट यूनिवर्सिटी है, जहाँ ज़्यादातर लड़के उत्तराखंड के ही थे और इसीलिए घर नज़दीक होने की वजह से छुट्टियों में अपने घरों को जा चुके थे। पलाश राजस्थान से था, और दूर होने ही वजह से 3 दिन की छुट्टियों के कम समय के लिए घर नहीं जा सकता था। इसीलिए पलाश और कुछ लड़के हॉस्टल में ही रुके हुए थे। बाक़ी सब तो ठीक था, लेकिन होली की वजह से एक दिन के लिए हॉस्टल मेस भी बंद था तो खाने की समस्या तो थी ही। इस पर पलाश ने सोचा कि बस एक ही दिन की तो बात है, मार्केट से खाना लेकर काम चला लिया जाएगा। लेकिन मुश्किल तो तब हुई जब होली वाले दिन पलाश मार्केट गया और पाया कि सब-कुछ बंद था। अब पलाश पहली बार होली के मौक़े पर हॉस्टल में रुका था तो उसे होली पर मार्केट बंद होने के बारे में कोई अंदाज़ा ना था।
पलाश ने बड़ी मार्केट, छोटी मार्केट, चाय वाला, सब कुछ तलाश किया लेकिन निराशा ही हाथ लगी। आख़िर घूम-फिरकर पलाश हॉस्टल आ गया। उसके पास खाने के लिए रूम पर कुछ भी नहीं था और ऊपर से भूख भी ज़ोरों से लगी थी लेकिन मार्केट खुलने का इंतज़ार करने के अलावा उसके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं था। उसे उम्मीद थी कि शाम तक शायद मार्केट में कुछ-न-कुछ तो खाने के लिए मिल ही जाएगा।
लगभग 2 बज चुके थे, पलाश भूख से बेहाल हॉस्टल में अपने बिस्तर पर पड़ा घड़ी ताक रहा था कि कब शाम होगी। तभी अचानक से उसका क्लासमेट UD हॉस्टल में आया। UD का घर पत्थरचट्टा, हार्टीकल्चर रिसर्च सेंटर, पंतनगर में ही था और वो एक डे-स्कॉलर था। वैसे तो पत्थरचट्टा हॉस्टल से लगभग 8 किमी की दूरी पर था लेकिन आज UD होली की वजह से हॉस्टल आया था कि कहीं कोई हॉस्टल में रुका हो तो होली की शुभकामनाएँ देता चले।
एक ही क्लास में होते हुए भी पिछले डेढ़ साल में पलाश की UD से कोई ख़ास बातचीत या जान-पहचान नहीं हुई थी लेकिन आज होली के बहाने ही सही दोनों ने हॉस्टल में ख़ूब गपशप मारी। UD मिलनसार स्वभाव का व्यक्ति था और होली के दिन हुई इस लंबी मुलाक़ात से साफ़ हो गया कि पलाश की उससे अच्छी जमने वाली थी। बातों ही बातों में बात खाने पर आ पहुँची। मानो पलाश की तो दुखती रग पर हाथ पड़ गया हो। पलाश ने अपनी भूख की दुखद दास्ताँ UD को सुनाई। UD तो पंतनगर में ही रहकर बड़ा हुआ था, वो जानता था कि होली के दिन सब कुछ बंद होता है। उसने तुरंत ही पलाश को भोजन के लिए अपने घर चलने को कहा।
पलाश इस स्थिति में नहीं था कि UD के प्रस्ताव को मना करे। सुबह से भूखा भला इस मौक़े को कैसे छोड़ सकता था। पलाश तुरंत ही तैयार हो गया और अगले कुछ ही मिनटों में वह UD के साथ स्कूटर पर पत्थरचट्टा की ओर बढ़ रहा था। पलाश ने पाया कि UD के परिवार वाले सभी लोग काफ़ी सरल और मिलनसार थे। उसे उन सब से मिलकर बहुत अच्छा लगा और यह त्योहार का मौक़ा था तो मिठाइयों का होना तो स्वाभाविक था। पलाश ने जी भर के खाना खाया और आख़िर उसकी भूख शांत हुई। जैसे भी हो आज अपने घर पर ना होते हुए भी पलाश ने बहुत अच्छे से होली के त्योहार का आनंद लिया था और उसे एक अच्छा दोस्त भी मिल गया था। उस दिन से पलाश और UD बहुत क़रीबी दोस्त बन गए थे और बाद में भी पलाश को कई बार उसके घर जाने का मौक़ा मिला।
वैसे तो लड़कियों की वजह से दोस्त अक्सर दूर हो जाते हैं, लेकिन लड़की की वजह से ही हुए एक वाक़िये ने इन दोनों दोस्तों को और क़रीब ला दिया था। हुआ यूँ कि, एक बार UD को क्लास की ही एक लड़की से प्यार हो गया। प्यार अभी तक एक तरफ़ा ही था लेकिन एक दिन हिम्मत करके UD ने लड़की से अपने प्यार का इज़हार कर ही दिया। UD अपने प्यार का इज़हार कर देने से बहुत ख़ुश था, लेकिन उसको लड़की का जवाब सुन के जो धक्का लगा तो वो सीधा पलाश के पास हॉस्टल पहुँचा। असल में UD का प्रेम प्रस्ताव सुनकर लड़की ने कहा कि वो किसी और को पसंद करती है और वो है पलाश। लड़की द्वारा कही, UD की इस बात को सुनकर दोनों दोस्त कुछ पलों के लिए एक-दूसरे को देखते ही रह गए, फिर तो इस प्रेम त्रिकोण की स्थिति पर ठहाके लगाकर हँस पड़े। जैसे भी हो, इस घटना के बाद तो दोनों दोस्त एक-दूसरे के और ज़्यादा क़रीब हो गए थे और अब वो सब-कुछ एक-दूसरे के साथ साझा करने लगे थे।
बदला
अप्रैल 2006
जीवन अच्छे, बुरे अनुभवों के एक खेल जैसा है। कठिन समय में मिलने वाले अनुभव जीवन जीने की सीख तो देते ही हैं, साथ-ही-साथ अच्छे और बुरे लोगों की पहचान भी करवा देते हैं। पंतनगर में पलाश का दूसरा साल था और पहले ही वो कुछ गिनती के लोगों के बीच सिमट गया था। उस पर उसका ज़्यादातर समय जिग्ना से बात करने में ही निकल जाता था। सब कुछ ठीक चल रहा था, पलाश अपनी ही ज़िंदगी में व्यस्त था लेकिन तभी एक दिन कुछ ऐसा हुआ, जिसने पंतनगर में पलाश की हॉस्टल लाइफ़ को काफ़ी कुछ बदल दिया।
चूँकि पंतनगर एक स्टेट यूनिवर्सिटी थी और उत्तराखंड के पहाड़ी तराई क्षेत्र में बसा हुआ था। पंतनगर में पढ़ने वाले ज़्यादातर विद्यार्थी पहाड़ी क्षेत्र से ही आते थे और इसीलिए बहुत ही सामान्य रूप में दूसरे क्षेत्रों से आए लोग उन्हें पहाड़ी कहकर बुलाते थे। जैसे, पलाश राजस्थान से था तो कई लोग उसे राजस्थानी कहकर बुलाते थे जिसमें उसे कोई समस्या नहीं थी। लेकिन पहाड़ से आए कुछ लोगों को ‘पहाड़ी’ शब्द ना जाने क्यों पसंद नहीं था। यही शब्द पलाश के साथ उस दिन घटित हुई उस बड़ी घटना का कारण बना।
दूसरा साल ख़त्म होने को था और अब ज़्यादातर लोग अपनी-अपनी मानसिकता, व्यवहार और या कहें तो आदतों के हिसाब से अपने ही छोटे-छोटे समूहों में बँट गए थे। इसमें देखा जाए तो कुछ ग़लत भी नहीं था, आख़िर यह मानव स्वभाव है। लेकिन पलाश ने यह कभी नहीं सोचा था कि अलग-अलग समूहों में बँटने वाली यह मानसिकता लोगों पर इस क़दर हावी हो जाएगी कि उसका नतीजा पलाश के साथ हुई वो अप्रत्याशित घटना होगी।
सेमेस्टर के आख़िरी दिनों में लैब फ़ाइनल्स चल रहे थे और ये था एग्रीकल्चर कॉलेज के एग्रोनोमी डिपार्टमेंट का कॉरीडोर। प्रायोगिक परीक्षा चल रही थी, जिसमें सभी को बारी-बारी से जाकर विभिन्न प्रकार की फ़सलों और पौधों के अलग-अलग हिस्सों को पहचानना था। सभी लोग अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे थे और जल्द-से-जल्द अपनी परीक्षा ख़त्म कर हॉस्टल जाने का इंतज़ार कर रहे थे। परीक्षा के एक बैच में लगभग 15 ही लोग थे तो प्रोफ़ेसर ने कोई विशेष सख़्ती नहीं बरती थी कि अपने-अपने ID नंबर के हिसाब से ही आना है। बस एक बार में सिर्फ़ एक को ही लैब में प्रवेश करना था और 5 मिनट में अपने जवाब उत्तर पत्रिका में लिखकर निकल जाना था। लेकिन इतने कम लोग होने पर भी कुछ लोगों को सब्र नहीं था और जल्दीबाज़ी कर रहे थे, इसीलिए प्रोफ़ेसर ने तुरंत ही सबको लाइन लगाने को कहा और सब जल्दी ही लाइन में लगकर अपना स्थान सुनिश्चित करने लगे।
अब जल्दबाज़ी तो पहले ही थी, उस पर लाइन में सबसे आगे लग जाने के लिए थोड़ा तर्क-वितर्क होना तो स्वाभाविक ही था। यह तो कॉलेज लाइफ़ में अक्सर होता ही है, लेकिन कभी-कभी किन्हीं कारणों से परिस्थितियाँ कुछ बदल जाती हैं। हुआ यूँ कि लाइन में पलाश के पीछे लगा हुआ लड़का उससे आगे आकर लाइन में लग गया। मज़ाक़ में अक्सर ऐसा होता रहता है और इतनी मस्ती मज़ाक़ तो पलाश की क्लास में भी चलती ही रहती थी। इसीलिए पलाश भी फिर उससे आगे जाकर अपने स्थान पर लाइन में लग गया। लेकिन स्थिति तब अचानक से बदल गई जब वो लड़का बार-बार मना करने पर भी पलाश के स्थान से हटने को नहीं माना और इसी के चलते दोनों में थोड़ी बहस हो गई। आख़िर, परीक्षा ख़त्म कर जल्द हॉस्टल लौट जाने की जल्दी तो सभी को थी, इसलिए पलाश थोड़ा झुँझला गया। फिर भी बात को आगे ना बढ़ाते हुए पलाश ही पीछे हट गया लेकिन शब्दों की लड़ाई जारी रही और जब उस लड़के ने पलाश को राजस्थानी कह कर संबोधित किया तो जवाब में पलाश ने भी कह दिया, “पहाड़ी तुम कभी नहीं सुधरोगे।”
ख़ैर बात कुछ ही मिनटों के वाद-विवाद के बाद ख़त्म हो गई। कॉलेज लाइफ़ में क्लास और हॉस्टल के ऐसे छोटे-छोटे झगड़े तो अक्सर होते ही रहते हैं। पलाश तो उस बात को तुरंत भूल भी गया था। परीक्षा ख़त्म करके हॉस्टल आते-आते लगभग 5 बज गए थे।
अभी पलाश मेस से चाय पीकर रूम पर पहुँचा ही था कि किसी ने उसके रूम का दरवाज़ा खटखटाया। पलाश का रूममेट अभी तक रूम पर नहीं पहुँचा था तो पलाश ने ही दरवाज़ा खोला। देखा तो उसके बैच का ही एक लड़का उसे उस लड़के के रूम में आने के लिए कह रहा था जिससे साथ दिन में ही उसकी बहस हुई थी। पलाश अभी रूम पर लौटा ही था और आराम करने के मूड में था तो ज़ाहिर-सा सवाल पूछा, क्यों?
क्या हुआ?
“लड़के ने जवाब दिया कि उसे कुछ बात करनी है तुमसे।”
पलाश सुनिश्चित तो नहीं था कि उसे तुरंत ही जाना चाहिए क्योंकि जिससे दिन में बहस हुई है, और अचानक से वो ही अपने रूम पर बुला रहा था, वो ख़ुद भी तो आ सकता था। लेकिन जैसा कि पलाश का किसी से कोई झगड़ा नहीं था और वो लड़का जिससे उसकी बहस हुई थी, वो भी पलाश का अच्छा दोस्त ही था। सो पलाश अपने संदेह को एक तरफ़ रखकर, उसके रूम की ओर चल पड़ा।
दरवाज़ा अंदर से बंद नहीं था, जैसे ही पलाश ने रूम में प्रवेश किया तो दरवाज़े के पीछे छिपकर खड़े लड़के ने तुरंत ही दरवाज़ा अंदर से बंद कर दिया। जैसे ही दरवाज़ा बंद हुआ, पलाश को सारा मामला समझते देर ना लगी। पलाश ने बिलजी की गति से क्षण भर में ही अपने आप को मानसिक और शारीरिक रूप से परिस्थिति के लिए तैयार कर लिया। उसका संदेह सही था, वहाँ पर उस लड़के के अलावा अपने हाथों में बेल्ट लिए तीन लड़के और थे। साफ़ था कि लैब में हुई बहस की वजह से उस लड़के ने अपने दोस्तों के साथ मिलकर पलाश को पीटने को प्लान बनाया था। लेकिन दूसरी ओर पलाश ने सपने में भी नहीं सोचा था कि उसी की क्लास का वो लड़का जिसे वो अपना अच्छा दोस्त समझता था, एक छोटी-सी बहस के चलते उसे इस तरह पीटने का प्लान करेगा। बहरहाल, अभी तो पलाश बड़ी मुश्किल में था। बिना एक शब्द बोले चारों लड़के एक साथ पलाश पर टूट पड़े। लेकिन पलाश की परिस्थिति को तुरंत समझ लेने की ख़ूबी ही थी कि उन कुछ क्षणों में भी वो अपने आप को तैयार कर चुका था। उसे अच्छी तरह पता था कि अभी लड़ने से ज़्यादा अपने को बचाने में ही फ़ायदा है। इसीलिए जैसे ही चारों लोग एक साथ झपटे तो पलाश ने पूरी ताक़त से एक साथ चारों को अपने से दूर धकेल दिया। पलाश शारीरिक रूप से काफ़ी मज़बूत था और उसने इसका पूरा उपयोग किया। सबको दूर धकेलते ही पलाश दरवाज़े की ओर लपका और तुरंत ही दरवाज़ा खोलने में सफल हो गया। वाद-विवाद भी साथ-ही-साथ जारी था, सो पलाश उन पर चीख़ते हुए बचाव में अपने रूम की ओर दौड़ा। सौभाग्य से कुछ और लोग भी उस समय हॉस्टल विंग में मौजूद थे। शोर सुनकर सब तुरंत ही बाहर आ गए और बीच बचाव किया। लेकिन तब तक पलाश को पीठ पर बेल्ट से कुछ चोटें तो लग ही चुकी थीं।
कुछ ही मिनटों में घटित हुए इस वाक़िये से पलाश स्तब्ध था क्योंकि उसने कभी नहीं सोचा था कि ऐसा भी हो सकता है, वो भी उन लोगों द्वारा जिनसे उसके अच्छे संबंध थे। लेकिन सच यही था, लोग समूहों में बँट गए थे और अपने आपको बाक़ी सब से अलग समझते थे। अपने साथ हुई इस घटना से पलाश को इस सच्चाई का आज पूरी तरह से एहसास हो गया था।
तभी, इस सारी घटना के बीच पार्थ आया। पार्थ पलाश का बैचमेट ही था लेकिन उसका सेक्शन अलग था। इसीलिए पलाश की पार्थ से बहुत ज़्यादा बातचीत नहीं थी। पार्थ मध्यम क़द-काठी वाला, अपने विचारों में दृढ़, एक हँसमुख लड़का था जो हर समय सबकी मदद के लिए तैयार रहता था। बड़ी बात ये थी कि पार्थ भी उत्तराखंड का ही रहने वाला, एक पहाड़ी था लेकिन और लोगों से बिल्कुल अलग, सिर्फ़ सही का साथ देने वाला था। पार्थ, तुरंत ही आगे आकर पलाश के साथ हो लिया और उसे तुरंत युनिवर्सिटी हॉस्पिटल लेकर गया। साथ ही पार्थ ने मामले में अगुवाई करते हुए सारी घटना की जानकारी हॉस्टल वार्डन को भी दे दी। पूरे घटनाक्रम में पार्थ ने पलाश का हर संभव साथ दिया। आख़िरकार, चारों लड़कों को सज़ा स्वरूप कुछ जुर्माना भरना पड़ा और भविष्य में दुबारा ऐसा ना होने की चेतावनी के साथ, आधिकारिक रूप से मामला ख़त्म कर दिया गया।
लेकिन क्या पलाश के साथ हुई उस घटना के एवज़ में इतना काफ़ी था?
क्या पलाश अपने ही साथियों के उस बुरे व्यवहार से कभी उबर पाया?
यह सारी घटना अपनी कड़वी यादों के साथ पलाश के जीवन में जुड़ गई थी जो उसे कम-से-कम पंतनगर में बीतने वाले अगले दो सालों तक तो हर समय अपने बुरे एहसास याद दिलाने वाली थी। हालाँकि, पलाश की अभी भी किसी से कोई दुश्मनी नहीं थी लेकिन अब उसका लोगों को देखने का नज़रिया थोड़ा बदल गया था। आख़िर हमारे चारों ओर का माहौल ही तो हमें सब कुछ सिखाकर अपने अनुरूप ढलने पर मजबूर कर देता है।
दूसरी ओर नियति ने पार्थ को पलाश के क़रीब ला दिया था और अब वो उसका अच्छा दोस्त बन गया था। पलाश और पार्थ की ये दोस्ती सिर्फ़ हॉस्टल लाइफ़ तक ही नहीं रहने वाली थी, नियति जो पार्थ को पलाश के इतना क़रीब लेकर आई थी, उसका तो कारण कुछ और ही था। आगे देखते हैं, कैसे पार्थ, पलाश की प्रेम कहानी का असली हीरो बना?
प्यार और इंतज़ार
अप्रैल 2006
सर्दियाँ ख़त्म हो चुकी थीं लेकिन अभी भी सुबह और शाम की ठंडक पंतनगर के मौसम को ख़ुशनुमा बना रही थी। पंतनगर में इस बदलते मौसम के साथ वक़्त भी जैसे पंख लगाकर उड़ रहा था। पंतनगर में अब पलाश को पूरे दो साल होने जा रहे थे और साथ ही आज पूरा एक साल बीत गया था जब पलाश पहली बार जिग्ना से मिला था। बीते हुए सिर्फ़ एक साल के समय में ही पलाश और जिग्ना एक-दूसरे के बहुत क़रीब आ गए थे और अपनी इस कमाल की प्यार भरी यात्रा में बहुत ख़ुश होने के साथ-ही-साथ हैरान भी थे कि कैसे इतने कम समय में इतना दूर होते हुए भी दोनों इस प्यार के सफ़र में हमराही बन गए थे। दोनों महसूस कर रहे थे, जैसे वो सदियों से एक-दूसरे को जानते हो और अब कभी एक-दूसरे से जुदा नहीं होना चाहते थे।
दोनों के बीच होने वाले ज़्यादातर वार्तालाप का झुकाव अब हर समय उनकी भावी ज़िंदगी की ओर ही होता था। भावी ज़िंदगी यानी दोनों अब जीवन भर साथ रहने के सपने देखने लगे थे लेकिन ये तो तभी मुमकिन था जब वो दोनों शादी के बंधन में बाँध जाएँ। दोनों चाहते तो यही थे, बहरहाल, शादी उनके लिए एक बड़ा सवाल था। अभी तक तो दोनों की पढ़ाई भी पूरी नहीं हुई थी। ऐसे में शादी होना कैसे संभव होगा?
अगर दोनों के माता-पिता इस शादी के लिए तैयार नहीं हुए तो उस स्थिति में वो क्या करेंगे?
ऐसे और भी कई सारे सवाल थे जिनका जवाब पलाश और जिग्ना दोनों के ही पास नहीं थे। बस एक प्यार भरा वादा और एक-दूसरे के लिए कुछ भी कर गुज़रने का आत्मविश्वास ही दोनों का सहारा था।
अब आलम ये था कि पलाश हर वक़्त जिग्ना के साथ अपने के भविष्य के बारे में ही सोचता रहता था। हालाँकि, भविष्य को लेकर ऐसे बहुत सारे सवाल थे जिनका जवाब उसके पास नहीं था। लेकिन पलाश कहाँ इतनी आसानी से हार मानने वाला था, वो तो रोज़मर्रा के जीवन में आने वाले छोटी-छोटी समस्याओं के भी हाथ धोकर पीछे पड़ जाता था और तब तक पीछा नहीं छोड़ता था, तब तक कि बाल की खाल न निकाल ले। असल में यह पलाश का स्वभाव था, वह हर छोटी-छोटी बात का भी बहुत ही गहराई से चिंतन करता था और अपने आप से तब तक सवाल करता था जब तक कि वो किसी सही निर्णय पर ना पहुँच जाए। जितना अधिक किसी भी समस्या के बारे में विचार और आत्म-विश्लेषण वो करता था, उसके निर्णय भी उतने ही साफ़ और सटीक होते जाते थे। और फिर इस बार तो ये सारे सवाल जिग्ना के साथ उसके भविष्य के बारे में थे। आख़िर, प्यार के साथ-साथ पूरी ज़िंदगी का सवाल था और इसीलिए पलाश, जिग्ना और उसके भविष्य के रास्ते में खड़े सवालों का जवाब पाने के लिए अब हर पल अंदर-ही-अंदर अपने आप से ही संघर्ष कर रहा था।
किसी भी परिस्थिति को गहराई से चिंतन करके उसकी तह तक पहुँच जाने का पलाश का स्वभाव उसे सही निर्णय पर पहुँचा ही देता था, और यही कारण था कि वह अपने फ़ैसलों को लेकर बहुत दृढ़निश्चयी होता था। लेकिन जो भी हो, नियति को समय से पहले भला कौन जान पाया है और पलाश भी उसके भावी जीवन में आने वाली बड़ी चुनौती से बिल्कुल बेख़बर था।
दूसरी ओर भविष्य की चुनौतियों से बिल्कुल बेख़बर, पलाश और जिग्ना नाम के प्रेम-पंछी खुले आकाश में अपनी यात्रा कब की शुरू कर चुके थे और आगे तय की जाने वाले चुनौती रूपी दूरी को माप रहे थे। फ़िलहाल, नियति द्वारा तय की गई प्रेम-कहानी के किरदार, ये दोनों प्रेम-पंछी अपनी ही धुन में उड़े जा रहे थे। पलाश अब किसी-न-किसी तरह लगभग हर महीने, दो महीने में जिग्ना से मिलने दिल्ली चला ही जाता था। पंतनगर की व्यस्ततम कॉलेज लाइफ़ और हॉस्टल दिनचर्या में यह बहुत मुश्किल-सा था लेकिन पलाश किसी तरह यह सब कर पा रहा था।
मानो या ना मानो कहीं-न-कहीं नियति पलाश का पूरा साथ दे रही थी।
ऐसे ही एक दिन पलाश फिर जिग्ना से मिलने को दिल्ली जा रहा था लेकिन आज कुछ अलग था। आज पलाश रानीखेत एक्सप्रेस की बजाय संपर्क क्रांति एक्सप्रेस से जा रहा था, जो कि लालकुआँ रेलवे स्टेशन से सुबह 9 बजे चलकर शाम के 3.30 बजे पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुँचती थी। लालकुआँ स्टेशन पंतनगर से 10 किलोमीटर दूर था। हॉस्टल से यूनिवर्सिटी के दूसरे छोर नगला गेट तक साइकिल रिक्शा और फिर वहाँ से लोकल सवारी ऑटो रिक्शा ही लालकुआँ स्टेशन तक पहुँचने का एक मात्र ज़रिया था। इन सब के चलते, पलाश सुबह 7.30 बजे ही हॉस्टल से निकल गया था और उसे स्टेशन पहुँचते हुए लगभग पूरा एक घंटा लग ही गया था। भले ही स्टेशन पहुँचने में समय लगा हो लेकिन रानीखेत एक्सप्रेस की तरह इस ट्रेन में सीट की मारामारी नहीं थी, कारण था दिन का सफ़र। जनरल टिकट पर भी पलाश को बैठने के लिए सीट मिल गई थी। ट्रेन लालकुआँ स्टेशन से अपने निर्धारित समय 9 बजे निकल गई थी और अब अपनी पूरी रफ़्तार पर दिल्ली की ओर बढ़ रही थी। पलाश की जिग्ना से दिन वाली ट्रेन से आने के बारे में पहले ही बात हो चुकी थी। उनके मिलने का स्थान हर बार की तरह इंद्रप्रस्थ पार्क ही निर्धारित था। लेकिन इस बार जिग्ना को इंद्रप्रस्थ पार्क अकेले ही पहुँचना था क्योंकि दिन वाली ट्रेन से आने के कारण पलाश के पास EDM मॉल तक जाने का पर्याप्त समय नहीं था। हालाँकि पलाश इस बात को लेकर पहले ही थोड़ा चिंतित था क्योंकि हर बार वो जिग्ना को EDM मॉल से अपने साथ ही लेकर आता था और ये पहला मौक़ा था जब उसे इंद्रप्रस्थ पार्क तक अकेले आना पड़ रहा था। दूसरी ओर जिग्ना भी थोड़ी परेशान थी, कारण, एक तो उसे अकेले जाना था, दूसरा उसके पास मोबाइल फ़ोन नहीं था, इसीलिए सबसे ज़रूरी यह था कि दोनों ही अपने नियत समय पर पहुँच जाएँ ताकि कोई परेशानी ना हो। ख़ैर, जिग्ना को पलाश पर पूरा भरोसा था और पलाश ने भी उसे आश्वस्त कर दिया था कि वो उसके पहुँचने से पहले ही इंद्रप्रस्थ पार्क पहुँच जाएगा। लेकिन मुश्किलें अभी कहाँ ख़त्म होने वाली थीं।
ट्रेन के समयानुसार इंद्रप्रस्थ पार्क पर मिलने का समय पलाश ने 4 बजे तय किया था। लेकिन भविष्य को समय से पहले कौन जान पाया है। ट्रेन अगर सही वक़्त पर पहुँचती तो पलाश समय पर पहुँच पाता लेकिन ट्रेन दिल्ली पहुँचते-पहुँचते लेट हो गई। ट्रेन के पुरानी दिल्ली स्टेशन पहुँचते ही पलाश तुरंत ऑटो के लिए लपका और ऑटो वाले को भी जल्दी चलाने को कहा। आख़िर पलाश इंद्रप्रस्थ पार्क पहुँच गया लेकिन तब तक 4:15 मिनट हो चुके थे।
15 मिनट का समय ज़्यादा तो नहीं था, लेकिन दूसरी ओर जिग्ना के लिए यह 15 मिनट का इंतज़ार बरसों लंबा हो गया था, क्योंकि उसके पास ना तो मोबाइल था और ना ही आस पास में कोई STD बूथ था। उसका साहस और भरोसा तो इतना ही था कि पलाश नियत समय पर पहुँच जाए। जब पलाश समय पर नहीं पहुँचा तो उसके मन में कई तरह के नकारात्मक विचार भी आने लगे थे और जिग्ना के लिए स्थिति और भी मुश्किल हो गई थी। पलाश जैसे ही पार्क के मुख्य प्रवेश द्वार के पास ऑटो से उतरा तो उसकी नज़र जिग्ना पर पड़ी। जिग्ना पार्क के बाहर ही मुख्य द्वार के पास लगी बेंच पर बैठी उसका इंतज़ार कर रही थी और उसके आँखें आँसुओं से भरी हुई थी। पलाश जिग्ना के पास गया लेकिन जिग्ना के साथ-साथ उस कोमल और भावपूर्ण परिस्थिति के भावों में अपने आप को बहने से रोक नहीं पाया। एक आपसी समझ वाली चुप्पी दोनों के बीच छाई थी और पलाश कुछ देर तक जिग्ना से कुछ नहीं कह पाया। पलाश एक तार्किक और प्रायोगिक स्वभाव का लड़का था और भावनात्मक परिस्थितियाँ उसे जल्दी डिगा नहीं पाती थी। लेकिन आज जिग्ना के उन मासूम और भावपूर्ण आँसुओं के साथ वो भी अपने आँसुओं को बहने से नहीं रोक पाया था।
यह प्यार ही तो था जो पलाश और जिग्ना की आँखों में आँसुओं को रुकने नहीं दे रहा था। पलाश जिग्ना को कभी भी रोते हुए नहीं देखना चाहता था लेकिन आज जिग्ना के आँसुओं ने उसे अंदर तक हिला दिया था। हर हाल में एक दूसरे का साथ देने के वादे के साथ अपने प्यार की जड़ों को और गहरा करते हुए दोनों ने अगले दो घंटे इंद्रप्रस्थ पार्क में बिताए। जिग्ना के मासूम आँसुओं ने आज कहीं-न-कहीं पलाश को उनके प्यार की भावी ज़िंदगी के लिए और अधिक दृढ़निश्चयी बना दिया था।
नियति तो जैसे हर वक़्त किसी-न-किसी रूप में पलाश और जिग्ना का पीछा कर रही थी, मानो जैसे कि उनके प्यार को शह दे रही हो। इंद्रप्रस्थ पार्क में बहुत अधिक संख्या में प्रेमी जोड़ों के आने के कारण, बहुत सारे किन्नर भी आ जाते थे जो उन्हें उनकी प्यार की सलामती की दुआएँ देकर बदले में रुपये माँगते थे। वैसे तो भारतीय संस्कृति में किन्नरों की दुआओं को बहुत अच्छा माना जाता है और इसीलिए उनका काफ़ी मान-सम्मान भी किया जाता है। इसी के चलते यह एक व्यापार भी बन गया है और पलाश इन सब बातों में ज़्यादा भरोसा नहीं करता था। लेकिन इस बात से पलाश बहुत आश्चर्यचकित था कि वो जब भी जिग्ना के साथ इंद्रप्रस्थ पार्क जाता था, हर बार एक ही किन्नर उन दोनों के पास आता था, फिर चाहे वो दो महीने में मिल रहें हो या एक महीने में। अब तो वो किन्नर भी उन्हें पहचानने लगा था। अब इसे संयोग कहे या पलाश और जिग्ना की नियति लेकिन यह किन्नर उनकी हर मुलाक़ात का साक्षी ज़रूर बन ही जाता था। उस किन्नर की माँग हर बार सिर्फ़ 10 रुपये के दो नोट होती थी और बदले में हमेशा साथ रहने के दुआएँ।
किसे पता था कि वो किन्नर पलाश और जिग्ना के लिए नियति के भेजे हुए किसी दूत के समान था जो हर बार उनके प्यार की सलामती के लिए उनके आस पास आ ही जाता था। कोई नहीं जानता था कि नियति के भेजे हुए इस दूत की दुआएँ जल्दी ही आने वाले समय में सच हो जाने वाली थी।
दो घंटे तो जैसे पलक झपकते ही निकल गए थे और अब अँधेरा होने को था। जिग्ना के वापस घर जाने का समय हो रहा था, तुरंत ही दोनों ऑटो लेकर वसुंधरा की ओर निकल पड़े। हर बार की तरह आनंद विहार से रिक्शा लेकर पलाश जिग्ना को उसके घर के नज़दीक सुरक्षित छोड़कर उसी रिक्शा से वापस आनंद विहार लौट गया। और फिर पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन, रानीखेत एक्सप्रेस जो पकड़नी थी पंतनगर के लिए। आज की घटना से पलाश समझ गया था कि उसकी नियति की ट्रेन रानीखेत एक्सप्रेस ही है, संपर्क क्रांति नहीं। उसने हर बार रानीखेत एक्सप्रेस से ही दिल्ली आने का निश्चय किया, चाहे फिर वो बिना सीट के रातभर का सफ़र ही क्यों ना हो।
लगभग चौदह घंटे की ट्रेन यात्रा और सिर्फ़ दो घंटे की मुलाक़ात, देखते हैं पलाश और जिग्ना का ये प्यार उन्हें किस मुक़ाम पर ले जाता है।
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