गुरुवार : 18 मई : दिल्ली मुम्बई
मुकेश बजाज करोल बाग झामनानी के घर पहुंचा ।
उस वक्त नौ बजने को थे ।
“आ, भई, पुटड़े ।” - झामनानी बोला - “वडी तशरीफ रख नी ।”
“शुक्रिया, बॉस ।” - बजाज बोला और बड़े अदब से उसके सामने बैठ गया ।
“वडी सवेरे सवेरे आया है नी, कोई बुरी खबर तो नहीं लाया ?”
“नहीं ।”
“झूलेलाल !”
“आपकी नसीबसिंह से बात हो गयी ?”
“हां । कल रात किया था फोन कर्मांमारे ने मोबाइल पर ।”
“रात को ! मैं तो शाम को बोल के आया था ।”
“बोला, चुपचाप मोबाइल का इन्तजाम करने में रात हो गयी ।”
“क्या कहता है ?”
“अपनी मां का सिर कहता है । जो बात तेरे को मुलाकात पर बोला, वो मेरे को मोबाइल पर दोहरा दी । सस्पेंड है । निगरानी में है । माल के पास नहीं फटक सकता । मेरे पास नहीं फटक सकता । माल का पता नहीं बता सकता । मुझे तो साफ झूठ बोलता लगा कर्मांमारा । ऐसा कहीं होता है नी ?”
बजाज ने अनमने भाव से सहमति में सिर हिलाया ।
“बोला, दोबारा कॉल भी नहीं करेगा । मोबाइल पर भी नहीं करेगा क्योंकि उसे यकीन नहीं था कि उसकी कॉल ट्रेस नहीं हो सकती थी ।”
“मैंने उसे समझाया तो था....”
“वडी जिस बात को समझने की मर्जी न हो वो भगवान भी किसी को नहीं समझा सकता । गोली लगे नसीबमारे को, जो पैंतरे नौकरी में पब्लिक पर आजमाता था, मेरे पर भी आजमाने चला था । मेरे को बोल दिया कमीने ने कि अगर बिरादरीभाई ज्यादा उसके पीछे पड़े तो वो तमाम हकीकत अपने आला अफसरों के सामने उगल देगा ।”
“आपके ख्याल से वो ऐसा कर सकता है ?”
“वडी, क्या पता लगता है नी किसी दोगले के मिजाज का ? थाने बैठ के एक ही तो काम सीखा है नसीबमारे ने । चोर को बोला चोरी कर ले, शाह को कहा खबरदार हो जा । दोनों तरफ से जय जय ।”
बजाज खामोश रहा ।
“वडी एक बार मेरा माल मेरे कब्जे में आ जाये, फिर देखना ये कर्मांमारा थानेदार ओवरनाइट ऊपर झूलेलाल के साथ बैठा दाल-पकवान खा रहा होगा । कमीने को पता भी लग जाये कि सिर पर बिजली गिरी या पांव तले से जमीन खिसकी तो बोलना । वडी गलत बोला नी मैं ?”
“बिलकुल ठीक बोला । ठीक और जायज । और मुनासिब ।”
“अब तू बोल, क्या हुआ नी तेरे उस काम का जिसे इतनी फूं फां के साथ करने कल निकला था ?”
“बॉस, मैंने सब लोगों से सम्पर्क बनाया । रात के ढाई बज गये इस कोशिश में ।”
“वडी नतीजा बोल नी । कोई आधे पौने माने कि नहीं लौटने को ?”
“ग्यारह आदमी माने हैं ।”
“बस ?”
“वो भी बहुत पुच पुच, बहुत मनुहार के बाद । जिक्र से भी भड़कते थे साले । हाथ नहीं रखने देते थे पुट्ठे पर । कुछ खुद हाथापायी पर उतर आये तो कुछ की बीवियां बेलन लेकर मारने को दौड़ीं ।”
“झूलेलाल ! कैसे मत्त मारी जाती है दुनिया की ? अब ग्यारह ने भी हामी ही भरी है या सच में लौटेंगे ?”
“उम्माद तो है कि सच में लौटेंगे, बाकी जो होगा दस बजे सामने आ जायेगा ।”
“वडी क्या बोला नी ?”
“मैंने दस बजे सब को आपके फार्म पर पहुंचने को बोला है क्योंकि उधर से ही हेरोइन के लिये खंडहरों को तलाशना शुरू करवाने का मेरा इरादा है ।”
“चोखा इरादा है नी । अब बोल, माल को पहचानेगा कैसे ?”
“पहचानूंगा कैसे ?”
“तू कैसे पहचानेगा ? तेरे आदमी कैसे पहचानेंगे ? माल क्या मुंह से बोलेगा नी मैं इधर रखा हूं, आ कर मेरे पर कब्जा करो !”
“ओह !”
“ब्राउन कलर की कार्ड बोर्ड की पेटी में है माल । पेटी पैकिंग में काम आने वाले ब्राउन कलर के ही टेप से बन्द है । भीतर छ: किलो हेरोइन बन्द है सौ सौ ग्राम की पोलीथीन की थैलियों में । पेटी का साइज” - झामनानी ने अपने दोनों हाथ बजाज के सामने एक दूसरे से समानान्तर फैलाये - “इतना होगा । समझा गया ?”
“यस, बॉस ।”
“आगे अपने आदमियों को भी समझाना ।”
“जरूर ।”
“एक बात और समझ ।”
“बोलो, बॉस ।”
“कहीं जमघट्टा न बने । कोशिश करना कि तेरे आदमी बिखरे बिखरे काम करें । झूलेलाल की मेहर से माल हाथ में आ जाये तो ये भी कोशिश करना कि माल की असलियत की सब को खबर न लगे ।”
“कैसे लगेगी ? जब पेटी बन्द है तो...”
“वडी जब वो कर्मांमारा ले के गया था तो बन्द थी, बाद में क्या पता उसने क्या किया पेटी के साथ ? क्या पता उसे बन्द ही रहने दिया या फिर खोल लिया ।”
“ओह ! मैं समझ गया, बॉस । माल की किसी को खबर नहीं लगेगी ।”
“लग भी जाये तो सब को न लगे । वडी ढिंढोरा न पिटे माल का ।”
“नहीं पिटेगा । मैं पूरी एहतियात बरतूंगा । मैं खुद माल को वापिस फार्म के तहखाने में पहुंचाऊंगा ।”
“वडी चड़या हुआ है नी ?”
बजाज ने बौखला कर झामनानी की तरफ देखा ।
“नसीबसिंह सच में ही हमारे खिलाफ हो गया तो फार्म के चप्पे चप्पे की तलाशी होगी । सच पूछे तो मुझे तो वैसे भी ऐसी तलाशी का अन्देशा है । मुझे तो रात भर सूखे कुयें में पड़ी तरसेमलाल की लाश और उन हथियारों के सपने आते रहे जो कि डी.सी.पी. श्रीवास्तव के आने से पहले आननफानन कुयें में दफन किये गये थे । पुटड़े, तू ये एक खास काम भी नोट कर ।”
“क्या ?”
“पहली फुरसत में हथियारों को कुयें से गायब कर नी ।”
“वो वहीं पड़े रहें तो क्या है ? कुआं पाट देते हैं, फिर....”
“तू चड़या है । नहीं जानता कि बड़ी तलाशी में पुलिस वाले माइंस डिटेक्टर साथ लेकर आते हैं । ऐसे आले मुंह से बोलते हैं कि कहां जमीन में क्या दफन है !”
“ओह ! फिर तो तरसेमलाल की लाश भी....”
“लाश का पता माइन डिटेक्टर से नहीं लगता नी लेकिन जब कुयें में से हथियार हटेंगे तो लाश वैसे ही दिखाई देने लगेगी ।”
“फिर तो लाश वाला मामला टेढा है ।”
“कोई टेढा नहीं । वडी लाश को कुयें से निकालने की नहीं, उस को वहीं, कुयें की तलहटी में दफनाने की, गहरा दफनाने की जरूरत है । इसमें क्या टेढा है नी ?”
“कुछ टेढा नहीं ।”
“जबकि अब हमारे ग्यारह आदमी भी तू बोलता है कि लौट रहे हैं ।”
“जी हां ।”
“एक बार ग्यारह सच में लौट आयेंगे और टिक जायेंगे तो देख लेना, पुटड़े, कुछ तो उनकी देखा देखी ही अपने आप चले आयेंगे ।”
“ऐसा हो जाये तो मजा आ जाये क्योंकि मेरी तो जितनी कोशिश कामयाब होनी थी, हो चुकी ।”
“वडी जरूर होगा नी । मुझे क्या इंसानी फितरत का तजुर्बा नहीं या इन कुत्तों की जात की खबर नहीं ! वडी खरबूजे को देखके खरबूजा रंग बदलता है नी ? परसों फार्म पर भी तो कर्मांमारे एक दूसरे की देखा देखी ही हमारे खिलाफ हुए थे । उनकी मादरजात नंगी बहन बेटियों का सदका देकर जब उन्हें भड़काया गया था और हथियार डाल देने के लिये कहा गया था तो क्या हुआ था ?”
“मुझे मालूम नहीं ।”
“वडी तुझे कैसे मालूम होंगा नी ? तू तो उस सीन में शामिल ही नहीं था । तेरे को तो, तूने ही बोला तो पता चला नी, सोहल अपनी जगह कुयें में बन्द कर गया था । सुन, क्या हुआ था ? पुटड़े, इतना भड़काये जाने पर भी पहले सिर्फ एक आदमी ने बन्दूक फेंकी थी, उसकी देखा देखी कुछ औरों ने हथियार डाल दिये, फिर मुबारक अली नाम के कर्मांमारे गंजे खलीफे ने जब उनसे सौदेबाजी की, उनकी पैंतालीस औरतों की जानबख्शी की गारन्टी की तो तब हमारे तमाम के तमाम आदमियों ने हथियार डाले थे । अब बोल नी, ये खरबूजे को देख कर खरबूजे के रंग बदलने की मसल हुई या नहीं हुई ?”
बजाज बिलकुल आश्वस्त नहीं था कि मसल हुई थी लेकिन वो बड़ी संजीदगी से बोला - “हुई ।”
“तो मैं क्या बोला नी ?”
“क्या बोले बॉस ?”
“क्या बोला ? हां । मैं ये बोला नी कि आज तेरे वाले ग्यारह सच में आ जायें, फिर देख लेना कल शाम तक ही इतने और तो सिर के बल आयेंगे और नाक रगड़ रहे होंगे तेरे आगे ।”
“आपके आगे ।”
“वडी एक ही बात है नी ।”
“बॉस, मुबारक अली के जिक्र पर एक बात याद आयी जो कि मुझे आते ही कहनी चाहिये थी । सॉरी ।”
“वडी क्या नी ?”
“कल रात को अपने सरदार जी मुबारक अली को ढूंढते सुजानसिंह पार्क उसके टैक्सी स्टैण्ड पर पहुंचे थे ।”
झामनानी को जैसे सांप सूंघ गया, वो अपलक बजाज को देखने लगा ।
“वडी क्या बोला नी ?” - फिर वो धीरे से बोला - “किस की बात कर रहा है नी ?”
“अपने सरदार जी की । पवित्तर सिंह जी की ।”
“किससे मिलने पहुंचा वो ?”
“मुबारक अली से ।”
“उस गंजे मुसलमान से जिसने परसों फार्म पर झामनानी की आंख में डंडा किया था ।”
“उसी से ।”
“वडी कैसे जाना नी ?”
“टैक्सी स्टैण्ड पर जो क्लीनर छोकरा है, वो हमारे से फिट है । उसको खास हिदायत है कि उधर मुबारक अली से ताल्लुक रखती जो भी बात हो, वो उस पर निगाह रखे और उसे इधर करे ।”
“इधर करे ?”
“हुकमनी ने इंतजाम किया था, बॉस । बॉस, आपको मालूम है कि पिछले शनिवार हुकमनी अपने तीन आदमियों के साथ मुबारक अली को काबू करने के लिये - ताकि उससे सोहल का पता कुबुलवाया जा सकता - उसके टैक्सी स्टैण्ड पर गया था लेकिन वो चारों वहां से पिट के लौटे थे । हुकमनी को आप से झाड़ तक खानी पड़ी थी कि चार जने एक शख्स को काबू नहीं कर सके थे । हुकमनी शर्मिन्दा था इसलिये मुबारक अली पर फिर कभी घात लगाने का मौका तलाश करने के लिये उसने उधर का फरीद नाम का क्लीनर अपनी तरफ किया था । बॉस, फरीद को नहीं मालूम है कि हुकमनी भगवान को प्यारा हो चुका है, वो अभी भी मुबारक अली की बाबत कोई बात हो तो हुकमनी के फोन की घन्टी बजाता है ।”
“आगे तेरे को कैसे पता चला ?”
“हुकमनी के भतीजे ने बताया जिसने कि क्लीनर छोकरे का फोन सुना था ।”
“हूं । वो क्लीनर छोकरा अपने सरदार साईं को कैसे पहचानता था ?”
“बॉस, पहचानता ही था तो उसने बाई नेम सरदार जी का जिक्र किया न ?”
“वो साफ बोला नी कि सरदार साईं मुबारक अली को पूछता वहां पहुंचा था ?”
“हां ।”
“वडी तेरे को क्या पता ? किसी और ने कुछ कहा तो उसने सुना । उसने कहा तो हुकमनी के भतीजे ने सुना । भतीजे ने सुना तो तूने सुना । तूने सुना इसलिये अब मुझे सुना रहा है । वडी, इतने मुंहों से निकली बात कहां ठीक ठीक एक सिरे से दूसरे सिरे तक पहुंचती है !”
“बॉस, कोई लम्बी चौड़ी बात तो है नहीं जिसमें आगे बढते बढते कोई फर्क आ जायेगा । इतनी सी तो बात है कि अपने सरदार जी मुबारक अली को पूछते उसके टैक्सी स्टैण्ड पर पहुंचे थे !”
“क्यों ?”
“मुलाकात के लिये ।”
“वडी ऐसा भी बोला नी वो क्लीनर पुटड़ा ?”
“जी हां ।”
“क्यों मुलाकात के लिये ? उसकी टैक्सी छुड़वा कर उसे अपने पास ड्राइवर तो रखना नहीं होगा सरदार साईं ने ?”
“जाहिर है ।”
“कमाल है ! वडी वो सोहल का खास आदमी बताया जाता है । उसी के धोबियों ने गुरबख्शलाल की दुकान फाड़ी थी, उसी के धोबियों ने फार्म पर हमारा खेल बिगाड़ा था, जिसकी वजह से हम चारों बिरादरीभाइयों की जान बस चली ही गयी थी । क्यों क्यों क्यों मिलना चाहता था सरदार साईं उससे ? क्यों वो... वडी लक्ख दी लानत हुई ।”
“क्या हुआ बॉस ?” - बजाज हड़बड़ा कर बोला ।
“वडी असल बात तो बोल नी ? असल बात तो तू सारी कथा करके भी नहीं बोला । मुलाकात हुई कि नहीं हुई ?”
“नहीं हुई । मुबारक अली तब स्टैण्ड पर नहीं था ।”
“ओह ! मुलाकात नहीं हुई । क्योंकि मुबारक अली स्टैण्ड पर नहीं था । जब स्टैण्ड पर होगा तो हो जायेगी ।”
“स्टैण्ड पर ?”
“वडी हमें मुबारक अली का कोई और पता किधर मालूम है ? मालूम होता तो क्या अपना सरदार साईं उसके टैक्सी स्टैण्ड पर पहुंचा होता जहां कि उसके मिलने की कोई गारन्टी भी नहीं थी, जहां कि वो होता तो इत्तफाक से ही होता ।”
“जो कि नहीं हुआ । लिहाजा सरदार जी फिर वहां पहुंचेंगे ।”
“मुझे उम्मीद नहीं नी ।”
“क्यों बॉस ?”
“पुटड़े, तू मेरा खास है और करीबी है इसलिये मैं तुझे एक राज की बात बताता हूं ।”
“क्या बॉस ?”
“हम चारों बिरादरीभाइयों ने अन्डरग्राउन्ड हो जाने का फैसला किया है । मैं भी इधर अपना कुछ सामान बटोरने आया था और वपिस तभी यहां कदम रखूंगा जबकि झूलेलाल की मेहर से सोहल का पैदा किया मौजूदा संकट हमारे सिरों से टल जायेगा । वडी, तू समझा कुछ ?”
“सॉरी बॉस ! नहीं ।”
“वैसे इतना स्मार्ट बनता है ! वडी खोटी अक्कल अब अपना सरदार साईं मुबारक अली के टैक्सी स्टैण्ड के चक्कर काटना अफोर्ड नहीं कर सकता । मुझे नहीं लगता कि वो स्टैण्ड पर लौट कर आयेगा ।”
“तो मुलाकात कैसे होगी ?”
“कुछ तो वो सोचे बैठा होगा । कुछ तो वो उधर सैट करके गया होगा.... कुछ ऐसा कि उसे लौट कर न आना पड़े । तू पता कर नी ।”
“क... कैसे ?”
“वडी उस क्लीनर छोकरे को चौकस कर नी और टाइम निकाल के खुद भी टैक्सी स्टैण्ड का चक्कर लगा और ये जानकारी निकाल कि क्या अपना सरदार साईं उधर मुबारक अली के लिये कोई सन्देशा छोड़ कर गया ? या कुछ और करके गया ?”
“वो तो मैं करूंगा, बॉस, लेकिन ये हैरानी की बात नहीं कि जबकि आप लोगों के अन्डरग्राउन्ड होने के फैसले में मुबारक अली भी एक फैक्टर है, सरदार जी उसी को तलाश करते उसके अड्डे पर पहुंच गये ?”
“वडी सख्त हैरानी की बात है नी । और फिक्कर की बात है ।”
“आप पूछिये सरदार जी से....”
“चड़या हुआ है ! मैंने ऐसा कोई सवाल सरदार साईं से किया तो जानता है वो क्या समझेगा ?”
“क्या समझेगा ?”
“वो समझेगा कि मैंने उसके पीछे अपने जासूस लगाये हुए हैं । वडी वो कभी नहीं मानेगा नी कि उसके मुबारक अली की तलाश में उसके टैक्सी स्टैण्ड पर पहुंचने की बात मुझे इत्तफाकन मालूम हुई थी । पुटड़े, अभी तो पहले ही जूतियों में दाल बंट रही है, ऐसे में माहौल को और बिगाड़ना अक्कल की बात नहीं होगी ।”
“ओह !”
“और फिर हो सकता है कि बात कुछ भी न हो । हो सकता है हमारे तक इतना घूम कर पहुंची बात चौकस न पहुंची हो । या हो सकता है सरदार साईं खुद ही बताये कि वों क्यों उधर गया था ।”
“आप ठीक कह रहे हैं । बात कुछ भी न हो, इससे अच्छी बात तो कोई हो ही नहीं सकती लेकिन अगर बात होगी तो क्या होगी ?”
“पुटड़े, अब तू ऐसा सवाल न कर जिसके जवाब के ख्याल से ही मेरा दिल हिलता है और जो मैंने बोला है, वो कर ।”
“राइट बॉस ।”
“भागचन्द को इधर छोड़ के जा, मुझे उसकी जरूरत होगी । कार तू रख सकता है ।”
“ठीक है ।”
“हिम्मत सिंह को भी वापस फार्म के गार्ड की ड्यूटी पर छोड़ना है ।”
“हो जायेगा ।”
“अब जा और शाम तक मोबाइल पर मुझे ये गुड न्यूज दे कि माल तूने ढूंढ निकाला ।”
“ओके, बॉस ।”
***
डी.सी.पी. डिडोलकर जब पुलिस हैडक्वार्टर में अपने ऑफिस में दाखिल हुआ तो अठवले मशीन की तरह उसके पीछे चला आया ।
अठवले सब-इन्स्पेक्टर था, डिडोलकर के खास भरोसे का आदमी था इसलिये उस जैसा ही करप्ट पुलिसिया था ।
“गुड मार्निंग, सर ।” - वो मक्खन से लिपटे स्वर में बोला ।
“गुड मार्निंग, गुड मार्निंग ।” - डिडोलकर अपनी कुर्सी पर बैठता हुआ बोला - “कैसे हो ?”
“फुल बढिया, सर । आपके अन्डर तो बढिया ही हुआ जा सकता है न !”
“हूं । बैठो ।”
“जी !”
“अरे, बैठो एक मिनट ।”
अठवले झिझकता सा डिडोलकर के सामने एक विजिटर्स चेयर पर बैठ गया ।
“सोहल के नाम से वाकिफ हो न ?”
“सोहल !”
“सरदार सुरेन्द्र सिंह सोहल ।”
“वो इश्तिहारी मुजरिम जो कई नामों से जाना जाता है ?”
“वही । आजकल क्या हो रहा है उसकी गिरफ्तारी के मामले में ?”
“आपको मालूम ही है, सर ।”
“क्या हो रहा है ?”
“कुछ भी नहीं । ‘कम्पनी’ के खात्मे के साथ जब से बखिया का जमाया माफिया निजाम खत्म हुआ है, तब से तो कुछ भी नहीं । सब शान्त है उस फ्रंट पर तो ।”
“तो फिर पकड़ा कैसे जायेगा वो ?”
“कोई भेदिया उसका भेद देगा, कोई मुखबिर उसकी मुखबिरी करेगा तो तभी कुछ होगा । ईनाम का लालच ही किसी ऐसे शख्स से कभी कुछ करायेगा जो कि सोहल का भेदी होगा या करीबी होगा ।”
“नहीं करायेगा तो कुछ नहीं होगा ?”
“अब मैं क्या बोलूं, साहब ?”
“कुछ तो बोलो ।”
“फिर भी बोलूं तो यही बोलूंगा कि महकमे में इतना काम है, सारा महकमा सारा वक्त एक ही काम में - सोहल की गिरफ्तारी के काम में - ही तो नहीं लगा रह सकता ! ऐसे काम तो, आप जानते ही हैं सर, तभी होते हैं जबकि या कोई भेद दे या उसके किये कोई नयी वारदात हो । फिलहाल तो दोनों ही तरीकों से मामला ठण्डा है, सर ।”
“हूं ।”
“ऊपर से वो बहुरूपिया है, कैसी भी सूरत बना लेता है ।”
“बना लेता होगा लेकिन इंसान के बच्चे की अपनी सूरत तो एक ही होती है ।”
“वो तो बरोबर बोला, साहब ।”
“महकमे में एक सब-इन्स्पेक्टर था जो कि उसकी असली सूरत से वाकिफ था, आवाज से भी वाकिफ था । आलमगीर म्यूजियम से फ्रंसीसी पेंटिंगों की चोरी के केस के दौरान ये बात सामने आई थी । क्या नाम था उसका ?”
“दामोदर राव, सर । लेकिन सर, अब वो इन्स्पेक्टर हो गया है ।”
“अच्छा !”
“जी हां । मशहूर बिल्डर शिवराज पारेख के अगवा की कोशिश नाकाम करने के ईनाम के तौर पर उसे आउट ऑफ टर्न इन्स्पेक्टरी मिली थी । अकेले ने ‘भाई’ के चार हथियारबन्द आदमियों को मार गिराया था और पारेख को अगवा होने से बचाया था । आपको तो मालूम ही होगा, सर । कमिश्नर साहब ने बाकायदा पब्लिक फंक्शन में उसे तरक्की से नवाजा था ।”
“ये वो दामोदर राव है ?”
“हां, साहब ।” - अठवले के स्वर में असंतोष का पुट आ गया - “कल का भर्ती हुआ छोकरा इन्स्पेक्टर बन गया और एक मैं हूं कि तेरह साल से सब-इन्स्पेक्टर का सब-इन्स्पेक्टर हूं जबकि मैं इतनी मेहनत और लग्न से हर काम करता हूं । आप तो खुद जानते हैं, सर, कि मैं कितना कमिटिड हूं अपने काम से । आप चाहें तो चुटकियों में मेरी प्रोमोशन करवा सकते हैं लेकिन आप तो....”
“बहक रहे हो ।”
“सॉरी, सर ।”
“कनवेसिंग का कोई मौका नहीं छोड़ते हो ।”
“सॉरी, सर ।”
“कहीं की बात को कहीं ले उड़ते हो । पास बिठा लिया तो कुछ भी उलटा सीधा बोल देने के हकदार बन गये ?”
“सॉरी, सर ।”
“जाओ, जाकर पता करो वो कहां है ! ऑफिस में हो तो उसे मेरे पास भेजो । फौरन ।”
“यस, सर ।” - अठवले उछल कर खड़ा हुआ, उसने तन कर सैल्यूट मारा और घूम कर वहां से रुख्सत हुआ ।
दो मिनट बाद युवा इन्स्पेक्टर दामोदर राव डी.सी.पी. डिडोलकर के सामने अटेंशन की मुद्रा में तना खड़ा था ।
“ऐट ईज इन्स्पेक्टर ।” - डिडोलकर बोला ।
दामोदर राव ने अपना शरीर ढीला छोड़ दिया ।
“मैंने तुम्हें मशहूर इश्तिहारी मुजरिम सोहल की वजह से तलब किया है । तुम तो उसके नाम से खूब वाकिफ हो ?”
“यस, सर ।”
“और उसकी सूरत और आवाज दोनों से वाकिफ हो ?”
“यस, सर ।”
“कैसे वाकिफ हो ?”
“कई महीने पहले की बात है, सर, जबकि मुम्बई सैंट्रल स्टेशन पर अपनी ड्यूटी के दौरान मेरा उससे आमना सामना हुआ था । उस वक्त वो सिर पर गंजा विग और चेहरे पर अधपकी मूंछें लगाये हुए था और वैस्टर्न रेलवे के कुली की लाल वर्दी पहने था । बावजूद उसके मेकअप के तब मैंने उसे साफ पहचाना था । उसने कुबूल भी किया था कि वो सोहल था ।”
“वो तुम्हारे सामने था फिर भी गिरफ्तारी से कैसे बच गया ?”
“मेरी बदकिस्मती से, सर, वरना मेरी इन्स्पेक्टर के पद पर जो प्रोमोशन आज हुई है, वो शायद तभी हो गयी होती । मुझे आज तक अफसोस है कि वो मुझे छका कर भाग निकलने में कामयाब हो गया था ।”
ये हकीकत दामोदर राव और विमल के सिवाय कोई नहीं जानता था कि तब दामोदर राव ने खुद भाग निकलने में सोहल की मदद की थी । मदद क्या की थी, भगाया ही उसने था ।
“हूं । तो इस वजह से तुम सोहल की सूरत से वाकिफ हो ?”
“यस, सर ।”
“और आवाज से भी ?”
“यस, सर ।”
“लिहाजा फिर कभी उसके रूबरू हुए तो फौरन उसे पहचान लोगे ? सूरत से भी आवाज से भी ? जब गंजे और अधपकी मूंछों वाले कुली की सूरत में तुमने उसे पहचान लिया था तो कभी वो फिर किसी बहुरूप में, मसलन फिर से सिख बना, तुम्हें दिखाई दिया तो भी तो पहचान ही लोगे ?”
“सर...”
“क्यों ? क्या हुआ ? क्या नहीं पहचान पाओगे ?”
“सर, वो क्या है कि, मुम्बई अन्डरवर्ल्ड में काफी अरसे से ये अफवाह गर्म है कि प्लास्टिक सर्जरी से उसका चेहरा तब्दील हो गया है, आवाज भी तब्दील हो गयी है ।”
“डोंट टॉक नानसेंस, इन्स्पेक्टर । चेहरे की सर्जरी से आवाज कैसे तब्दील हो सकती है ?”
“सर, सुनने में तो ऐसा ही आया है ।”
“अफवाहें उड़ाने वालों का ये ही काम होता है । एक की आठ लगाते हैं । आसमान पर चढा देते हैं हर बात को । इतना तो कोई मान भी ले कि किसी ने आवाज को बदल कर बोलने का अभ्यास कर लिया हो - फिल्मों की इस नगरी में डबिंग और मिमिकरी आर्टिस्ट ऐसा आम कर लेते हैं - लेकिन सर्जरी से किसी की आवाज तब्दील हो गयी हो, ये कैसे हो सकता है ?”
दामोदर राव खामोश रहा ।
“मैं तो सूरत तब्दील हो गयी होने वाली बात पर भी मुकम्मल तौर पर यकीन करने को तैयार नहीं लेकिन वो बात तो चलो मैंने मान ली क्योंकि प्लास्टिक सर्जरी की महिमा दुनिया में बढती ही जा रही है । बुढापा दूर रखने के लिये या खूबसूरती को दोबाला करने के लिये फिल्म स्टार्स ऐसी कास्मैटिक सर्जरी का सहारा लेते ही रहते हैं लेकिन यूं आवाज बदल जाये ! मैं नहीं मान सकता ।”
“सर, सुना तो ऐसा ही गया है ।”
“नो । आई कैन नॉट डाइजेस्ट इट ।”
दामोदर राव फिर खामोश हो गया ।
“अब बोलो, क्या तुम उसे फिर पहचान लोगे ?”
“सर, तब्दील सूरत के साथ....”
“मुझे ऐसी तब्दीली पर एतबार नहीं । एकबारगी एतबार कर भी लूं तो सूरत ही तो किसी की शिनाख्त में इकलौता फैक्टर नहीं होता । आदमी कद काठ से भी पहचाना जाता है । हाव भाव से भी पहचाना जाता है । चाल ढाल से भी पहचाना जाता है । और फिर सो काल्ड प्लास्टिक सर्जरी से सूरत में कोई तब्दीली आयी भी होगी तो कितनी आयी होगी ? सौ फीसदी तो न आयी होगी ? नो ?”
“यस, सर ।”
“यू एग्री विद मी ?”
“अप टू ए प्वायंट, सर ।”
“नॉटविदस्टैंन्डिग हिज प्लास्टिक सर्जरी, यू विल बी एबल टू रिकग्नाइज हिम ?”
“आई होप सो, सर ।”
“गुड । इन्स्पेक्टर, बहुत जल्द ऐसी एक शिनाख्त के लिये तुम्हारी जरूरत पड़ने वाली है इसलिये उपलब्ध रहना । आइन्दा कभी मुझे एकाएक तुम्हारी जरूरत पड़ सकती है । अन्डरस्टैण्ड ?”
“यस, सर ।”
“ड्यूटी आवर्स के बाद भी !”
“आई अन्डरस्टैण्ड, सर ।”
“सो कीप युअरसैल्फ अवेलेबल टु मी ।”
“आई विल, सर ।”
“यू मे गो नाओ ।”
***
पुलिस की एक जीप फार्म के बन्द फाटक के सामने आकर रुकी ।
ड्राइवर ने जोर से, देर तक, हॉर्न बजाया ।
अपने केबिन की खिड़की में से हिम्मत सिंह ने बाहर झांका तो सिपाहियों से भरी जीप देख कर वो सकपकाया ।
“अबे, फाटक क्यों नहीं खोलता ?” - ड्राइवर की बगल में बैठा तीन सितारों वाला इन्स्पेक्टर बेसब्रेपन से बोला ।
“खोलता हूं, साहब, खोलता हूं ।” - हिम्मत सिंह बोला - “धीरज रखिये ।”
फार्म के कटे हुए टेलीफोन तब तक जोड़े जा चुके थे, वहां पहुंचते ही बजाज ने सबसे पहले वो ही काम करवाया था ।
उसने जल्दी से भीतर फोन किया, बजाज लाइन पर आया तो उसने ‘पुलिस आयी है’ कह कर फोन रख दिया । फिर वो लपक कर केबिन से बाहर निकला और फाटक खोलने लगा ।
“क्या बात है ?” - उसने पूछा ।
इन्स्पेक्टर ने जवाब न दिया ।
“कुछ तो बोलो, हुजूर । मालिक भी तो सवाल करेगा ।”
“चौकीदार को बोलें ?”
“जब मैं यहां हूं तो....”
“और कोई नहीं है यहां तेरे सिवाय ?”
“हैं । बजाज साहब हैं ।” - हिम्मत सिंह एक क्षण हिचकिचाया और फिर बोला - “और भी लोग हैं ।”
“कहां हैं ?”
“भीतर फार्म हाउस में ।”
“उनको बोलेंगे । रास्ता छोड़ ।”
सहमति में सिर हिलाता हिम्मत सिंह एक तरफ हट गया ।
जीप भीतर दाखिल हो गयी और फर्राटे भरती पेड़ों से ढंकी राहदारी पर दौड़ चली । पलक झपकते वो राहदारी और उसके आगे का बड़ा कम्पाउन्ड लांघ कर फार्म हाउस की इमारत के सामने पहुंच गयी ।
जीप में से इन्स्पेक्टर, एक ए.एस.आई., एक हवलदार, चार सिपाही - जिनमें से ही एक ड्राइवर था - नीचे उतरे ।
इन्स्पेक्टर ने बरामदे में कई आदमियों साथ खड़े मुकेश बजाज पर निगाह डाली जिसे कि वो जानता था ।
बजाज भी इन्स्पेक्टर को जानता था, वो महरौली थाने का ए.एस.एच.ओ. था और उसका नाम अवधेश सिंह था ।
“इन्स्पेक्टर साहब !” - बजाज जबरन हंसता हुआ बोला - “वैलकम ! कैसे हो ?”
इन्स्पेक्टर ने जवाब न दिया, उसकी निगाह पैन होती हुई बजाज के अगल बगल खड़े लोगों की सूरतों पर घूमी ।
“कैसे आये, भैय्या ?” - बजाज फिर बोला ।
“इधर ये जमघट्टा क्यों है ?” - इन्स्पेक्टर दबंग स्वर में बोला ।
“कहां है जमघट्टा ? आठ दस आदमियों से जमघट्टा हो जाता है ?”
“क्यों है ?”
“क्यों न हो ? इधर क्या दफा एक सौ चौवालीस लगी है ? भैय्या, ये प्राइवेट प्रापर्टी है, यहां एक जना हो या इक्कीस, पुलिस को इससे क्या मतलब ?”
“मतलब है । तभी तो पूछा ।”
“बोलो मतलब ?”
“इधर की तलाशी होगी । ये लोग उसमें अड़ंगा बन सकते हैं ।”
“नहीं बनेंगे । सरकारी काम में अड़ंगा क्यों बनेंगे भला ? लेकिन तलाशी क्यों होगी ?”
“हुक्म हुआ है ।”
“वो तो हुआ ही होगा । हुक्म बिना तुम लोग कहीं हिलते हो ! लेकिन क्यों हुआ है तलाशी का हुक्म ? किस चीज की तलाश है तुम्हें ?”
“मिलेगी तो दिखाई दे जायेगी ।”
“अजीब मिजाज दिखा रहे हो, यार । वो भी मेरे साथ ! मुकेश बजाज के साथ !” - बजाज ने असहाय भाव से कन्धे उचकाये और गहरी सांस ली - “लाओ, सर्च वारन्ट दिखाओ, उस पर दर्ज होगा कि वो किस चीज की तलाश के लिये इशू किया गया है ।”
“सर्च वारन्ट नहीं है ।”
“तो फिर तलाशी कैसे होगी ?”
“मालिक की इजाजत से होगी । तुम झामनानी के खास आदमी हो, इजाजत तुम दे सकते हो ।”
“मैं कैसे दे सकता हूं....”
“नहीं दोगे तो भी तलाशी होगी ।”
“तो कैसे होगी ?”
“इधर उग्रवादी छुपे हुए हैं ।”
“क्या ?”
“आम बात हो गयी है ये आजकल दिल्ली में । कश्मीरी और अफगान उग्रवादी फार्म हाउसों में पनाह पाने लगे हैं । सब की तलाशी होगी, शुरुआत इधर से हुई समझो ।”
“लेकिन....”
“ऐसी सर्च के लिये वारन्ट की जरूरत नहीं होती ।”
“यार तुम... जरा इधर आओ । प्लीज ।”
बजाज इन्स्पेक्टर की बांह पकड़ कर उसे बरामदे में परे एक खम्बे की ओट में ले आया ।
“क्या माजरा है ?” - वो धीमे स्वर में बोला - “साफ साफ बोलो, यार । किस चीज की तलाश का हुक्म हुआ है ?”
“एक हवलदार की लाश का ।” - इन्स्पेक्टर भी वैसे ही धीमे स्वर में बोला ।
“तरसेमलाल की ?”
“हां ।”
“वो सोमवार रात तक यहां था । झामनानी ने किसी काम से उसे कनॉट प्लेस भेजा था । लौट के नहीं आया । यकीन करो ।”
“मेरे यकीन करने से क्या होता है ? हुक्म तो हुक्म है ।”
“हुक्म जारी करने वालों को यकीन हो गया कि तरसेमलाल लाश बन चुका है ?”
“अन्देशा है । शक है ।”
“चलो ऐसे ही सही । बड़े साहब लोगों की बातें हैं । लेकिन लाश की तलाश यहां किस लिये ?”
“बड़े साहब को ये भी शक है कि वो यहीं लाश बना । और फिर लाश यहीं कहीं दफना दी गयी ।”
“खामखाह ! जमना क्या यहां से बहुत दूर है ? ओखला क्या यहां से बहुत दूर है ? वहां पानी में लाश सरकाओ तो मथुरा में बरामद होती है । आगरे भी पहुंच जाती है ।”
इन्स्पेक्टर खामोश रहा ।
“अच्छी बात है, भैय्या ! ऐसे ही सही । तो लाश की तलाश के लिये बना रहे हो तुम इस जगह को अपना निशाना ?”
“हां । यहां न मिली तो आसपास के इलाके की खाक छानेंगे ।”
“कहां तक ?”
“चार पांच किलोमीटर तक । जहां तक कि इलाका उजाड़ है ।”
दोनों ही बातें बजाज के लिये चिन्ता का विषय थीं । लाश अभी भी कुयें में बदस्तूर पड़ी थी । अभी उसे वहां से न हथियार हटवाने का मौका मिला था और न लाश को गहरा दफनाने का । दूसरे चार पांच किलोमीटर तक तो पुराने खंडहर ही थे जिन को कैसे टटोला जाना था, ये अभी वो वहां जमा हुए आदमियों को समझा कर हटा ही था कि पुलिस पहुंच गयी थी । अब जो अन्देशे वाली बात थी वो ये थी कि लाश की तलाश करते पुलिसियों के हाथों में हेरोइन लग सकती थी । आखिर वो भी तो किसी ऐसी ही जगह दफन हो सकती थी जो कि लाश छुपाने के लिये मौजूं होती ।
क्या मुसीबत थी ? - मन ही मन वो कुनमुनाया - कोई काम ठीक से हो कर नहीं दे रहा था । झामनानी की किस्मत को तो जैसे पक्का ही ग्रहण लग गया था ।
“तू खामखाह हलकान हो रहा है ।” - इन्स्पेक्टर तनिक नर्मी से बोला - “इतने बड़े फार्म से लाश बरामद हो भी गयी तो वो झामनानी का जिम्मा कैसे बन जायेगी ? वो क्या चौबीस घन्टे यहां रहता है ?”
“कहां रहता है ? अभी भी यहां कहां है ?”
“वही तो । फिर भी कोई औंधी पड़ गयी तो इतना रसूख वाला आदमी है वो, सब सैट कर लेगा ।”
“वो नौबत नहीं आयेगी । लाश के इधर होने का कोई मतलब ही नहीं है और झामनानी का उसमें हाथ होने का तो कतई कोई मतलब नहीं है ।”
“फिर क्यों फ्यूज उड़ा हुआ है तेरा ?”
“नहीं, नहीं । ऐसी कोई बात नहीं ।”
“कैसे कोई बात नहीं ? तेरी बातों से तो लगता है कि तुझे अन्देशा है कि लाश बरामद हुई कि हुई ।”
“ऐसी कोई बात नहीं । अभी तो इसी बात की गारन्टी नहीं है कि तरसेमलाल मर चुका है ।”
“वही तो ।”
“लाश तलाश कैसे करोगे ?”
“वैसे ही जैसे की जाती है ।”
“कैसे की जाती है ? कोई मशीन, कोई आला, कोई मीटर होता है ये बताने वाला कि लाश कहां हो सकती है ?”
“पागल हुआ है ?”
“तो ?”
“अरे, खाक छानेंगे तेरे साहब के फार्म की किसी ताजा खुदी और पाटी गयी जगह की टोह में । इतने दिन तो हो गये, लाश कहीं दफन ही होगी तो बची होगी न बास मारने से !”
यानी कि वो माइन डिटेक्टर से होने वाली तलाशी नहीं थी ।
बजाज तनिक आश्वस्त हुआ । कुआं फार्म में ऐसी जगह था और यूं ढंक दिया गया हुआ था कि आसानी से मिलने वाला नहीं था । जमा वो खुद पुलिसियों के साथ मौजूद रह कर उधर से उनकी तवज्जो हटाये रखने की कोशिश कर सकता था ।
यानी कि हालात अभी बिलकुल ही बेकाबू नहीं थे ।
हथियारों का बखेड़ा न होता, जिनसे कि कुआं पटा पड़ा था, तो वो पुलिसियों की फार्म में मौजूदगी के बावजूद लाश को वहां से खिसकाने की जुगत कर सकता था ।
“....ले कर आये हैं जो फार्म को खोद कर रख देंगे ?”
बजाज ने हड़बड़ा कर सिर उठाया ।
“क्या ?” - उसके मुंह से निकला - “क्या कहा ?”
“किधर खो गया था ?” - इन्स्पेक्टर उसे घूरता हुआ बोला ।
“सॉरी ! यूं ही जरा ध्यान भटक गया था । क्या कह रहे थे तुम ?”
“मैं कह रहा था कि ऐसी तलाशी ऐसे ही होती है, और क्या हम बुलडोजर साथ लेकर आये हैं जो फार्म को खोद कर रख देंगे ?”
“ओह ! ऐसी मोटी तलाशी में भी एक घन्टा तो लग ही जायेगा तुम्हें ?”
“हां । एक डेढ घन्टा तो लग ही जायेगा ।”
“ठीक है । तुम अपना काम करो । समझ लो कि झामनानी की तरफ से सरकारी काम में कोई अड़ंगा नहीं है ।”
“बढिया ।”
“मुझे पांच मिनट अपने आदमियों को काम पर भेजने में लगेंगे, उसके बाद मैं यहीं हूं तुम्हारी हर खिदमत के लिये ।”
“ठीक है ।”
“खानसामा है यहां । मैं तुम लोगों का खाना....”
“खाने की जरूरत नहीं । ठण्डा-वण्डा पिला देना ।”
“वो तो अभी हाजिर होता है । मैं अभी आया ।”
बजाज लपक कर अपने आदमियों के पास पहुंचा ।
“एक जना यहां रुक जाओ” - वो दबे स्वर में बोला - “और बाकी फूट लो । ये मैंने तुम्हें समझा ही दिया है कि तुम ने क्या करना है, कैसे करना है ? लेकिन पुलिस के एकाएक आ मरने की वजह से हालात में जो फर्क आ गया है, उसे समझ लो । एक सवा घन्टा ये लोग यहां हैं । उसके बाद ये उन्हीं जगहों की खाक छानेंगे जिन्हें टटोलने का जिम्मा तुम्हारे सिर है । तुम लोगों ने खास ख्याल रखना है कि पुलिस के साथ तुम्हारी लाइन क्रास न हो, तुम एक दूसरे का रास्ता न काटो, भले ही किसी जगह वो लोग तुमसे पहले पहुंच जायें । कहने का मतलब ये है कि पुलिस को हरगिज भी भनक न लगने पाये कि तुम किस फिराक में हो ? समझ गये ?”
तमाम सिर सहमति में हिले ।
“फूट जाओ ।”
***
इनायत दफेदार और जेकब परदेसी लेमिंगटन रोड पर वाई. एम. सी. ए. के बाजू में स्थित एल्फ्रेड के बारे में मौजूद थे । दोनों एक कोने की एक ऐसी टेबल कब्जाये बैठे थे जिस पर से बार के प्रवेश द्वार को बिना गर्दन घुमाये बड़ी सहूलियत से देखा जा सकता था ।
उस वक्त अभी साढे ग्यारह बजे थे और बार खुलने का निर्धारित टाइम हुए अभी आधा घन्टा ही हुआ था फिर भी हाल आधे से ज्यादा भरा हुआ था ।
वहां जफर सुलतान से उनकी मुलाकात पूर्वनिर्धारित थी ।
“कहां मर गया कम्बख्त ?” - इनायत दफेदार भुनभुनाया ।
“आ जायेगा ।” - परदेसी ने आश्वासन दिया - “जब बोला है तो क्यों नहीं आयेगा ?”
वेटर उनके करीब पहुंचा ।
“क्या प्राब्लम है, भई, तेरी ?” - उसके मुंह भी खोल पाने से पहले दफेदार झल्लाया - “क्यों बार बार आ कर खम्बे की तरह सिर पर खड़ा हो जाता है ?”
“आर्डर के वास्ते आया, सर ।” - वेटर बोला ।
“अभी नहीं है आर्डर । कोई आने वाला है । आयेगा तो बोलेंगा । क्या ?”
“ठीक है ।”
“तब भी बुलाने पर आना ।”
सहमति में सिर हिलाता वेटर वहां से रुख्सत हो गया ।
“आ गया ।” - एकाएक परदेसी बोला ।
दफेदार ने प्रवेशद्वार की तरफ देखा तो जफर सुलतान को भीतर दाखिल होता पाया ।
“साथ कौन है इसके ?” - परदेसी बोला ।
ख्वाजा !” - दफेदार वितृष्णापूर्ण स्वर में बोला - “अकेला आने को बोला । जोड़ीदार ले आया ।”
“ख्वाजा ! घाटकोपर वाला ?
“वही ।”
“ये तो दाढी रखता था ?”
“रखता था ।”
“तभी तो मैं पहचाना नहीं ।”
दोनों करीब पहुंचे और उनके सामने बैठ गये । सब में अभिवादनों का आदान प्रदान हुआ ।
“कैसा है परदेसी ?” - ख्वाजा अपनी क्लीनशेव्ड सूरत पर उंगलियां फिराता हुआ बोला - “पहचाना नहीं मेरे को ?”
“पहचाना” - परदेसी बोला - “पण जरा देर से पहचाना । दाढी क्या कहती थी ?”
“कुछ नहीं । सिंगापुर हो के आया न ! सूट बूट डाट के साहब का माफिक ।”
“उधर दाढी वाले को नहीं घुसने देते ?”
ख्वाजा ने ठहाका लगाया ।
“बिरादर” - वो बोला - “मेरा दर्जी बोला मेरी ऊबड़ खाबड़ दाढी उस फैंसी सूट से क्लैश करती थी जो वो खास मेरे वास्ते सिया ।”
सुलतान भी फरमायशी हंसी हंसा । फिर दफेदार को संजीदा पाकर उसकी हंसी को ब्रेक लगी ।
“बोलो, बाप ।” - वो बोला - “क्या हुक्म है ? खादिम हाजिर है ।”
“जफर” - दफेदार एक अर्थपूर्ण निगाह ख्वाजा पर डालता हुआ बोला - “हुक्म तेरे वास्ते था । खिदमत तेरे वास्ते थी ।”
“तेरा मतलब है मुझे अकेला आना चाहिये था ?”
“मतलब खुद समझ ।”
“समझ लिया । पण बाप, तू भी तो अकेला नहीं आया ?”
दफेदार ने घूर कर उसकी तरफ देखा ।
“अगर तेरे साथ परदेसी हो सकता है तो मेरे साथ ख्वाजा क्यों नहीं हो सकता ?”
“मैं कब बोला कि नहीं हो सकता ।”
“बोला तो सही पण... शायद मेरे समझने में कसर रह गयी ।” - वो एक क्षण खामोश रहा और फिर बोला - “ख्वाजा को मैं साथ नहीं लाया था । इधर ही मिला बाहर फुटपाथ पर । अपना भाई जैसा है । बाप, तू भी अपना भाई जैसा है इसलिये सोचा....”
“मेरे को नहीं मालूम था” - ख्वाजा बोला - “इधर कोई खुफिया मीटिंग होने वाला था । मैं तो समझा था कि दोस्त दोस्त मिलने वाले थे । मैं चला जाता है ।”
उसने उठने का उपक्रम किया तो दफेदार ने उसकी बांह पकड़ कर वापिस बिठाया और बोला - “अरे नहीं । हिलने का नहीं है इधर से ।”
“बाप, तू बोला न तू खाली जफर से....”
“जो मेरे को जफर को बोलना है, मेरे को कोई एतराज नहीं अगर वो तू भी सुने । सच पूछे तो तेरा अक्स भी मेरे जेहन में था । जफर न मिलता तो जिस दूसरे शख्स को मेरा पैगाम पहुंचता वो तू ही होता ।”
“ऐसा ?”
“हां । तू टिक के बैठ ।”
“पक्की बात ?”
“हां । मेरे पास एक काम है जो मैं बोलता हूं । दोनों सुनो । जिसको जंचे, वो करना कुबूल करना ।”
“क्या काम है ?” - जफर सुलतान बोला ।
“काम ‘भाई’ का है ।”
“क्या ?”
“गिरफ्तारी देने का है । दो या बड़ी हद तीन दिन अन्दर बैठना पड़ेगा, फिर जमानत हो जायेगी ।”
“‘भाई’ करायेगा जमानत ?”
“‘भाई’ कैसे करायेगा ? जमानत ‘भाई’ ने करानी होती तो वो गिरफ्तार होने को क्यों बोलता ?”
“तो ?”
“जमानत कोई और करायेगा ।”
“और कौन ?”
“जिसके फायदे की जानकारी तेरे पास होगी ?”
“मेरे पास होगी ?”
“वो समझेगा कि होगी । उसे समझाया जायेगा ऐसा ।”
“बात का खुलासा कर, बाप ।”
दफेदार ने किया, तफसील से किया ।
“ओह ! - वो खामोश हुआ तो जफर सुलतान बोला - “तो ये सोहल के खिलाफ कदम है ‘भाई’ का ?”
“हां ।”
“‘भाई’ से उसकी क्या अदावत हो गयी ?”
“तू बात को यूं समझ कि ये जुम्मा जुम्मा आठ रोज का खलीफा सोहल बहुत ऊंचा उड़ रहा है और ‘भाई’ के फील्ड में दख्लअन्दाज हो रहा है । ऐसे पंछी के पर कुतरना जरुरी होता है ।”
“या शायद” - ख्वाजा धीरे से बोला - “‘भाई’ दिल्ली में हुई अपनी किरकिरी का बदला लेना चाहता है ।”
दफेदार चौंका, उसने बेहद सर्द निगाहों से ख्वाजा की तरफ देखा ।
“एक ही बिरादरी में कोई बात कहां छुपती है !” - ख्वाजा लापरवाही से बोला ।
“दिल्ली इधर से आठ सौ मील दूर है ।” - दफेदार अपनी निगाह जैसे ही सर्द स्वर में बोला ।
“अफवाह हजारों मील की रफ्तार से परवाज करती है ।”
“उधर जो हुआ, उसकी इधर खबर पहुंचाने वाला कोई नहीं था ।”
“कोई तो बराबर था । सुना है दो सौ आदमी मौजूद थे उधर इस वाकये के वक्त !”
“यही तो कमाल होता है अफवाह का ।” - जफर सुलतान बोला - “चन्द और हाथों से गुजरेगी तो तादाद दो हजार हो जायेगी, पांच हजार हो जायेगी, फिर कोई बोलेगा कि जो हुआ था, उसका नजारा सारे दिल्ली शहर ने किया था ।”
“अब मैं क्या बोलूं ?”
“तू” - दफेदार बोला - “दिल्ली तो नहीं होकर आया ?”
“नहीं ।”
“जो सुना, इधर सुना ?”
“हां ।”
“किससे ?”
“किससे क्या ? इधर सारे अन्डरवर्ल्ड में चर्चा है ‘भाई’ की दिल्ली में हुई फजीहत का । किसी से भी दरयाफ्त कर लो । एक ही बात सुनने को मिलेगी कि दिल्ली में सोहल ने ‘भाई’ की ऐसी दुरगत की थी कि उसे उधर से दुम दबा कर भागना पड़ा था । नंगा करके खदेड़ा गया था....”
“तमीज से । तमीज से ।”
“मैं जो सुना, वो बोला । खुद पता कर लो, येहीच सुनने को मिलेगा ।”
“सब गलत है, बकवास है ।”
“होगा ।”
“किसी की मजाल है ‘भाई’ से ऐसे पेश आने की ?”
“किसी की कोई नहीं बोला । सोहल की बोला ।”
“और अब ‘भाई’” - जफर सुलतान बोला - “अपनी बिगड़ी साख को संवारने के लिये सोहल को लुढकाना मांगता है । ऐसीच है न, बाप ?”
“तू बात को बहुत फाश तरीके से बोला ।” - दफेदार बोला - “‘भाई’ सोहल को लुढकाना मांगता है, बरोबर बोला, पण उस वजह से नहीं जिससे अफवाहों का बाजार गर्म बताता है अपना ख्वाजा । ‘भाई’ के सामने सोहल की क्या बिसात है ? ‘भाई’ के सामने सोहल मच्छर है जिसे ‘भाई’ जब चाहे मसल सकता है ।”
“क्यों नहीं ? जरूर ! बरोबर बोला, बाप । तो फिर ये मीटिंग तो गैरजरूरी । तो फिर हम सलाम बोलें और रुख्सत लें ?”
“नहीं, नहीं, । अभी मुझे जवाब कहां मिला है ?”
“मेरे पास पहले से काम है ।”
“पहले से काम है ?”
“हां ।”
“किसका ?”
“बताना मुनासिब न होगा ।”
“क्या काम है ?”
“ये भी बताना मुनासिब न होगा ।”
“कब तक फारिग होगा ?”
“कहना मुहाल है ।”
“टालमटोल की जुबान बोल रहा है तू ।”
“ऐसी कोई बात नहीं ।”
“‘भाई’ का काम सबसे ऊपर होता है । मालूम ?”
“ख्वाजा है न ।”
दफेदार ने ख्वाजा की तरफ देखा ।
“वो क्या है कि” - ख्वाजा दबे स्वर में बोला - “आजकल मेरे पास भी काम है ।”
“ये पांच पेटी का काम है ।”
“अभी हाथ में लेना मुहाल है ।”
“मनमानी रकम भी मिल सकती है ।”
“जरुर । पण... खाली नहीं है ।”
“‘भाई’ को इनकार सुनने की आदत नहीं है ।”
“अब क्या बोलेंगा, बाप ।”
दफेदार ने फिर जफर सुलतान की तरफ देखा ।
उसका सिर पहले ही इनकार में हिलने लगा ।
कुछ क्षण खामोशी रही ।
“ये” - आखिरकार दफेदार बोला - “तुम्हारे बदले हुए तेवर मेरी समझ से बाहर हैं । अभी कल तक तुम लोग ‘भाई’ के हुक्म को सिर माथे लेते थे, फख्र महसूस करते थे इस बात में कि ‘भाई’ तुम्हें खिदमत का मौका दिया ।”
“आज भी ऐसीच है” - जफर सुलतान बदले स्वर में बोला - “पण....”
“क्या पण ?”
“टेम नहीं है ।”
“इसलिये टेम नहीं है क्योंकि जो करना है वो सोहल के खिलाफ करना है ?”
जफर सुलतान ने जवाब न दिया, उसने बेचैनी से पहलू बदला ।
“सोहल तुम्हारा सगेवाला कब से बन गया ?”
“नहीं बन गया ।”
“तो फिर ?”
“अब क्या बोलेंगा, बाप ?”
“‘भाई’ की मुखालफत का नतीजा जानते हो ?”
“कौन ‘भाई’ की मुखालफत कर रहा है, बाप ?” - जफर सुलतान याचनापूर्ण स्वर में बोला - “यहीच काम तो है जिसको नक्की बोला । मजबूरी है इसलिये बोला । टेम नहीं है । पहले से काम पकड़ के रखा, जो बीच में नहीं छोड़ा जा सकता ।”
“सब बहानेबाजी है ।”
“बाप, अब छोड़ न ये किस्सा । मुम्बई में क्या तोड़ा है हमेरे जैसे आदमियों का ! किसी और को बोल ।”
“वो भी तेरी माफिक बोलेगा टेम नहीं है । तुम, लोगों को खामख्याली हो गयी जान पड़ती है कि दिल्ली से लौटने के बाद से ‘भाई’ पिलपिला गया है और सोहल जबर हो गया है ।”
“नहीं, बाप ।”
“क्या नहीं बाप ?”
जफर सुलतान खामोश रहा ।
“दरिया में रह के मगर से बैर नहीं चलता, जफर । तेरे को भी बोला, ख्वाजा ।”
“मालूम ।” - ख्वाजा बोला - “तभी तो ये जवाब देना पड़ा ।”
“मेरे को भी ।” - जफर सुलतान बोला ।
“सोहल को” - परदेसी धीरे से बोला - “सोहल को मगर बोल रहे हैं दोनों ।”
दफेदार भौंचक्का सा दोनों का मुंह देखने लगा ।
“मैं अभी आया ।” - एकाएक जफर सुलतान उठता हुआ बोला ।
“किधर जाता है ?” - दफेदार संदिग्ध भाव से बोला ।
जवाब में जफर सुलतान ने अपनी कनकी उंगली उठाई ।
“मैं भी चलता हूं ।” - ख्वाजा बोला - “मेरे को भी संडास जाने का है ।”
“ठीक है । उधर आपस में मशवरा करके कोई फाइनल जवाब भी सोच लेना ।”
सहमति में सिर हिलाते दोनों बार के पिछवाड़े की तरफ बढ चले जिधर कि टायलेट था ।
***
“तौबा !” - रिमझिम भुनभुनायी - “क्या शहर है तुम्हारा !
हर कोई दौड़ता ही दिखाई देता है । ऐसी चौतरफा आपाधापी है जैसे एक घन्टे में शहर खाली हो जाने वाला हो ।”
विशाल हंसा ।
“ऐवरीबाडी इज इन ए ग्रेट हरी । नोबाडी टेक्स इट ईजी ।”
“ऐसा ही होता है सब जगह ।”
“नहीं होता । सिर्फ तुम्हारे शहर में होता है ।”
विशाल ने ज्यादा बहस न की । आखिर दिल्ली में वो उसकी मेहमान थी ।
उसने कुतुब की पार्किंग में अपनी मारुति - 800 कार खड़ी की और उसके साथ बाहर निकला । दोनों टूरिस्टों की भीड़ के साथ भीतर की तरफ बढे ।
दिल्ली वासी विशाल भल्ला और मुम्बई वासिनी रिमझिम पाटिल दोनों स्मालटाइम टी.वी. आर्टिस्ट थे जो कि तीन चार टेलीसीरियल्स में इकट्ठे काम कर चुके थे... कर रहे थे । ऐसे सीरियल्स का कारोबार क्योंकि मुख्यत: फिल्मों की नगरी मुम्बई में था इसलिये विशाल को शूटिंग के लिये अक्सर मुम्बई जाना पड़ता था जहां कि उसकी रिमझिम से वाकफियत और फिर दोस्ती हुई थी जो कि अब गहरी दोस्ती की ओर अग्रसर थी । अब दिल्ली में बन रहे एक सीरियल की शूटिंग के सिलसिले में वो दिल्ली आयी थी तो विशाल के लिये अपने शहर में उसका मेजबान और गाइड बनना स्वाभाविक था ।
“तौबा !” - रिमझिम फिर भुनभुनायी - “यहां भी इतनी भीड़ ?”
“अमूमन नहीं होती ।” - विशाल ने सफाई पेश की ।
“तो ये है कुतुब का मीनार !”
“हां ।”
“काफी बड़ा है । इस पर चढते किधर से हैं ?”
“वो सामने दरवाजा है जिस पर ताला लगा है ।”
“ताला ! क्यों भला ?”
“मीनार पर चढना मना है । सालों से पाबन्दी चली आ रही है । कई साल पहले भीतर एक हादसा हो गया था, भगदड़ में कई लोग मारे गये थे, तब से बन्द है ।”
“फिर क्या फायदा हुआ ?”
“वो क्या है कि....”
“यही है कि बन्द है । भीतर जाना मना है । देख लिया तुम्हारा कुतुब का मीनारा । अब चलो यहां से ।”
“अभी ठहरो, उधर अशोक की लाट है....”
“उस पर भी चढना मना होगा ?”
“वो चढने वाली लाट नहीं है, वो तो....”
“वो ही न जिसके गिर्द मेला लगा हुआ है ?”
“हां ।”
“यहीं से दिखाई दे रही है । देख ली । अब चलो ।”
“लेकिन....”
“च... लो ।”
रिमझिम ने उसकी बांह थामी और उसे बाहर की तरफ ले चली ।
विशाल उसके साथ घिसटता चला गया ।
फिर वो उसे छतरपुर मंदिर लेकर गया जिसका कि रिमझिम ने कुतुब मीनार से जरा ही ज्यादा रौब खाया ।
वो कार की तरफ बढे ।
“मुम्बई के बीच याद आ गये ।” - वो बोली - “रौनक चाहो तो रौनक, तनहाई चाहो तो तनहाई । दिल्ली वाले तो मुझे उम्मीद नहीं कि जानते भी होंगे कि तनहाई क्या चीज होती है ?”
विशाल हंसा ।
“अरे, जवाब दो ।”
“है कहीं कहीं कोई तनहा जगह” - विशाल बोला - “लेकिन दिन के इस वक्त....”
“फिर क्या फायदा !”
दोनों कार में सवार हो गये ।
“अब किधर ?” - रिमझिम बोली ।
“इधर से तो वापिस ।” - विशाल वोला - “आगे कनॉट प्लेस के रास्ते में दो तीन दर्शनीय स्थल हैं, उनको देख के कनॉट प्लेस में जा के लंच करेंगे ।”
“लंच की कोई जल्दी नहीं है ।”
“हम भी कौन से अभी कनॉट प्लेस पहुंच रहे हैं ।”
“अभी जरा रुको ।”
उसने अपने हैण्ड बैग में से सिगरेट का पैकेट और लाइटर निकाला और एक सिगरेट सुलगा कर विशाल को दे दिया, उसने अपने लिये और सिगरेट सुलगा लिया ।
विशाल ने सिगरेट का गहरा कश खींचा ।
“मेरे होंठो से छुआ सिगरेट है ।” - रिमझिम इठलाती सी बोली - “मजा आया ?”
“हां ।” - विशाल स्वर में रंगीनी घोलता हुआ बोला - “बहुत । इधर सरक जरा ।”
“क्यों ?”
“तुझे पता है क्यों !”
“पागल हुए हो ! इतने लोग देख रहे हैं ।”
“ओह !”
“तुम्हारे शहर में ‘ओह’ ही होगा, ‘वाह’ नहीं होने वाला ।”
विशाल हंसा ।
“उधर क्या है ?”
“किधर ?”
“दायीं तरफ ! जिधर से हम आये थे, उससे उलटी तरफ ?”
“उधर कुछ नहीं है । बस यहीं तक रौनक है ।”
“फिर भी ?”
“फार्म हाउसिज हैं और पुराने खंडहर हैं ।”
“उधर चलो ।”
“अरे, वो उजाड़ रास्ता है....”
“तभी तो बोला उधर चलो ।”
“....कुछ नहीं रखा उधर ।”
“खंडहर रखे हैं न ! मैं खंडहर देखूंगी । अभी पीछे भी तो तुमने खंडहर ही दिखाये थे ।”
“क्या ?”
“तुम्हारे कुतुब के मीनार की बात कर रही हूं । उसे वहां से हटा दो तो बाकी क्या बचा ?”
“बात तो तेरी सही है लेकिन....”
“नाओ मूव । एण्ड दैट्स एन आर्डर ।”
विशाल ने सिगरेट फेंका और कार को विपरीत दिशा में दौड़ा दिया । उधर वो काफी आगे निकल आये तो विशाल का भी मन चलायमान होने लगा । ठीक तो कह रही थी वो । उजाड़ रास्ते पर चलने में क्या हर्ज था ? क्या पता कहीं दांव ही लग जाये....
उसने कार की रफ्तार कम की, उसे एक टूटे परकोटे के करीब सड़क से नीचे उतारा और एक पेड़ की छांव में ले जाकर खड़ा किया ।
तत्काल उसने रिमझिम को अपनी बांहों में भर लिया ।
रिमझिम भी लता की तरह उससे लिपट गयी ।
लेकिन जल्दी ही उसने उसे परे धकेल दिया ।
“ओफ्फोह ! - परेशानहाल वो बोली - “कितनी गर्मी है ? तुम ए.सी. कार क्यों नहीं लेते ?”
“शुक्र करो कि ये तो है वरना मेरे जितनी कमाई वाले मेरे प्रोफेशन के लोग बसों पर धक्के खाते हैं ।”
“छोड़ो वो किस्सा ! इस दीवार के पार क्या है ?”
“खंडहर ही होंगे, और क्या होगा ?”
“देख के आओ ।”
“क्या ?”
“बुद्धू !”
“ओह !”
विशाल कार से बाहर निकला और परकोटे की एक मेहराब के नीचे से गुजर कर पार पहुंच गया । कुछ क्षण को वो रिमझिम की निगाहों से ओझल हो गया लेकिन लगभग फौरन ही वो उसे इनकार में सिर हिलाता लौटता दिखाई दिया ।
वो वापिस कार में आ सवार हुआ ।
“कुछ नहीं है उधर ।” - वो बोला - “बस परकोटा ही परकोटा है, भीतर चटियल मैदान है और मैदान में गड़े कब्रों जैसे पत्थर हैं ।”
“कहीं और चलो ।” - रिमझिम बोली ।
“और कहां ?”
“अरे, अभी एक खंडहर दिखाया है, जब कई हैं तो बाकी भी तो दिखाओ ।”
“मैं समझ गया ।”
“देर से समझते हो ।”
विशाल हंसा, उसने झुक कर रिमझिम के गाल से अपने होंठ छुए और फिर कार को घुमा कर फिर सड़क पर डाला ।
आगे तीन जगह वो ठिठके लेकिन कोई भी जगह उन्हें काम की न लगी ।
चौथी ने उनकी उम्मीदें जगायीं ।
इस हद तक कि विशाल उसे साथ लेकर ही भीतर गया ।
वो कोई मकबरा सा जान पड़ता था जिसके चौतरफा बरामदों की तकरीबन मेहराबें छतों समेत ढेर हो चुकी थीं । वो एक बरामदे के परले कोने में पहुंचे तो उन्होंने पाया कि वहां की छत का काफी सारा हिस्सा सलामत था लेकिन नीचे फर्श धूल मिट्टी और ईंट पत्थरों से अटा हुआ था ।
विशाल ने रिमझिम की कमर में हाथ डाल‍ दिया और बड़े व्यग्र भाव से उसका उन्नत वक्ष टटोलने लगा ।
रिमझिम उसके साथ सट गयी, अपने जिस्म का अधिकतर भार उसने उसके कंधे पर डाल दिया ।
“उधर !” - वो धीरे से फुसफुसाई - “सीढियां हैं ।”
विशाल ने सहमति में सिर हिलाया, दोनों सम्भल कर चलते आगे बढे और सीढियों के दहाने पर ठिठके ।
सीढियां काफी हद तक सलामत थीं और नीचे एक कमरे में पहुंच रही थीं ।
विशाल ने अर्थपूर्ण भाव से उसे कोहनी मारी ।
“अन्धेरा है ।” - रिमझिम सस्पेंसभरे स्वर में फुसफुसाई ।
“कहां अन्धेरा है !” - विशाल फुसफुसाया - “परे कहीं कोई जालीदार रोशनदान है, उसके रास्ते रोशनी की किरणें अन्दर पहुंच रही हैं । तभी तो हमें दिखाई दे रहा है कि नीचे तहखाने जैसा कमरा है ।”
“कोई सांप वांप निकल आया तो ?”
“ये बात अब सूझी ! और पहले जो खंडहर-खंडहर तनहाई-तनहाई भज रही थी !”
“कोई आ गया तो ?”
“कहां से आ जायेगा ? सारे रास्ते में मिला कोई ?”
“फिर भी ?”
“फिर एकाएक थोड़े ही सिर पर आन खड़ा होगा । हमें आहट मिलेगी उसके दूर से ही आने की । तब तक सम्भल जायेंगे ।”
“क्या बोलेंगे ?”
“टूरिस्ट हैं । साइट सीईंग पर निकले हैं । साइट सीईंग कर रहे हैं ।”
“हूं ।”
“तो चलें ?”
रिमझिम का सिर बहुत हौले से सहमति में हिला ।
एक दूसरे से लिपटे दोनों सीढियां उतरने लगे ।
नीचे तहखाना उनकी अपेक्षा से बड़ा निकला और उसका फर्श भी कदरन समतल था ।
“ईंट पत्थर तो नहीं हैं” - रिमझिम फुसफुसाई - “लेकिन धूल मिट्टी बहुत है ।”
“हां ।”
“फिर....”
“एक मिनट चुप रह ।”
विशाल की निगाह पैन होती हुई चारों तरफ फिरी ।
एक कोने में उसे सूखी टहनियों का ढेर लगा दिखाई दिया । उसने टहनियों को इधर उधर सरकाया तो उसे लगा कि आगे कुछ और था ।
क्या ?
उसने आंखें फाड़ फाड़ कर उधर देखा और हाथ बढा कर टटोला ।
घास !
उसने और हाथ चलाया ।
सूखी घास !
“बन गया काम ।” - वो बोला ।
“कैसे ?” - उसके पीछे आन खड़ी हुई रिमझिम ने पूछा ।
“मेकशिफ्ट मैट्रेस का इन्तजाम हो गया ।”
“अरे, कैसे ?”
“अभी सामने आता है कैसे !”
उसने दोनों हाथ बढा कर उनमें घास समेटी और उसे लेकर सीढियों से परे अन्धेरे कोने में पहुंचा । उसने घास को वहां फर्श पर बिछाया और वापिस लौटा ।
वैसे दो और फेरे उसने घास के साथ लगाये ।
चौथे, आखिरी, फेरे में उसने बची खुची घास भी समेट ली, वो उठ कर वापिस चलने ही लगा था कि रिमझिम एकाएक बोली - “पीछे कुछ है ।”
“पीछे कहां ?” - विशाल सकपकाया सा बोला ।
“अरे, जहां से घास उठाई ।”
वो वापिस घूमा ।
“क्या है ?” - वो बोला ।
रिमझिम ने दो कदम आगे बढाये और झुक कर सामने झांका ।
“पेटी है ।” - वो टटोलती हुई बोली - “कार्डबोर्ड की ।”
विशाल घास समेटे कुछ क्षण स्थिर खड़ा रहा, फिर उसने घास हाथों से निकल जाने दी और रिमझिम को परे करके उकड़ूं होकर सामने झांका तो पाया कि जहां वो देख रहा था, वहां दीवार और फर्श के संगम पर एक बड़ा सा खड्डा बना हुआ था, उसी खड्डे में कार्डबोर्ड की छोटी सी बन्द पेटी पड़ी थी । सूखी घास और घास के आगे टहनियों की वजह से वो यूं छुपी हुई थी कि ये तक नहीं जान पड़ता था - खुद उसे नहीं जान पड़ा था - कि वहां पीछे खड्डा था ।
उसने पेटी को उठा कर खड्डे में से निकाला और फर्श पर रखा ।
वजन में वो उसे कोई सात-आठ किलो की लगी ।
उसके ढक्कन पैकिंग वाले ब्राउन टेप से बन्द कर दिये गये थे और बाहर ऐसी कोई मार्किंग नहीं थी जिससे अन्दाजा हो पाता कि भीतर क्या था ?
“क्या होगा ?” - रिमझिम उसके कान के करीब फुसफुसाई ।
“क्या पता ?” - वो बोला ।
“बम !”
“पागल हुई है ! और फिर बम जैसा भार भी तो नहीं है पेटी का ।”
“नयी पेटी है । स्मगलिंग का माल होगा । ये तहखाना किसी स्मगलर की डैन है और ये खंडहर उसका हैडक्वार्टर है ।”
“नानसेंस ।”
“तुम अलीबाबा हो । ये चालीस चोरों के खजाने का एक हिस्सा है । अब ‘खुल जा सिमसिम’ बोलो ।”
“क्या ?”
“अरे, खोलो इसे । मेरा सस्पेंस से दम निकला जा रहा है ।”
“खोलूं ?”
“हां । फौरन । क्या पता तुम्हारे लिये एयरकंडीशंड गाड़ी इसी में छुपी हुई हो !”
“ये कोई ऐसा बम तो नहीं जो ढक्कन खोलने से फटता हो ?”
“लो ! मैंने बम का नाम लिया तो मुझे पागल बोल दिया अब खुद बम बम भजने लगे ।”
“लेकिन....”
“अब खोल भी चुको ।”
“कोई पंगा न हो जाये !”
“हटो, मैं खोलती हूं ।”
“खोलता हूं । खोलता हूं ।”
टेप को उधेड़ कर उसने पेटी का ढक्कन उठाया और सांस रोक कर भीतर झांका । उसको ठीक से कुछ न दिखाई दिया तो उसने पेटी को यूं तिरछा किया कि उसका खुला मुंह सीढियों की रोशनी की तरफ हो गया ।
“क्या है ?”
“पोलीथीन की थैलियां जान पड़ती हैं । हां, थैलियां ही हैं । सफेद पाउडर से भरी । कई हैं ।”
“पाउडर की थैलियां !”
“मुझे कुछ और ही सूझ रहा है । जरा सूई दे अपने बालों की ।”
रिमझिम ने उसे सूई थमायी तो विशाल ने एक थैली को पंचर किया । उसने उसको अपनी हथेली पर उलटा तो सफेद रंगत के बारीक कण उस पर आ कर गिरे । उसने उन्हें सूंघा, तर्जनी उंगली और अंगूठे में मसल कर फिर सूंघा तो उसके मुंह से तीखी सिसकारी निकली ।
“क्या हुआ ?” - रिमझिम आतंकित भाव से बोली ।
“हेरोइन !” - विशाल बोला ।
“क्या ?”
“हेरोइन ! प्योर ! अनकट !”
“तुम्हें क्या पता ?”
“मुझे पता है । एक्टिंग को कैरियर बनाने से पहले मैं पूसा एस्टेट में स्थित सरकारी फोरेंसिक साईंस लैबोरेट्री में लैबोरेट्री असिस्टेंट था जहां कि पुलिस के पकड़े ऐसे ड्रग्स के सैम्पल टैस्ट होने के लिये आते थे । ये हेरोइन है और इसे छोटी सी पेटी में करोड़ों का माल है ।”
“क... क... करोड़ों का... करोड़ों का माल ?”
“हां, लेकिन हमारे लिये मिट्टी है ।”
“क्यों ? इसे हम नहीं बेच सकते ?”
“हम ऐसी कोशिश भी करेंगे तो हमारी लाशें दरिया मैं तैरती मिलेंगी । हेरोइन के सौदागरों से पंगा लेने का मलतब है निश्चित मौत ।”
“ओह ! लेकिन ऐसे माल को पकड़वाने पर कोई सरकारी ईनाम भी तो होता होगा ?”
“शायद होता हो । लेकिन ऐसे ईनाम सालों में जाकर मिलते हैं । नहीं भी मिलते । बाकायदा घोषणा हो जाने पर भी नहीं मिलते । सरकारी लालफीताशाही में फंस के रह जाते हैं ।”
“फिर क्या फायदा हुआ ?”
“अभी तुम एक खास बात भूल रही हो ।”
“कौन सी ?”
“हम अपनी बाबत क्या जवाब देंगे ? इस उजाड़ बियाबान जगह के इतने स्कैण्डलस तहखाने में हम क्या कर रहे थे ?”
“ओह !”
“तीन दिन बाद तुमने मुम्बई वापिस लौटना है । बतौर मैटीरियल विटनेस पुलिस ने मेरे साथ तुम्हें भी दिल्ली में ही बिठा लिया एक लम्बे अरसे के लिये तो क्या करोगी ?”
“ओह नो । मेरा तो आगे मुम्बई में फिक्सड शूटिंग शिड्यूल है, वो बिगड़ जायेगा ।”
“सो देयर ।”
“वेयर ? नोवेयर ।”
“क्या कह रही है ?”
“करोड़ों का माल सामने लेकिन हमारे किसी काम का नहीं ।”
“मैंने बोला न....”
“भगवान ने खाने नहीं देना था तो क्यों परोसा छप्पन भोज का थाल हमें ?”
“सपने देख रही है । अब छोड़ वो किस्सा ।”
“छोड़ दिया । अब क्या करें ? चुपचाप खिसक चलें ?”
“वो तो करेंगे ही लेकिन हमारा इतना तो फर्ज फिर भी बनता है कि हम इसकी खबर पुलिस को कर दें ।”
“कर दो । मोबाइल तुम्हारे पास है । अभी कर दो ।”
विशाल ने इनकार में सिर हिलाया ।
“क्यों ? क्या हुआ ?”
“पुलिस को पता चल जायेगा कि उनके पास कॉल मेरे मोबाइल से आयी थी ।”
“खामखाह !”
“पुलिस को फोन लगाने पर कालिंग पार्टी का फोन होल्ड हो जाता है और तब तक नहीं कटता जब कि वो न काटें । यूं ही वो एक्सचेंज की मदद से गुमनाम कॉलों को ट्रेस करते हैं ।”
“तुम्हें क्या मालूम ?”
“मालूम है, तभी तो बोला ।”
“तो फिर ?”
“हम पेटी को यथास्थान वापिस रखते हैं और उसके सामने वैसे ही सूखी घास और टहनियां ढेर करते हैं जैसे ढेर हुई वो हमें मिली थीं । फिर किसी पी.सी.ओ. से हम ‘100’ नम्बर पर इस बाबत फोन कर देंगे ।”
रिमझिम ने एक निगाह परे फर्श पर बिछी घास पर डाली और फिर दबे स्वर में बोली - “ऐसा फौरन करना जरूरी है ?”
“हां । जरूरी है । हमारा एक सैकेंड भी फालतू यहां रुकना अपनी हालत आ बैल मुझे मार जैसी करना होगा ।”
“कौन आ सकता है ?”
“अरे, और कोई नहीं तो वो लोग तो आ ही सकते हैं जिनका कि ये माल है । वो हमें माल के सिरहाने पायेंगे तो क्या जिन्दा छोड़ देंगे ! ठौर मार गिरायेंगे ।”
“ओह नो ।”
“मैं पेटी वापिस रख के ये घास इसके आगे करता हूं, तुम बाकी की उठा कर लाओ ।”
“यू मीन हनीमून इज रीयली ओवर ?”
“मजाक न कर ।”
“इतनी बढिया, इतनी ओरीजिनल सेज सजी थी....”
“बोला न, मजाक न कर ।”
“हाय ! न खुदा ही मिला न विसाले सनम, न इधर के रहे, न उधर के रहे ।”
“तेरे सीरियल का डायलाग है । यहां फिट नहीं बैठता । अब बस कर ।”
“ओके । ओके । लेकिन एक आखिरी बात कहने दो ।”
“जल्दी बोलो ।”
“जब माल पुलिस बरामद करेगी तो उसे ये थोड़े ही मालूम होगा कि असल में यहां कितना माल था !”
“क्या मतलब ?”
“सुना है हेरोइन का नशा त्रिलोक के दर्शन करा देता है । हम इसमें जरा सी भांजी मार लें तो किसी को क्या पता लगेगा ?”
“नो ।”
“अरे, मुन्ने, व्यापार के लिये नहीं, जाती इस्तेमाल के लिये ।”
“नो ।”
“बस सिर्फ दो थैलियां । एक तुम्हारे लिये, एक मेरे लिये ?”
“नैवर ।”
“ओके, एक । एक से तो....”
“ओफ्फोह !”
“हाथी छोड़ दिया, दुम पर तो कम्प्रोमाइज कर, खसम ।”
“रिमझिम, फार गॉड सेक, स्नैप आउट ऑफ इट ।”
“ओके । ओके, किलजॉय ।”
“जा, घास उठा कर ला ।”
“अच्छा यार मिला । घसियारन बना दिया ।”
“अब जा भी चुक ।”
बड़बड़ाती भुनभुनाती रिमझिम अपनी जगह से हिली ।
फिर दो मिनट में पेटी यथास्थान पहुंच गयी और घास और टहनियों के पीछे छुप गयी ।
“चलो ।” - विशाल बोला ।
दोनों पहले तहखाने से और फिर मकबरे से बाहर निकले । वो कार की ओर बढ रहे थे कि एकाएक रिमझिम थमक कर खड़ी हो गयी ।
“अब क्या हुआ ?” - विशाल बोला ।
“हैण्ड बैग !” - वो बोली - “पीछे रह गया ।”
“ओह हैल !”
“मैं अभी ले के आयी ।”
विशाल के प्रतिवाद करने से पहले वो घूमी और लगभग दौड़ती हुई फिर मकबरे के खंडहरों में दाखिल हो गयी ।
बेचैनी से पहलू बदलता, वहीं ठिठका खड़ा, विशाल उसके लौटने का इन्तजार करने लगा ।
वो लौटी ।
पेटी के साथ !
विशाल के छक्के छूट गये ।
“ये... ये....”
“नहीं बना छोड़ते ।” - वो हांफती सी बोली ।
“लेकिन....”
“हाथ आया माल छोड़ना मूर्खता है ।”
“तुम लालच के हवाले हो । ये माल हमारे लिये मिट्टी है । इतना समझाया कि हम इसे कैश नहीं कर सकते फिर भी....”
“माल कब्जे में होगा तो कैश करने की कोई सूरत भी निकल आयेगी । अब चलो ।”
“तुम मरवाओगी ।”
“तुम्हें नहीं मरवाऊंगी । मरूंगी तो मैं मरूंगी । चलो ।”
“रिमझिम, मैं फिर कहता हूं....”
“एक कार इधर ही आ रही है । हिलो ।”
विशाल ने घूम कर देखा तो उसे धूल उड़ाती एक काली एम्बैसेडर करीब आती दिखाई दी ।
तत्काल वो अपनी कार की तरफ लपका ।
वैसे ही बांहों के दायरे में पेटी सम्भाले रिमझिम उसके पीछे लपकी ।
***
“कहां मर गये ?” - इनायत दफेदार भुनभुनाया - “कमीने निपटने गये निपट ही तो नहीं गये !”
“आ जायेंगे ।” - जेकब परदेसी बोला ।
“कब आ जायेंगे ? धार मारने गये हैं या गुर्दे का आपरेशन कराने गये हैं । इतनी देर में तो बन्दा चर्चगेट से वापिस आ जाता है । इधर का पीछे से कोई रास्ता है ?”
“मालूम नहीं ।”
“देख जा के ।”
परदेसी अपने स्थान से उठा और मेजों के बीच में से होता हुआ पिछवाड़े की तरफ बढा । पिछवाड़े में एक बन्द दरवाजा था जिसके ऊपर टायलेट का नियोन साइन चमक रहा था । वो दरवाजा ठेल कर उसने आगे गलियारे में कदम रखा । वहां दायें बायें दो दरवाजों पर ‘जेन्ट्स’ और ‘लेडीज’ लिखा था । ‘जेन्ट्स’ का दरवाजा ठेल कर वो भीतर दाखिल हुआ ।
भीतर कोई भी नहीं था ।
वो बाहर निकला । गलियारे के सिरे पर एक बन्द दरवाजा था, लम्बे डग भरता वो उस तक पहुंचा । उसने दरवाजा खोल कर बाहर झांका तो पाया कि वो पिछवाड़े की गली में खुलता था । उसकी दहलीज पर से उसने दायें बायें निगाह डाली ।
गली सुनसान पड़ी थी ।
वो वापिस लौटा ।
“खिसक गये ?” - दफेदार वितृष्णापूर्ण स्वर में बोला ।
“हां । बड़े आराम से ।”
“तेरी शक्ल से ही पढ लिया था मैंने ।”
“पिछवाड़े का एक दरवाजा उधर गली में खुलता था....”
“अब गली में गर्क हुए या रोशनदान में से उड़ गये, जा तो चुके न ?”
“हां । जब मैं बोला वो सोहल को मगर बोल रहे थे दरिया में रह कर जिससे वो बैर मोल नहीं लेना चाहते थे, बाप, तेरे को तभी समझ जाना चाहिये था कि वो लौट के नहीं आने वाले थे ।”
“समझ के क्या होता ?” - दफेदार गुस्से से बोला - “इधरीच लुढका देते ?”
“नहीं ।”
“तो फिर ?”
“कुछ नहीं ।”
“हैरानी है कि दिल्ली की बात इतनी जल्दी मुम्बई पहुंच गयी । कमीना ‘भाई’ को दुम दबा कर भागा, नंगा खदेड़ा गया, बता रहा था । ‘भाई’ सुनेगा तो अक्खी मुम्बई फूंक के रख देगा ।”
“कभी तो सुनेगा ही । ख्वाजा बोला कि अभी ही सारे अन्डरवर्ल्ड में चर्चा है, आगे तो इश्तिहार लगवाने की ही कसर रह जायेगी ।”
“ऊपर से वो दोनों कमीने, जो सोहल को ‘भाई’ से ज्यादा ताकतवर साबित करने पर तुले हैं । कमीने ‘भाई’ के काम को नक्की न बोले, काम सोहल के खिलाफ था, इसलिये नक्की बोले ।”
“अब आगे क्या इरादा है ?”
“इरादा तो साफ है ।”
“क्या ? जैसे कि वो बोल के गये, उन जैसे किसी और को ढूंढेगा ?”
“वो बाद की बात है, पहले तो उन्हीं की खबर लेना जरूरी है वरना ये भी कहानी बन जायेगी कि किसी ने ‘भाई’ के काम को नक्की बोलने की जुर्रत की और फिर भी सलामत रहा ।”
“अब वो ढूंढे नहीं मिलने के ।”
“मिलेंगे । जरूर मिलेंगे । मैं भी साला उनके अन्दर बाहर से वाकिफ है ।”
“शहर छोड़ गये हुए तो ?”
“तो जरा दिक्कत से, जरा देर से, मिलेंगे लेकिन मिलेंगे ।”
“ठीक है, मिलेंगे । मिल गये । फिर ?”
“फिर क्या ? ये भी कोई पूछने की बात है ? फिर दुनिया छोड़ेंगे । तभी तो मिसाल बनेगी । तभी तो जुर्रत नहीं होगी फिर किसी की ‘भाई’ के काम को नक्की बोलने की । क्या ?”
परदेसी ने हिचकिचाते हुए सहमति में सिर हिलाया ।
“तो” - फिर वो बोला - “अब हम उनकी तलाश में निकल रहे हैं ?”
“उनकी तलाश जरूरी नहीं । चिराग जले वो कहां होते हैं, मेरे को मालूम ।”
“चिराग जले ?”
“जिसमें कि अभी बहुत टेम है । तब तक हमने ‘भाई’ के काम के लिये किसी और के पास पहुंचना है । वो जफर सुलतान या ख्वाजा जैसा शातिर तो नहीं लेकिन अब जब वो धोखा दे गये तो काम निकाल देगा । ऊपर से उसके न बोलने का कोई मतलब ही नहीं होगा । और ऊपर से सोहल को पहले से मालूम है कि वो ‘भाई’ का आदमी है ।”
“कौन ?”
“अपना हैदर ।”
***
काली एम्बैसेडर में खुद मुकेश बजाज सवार था ।
वो आगे कार चलाते श्याम के पहलू में पैसेंजर सीट पर बैठा हुआ था और पीछे श्याम का भाई मुरली और लक्ष्मी नाम का एक आदमी था जो कि ‘लौट के बुद्धू घर को आये’ ग्यारह में से एक था ।
“आगे एक मकबरा सा आयेगा ।” - बजाज श्याम से बोला - “उस पर निगाह रखना । हमारा अगला पड़ाव वही है ।”
श्याम ने सहमति में सिर हिलाया ।
पीछे फार्म पर पुलिस की पड़ताल खत्म हो जाने और उनके खाली हाथ वहां से रुख्सत हो जाने के बाद ही बजाज भी हेरोइन की तलाश के अभियान में शामिल हुआ था । दो टीम वो काम पहले से कर रही थीं और तीसरी टीम का अंग वो खुद था ।
पेटी के बारे में उसने हर किसी को बताया था लेकिन ये नहीं बताया था कि पेटी में क्या था ! बाबत उसने इतना ही कहा था कि उसमें झामनानी का कोई कीमती माल था, पेटी बरामद हो जाने पर जिसकी बाबत उन्होंने फौरन उसे खबर करनी थी, पेटी को खुद ही खोल के नहीं बैठ जाना था ।
पीछे इस बात ने बजाज को बहुत राहत पहुंचायी थी कि पुलिस की तवज्जो कुयें की तरफ नहीं गयी थी - वो तो उस दिशा में उसके करीब तक भी नहीं गये थे - झामनानी को वो फोन पर सारे सिलसिले की खबर कर चुका था लेकिन झामनानी आश्वस्त नहीं था, उसके ख्याल से पुलिस फिर लौट सकती थी इसलिये लाश और हथियार, दोनों का ही फौरी इन्तजाम निहायत जरूरी था । उनका हेरोइन की तलाश का मौजूदा अभियान सूरज डूबने तक ही चल सकता था क्योंकि अन्धेरे में उस काम को ठीक से अंजाम नहीं दिया जा सकता था । दूसरे, रात के अन्धेरे में उनका ऐसी जगह भटकते देखा जाना वैसे ही शक का बायस बन सकता था और फिर कोई गश्ती पुलिस का पंगा पड़ सकता था । अब अन्धेरा होने के बाद उसने कुयें से हथियार निकलवा कर किंग्सवे कैम्प पहुंचवाने थे और लाश को कुयें में ही गहरा दफनवाना था ।
उसने सामने सड़क पर निगाह डाली ।
“आ गया लगता है ।” - वो बोला - “स्लो कर ।”
श्याम ने ब्रेक का पैडल दबाया ।
“वो ही है । वो जिसके सामने सफेद मारुति खड़ी है । वो लड़का लड़की जा रहे हैं । उन्हें जा लेने दे, फिर कार वहां ले जा के रोकना ।”
“पेटी !” - श्याम के मुंह से निकला ।
“क्या ?”
“कार्डबोर्ड की । भूरे रंग की ।”
“अबे, किधर ?”
“लड़की को देखो लड़की को । लड़की उठाये है ।”
बजाज ने आंखे फाड़ कर लड़की की दिशा में देखा तो फासले से उसे लड़की की सूरत तो ठीक से न दिखाई दी लेकिन उसकी बांहों में मौजूद भूरे रंग की कार्डबोर्ड की पेटी उसे ऐन वैसी ही लगी जैसी झामनानी ने बयान की थी और जैसी की उन्हें तलाश थी ।
“वे तो जा रहे हैं ।” - उसके मुंह से निकला - “अबे, रोक उन्हें ।”
“क... कैसे ?”
“रफ्तार बढा । पास पहुंच उनके । और कैसे !”
श्याम ने ब्रेक से पांव हटा कर एक्सीलेटर का पैडल दबाया ।
आगे मारुति गतिशील हुई ।
“हॉर्न बज कर ड्राइवर की तवज्जो इधर कर । मैं उसे रुकने का इशारा करता हूं ।”
एम्बैसेडर का हॉर्न बजा तो मारुति में अप्रत्याशित प्रतिक्रिया हुई । रुकने की जगह वो तोप से छूटे गोले की तरह सड़क पर भागी ।
“पीछे चल ।” - बजाज बौखलाया सा बोला - “पकड़ मारुति को ।”
“बजाज साहब” - पीछे से मुरली बोला - “वो कॉलेज के लड़का लड़की मालूम होते थे । उनका हमारे माल से क्या लेना देना ?”
“कोई लेना देना नहीं ।”
“तो फिर ? खामखाह उनके पीछे पड़ कर टाइम जाया....”
“रुके क्यों नहीं ? रुकने की जगह भाग क्यों खड़े हुए ? वो भी ऐसे जैसे कार को पर लग गये हों !”
“डर गये होंगे ।”
“क्यों ?”
“शादीशुदा नहीं होंगे न । मौजमस्ती के लिये खंडहरों में घुसे होंगे । इसलिये....”
“ऐसे जोड़े के पास पेटी का क्या मतलब ?”
“कोई पिकनिक का, खाने पीने का सामान होगा पेटी में । ऐसी कोई खास आइटम तो है नहीं कार्डबोर्ड की पेटी....”
“ठीक । सब ठीक । फिर भी मैंने पेटी जरूर देखनी है ।”
“क्योंकि ये वही पेटी हो सकती है जिसमें झामनानी का कीमती माल है ?”
“हां ।”
“क्या कीमती माल ?”
“पेटी काबू में आ जाये, फिर दिखाऊंगा । अब तू चुप हो के बैठ ।”
मुरली खामोश हो गया ।
“अबे, क्या छकड़ा हांक रहा है ?” - बजाज श्याम पर झल्लाया - “स्पीड छोड़ । करीब पहुंच मारुति के । पकड़ उसे ।”
श्याम ने स्पीड बढायी ।
“और दुआ कर कि वो कुतुब की तरफ घूमे । आगे क्रॉसिंग आ रहा है, वहां से बायें मोड़ कर बाहरी सड़क पर हो लिया तो बिलकुल ही पकड़ाई में नहीं आयेगा ।”
“श्याम ने दान्त भींच लिये, वो दक्ष ड्राइवर था और बजाज की हालदुहाई के बिना भी मारुति के करीब पहुंचने की भरपूर कोशिश कर रहा था ।”
“अन्धेरिया मोड़ पर विशाल ने कार बायें मोड़ी ।”
“इधर कहां जा रहे हो ?” - तत्काल रिमझिम ने प्रतिवाद किया - “हम इधर से तो नहीं आये थे ।”
“चुप कर ।”
“लेकिन....”
“अब मुझे गारन्टी है वो काली एम्बैसेडर हमारे पीछे पड़ी है ।”
“खामखाह !”
“वो न सिर्फ हमारे पीछे पड़ी है, हमारे करीब आने के लिये, हमें ओवरटेक कर के जबरन रोकने के लिये हमारे पीछे पड़ी है ।”
“खामखाह ! उन्हें हमारे से क्या लेना देना है ?”
“पेटी से लेना देना है जिसे गोद में रख के बैठी हुई है ।”
“तुम्हें क्या मालूम ?” - वो घबरा कर बोली ।
“और क्यों वो हमारे पीछे पड़ेंगे ?”
“इत्तफाक ! इत्तफाक से वो हमारे पीछे हैं । अभी कहीं इधर उधर मुड़ जायेंगे ।”
“ये झूठी तसल्ली है ।”
“तुम नाहक मुझे डरा रहे हो ।”
तभी एम्बैसेडर का हॉर्न बजा ।
रिमझिम ने घबरा कर पीछे देखा तो इस बार एम्बैसेडर उसे अपने बहुत करीब लगी । फिर एम्बैसेडर की पैसेंजर सीट पर बैठे व्यक्ति ने उसे पीछे देखता देखा तो वो जोर जोर से हाथ हिला कर रुकने का इशारा करने लगा ।
“गणपति बप्पा ।” - उसके मुंह से निकला - “अरे, तेज चलाओ ।”
“क्यों ?”
“अरे, वो एम्बैसेडर....”
“हमारे पीछे थोड़े ही आ रही है !” - विशाल के स्वर मे व्यंग्य का पुट आ गया ।
“फिर भी तेज चलाओ और उससे पीछा छुड़ाओ । मेरा दिल घबरा रहा है ।”
खुद विशाल का दिल उससे कहीं ज्यादा घबरा रहा था । वो घबराहट ही वजह थी जो उसे गाड़ी को टॉप स्पीड पर नहीं चलाने दे रही थी । उसकी गाड़ी पांच गियर वाली थी और नयी थी, वो जानता था स्पीड में एम्बैसेडर उसका मुकाबल नहीं कर सकती थी लेकिन वो ये भी जानता था कि घबराहट के उस आलम में उसने टॉप स्पीड पकड़ी तो वो शर्तिया एक्सीडेंट कर बैठेगा ।
फिर भी उसने एक्सीलेटर पर दबाव बढाया ।
तभी एक धांय की आवाज हुई ।
“ये कैसी आवाज थी ?” - रिमझिम आतंकित भाव से बोली - “पहिया बर्स्ट हुआ ?”
पहले विशाल ने भी वही समझा था लेकिन जब कार में कोई डगमगाहट पैदा न हुई, वो बदस्तूर दौड़ती रही, तो वो समझ गया कि वैसा नहीं था ।
रियरव्यू मिरर में से उसने पीछे झांका ।
जी नजारा उसे दिखाई दिया, उससे उसके प्राण कांप गये ।
एम्बैसेडर की पैसेंजर सीट की खुली खिड़की में से बाहर निकला एक हाथ उसे दिखाई दिया जो कि गन थामे था ।
फिर धांय की आवाज हुई ।
अंजाम की परवाह किये बिना उसने पूरी शक्ति से एक्सीलेटर का पैडल दबाया ।
प्रत्याशित परिणाम सामने आया ।
उनकी कार में और एम्बैसेडर में फिर फासला बढने लगा ।
उस घड़ी जिस बात से दोनों कारों के पैसेंजर बेखबर थे वो ये थी कि विपरीत दिशा से आते एक कार वाले ने भी धांय की दोनों आवाजें सुनी थीं । वो मिलिट्री से मेजर रिटायर हुआ व्यक्ति था इसलिये उसने फौरन पहचाना कि वो गोली चलने की आवाज थी और तूफानी रफ्तार से आगे पीछे भागती मारुति और एम्बैसेडर में से किसी में से आयी थी । तत्काल उसने अपनी कार रोकी, एक जिम्मेदार शहरी की तरह अपने मोबाइल से ‘100’ नम्बर डायल किया और पुलिस को उस वाकये की खबर की ।
“ऐसे हमारा पीछा नहीं छूटने वाला ।” - विशाल इतना आतंकित था कि बड़ी कठिनाई से बोल पाया - “ये लोग हमें शर्तिया मार डालेंगे ।”
“क्या करें ?” - वैसे ही आतंकित भाव से रिमझिम बोली ।
“अभी भी पूछ रही है क्या करें ?”
“हां । पूछ रही हूं । क्या करें ?”
“सारे फसाद की जड़ से पीछा छुड़ायें, और क्या करें !”
“कैसे ?”
“पेटी फेंक ।”
“क्या !”
“वो इसी की फिराक में हैं । अब मुझे गारन्टी है । और कोई वजह नहीं हो सकती ऐसे खूंखार तरीके से हमारे पीछे पड़ने की । जब पेटी हमारे पास नहीं होगी तो वो वैसे ही हमारा पीछा छोड़ देंगे । फेंक इसे ।”
“कहां ? कहां फेंकूं ?”
“अरे, कार से बाहर फेंक और कहां ? अगर अपनी और मेरी जान की सलामती चाहती है तो फौरन... फौरन पेटी को खिड़की से बाहर फेंक दे ।”
“अच्छा ।”
उसने खुली खिड़की पर एक क्षण को पेटी टिकाई और फिर उसे बाहर धकेल दिया ।
सौ किलोमीटर की रफ्तार से भागती कार से गिरी पेटी ने सड़क पर कई कलाबाजियां खायीं ।
पीछे एम्बैसेडर को जोर की ब्रेक लगी ।
पेटी स्थिर हुई तो उसका मुंह खुल गया और हेरोइन की थैलियां उसमें से बाहर सड़क पर बिखर पड़ी ।
आगे मारुति ये जा वो जा ।
एम्बैसेडर रुकते रुकते भी पेटी से पार निकल गयी ।
“रोक ! रोक !” - बजाज विक्षिप्तों की तरह चिल्ला रहा था - “पीछे ले ! अरे कहां लिये जा रहा है ? रोक !”
वातावरण में ब्रेकों की आवाज गूंजी ।
साथ ही सायरन की आवाज !
बजाज को जैसे सांप सूंघ गया ।
फ्लाईंग स्क्वायड के सायरन की आवाज वो बाखूबी पहचानता था ।
“पुलिस !” - उसके मुंह से निकला - “बाजू की सड़क पर है । सीधा भाग ।”
कार रोकने का भरसक प्रयत्न करता श्याम फिर उसे गियर में डाल कर स्पीड देने लगा ।
“माल !” - पीछे बैठा मुरली पीछे सड़क पर देखता हुआ बोला - “सड़क पर बिखरा पड़ा है ! अपना है ?”
“हां ।” - बजाज बद्हवास भाव से बोला - “लेकिन हम रुक नहीं सकते ।”
“अब तो बता दो कि माल क्या है ?”
“हेरोइन ! हेरोइन ! छ: किलो ।”
“हे भगवान ! यानी कि करोड़ों का माल सड़क पर बिखरा पड़ा है ?”
“हां, लेकिन बटोरने वापिस नहीं जा सकते । गये तो सब पकड़े जायेंगे ।”
“पुलिस को कैसे खबर लगी ?”
“क्या पता कैसे लगी ?”
“मारुति वालों ने की होगी । उनके पास मोबाइल होगा ।”
“उन्होंने करनी होती तो पहले की होती । तो पेटी सड़क पर न फेंकते ।”
“गोली !” - श्याम बोला - “गोली की वजह से लगी ।”
“क्या बोला बे ?” - बजाज भड़का ।
“गोली नहीं चलानी चाहिये थी । दिनदहाड़े....”
“बक मत । अबे, गोली ने ही पेटी फिंकवाई उनसे ।”
“फायदा क्या हुआ ?”
“पीछे” - लक्ष्मी बोला - “जिप्सी है ।”
बजाज ने घूम कर देखा तो उसे पीछे सड़क पर सायरन बजाती एक पी.सी.आर. वैन दिखायी दी ।
“अब तो माल पक्का ही गया ।” - लक्ष्मी बोला ।
“हां ।” - असहाय भाव से गर्दन हिलाता बजाज बोला - “झामनानी सुनेगा तो पागल हो जायेगा । इससे तो न मिलता । उम्मीद तो बनी रहती ।”
“जरा मेरी सुनो ।” - मुरली बोला ।
“सामने देखो !” - एकाएक श्याम बोला ।
बजाज ने देखा ।
“तौबा !” - उसके मुंह से निकला ।
जिस सफेद मारुति के वो पीछे लगे हुए थे, वो आगे एक ट्रक से टकराई पड़ी थी । उस जगह पर एक तीखा मोड़ था जिसे काटते ही कार विपरीत दिशा से आते ट्रक से जा टकराई थी । हैड-आन कोलीजन में नन्हीं सी कार के बोनट का पूरा हिस्सा ट्रक के नीचे घुस गया जान पड़ता था ।
“तौबा !” - बजाज फिर बोला - “तौबा !”
श्याम एम्बैसेडर को एक्सीडेंट से आगे निकाल ले गया ।
“मैं कुछ बोलूं ?” - पीछे बैठा मुरली बोला ।
“पहले भी बोला” - बजाज अनमने भाव से बोला - “क्या कहना चाहता है ?”
“गाड़ी रोक ।” - वो अपने भाई से बोला ।
“लेकिन....”
“रोक ।”
श्याम ने कार को साइड में लगा कर रोका ।
“वो पी.सी.आर. वैन” - मुरली बोला - “जो हमें पीछे दिखाई दी थी, एक्सीडेंट की वजह से इधर आयी हो सकती ।”
“क्या ?”
“वो बड़ा एक्सीडेंट है । मारुति वाले छोकरा छोकरी शायद ही बचे होंगे । ऐसे में पी.सी.आर. वैन वालों की पहली तरजीह वो बड़ा एक्सीडेंट होगा या सड़क पर लुढकी पड़ी एक कार्डबोर्ड की पेटी जिसकी हकीकत की उन्हें कोई खबर भी नहीं ?”
“क्या कहना चाहता है ?”
“हम जल्दबाजी कर रहे हैं । माल पीछे छोड़ कर खामखाह भागे जा रहे हैं । पीछे वो पी.सी.आर. वैन एक्सीडेंट की जगह पर पहुंची हो सकती है और पेटी अभी भी सड़क पर लावारिस लुढकी पड़ी हो सकती है !”
बजाज सकपकाया ।
“तेरी बात ठीक है ।” - फिर वो चिन्तित भाव से बोला - “लेकिन पुलिस के इधर पहुंचने की वजह दोनों भी हो सकती हैं और - हमें एक ही दिखाई दी थी - एक से ज्यादा जिप्सियां उधर रवाना हुई हो सकती हैं । अगर पुलिस को शूटिंग की खबर है तो उन्हें एम्बैसेडर की भी खबर होगी । नम्बर की खबर भले ही न हो, रंग और मेक की खबर बराबर होगी । इसलिये एम्बैसेडर पर लौटना फंसने वाला काम होगा । तू पैदल जा ।”
“मैं ?”
“हां ।”
“यानी कि जो बोले वो ही कुंडा खोले ?”
“जा ।”
“साथ चलो ।”
“भाई को ले जा ।”
“आप साथ चलो ।”
“अबे, क्यों हुज्जत....”
“वरना समझो मैंने कुछ नहीं कहा ।”
बजाज ने भाले बर्छियां बरसाती निगाह से उसकी तरफ देखा, उसे विचलित न होता पाकर उसने एक आह भरी, तब भी हाथ में थमी रिवॉल्वर को कार के डैशबोर्ड में बने खाने में रखा और कार से बाहर निकल आया ।
दोनों पैदल वापिस चल दिये ।
***
अंगड़ाईयां तोड़ता, जमहाईंयां लेता जमीर मिर्ची उठ कर बैठा और उसने अपनी कलाई पर बन्धी घड़ी पर निगाह डाली ।
एक बजने को था ।
उस वक्त वो फाकलैंड रोड पर स्थित चाल से जरा अच्छे एक होटल के एक कमरे में मौजूद था । उस होटल में कमरा घन्टों में भी मिलता था, रात भर के लिये भी मिलता था और माहाना किराये पर भी मिलता था । जिस औरत के पहलू में गर्क होकर उसने सारी रात गुजारी थी उसका नाम जयश्री था, वो कमरा उसका स्थायी ठीया था जहां कि वो अपने ग्राहकों को एन्टरटेन करती थी । मिर्ची उसका रेगुलर कस्टमर था इसलिये वो उससे कन्सैशनल रेट - हजार रुपये - चार्ज करती थी । दूसरा लिहाज वो उसका ये करती थी कि वो लेट आता था और मौजमेले में सवेरा कर देता था तो उसे वहीं सो भी जाने देती थी । अब ये बात दीगर थी कन्सैशनल रेट के हजार रुपये भी उसके पास कभी कभार ही होते थे । जो टैक्सी वो चलाता था, वो किराये की थी और किराया भरने और पैट्रोल का खर्चा निकालने के बाद जो पैसा बचता था, उसमें बड़ी हद महीने में दो बार वो उधर का रुख कर पाता था ।
इस बार उसकी लगातार पांच रातों की मस्ती अश्योर्ड थी ।
जेकब परदेसी से उसे पांच हजार रुपये मिले थे जो कि वो पूरे के पूरे अपनी पसन्दीदा बाई जयश्री पर खर्च करने का मन बना भी चुका था ।
जयश्री डबल बैड पर उसके पहलू में सोई पड़ी थी । उसके कपड़े इतने अस्त व्यस्त थे कि आंख खुलते ही उसका राइड मारने का मन कर आया था ।
खफा हो जायेगी । - वो मन ही मन बोला और टायलेट में घुस गया ।
पिछली रात एक बजे के करीब वो वहां पहुंचा था और सुबह पांच बजे तक जयश्री के साथ गुत्थमगुत्था होता रहा था । उसके बाद वो वहीं घोड़े बेच कर सोया था और अब दोपहरबाद उठा था ।
करीब आधे घन्टे बाद हजामत बना के, नहा धो के, अपने कल वाले ही कपड़े झाड़ फटकार के पहन के वो बाहर निकला और पलंग के करीब पहुंचा । उसने हाथ बढा कर जयश्री का कूल्हा हिलाया ।
जयश्री ने करवट बदली और मिचमिचाते हुए आंखें खोलीं ।
“जाता हूं ।” - वो बोला - “रात को आऊंगा ।”
“न आया तो ?”
“बोला न, रात को आऊंगा ।”
“मैं भी तो कुछ बोली न ! न आया तो ? आज तक लगातार दो रात तो तेरी शक्ल कभी दिखाई दी नहीं इधर ।”
“अब दिखाई देगी ।”
“साला हलकट । मेरा धन्धा बिगाड़ेगा ।”
“नहीं बिगड़ता तेरा धन्धा, साली ।” - उसने जेब से एक पांच सौ का नोट निकाला और उसे उसके उन्नत वक्ष की घाटियों में खोंस दिया - “ये ले । एडवांस बुकिंग । अब राजी ?”
“हां । राजी !”
मिर्ची ने उसके कूल्हे पर एक धौल जमायी और वहां से रुख्सत हो गया ।
वो होटल से निकला और उधर के टैक्सी स्टैण्ड पर पहुंचा जहां कि उसकी टैक्सी खड़ी थी । उसने उधर से टैक्सी उठाई और जुहू पहुंचा । एयरपोर्ट के टैक्सी स्टैण्ड पर उसने टैक्सी खड़ी की और स्टैण्ड के उस खोखे में पहुंचा जो कि वहां के ऑफिस का काम करता था और भीतर बैठे व्यक्ति को आवाज लगाता बोला - “बाबूलाल, नम्बर लगा मेरा ।”
“वो तो समझ लग गया” - बाबूलाल बोला - “पण तू इधर आ ।”
“क्या है ?”
“आज इतनी देर में आया ? काहे ?”
“कोई खास वजह नहीं । ऐसीच कहीं ढेर हो गया था । बोल, क्या बोलता है ?”
“विक्टर तेरे को पूछता था ।”
“विक्टर !”
“अरे, तेरा दोस्त ! तेरी माफिक इधर का पक्का टैक्सी डिरेवर ।”
“अच्छा, वो विक्टर ! क्यों पूछता था ? क्या मांगता था ?”
“बोला नहीं । खास पूछा फिर भी नहीं बोला । बहुत एक्सप्रेस मिलना मांगता था तेरे को । साथ में एक और आदमी भी था ।”
“पैसेंजर ?”
“नक्को । पैसेंजर तो उठाया नहीं इधर से । सब टैक्सी खलास हो गया तो भी नहीं उठाया । मेरे को नम्बर लगाने को भी नक्को बोला । बस यहीच काम जान पड़ता था उसे कि तेरे को ढूंढता था ।”
“कमाल है !”
“बारह बजे तक वेट किया इधर तेरा । नहीं आया तो तेरे घर का पता पूछने लगा । मेरे से भी पूछा । कई डिरेवर लोगों से भी पूछा ।”
“कोई बोला ?”
“बोला न, चिंचपोकली । बस यहीच बोला । चिंचपोकली । उधर किधर, कोई न बोला । किसी को मालूम ही नहीं था । तू अभी उधरीच रहता है न ?”
“हां ।”
“इधर अपना पता छोड़ ।”
“क्यों ?”
“वो इधरीच लौट के आने को बोल के गया । आता ही होयेंगा । क्योंकि तू तो उधर है नहीं । तू तो इधर पहुंचेला है ।”
“हूं ।”
“वो आयेंगा तो तू पैसेंजर ले के चला गया होयेंगा । इसलिये अपना चिंचपोकली का पता इधर छोड़ । मैं विक्टर को बोलेंगा ।”
“वो बिलकुल ही कुछ नहीं बोला कि क्यों पूछता था मेरे को ?”
“न ।”
“बाबूलाल, तेरे को नहीं या किसी को नहीं बोला ?”
“किसी को नहीं बोला । यहीच बोला जरूरी काम । फौरन मिलना मांगता था । क्या जरूरी काम ? नहीं बोला ।”
“मेरे से ऐसा क्या काम हो सकता है उसे ?”
“तेरे को मालूम हो ।”
“अब चिंचपोकली गया है ?”
“साफ तो न बोला पण जब घर का पता पूछता था तो उधर ही गया होयेंगा । हां, ये साफ बोला कि वो लौट के इधरीच आयेंगा, अगर तू आये तो मैं तेरे को रोक के रखने का था ।”
“खामखाह ! वो रात को आयेगा तो मैं रात तक रुका रहूंगा ?”
“जल्दी आयेगा । भागा तो गया । भागा ही लौटेंगा ।”
“जब पता नहीं मालूम तो उधर कैसे ढूंढेगा मेरे को ?”
“अब तो नहीं ढूंढेगा, अब तो तू इधर है ।”
“अरे, मैं उधर भी होता तो कैसे ढूंढता ?”
“दायें बायें पूछेगा । कोई तेरा जानने वाला मिल गया तो वो बोल देगा नहीं तो इधर तो आयेंगा ही । तू बैठ, मैं तेरे लिये चा मंगाता है ।”
“नहीं । मेरे को इधर रुकने का नहीं है ।”
“अरे, नम्बर आयेगा तो जायेगा न ? तब भी क्यों जायेगा ? तेरा डिरेवर भाई विक्टर इधर बोल के रखा....”
“कट कर मेरा नम्बर । मुझे एक जरूरी काम याद आ गया है । मैं जाता है ।”
बाबूलाल उसे आवाजें ही देता रह गया लेकिन उसने एक न सुनी, वो अपनी टैक्सी की ओर लपका चला गया ।
उसके जेहन में कहीं खतरे की घन्टी बज रही थी ।
क्या जाने अनजाने बिलाल के कत्ल से उसका कोई रिश्ता जुड़ गया था ?
अगर ऐसा था भी तो उससे विक्टर का क्या लेना देना था ? वो एक मामूली टैक्सी ड्राइवर था जो....
उसकी सोच को ब्रेक लगी ।
खुद वो भी तो एक मामूली टैक्सी ड्राइवर था लेकिन जेकब परदेसी का आदमी था । जेकब परदेसी आगे इनायत दफेदार का आदमी था जो कि ‘भाई’ का खास बताया जाता था ।
जरूर ऐसे ही विक्टर के भी कहीं तार जुड़े हुए थे ।
वो टैक्सी पर सवार हुआ और फिर तूफानी रफ्तार से उसने टैक्सी स्टैण्ड छोड़ा ।
अब उसका जेकब परदेसी से फौरन मिलना निहायत जरूरी था ।
***
धारावी के ट्रांजिट कैम्प के इलाके में अजमेर सिंह के ढाबे पर इनायत दफेदार की बारबोसा से मुलाकात हुई ।
बारबोसा लगभग पैंतालीस साल का कसरती बदन वाला लम्बा तड़ंगा गोवानी था । वो क्लीनशेव्ड था लेकिन सिर पर कन्धों तक आने वाले लम्बे बाल रखता था । भगवान ने उसे ऐसी सूरत दी थी कि कोई अनजान व्यक्ति भी एक निगाह उस पर डाल कर कह सकता था कि वो खूनखराबे के कारोबार में था ।
शाम के उस वक्त ढाबे पर ग्राहकों का तोड़ा था ।
“कैसा है बारबोसा ?” - दफेदार ने पूछा ।
“बढिया ।” - बारबोसा बोला - “आन टॉप ऑफ दि वर्ल्ड ।”
“बहुत जल्दी तरक्की किया ! कैसे किया ?”
“जब जिगरा हो तो तरक्की साला किधर जायेंगा ?”
“बरोबर बोला ।”
“कैसे याद किया ?”
“तेरे लिये एक काम है । तेरी लाइन का ।”
“सुपारी उठाने का है ?”
“हां ।”
“किसकी ?”
“बड़ा आदमी है । होटल का मालिक है । राजा साहब है ।”
“कौन ?”
दफेदार ने बताया ।
“हूं ।” - बारबोसा बोला ।
“कितना मांगता है ?”
“बीस ।”
“माथा फिरेला है ?”
“डिफीकल्ट जॉब है । इतना बड़ा आदमी बड़ी सिक्योरिटी में रहता होयेंगा । अप्रोच बनाने में ही तेल निकल जायेगा ।”
“फिर भी बीस ! बहुत ज्यास्ती है ।”
“एकदम प्रापर है ।”
“ये ‘भाई’ का काम है ।”
बारबोसा की भवें उठीं ।
“‘भाई’ खुद तेरे से मिलना मांगता था । मैं बोला बारबोसा अपनी टाइप का आदमी । ‘भाई’ का खास से भी ‘भाई’ का माफिक ही पेश आयेगा । मैं गलत बोला ?”
“नहीं ।”
“मैं मोबाइल पर तेरी ‘भाई’ से बात कराता है ।”
“जरूरी नहीं । ‘भाई’ के वास्ते रेट बारह पेटी ।”
“ठीक है ।”
“छ: एडवांस ।”
“मिल जायेगा ।”
“राजा साहब है कौन ?”
“तेरे को क्या ?”
“शिकार की बैकग्राउन्ड मालूम हो तो उसके खिलाफ स्ट्रेटेजी तैयार करने में आसानी होती है ।”
दफेदार इस बाबत जानबूझ कर खामोश था कि असल में राजा साहब मशहूर इश्तिहारी मुजरिम सोहल था । ‘कम्पनी’ के जलाल के दिनों में सोहल के सिर पर पचास पेटी और ‘कम्पनी’ में ओहदेदारी का ईनाम लग चुका था । वो बारबोसा को बताता कि उसने सोहल की सुपारी उठानी थी तो वो ओहदेदारी को तो मौजूदा हालात में भूल जाता लेकिन पचास पेटी की मांग जरूर करता, जबकि अब वो उसी शख्स की बारह पेटी में सुपारी उठाने को बाखुशी तैयार था । बारबोसा को ये बात न मालूम होती लेकिन उनके लिये राजा साहब का मरना और सोहल का मरना एक ही बात थी ।
“वो सिख है” - प्रत्यक्षतः वो बोला - “और अपने आपको नैरोबी से आया एन. आर. आई. बताता है । मुम्बई में मुकाम पाये उसे सिर्फ दो महीने हुए हैं इसलिये यूं समझ कि उसकी कोई लोकल बैकग्राउन्ड हैइच नहीं ।”
“रहता होटल में ही है ?”
“हां । बाहर से आया आदमी जब इतने बड़े होटल का मालिक बना बैठा है तो और कहां रहेगा ! क्यों रहेगा !”
“उसका कोई हुलिया ? कोई तसवीर ?”
“खुद निकालना । फिर तसदीक के लिये मेरे पास लाना ।”
“तसवीर मैं निकालेगा । तसदीक के लिये पेश भी करेंगा । पण हुलिया फिर भी मांगता है ।”
“क्यों ?”
“अरे, इतना तो मालूम होना चाहिये कि तसदीक के लिये किस का तसवीर निकालना है !”
“हूं ।”
“या तसवीर दे ।”
“उसका इन्तजाम मुश्किल है, तू हुलिया ही सुन ।”
“सुना ।”
“‘भाई’ से । ‘भाई’ से सुन । वो सुनायेगा । वो ही उससे रूबरू मिला है । मैं फोन लगाता हूं ।”
दफेदार ने ‘भाई’ को फोन लगा कर मोबाइल बारबोसा को दिया ।
बारबोसा ने बड़े गौर से ‘भाई’ का बयान किया राजा गजेन्द्र सिंह का हुलिया सुना । जिन बातों की तरफ उसने खास तवज्जो दी वो थीं:
जाली से बन्धी फुल दाढी ।
फिक्सो से अकड़ाई मूंछें ।
पगड़ी में अंडे के आकार का पुखराज जड़ा ब्रोच ।
बायीं कलाई में रोलेक्स गोल्ड वाच, दायीं में सोने का कड़ा ।
दस में से पांच उंगलियों में हीरे जवाहरात जड़ी भारी अंगूठियां ।
टाई में हीरा जड़ा टाई पिन ।
यानी कि फुल झांकी आदमी था ।
ऐसे सिख की पहचान में क्या वान्दा होने वाला था ?
बढिया ।
उसने मोबाइल दफेदार को वापिस कर दिया ।
राजा साहब की बारह लाख की सुपारी लग गयी, मीटिंग खत्म हो गयी ।
***
सुजानसिंह पार्क कै टैक्सी स्टैण्ड के फोन की घन्टी बजी ।
फोन उठाने की जगह करतारे ने अपनी कलाई पर बन्धी घड़ी पर निगाह डाली ।
ठीक चार बजे थे ।
“तेरा ही होगा ।” - वो मुबारक अली से बोला ।
मुबारक अली ने सहमति में सिर हिलाया और तख्तपोश पर से उठ कर फोन के करीब पहुंचा ।
क्लीनर फरीद खोखे से बाहर उसकी एक दीवार से पीठ लगाये जमीन पर बैठा हुआ था । उसके कान खड़े हो गये, वो चुपचाप खोखे के मुंह के तनिक करीब सरक आया ।
मुबारक अली ने फोन उठा कर कान से लगाया और बोला - “हल्लो ! टैक्सी स्टैण्ड !”
“मुबारक अली !” - दूसरी ओर से सावधान स्वर में पूछा गया ।
“कौन बोलता है, बाप ? टैक्सी मांगता है तो पता बोलो ।”
“टैक्सी नहीं मांगता । मुबारक अली उधर अड्डे ते है तां गल्ल कराओ । जरूरी । मुबारक अली को मलूम है इस फोन काल की बाबत ।”
“सरदार जी बोलते हो, बाप ?”
“हां । तुम भी तो बोलो, मुबारक अली ही बोल रहे हो न ?”
“हां । भला सा नाम था सरदार जी का... पवि...”
“नाम नहीं । नाम नहीं । मियां, दीवारों के भी कान होते हैं ।”
“इधर दीवारों वाली बात किधर है, बाप ? इधर तो खाली एक टूटा फूटा चरमराता, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, खोखा है ।”
“बहरहाल हुन सानूं पता है कि कौन किससे गल्ल बात कर रहा है । पता ए न, वीर मेरे ?”
“पता है ! किसका पता है ? ओह ! मालूम । बरोबर बोला, बाप, मालूम है पण एक बात बोलना मांगता है ।”
“क्या ?”
“मैं साला बाहर से इधर आया अनपढ टपोरी । मेरे को तेरा बात, तेरा, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, अन्दाजेबयां समझने में दिक्कत ।”
“ऐदर वी ऐहो ही हाल है लेकिन गल्ला ते... बात ते करनी ए न ?”
“क्या ? क्या बात करना है ?”
“मैं कल वी तुहाडे अड्डे ते पौंचा था....”
“मालूम । तभी तो इन्तजार करता है फोन लगने का । अब बोलो, बाप, क्या मांगता है ? खादिम हाजिर है ।”
“मंगता ते है कुज लेकिन फोन से दस्सना मुश्किल है । ठीक वी नईं । वीर मेरे मैनूं जो मंगता है उस वास्ते रूबरू मुलाकात जरूरी ए ।”
“क्या वान्दा है ? मैं इधर ही है ।”
“मैं ओत्थे नईं आ सकदा ।”
“वजह ! कल भी तो आया, बाप ।”
“कल गल्ल होर सी । कल हलात जुदा सन । अज गल्ल होर है, अज हलात जुदा हन ।”
“फिर कैसे बीतेगी ?”
“वीर मेरे, तैनू आना पड़ेगा । फरियाद ए चिट्टी दाढी वाले सरदार दी ।”
“कहां ? कहां आना पड़ेगा ?”
“होटल रेडीसन । एयरपोर्ट दे रस्ते विच ए ।”
“मालूम । बहुत बार पैसेंजर ढोया उधर । मेरे को होटल रेडी... रेडी वाले सन आना मांगता है ?”
“हां ।”
“तू उधर है, बाप ?”
“हाल्ले नई । लेकिन तेरे पौंचने के जरा बाद पौंच जावांगा ।”
“उधर किधर ?”
“कमरा नम्बर चार सौ नौ विच । चाबी रिसैप्शन तों मिलेगी ।”
“बाप, वो फैंसी होटल । मैं मामूली टैक्सी डिरेवर । मेरे को कौन उधर घुसने देगा ? वो भी, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, कमरे में ।”
“घुसने देगा । मैं ओथे रिसैप्शन ते खबर करके रखांगा । सब सैट करके रखांगा । अपना नां बोलना ते चाबी ले लैना । कोई सवाल नईं होवेगा । गरन्टी ए ।”
“क्या है, आप ?”
“गरन्टी । जिम्मी । जमानतदारी ।”
“ओह ! गारन्टी बोला, बाप !”
“हां ।”
“पण कोई इशारा तो करो, सरदार जी, कि किस.. किस... वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, बाबत... बाबत बात करना मांगता है ?”
“सोल की बाबत ।” - पवित्तर सिंह लगभग फुसफुसाता बोला - “इससे ज्यादा मैं कुछ नहीं कह सकता ।”
“अच्छा, बाप । जैसे तुम बोला वैसे आता है उधर । पण एक बात बोलने का है । उधर अपुन का इनसलेट हुआ तो बहुत गलाटा होगा ।”
“की होया तो ?”
“इनसलेट । इंगलिश बोलता है । क्या ?”
“ओह ! इन्सल्ट ।”
“वहीच बोला । हुआ तो... बाप, कभी लाल कपड़े से भड़का सांड देखा ?”
“नहीं ।”
“देखेगा । देखेगा और, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, भुगतेगा ।”
“कुज नईं होगा । गरन्टी कीत्ती न ! तां फिर....”
“छ: बजे पहुंचता है ।”
“छ: बजे ! हाले तां चार ई वज्जे ने ?”
“छ: बजे पहुंचता है । खुदा हाफिज ।”
मुबारक अली ने फोन वापिस रख दिया ।
वो घूमा तो उसने देखा फरीद सरपट बाहर की ओर लपका जा रहा था ।
“अबे, किधर भागा जा रहा है, कम्बख्त ?” - मुबारक अली बोला - “मेरे को काम है तेरे से ।”
“चाय वाले को चाय बोली थी, चचा ।” - फरीद उच्च स्वर में बोला - “अभी तक ले के नहीं आया । मालूम करके आता हूं ।”
“पण....”
“बस गया और आया ।”
उसे मालूम था कि स्टैण्ड के अहाते के बाहर झामनानी का कोई आदमी था जिसे उसने सिर्फ इतना बोलना था कि मुबारक अली पवित्तर सिंह से मिलने छ: बजे होटल रेडीसन पहुंचने वाला था ।
***
विमल नागपाड़ा पहुंचा ।
वहां अलैग्जेन्ड्रा सिनेमा के करीब की एक चाल में दरबारीलाल का मुकाम था, वो मास्टर फोर्जर था और अपनी किसम का बस एक ही था ।
इरफान ने चाल के करीब कार रोकी ।
“इधर ही ठहर ।” - विमल बोला - “जा के आता हूं ।”
“ठीक है ।” - इरफान बोला।
विमल चाल की तरफ बढा ।
पहली बार विमल दरबारीलाल से सलाउद्दीन की मार्फत मिला था जबकि उसने उसके लिये पी.एन. घड़ीवाला के नाम वाला बड़ौदा से जारी हुआ नकली ड्राइविंग लाइसेंस बनाया था । तब दरबारीलाल - बावजूद सलाउद्दीन की सिफारिश के और बावजूद भिंडी बाजार के मुसाफिरखाने के हाजी अलताफ का नाम लेने के - उससे बहुत कड़क बोला था और बहुत बेरुखी से मिला था । तब उसने अपनी दस हजार रुपये फीस भी उससे ऐसे कुबूल की थी जैसे उस पर एहसान कर रहा हो ।
दरबारीलाल से उसकी दूसरी मुलाकात असगांव में हुई थी जहां कि वो विमल का रतन रंगीला के नाम का ड्राइविंग लाइसेंस बनाने और गजविलास फोर्ट वाली ‘कम्पनी’ की डिस्टिलरी के जनरल मैनेजर रविकांत रायचा के एक चिट्ठी पर नकली दस्तखत बनाने पहुंचा था । तब वो साफ विमल से भयभीत दिखाई दिया था ।
तीसरी मुलाकात हालिया थी - सिर्फ ग्यारह दिन पहले की - जबकि वो अपनी राजा गजेन्द्र सिंह के बहुरूप सम्बन्धी और होटल सी-व्यू के टेकओवर सम्बन्धी तैयारी के लिये वहां पहुंचा था और जब उसने अपने आलीशान काम की कोई उजरत वसूलने से साफ इनकार कर दिया था ।
अब दरबारीलाल नाम का मास्टर फोर्जर भी विमल का वैसा ही मुरीद और तरफदार था जैसे कि मुम्बई में और सैंकड़ों जाने अनजाने लोग थे ।
जैसे कि ईस्साभाई विगवाला था जिसे उसकी दरख्वास्त पर दरबारीलाल ने अपने ठीये पर बुला कर रखना था ।
ये विमल की वो ताकत थी जिससे कोई पार नहीं पा सकता था । दीन के हित में लड़ने वाले उसे अकेले योद्धा को हासिल ये वो खुदाई मदद थी जो पता नहीं कितने बिगड़े काम संवार देने की कूवत रखती थी । ये विमल के व्यक्तित्व का वो जादू था जो हर उस शख्स पर हावी होकर रहता था जो आर्गेनाइज्ड क्राइम के खिलाफ विमल की जंग का हामी होता था, तरफदार होता था ।
वाहेगुरु सच्चे पातशाह ! तू मेरा राखा सबनी थांही ।
वो दरबारीलाल के रूबरू हुआ ।
दरबारीलाल एक चुसके हुए आम जैसी सूरत वाला और फूंक से उड़ जाने वाली किसम के जिस्म वाला बूढा आदमी था जो मोटे बाईफोकल्स लगाता था ।
विमल ने उससे पहले उसका अभिवादन किया और बोला - “ईस्साभाई नहीं आया ?”
“आया है ।” - बाईफोकल्स में से उसे झांकता दरबारीलाल बोला - “पिछले कमरे में है । तुम्हारा ही इन्तजार कर रहा है ।”
वो पिछले कमरे का तरफ बढा ।
“मेरा क्या काम है ?” - दरबारीलाल बोला ।
विमल ठिठका, उसने घूम कर पीछे देखा ।
“तुम्हें तसदीक करना होगा ।” - वो बोला - “कि जो नयी दाढी मूंछ वो मेरे लिये बना कर लाया है, वो राजा गजेन्द्र सिंह के पासपोर्ट जैसी ही है, कोई जुदा ही स्टाइल तो नहीं बन गया उसका ।”
“हूं ।” - सहमति में सिर हिलाते दरबारीलाल ने हुंकार भरी और खामोश हो गया ।
पिछले कमरे का दरवाजा खोलकर विमल भीतर दाखिल हुआ ।
भीतर एक ऑफिस टेबल थी जिसके पीछे ईस्साभाई विगवाला बैठा हुआ था । उसके सामने मेज पर उसका वो बैग पड़ा था जिसमें उसकी अद्वितीय कारीगरी का साजोसामान होता था ।
“आओ ।” - वो बोला - “बैठो ।”
विमल मेज के सामने बिछी दो विजिटर्स चेयर्स में से एक पर बैठने लगा तो ईस्साभाई ने उसे टोका - “उधर नहीं, ढीकरा । इधर स्टूल पर ।”
विमल ने सहमति में सिर हिलाया, वो मेज से पार पहुंचा और उसकी कुर्सी के करीब पड़े एक स्टूल पर बैठ गया ।
“मेरा पैगाम मिल गया था ?” - वो बोला ।
“हां ।” - विमल बोला - “थोड़ा घूम फिर के मिला, थोड़ा लेट मिला लेकिन मिल गया था ।”
“गुड ।”
“मैंने मुलाकात के लिये ये जगह चुनी, कोई एतराज तो नहीं ?”
“कतई नहीं, ढीकरा । जिधर बोलेंगा, आयेंगा ।”
“शुक्रिया । तहेदिल से ।”
“हॉलीवुड से एक नया फिक्सिंग कम्पाउन्ड आया है जिसकी पकड़ इतनी मजबूत है कि कोई पूरी जोर आजमायश भी दाढी मूंछ पर करेगा तो नहीं उखड़ेगी ।”
“ये तो बहुत अच्छी बात है ।”
“उधर ये कम्पाउन्ड गंजे अभिनेताओं के काम की आइटम के तौर पर मशहूर हुआ है । अब उन्हें उधर ये अन्देशा नहीं सताता कि उनका विग हिल कर या सिर से उड़ कर उनके लिये एम्बैरेसमेंट पैदा कर देगा ।”
“आई सी ।”
“नेचुरल हेयर्स इस्तेमाल करके मैंने दाढी मूंछ का नया सैट भी बनाया है तुम्हारे लिये ।”
“नया सैट किसलिये ?”
“वो फिक्सिंग कम्पाउन्ड ऐसा है कि उसकी पकड़ उस सरफेस पर नहीं बनती जिस पर पहले कोई और कम्पाउन्ड या सॉलूशन इस्तेमाल किया गया हो ।”
“ओह !”
“चश्मा उतारो ।”
विमल ने आदेश का पालन किया ।
ईस्साभाई ने अपना बैग खोला और फिर अपनी कारीगरी का नमूना पेश करने में जुट गया । विमल के चेहरे पर फुल दाढी मूंछ लगा कर उसने पहले उनकी खुद छंटाई की और फिर दरबारीलाल को भीतर बुलाया ।
दरबारीलाल ने खुद अपनी खींची राजा गजेन्द्र सिंह की एक तसवीर से विमल की सूरत का मिलान किया और फिर एक दो जगह कैंची चलवाई । आखिर में वो ये तसदीक करके चला गया कि नयी दाढी मूंछ ऐन पासपोर्ट पर लगी तसवीर जैसी थी ।
“खुद देखो ।” - ईस्साभाई विमल के सामने एक शीशा करता हुआ बोला ।
विमल ने शीशे में अपनी सूरत का मुआयना किया और फिर सहमति में सिर हिलाया ।
“इतने मजबूत कम्पाउन्ड से फिक्स हुई दाढी मूंछ उतरेगी कैसे ?”
“ये स्प्रे है न !” - ईस्साभाई ने एक लम्बी गोल बोतल उसके सामने रखी - “देखो ।”
उसने नकली बालों में एक कंघी फिराते हुए स्प्रे को चलाया ।
“चैक करो ।” - फिर वो बोला ।
विमल ने किया ।
दाढी मूंछ आराम से उखड़ कर उसके हाथ में आ गयीं ।
ईस्साभाई ने एक नयी बोतल उसके सामने रखी ।
“ये फिक्सिंग कम्पाउन्ड है ।” - वो बोला - “ये भी स्प्रे की सूरत में है । दोनों में थर्टी एप्लीकेशंस के काबिल लीक्विड है । उससे पहले बोलना ।”
“कोई और खास हिदायत जैसे कि पहली दाढी मूंछ के साथ थी कि चिपकाने से पहले रोज शेव करना जरूरी था ?”
“कोई नहीं । कोई हिदायत नहीं, कोई पाबन्दी नहीं, कोई फन्दा नहीं, कोई झोल नहीं, कोई पंगा नहीं ।”
“वैरी गुड । अब पैसा बोलो ।”
“पैसा ।”
“ईस्साभाई, यू आर जोकिंग ।”
“यू आर डूईंग मोर सो । ढीकरा, मैं इधर तेरे से बिजनेस करने का वास्ते आया ?”
“लेकिन....”
“आई एम युअर फैन एण्ड एडमायरर । कनसिडर दिस ए स्माल कन्ट्रीब्यूशन टु युअर ग्रेट काज एण्ड ओब्लाइज मी । ढीकरा, तुम मेरे काम को कुबूल किया, ये तुम्हारा मेरे पर अहसान है ।”
“लेकिन कम से कम लागत तो....”
“अब ज्यास्ती बात करेंगा तो शटअप बोलेंगा ।”
“अच्छी बात है । जैसी तुम्हारी मर्जी ।”
“इस सब सामान के लिये स्पैशल बाक्स है, पैक करके देता है ।”
सूरत में कास्मेटिक बाक्स लगने वाले चमढा मंढे एक बक्से में वो सब सामान पैक करके उसने उसे विमल के हवाले किया ।
“तो” - विमल बोला - “मैं चलूं ?”
“आफकोर्स ।”
विमल ने उससे हाथ मिलाया ।
“ढीकरा” - उसका हाथ थामे ईस्साभाई धीरे से बोला - “यू आर ए मैन ऑफ गॉड । आई विल प्रे फार युअर लांग लाइफ ।”
“थैंक्यू ।”
“मैंने तुम्हारी रिलीजस बुक का एक कपलेट इंगलिश के पेपर में पढा । सब भूल गया, एक लाइन याद है ।”
“क्या ?”
“ओ माई लॉर्ड, लैट मी नैवर शन दि राइटस टास्क ।”
“देह शिवा हर मोहि इहै सुभ करमन तौं कबहू न टरौ ।”
“क्या बोला, ढीकरा ?”
“जो तुमने बोला, उसका ओरीजिनल वर्शन बोला ।”
“गुड । गुड । सो यू विल नैवर शन दि राइटस टास्क ?”
“नैवर ।”
“गॉड ब्लैस यू ।”
***
बावजूद पवित्तर सिंह के आश्वासन के कि उसकी ‘इनसलेट’ नहीं होने वाली थी, मुबारक अली सज धज कर - खुद अपने लफ्जों में औकात बना कर - रेडीसन पहुंचा । वहां पहुंचने के साधन के तौर पर इस्तेमाल तो उसने अपनी ही टैक्सी की लेकिन बतौर पैसेंजर की, टैक्सी की ड्राइविंग सीट पर उसका पढा लिखा भांजा हाशमी मौजूद था ।
औकात, जिसे बनाने के लिये उसने रेडीसन की अपनी अप्वायंटमेंट छ: बजे तक सरकाई थी, में जो चीजें शुमार थीं, वो थीं कत्थई रंग की शेरवानी, काले फुंदने वाली लाल तुर्की टोपी जिसके नीचे उसका गंजा सिर छुपा था और पेशावरी चप्पल जो कि उसके बारह नम्बर के असाधारण आकार के पांव को काफी हद तक छुपाये थी । समयाभाव के कारण दाढी हज्जाम से तराशवाने की जगह उसने खुद तराश ली थी । वो ‘रेडीसन’ की मारकी में जब टैक्सी से उतरा तो उसे देख कर कोई नहीं कह सकता था कि वो एक अनपढ मवाली था, खूंखार दादा था और फरार मुजरिम था ।
“अली वली पर” - मुबारक अली टैक्सी से निकलता बोला - “पवित्तर सिंह की निगरानी की जिम्मेदारी है । पवित्तर सिंह यहां हुआ तो वो भी यहीं कहीं होंगे । पता कर ।”
हाशमी ने सहमति में सिर हिलाया ।
“खालिस इबलीस की औलादों में से एक से वास्ता है । पंगा पड़ सकता है । आंखें खुली रखना । कान भी ।”
“मेरे मन की बात कही, मामू । पंगा पड़ सकता है इसलिये तुम्हें अकेले....”
“अच्छा !” - आंखें निकालता मुबारक अली बोला - “सहारा देगा मुझे ? इतने बुरे दिन आ गये मेरे ?”
“मामू, मेरी बात को समझो ।”
“समझता है तेरी बात को तेरा मामू । तू क्या समझता है इधर मेरी लाश गिराने की, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, साजिश है ?”
“मामू, हो सकती है । परसों उधर छतरपुर के फार्म हाउस में जो ड्रामा हुआ, वे क्या बिरादरीभाई भूल गये होंगे ?”
“मैंने अकेले ने किया वो डिरयामा ?”
“नहीं किया । इसीलिये तो तुम्हारा अकेले जाना अन्देशे की बात जान पड़ती है ।”
“तेरे मामू की लाश गिराने के लिये उन अल्लामारों को अभी बहुत चान्द सूरज देखने पड़ेंगे इसलिये खातिर जमा रख, वो सब के सब भी जमा होंगे तो मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकेंगे ।”
“लेकिन....”
“अब छोड़ पीछा । ये फाइव स्टार डीलक्स होटल है, इधर फौजदारी नहीं हो सकती ।”
“क्या पता चलता है ?”
“नहीं पता चलता, इस वास्ते....”
मुबारक अली ने सिर से टोपी उतार कर उलटी की और टोपी वाला हाथ हाशमी के सामने ऐन उसकी नाक के नीचे किया ।
हाशमी को टोपी में एक बत्तीस कैलीबर की पिस्तौल पड़ी दिखाई दी ।
“क्या ?” - मुबारक अली धूर्त भाव से बोला ।
तब हाशमी के चेहरे पर से चिन्ता के बादल छंटे ।
“मामू” - हाशमी प्रशंसात्मक स्वर में बोला - “मैं कोर्निश बजा कर सलाम नहीं कर सकता, लोग देखेंगे, लेकिन यकीन मानना, दिल मेरा यही कर रहा है बार बार ।”
“अब तेरा अन्देशा....”
“गया तेल लेने ।”
मुबारक अली हंसा और फिर घूम कर आगे बढा ।
डोरमैन ने बड़ी तत्परता से उसके लिये शीशे का दरवाजा खोला ।
बड़ी शान से वो भीतर दाखिल हुआ और रिसैप्शन से परे एक सोफे पर जा बैठा ।
पांच मिनट उसने वहां गुजरे ।
आखिरकार उसे यकीन हुआ कि वो वहां किसी व्यक्तिविशेष की निगाह में नहीं था तो उठ कर खड़ा हुआ और लम्बे डग भरता रिसैप्शन पर पहुंचा ।
एक रिसैप्शन क्लर्क उसकी तरफ आकर्षित हुआ, व्यवसाय सुलभ ढंग से उसने मुबारक अली को दिखा कर दान्त चमकाये ।
मुबारक अली को अन्देशा था कि उसका टपोरी लहजा कहीं उसकी टीप-टाप की पोल ने खोल दे इसलिये वो सावधानी से बोला, कम से कम बोला - “कमरा नम्बर चार सौ नौ । चाबी ।”
“यस, सर ।”
क्लर्क ने तत्काल की बोर्ड से उतार कर चाबी उसके सामने रखी ।
“किसी को बोलो, छोड़ के आये ।”
“यस, सर । राइट अवे, सर । फ्रन्ट !”
एक बैलब्वाय करीब पहुंचा । क्लर्क ने आवश्यक निर्देश के साथ उसे चाबी सौंप दी । मुबारक अली बैलब्वाय के साथ हो लिया । लिफ्ट पर सवार होकर दोनों चौथी मंजिल पर पहुंचे । बैलबाव्य ने ‘409’ का ताला खोला और भीतर जाकर बिजली के कुछ स्विच ऑन किये ।
मुबारक अली दरवाजे पर खड़ा रहा । उसकी निगाह पैन होती हुई कमरे में घूमी ।
कमरा खाली था ।
“संडास देख ।”
“क... क्या ?” - नौजवान, पढा लिखा, खास दिल्ली का वासी बैलब्वाय सकपकाया सा बोला ।
“वो क्या कहते हैं... बाथ... बाथ का रूम देख ।”
बैलब्वाय ने समझ सका कि उससे वहां क्या देखना अपेक्षित था लेकिन उसने बाथरूम का दरवाजा खोल कर भीतर निगाह दौड़ाई ।
“आल ओके, सर ।” - वो बोला ।
“बढिया ।” - मुबारक अली भीतर दाखिल हुआ ।
टिप का तमन्नाई बैलब्वाय अदब से ठिठका खड़ा रहा ।
“फूट ।”
बैलब्वाय हकबकाया ।
“इधरीच ठहरेगा खम्बे का माफिक ?”
“न... नो, सर ।”
“कुछ मांगता है ?”
“नो, सर । थैंक्यू, सर ।”
वो घूमा और भारी कदमों से बाहर निकला । अभी उसने गलियारे में एक ही कदम बढाया था कि जैसे पीछे से गोली लगी ।
“थाम्बा !”
वो ठिठका, घूमा ।
“इधर आ ।”
झिझकता हुआ वो फिर कमरे में दाखिल हुआ और मेहमान के करीब पहुंचा ।
मुबारक अली ने उसे पचास का नोट थमाया ।
बैलब्वाय के मायूस चेहरे पर रौनक आयी ।
“ठैंक्यू बोल ।”
“थैंक्यू, सर ।”
“अपुन भी बोलता है तेरे को । ठैंक्यू । अंग्रेज का माफिक । क्या ?”
“थैंक्यू, सर ।”
बैलब्वाय चला गया ।
मुबारक अली ने दरवाजा भीतर से बन्द करने की कोशिश न की । वो एक कुर्सी पर ढेर हुआ । उसने टोपी में से पिस्तौल बरामद की और उसे दायीं जांघ के नीचे दबा लिया ।
वो इन्तजार करने लगा ।
पांच मिनट से ज्यादा इन्तजार उसे न करना पड़ा ।
दरवाजा एकाएक धीरे धीरे भीतर की तरफ खुलने लगा ।
मुबारक अली का हाथ स्वयंमेव पिस्तौल की मूठ पर सरक गया, वो अपलक खुलते दरवाजे की तरफ देखने लगा ।
पवित्तर सिंह चोरों की तरह भीतर दाखिल हुआ, उसने अपने पीछे दरवाजा बन्द किया, उसे भीतर से डबल लॉक किया और घूमकर मुबारक अली के करीब पहुंचा । वो उसके सामने एक कुर्सी पर ढेर हुआ और अनमने भाव से बोला - “सत श्री अकाल ।”
“वालेकम सलाम ।” - मुबारक अली बोला ।
“आमद की शुक्रिया, वीर मेरे ।”
“कोई वान्दा नहीं । किधर तो जाने का ही था । इधर आ गया ।”
“फिर भई शुक्रिया । कोई चा पानी....”
“बोलेंगा । पहले मतलब की बात । क्या पिराब्लम है ? क्या कहना मांगता है सोहल की बाबत ?”
“मैं... मैं सोल नाल सुलह चात्ता हूं ।”
“बढिया । उधर फार्म पर अपने बिरादरीभाइयों के साथ मिलकर सोहल को जलील किया, उसकी इज्जत को, गैरत को जूतों से रौंदा, सियारों ने शेर की, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, खिल्ली उड़ाई, उसकी बेगम को थाम लिया, उसके साथ बद्सलूकी की, हथियार बनाया उसे उसके खाविन्द के खिलाफ और अब सुलह करना मांगता है । बढिया ।”
“वीर मेरे, अपनी जाती हैसियत विच मैंने कुज नईं कीत्ता । बिरादरीभाइयों का साथ देना मेरी मजबूरी सी ।”
“अब क्या हुआ ? साथ छूट गया बिरादरीभाइयों का ?”
“छोड़ना चात्ता हूं । अगर सोल साथ दे तो ।”
“जरूर ये भी कोई साजिश है सोहल के खिलाफ ।”
“सौं वाहेगुरु दी, नहीं । साजिश होती तो मैं ऐस मुलाकात दा इन्तजाम ऐसे चोरां दी तरह छुप के करता ?”
“साजिश में ऐसा ही किया जाता है ।”
“सौं सच्चे पातशाह दशमेश पिता दी, ये कोई साजिश नहीं है ।”
“मैं बहुत गिरा हुआ आदमी हूं, अपनी शैतानी हरकतों के लिये अपने बनाने वाले से शर्मिन्दा हूं, मरूंगा तो जहन्नुम की आग ही मेरा, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, मुकाम होगा । लेकिन मैं कभी खुदावन्द करीम की झूठी कसम नहीं खाता ।”
“मैं वी नहीं खात्ता, वीर मेरे । एतबार कर मेरा । इस घड़ी मैं झूठ बोलां तां सब तों वड्डी बद्दुआ लगे ।”
“क्या बोला ?”
“मैंनूं कदी एक बिस्तर ते दो वार सोना नसीब न होवे, कदी एक कुयें से दो वार पानी पीना नसीब न होवे, कदी इक रस्ते से दो बार गुजरना नसीब न होवे, मैं ताजिन्दगी धरती से प्रेत की तरह भटकां ।”
“मैंने किया एतबार । अब बोलो पिराब्लम क्या है ? हवा क्यों सरकी हुई है ? हवास क्यों गुम हैं ?”
“मौत सामने नजर आती हो तां हवास गुम होते ही हैं ।”
“आ रही है नजर ?”
“हां ।”
“क्यों ? क्योंकि सोहल आजाद है ?”
“हं... हां ।”
“कुबूल करते कलेजा फट रहा होगा ?”
पवित्तर सिंह खामोश रहा ।
“जो पंगा झेला न जाये, वो लेना चाहिये ?”
“मैं ने नईं लिया ।”
“बराबर लिया ।”
“मेरा मतलब ए मैंने कल्ले ने नईं लिया ।”
“बिरादरीभाइयों के साथ मिल कर, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, ताकत बनाई, तब लिया !”
पवित्तर सिंह ने उतर न दिया, उसने बेचैनी से पहलू बदला ।
“सियार भी जब झुण्ड में होते हैं तो अपने आपको ताकतवर समझने लगते हैं । समझने लगते हैं बोला बाप, हो नहीं जाते ।”
“जिन्नी मर्जी बेस्ती कर लै वीर मेरे, सियार कह भावें चूहा कह पर मेरा कम्म करा ।”
“काम ! सोहल ने सुलह ?”
“हां । सोल ड्रग दे धन्धे करके बिरादरीभाइयों का बैरी बनया सी । हुन ड्रग दे धन्धे से मेरा कोई लेना देना नईं । मैं हेरोइन दे पास भी फटकां तां दुर फिटे मुंह । मैं बिरादरीभाइयों के पास भी फटकां तां दुर फिटे मुंह ।”
“क्या कहने ।”
“हुन बोल । क्या कैत्ता है ?”
“कहता हूं, पहले एक बात बताओ, बाप ।”
“क्या ?”
“उधर फार्म में सोहल तुम लोगों की मुश्कें कसवा कर पुलिस के दो आला अफसरों के हवाले करके गया था, तुम्हारे ही दो आदमियों को हथियारबन्द करके तुम लोगों के सिरहाने बिठा कर गया था, फिर भी, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, आजाद कैसे हो गये ?”
“झामनानी दे दिमाग ने कम्म कीत्ता, उसने जुगत लगाई, हो गये ।”
“क्या किया उसने ?”
“सुनना चात्ता है ?”
“हां । तफसील से ।”
“ऐस वक्त ?”
“हां । सब सच सच । कुछ न छूटे ।”
“ठीक है ।”
पवित्तर सिंह ने बिरादरीभाइयों की रिहाई से सम्बन्धित तमाम वाकयात बयान किये ।
“अल्लाह !” - वो खामोश हुआ तो मुबारक अली के मुंह से निकला - “ऐन कुत्ते का दीमाक पाया है तुम्हारे सिन्धी भाई ने । वादामाफ गवाह बनने जा रहे अपने आदमियों को तो मरवा ही दिया, ए. सी. के पी. को भी न बख्शा । पण ऐसा टॉप का हरामी सोहल से खौफ खाता है ।”
“ओ नईं खात्ता । ओ नई खात्ता इस वास्ते भैय्यन और लाला नईं खात्ते, मैं खात्ता हूं ।”
“गोया बिरादरी में एक ही बुजदिल है ?”
“पैल्ले ई कहा, वीर मेरे, जिन्नी मर्जी बेस्ती कर लै, भिगो भिगो के जुत्तियां मार पर सोल नाल मेरी सुला करा ।”
“मेरे को क्यों बोलते हो, बाप ?”
“होर किस को बोल्लूं ?”
“मेरा मतलब है तुम्हेरे को कैसे मालूम है कि मैं सोहल से तुम्हेरी सुलह करा सकता हूं ?”
“कैसे नईं मलूम ? वीर मेरे, जब ये मलूम है कि तू सोल का खास आदमी है, खासुलखास आदमी है तो कैसे नईं मलूम ? सोल नू छुड़ान वास्ते जो कारनामा तू ने पीछे फार्म ते करके वखाया, ओ तां कोई मांजाया नईं कर सकदा सी । सिर ते कफन बांध के पौंच गया, ये जानते बूझते पौंच गया कि उधर तू ते तेरे सारे आदमी जान तों जा सकदे सी । ऐन्नी परवाह नां कीत्ती कि उधर चार गुणा और बेहतर हथियारबन्द लोगां नाल मुकाबिला होना सी । ऐसी जांनिसारी अज दे जमाने विच न मैं कदी वेखी, न कदी सुनी । ऐसा शख्स सोल दा किन्ना करीबी होवेगा, ऐ की मैंनूं किसे कोलों पुच्छन जाना पवेगा ?”
“दीमाक को बढिया काम में लाये, बाप !”
“ते फेर होर किसी को मैं जानता वी तां नईं ।”
“हूं ।”
“तां फेर की जवाब ए ?”
“सोहल की कसम है बिरादरीभाइयों की लाश गिराने की ।”
“किसी जाती वजह करके नईं, नशे दे धन्धे करके ।”
“अब जाती वजह भी हो गयी हैं । जो कि तुमने खुद पैदा की है । सोहल की जो गत तुमने बनायी, उसके साथ जो, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, सलूक तुमने किया....”
“मैं नईं... मैं नईं... बिरादरी ने ।”
“तुम बिरादरी से बाहर हो ?”
“अब हूं ।”
“तब तो नहीं थे ?”
“वीर मेरे, ऐहोई ते खता ए जो मैं सोल से बख्शवाना चात्ता हूं ।”
“पता नहीं वो मानेगा या नहीं ?”
“मानेगा । जरूर मानेगा । वीर मेरे, बात तां करके वेख । वो अपने सरदार भ्रा दा लिहाज जरूर करेगा ।”
“खूनखराबे के इस कारोबार में जात बिरादरी किधर चलती है, बाप ?”
“वो खालसा है, खालिस इंसान है....”
“मस्का नहीं बाप, मस्का नहीं ।”
“मैं उस दे सामने गर्दन नीवीं कीत्ती ए । वाहेगुरु दा खालसा झुकी गर्दन पर वार नईं करता ।”
“ऐसा ?”
“हां । गुरां दा सिंघ निर्दयी नईं हो सकदा ।”
“गुस्ताखी माफ बाप, ये बात तुम्हेरे पर लागू नहीं ? तुम, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, गुरु का सिंह नहीं है या खालिस खालसा नहीं है ?”
“मैं भटक गया सी । गुमराह हो गया सी । वीर मेरे, समझ कि सुबह दा भुल्लाया शाम को घर लौटा ।”
“सच में ?”
“हां । एतबार का मेरा ।”
“खाली नशे के धन्धे से तौबा करने से ही सुबह का भूला शाम को घर लौटा बन गया ?”
“की मतलब ?”
“बाप, तुम्हेरे बाकी कारोबार भी मेरे को मालूम ।”
“क्या !”
“बाकी कारोबार जैसे सोने की स्मगलिंग । बिना पासपोर्ट के लोगों को सरहद के उस पार या उस पार से इस पार । दहशतगर्दों को असलाह सप्लाई....”
“चुप कर, यार ।”
“चुप तो है पण....”
“मैंने सब छोड़ा । सौं वाहेगुरु दी, सब छोड़ा । मैं गुरुद्वारे बैठ कर जुत्तियां उठावांगा, बाटियां धोवांगा, तू सोल से मेरी सुलह करा दे इक बार । फेर देख कि मैं क्या से क्या बन के दिखाता हूं ।”
“सरदार जी, एक बात भूल रहे हो ?”
“क्या ?”
“ये कि ये सुलह सुलह से बड़ी दुश्मनी की कीमत पर होगी ।”
“की मतलब ?”
“तुमने सोहल से सुलह कर ली, ये बात क्या तुम्हेरे जोड़ीदारों से छुपी रह पायेगी ?”
“मुश्किल ही होगा ।”
“नामुमकिन होगा ।”
“तो ?”
“तो जो काम सोहल ने करना है, वो बिरादरीभाई कर देंगे ।”
“क्या... क्या कर देंगे ?”
“लुढका देंगे । मूंडी काट के हाथ में दे देंगे ।”
“वाहेगुरु !”
“ऐसीच होगा, बाप, ऐसीच होगा । तुम, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, आसमान से गिरेगा और खजूर में जा अटकेगा ।”
“मैंनूं मंजूर है । मैं बिरादरीभाइयों से निपट सकता हूं, सोल से नईं निपट सकता ।”
“ऐसा ?”
“हां । सोल दे सिर ते दशमेश पिता दा हत्थ ए । ओ काल ते फतह पाया मानस ए । ओ पीर पैगम्बरों जैसी सलहियात वाला आदमी ए । उस दे हजार हत्थ ने । ओ अकेला ही सवा लक्ख ए ।”
“मस्का नहीं, बाप ।”
“ए हकीकत है ।”
“पहले नहीं मालूम थी ?”
“बदकिस्मती कि नईं मलूम सी । बिरादरीभाइयों की सोहबत ने मत्त मारी होई सी ।”
“हूं ।”
“तो फिर ?” - उम्मीद से लबरेज निगाहों से पवित्तर सिंह ने उसकी तरफ देखा - “क्या जवाब है तेरा ?”
“बाप, ये सुबह के भूले का शाम को लौट के आने का आइडिया मेरे को पसन्द । मैं बात करेंगा ।”
“कब ?”
“पहली फुरसत में ।”
“किस की ?”
“सोहल की और किस की ? मेरे को तो फुरसत ही फुरसत है ।”
“तो, वीर मेरे, अभी बात कर न !”
“अभी कैसे करूं ?”
“मेरे पास इन्टरनेशनल सिम कार्ड वाला मोबाइल है ?” - उसने फोन निकाल कर मुबारक अली को दिखाया ।
“जेबी फोन तो मैं समझा । और क्या बोला ?”
“होर बोलया कि इससे सारी दुनिया विच कहीं वी बात हो सकदी ए । सोल जहां कहीं वी ए, इससे ओनू कॉल लगा लै ।”
मुबारक अली ने इंकार में सिर हिलाया ।
“क्यों ?” - पवित्तर सिंह की भवें उठीं - “की होया ?”
“तुम्हेरे को मालूम पड़ जायेगा सोहल का फोन नम्बर ।”
“फेर की होया....”
“नहीं मांगता ।”
“तो, वीर मेरे, इस कमरे के फोन से फोन कर लै ।”
“नम्बर बोलना पड़ेगा ।”
“तो कहीं और से फोन कर लै ।”
“करेंगा । पहली फुरसत में करेंगा । फिर बोलेंगा ।”
“कैसे ?”
“इसी जेबी फोन का नम्बर मेरे को दो ।”
पवित्तर सिंह ने हिचकिचाते हुए उसे नम्बर लिख के दिया ।
“ठैंक्यू ।” - मुबारक अली बड़े ठस्से से बोला - “इंगलिश बोलता है । मैं कल सुबह बजायेगा तुम्हेरा ये जेबी फोन ।”
“क... कल सुबह ?”
“हां ।”
“ऐन्नी देर बाद किस वास्ते ?”
“पहली फुरसत बोला न बाप । वो मेरे को कल सुबह ही होगी ।”
“पैल्ले नईं ?”
“नहीं ।”
“ठीक है । कल सुबह । पर वीर मेरे, मेरा ए कम्म तूने कराना ए हर हाल विच ।”
“देखेंगा । अब मेरे को इजाजत है ?”
“हां । जरूर । पर पैल्ले मैंनूं जान दे । तू पंज मिनट बाद इधर से निकलना ।”
“ठीक है ।”
जिस गर्मजोशी से मुबारक अली के हाथ मिला कर पवित्तर सिंह वहां से रुख्सत हुआ, वो मुबारक अली को उसकी सूरत पर झलकती न दिखाई दी ।
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