शुक्रवार : बारह मई : दिल्ली मुम्बई
थाने की कैन्टीन में हवलदार तरसेम लाल की अपने सहयोगी हवलदार हरपाल सिंह नेगी से मुलाकात हुई।
“क्या बात है, भई?” — तरसेम लाल बोला — “दिखाई नहीं दिया थाने में पांच-छ: दिन से। आउटडोर की कोई खास ड्यूटी भर रहा है?”
“नहीं।” — नेगी बोला — “छुट्टी पर था।”
“क्यों? खैरियत तो है न?”
“है। खैर खैर खैरियत है।”
“बहुत खुश दिखाई दे रहा है! कोई खास ही बात जान पड़ती है!”
“खास ही बात है।”
“अब बता भी तो सही!”
“लड़का हुआ है।”
“अच्छा! कब?”
“परसों।”
“बधाई हो।”
“बात तो बधाई की ही है, यार। तीन लड़कियों के बाद हुआ। जबकि कहते हैं कि तीन लड़कियों के बाद तो शर्तिया लड़की होती है।”
“तू खुशकिस्मत निकला, यार, जो ऐसा न हुआ।”
“हां। किरपा हुई बंसी वाले की।”
“अब इतनी चोखी खबर सुनाई है तो कोई मुंह मीठा तो करा!”
“नहीं।”
“क्या?”
“कड़वा कराऊंगा।”
“ओह! कब?”
“आज ही शाम को। छुट्टी के बाद। अगर तुझे सूट करता हो तो।”
“मुझे तो सूट ही सूट करता है। कहां बैठेंगे?”
“यही सोच रहा हूं। क्योंकि मेरा घर तो हस्पताल बना हुआ है। हर जगह साली डिलीवरी की बास बसी हुई है।”
“इधर कैन्टीन में ही बैठ जायेंगे।”
“नहीं।”
“क्यों? डरता है?”
“नहीं, यार। और बात है।”
“और क्या बात है?”
“यार, अब तेरे से क्या छुपाऊं? बात ये है कि डिलीवरी ने हाथ तंग कर दिया है। कैन्टीन में बैठे तो और भी दो-चार यार दोस्तों को सूंघ लग जायेगी। तू समझा मेरी बात?”
“हां।”
“मैं आज ही थाने में लौटा हूं। अभी तो मैंने साहब लोगों के अलावा किसी को खबर भी नहीं की है लड़का होने की। मेरा मतलब है सिवाय तेरे।”
“मुझे क्यों की?”
“तुझे क्यों की? लो पूछता है तुझे क्यों की! अरे तरसेम लाल, तेरे पर खुदा की मार। कम्बख्त, तू क्या और लोग है? साले एक तू ही तो है जो मेरा जिगरी है!”
तरसेम लाल खुश हो गया।
“यार, वो तो है।” — वो बोला — “बनती तो मेरी भी तेरे से ही है।”
“तभी तो सिर्फ तुझे बोला दारू पार्टी के लिये। अब तू ही सुझा बैठने के लिये कोई जगह!”
“समझ ले सुझा दी। तू भी क्या याद करेगा!”
“बोल कहां?”
“इम्पीरियल के सामने एक रेस्टोरेंट है जिसमें केबिन हैं। मालिक मेरा बहुत लिहाज करता है। वहीं एक केबिन में बैठ जायेंगे।”
“कोई पंगा तो नहीं होगा?”
“नहीं होगा। मेरा जिम्मा।”
“फिर क्या बात है!”
“अब तू टाइम बोल।”
“सात बजे।”
“ठीक है।”
शैलजा ने ‘सूजी वांग’ में कदम रखा।
उसके साथ दिल्ली पुलिस के कांस्टेबल की वर्दी पहने एक व्यक्ति था जिसका नाम अमरदीप था।
‘सूजी वांग’ एक महंगा चायनीज रेस्टोरेंट था जो कि कनाट सर्कस में सिंधिया हाउस के ऐन सामने स्थापित था।
उस वक्त एक बजने में अभी पन्द्रह मिनट बाकी थे।
रेस्टोरेंट के विशाल हॉल में अभी लंच के बिजनेस वाली भीड़ नहीं बनी थी। अभी उसकी बस तीन चार टेबलों पर ही ग्राहक दिखाई दे रहे थे।
ठीक एक बजे कोने की जिस टेबल पर शिवशंकर शुक्ला ने आकर बैठना था, उस पर रिजर्व्ड की तख्ती रखी हुई थी।
अपने फैंसी रेस्टोरेंट में एक सिपाही को दाखिल होता देखकर होटल स्टाफ हड़बड़ाया। फिर एक स्टीवार्ड लपक कर उनके पास पहुंचा।
“क्या है?” — वो सिपाही से बोला — “क्यों तुम...”
“ये मेरे साथ है।” — शैलजा अधिकारपूर्ण स्वर में बोली।
“आपके साथ है!”
“हां। मैं फूड इन्स्पेक्टर हूं। आप लोगों की किचन इन्स्पेक्ट करने आयी हूं।”
“ओह! मैडम, मैं मैनेजर को खबर करता हूं।”
“तब तक हम क्या यहीं खड़े रहेंगे?”
“ओह! आइये।”
स्टीवार्ड ने उन्हें मैनेजर के पास पहुंचाया और खुद वहां से खिसक गया।
“अभी पिछले महीने तो एक फूड इन्स्पेक्टर साहब आये थे इन्स्पेक्शन के लिये! इतनी जल्दी जल्दी तो इन्स्पेक्शन नहीं होती!”
“होती है।” — शैलजा कड़े स्वर में बोली — “जब कम्पलेंट हो तो होती है।”
“कम्पलेंट!” — मैनेजर दहशतनाक स्वर में बोला — “हमारी?”
“जी हां। आपकी।”
“किसने की?”
“आपके एक ग्राहक ने की जिसे कि यहां डिनर करने से फूड प्वायजनिंग हो गयी।”
“बट दैट इज इम्पासिबल।”
“घर पहुंचने तक वो तड़प रहा था। घर वालों को डाक्टर बुलाना पड़ा जिसने कि उसे नर्सिंग होम में भिजवाया जहां कि उसके स्टामेक को पम्प किया गया तो कहीं जा के उसकी जान में जान आयी। वो थाने में आपके खिलाफ एफ.आई.आर. दर्ज कराने पहुंचा था। तभी ये सिपाही मेरे साथ है।”
“एफ.आई.आर. दर्ज हो गयी?” — मैनेजर ने अमरदीप से पूछा।
“अभी नहीं।” — अमरदीप बोला — “लेकिन फूड एण्ड अडल्ट्रेशन के महकमे में इत्तला की गयी थी जहां से कि ये मैडम आयी हैं।”
“मैडम” — मैनेजर बोला — “हमारे यहां सफाई का पूरा ध्यान रखा जाता है और हर चीज ताजातरीन इस्तेमाल की जाती है। फाइव स्टार डीलक्स होटलों जैसी हाइजीनिक किचन है हमारी।”
“देखते हैं।” — शैलजा गम्भीरता से बोली।
“ये हो ही नहीं सकता कि हमारे यहां के खाने से किसी को फूड प्वायजनिंग...”
“बोला न, देखेंगे।”
“अगर आप किचन को चौकस पायेंगी तो क्या रिपोर्ट देंगी?”
“यही कि किचन चौकस पायी गयी थी।”
“बस?”
“और किचन में इस्तेमाल होने वाला रॉ मैटीरियल चौकस पाया गया था।”
“अगर आप ये भी लिख देंगी कि उस शिकायतकर्ता को हमारे यहां के भोजन से फूड प्वायजनिंग नहीं हुई हो सकती तो हमें सहूलियत होगी।”
“वो बाद की बात है।”
“बाद में ही सही लेकिन रिपोर्ट हमारी मर्जी की होनी चाहिये।”
शैलजा ने घूर कर मैनेजर की तरफ देखा।
“हम आपको खुश करके भेजेंगे।”
शैलजा की त्योरी चढ़ी, उसने चेतावनीभरे ढंग से अमरदीप की तरफ देखा।
“इनको भी।” — शैलजा का इशारा समझने की जगह मैनेजर दिलेरी से बोला — “हमारे यहां से कभी कोई सरकारी आदमी नाखुश नहीं गया।”
अमरदीप ने यूं बाग बाग होकर दिखाया जैसे उस बात ने उसके कानों में अमृत टपकाया हो।
“किचन दिखाइये।” — शैलजा बोली।
“जी हां।” — मैनेजर बोला — “जरूर। वैसे अगर आप रिपोर्ट यहीं बना लें तो...”
“ये नहीं हो सकता।” — शैलजा सख्ती से बोली।
मैनेजर हड़बड़ाया, फिर उठता हुआ बोला — “मैं अभी इन्तजाम करता हूं।”
उन्हें भीतर बैठा छोड़कर वो लपक कर बाहर पहुंचा। उसने इशारे से उसी स्टीवार्ड को करीब बुलाया जिसने शैलजा को वहां पहुंचाया था।
“मुझे मशरूम्स पर शक है। फौरन हटवा दो। और किसी को दो गिलास जूस लाने को बोलो।”
स्टीवार्ड सहमति में सिर हिलाता किचन की ओर भागा।
जूस लिये वेटर के साथ ही मैनेजर वापिस अपने आफिस में लौटा।
वेटर जूस सर्व करके वहां से चला गया।
“ये क्या?” — शैलजा बोली।
“मामूली चीज है।” — खींसे निपोरता मैनेजर बोला — “आपको तो लंच भी करके जाना होगा।”
“देखेंगे।”
हाशमी गैलेक्सी ट्रेडिंग कार्पोरेशन के आफिस में पहुंचा।
“मिस्टर शुक्ला से मिलना है।” — वो रिसेप्शनिस्ट से बोला।
“कहां से आये हैं?” — रिसेप्शनिस्ट ने पूछा।
“मैडम, दिस इज नाट ए बिजनेस काल। मैं उनके लिये उनके किसी खास दोस्त का सन्देशा लेकर आया हूं।”
“आई सी। मिस्टर शुक्ला इस वक्त आफिस में नहीं हैं। वो अभी अभी लंच के लिये निकल गये हैं।”
“ओह! कब लौटेंगे?”
“दो बजे।”
“तब तक क्या मैं यहीं इन्तजार कर सकता हूं?”
“हां। खुशी से।”
हाशमी रिसेप्शन डैस्क से दूर एक कोने में एक सोफे पर जा बैठा।
वो शुक्ला को पहचानता नहीं था वरना उसे मालूम होता कि जिस वक्त उसने रिसेप्शन के शीशे के दरवाजे से भीतर कदम रखा था, ऐन उसी वक्त शुक्ला वहां से बाहर निकल कर गया था।
ठीक एक बजे शुक्ला ‘सूजी वांग’ में अपने लिये रिजर्व्ड टेबल पर मौजूद था।
उसके बिना आर्डर किये ही शैबलीस नाम की रैड वाइन का एक गिलास उसके सामने पहुंचा।
एक स्टीवार्ड ने आकर महज उसका अभिवादन किया लेकिन आर्डर लेने की कोशिश न की क्योंकि शुक्ला का लंच का आर्डर फिक्स्ड था :
चिकन स्वीटकार्न मशरूम सूप।
पॉम्फ्रेट विद पीनट सॉस।
मशरूम रीयो एण्ड बेबी कार्न सेजवान।
ब्वायल्ड राइस।
स्टीवार्ड जानता था कि आर्डर के बारे में शुक्ला तभी कुछ बोलता था जबकि उसे उसमें कोई तब्दीली चाहिये होती थी।
चेहरे पर बड़े संतोष और इत्मीनान के भाव लिये शुक्ला अपनी पसन्दीदा फ्रेंच वाइन चुसकने लगा।
किचन में शैलजा पूरी मुस्तैदी से अपनी फूड इन्स्पेक्टरी किचन पर लागू कर रही थी।
किचन और डायनिंग हॉल के बीच की सर्विस विंडो में से उसने शुक्ला को आकर अपनी टेबल पर बैठते देख लिया था।
लंच की उसकी उस स्थापित रूटीन की — उसके हर पहूल की — पहले ही तसदीक की जा चुकी थी इसलिये शैलजा को मालूम था कि पहले उसका खास सूप ही तैयार होता था।
शुक्ला से कोई चार टेबल परे मुकेश बजाज बैठा हुआ था।
बजाज एक कोई चालीस साल का फिल्म अभिनेताओं जैसा आकर्षक व्यक्ति था। उसके व्यक्तित्व की खास खूबी ये थी कि वो अपने आप को वकील बताता था तो वकील लगता था, डाक्टर बताता था तो डाक्टर लगता था, इन्जीनियर या चार्टर्ड एकाउन्टेंट या ब्यूरोक्रैट बताता था तो ऐन वही लगता था। उसके चेहरे पर ऐसी बुद्धिमत्ता की छाप रहती थी कि देखने वाला उसे सहज ही कोई उच्च और विशिष्ट शिक्षा प्राप्त व्यक्ति मान लेता था जबकि असल में वो सिर्फ हायर सैकेन्ड्री पास था।
शैलजा और अमरदीप की तरह वो भी झामनानी का खास आदमी था।
शैलजा ने देखा कि सूप हैड कुक खुद तैयार कर रहा था।
“खास सूप है।” — शैलजा की खुशकिस्मती से वो खुद ही उसे बताने लगा।
“क्या खास है इसमें?” — शैलजा ने पूछा।
“सभी कुछ खास है। ग्राहक खास है। कम्बीनेशन खास है।”
“कम्बीनेशन भी खास है?”
“जी हां। मीनू में इस नाम का कोई सूप दर्ज नहीं है। मीनू में चिकन स्वीटकार्न सूप दर्ज है। मशरूम सूप दर्ज है। लेकिन ये चिकन स्वीटकार्न मशरूम सूप है।”
“लेकिन अभी तो तुम कह रहे थे कि मशरूम्स हैं ही नहीं आज किचन में?”
“नहीं हैं। जनरल आर्डर्स के लिये नहीं हैं लेकिन खास कस्टमर के लिये खास इन्तजाम तो रखना पड़ता है न!”
“खास कस्टमर कौन?”
“मिस्टर शुक्ला। के.जी. मार्ग पर गैलेक्सी नाम की बड़ी कम्पनी है। उसके मालिक हैं।”
गुड।
लेकिन शैलजा ने फिर भी तसदीक की।
“और ये सूप खास उनके लिये बन रहा है?” — वो बोली।
“जी हां।”
“मुझे इसका भी सैम्पल चाहिये।”
“इसका भी?”
“मशरूम्स की वजह से।”
“ठीक है। मैं सैम्पल बॉटल लाता हूं।”
हैड कुक के पीठ फेरते ही शैलजा ने अमरदीप की तरफ इशारा किया। अमरदीप यूं हैड कुक की जगह आकर खड़ा हुआ कि कुक एकाएक पीछे देखता तो उस पॉट को न देख पाता जिसमें कि सूप तैयार हो रहा था।
किचन में मौजूद और लोग अपने अपने कामों में बिजी थे, किसी की भी उनकी तरफ तवज्जो नहीं थी।
शैलजा ने अपने बायें हाथ में पहनी एक बड़ी सी अंगूठी का ऊपरला भाग उमेठा तो वो एक मिनियेचर ढक्कन की तरह खुल गया। उसने अंगूठी को पॉट के ऊपर करके हाथ को उलटा तो अंगूठी में से सफेद रंग का बारीक पाउडर सा निकल कर सूप में जा पड़ा। उसने अंगूठी का ढक्कन बन्द किया और एक लकड़ी की कड़छी उठाकर सूप में फिरा दी।
सफेद पाउडर सूप में पूर्णतया विलीन हो गया।
हैड कुक वापिस लौटा। उसने थोड़ा सा सूप सैम्पल बॉटल में डाल कर बॉटल शैलजा को सौंपी और बाकी का सूप सूप बाउल में पलटा। उसने सूप बाउल को एक प्लेट में रखा और प्लेट को ले जाकर सर्विस विंडो पर रख दिया जहां से सूप को आगे कस्टमर की टेबल तक बढ़ाना वेटर का काम था।
“हमारी इन्स्पेक्शन खत्म हुई।” — एकाएक शैलजा बोली — “हम चलते हैं।”
“सब ठीक था न, मैडम?” — हैड कुक बोला।
“हां। ठीक ही लगा। बाकी देखेंगे सैम्पल क्या कहते हैं!”
“सैम्पल भी ठीक निकलेंगे।”
“बहुत गारन्टी से कह रहे हो!”
“जी हां। बहुत गारन्टी से कह रहा हूं।”
“लेकिन वो कम्पलेंट...”
“या तो झूठी है या कोई ऐसा इत्तफाक हो गया है जो कि लाखों में एक बार होता है।”
“ओके। थैंक्यू।”
“मैनेजर से मिल के जाइयेगा।”
“हां।”
शैलजा और अमरदीप किचन से निकले और बाहर हॉल में पहुंचे।
शैलजा ने शुक्ला की टेबल की तरफ निगाह दौड़ाई तो उसने पाया कि शुक्ला अपनी वाइन खत्म कर चुका था लेकिन उसका सूप अभी उसके सामने नहीं पहुंचा था।
शैलजा की निगाह अनायास ही सर्विस विंडो की तरफ उठ गयी।
वहां सूप मौजूद नहीं था।
आतंकित भाव से उसने इधर उधर देखा तो एक वेटर को उसने वही सूप का बाउल एक अधेड़ महिला को सर्व करते पाया।
सत्यानाश!
अधेड़ महिला बड़े अनिश्चित भाव से उस सूप में झांक रही थी जो कि उसे सर्व किया गया था।
तभी एक स्टीवार्ड लपकता हुआ महिला की टेबल पर पहुंचा, उसने बिना कोई क्षमायाचना किये झपट कर महिला के सामने से सूप उठाया और उसे वापिस वेटर की ट्रे पर रखा। वेटर को देखता वो निगाहों से भाले बर्छियां बरसा रहा था और दांत पीसता शुक्ला की टेबल की तरफ इशारा कर रहा था।
शैलजा की जान में जान आयी।
वेटर की बेवकूफी ने बेड़ागर्क करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी लेकिन शुक्र था कि काबिल, होशियार और सावधान स्टीवार्ड ने स्थिति सम्भाल ली थी।
सूप शुक्ला को सर्व हुआ।
शुक्ला हर घूंट का आनन्द लेता सूप पीने लगा।
पांच मिनट में उसने सूप बाउल खाली कर दिया।
तत्काल — इस बार स्टीवार्ड की पैनी देख रेख में — वेटर ने उसे उसका बाकी का आर्डर सर्व किया।
शुक्ला ने सबसे पहले फिश की प्लेट अपनी तरफ खींची और छुरी, कांटा उठाया।
फिर एकाएक उसके चेहरे पर ऐसे भाव आये जैसे किसी ने उसकी छाती पर घूंसा मारा हो। छुरी, कांटा उसके हाथों से निकल कर टेबल पर जा गिरे और उसने दोनों हाथों से अपना गला थाम लिया।
तभी मुकेश बजाज अपनी टेबल से उठा और लपक कर शुक्ला की टेबल पर पहुंचा।
“मैं डाक्टर हूं।” — बजाज बोला — “क्या खिला दिया आपने इन्हें?”
स्टीवार्ड का चेहरा फक था, वो तड़पते शुक्ला पर एक निगाह डालता था तो लगता था कि वो शुक्ला से पहले मर कर गिर जाने वाला था।
तभी शुक्ला ने जोर की उलटी की।
स्टीवार्ड के रहे सहे होश भी उड़ गये। इतने मुअज्जिज कस्टमर के साथ तो जो बीत रही थी, बीत रही थी, उस उलटी की वजह से अब रेस्टोरेंट की साख भी मिट्टी में मिल जाने वाली थी।
“क्या खाया इन्होंने?” — बजाज ने फिर पूछा।
“कुछ भी नहीं।” — स्टीवार्ड आतंकित भाव से बोला — “अभी तो सिर्फ सूप पिया था।”
“कौन सा सूप?”
“चिकन स्वीटकार्न मशरूम।”
“चिकन? नो। स्वीटकार्न? नो। मशरूम? यस। जरूर इनकी ये हालत मशरूम्स की वजह से हुई।”
तड़पते शुक्ला का सिर मेज पर जा लगा और वो रह रहकर यूं तड़पने लगा जैसे कोई उसे कोड़े मार रहा हो।
“लेकिन हमारे मशरूम्स तो एकदम फ्रैश....”
“फ्रैश मशरूम्स भी जहरीले निकल आते हैं।”
“ओह, नो!”
“सारे लक्षण गम्भीर फूड प्वायजनिंग के हैं जो कि मशरूम्स से ही पैदा हुई हो सकती है।”
तभी मैनेजर दौड़ा दौड़ा वहां पहुंचा।
“मैं मैनेजर हूं।” — वो हांफता सा बोला।
“अच्छा हुआ आप आ गये।” — बजाज बोला — “आपका स्टीवार्ड तो फालतू बातों में वक्त जाया कर रहा था।”
“आप...”
“मैं डाक्टर हूं। डाक्टर बजाज।” — उसने जेब से एक छोटा सा नोट पैड और बाल पैन निकाला, नोट पैड पर एक नम्बर घसीटा और वरका फाड़ कर मैनेजर को थमाता हुआ बोला — “ये मेरे नर्सिंग होम का इमरजेन्सी नम्बर है। इस पर फोन करके कहिये कि खुद डाक्टर बजाज ने यहां एम्बूलेंस मंगवाई है। कम आन। गैट गोईंग आन दि डबल।”
मैनेजर चिट लिये क्लर्क की मेज पर रखे फोन की तरफ लपका।
उस दौरान शैलजा और अमरदीप चुपचाप वहां से खिसक गये थे। उस हंगामे में किसी ने भी उनकी तरफ कोई ध्यान नहीं दिया था।
शुक्ला बदस्तूर तड़प रहा था।
बजाज ने उसकी कलाई थामी, कलाई में नब्ज तलाश की और गम्भीरता से बोला — “हूं।” — उसने घड़ी देखते हुए नब्ज गिनी और फिर कलाई छोड़ता पहले से ज्यादा गम्भीरता से बोला — “हूं।”
तमाम दर्शक उसकी हर हरकत से बहुत प्रभावित दिखाई दे रहे थे।
एकाएक भड़ाक से दरवाजा खुला और आर्डरली की सफेद यूनीफार्म पहने हुकमनी और उसके जैसा ही उसका ताराचन्द नाम का एक जोड़ीदार भीतर दाखिल हुए। दोनों एक स्ट्रेचर सम्भाले थे जिस पर बड़ी फुर्ती से उन्होंने शुक्ला को लिटाया और बाहर को लपके।
बाहर ऐन दरवाजे के सामने एक ऐम्बूलेंस खड़ी थी।
तभी अपने एक दोस्त के साथ जगत नारायण रेस्टोरेंट के दरवाजे पर पहुंचा।
जगत नारायण शुक्ला का जिगरी दोस्त था।
लंच करने के इरादे से संयोगवश ही वो वहां पहुंचा था।
उसने स्ट्रेचर पर पड़े तड़पते शुक्ला को देखा तो उसके छक्के छूट गये।
“क्या हुआ?” — वो आतंकित भाव से बोला।
किसी ने जवाब न दिया।
स्ट्रेचर को एम्बूलेंस में लादा जाने लगा।
“अरे, ये मिस्टर शुक्ला हैं। मेरे दोस्त हैं। क्या हुआ इन्हें?”
दोनों स्ट्रेचर से फारिग हुए तो हुकमनी आगे एम्बूलेंस की ड्राइविंग सीट पर जा बैठा और ताराचन्द पीछे दरवाजा थामे खड़ा बजाज के भीतर सवार होने की प्रतीक्षा करने लगा।
बजाज लपक कर पीछे सवार हुआ।
उसके पीछे ताराचन्द भी भीतर दाखिल हुआ और दरवाजे के दोनों पल्ले थाम कर उन्हें बन्द करने लगा।
“सॉरी, फ्रेंड।” — जगत नारायण अपने साथी से बोला — “नो लंच। बैटर लक नैक्स्ट टाइम।”
और वो छलांग मार कर एम्बूलेंस के बन्द होते दरवाजे से भीतर दाखिल हो गया।
“अरे, अरे!” — ताराचन्द हकबकाया — “ये क्या कर रहे हैं आप?”
तब तक एम्बूलेंस हरकत में आ चुकी थी।
“आपका पेशेंट मेरा जिगरी दोस्त है।” — जगत नारायण बोला — “मैं इसके साथ जाऊंगा।”
“कहां साथ जायेंगे?”
“जहां आप इसे ले के जायेंगे।”
ताराचन्द बौखलाया, उसने व्याकुल भाव से बजाज की तरफ देखा।
बजाज भी घबराये बिना न रह सका।
तौबा! खड़े पैर ये क्या मुसीबत आन पड़ी थी!
“आप एम्बूलेंस में नहीं जा सकते।” — फिर वो सख्ती से बोला — “आप एम्बूलेंस के पीछे पीछे आ सकते हैं। उतरिये।”
“अरे! एम्बूलेंस तो चल रही है। चलती में से छलांग लगा दूं?”
“मैं रुकवाता हूं।”
“कोई फायदा नहीं होगा। मैं नहीं टलने का।”
“आप हैं कौन?”
“बोला न, शुक्ला का दोस्त हूं।”
“वो तो आप हुए। असल में कौन हैं आप?”
“मेरा नाम जगत नारायण है। मैं हिन्दोस्तान टाइम्स का सीनियर एडीटर हूं।”
बेड़ा गर्क! अखबारवाला! वो भी बड़े अखबार का बड़ा अखबारवाला!
तब तक एम्बूलेंस फुल स्पीड पर सड़क पर दौड़ने लगी थी।
बजाज ने आंखों आंखों में ताराचन्द को आश्वासन दिया और उसे टिक के बैठने का इशारा किया।
ताराचन्द बैठ तो गया लेकिन बेचैनी से बार बार पहलू बदलने से खुद को न रोक सका।
एम्बूलेंस की खिड़कियां पर हरे पर्दे पड़े हुए थे। जगत नारायण ने एक पर्दा हटाकर बाहर झांका।
“हम कहां जा रहे हैं?” — एकाएक वो बोला।
“खामोश बैठिये।” — बजाज बोला।
“फिर भी पता तो चले कुछ? ये कौन से हस्पताल की एम्बूलेंस है?”
जवाब देने की जहमत से बचने के लिये बजाज ने एम्बूलेंस के मैडीकल बाक्स में से स्टेथस्कोप निकाला और उसे कान से लगा कर शुक्ला का दिल टटोलने लगा।
“अगर” — जगत नारायण व्यग्र भाव से बोला — “इनकी हालात इतनी नाजुक है तो तुम्हें किसी करीबी हस्पताल में पहुंचना चाहिये। जैसे कि लोहिया या जय प्रकाश नारायण। तुम्हारा रुख तो इन दोनों में से किसी भी हस्पताल की तरफ नहीं है!”
बजाज ने ब्लड प्रैशर नापने का यन्त्र निकाला और उसे खोल कर शुक्ला के पहलू में रखा।
तब जगत नारायण का धीरज टूट गया।
“अरे, मैं पागल हूं जो इतनी देर से बोले जा रहा हूं?” — वो गुस्से से बोला — “मैं तुम से कुछ पूछ रहा हूं।”
“जनाब” — बजाज धीरज से बोला — “मरीज की हालत नाजुक है।”
“मुझे दिखाई दे रही है। इसीलिये पूछ रहा हूं। हुआ क्या है इन्हें?”
“फूड प्वायजनिंग।”
“तो इनके स्टामेक को पम्प करो ताकि प्वायजनस फूड मेदे से बाहर निकल सके।”
“इस एम्बूलेंस में स्टामेक पम्प नहीं है।”
“फिर तो और भी जरूरी था कि तुम किसी नजदीकी हस्पताल का या प्राइवेट नर्सिंग होम का रुख करते।” — जगत नारायण एक क्षण ठिठका और फिर बोला — “तुम कहां के डाक्टर हो?”
बजाज से जवाब देते न बना।
“अरे, बहरे हो क्या?”
“सफदरजंग का।”
“ये एम्बूलेंस वहां की है?”
“हां।”
“इतनी दूर से मंगायी?”
“नहीं। इत्तफाक से कनाट प्लेस में ही थी।”
“ओह! तो यूं कहो न कि हम सफदरजंग हस्पताल जा रहे हैं क्योंकि ये एम्बूलेंस वहां की है और तुम वहां के हो।”
“जी हां।” — उसका मुंह बन्द करने की नीयत से बजाज ने हामी भरी — “यही बात है। अब बरायमेहरबानी पर्दा बन्द कर दीजिये। बाहरी धूप की चमक से मरीज को डिस्टर्बेंस होती है।”
“ओके।”
पर्दा वापिस सरकाने से पहले जगत नारायण ने बाहर झांका तो उसे सफदरजंग मकबरे के दर्शन हुए। वो आश्वस्त हुआ कि वो सही दिशा में आगे बढ़ रहे थे। उसने पर्दा वापिस यथास्थान कर दिया।
बजाज शुक्ला का बी.पी. नापने का बहाना करता रहा।
एम्बूलेंस सायरन वाली थी इसलिये वो किसी भी ट्रैफिक सिग्नल पर बिना रुके बहुत तेज रफ्तार से आगे बढ़़ रही थी।
वो रिंग रोड के चौराहे पर पहुंची और तीर की तरह वहां से भी आगे बढ़ी।
जगत नारायण पर्दों से बाहर नहीं झांक सकता था लेकिन रफ्तार का अन्दाजा उसे बाखूबी था।
ऊपर से सफदरजंग मकबरा पार करने के बाद से एक भी बार न उसकी रफ्तार कम हुई थी और न वो कहीं रुकी थी।
लेकिन वो दायें बायें मुड़ी भी नहीं थी इसलिये लगता था कि जा वो सफदरजंग की तरफ ही रही थी।
लेकिन इतनी रफ्तार से दौड़ती एम्बूलेंस को तो अब तक वहां पहुंच गया होना चाहिये था।
एकाएक उसके चेहरे पर दृढ़ता के भाव आये, उसने एक झटके से एम्बूलेंस का पर्दा सरका कर बाहर झांका तो उसे उपहार सिनेमा की एक झलक दिखाई दी।
यानी कि सफदरजंग हस्पताल कब का पीछे छूट चुका था।
और उस वक्त एम्बूलेंस ग्रीन पार्क से गुजर रही थी।
बजाज ने ताराचन्द को इशारा किया।
ताराचन्द का सिर हौले से सहमति में हिला और फिर उसका एक हाथ मैडीकल बॉक्स की तरफ सरका जहां कि एक तीखा सर्जीकल नाइफ उपलब्ध था।
“खबरदार!”
आवाज में ऐसा कहर था कि दोनों जगत नारायण की तरफ देखे बिना न रह सके। ये देख कर दोनों सन्नाटे में आ गये कि जगत नारायण के हाथ में एक पिस्तौल चमक रही थी।
“अगर अपनी अपनी जान की सलामती चाहते हो ” — जगत नारायण आंखें निकालता बोला — “तो ड्राइवर को कहो कि गाड़ी रोके।”
दोनों पर कोई प्रतिक्रिया न हुई। उन्हें तो ये देखकर जैसे लकवा मार गया था कि एक सीधे सादे सफेदपोश साहब के पास पिस्तौल निकल आयी थी।
“मैं सिर्फ तीन तक गिनूंगा। एक...”
फिर पहले ताराचन्द के उड़े हुए हवास लौटे।
“दो...”
“हुकमनी!” — वो चिल्ला कर बोला — “गाड़ी रोक। गाड़ी रोक फौरन।”
उस अप्रत्याशित हुक्म से बौखला कर हुकमनी ने इतनी जोर की ब्रेक लगायी कि एम्बूलेंस उलटते उलटते बची।
जगत नारायण शुक्ला के ऊपर औंधे मुंह जाकर गिरा। उसका पिस्तौल वाला हाथ स्ट्रेचर की साइड से टकराया। ताराचन्द ने उस पर छलांग लगायी।
अपनी उम्र के लिहाज से व्योवृद्ध जगत नारायण ने बला की फुर्ती दिखाई। उसने न सिर्फ पिस्तौल हाथ से न निकलने दी, फुर्ती से उसका घोड़ा भी खींचा।
पिस्तौल से निकली पहली गोली तेजी से गतिशून्य होती एम्बूलेंस के पिछले भाग और ड्राइवर के केबिन के बीच के छोटे से झरोखे में से पार हुई और हुकमनी के बायें कान को छूती हुई गुजरी।
साथ ही विंड स्क्रीन का शीशा चटकने की आवाज हुई।
दूसरी गोली ताराचन्द की टांग में लगी।
तीसरी गोली एम्बूलेंस की छत से कहीं टकराई।
चौथी गोली चलाने का मौका जगत नारायण को न मिला। अपनी जख्मी टांग के बावजूद ताराचन्द ने उस पर छलांग लगा दी और उसका पिस्तौल वाला हाथ दबोच लिया। उसने अपनी एक उंगली ट्रीगर के पीछे यूं घुसेड़ दी कि अब जगत नारायण घोड़ा नहीं खींच सकता था।
“मुकेश!” — ताराचन्द चिल्लाया — “मुकेश!”
बजाज की चेतना को जोर का झटका लगा। उसने किसी हथियार के लिये दायें बायें हाथ मारा तो उसके हाथ ब्लड प्रैशर नापने का यन्त्र लगा। उसने यन्त्र की लम्बी थैली खोली और उसे ताराचन्द की पकड़ में छटपटाते जगत नारायण की गर्दन के गिर्द लपेट दिया। फिर उसने नीचे लटकते रबड़ के बल्ब को थामा और तेजी से उसमें हवा भरने लगा। तत्काल थैली फूलने लगी। वो तेजी से बल्ब को दबाता छोड़ता दबाता गया। हवा से थैली फूलने लगी तो वो जगत नारायण के गले पर कसने लगी। जगत नारायण का चेहरा लाल होने लगा, उसकी आंखें बाहर को उबलने लगीं। वो ताराचन्द की पकड़ से आजाद होने के लिये तड़पने लगा।
बजाज पागलों की तरह हवा भरता रहा।
आखिरकार जगत नारायण का शरीर शिथिल पड़ा। पिस्तौल पर से उसकी उंगलियों की पकड़ अपने आप ही ढीली पड़ गयी और पिस्तौल सरक कर नीचे एम्बूलेंस के फर्श पर जा गिरी।
ताराचन्द की पकड़ भी तब तक अपने आप ही ढीली हो चुकी थी। तब उसे अपनी टांग का मुआयना सूझा। इस अहसास ने उसे बहुत राहत दिलाई कि गोली हड्डी से नहीं टकराई थी, वो मोटे मांस को फाड़ती आर पार गुजर गयी थी, अलबत्ता अब खून बेतहाशा बह रहा था।
बजाज को जब दिखाई दे गया कि जगत नारायण की आंखें पथरा चुकी थीं तो तब उसने रबड़ के बल्ब को छोड़ा।
फिर उसका ध्यान घायल ताराचन्द की तरफ आकर्षित हुआ।
“क्या हुआ?” — वो बोला।
“जांघ में गोली लगी।” — ताराचन्द कराहता हुआ बोला — “नयी पतलून का सत्यानाश हो गया। आज ही पहली बार पहनी थी।”
“साले, पतलून की पड़ी है? शुक्र नहीं मनाता कि मरने से बच गया?”
“मरने से बच गया तभी तो पतलून की पड़ी है।”
“हुकमनी!” — बजाज चिल्लाया।
“हां।” — आवाज आयी।
“गाड़ी चला।”
“पीछे सब खैरियत है?”
“सब नहीं। ताराचन्द को गोली लगी है लेकिन वो खतरे से बाहर है।”
“और वो आदमी?”
“मर गया।”
“ओह!”
तत्काल एम्बूलेंस का इंजन गर्जा और उसने फिर सड़क पकड़ी।
बजाज ने अपनी टाई उतार कर उसे रस्सी की तरह ताराचन्द की जांघ पर जख्म से थोड़ा ऊपर करके बान्ध दिया।
तत्काल भल भल करके बहता खून रुका।
तूफानी रफ्तार से एम्बूलेंस अपनी मंजिल की ओर दौड़ चली।
जो कि छतरपुर वाला फार्म थी।
हाशमी ने वाल क्लॉक पर निगाह ड़ाली जो कि दो बज कर दस मिनट बजा रही थी और फिर उठ खड़ा हुआ। वो रिसेप्शनिस्ट के करीब पहुंचा और उसने अर्थपूर्ण भाव से वाल क्लॉक की तरफ निगाह डाली।
“साहब वक्त के बहुत पाबन्द हैं।” — उसकी निगाह का मन्तव्य समझती वो बोली — “ऐसा पहले कभी नहीं हुआ कि वो दो बजे लंच से वापिस न लौटे हों।”
“मुझे इन्तजार से कोई गिला नहीं, मैडम” — हाशमी बोला — “लेकिन शुक्ला साहब के लिये मेरे पास जो मैसेज है, वो ही पसन्द नहीं करेंगे कि वो उन्हें देर से मिले।”
“फिर आप ऐसा क्यों नहीं करते, आप उस रेस्टोरेंट में क्यों नहीं चले जाते जहां कि साहब लंच के लिये गये हैं? अगर वो वहां मिल जायें तो ठीक है वरना यहीं लौट आइयेगा।”
“बहुत माकूल राय दी आपने। नाम बताइये रेस्टोरेंट का?”
“सूजी वांग। करीब ही है। मुश्किल से...”
“मालूम है मुझे। मै देखता हूं।”
मन ही मन रिसेप्शनिस्ट को कोसता, कि क्यों उसने पहले ही उसे वो राय नहीं दी थी, वो वहां से रुखसत हुआ।
खामखाह सवा घन्टा बर्बाद हो गया।
फार्म हाउस में शुक्ला को, जो कि रास्ते में पता नहीं कब बेहोश हो गया था, होश में लाया गया।
वो एक काफी बड़ा कमरा था जिसकी दो दीवारों में बड़ी बड़ी खिड़कियां थीं लेकिन उन पर भारी पर्दे पड़े हुए थे। कमरे में रोशनी का साधन एक छत से लटकता शेड वाला बल्ब था जो कि कमरे के उसी भाग को रोशन कर रहा था जहां कि एक ऊंची टेबल पर शुक्ला पड़ा था। उसके करीब एक पहलू में शैलजा और अमरदीप खड़े थे और दूसरे में बजाज खड़ा था।
एम्बूलेंस बाहर फार्म हाउस की पोर्टिको में खड़ी थी।
ताराचन्द को झामनानी के निर्देश पर हुकमनी मालवीय नगर के एक प्राइवेट नर्सिंग होम में लेकर गया था।
कमरे में एक कोने में लगे एक सोफे पर झामनानी, भोगीलाल और पवित्तर सिंह मौजूद थे। अपनी स्थिति से वो टेबल पर पड़े शुक्ला का नजारा बाखूबी कर सकते थे अलबत्ता उधर से उनकी तरफ निगाह दौड़ाई जाती तो तीन साये ही — वो भी बड़ी मुश्किल से — दिखाई देते।
शुक्ला ने एक बार असमंजसपूर्ण भाव से अपने चारों तरफ देखा और फिर उठ कर बैठ गया।
“मैं कहां हूं?” — वो कांपते स्वर में बोला।
“शुक्ला साहब ” — बजाज मीठे स्वर में बोला — “आप अपने आपको दोस्तों में समझिये।”
“तुम मुझे जानते हो?”
“जी हां। तभी तो नाम लेकर पुकारा।”
“तुम तो... तुम तो सूजी वांग में थे! डाक्टर बता रहे थे अपने आपको!”
“जी हां।”
“क्या हुआ था मुझे? वो सूप... उसमें कोई खराबी थी?”
“थी नहीं, पैदा की गयी थी।”
“क्या मतलब?”
“आपके सूप में एक ऐसी दवा मिलाई गयी थी जो कि ऐन फूड प्वायजनिंग के लक्षण पैदा करती है। उस दवा से इंसान की हालत मरने जैसी हो जाती है लेकिन मरता नहीं। सबूत आप खुद हैं जो कि सही सलामत यहां मौजूद हैं। वो दवा पौने से एक घन्टे तक अपना गम्भीर ड्रामा पेश करती है और फिर अपने आप उसका असर घटने लगता है। हमें आप से बात करने की जल्दी थी इसलिये उसका एन्टीडोज आपको दिया गया था वरना और आधे घन्टे में आप खुद-ब-खुद ही भले चंगे हो जाते।”
“तुम लोगों ने मेरा अगवा किया?”
“हां।”
“दिन दहाड़े? एक भरे पूरे रेस्टोरेंट में से?”
“जी हां।”
“इतना फैंसी तरीका आजमाने की वजह? मैं कोई नेता हूं जो कि मेरे साथ चार बाडीगार्ड चलते होते? रात को किसी वक्त अकेला पाकर मुझे वैसे ही पकड़ लाते तो क्या प्राब्लम थी?”
“दो प्राब्लम थीं?”
“क्या?”
“एक तो पता नहीं कौन सी रात को आप अकेले पाये जाते! और मेरे साहब लोगों को इन्तजार की आदत नहीं है। उनके हुक्म की तामील करना, उनकी किसी ख्वाहिश को अमली जामा पहनाना फौरन जरूरी होता हैं।”
“आई सी।”
“दूसरे, ये काम अगर सीधे सीधे किया जाता तो आपको मेरे साहब लोगों की ताकत और उनकी सलाहियात का अन्दाजा न हो पाता।”
“कौन हैं तुम्हारे साहब लोग और क्या चाहते हैं वो मेरे से?”
“शुक्ला साहब, बहुत मामूली जानकारी चाहते हैं हम आप से।”
“क्या?”
“सोहल कहां है?”
शुक्ला का दिल जोर से लरजा।
“सोहल!” — प्रत्यक्षत: वो सहज भाव से बोला — “कौन सोहल?”
“वो सोहल जिसे आप अरविन्द कौल के नाम से जानते हैं। जो अभी कल तक आपकी कम्पनी में मुलाजिम था।”
“मुझे नहीं मालूम था कि कौल सोहल जैसे किसी और नाम से भी जाना जाता था।”
“जाना तो वो दर्जन भर नामों से जाता है लेकिन उनमें से एक — सोहल — नाम से, हमें यकीन है कि, आप बाखूबी वाकिफ हैं।”
“तुम्हारा खयाल गलत है।”
“चलिये, ऐसे ही सही। आप यही बता दीजिये कि कौल कहां है? इतना हमें यकीनी तौर से मालूम है कि वो मुम्बई में है। हम आप से सिर्फ ये जानना चाहते हैं कि मुम्बई में वो कहां है?”
“क्यों? क्यों जानना चाहते हो?”
“इससे आपको कोई मतलब नहीं होना चाहिये।”
“मुझे नहीं मालूम वो कहां है! वो मेरा एक मुलाजिम था जो कि नौकरी छोड़ गया। अब मेरा उससे क्या रिश्ता बाकी रह गया?”
“दोस्ती और हमदर्दी का रिश्ता बाकी रह गया। शुक्ला साहब, हमें मालूम है कि आप कौल के एम्पलायर ही नहीं थे, दोस्त भी थे — और हैं। हिमायती भी थे — और हैं। इसलिये ये हो ही नहीं सकता कि आपको उसके मौजूदा पते की खबर न हो।”
“हो सकता है। है।”
“जनाब, आप...”
“तुम लोग क्या करोगे? एक ऐसी बात, जो मुझे नहीं मालूम, मेरे से कुबूलवाने के लिये मुझे टार्चर करोगे? जान से मार डालोगे मुझे?”
“नहीं, जनाब। न टार्चर करेंगे, न जान से मार डालेंगे। हम आपको आजाद कर देंगे ताकि आप खुद सरक सरक कर अपनी मौत के करीब पहुंचें और उसका निवाला बन जायें।”
“मैं समझा नहीं।”
“मैं अभी समझाता हूं।”
बजाज ने शैलजा को इशारा किया।
शैलजा ने सहमति में सिर हिलाया और फिर पीछे हट कर रोशनी के दायरे से बाहर निकल गयी।
जब वो वापिस लौटी तो वो अपने साथ पहियों पर खड़ा एक वैसा लम्बा स्टैण्ड लुढ़काती लायी जो कि हस्पतालों में रोगियों के बैड्स के सिरहाने मौजूद होता था। उस स्टैण्ड पर एक खून की थैली उलटी लटकी हुई थी जिस पर छपा हुआ था :
डेंजर
कनटैमिनेटिड ब्लड
एचआईवी — पॉजिटिव
खतरे की वो चेतावनी पढ़ते ही शुक्ला का चेहरा पीला पड़ गया।
बजाज के इशारे पर शैलजा ने थैली की स्टॉप कॉक को थोड़ा खोला।
तत्काल थैली में से बून्द बून्द खून टपकने लगा और टप टप करता फर्श पर गिरने लगा।
यूं जब बीसेक बून्दें गिर चुकीं तो शैलजा ने स्टॉप कॉक को पूर्ववत् बन्द कर िदया।
खून टपकना बन्द हो गया।
“शुक्ला साहब ” — बजाज बोला — “ये एड्स के रोगी के जिस्म से निकला खून है। आज के तरक्की के जमाने में इस खून को ऐसे हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है जो कि बहुत गहरी, बहुत घिनौनी मार करता है। आप हमें हमारे मतलब की बात नहीं बतायेंगे तो अभी ये खून इन्ट्रावीनस नीडल से आपके जिस्म में इन्जेक्ट कर दिया जायेगा। फिर ये आपको तड़पा तड़पा कर आपकी जान ही नहीं लेगा, आप पर थू थू भी करा देगा कि इतना शरीफ और सम्भ्रान्त लगने वाला आदमी एड्स का रोगी निकला। आपके बीवी बच्चे, दोस्त, यार सब आपके चरित्र पर लांछन लगायेंगे और आप से घोर घृणा करेंगे। लोग बाग सोचेंगे, अटकलें लगायेंगे, खयालों के घोड़े दौड़ायेंगे कि कैसे हुआ एड्स का रोग शुक्ला साहब को? बाजारी छोकरियों की संगत करते थे या छोकरों की। इस बाबत सबसे ज्यादा सिर आपकी बीवी धुनेगी जो कि आप की परछाई से भी बचने की कोशिश करेगी कि कहीं आप उसे भी एड्स न कर दें। कोई माशूक भी है तो...”
शुक्ला का धीरज छूट गया।
“बस करो।” — वो कातर भाव से बोला — “भगवान के लिये बस करो।”
“ठीक है।”
“इसे मेरी नजरों से दूर करो।”
“ये भी लीजिये।”
उसने शैलजा को इशारा किया। शैलजा ने वो स्टैण्ड परे सरकाया जिस पर टंगी थैली में एचआईवी पॉजिटिव खून तो क्या, ही नहीं था। खून जैसा लगने वाला वो तरल पदार्थ पानी में लाल रंग की डाई घोल कर और उसे टोमेटो सॉस से गाढ़ा करके बनाया गया था।
स्टैण्ड रोशनी के दायरे से बाहर निकल गया तो बजाज वापिस शुक्ला की तरफ आकर्षित हुआ।
“तो फिर...”
“मुझे उसका पता नहीं मालूम।” — शुक्ला जल्दी जल्दी बोलने लगा — “मुझे ये पता है कि वो मुम्बई में है लेकिन मुम्बई में कहां है, ये मुझे नहीं मालूम। वो मुम्बई में है, ये भी उसने मुझे खुद नहीं बताया था, बल्कि एक म्यूचुअल फ्रेंड से मालूम हुआ था।”
“फ्रेंड का नाम बोलिये।”
“योगेश पाण्डेय। उसे कौल का मुम्बई का पता मालूम हो सकता है।”
“योगेश पाण्डेय दिल्ली से गायब हो गया है। आगे बढ़िये।”
“सुमन वर्मा। उसके पास कौल अपना बच्चा छोड़ के गया हैं। उसे जरूर...”
“सुमन वर्मा इस दुनिया से गायब हो गयी है। और आगे बढ़िये।”
“और तो मुझे कुछ नहीं मालूम!”
“नीलम।” — अन्धेरे में से झामनानी बोला — “नीलम पूछ, नी।”
“नीलम कहां है?” — मुकेश बोला।
“वहीं, जहां कौल है।” — शुक्ला बोला।
“कहां? मुम्बई?”
“हां।”
“कब गयी?”
“तभी जब कौल गया।”
“बच्चा पीछे छोड़ कर?”
“हां।”
“भले ही आपको ये नहीं मालूम लेकिन उससे लम्बी एसोसियेशन की वजह से आपको कोई ऐसा जरिया जरूर मालूम होगा जिससे कि आप बावक्तेजरूरत उससे सम्पर्क साध सकते हैं।”
“वो जरिया मार्फत तुकाराम है। तुकाराम उधर चैम्बूर में...”
“छोड़िये वो भी।”
“और तो मुझे कुछ नहीं मालूम!”
“पक्की बात?”
“हां।”
बजाज वहां से हटा और बिरादरीभाइयों के करीब पहुंचा। कुछ क्षण अन्धेरे में खुसर पुसर चली फिर वो वापिस लौटा।
“मुबारक हो, जनाब।” — वो बोला — “मेरे पास आपके लिये गुड न्यूज है।”
“अच्छा!” — शुक्ला आशापूर्ण स्वर में बोला।
“साहब लोग आपके जवाबों से पूरी तरह से सन्तुष्ट हैं। उन्हें यकीन है कि सोहल की बाबत आपने कुछ नहीं छुपाया है। आप जो कुछ जानते थे, सब सच सच कह चुके हैं।”
“ओह!” — शुक्ला ने चैन की सांस ली। वो सच में ही सब कुछ कह चुका था। टार्चर या मौत से वो डरने वाला नहीं था लेकिन एड्स के खयाल ने ही उसके होश उड़ा दिये थे।
“साहब लोगों का हुक्म है कि आपको घर भेज दिया जाये।” — बजाज बोला।
“शुक्रिया। तो मैं अपने घर जा...”
“अपने घर नहीं, जनाब, बड़े घर।”
“बड़े घर?”
“सबसे बड़े घर। जहां एक दिन सब ने जाना होता है।”
“क्या!”
“ये।”
बजाज ने उसे प्वायन्ट ब्लैक शूट कर दिया।
चिरागनगर के सरकारी हस्पताल की मोर्ग में तुकाराम और वागले की लाशें मौजूद थीं। इरफान, शोहाब, विक्टर और आकरे मोर्ग (मुर्दाघर) के वेटिंग हॉल में मौजूद थे।
बाहर एक मुर्दागाड़ी खास उनके लिये बुक हुई खड़ी थी। इरफान ने उसे पहले ही बता दिया हुआ था कि लाशों को चैम्बूर के श्मशान घाट पर ले जाया जाना था क्योंकि तुका के बाकी चार भाइयों का अन्तिम संस्कार भी वहीं हुआ था। पोस्टमार्टम वाला डाक्टर अपनी स्थापित रूटीन के मुताबिक ठीक बारह बजे वहां पहुंच गया था। तत्काल इरफान उससे मिला था तो डाक्टर ने उसे आश्वासन दिया था कि बावजूद इसके कि उस रोज मोर्ग में हद से ज्यादा काम था, वो उसे एक बजे तक फारिग कर देगा।
डाक्टर ने ही उसे बताया था कि पिछले तीन दिनों में वहां सोलह लाशें पहुंचीं थी। उनमें से पांच अभी भी वहां मौजूद थीं क्योंकि उनकी शिनाख्त नहीं हो पायी थी। ऐसी लाशों की शिनाख्त का एक खास वक्त तक ही इन्तजार किया जाता था और फिर उन्हें लावारिस करार देकर या तो सरकार ही उनका अन्तिम संस्कार कर देती थी या फिर उन्हें ऐसे कामों में रुचि लेने वाली किसी धर्मार्थ संस्था को सौंप दिया जाता था।
एक बज कर दस मिनट तक अपने वादे के मुताबिक डाक्टर ने उन्हें फारिग कर दिया। पोस्टमार्टम रिपोर्ट की एक कापी और सुपुर्दगी के सर्टिफिकेट के साथ लाशें उन्हें सौंप दी गयीं।
लाशों को सफेद चादरों में लपेट कर उनके सिरों को आपस में सी दिया गया था।
इरफान ने बाहर मुर्दागाड़ी वालों को संकेत किया तो उन्होंने अपनी देखरेख में लाशों को मुर्दागाड़ी में लदवाया।
आकरे और शोहाब लाशों के साथ मुर्दागाड़ी में सवार हो गये। इरफान विक्टर के साथ उसकी टैक्सी में सवार हुआ और फिर मुर्दागाड़ी और टैक्सी आगे पीछे चलती चैम्बूर के श्मशान घाट की तरफ रवाना हुईं।
इरफान पूरी तरह से सावधान और चौकन्ना था इसलिये उसे गारन्टी थी कि मुर्दाघर से कोई उनके पीछे लगता तो उसकी खबर उसे जरूर लगती।
वैसे उसे उम्मीद नहीं थी कि कोई ऐसा कदम उठाता क्योंकि पीछे मुर्दाघर में उसने इस बात को खूब प्रचारित कर दिया था कि लाशों को चैम्बूर ले जाया जाना था।
“है कोई पीछे?” — फिर भी उसने विक्टर से पूछा।
विक्टर ने इनकार में सिर हिलाया।
बढ़िया।”
मुर्दागाड़ी चैम्बूर के श्मशान घाट पहुंची।
वहां इरफान के इकट्ठे किये दस आदमी कैसी भी स्थिति के लिये — खून खराबे के लिये भी — पूरी तरह से तैयार थे। वो आदमी किसी एक जगह जमघट लगाने की जगह सारे श्माशान घाट में फैले हुए थे।
शोहाब, विक्टर और आकरे लकड़ी तुलवाने चले गये तो एक आदमी लापरवाही से टहलता हुआ पीछे अकेले रह गये इरफान के पास पहुंचा। उस आदमी का नाम बुझेकर था और वो भी इरफान की तरह तुका का खास आदमी था।
“क्या पोजीशन है?” — इरफान धीरे से बोला।
“चार पुलिस वाले यहां मौजूद हैं।” — बुझेकर बोला।
“सादे कपड़ों में?”
“जाहिर है। वर्दी में होते तो तेरे को भी दिखाई देते।”
“पहचाना कैसे?”
“मिजाज से। जूतों से। ये लोग वर्दी उतार कर सादे कपड़े पहनते हैं तो जूते भूल जाते हैं।”
“या दूसरी जोड़ी रखते ही नहीं होंगे! सरकारी माल से ही काम चलाते होंगे!”
“एक के पास वायरलैस रिसीवर है, दो के पास रिवॉल्वरें हैं।”
“चार ही जने हैं तो जरूर सोहल के अकेला पहुंचने की उम्मीद कर रहे होंगे!”
“भीतर चार जने हैं, वैसे दर्जन से ऊपर हैं।”
“बाकी कहां हैं?”
“कुछ श्मशान घाट के आफिस में बैठे हुए हैं, कुछ गेट पर हैं।”
“और?”
“और भी हैं।”
“कौन?”
“कई हैं लेकिन कौन हैं, नहीं मालूम। वो आदमी भी या तो बाहर के हैं या एक को छोड़ के ऐसे लोकल हैं जिन्हें मैं नहीं पहचानता।”
“एक को पहचानता है?”
“हां। जीवराज हुमने नाम है उसका। कभी ‘कम्पनी’ के बॉस लोगों का हुक्का भरता था, अब पता नहीं क्या करता है!”
“अब कौन सा नया कुछ करता होगा!”
“ठीक बोला। वो क्या है कि इधर एक फूं फां वाला आदमी भी है जो सूरत से बिहारी या यू.पी. वाला मालूम होता है। वो बाहर एक हरे रंग की फोर्ड एस्कार्ट में बैठा हुआ है। उसके साथ एक बहुत ही हसीन, नौजवान लड़की हैं। लड़की एक बार भी कार से बाहर नहीं निकली लेकिन वो भीतर का एक चक्कर लगा गया है। उसके भीतर आते ही कितने ही आदमी अदब से अटेंशन हो गये थे। हुमने से तो उसने बात भी की थी।”
“कौन होगा ये फूं फां वाला आदमी?”
“है कोई दादा ही लेकिन इधर का नहीं है। कहीं बाहर से आया है।”
“इन लोगों को पुलिस की खबर है?”
“होगी ही। जब हमें है तो उन्हें क्यों नहीं होगी?”
“दोनों पार्टियों का मिशन जुदा है। पुलिस की कोशिश सोहल को गिरफ्तार करने की होगी जबकि दूसरी पार्टी तो देखते ही गोली मार देने की तमन्नाई होगी।”
“इतने पुलिस वालों की मौजूदगी में?”
“मै बोला तमन्नाई... तमन्नाई होगी। हर तमन्ना तो पूरी नहीं होती न!”
“वो तो है। खासतौर पर किसी श्मशान घाट पर सोहल की लाश गिरा देने की तमन्ना।”
इरफान ने सहमति में सिर हिलाया।
“अपने पंड़ित जी कहां हैं?” — फिर वो बोला।
“यहीं हैं। जब चितायें चुन ली गयी देखेंगे तो प्रकट हो जायेंगे।”
“हूं।”
फोर्ड एस्कार्ट में जो लड़की ब्रजवासी के साथ कार की पिछली सीट पर बैठी हुई थी, उसका नाम शिवांगी शाह था। वो लगभग बाईस साल की बहुत ही हसीन और बहुत ही बढ़िया बनी हुई लड़की थी जो कि ‘भाई’ के गैंग की मुम्बई में सक्रिय सदस्या थी। उसके अलावा वो एक ऐसी हाई प्राइस्ड कालगर्ल थी जिसके रेट हर कोई अफोर्ड नहीं कर सकता था। ब्रजवासी ने असल में उसे ‘भाई’ से किसी और इस्तेमाल के लिये हासिल किया था अलबत्ता उस पर पहली निगाह पड़ते ही उस इस्तेमाल को भूल कर वो घुटनों तक लार टपकाने लगा था। वहां श्मशान घाट पर वो उसके किस काम आ सकती थी, ये बात उसके जेहन में स्पष्ट नहीं थी लेकिन फिर भी किसी अज्ञात भावना से प्रेरित होकर वो उसे वहां साथ ले आया था।
चिकनी चकोरी का साथ ही सही — उसने सोचा था।
तभी उसने हुमने को कार की तरफ बढ़़ते देखा।
ब्रजवासी ने कार का उसकी तरफ का शीशा गिरा दिया।
“बाप ” — खिड़की की करीब पहुंच कर हुमने बोला — “वो तो नहीं लगता कि आयेगा!”
“आयेगा।” — ब्रजवासी बोला — “जरूर आयेगा। ऐन मौके पर आयेगा जबकि चिता तैयार हो चुकी होगी और सिर्फ उसे आग देना ही बाकी रह गया होगा।”
“चिता तैयार है। दोनों चितायें तैयार हैं और जो लोग उनके इर्द-गिर्द मौजूद हैं, उनकी सूरतों से नहीं लगता कि उन्हें किसी का इन्तजार है।”
“ऐसा कैसे हो सकता है?”
“ऐसीच है।”
“यानी कि हमें झूठी खबर मिली थी कि सोहल तुकाराम को अपने पिता की जगह मानता था!”
“वो खबर तो सौ टांक सच है, बाप। किधर से भी पूछ लो।”
“ऐसा है तो वो जरूर आयेगा। तुका का सच में ही दुनिया में कोई नहीं है तो उसकी चिता को अग्नि देने का काम जरूर वो ही आकर करेगा।”
“बाप, उधर एक पंडित है।”
“पंडित?”
“धोती कुर्ते वाला। माथे पर तिलक, गले में जनेऊ और रुद्राक्ष की माला वाला। मुझे तो लगता है कि अन्तिम संस्कार की खातिर जो करना होगा, वो ही करेगा।”
“ऐसा कैसे हो सकता है?”
तभी कोली दौड़ता हुआ वहां पहुंचा।
“लाशें” — वो हांफता हुआ बोला — “चिता पर लिटाई जा रही हैं।”
“और सोहल?” — हुमने बोला।
“नहीं आया। उससे मिलता जुलता भी कोई नहीं आया।”
“बाप, कुछ गड़बड़।”
ब्रजवासी के माथे पर बल पड़े, उसके होंठ भिंचे। फिर वो जल्दी जल्दी शिवांगी को कुछ समझाने लगा।
“समझ गयी?” — आखिरकार वो बोला।
“हां।” — शिवांगी बेहिचक बोली।
“कर लेगी?”
“हां। आराम से।”
“हम भी तेरे ड्रामे को सहारा देंगे।”
“फिर क्या बात है!”
“अब पहुंच।”
शिवांगी कार से बाहर निकली और श्मशान घाट के भीतर की तरफ लपकी।
ब्रजवासी भी कार से निकल कर उसके पीछे हो लिया।
फिर उन दोनों के पीछे हुमने और कोली लपके।
फासले से ही उन्हें पंड़ित के हाथ में एक जलती लड़की दिखाई दी जिसे कि वो चितायें जलाने के काम में लाने के लिये तैयार था।
“ठहरिये!” — शिवांगी उच्च स्वर में बोली — “ठहरिये। भगवान के लिये ठहरिये।”
सब की निगाहें उस सुन्दरी की तरफ घूमीं जो बद्हवास सी चिताओं के प्लेटफार्म की तरफ भागी चली आयी थी।
शिवांगी करीब पहुंची तो लपक कर प्लेटफार्म पर चढ़ गयी।
“मामाजी कौन से हैं?” — वो परेशानहाल लहजे से बोली।
“मामाजी!” — इरफान के माथे पर बल पड़े।
“मधुकर राव वागले।”
“आपके मामा?”
“हां। मै उनकी बड़ी बहन की लड़की हूं। रत्नागिरी से आई हूं। पुलिस के पास गयी तो बोला गया मुर्दाघर जाओ। मुर्दाघर गयी तो बोला गया चैम्बूर के श्मशान घाट जाओ। भगवान का लाख लाख शुक्र है कि मैं वक्त पर पहुंच गयी।”
“क्या करने के लिये?”
“मामाजी के अन्तिम दर्शन के लिये। उनके पिता समान तुकाराम जी के अन्तिम दर्शन के लिये। अब जबकि मैं वक्त रहते यहां पहुंच ही गयी हूं तो मुझे अन्तिम दर्शन तो करा दीजिये। ”
शोहाब ने इरफान को कोहनी मारते हुए उसकी तरफ देखा।
“मुझे तो” — इरफान दबे स्वर में बोला — “वागले की रत्नागिरी में रहती किसी बहन की खबर नहीं!”
“बाई” — विक्टर बोला — “प्लेटफार्म से नीचे उतर जाओ ताकि पंडित जी अपना काम कर सकें।”
“मैं नहीं उतरूंगी।” — शिवांगी दृढ़ता से बोली — “मुझे मामाजी के अन्तिम दर्शन कराइये वरना...”
विक्टर ने इरफान की तरफ देखा।
“क्या वरना?” — इरफान बोला।
“वरना मैं चिता में कूद कर अपनी जान दे दूंगी।”
इरफान हकबकाया।
“पागलों जैसी बात न कर, लड़की” — शोहाब बोला — “और नीचे उतर।”
“लेकिन क्यों? क्यों? क्यों आप लोग मेरी इतनी सी विनती स्वीकार नहीं कर रहे?”
“अरे, लाशें बहुत बिगड़ी हुई हैं। तुम्हारे से सूरतें नहीं देखी जायेंगी।”
“देखी जायेंगी। देखने से मैं सदमे से मर भी जाऊं तो कोई गम नहीं।”
“अरे, लाशें कफन में सिली हुई हैं।”
“सिलाई उधेड़िये। अभी सब राख हो जाना है, फिर क्या फर्क पड़ता है कि कफन सिला हुआ है या उधड़ा हुआ है?”
“पड़ता है।” — आकरे बोला — “लाश की नाकद्री होती है। ऐसा मिट्टी खराब करने वाला काम अब नहीं किया जा सकता।”
“आप जो मर्जी कह लीजिये। मैं अन्तिम दर्शन किये बिना यहां से नहीं टलने वाली।”
“अब सब लोग खामोश हो जायें।” — एकाएक पंडित बोला।
सब खामोश हुए।
“बिटिया” — पंडित शिवांगी की तरफ घूमा — “क्या नाम है तेरा?”
“शिवांगी।”
“बेटी, तुझे गलतफहमी हुई है। जो नाम अभी तूने लिये, ये उनमें से किसी की लाशें नहीं हैं।”
“क्या!”
“हम ठीक कह रहे हैं।”
“लाशें तुकाराम और वागले की नहीं हैं?”
“नहीं हैं।”
“तो किन की हैं?”
“नाम हमें याद नहीं लेकिन इतना याद है कि नाम वागले या तुकाराम नहीं हैं। हमें लगता है कि तुम गलत जगह आ गयी हो। मुम्बई में तो दर्जनों श्मशान घाट हैं। शायद तुम कहीं और जाना चाहती थीं...”
“ओहो! तो अब ये पैंतरा बदल रहे हैं आप मेरे खिलाफ?”
“ये कोई पैंतरा नहीं है, बेटी।”
“अब तो मेरा लाशों की सूरतें देखना और भी जरूरी हो गया है।”
“तुम नादान हो और बेवजह जिद कर रही हो।”
“सब लोग कान खोल कर सुन लें। मैं लाशों की सूरतें देख कर रहूंगी। अगर किसी ने मेरे इस काम में अड़ंगा डाला तो मैं पुलिस के पास जाऊंगी।”
“ये तो हद हो गयी ढिठाई की!”
“अरे, जालिमो!” — एकाएक ब्रजवासी बोला — “लड़की को हलकान करके क्या तुम्हें कोई अन्दरूनी खुशी हासिल हो रही है? क्या तुम लोगों के दिल पत्थर के हैं जिस पर कि बेचारी के विलाप का कोई असर नहीं हो रहा?”
तब तक लापरवाही से टहलते तीन-चार पुलिसिये भी वहां पहुंच चुके थे।
“क्या हर्ज है?” — एक पुलिसिया बोला — “एक मिनट की तो बात है! यूं लड़की को कोई तसल्ली मिलती है तो मिलने दीजिये।”
“लेकिन...” — इरफान ने कहना चाहा।
“मेरा नाम इन्सपेक्टर खरे है।” — एकाएक एक दूसरा पुलिसिया अधिकारपूर्ण स्वर में बोला — “मैं आपको हुक्म देता हूं कि आप दो दो कदम पीछे हट जायें।”
हुक्म की तामील हुई।
“आप” — इन्स्पेक्टर शिवांगी की तरफ घूमा — “कीजिये जो करना चाहती हैं।”
सहमति में सिर हिलाती शिवांगी आगे बढ़़ी। उसने एक लाश के चेहरे के इर्द गिर्द से दोनों हाथों में चादर थामी और उसे एक जोर का झटका दिया। एक ही झटके में चादर के ढेरों टांके उधड़ गये।
वही सलूक उसने दूसरी चादर के साथ किया।
ब्रजवासी ने हुमने को इशारा किया।
हुमने लपक कर प्लेटफार्म पर चढ़ गया।
“ये वागले की लाश नहीं है।” — हक्का बक्का-सा वो बोला — “ये तुका की लाश नहीं है।”
“और हम क्या कह रहे थे?” — पंडित बोला।
इन्स्पेक्टर खरे ने भी दोनों लाशों का मुआयना किया।
फिर उसका चेहरा बेहद गम्भीर हो उठा।
“आप” — फिर वो कर्कश स्वर में पंडित से बोला — “इधर मेरी तरफ देखिये। ”
“फरमाइये?” — पंडित सहज भाव से बोला।
“ये लाशें तुकाराम और वागले की क्यों नहीं हैं?”
“क्यों होनी चाहियें?”
“क्योंकि... क्योंकि...”
इन्सपेक्टर से जवाब देते न बना।
“आप कौन हैं?” — फिर वो बोला।
“हमारा नाम पंडित भोजराज शास्त्री है। हम मलाड के आचार्य बैकुण्ठ राव अचरेकर द्वारा संस्थापित विधवा आश्रम के वर्तमान संचालक हैं। बूढ़ी माइयों की सेवा के अलावा जो सामाजिक और धार्मिक जिम्मेदारी हमने अपने ऊपर ली है, वो लावारिस मरने वाले हिन्दु भाइयों का गरिमा, मर्यादा और सम्मान के साथ अन्तिम संस्कार कराना है।”
“ये लावारिस लोगों की लाशें हैं?”
“जी हां। दोनों बेचारे रेल से कट कर मरे।”
“फिर तो पोस्टमार्टम हुआ होगा? डैथ सर्टिफिकेट जारी हुआ होगा?”
“हां।”
“दिखाइये।”
पंडित ने इरफान की तरफ इशारा किया तो उसने वो कागजात इन्स्पेक्टर को सौंपे।
“ये लोग कौन हैं?” — इन्स्पेक्टर ने पूछा।
“वालंटियर हैं। सेवा कार्य में रुचि रखते हैं। हमारी निशुल्क, निस्वार्थ सहायता करते हैं।”
“हूं। इन कागजात में तो इनके नाम दिनेश धीमरे और सत्यनारायण गुहा लिखे हैं!”
“शुक्र है ठीक से लिखा पढ़ लिया आपने, वरना कहते कि तुकाराम और वागले लिखे हैं।”
“पंडित जी, पंडित जी, आप खुदा के बन्दे हैं, यूं तंज कसना आपको शोभा नहीं देता।”
पंडित खामोश रहा।
“आपने” — इन्स्पेक्टर बोला — “मृत्यु पंजीकरण रजिस्टर में ये नाम लिखवाये हैं?”
“बताओ, भई।” — पंडित बोला।
“जी हां।” — आकरे बोला — “नाम लिखाये बिना तो लकड़ी नहीं मिलती। वहां तो पहले रजिस्ट्रेशन कराना पड़ता है और फिर...”
ऐन उसी वक्त वहां से कई मील दूर वरसोवा की मछुआरों की बस्ती में बने लगभग खाली श्मशान घाट में विमल तुका और वागले का अन्तिम संस्कार करा रहा था।
जिन्होंने कभी माता वैष्णोदेवी के दरबार में उसकी और नीलम की शादी करवाई थी और उन्हें नयी जिन्दगी दी थी, उन्हें वो चिता की लपटों के हवाले कर रहा था।
भाग्य की कैसी विडम्बना थी कि उसकी और सिर्फ उसकी खातिर बारी बारी तुका के चार भाइयों ने अपनी जान दी थी और खुद वो तुका को कभी कुछ नहीं दे सका था। उसकी हिफाजत तक नहीं कर सका था। कभी तुका ने उसके मुर्दा जिस्म में जान फूंकी थी, कल वो तुका की जिन्दगी के चिराग को बुझने से नहीं रोक पाया था। तुका के पास उसे देने के लिये जिन्दगी जैसा नायाब तोहफा था और खुद वो मौत का ताजिर था।
एकाएक उसके कानों में तुका की आवाज गूंजी :
इंसान की पहचान इस बात से भी होती है कि वो ही विपरीत परिस्थियों को अपने अनुकूल बना सकता है। पशु ही परिस्थितियों के अनुकूल होते हैं, बेटा, इंसान नहीं। वक्त की मार के आगे हथियार डाल कर परिस्थितियों के अनुकूल बनते चले जाने की कोशिश न कर बल्कि परिस्थितियों को अपने अनुकूल बना कर दिखा। हालात से जूझने की कूवत पैदा कर अपने में। हौसलामन्द बन। कमजोर न बन। नाउम्मीद न हो। हिम्मत न हार। उठ कर अपने पैरों पर खड़ा हो और दुश्वारियों से हाथ मिला। बादलों की तरह गरज। सोते से जाग जा। खड़ा हो जा। खड़े का खालसा बन जा।
नीलम ने हौले से विमल के कन्धे पर हाथ रखा।
विमल उठ कर खड़ा हुआ।
उसने एक निगाह आग के धधकते शोलों पर डाली और फिर बोला — “मैं आऊंगा। मैं आऊंगा, तुका, मैं आऊंगा। तू मेरे से दूर नहीं जा सकता। तू नहीं आ सकता तो मैं आऊंगा।”
नीलम ने उसकी बांह पकड़ कर खींची।
विमल उसके साथ खिंचता चला गया।
“लानत!” — ब्रजवासी कलप रहा था — “सौ बार लानत! कितनी आसानी से बेवकूफ बन गये हम लोग! कैसे सहज ही उल्लू बना दिया गया हमें!”
“बाप” — हुमने दबे स्वर में बोला — “उन हालात मे कोई दूसरा भी होता तो ऐसीच उल्लू बनता।”
“नहीं बनता। वो लाशें क्लेम करने वालों की जगह लाशों पर निगाह रखता तो नहीं बनता। वो इस बात पर भी शक करता कि क्यों वहां मुर्दाघर में बहानों से इस बात का जिक्र किया जा रहा था कि अन्तिम संस्कार के लिये लाशों को चैम्बूर के श्मशान घाट पर ले जाया जाना था। ऐसा इसलिये किया गया था ताकि हम अपनी सारी तवज्जो वहीं लगा देते। हमने मुर्दागाड़ी वहां पहुंचती देखी, उन लोगों को वहां पहुंचते देखा जो लाशों की सुपुर्दगी के लिये मुर्दाघर पर मौजूद थे तो हम कूद कर इस नतीजे पर पहुंच गये कि लाशें तुकाराम और वागले की थीं और लगे इन्तजार करने सोहल के वहां नुमायां होने का। तौबा! क्योंकर हमने सोच लिया था कि सोहल को मारना इतना आसान था! वो ऐसी छोटी छोटी बातों में फंसने वाला बन्दा होता तो अब तक सौ बार मर चुका होता। हम वहां चैम्बूर में डुप्लीकेट लाशों के साथ उल्लू बनते रहे और वो चुपचाप पता नहीं कहां अपने मोहसिनों का अन्तिम संस्कार कराता रहा।”
हुमने को ये बात बड़ी राहत दे रही थी कि उस वाकये का तबसरा करते वक्त वो ‘हम’ का इस्तेमाल कर रहा था, नाकामी के लिये उन पर गरज बरस कर उन्हें जिम्मेदार नहीं ठहरा रहा था।
“हमारी सोच बहुत ठीक थी” — ब्रजवासी बोला — “कि तुका की गति कराने सोहल आयेगा लेकिन अफसोस कि इतनी उम्दा बात को हम कैश न कर सके। हमने ये न सोचा कि जो बात हमें सूझी थी वो सोहल को भी सूझनी थी और फिर उसने उसका कोई तोड़ जरूर निकालना था। कल के एयरपोर्ट के वाकये की कामयाबी से बौरा कर हमने अपने आपको बहुत ज्यादा करके आंका और सोहल को बहुत कम करके आंका। ऐसा न होता तो हम उस रास्ते न चल दिये होते जो कि हमें दिखाया गया।”
“बाप” — हुमने दबे स्वर में बोला — “कौन सोच सकता था कि मुर्दाघर से यूं खड़े पैर दो जुदा लाशें हासिल की जा सकती थीं! ये भी तो हो सकता था कि आज उस मुर्दाघर में तुका और वागले की लाशों के अलावा और कोई लाश मौजूद ही न होती!”
“क्यों नहीं! क्यों नहीं!” — तब पहली बार ब्रजवासी चिढ़ कर बोला — “होने को तो ये भी हो सकता था कि सोहल पर बिजली गिर पड़ती, ये भी हो सकता था कि वो रात को सोता तो सुबह उठ न पाता, या उसे मलेरिया या टाईफाइड हो जाता जो कि जानलेवा साबित होता। ठीक?”
हुमने के मुंह से बोल न फूटा।
“वाह! क्या कहानी गढ़ी! लावारिस लाशों का क्रियाकर्म कराने का परोपकारी काम करते हैं वो साले पंडित भोजराज शास्त्री जी! पता नहीं मलाड में ऐसा कोई विधवा आश्रम है भी या नहीं जिसका कि वो अपने आपको संचालक बताता था।”
“है, बाप।”
ब्रजवासी ने घूर कर उसे देखा।
“मेरे को मालूम। पहले वो आश्रम अचरेकर करके एक बूढा भीड़ू चलाता था जिसे कि गजरे साहब के हुक्म से जो लोग मलाड से होटल सी-व्यू में पकड़ कर लाए थे उनमें से एक लोग मैं भी था। गजरे साहब अचरेकर से सोहल का पता पूछना मांगता था पण पता बताने की जगह उसने शीशे से अपना गला काट कर सब के सामने खुदकुशी कर ली थी ताकि सोहल की बाबत पूछताछ का वो सिलसिला किसी मुकाम पर न पहुंच पाता।”
“हूं। तो वो भी, जिसे तू अचरेकर बोला, सोहल का कोई हिमायती था?”
“बड़ा तगड़ा। तभी तो सोहल का पता बोलने की जगह जान दे दी।”
“कमाल है! फिर तो ये आदमी जादूगर हुआ! जरूर उसका ऐसा ही जादू उस पंडित भोजराज शास्त्री पर भी सवार था जो वो हमें धोखा देने की साजिश में शरीक हुआ!”
“बाप, जरूरी नहीं है उसे अन्दरूनी बात मालूम हो। वो सच में ही परोपकार का वो काम करता है।”
“और उसके साथ जो लोग वहां जमा थे, वो सच में ही वालंटियर थे?”
“हो सकता है, बाप।”
“यानी कि जरूरी नहीं कि वो भी सोहल का अचरेकर जैसा ही मुरीद हो और उसका मौजूदा अतापता जानता हो?”
“हां, बाप।”
“यानी कि सोहल तक पहुंचने के लिये उस पर हाथ डालना बेकार है?”
“हां, बाप। दोनों तरीकों से।”
“दोनों तरीकों से?”
“या तो वो कुछ जानता नहीं होगा, जानता होगा तो बतायेगा नहीं।”
“वो बूढ़ा आदमी?”
“अचरेकर उससे भी बूढ़ा था, बाप। अस्सी के पेटे में था।”
“यानी कि और चन्द दिनों में वैसे ही मर जाने वाला था। इसीलिये खुदकुशी करना गवारा कर सकता था। वो पंडित तो अभी साठ से भी नीचे जान पड़ता था। अव्वल तो वो तेरे अचरेकर जैसी कोई कोशिश करेगा नहीं, करेगा तो हम उसकी कोशिश कामयाब नहीं होने देंगे। तेरे साहब गजरे को नहीं पता था कि अचरेकर खुदकुशी कर लेगा वरना वो इस बाबत यकीनन कोई एहतियात बरतता। हमें पता है। हम एहतियात बरतेंगे।”
“साहब।” — टोकस दबे स्वर में बोला।
“हां।”
“मायाराम के बयान में किसी पंडित भोजराज शास्त्री का जिक्र नहीं था।”
“किसी अचरेकर का भी जिक्र नहीं था।”
“वो शायद इसलिये नहीं था क्योंकि वो मर चुका था।”
“लगता है मेरी पलटन में से कोई उस पंडित पर हाथ डालने के हक में नहीं है।”
कोई कुछ न बोला।
“ठीक है। बाद में देखेंगे इस पंडित को। जब तक और रास्ते हमारे सामने खुले हैं, तब तक उसे अभयदान।”
हुमने और कोली ने साफ साफ चैन की सांस ली।
तभी फोन की घन्टी बजी।
ब्रजवासी ने फोन रिसीव किया। वो कुछ क्षण फोन पर हां हूं करता रहा और फिर उसे वापिस क्रेडल पर रख दिया।
“अच्छी खबर है।” — फिर वो बोला।
सब की प्रश्नसूचक निगाहें उस पर टिकीं।
“दिल्ली से फोन था” — ब्रजवासी बोला — “अच्छी खबर है। सोहल का एक और अंग भंग हो गया।”
“जी!” — टोकस बोला।
“उसके एक और हिमायती का काम तमाम हो गया।”
“किसका?”
“गैलेक्सी वाले शुक्ला का।”
“ओह!”
“अब हमने भी अच्छी खबर दिल्ली भेजनी है।” — ब्रजवासी शिवांगी कर तरफ घूमा — “सुन रही है?”
“हां।”
“आज ही की तारीख में!”
“यस, डैडी। आज ही की तारीख में।”
विमल होटल सी-व्यू में दिल्ली से काल के इन्तजार में टेलीफोन के सिरहाने मौजूद था।
चार बजने में अभी वक्त था।
उसने शोहाब को बुलाया।
“कल क्या हुआ?” — उसने पूछा।
“कल अपने फिक्स्ड टाइम पर हमारा आदमी उधर नहीं पहुंचा था।” — शोहाब बोला।
“अच्छा! तो फिर तुमने क्या किया?”
“एक तो मैंने सात नम्बर कमरा ही देखा जो कि छोटा अंजुम की गैरहाजिरी की वजह से कल ग्यारह बजे के बाद भी अवेलेबल था।”
“क्या देखा?”
“कोई खास खूबी नहीं है उसमें, सिवाय इसके कि वो थोड़ा बड़ा है, उसमें एक रेफ्रीजरेटर रखा है और उसके कदरन बड़े बाथरूम में सौना बाथ (SUANA BATH) फिक्स है।”
“बस?”
“उसकी एक खिड़की इमारत के पिछवाड़े की गली में खुलती है। लेकिन खिड़की में लोहे की मजबूत ग्रिल फिक्स है।”
“यानी कि अगर कोई खास जरूरत आन पड़े — जैसे कि उधर पुलिस की रेड हो जाये — तो उस खिड़की को वहां से निकासी का जरिया नहीं बनाया जा सकता?”
“नहीं बनाया जा सकता।”
“और?”
“और मैंने वहां हासिल कालगर्ल सर्विस का सिस्टम और इंतजाम स्टडी किया। यूं एक खास बात मेरी जानकारी में आयी।”
“क्या?”
“वहां लोग ग्रुप में जाते हैं — जैसे परसों हम तीन जने गये थे — तो ऊपर पहुंचने के बाद अगर उनका मन चाहे तो वो लड़कियों की आपस में अदल बदल भी कर लेते हैं। ऐसी ख्वाहिश होने पर वो अपनी पसन्द की लड़की के पास चले जाने को और अपनी लड़की को दूसरे के हवाले कर देने को आजाद हैं।”
“इससे हमें क्या फायदा?”
“फायदा है न, सर! यूं बावक्तेजरूरत सात नंबर कमरा हासिल होना ज्यादा मुमकिन हो जाता है।”
“मैं अभी भी नहीं समझा।”
“फर्ज कीजिये हम चार जने उधर जाते हैं, नीचे से चार लड़कियां पसन्द करके ऊपर पहुंचते हैं तो ग्यारह बजे से पहले किसी वक्त हममें से किसी के तो पल्ले सात नम्बर कमरा पड़ने की सम्भावना होगी! अगर ऐसा हो जाता है तो वो कमरा हममें से किसी को भी हासिल हो, आप वहां जा सकते हैं और दूसरा जना आपके कमरे में जा सकता है।”
“वहां बारह कमरे हैं। हो सकता है हम चारों में से भी किसी को सात नम्बर कमरा न मिले।”
“कभी तो ऐसा इत्तफाक होगा, जनाब, कि वो कमरा हममें से किसी को मिल जायेगा! घन्टावार शिफ्टों में से एक शिफ्ट में नहीं तो दूसरी में, आज नहीं तो कल।”
“सीधे ही कमरा नम्बर सात की मांग नहीं की जा सकती?”
“शायद की जा सकती हो लेकिन ऐसा करना इस बात पर मुनहसर करता है कि आपके मन में क्या है!”
“अभी तो मुझे खुद नहीं मालूम कि मेरे मन में क्या है!”
“जनाब, मैंने देखा है कि वहां आने वालों में लड़की के मामले में चायस है, कमरों के मामले में चायस नहीं है...”
“सिवाय छोटा अंजुम के जिसे कि सात नम्बर कमरा ही मांगता है!”
“जी हां। सिवाय छोटा अंजुम के। सात नम्बर कमरे के जो फर्क मैंने आपको बताये, अगर उनको खातिर में न लाया जाये तो उधर के सारे कमरे एक जैसे हैं।”
“आई सी।”
तभी फोन की घन्टी बजी।
विमल ने झपट कर फोन उठाया।
शोहाब चुपचाप वहां से रुखसत हो गया।
“हल्लो!” — विमल माउथपीस में बोला।
“बाप” — मुबारक अली की आवाज आयी — “बहुत बुरी खबर है।”
“अभी और भी?”
“हां।”
“अब क्या हुआ?”
“तेरा वो शुक्ला साहब। गैलेक्सी वाला...”
“क्या हुआ शुक्ला साहब को?”
“खल्लास।”
“अरे! क्या हुआ उन्हें? कोई एक्सीडेंट हुआ या दिल का दौरा पड़ा?”
“गोली मार दी। वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, शूट कर दिया।”
दाता!
पहले कुशवाहा।
फिर सुमन।
फिर तुकाराम और वागले।
अब शिवशंकर शुक्ला।
कौन था जो यूं चोट-दर-चोट कर रहा था?
छोटा अंजुम?
बिरादरीभाई?
या दोनों का कोई गठबन्धन?
वो एक नयी सम्भावना थी जो उसे पहले नहीं सूझी थी।
‘भाई’ अगर सोहल की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ा सकता था तो झामनानी एण्ड कम्पनी की तरफ क्यों नहीं बढ़ा सकता था?
यानी कि छोटा अंजुम का कसम खाकर बोला गया सच — कि ‘भाई’ ने तुका और वागले का कत्ल नहीं कराया था — सच भी हो सकता था और झूठ भी — क्योंकि उसे मालूम रहा होगा कि वो काम दिल्ली के बिरादरीभाइयों की शह पर हुआ था — हुआ हो सकता था।
वो बात उसे जंची।
एक ही शख्स के — सोहल के — दो दुश्मन दोस्त बन गये हो सकते थे।
“बाप, लाइन पर है?” — मुबारक अली की व्यग्र आवाज उसके कान में पड़ी।
“हां।” — विमल बोला — “कब हुआ ये? हाशमी तो शुक्ला साहब से मिलने जाने वाला था!”
“हाशमी गया था पण शुक्ला साहब, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, लंच पर निकल गया था। लंच पर गया शुक्ला साहब वापिस न लौटा। पहले ही मार डाला गया।”
“दिन दहाड़े?”
“ऐसीच है, बाप।”
“पता कैसे लगा?”
“हाशमी बताता है। मैं उसको फोन देता है।”
कुछ क्षण बाद हाशमी की आवाज आयी।
“शुक्ला साहब का” — वो बोला — “कनाट प्लेस के सूजी वांग नाम के चायनीज रेस्टोरेंट से बड़ी दिलेरी से और बड़ी चालाकी से स्कीम बना कर अगवा किया गया था। लंच के दौरान उनकी तबीयत गम्भीर रूप से खराब हो गयी थी। रेस्टोरेंट में मौजूद मुकेश बजाज करके एक ग्राहक ने खुद को डाक्टर बता कर अपने नर्सिंग होम से एक एम्बूलेंस मंगवाई थी। उसके कहने पर रेस्टोरेंट के मैनेजर ने जिस नम्बर पर फोन किया था और जहां से आनन फानन एम्बूलेंस आ भी गयी थी, वो नम्बर एक नजदीकी पब्लिक टेलीफोन बूथ का निकला था।”
“यानी कि सब पहले से तैयारशुदा साजिश थी!”
“जी हां। जान पड़ता है कि शुक्ला साहब की एकाएक तबीयत खराब होना भी पहले से तैयारशुदा एक साजिश का हिस्सा था। अलबत्ता ये नहीं मालूम कि उनकी तबीयत खराब की जाने का सामान कैसे किया गया था!”
“आगे बढ़ो।”
“चश्मदीद गवाहों का कहना है कि एम्बूलेंस की रवानगी के वक्त एक और साहब वहां पहुंचे थे जो कि शुक्ला को अपना दोस्त बताते हुआ जबरन उसके साथ एम्बूलेंस में सवार हो गये थे। एम्बूलेंस के ‘सूजी वांग’ से रवाना होने के और लाशों की तुगलकाबाद फोर्ट के करीब से बरामदी के बीच क्या हुआ था, अभी कोई नहीं जानता।”
“लाशें! लाशें बोला?”
“जी हां। शुक्ला साहब के साथ साथ उनके उस दोस्त का भी कत्ल हो गया था। उसको ब्लड प्रैशर नापने के आले से दम घोंट कर मारा गया था। दोनों लाशें तुगलकाबाद फोर्ट के करीब लावारिस खड़ी उसी एम्बूलेंस में से बरामद हुई थीं जो कि पीछे ‘सूजी वांग’ पहुंची थी। जनाब, पुलिस की तफ्तीश से तसदीक हुई है कि वो एम्बूलेंस चोरी की थी।”
“दूसरे मकतूल की शिनाख्त नहीं हुई?”
“फौरन हुई। इसलिये क्योंकि वो सीनियर मीडिया पर्सन थे और दिल्ली में शुक्ला साहब से भी ज्यादा मकबूल थे।”
“कौन थे?”
“जगत नारायण। हिन्दोस्तान टाइम्स के सीनियर एडीटर।”
“ओ, माई गॉड! वो भी गये?”
“आप जानते हैं उन्हें?”
“पहचानता हूं। शुक्ला साहब के घर में हुई क्रिसमस ईव की पार्टी में मिले थे। लेकिन दुश्मनों की उनसे क्या अदावत हुई?”
“लगता है वो तो इसलिये मार डाले गये क्योंकि शुक्ला साहब के साथ जो बीती थी, वो खामखाह उसके गवाह बन गये थे।”
“यानी कि गेहूं के साथ घुन की तरह पिस गये?”
“ऐसा ही जान पड़ता है।”
“लेकिन करतूत किसकी थी ये?”
“मालूम नहीं। पुलिस के पास फिलहाल इस बाबत कोई क्लू नहीं है लेकिन एक थ्योरी है।”
“क्या?”
“आजकल सम्पन्न व्यापारियों के, उद्योगपतियों के, अगवा और फिरौती की बहुत वारदात होने लगी हैं। पुलिस का कहना है कि फिरौती हासिल करने की नीयत से ही शुक्ला साहब का अगवा किया था लेकिन ऐन मौके पर जगत नारायण के फच्चर फंसा देने की वजह से नौबत खूनखराबे की आ गयी थी।”
“मुझे यकीन नहीं।”
“यकीन तो हमें भी नहीं लेकिन...”
हाशमी जानबूझ कर खामोश हो गया।
“अब सुमन की लाश का क्या होगा? शुक्ला साहब की जगह अब कौन जाकर....”
“जनाब” — हाशमी जल्दी से बोला — “उसका इन्तजाम एक खुदाई मदद के तौर पर अपने आप हो गया है और बहुत उम्दा हो गया है।”
“क्या हुआ?”
“प्रदीप बाहरी नाम के एक लड़के ने पुलिस के पास पेश होकर सुमन बीबी की लाश क्लेम कर ली है।”
“प्रदीप! वो डाक्टर! सुमन का ब्वाय फ्रेंड! जिससे कि वो शादी का इरादा रखती थी!”
“वही। वो बेचारा आज ही कलकत्ता से वापिस लौटा था और सुमन के अंजाम से ऐसा आन्दोलित हुआ था कि लगता था कि वो भी सुमन के साथ ही मर जाने वाला था। जनाब, उसने सुमन की बाबत बड़ा इंकलाबी ऐलान किया है।”
“क्या?”
“कहता है वो लाश से शादी करेगा और फिर बतौर अपनी बीवी उसका अन्तिम संस्कार करायेगा। बहुत जज्बाती हो रहा था बेचारा। बार बार कह रहा था कि सुमन वर्मा नहीं मरी थी, मिसेज प्रदीप बाहरी मरी थी जो कि उसे विधुर बना गयी थी।”
“पुलिस उसे ऐसा करने देगी?”
“लाश से शादी?”
“हां।”
“पता नहीं। जनाब, उन्हें इस लड़के प्रदीप को लाश की सुपुर्दगी से तो कोई एतराज नहीं जान पड़ता! हो सकता है वो इस बाबत खामोश रहें।”
“आई सी।”
“बहरहाल लाश अब सही और मुनासिब हाथों में पहुंच गयी जानिये।”
“हूं।”
“और अब आपका दिल्ली आना जरूरी नहीं।”
“वो तो है। मैंने सुमन को अपनी बहन...”
“जनाब, जब तक आप दिल्ली पहुंचेंगे, तब तक प्रदीप बाहरी के हाथों सुमन का अन्तिम संस्कार हो भी चुका होगा।”
“ओह!”
“अब तो आप वहीं बैठ के सुमन बीबी के जन्नतनशीन होने की दुआ कीजिये।”
“लेकिन शुक्ला साहब! शुक्ला साहब की वजह से भी तो मुझे दिल्ली आना चाहिये।”
“हरगिज नहीं आना चाहिये। जनाब, शुक्ला साहब का कत्ल अगर आपके किन्हीं दुश्मनों का काम है तो यूं समझिये कि उन्होंने ये कत्ल किया ही इसलिये होगा कि खबर सुनते ही आप तड़प जायें और फिर दौड़े हुए दिल्ली चले आयें।”
“शुक्ला साहब का कत्ल इसलिये हुआ होगा?”
“मामू का तो खयाल है कि तुका और वागले के कत्ल भी इसीलिये हुए हैं।”
“मुबारक अली को फोन दो।”
फोन हस्तांतरित हुआ।
“बोल, बाप।” — मुबारक अली की आवाज आयी।
“मियां, तू बिरादरीभाइयों की कोई खोज खबर लेने वाला था?”
“ली तो है खोज की कुछ खबर।”
“क्या?”
“बाप, हैं तो वो कम्बख्तमारे किसी फिराक में शर्तिया। मालूम हुआ है कि वो चारों दिन में तीन-तीन चार-चार बार मिलते हैं। ऐसी मुलाकातें अक्सर झामनानी के दफ्तर में होती हैं जो कि, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, करोलबाग के इलाके में है। बाप, एक बिरादरीभाई आजकल मुम्बई में है।”
“कौन?”
“ब्रजवासी।”
ब्रजवासी।
अब विमल को और भी मुमकिन लगने लगा कि दुबई के ‘भाई’ और दिल्ली के बिरादरीभाइयों में उसके खिलाफ कोई गठबन्धन हो गया था और जरूर उसी सिलसिले में ब्रजवासी को दिल्ली से मुम्बई भेजा गया था।
“ये सब कैसे जाना?” — प्रत्यक्षतः वो बोला।
“कीमती से जाना।”
“कीमती!”
“भूल गया? वो झोलझाल बूढ़ा जिसके साथ हमने तब डलहौजी बार को निगाह से बीन कर रखा था जबकि वहां गुरुबख्श लाल समेत सारे बिरादरीभाई मीटिंग कर रहे थे।”
“अच्छा, अच्छा। वो आदमी जो दिल्ली के तमाम बड़े दादाओं का हमप्याला-हमनिवाला रहा होने का दम भरता था?”
“जो कभी खुद भी बड़ा दादा था पण वक्त से मात खा गया था।”
“जो अपने आपको दिल्ली के अन्डरवर्ल्ड का एनसाइक्लोपीडिया बताता था।”
“कौन सा पीड़िया बताता था?”
“एनसाइक्लोपीडिया। जानकारी का खजाना।”
“जानकारी का खजाना। ठीक बोला, बाप। तभी तो मैं उसको थामा।”
“और क्या कहता है वो?”
“अभी खास कुछ नहीं कहता पण कहेगा। बहुत कुछ कहेगा। अभी मैं उसको कनकौवे की तरह उड़ाना मांगता है।”
“क्या मतलब?”
“ढील दे के खींचता है। ढील देता है, फिर खींचता है, बाप।”
“ओह!”
“चिल्लाकी से काम लेता है, बाप। दीमाक से काम लेता है। ऐसीच तो तेरा शार्गिद नहीं है!”
“क्या कहने! खास नहीं तो कुछ आम ही कहता होगा ये कीमती!”
“एक बात है जो वो आम करके बोला पण तेरे लिये खास हो सकती है।”
“क्या?”
“कुशवाहा का कत्ल।”
“क्या कहता है वो उस बाबत? बिरादरीभाइयों ने करवाया?”
“किया।”
“क्या!”
“बाप, कुशवाहा का और उसके जोड़ीदार द्विवेदी का कत्ल उन चारों में से किसी एक ने किया था। उस वारदात के रोज वो चारों लोटस क्लब गये थे।”
“कैसे जाना?”
“कीमती से जाना।”
“कीमती ने कैसे जाना?”
“झामनानी के ड्राइवर भागचन्द से जाना।”
“भागचन्द ने उनमें से किसी को गोली चलाते देखा था?”
“नक्को।”
“तो फिर?”
“बाप, तू ऐसे जिरह से सवाल पूछता है तो मेरे भेजे की पावभाजी बन जाता है। तू बात को मेरे को मेरे तरीके से कहने दे।”
“ठीक है।”
“बाप, वो क्या है कि झामनानी को कार चलाना नहीं आता इसलिये वो इस मामले में अपने ड्राइवर भागचन्द का मोहताज है। उस रोज लोटस क्लब में बाकी बिरादरीभाई अपनी कारें खुद चलाकर पहुंचे थे जबकि झामनानी की शेवरलेट कार उसका ड्राइवर भागचन्द चलायेला था। झामनानी को भी कार चलाना आता होता तो उस रोज कत्ल के वक्त के आसपास उन चार मवालियों के वहां पहुंचने का कोई गवाह न होता। अब भागचन्द गवाह है कि वो चारों उधर गये थे।”
“तो भी क्या हुआ? वो कुशवाहा से मिलने गये होंगे...”
“खामखाह! कल तक वो कुशवाहा को गुरुबख्शलाल का मुलाजिम मानते थे, आज वो उसकी इतनी इज्जतअफजाई करते कि खुद चलकर उससे मिलने जाते? वो भी एक नहीं, दो नहीं, चारों के चारों?”
“हो सकता है उन्होंने कुशवाहा को तलब किया हो लेकिन कुशवाहा ने — अपनी नयी हैसियत में, जो कि उसकी मेरी वजह से बनी — ऐंठ दिखाई हो और आने से इनकार कर दिया हो और इसलिये उन्हें वहां जाना पड़ा हो!”
“चल, ऐसे ही सही। बहरहाल गये तो सही वो वहां!”
“हो सकता है कुशवाहा और द्विवेदी का कत्ल उनके वहां से रुखसत हो जाने के बाद हुआ हो।”
“सब कुछ हो सकता है, बस वो ही नहीं हो सकता जो कम्बख्तमारा मुबारक अली कहना मांगता है।”
“सॉरी, मियां।”
“बाप, मैं कमअक्ल अपनी बात तेरे को नहीं समझा सकता। तू हाशमी से सुन। मैं उसको फोन देता है।”
“नहीं, नहीं। खुदा के वास्ते नहीं। मुबारक अली, मैं तेरे से ही सुनूंगा।”
“फिर तो मैं ठैंक्यू बोलता है। बाप, वो क्या है कि मैं उधर लोटस क्लब गया था। क्लब को तो कुशवाहा की मौत के बाद से ही ताला है पण एक चौकीदार उधर था। मैं उससे उस आदमी का पता लगवाया जो कि कत्ल वाले रोज क्लब के बाजू वाले दरवाजे पर ड्यूटी भरता था, जिसे कि अंग्रेजी में शायद डोर का मैन कहते हैं।”
“डोरमैन।”
“वही। बाप, वो बोलता है कि उसने कत्ल से पहले बाजू वाले दरवाजे से किसी बिरादरीभाई को भीतर आते जाते नहीं देखा था। मैं उसकी ठुकाई भी किया पण उसने ये जिद न छोड़ी कि उसके सामने कोई भीतर नहीं गया था। बाप, उसकी ये जिद ही साबित करती है कि वो सिखाया पढ़ाया बोल रहा था।”
“तू फिर खफा न हो जाये, इसलिये झिझक से पूछ रहा हूं, कैसे साबित करती है?”
“बाप, पुलिस बोलता है कि कोई आया और मार के चला गया। वो डोर का मैन अगर उधर चौकस ड्यूटी भरता था तो बिरादरीभाइयों को न सही, उसने, वो क्या कहते हैं अंग्रजी में, कातिल को क्यों न देखा?”
“उसी से पूछा होता!”
“पूछा था। बोला, धार मारने चला गया था।”
“ओह!”
“बाप, मैं बोलता है कि असल में उसने ऐसे किसी भीड़ू को इसलिये नहीं देखा था क्योंकि ऐसा कोई था ही नहीं। अगर ऐसा कोई था ही नहीं तो फिर जाहिर है कि खून खराबे का जो मंजर भीतर पेश हुआ था, वो बिरादरीभाइयों के सदके हुआ था।”
“हूं। उन्होंने खून खुद क्यों किया? ऐसे काम तो ऐसे पहुंचे हुए दादा अपने कारिन्दों से कराते हैं!”
“बाप, वो उधर घर से ही खून करने का इरादा करके नहीं आये होंगे। वहीं ऐसे हालात पैदा हो गये होंगे कि उन्हें, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, खड़े पैर कुशवाहा को शूट कर देना पड़ा होगा।”
“दम तो है, मियां तुम्हारी बात में!”
“बाप, कीमती इस बात की गारन्टी करता है कि वो खून खराबा उन चारों बिरादरीभाइयों में से किसी के भी कारिन्दे का काम नहीं था।”
“कैसे गारन्टी करता है?”
“कत्ल की मोटी फीस मिलती है बिरादरीभाइयों से। दोहरे कत्ल की और भी मोटी फीस मिलती है जो कि लाखों में हो सकती है। कीमती कहता है कि किसी कारिन्दे के पास एकाएक इतना रोकड़ा आ जाये तो वो उसे चमकाये बिना नहीं रह सकता। हाल ही में किसी ने ऐसा रोकड़ा नहीं चमकाया, ये इस बात का, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, काफी सबूत है कि वो कत्ल किसी कारिन्दे ने नहीं किये थे।”
“दूर की कौड़ी है, मियां, लेकिन दम है इसमें।”
“इसी बात पर मैं एक और बात बोलता है।”
“क्या?”
“मैं अपने धोबियों से सारे दादाओं के सारे कारिन्दों प्यादों की शिनाख्त कराना मांगता है।”
“क्या फायदा होगा?”
“कोई तो होगा! जानकारी — वो क्या कहते हैं अंग्रजी में — ताकत, बाप।”
“बहुत पते की बात सोची, मियां!”
“तुम्हेरे दीमाक से सोचेला है, बाप, तुम्हेरे दीमाक से।”
“बढ़िया।”
“बाप, मैं आगे ये कहना मांगता है कि अगर तू ये मान के चले कि कुशवाहा का कत्ल बिरादरी का काम है तो तेरे को ये भी मानना होगा कि सुमन बीबी के साथ जो बीती बिरादरी की वजह से बीती। तुका और वागले का कत्ल बिरादरी ने कराया।”
“दिल्ली बैठे बैठे?”
“उस अल्लामारे ब्रजवासी को भूल गया जो मैं बोला कि मुम्बई पहुंचा हुआ है!”
“ओह!”
“अब इधर शुक्ला साहब का कत्ल! बाप, इन तमाम वारदात से तेरे को कुछ नहीं सूझता?”
“यही सूझता है कि बिरादरी को कहीं से शह मिली है जिसके दम पर वो एकाएक शेर हो गयी है, उसको मेरी वार्निंग का कोई खौफ बाकी नहीं रहा है और वो मुझे कमजोर करने के लिये, बल्कि मेरा मुंह चिड़ाने के लिये मेरे हमदर्दों, मेरे हिमायतियों, मेरे अपनों को चुन चुन के मार रहे हैं।”
“बढ़िया। अब सोच कि अगला नम्बर किस का हो सकता है?”
“मुझे एक पाण्डेय का नाम सूझ रहा है लेकिन वो तो एक लम्बे अरसे के लिये शहर छोड़ गया।”
“और सोच।”
“नीलम। लेकिन उसकी उन्हें खबर नहीं लग सकती।”
“और?”
“और खुद तू।”
मुबारक अली हंसा।
“हंसता है!”
“बाप, मुबारक अली की लाश गिराने के लिये अभी बिरादरी को क्यों, किसी को भी, बहुत चांद सूरज देखने होंगे।”
“फिर भी खबरदार रहने में क्या हर्ज है?”
“खबरदार तो मैं अभी है। बाप, कोई और नाम सोच।”
“सलाउद्दीन।”
“नक्को। बाप, इतने लम्बे अरसे में जिसकी कभी ‘कम्पनी’ को खबर न लगा सकी, उसकी इन जुम्मा जुम्मा आठ रोज के मुसलमानों को कैसे लग गयी होगी!”
“फिरोजा!”
“उस कमजोर औरत पर जो हाथ डालेगा, वो जरूर इबलीस की असली औलाद होगा पण तू फिर भी उसे, वो क्या कहते हैं अंग्रजी में, खबरदार करके रखना।”
“ठीक है।”
“और?”
“और तो एक ही नाम बचता है जिसे कि तू जानता नहीं।”
“कौन?”
“शेषनारायण लोहिया। इधर का बड़ा कारखानेदार है। इब्राहीम कालिया मरहूम के सदके मेरी उससे मुलाकात हुई थी लेकिन वो मुलाकात हालिया है और अभी भी बहुत मामूली है इसलिये दिल्ली बैठे किसी शख्स की निगाह में आने वाली तो है नहीं, इधर के किसी शख्स की निगाह में भी नहीं आने वाली। यहां पहुंचने के बाद मैंने मुश्किल से चार दिन उसकी मेहमानी की है। मुझे नहीं लगता कि कोई लोहिया से मेरा सम्बन्ध जोड़ पायेगा। फिर भी मैं इस बाबत उससे बात करूंगा। और?”
“और तू बोल, बाप।”
“बोलता हूं। वो लूथरा... सब-इन्स्पेक्टर, जो कि आजकल मुअत्तली में चल रहा है...”
“अजीत लूथरा?”
“वही। तू उसे तलाश कर और मेरा हवाला देकर उससे बात कर। है तो वो आजकल नौकरी से सस्पेंड लेकिन फिर भी बड़ा पहुंच वाला पुलिसिया है और किसी थाने से कोई खबर निकलवानी हो तो बहुत काम आ सकता है। मियां, तू उससे दुआ सलाम बनाकर रख, मेरे हवाले से वो तेरे बहुत काम आयेगा।”
“एक इश्तिहारी मुजरिम की पुलिस वाले से यारी करा रहा है?”
“तो क्या हुआ? क्या मेरी योगेश पाण्डेय से यारी नहीं है?”
“मैं समझ गया। ठीक है। करेंगा।”
तब कहीं जाकर उस असाधारण रूप से लम्बे फोन वार्तालाप का पटाक्षेप हुआ।
एक चमचम करती टयोटा वैन बापू बालघर के दरवाजे पर आकर रुकी।
विलायती गाड़ी का ऐसा रौब था कि दरवाजे पर बैठे चपरासी ने बीड़ी फेंकी और उठ के खड़ा हो गया।
कार में से शिवांगी बाहर निकली।
“सेठ जी आये हैं।” — वो रौब से बोली — “मैनेजर से मिलना है। वो है इस वक्त यतीमखाने में?”
“जी हां।” — चपरासी अदब से बोला — “आफिस में बैठी हैं।”
“बैठी हैं! मैनेजर औरत है?”
“जी हां। मिसेज फिरोजा घड़ीवाला नाम है।”
“जा के खबर करो।”
चपरासी भीतर गया और उलटे पांव वापिस लौटा।
“आइये।” — वो बोला।
शिवांगी ने तत्परता से वैन का पिछला दरवाजा खोला तो धोती कुर्ते से सुसज्जित ब्रजवासी ने बाहर कदम रखा। वो आंखों पर चश्मा लगाये था, सिर पर गोटे वाली गोल टोपी पहने था और हाथ में एक चांदी की मूठ वाली छड़ी थामे था।
चपरासी ने उसे ठोक कर सलाम किया।
“रास्ता दिखाओ।” — शिवांगी बोली।
चपरासी उन्हें फिरोजा के कमरे में ले आया।
िफरोजा ने उठ कर उनका स्वागत किया और बैठने को कहा। वो दोनों उसके सामने बैठ गये तो चपरासी ने उन्हें पानी सर्व किया।
ब्रजवासी ने पानी का एक घूंट पिया।
शिवांगी ने अपने गिलास की तरफ हाथ न बढ़ाया।
“फरमाइये” — फिरोजा बोली — “मैं आपका क्या खिदमत करना सकता?”
ब्रजवासी ने शिवांगी की तरफ देखा।
“सेठ जी दिल्ली से हैं।” — शिवांगी बोली — “हाल ही में मुम्बई में सैटल हुए हैं। मैं इनकी सैक्रेट्री हूं। सेठ जी की परोपकार और दानपुण्य में बहुत आस्था है। दिल्ली के कई धर्म संस्थानों को सेठ जी से नियमित अनुदान प्राप्त होता था। वही सिलसिला ये मुम्बई में भी कायम रखना चाहते हैं।”
“ये तो बड़ा खुशी का बात है!” — फिरोजा बोली।
“किसी ने इन्हें इस यतीमखाने का नाम सुझाया था इसलिये ये यहां तशरीफ लाये हैं।”
“वैलकम! वैलकम!”
“कितने बच्चे हैं यहां?”
“सौ।”
“फिर तो हम ठीक ही सामान लाये हैं।”
“सामान?”
“बाहर वैन में चार पेटियां पड़ी हैं, यहां मंगवाइये।”
फिरोजा ने चपरासी की तरफ इशारा किया।
लकड़ी की चार पेटियां फिरोजा के आफिस में पहुंचीं।
पेटियां काफी भारी थीं इसलिये चपरासी और वैन के ड्राइवर के अलावा यतीमखाने के दो बड़े बच्चों को भी उन्हें वहां पहुंचाने में मदद देनी पड़ी।
शिवांगी के इशारे पर ड्राइवर ने लकड़ी का ढक्कन उमेठ कर एक पेटी खोली।
“ये टेरीकाट के पांच थान हैं।” — शिवांगी बोली — “ऐसे ही थान बाकी की तीन पेटियों में हैं। सेठ जी को उम्मीद है कि इतने कपड़े में सौ बच्चों की वर्दियां बन जायेंगी।”
“ईजीली।” — फिरोजा बोली।
“ये दस हज़ार रुपये” — शिवांगी ने नोटों की एक गड्डी मेज पर रखी — “सिलाई के लिये है।”
“वैरी कनसिडरेट ऑफ यू, सर।”
“सेठ जी को अंग्रजी नहीं आती।”
फिरोजा हड़बड़ा गयी।
“आप बहुत खयाल किया, सर।” — फिर वो बोली।
ब्रजवासी केवल मुस्कराया।
“आई एम वैरी थैंकफुल... सॉरी, मैं बच्चों की ओर से आपका शुक्रिया बोलता है। मैं अभी इसका रसीद बनाता है।”
“जरूरत नहीं।” — शिवांगी बोली।
“रसीद तो जरूर होना। ये यतीमखाने सरकारी ग्रांट से चलता है। ऐसा कोई दान अलग से मिलता है तो उसका रसीद होना। ऐसा जरूरी। सरकारी हुक्म।”
“ठीक है। हमें तो जरूरत नहीं है। आप चाहती हैं तो रसीद बना दीजिये।”
“मैं बनाता।” — फिरोजा ने दराज से रसीद बुक निकाली, उस पर कपड़े के बीस थान और दस हज़ार रुपये दर्ज किये और फिर बोली — “सेठ जी का नाम?”
“हीरालाल शालवाले।”
“पता?”
“तीन सौ पन्दरह, कटड़ा नील, चान्दनी चौक, दिल्ली छ:।”
फिरोजा ने नाम पता दर्ज किया और रसीद फाड़ कर शिवांगी को सौंपी।
“थैंक्यू ए लॉट, मैडम।” — वो बोली — “शुक्रिया, सेठ जी। बच्चा लोग आपको बहुत बहुत दुआयें देंगा।”
ब्रजवासी मुस्कराया।
“वन वीक में आप इधर आयेंगा तो बच्चा लोग आपका वर्दी पहनकर आपको गार्ड ऑफ आनर देंगा।”
ब्रजवासी फिर मुस्कराया।
“सेठ जी जरूर आयेंगे।” — शिवांगी उठती हुई बोली — “बल्कि अब तो आते ही रहेंगे।”
“यस। वैलकम आलवेज। आप जैसा दानी लोग न हो तो यतीम बच्चा लोग भूखा नंगा मर जाये।”
“ऊपर वाले की सब पर नजर है। वो ऐसा नहीं होने देगा।”
“यस। यू सैड दि राइटेस्ट थिंग।”
“अब हम चलते हैं।”
“यस, आफकोर्स।”
फिरोजा उन्हें वैन तक छोड़ कर आयी।
विमल ने यतीमखाने फोन किया।
तत्काल उसकी फिरोजा से बात हुई।
“मैं बोलता हूं।” — विमल बोला — “पहचाना?”
“यस, मैन।” — फिरोजा की आवाज आयी — “कैसे नहीं पहचानेंगा?”
“गुड।”
“कैसे फोन किया?”
“कोई खास वजह नहीं। तुम्हारा हालचाल जानने के लिये ही फोन किया।”
“हालचाल फिट है।”
“फिरोजा, मैं एक बात पूछना चाहता हूं।”
“पूछो, मैन।”
“तुम्हारे लिये खतरा बन के कोई मवाली उधर घुस आये तो तुम क्या करोगी?”
“क्या करेंगा, मैन? क्या करना सकता?”
“यानी कि कुछ नहीं कर पाओगी!”
“वो गजरे जब अपने प्यादे लेकर इधर आया था तो मैं क्या किया था? मेरा हसबैंड क्या किया था? तुम खुद क्या किया था?”
“वो जुदा मसला था।”
“जो कि खत्म हो गया। गजरे और उसका प्यादा लोग तुम्हेरे पीछू आयेला था। पुअर फिरोजा को कोई क्या बोलेंगा!”
“फिरोजा, किसी को अभी भी ये खुशफहमी हो सकती है कि तुम्हारे जरिये मेरे तक पहुंच बनाई जा सकती है।”
“तो भी क्या करेंगा, मैन! यतीमखाना छोड़ कर तो नहीं जाना सकता!”
“ऐसा नहीं हो सकता?”
“कैसा?”
“तुम कुछ दिनों के लिये यतीमखाना छोड़ कर कहीं और नहीं जा सकतीं?”
“नो, मैन। दैट इज आउट ऑफ क्वेश्चन।”
“ओह!”
“पण तुम ऐसा क्यों बोलता?”
“फिरोजा, मेरे को तुम्हारी फिक्र है। जो हरकत गजरे ने की थी, मुझे लगता है कि वो फिर दोहराई जा सकती है।”
“कौन दोहरायेगा, मैन?”
“मेरा ही कोई दुश्मन दोहरायेगा और कौन दोहरायेगा! मैंने किस्मत ही ऐसी पायी है कि जिस पर मेरी परछाईं भी पड़ जाये, मौत जैसे उसका घर देख लेती है।”
“यू आर टॉकिंग नानसेंस, मैन। मेरे को इधर कोई खतरा नहीं।”
“होगा तो क्या करोगी?”
“क्या करना सकता?”
“मैं कुछ सुझाना चाहता हूं।”
“क्या?”
“कुछ अरसा एक हथियारबन्द आदमी यतीमखाने में अपने पास रखो।”
“एक आदमी?”
“हां।”
“और कोई गजरे का माफिक अपने प्यादों का फौज लेकर आ गया तो?”
“वैसा अब नहीं होगा।”
“पण एक आदमी...”
“मेरी तसल्ली के लिये कुबूल करो।”
“तुम बहुत फिक्र करता है, मैन। मेरे को कुछ नहीं होना सकता। कौन पुअर फिरोजा की...”
“कुबूल करो।”
“ओके। तुम बोलता है तो ओके।”
“थैंक्यू।”
“पण मैं फिर बोलता है कि इधर फिरोजा को कुछ नहीं होना सकता क्योंकि गॉड आलमाइटी पहले ही मेरे को काफी पनिश किया। अब और पनिशमैंट...”
एकाएक इतने जोर की धड़ाम की आवाज हुई कि विमल के कान का पर्दा हिल गया।
एक तीखी जनाना चीख उसके कान में गूंजी।
“फिरोजा!” — विमल आतंकित भाव से माउथपीस में बोला — “फिरोजा!”
जवाब नदारद।
फिर उसे ऐसा लगा जैसे लाइन कट चुकी थी।
उसने कई बार पलंजर ठकठकाया और फिरोजा को पुकारा।
तभी उसे डायल टोन सुनाई देने लगी।
उसने फिर से यतीमखाने का नम्बर डायल किया।
लाइन बिजी।
उसने फिर डायल किया, फिर लाइन बिजी।
उसने रिसीवर क्रेडल पर पटका और इरफान को आवाज लगाई।
शोहाब वहां पहुंचा।
“इरफान भाई अभी इधर नहीं है।” — वो बोला — “मेरे को बोलो, जनाब।”
“गोली की तरह चर्चगेट जा।” — विमल बोला।
“चर्चगेट कहां?”
“यतीमखाने। बापू बालघर। विक्टर को साथ लेकर जा। उसे पता मालूम है। वहां जा के फिरोजा की खैरियत की खोज खबर ले।”
“मैं अभी जाता हूं लेकिन हुआ क्या?”
“मैं अभी फोन पर उससे बात कर रहा था कि एकाएक फोन पर ऐसी धड़ाम की आवाज हुई जैसे बम फटा हो। एक बार मुझे फिरोजा की चीख सुनाई दी और फिर लाइन कट गयी।”
“अल्लाह!”
फिर एक क्षण भी और नष्ट किये बिना शोहाब वहां से बाहर को लपका।
फिरोजा के अनिष्ट की आशंका से विचलित विमल ने अगला पौना घन्टा, जब तक कि फोन की घन्टी न बजी, अंगारों पर लोटते गुजारा।
“बाप, मैं विक्टर।” — आवाज आयी — “चर्चगेट से।”
“बोलो, बोलो।” — विमल व्यग्र भाव से बोला — “बोलो, क्या हुआ?”
“बाप, बुरी खबर।”
“क्या? क्या?”
“फिरोजा खल्लास। चपरासी खल्लास। पन्द्रह सोलह बच्चे जख्मी। बहुत पावरफुल बम फटा इधर यतीमखाने में।”
“फिरोजा के अपने बच्चे? आदिल? यासमीन?”
“सलामत हैं। वारदात के वक्त यतीमखाने में नहीं थे। पड़ोस में कहीं खेलने गये हुए थे।”
“कैसे हुआ? किसने किया?”
“कुछ मालूम नहीं, बाप। अभी कोई बताने वाला नहीं। अभी तो बस हाहाकार मचा हुआ है। बम की वारदात को कोई और ही रंग दिया जा रहा है इधर। इलाके में बहुत टेंशन है, बाप। दो गाड़ी भर के पुलिस इधर पहुंचेला है।”
विमल खामोश रहा।
उसके जेहन में मुबारक अली की आवाज गूंजने लगी।
‘उस कमजोर औरत पर जो हाथ डालेंगा, वो जरूर इबलीस की असली औलाद होगा।’
भाग्य की कैसी विडम्बना थी? जिस औरत ने ताजिन्दगी यतीम बच्चों की परवरिश की थी, अब उसके खुद के बच्चे यतीम थे!
कौन था वो जिसने वो घिनौना काम किया था?
ब्रजवासी!
उसके दिल ने गवाही न दी। दिल्ली से आये उस दादा को फिरोजा की खबर होना उसे दूर की कौड़ी लगा।
छोटा अंजुम!
जरूर वही।
जरूर जरूर वही।
जरूर वो तुका और वागले की बाबत भी कल झूठ बोल रहा था। अपने बनाने वाले की कमस खा के झूठ बोल रहा था।
कमीना! कमीना!
“बाप” — विक्टर की आवाज आयी — “लाइन पर है?”
“हां।” — विमल बड़ी मुश्किल से बोल पाया।
“हमारे लिये क्या हुक्म है?”
“उधर ही रहो। जानने की कोशिश करो कि वारदात कैसे हुई? किसके किये हुई?”
“ठीक।”
“कुछ पता लगे तो फिर फोन करना।”
“करेंगा।”
सम्बन्ध विच्छेद हो गया।
उसने छोटा अंजुम का नम्बर डायल किया।
तत्काल उत्तर मिला।
“छोटा अंजुम को फोन दे।” — विमल तीखे स्वर में बोला।
“कौन बोलता है?” — पूछा गया।
“वही जो कल भी बोलता था। साले, तू मेरी आवाज बाखूबी पहचानता है।”
“सफेद गुलाब?”
“वही। अब...”
“छोटा अंजुम अभी इधर नहीं है। किसी काम से गया है। एक घन्टे में लौटेगा।”
“कहां गया है? चर्चगेट?”
“चर्चगेट!”
“यतीमखाने में बम लगाने?”
“क्या बोलता है, बाप?”
“आये तो उसको बोलना उसका बाप याद करता था।”
“बाप, नम्बर बोल न अपना ताकि...”
उसने सम्बन्ध विच्छेद कर दिया।
फिर उसने वो दूसरा नम्बर डायल किया जो कि बकौल छोटा अंजुम ‘भाई’ के मोबाइल फोन का था।
तत्काल उत्तर मिला।
“ ‘भाई’ बोलता है?” — विमल खूंखार लहजे में बोला।
“हां। कौन?”
उसे आवाज छोटा अंजुम की न लगी।
तो क्या ये उसका वहम था कि ‘भाई’ ही छोटा अंजुम था या ‘भाई’ को आवाज तब्दील करने में महारत हासिल थी?
“कहां है?” — फिर भी उसने पूछा — “भिंडी बाजार में?”
“अरे, कौन हो, भई, तुम?”
“भिंडी बाजार में है तो बोल ताकि मैं फोन पर बात करने की जगह तेरे पास पहुंचूं।”
“लानत! आखिरी बार पूछता हूं। कौन बोलता है?”
“मेरे कई नाम हैं लेकिन जो नाम तू सुनना पसन्द करेगा, वो सोहल है।”
“सोहल! जहेनसीब। शुक्र है आखिर तूने मेरे से बात करने की दानिशमन्दी दिखाई। तो फिर क्या फैसला किया तूने? वैसे तेरे से पूछे बिना ही मुझे मालूम है कि तूने क्या फैसला किया होगा!”
“क्या फैसला किया होगा?”
“तूने ‘भाई’ का कहना मानने का ही फैसला किया होगा वरना तूने मुझे फोन न किया होता!”
“ऐसा?”
“हां।”
“मैंने तुझे इसलिये फोन नहीं किया।”
“अच्छा! तो किसलिये किया?”
“तेरी सूरमाई पर थूकने के लिये किया।”
“क्या बकता है?”
“उस ‘भाई’ की जात औकात को लानत भेजने के लिये किया जिसने मुझ पर वार करने के लिये एक लाचार बेआसरा औरत को अपना हथियार बनाया और साबित किया कि जाबर पर जोर चलाने की ताकत ‘कम्पनी’ की तरह तेरे में भी नहीं है।”
“अरे, क्या पहेलियां बुझा रहा है?”
“गजरे ने मर्द पर ताकत आजमाई, तूने औरत को मरवा डाला।”
“किस औरत की बात कर रहा है? कोई नाम भी लेगा या नहीं?”
“मैं फिरोजा घड़ीवाला की बात कर रहा हूं जिस पर तेरे छोटे अंजुम ने मुझे झुकाने के लिये जुल्म ढाया।”
“घड़ीवाला! वो शख्स जो तेरे धोखे में गजरे के हाथों मारा गया था?”
“वही।”
“उसकी बीवी मर गयी?”
“शाबाश! हैरान हो के यूं दिखा रहा है जैसे खबर ही न हो!”
“लेकिन...”
“कल तेरा चीफ चमचा अपने पाक परवरदिगार की कसम खाकर कहता था कि तुका और वागले की मौत में उसका हाथ नहीं था। अब मुझे पूरा यकीन है कि उसने झूठ बोला था। कितने अफसोस की बात है कि मुझे झुकाने के लिये तेरे छोटे अंजुम को ईमान की तिजारत करना भी कुबूल हुआ।”
“तू गलत समझ रहा है। छोटा अंजुम ईमानफरोश नहीं। हममें से कोई ईमानफरोश नहीं।”
“सब कहने की बातें हैं।”
“ठीक है। ऐसा है तो ऐसा ही सही।”
“यानी कि कुबूल करता है कि कल तुका और वागले का कत्ल तूने करवाया? आज फिरोजा का कत्ल भी तूने करवाया?”
“मेरे कुछ कुबूल करने या नाकुबूल करने से क्या होगा, मेरे भाई? तूने तो वही समझना है जो तू समझे बैठा है!”
“मैं क्या गलत समझे बैठा हूं!”
“अब मैं क्या कहूं!”
“तू न कहे तो और कौन कहे?”
“देख, मेरी बात सुन।”
“क्या सुनूं?”
“जो हुआ उससे सबक ले। सबक ले ताकि जो होने वाला है, वो न हो।”
“क्या होने वाला है?”
“सोच। आखिर सिर्फ तुका वागले और फिरोजा ही तो तेरे करीबी नहीं थे!”
“ओह! तो तू मुझे धमकी दे रहा है, उन लोगों के आइन्दा अंजाम से मुझे डरा रहा है जो मेरे करीबी हैं और अभी सलामत हैं।”
“मैं तुझे कोई धमकी नहीं दे रहा लेकिन मौजूदा हालात में अगर तू अपने करीबी लोगों की खैरियत चाहेगा और इस बाबत कुछ करेगा तो समझदारी ही करेगा।”
“तुझे लगता है कि जब मेरा करीबी कोई नहीं बचेगा तो मैं तेरी शागिर्दी कुबूल कर लूंगा?”
“अरे, शागिर्द कौन बनाना चाहता है तुझे! तू उस्ताद बन मेरा! मेरे सिर माथे बैठ। मेरा हमप्याला, हमनिवाला बन। मेरा हमनशीं, हमकदम बन। लेकिन मुखालफत छोड़। महसूस कर इस बात को कि ‘कम्पनी’ के ऊंचे तख्त पर बैठने का जो मौका तुझे खामखाह हासिल हो रहा है, उसे हासिल करने के लिये तेरे जैसे कई सिर पटकते मर गये। अरे, ताकतवर की सोहबत करेगा तो ताकतवर बनेगा वरना इस खुशफहमी में एक दिन कुत्ते की मौत मारा जायेगा कि तूने आबेहयात पिया है, तुझे कुछ नहीं हो सकता।”
“ये खुशफहमी मुझे है, तुझे नहीं है?”
“मुझे तो नहीं है!”
“तो दुबई में छुप के क्यों बैठा हुआ है? क्यों कुत्ते की तरह दुम दबा के अपने वतन से भाग गया? इतना ताकतवर है तो फासले से वार क्यों करता है? करीब क्यों नहीं आता?”
“करीब तो मुझे आना ही पड़ेगा!”
“क्या जरूरत है! तेरा चीफ चमचा जो है करीब! दिल्ली वाले जो हैं करीब जो लगता है कि आजकल तेरी हमलावर बांह बने हुए हैं!”
“कौन दिल्ली वाले?”
“वही दिल्ली वाले जो आजकल तेरे सगे वाले बने हुए हैं, जो कल तक भीगी बिल्ली बने बैठे थे और आज तेरी या तेरे से भी बड़े बाप रीकियो फिगुएरा की शह पर उछल रहे हैं, जिनमें से एक तेरी गोद में बैठने का तमन्नाई बना बाकायदा मुम्बई पहुंचा हुआ है।”
“पता नहीं क्या बक रहा है!”
“कब आयेगा करीब?”
“जब मैं तेरी तरफ से पूरी तरह से नाउम्मीद हो जाऊंगा।”
“अभी हुआ नहीं?”
“नहीं।”
“और अभी तू मुझे खुशफहम बता रहा था!”
“सोहल, तू मूर्ख है...”
“और तू महामूर्ख है जो नहीं समझता कि आग और पानी का मेल नहीं हो सकता। जो नहीं समझता कि करीबी हर किसी के होते हैं।”
“क्या मतलब है तेरा?”
“तेरे तक मेरी पहुंच शायद फौरन न हो सके लेकिन तेरे करीबी मुझसे दूर न होंगे। अब मतलब खुद समझ और ईंट के जवाब में पत्थर के लिये तैयार रह।”
विमल ने रिसीवर वापिस क्रेडल पर पटक दिया।
दाता! दुखु सुखु तेरै भाणै होवै, किस थै जाय रुआइये।
हवलदार तरसेम लाल और हवलदार हरपाल सिंह नेगी रेस्टोरेंट के पिछवाड़े में बने एक केबिन में मौजूद थे।
केबिन का दरवाजा बन्द था। कोई वेटर उनका कोई आर्डर लेकर आता था तो पहले दरवाजे पर दस्तक देता था और फिर भीतर दाखिल होता था, इसलिये वहां उन्हें मुकम्मल प्राइवेसी हासिल थी।
वो केबिन वास्तव में ग्राहकों के लिये था ही नहीं। वो एक तरह से रेस्टोरेंट के मालिक का दफ्तर था जो कि उसने उन लोगों के लिये खाली कर दिया था।
बाहर रेस्टोरेंट में काफी शोर शराबा था लेकिन दरवाजा बन्द होने की वजह से वो शोर शराबा उन्हें डिस्टर्ब नहीं कर रहा था।
मेज पर नेगी की लाई डिप्लोमैट की बोतल पड़ी थी जो कि तीन चौथाई खाली हो चुकी थी।
तरसेम लाल को इस बात का कतई इमकान नहीं था कि जितनी विस्की उसने पी थी, उससे आधी भी उसके मेजबान ने नहीं पी थी। वो हरपाल के साथ साथ खुद की सूरत देख पाता तो उसे मालूम होता कि हरपाल के सौम्य, शांत चेहरे के मुकाबले में खुद उसका चेहरा बुरी तरह से तमतमाया हुआ था और आंखों में लाल डोरे तैर रहे थे।
उसने अपना गिलास खाली करके मेज पर रखा और मूंछ पर हाथ फेरता बोला — “मजा आ गया।”
नेगी मुस्कराया और उसके गिलास में विस्की डालने लगा।
“वाह!” — तरसेम लाल एक सिगरेट सुलगाता बोला — “क्या चीज बनाई है बनाने वाले ने!”
“वो तो है।”
“छुटती नहीं है जालिम मुंह की लगी हुई।”
“भई वाह! तरसेम लाल, तू तो शायरी करने लगा!”
“भाई मेरे, आदमी के अन्दर खुशी हो तो शायरी अपने आप निकलती है।”
“मेरे अन्दर भी तो खुशी है — तीन लड़कियों के बाद लड़का हुआ है — मेरे मुंह से तो शायरी नहीं निकल रही!”
“निकलेगी। अभी तो आये हैं। आके बैठे हैं। आगे आगे देखिये होता है क्या!”
नेगी ने हंसते हुए विस्की में सोडा और बर्फ डाली और गिलास उसकी तरफ सरका दिया।
“अरे, तू तो ले!” — तरसेम लाल बोला।
“मेरे पास अभी है।”
“खाली कर, यार। कब से दूसरे ही पैग की चुसक चुसक कर रहा है।”
“चौथे की। तू फिक्र न कर, मैं अभी खाली करता हूं।”
“हां। ये हुई न मर्दों वाली बात! इसी बात पर एक शेर सुन।”
“सुना।”
“साकी मुझे इतनी पिला कि मैं होश खो बैठूं। या बोतल मुझे... या बोतल मेरे... यार, भूल गया। लगता है मुझे नशा हो गया है।”
“अभी कहां? जब नशा होता है तो ये कहना नहीं सूझता कि नशा हो गया है।”
“ये भी ठीक है। हां, याद आ गयी शेर की दूसरी लाइन मुझे। अगर बाटली... वो बोतल... यार, फिर भूल गया।”
“कोई बात नहीं।”
“असल शेर तो भूल गया लेकिन वही शेर मैं तुझे अपनी मादरी जुबान में सुनाता हूं।”
“उसमें याद है?”
“हां। सुन।”
“इरशाद।”
“साकी मेकू हेंडी पिला कि मैं गुम थी वंजां। या बोतल मेरे ढिड विच होवे या मैं बोतल च वड़ वंजां।”
एक अक्षर भी नेगी की समझ में न आया लेकिन वो बोला — “वाह! वाह! मजा आ गया!”
“अब तेरे लिये अर्ज किया है। सुन। माहौल बेमजा है तेरे प्यार के बगैर। कैसे पिये शराब कोई यार के बगैर।”
“भई, वाह! कुर्बान!”
“मयकशी का है यही बज्मेमुहब्बत में मजा। दिल-ए-शाहरुख हो कबाब और लब-ए-काजोल हो शराब।”
लानत! — हरपाल मन ही मन बोला।
“यहां लिबास की कीमत है, आदमी की नहीं; मुझे गिलास बड़ा दे, शराब कम कर दे।”
“यार, अब बड़ा गिलास कहां से आयेगा?”
“अरे, बात का मतलब समझ। शेर कहा है।”
“ओहो, शेर कहा है! मैं तो समझा था कि सच में बड़ा गिलास मांग रहा है!”
“नहीं। शेर है शेर।”
“और ‘शराब कम कर दे’ दिल से कह रहा है?”
“नहीं, यार। तू ऐसा कर, तू ये शेर भूल जा।”
“जैसे बाकी मुझे याद पड़े हैं।”
“क्या? क्या कहा?”
“कुछ नहीं। समझ ले मैं आखिरी शेर भूल गया।”
“हां। और अब उसकी जगह नया शेर सुन।”
“इरशाद।”
“कतरे कतरे का है नसीब जुदा। कोई गौहर कोई पेशाब हुआ।”
“यार, तुझे सच में नशा हो गया है।”
“क्यों? कोई गलती हुई शेर में?”
“हां।”
“क्या बोला मैं?”
“तू शराब की जगह बोला पे... जाने दे। तू ठीक ही बोला होगा! शेर मेरी समझ में नहीं आया होगा!”
“हां। मैं भला गलती कैसे कर सकता हूं शेर कहने में!”
“वही तो!”
“अब और सुन।”
“अभी और भी?”
“समझ ले कि आखिरी।”
“ओह! फिर तो बोल।”
“तरन्नुम में बोलूं?”
“हां, हां। कैसे भी बोल।”
“ओ नेगी रे...” — वो हांक लगा कर गाने लगा — “सोडे बिना भी क्या पीना। सोडे बिना भी क्या पीना। ठर्रे में विस्की में, उसकी में इसकी में, सोडे बिना जिन्दगी न। सोडे बिना भी क्या पीना।”
“वाह, तरसेम लाल, वाह। आज तो तूने मुहम्मद रफी की आंख में डंडा कर दिया।”
तरसेम लाल खुश हो गया। उसने अपना गिलास खाली करके बोतल की तरफ निगाह डाली तो उसके चेहरे पर से खुशी काफूर होने लगी।
“क्या हुआ?” — नेगी सशंक भाव से बोला।
“टाइम क्या हुआ है?”
“सवा आठ।”
“सत्यानाश!”
“क्यों? क्या हुआ?”
“ठेके बन्द हो चुके होंगे। आज सही मायनों में मजा आना शुरू हुआ तो बोतल खाली हो गयी। अभी आठ न बजे होते तो एक अद्धा और...”
नेगी ने विस्की की एक आधी बोतल जेब से निकाल कर मेज पर रखी।
तरसेम लाल ने वो बोतल देखी तो उसने उठ कर हरपाल को गले लगाने से कसर न छोड़ी।
“यार” — वो बोला — “पार्टी देना तो कोई तेरे से सीखे! एक के इन्तजाम की जरूरत हो तो सवाये का करके रखता है।”
“ड्योढे का। ये पव्वा नहीं, अद्धा है।”
“अरे, हां। फिर तो, यार, तू सौ साल जिये।”
“आजकल मेरा हाथ तंग है वरना डबल का इन्तजाम करता।”
“यार वो तू थाने में भी बोला था। क्यों हाथ तंग है तेरा?”
“मैंने बताया था।”
“भूल गया।”
“डिलीवरी की वजह से, जिस पर कि उम्मीद से ज्यादा खर्चा हो गया।”
“तो क्या हुआ! हाथ की तंगी तो आती जाती रहती है, लड़का कोई रोज रोज थोड़े ही होता है! वो भी तीन लड़कियों के बाद!”
“वो तो है।”
“अब हाथ की तंगी तो यार भी दूर कर सकता है, लड़का पैदा करने में तो यार मदद नहीं कर सकता न!” — वो बड़े अश्लील भाव से हंसा — “या कर सकता है?”
“नहीं कर सकता।”
“हां, नहीं कर सकता।”
“लेकिन अगर तू...”
“यार, बातें तो होती ही रहेंगी। पहले पैग तो बना।”
नेगी पैग तैयार करने लगा।
उस दौरान तरसेम लाल ने नया सिगरेट सुलगा लिया।
“फिर से चियर्स!” — नया गिलास हाथ में आते ही तरसेम लाल बोला।
“चियर्स!” — नेगी बोला।
“तेरा लड़का सौ साल जिये। आलम फाजिल बने और ऐसी बढ़िया नौकरी करे जैसी कि हम अनपढ़ों को नसीब न हुई।”
“यार तरसेम लाल, तूने अभी बड़ी कायदे की बात कही थी।”
“क्या?”
“भूल भी गया!”
“अरे क्या?”
“तूने कहा था तंगी तो यार भी दूर कर सकता है।”
“हां। कहा तो था!”
“तू मेरा यार है न?”
“कोई शक?”
“कोई शक नहीं। तो मैं डरते झिझकते तेरे से एक सवाल पूछूं?”
“दो पूछ।”
“तू मुझे दस हज़ार रुपये उधार दे सकता है?”
“नहीं।”
हरपाल हकपकाया।
“लेकिन” — तरसेम लाल ने ठहाका लगाया — “बीस हज़ार दे सकता हूं।”
“ओह!” — नेगी हर्षित भाव से बोला — “क्या सच में?”
“और क्या मैंने झूठ बोला?”
“नहीं, दस ही देना। मैं दो महीनों में लौटा दूंगा।”
“जब मर्जी लौटाना। क्या फर्क पड़ता है!”
“लगता है हाल ही में कोई बड़ा हाथ मारा है!”
“अरे, मैंने नहीं मारा। अपने आप ही लग गया।”
“क्या मतलब?”
“मतलब तू यूं समझ, मेरे जिगरी, कि फर्ज कर तेरे घर में कोई चीज पड़ी हो जिसकी कि तू जात औकात न पहचानता हो, तू उसे सौ पचास रुपये में कबाड़ी को बेचने की सोच रहा हो या किसी को यूं ही दे देने की सोच रहा हो तो कोई आ के तुझे बताये कि वो तो नायाब आइटम थी और तुझे उसके पचास हज़ार रुपये देने की पेशकश करे तो तू ये कह सकेगा कि वो बड़ा हाथ तूने मारा?”
“नहीं।”
“बस, लग गया। यही कहेगा न?”
“हां।”
“समझ ले कि ऐन ऐसा ही मेरे साथ हुआ। हमारे थाने में एक चीज थी जो हमारे लिये बेकार थी लेकिन किसी दूसरे के लिये नायाब थी। उस चीज तक थाने के सौ मुलाजिमों की पहुंच थी लेकिन जिसे उस चीज की कद्र थी, कोई इस्तेमाल था, वो, मेरी तकदीर देखो कि, मेरे पास पहुंचा। नतीजतन मेरे वारे न्यारे हो गये।”
तब तक तरसेम लाल पूरी तरह से टुन्न हो चुका था और बिना सोचे विचारे मुंह फाड़ रहा था।
उसे उसी स्टेज पर पहुंचा नेगी देखना चाहता था।
“चीज क्या थी?”
“इधर कान मेरे करीब कर।”
“वो तो मैं करता हूं लेकिन यहां कौन सुन रहा है?”
“अरे, दीवारों के भी कान होते हैं।”
“ओह!” — नेगी ने अपना सिर तनिक आगे किया।
“वो चीज थी” — तरसेम लाल राजदाराना अंदाज से बोला — “मायाराम बावा।”
“मायाराम!” — चौंकने का अभिनय करता नेगी बोला — “वो कैदी जो हमारे थाने में बन्द था और जिसे पंजाब पुलिस आकर अपने साथ ले गयी थी?”
“हां।”
“जिसे करनाल के पास पुलिस पार्टी पर हमला करके छुड़ा लिया गया था?”
“वही। मुझे तो ये भी मालूम है कि वो वारदात किसके इशारे पर हुई थी।”
“अच्छा! कैसे मालूम है?”
“अन्दाजा लगाया है मैंने।”
“ओह! अन्दाजा लगाया है।”
“ऐसे ही दायें बायें का अन्दाजा नहीं। पक्का, मजबूत, फिट अन्दाजा लगाया है। दो में दो जोड़ कर जवाब चौकस चार निकाला है।”
“मैं समझा नहीं कुछ।”
“मैं समझाता हूं। देख, मैंने बोला न, कि किसी को नायाब चीज की कद्र थी। बेतहाशा कद्र थी, इतनी कद्र थी कि उसने उसके लिये पचास हज़ार खर्च कर डाले।”
“पचास हज़ार रुपये! मायाराम को उसके हवाले कर देने की एवज में?”
“पागल हुआ है! वो काम तो पांच लाख में नहीं हो सकता था। दस लाख में नहीं हो सकता था। तू खुद हवलदार है। तू बता तेरे को कोई पैसा देता तो तू मायाराम को लॉकअप से निकाल कर उस शख्स के साथ चलता कर देता?”
“सवाल ही नहीं पैदा होता। मैं नौकरी से तो जाता ही जाता, जेल भी जाता।”
“तो फिर? जो काम तेरे लिये खतरनाक था, वो क्या मेरे लिये खतरनाक नहीं था? तू सयाना है तो मैं क्या पागल हूं?”
“वो तो तू नहीं है। इतना पागल तो कोई भी नहीं होता!”
“वही तो।”
“तू मुझे बात को जरा तरतीब से समझने दे। तू ये कहता है कि किसी ने तेरे को उस कैदी मायाराम बावा के चक्कर में पचास हज़ार रुपये दिये?”
“हां।”
“इतनी बड़ी रकम के बदले में तूने क्या खिदमत की ऐसे दाता की?”
“मैंने उसे मायाराम की दिल्ली से अमृतसर की रवानगी का सारा शिड्यूल दिया। मैंने उसे पंजाब पुलिस के मुकम्मल प्रोग्राम की खबर की। उस जेल वैन तक की खबर की जिसमें बन्द करके मायाराम को ले जाया जाने वाला था। तभी तो वो लोग वैसी डुप्लीकेट वैन तैयार कर पाये! तभी तो वो जीटी रोड पर पूरी तैयारी के साथ जेल वैन के इन्तजार में मौजूद रह पाये! अरे हरपाल सिंह नेगी, मेरे दोस्त, मेरे बिरादर, मायाराम के अगवा की वो वारदात हो चुकने के बाद मुझे अहसास हुआ था कि मेरी जानकारी पचास हज़ार रुपये से ज्यादा कीमती थी। मुझे लाख नहीं तो पिचहत्तर हज़ार तो जरूर ही मिलने चाहियें थे।”
“देने वाला लोकल आदमी था?”
“हां।”
“फिर क्या बात थी! बाद में मांग लेता!”
“बाद में कौन देता है!”
“कोशिश तो करता!”
“मैं सोच ही रहा था ऐसी कोई कोशिश करने की बाबत कि चार पैसे और कमाने का जुगाड़ अपने आप सामने आ गया।”
“उसी आदमी के जरिये?”
“हां।”
“अब वो क्या चाहता था?”
“बता दूं?”
“बता ही दे।”
“ठीक है, बताता हूं लेकिन पहले मेरे लिये नया पैग बना।”
नेगी ने फुर्ती से उस काम को अंजाम दिया।
तब तक तरसेम लाल ने बचे हुए सिगरेट से नया सिगरेट सुलगा लिया।
“अब कुछ बोल भी तो सही!” — हरपाल उतावले स्वर में बोला।
“मामूली काम था वो।” — तरसेम लाल बोला — “लेकिन हुआ नहीं। खामखाह बीच में फच्चर फंस गया।”
“फच्चर?”
“वो कमीना एस.आई. जनकराज, वो साला धर्मराज, जैसे खुद पुलिसिया न हो, महात्मा हो, जैसे खुद कभी रिश्वत न खायी हो। बहन... ने मेरे दस हज़ार रुपये मरवा दिये।”
“काम क्या था?”
“अरे, मायाराम के पास कुछ तसवीरें थीं जो कि उसने अपनी हमारे थाने में गिरफ्तारी के दौरान जनकराज को सौंपी थीं।”
“मायाराम की अपनी तसवीरें?”
“पागल है तू। अरे, जिनके कब्जे में खुद मायाराम ही आ गया हो, वो क्या उसकी तसवीरों को सिर में मारेगा?”
“सॉरी।”
“मशहूर इश्तिहारी मुजरिम सरदार सुरेन्द्र सिंह सोहल की तसवीरें जो कि, सिर्फ मायाराम को मालूम था, अरविन्द कौल नाम का एक बाबू बन कर दिल्ली में बसा हुआ था। झामनानी उन तसवीरों की कापियां चाहता था...”
“झामनानी?”
“लो! मैंने कमस खाई हुई थी कि उस आदमी का नाम तुम्हारे सामने नहीं लूंगा लेकिन साला अपने आप ही मुंह से निकल गया।”
“तो फिर क्या हुआ? किसी गैर के सामने थोड़े ही निकला है!”
“तू किसी को आगे बोल तो नहीं देगा?”
“अरे, तरसेम लाल, तू मेरे से ऐसी उम्मीद करता है?”
“करता तो नहीं लेकिन...”
“कोई लेकिन वेकिन नहीं। तू समझना कि यहां की बात यहीं खत्म हो गयी।”
“हां, यार। इसी बात पर कायम रहना।”
“तू चिन्ता न कर। अब तू तसवीरों के किस्से को आगे बढ़ा।”
“वो क्या है कि मुझे बताया गया था कि वो तसवीरें हमारे एस.आई. जनकराज ने मायाराम की फाइल में लगा कर फाइल आगे ए.सी.पी. को सौंप दी थी। मैंने महज इतना करना था कि ए.सी.पी. की गैरहाजिरी में उस फाइल में से वो तसवीरें निकालनी थीं, उनकी जेरोक्स कापियां बनवानी थीं और असल तसवीरें फाइल में वापिस रख देनी थीं। कल शाम ए.सी.पी. के जाने के बाद मैं उसके कमरे में घुसा था, मैं उनको काबू में करने ही लगा था कि एकाएक प्रेत की तरह वो एस.आई. का बच्चा मेरे सिर पर आ खड़ा हुआ था।”
“तू रंगे हाथों पकड़ा गया, तरसेम लाल?”
“पकड़ा तो गया लेकिन बाल बांका न कर सका मेरा न वो एस.आई. और न एस.एच.ओ.। एस.एच.ओ. के कमरे में मैंने ऐसा हाई टेंशन ड्रामा किया कि दोनों को पनाह मांगते ही बना।”
“छोड़ दिया साहब ने तुझे?”
“छोड़ दिया! नाक रगड़वा दी मैंने जनकराज एस.आई. की। शक्ल देखने वाली थी उसकी जब एस.एच.ओ. ने मुझे उस इलजाम से ये कह के बरी किया था कि जनकराज को जरूर मेरी बाबत कोई गलतफहमी हो गयी थी।”
“वाह! वाह! इसे कहते हैं एक तो चोर ऊपर से चतुर।”
“लेकिन, यार, जो कोढ़ में खाज जैसी बात हुई थी, वो पता है क्या थी?”
“क्या थी?”
“वो तसवीरें उस फाइल में थीं ही नहीं जो मैंने इतनी शिद्दत से ए.सी.पी. का ब्रीफकेस खोल कर बरामद की थीं।”
“तो कहां थीं?”
“एस.आई. जनकराज के पास।”
“क्या! यानी कि जनकराज ने वो तसवीरें पहले ही फाइल में से निकाल ली थीं?”
“क्या पता क्या किया था उसने! निकाल ली थीं या रखी ही नहीं थीं।”
“अब झामनानी क्या कहता है?”
“उसने क्या कहना है? वो ये थोड़े ही कहेगा कि बेटा तरसेम लाल दस हज़ार रुपये तो ले ही ले, तसवीरें नहीं मिलीं तो न सही।”
“उनकी कापियां हासिल होने के मामले में वो तेरे से तो नाउम्मीद हो ही गया होगा!”
“वो तो है ही! मेरी तो अब उन तसवीरों की तरफ झांकने की मजाल नहीं हो सकती। उनकी खातिर फिर कोई कोशिश करना तो आ बैल मुझे मार जैसी बात होगी।”
“झामनानी क्या करेगा? वो भी अपनी कोशिश छोड़ देगा?”
“मुझे तो उसने दोबारा कुछ करने के लिये नहीं कहा।”
“यानी कि कोशिश छोड़ देगा?”
“उम्मीद तो नहीं। वो रसूख वाला, पहुंच वाला और सौ बातों की एक बात, पैसे वाला आदमी है। वो अपनी आयी पर आ गया तो इस बाबत सीधे ए.सी.पी. के पास पहुंच जायेगा। तब फर्क सिर्फ ये होगा कि चवन्नी के खर्चे में हो सकने वाला उसका काम एक रुपये में होगा, दो रुपये में होगा।”
“क्या कह रहा है तरसेम लाल! वो ए.सी.पी. को भी रिश्वत आफर कर देगा!”
“तू तो ऐसे कह रहा है जैसे कि वो ऐसा करेगा तो कोई अनर्थ हो जायेगा। अरे, बड़े लोगों का ईमान बड़ा नहीं होता, उनकी फीस बड़ी होती है। तू कैसा हवलदार है जो इतनी सी बात नहीं समझता!”
“अगर ऐसा है तो उसने इस काम के लिये तुझे क्यों कहा?”
“मुझे क्यों कहा?”
“हां। तुझे क्यों कहा? उसने चोर की मां को क्यों न पकड़ा? सीधे जनकराज को ही क्यों न अप्रोच किया जिसके पास कि वो तसवीरें थीं? वो उसी को क्यों न बोला कि, भाई, अपनी फीस बोल और तसवीरें मेरे हवाले कर?”
“अब्बे!” — तरसेम लाल नेत्र फैलाता बोला — “ये तो मुझे सूझा ही नहीं!”
“अब सूझा है तो क्या जवाब है?”
“तो ये जवाब है कि किसी वजह से वैसे झामनानी की दाल नहीं गली थी। जनकराज मेरे से पूछ भी रहा था कि मुझे वो काम करने के लिये झामनानी ने कहा था या देवीलाल ने!”
“देवीलाल कौन?”
“इन्स्पेक्टर। कनाट प्लेट थाने का एस.एच.ओ.।”
“ओह!”
“जरूर झामनानी ने उस काम के लिये पहले देवीलाल को ट्राई किया होगा। देवीलाल के फेल हो जाने के बाद ही उसने मेरे से बात की थी।”
“अब जब तू भी फेल हो गया है तो झामनानी किससे बात कहेगा?”
“क्या पता! शायद जनकराज से ही करे जिसे कि तूने चोर की मां कहा। अब भले ही वो किसी को भी कहे, मेरे तो दस हज़ार रुपये गये न!”
“कोई बात नहीं। पचास हज़ार रुपये तो झामनानी से कमा ही लिये न?”
“वो तो है!”
“आगे फिर कोई मौका आ जायेगा।”
“वो भी है। इन दादा लोगों की एक बात तो माननी पड़ेगी। उजरत जी खोल के देते हैं खिदमत की। कंजूसी नहीं करते।”
“मालेमुफ्त दिलेबेरहम।”
“क्या?”
“कुछ नहीं। गिलास खाली कर।”
“यार, तू मेरे में ही डाले जा रहा है, अपने में तो डालता नहीं!”
“मैंने स्कूटर चला कर घर पहुंचना है जबकि तेरे क्वार्टर का यहां से पैदल का रास्ता है।”
“तू और नहीं लेगा?”
“नहीं।”
“तो तू ऐसा कर। ये अद्धा मेरे हवाले कर। बाकी की मैं घर जा के पिऊंगा।”
“कुबूल।”
छोटा अंजुम ने ‘भाई’ को फोन किया।
“किधर था?” — ‘भाई’ सख्ती से बोला — “दो बार फोन लगाना पड़ा।”
“अपने एक काम से गया था।” — छोटा अंजुम खेदपूर्ण स्वर में बोला — “अभी मैसेज मिला। अभी का अभी फोन लगाया। क्या हुक्म है?”
“हुक्म भी बोलता हूं। पहले कुछ और सुन।”
“बोलो, बाप।”
“सोहल का फोन आया था।”
“आया आखिरकार?”
“हां।”
“क्या कहता था?”
“बहुत तड़प रहा था। बहुत वाही तबाही बक रहा था।”
“यानी कि तुका की मौत का उसका गुस्सा अभी ठण्डा नहीं हुआ जो...”
“सुनता नहीं। बीच में टोकता है।”
“खता हुई, बाप।”
“चर्चगेट के यतीमखाने वाली फिरोजा घड़ीवाला का कत्ल हो गया है। बम फटा वहां। बहुत तबाही मची बताते हैं। यतीमखाना समझा कौन सा? जहां से सोहल को बरामद करके गजरे ने उसे अपनी गिरफ्त में लिया था!”
“मालूम, बाप।”
“बहुत भड़का हुआ था वो फिरोजा की मौत पर। मुझे जिम्मेदार ठहरा रहा था। मैंने भी ठहराने दिया। मैंने तो उसे ये भी इशारा दिया कि वैसा अंजाम उसके और करीबी लोगों का भी हो सकता था। तूने कोई करीबी तलाश किया उसका?”
“तलाश तो जारी है, बाप, पण अभी हाथ कुछ नहीं लगा।”
“इस मामले में हमारे दिल्ली वाले नये जोड़ीदार ज्यादा जानकार मालूम होते हैं। तू इस बाबत ब्रजवासी से बात कर और ये भी पता कर कि उन लोगों का आगे क्या प्रोग्राम है?”
“ठीक है। मैं अभी...”
“अभी नहीं। अभी वो तुझे टाल देगा। कल सुबह मिलना उससे।”
छोटा अंजुम की जान में जान आयी। ऐन उसकी पसन्द की बात कही थी ‘भाई’ ने।
कल नौरोजी रोड नहीं जा सका था — वो मन ही मन बोला — आज कल की भी कसर निकाल कर आऊंगा।
“ठीक है।” — प्रत्यक्षतः वो बोला — “मैं कल मिलता हूं उससे।”
“बढ़िया। तेरे को मालूम है कि मोबाइल पर फोन आये तो फोन करने वाले का नम्बर फोन पर रिकॉर्ड हो जाता है?”
“हां, बाप। मालूम।”
“सोहल ने जिस फोन से मुझे काल लगाई थी, उसका नम्बर भी मेरे फोन पर रिकार्ड हो गया था। मैंने पता लगाया है। वो नम्बर होटल सी-व्यू का है।”
“लेकिन होटल तो बन्द है!”
“जा के देख। शायद खुल गया हो!”
“वो सी-व्यू में होगा?”
“क्या बड़ी बात है? पहले भी दो बार वो सी-व्यू को अपना अड्डा बना चुका है और चिराग तले अन्धेरा वाली मसल कायम कर चुका है।”
“क्या पता वो वहां के किसी पब्लिक टेलीफोन का नम्बर हो?”
“जायेगा तो कुछ मालूम होगा न! नम्बर नोट कर।”
छोटा अंजुम ने किया।
“अगर वो वहां है” — ‘भाई’ की आवाज आयी — “तो यकीनन न उसका नाम हमारा जाना पहचाना होगा और न शक्ल सूरत। इसलिये इतने बड़े होटल में उसकी मौजूदगी की तसदीक करना बहुत होशियारी का और बहुत सब्र का काम होगा।”
“मैं करेंगा, बाप।”
“वो वहां हुआ तो तेरा काम आसान हो जायेगा।”
“मेरा काम?”
“सोहल को खल्लास करने का काम।”
“यानी कि अब उसकी तुम्हेरे से बात कराना जरूरी नहीं, बाप!”
“बात हो तो गयी! उसका हमारा मेल मुमकिन नहीं है। वो दो टूक ऐसा बोला। बोला आग और पानी का मेल नहीं हो सकता। उस टेलीफोन नम्बर की वजह से अब कम से कम हमें ये सूझ गया है कि वो कहां हो सकता है। अब तू दुआ कर कि वो सी-व्यू में ही हो। अब तू उसे ढूंढ और बिना उसे कोई वार्निंग दिये खल्लास कर ताकि उधर मुम्बई में तेरा काम खत्म हो और मैं तुझे वापिस बुला सकूं।”
“मैं करेंगा, बाप।”
“एक बात और।”
“बोलो, बाप।”
“उसे तेरे भिंडी बाजार वाले ठीये की खबर जान पड़ती है। जैसे उसके फोन नम्बर से मैंने पता लगा लिया था कि वो होटल सी-व्यू से कॉल कर रहा था, वैसे ही उसने तेरे फोन नम्बर से तेरा भिंडी बाजार वाला पता जान लिया मालूम होता है। इसलिये मैं तेरे को बहुत खबरदार रहना मांगता है।”
“बाप, इधर ट्रैवल एजेन्सी में तो क्या, वो भिंडी बाजार में भी कदम रखेगा तो...”
“खामखाह फैल रहा है मूर्खों की तरह।”
“खता माफ, बाप।”
“तू क्या समझता है, मुम्बई में उसका कोई हिमायती नहीं होगा? हर जगह अकेला विचरता होगा वो प्रेत की तरह? वो खुद तेरे पीछे लगने की जगह किसी को तेरे पीछे लगायेगा तो तुझे क्या खबर लगेगी?”
“मैं समझ गया। मैं खबरदार रहेगा।”
“और कहीं अकेले नहीं जाने का है। बाडीगार्ड साथ रखने का है।”
“बरोबर।”
“वो टेलीफोन पर ईंट का जवाब पत्थर से देने की धमकी दे रहा था इसलिये वो मेरे किसी करीबी पर वार करने की कोशिश कर सकता है। जिस एक ऐसे करीबी को वो जानता पहचानता है वो तू है इसलिये बहुत खबरदार रहने का है। इसलिये और भी जरूरी है कि इससे पहले कि उसका वार चल सके, तेरा वार चल जाये। समझ गया?”
“बरोबर, बाप।”
“बढ़िया।”
सम्बन्धविच्छेद हो गया।
इरफान ने अपने जिस आदमी को बाबू कामले की निगरानी पर लगाया था, उसका नाम पिचड था।
रात साढ़े आठ बजे के करीब वो इरफान के पास पहुंचा तो इरफान ने सबसे पहले उससे यही सवाल किया कि वो उधर की निगरानी क्यों छोड़ आया था।
“अब उधर कुछ नहीं रखा।” — पिचड बोला — “उधर से जो मालूम होना था, हो गया।”
“क्या मालूम हो गया? कैसे मालूम हो गया?”
“अभी एक घन्टा पहले कमाठीपुरे के इरानी के उसी रेस्टोरेंट में, जो िक बाबू कामले का अड्डा था, चार आदमियों की मीटिंग हुई थी जिनमें से एक बाबू कामले था।”
“और बाकी के तीन? उनमें से किसी को पहचाना?”
“दो को पहचाना।”
“कौन थे वो?”
“दोनों ‘कम्पनी’ के प्यादे थे। एक का नाम भौमिक है और दूसरे का इन्दौरी।”
“जब तीन ‘कम्पनी’ के प्यादे थे तो बाकी एक जिसे तूने नहीं पहचाना, वो भी ऐसा ही होगा!”
“जाहिर है।”
“और?”
“और ये कि हैरानी की बात थी कि बराबर के दर्जे के प्यादे इन्दौरी के साथ बहुत अदब से पेश आ रहे थे और उसकी हर बात बड़े गौर से सुन रहे थे।”
“बाबू कामले भी?”
“हां, वो भी।”
“इसका क्या मतलब हुआ?”
“मेरे को जो मतलब समझ में आता है वो ये है कि वो लोग इन्दौरी के ही अन्डर में काम कर रहे हैं।”
“ये नहीं हो सकता। एक मामूली प्यादे की, बिना किसी ऊपरी हुक्म के, सोहल पर हाथ डालने की — वो भी एक नहीं, दो बार — मजाल नहीं हो सकती।”
“बाप, जो मेरे को लगा, वो मैं बोला।”
“तेरे को गलत लगा। तेरे को ये लगा कि वो इन्दौरी नाम का प्यादा सारे फसाद की जड़ है, तो गलत लगा। उससे ज्यादा दम और हैसियत वाला प्यादा तो बाबू कामले है।”
“कम्पनी’ के खातमे के बाद शायद न रहा हो!”
“और एक दूसरे प्यादे ने, इन्दौरी ने, बावजूद ‘कम्पनी’ के खातमे के तरक्की कर ली हो?”
“हां।”
इरफान ने दृढ़ता से इनकार में सिर हिलाया।
“अब जो मेरे को लगा, वो मैं बोला।” — पिचड़ बोला
“आगे बढ़़। क्या मीटिंग हुई उनमें? कुछ जान पाया?”
“कील ठोक के तो नहीं जान पाया लेकिन अन्दाजा लगा पाया।”
“क्या? अन्दाजा ही बोल।”
“उनमें जिक्र का खास मुद्दा होटल सी-व्यू के करीब का वो गोदाम था जिसमें से होकर होटल का खुफिया रास्ता है। बाप, उनकी खुसर पुसर से लगता था कि या तो सोहल उस रास्ते से होटल में दाखिल होने वाला था और या फिर वो पहले से भीतर था और उधर से बाहर निकलने वाला था।”
“कब?”
“कभी भी।”
“वो क्या करेंगे?”
“वो गोदाम की निगरानी करेंगे।”
“और अगर उनकी सोच सच निकली तो वो सोहल पर तीसरा वार करेंगे?”
“हां।”
“ये तो बड़ी लम्बी निगरानी का काम है। पता नहीं यूं उनकी मुराद कब पूरी हो! न भी पूरी हो तो किसी हद तक उन्हें निगरानी बरकरार रखनी पड़ेगी न!”
“वो तो है!”
“कब से चलेगा निगरानी का ये सिलसिला?”
“अभी से जारी है लेकिन उनकी बातों से लगता था कि कल सुबह से वो इस पर खास तवज्जो देंगे।”
“हूं। ठीक है। फिलहाल तेरा काम खत्म।”
पिचड ने सहमति में सिर हिलाया।
नख से शिख तक सजे धजे विमल शोहाब और विक्टर नौरोजी रोड वाले ठीये पर पहुंचे।
वो रात साढ़े नौ के करीब का वक्त था।
मदाम सीक्वेरा ने खुद आगे बढ़़ कर अपने नये ग्राहक नैरोबी के बांके सरदार का स्वागत किया।
“क्या प्रोग्राम मांगता है?” — वो एक कान से दूसरे कान तक मुस्कराती हुई बोली।
“बोलो, भई, नौनिहालो।” — ‘राजा साहब’ शोहाब और विक्टर से बोले।
“प्रोग्राम!” — शोहाब ने बड़ी मासूमियत से पलकें झपकाईं।
“इमीजियेट ऊपर जाना मांगता है या पहले नीचे?”
“ऊपर।” — शोहाब बोला।
“फिर नीचे भी।” — विक्टर जल्दी से बोला।
“टाइम लगा तो” — विमल बोला — “फिर ऊपर।”
“मैं समझ गया।” — वो बोली।
“क्या समझ गया, मैडम?”
“पहले क्विकी मांगता। फिर सोचेंगा।”
“यस। ऐग्जैक्टली।”
“ओके। तुम छोकरी लोग को देखो, मैं रूम का पोजीशन देखता है।”
“जरूर।”
बार के पीछे छोकरी लोगों का ड्रैसिंग रूम था जहां कि तीनों पहुंचे। वहां कई लड़कियां मौजूद थीं जो आपस में बतिया रही थीं, टी.वी. देख रही थीं, पत्रिकाओं के पन्ने पलट रही थीं।
“तुम अपना काम करो” — विमल बोला — “मैं मैडम को पेमेन्ट करके और पांच दस मिनट रौलेट पर किस्मत आजमा के आता हूं।”
“ठीक है।” — शोहाब बोला।
विमल रौलेट टेबल पर पहुंचा, उसने कुछ अरसा वहां छोटे छोटे दांव लगाये जिनमें वो हर बार जीता।
फिर वो मिसेज सिक्वेरा के पास पहुंचा जो कि उसे अपने आफिस में ले गयी।
विमल ने अपनी जेब से पांच पांच सौ के नोटों का एक मोटा पुलन्दा निकाला और बोला — “यस?”
“थर्टी।” — मिसेज सिक्वेरा बोली — “फार वन आवर। राजा साहब के और उनके फ्रेंड्स के लिये स्पेशल रेट। हमारे स्पेशल पैट्रन मिस्टर लोहिया की वजह से।”
“थैंक्यू, मैडम।”
विमल ने उसे तीस हज़ार रुपये सौंपे।
“आज ऊपर रूम का प्राब्लम।” — नोट सम्भालती वो बोली — “जो तीन रूम मैं दिया, उनमें से एक एक स्पेशल गैस्ट के लिये एडवांस में बुक है इसलिये उस रूम को ग्यारह बजे से पहले हर हाल में खाली कर देना मांगता है।”
“ऐसा ही होगा।”
“थैंक्यू। आपका फ्रेंड गर्ल्स को लेकर ऊपर गया।”
“हम भी जाते हैं।”
विमल बाहर निकला और फिर सीढ़ियां तय करके पहली मंजिल पर पहुंचा।
शोहाब उसे गलियारे में मिला।
“सात नम्बर मिल गया।” — वो बोला।
“मुझे नीचे खबर लग गयी थी। लगता है आज कामयाबी जरूर हाथ लगेगी।”
“लड़की भीतर है।”
“लड़की?”
“सात नम्बर में जाने का टिकट।”
“ओह! मैं देखता हूं। तू इरफान को खबर कर।”
“अभी।”
विमल सात नम्बर कमरे के दरवाजे पर पहुंचा। उसने उस पर हौले से दस्तक दी और भीतर दाखिल हुआ।
भीतर एक निहायत कमसिन, निहायत हसीन लड़की अपने बालों में कंघी फिरा रही थी। विमल को आया जान कर उसने कंघी फेंक दी, उसकी तरफ घूमी और बड़े मशीनी अन्दाज से मुस्कराई।
“हल्लो, माई डियर।” — विमल बोला।
“हल्लो, सर।” — वो मीठे स्वर में बोली।
“हालांकि हमने खुद तुम्हें नहीं चुना लेकिन जो दिखाई दे रहा है, वो हमें पसन्द है।”
“थैंक्यू, सर। मैं आपके लिये ड्रिंक बनाऊं?”
“नहीं। अभी नहीं।”
“बाद में?”
“हां।”
“नो प्राब्लम। शैल आई अनड्रैस?”
तब विमल को उसकी ‘बाद में’ का मतलब समझ में आया।
“नहीं” — वो जल्दी से बोला — “अभी नहीं।”
“ऐज यू विश, सर।”
“आज हम बहुत खुश हैं।”
“अच्छा!”
“आज नीचे रौलेट टेबल पर हमारी किस्मत ने हमारी बहुत साथ दिया।”
“वैरी गुड।”
“हम अपनी खुशी और अपनी अच्छी किस्मत किसी से शेयर करना चाहते हैं।”
“किससे?”
“तुम्हारे से।”
“कैसे, सर?”
“ऐसे।” — विमल जेब से पांच पांच सौ के दस नोट निकालता बोला — “ये पांच हज़ार रुपये हैं, नीचे जाकर रॉलेट टेबल पर दस बार दस दांव लगाओ। हार हमारी, जीत तुम्हारी।”
“ओह, नो।”
“ओह, यस।”
“सर, आई मे विन फिफ्टी थाउजेंड रुपीज।”
“विच विल बी आल युअर्स। लेकिन हारोगी तो सिर्फ पांच हज़ार रुपये हारोगी। लेकिन वो हार हमारी होगी। वो नुकसान हमारा होगा।”
“दैट इज वैरी नाइस ऑफ यू, सर।”
“नाओ, गैट अलांग।”
“मैं बहुत जल्दी लौटने की कोशिश करूंगी।”
“कोई जल्दी नहीं। यू टेक युअर ओन टाइम। आधे घन्टे में भी लौट आओगी तो अभी बहुत टाइम बाकी होगा।” — विमल एक क्षण ठिठका और फिर एक आंख दबाता बोला — “क्विकी के लिये।”
“यस, सर। यू विल हैव ग्रेट एक्सपीरियेंस टुडे।”
“थैंक्यू, माई डियर।”
उसके जाते ही विमल ने दरवाजे को भीतर से चिटखनी लगायी और खिड़की के करीब पहुंचा। उसने खिड़की पर से पर्दा एक तरफ सरकाया, उसके दोनों पल्ले खोले और बाहर झांका।
नीचे पिछवाड़े की गली में विक्टर की टैक्सी मौजूद थी।
विमल ने हौले से सीटी बजाई।
तत्काल सीटी का जवाब सीटी से मिला।
विमल ने फुर्ती से अपनी कमीज पतलून से बाहर निकाल कर ऊपर सरकाई और कमर के गिर्द लिपटी नायलोन की पतली, लम्बी रस्सी को खोल कर वहां से अलग किया। उसने रस्सी का एक सिरा खिड़की की ग्रिल में से गुजारा और रस्सी को ढील देनी शुरू कर दी।
जल्दी ही रस्सी को एक हल्का सा झटका लगा।
उसका मतलब था कि रस्सी नीचे पहुंच चुकी थी और इरफान के हाथ में आ चुकी थी।
विमल प्रतीक्षा करने लगा।
थोड़ी देर बाद रस्सी को इकट्ठे दो झटके लगे।
विमल ने रस्सी को वापिस खींचना शुरू कर दिया।
दूसरा सिरा ग्रिल के पास पहुंचा तो उसके साथ उसे डायनामाइट की चार स्टिक और दो लीड वाली बिजली की तार जैसा तार का एक बारीक गुच्छा बन्धा दिखाई दिया। उसने ग्रिल से बाहर हाथ निकाल कर रस्सी की गांठ खोली और फिर एक एक करके तार का गुच्छा और चारों स्टिक भीतर खींच लीं। फिर उसने रस्सी खिड़की से बाहर फेंक दी और वापिस डबल बैड के करीब पहुंचा।
विशाल बैड की सज धज बहुत फैंसी थी। उस पर जो साटन की गुलाबी चादर बिछी हुई थी, वो बैड के दोनों पहलुओं से नीचे कालीन बिछे फर्श तक पहुंचती थी। उसने बैड का अपनी ओर का सिरा उलटकर पलंग पर डाल दिया और नीचे झांका।
बैड का तला फर्श से कोई एक फुट ऊंचा था।
उसने तार के गुच्छे को खोला, उसके एक सिरे को डायनामाइट की स्टिक्स के साथ जोड़ा और स्टिक्स को पलंग के नीचे रख कर चादर को पूर्ववत् नीचे की तरफ लटका दिया। कालीन ऐसा था जो कि पलंग के करीब तक ही पहुंचता था, उसके नीचे भी नहीं बिछा हुआ था। उसने उसको रोल करके एक तरफ किया और तार को खिड़की तक उसके नीचे बिछा कर उसे वापिस यथास्थान कर दिया। खिड़की के करीब ही रेफ्रीजरेटर रखा था। उसने तार को रेफ्रीजरेटर के नीचे से गुजारा और उसके पीछे ले जाकर खिड़की की चौखट के पास निकाला। उसने तार को ग्रिल में से गुजारकर बाकी सारी की सारी तार को नीचे लटका दिया और खिड़की को बन्द करके आगे पर्दा सरका दिया। फिर उसने परे हट कर पलंग से खिड़की तक निगाह दौड़ाई।
रेफ्रीजरेटर और खिड़की की साइड के बीच के कोई छ: इंच के हिस्से में तार दीवार पर नुमायां हो रही थी जिसे छुपाने का एक ही तरीका था कि वो रेफ्रीजरेटर को छ: इंच खिड़की की तरफ सरका देता।
उसने ऐसा किया लेकिन तत्काल रेफ्रीजरेटर को यथास्थान कर दिया।
रेफ्रीजरेटर के चार पायों के निशान कालीन में बहुत गहरे बने हुए थे जिसका दिखाई देना तार दिखाई देने से कहीं ज्यादा खतरनाक था। पायों के निशान न भी दिखाई देते तो भी उस कमरे में रोज रात बिताने वाला शख्म एक निगाह में भांप सकता था कि रेफ्रीजरेटर के साथ कोई छेड़ाखानी की गयी थी।
वो पलंग के करीब पहुंचा। उसके पहलू में बने स्विच बोर्ड से उसने कमरे की कुछ फालतू बत्तियां बुझाईं तो कमरे में पहले जैसी जगमग न रही। तब उसने दीवार की तरफ निगाह दौड़ाई तो बारीक तार उसे न दिखाई दी।
गुड।
उसने दरवाजे पर जाकर उसकी चिटकनी गिरा दी, वापिस आकर पलंग पर ढेर हुआ और प्रतीक्षा करने लगा।
लड़की वापिस लौटी।
उसकी आंखों में जीत की चमक थी लेकिन वो आवाज में मायूसी उंडेलती हुई बोली — “सॉरी, हनी। दांव न लगा।”
“नो प्राब्लम।” — विमल बोला — “लगता है मेरी किस्मत और तुम्हारी किस्मत सहेलियां न बन सकीं। नो?”
“यस।”
“आई विल हैव दैट ड्रिंक नाओ।”
“यस, सर। यहां पीटर स्काट है। कोई फैंसी ड्रिंक या स्काच विस्की मांगता है तो पेमेंट करके नीचे से मंगाना पड़ेगा।”
“पीटर स्काट विल डू।”
“राइट, सर।”
“अपने लिये भी बनाना।”
“यस, सर।”
आधे घन्टे में दो पैग विस्की के विमल ने लड़की के साथ पिये जिसके दौरान लड़की ने बीस बार कपड़े उतारने की पेशकश की जिसे कि विमल ने ‘अभी नहीं’ कह कर टाला।
आखिरकार उसने घड़ी पर निगाह डाली और उठता हुआ बोला — “सॉरी, स्वीट हार्ट। आज मूड नहीं बना।”
“आपने मौका ही न दिया मुझे।” — लड़की बोली — “मूड तो यूं” — उसने चुटकी बजायी — “बनता।”
“हां, शायद। दरअसल जुए में जीत का भी अपना मजा होता है। जिस दिन हमें वो मजा हासिल होता है, उस दिन बाकी के सारे मजे हेच हो जाते हैं। यू अन्डरस्टैण्ड अवर प्वायंट?”
“यस, सर।”
“हम नीचे जाकर एक दो घन्टे फिर रौलेट पर किस्मत आजमायेंगे, फिर जीतेंगे और फिर तुम्हें तलब करेंगे।”
“सर, पेमेंट फिर करना पड़ेगा।”
“वुई वोंट माइन्ड।”
“यू आर वैरी जनरस पर्सन, सर।”
“अब चलें?” — विमल फिर घड़ी देखता हुआ बोला — “मैडम ने ग्यारह बजे से पहले ये कमरा खाली कर देने के लिये कहा था।”
“सर, अभी पौने ग्यारह बजे हैं। आप पांच सात मिनट अभी यहां टिक सकते हैं। आप चाहें तो इतने में भी मैं... आपको...”
अर्थपूर्ण ढंग से विमल को देखती वो खामोश हो गयी।
“नहीं।” — विमल बोला — “हम मैडम से वादाखिलाफी नहीं करना चाहते।”
“सर, आई विल बी रीयल क्विक। आई विल डू ए ग्रेट जॉब अपान यू।”
“सॉरी, हनी। बैटर लक नैक्स्ट टाइम।”
“ऐज यू विश।”
विमल उसके साथ कमरे से बाहर निकला। नीचे हॉल में पहुंच कर वो उससे अलग हो गया और बार पर पहुंचा।
शोहाब वहां पहले से मौजूद था।
विमल ने उससे निगाह मिलाई, सहमति में सिर हिलाया और फिर बार से एक ड्रिंक हासिल करके उसे चुसकने लगा। ग्यारह बजने में दस मिनट पर छोटा अंजुम वहां पहुंचा और सीधा लड़कियों के ड्रेसिंग रूम में घुस गया।
उसके साथ आये दो बाडीगार्ड पीछे ठिठके खड़े रहे।
पांच मिनट बाद वो मुर्गी की तरह एक लड़की को बगल में दबोचे वहां से बाहर निकला और सीढ़ियों की तरफ बढ़ा।
“आज तो ये पहले से टुन्न मालूम होता है!” — शोहाब विमल के कान में फुसफुसाया।
“अच्छा है।” — दीवार पर नुमायां होती बारूद की फ्यूज वायर को याद करता विमल बोला — “हमारे लिये अच्छा है।”
सीढ़ियों के दहाने पर मिसेज सिक्वेरा खड़ी थी।
“मेरा कमरा तैयार है?” — छोटा अंजुम बोला।
“यस, मैन।” — वो बोली — “पहले आफिस में आने का। पेमेंट का वास्ते।”
छोटा अंजुम ने लड़की की कमर से हाथ निकाल कर जेब में डाला और नोटों की एक मोटी गड्डी यूं मिसेज सिक्वेरा की तरफ उछाली जैसे वो उसने उसके मुंह पर मारी हो।
मिसेज सिक्वेरा ने जरा बुरा न माना, उसने नोट काबू में किये और दांत चमकाती बोली — “थैंक्यू।”
छोटा अंजुम लड़की के साथ आगे बढ़ा।
उसके दोनों गार्ड उसके पीछे सीढ़ियां चढ़ने लगे।
“ये क्या हो रहा है?” — विमल हड़बड़ाया।
“लौट आयेंगे।” — शोहाब अनिश्चित भाव से बोला — “पहुंचा कर लौट आयेंगे।”
“पीछे जा। अगर उन्होंने कमरे की तलाशी भी ली तो हमारा यहां से खिसक चलना ही ठीक होगा।”
“ठीक है।”
“मैडम ने रोका तो क्या बोलेगा?”
“नहीं रोकेगी। विक्टर अभी ऊपर है। मेरे वाली लड़की भी अभी ऊपर है। मैडम को मालूम है।”
“ठीक।”
शोहाब सीढ़ियों की ओर बढ़ चला।
कुछ क्षण बाद विमल ने वैट-69 की एक बोतल और दो तन्दूरी चिकन से सजी प्लेट ट्रे पर रखे एक वेटर को ऊपर को लपकते देखा।
पांच मिनट बाद शोहाब वापिस नीचे आया।
“आज गार्डों की ड्यूटी का प्रोग्राम बदल गया जान पड़ता है।” — वो दबे स्वर में बोला — “एक सात नम्बर कमरे के दरवाजे के बाहर कुर्सी डाले बैठा है और दूसरा ऊपर सीढ़ियों के दहाने पर खड़ा है।”
“कोई कमरे के भीतर न गया?”
“एक गया था लेकिन वो इतनी जल्दी वापिस लौट आया था कि उतने में ये ही तसदीक हो सकती थी कि कमरा खाली था, कोई बारीक तलाशी मुमकिन नहीं थी।”
“आई सी।”
“ऊपर से अपना जवान उतावला हो रहा था। गार्ड को उसकी ‘जल्दी कर जल्दी कर’ की हिदायत बाहर तक सुनाई दे रही थी।”
“लिहाजा हालात काबू में हैं?”
“फिलहाल।”
“ऊपर वाले ने चाहा तो आगे भी काबू में ही रहेंगे।”
“ऐसा है तो हमारा यहां रुकना क्यों जरूरी है?”
“लड़की की वजह से।”
“लड़की।”
“जो छोटा अंजुम के साथ है। उसकी जान की परवाह न होती तो हम ऊपर टाइम बम लगाते जो कि आसान काम होता। मैं नहीं चाहता कि वो बेचारी खामखाह गेहूं के साथ घुन की तरह पिसे।”
“ओह!”
“तुमने कहा था कि उसके साथ की लड़की एक बार वापिस नीचे आ जाये तो लौट कर ऊपर नहीं जाती। उसके बाद वो खाना मंगा कर खाता है और सो जाता है। हम उसको खाना सर्व किये जाने तक इन्तजार करेंगे।”
शोहाब ने खामोशी से सहमति में सिर हिलाया।
छोटा अंजुम लड़की पर से लुढ़क कर परे हुआ और उसके कूल्हे पर एक धौल जमाता हुआ बोला — “फूट।”
सहमति में सिर हिलाती लड़की जबरन मुस्कराई और उठ कर अपने कपड़े पहनने लगी।
उसने वॉल क्लॉक पर निगाह डाली तो पाया कि अभी मुश्किल से बारह बजे थे।
साहब मूड में नहीं — उसने मन ही मन सोचा — पीने पर ज्यादा जोर दिया।
ऐन वो ही बात छोटा अंजुम के जेहन में बज रही थी।
‘भाई’ की इस वार्निंग ने, कि उस पर सोहल का वार हो सकता था, उसे डरा तो नहीं दिया था लेकिन विचलित जरूर कर दिया था इसीलिये अपनी रूटीन के खिलाफ और मदाम के एतराज के बावजूद वो दोनों बाडीगार्डों को ऊपर तक लाया था जिनमें से एक तो ऐन उसके दरवाजे के बाहर बैठा हुआ था।
बिल्कुल तो सेफ था वो वहां! सोहल को तो उसके उस ठीये की भनक तक नहीं लग सकती थी! और भिंडी बाजार में किसी का उस पर वार करने की कोशिश करना तो अपनी आ बैल मुझे मार जैसी हालत करना था! बाकी जहां कहीं भी वो जाता था, चार बाडीगार्ड साथ लेकर जाता था जो कि बहुत काफी थे।
उन तमाम तसल्लियों के बावजूद आज उसका मूड उखड़ा हुआ था। जो आदमी चलता फिरता प्रेत कहलाता था, वन मैन आर्मी कहलाता था, जो जैसे शेर की मांद में घुसकर बखिया के सिर पर जा खड़ा हुआ था, उसकी निगाहेकरम अब उस पर हो सकती थी, ये छोटा अंजुम के लिये यकीनन विचलित करने वाली खबर थी।
छोटा अंजुम खुद एक खतरनाक मवाली था और दुर्दान्त हत्यारा था, वो न मरने से डरता था, न मारने से डरता था लेकिन अपनी पास्कल के बार में सोहल से मुलाकात को वो जब भी याद करता था, उसे यही अहसास होता था कि वो आदमी किसी और ही मिट्टी का बना हुआ था। कोई धमकी उस पर कारगर नहीं होती थी, कोई अंजाम उसे डरा नहीं पाता था, बड़े से बड़े गैंगस्टर के गिरहबान में हाथ डालने को वो तड़पता जान पड़ता था। क्या बला था ये शख्स सोहल? उसके साथ तो जैसे पेश आया सो आया, ‘भाई’ को भी कड़क बोल दिया।
दरवाजे पर दस्तक पड़ी।
तब उसे खयाल आया कि लड़की वहां से कब की रुखसत हो चुकी थी।
उसने अपनी कमर के गिर्द एक चादर लपेटी और उच्च स्वर में बोला — “खुला है।”
एक वेटर भीतर दाखिल हुआ जो उसे डिनर सर्व करके चला गया।
उसने वैट-69 की बोतल पर निगाह डाली। अमूमन लड़की के जाने तक वो बोतल खाली हो चुकी होती थी लेकिन आज वो आधी भरी हुई थी। उसकी वजह ये भी थी कि आज तीन पैग विस्की चढ़ा कर ही वो वहां पहुंचा था, जैसा कि वो अमूमन नहीं करता था।
आज तो दो तन्दूरी चिकन में से भी एक तीन चौथाई बाकी था।
खामखाह क्या लड़की, क्या विस्की, क्या चिकन, सब कुछ बद््मजा हो गया था।
डिनर में भी उसकी वैसी ही औनी पौनी रुचि थी। खाने की तरफ हाथ बढ़ाने की जगह उसने अपने लिये विस्की का एक पैग तैयार किया। उसने उसे जबरन और फौरन अपने हलक में उंड़ेला जैसे उसे अन्देशा हो कि कहीं उसका इरादा न बदल जाये और फिर एक पैग और तैयार किया। उस पैग में से उसने एक चुस्की मारी और फिर उसे हाथ में उठाये बाथरूम में पहुंचा। कमोड की जगह उसने सिंक में पेशाब किया और फिर लड़खड़ाता हुआ वापिस लौटा।
बाथरूम से बाहर कदम रखते ही वो ठिठका।
कोई बात थी जो उसे खटक रही थी।
क्या?
कोई बात जो पहले नहीं होती थी लेकिन आज थी।
उसने अपने सिर को एक जोर का झटका दिया और विस्की का एक घूंट पिया।
पलंग से उठ कर बाथरूम की तरफ आते समय खिड़की की तरफ उसकी पीठ थी लेकिन अब लौटती बार खिड़की की तरफ मुंह था।
तब उसे रेफ्रीजरेटर और खिड़की के बीच में तनी वो बारीक तार दिखाई दी।
दीवार पर कोई लकीर जान पड़ती है।
नहीं, लकीर नहीं है, कुछ और है।
पूर्ववत् लड़खड़ाता कमर से लिपटी चादर से उलझता, उसे सम्भालता वो खिड़की के करीब पहुंचा।
तार ही थी।
उसने उसे टटोला।
कहां जा रही थी?
कालीन के नीचे।
उसकी निगाह धीरे धीरे सरकती कालीन के दूसरे सिरे तक पहुंची जहां कि पलंग था।
नशे को अपने जेहन से झटकने की कोशिश करता वो पलंग के करीब पहुंचा। उसने विस्की के गिलास को अपने बायें हाथ में स्थानान्तरित किया और नीचे झांका।
तभी भीषण विस्फोट हुआ।
विस्फोट ऐसा शक्तिशाली था कि पलंग फर्श से कई फुट ऊपर तक उछल गया और उसके परखच्चे उड़े गये।
फर्श के लैवल तक नीचे झुके छोटा अंजुम का सिर धड़ से अलग हो गया, बायीं बांह कंधे से उखड़ कर पीछे दीवार से जाकर टकराई और उसके खून का कमरे में जैसे फव्वारा छूटा।
सब कुछ पलक झपकते हुआ।
छोटा अंजुम अभी कुछ समझ भी नहीं पाया था कि वो अपने बनाने वाले के रूबरू हाजिरी भर रहा था।
*****
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