रात को डायनिंग टेबल पर देवराज चौहान, जगमोहन, जसदेव सिंह और बिल्लो बैठे थे । तीनों नौकर फुर्ती के साथ उन्हें खाना खिला रहे थे । खाते-खाते बिल्लो कह उठी ।

“ओए, देखते रहो टेबल पर, कोई बरतन खाली हो तो किचन से सामान लाकर उसे जल्दी से भर दो । बोत सामान पड़ा है किचत में ।” फिर वो देवराज चौहान से बोली – “जेठ जी, चावल कैसे हैं ? बासमती हैं । खासतौर से मँगा रखे हैं । ये कहीं मिलते नहीं ।”

“बहुत अच्छे हैं ।” देवराज चौहान के चेहरे पर मध्यम सी मुस्कान उभरी ।

“बिल्लो, सब कुछ तो तूने कह दिया – अब तो खाने वाले को बोलना ही पड़ेगा कि अच्छे हैं ।” जसदेव सिंह हँसा ।

“तुसी चुप रहो जी । मैं तो अपने जेठ जी से बात कर रही हूँ ।”

“कर... कर ।”

“जेठ जी – शादी तो कर ली होगी ?”

देवराज चौहान पुन: मुस्कराया । बोला कुछ नहीं ।

“कर ली है ।” जगमोहन कह उठा ।

“मैं तो जेठ जी की शादी के बारे में पूछ... ।”

“कर ली है । मैं जेठ जी के बारे में ही बता रहा हूँ ।”

“तो ये बात जेठ जी को अपने मुँह से कहते हुए शरम आती है क्या – अब तो जमाना बोत आगे चला गया है । जो कहना है कह दो । लो पता तो चले कि जेठानी जी का नाम क्या है ?”

“नगीना ।”

“सच में – नगीना ही ढूँढ़ा होगा जेठ जी ने । वैसे अपने लुधियाने में भी बोत नगीने हैं । मैं भी तो लुधियाने की हूँ ।” कहते हुए बिल्लो के चेहरे पर शरम भरी मुस्कान उभरी – फिर कह उठी – “लो, मैं तो अपनी ही बात ले के बैठ गई । जेठ जी, कभी जेठानी जी को भी ले के आओ । बिना औरत के तो आदमी, कुत्तों जैसा लगता... ।”

“ऐ की कह रही है बिल्लो ?” जसदेव सिंह हड़बड़ा कर बोला ।

“मैं तो जी बड़े-बूढ़ों की कहीं बात कह रही हूँ । क्या बुरा कह दिया ? असाँ ते लुधियाने वाले आँ । कहने और खाने में तो जरा भी नहीं शर्माते । तो जेठ जी, कब लाओगे मेरी प्यारी सी जेठानी को ?”

“जल्दी लाएँगे ।” जगमोहन कह उठा ।

“जेठ जी को तो बोलने दो... सब कुछ देवर जी, तुसी ही कहोगे ?”

“वो जेठ जी शर्माते बहुत हैं जब बीवी की बात हो तो । इन्होंने मुझे कह रखा है कि ऐसे मौके पर मैं ही बोला करूँ ।”

“वाह... अपने देवर जी तो बड़े कमाल के बंदे हैं । आपका ब्याह कब हुआ ?”

“ब्याह ?” जगमोहन हड़बड़ाया ।

“क्या हुआ, क्या आपकी जगह अब जेठ जी तो जवाब नहीं देंगे ?”

“म... मेरा ब्याह नहीं हुआ है ।”

“नहीं हुआ... कमाल ऐ । तो क्या इतनी बड़ी उम्र में भी इधर-उधर ही मूँ मारते रहोगे । रिश्ता करा दूँ । है नजर में ईक ।”

“रिश्ता ?”

जसदेव सिंह ने मुँह घुमा लिया ।

“मेरी मानो तो ब्याह कर लो देवर जी । बुढ़ापे में तो नौकरानी भी घर के काम नेई करती कि बूढ़ा खाँसता है । हाँ बोलो तो आज ही ।”

“नहीं ।”

“तुसी तो ऐसे डर रहे हो जैसे मैं भूतनी से रिश्ता करने को कह रही हूँ । बोत बढ़िया लड़की है वो ।”

“पंचम दा ब्याह करा दे बिल्लो ।” जसदेव सिंह ने टोका ।

“पंचम की किस्मत में ब्याह कहाँ । होता तो कर लिया होता उसने । कितनी बार तो उसका ब्याह कराने की कोशिश की । जब भी लड़की देखने जाना होता है तो उसका पेट ही खराब हो जाता है । पता नहीं क्या हिलता है तब उसके पेट में । क्यों जी, जब आप मुझे देखने आए थे तो आपके पेट में भी कुछ हिला था ?”

“नहीं ।”

“तो उसके पेट में क्या हिलने लगता है जो ठीक मौके पर उसका पेट खराब हो जाता है । अबकी बार तो पंचम के पेट का इलाज कराके ही रहूँगी । चौराहे पर हकीम का जो खोखा है ना, वहाँ से उसे दवा दिलवाऊँगी ।”

ये दिन इस तरह मौज-मस्ती में बीता ।

और आज ही सनसनी से भरी डकैती की बुनियाद रख दी गई थी ।

पंचम लाल के गैराज पर ।

रात के ग्यारह बज रहे थे ।

गैराज के केबिन में अकेला बैठा, आँखें बंद किए कुर्सी की पुश्त से सिर टिकाए, दोनों हाथों की उँगलियों से धीमे-धीमे टेबल थपथपा रहा था । गैराज की लाइट जली हुई थी । हर तरफ स्पष्ट नजर आ रहा था । एक तरफ जली कारों के दो ढाँचे मौजूद थे और एक पुराने मॉडल की मारूति कार का बोनट खुला हुआ था । वो जैक पर लगी थी और पहिए भी निकले हुए थे ।

गैराज पर शांति थी ।

उसके अलावा कोई न था ।

जगमोहन से बात करके, लानती के साथ सीधा गैराज पर ही पहुँचा था । लानती को सारा मामला समझा कर उसे वैन के फर्श की चादर का साइज बताकर, एल्युमिनियम की चादर लाने और पहियों के कवर लाने भेजा जैसा कि बैंक वैन के पहियों पर लगे थे ।

सारा मामला जानकर लानती को तो जैसे पंख लग गए थे ।

छ: बजे गया था लानती । अब रात के ग्यारह बज गए थे ।

एकाएक पंचम लाल ने आँखें खोलीं और कुर्सी छोड़कर उठ खड़ा हुआ । कमर पर दोनों हाथ बाँधे केबिन से निकला और गैराज की खुली जगह में सोच भरे ढंग से टहलने लगा । हर तरफ खामोशी होने की वजह से उसके जूतों की मध्यम सी आवाज गूँजने लगी थी । पंचम लाल ने सिगरेट सुलगाई । वो सोचों में डूबा लग रहा था ।

सिगरेट समाप्त ही हुई थी कि बाहर से लानती की आवाज आई । पंचम लाल बाहर पहुँचा तो लानती को रिक्शे पर बैठे देखा । अपने नीचे उसने एल्युमिनियम की मोटी चादर, जो कि छ: बाई-छ: फीट की थी । बिछा रखी थी ।

“चादर देख ले पंचम ।” लानती उसे देखते ही बोला – “पसंद नहीं है तो इसी रिक्शे पर वापस भेज देता हूँ । अभी पैसे नहीं दिए हैं । मेरे नाम का सिक्का चलता है । उसने कहा पैसे दो दिन बाद ले लेंगे ।”

पंचम लाल पास आया । एल्युमिनियम की मोटी शीट को ठोक बजा कर देखा । उसके ऊपर उभरा-उभरा सा डिजाइन बना हुआ था । जब उसकी तसल्ली हो गई कि ठीक माल आया है तो उसने चादर नीचे उतरवाई ।

लानती ने रिक्शे वाले को पैसे देकर वापस भेज दिया ।

“टायरों के कवर कहाँ हैं ?” पंचम लाल ने पूछा ।

“वैसे नहीं मिले – जैसे हमें चाहिए ।”

“तो ?”

“मैं टायरों के कवर का डिजाइन कागज पर बनाकर दे आया हूँ । लंबाई-चौड़ाई भी बता दी है । वो अपना अनवर मिला था । पी रखी थी लेकिन बात सुनने के काबिल था । समझा दिया उसे कि कैसे टायर कवर चाहिए । कल से बनाने शुरू कर देगा । पट्ठा बहुत अच्छे ढंग से समझा कि टायर कवर कैसे बनाने हैं । कहने लगा ऐसे टायर कवर तो उसने हमारे गैराज पर खड़ी बैंक वैन में लगे देखे थे । मैंने कह दिया कि वैसे ही बनाने हैं । कस्टमर की डिमांड है कि वो अपनी गाड़ी पर वैसे ही टायर कवर लगवाना चाहता है ।”

“अनवर को शक तो नहीं हुआ कि... ।”

“शक कैसा ।” लानती ने मुस्कराकर कहा – “मैंने शक होने ही नहीं दिया ।”

“कल सुबह अनवर के पास पहुँच जाना । वहीं बैठकर वैसे ही कवर बनवाना अपने सामने ।”

“ठीक है ।”

दोनों भीतर केबिन में पहुँचे ।

“बोतल पड़ी है ?” लानती बोला ।

“पड़ी है । मेरे लिए भी गिलास में डाल देना ।”

लानती ने दो गिलास तैयार किए । एक पंचम लाल को थमाया और दूसरा खुद थामे कुर्सी पर बैठ गया ।

“पंचम ।” लानती घूँट भरने के बाद पहली बार गंभीर दिखा – “एक बार फिर सोच लेना ।”

“क्या ?”

“क्या तू अपनी औकात के बाहर के काम में तो हाथ नहीं डाल रहा ?”

“मैं कुछ नहीं कर रहा ।” पंचम लाल शांत स्वर में बोला – “जो करेगा, देवराज चौहान करेगा ।”

“वो तो ठीक है । मैं तेरे बारे में सोच रहा हूँ कि कहीं तू अपनी हिम्मत से बड़ा काम तो नहीं कर रहा ?”

पंचम लाल ने लानती को देखा फिर कह उठा –

“मैं जो कर रहा हूँ, ठीक कर रहा हूँ ।”

लानती ने आधा गिलास खाली कर दिया ।

“सफलता से काम का निपटारा हो जाएगा ?”

“देवराज चौहान सब ठीक से करेगा ।”

“तेरा मतलब कि सब ठीक रहेगा ?” लानती गंभीर था ।

“हाँ ।”

“डेढ़-दौ सौ करोड़ हाथ लग जाएँगे ?”

पंचम लाल ने सहमति से सिर हिला दिया ।

“तो फिर मुझे ऐसा क्यों नहीं लगता ?”

“क्या नहीं लगता ?”

“कि हम कामयाब होंगे । डेढ़-दो सौ करोड़ हमारे हाथ लग जाएँगे ।”

पंचम लाल कुछ पल लानती को देखता रहा फिर कह उठा –

“उसमें देवराज चौहान का भी तो हिस्सा होगा ।”

“कितना ?”

“रुपये में से पैंसठ पैसे ।”

“हमें सिर्फ पैंतीस । उसमें से तुम क्या खाओगे और मैं क्या लूँगा । ये तो बहुत कम है ।”

“जो है इतना ही है ।” पंचम लाल ने शांत स्वर में कहा – “तेरे को यों नहीं लगता कि हम कामयाब होंगे ?”

“नहीं लगता । जरूरी तो नहीं कि हम जो भी काम करें, उसमें कामयाब ही रहें ।”

“सच में लानती है तू – लानती बातें ही करेगा”

“नाम का असर तो होता ही है ।” लानती मुस्करा पड़ा – “जीजे को पता है, सब बातें ।”

“कुछ बातें तो पता थी । मैंने बताई – बाकी पता चल गई होगी अब तक ।”

“दीदी को पता चल गया तो ?”

“नहीं चलेगा । जीजा बात बिल्लो तक नहीं पहुँचने देगा । समझदार है वो ।” पंचम लाल ने विश्वास भरे स्वर में कहा ।

लानती ने गिलास खाली करके कहा –

“अपना गिलास बना रहा हूँ । ला तेरा भी बना दूँ ।”

पंचम लाल ने भी गिलास खाली करके उसे थमा दिया ।

लानती ने फिर गिलास बनाए और एक पंचम लाल को थमा दिया ।

“जीजा रोक क्यों रहा था तेरे को ?”

“डर रहा होगा कि मैं ये काम न करूँ ?”

“यही बात होगी ।” लानती ने सिर हिलाया – “तेरा जीजा भी इस मामले में हिस्सेदार बनेगा ?”

“वो नहीं बनेगा । उसे नोटों की जरूरत नहीं । बहुत हैं उसके पास ।”

“नोट आते किसको बुरे लगते हैं ?”

“जीजा, इस काम में नहीं आएगा । क्योंकि ये काम मैं कर रहा हूँ ।” पंचम लाल का स्वर विश्वास से भरा था ।

लानती ने एक ही साँस में गिलास खाली किया और कह उठा –

“वैन के फर्श की पीछे वाली शीट बदलने में वक्त लगेगा । कैसे होगा काम ? उस हरामी बलवान सिंह की आँखें भी बहुत तेज हैं ।”

“वक्त तो निकालने ही पड़ेगा ।”

“कैसे करेगा, वो तो काईयाँ है ? वैन को नजरों से भी दूर नहीं होने देता । हर चौथे-छठे मिनट वैन के पास सूँघने चला आता है ।”

पंचम लाल ने घूँट भरा । चेहरे पर सोचने के भाव थे ।

“कितना वक्त लगेगा फर्श की चादर बदलने में ?” पंचम लाल ने पूछा ।

“आधा घंटा फर्श की चादर खोलने का और एक घंटा लगाने का । कुल डेढ़ घंटा ।”

“सोचूँगा कुछ... अभी दो-तीन दिन का वक्त है । कोई रास्ता तो निकल ही आएगा ।” पंचम लाल ने कहा और एक ही साँस में गिलास खाली करके उठा – “अभी आया ।”

“धार मारने जा रहा है ?” लानती मुस्कराया ।

“हाँ ।” पंचम लाल बाहर निकल गया ।

लानती उसे जाता देखता रहा फिर रिसीवर उठाया और नंबर मिलाने लगा । नजर बाहर पंचम लाल की ही तरफ रही ।

☐☐☐

अगले दिन सुबह के ग्यारह बज रहे थे । गैराज पर काम चल रहा था । दो अन्य कारें ठीक होने आई थीं । दो मिस्त्री और तीन हैल्पर उन कारों पर लगे हुए थे । शोर हो रहा था । एक कार गैराज के भीतर छत के नीचे थी । दूसरी खुले में बाहर थी पेड़ की छाया के नीचे । सड़क पार चाय वाला अभी सबको चाय देकर गया था ।

पंचम लाल केबिन में ही बैठा था । वो नहाया-धोया नहीं था । उसकी हालत देखकर ऐसा लग रहा था जेसे कुछ देर पहले ही नींद से उठा हो और कुर्सी पर आ बैठा हो । घर के नाम पर, गैराज की छत पर दो कमरे थे । एक कमरे का वो इस्तेमाल कर लेता था और दूसरे का लानती । यही उनका घर था ।

पंचम लाल चाय का गिलास थामे कुर्सी से उठा और घूँट भरता हुआ केबिन दरवाजा खोलकर बाहर, गैराज के खुले हस्से में आया । कुछ दूरी पर एक कार का इंजन खोले मिस्त्री बैठा था । पास में उसका हैल्पर था ।

“उस्ताद जी ।” मिस्त्री बोला – “इस बार तो कार का ‘बिल’ तगड़ा बनेगा ।”

“क्यों ?” पंचम लाल उसकी तरफ बढ़ा ।

“पिछली दो बार तो इस कार से हमने कमाया ही नहीं । नया-नया ग्राहक था । विश्वास पैदा करने के लिए दोनों बार काम बढ़िया किया और वसूला कुछ भी नहीं ।” मिस्त्री ने कहा – “इस बार तो कम से कम आधा इंजन खुलेगा । इस कार वाले से नोट ठोककर लेने का वक्त तो अब आया है ।”

“जो भी करना, समझदारी से करना ।”

“मैंने तो आपको बताना है उस्ताद जी – नोट तो आपने ही लिखने हैं बिल पर ।”

“आज इसका मालिक आएगा । बता देना उसे कि खर्चा होगा ।”

“बता दूँगा ।” मिस्त्री ने कहा फिर कुछ दूर दीवार के साथ सटा कर खड़ी कर रखी फर्श वाली सीट को देखते हुए कह उठा – “वो क्या है, किसी वैन का फर्श बदलना है क्या ? वैसी शीट तो वैन-मिनी बस या बड़ी बस-ट्रक में ही लगती है ।”

“हाँ, बदलना है । तू अपना काम कर ।” पंचम लाल वहाँ से हटा और उसी तरफ बढ़ गया ।

पास पहुँचकर शीट को देखा ।

बढ़िया क्वालिटी की थी । मजबूज थी । परंतु जब उसे काटने की कोशिश की जाएगी तो वो कट जाएगी । स्टील की मोटी शीट, जो कि अब वैन में लगी थी । उसे कम वक्त में काट पाना कठिन काम था । पंचम लाल ने शीट को ठोक-बजाकर अच्छी तरह चैक किया । तभी जेब में पड़े मोबाइल फोन की बेल बजी ।

“हैलो !” पंचम लाल ने फोन निकालकर बात की ।

“लानती दिस साईड ।” उसके कानों में लानती की आवाज पड़ी ।

पंचम लाल ने बुरा सा मुँह बनाया ।

“अंग्रेजी मत झाड़ा कर । तू पंजाबी में बोलता ही ठीक लगता है ।” पंचम लाल उखड़े स्वर में कह उठा – “बात कर ।”

“वैन के पहिए के कवर बनने शुरू हो गए हैं । अनवर को रात की बोतल भी देनी होगी ।”

“कवर का साइज है ? छोटे-बड़े मत बना लेना ।”

“सब साइज है । तू फिक्र मत कर । अभी तो पहला कवर बन रहा है । देखकर ही लगता है कि काम बढ़िया हो रहा है ।”

“कम ही लोग देखें कि वो कवर बन रहे हैं ।”

“ये बात तो मैं भी समझता हूँ । मैंने अनवर की दुकान का शटर गिरा दिया है । दुकान बंद देखकर कोई आएगा ही नहीं । दोनों नौकरों को मैंने ठर्रा पिलाकर फिल्म देखने भेज दिया है । दो सौ रुपये उन्हें दिए । अब मैं और अनवर ही है यहाँ । इस वक्त वो ‘धार’ मारने गया है ।”

“ज्यादा पैसे खर्च मत कर । नौकरों को सौ रुपये देकर भी काम चल सकता था ।”

“कोई बात नेई – जब साले वापस आएँगे तो सौ माँग लूँगा ।” लानती रुककर बोला – “मैं कुछ सोच रहा हूँ ।”

“क्या ?”

“दिल्ली जाकर रहने लगूँ ।”

“दिल्ली, वो क्यों ?”

“अब इतने नोट आ जाने हैं कि मेरे को काम करने की जरूरत ही नेई रहनी । लुधियाना में तो सब जानते हैं कि मैं लानती हूँ । नाम ही मेरा ऐसा रख दिया है कि पैसा आने के बाद, इस नाम की वजह से मेरी इज्जत खराब होगी । लुधियाना में तो शादी के लिए कोई लड़की भी नहीं मिलती । सुना है, दिल्ली में मिल जाती है ।”

“पहले कभी दिल्ली गया है ?” पंचम लाल कड़वे स्वर में बोला ।

“एक बार गया था । उस दिन कुतुबमीनार ही देखता रहा और... ।”

“तू पहियो के कवर बनवा... जब तेरे पास नोट आ जाएँ तब बात करना ।” पंचम लाल ने कहा और फोन बंद कर दिया । हाथ में पकड़े गिलास की ठण्डी हो रही चाय को उसने एक ही घूँट में खत्म किया और केबिन में पहुँचकर कुर्सी पर बैठ गया ।

पंचम लाल की सारी सोचें, बैंक वैन – करोड़ों की दौलत और डकैती पर ही घूम रही थी । मन में बार-बार एक ही सवाल आ रहा था कि क्या डकैती सफल होगी ? वो दौलतमंद बन पाएगा ? ऐसा तो नहीं कि पुलिस के हत्थे जा चढ़े ।

सब ठीक रहेगा । उसने मन को तसल्ली दी । उसके बाद वो यही सोचने लगा कि डकैती के दौरान क्या-क्या हो सकता है । अगर कहीं कोई कमी है तो उसे पहले ही दूर कर ले ।

तभी बाहर ठीक हो रही कार का हैल्पर दरवाजा धकेल कर भीतर आया ।

“उस्ताद जी ।” वो बोला – “गड्डी दा कारबोरेटर, गोदाम से निकाल कर डाल दूँ ।”

“क्यों ?”

“कारबोरेटर बोत बढ़िया है इस गड्डी दा । मेरे मामे ने पुरानी गड्डी खरीदी वे, ओदा (उसका) कारबोरेटर बोत तंग कर रहा है । इस कार का कारबोरेटर, मामे दी गड्डी में डाल दूँगा । मामा खुश हो जाएगा ।”

“तू गड़बड़ बोत करता है ।”

“उस्ताद जी ।” वो मुस्कराया – “आपनूँ वी तो फायदा है ।”

“वो कैसे ?”

“कुछ दिन बाद ओ गड्डी वाला कारबोरेटर तो परेशान होकर, नया डलवाने आएगा तो दो पैसे आपको मिलेंगे । आपका भी तो खयाल रखना पड़ता है । दस पैसे आपको मिलेंगे तो एक पैसा हम भी खा लेंगे ।”

“जा बदल ले ।”

“शुक्रिया उस्ताद जी । मजा ही आ गया ।” वो पलट कर बाहर निकल गया ।

पंचम लाल की सोचे पुन: डकैती के गिर्द घूमने लगी ।

गैराज के काम में उसका जरा भी मन न लग रहा था ।

एकाएक पंचम लाल की सोचें ड्राइवर बलवान सिंह पर आ अटकी ।

जब वैन के पीछे वाले हिस्से के फर्श की स्टील की चादर हटाकर, दूसरी चादर लगाई जाएगी तो तेज नजर रखने वाले बलवान सिंह की नजरों से ये बात कैसे छिपेगी ?

बलवान सिंह वैन का काम होने के दौरान केबिन में ही बैठा रहता है और बाहर वैन भी ऐसी जगह खड़ी करवाता है कि उसे वहीं से नजर आती रहे कि कहाँ-कहाँ छेड़ाखानी की जा रही है ?

उसे कैसे उस दिन वैन से दूर रखा जाए ? पंचल लाल को ये बात समस्या वाली लगी । बलवान सिंह को वैन से दूर कैसे किया जाए ? उसका दिमाग तेजी से दौड़ने लगा ।

तभी उसकी आँखें सिकुड़ी । इस वक्त वो बाहर देख रहा था । गैराज के बाहर जसदेव सिंह की सैंट्रो कार को उसने रुकते देखा तो बड़बड़ा उठा ।

“जीजा क्या करने आया है ।”

तभी सैंट्रो से उसने देवराज चौहान और जगमोहन को बाहर निकलते देखा ।

उन्हें देखकर पंचम लाल सतर्क हुआ । फौरन उठा और बाहर की तरफ बढ़ा ।

“खबर नहीं की आने की ।” पास पहुँचते ही पंचम लाल कह उठा ।

“क्या जरूरत थी । हमारे अपने की खबर पाकर क्या करता तू ?” जगमोहन ने आस-पास देखते हुए कहा ।

देवराज चौहान बाहर मौजूद ठीक होती कार को देखने लगा था ।

“करना क्या है ?” पंचम लाल मुस्कराया – “नहा-धो लेता । आओ भीतर आओ – केबिन में बैठते... ।”

“हम यहाँ खातिरदारी कराने नहीं आए... गैराज देखने आए हैं । आस-पास का माहौल देखने आए हैं ।”

“देखो-देखो, खुले में है गैराज । उस तरफ आरा मशीन लगी है पड़ोसी की । उसके पार वाली दुकान में मोटर बाईंडिंग का काम होता है । फिर दुकानें बंद है । पाँच-सात दुकानों के बाद खाने का ढाबा है और... ?”

“तू चूप रह... । हम देख लेंगे ।” जगमोहन ने कहा ।

देवराज चौहान गैराज की भीतर की तरफ बढ़ गया ।

पीछे जगमोहन और पंचम लाल थे ।

“जीजे से कोई बात हुई इस बारे में ?” पंचम लाल ने पूछा ।

“वो सब जानता है कि हम क्या करने जा रहे हैं ।”

“वो तो मैंने बताया था । नाराज-वाराज तो नहीं है वो । मुझे मना कर रहा था कि तुम लोगों से डकैती की बात न करूँ । रिश्ता ही ऐसा है कि वो चाहता होगा, उसकी पहचान वालों से दूर रहूँ ।” पंचम लाल ने कहा ।

“वो चुप है । लेकिन उसे अच्छा नहीं लग रहा कि तू डकैती जैसे काम में दखल दे रहा है ।”

“कोई बात नहीं । थोड़ी-बहुत नाराजगी तो उसे होनी ही चाहिए । दूर हो जाएगी । क्या जीजा भी इस काम में है ?”

“नहीं, मैंने पूछा था । लेकिन वो बोला कि वो इस काम में नहीं आएगा । जरूरत पड़ने पर हमारे काम अवश्य आ जाएगा । डकैती में अपनी हिस्सेदारी नहीं रखेगा । शरीफ बंदा है जसदेव सिंह । पूराना जानता हूँ उसे ।”

“हाँ – जैसा भी है, बंदा शरीफ है । बिल्लो को बोत खुश रखता है ।”

देवराज चौहान और जगमोहन ने पूरा गैराज देखा । गैराज की छत पर बने दोनों कमरों को भी देखा । आस-पास का माहौल भी देखा । फिर वे केबिन में आ बैठे ।

“चाय मँगवाता... ।” पंचम लाल ने कहते हुए उठना चाहा ।

“कुछ नहीं चाहिए हमें । बैठा रह... ।”

पंचम लाल बैठ गया ।

“बैंक वैन कब आएगी ?” देवराज चौहान ने पूछा ।

“दो-तीन दिन में कभी भी आ सकती है ।” सतर्क सा पंचम लाल, देवराज चौहान को देखने लगा था ।

“कहाँ खड़ी होती है ?”

“बाहर सामने या गैराज के भीतर ।” पंचम लाल बोला ।

“और उसका ड्राइवर बलवान सिंह किधर होता है तब ?”

“यहीं, इसी केबिन में बैठता है ।” पंचम लाल ने बेचैनी से कहा – “वो ऐसी जगह वैन लगवाता है कि यहाँ बैठकर उसे देख सके । ये शीशे का केबिन है । यहाँ से हर तरफ नजर चली जाती है ।”

“ये बात कहते हुए परेशान क्यों हो गए ?” देवराज चौहान की निगाह उसके चेहरे पर टिकी थी ।

“बलवान सिंह को लेकर परेशानी आ रही है ।”

“कैसे ?”

“जैसा कि मैंने बताया, वो इधर ही बैठता है और बैंक वैन को सामने ही कहीं खड़ा करवाता है । लेकिन उसके फर्श को चादर बदलने के लिए डेढ़-दो घंटे का खुला वक्त चाहिए हमें । इतनी देर तक बलवान सिंह को वैन से दूर नहीं रखा जा सकता ।”

“जबकि रखना पड़ेगा ।” जगमोहन बोला ।

“यही तो समस्या है कि रखा नहीं जा सकता ।”

“रखना पड़ेगा ।” जगमोहन ने पुन: अपने शब्दों पर जोर दिया ।

“नहीं रखा जा सकता ।” पंचम लाल ने कहकर गहरी साँस ली ।

जगमोहन ने देवराज चौहान को देखा ।

“इसकी बात है तो परेशानी वाली ही ।”

देवराज चौहान ने सिर हिलाया और पंचम लाल से कह उठा –  

“कभी तो ऐसा वक्त आया होगा कि वो वैन छोड़कर एक-दो घंटे के लिए कहीं गया हो ?”

“नहीं ।” पंचम लाल ने इनकार में सिर हिलाया – “वो वैन को छोड़कर कहीं नहीं जाता । इस दौरान बलवान सिंह को बाथरूम जाने की जरूरत पड़े तो इधर-उधर ही निपटा लेता है, जहाँ से वैन नजर आती रहे । हर तरफ खुली जगह है ।”

“बहुत समझदार है ।” जगमोहन कह उठा ।

“उसका फोन आता है यहाँ ?”

“यहाँ ?”

“जब वो बैठा होता है ।”

“आता है, लेकिन उसके मोबाइल फोन पर ।”

देवराज चौहान के चेहरे पर किसी तरह का भाव नहीं था । उसने सिगरेट सुलगाकर कश लिया ।

“वो कहाँ रहता है ?”

“रामनगर ।” कहकर पंचम लाल ने उसके घर का पता भी बता दिया ।

“उसके परिवार के बारे में मालूम है ?” देवराज चौहान ने शांत स्वर में पूछा ।

“हाँ । वो मेरे से सब तरह की बातें कर लेता है । यहाँ बैठना होता है उससे तो बातें हो ही जाती हैं । पत्नी के अलावा तीन बच्चे हैं उसके । बड़ी लड़की है । कॉलेज के आखिरी साल में है । बाकी के दो लड़के हैं । एक कॉलेज के पहले साल में है । दूसरा लड़का दसवीं में पढ़ता है । बच्चे तीनों लायक हैं । अपने बच्चों की तारीफ करता रहता है ।”

“बंदा कैसा है ?”

“बहुत ईमानदार है । पैसे देकर भी उसे खरीदा नहीं जा सकता ।” पंचम लाल ने विश्वास भरे स्वर में कहा ।

“तुमने कभी ऐसी बात छेड़ी कि... ।”

“बिल्कुल नहीं । मैं जानता हूँ वो ईमानदार है । उल्टी बात करूँगा तो शक होने पर वो रोशनी इंटरप्राइजिज में कहकर गैराज बदल लेगा । वो बहुत सतर्क रहता है । भीतर की बात ज्यादा नहीं करता ।”

देवराज चौहान कुछ न बोला ।

खामोशी वहाँ ठहरने लगी तो जगमोहन कह उठा ।

“तू चाय मँगवा रहा था, मँगवा ले ।”

पंचम लाल फौरन उठा और आगे बढ़कर केबिन का दरवाजा खोलकर गरदन बाहर निकाली ।

“मुन्ना, चाय लेकर आ । बढ़िया हो ।”

कार के पास व्यस्त खड़े मुन्ना ने गरदन घुमाकर उसे देखा ।

“सौदा पट गया, उस्ताद जी ।”

“किस बात का ?”

“गैराज बेचने का – वो दोनों साहब खरीदने के लिए ही तो गैराज देख रहे होंगे ।” बोला मुन्ना ।

“चाय ला । ऐसा कुछ नहीं है ।” पंचम लाल ने कहा और वापस आकर कुर्सी पर बैठ गया ।

“वैन के पीछे बैठने वाला गनमैन कौन है ?”

“उसके बारे में मैं नहीं जानता । मेरी उससे बात भी नहीं हुई । वैन के साथ गैराज पर बलवान सिंह ही आता है । मेरे खयाल में पीछे बैठने वाला गनमैन एक नहीं होता । किसी की भी ड्यूटी इस काम पर लगा दी जाती है । दो या तीन गनमैन हैं । उन्हीं में से किसी एक को वैन के साथ भेज दिया जाता है ।” पंचम लाल ने कहा – “एक बार बलवान सिंह के साथ जिक्र छिड़ आया था गनमैन का तो तब उसके मुँह से ये बात निकली थी ।”

देवराज चौहान ने कश लिया ।

“बलवान सिंह की मौजूदगी में वैन के फर्श की शीट नहीं बदली जा सकती । उसे यहाँ से हटाना बहुत जरूरी है और वो हटेगा नहीं । अपने काम का और ड्यूटी का पक्का बहुत है । फर्ज को तो भगवान समझता है ।”

जगमोहन ने देवराज चौहान को देखा ।

“ऐसे इंसान को यहाँ से हटा पाना वास्तव में कठिन है ।” जगमोहन बोला – “ऐसे पक्के लोग हमारे लिए मुसीबत खड़ी कर सकते हैं ।”

“जैसे हम अपने काम के लिए पक्के हैं तो दूसरा भी पक्का हो सकता है ।” देवराज चौहान मुस्कराया – “बलवान सिंह अपना काम करेगा और हम अपना । ऐसे पक्के और मजबूत लोग हर जगह मौजूद होते हैं । कभी उनका पता चल जाता है और कभी नहीं चलता ।”

जगमोहन गंभीर सा देवराज चौहान को देखने लगा ।

“मुझे लग रहा है कि बलवान सिंह समस्या खड़ी कर सकता है । कहीं वैन के फर्श की शीट बदलने में रूकावट न बन जाए वो ।”

“सोचेंगे ।” जगमोहन बोला – “तू चिंता न कर । कोई रास्ता तो नजर आएगा ।”

पंचम लाल के चेहरे पर परेशानी टिकी रही ।

तभी मुन्ना छक्के में चाय के तीन गिलास रखे भीतर आया और गिलास को निकालकर टेबल पर रखता बोला –

“लो उस्ताद जी । बढ़िया चाय है । ऊपर मलाई ही मलाई तैर रही है । मलाई दा घूँट भरोगे तो मजा आ जाएगा ।”

मुन्ना बाहर निकल गया ।

“तुमने क्या तैयारी की ?”

“वैन के फर्श में जो शीट लगानी है, वो रात को ही मैंने लानती से मँगवा ली थी । बाहर पड़ी है । आओ दिखाता... ।”

“तेरे बंदे यहाँ पर हैं । हम ज्यादा इधर-उधर न ही देखें तो ठीक रहेगा । खामखाह कोई शक करने लगेगा ।” जगमोहन बोला ।

पंचम लाल सिर हिलाकर रह गया ।

“टायरों के कवर भी तैयार करने हैं तुमने ।”

“लानती उन्हीं के लिए गया हुआ है । सामने बैठकर बनवा रहा है । वैसे कवर बाजार से नहीं मिलते । अगर मिलते हैं तो मुझे नहीं पता कि किधर मिलते हैं । वो विदेशी कवर हैं । वैन के साथ ही लगे, बाहर से आए थे ।”

“ये पक्का पता है कि वैन के टायरों पर इस वक्त जो कवर लगे हुए हैं, वो बुलेट प्रूफ हैं ?”

“पक्का पता है । बलवान सिंह ने खुद ये बात मुझे बताई थी ।”

वे चाय पीने लगे थे । देवराज चौहान बोला –

“बैंक वैन जब बैंक से रवाना होती है तो तुम्हें पता है कि वो किस-किस रास्ते से होकर जाती है और कहाँ-कहाँ रुकती है ।”

“पक्का पता है ।”

“बलवान सिंह कभी रास्ता बदल भी तो लेता होगा ?”

“मेरे खयाल में रास्ता नहीं बदला जाता । इस बार आएगा तो किसी तरह रास्ते के बारे में पता करने की चेष्टा करूँगा । लेकिन फिर भी मुझे यकीन है कि रास्ता बदला नहीं जाता होगा । वो ही रहता होगा ।”

“साथ चलो और वो सड़कें दिखाओ, बैंक वैन चलने के बाद जिन रास्तों को तय करती है ।” देवराज चौहान ने कहा और उठ खड़ा हुआ ।

“वो तो दिखा देता हूँ ।” व्याकुलता भरा पंचम लाल उठता कह उठा – “लेकिन बलवान सिंह का क्या होगा । वो तो जिस दिन वैन गैराज पर लेकर आएगा, यहीं पर जमा रहेगा । वैन पर नजर रखेगा । ऐसे में वैन के फर्श की चादर बदल पाना कठिन हो जाएगा । अगर हम वैन का फर्श नहीं बदल सके तो वैन पर काबू पाने के बाद, उसके भीतर पड़ा डेढ-दो सौ करोड़ कैसे निकालेंगे ? भीतर गनमैन बैठा होगा । उसे हम कैसे बाहर निकाल पाएँगे । तब हमारे सामने बहुत परेशानी... ।”

“उसके बारे में कुछ सोचेंगे ।” देवराज चौहान बोला – “तुम मुझे वो रास्ता दिखाओ जहाँ से वैन गुजरती है ।”

☐☐☐

वो दिन उनका रास्ता देखते ही बीत गया ।

बैंक वैन बैंक हैडऑफिस से चलकर, जिन-जिन रास्तों से निकलती थी, जहाँ-जहाँ रुकती थी, वो सब बताया पंचल लाल ने । देवराज चौहान समझ गया कि अपने तौर पर पंचम लाल ने पूरी तैयारी कर रखी है । उसका खयाल ठीक था कि अगर वो इस काम के लिए ‘हाँ’ न करता तो पंचम लाल ने अपने तौर पर, दो-चार लोगों के साथ मिलकर इस काम को अंजाम दे देना था । वो बाद की बात थी कि सफल होता या असफल होता ।

तीन बार रास्ता देखा देवराज चौहान ने ।

जगमोहन कार ड्राइव कर रहा था । पंचम लाल बीच-बीच में उसे रास्ता बता देता ।

कई जगह देवराज चौहान ने उतरकर रास्ते की आस-पास की जगहों को देखा । इसी काम में ही शाम का अंधेरा फैलना शुरू हो गया था । तब लानती का फोन आया ।

पंचम लाल ने बात की ।

“काम हो रहा है । टायरों के दो कवर बन गए हैं ।” लानती ने बताया ।

“कवर वैसे ही हों, जैसे कि असली... ।”

“फिक्र न कर । असली से भी असली हैं । उन पर सिल्वर कलर हुआ पड़ा है । मैं इन पर सिल्वर कलर की स्प्रे मरवाकर, उनकी तरह मैं कवरों को पुराना कर दूँगा ।”

लानती की आवाज कानों में पड़ी – “एक बार वो वैन मुझे देखनी पड़ेगी ।”

“क्यों ?”

“उसके टायरों पर लगे कवरों को देख लूँगा कि कहाँ-कहाँ पर कैसा निशान है । ताकि असली कवरों की तरह, इन्हें पुराना करके तैयार कर दूँ । बलवान सिंह बोत घटिया बंदा है । उसकी नजरें बहुत तेज हैं ।”

“ठीक है । कल सुबह वैन को देख आना । बैंक में कहीं खड़ी होगी । तब बलवान सिंह की नजर तेरे पे न पड़े । वो शक करेगा कि... ।”

“चिंता करनी छोड़ दे । वो मुझे नहीं देख पाएगा ।”

“ठीक है । रात को बात करेंगे । कब आएगा ?”

“आ जाऊँगा... बोतल लेता आऊँ ?”

“ले आना ।”

“बाकी के दो कवर कल बनेंगे असलम अब नखरे दिखाने लगा है । कहता है पीठ दर्द हो रही है ।”

“सारा दिन बैठकर कवर बनाता रहा, तो क्या पीठ दर्द नहीं होगी ? रात को बात करेंगे ।” पंचम लाल ने कहकर फोन बंद किया ।

कार वापस गैराज की तरफ दौड़ी जा रही थी ।

“रास्ता देख क्या तय किया कि कहाँ पर वैन पर हाथ डालोगे ?” पंचम लाल ने पूछा ।

देवराज चौहान ने कुछ नहीं कहा ।

“बताएँगे... बताएँगे ।” जगमोहन बोला – “तू अपने काम की तरफ ध्यान रख ।”

“मेरा काम तो हुआ ही पड़ा है । लेकिन... ।”

“अटक क्यों गया ?”

“उस दिन वहाँ से बलवान सिंह को कैसे हटाएँगे ?” पंचम लाल कह उठा ।

“ये चिंता हमारे लिए छोड़ दे । कोई रास्ता तो निकालना ही होगा ।”

कार गैराज पर पहुँची तो पंचम लाल उतर गया ।

जगमोहन ने कार आग बढ़ा दी ।

देवराज चौहान सोचों में डूबा हुआ था । ऐसे में जगमोहन ने उससे कोई बात न की ।

☐☐☐

“लो... आ गए परा (भाई) जी ।” देवराज चौहान और जगमोहन को भीतर प्रवेश करते पाकर बिल्लो कह उठी – “कां पे चले गए थे आप दोनों ? बता के ही नेई गए । मैंने तो लंच भी बना लिया । डायनिंग टेबल पर भी लगा दिया । वहाँ खड़ी आप दोनों का इंतजार करती रही कि अभी आए कि अभी आए । पता है मैंने कम से कम पंद्रह चक्कर मारे होंगे, डायनिंग टेबल से लेकर बाहर के गेट तक । गेट पर खड़ी बाहर देखती रही कि सोचा कहीं आप रास्ता न भूल गए हो । सामने सड़क से निकले तो आवाज मार के बता दूँगी कि ये घर है बिल्लो का । आगे कहाँ जा रहे हो ।”

देवराज चौहान और जगमोहन ठिठके । उनके चेहरों पर शांत मुस्कान आ ठहरी थी ।

“देखो जी, असाँ ते लुधियाने वाले आँ । मेहमान दी पूरी सेवा कर रहे हाँ । रोटी खाने दे वक्त मेहमान ही दौड़ जाए ते लुधियाने की, अमृतसर वाले भी कुछ नेई कर सकते । आप खाओ न खाओ, मैंने तो लंच बनाया । वो वैसे ही पड़ा है । थोड़ा से मैंने खाया और थोड़ा सा नौकरों ने । अब मैंने डिनर भी अलग से तैयार कर दिया है । डबल-डबल खाना पड़ेगा । लंच भी और डिनर भी । न खा सको तो पेट पे बाँध लेना । आपके हिस्से का ही बचा पड़ा है ।”

“परजाई जी, जरा काम से जाना पड़... ।” जगमोहन ने कहना चाहा ।

“पंचम दे साथ, साइकिल वाली फैक्ट्री लगान वास्ते तो नेई गए जेठ-देवर जी ?”

“वही परजाई, ठीक समझी ।”

“मैंने कितना समझाया, नेई मानी मेरी बात । पंचम के बस का नहीं है कुछ । कितना पैसा बरबाद किया आज ?”

“कुछ भी नहीं, परजाई – आज तो सिर्फ जमीन देखी है, जहाँ फैक्ट्री लगानी है ।”

“पैसा खर्च नेई हुआ । बोत अच्छा हुआ । अभी भी सोच लो । साइकिलों दी फैक्ट्री लगाने का कोई फायदा नेई है । आजकल लोग साइकिल चलाते ही कहाँ हैं ? कार चलाते हैं । पैदा होते ही कारा चलाने लगते हैं । हमारे पड़ोस में है विक्रमजीत । वो तो पैदा ही कार में हुआ । कर लो बात ।” एकाएक कहते-कहते बिल्लो रुकी, फिर बोली – “ये तो बताओ, दोपहर को क्या खाया ?”

“दोपहर को ?” जगमोहन हड़बड़ाया ।

देवराज चौहान बराबर मुस्करा रहा था ।

“शरमाते हो देवर जी । बता दो कि छोले-भठूरे, डोसा-नान या फिर वीरां दे होटल तो खाया ।” बिल्लो हँसी ।

“कुछ भी नेई खाया परजाई ।”

“कुछ भी नहीं खाया । हाय रब्बा... लुधियाने में रहकर भूखे रहे । मेरी तो नाक कट गई । खड़े क्यों हो ? आपका अपना ही तो घर है । अभी तक शरमा रहे हो । बठो... मैं पानी मँगवाती हूँ । पा ला जल्दी से ।” बिल्लो दूर मौजूद नौकर से कह उठी, फिर बोली – “फिकर न करो जेठ और देवर जी । लंच भी पड़ा है और डिनर भी तैयार है । दिन की सारी कसर निकाल लेना ।”

“जसदेव कहाँ है ?”

“वो तो जी सुबह के गए हैं । अभी कहाँ आएँगे । रात को बारह बजे आएँगे । रात को सोए-सोए जब कुत्तों के भौंकने की आवाज सुनाई दे तो समझ लेना – आपका छोटा पाई मतलब कि मेरे पति आ गए हैं । वो जब भी आते हैं, कुत्ते भौंककर मुझे पैले ही बता देत हैं कि वे आ गए हैं । उनके घंटी बजाने से पहले ही मैं दरवाजा खोल देती हूँ ।”

नौकर पानी ले आया ।

दोनों ने पानी पिया । गिलास वापस ले गया नौकर ।

“जेठ जी की आदत कितनी अच्छी है – मुस्कराते रहते हैं, कहते कुछ नहीं । मुझे लगता है कि शरमाते हैं । अब ये बताओ कि चाय लोगे या हाथ-मूँ धोकर लंच और डिनर एक-साथ करोगे ?”

“अभी तो आराम करेंगे ।” जगमोहन बोला – “कम-से-कम दो घंटे बाद डिनर करेंगे ।”

“दो घंटे तक तो जी मैंने नींद में होना है । फिर ये मत कहना कि बिल्लो खाना दिए बिना ही नींद में डूब गई । क्या करूँ, सोना भी पड़ता है । सुबह जल्दी उठना होता है । भैंसों का जो दूध निकालता है, उस पर नजर रखनी पड़ती है । जमाना बोत खराब है, नजर न रखो तो दूध कम हो जाता है । मैं पास न होऊँ तो भैंसें दूध कम देती हैं ।”

तभी नौकर पास पहुँचा ।

“क्या है ?” बिल्लो ने उसे देखा ।

“आपने कहा था कि याद दिला दूँ कि खीर बनानी है ।”

“ओह... हाँ, मैं तो बातों में भूल ही गई । चलती हूँ, पैले खीर बना लूँ – फिर बात करूँगी ।”

☐☐☐

अगले दिन सुबह ग्यारह बजे देवराज चौहान ने सड़क के किनारे कार रोकी ।

चौड़ी खुली सड़क थी ये । चार किलोमिटर के रास्ते की ये सड़क अक्सर खाली रहती थी । वाहन यही से निकलते थे । कालोनी आस-पास नहीं थी । सड़क के दोनों तरफ ज्यादातर खेत थे । खेत वालों ने, खेतों के भीतर ही कहीं पर भूसा रखने के लिए कोठरी तो कहीं ट्यूबवैल का कमरा तो कहीं रहने को दो-चार कमरे डाल रखे थे ।

इसी सड़क से वो बैंक वैन डेढ़-दो सौ करोड़ की रकम के साथ निकलती थी ।

देवराज चौहान और जगमोहन कार से बाहर निकले ।

सड़क के दोनों तरफ छायादार वृक्ष लगे थे । ठंडी हवा चल रही थी । सबकुछ मन को भला लग रहा था ।

वे दोनों सड़क से नीचे उतरे और खेतों में प्रवेश करके आगे बढ़ने लगे । कुछ दूरी पर ईंटों का बहुत बड़ा कमरा पड़ा नजर आ रहा था । यहाँ पूरी धूप थी । चंद कदम बढ़ाकर ही चेहरों पर पसीना चमक उठा था ।

चार-पाँच मिनट पैदल चलकर वो खेतों में बने उस कमरे के पास पहुँचे । काफी बड़ा कमरा था । वहाँ एक साथ बारह कारें खड़ी हो सकती थीं । दरवाजे पर ताला लटक रहा था ।

देवराज चौहान ने कमरे के गिर्द चक्कर लगाया । वहाँ से बारी-बारी हर तरफ देखने लगा । दस मिनट इस तरह बिताकर जगमोहन के पास आया और बोला –

“उधर छोटा-सा गाँव है । खेतों वाले रहते होंगे । पता तो करो कि ये खेत किसके हैं ?”

जगमोहन ने सिर हिलाया और खेतों में ही आगे बढ़ गया । दूर नजर आते कच्चे-पक्के गाँव की तरफ ।

एक घंटे बाद जगमोहन वापस लौटा । साथ में साठ-पैंसठ बरस का लंबा-सा व्यक्ति था । जिसने हाथ में लाठी पकड़ रखी थी । सिर पर पगड़ी थी । मैला हो रहा धोती-कुरता पहन रखा था । थोड़ी-सी दाढ़ी बढ़ी हुई थी ।

देवराज चौहान उस कमरे की दीवार से टेक लगाए छाया में बैठा था ।

“राम-राम ताऊ !” वो पास आया तो देवराज चौहान मुस्कराकर कह उठा ।

“ताऊ नहीं, जमींदार हूँ मैं !” वो मुस्कराकर बोला और पास ही बैठ गया ।

“सिगरेट लो ।” देवराज चौहान ने उसे पैकेट थमाया ।

उसने डंडा एक तरफ रखा और सिगरेट सुलगाकर मजे से कश लिया ।

“ये मुझे बुला के लाया कि उधर साहब बैठे हैं । उनसे बात करके फायदा होगा । क्या फायदा कराएगा तू ?”

“इस कमरे में क्या रखता है ?”

“भूसा, गोबर... क्यों ?” उसके चेहरे पर सवाल उभरा ।

“अब क्या है भीतर ?”

“खाली है । दो महीने बाद फसल कटेगी तो भूसा तैयार होगा ।”

“किराए पर देगा ?”

“किराए पे ?”

“पंद्रह दिन के लिए चाहिए ये कमरा । दस हजार रुपये दूँगा ।”

“पंद्रह दिन के वास्ते कमरा लेगा ये ?” वो हड़बड़ा-सा गया – “दस हजार देगा ?”

“हाँ ।”

“मुझ बूढ़े से मजाक करता है ।”

जवाब में देवराज चौहान ने दस हजार की गड्डी निकाली और उसके सामने रख दी ।

जमींदार की आँखें फैल गईं ।

“ये किराया है । पहले दे रहा हूँ । अब तू नहीं कहेगा कि मजाक करता हूँ ।”

जमींदार ने जल्दी से दस हजार की गड्डी उठाई और धोती में फँसा ली ।

“तुमने ये नहीं पूछा कि मैं कमरे का करूँगा क्या ?” देवराज चौहान ने मुस्कराकर कहा ।

“मेरी बला से !” खुशी से जमींदार की आँखें चमक रही थीं – “कुछ भी करें, मुझे तो नोटों से मतलब है ।”

“अपने जमींदार साहब तो बहुत समझदार हैं ।” जगमोहन कह उठा ।

“इधर कोई नहीं आएगा झाँकने ।”

“मेरे अलावा है ही कौन ? बेटे तो दिल्ली में काम करते हैं ।”

“किसी को बताना भी नहीं कि ये कमरा किराए पर दिया है ।” देवराज चौहान बोला – “लोगों को पता चलेगा तो आते-जाते वो भीतर झाकेंगे कि नया किराएदार कौन है ? ऐसा हुआ तो मैं किराया वापस ले लूँगा ।”

“किराया वापस लेने की बात कहाँ से आ गई ?” वो जल्दी से बोला – “मैं किसी को नहीं बताऊँगा ।”

“सड़क से कमरे तक गाड़ी लाने के लिए रास्ता बनाना है ।”

“कल बन जाएगा । मैं दो मजदूर बुला लूँगा । दो-तीन सौ रुपया लग जाएगा ।”

“खर्चा मैं दे दूँगा । सड़क से इधर का सीधा रास्ता नहीं चाहिए ।” देवराज चौहान बोला – “थोड़ा-सा उधर से घुमाकर रास्ता बनाना है । ऐसा कि सड़क से न दिखे कि इधर रास्ता आता है ।”

“समझ गया । ऐसा रास्ता ही बना दूँगा । तुम जरा समझा देना मुझे ।”

“कमरे की चाबी होगी पास में ?”

“चाबी ? वो तो घर पे पड़ी है । चाबी की क्या जरूरत है । पंद्रह रुपये वाला ताला लटक रहा है । ईंटा मार के तोड़ लो सुसरे को । सौ रुपये वाला नया ताला लाकर लगा देना ।”

जगमोहन दरवाजे की तरफ बढ़ गया ।

“तुम महीना रहो – दो महीना रहो । कोई चिंता नहीं । मैं तेरा पूरा ध्यान रखूँगा ।”

“क्या नाम है तुम्हारा ?” देवराज चौहान उठते हुए बोला ।

“राजेन्द्र सिंह । यहीं पैदा हुआ था । अब तो बूढ़ा हो गया ।” वो भी उठ खड़ा हुआ – “अपना गाँव तो क्या, आस-पास के सब गाँव वाले मुझे जानते हैं । दस-पाँच दिन में कभी इधर दरोगा आता है तो मेरे पास बैठकर ही चाय पीता है । यारी है उससे । कभी-कभी शाम को भी आ जाता है, अंधेरा होने पर । तब उसके साथ दारू पीता हूँ । दरोगे का कोई काम हो तो मुझे बताना, दो मिनट में करा दूँगा । चार महीने पहले तो उसके घर गेहूँ की दो बोरियाँ पहुँचाई थी । परसों ही आया था – कह रहा था गेहूँ बहुत बढ़िया रही । इस बार भी दो बोरियाँ पहुँचा दूँ ।”

देवराज चौहान, राजेन्द्र सिंह के साथ कमरे के दरवाजे पर पहुँचा । जगमोहन भीतर था । दरवाजे का टूटा ताला एक तरफ गिरा पड़ा था ।

देवराज चौहान ने भीतर प्रवेश किया और ठिठककर कमरे में नजरें दौड़ाने लगा । राजेन्द्र सिंह फौरन कह उठा –

“कल ये कमरा बिल्कुल साफ करा दूँगा । चमक जाएगा सबकुछ !”

कमरे का फर्श मिट्टी का था । भूसा और उपले इधर-उधर बिखरे हुए थे । प्लास्टर न हुआ था । ईंटों की ही दीवारें थी । बहुत बड़ा कमरा था । वैसा ही जैसा देवराज चौहान को चाहिए था । बैंक वैन को लाकर यहाँ खड़ा किया जा सकता था ।

देवराज चौहान की निगाहें दरवाजे पर जा टिकी ।

“राजेन्द्र सिंह ।”

“हाँ !” वो देवराज चौहान के पास आया ।

“दरवाजा छोटा है । मुझे इससे डबल दरवाजा चाहिए ।” देवराज चौहान ने राजेन्द्र सिंह को देखा ।

“मालिक हैं आप ! इसे उखाड़कर एक तरफ रख दीजिए । जितना चौड़ा दरवाजा चाहिए लगा लीजिए !”

“तुम लगवा दो, खर्चा मेरा ।”

“क्यों नहीं ! कल दरवाजा लगना शुरू हो जाएगा । परसों लगा मिलेगा ।”

देवराज चौहान ने पाँच हजार रुपया निकालकर उसे और दिया ।

“कमरे के भीतर कार रखेंगे शायद ।” वो नोटों को धोती में फँसाता बोला ।

“हाँ ।”

“नोट संभाल ।” जगमोहन ने मुँह बनाया – “कहीं घर पहुँचने पे पता चले कि नोटों का रास्ते में ही काम हो गया है ।”

जवाब में राजेन्द्र सिंह, जगमोहन को देखकर दाँत फाड़ने लगा ।

फिर देवराज चौहान उसे रास्ते के बारे में बताने लगा कि किधर से कैसा रास्ता तैयार करना है ।

जमींदार राजेन्द्र सिंह सबकुछ समझ गया ।

“कल काम हो जाना चाहिए ।”

“हो जाएगा । बड़ा दरवाजा परसों फिट होगा ।” राजेन्द्र सिंह ने सिर हिलाकर कहा ।

देवराज चौहान और जगमोहन वापस सड़क पर पहुँचे ।

“अब हमें ये बात पक्के तौर पर पता करनी है कि बैंक वैन कब पंचम के गैराज पर पहुँचेगी ?” देवराज चौहान ने कहा ।

“क्यों ?” जगमोहन ने देवराज चौहान को देखा ।

“हमें बलवान सिंह को गैराज से हटाने का इंतजाम करना है ।”

“वो कैसे करोगे ?”

“पहले ये तो पता लगे कि वैन गैराज पर किस दिन आएगी ?”

“पंचम को बोल देते हैं, वो पता कर... ।”

“उसे पता करने में परेशानी होगी । शक भी हो जाएगा किसी को कि वो क्यों पूछताछ कर रहा है ?” देवराज चौहान ने सोच भरे स्वर में कहा – “इस काम में उसे लेना ठीक नहीं होगा । ये बात हमें ही पता करनी पड़ेगी ।”

“कैसे ?”

“उस बैंक के हेडऑफिस की छान-बीन करनी पड़ेगी कि उस वैन के करीब कौन-कौन हैं और उनमें से कौन आसानी से हमें इस बारे में बता सकता है कि किस दिन वैन पंचम के गैराज पर पहुँचेगी ?”

☐☐☐

शाम को आठ बजे लानती गैराज पर पहुँचा । रिक्शे में था वो । चारों टायरों के कवर भी साथ रखे हुए थे । रिक्शे वाले को पैसे दिए और कवर उठाकर केबिन में जा पहुँचा ।

पंचम उसी के इंतजार में केबिन में बैठा था । आधा घंटा पहले ही दोनों मैकेनिक और पाँचों हेल्पर चले गए थे । जो कार बाहर ठीक हो रही थी, वो तो ठीक होकर चली गई थी । जो गैराज में थी, वो खुली पड़ी थी ।

लानती के केबिन में ही टायरों के कवरों को एक तरफ रखा ।

“बोतल तो नहीं खोली अभी ?” लानती ने पूछा ।

पंचम लाल ने घूरा उसे ।

लानती ने इधर-उधर देखा, फिर मुस्कराकर कह उठा –  

“ठीक है, अभी तो तू सूखा-सूखा ही बैठा है । इकट्ठे पिएँगे ।” कहते हुए लानती ने एक कवर उठाया और पंचम लाल को थमा दिया – “देख ले । कोई कमी हौवे तो लानती नूँ सौ छित्तर मारना ।”

पंचम लाल ने वैन के टायर कवरों को चैक किया ।

पाँच-सात मिनट उसने इसी काम में लगा दिए । बिलकुल वैसे ही थे, जैसे कि वैन पर लगे हुए थे । लानती ने कमाल तो ये दिखाया था कि उन पर स्प्रे करवाकर चमकाकर, उन्हें घिस-घिसाकर ऐसा बना दिया था कि वो नए नहीं लग रहे थे । हर काम उसने सोच-समझकर कायदे से किया था ।

पंचम लाल का चेहरा खिल उठा ।

“मान गया । तू तो बोत कमाल का बंदा है लानती ।” पंचम लाल ने हौले से हँसकर कहा ।

“आज पता लगा !” लानती ने मुँह बनाया ।

पंचम लाल हँसा ।

“पहले से ही पता है । तभी तो तेरे को इतना बड़ा काम करने को दिया ।”

“मेहरबानी ।” लानती ने पुन: मुँह बनाया – “अब मुझे गंभीरता से सोचना पड़ेगा ।”

“क्या ?”

“कि मेरा नाम लानती किसने रखा है ? मैं तो लानत वाले काम नहीं करता ।”

“जीजे ने रखा था ।”

“जीजा ! ओह... दो दिन मैं टायर कवर बनवाने में इतना व्यस्त रहा कि कुछ बात नहीं कर पाया ।” लानती एकाएक कह उठा – “सब ठीक चल रहा है । जीजा आया था क्या ?”

“जीजा क्यों आएगा ?” पंचम लाल ने उसे देखा ।

“ये कहने कि डकैती में मेरा भी हिस्सा... !”

“जीजा बेवकूफ नहीं है जो बीच में टाँग मारेगा । मेरे पास न तो वो आया और न ही उसका फोन ।”

“फिर ठीक है । वैसे जीजे के पास माल बहुत है । उसे नोटों की क्या परवाह पड़ी है ।”

“दस-बीस हजार देना पड़ जाए तो जान निकलती है ।” पंचम लाल तीखे स्वर में कहा ।

“होता है, होता है – नोट उधार देते हुए बंदा थोड़ी-बहुत अकड़ तो दिखाता ही है । जीजा दिल का बुरा नहीं है ।” लानती ने समझाने वाले ढंग में कहा – “दिल का बुरा होता तो हमारी डकैती में हिस्सा माँगने को खड़ा हो जाता ।”

“कल देवराज चौहान और जगमोहन दोनों ही आए थे ।”

“क्यों ?”

“गैराज वगैरह, ये जगह देखने । वो रास्ता भी देखा, जिन-जिन रास्तों से बैंक-वैन निकलती है ।”

“समझदार हैं दोनों । हर काम देखकर, सोच-समझकर करते हैं । तभी तो हर डकैती में सफल रहते हैं ।”

“एक चक्कर पड़ रहा है लानती ।”

“वो क्या ?”

“बलवान सिंह, वैन को नजर में रखता है । उस दिन उसे कैसे वैन से दूर किया जाए ?”

लानती, पंचम लाल को देखने लगा, फिर बोला –

“ये बात सोचने वाली है । हमें दो घंटे तो कम-से-कम चाहिए । वैन के पीछे वाले हिस्से के फर्श की शीट बदलनी है । टायर कवर भी ये वाले लगाने हैं । दो घंटों में काम पूरा हो जाए तब भी शुक्र करने वाली बात होगी ।”

पंचल लाल ने सिगरेट सुलगा ली ।

“देवराज चौहान को बोलनी थी ये बात । डकैती मास्टर वो है, हम तो हैं नहीं । वो ही कुछ राय देता ।”

“बोला उसे । वो दोनों कहते हैं कि कोई रास्ता निकालेंगे ।”

“तो फिर उन्हें ही रास्ता निकालने दो । डकैती में से माल उन्होंने भी तो खाना है । हमने ही तो खाना नहीं ।” लानती उठा – “मैं हाथ-मुँह धो लेता हूँ – तू बोतल निकाल, गिलास तैयार कर ।”

“इन टायर कवरों को छत पे रख आ ।”

“क्यों ?”

“सुबह काम करने वाले ये सब देखेंगे तो खामखाह के दो सवाल पूछेंगे । क्या फायदा ?”

“ठीक है, पहले पैग मार लें । शरीर में कुछ जान आ जाएगी तो इन्हें छत पर रख आऊँगा ।” कहने के साथ ही लानती बाहर निकल गया । पीछे लगे हैंडपंप पर पहुँचकर उसने हाथ-मुँह धोए, फिर वापस पहुँचा ।

तब तक पंचम लाल गिलास निकालकर, उसमें व्हिस्की भर चुका था ।

“साथ में खाने को कुछ नहीं है क्या ?”

“नहीं ।”

“खाली-खाली पीना भी मुसीबत वाला काम है । चढ़ गई तो सुबह से पैले उतरेगी नहीं ।” कहकर लानती ने गिलास उठाया और आधा खाली करके टेबल पर रखा – “यार पंचम, एक बात बता ।”

पंचम लाल ने घूँट भरा और गिलास रखते हुए उसे देखा ।

“मुझे ऐसा क्यों लगता है कि डकैती वाला काम सफल नहीं होगा ।”

“कर दी लानत भरी बात !” पंचम लाल ने मुँह बनाकर कहा ।

लानती ने दाँत फाड़े । फिर कह उठा –

“मेरे को जो लगता है, वो कह देता हूँ । तेरे से दिल की बात नहीं करूँगा, तो किससे करूँगा ।”

“तेरे दिल में अच्छी बात नहीं आती ।”

“मुझे क्या पता, जो दिल में आता है – कह देता हूँ । अच्छा हो, बुरा हो – तुम जानो और... !”

तभी मोबाइल फोन की बेल बज उठी ।

पंचम लाल ने फौरन अपनी जेबों पर हाथ मारा तो लानती कह उठा ।

“तेरा नहीं, मेरा फोन बज रहा है ।”

“तेरा ? तेरे पास मोबाइल फोन कहाँ से आया ?”

“आज ही लिया है । पूरे नौ हजार दा । एयरटेल दा कार्ड डलवाया है । वाह ! क्या आवाज आती है । इतनी साफ कि लगता है जैसे कान में शहद वाली मक्खी गुनगुना रही हो ।”

बेल बज रही थी ।

“पैसे कहाँ से आए तेरे पास ? रोज का खर्चा तो तू मेरे से लेता है, फिर नौ हजार... !”

“बचपन दाँ यार मिल गया सी । बोत अच्छा वे ।”

लानती ने गिलास उठाकर घूँट भरा – “कहने लगा कि मेरे से रोज बात किया कर । मैं भी करूँगा तेरे को फोन । लेकिन मैंने बोल दिया कि मेरे पास तो मोबाइल फोन है नहीं जो... !”

“तो तेरे को उसने नौ हजार का मोबाइल फोन ले दिया !”

“हाँ, ठीक बोलया... !”

“झूठ बोलता है मेरे से । ऐसे किसी को कोई इतना महँगा फोन देता है क्या, जो तेरे को... !”

“अब मैं क्या करूँ ? मेरे को खरीद के दे दिया उसने ।” लानती ने गिलास खाली किया – “घंटी बजे जा रही है । मैं बात करके आता हूँ ।”

“बात करके आता हूँ ।” पंचम लाल की आँखें सिकुड़ीं – “जाना कहाँ है, यहीं कर ले बात ।”

“दो तरफ के यारों के बीच थोड़ा-बहुत तो परदा होता ही है । बात मूँ से निकल जाती है तो दूसरे को बुरा लग जाता है । व्हिस्की हजम भी हो जाएगी बात करते-करते । दूसरा गिलास तैयार कर ।”

लानती बाहर निकल गया ।

पंचम लाल कुर्सी पर बैठा, घूँट भरता लानती को देखता रहा जो गैराज के खुले हिस्से में मोबाइल फोन कान से लगाए बातें कर रहा था । अजीब से भाव थे लानती के चेहरे पर ।

नौ हजार का फोन दिया बचपन के दोस्त ने ?

साला, गोली देता है । बात कुछ और ही है । चोरी किया होगा किसी का ?

अकेले में बात कर रहा है । हवाई जहाज बनता है हरामी ।

दस मिनट बात करने के बाद लानती वापस केबिन में पहुँचा ।

“वो, जरा बात लंबी हो गई । ज्यादा इंतजार तो नहीं करना पड़ा ।” लानती कुर्सी पर बैठा, फिर गिलास खाली देखकर बोला – “मैं तो बोल के गया था कि पैग बना । तू वैसे ही हाथ पर हाथ रखे बैठा है ।”

“गर्वनर लगा है तू ।” पंचम कुढ़कर बोला ।

“गर्वनर... क्यों मजाक करता है । मैं... ।”

“बातें तो गर्वनरों वाली ही करता है । नौ हजार का मोबाइल फोन । बाहर जा के बात करता है । मेरे सामने नहीं । पैग तैयार करने के लिए गवर्नरों की तरह झाड़ लगाा है । कहाँ उड़ रहा है तू, सब ठीक तो है ?”

“मैं सब समझता हूँ । मेरे पास मोबाइल फोन है और तेरे पास नहीं है । तभी तो तू जल रहा है ।”

पंचम लाल ने खा जाने वाली नजरों से उसे देखा ।

“घटिया बातें मत कर ।” पंचम लाल ने उखड़े स्वर में कहा और उठ खड़ा हुआ – “गिलास तैयार कर ।”

“कहाँ चला ?”

“आता हूँ ।”

“धार मारने जा रहा होगा ।”

पंचम लाल बाहर निकल गया ।

लानती के चेहरे के भाव बदले । वो गंभीर दिखा । शीशे के केबिन से पंचम लाल को बाथरूम वाले हिस्से की तरफ जाते देखता रहा फिर रिसीवर उठाकर नंबर मिलाए । बात हो गई ।

“टायरों के कवर बनवा लाया हूँ ।” लानती धीमे स्वर में बोला – “फर्श की शीट पहले ही आ गई है । हमारी तरफ से तैयारी पूरी हो गई है । आगे भगवान ही मालिक है ।”

“. . .  !”

“ठीक है, लेकिन हिस्सा मुझे आधा ही देना । जो जुबान हुई है, वो पूरी करना ।”

“. . .  !”

“रखता हूँ, नई बात हुई तो बताऊँगा । मेरे मोबाइल पर फोन कर देना ।” कहने के साथ ही लानती ने रिसीवर रखा और बोतल उठाकर गिलास तैयार करने के साथ ही बड़बड़ाया – “पंचम से तो कुछ मिलना ही नहीं है । कमीना बंदा है ये । इतनी बड़ी डकैती के बाद दो-चार लाख हाथ पे रख देगा और सारी उम्र मुझे अपने पीछे लगवा के रखेगा कि इसके आस-पास ही पूँछ हिलाता रहूँ । अगर आधा हिस्सा मिल गया तो मेरी जिंदगी शानदार बीतेगी ।”

लानती ने दोनों गिलास तैयार किए । अपने गिलास से घूँट भरा कि पंचम लाल आ पहुँचा ।

“हल्का हो गया ?” लानती मुस्कराया ।

पंचम लाल कुर्सी पर बैठा । गिलास से घूँट भरा, फिर बोला –

“अब बता कि तूने मोबाइल फोन कहाँ से लिया ?”

“बताया तो है कि... !”

“खामखां की गोली मत दे मुझे – तेरी औकात जानता हूँ कि तू क्या है ? कवर बनाते हुए अनवर का तो चोरी नहीं कर लिया ?”

“क्या बात करता है ! मैं कोई चोर हूँ ! तेरी कोई चीज चोरी की मैंने ?”

पंचम लाल ने उसे घूरा ।

“चिंता क्यों करता है ? दो-चार दिन में मोबाइल फोन का शौक उतर जाएगा तो तेरे को दे दूँगा । इन बेकार की बातों को छोड़ और डकैती के बारे में सोच । हमारे दिमागों में डकैतीमय माहौल बन चुका है । मुझे तो हर समय नोट ही नोट नजर आते हैं । अब तो मुझे खुली आँखों से तेरा भविष्य नजर आता है कि जीजे की तरह तेरी शानदार कोठी है । लंबी जहाज जैसी कार की पीछे वाली सीट पर तू बैठा है और ड्राइवर गाड़ी चला रहा है लेकिन इस भविष्य में मैं नजर क्यों नहीं आता पंचम ?”

पंचम लाल मुस्करा पड़ा ।

“तू इसलिए नजर नहीं आता कि कमरा बंद करके तू नोट गिनने में लगा हुआ है ।”

“अच्छा... नोट गिन रहा हूँ मैं ।” लानती ने दाँत फाड़े – “लेकिन वो नोट किसके हैं ? तेरे हैं या मेरे ?”

“मेरे ।”

“ये तो तूने बुरी बात कही । मुझे अपने नोट गिनने चाहिए और मैं... !”

“तेरे को नोटों को देखकर ही तसल्ली हो जाती है तो उन्हें लेकर क्या करेगा ?” पंचम लाल हौले से हँसा ।

“ये बात तेरे को पता है । मेरे को नेई पता थी । अच्छा हुआ जो तूने बता दिया मेरे को । एक बात बोलूँ तेरे को ?”

“बोल !”

“मेरे को शादी करने की भी जरूरत नहीं है ।”

“क्यों ?”

“तू शादी कर लियो । तेरी बीवी देखकर मेरे को तसल्ली हो जाया करेगी । मुझे शादी की क्या जरूरत है ?”

पंचम लाल ने लानती को घूरा । फिर हँसकर गिलास उठाया और होंठों से लगा लिया ।

“उल्लू का पट्ठा !” मन ही मन बड़बड़ा उठा लानती – “मेरे को पता है कि तू घटिया बंदा है । तभी तो दूसरे के साथ मैंने जोड़ी बनाई कि डकैती के बाद नावां मेरी जेब में भी आ सके । कल को खुद शादी कर लेगा और मेरे को कहेगा – तेरे को शादी की क्या जरूरत है ? मेरी बीवी को दूर से देख लिया कर । मेरे को कबाड़ समझता है, हरामी कहीं का !”

☐☐☐

रात के ग्यारह बज रहे थे ।

देवराज चौहान ने कार को गली के किनारे पर साइड में रोका और इंजन बंद करके बगल में बैठे जगमोहन को देखा, फिर गली में नजर मारकर कह उठा –

“इसी गली में, बाईं तरफ का पंद्रहवां दरवाजा है । दरवाजे पर लाल रंग जैसा पेंट हुआ पड़ा है ।”

“सतनाम नाम है उसका ?” जगमोहन ने पूछा ।

“हाँ, आधा दिन मैं उसी के बारे में पता करता रहा । वो उस बैंक के हेडऑफिस में आलतू-फालतू के काम देखता है और बैंक गाड़ियों के आने-जाने के टाइम टेबल को वही तैयार करता है । पता चला है कि बेईमान जैसा है वो । पैसा लेकर हमें हमारे काम की खबर दे सकता है ।”

जगमोहन ने बाहर निकलने के लिए कार का दरवाजा खोला ।

“हमें एक बात पक्का पता चलनी चाहिए कि वो बैंक वैन किस दिन पंचम के गैराज पर चैकअप के लिए जाएगी ।”

जगमोहन ने सिर हिलाया ।

“अगर सतनाम को ये बात पक्का पता न हो तो उससे एक दिन फिक्स करा लेना कि कौन से दिन वैन पंचम के गैराज पर पहुँचेगी ।” देवराज चौहान ने कहा और सिगरेट सुलगाकर कश लिया – “सबकुछ उसके हाथ में ही है ।”

जगमोहन बाहर निकलकर गली में प्रवेश कर गया । तीसरे मिनट ही जगमोहन पंद्रहवें दरवाजे को थपथपा रहा था । कई बार थपथपाने पर भीतर से नींद भरी आवाज आई ।

“कौन है – आधी रात हो रही है । ये भी कोई वक्त है दरवाजा पीटने का ?”

“ग्यारह बजे हैं ।” जगमोहन बोला – “आधी रात नहीं हुई ।”

दरवाजा खुला । पैंतीस बरस का व्यक्ति लुंगी-बनियान में खड़ा दिखा ।

“तू मुझे नींद से उठाकर वक्त क्यों बता रहा है ? बता – क्या काम है ?”

“भीतर आ जाऊँ ?”

“क्यों ?”

“प्यार से बात कर । मैं तेरे को नोट देने आया हूँ ।” जगमोहन ने शांत स्वर में कहा ।

“क्यों देगा तू मुझे नोट ?” वो अजीब स्वर में बोला ।

“जो मैं पूछूँगा, वो तू मुझे बताएगा तो मैं तेरे को नोट दूँगा ।”

“कमाल है । मेरे को जानता है तू ?”

“सतनाम सिंह । बैंक के हेडऑफिस में तू काम करता है ।” जगमोहन ने कहा ।

“पता तो ठीक बता रहा है ! नाम क्या है तेरा ?”

“अंदर आऊँ ?”

“आ जा ।” वो दरवाजे से पीछे हटा ।

ये साधारण सा ड्राइंगरूम था । सोफे का तीन कुर्सियाँ और एक पुराना सा सेंटर टेबल रखा हुआ था । वे बैठे ।

“कौन है जी ?” दूसरे कमरे से औरत की आवाज आई ।

“तू सो जा ।” सतनाम ने उस कमरे के दरवाजे को देखकर कहा ।

फिर औरत की आवाज नहीं आई ।

“बोल – क्या नोट देगा तू ? चाय-वाय नहीं मिलेगी । मेरी औरत नींद में है ।” वो बोला ।

“बलवान सिंह वाली बैंक वैन किस दिन पंचम लाल के गैराज पर भेजी जाएगी ?”

सतनाम चिहुँक उठा ।

“पागल हो गया है तू जो ये बात... !”

जगमोहन ने पाँच सौ के नोटों की गड्डी निकालकर उस पुराने से टेबल पर रख दी ।

“पचास पूरा है ये ?” सतनाम सिंह ने तुरंत गड्डी उठाई ।

जगमोहन खामोश रहा ।

सतनाम सिंह ने नोटों को फुरेरी दी । चेहरे पर लालच चमकने लगा था ।

“बता ।”

“चक्कर क्या है ?”

“तूने चक्कर का क्या करना है ? मेरी बात का जवाब दे और नोट गिन ।”

“चक्कर तो जरूर पूछूँगा ।”

जगमोहन ने हाथ बढ़ाकर टेबल से पचास हजार की गड्डी को उठा लिया ।

“ये क्या कर रहा है भाई ! चक्कर नहीं पूछता ।” उसने जगमोहन के हाथ से नोटों की गड्डी ले ली – “अजीब बंदा है तू । पहले नावां दिखाता है, देता है – फिर ले लेता है । पागल करेगा मुझे क्या ? क्या पूछ रहा था तू ?”

“बलवान सिंह वाली वैन किस दिन पंचम लाल के गैराज पर पहुँचेगी ?” जगमोहन ने पूछा ।

“मैं तो रोशनी इंटरप्राइजिज वालों को बोलता हूँ, वो ही बताते हैं कि वैन को पंचम के गैराज पर भेज दिया जाए तो वैन का ड्राइवर बलवान सिंह वैन को वहाँ ले जाता है ।” सतनाम सिंह बोला ।

“तू किस दिन बोलेगा रोशनी इंटरप्राइजिज वालों को कि वैन को गैराज पर भेजना है ?”

सतनाम सिंह ने जगमोहन को देखा फिर मुस्कराया ।

“तू ही बता दे कि किस दिन वहाँ भेजूँ ?”

“मुझे फिक्स दिन चाहिए, जो बताए – उसी दिन वैन पंचम के गैराज पर पहुँचे ।”

“छ: या सात तारीख में से एक दिन भेजना तय है । सात तारीख भेज दूँ ?”

“पक्का ?”

“पक्का !”

“सात की छ: या आठ तारीख नहीं होनी चाहिए ।” जगमोहन ने उसकी आँखों में झाँका ।

“नहीं होगी । जो दिन तय होगा, वो ही दिन वैन गैराज पर पहुँचेगी । पचास हजार खा रहा हूँ, पर हक अदा करूँगा । हेरा-फेरी वाला नहीं हूँ – जो जुबान देता हूँ, पूरी करता हूँ ।”

जगमोहन मुस्कराया । उठने लगा तो वो फिर बोला ।

“अब तो बता दे, चक्कर क्या है ?”

जगमोहन उसे देखता रहा ।

“डकैती-वकैती तो नहीं कर रहे ?” वो फुसफुसाकर कह उठा ।

“हाँ ।”

“तौबा !” सतनाम हड़बड़ाया – “कब करोगे ?”

“अभी पता नहीं । लेकिन ज्यादा दिन नहीं लगेंगे ।”

“भगवान तुम्हें सफलता दे ।” वो सूखे होंठों पर जीभ फेरकर बेचैनी से बोला – “कुछ मुझे भी दे देना ।”

“तुम्हें ?”

“डकैती में तगड़ा माल तो मिलेगा ही । वैन कई बार नोटों से भरी होती... !”

“काम ठीक तरह हो गया तो दूँगा ।”

“वादा ?”

“पक्का वादा । लेकिन मुँह बंद रखना । बात तेरे मुँह से निकली तो... !”

“मेरे मुँह से क्यों निकलेगी ? कितना देगा मुझे ?”

“जितना हाथ लगेगा, उस पर ही निर्भर है ये बात । अब मैं जाता... !”

“चाय-ठंडा पी के जा । अभी बीवी को उठाता... !”

“जिस दिन डकैती के बाद नोट देने आऊँगा, तब पिऊँगा ।” जगमोहन उठा खड़ा हुआ ।

“उस दिन चाय क्या पीनी, तब तो बोतल खोलूँगा । सुन... इस काम में भीतर की खबर कोई चाहिए तो मुझे बा देना । मुझसे पूछ लेना । नहीं पता होगी तो पता करके बता दूँगा । एकदम पक्की, बढ़िया खबर दूँगा ।”

“जरूरत पड़ी तो आऊँगा तेरे पास ।”

“नहीं तो हिस्सा देने तो आएगा ही ।”

“हाँ ।”

“एक बात और... । अगर पकड़े गए तो पुलिस को ये मत बता देना कि मुझे डकैती के बारे में पता था और मैंने हिस्सा भी माँगा था । तब समझना तू मेरे को जानता ही नहीं ।”

“फिक्र मत कर, मैं आऊँगा डकैती के बाद – तेरे पास नोट लेकर ।” जगमोहन ने कहा और बाहर निकल गया ।

“पक्का आना । जल्दी आना ।” पीछे से सतनाम की आवाज उसके कानों में पड़ी थी ।

☐☐☐