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कौल किचन की ओर की चौखट पर पड़ा था और बेहोश था । विमल की चलाई गोली उसने खुद बोला था कि उसे लगी थी लेकिन उसने ये नहीं बोला था कि कहां लगी थी और वो किस हद तक घायल था ।
खुद वो — हरनाम सिंह गरेवाल — ड्राईंग रूम के फर्श पर लुढ़का पड़ा था । उसकी पीठ में विमल की चलाई गोली लगी थी और उसे लग रहा था कि रीढ़ की हड्डी में लगी थी ।
दाता !
रीढ़ की हड्डी में गोली लगने का मतलब था जिन्दगी भर की अपाहिजी ।
कैलाश कुमार खन्ना की निजामुद्दीन में स्थित कोठी में हालात पूरी तरह से उनके कन्ट्रोल में थे कि तमाम खेल बिगड़ गया था । दो बातों ने उनका खेल बिगाड़ा था जिसमें से एक के लिये वो खुद जिम्मेदार था और दूसरी के लिये वो हरामजादा विमल जिसकी बाबत उन्हें मालूम हो चुका था कि मशहूर इश्तिहारी मुजरिम सोहल था जो अमृतसर में भारत बैंक की डकैती में शरीक होने से पहले मुम्बई, मद्रास, दिल्ली में वैसी वारदातों में शरीक हो चुका था और जो दिल्ली से भागा था तो अमृतसर आ कर लाला हवेलीराम नाम के सेठ का ड्राइवर रमेश कुमार शर्मा बन गया था और यूं गुमनामी के, लेकिन सेफ दिन काटने लगा था ।
जिस बातों को वो अब अपनी गलती मानता था वो ये थी कि उसने खन्ना की खूबसूरत बीवी किरण पर लार टपकाई थी, खन्ना ने दखलअन्दाज होने की कोशिश की तो वो क्रोध से आगबबूला हो उठा था और उसने खन्ना को इतना मारा था कि वो मर ही गया था । फिर खन्ना की लाश उसने स्टोर में ट्रंकों के पीछे डाल दी थी, उन के तीन बच्चों की मुश्कें कस कर उन्हें एक बैडरूम में डाल दिया था और दूसरे बैडरूम में ले जा कर किरण के कपड़े तार तार करके उसके जिस्म से अलग कर दिये थे और उसे अपनी अँधी, जुनूनी हवस का शिकार बनाया था । जब वो अपने कुकर्म से, अपनी दुर्दान्तता से फारिग हुआ था, तब किरण एक छिन्न-भिन्न गुड़िया की तरह पलंग पर नीमबेहोशी की हालत में पड़ी थी ।
और अभी उस ने उससे ये कबुलवाना था कि मायाराम बावा की दरख्वास्त पर वहां मौजूद उसके दो सूटकेस उसका पति कैलाश खन्ना मरहूम कहां छुपा आया था ।
ऐसे में विमल के वहां कदम पड़े थे ।
वो और कौल दोनों हथियारबन्द थे फिर भी वो दोनों को शूट करने में कामयाब हो गया था और फिर उसी काम में जुट गया था जिस को अंजाम देने के लिये खुद वो दोनों वहां थे ।
काम यानी कि माया राम के दो सूटकेस — नोटों से भरे, भारत बैंक की डकैती में लुटे नोटों से भरे दो सूटकेस — खन्ना कहां छुपा कर आया था ।
विमल बैडरूम में जा कर खन्ना की बीवी से मुखातिब हुआ था और उसे उन दोनों के वार्तालाप की आवाजें ड्राईंगरूम में सुनाई दी थीं । विमल किरण से पूछ रहा था कि उसका पति मायाराम की अमानत दो सूटकेस कहां छोड़कर आया था, लेकिन किरण का जवाब वही था जो उसने बार बार गरेवाल को भी दिया था लेकिन गरेवाल को यकीन नहीं आया था ।
‘‘मुझे नहीं मालूम ।’’
फिर विमल ने उसे उन दोनों की बाबत बताया था कि वो — सरदार, हरनाम सिंह गरेवाल — ड्राइंगरूम में पड़ा था और रीढ़ की हड्डी में गोली लगी बताता था, उसका जोड़ीदार कौल किचन की उधर की चौखट पर गैराज में पड़ा था, वो भी गोली से बुरी तरह घायल था और दोनों हिलने डुलने से लाचार थे ।
‘‘एक गन मुझे दे सकते हो ?’’ — फिर गरेवाल को किरण की बर्फ जैसी सर्द आवाज सुनाई दी थी ।
‘‘आप दोनों ले लो ।’’ — विमल का जवाब था ।
किरण — जिसने अपना पति खोया था, इतनी यातनायें झेली थीं, स्त्रीत्त्व का सबसे बड़ा अपमान सहा था — गन का क्या करेगी, इस खयाल से गरेवाल जैसे राक्षस का दिल भी कांप गया था । वो दोनों उस घड़ी अपनी रक्षा करने में सर्वदा असमर्थ थे, और, अब हथियारबन्द, वो औरत उनकी क्या गत बनाती, ये सोच के पत्थरदिल गरेवाल के भी प्राण कांपते थे ।
फिर विमल वहां प्रकट हुआ था, ड्राइंगरूम में एक क्षण ठिठका था और फिर वहां से कूच के इरादे से उसने किचन के रास्ते आगे गैराज में कदम रखा था ।
‘‘तुम हमें पुलिस के लिये छोड़ कर जा रहे हो ?’’ — कौल ने क्षीण, कातर स्वर से पूछा था ।
‘‘इससे बेहतर इन्तजाम करके जा रहा हूं ।’’ — विमल ने जवाब दिया था — ‘‘खन्ना की बीवी के लिये छोड़ के जा रहा हूं ।’’
घायल शेरनी बनी किरण उनको शूट करने वाली थी जब कि एकाएक पुलिस वहां पहुंच गयी थी और यूं उन्हें उनकी निश्चित मौत से निजात मिली थी ।
उन दोनों को एम्बूलेंस बुलाकर सफदरजंग हस्पताल पहुंचाया गया था ।
बाद में गरेवाल को मालूम हुआ था कि गोली ऐन रीढ़ की हड्डी में नहीं लगी थी लेकिन फिर भी उसे इस कदर घायल कर गयी थी कि उसे तीन महीने हस्पताल में रहना पड़ा था जिस दौरान उसकी दो बार सर्जरी हुई थी ।
मिलता जुलता हाल ही कौल का हुआ था जिस के कन्धे में गोली यूं लगी थी कि कन्धे की हड्डी को चकनाचूर कर गयी थी ।
तीन महीने बाद उन्हें बाकायदा गिरफ्तार किया गया था और बतौर कत्ल के अपराधी कोर्ट में पेश किया गया था । खन्ना को पीट पीट कर गरेवाल ने मारा था लेकिन कौल को भी उसके क्राइम में शरीक माना गया था । जमा, वो दोनों गैरकानूनी ढंग से खन्ना की कोठी में घुसे थे इसलिये उन पर ब्रेकिंग एण्ड ऐंटरिंग का इलजाम था । दोनों के करीब से दो गन बरामद हुई थीं जिन से गोलियां भी चलाई गयी थीं और जिन पर उन की उंगलियों के निशान थे । उन हथियारों की अपने पास मौजूदगी का वो कोई माकूल जवाब नहीं दे सके थे । पोजेशन ऑफ इल्लीगल फायरआर्म्स की धारा भी उन पर ठुकी थी । ऊपर से कोढ़ के खाज ये कि हरनाम सिंह गरेवाल पंजाब का नोन हिस्ट्रीशीटर था ।
साकेत कोर्ट में पहली ही पेशी पर पुलिस को उन का दो हफ्ते का रिमांड मिला ।
फिर चार्जशीट दाखिल हुई, उन पर मुकदमा चला ।
पुलिस के पास किरण की सूरत में उसके पति की गरेवाल के हाथों हत्या का चश्मदीद गवाह मौजूद था इसलिये पुलिस समझती थी कि उन के पास उन के खिलाफ ओपन एण्ड शट केस था । किरण ने उस बाबत थाने में बाकायदा अपना बयान दर्ज कराया था लेकिन फिर उसकी दिमागी हालत इस कदर बिगड़ी थी — आखिर उसने अपनी आंखों के सामने अपने पति को बेरहमी से मारा जाता देखा था — कि उसे फौरन दिमागी बीमारियों के इलाज के लिये प्रसिद्ध हस्पताल में और फिर पूरी तरह से शफा पाने के लिये एक सानाटोरियम में भरती कराया गया था । उन दोनों की तरह उसके भी तीन महीने यूं ही कटे थे ।
बहरहाल उसके शुरुआती बयान की वजह से तिहाड़ जेल उन का स्थायी मुकाम बन गया था और उस वाकये के एक साल बाद तक अभी भी था ।
किरण के एक बार सानाटोरियम से निकलने के बाद उन की निजामुद्दीन स्थित कोठी को स्थायी रूप से ताला पड़ गया था और वो बच्चों को ले कर मोहाली चली गयी थी । कोर्ट में अपनी गवाही के लिये वारदात के सात महीने बाद वो सिर्फ एक बाद दिल्ली आ कर कोर्ट में पेश हुई थी और कोर्ट में मौजूद गरेवाल की विकराल सूरत देख कर गवाह के कठघरे में ही बेहोश हो गयी थी । नतीजतन वहीं से उसे फौरन हस्पताल पहुंचाया जाना पड़ा था । उसके बाद दो बार और ऐसी तारीख पड़ी थीं जिनमें बतौर गवाह उसने पेश होना था और दोनों बार कोर्ट में उसके मैडिकल सर्टिफिकेट के साथ उस का वकील पहुंचा था जो कहता था कि गवाह ट्रैवल करने की, आ कर बयान देने की स्थिति में नहीं था ।
सरकारी हस्पताल में उन दोनों घायलों को जो इलाज हासिल हो रहा था वो ऐसा था कि उन का जान से जाना या हमेशा के लिये अपाहिज हो जाना निश्चित था और वो इस बात से नावाकिफ भी नहीं थे । लिहाजा उन्होंने बड़ा वकील करके कोर्ट में अपील लगाई कि उन्हें प्राइवेट इलाज की इजाजत दी जाती । वो इजाजत तो उन्हें मिल गयी लेकिन उस सिलसिले में उन का जो बड़ा खर्चा हुआ वो एक तरह से आइन्दा के बड़े खर्चों की बुनियाद बना ।
कोर्ट में अपने डिफेंस के लिये उन्होंने बड़ा वकील किया था, उसकी फीस लाखों में थी जो कि खर्चना उन के लिये जरूरी था क्योंकि उन के खैरख्वाह कहते थे, खुद उनकी अक्ल कहती थी, कि कोई उन्हें कत्ल की सजा से बचा सकता था तो वो बड़ा वकील ही बचा सकता था जिसका डिफेंस था कि सब किया धरा उस तीसरे शख्स का था जो कैलाश खन्ना को जान से मार कर, किरण को अपनी हवस का शिकार बना कर और उन दोनों को भी गोली मार कर वहां से फरार हो गया था और जो मशहूर इश्तिहारी मुजरिम सरदार सुरेन्द्र सिंह सोहल था जो कि अमृतसर के भारत बैंक की डकैती में भी शरीक रह चुका था । उसी ने उन दोनों को खन्ना की कोठी में बन्धक बना कर रखा हुआ था ताकि बाद में उसकी हर करतूत का ठीकरा उनके सिर फूटता । वो सोहल से मामूली तौर से वाकिफ थे जो उसके आइन्दा किसी प्रोजेक्ट में दिलचस्पी लेते उसके साथ चले आये थे । उसी ने उन्हें गोली मारी थी, जिसमें कोई दो राय मुमकिन नहीं थीं, और वो गन जबरन उन पर प्लांट की थीं । यूं बड़े वकील ने स्थापित करने की कोशिश की थी कि जबरजिना के लिये जिम्मेदार तो वो थे ही नहीं, वो ट्रैसपासिंग और ब्रेकिंग एण्ड एंटरिंग के भी गुनहगार नहीं थे, क्योंकि सोहल जबरन उन्हें वहां लाया था, और पोजेशन ऑफ इललीगल फायरआर्म्स के चार्ज के लिये भी वो खुद को ‘नॉट गिल्टी’ प्लीड करते थे ।
बड़े वकील का दावा था कि या तो वो लैक ऑफ इवीडेंस की बिना पर छूट जायेंगे या किसी छोटी मोटी धारा के तहत उन्हें कोई छोटी मोटी सजा होगी जो इतनी छोटी होगी कि उससे ज्यादा वक्त तो वे जेल में काट भी चुके होंगे ।
गरेवाल खरदिमाग आदमी था, बातों में जल्दी आता था, लियाकत का रौब जल्दी खाता था इसलिये उसे बड़े वकील के दावों पर ऐतबार था लेकिन कौल पढ़ा लिखा, संजीदा, समझदार आदमी था, इसलिये उसका खयाल था — खयाल क्या था, यकीन था — कि वो सस्ते में नहीं छूटने वाले थे लेकिन उसने गरेवाल का हर हाल में हमेशा साथ दिया था इसलिये वो उससे बाहर नहीं जा सकता था ।
अब सूरत मध्वाल पे था कि साल से ज्यादा वक्फे में उन के पल्ले जो पैसा था, न सिर्फ वो चुक गया था उन का अमृतसर में क्वींस रोड पर स्थित राजमहल रेस्टोरेंट भी बिक गया था ।
और जेल में बन्द तो वो थे ही ।
उस दौरान अफवाहों की तरह सोहल की खबरें उन्हें मिलती रहती थीं जो कहती थीं, उन्हें हैरान करती थी, कि सोहल ने क्राइम की दुनिया में इतनी तरक्की कर ली थी कि ‘लीजेंड’ बन गया था ।
जेल में उन के साथ अनूप झेण्डे नाम का एक कैदी था जो कि मुम्बई से था लेकिन वहां से पकड़ कर दिल्ली लाया गया था और कई केसों के तहत तिहाड़ में बन्द था । वो आदतन बड़बोला आदमी था, इसलिये जब मुंह खोलता था, बड़ा बोल मुंह से निकालता था । जैसे :
‘‘मैं साला इधर नहीं टिकने का । अभी देखना विदइन टू मंथ्स मैं साला इधर से आउट होयेंगा ।’’
‘‘मैं साला उधर मुम्बई में ‘कम्पनी’ का भीड़ू रह चुका है ।’’
‘‘मैं साला सोहल के अंडर में भी काम किया जो साला ‘कम्पनी’ को फिनिश किया, अक्खा खलास किया । साला काला पहाड़ फिनिश, इकबाल सिंह फिनिश, गजरे फिनिश, अक्खा बड़ा बाप लोग फिनिश ।’’
‘‘सोहल के अन्डर में भी ?’’ — गरेवाल मन्त्रमुग्ध भाव से सवाल करता था ।
‘‘अन्डर में ही तो !’’ — अनूप झेण्डे लापरवाही से जवाब देता ।
‘‘तो क्या मतलब ?’’
‘‘भई, तुकाराम और वागले कर के दो भीड़ू सोहल के टॉप के लेफ्टीनेंट थे और मैं उनका टॉप का भीड़ू था, अभी एक तरह से मैं सोहल के ही तो अन्डर में हुआ !’’
‘‘अच्छा !’’
‘‘बहुत जिगरे वाला भीड़ू ये सोहल । अभी तो इसके दायें बायें आगे पीछे बहुत भीड़ू लोग है पण राजबहादुर बखिया से, बोले तो काला पहाड़ से, तो अकेला ही भिड़ गया था । बहुत जिगरे वाला भीड़ू है ।’’
‘‘हमारा वास्ता पड़ चुका है उससे ।’’
‘‘सोहल से ?’’
‘‘हां ।’’
‘‘फेंकता है साला ।’’
‘‘अरे, सच में । सच पूछो तो हमारी सारी मुसीबतों की जड़ ही माईंयवा सोहल है ।’’
‘‘ऐसा ?’’
‘‘हां ।’’
‘‘क्या इस्टोरी है ? डिटेल में बोलने का ।’’
‘‘कौल बोलता है ।’’
कौल ने सहमति से सिर हिलाया फिर बोला ।
‘‘ओह !’’ — झण्डे ने लम्बी ‘ओह’ की — ‘‘तो बोले तो ये सोहल साला शुरू से ही डेंजर भीड़ू । बाद में न बना, शुरू में ऐसीच था !’’
‘‘शायद ।’’ — गरेवाल बोला — ‘‘हमें इमकान नहीं था उसकी बाबत वर्ना होशियारी से पेश आते, खबरदारी से पेश आते ।’’
‘‘ठीक !’’
‘‘इतना टॉप का गैंगस्टर कैसे बन गया ?’’ — कौल उत्सुक भाव से बोला ।
‘‘एकीच थ्रो में तो न बन गया । स्टैप बाई स्टैप ही बना बोले तो ।’’
‘‘स्टैप बाई स्टैप !’’
‘‘हां । उसकी अक्खी प्रोग्रेस मालूम मेरे को ।’’
‘‘हमें बताओ ।’’
‘‘बताता है । सुनने का । इधर से निकल कर किधर गया ? सीधा मुम्बई, जिधर से कि वो ओरीजिनली अपना क्राइम का सफर शुरू किया । जबकि मुम्बई पुलिस का वांटेड क्रिमिनल था । साला डेयरिंग स्टेप लिया । फिर उधर से थोड़ा टेम बाद ही निकल गया और गोवा पहुंच गया जिधर लोकल गैंगस्टर्स के ऐसा जा के मिला जैसा विस्की से साला सोडा मिलता है । उधर साला एक पुलिस का इंस्पेक्टर टपका दिया, मुम्बई का बड़ा समगलर विशम्भर दास नारंग टपका दिया, उसका फर्स्ट लेफ्टीनेंट रणजीत चौगुले टपका दिया । फिर उधर से फरार होकर जयपुर पहुंच गया जिधर इतना डेंजर भीड़ू साला मामूली मोटर मकैनिक बन गया । काहे कू बन गया ? पूछो, काहे कू बन गया ?’’
‘‘काहे को बन गया ?’’
‘‘लो प्रोफाइल रखा न साला ! क्योंकि उधर बीकानेर बैंक की वैन लूटना मांगता था ।’’
‘‘ओह !’’
‘‘ऐसा इस्कीम बना के, पिलैन बना के काम करने वाला भीड़ू अपना सोहल ।’’
‘‘आगे ?’’ — गरेवाल तनिक उतावले स्वर में बोला ।
‘‘आगे आगरा । जयपुर से नक्की किया तो साला आगरा पहुंच गया । उधर रत्नाकर स्टील मिल की पे रोल वाली आर्म्ड वैन, बोले तो बख्तरबंद गाड़ी लूटी । फिर राजनगर में तो बहुत ही डेंजर, बहुत ही डेयरिंग काम किया ।’’
‘‘क्या ?’’
‘‘उधर साला सिडनी फोस्टर करके एक अमरीकी डिप्लोमैट, फिरौती वसूलने के लिये जिसको साला किडनेप किया । क्या वसूला, मेरे को नहीं मालूम पण ये बरोबर मालूम कि वापिस फिर मुम्बई आकर लगा और मुम्बई में ऐसा डेरा जमाया कि बोले तो अभी तक इधरीच है ।’’
‘‘उधर की कीत्ता ?’’
‘‘बहुत कुछ किया साला । बखिया को, उसके एम्पायर को तो हमेशा का वास्ते फिनिश किया ही, आलमगीर म्यूजियम से फ्रांसीसी पेंटिंगें चुरा लीं, जौहरी बाजार में प्रीमियर वाल्ट सर्विस का वाल्ट खोल लिया, करीब की सुनारों की मार्केट लूट ली । बादशाह अब्दुल मजीद दलवई का ठीया स्वैन नैक प्वायन्ट और उस पर चलता आलीशान कैसीनो उजाड़ दिया, ठीया जिस जजीरे पर था उसको साला मरघट बना दिया और बादशाह अब्दुल मजीद दलवई को, जिसको कि पाकिस्तान की शह थी इसलिये हमारी सरकार की पकड़ाई में नहीं आता था, साला मुंडी से थाम कर सीबीआई के महकमे एण्टी टैरेरिस्ट स्कवायड के हवाले कर दिया । वहीच टेम साला शादी भी बनाया ।’’
‘‘शादी ! किससे ?’’
‘‘मालूम नक्को । पण भाई लोग बोलते थे कोई पुरानी माशूक । जिसने सोहल को अक्खा चेंज कर दिया ।’’
‘‘क्या किया ?’’
‘‘गृहस्थ बना दिया । इधर दिल्ली में लाकर एक कम्पनी में एकाउन्टेंट की रेगुलर जॉब करने वाला भीड़ू बना दिया । वो क्या बोलते हैं ? साला सैलरी कमाने वाला वाइट कालर्ड एम्पलाई बना दिया ।’’
‘‘सुधार दिया ?’’ — कौल बोला ।
‘‘कोशिश किया साला पण ऐसा किधर होना सकता ! वो बोलते हैं न, वंस ए मवाली, आलवेज ए मवाली । साला कैसे इस्ट्रेट जायेंगा !’’
‘‘ठीक ! तब इधर क्या किया ?’’
‘‘तब इधर गुरबख्शलाल कर के एक अन्डरवर्ल्ड डान । बहुत जबर । बहुत डेंजर । टॉप का भाई । साला उसको टोटल फिनिश किया और उसकी टॉप के मवालियों की बिरादरी को थ्रैट जारी किया, साला नोटिस जारी किया कि कोई उसकी जगह नहीं लेने का था, कोई उसका माफिक प्रास्टीच्यूशन में, नॉरकॉटिक्स समगलिंग में, एक्सटोर्शन में, जुए के या नकली शराब के धन्धे में हाथ नहीं डालने का था ।’’
‘‘फिर ?’’
‘‘फिर क्या ! वो थोड़ा टेम को इधर दिल्ली में रहा फिर बीवी को दिल्ली में ही छोड़कर वापिस मुम्बई पहुंच गया । बोले तो मुम्बई बिना उसका दिल लगता हैइच नहीं ।’’
‘‘उधर फिर कोई नया गुल खिलाया ?’’
‘‘खिलाया न ! साला ‘कम्पनी’ को टोटल फिनिश किया, फाइनल फिनिश किया । ‘कम्पनी’ के अक्खे टॉप बासिज को — रशीद पावले को, भाई सावन्त को, कावस बिलीमोरिया को, दशरथ किलेकर को, किशोर पिंगले को और सब से टॉप के भाई व्यास शंकर गजरे को एक एक करके लुढ़का दिया ।’’
‘‘सब खुद किया ?’’
‘‘भई, अन्डर में चलने वाले भीड़ू तो थे — जैसे कि मैं ही था, फिर टॉप के भीड़ू इरफान और शोहरब थे — पण मोटे तौर पर सब खुद किया ।’’
‘‘कमाल है !’’
‘‘मैं बोला न बहुत जिगरेवाला, बहुत डैंजर करके भीड़ू अपना सोहल !’’
‘‘फिर ?’’
‘‘फिर एक बार फिर इधर दिल्ली आया । कुछ अरसा इधर रहा, पण क्यों रहा क्या किया, मेरे को मालूम नक्को ।’’
‘‘बीवी इधर थी तो उस से मिलने आया होगा !’’
‘‘हो सकता है क्योंकि तब बीवी ही नहीं, दूध पीता बच्चा भी था ।’’
‘‘बच्चा भी था !’’
‘‘हां ।’’
‘‘अब कहां हैं दोनों ? दिल्ली में या मुम्बई में ?’’
‘‘मालूम नक्को ।’’
‘‘फिर ?’’
‘‘फिर दिल्ली के उन भाई लोगों को फिनिश किया जो कि दिल्ली के बड़े मवाली गुरुबख्शलाल के जोड़ीदार थे ।’’
‘‘उन्हें क्यों ? — गरेवाल बोला — ‘‘तू ने बोला न कि उन्होंने तो वादा किया था कि वो लोग गुरुबख्शलाल के धन्धों मे हाथ नहीं डालेंगे !’’
‘‘पण वादा निभाया किधर ! झूठा वादा किया न ! सोहल का खतरा सिर से टलते ही सब भीड़ू साला शेर हो गया और वहीच सब किया जिसका सोहल से पिरामिस किया कि साला नहीं कहने का था । यही नहीं भीड़ू लोग सोहल को लुढ़काने की साजिश करने लगे ताकि सोहल का खतरा उनके सिरों से हमेशा के लिए टल जाता पण सोहल तो सोहल । ऐसे कैसे फिनिश हो जायेंगा ! साला वही सबको लुढ़का दिया ।’’
‘‘सब को ।’’
‘‘चार भीड़ू ! जिसमें सब से कड़क लेखूमल झामनानी । उसको, पवित्तर सिंह करके तुम्हारे जातभाई को, भोगीलाल को, माता प्रसाद ब्रजवासी को । सब को लुढ़काया बरोबर ।’’
‘‘उसने इतना कहर ढाया’’ — कौल मन्त्रमुग्ध स्वर से बोला — ‘‘कभी उस को कुछ न हुआ ?’’
‘‘हुआ न आखिर ! बरोबर हुआ ।’’
‘‘क्या हुआ ?’’
‘‘इधर धर लिया गया ।’’
‘‘क्या मतलब ? पकड़ा गया ?’’
‘‘हां ।’’
‘‘पुलिस ने पकड़ा ?’’
‘‘नहीं । भाई लोगों ने पकड़ा । और जो उन का भी बाप था रीकियो फिगुएरा करके, उसके सामने पेश किया । वो फिरंगी बॉस सोहल के हौसले और दिलेरी से इतना इम्प्रेस्ड था कि सोहल को साला अपने साथ काम करने का आफर दिया पण अपना सोहल नक्की बोला । ऐन फिट करके फंसा हुआ था फिर भी नक्की बोला । जब कि हां बोल कर जान छुड़ा सकता था । पण ऐसीच है अपना भीड़ू । कैरेक्टर वाला । बोम नहीं मारता । फरेबी बात नहीं करता । जान की परवाह किये बिना फिरंगी बॉस की आफर को टोटल नक्की किया ।’’
‘‘बचा कैसे ?’’
‘‘मालूम नक्को । पण बचा तो बरोबर क्योंकि फिर वापिस मुम्बई में था ।’’
‘‘तब से वहीं है ?’’
‘‘मेरे खयाल से ।’’
‘‘खयाल से क्यों ? यकीन से क्यों नहीं ?’’
‘‘क्यों कि तभी, उन्हीं दिनों मेरे को पुलिस ने थाम लिया न ! मैं साला इधर जेल में तो उधर की बातें कैसे मालूम होयेंगा !’’
‘‘ठीक ।’’
‘‘पण मालूम होता भी है ।’’
‘‘कैसे ?’’
‘‘इधर जेल में साला ऐसे भीड़ुओं का भी तो आना जाना होता ही है न जो मेरे से मुम्बई से वाकिफ । उधर मुम्बई में साला सोहल हाउसहोल्ड नेम ।’’
‘‘क्यों कि बड़ा मवाली बन गया है ? खुद भाई बन गया है ?’’
‘‘नक्को ! क्योंकि सखी हातिम बन गया है, राबिन हुड बन गया है, दीनबन्धु दीनानाथ बन गया है ।’’
‘‘की मतलब है, भई, तेरा ?’’ — गरेवाल हैरानी से बोला ।
‘‘गरीब गुरबा की मदद करता है । पिसे हुए, दबे हुए लोगों का पिराब्लम्स साल्व करता है । तुकाराम चैरीटेबल ट्रस्ट चलाता है चैम्बूर में जिधर बोले तो साला जहांगीरी घन्टा लटकता है जिसे कि कोई भी आता है, खड़काता है, और इंसाफ पाता है, मदद पाता है, आसरा पाता है ।’’
‘‘कमाल है, भई !’’
‘‘मेरे को इधर न्यूज मिला है कि अभी हालिया काम ये किया है कि फिरंगी ड्रगलार्ड रीकियो फिगुएरा को दायें बायें चलने वाले अक्खे भीड़ुओं समेत फिनिश किया । साथ में इधर इंडिया का भी कोई ड्रग डीलर न छोड़ा । बोले तो अपने अकेले सोहल भीड़ू ने नाॅरकाॅटिक्स ट्रेड को टोटल खल्लास कर दिया । इसी वास्ते अभी सुना है कि रिटायर होना मांगता है ।’’
‘‘रिटायर होना मांगता है ?’’ — कौल हैरानी से बोला ।
‘‘हां ।’’
‘‘रिटायर हो के क्या करेगा ?’’
‘‘मालूम नहीं, पण यहीच सुना है ।’’
‘‘यार, यकीन नहीं आता’’ — गरेवाल बोला — ‘‘कि जिस शख्स के हाथों हमारी दुरगत हुई थी तू उसी का बखान कर रहा है ।’’
‘‘तुम्हेरे से सोहल भिड़ा ?’’
‘‘हां ।’’
‘‘तो फिर मैं जो बोला, उसी का बोला । सोहल एक ही है अक्खी दुनिया में ।’’
‘‘सिर्फ एक-सवा साल में इतनी ताकत बना ली, इतनी हैसियत बना ली, इतनी औकात बना ली कंजरी दे ने !’’
‘‘ऐसीच है । पण तुम्हारे को क्या वान्दा है ?’’
‘‘वान्दा क्या ?’’
‘‘अरे, वो प्राग्रेस किया, ऊपर पहुंचा, टॉप का भीड़ू बना तो तुम्हेरे को क्या पिराब्लम है ?’’
‘‘ओये वीर मेरे, समझ नहीं आ रहा तू क्या कह रहा है ?’’
‘‘प्राब्लम है ।’’ — कौल बोला ।
‘‘क्या ?’’
‘‘सरदार बदला लेने का सपना देख रहा है । उस इकलौते शख्स की वजह से हम बर्बाद हैं । सरदार का बस चले तो उस का खून पी जाये ।’’
‘‘पुर्जा पुर्जा करके फेंक दूं ।’’ — गरेवाल कहरभरे स्वर में बोला — ‘‘तिक्का बोटी एक कर दूं । लेकिन पहले अपने सारे माली नुकसान की उस माईंयवे से भरपाई करूं ।’’
‘‘बोले तो भाव खाया तो भूल गया कहां पर है !’’
‘‘एहो ही तो मुसीबत है ।’’ — गरेवाल असहाय भाव से बोला — ‘‘वकील कहता तो है छुड़ा देगा । बस, उसी का आसरा है ।’’
‘‘छूट गये तो क्या करोगे ?’’
‘‘सीधे मुम्बई का रुख करेंगे और कुत्ती दे पुत्तर को तलाश करेंगे ।’’
‘‘तलाश कर के क्या करोगे ?’’
‘‘ये भी कोई पूछने की बात है !’’
‘‘है पूछने की बात ! भीड़ू, तुम क्या समझता है तुम बखिया से भी जबर है ? इकबाल सिंह, गजरे से भी जबर है, गुरबख्श लाल से भी जबर है, रीकियो फिगुएरा से भी जबर है ?’’
गरेवाल से जवाब देते न बना, वो परे देखने लगा ।
‘‘चींटी हाथी के मुकाबले कहीं नहीं ठहरती’’ — कौल धीरे से बोला — ‘‘लेकिन उसे गिरा देती है ।’’
‘‘कौल ठीक कहता है ।’’ — गरेवाल भी उस बार उसी जैसे संजीदा लहजे से बोला — ‘‘छूट गये, जमानत पर भी बाहर आ गये, तो एक बार कोशिश जरूर करेंगे ।’’
‘‘छूट सकते हो ।’’ — झेण्डे भी संजीदगी से बोला — ‘‘छूटने के और भी तरीके हैं ।’’
‘‘और भी ?’’
‘‘क्यों नहीं ? तुम्हेरे को मालूम नहीं होगा पण मेरे को मालूम है, खुद सोहल दो बार जेल से भाग चुका है ।’’
‘‘अच्छा !’’
‘‘हां । एक बार इलाहाबाद से, फिर दिल्ली में यहीं से ।’’
‘‘कमाल है ! कैसे किया ?’’
‘‘ये मुझे नहीं मालूम ।’’
‘‘यार, झण्डे भाई...’’
‘‘झेण्डे ।’’
‘‘...मालूम होता तो हम भी वैसी कोई कोशिश कर देखते ।’’
‘‘है जिगरा ?’’
‘‘अब क्या बोलें ! मौके पर मुनहसर है ! दांव पर मुनहसर है !’’
‘‘वक्ती जुनून पर मुनहसर है ।’’ — कौल बोला ।
‘‘वो तो है ।’’
‘‘अब सरदार को रात को यही सपना आयेगा ।’’
‘‘हां, यार ।’’ — गरेवाल बोला ।
‘‘आने देना । वान्दा नहीं ।’’ — झेण्डे बोला — ‘‘बोले तो सपने सच भी हो जाते हैं ।’’
तभी डंडा हिलाता एक हवलदार वहां पहुंचा ।
‘‘बन्द करो ये कान्फ्रेंस ।’’ — वो रौब से बोला — ‘‘कब से देख रहा हूं मैं तुम्हारी चबर चबर । बन्द करो । जा के अपने अपने काम से लगो ।’’
तत्काल तीनों एक दूसरे से अलग हो गये ।
���
दस दिन बाद उन में फिर वार्तालाप का इत्तफाक हुआ ।
वो खाने की लाइन में थे ।
‘‘खाना ले कर’’ — झेण्डे, जो गरेवाल के पीछे खड़ा था, उस के कान के पास मुंह ले जाकर बोला — ‘‘उधर पेड़ के नीचे चलना ।’’
‘‘क्यों ?’’ — गरेवाल सस्पेंसभरे स्वर में बोला ।
‘‘पता चलेगा ।’’
‘‘कोई बात करनी है ?’’
‘‘अभी आई बात समझ में ।’’
‘‘हला ।’’
पेड़ के नीचे के गोल चबूतरे पर कौल और गरेवाल यूं झेण्डे से जैसे जैसे तीनों वहां खाना खाने को बैठे हों ।
‘‘क्या बात है ?’’ — गरेवाल उत्सुक भाव से बोला ।
‘‘तुम भीड़ू लोग सोहल को फिट करना मांगता है ।’’ — झेण्डे संजीदगी से बोला — ‘‘बरोबर !’’
‘‘है तो ऐसा ही !’’
‘‘पण इस काम में फर्स्ट स्टैप ये कि इधर से बाहर होने का !’’
‘‘वो तो है !’’
‘‘जमानत पर छूट के या बरी हो के ?’’
‘‘क्या कहना चाहता है ?’’
‘‘साल से ज्यादा टेम से इधर है । किधर है साला जमानत ? किधर है रिहाई का परवाना ?’’
‘‘नहीं है ।’’
‘‘मैं बोले तो साला होने का भी नहीं ।’’
‘‘दिल न तोड़, झण्डे भाई ।’’
‘‘झेण्डे । मैं खाली पीली बोम नहीं मारता, जो सच्ची में है, वही बोलता है । क्या !’’
दोनों ने चिन्तापूर्ण भाव से सहमति में सिर हिलाया ।
‘‘साला खिलाफ फैसला हुआ तो अक्खा लाइफ इधर ।’’
गरेवाल का कौर उसके हाथ में ही रह गया, उसने जोर से थूक निगली, बेचैनी से पहलू बदला ।
‘‘मैं क्या बोला था ?’’ — झेण्डे बोला ।
‘‘क्या बोला था ?’’
‘‘याद करने का ।’’
‘‘क्या ?’’
‘‘छूटने को और भी तरीके ।’’
‘‘बोला तो था, वीर मेरे । है कोई तेरी निगाह में ?’’
झेण्डे के चेहरे पर रहस्यपूर्ण मुस्कराहट आई ।
लगता है, है ।’’ — कौल बोला ।
‘‘है । बोले तो अभी यही बात करने का ।’’
‘‘तो कर न !’’ — गरेवाल उतावले स्वर में बोला — ‘‘जो कहना है, जल्दी कह ।’’
‘‘इधर से निकलने का जुगाड़ हो सकता है’’ — झेण्डे दबे स्वर में बोला — ‘‘पण रोकड़ा लगेगा ।’’
‘‘कितना ?’’
‘‘दो ।’’
‘‘दो क्या ?’’
‘‘दो लाख ।’’
‘‘इक बन्दे के दो लाख रुपये ?’’
‘‘टोटल दो लाख । भीड़ू जितने हों सो हों ।’’
‘‘की मतलब होया, भई ? जेल में तो हजारों हैं !’’
‘‘इधर से नहीं । इधर से नहीं । इधर से नक्की कैसे होयेंगा ?’’
‘‘तो ?’’
‘‘बाहर से ।’’
‘‘बाहर से क्या मतलब ? यार, ठीक से बोल । इकट्ठा बोल ।’’
‘‘पेशी पर इधर से कैदी कोरट में ले जाये जाते हैं या नहीं ?’’
‘‘ले जाये जाते हैं ।’’
‘‘जेल और कोरट के बीच के रास्ते में वहीं चानस लगने का ।’’
‘‘कैसे ?’’
‘‘बोलेगा । अभी इम्पार्टेंट कर के बात तुमको बोलने का । दो लाख रुपया सब को शेयर करने का । मेरे को मालूम तुम्हेरी आने वाली तारीख पर टोटल दस भीड़ू होंगे जो साकेत कोरट ले जाये जायेंगे । दो तुम, एक मैं और बाकी सात भीड़ू और । दस भीड़ू दो लाख देंगा आगे किसी को । बोले तो एक भीड़ू को बीस हजार देने का । तुम दो, इस वास्ते चालीस । दे सकता है ?’’
गरेवाल ने कौल की तरफ देखा — आखिर दिमाग वाला तो वो ही था, खुद वो तो ताकतवाला था ।
‘‘जब बड़ा वकील बोलता है’’ — कौल धीरे से बोला — ‘‘कि हमारे खिलाफ केस नहीं ठहरने का तो...’’
‘‘साल से ऊपर हो गया’’ — गरेवाल उतावले स्वर में बोला — ‘‘इतना पैसा खर्च हो गया, अभी तक तो कुछ हुआ नहीं !’’
‘‘उम्मीद पर दुनिया कायम है ।’’
‘‘ओये कमलया, दुनिया तो हमेशा ही कायम है, सवाल ये है हम कब तक कायम रह पायेंगे । पैसा खत्म हो गया — जो कि आखिर तो होगा ही — तो बड़ा वकील भी साथ छोड़ जायेगा । नहीं ?’’
‘‘हो सकता है।’’
‘‘अभी कोई मौका हमारे सामने है तो हमें उसका फायदा नहीं उठाना चाहिये ?’’
‘‘जो... तुम कहो ।’’
‘‘तू क्या कहता है ?’’
‘‘मैं तुम्हारे से बाहर नहीं जा सकता ।’’
‘‘तो दिल पक्का कर, हम झण्डे भाई की बात सुनते हैं ।’’
कौल खामोश रहा ।
‘‘ओये सुनते हैं न ?’’
‘‘हं-हां ।’’
‘‘ज्यून्दा रह ।’’
‘‘क्या गारन्टी है ?’’ — कौल झेण्डे से बोला — ‘‘कि दो लाख के खर्चे का सिला मिलेगा ?’’
‘‘कोई गारन्टी नहीं ।’’ — झेण्डे संजीदगी से बोला — ‘‘ऐसे मामलों में गारन्टी हो ही नहीं सकती । पुलिस वाला साला किधर से गारन्टी देगा !’’
‘‘जो एस्केप में हैल्प करेगा, वो पुलिस वाला है ?’’
‘‘हां ।’’
‘‘कुछ नहीं करेगा । रकम भी डकार जायेगा ।’’
‘‘उम्मीद नहीं । पण... बोले तो ... हो सकता है ।’’
‘‘तुमने बीस हजार दे दिया ?’’
‘‘अभी नहीं । बाहर से अरेंज करना है न ! अभी मैसेज निकाला है इधर से । तीन चार दिन में आगे पेमेंट हो जायेगा और मेरे को इधर खबर मिल जायेंगा ।’’
‘‘तुम्हें रिस्क लेने से कोई ऐतराज नहीं ?’’
‘‘ऐतराज नक्को । मामूली रकम । इस वास्ते ।’’
‘‘हूं ।’’
‘‘अभी बोलो, क्या बोलता है तुम भीड़ू लोग ?’’
कौल ने गरेवाल की तरफ देखा ।
‘‘हम भी बाहर मैसेज निकालेंगे’’ — गरेवाल बेहिचक बोला — ‘‘और रकम का इन्तजाम करेंगे । फिर जैसे बोलेगा, जिसको बोलेगा रकम पहुंच जायेगी ।’’
‘‘बढ़िया ।’’
‘‘ये काम’’ — कौल बोला — ‘‘किसी पुलिस वाले के जरिये होने वाला है तो बाहरी लोगों का तो इसमें कोई दखल नहीं होगा !’’
‘‘ऐसीच है । वो पुलिसवाला भीड़ू हमको खाली रास्ता दिखायेगा, आगे जो करना होगा, हम लोगों को खुद करना होगा ।’’
‘‘क्या ?’’
‘‘अभी नहीं बोलने का । जब तुम्हेरा पेमेंट क्लियर हो जायेगा, तब बोलने का ।’’
‘‘पेमेंट क्लियर होते ही तुम्हें खबर लग जायेगी ?’’
‘‘हां ।’’
‘‘इसका मतलब है वो पुलिस वाला इधर भीतर का ही है ।’’
‘‘श्याना भीड़ू है । ठीक है, इतना मैं पक्की किया, हवलदार है । इधरीच है । और बस ।’’
‘‘हमारे पास किन्ना टाइम है ?’’ — गरेवाल बोला ।
‘‘तुम्हेरी अगली तारीख कब है ?’’
‘‘दो हफ्ते बाद ।’’
‘‘बस इतना टाइम है । बोले तो इससे कम ।’’
‘‘हूं ।’’
वार्तालाप वहीं समाप्त हो गया ।
���
और बारह दिन बाद उस बाबत उनमें फिर बात हुई ।
झेण्डे ने तसदीक की कि सब का रोकड़ा हवलदार को पहुंच चुका था ।
‘‘अब तो बोल, वीर मेरे’’ — गरेवाल बोला — ‘‘कि असल में क्या होगा ?’’
‘‘जो होगा’’ — झेण्डे बोला — ‘‘तारीख के दिन पुलिस की कैदी ढ़ोने वाली वैन में होगा । वैन मालूम ?’’
‘‘मालूम । ऐन्नी वारी उस में सफर कर तो चुका हूं !’’
‘‘फिर तो तुम्हें मालूम है कि उस नीली वैन में आगे ड्राइवर का केबिन होता है और ड्राइवर के साथ एक ठो हथियारबन्द पुलिसवाला भीड़ू और बैठेला होता है । बीच में वो मजबूत चैम्बर होता है जिस में कैदी बन्द किये जाते हैं और जिधर जाने का होता है उधर पहुंचाये जाते हैं । बीच के चैम्बर की दोनों तरफ की खिड़कियों पर लोहे के सींखचे भी होते हैं और लोहे की मजबूत जाली भी होती है । आगे डिरेवर की तरफ और पीछे गार्ड की तरफ दो झरोखे होते हैं जिन को आब्जरवेशन विंडो कर के कुछ बोलते हैं । पीछू वाला हथियारबन्द पुलिसवाला हवलदार जो कि हमारे से फिट भीड़ू । नाम हरक सिंह । मोटी तोंद वाला, झोलझाल और आदतन काहिल और कामचोर । ये सब मालूम तुम्हेरे को । क्या !’’
‘‘आहो ।’’
‘‘वो वैन बहुत पुरानी है और खड़खड़ है । इस वास्ते चालीस पैंतालीस की रफ्तार से ऊपर मुश्किल से ही जाती है । ऐसा मैं वैन की खस्ता हालत बताने को बोला वर्ना हमेरे को उसकी रफ्तार से कोई मतलब नक्को ।’’
‘‘अग्गे ?’’
‘‘आगे है साला दो लाख की फीस वाला बात । ये बात सबको मालूम कि वैन खड़खड़, खस्ताहाल । ऐसी वैन के फर्श की कभी कोई लोहे की प्लेट उखड़ जाये तो ऐसा बराबर होना सकता । क्या !’’
‘‘आग्गे ! अग्गे !’’
‘‘असल में कोई प्लेट उखड़ने वाली नहीं पण एक प्लेट के रिवेट हमारा हवलदार हरक सिंह इतने ढीले कर देगा कि प्लेट फर्श छोड़ जाये और उसमें कोई छड़ फंसा कर उमेठने से वो फर्श से अलग हो जाये ।’’
‘‘ओह !’’
‘‘अभी बोलो ऐसे फर्श से एक प्लेट हट जाये तो क्या होगा ?’’
‘‘क्या होगा ?’’
‘‘नीचे साला पीछू को दौड़ता रोड दिखाई देगा ।’’
‘‘उसका हमें क्या फायदा ?’’
‘‘अरे, रास्ते में इतने टिरेफिक सिग्नल आयेंगे, अपुन की वैन उन पर रुकेगी कि नहीं रुकेगी ?’’
‘‘ओह !’’
‘‘तब हम बाहर होंगे ?’’ — कौल आश्वासनरहित स्वर में बोला ।
‘‘बरोबर ।’’
‘‘और सड़क पर वैन के पीछे जो भी वहीकल होंगे, वो हमें वैन के पेन्दे से टपकते देखेंगे ?’’
‘‘नहीं देखेंगे । अगले तीन दिन का वैदर फोरकास्ट है कि मार्निंग में दोपहर तक आज का माफिक धुंध होगा ।’’
‘‘धुंध हो तो लोग हैडलाइट्स जला के रखते हैं ।’’
‘‘सब नहीं । फिर भी कोई देखेगा तो एकदम से उसके मगज में कुछ नहीं आयेगा ।’’
कौल के चेहरे पर आश्वासन के भाव न आये ।
‘‘आयेगा तो भी साला जब तक कोई कुछ समझ पायेगा, जब तक रियेक्ट करेगा, तब तक हम लोग धुंध में गायब हो चुके होंगे ।’’
‘‘फड़े जायेंगे ।’’ — दायें बायें गर्दन हिलाता गरेवाल बोला ।
‘‘क्या बोला ?’’
‘‘पकड़े जायेंगे ।’’ — कौल ने जैसे तर्जुमानी की ।
‘‘भई, तो तुम लोग न भागना । वैन में बैठना । पुलिस शाबाशी देगी । शायद ईनाम भी दे ।’’
‘‘ऐसा कहीं हो सकता है !’’
‘‘क्यों नहीं हो सकता ?’’
‘‘हम से सवाल नहीं होगा कि हमने शोर क्यों न मचाया ? तभी शोर क्यों न मचाया जब कि फर्श पर से लोहे की प्लेट उखाड़ी जा रही थी ?’’
‘‘दीमाक वाला भीड़ू है । अभी इसका मतलब भी समझ ।’’
‘‘क्या समझूं ?’’
‘‘माई डियर फिरेंड, टीम से बाहर जाओगे तो कोई गर्दन पर ब्लेड फेर देगा । दोनों की । क्या !’’
कौल परे देखने लगा ।
‘‘हम सबके साथ हैं ।’’ — गरेवाल पुरजोर लहजे में बोला — ‘‘जो होगा देखा जायेगा ।’’
‘‘बरोबर ! यहीच बोलता है मैं भी । जो होगा देखा जायेगा । अरे, भीड़ू’’ — झेण्डे कौल से सम्बोधित हुआ — ‘‘देखा जायेगा न !’’
‘‘मैं सरदार से बाहर नहीं जा सकता’’ — कौल दबे स्वर में बोला — ‘‘इसलिये हां ।’’
‘‘बढ़िया अभी एक बात और ।’’
‘‘वो भी बोलो ।’’
‘‘सरदार से बोलने का ।’’ — वो गरेवाल की तरफ घूमा — ‘‘साला तुम कड़क भीड़ू ! डेंजर भीड़ू ! बड़ा मवाली ! दस के दस भीड़ुओं में सबसे जबर । एक ठो काम है जो ऐन टेम पर करने लायक है और जो तुम ही कर सकता है ।’’
‘‘क्या ?’’
‘‘मौका आने पर हम तीन भीड़ुओं को सबसे पहले आउट लेने का । किसी सिग्नल पर वैन रुकने पर तब हर किसी की कोशिश पहले निकलने की होगी । तब तेरे को उन को काबू में करने का ।’’
‘‘मैं करूंगा । तू फिकर न कर बाउ, अगर सब कुछ ठीक चला तो हम ही तीन जने पहले निकलेंगे । मेरा जिम्मा ।’’
‘‘बढ़िया ।’’
‘‘माईंयवी ऐसी पट्टी पढ़ाऊंगा कि वही चाहने लगेंगे कि पहले कोई दूसरा जाये ताकि पता चले कि कोई विघ्न पड़ता था या नहीं !’’
‘‘बढ़िया ।’’
‘‘फिर भी कोई न माना तो’’ — उसने मुट्ठी बांध कर हवा में धूंसा मारा — ‘‘ये तो है ही !’’
‘‘बहुत बढ़िया ।’’
‘‘सरदार एक घूंसे में दीवार ढा सकता है ।’’ — कौल बोला ।
‘‘बोले तो बहुत ही बढ़िया ।’’ — झेण्डे एक क्षण ठिठका फिर बोला — ‘‘अभी कुछ और बोलने का ?’’
‘‘हां ।’’ — गरेवाल बोला — ‘‘अगर कामयाब हुए तो हम तो कुछ दिन दिल्ली में ही रुकेंगे...’’
‘‘खतरा होगा !’’
‘‘उठायेंगे । तू बोल तेरा क्या प्रोग्राम है, झण्डे भाई ।’’
‘‘झेण्डे ।’’
‘‘ओये आहो । ओहो ही ।’’
‘‘मेरे को तो इमीडियेट करके मुम्बई के लिये निकल लेने का ।’’
‘‘आखिर तो हमारा भी वहां पहुंचने का इरादा है । इसलिए चाहते हैं कि इधर जो साथ बना है वो उधर भी बना रहे ।’’
‘‘बोले तो !’’
‘‘सरदार पूछ रहा है’’ — कौल बोला — ‘‘कि मुम्बई में हम तुम्हारे से कैसे कान्टैक्ट कर सकते हैं !’’
‘‘ओह !’’
झेण्डे ने तरीका समझाया ।
���
कोर्ट में पेशी का दिन ।
दस कैदियों के साथ जेल की कैदी वैन जेल से निकली और अपनी मंजिल साकेत की ओर बढ़ी ।
हवलदार हरक सिंह ने कैदियों को उन के चैम्बर के भीतर पहुंचा कर बीच के दरवाजे को बाहर से ताला लगा दिया था जिसको उसने वैन परिसर के कोर्ट में पहुंच जाने के बाद ही खोलना था । बीच के वक्फे के दौरान उसके पास ठण्ड में ऊंघने के सिवाय कोई काम नहीं था ।
एक बात का उसे मलाल था । कैदियों के फरार होने में कामयाब हो जाने का मतलब था उसने उन की खिदमत बड़ी की थी लेकिन फीस छोटी चार्ज की थी । अब उसे लग रहा था कि उसकी मांग कम से कम पांच लाख की होनी चाहिये थी ।
वैन के फर्श की लोहे की प्लेटों में से राहदारी की एक लम्बी प्लेट के रिवेट उसने ढीले कर दिये थे और कैदियों के नुमाइन्दे अनूप झेण्डे की जानकारी में लोहे की एक छड़ उसने एक सीट के नीचे रख दी थी जिसके बारे में उसने सख्त हिदायत जारी की थी कि उसे पीछे न छोड़ा जाय । वो कामयाब न होते या तमाम के तमाम कामयाब न होते तो भी छड़ को हर हाल में बाहर फेंक दिया जाना था ।
क्योंकि ताला वारदात के बाद भी बाहर से बन्द पाया जाना था इसलिये वो अपने आप को बिल्कुल सेफ पाता था । तफ्तीश पर यही समझा जाता कि ये एक हादसा ही था — बल्कि करिश्मा था — कि कैदी फर्श की एक प्लेट उखाड़ने में कामयाब हो गये थे और वैन के ‘पेट’ से बाहर ‘टपक’ गये थे ।
धुंध उस रोज पिछले दिनों से भी गहरी थी जो कि अच्छी बात थी । यानी सिग्नल पर खड़ी वैन के निकलते कैदी किसी की निगाह में नहीं आने वाले थे — आ भी जाते तो किसी की समझ में ये नहीं जाने वाला था कि वो वैन के नीचे से निकल रहे थे ।
सब ठीक होगा — उसने सन्तुष्टिपूर्ण भाव से मन ही मन सोचा — साले भाग सकें या न भाग सकें, उसने दो लाख कमा लिये थे । सब घिसे हुए मुजरिम थे, ऐसी बातों की ऊंच नीच समझते थे, सब पकड़े भी जाते तो उसका नाम नहीं लेने वाले थे ।
उसने घड़ी पर निगाह डाली ।
नौ बज कर पैंतीस मिनट ।
भीतर मौजूद दस में से सात विचाराधीन कैदी थे और बाकी के तीन पहले ही लम्बी सजायें पाये हुए थे — एक कैदी सुखदेव सिंह सुक्खा तो उम्र कैद की सजा पाये था — लेकिन कोर्ट में उनकी पेशी इसलिये थी क्योंकि उन पर और भी केस थे ।
वैन जेल रोड पर आगे स्टेशन रोड, करियप्पा मार्ग की तरफ दौड़ी चली जा रही थी ।
लोहे की छड़ अनूप झेण्डे ने सीट के नीचे से बरामद की थी तो सुखदेव सिंह सुक्खे ने तत्काल उसे अपने कब्जे में कर लिया था और फिर फर्श पर से उमेठ कर वो शीट अलग की थी जो कि ढीली थी ।
तब तक तीन सिग्नल गुजर चुके थे लेकिन वैन उन पर नहीं रुकी थी । तीनों बार ऐसा संयोग हुआ था कि उसे चौराहे पर हरी बत्ती मिली थी ।
‘‘पुलिस की गाड़ी है ।’’ — कौल चिन्तित भाव से धीरे से बोला — ‘‘क्या पता लाल बत्ती पर भी न रुके !’’
‘‘हूं ।’’ — गरेवाल ने भी चिन्तापूर्ण हूंकार भरी ।
‘‘न रुकी तो इसे कौन रोकेगा, कौन टोकेगा ?’’
‘‘कम ट्रैफिक वाले किसी चौराहे पर ऐसा हो सकता है ।’’ — झेण्डे दबे स्वर में बोला — ‘‘पण बिजी क्रासिंग्स पर टिरेफिक ज्यादस्ती होता है, दूसरा बाजू से फौरन चलने लगता है तो मजबूरन रुकना पड़ता है ।’’
‘‘हूं ।’’ — गरेवाल ने फिर पूर्ववत् हूंकार भरी ।
‘‘अभी जो होगा सामने आ जायेगा ।’’
‘‘वो तो है ।’’
‘‘तब सब से पहले मैं ।’’ — सुखदेव सिंह सुक्खा बोला ।
‘‘कान पतले हैं तेरे, भीड़ू ।’’
‘‘किसी को ऐतराज हो तो अभी बोले ।’’
‘‘अभी बोले तो क्या होगा ?’’ — एक कैदी दिलेरी से बोला ।
‘‘चाकू पेट में होगा।’’ — सुक्खे ने एकाएक हवा में चाकू लहराया — ‘‘आंतें बाहर होंगी ।’’
‘‘तेरे पास चाकू कहां से आया ?’’
‘‘आया कहीं से । मेरी बात सुन लो सारे जने । मेरे से पहले कोई बाहर जायेगा तो आंते झोली में ले के जायेगा ।’’
‘‘ये धांधली है ।’’ — कोई दूसरा कैदी बोला ।
‘‘जो हो के रहेगी ।’’
‘‘गुंडागर्दी है ।’’
‘‘है न ! कंजरा ! मैं तेरे को भलामानस दिखाई देता हूं !’’
वो कैदी फिर न बोला ।
‘‘कांटी पाकेट में रखने का ।’’ — झेण्डे बोला ।
‘‘क्या !’’
‘‘किसी ने’’ — कौल बोला — ‘‘चाकू देख लिया तो पहले ही पंगा पड़ जायेगा ।’’
‘‘हूं ।’’
‘‘जो कि ठीक न होगा । बना बनाया खेल बिगाड़ जायेगा ।’’
सुक्खे ने हिचकिचाते हुए चाकू अपने कपड़ों में कहीं छुपा लिया ।
‘‘पर मेरी बात याद रहे ।’’ — उसने चेतावनी जारी की — ‘‘पहले मैं ।’’
कोई कुछ न बोला ।
झेण्डे ने कौल की तरफ देखा ।
कौल ने गरेवाल की तरफ देखा ।
तीनों में आंखों आंखों में मन्त्रणा हुई जिसके फलस्वरूप गरेवाल इतनी धीमी आवाज से बोला कि कौल और झेण्डे ही सुन पाते — ‘‘मैं थामता हूं । तुम एक जना उसका मुंह बन्द करना ताकि चिल्लाने न पाये, दूसरा जना चाकू पर निगाह रखना ... निकालने न पाये, चलाने न पाये ।’’
दोनों ने संजीदगी से — कौल ने साफ साफ डरते हुए — सहमति में सिर हिलाया ।
सुक्खा फर्श से उखड़ी प्लेट के करीब पैसेज में यूं खड़ा था कि वैन के गतिशून्य होते ही बाहर कूद पड़ता ।
गरेवाल अपनी जगह से सरका और लापरवाही से उसके पीछे पहुंचा ।
सुक्खा एकाएक घूमा ।
‘‘क्या है ?’’ — गरेवाल को घूरता वो गुर्राया ।
‘‘कुछ नहीं ।’’ — गरेवाल सहज भाव से बोला ।
‘‘कुछ तो है !’’
‘‘ओये, तेरे बाद भी किसी का नम्बर होना है कि नहीं होना !’’
‘‘हूं ।’’ — सुक्खे ने जोर की हूंकार भरी — ‘‘तो मेरे बाद तेरा नम्बर ?’’
‘‘कोई ऐतराज ?’’
‘‘मेरे को क्यों होगा ?’’
‘‘किसे होर वीर मेरे नूं कोई ऐतराज ?’’
कोई कुछ न बोला ।
बात जैसी वहीं खत्म हो गयी ।
वैन सड़क पर बदस्तूर दौड़ती रही ।
उस घड़ी वैन परेड रोड पर थी ।
तभी आगे एक क्रासिंग आया जिस पर हरी बत्ती लाल होने की लगी थी कि वैन के ड्राइवर ने रफ्तार बढ़ा दी और दूसरी तरफ से चल पड़े ट्रैफिक की परवाह किये बिना क्रासिंग को पार कर लिया । पार निकलते ही उसने वैन की रफ्तार को नियन्त्रित किया । ऐसा होने पर सुक्खे का शरीर आगे को लहराया, उसकी तवज्जो अपना बैलेंस बरकरार रखने की तरफ गयी तो गरेवाल ने एकाएक चीते की तरह उस पर झपट कर उसकी दोनों बाहें अपने काबू में कर लीं और उसकी पीठ पीछे मरोड़ दी ।
‘‘ओये झण्डे !’’ — वो फुंफकारा — ‘‘मुंह फड़ माईंयवे दा ।’’
चिल्लाने को तत्पर सुक्खे का झेण्डे ने मुंह दबोचा तो चीख सुक्खे के गले में ही घुटकर रह गयी ।
कौल ने उसका चाकू बरामद करना था लेकिन उसने ऐसा न किया, उसे दानवाकार सुक्खा उन दोनों पर भारी पड़ता लगा, नतीजतन उसने झुक कर एक सीट पर पड़ी लोहे की छड़ उठाई और उसका भरपूर वार सुक्खे के माथे पर किया । तत्काल सुक्खे की आंखें उलट गयीं और वो गरेवाल और झेण्डे की बांहों में झूल गया । दोनों ने एहतियात से उसे एक सीट पर डाल दिया ।
अब सुक्खा सीट पर यूं बेहोश पड़ा था कि उसका धड़ सीट पर था और टांगें नीचे लटक रही थीं ।
तब कौल ने इत्मीनान से उसकी जेब से चाकू बरामद किया ।
गरेवाल और कौल ने चैन की सांस ली और वैन में निगाह फिराई ।
बाकी कैदी सहमे से वो नजारा देख रहे थे । गनीमत थी कि किसी ने सुक्खे की हिमायत में आगे आने की कोशिश नहीं की थी ।
हरक सिंह से उन्हें कोई खतरा नहीं था, वो अपनी ओर की आब्जरवेशन विंडो से भीतर झांक भी लेता तो उन्हें यकीन था कि दखलअन्दाज होने की कोशिश करने की जगह आंखें बन्द कर लेता लेकिन दूसरा, आगे ड्राइवर के साथ बैठा हवलदार, अगर भीतर निगाह डालता तो उन का खेल वहीं खत्म हो जाता ।
गनीमत थी कि ऐसा न हुआ ।
तभी वैन की रफ्तार घटने लगी और आखिर वो एक चौराहे पर रुकी ।
तत्काल कौल ने फर्श पर से प्लेट हटाई और गरेवाल को इशारा किया ।
गरेवाल फुर्ती से, बिना एक भी क्षण नष्ट किये, छेद में लटक गया और नीचे सड़क पर उतर गया ।
उसके पीछे कौल भी नीचे उतरा ।
वो दोनों वैन के नीचे से बाहर निकले ही थे कि वैन चल पड़ी ।
वैन यूं एकाएक चली थी कि उसके नीचे से निकलने में उन्होंने एक क्षण की भी देर की ही तो वो यकीनन कुचले जाते ।
आगे सिग्नल अभी भी लाल था लेकिन चौराहा खाली था इसलिये ड्राइवर ने वैन आगे बढ़ा दी थी ।
उसकी उस हरकत का खामियाजा झेण्डे को भुगतना पड़ा जो कि वैन से न उतर पाया ।
उन्होंने सड़क के डिवाइडर को पार किया ।
कहीं से कोई चेतावनीभरी आवाज न उठी, कोई शोर न मचा, किसी ने दुहाई न दी कि वैन के नीचे से निकल कर कैदी भागे जा रहे थे । पता नहीं किसी की उन पर निगाह नहीं पड़ी थी या उसकी समझ में नहीं आया था कि असल में उसने क्या नजारा किया था ।
उनके निर्विघ्न परली सड़क के फुटपाथ पर पहुंचने तक वैन उन की दृष्टि से ओझल हो चुकी थी ।
‘‘झण्डे रह गया !’’ — गरेवाल के मुंह से निकला ।
‘‘अभी साकेत दूर है ।’’ — कौल बोला — ‘‘आगे कहीं उसका दांव लग जायेगा ।’’
‘‘न लगा तो ?’’
‘‘तो वापिसी का सफर है न ! तब तक तो सड़कों पर ट्रैफिक भी बढ़ जायेगा । तब वैन ड्राइवर को मजबूरन लाल बत्ती पर रुकना पड़ेगा ।’’
‘‘ओये, ट्रैफिक बढ़ जायेगा तो ठीक है पर धुंध की ...वो क्या कहते हैं ...’’
‘‘एडवांटेज ।’’ — पढ़ा लिखा कौल बोला ।
‘‘हां, ओहो ई । वो तो खत्म हो जायेगी !’’
‘‘सरदार, झेण्डे हम से कहीं ज्यादा पहुंचा हुआ बन्दा है, वो कोई जुगत कर लेगा ।’’
‘‘न कर सका तो ?’’
‘‘तो उसकी किस्मत । हमें तो आजादी का रास्ता दिखा गया न ! हम तो आजाद हैं न !’’
‘‘ओ ते है ।’’ — गरेवाल ने आजूबाजू निगाह दौड़ाई — ‘‘हम हैं कहां ?’’
‘‘पता नहीं । वो परे बस स्टैण्ड है, वहां चलते हैं, वहां से शायद कुछ पता लगे ।’’
पता लगा ।
बस स्टैण्ड पर दर्ज सूचना के मुताबिक वो राव तुलाराम मार्ग पर थे ।
तभी एक बस वहां आकर रुकी ।
बिना जाने कि वो कहां जा रही थी, दोनों उसमें सवार हो गये ।
‘‘ओये टिकट लेनी पड़ेगी !’’ — गरेवाल बोला — ‘‘पैसे कहां हैं ?’’
‘‘चुप करो ।’’ — कौल दांत भींचे बोला — ‘‘हम मौकायवारदात पर टिके नहीं रह सकते । हमारा फौरन यहां से दूर से दूर निकल जाना जरूरी है ।’’
‘‘लेकिन...’’
‘‘चुप करो । जो होगा, देखा जायेगा ।’’
‘‘क्या होगा ? क्या देखा जायेगा ?’’
‘‘अरे, मैं सम्भाल लूंगा न !’’
‘‘चंगा, भई ।’’
एक पैसेंजर से पूछने पर उन्हें मालूम हुआ कि बस नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन जा रही थी ।
सफर खामोशी से कटता रहा ।
बस के रेल भवन पहुंचने तक उसमें से काफी पैसेंजर उतर गये ।
बस आगे पार्लियामेंट स्ट्रीट की तरफ बढ़ी ।
तभी कन्डक्टर उन के करीब पहुंचा ।
‘‘तुमने टिकट नहीं ली ।’’ — वो कौल से बोला, फिर गरेवाल की तरफ घूमा — ‘‘और मेरे खयाल से तुमने भी !’’
‘‘ध्यान नहीं रहा ।’’ — कौल बोला ।
‘‘तुम्हें भी ?’’
‘‘आहो ।’’ — गरेवाल बोला ।
‘‘दोनों साथ हो ?’’
‘‘आहो ।’’
‘‘अब लो । कहां जाना है ?’’
गरेवाल ने कौल की तरफ देखा ।
‘‘नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन ।’’ — कौल बोला ।
‘‘चौबीस रुपये ।’’ — कन्डक्टर बोला ।
कौल ने अपनी जेब में हाथ डाला ।
‘‘अरे !’’ — उसके मुंह से निकला ।
‘‘क्या हुआ ?’’ — कन्डक्टर बोला ।
‘‘जेब कट गयी ।’’
‘‘मेरी भी ।’’ — गरेवाल कौल से हिंट लेता बोला ।
‘‘झूठ !’’ — कन्डक्टर बोला — ‘‘ये पैंतरा मेरे साथ नहीं चलने का ।’’
‘‘यार’’ — कौल विनयपूर्ण स्वर में बोला — ‘‘तलाशी ले लो ।’’
‘‘तलाशी ले लूं ! काहे को ?’’
‘‘जेब में बटुवा निकल आये तो बोलना । एक काला पैसा भी निकल आये तो बोलना । कोई खाली जेब घर से निकलता है ! खाली जेब बस में सवार होता है !’’
‘‘हूं !’’ — कन्डक्टर ने गरेवाल की तरफ देखा ।
गरेवाल ने पहले ही कुर्ते और वास्कट की खाली जेबें उलट कर दिखा दीं ।
‘‘लिहाज कर दो ।’’ — कौल ने फरियाद की — ‘‘मेहरबानी होगी ।’’
‘‘रब तेरा भला करेगा ।’’ — गरेवाल बोला ।
‘‘हूं । ठीक है, किया लिहाज लेकिन यहीं उतरना पड़ेगा ।’’
‘‘यहीं कहां ?’’ — कौल बोला ।
‘‘जो स्टैण्ड आ रहा है उस पर ।’’
‘‘ठीक है, मेहरबानी ।’’
‘‘ज्यूंदा रह पुत्तरा ।’’ — गरेवाल बोला ।
कन्डक्टर ने उन्हें पार्लियामेंट स्ट्रीट में उतार दिया ।
‘‘तू कमला है ।’’ — गरेवाल भुनभुनाया ।
कौल की भवें उठीं ।
‘‘हमें टैक्सी पकड़नी चाहिये थी ! टैक्सी पर हम सीधे दरियागंज अपने सुभाष के पास जाते, वो भाड़ा भर देता ।’’
सुभाष — सुभाष भूटानी — उनके बाहर के कान्टैक्ट का नाम था ।
‘‘पीछे टैक्सी कहां थी ?’’ — कौल बोला ।
‘‘आ जाती ।’’
‘‘न आती तो वहीं खड़े रहते गिरफ्तार होने के लिये ।’’
‘‘खामखाह !’’
‘‘नहीं खामखाह ! ये बड़ी वारदात है । जहां हुई, हम वहां मंडराते रहना अफोर्ड नहीं कर सकते थे । पहले भी बोला ।’’
गरेवाल खामोश रहा ।
‘‘हो सकता है बाकी कैदियों का भी हमारे जैसा दांव लग गया हो और सब के सब भाग चुके हों । इतनी बड़ी वारदात के बाद अब तक पुलिस ने शहर में नाकेबन्दी की कोई कसर छोड़ी होगी ! नाके पर बस को कोई नहीं रोकता लेकिन टैक्सी को रोका जा सकता है ।’’
‘‘ओह !’’
‘‘जब तक हम कोई एहतियात न बरतें, हम कहीं सेफ नहीं हैं । यहां भी नहीं ।’’
‘‘ओये, डरा रहा है !’’
‘‘खुद डर रहा हूं । कन्डक्टर ने हमें बड़ी नामुराद जगह पर उतारा है । दो सौ गज पर पार्लियामेंट स्ट्रीट का थाना है । ऊपर से तुम्हारा हुलिया टिपीकल है जिसकी वजह से तुम्हारी तरफ किसी की तवज्जो न भी जानी हो तो जाती है । तहमद कुर्ता, स्वेटर वास्कट । ऊपर से तुम सिख । और ऊपर से इतना बड़ा जिस्म । पुलिस ने शिनाख्त जारी की तो आधी दिल्ली की निगाहें तुम्हारे पर होंगी ।’’
‘‘सच्ची डरा रहा है !’’
‘‘फरार होना आसान निकला, फिर पकड़े जाने से बचे रहना नाकों चने चबवा देगा ।’’
‘‘की करिये ?’’
‘‘कुछ तो करेंगे ही । अभी तो सुभाष भूटानी से कान्टैक्ट करना ही प्राब्लम है ।’’
‘‘खामखाह ! फोन कर ।’’
‘‘कैसे ? पीसीओ से फोन करने का एक रुपया लगता है । है हमारे पास ?’’
‘‘आहो, यार ।’’
‘‘कैसी किस्मत है ! पैंसठ लाख पर निगाह है, एक रुपये की औकात नहीं ।’’
‘‘आहो, यार । पर करें क्या ?’’
‘‘यहीं फुटपाथ पर बैठ जाते हैं, सामने तुम्हारी तहमद बिछा लेते हैं, आते जाते दानी धर्मात्मा जो पैसे फेकेंगे, हो सकता है उनमें कोई एक रुपये का भी सिक्का हो !’’
‘‘मजाक न कर ।’’
‘‘मैं मजाक नहीं कर रहा, किस्मत पर कलप रहा हूं ।’’
‘‘मत कलप । किस्मत बहुत चंगी है । आजाद हैं ।’’
‘‘ऐसे ही भटकते रहे तो रहेंगे नहीं ।’’
‘‘तेरे मुंह में खाक । वाहियात बातें करने की जगह कुछ कर । इतना सयाना है, कुछ कर के दिखा ।’’
‘‘चौक में बड़ा डाकखाना है । वहां पीसीओ बूथ होंगे ।’’
‘‘तो !’’
‘‘पीसीओ से काल करने के लिये कॉयन बाक्स में रुपया डालना पड़ता है लेकिन काल रिसीव करने की कोई फीस नहीं । दूसरे, पीसीओ के रिसीवर के माउथ पीस की जगह अगर इपरपीस को मुंह लगा कर उसमें बोला जाये तो बिना कायन बॉक्स में सिक्का डाले आवाज दूसरी तरफ जाती है । हम ऐसे भूटानी से बात करेंगे और उसको बोलेंगे कि जो नम्बर उसके मोबाइल पर आया है, वो उस पर काल बैक करे । तब काल पर रुपया खर्चे बिना हमारी उससे बात होगी ।’’
‘‘माईंयवा !’’ — गरेवाल प्रशंसात्मक स्वर में बोला — ‘‘सयानों का सयाना । चल ।’’
क्नाट प्लेस के सेंट्रल पार्क में उनकी सुभाष भूटानी से मुलाकात हुई ।
सुभाष भूटानी एक कोई पचास साल का, आम कदकाठ, आम शक्ल सूरत वाला आम आदमी था । कभी वो जरायमपेशा आदमी हुआ करता था और खुद गरेवाल के साथ भी काम कर चुका था । फिर उसके ऊपर नीचे दो तीन इतने बड़े दांव लग गये थे कि उस के दिलोदिमाग ने गवाही दी थी कि वो जुर्म की दुनिया को दरकिनार करके सुधारना अफोर्ड कर सकता था । अब वो दरियागंज अंसारी रोड पर स्टेशनरी और कम्प्यूटर असैसरीज की दुकान चलाता था और उसी के ऊपर एक दो कमरों के फ्लैट में अपनी बीवी और दो बच्चों के साथ रहता था ।
पुरानी सोहबत रही होने की वजह से गरेवाल से उस का मुलाहजा था जिसकी वजह से उसके — और कौल के — जेल के प्रवास के दौरान और उससे पहले उन की लम्बी हास्पीटलाइजेशन के दौरान इसलिये निसंकोच उसके काम आता रहा था क्योंकि जो कुछ भी उसने किया था — जैसे अमृतसर के राजमहल बार एण्ड रेस्टोरेंट की सेल प्रॉसेस की थी, उसका बैंक एकाउन्ट हैंडल किया था — उसमें गैरकानूनी कुछ नहीं था ।
अब वो इस खयाल से भी दहशत में था कि गरेवाल और कौल दोनों पुलिस की गिरफ्त से निकल भागने में कामयाब हो गये थे और उस पर उनकी — दो फरार अपराधियों की — कोई मदद करने का दबाव बन सकता था । वो दो टूक गरेवाल की मदद से इनकार नहीं कर सकता था क्योंकि वो जानता था उसका ऐसा कोई जवाब गरेवाल को हज्म नहीं होने वाला था, बर्दाश्त नहीं होने वाला था और फिर वो यकीनन कहर बन कर उस पर टूटता । बार बार राम राम भजता और कोई ऐसी तरकीब सोचता जिससे सांप भी मर जाता और लाठी भी न टूटती वो उन के पास पहुंचा था ।
गरेवाल की वजह से कौल से वो बाखूबी वाकिफ था — उन के आपसी तालुकात से भी बाखूबी वाकिफ था इसलिये उसे कोई हैरानी नहीं हुई जब कि गरेवाल की जगह कौल उससे सम्बोधित हुआ ।
‘‘वैसे तो’’ — कौल संजीदगी से बोला — ‘‘आजकल हमारी प्राब्लम्स का कोई ओर छोर नहीं है लेकिन अभी जो बड़ा पंगा हम ले के हटे हैं उसकी रू में हमारी जो दो मेजर और इमीडियेट प्राब्लम हैं, वो पैसा और पनाह हैं ।’’
‘‘पैसा तो कोई प्राब्लम नहीं’’ — सुभाष भूटानी धीरे से बोला — ‘‘बशर्ते की तुम्हारी जरूरत बेपनाह न हो, क्योंकि अभी तो तुम्हारा अमानत पैसा ही मेरे पास काफी है लेकिन पनाह ! उस बारे में मैं क्या कर सकता हूं ?’’
‘‘ओये, पनाह दे सकता है’’ — गरेवाल के स्वर में झल्लाहट का पुट आया — ‘‘और क्या कर सकता है !’’
‘‘मैं ऐसा कैसे कर सकता हूं ! मैं फैमिलीमैन हूं, बालबच्चेदार आदमी हूं, मैं ऐसा कैसे कर सकता हूं !’’
‘‘क्यों नहीं कर सकता ?’’
‘‘खुद सोचो । कितनी बार मैं नर्सिंग होम में तुम्हारे से मिला हूं, कोर्ट में मिला हूं, तिहाड़ में मिला हूं । किसी को मेरा खयाल आ गया तो तुम तो डूबोगे ही, मुझे भी ले डूबोगे ।’’
‘‘तो हम कहां जायें ? तुम्हारे सिवाय दिल्ली में हमें कोई नहीं जानता ।’’
‘‘दिल्ली छोड़ दो । यहां से दूर से दूर निकल जाओ । इसी में तुम्हारी भलाई है ।’’
‘‘फौरन ये काम करना खतरे से खाली नहीं ।’’ — कौल बोला — ‘‘अभी दिल्ली से निकासी के हर रास्ते पर पुलिस की निगाह होगी, पहरा होगा ।’’
‘‘फिर दिल्ली में हमारा एक काम है‘‘ — गरेवाल बोला — ‘‘जिस की वजह से हमारा इधर मौजूद रहना जरूरी है ।’’
‘‘वो सब ठीक है’’ — भूटानी बोला — ‘‘लेकिन मैं...मैं तुम लोगों को अपने पास नहीं रख सकता ।’’
‘‘क्यों नहीं रख सकता ?’’
‘‘मैंने बोला न...’’
‘‘भई’’ — कौल बोला — ‘‘सिर्फ रातगुजारी की बात होगी ।’’
‘‘उसी में तो खतरा है । ऐसे मामलों में पुलिस जब आती है तो रात को ही आती है, ये बात तुम्हें मालूम हो न हो, गरेवाल को मालूम है ।’’
‘‘मेरे को भी मालूम कराओ । रात को क्यों आती है ?’’
‘‘क्योंकि रात को उन का निशाना शख्स गाफिल होता है, उतना खबरदार नहीं होता जितना कि दिन में होता है । फिर रात को पुलिस एकाएक सिर पर आन खड़ी होती है इसलिए उसको भागने की कोई जुगत करने का टाइम नहीं मिलता ।’’
‘‘ठीक है, हम रात को तुम्हारे घर नहीं होंगे ।’’
‘‘अच्छा !’’
‘‘हां ।’’
‘‘कहां जाओगे ?’’
‘‘जायेंगे कहीं ।’’
‘‘और दिन में भी’’ — गरेवाल बोला — ‘‘तकरीबन वक्त घर से बाहर ही होंगे ।’’
‘‘लेकिन तुम्हारा खास हुलिया ! तुम्हारी खास शिनाख्त...’’
‘‘नहीं होगी ।’’ — कौल बोला ।
‘‘क्या ?’’
‘‘खास शिनाख्त । नहीं होगी । खास हुलिया नहीं होगा ।’’
‘‘मतलब ?’’
‘‘सरदार दाढ़ी मूंछ केश कटा देगा...’’
‘‘ओये, क्या कह रहा है ।’’ — गरेवाल हड़बड़ा कर बोला ।
‘‘तहमद कुर्ता वास्कट पहनना बन्द कर देगा, पतलून पहनना शुरू कर देगा...’’
‘‘ओये, रहे रब दा नां, मैंने जिन्दगी में पतलून नहीं पहनी ।’’
‘‘अब पहनोगे । वो सब करोगे जो मैंने बोला । इसी में तुम्हारी खैरियत है, इसी में मेरी खैरियत है वर्ना खुद तो मरोगे ही, मुझे भी मरवाओगे ।’’
‘‘अच्छा !’’ — गरेवाल मरे स्वर में बोला ।
‘‘हां ।’’ — कौल दृढ़ता से बोला ।
‘‘ओये, मैं गरेवाल सरदार...’’
‘‘सलामती में सरदारी है, सरदार । सरदारी कहीं नहीं जाती । गरेवाल मरहूम बनने से बचेगा तो सरदारी कहीं नहीं जाती । जान है तो जहान है । जान ही नहीं तो जहान किस काम का !’’
‘‘किस काम का !’’
‘‘अब हां बोलो ।’’
‘‘चंगा, भई । हां ।’’
‘‘अब तुम भी हां बोलो ।’’ — कौल घूम कर भूटानी से मुखातिब हुआ ।
‘‘मैं !’’ — भूटानी हड़बड़ाया ।
‘‘हां, तुम । इस शर्त पर कि रात को हम तुम्हारे घर नहीं होंगे और दिन में भी वहां हमारा मुकाम बहुत मुख्तसर होगा ।’’
‘‘जहां रात काटोगे, वहां दिन नहीं काट सकते ?’’
‘‘नहीं काट सकते । काट सकते होते तो तुम्हारे से इतनी हुज्जत न कर रहे होते !’’
‘‘ऐसी कौन सी जगह है...’’
‘‘है कोई । अब जवाब दो अपना ।’’
‘‘सरदार ‘न’ सुन लेगा ?’’
‘‘इसी से पूछाे ।’’
भूटानी ने गरेवाल की तरफ देखा ।
‘‘नहीं ।’’ — गरेवाल कहरबरपा लहजे से बोला ।
‘‘जब चायस ही नहीं है’’ — भूटानी मरे स्वर में बोला — ‘‘तो फिर हां ही हां है ।’’
‘‘थैंक्यू ।’’ — कौल बोला ।
‘‘शुक्रिया, भई, तेरा ।’’ — गरेवाल अपेक्षाकृत नम्र स्वर में बोला ।
‘‘एक बात और ।’’ — कौल बोला ।
‘‘अभी और भी !’’ — भूटानी के मुंह से निकला ।
‘‘हां’’
‘‘बोलो वो भी ।’’
‘‘हमारे पास शिनाख्त का कोई जरिया होना चाहिये । उसके बिना हम कभी भी, कहीं भी मुसीबत में फंस सकते हैं ।’’
‘‘तो ?’’
‘‘शिनाख्त का जरिया, प्रूफ ऑफ आइडेन्टिटी, वोटर आई कार्ड हो सकता है, ड्राइविंग लाइसेंस हो सकता है, आधार कार्ड हो सकता है, पासपोर्ट हो सकता है ।’’
‘‘अरे, तो ?’’
‘‘बनवा कर दो ।’’
‘‘क्या !’’
‘‘किसी फोर्जर का पता निकालो जो कि ये काम कर सकता हो ।’’
‘‘पासपोर्ट बना सकता हो !’’ — भूटानी के स्वर में व्यंग्य का पुट आया ।
‘‘वो ज्यादा मेहनत का, ज्यादा कारीगरी का काम है । वोटर आई कार्ड आसान होगा, हमारा काम उससे चल जायेगा ।’’
‘‘वो तो ठीक है लेकिन मैं फोर्जर का पता कैसे निकालूं ?’’
‘‘वो तुम जानाे ।’’
‘‘लेकिन...’’
‘‘ओये सुनया नहीं ?’’ — गरेवाल झल्लाया — ‘‘ओ तू जाने ।’’
‘‘अजीब मुसीबत है ।’’ — भूटानी बड़बड़ाया ।
‘‘झेलनी पड़ेगी ।’’
‘‘जब तक शिनाख्त का जरिया हमारे हाथ में नहीं होगा’’ — कौल बोला — ‘‘हम तेरे पास से नहीं टलेंगे ।’’
‘‘तौबा !’’
‘‘काम इतना मुश्किल नहीं है । ऐसे डाकूमेंट्स — खासतौर से ड्राइविंग लाइसेंस — आम फर्जी बनते हैं । मेरी सुने तो अथारिटी पर आपरेट करने वाले किसी दलाल से पता करना ।’’
‘‘ठीक है । लगता हूँ फांसी ।’’
‘‘फांसी नहीं लग्ग ।’’ — गरेवाल बोला — ‘‘यारी वखा ।’’
भूटानी ने बड़े कठिन भाव से सहमति में सिर हिलाया ।
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अगली सात रातें उन्होंने तुर्कमान गेट पर स्थित रैन बसेरे में काटीं । भीषण ठण्ड के उन दिनों में फुटपाथ पर सोने वाले लोग बाग रात को दिल्ली में मौजूद ऐसे दिल्ली सरकार द्वारा संचालित रैन बसेरों में डेरा डालते थे, जो खुद नहीं आते थे उन को समाजसेवी संस्थायें रात को फुटपाथों से उठा कर वहां पहुंचाती थीं । वो रैन बसेरे फटे हाल ही होते थे लेकिन दिल्ली की कड़कड़ाती ठण्ड में खुले में सोने के लिहाज से ठीक थे । ऐसे रैनबसेरों में पुलिस का फेरा नहीं लगता था, लगता था तो वो किसी नेता के साथ होने की वजह से औपचारिकता ही होता था । वहां मौजूद एक एक शख्स की पड़ताल कोई नहीं करता था ।
गरेवाल सरदार से मोना बन गया था, पतलून कमीज, पुलोवर जैकेट पहनने लगा था इसलिये जेल से भागे गरेवाल की परछाईं भी नहीं जान पड़ता था । कौल के लिये अपने हुलिये में कोई फौरी, इंकलाबी तब्दीली लाना मुमकिन नहीं था — सिवाय इसके कि उसने मूंछ रख ली थी और निचले होंठ और ठोडी के बीच बालों की तिकोन उगाली थी । कश्मीरी होने की वजह से उसका रंग गोरा था जिसे कि वो छुपा नहीं सकता था वर्ना वो दिल्ली में फिरते आम सम्भ्रान्त, कुलीन लोगों जैसा ही था ।
वैन ब्रेक की खबर मीडिया में खूब उछली थी । मालूम पड़ा था कि सिर्फ छ: लोग ही वैन में से फरार हो सके थे, बाकी की बारी आने तक वैन के पीछे आ खड़े एक ट्रक वाले ने हार्न बजाना और शोर मचाना शुरू कर दिया था कि वैन के पेंदें में से निकल कर कैदी भाग रहे थे ।
भागने में कामयाब हुए छ: लोगों में से — जिनमें से दो वो खुद थे — कोई पकड़ा नहीं गया था । अलबत्ता उन दोनों को ये नहीं मालूम हो सका था कि उन में अनूप झेण्डे था या नहीं था ।
फर्जी वोटर आई कार्ड उन्हें हासिल हो गये थे जिनके मुताबिक कौल का नाम संतोष सरना था और गरेवाल का नाम परमेश्वर सिंह नरूला था ।
वस्तुत: फोर्जर के पास खोये हुए आई कार्ड उपलब्ध थे जिनमें से दो पर से उसने तस्वीर तब्दील कर दी थीं, कार्डों पर चित्रित तस्वीर की जगह कौल और गरेवाल की तस्वीरें लगा दी थीं । उन कार्डों के मुताबिक वो जमना पार शकरपुर के निवासी थे । बहरहाल फोर्जर ने बढ़िया, चौकस काम किया था — दो हजार रुपये उजरत का हक अदा किया था — दोनों कार्ड एक नजर में ऐन जेनुइन जान पड़ते थे ।
एक हफ्ता कौल ने निजामुद्दीन के चक्कर लगाते गुजारा था । वहां उसका निशाना कैलाश कुमार खन्ना मरहूम की कोठी था — जो कि गरेवाल के हाथों मरहूम बना था — जो कि उन दिनों आबाद नहीं थी । खन्ना की मौत के बाद उसकी बीवी किरण और उसके तीन बच्चे कभी वहां नहीं रहे थे । तब वो इतना ही जान सके थे कि मायाराम बावा ने अमृतसर के भारत बैंक से लुटे पैंसठ लाख रुपयों के साथ वहां पनाह पायी थी, कुछ दिन बाद नोटों से भरे दो सूटकेस वहां छोड़कर बावा कहीं चला गया था जहां से खन्ना को उस का फोन आया था कि वो बावा के दो सूटकेसों को घर से निकाले और किसी सुरक्षित जगह पर ले जा कर छुपा दे ।
अब उन लोगों का मंसूबा उस सुरक्षित जगह का सुराग निकालना था जहां कि अपनी मौत से पहले खन्ना नोटों से भरे दो सूटकेस पहुंचा कर आया था ।
पड़ताल के उस अभियान में कौल को गरेवाल की शिरकत कबूल नहीं हुई थी क्योंकि उसके ख्याल से अलग अलग उन दोनों को पहचान का कोई खतरा नहीं था, इकट्ठे वो पहचाने जा सकते थे क्यों कि वो अनोखी जोड़ी थे ।
हफ्ते बाद कौल ने जोड़ीदार को अपनी रिपोर्ट पेश की ।
‘‘कोई सवा साल पहले’’ — कौल बोला — ‘‘हमारे साथ निजामुद्दीन की उस कोठी में जो बीती थी, वो तभी से आबाद नहीं है । खन्ना तुम्हारे बेजा कहर का शिकार हो के मर गया था, पति की मौत और खुद उसके साथ हुए बलात्कार से बीवी का दिमाग हिल गया था, एक लम्बा अरसा वो मैंटल असाइलम में रही थी, फिर पता नहीं कहां गायब हो गयी थी ।’’
‘‘ये बातें आम हैं’’ — गरेवाल उतावले स्वर में बोला — ‘‘सब को मालूम हैं, तू ने खास क्या जाना ?’’
‘‘मैं वही पहुंच रहा था, खामखाह टोक दिया ।’’
‘‘हला, हला ।’’
‘‘उस कोठी की बाबत मैंने ये जानकारी निकाली है कि उसका बिजली पानी का बाईमंथली बिल, हाउस टैक्स का सलाना बिल रेगुलर भरा जा रहा है और फायर इंश्योरेंस रेगुलर कराई जा रही है ।’’
‘‘कौन करता है ये काम ?’’
‘‘पड़ोसी । खन्ना से अगली कोठीवाला । पन्द्रह नम्बर वाला । खन्ना, तुम्हें मालूम ही है, चौदह में रहता था । नाम रोहित कपूर है । उसके पास खन्ना की कोठी की चाबी है ।’’
‘‘कैसे है ?’’
‘‘ओनर ने दी, और कैसे है !’’
‘‘क्यों दी ?’’
‘‘कुछ सुन नहीं रहे हो । अरे, बिजली के बिल के लिये मीटर रीडर आयेगा या नहीं ! पानी के बिल के लिये उस महकमे का मीटर रीडर आयेगा या नहीं !’’
‘‘ओह !’’
‘‘इसलिये पड़ोसी के पास चाबी है और बिल जमा कराने के लिये एक रीजनेबल रकम का डिपाजिट है ।’’
‘‘तेरे को कैसे मालूम हुआ ?’’
‘‘रोहित कपूर की बीवी को शीशे में उतारा न जो अपने नौकरीपेशा पति की गैरमौजूदगी में दिन में घर में अकेली होती है । उनके यहां मीटर रीडर आता है तो वो उसे बगल की कोठी में भी ले जाती है । फिर जब वो अपना बिल जमा कराते हैं तो पड़ोसी का भी करा देते हैं । सिम्पल ।’’
‘‘भुगताये हुए बिल कोई बाद में लेने आता है ?’’
‘‘नहीं । बिल कूरियर से खन्ना की बीवी को भेजे जाते हैं ।’’
‘‘कहां ?’’
‘‘यही तो वो खास जानकारी है जिसको निकलवाने में मुझे एक हफ्ता लग गया ।’’
‘‘कहां ?’’
‘‘मोहाली ।’’
‘‘खन्ना की बीबी वहां है ?’’
‘‘ऐसा ही जान पड़ता है ।’’
‘‘लेकिन उसको तो सूटकेसों की कोई खबर नहीं ! होती तो शर्तिया बकी होती ।’’
‘‘नहीं होगी लेकिन उससे ऐसा कुछ जाना जा सकता है जिससे हम उस दिशा में आगे बढ़ सकें ।’’
‘‘ऐसा क्या ?’’
‘‘देखो, खन्ना वो सूटकेस, वो पराई अमानत, किसी गैर के हवाले तो कर नहीं आया होगा ! जिस को भी उसने वो सूटकेस सौंपे होंगे वो उसका कोई खास भरोसे का दोस्त होगा ! अब ऐसे दोस्त कोई दर्जनों में तो होते नहीं ! नहीं ?’’
‘‘हां ।’’
‘‘पिछली बार हमने उस औरत से वो जानकारी निकलवाने की कोशिश की थी जो कि उसे नहीं थी — उसे नहीं मालूम था सूटकेस उसका पति कहां पहुंचा के आया था — लेकिन इस बार हमने उससे ऐसी जानकारी निकलवानी है जो कि उसे है — उसे यकीनन मालूम होगा कि खन्ना के खास दोस्त कौन हैं !’’
‘‘दिल्ली में ?’’
‘‘और कहां ? दिल्ली से बाहर जाना होता तो मायाराम बावा उसे सूटकेसों के साथ अपने पास ही न बुला लेता !’’
‘‘ठीक ! अब मतलब क्या हुआ इसका ? ये कि हमारा अगला पड़ाव मोहाली ?’’
‘‘हां ।’’
���
उन के आइन्दा तीन दिन मोहाली में गुजरे जिनमें भाग दौड़ का, जांच पड़ताल का काम फिर कौल के हिस्से में आया ।
उन्होंने चण्डीगढ़ के जिस होटल में मुकाम पाया था, वो छोटा था लेकिन उम्दा था, सेफ था । प्रूफ ऑफ आइडेंटिटी की मांग वहां हुई थी जो कि उन्होंने अपनी नयी उपलब्धि वोटर आई कार्ड के तौर पर पेश किया था तो कोई हुज्जत नहीं हुई थी ।
होटल के माध्यम से ही उन्होंने एक करीबी कार रेंटल एजेंसी से एक सैल्फड्रिवन वैगन-आर हासिल की थी जो कि कौल की दौड़ धूप के सिलसिले में उसके हवाले थी ।
तीसरे दिन शाम को सूरज ढले कौल गरेवाल के रूबरू हुआ ।
‘‘मैंने सब पड़ताल कर ली है’’ — वो बोला — ‘‘और ये भी तय कर लिया है कि आगे क्या करना होगा !’’
‘‘वदिया !’’
‘‘मोहाली में खन्ना के तीनों बच्चे स्कूल जाते हें — दो छोटी लड़कियां लड़कियों के एक ही स्कूल में और बड़ा लड़का — जो कि अब ग्यारह साल का है, छटी क्लास में पढ़ता है — एक दूसरे स्कूल में जाता है । लड़कियों की आवाजाही का साधन कैब है जो कि घर के दरवाजे पर से उन्हें बिठाती है और स्कूल की छुट्टी के बाद घर के दरवाजे पर उतार कर जाती है । कैब में और भी लड़कियां होती हैं जो कि आगे उतरती हैं । यानी कि खन्ना की लड़कियां सबसे आखिर में कैब में सवार होती हैं और वापिसी में सब से पहले उतरती हैं ।’’
‘‘मतलब की होया ?’’ — गरेवाल बोला ।
‘‘यही कि उन पर हाथ डालना मुमकिन नहीं ।’’
‘‘ओह ! लड़का ?’’
‘‘मैं वहीं पहुंच रहा हूं । लड़का फुल साइज की स्कूल बस में आता जाता है । वो बस घर के दरवाजे पर नहीं पहुंच सकती, मेन रोड से पकड़नी पड़ती है । सुबह लड़के के साथ मां मेन रोड तक जाती है और उसे बस पर चढ़ा कर आती है । वापिसी में लड़का खुद घर पहुंचता है ।’’
‘‘तब मां लेने नहीं जाती ?’’
‘‘नहीं । क्योंकि वापिसी में उसके साथ बड़ी क्लासों के दो लड़के और होते हैं ।’’
‘‘ओह !’’
‘‘लेकिन वो लड़के कोई प्राब्लम नहीं बनने वाले । हमने लड़के को उठा कर कार में डालना है और निकल लेना है ।’’
‘‘दूसरे लड़के शोर मचायेंगे ।’’
‘‘बस, शोर ही मचायेंगे, और कुछ नहीं कर सकेंगे । मैंने देखा है दोपहरबाद के उस वक्त उस रास्ते पर आवाजाही न के बराबर होती है इसलिये हमारे सेफ निकल लेने में कोई अड़चन नहीं आयेगी ।’’
‘‘पुलिस पीछे पड़ेगी !’’
‘‘कैसे पड़ेगी ? जब तक पुलिस मौकायवारदात पर पहुंचेगी, तब तक तो वहां हमारी हवा नहीं मिलेगी ।’’
‘‘ठीक ! पर तलाश तो होगी !’’
‘‘कैसे ?’’
‘‘सड़कों पर नाकेबन्दी होगी ।’’
‘‘जादू के जोर से तो न होगी ! ऐसे इन्तजामात में टाइम लगता है । दोपहरबाद हुई वारदात के बाद नाकेबन्दी होगी तो शाम को कहीं जा कर होगी !’’
‘‘अच्छा !’’
‘‘हां । फिर सड़कों पर तो हमने भटकता ही नहीं है ।’’
‘‘मतलब ?’’
‘‘लड़के के घर से दो किलोमीटर पर एक बहुत बड़ी शापिंग माल है जिसकी बहुत बड़ी पार्किंग है जिसमें बेशुमार कारें हर घड़ी पायी जाती हैं । तुम वैगन-कार को वहां कहीं पार्क करोगे और मेरे से कान्टैक्ट होने का इन्तजार करोगे ।’’
‘‘लड़का ?’’
‘‘बेहोश होगा । पिछली सीट पर पड़ा होगा । बेहोशी की सुंघाने से काम करने वाली दवा का इन्तजाम मैंने कर लिया है ।’’
‘‘तू ?’’
‘‘मैं जा कर औरत से — लड़के की मां से, किरण खन्ना से — बात करूंगा ।’’
‘‘ओये, पुलिस पकड़ लेगी ।’’
‘‘तब तक पुलिस का दखल अभी नहीं बन पाया होगा । तुम लड़के के साथ वैन ले कर निकल जाओगे तो मैं सीधा खन्ना की बीवी के पास पहुंचूंगा । सच पूछो तो बेटे के अगवा की खबर उसे मेरे से ही लगेगी ।’’
‘‘और वो शोर मचाते बड़ी क्लास के लड़के !’’
‘‘वो आकर मां को खबर करेंगे तो मां उन्हें चुप करा देगी ।’’
‘‘कैसे ?’’
‘‘ये कहके कि लड़का अपने किसी रिश्तेदार के साथ गया था, उन्हें गलतफहमी हुई थी कि कोई लोग उसे उठा कर ले गये थे ।’’
‘‘ऐसे कैसे कहेगी ओ जनानी ?’’
‘‘मैं कहलवाऊंगा । इस बात के लिये भी उसे मैं तैयार करूंगा कि वो पुलिस को खबर न करे ।’’
‘‘वो न तैयार हुई तो ?’’
‘‘तो हमारा मिशन फेल । हम नाकाम ।’’
‘‘हूं ।’’
‘‘लड़के को हम थामे नहीं रह सकते । इस औरत पर मेरी पेश न चली तो हमें उसको छोड़ना पड़ेगा ।’’
‘‘वो बहुत सख्तमिजाज जनानी है । मैं भुगत चुका हूं । सख्त मिजाज न दिखाती, राजी राजी मान गयी होती तो उसकी वो दुरगत न होती जो कि मेरे हाथों हुई थी । तो उसके मरद की जान भी शायद न जाती । मुश्किल ही पेश चलेगी तेरी उस पर ।’’
‘‘देखेंगे । अभी तो यही है जो कि हम कर सकते हैं इसलिये... देखेंगे ।’’
‘‘कब ?’’
‘‘कल ही । क्यों कि आगे शनिवार, इतवार को स्कूल की छुट्टी है ।’’
‘‘सोच ले !’’
‘‘क्या सोच लूं ? सरदार, या काम ऐसे होगा या नहीं होगा ।’’
‘‘नहीं होगा ?’’
‘‘हां ।’’
‘‘ऐसा तो नहीं होना चाहिये, हरगिज नहीं होना चाहिये ।’’
‘‘तो फिर दुआ करो अपने वाहे गुरु से कि वो औरत कल कोआपरेट करे और हम कामयाब हों ।’’
‘‘ठीक है ।’’
���
अगले दिन दोपहरबाद ।
गरेवाल लड़के के साथ वैन पर जा चुका था और कौल उसके घर की कालबैल बजा रहा था ।
किरण ने दरवाजा खोला ।
बेटे की जगह किसी और को पहुंचा देखकर उसके नेत्र फैले । फिर उसकी शक्ल से ही जाहिर हो गया कि कौल को उसने तत्काल पहचाना था, साफ पहचाना था ।
जबकि सवा साल का वक्फा गुजर चुका था, जब कि सवा साल पहले भी उसने कौल को बस देखा ही था ।
पहले अपने राक्षस जैसे जोड़ीदार के साथ अपने पैरों पर खड़ा, फिर किचन की चौखट से पार गैराज में गोली खाये गिरा पड़ा ।
‘‘तुम !’’ — उसके मुंह से निकला ।
‘‘जी हां ।’’ — कौल तनिक सिर नवा कर बोला — ‘‘अच्छा है आपने मुझे पहचान लिया ।’’
‘‘तुम्हारा वो भैंसे सा डकराता जोड़ीदार...’’
‘‘वो भी है ।’’
‘‘समीर । मेरा बेटा... ।’’
‘‘उसी की बाबत बात करती है । आप जरा गौर से, जल्दी से मेरी बात सुनिये । वो लड़के — आप के बेटे के स्कूलमेट्स — जो इधर दौड़े चले आ रहे हैं, अभी आप को खबर देंगे कि कोई आप के बेटे को उठा कर ले गया । आपने उन को समझाना है कि उठा कर नहीं ले गया, साथ ले गया ।’’
‘‘क्यों ... क्यों ले गया ?’’
‘‘रिश्तेदार था, अंकल था, लौटा जायेगा ।’’
‘‘हे भगवान ! मैं पुलिस को...’’
‘‘भूल के ऐसा न कीजियेगा वर्ना समीर का... यही नाम बोला था न... मरा मुंह देखना होगा ।’’
‘‘हे भगवान ! ये तुम...’’
‘‘आंटी ! आंटी !’’
दोनों लड़के हांफते हुए करीब पहुंचे ।
‘‘समीर को’’ — एक बोला — ‘‘एक बड़ा सा, डरावना सा आदमी उठा कर ले गया ।’’
‘‘कार में ।’’ — दूसरा बोला ।
‘‘उठा कर नहीं ले गया, बच्चों’’ — किरण ने अपने स्वर को जबरन सहज बनाने की कोशिश की — ‘‘साथ ले गया । अभी छोड़ जायेगा ।’’
कौल की जान में जान आयी । उसने चैन की लम्बी सांस ली ।
‘‘आंटी, हमें तो लगा था...’’
‘‘गलत लगा था । अँकल क्या समीर को जबरदस्ती ले के जायेंगे ?’’
‘‘न-नहीं ।’’
‘‘तो ?’’
‘‘अ-अंकल बोला ?’’
‘‘हां ।’’
दोनों में से कोई कुछ न बोला । उलझनपूर्ण भाव से दोनों एक दूसरे का मुंह देखने लगे ।
‘‘अब घर जाओ, ममी इन्तजार करती होंगी ।’’
सहमति से सिर हिलाते दोनों वहां से चले गये ।
‘‘आओ ।’’ — वो कौल से बोली ।
‘‘शुक्रिया !’’
किरण कौल को बैठक में लेकर आयी ।
‘‘बैठो ।’’ — फिर बोली ।
पूर्ववत् शुक्रगुजार होता कौल एक सोफाचेयर पर बैठा और बोला — ‘‘आप भी बैठिये । प्लीज ।’’
किरण झिझकती सी उसके सामने बैठी ।
‘‘सहयोग का शुक्रिया ।’’
‘‘मैंने टीवी में न्यूज देखी थी ।’’ — किरण सस्पेंसभरे स्वर में बोली — ‘‘तुम जेल से भागे हुए हो । तुम्हारा जोड़ीदार भी ।’’
‘‘जी हां ।’’
‘‘पकड़े गये तो... पुलिस को खबर लग जाये तुम यहां हो तो...’’
‘‘जी हां, जी हां । तभी तो वो करना पड़ा जो नहीं करना चाहिये था ।’’
‘‘अगर मेरे बेटे को कुछ हुआ तो...’’
‘‘नहीं होगा । यकीन कीजिये मेरा, उसका बाल भी बांका नहीं होगा ।’’
‘‘तुम्हारा यकीन ! तुम्हारे उस राक्षस जैसे जोड़ीदार ने मेरे पति को बेरहमी से पीट पीट कर मार डाला, मेरे साथ बलात्कार किया, मुझे अधमरा कर के छोड़ा । तुम्हारा एतबार !’’
‘‘हां । क्योंकि मैंने तो आप की उंगली का नाखून भी नहीं छुआ था, मैंने तो सरदार को भी रोकने की कोशिश की थी लेकिन मेरी पेश नहीं चली थी । तभी तो मैं... मैं आप के रूबरू हूं, वो नहीं ।’’
‘‘मेरा बेटा उस राक्षस के कब्जे में है...’’
‘‘मैं फिर कहता हूं, उसका बाल भी बांका नहीं होगा । एक घन्टे के भीतर वो यहां आपकी आंखों के सामने होगा ।’’
‘‘लेकिन वो शैतान ... खयाल करके मेरी रूह कांपती है कि मेरा समीर उसके कब्जे में है ।’’
‘‘सेफ है । सेफ ही रहेगा ।’’
‘‘लेकिन वो हत्यारा ! वो बलात्कारी ! वो जेल ब्रेकर...’’
‘‘बहन जी, जो हुआ उसको भूल जाने में ही भलाई है । वो जो कुछ है, या था, उस का आप की जिन्दगी पर कोई असर नहीं ।’’
‘‘लेकिन मेरे बेटे की जिन्दगी पर...’’
‘‘उस पर भी । एक घन्टे के अन्दर समीर सही सलामत आप के सामने खड़ा होगा ।’’
‘‘चाहते क्या हो ?’’
‘‘खास कुछ नहीं । आप से महज कुछ जानकारी चाहता हूं ।’’
‘‘जो मुझे है ?’’
‘‘हमें उम्मीद है कि होगी ।’’
‘‘न हुई तो ?’’
‘‘तो हमारी किस्मत ।’’
‘‘यकीन कर लोगे ? जोड़ीदार की तरह जोर आजमायश, जबरदस्ती पर नहीं उतर आओगे ?’’
‘‘बहन जी, हमारा ऐसा कोई इरादा होता तो यहां मैं न होता, गरेवाल होता ।’’
‘‘ये उस राक्षस का नाम है ?’’
‘‘हां ।’’
‘‘हूं । क्या जानना चाहते हो ?’’
‘‘बताता हूं । बहन जी, मैं आप को सवा साल पहले के उस वक्त पर ले जाना चाहता हूं जब कि आप के पति का दोस्ता मायाराम बावा दिल्ली में आप के घर पर मेहमान था । कुछ दिन बाद वो अपना सामान पीछे छोड़ कर कहीं गया था और कहीं से उसने आपके पति को फोन किया था और दरख्वास्त की थी कि आपके घर में मौजूद उसके दो सूटकेसों को आपका पति वहां से निकाल कर कहीं छुपा आये ।’’
‘‘मुझे नहीं मालूम वो सूटकेस कहां छुपा कर आये थे ।’’
‘‘ठीक । ठीक । लेकिन आपकी इस बात से ये जाहिर बराबर होता है कि आपका पति दो सूटकेसों के साथ घर से कहीं गया था और खाली हाथ वापिस लौटा था । नहीं ?’’
‘‘हां ।’’
‘‘आवाजाही में कितना टाइम लगा था ?’’
किरण ने इस बात पर विचार किया ।
‘‘यही कोई सवा घन्टा ।’’
‘‘इतने अरसे में आप का पति सूटकेस कहीं बहुत दूर छोड़ कर आया तो नहीं हो सकता !’’
किरण ने हिचकिचाते हुए सहमति में सिर हिलाया ।
‘‘दूसरे की अमानत किसी गैर के हवाले तो कर नहीं आया होगा !’’
‘‘हां ।’’
‘‘किसी करीबी दोस्त को ही इस सिलसिले में अपना राजदां बनाया होगा !’’
‘‘जाहिर है ।’’
‘‘और ऐसा दोस्त आप की निजामुद्दीन स्थित कोठी से दस-बारह किलोमीटर पर ही कहीं रहता होगा । दिल्ली के ट्रैफिक में और ज्यादा फासले से तो सवा घन्टे में आवाजाही नहीं की जा सकती !’’
‘‘तो ?’’
‘‘तो ये कि अब आप अपने पति के ऐसे करीबी दोस्तों को याद कीजिए जो कि निजामुद्दीन से दस-बारह किलोमीटर के फासले के भीतर रहते हों ।’’
‘‘बस !’’
‘‘जी हां ।’’
‘‘तुम उनके उन दोस्तों की जानकारी चाहते हो ?’’
‘‘जी हां !’’
‘‘क्यों कि समझते हो कि सूटकेस अभी भी उन के पास होंगे ?’’
‘‘उम्मीद करते हैं ।’’
‘‘ऐसा कोई दोस्त मेरे पति की मौत से बेखबर होगा ?’’
‘‘नहीं ।’’
‘‘तो फिर उसने पति की अमानत पत्नी को लौटाने की कोशिश क्यों न की ?’’
‘‘आप को क्या मालूम कि न की ?’’
‘‘क्या मतलब ?’’
‘‘उस वारदात के बाद तीन महीने आप मेंटल असाइलम में रहीं, फिर निजामुद्दीन की कोठी को ताला लगाकर दिल्ली से गायब हो गयीं । कैसे वो इस काम को अंजाम देता !’’
‘‘हूं ।’’
‘‘तो फिर...’’
‘‘बस, यही जानना चाहते हो ?’’
‘‘जी हां ।’’
‘‘इसी के लिये समीर के साथ वो सलूक किया ?’’
‘‘गुस्ताखी माफ लेकिन जवाब है, जी हां ।’’
‘‘जो जानना चाहते हो वो जान लोगे तो पीछा छोड़ दोगे ?’’
‘‘फौरन । गोली की तरह ।’’
‘‘और समीर...’’
‘‘हंसता खेलता घर लौटेगा ।’’
‘‘सच कह रहे हो !’’
‘‘हां । जिस की चाहे कसम उठवा लीजिये ।’’
‘‘तुम्हारे जैसे लोगों की कसम का क्या ऐतबार !’’
कौल ने आहत भाव से उसकी तरफ देखा ।
‘‘आदमी बुरा नहीं होता, बहन जी’’ — फिर धीरे से बोला — ‘‘उसके हालात बुरे होते हैं, जो उसे बुरा बना देते हैं ।’’
किरण का मिजाज बदला, उसके चेहरे पर नम्रता के भाव आये ।
‘‘मैं याद करने की कोशिश करती हूं ।’’ — वो संजीदगी से बोली ।
‘‘शुक्रिया ।’’
लम्बे सोच विचार के बाद एक लिस्ट उसने कौल को सौंपी ।
कौल ने देखा उस लिस्ट में बमय, पते और टेलीफोन नम्बर पांच नाम थे ।
‘‘तुम लोग उन सूटकेसों को कब्जाना चाहते हो ?’’ — किरण बोली ।
‘‘कोई मुश्किल नतीजा तो नहीं ये !’’
‘‘क्या है उन में ?’’
‘‘सोचिये ।’’
‘‘मायाराम बावा ठीक आदमी नहीं था । मुझे कतई नापसन्द था । कोई फसादी आदमी था, ये इसी से जाहिर है कि तुम लोग उसके पीछे लगे हमारे घर पहुंच गये । सारे फसाद की जड़ ही वो था । इस लिहाज से कोई कीमती सामान ही सूटकेसों में होना चाहिये ।’’
‘‘मसलन क्या ?’’
‘‘कैश ! सोना चांदी ! हीरे जवाहरात तो नहीं क्योंकि उन के लिये दो सूटकेसों का क्या काम ? हथियार ! ड्रग्स !’’
‘‘काफी समझदार हैं आप । इस सन्दर्भ में एक बात और कहना जरूरी है ।’’
‘‘क्या ?’’
‘‘इस लिस्ट की सूरत में जो कुछ आपने अभी हमारे लिये किया है और सूटकेसों के हवाले से जो कुछ आप को सूझा है उससे इतना जो आप समझ ही सकती हैं कि लिस्ट में दर्ज इन पांच पतों पर हम पहुंचेंगे । बहन जी, आपके सदके हमें वहां पुलिस इन्तजार करती मिल सकती है । नहीं ?’’
उसने जवाब न दिया, वो परे देखने लगी ।
‘‘ऐसा हुआ तो जैसे पति का वियोग तड़पा रहा है, वैसे औलाद की कमी तड़पायेगी ।’’ — कौल का लहजा तो तब भी नर्म ही रहा लेकिन आंखों में कहर की बिजली कौंध गयी — ‘‘तीनों बच्चों में से एक भी जिन्दा नहीं बचेगा ।’’
‘‘मैं भी !’’
‘‘नहीं । आप जिन्दा रहेंगी । तड़प तड़प कर, तिल तिल कर मरने के लिये जिन्दा रहेंगी ।’’
‘‘फिर पकड़े जाओगे ।’’ — किरण दिलेरी से बोली — ‘‘तो क्या कर पाओगे ।’’
‘‘जो एक बार फरार हो सकता है, वो दोबारा भी हो सकता है । इस बार मैं आया हूं, तब सरदार आयेगा ।’’
किरण के शरीर में स्पष्ट सिहरन दौड़ी ।
‘‘मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं ।’’ — वो दबे स्वर में बोली ।
‘‘कैसा कोई इरादा नहीं ?’’
‘‘मैं पुलिस को खबर नहीं करूँगी ।’’
‘‘आपकी खातिर मैं आपकी बात पर यकीन लाता हूं । और अब’’ — कौल उठ खड़ा हुआ — ‘‘इजाजत चाहता हूं ।’’
‘‘मेरा बच्चा !’’ — किरण व्यग्र, व्याकुल भाव से बोली ।
‘‘बस, मैं गया और वो लौटा । बेशक दरवाजे पर इन्तजार कीजियेगा । नमस्ते ।’’
���
वो निर्विघ्न दिल्ली पहुंचे ।
वैसे भी पुलिस की कोई विजिल होती तो निकासी पर होती — और वो भी अब तक ठण्डी पड़ चुकी होती । वैसे भी पुलिस को ऐतबार न आता कि फरार अपराधी जहां से फरार हुए थे, वहीं वापिस लौटते ।
शुक्रवार रात वो दिल्ली पहुंचे । अब क्यों कि वोटर आई कार्ड की सूरत में उनके पास प्रूफ ऑफ आइडेन्टिटी उपलब्ध था इसलिये उन्हें आसिफ रोड स्थित एक उम्दा, इज्जतदार होटल में चैक-इन करने में कोई दिक्कत न हुई ।
वो होटल कौल ने बहुत सोच समझ कर छांटा था । उसका रखरखाव साफ ऐसा था कि उस पर आधी रात को पुलिस की रेड होने की — जैसा कि पहाड़गंज के बेशुमार होटलों में अक्सर होता था — कल्पना नहीं की जा सकती थी ।
उस रात थके मांदे सोये वो शनिवार सुबह दस बजे सो कर उठे । फिर नित्यकर्म से और ब्रेकफास्ट से निवृत होकर उन्होंने वो लिस्ट निकाली जो कि उन्हें मोहाली से हासिल हुई थी ।
उस लिस्ट का पहला पता लक्ष्मीबाई नगर का था जहां कि लिस्ट का पहला नाम रोहित जुल्का रहता था ।
कौल ने उस नम्बर पर फोन लगाया तो जवाब मिला कि जुल्का साहब शाम छ: बजे से पहले घर पर उपलब्ध नहीं होते थे ।
उन के आफिस या बिजनेस प्लेस का पता ?
गैर को, अनजान को नहीं बताया जा सकता था ।
दूसरा पता न्यू फ्रेन्ड्स कालोनी का था और नाम साहिल तलवार था ।
वहां से भी पहले वाला ही जवाब मिला ।
बाकी के तीनों पतों पर काल लगाने पर जवाब ही न मिला ।
पता नहीं फोन खराब थे या फोन के मालिक घर पर नहीं थे ।
निहायत बोर होते हुए उन्होंने दिन गुजारा ।
शाम साढ़े छ: बजे वो लक्ष्मीबाई नगर पहुंचे ।
और रोहित जुल्का से मिले ।
ये जान कर कि निजामुद्दीन वाला कैलाश कुमार खन्ना मरहूम उन का म्युचुअल फ्रेंड था, जुल्का बहुत प्रेम भाव से उससे मिला । वैसे भी वो आदतन खुशमिजाज आदमी जान पड़ता था ।
कौल ने अपना और गरेवाल का परिचय बतौर संतोष सरना और परमेश्वर सिंह नरूला दिया ।
‘‘खन्ना साहब के पास हमारे दो सूटकेस थे’’ — कौल विनीत भाव से बोला — ‘‘जो कि हमने सेफ कीपिंग के लिये उन के पास रखे थे ।’’
‘‘क्यों ?’’ — जुल्का ने सहज, स्वाभाविक भाव से पूछा ।
‘‘क्यों कि उन में कुछ ऐसे कागजात थे जिनका इंकम टैक्स के महकमे की पकड़ में आना हमारे लिये प्राब्लम खड़ी कर सकता था ।’’
‘‘इतने कागजात’’ — जुल्का हैरानी से बोला — ‘‘कि दो सूटकेसों में आयें ?’’
‘‘इत्तफाक से ऐसा ही था । इंकम टैक्स वाले हमारे पीछे पड़े थे इसलिये हमने तमाम के तमाम कागजात अपनी उन जगहों से हटा दिये थे जहां कि इंकम टैक्स के छापे पड़ सकते थे ।’’
‘‘आई सी ।’’
‘‘फिर हमारी बैड लक कहिये कि महकमे को खन्ना से हमारे ताल्लुकात की खबर लग गयी और हमें ऐन मौके पर पता चला कि वो लोग वहां भी पहुंच बना सकते थे । तब हमने खन्ना को फोन किया और कहा कि वो हमारे सूटकेसों को किसी दूसरी सेफ जगह पर पहुंचा दे ।’’
‘‘उसने पहुंचा दिये ?’’
‘‘जी हां ।’’
‘‘फिर तो ये खन्ना की लाइफ की बात हुई ! यानी कि सवा साल पहले की ?’’
‘‘जी हां ।’’
‘‘अब आप लोगों को उन सूटकेसों की सुध लेना सूझा ?’’
‘‘क्योंकि अभी ही हमारा वो इंकम टैक्स का केस सैटल हुआ है और हमारी जान छूटी है ।’’
‘‘आई सी । यहां क्यों आये ?’’
‘‘खन्ना ने वो सूटकेस अपने किसी खास दोस्त के पास पहुंचाये थे । वो खास दोस्त आप हो सकते हैं ।’’
‘‘इस रौशन खयाल की वजह ?’’
‘‘किरण ने हमें ऐसा सुझाया है ।’’
‘‘खन्ना की बीवी ने ?’’
‘‘जी हां ।’’
‘‘उससे वाकिफ हो ?’’
‘‘जुल्का साहब, जब खन्ना से हमारी गहरी दोस्ती थी तो बीवी से वाकिफ कैसे न होते !’’
‘‘ठीक ।’’
‘‘तो वो सूटकेस...’’
‘‘यहां नहीं हैं ।’’
‘‘तो कहीं और...’’
‘‘कहीं भी नहीं हैं । मैं खन्ना का खास दोस्त बिला शक था, लेकिन वो खास दोस्त नहीं था जिसको अपनी जिन्दगी में उसने कोई दो सूटकेस सेफ कीपिंग के लिये सौंपे थे ।’’
‘‘जनाब, उनमें कागजात भरे हैं...’’
‘‘सोना भी भरा होता, हीरे, जवाहरात भी भरे होते तो मेरे को कोई फर्क न पड़ता । मैं अमानत में खयानत करने वाला शख्स नहीं ।’’
कौल को वो सच बोलता लगा ।
‘‘ये हमें यकीनी तौर पर मालूम है’’ — वो बोला — ‘‘कि हमारी दरख्वास्त पर उसने सूटकेस अपने आप सरीखे किसी खास दोस्त के पास ही पहुंचाये थे । आप की निगाह में ऐसा कोई दोस्त हो !’’
‘‘सुजीत भारद्वाज है न !’’
‘‘कहां रहता है ?’’
‘‘गुडगांव ।’’
बेकार !
सवा घन्टे में खन्ना गुडगांव आवाजाही नहीं कर सकता था ।
‘‘कोई और ?’’
‘‘और ! और... श्याम पुंजानी ।’’
‘‘वो कहां रहता है ?’’
‘‘जमना पार । मयूर विहार फेज वन एक्सटेंशन ।’’
‘‘उसकी हमें खबर है ।’’
‘‘कैसे हुई ?’’
‘‘भरजाई जी से हुई ।’’
‘‘किरण से ?’’
‘‘जी हां ।’’
‘‘ओह !’’
‘‘कोई और ?’’
‘‘और कोई तो, भई, मुझे नहीं सूझ रहा ।’’
‘‘फिर तो’’ — कौल उठ खड़ा हुआ — ‘‘इजाजत चाहते हैं, जनाब ?’’
‘‘भई, मुझे अफसोस है कि यहां तुम्हारा काम न बना ।’’
‘‘हमें भी अफसोस है लेकिन ... क्या किया जा सकता है !’’
‘‘वो तो है ।’’
उन्होंने वहां से रुखसत पायी और बाहर सड़क पर पहुंचे ।
‘‘सच बोल रहा होगा ?’’ — गरेवाल सन्दिग्ध स्वर में बोला ।
‘‘लगता तो था !’’ — कौल गम्भीरता से बोला — ‘‘झूठ बोल रहा था तो समझो बहुत ही ज्यादा तजुर्बेकार झूठा था ।’’
‘‘ओये, उसका तजुर्बा हमारी तो जड़ मार देगा न !’’
‘‘अभी नहीं ।’’
‘‘मेरे खयाल से तो खड़काना चाहिये था !’’
‘‘तुम्हारा खयाल गलत है । वो कहीं भागा नहीं जा रहा । जरूरत पड़ी तो बाद में खड़कायेंगे ।’’
‘‘बाद में कब ?’’
‘‘जब हम बाकी की चार लीड्स से भी नाउम्मीद हो जायेंगे ।’’
‘‘तेरा मतलब है आगे कोई नतीजा न निकला, सिरे तक कोई नतीजा न निकला, तो पीछे लौटेंगे ?’’
‘‘हां ।’’
‘‘ठीक है फिर ।’’
वो न्यू फ्रेंड्स कालोनी पहुंचे ।
साहिल तलवार घर पर नहीं था । अपनी नौकरी से लौट कर फिर कहीं गया था, एक डेढ़ घन्टे में आने को बोल कर गया था ।
लिहाजा इन्तजार ।
दस बजे उनकी साहिल तलवार से मुलाकात हुई और उसके साथ भी पहले वाला ही डायलॉग हुआ जिसका नतीजा भी पहले वाला ही निकला ।
तलवार को सूटकेसों की बाबत कतई कुछ मालूम नहीं था । खन्ना कभी किन्हीं सूटकेसों के साथ उसके पास नहीं आया था ।
और कहीं जाने का अब टाइम नहीं था, ठण्डे ठण्डे वो होटल वापिस लौट आये ।
���
अगले रोज सुबह बाकी तीन जनों के फोन उन्होंने फिर ट्राई किये लेकिन कहीं से भी कोई जवाब न मिला ।
तब उन्होंने श्याम पुंजानी के घर जाने का फैसला किया क्योंकि उसका नाम रोहित जुल्का ने भी सुझाया था ।
वो मयूर विहार फेज वन एक्सटेंशन पहुंचे ।
श्याम पुंजानी के घर पर सिर्फ एक मेड मौजूद थी जिससे मालूम हुआ कि छुट्टी का दिन था इसलिये साहब, मैडम और बच्चे घूमने निकल गये थे, उसको डिनर न बनाने के लिये बोल कर गये थे जिसका मतलब था देर रात तक लौट कर नहीं आने वाले थे ।
टेलीफोन ! वो क्यों नहीं बजता था !
इलाके को फीड करने वाली केबल डैमेज हो गयी थी, बदली जा रही थी, जिसकी वजह से उस केबल से चलने वाले उधर के सभी टेलीफोन बन्द थे ।
वे जोरबाग पहुंचे ।
मालूम पड़ा अनिल दयाल जॉब के लिये नोयडा जाता था, आठ बजे से पहले नहीं लौटता था ।
टेलीफोन !
वो फोन वहां था ही नहीं । वो एमटीएनएल का फोन था जो उन्होंने तीन महीने पहले सरन्डर कर दिया था और उसकी जगह रिलायन्स का फोन लगवा लिया था ।
‘‘अब ?’’ — गरेवाल परेशान लहजे से बोला ।
‘‘ईस्ट ऑफ कैलाश ।’’
‘‘की फायदा ! ओ संजीव चावला का घोड़ा भी जॉब पर गया होगा !’’
‘‘हो सकता है । मालूम तो करना पड़ेगा !’’
‘‘क्या माईंयवा धक्के खाने वाला काम पल्ले पड़ा है !’’
‘‘पैंसठ लाख की ख्वाहिश छोड़ दो, सोहल से बदला लेने की ख्वाहिश छोड़ दो, धक्के नहीं खाने पड़ेंगे ।’’
‘‘हला हला ! अब चल जहां चलना है ।’’
दोपहर के करीब वो ईस्ट ऑफ कैलाश पहुंचे ।
संजीव चावला अपनी कोठी पर मौजूद था ।
वहां कौल ने सूटकेसों की कहानी शुरू ही की कि संजीव चावला बोल पड़ा — ‘‘हां, वो सूटकेस यहां थे ।’’
‘‘दाता !’’ — गरेवाल के मुंह से निकला ।
‘‘यहां थे !’’ — कौल को अपने कानों पर विश्वास न हुआ ।
‘‘हां, भई ।’’
‘‘लेकिन आपने ‘थे’ बोला ! ‘थे’ का क्या मतलब ?’’
‘‘भई, वही जो होता है ।’’
‘‘ये कि अब वो सूटकेस यहां नहीं है ं?’’
‘‘हां ।’’
‘‘कहां गये ?’’
‘‘चोरी चले गये ।’’
‘‘कब ?’’
‘‘कल रात को ।’’
‘‘कल ही रात को ?’’
‘‘हां, भई ।’’
‘‘यानी कि कल रात से पहले सूटकेस यहां थे ?’’
‘‘हां ।’’
‘‘हम कल आये होते तो हमें जुदा जवाब मिलता ?’’
‘‘जाहिर है ।’’
‘‘चोरी कैसे चले गये ?’’
‘‘हम खुद हैरान हैं । यहां का कोई ताला नहीं टूटा था, कोई सेंध नहीं लगी थी फिर भी दोनों सूटकेस रात की किसी घड़ी घर से गायब हो गये ।’’
‘‘ऐसा करिश्मा क्योंकर हुआ ?’’
‘‘क्या पता ! हम खुद हैरान है । कैसे किसी चोर को मालूम था कि उन सूटकेसों में नोट भरे थे ।’’
‘‘नोट भरे थे !’’
‘‘इन्हें क्या बता रहे हो !’’ — विनीता गुस्से से बोली — ‘‘ये इनसे करने की बात है ?’’
‘‘अब क्या फर्क पड़ता है ! फिर ये खन्ना के दोस्त हैं, इस लिहाज से मेरे भी तो दोस्त ही हुए !’’
‘‘ठीक है, निभाओ दोस्ती ! और बनो बेवकूफ !’’
भुनभुनाती हुई वो वहां से उठ के चली गयी ।
‘‘खफा है ।’’ — पीछे संजीव बोला — ‘‘चन्द घन्टों के लिये चौंसठ लाख की मालकिन बनी थी, यूं समझो कि सपना था जो टूट गया ।’’
‘‘आप ने सूटकेस खोल लिये थे ?’’
‘‘हां, भई । नहीं खोलने चाहिये थे लेकिन खोल लिये थे । बीवी की जिद के आगे घुटने टेकने पड़े । कहती थी मालूम होना चाहिये था सूटकेसों में क्या था !’’
‘‘अब कहती थी ! सवा साल बाद !’’
‘‘सस्पेंस में तो शुरू से ही थी लेकिन यूं समझो कि सब्र का पैमाना कल छलका ।’’
‘‘सूटकेस में क्या था, इस बात से आप कतई बेखबर थे ? खन्ना ने आपको कुछ नहीं बताया था ?’’
‘‘न ! न उसने बताया था, न मैंने पूछा था । दोस्त का काम था, करना कुबूल किया था तो हुज्जत किस बात की ! जवाबतलबी किस बात की !’’
‘‘रुपया चोरी न हो जाता तो क्या करते ?’’
‘‘किरण से बात करते । जो वो कहती, करते ।’’
‘‘रुपया तो हमारा है ।’’
‘‘तुम तो अभी सूटकेसों में कागजात बता रहे थे ?’’
‘‘क्योंकि हमें मालूम नहीं था कि आप सूटकेस खोल चुके थे । हम नहीं चाहते थे कि आप को मालूम होता कि सवा साल आपने पैंसठ लाख रुपये की हिफाजत की थी ।’’
‘‘चौंसठ ।’’
‘‘सूटकेसों में पैंसठ लाख रुपये थे । हमारे थे इसलिये हमें मालूम है ।’’
‘‘चौंसठ लाख थे । हमने खुद गिने थे ।’’
‘‘चोरी कैसे हो गयी ? आप का खुद का कोई अन्दाजा नहीं इस बाबत ?’’
तभी गौतमी वहां पहुंची ।
‘‘फोन ठीक हो गया है ।’’ — वो संजीव से बोली ।
‘‘बढ़िया ।’’
‘‘सोचा, आप को खबर कर दूं ।’’
‘‘अच्छा किया । दो दिन से खराब था । आखिर ठीक हुआ ।’’
वो वापिस स्टडी में चली गयी ।
‘‘ये कौन थी ?’’ — कौल उत्सुक भाव से बोला ।
‘‘मेरी सैक्रेट्री है ।’’ — संजीव बोला ।
‘‘यहीं रहती है !’’
‘‘नहीं, भई । शाम को अपने घर जाती है ।’’
‘‘लेकिन दिन भर यहीं होती है ?’’
‘‘हां ।’’
‘‘सूटकेस आपने कल खोले ? नोट आपने कल गिने ?’’
‘‘हां ।’’
‘‘सैक्रेट्री की मौजूदगी में ?’’
‘‘खामखाह !’’
‘‘लेकिन तब ये यहां थी ?’’
‘‘स्टडी में थी ।’’
‘‘आई सी । चोरी की रपट लिखवायेंगे ?’’
‘‘कैसे होगा ? इतना कैश हमारे पास कहां से आया, क्या जवाब देंगे ?’’
‘‘ये भी ठीक है । लिहाजा आपकी खामोश रहने की मजबूरी से चोर की तो मौज हो गयी ! उसे खतरा ही कोई नहीं उसके खिलाफ कोई कार्यवाही होने का !’’
‘‘जो हुआ बुरा हुआ । हमने सूटकेस खोल कर गलती की । मुझे लगता है उन को खोला जाना ही चोरी की वजह बना ।’’
‘‘किसी को खबर लग गयी ?’’
‘‘जाहिर है । तभी तो चोरी हुई !’’
‘‘ठीक ।’’
‘‘खन्ना आज जिन्दा होता, सूटकेस कलैक्ट करने पहुंच जाता तो मैं उसे क्या जवाब देता ! क्या मुंह दिखाता ! यारमारी वाला काम किया मैंने बीवी की बातों में आकर ।’’
‘‘पछता रहे हैं ?’’
‘‘हां ।’’
‘‘खन्ना नहीं लौट सकता । वो रुपया हमारा था । नुकसान हमारा हुआ ।’’
‘‘सुनो ! पुलिस के पास तुम जा सकते हो । रुपया तुम्हारा था तो तुम तो उसकी जवाबदेही कर सकते हो !’’
‘‘नहीं कर सकते । दो नम्बर का पैसा था । उसकी बाबत मुंह फाड़ेंगे तो अपनी हालत आ बैल मुझे मार वाली करेंगे ।’’
‘‘ओह !’’
‘‘चलते हैं ।’’
‘‘ओके । भई, मुझे अफसोस है कि तुम्हारे नुकसान में हम वजह बने ।’’
‘‘नैवर माईंड । सहयोग का शुक्रिया, चावला साहब ।’’
संजीव ने सिर हिला कर शुक्रिया कबूल किया ।
वो बाहर निकले ।
‘‘क्या कहते हो ?’’ — कौल बोला ।
‘‘तू बोल ।’’ — गरेवाल बोला ।
‘‘इन साइड जॉब है शर्तिया । जब घर में तीन ही जने थे तो सब किया धरा तीसरे का है ।’’
‘‘उस कुड़ी का जिसे चावला ने अपनी सैक्रेट्री बताया ?’’
‘‘और किस का ? जब घर में कोई और था ही नहीं तो और किसका ?’’
‘‘उस कुड़ी ने चोरी की ?’’
‘‘या करवाई । चोरी में शरीक हुई । चोर की मदद की । उसके साथ मिल कर घात लगाने की साजिश की ।’’
‘‘कैसे ?’’
‘‘क्या पता कैसे ! इस घड़ी ये बात अहम नहीं है । इसी घड़ी अहम बात ये है कि जैसे चोरी हुई, वैसे अन्दरूनी मदद के बिना नहीं हो सकती थी । चोर यकीनन उस लड़की का तैयार किया हुआ कोई पट्ठा था और माल यकीनन उसके पास है ।’’
‘‘उसकी खबर कैसे लगे !’’
‘‘लड़की की निगाहबीनी करनी होगी । अगर ये लड़की चोरी में शरीक थी तो देर सवेर चोर से कान्टैक्ट जरूर करेगी । सरदार, हमें इसकी फुल चौकसी करनी होगी, चाहे इस कोशिश में हम अधमरे हो जायें ।’’
‘‘ठीक है ।’’
���
उनकी मेहनत रंग लाई । निगाहबीनी का सुखद नतीजा निकला ।
मंगलवार सुबह गौतमी के पीछे लगे वो पहले विकासपुरी पहुंचे जहां वो एक इमारत के टॉप फ्लोर में एक युवक के साथ पन्द्रह मिनट ठहरी । फिर उस के साथ बाहर निकली और युवक की कार में सवार होकर बाली नगर पहुंची । वो दोनों वहां भी टॉप फ्लोर के एक फ्लैट में एक दुबले पतले, मामूली शक्ल सूरत वाले आदमी से मिले ।
उस फ्लैट में जब सूटकेस खोले गये तब कौल मेनडोर के की-होल में आंख लगाये था । उसने गौतमी के साथ आये युवक को घर के मालिक की तरफ पांच सौ के नोटों की एक गड्डी उछालते देखा ।
ऐन उस घड़ी कौल ने भड़ाक से दरवाजा खोला और गरेवाल के साथ भीतर कदम डाला ।
‘‘ठीक है ।’’ — वो बोला — ‘‘बाकी हमारी लिये छोड़ दो ।’’
अब चौसठ लाख रुपया उनके कब्जे में था । जिस रकम की जुस्तजू ने सवा साल पहले उन्हें अमृतसर से दिल्ली तक दौड़ाया था, जिसकी खातिर दोनों ने गोली खाई थी और उनकी जान जाते जाते बची थी, इतने रंग दिखाने के बाद आखिर उनके कब्जे में थी ।
चौसठ लाख !
पूरे !
क्योंकि जो पांच सौ के नोटों की एक गड्डी फ्लैट के मालिक को सौंपी गयी थी उन्होंने वो भी उससे वापिस छीन ली थी । रकम में एक लाख रुपया फिर भी कम था — ये बात सर्वविदित थी कि अमृतसर के भारत बैंक की डकैती में पैंसठ लाख रुपये लुटे थे — क्यों कम था, जानने का उन के पास कोई जरिया नहीं था लेकिन वो बात अब बेमानी थी । रकम में एक लाख की घट बढ़ से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था । अहम बात ये थी कि अब वो मुम्बई जा कर सोहल का मुकाबला करने के लिये हथियाबन्द हो चुके थे, मुकाबले के लिये साधन जुटाने में साधनसम्पन्न हो चुके थे ।
अब उन का अगला पड़ाव निश्चित रूप से मुम्बई था जहां कि सोहल पाया जाता था ।
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