विमल कोलीवाड़े में स्थित सलाउद्दीन के होटल ‘मराठा’ में पहुंचा ।
सलाउद्दीन वागले का जिगरी यार था और वह पहले भी विमल और तुकाराम बंधुओं के बहुत काम आ चुका था ।
उसने होटल में कदम रखा ।
रिसेप्शन पर सलाउद्दीन का बड़ा लड़का जावेद मौजूद था ।
“अरे, मियां” - उसके फटे हाल पर निगाह पड़ते ही जावेद बोला - “कहां घुसे चले आ रहे हो ?”
विमल खाली रिसेप्शन पर पहुंचा और धीरे से बोला - “मुझे सलाउद्दीन से मिलाना है ।”
जावेद ने सिर से पांव तक उस पर निगाह डाली और फिर उलझनपूर्ण स्वर में बोला - “तुम जानते हो उन्हें ?”
“हां । मैं तुम्हें भी जानता हूं ।”
“मुझे भी ?”
“हां । तुम जावेद हो । सलाउद्दीन के साहबजादे । चार भाइयों में सबसे बड़े ।”
“मैं तुम्हें... आपको नहीं जानता ।”
“जान जाआगे । कहां हैं तुम्हारे अब्बाजानी ?”
“पीछे ऑफिस में । बुलाता हूं ।”
“बुलाओ मत । मुझे वहां ले चलो ।”
जावेद अपने स्थान से हटा, उसने आगे बढकर हिचकिचाते हुए रिसेप्शन के पहलू में ही बने ऑफिस का बंद दरवाजा खोला ।
विमल ने उसके पीछे भीतर कदम रखा ।
सलाउद्दीन ऑफिस टेबल के पीछे बैठा एक लैजर लिख रहा था ।
“अब्बाजानी” - जावेद बोला - “ये मिलने आए हैं आपसे ।”
सलाउद्दीन ने सिर उठाया ।
“कौन हो, बिरादर ?” - वह उलझनपूर्ण स्वर में बोला ।
“साहबजादे को रुखसत करें ।” - विमल बोला - “बताता हूं ।”
“पहले बताओ ।”
“सोहल ।”
“सोहल ! सोहल कौन ?”
“सोहल एक ही है इस सृष्टि में ।”
“मुझे तो यहां सोहल दिखाई नहीं दे रहा ।”
“सॉरी ।”
विमल ने अपना गंजा विग, दाढी-मूंछ वगैरह उतारकर सबकुछ मेज पर डाल दिया ।
जावेद हकबकाया-सा उसे देखने लगा ।
“मुझे अभी भी सोहल नहीं दिखाई दे रहा ।” - सलाउद्दीन संदिग्ध भाव से उसे घूरता हुआ बोला ।
“यानी कि तुम्हें मेरे नए चेहरे की खबर नहीं ?”
“मुझे नए चेहरे की खबर है लेकिन इस बात की खबर नहीं कि वो नया चेहरा देखने में कैसा है ।”
“फिर क्या बात बनी ?”
“मैं वागले को बुलाता हूं ।”
“कहां से ?”
“चैम्बूर से । वो और तुकाराम परसों ही तो यहां से गए हैं ।”
“नहीं बुला पाओगे ।”
“क्यों ?”
विमल ने वजह बताई ।
“ओह !” - सलाउद्दीन बोला ।
“मैं तो” - विमल बोला - “यहां किसी मदद की उम्मीद से आया था ।”
“वो तो हासिल हो जाएगी लेकिन पहले मझे यकीन तो आए कि तुम सोहल हो । तुम्हारी तो आवाज भी नहीं मिलती सोहल से ?”
“चेहरे की तरह आवाज की भी सर्जरी हो गई है ।”
“ऐसा कहीं होता है ?”
“होता है ।”
“अगर तुम सोहल हो तो बताओ, तुम्हारी मेरी पहली मुलाकात कहां ही थी, कैसै हुई थी ?”
“यहीं हुई थी । मैं यहां वागले से मिलने आया था । वागले तब यहां सबसे ऊपर की मंजिल के कमरे में किसी डिकोस्टा और बाबू महेंद्रू नाम के दो मवालियों की गिरफ्त में फंसा हुआ था जो कि उससे बखिया की ‘लिटल ब्लैक बुक’ हथियाना चाहते थे और जोकि हकीकतन तुम्हारे पास थी ।”
“आगे ।”
“फिर हम दोनों ने ऊपर जाकर वागले को उन बदमाशों के चंगुल से छुड़ाया था । रजिस्ट्री आई होने के बहाने मैंने वागले मैंने वागले को एक रिवॉल्वर थमा दी थी जिससे उसने उन दोनों बदमाशों को शूट कर दिया था ।”
“लाशों का क्या हुआ था ?”
“तुमने खुद अपने हाथों से लाशों के इतने टुकड़े किए थे कि वो चार सूटकेसों में समा गए थे । फिर उन सूटकेसों के साथ लखनवी नवाब बना वागले और उसकी बुर्कानशीन बेगम बना मैं यहां से कूच कर गए थे ।”
तुरंत सलाउद्दीन के चेहरे के भाव बदले ।
“वैसे पहले तुम्हारा इरादा उनका कीमा कूटकर कबाब बनाने का और उन्हें होटल के ही रेस्टोरेंट में परोस देने का था ।”
“वो मजाक की बात थी ।”
“लेकिन थी ।”
“तुम सोहल हो । तुम यकीनन सोहल हो । आओ बिरादर ।”
अब सलाउद्दीन बड़ी गर्मजोशी से उससे मिला ।
“जावेद !” - सलाउद्दीन अपने लड़के से बोला - “यहां खड़ा क्या कर रहा है ! जाकर रिसेप्शन में बैठ और मेरे दोस्त के लिए ठंडा या गर्म कुछ भिजवा” - वह विमल की ओर मुड़ा - “बिरादर, ठंडा या गर्म ?”
“गर्म ।” - विमल बोला - “कॉफी ।”
“जावेद, सुना ?”
“हां, अब्बाजानी ।” - जावेद बोला और फिर मंत्रमुग्ध-सा विमल को देखता हुआ वहां से विदा हो गया ।
पीछे दरवाजा बंद हो गया ।
“तुम इरफान को जानते हो ?” - विमल बोला ।
“इरफान अली ?” - सलाउद्दीन बोला - “वो तुका का शागिर्द ?”
“वही । वो मेरे नए चेहरे से वाकिफ है । अगर तुम चाहो तो उसे बुलाकर...”
“जरूरत नहीं । अब मुझे तुम पर पूरा एतबार है, बिरादर ।”
“वैसे तुम जानते हो वो कहां रहता है ?”
“नहीं ।”
“यानी कि जरूरत पड़ने पर उसे तलाश नहीं कर सकते ?”
“तलाश तो कर सकता हूं ।”
“कैसे ?”
“दो तीन ठिकानों पर उसके लिए मैसेज छोड़ना होगा । देर-सवेर मैसेज उसे जरूर मिल जाएगा ।”
“मैं इरफान से मिलना चाहता हूं । ऐसा इंतजाम करवा दो ।”
“ठीक है ।”
तभी जावेद खुद कॉफी लेकर वहां पहुंचा ।
सलाउद्दीन ने उसे इरफान की बाबत आवश्यक निर्देश दे दिए ।
जावेद सहमति में सिर हिलाता हुआ वहां से विदा हो गया ।
विमल ने कॉफी का एक घूंट पिया ।
“तो” - सलाउद्दीन चिंतित भाव से बोला - “अपना दोस्त और उसका आका अपने ही मकान में नजरबंद हैं ।”
“तुका की गारंटी है ।” - विमल बोला - “वागले की बाबत मेरा अंदाजा है ।”
“हूं ।” - सलाउद्दीन ने बड़ी गंभीरता से हुंकार भरी । वह कुछ क्षण खामोश बैठा रहा, फिर उसने मेज पर पड़ा टेलीफोन अपने करीब घसीटकर एक नंबर डायल किया और दूसरी तरफ से जवाब मिलने पर वागले से बात करने की इच्छा व्यक्त की । कुछ क्षण वह हां, हूं करता रहा, फिर उसने फोन रख दिया ।
“वो भी शर्तिया गिरफ्तार है ।” - वह बोला ।
विमल खामोश रहा ।
“बिरादर, उन्हें छुड़ाने की कोई तरकीब है तुम्हारे जेहन में ?”
“फिलहाल नहीं ।” - विमल बोला ।
“मैं कुछ आदमी इकट्ठे कर सकता हूं । अगर हम वहां हल्ला बोल दें तो...”
विमल पहले की तरह इनकार में सिर हिलाने लगा ।
“क्यों ?” - सलाउद्दीन बोला ।
“हमें नहीं मालूम हमारा मुकाबला कितने लोगों से है । हम बुरी तरह मार खा सकते हैं ।”
“अगर पुलिस को खबर कर दी जाए ।”
“तो वो तुका और वागले से यकीनन यह कहलवाने में कामयाब हो जाएगे कि वे दोनों अपने घर गिरफ्तार नहीं थे । उस सूरत में पुलिस कुछ भी नहीं कर सकेगी ।”
“ओह !”
“ऊपर से एक नुकसान और होगा ।”
“वो क्या ?”
“तब ‘कंपनी’ को खबर लग जाएगी कि मैं बंबई लौट आया हुआ था और मुझे मालूम था कि तुका और वागले उन लोगों की गिरफ्त में थे । तब तुका और वागले चैम्बूर से होटल सी व्यू की बदनाम बेसमेंट में पहुंचा दिए जाएंगे, मौजूदा हालात में जहां से उन्हें छुड़ा पाना नामुमकिन होगा ।”
“फिर क्या किया जाए ?”
“फिलहाल कुछ न करना ही समझदारी का काम होगा । जब तक उन लोगों को मेरे चैम्बूर लौटने की उम्मीद रहेगी तब तक और वागले का कुछ नहीं बिगड़ेगा ।”
“वो कब तक तुम्हारा इंतजार करेंगे ?”
“कुछ दिन तो करेंगे ही । उसी दौरान मुझे कुछ करना होगा ।”
“तुम क्या करोगे ?”
“मैं अकेला कुछ नहीं कर सकता । इसलिए सबसे पहले मैं तुका की हिफाजत के लिए कोई मदद खड़ी करने की कोशिश करूंगा ।”
“तुम अकेले कहां हो ? मैं जो हूं तुम्हारे साथ । मैं और मेरे चार लड़के...”
विमल ने इनकार में इनकार में सिर हिलाया ।
“क्यों ?” - सलाउद्दीन के माथे पर बल पड़ गए ।
“मियां” - विमल बोला - “सारी बंबई में एक तुम ही हो जिसके साथ तुका और वागले के ताल्लुकात की ‘कंपनी’ को खबर नहीं है । मौजूदा हालात से अपनी पोल खुलवा बैठने से कहीं अच्छा है कि अभी तुम बदस्तूर गुमनाम ही रहो । मुझे यकीन है कि आइंदा दिनों में यूं तुम तुका की ज्यादा मदद कर सकोगे ।”
सलाउद्दीन सोचने लगा ।
“मेरे और तुका के तुम्हारे साथ गठजोड़ की ‘कंपनी’ को भनक भी पा गई तो फिर न तुम रहोगे और न तुम्हारा ये होटल ।”
सलाउद्दीन तिलमिलाया । उसने कोई सख्त बात कहने के लिए मुंह खोला ।
“कंपनी’ की ताकत और रसूख को कम करके मत आंको सलाउद्दीन ।” - विमल चेतावनी- भरे स्वर में बोला - “किसी एक सलाउद्दीन के लिए ‘कंपनी’ आज भी बहुत ताकतवर है ।”
सलाउद्दीन ने होंठ भींच लिए । उसने बेचैनी से पहलू बदला ।
“तो क्या करें ?” - फिर वह बोला - “हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहें ?”
“हां । फिलहाल । कभी कभार कोई कदम न उठाना ही बेहतरीन कदम होता है ।”
“अच्छा !” - सलाउद्दीन अनिश्चत भाव से बोला ।
“हमारे धर्मग्रंथ में लिखा है कि” - विमल बोला - “जन की पैज रखी करतारे । वाहे गुरु हर जीव की इज्जत रखता है । हमारी भी रखेगा ।”
“बिरादर !” - सलाउद्दीन बोला - “रहोगे तो यहीं ?”
विमल ने इनकार में सिर हिलाया ।
“तो ?”
“मैं कोई ठिकाना कर लूंगा ।”
“लेकिन जब तुम ही कहते हो कि ‘कंपनी’ को मेरी खबर नहीं तो...”
“मैं नहीं चाहता कि वो खबर अब हो जाए । मेरी वजह से ।”
“खामखाह कैसे हो जाएगी वो खबर ?”
“हो सकती है । बदकिस्मती से कंपनी पर मेरे नए चेहरे की पोल खुल चुकी है । बहुत जल्द मेरी तलाश बंबई के चप्पे-चप्पे में शुरू हो सकती है । बहुत ममकिन है कि वो तलाश शुरू भी हो चुकी है । होटलों में मेरी खास तलाश होगी । कंपनी के प्यादे यहां भी पहुंच सकते हैं - बिना ये जाने कि इस होटल को चलाने वाला तुका के आदमी वागले का खासुलखास है ।”
“लेकिन...।”
“मैं यहां रह नहीं सकता लेकिन, मियां, तुम्हारी ढेर सारी मदद का तलबगार मैं फिर भी हूं ।”
“मसलन ?”
“एक तो मुझे कोई भरोसे का हथियार दिलाओ । एक रिवॉल्वर मेरे पास थी लेकिन राजगर से लेकर बंबई का सफर क्योंकि मुझे प्लेन से करना पड़ा था इसलिए उस रिवॉल्वर से मुझे राजनगर में ही किनारा कर लेना पड़ा था ।”
“रिवॉल्वर अभी मिल जाएगी । मामूली काम है । और ?”
“एक कार ।”
“कैसी ?”
“जो शक्ल में टीन कनस्तर हो लेकिन चलने में चौकस हो ।”
“ऐसी एक फिएट है मेरी पहुंच के भीतर ।”
“गुड ।”
“और ?”
“और मुझे कुछ नावां-पत्ता चाहिए ।”
“उसकी क्या कमी है ! वागले ही यहां ढेर सारा मेरे पास छोड़ गया है ।”
“अच्छा !”
“हां । वागले ने दो सो गोल्ड बिस्कुट और कोई पांच लाख रुपया मेरे सुपुर्द किया था । तुम वो तमाम का तमाम ले सकते हो । और चाहिए तो और का भी इंतजाम हो सकता है ।”
“फिलहाल उसमें से दो लाख रुपया मुझे दो ।”
“ठीक है ।”
“और सोने के बिस्कुटों की फरोख्त का इंतजाम करो ।”
“हो जाएगा ।”
“कितनी रकम मिल जाएगी विस्कुटों के बदले ?”
“यही कोई तीस-पैंतीस लाख ।”
“गुड । अब एक पेच वाली बात सुनो ।”
“वो भी बोलो ।”
“तुम किसी ऐसे आदमी को जानते हो जो जाली पासपोर्ट बनाने का काम करता हो ?”
“जाली पासपोर्ट !” - सलाउद्दीन सकपकाया - “क्या मुल्क छोड़ने का इरादा है बिरादर ?”
“बिल्कुल भी नहीं ।”
“तो फिर ?”
“मैं उससे कोई और खिदमत चाहता हूं । जानते हो तुम ऐसे किसी आदमी को ?”
“जानता तो नहीं हूं । लेकिन तलाश कर सकता हूं ।”
“ठीक है ।” - विमल ने कॉफी का आखिरी घूंट पिया और कप पीछे सरका दिया - “मुझे रोकड़ा और रिवॉल्वर दिलाओ ताकि मैं चलूं ।”
“इरफान से कोई कांटेक्ट हो जाए तो मैं क्या करूं ?”
“उसे यहां बुला लेना । मैं फोन करूंगा । मुहम्मद के नाम से ।”
“ठीक है । मैं अभी आया ।”
सलाउद्दीन उठकर बाहर चला गया ।
विमल उसके वापिस लौटने की प्रतीक्षा करता खामोश बैठा रहा ।
***
चर्च गेट स्टेशन के करीब वह एक खस्ताहाल दो मंजिला इमारत थी जिस पर यतीमखाने का टूटा-फूटा बोर्ड लगा हुआ था । उस यतीमखाने की बाबत काफी सारी जानकारी हासिल कर चुकने के बाद ही विमल उसके भीतर दाखिल हुआ था और उस घड़ी यतीमखाने के भीतर मैनेजर के कमरे में बैठा हुआ था ।
मैनेजर एक कोई पैंतीस साल की खूब मोटी लेकिन खूबसूरत पारसी औरत थी । वह मैनेजर की कुर्सी पर बैठी हुई थी और उसके पहलू में उम्र में उससे काफी बड़ा एक पिलपिलाया-सा आदमी खड़ा था जो कि उसका पति था । विमल पता कर चुका था कि औरत का नाम फिरोजा था और आदमी का नाम नौशेरवानजी था और वही दोनों उस यतीमखाने को चलाते थे । औरत खूब रोबदाब वाली थी और साफ दिखाई देता था कि अपने मर्द को वह काफी मजबूती से अपने अंगूठे के नीचे दबाकर रखती थी ।
“क्या चाहते हो ?” - औरत बोली ।
“बताता हूं ।” - विमल बोला, वो उस घड़ी भी अपने कल्लाल जैसे मुसलमान वाले बहुरूप में था - “मोहतरमा, सबसे पहले तो मेरी जो नेक राय तुम्हें है, वो यह है कि मेरी सूरत पर न जाना । कभी-कभी जो दिखाई देता है वही सच नहीं होता । होता है तो मुकम्मल सच नहीं होता ।”
“क्या मतलब हुआ इसका ?” - वह रुखाई से बोली ।
“मतलब एकदम से समझ में नहीं आएगा लेकिन गुफ्तगू को जरा आगे बढने दोगी तो मेरे बिना समझाए ही समझ में आ जाएगा ।”
“क्या कहना चाहते हो तुम ?”
“मैं शुरू करूं ?”
“क्या शुरू करना चाहते हो ?”
“तुम्हारी मुकम्मल तवज्जो मेरी तरफ है ?”
“अरे, बोला न हां । जो कहना है जल्दी कहो । थोड़े में कहो ।”
“पहले मैं कुछ पूछना चाहता हूं ।”
“क्या ?”
“यह यतीमखाना कैसे चलता है ?”
“तुमसे मतलब ?”
“मतलब है । तभी तो पूछ रहा हूं ।”
“तुम हो कौन ?”
“मै राबिनहुड और हातिमताई का मिला जुला मॉडर्न एडीशन हूं ।”
“मतलब ?”
“मेरी यहां आमद से झोलझाल चलता यह यतीमखाना अपने पैरों पर मजबूती से खड़ा हो सकता है और दौड़ना शुरू कर सकता है ।”
“तुम यहां कोई चंदा-वंदा देना चाहते हो ?”
“यही समझ लो ।”
“तो चंदा दो, रसीद लो और चलते बनो ।”
“काम इतना आसान नहीं ।”
“क्यों ?”
“पहले मुझे यह फैसला करना है कि इस यतीमखाने को कितने चंदे की जरूरत है ।”
“तुम तो यूं कह रहे हो ।” - वह व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोली - “जैसे यतीमखाने की चंदे की सारी जरूरतें तुम अकेले ही पूरी कर देना चाहते होवो ।”
“एकदम ठीक पहचाना है तुमने । मैं यही चाहता हूं ।”
वह सकपकाई । उसने उलझनपूर्ण भाव से पति की ओर देखा ।
“ये जो कहना चाहता है ।” - नौशेरवानजी धीरे से बोला - “इसे कहने दो । जो पूछना चाहता है इसे बता दो । थोड़ी देर कान ही तो खा लेगा । और क्या ले जाएगा ये हमारा ?”
फिरोजा कुछ क्षण सोचती रही ।
“क्या पूछ रहे थे तुम ?” - फिर वह बोली ।
“यह यतीमखाना कैसे चलता है ?”
“पब्लिक के चंदे से । थोड़ी सी स्टेट गौरमेंट की ग्रांट भी है ।”
“कुल जमा कितनी रकम बन जाती है ?”
“ग्रांट तो फिक्स है लेकिन चंदा घटता-बढता रहता है ।”
“औसतन बताओ ।”
“यही कोई पचास-साठ हजार रुपया सालाना ।”
“बच्चे कितने हैं ?”
“सौ ।”
“बालिग कितने ?”
“एक भी नहीं । बालिग बच्चा यहां नहीं रखा जाता । जो बच्चा अठारह साल का हो जाता है उसे यहां से चलता कर दिया जाता है ।”
“सौ बच्चे पालने के लिए यह रकम कम नहीं ?”
“बहुत कम है ।”
“कितनी कम है ?”
“यह तो सही जरूरत रकम की एक चौथाई भी नहीं । बंबई एक महंगा शहर है । कम-से-कम फी बच्चा ढाई- तीन सौ रुपया भी लगाओ तो कुल जमा रकम ढाई-तीन लाख रुपए होना चाहिए ।”
“यानी कि दो लाख रुपया सालाना यतीमखाने को और मिलने लगे तो यतीमखाना बढिया चल सकता है ? तो बच्चों की जिंदगी संवर सकती है ?”
“जाहिर है ।”
“यह अतिरिक्त रकम हासिल करने का कोई तरीका, कोई जरिया है तुम लोगों की निगाहें में ?”
पहले पति-पत्नी की निगाहें मिलीं, फिर दोनों के सिर इनकार में हिले ।
विमल ने अपने कंधे पर लटके झोले में हाथ डाला और उसमें से सौ-सौ के नोटों की दस गड्डियां निकालकर मेज पर डाल दीं ।
नोटों पर निगार पड़ते ही पारसी दंपती के नेत्र फट पड़े ।
“ये” - फिरोजा के मुंह से निकला - “ये... ये...”
“एक लाख रुपया है ।” - विमल सहज भाव से बोला - “दूसरा लाख भी तुम्हें बहुत जल्द मिल जाएगा । फिर हर साल दो लाख रुपया तुम्हारे पास पहुंचता रहेगा ।”
“तु... तुम... ये रुपया हमें दे रहे हो ?”
“तुम्हें नहीं ।” - सुनील का स्वर एकाएक बेहद कठोर हो उठा - “यतीमखाने को ।”
“ओह !”
“एक बात कान खोलकर सुन लो ।”
“क्या ?”
“तुम भी सुन रहे हो न, नौशेरवानजी ?”
नौशेरवानजी ने तत्काल सहमति में सिर हिलाया ।
“इस रकम में से या आइंदा हासिल होने वाली किसी भी रकम में से एक कानी कौड़ी भी अगर तुमने अपने जाती इस्तेमाल के लिए खर्च की या इसमें कोई भांजी मारने की कोशिश की या पूरी की पूरी रकम बच्चों पर खर्च करने में कोताही दिखाई तो मैं” - विमल का स्वर एकाएक बेहद हिंसक हो उठा - “खुद आकर अपने हाथों से यहां के सौ बच्चों को तुम्हारे इर्द-गिर्द खड़ा करके तुम्हें गोली से उड़ा दूंगा ।”
दोनों के चेहरों पर एकाएक हवाइयां उड़ने लगीं ।
“यह वो रिवॉल्वर है” - विमल ने झोले से रिवॉल्वर निकालकर उन्हें दिखाई - “जो मैं इस काम को अंजाम देने के लिए इस्तेमाल करूंगा । इसकी कारीगरी का कोई नमूना देखना चाहती हो ?”
तत्काल फिरोजा का सिर जोर से इनकार में हिलने लगा ।
विमल ने नौशेरवानजी की तरफ देखा ।
लेकिन वो विमल की निगाह अपनी ओर उठने से भी पहले अपनी बीवी से कहीं ज्यादा जोर-जोर से इनकार में गरदन हिला रहा था ।
“गुड ।” - विमल ने रिवॉल्वर वापिस झोले में डाल ली - “गुड ।”
तब कहीं जाकर उन दोनों की जान में जान आई ।
“रकम चौकस कर लो ।” - विमल बोला ।
फिरोजा कांपते हाथों से नोटों की गड्डियां उठाने लगी ।
आखिरी गड्डी के मेज के दराज में पहुंच जाने और दराज में बंद हो जाने तक भी उसे अंदेशा था कि उसके सामने बैठा वह निहायत खतरनाक आंखों वाला शख्स नोट उससे वापिस छीन लेगा ।
“इसकी” - फिरोजा ने कहा - “इसकी रसीद मैं अभी...”
“जरूरत नहीं ।” - विमल बोला ।
“र-रसीद की ज-जरूरत नहीं ?”
“नहीं ।”
“तुम कौन हो, भाई ?”
“बोला न । मैं हातिमताई और राबिनहुड का मिला-जुला मॉडर्न एडीशन हूं ।”
“लेकिन...”
“और मैं तुम्हारा भाई नहीं, तुम्हारा पति बनने का ख्वाहिशमंद हूं ।”
“क्या !” - फिरोजा चिहुंककर बोली ।
“फर्जी ! दुनिया की निगाहों में । असलियत में चाहे अभी मुझे राखी बांध लो या टीका लगा लो ।”
“क्या मतलब हुआ ?”
“मै अभी समझाता हूं ।”
फिर धीरे-धीरे विमल अवाक् फिरोजा और हकबकाए हुए नौशेरवान जी को समझाने लगा कि उसकी उस बात का क्या मतलब हुआ ।
***
एक काली एम्बेसेडर दादर मेन रोड पर स्थित एक आठ मंजिली इमारत के सामने आकर रुकी ।
कार को श्याम डोगरे का खास आदमी इंदौरी चला रहा था, खुद श्याम डोंगरे उसकी बगल में बैठा हुआ था और पीछे दो प्यादे मौजूद थे ।
“आधा घंटा ।” - श्याम डोंगरे कार का अपनी ओर का दरवाजा खोलता हुआ बोला - “आधा घंटा लगेगा मुझे । इधर ही ठहरने का है । ज्यास्ती टाइम लगा तो ऊपर आने का है ।”
इंदौरी और दोनो प्यादों के सिर सहमति में हिले ।
डोंगरे कार से निकलकर इमारत में दाखिल हुआ । लिफ्ट द्वारा वह छठी मंजिल पर पहुंचा जहां के एक फ्लैट की उसने कॉलबैल बजाई और प्रतिक्षा करने लगा ।
दरवाजा खुला ।
चौखट पर चांदनी प्रकट हुई । उस वक्त वह निहायत सादा गाउन पहने थी, उसके बाल अस्त-व्यस्त थे और चेहरे पर कोई मेकअप नहीं था लेकिन फिर भी उसकी खूबसूरती उस हाल में कहर ढा रही थी ।
डोंगरे मुस्कराया ।
चांदनी तत्काल एक ओर हट गई । डोंगरे भीतर दाखिल हो गया तो उसने फ्लैट का दरवाजा भीतर से बंद कर दिया ।
डोंगरे आगे बढा और करीने से सजे ड्राइंगरूम के एक सोफे पर ढेर हो गया ।
“क्या कर रही थी ?” अपने कर्कश स्वर में जबरन मिठास घोलता हुआ डोंगरे बोला ।
“कुछ नहीं ।” चांदनी नर्वस भाव से बोली ।
“इधर मेरे पास आकर बैठ ।”
चांदनी करीब आकर सोफे पर उसके सामने बैठ गई ।
“आज तेरा मूड क्यों उखड़ा हुआ है ?” डोंगरे बोला ।
“नहीं तो... मैं तो...”
“उखड़ा हुआ भी हो तो अभी ठीक हो जाएगा । यह ले ।”
डोंगरे ने उसकी गोद में एक भारी लिफाफा डाल दिया ।
“क्या है ये ?” चांदनी तनिक उत्सुक भाव से बोली ।
“खोल के देख ।”
चांदनी ने लिफाफा खोलकर भीतर झांका ।
लिफाफा सौ-सौ के नोटों से ठुंसा पड़ा था ।
“ये” उसने कहना चाहा “ये...”
“पचास हजार रुपया है ।” डोंगरे बोला “तेरे लिए ।”
“लेकिन... लेकिन...”
“अब ये न कहना कि तुझे इसकी जरूरत नहीं ।” डोंगरे हंसता हुआ बोला “नहीं भी है तो रख ले । तू इनकी हकदार है ।”
चांदनी खामोश रही । उसने लिफाफा सामने मेज पर डाल दिया ।
“कोई खराबी” डोंगरे एकाएक उसकी पतली कमर में हाथ डालकर उसे अपनी ओर खींचता हुआ बोला “है तो जरूर आज मेरी जान के मूड में ।”
चांदनी रेशम की गठरी की तरह उस पर ढेर होती चली गई लेकिन मुंह से कुछ न बोली ।
“अरी, मुझे तो बता क्या बात है ।”
“मुझे डर लगता है ।” चांदनी कठिन स्वर में बोली ।
“किस बात से ?”
“मुझे बुरे-बुरे सपने आते हैं ।”
“किस बात के ?”
“घर से निकलती हूं तो लगता है कोई मेरे पीछे लगा हुआ है । सोती हूं तो लगता है कोई कभी कोई खिड़की तो कभी कोई दरवाजा खटखटा रहा है । हर घड़ी मुझे लगता है कि मेरे आसपास कोई है जो कभी मुझे इशारे से बुलाता है तो कभी नाम लेकर पुकारता है ।”
डोंगरे ने जोर का अट्टहास किया ।
“तुम हंस रहे हो !” वह मुंह बिसूरकर बोली ।
“अरी पगली” डोंगरे उसका गाल थपथपाता हुआ बोला “कोई तेरे रूप का रसिया, जैकपॉट में तेरी परफारमेंस से पगलाया हुआ तेरे पीछे लग लेता होगा ।”
“ऐसे लोग बहुत बार मेरे पीछे लगे हैं...”
“तो फिर ?”
“लेकिन पहले कभी मुझे डर नहीं लगा । बुरे-बुरे सपने नहीं आए ।
“तू खौफ खाई हुई । देख लेना दो-चार दिन में सब कुछ अपने आप ठीक हो जाएगा ।”
“यही सिलसिला जारी रहा तो और दो-चार दिन तो मेरा दम ही निकल जाएगा ।”
“चांदनी, तू बिल्कुल फिक्र न कर । तुझे कुछ नहीं होने वाला । अरविंद नायक की मौत का तुझे सदमा पहुंचा है उससे उबरने के लिए कुछ दिन तो लगेंगे न ! और तुझे क्या हो सकता है ! किसकी मजाल है जो मेरे होते हुए तेरी तरफ मैली आंख भी उठा सके !”
“लेकिन...”
“अब छोड़ ये किस्सा । रात को कोई नींद की गोली-वोली खा लिया कर । और नहीं तो किसी डॉक्टर से मशवरा ले ।”
“लेकिन...”
“मैं इमारत के चौकीदार से कह दूंगा कि वो तेरा खास ख्याल रखे । तेरे यहां लौट आने के बाद वो खुद यहां की खिड़कियां-दरवाजे वगैरह चैक करके जाया करेगा कि सब कुछ चौकसी से बंद है या नहीं । ठीक ?”
चांदनी बड़ी कठिनाई से हामी भर सकी ।
वह जबरन मुस्कराई ।
“अब घर आए मेहमान की खातिरदारी की तरफ कोई तवज्जो दे ।”
“क्या करूं ?”
“क्या करूं ?” डोंगरे ने नकली गुस्से का इजहार किया “नादान बनके दिखाती है ! बेडरूम में चलूं और क्या करूं !”
“खुद ही ले चलो ।” चांदनी तब पहली बार इठलाकर बोली ।
“ठीक है ।”
डोंगरे ने यूं चांदनी को अपनी बलिष्ठ बांहों में उठाया जैसे उसका कोई भार ही न हो और बेडरूम की ओर बढ चला ।
***
चर्च गेट स्टेशन के बुकिंग ऑफिस के सामने विमल की इरफान अली से मुलाकात हुई ।
वह जानता था कि इरफान अली नाम का वो नौजवान तुकाराम के मुकम्मल भरोसे का आदमी था । जौहरी बाजार की डकैती में इरफान ने उन लोगों का पूरा-पूरा साथ दिया था । उससे पहले इरफान ही वो आदमी था जिसने इकबालसिंह की खूबसूरत बीवी लवलीन और कंपनी के जल्लाद जोजो के मेरिन ड्राइव पर स्थित ‘लव-नैस्ट’ का पता लगाया था और विमल को उसकी खबर की थी ।
यतीमखाने से विमल ने ‘मराठा’ में फोन किया था तो सलाउद्दीन ने बताया था कि इरफान कमाठीपुरे के एक रेस्टोरेंट में मौजूद था और उसे रेस्टोरेंट का टेलीफोन नंबर बताया था । उसने वहां फोन किया था तो इरफान से फौरन उसकी बात हो गई थी । उसने इरफान को चर्च गेट स्टेशन पहुंचने के लिए कहा था और फिर फिरोजा को अपनी बाल-बच्चेदार बीवी का रोल अदा करने की तैयारी में मशगूल छोड़कर वह चर्च स्टेशन पहुंच गया था ।
उसने पहले इरफान को तुकाराम और वागले के मौजूदा हालात से वाकिफ कराया और फिर बोला “मेरे सोनपुर रवाना होने के बाद पीछे क्या हुआ, मुझे नहीं मालूम ।”
“पीछे तो खूब हंगामा बरपा ।” इरफान बड़ी संजीदगी से बोला ।
“क्या ?”
“अखबार नहीं पढते ?”
“अमूमन पढता हूं लेकिन पिछले दिनों इतनी ज्यादा भागदौड़ रही कि नहीं पढ सका ।”
“सब कुछ अखबारो में छपा था ।”
“क्या ?”
“डकैती की पूरी पोल खुल गई थी । मुबारक अली और जामवंत राव गिरफ्तार हो गए थे । आंटी के घर में ‘कंपनी’ का छापा पड़ा था । जिसमें आंटी और उसके बेटे विट्ठल राव की जान चली गई थी और लूट का वहां उपलब्ध सारा माल कंपनी के आदमी ले गए थे । रूपचंद जगनानी ने अपने इंस्पेक्टर बेटे अशोक जगनानी की ही सर्विस रिवॉल्वर से कंपनी के ओहदेदार दत्तानी के घर आत्महत्या कर ली थी । माल पुलिस के हाथों में पड़ गया था । जामवंत राव ने पुलिस लॉकअप में हेरोइन का ओवरडोज खासकर आत्महत्या कर ली थी ।”
“मुबारक अली ! मुबारक अली का क्या हुआ ? वो अभी भी गिरफ्तार है ?”
“नहीं । वो आजाद है ।”
“जब गिरफ्तार था तो आजाद कैसे हो गया ?”
“मैंने और वागले ने उसे आजाद कराया था ।”
“कैसे ?”
इरफान ने बताया ।
“कमाल है !” विमल मंत्रमुग्ध स्वर में बोला ।
“मुबारक अली ने तुकाराम का बहुत एहसान माना था ।” इरफान बोला “बोलता था अगर जिंदा रहा तो कभी उसके किसी काम आके दिखाएगा ।”
“मुझे उसकी जरूरत है । इस वक्त मौका है उसके तुकाराम के किसी काम आके दिखाने का । है कहां वो ?”
“मालूम नहीं ।”
“तुम लोग उसे छुड़वाने के बाद कहीं छोड़कर तो आए होगे ?”
“हम उसे धारावी छोड़कर आए थे ।”
“आगे कहां गया, नहीं मालूम ?”
“इरफान ने इनकार में सिर हिलाया ।
“शायद वो धारावी में ही छुपा हुआ हो ।”
“शायद ।” इरफान संदिग्ध भाव से बोला “या शायद शहर से सिरे से ही कूच कर गया हो । आखिर वो पुलिस के लॉकअप से भगाया हुआ फरार अपराधी है ।”
“ऐसे अपराधी ने वारदात के फौरन बाद बंबई से निकल भागने की कोशिश की होती तो यकीनन पकड़ा गया होता । क्या ख्याल है ?”
इरफान ने कोई ख्याल जाहिर न किया ।
“कम-से-कम धारावी में तो हमें उसे तलाश करने की कोशिश करनी ही चाहिए ।”
“हमें ?”
“हां । कोई एतराज ?”
“नहीं । कतई नहीं ।”
“शुक्रिया । अंधेरा होने के बाद ही ऐसी तलाश का कोई नतीजा निकलेगा । तुम धारावी के इलाके से बखूबी वाकिफ हो ?”
“हां । चप्पे-चप्पे से वाकिफ हूं ।”
“गुड । वहां की कोई ऐसी जगह बताओ जहां आज रात आठ बजे हमारी मुलाकात हो सके ।”
इरफान ने उसके हुलिए पर निगाह डाली और बोला “इसी हुलिए में वहां पहुंचोगे ?”
“हां ।” विमल बोला ।
“वहां एक्रेजी के इलाके में पास्कल के बार का पता कर लेना । ठीक आठ बजे मैं तुम्हें वहीं मिलूंगा ।”
“ठीक है ।”
***
एक टैक्सी होटल सी व्यू की मारकी में आकर रुकी ।
होटल के मुख्य द्वार पर तैनात वर्दीधारी डोरमैन तत्काल उसकी तरफ आकर्षित हुआ ।
टैक्सी में से चार सवारियां बाहर निकलीं । उनमें क्रमशः दस और बारह साल के खूब सजे-धजे दो बच्चे थे, एक कोई पैंतीस साल की खूब मोटी लेकिन निहायत खूबसूरत औरत थी और चौथी सवारी एक अधपके बालों वाला निहायत रोबीला आदमी था जो शानदार थ्री पीस सूट पहने था, नाक पर सोने के फ्रेम का निगाह का चश्मा लगाए था और होंठों में पाइप दबाए था । उसकी आंखें नीली थीं और चेहरे पर बड़ी नफासत से तराशी गई फ्रेंचकट दाढी और बारीक मूछें थीं ।
आदमी विमल था, औरत फिरोजा थी और बच्चे यतीमखाने के सौ बच्चों में से छांटे गए दो बच्चे थे ।
टैक्सी ड्राइवर ने टैक्सी से निकलकर डिकी का ढक्कन उठाया और भीतर से तीन सूटकेस बरामद किए । उसने सूटकेस टैक्सी के करीब नीचे रख दिए ।
डोरमैन के इशारे पर दो बैल-ब्वॉय लपकते हुए टैक्सी के करीब पहुंचे और उन्होंने सूटकेस उठा लिए ।
विमल ने भाड़ा चुकाकर टैक्सी को रुखसत किया । फिर उसने एक बच्चे का दायां हाथ थामा, ‘बीवी’ को दूसरे बच्चे का हाथ थामने का इशारा किया और फिर उस ‘पारसी परिवार’ ने होटल के भीतर का रुख किया ।
डोरमैन ने बड़ी तत्परता से होटल का शीशे का दरवाजा खोला ।
विमल अपने लाव-लश्कर के साथ रिसेप्शन पर पहुंचा जहां कि उसका सामान पहले ही पहुंच चुका था ।
“वैलकम, सर ।” एक रिसेप्शन क्लर्क एक कान से दूसरे कान तक मुस्कराता हुआ बोला ।
“वन माडरेट स्पेशस डबल रूम “विमल मुंह से पाइप निकालकर हाथ में लेता हुआ बोला - “विद टू एक्सट्रा बेड्स ।”
“यस, सर ।” क्लर्क बोला “युअर गुड नेम, सर ।”
“पी.एन. घड़ीवाला ।” विमल बोला “विद फैमिली ।”
“यस, सर !”
क्लर्क ने उसे 608 नंबर में बुक कर दिया ।
दो बैल-ब्वॉय उसे कमरे में छोड़ने आए जिन्हें विमल ने टिप देकर विदा कर दिया ।
अब वह फिर ‘कंपनी’ के हैडक्वार्टर में था ।
वहां यूं दोबारा कदम रखना भारी दुस्साहस का काम था लेकिन उसके सिवाय और कोई चारा नहीं था । वह जानता था बंबई में ‘कंपनी’ ने उसकी जैसी व्यापक तलाश करवानी थी, उसकी रू में अपने नए चेहरे के साथ बंबई के छोटे-बड़े किसी होटल में, किसी मुसाफिरखाने में, किसी गैस्टहाउसनुमा चाल में ठहरना उसके लिए आत्महत्या करने जैसा कदम साबित हो सकता था । ऐसी सार्वजनिक जगहों के अलावा जो इकलौती सुरक्षित जगह उसकी निगाह में थी, वो तुकाराम का घर था लेकिन वहां के माहौल का नजारा वह कर ही आया था ।
यूं होटल सी व्यू में जब वह पहली बार ठहरा था तो उसके साथ नीलम थी और उन्होंने स्वंय को चंडीगढ से हनीमून के लिए बंबई आया एक नवविवाहित जोड़ा जाहिर किया था । मात्र बीवी साथ होने की वजह से तब किसी को ख्याल तक नहीं आया था कि वह सोहल था, इस बार तो बीवी के अलावा उसके साथ दो बच्चे भी थे । रिसेप्शन पर उसने स्वंय को रेडीमेड गारमेंट्स का थोक व्यापारी बताया था जो आया तो बंबई अपनी फर्म के व्यापार के सिलसिले में था लेकिन एक जिम्मेदार पिता और पति का रोल निभाने के लिए साथ में अपने बीवी-बच्चे को भी लेकर आया था ।
“सो फार सो गुड ।” विमल एक ईजी चेयर पर ढेर होता हुआ बोला ।
“मुझे डर लग रहा है ।” फिरोजा बोली ।
विमल ने आंख उठाकर फिरोजा की तरफ देखा ।
फिरोजा उस वक्त सोने-चांदी के तारों से हुई कढाई वाला मलिका विक्टोरिया के अंदाज का एक गाउन और वाइट गोल्ड में सैट उससे मैच करती ज्वैलरी पहने थी । उस पोशाक में वो निहायत खूबसूरत और पक्की पारसिन लग रही थी ।
“काहे को !” विमल बोला “डर वाली कौन-सी बात हो गई है ? तुमने करना क्या है ! या तो बंबई की सैर करनी है या यहां होटल में बैठकर वीडियो फिल्में देखनी हैं और मुर्गे की टांग चबानी है, बकरे के कबाब खाने हैं, झींगा मछली का आनंद लेना है...”
“तुम हो कौन ?”
“पी.एन. घड़ीवाला । पेस्टनजी नौशेरवानजी घड़ीवाला ।”
“मैं तुम्हें किस नाम से पुकारूं ?”
“नौशेरवानजी के नाम से ।”
“अब सच में ही मेरा खसम बनने की कोशिश मत करो ।”
“तुम मुझे विमल के नाम से पुकार सकती हो ।”
“पुकार सकती हूं ! यानी कि असल में तुम्हारा नाम ये भी नहीं है ?”
विमल मुस्कराया ।
“असल में कौन हो तुम ?” फिरोजा बोली ।
“असल में मैं वो शख्स हूं जो तुम्हारे यतीमखाने को दो लाख रुपया सालाना देगा और तुम्हारे मौजूदा सहयोग की तुम्हें पचास हजार रुपए फीस देगा जिसमें से पच्चीस हजार तुम ले भी चुकी हो ।”
“यानी कि अपनी असलियत नहीं बताओगे ?”
“मेरी असलियत बहुत खतरनाक है । उसे सुनकर तुम यकीनन बेहोश हो जाओगी । मर भी जाओ तो कोई बड़ी बात नहीं ।”
“इसी बात का तो मुझे डर लग रहा है ।”
“किस बात का ?”
“कि तुम कोई बहुत ही खतरनाक आदमी हो और तुम कोई बहुत ही खतरनाक इरादे लेकर यहां आए हो ।”
विमल ने जोर का अट्टहास किया ।
“मैं सीरियस हूं ।” वह बोली ।
“मैं भी सीरियस हूं ।” विमल ने तत्काल हंसना बंद किया “हौसला रखो, फिरोजा बाई । अभी तो शुरुआत है । अभी से हिम्मत हार दोगी तो कैसे बात बनेगी !”
“लेकिन...” उसने व्याकुल भाव से कहना चाहा ।
“मुझे सारी कथा फिर से कहने के लिए मजबूर न करो । फिरोजा बाई तुम्हारा बाल भी बांका नहीं होगा, यह एक वाहे गुरु के खालसा का वादा है तुम्हारे से ।”
“तु.. तुम” फिरोजा ने अपना दायां हाथ अपने सिरे के ऊपर ले जाकर गोल-गोल घुमाया “वो हो ।”
“हमारे धर्मग्रंथ में लिखा है” विमल उसकी बात की ओर ध्यान दिए बिना बोला “बांह जिना दी पकड़िए, सिर दीजै बांह न छड़िये । मैंने तुम्हारी बांह थामी है । मैं तुम्हारा मुहाफिज हूं । मेरा सिर ही कट जाए तो तुम्हारे पर कोई आंच आ सकती है ।”
फिरोजा की सूरत से साफ लग रहा था कि विमल की कोई बात उसकी समझ में नहीं आई थी लेकिन विमल के बात कहने का ढंग कुछ ऐसा था कि उसने फिरोजा पर जादुई असर किया था ।
फिर धीरे-धीरे उसके चेहरे पर आश्वासन के भाव आने लगे ।
***
हवलदार केशवराव भौंसले कोलीवाड़े की एक चाल की पहली मंजिल पर स्थित डेढ कमरे में रहता था । वह एक पचास से ऊपर का बहुत खस्ताहाल तंदुरुस्ती वाला, पुलिसिया तो कतई न लगने वाला, आदमी था ।
विमल के आगमन पर उसकी पत्नी और बेटी काशीबाई वहां से उठकर चिक की ओट में पिछवाड़े के ‘आधे कमरे’ में चली गई ।
भौंसले ने उसे एक स्टूल पर बिठाया और स्वयं चारपाई पर बैठ गया ।
विमल उस वक्त भी अपने मुसलमान कल्लाल वाले मेकअप में था ।
“बेटी से बात हुई ?” विमल गंभीरता से बोला ।
“हुई ।” भौंसले धीरे से बोला ।
“उसने असलियत बताई ?”
“बताई ।”
“यह भी बताया कि वो लोकल से कूदकर जान देने लगी थी ?”
तत्काल भौंसले के चेहरे पर हैरानी के भाव आए ।
“नहीं ।” वह बोला “यह नहीं बताया ।”
“तुम खुदकिस्मत हो कि खुदा ने तुम्हें ऐसी बेटी दी जो कि अपने मां-बाप को दुश्वारी से बचाने के लिए अपनी जान दे सकती है ।”
“मेरी दुश्वारी से बचाने की वजह से” वो तड़पकर बोला “मेरी बेटी को जान देने की जरूरत नहीं । और वो साले समझते क्या हैं अपने आपको ! मैं एक-एक को ठीक कर दूंगा ! पहले क्या कम दिया जो अब और मांग रहे हैं । उस छोकरे को तो मैं ऐसा सबक सिखाऊंगा कि...”
“किस छोकरे को ?”
“अपने दामाद को और किस छोकरे को ?”
“क्या करोगे ?”
“खून पी जाऊंगा कमीने का ।”
“कर सकते हो ऐसा । आखिर पुलिसिए हो । लेकिन यूं अपना ही खून पिओगे ।”
“क्या !”
“अब बेटी छोड़ी हुई होने की वजह से घर बैठेगी, तब विधवा होके घर बैठ जाएगी । बेटी का मां-बाप के घर बैठना किसी हाल में भी ठीक नहीं, केशवराव ।”
तत्काल भौंसले गैस निकले गुब्बारे की तरह पिचक गया ।
कई क्षण खामोशी रही ।
“लड़की कहती है” अंत में भौंसले बोला “कि तुम उसे पचास हजार रुपए देने की बात कर रहे थे !”
“ठीक कहती है ।” विमल बोला ।
“कोई खामखाह यूं किसी को इतनी बड़ी रकम देता है !”
“खामखाह तो नहीं देता ।”
“तो ?”
विमल जानबूझकर खामोश रहा ।
“बोलो, भई” भौंसले बोला “बदले में मुझे क्या करना होगा ?”
“एक निहायत मामूली काम ।”
“क्या ?”
“जिसे करने में तुम्हें जरा भी दिक्कत पेश नहीं आएगी । जो, यूं समझ लो, कि तुम्हारा रोजमर्रा का काम है ।”
“भई, नाम तो लो काम का ।”
“तुम्हारी बेटी ने मुझे बताया कि तुम पुलिस हैडक्वार्टर में फिंगर प्रिंट्स डिपार्टमेंट में रिकार्डकीपर हो ।”
“सही बताया है ।”
“यानी कि बंबई पुलिस के रिकार्ड में मौजूद हर हिस्ट्रीशीटर के, हर इश्तिहारी मुजरिम के फिंगर प्रिंट्स तक तुम्हारी पहुंच है ।”
“है ।”
“केशवराव, तुम्हें सिर्फ इतना करना है कि तुमने रिकार्ड में से एक खास फिंगर प्रिंट्स को निकाल देना है...”
“नामुमकिन ।”
“...और उसकी जगह कोई दूसरे फिंगर प्रिंट्स, कोई भी दूसरे फिंगर प्रिंट्स रख देने हैं ।”
“नामुमकिन ।”
“काम न सिर्फ नामुमकिन नहीं है, बल्कि मामूली है । फिंगर प्रिंट्स सिरे से ही गायब कर देने की सूरत में तुम पर कोई हर्फ आ सकता है लेकिन हजारों फिंगर प्रिंट्स में से एक सैट को बदल देने भर से तुम्हारे पर कोई आंच नहीं आने वाली । आंच तो क्या किसी को तुम्हारी इस हरकत की भनक भी नहीं लगने वाली ।”
“तुम कोई इश्तिहारी मुजरिम हो ?”
“मैं तुम्हें कोई इश्तिहारी मुजरिम लगता हूं ?”
“आजकल सूरत से क्या पता लगता है ! सूरत से तो तुम किसी को पचास हजार रुपया देने के काबिल भी नहीं लगते ।”
विमल हंसा ।
“सच पूछो तो मुझे ये सब बेहूदा मजाक लग रहा है ।”
विमल ने अपने झोले में हाथ डाला और सौ-सौ के नोटों की पांच गड्डियां निकालकर अपने घुटनों पर रख लीं ।
भौंसले की निगाह नोटों पर पड़ी तो वहीं चिपककर रह गई ।
“मामूली काम है ।” विमल बड़े अर्थपूर्ण स्वर में धीरे से बोला ।
भौंसले ने जोर से थूक निगली ।
“इतनी रकम के काबिल भी नहीं । तुम्हें इतनी रकम इसलिए मिल रही है क्योंकि आज की तारीख में तुम्हारी जरूरत इतनी रकम की है ।”
“जरूरत का क्या पता लगता है !” भौंसले धीरे से बोला “वो छोकरा, मेरा दामाद, एक बार यूं मुझे ब्लैकमेल कर लेने में कामयाब हो जाने पर दोबारा मुंह फाड़ सकता है ।”
“यकीनन फाड़ सकता है । जिसके मुंह को एक बार लहू लग जाए, उसे आदमबू आती ही रहती है ।”
“फिर ?”
“लेकिन वो दोबारा मुंह नहीं फाड़ेगा । न सिर्फ दोबारा मुंह नहीं फाड़ेगा बल्कि तुम्हारी बेटी से कोई बद्सलूकी करने की भी मजाल उसकी कभी नहीं होगी ।”
“ऐसा कैसे होगा ?”
“कैसे भी होगा, होगा । केशवराव, समझ लो कि पचास हजार रुपयों के साथ तुम्हें यह गारंटी भी हासिल है कि आइंदा कभी ऐसी दुश्वारी तुम्हें पेश नहीं आएगी और तुम्हारी बेटी सुख से रहेगी ।”
“कमाल है ।”
“अब बोलो, क्या जवाब है तुम्हारा ?”
“कि... किसके फिंगर प्रिंट्स बदलने होंगे मुझे ?”
“सरदार सुरेंद्रसिंह सोहल के ।
भौंसले चौंका
“मुजरिम बड़े-छोटे होते हैं” विमल बोला “उनकी उंगलियों के निशान बड़े-छोटे नहीं होते ।”
“तुम क्यों चाहते हो उसके निशान तब्दील करवाना ?”
“यह बेकार का सवाल है ।”
“कहीं तुम्हीं तो सोहल नहीं हो ?”
विमल ने एक फरमाइशी ठहाका लगाया ।
“सोहल कोई बहुरूपिया बतलाया जाता है जिसके कई नाम हैं और कई सूरतें हैं । उसकी सूरत एक वो भी हो सकती है जो इस वक्त मैं देख रहा हूं ।”
“होने को क्या नहीं हो सकता ?” विमल दार्शनिकतापूर्ण स्वर में बोला ।
“सोहल की गिरफ्तारी पर ढाई लाख रुपए का इनाम है ।”
“जो कि तुम समझते हो कि तुम्हें हासिल हो सकता है ।”
“अगर मेरे सामने बैठा शख्स सोहल है तो क्यों नहीं ?”
“केशवराव” एकाएक विमल का स्वर बेहद हिंसक हो उठा “दिलेरी अच्छी चीज है लेकिन अगर वो गलत मौके पर गलत शख्स के सामने दिखाई जाए तो जानलेवा भी साबित हो सकती है ।”
केशवराव के शरीर में साफ-साफ सिहरन दौड़ गई ।
“और सयाने लोगों ने लालच को बुरी बला कहा है ।”
केशवराव के गले की घंटी जोर से उछली ।
“नौ नकद न तेरह उधार वाली मसल भी शायद तुमने सुनी हो ये” विमल ने अपने घुटनों पर रखी नोटों की गड्डियां थपथपाई “नौ नगद हैं । सोहल की गिरफ्तारी के इनाम की रकम तेरह उधार है । ये हकीकत है । वो ख्वाब है ।”
केशवराव ने बेचैनी से पहलू बदला ।
“मेरे पास ज्यादा वक्त नहीं है ।” - विमल बोला - “आठ बजे मैंने कहीं पहुंचना है । जो फैसला करना है जल्दी करो ।”
तभी पिछले दरवाजे की चिक उठाकर काशीबाई वहां प्रकट हुई । उसके हाथ में एक तश्तरी थी जिस पर चाय के दो गिलास रखे थे । विमल के करीब आकर उसने तश्तरी उसकी तरफ बढाई तो विमल ने एक गिलास उठा लिया । दूसरा गिलास उसने अपने पिता को पेश किया ।
केशवराव की निगाह अपनी बेटी की सूरत पर पड़ी तो वहां उसे ऐसे दयनीय भाव दिखाई दिए कि उसका कलेजा चाक होने लगा ।
“जा के मां के पास बैठ ।” - वह खामखाह बोला ।
लड़की वहां से विदा हुई और चिक के पीछे गायब हो गई ।
“मुझे” - उसके जाते ही केशवराव व्यग्र भाव से बोला - “सौदा मंजूर है ।”
“बढिया ।” - विमल बोला - “काम कब होगा ?”
“कल । किसी वजह से कल दांव न लगा तो परसों ।”
“परसों तो रविवार है ।”
“मेरी हफ्तावारी छुट्टी बुधवार को होती है ।”
“ओह !”
“फिर परसों रात ही मुझे ये रकम मिल जाएगी ?”
“वो तो अभी मिल जाएगी ।” - विमल ने अपने घुटने पर से नोटों की गड्डियां उठाकर उसकी गोद में डाल दीं - “मिल गई है ।”
“कमाल है ।” - मंत्रमुग्ध स्वर में बोला ।
“क्या कमाल है ?”
“अगर मैं तुम्हारा काम न करूं लेकिन कह दूं कि काम कर दिया तो...”
“तो मैं कहूंगा कि यह धोखाधड़ी गैरजरूरी है । केशवराव, मैंने तुम्हारी बेटी को बहन कहा, तुम्हारा जवाब इनकार में भी होता तो यह रकम मैं यहां छोड़कर जाता ।”
केशवराव मुंह बाए उसे ताकता रहा ।
“खुदा हाफिज ।”
***
ठीक आठ बजे धारावी के एक्रेजी के नाम से जाने जाने वाले इलाके में स्थित पास्कल के बार में विमल की इरफान अली से मुलाकात हुई ।
फिर बहुत खामोशी से धारावी में मुबारक अली की बाबत पूछताछ का सिलसिला शुरू हुआ ।
मुबारक अली के हुलिए के बयान से भले ही लोगों ने अनभिज्ञता से कंधे उचकाए लेकिन मुबारक अली की दो और खूबियों की वजह से कइयों ने कबूल किया कि वे मुबारक अली को जानते थे ।
एक तो वह बारह नंबर का जूता पहनता था ।
और दूसरे उसका अंदाजेबयां कुछ ऐसा था कि हर बात में वह यह जरूर कहता था कि वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में लेकिन ऐसा कहने के बाद साथ में अंग्रजी का लफ्ज कभी नहीं जोड़ पाता था । तकियाकलाम की तरह ‘वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में’ कहने के बाद वो आगे जो कुछ कहता था, हिंदोस्तानी में ही कहता था ।
लेकिन लोगों ने उन खूबियों की वजह से मुबारक अली को जानते होने की हामी ही भरी, किसी ने इस बात की तसदीक न की कि मुबारक अली धारावी में था, था तो कहां था ।
आधी रात के करीब कई जगह टक्करें मार चुकने के बाद वे ट्रांजिट कैंप में स्थित एक ढाबे पर पहुंचे जो वास्तव में बेवड़े का अड्डा था और जिसे अजमेरसिंह नाम का एक बड़ी विकराल शक्ल-सूरत वाला सरदार चलाता था ।
वहां भी मुबारक अली की बाबत पूछताछ का नतीजा सिफर निकला ।
“अब ?” - विमल ने गहरी सांस ली - “छुट्टी ।”
“लगता है वो शहर छोड़ गया है ।”
“या फिर उसके जानने वाले उसके इतने वफादार हैं कि कोई उसके बारे में फूट के नहीं दे रहा ।”
“हो सकता है ।”
“वैसे उसका धारावी में ही होना जरूरी थोड़े ही है । इतनी बड़ी बंबई है, वो कहीं भी हो सकता है ।
“हमने उसे यहीं छोड़ा था ।”
“कई दिन पहले । क्या जरूरी है कि अभी वो यहीं बैठा होगा ?”
“कहीं और तलाश किया जाए ?”
“है कोई और जगह तुम्हारी निगाह में ?”
“है तो सही ।”
“कौन सी ?”
“कमाठीपुरा । नागपाड़ा । यैलोगेट । सिवरी । मलाड । भिंडी बाजार । भायखला । भोईवाड़ा...”
“ऐसी जगहों पर पुलिस ने क्या कम तलाश की होगी उसकी ?”
“तलाश तो खूब की होगी लेकिन पुलिस की और हमारी तलाश में फर्क है ।”
“यहां तो कोई फर्क सामने नहीं आया !”
“है तो सही फर्क । पुलिस को मुबारक अली के यहां होते हुए भी यह जवाब मिल सकता है कि वो यहां नहीं है । हमें यह जवाब इसलिए मिला हो सकता है क्योंकि सच ही वो यहां नहीं है ।”
“लोग उसकी खातिर पुलिस से झूठ बोल दें, ऐसा रसूख वाला दादा लगता तो नहीं था वो ।”
“दादाओं के रसूख का क्या पता लगता है ।” - इरफान तनिक हंसा - “अब अपनी ही मिसाल ले लो…”
“चुप ।”
इरफान फिर हंसा लेकिन उसने उस बात को आगे बढाने की कोशिश न की ।
“अब क्या इरादा है ?” - विमल बोला ।
“मैं क्या बोलूं ? तुम बोलो” - इरफान ने अपनी कलाई पर बंधी घड़ी पर निगाह डाली - “बारह बजने को हैं । कोई भूख-वूख नहीं लगी तुम्हें ?”
“लगी तो है ।”
“तो खाना मंगाएं ? या पहले एकाध घूंट लगाएं ?”
“घूंट लगाने में तो मुझे कोई एतराज नहीं लेकिन बेवड़े का नहीं ।”
“मतलब ?”
“मालूम करो यहां व्हिस्की भी मिलती है या नहीं ?”
“मिलती तो होगी लेकिन तुम्हारे मौजूदा बहुरूप से तो बेवड़ा ही मैच करेगा ।”
विमल ने चारों ओर निगाह दौड़ाई ।
“बकवास मत करो ।” - वह बोला - “मेरे से ज्यादा फटेहाल लोग व्हिस्की पी रहे हैं ।”
“ठीक है फिर ।”
इरफान ने इशारे से एक वेटर को करीब बुलाया और उसे व्हिस्की और तली हुई मछली लाने का आदेश दिया ।
अप्रत्याशित फुर्ती से आर्डर सर्व हुआ ।
दोनों ने खामोशी से चियर्स बोला और व्हिस्की और मछली का आनंद लेने लगे ।
अभी उन्होंने दो-दो घूंट ही पिए थे कि एकाएक वहां तूफान आ गया ।
अड्डे पर एकाएक कई सशस्त्र आदमी घुस आए । सबके हाथ में स्टेनगनें या ऑटोमैटिक रायफलें थीं ।
वैसे ही कुछ आदमी पिछवाड़े के रास्ते से भीतर घुस आए ।
हॉल में बैठे तमाम लोगों की तरफ हथियारों की नालें तन गईं ।
“कोई अपनी जगह से न हिले ।” - कोई कहर-भरे स्वर में बोला ।
हॉल में एकाएक मरघट का-सा सन्नाटा छा गया ।
वहां के मालिक अजमेरसिंह को जैसे सांप सूंघ गया । उसका मुंह यूं खुल गया और आंखें यूं फट पड़ीं जैसे काउंटर पर बैठा-बैठा ही लकवे का शिकार हो गया हो ।
फिर सशस्त्र लोगों की ओट में से खाली हाथ दो व्यक्तियों ने सामने कदम रखा ।
“यह” - इरफान एकाएक बोला - “यह तो श्याम डोंगरे है । कंपनी का सिपहसालार !”
विमल ने सहमति में सिर हिलाया । वह श्याम डोंगरे को पहचानता था । रूपचंद जगनानी विमल की फिराक में जब इकबालसिंह को तुकाराम के घर लाया था तो कंपनी का सिपहसालार श्याम डोंगरे भी उसके साथ था ।
“दूसरा कौन है ?” - वह दबे स्वर में बोला ।
“उसका नाम बाबू कामले है । डोंगरे का खास आदमी है । बहुत खतरनाक कतिल है ।”
“बाकी कंपनी के प्यादे होंगे ?”
“जाहिर है ।”
“इतने लाव-लश्कर के साथ यहां हाजिरी की वजह ?”
“तुम्हारे सिवाय और क्या हो सकती है ?”
“यानी कि खेल खत्म !”
इरफान ने उत्तर न दिया ।
“जो तुध भावे नानका, सोई भली कार ।”
“क्या ?”
“कुछ नहीं । तुम यहां से खिसकने की कोशिश करो ।”
“खिसकने की कोशिश करूं ? मौजूदा हालात में यहां से बाहर परिंदा पर नहीं मार सकता ।”
“कम-से-कम मेरे पास से हट जाओ ।”
“वो भी मुमकिन नहीं । मैं यहां से हिला भी तो गोलियों से भून दिया जाऊंगा ।”
“इन्हें मेरी खबर कैसे लग गई ?”
“क्या मालूम ! जरूर किसी ने तुम्हें पहचान लिया होगा ।”
“यकीन नहीं आता ।”
“कंपनी’ के इतने आदमियों की एकाएक यहा मौजूदगी ही यकीन दिलाने के लिए काफी नहीं ?”
“ए !” - कोई कर्कश स्वर में बोला ।
विमल ने इधर-उधर निगाह दौड़ाई । कौन बोला था, किससे बोला था, वह कुछ न समझ सका ।
“अबे, बहरा है ?”
विमल ने हड़बड़ाकर आवाज की दिशा में देखा ।
लाल-लाल आंखे निकाले ‘कंपनी’ का सिपहसालार उसे घूर रहा था ।
“बहरा है ?” - डोंगरे कड़ककर बोला ।
सस्पेंस के मारे विमल ने जल्दी से इनकार में गरदन हिलाई ।
“तो जवाब क्यों नहीं देता ?”
“ब… बोलो… बाप !”
“उठ ! और उधर दाए काउंटर के पास जाकर खड़ा हो ।”
सकपकाया-सा विमल उठकर खड़ा हुआ ।
वह सोच रहा था कि उसके झोले में मौजूद उसकी रिवॉल्वर इतनी स्टेनगनों और इतनी ऑटोमैटिक रायफलों के मुकाबले में उसकी किस काम आ सकती थी !
सिवाय आत्महत्या कर लेने के ।
“अपने जोड़ीदार को भी साथ ले के जा ।”
विमल और इरफान उठे और मन-मन के कदम रखते हुए काउंटर के करीब अजमेरसिंह के पहलू में जा खड़े हुए और किसी अनहोनी के होने की प्रतीक्षा करने लगे ।
उन्ही की तरह कई और लोगों को भी अपनी मेजों से उटकर दाएं बाजू में काउंटर के करीब जा खड़े होने का आदेश मिला ।
पीछे हॉल में कोई पंद्रह-सोलह आदमी पांच-छः मेजों पर बैठे रह गए ।
डोंगरे और कामले की आंखें मिली । फिर कामले ने प्यादों को एक हल्का-सा इशारा किया ।
तत्काल मेजों पर बैठे आदमियों पर चारों दिशाओ से गोलियों की बरसात होने लगी ।
कुछ क्षण बाद जैसे एकाएक वह बरसात शुरू हुई थी, वैसे ही एकाएक बंद हो गई ।
मेजों पर, कुर्सियों पर, वहां से फर्श पर लुढक गई लाशें ही लाशें दिखाई देने लगी ।
हर कोई फटी-फटी आंखों से उस नरसंहार का नजारा कर रहा था ।
“तू” - डोंगरे ने खजर की तरह एक उंगली अपने सामने भोंकी - “इधर सामने आ ।”
विमल को साफ लगा कि डोंगरे का इशारा उसकी तरफ था ।
लेकिन उसका ख्याल गलत निकला ।
एक कोई तीसेक साल का लंबा-तगड़ा नौजवान उसके पहलू से हटा और थर-थर कापता हुआ डोंगरे के सामने आ खड़ा हुआ ।
“तेरा नाम थिल्लू है ।” - उसकी तरफ लाल-लाल आंखें निकालता हुआ डोंगरे कहर भरे स्वर में बोला । जब वह ऐसा भयानक गुस्सा करता था तभी देखने वालों को साफ पता चलता था कि उसकी एक आंख नकली थी
वह युवक जोर-जोर से सहमति में सिर हिलाने लगा ।
“मुंडी मत हिला, हरामजादे ।” - डोंगरे गरजा - “तेरा नाम में तेरे से पूछ नहीं रहा, तुझे बता रहा हूं ।”
थिल्लू नाम के नौजवान के गले की घंटी जोर से उछली ।
“तू इब्राहीम कालिया का आदमी है ।”
थिल्लू से हामी भरते न बना । अगर इस बार भी डोंगरे उससे पूछ नहीं रहा था, उसे बता रहा था तो वह उसके हामी भरने से और खफा हो सकता था ।
“मेरे कू जानता है ?”
थिल्लू बुत बना खड़ा रहा ।
“जवाब दे, साले !”
तत्काल थिल्लू की गरदन मशीन की तरह सहमति में हिलने लगी ।
“बढिया । ये सब हरामजादे जो मरे पड़े हैं, तेरे बाप इब्राहीम कालिया के आदमी थे । जानता है ?”
“हं... हं… हां ।”
“तेरे समेत ?”
“हां ।”
“वो मर गए लेकिन तू जिंदा हैं !”
“हं… हां ! ”
“जानता है क्यों ?”
“न… नहीं ”
“तो फिर पूछता क्यों नहीं, कुत्ते ?”
“क्यों ? क्यों जिंदा हूं ? क्यों जिंदा हूं मैं ?”
“क्योंकि अगर तू भी मर जाता तो तेरे बाप इब्राहीम कालिया को कभी मालूम न होता कि ये सब क्यों हुआ ? तू इसलिए जिंदा है क्योंकि तू उसे जाकर बताएगा ।”
“क-क्या ?”
“तू यह जरूरी काम करेगा ।”
“क-कौन सा ?”
“कंपनी’ का संदेश ये है कि अगर वो फोरन अपनी करतूतों से बाज नहीं आ जाएगा तो आने वाले दिनों में उसके गैंग का एक भी आदमी जिंदा नहीं रहेगा । सब यूं ही” - उसने लाशों की तरफ हाथ लहराया - “थोक में खत्म कर दिए जाएंगे । क्या ?”
थिल्लू ने तेजी से सहमति में सिर हिलाया ।
“और उसे बोलना कि अगर वो अपने बाप की औलाद है तो दुबई में मुंह छुपाकर न बैठा रहे, यहां आकर अपना थोबड़ा दिखाए । समझ गया ?”
थिल्लू ने फिर सहमति में अपना सिर हिलाया ।
डोंगरे की तवज्जो ढाबे के मालिक अजमेरसिंह की तरफ हुई ।
“इधर आ ।”
डोंगरे का हिंसक स्वर चाबुक की फटकार की तरह दहशत से अधमरे हुए अजमेरसिंह की चेतना से टकराया । बड़ी कठिनाई से कांउटर के पीछे से निकला और थर-थर कांपता हुआ डोंगरे के सामने पहुंचा ।
“मेरे कू जानता है ?” - डोंगरे कडककर बोला ।
“हां ।” - अजमेरसिंह घिघियाता हुआ बोला - “नहीं ।”
“एक जवाब दे, साले ।”
“पैल्ले जानदा सी, जी । हुण नई जानदा ।”
“मेरी शक्ल पहचानता है ?”
“जरा वी नई पछानता जी । सौ वाहे गुरु दी ।”
“मेरे आदमियों की ?”
“बिल्कुल नई जी ।”
“यहां क्या हुआ था ?”
“मलूम नई, जी ।”
“तेरे नौकर-चाकरों को मालूम हो ?”
“किसी को नई मलूम जी । सारे दे सारे, सौरी दे, अंधे गूंगे, बहरे ने, जी ।”
“ये सब कैसे हो गया ?”
“मलूम नई, जी । पता नहीं नेरी आई के तूफान आया । बस हो गया तो पता लगया कि हो गया ।”
“शाबाश । समझ ले तेरी जान बच गई ।”
फिर बगूले की तरह जैसे डोंगरे अपने आदमियों के साथ वहां पहंचा था, वैसे ही बगूले की तरह वहां से कूच गया ।
विमल की जान में जान आई ।
तब कहीं जाकर काउंटर के करीब खड़े लोग सकते की हालत से उबरे और फिर सबके सब एक साथ बोलने लगे ।
चिल्ल-पों से वातावरण गूंजने लगा ।
“इलाके का थाना” - इरफान धीरे से बोला - “यहां से सिर्फ दो फर्लांग दूर है ।”
“फासले से क्या होता है ।” - विमल बोला - “थाना चाहे इसी इमारत के पहलू में हो । पुलिस का काम तो वारदात के बाद पहुंचना होता है । तब पहुंचना होता है जब उनके पहुंचने, न पहुंचने से कोई फर्क न पड़ने वाला हो ।”
“ठीक, तो ये लोग तुम्हारी फिराक में नहीं आए थे ?”
“जाहिर है ।”
“अब...”
“चलो यहां से । वो थिल्लू नाम का आदमी खिसका जा रहा है ।”
“तो क्या हुआ ?”
“मैं उससे बात करना चाहता हूं ?”
“क्यों ?”
“बाहर निकलो । बताता हूं । यहां रुके रहना वैसे भी ठीक नहीं । पुलिस आती ही होगी ।”
दोनों थिल्लू के पीछे कूच कर गए ।
तभी दूर कहीं फ्लाइंग स्क्वायड का सायरन गूंजा ।
ट्रांजिट कैंप के इलाके से बाहर निकल आने के बाद कहीं जाकर थिल्लू की जान में जान आई । उसे अभी भी यकीन नहीं आ रहा था कि इतने भंयकर खून-खराबे में से वह जिंदा बच आया था ।
अब उसे एक टैक्सी की तलाश थी ।
करीब ही एक टैक्सी स्टैंड था जिसकी उसे खबर थी और उस घड़ी वह उधर ही लपका जा रहा था कि एक फिएट कार उसके पहलू में पहुंची ।
वह ठिठका । भयभीत भाव से उसने फिएट की तरफ देखा लेकिन भीतर ड्राइविंग सीट पर एक मौजूद एक परछाई के अतिरिक्त उसे कुछ दिखाई न दिया ।
तभी कार की डोम लाइट जली ।
उसने देखा ड्राइविंग सीट पर बडे आकषर्क व्यक्तित्व वाला व्यक्ति बैठा था । उसके चेहरे पर फ्रेंचकट दाढी थी और वह आंखों पर गोल्डन फ्रेम का चश्मा लगाए था ।
उस आदमी ने - जोकि विमल था - हाथ बढ़ाकर फिएट का थिल्लू की ओर का दरवाजा खोल दिया ।
विमल इस हिदायत के साथ इरफान को पीछे छोड़ आया था कि वह साए की तरह उसके पीछे लगा रहे और तभी दखलअंदाजी करे, जबकि वह विमल को किसी संकट से उबारने की जरूरत महसूस करे ।
“क्या है ?” - थिल्लू थोड़े सशंक, थोड़े त्रस्त स्वर में बोला ।
“कार में आ जा ।” - विमल बोला - “अभी मालूम होता है क्या है ।”
“लेकिन ...”
विमल ने उसे रिवॉल्वर दिखाई ।
थिल्लू के कसबल निकल गए ।
आसमान से गिरा खजूर में अटका - मन ही मन बुदबुदाता हुआ वह कार में सवार हो गया ।
“कौन हो तुम ?” - थिल्लू मरे स्वर में बोला ।
“तेरा नाम थिल्लू है ?” - विमल बोला ।
“हां । तुम कौन...”
“इब्राहीम कालिया के गैंग का आदमी है ?”
“हां । लेकिन तुम...”
“पीछे बेवड़े के अड्डे पर जो मारे गए, वो वाकई सब तेरे जोड़ीदार थे ? कालिया के गैंग के अदमी ?”
“बाप ! तुम्हारे कू कैसे मालूम ?”
“वहां का तमाम नजारा मैंने अपनी आंखों से किया था ।”
“तुम उदर था ?”
“हां ।”
थिल्लू ने सिर से पांव तक विमल पर निगाह दौड़ाई ।
“अपुन तो” - वह बोला - “तुम्हारे कू उदर नेई देखा ।”
“मैं उधर ही था ।”
“पण...”
“छोड़ । मतलब की बात कर ।”
“मतलब की बात ?”
“हां ।”
“क्या ?”
“डोंगरे ने तेरे को एक संदेशा दिया इब्राहीम कालिया तक पहुंचाने को । ठीक ?”
“ठीक ।”
“कैसे पहुंचाएगा संदेशा ?”
थिल्लू खामोश रहा ।
“जवाब दे ।”
थिल्लू परे देखने लगा ।
“लुंज-पुंज जिंदा रहने के मुकाबले में मर जाना ज्यादा अच्छा काम है ।” - विमल सहज स्वर में बोला -“तिल-तिल करके मरने से एकबारगी की मौत बेहतर होती है ।”
“किसे कह रहे हो, बाप ?” - थिल्लू सशंक स्वर में बोला ।
“तेरे सिवाय और तो कोई है नहीं यहां ।”
“लेकिन मेरे कू क्यों कह रहे हो ?”
“और किसे कहूं ?” - विमल रिवॉल्वर की नाल से उसके अपने से करीब वाले घुटने पर दस्तक देता हुआ बोला - “अभी जब मैं गोली चलाकर तेरे दोनों घुटने फोड़ दूंगा, तेरी एक या दोनों बांह तेरे कन्धों से उखाड़ दूंगा तो तेरा जो बाकी जिस्म सलामत बचेगा वो लुंज-पुंज ही तो कहलाएगा । तब तू तिल-तिल करके ही तो मरेगा ।”
“तुम... तुम ऐसा करेगा, बाप ?”
“कोई एतराज ?”
“मैं तुम्हेरा क्या बिगाड़ा, बाप ?”
“अभी तो कुछ नहीं बिगाड़ा, लेकिन जब मेरी मदद नहीं करेगा तो...”
विमल ने जान-बूझकर वाक्य अधूरा छोड़ दिया ।
“मैं क्या मदद करेंगा, बाप ?”
“तू मुझे इब्राहीम कालिया से मिलवाएगा ।”
थिल्लू जोर-जोर से इनकार में सिर हिलाने लगा ।
“नहीं मिलवाएगा ?” - विमल अचरज-भरे स्वर में बोला । उसने जोर से रिवॉल्वर का कुत्ता खींचा ।
“अपुन ऐसा नहीं बोला, बाप ।” - थिल्लू ने फरियाद की ।
“तो कैसा बोला ?”
“अपुन बोला कि अपुन तुम्हेरे को इब्राहीम कालिया बॉस से नेई मिलवा सकता ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि अपुन की उस तक पहुंच नेई है । अपुन को नेई मालूम वो किधर मिलता है ।”
“कमल है ! यानी कि तू डोंगरे से झूठ बोला ! तू उसका संदेशा इब्राहीम कालिया तक नहीं पहुंचाएगा ?
“वो तो पहुंचाएगा, बाप । इतना बड़ा वारदात की खबर तो बॉस की जरूर होना मांगता है ।”
“ऐसा कैसे करेगा ?”
“अपुन भट्टी साहब को बोलेगा ।”
“भट्टी साहब ! वो कौन हुआ ?”
“शमशेर भट्टी । भट्टी साहब कालिया साहब का दाहिना हाथ है ।”
“यानी कि इस बॉस के दाहिने हाथ तक... भट्टी तक... शमशेर भट्टी तक तेरी पहुंच है ?”
थिल्लू ने हिचकिचाते हुए हामी भरी ।
“फिर वो, भट्टी, आगे इब्राहीम कालिया तक खबर पहुंचाएगा ?”
“हां ।”
“कहां ?”
“मलूम नेई ।”
“यहां या दुबई ?”
“नेई मालूम ।”
“ये भट्टी साहब कहां पाया जाता है ?”
“ग्रांट रोड पर ।”
“ग्रांट रोड पर कहां ?”
“उदर एक बहुत बड़ी इमारत है । उसमें एक बहुत बड़ा फिलेट है ।”
“इमारत और फ्लैट का नंबर बोल ।”
थिल्लू ने बोला ।
“वहां भट्टी रहता है ?”
“हां ।”
“और कौन रहता है वहां ?”
“मेरे कू नेई मालूम ।”
“तू कभी वहां गया ?”
“हां । कई बार ।”
“फिर भी नहीं जानता कि वहां भट्टी के अलावा और कौन रहता है ।”
थिल्लू ने इनकार में सिर हिलाया । वह कुछ क्षण सोचता रहा और फिर बोला - “बाप, सच पूछो तो मेरे कू ये भी पक्का नेई मालूम कि उदर भट्टी साहब भी रहता है कि नेई ।”
“हूं । भट्टी से कैसे मिलता है ? सीधे ग्रांट रोड उस फ्लैट में पहुंच जाता है ?”
“नेई ।”
“तो ?”
“पहले फोन करना पड़ता है ।”
“किसे ? भट्टी को ?”
“नेई ।”
“तो ?”
“भिंडी बाजार में एक ट्रेवल एजेंसी है । वहां ।”
“वहां किसे ?”
“जो कोई भी बोले ।”
“लेकिन ट्रेवल एजेंसी तो रात को बंद हो जाती होगी ।”
“उस नंबर से चौबीस घंटा जवाब मिलता है, बाप ।”
“अब भी फोन करेगा तो मिलेगा ?”
“बरोबर मिलेगा ।”
“फिर क्या होगा ?”
“जवाब मिलने पर मेरे कू बताना होएंगा कि मेरे कू भट्टी साहब से क्या बात करने का है । फिर दस मिनट में मेरे पास भट्टी साहब का फोन आ जाएंगा ।”
“फोन न आए तो ?”
“तो इसका मतलब होएंगा कि भट्टी साहब मेरे से बात करना नेई मांगता ।”
“यानी कि वो तभी बात करता है जब वो बात करना जरूरी समझे ?”
“हां ।”
“जब वो फोन करता है तो बुलाता ग्रांट रोड वाले फ्लैट में ही है ?”
“बरोबर ।”
“हमेशा ?”
“हां ।”
“जब तेरे को इमारत का पता मालूम है, फ्लैट का नंबर मालूम है तो तू सीधे ही वहां पहुंच जाए तो ?”
“एक बार अपुन ऐसा किएला थ, बाप ।” - वह धीरे से बोला ।
“तब क्या हुआ था ?” - विमल उत्सुक भाव से बोला ।
“फिलेट बंद था । अपुन बहुत घंटी बजाया, कोई जवाब नेई मिला ।”
“जवाब न मिलने का यही मतलब जरूरी थोड़े ही होता है कि भीतर कोई नहीं है ।”
“अपुन आजू-बाजू पूछा, बाप । सबी ये ही बोला कि फिलेट बंद था, भीतर कोई नेई था ।”
“हूं ।”
साफ जाहिर हो गया था कि ग्रांट रोड का वो फ्लैट सिर्फ मेल-मुलाकात के लिए इस्तेमाल होता था । वहां कोई रहता नहीं था । वह तो एक तरह का ट्रांजिट कैंप था, मुलाकाती को बुला लेने के बाद ही भट्टी साहब या कोई भी और साहब वहां पहुंचता था ।
विमल ने एकाएक कार स्टार्ट की और उसे आगे बढाया ।
“किदर ?” - थिल्लू व्याकुल भाव से बोला ।
“फोन की तरफ ।” - विमल बोला - “तू फोन करता तो किदर से करता ?”
“इदर एक आल नाइट पैट्रोल पंप है । उदर पब्लिक फोन है ।”
“रास्ता बोल ।”
थिल्लू के निर्देश पर कार चलाता वह पैट्रोल पंप पर पहुंचा जहां से थिल्लू ने कहीं फोन किया, अपनी बात कही और पब्लिक फोन का नंबर बोला । फिर उसने संबंध-विच्छेद कर दिया ।
“अब दस मिनट बाद फोन आएगा ।” - थिल्लू बोला ।
विमल ने सहमति में सिर हिलाया । उसने अपना पाइप सुलगाया और प्रतीक्षा करने लगा ।
ऐन दस मिनट बाद पब्लिक फोन की घंटी बजी ।
विमल ने थिल्लू को रिसीवर उठा लेने दिया ।
“हल्लो ! भट्टी साहब !” - दूसरी ओर से उत्तर मिलते ही तत्काल थिल्लू के चेहरे पर अदब के भाव आए - “साहब, मैं थिल्लू । साहब, अपुन को बोला बरोबर बोला । ...ठीक है साहब, अपुन ग्रांट रोड पर पहुंचता है । ...और साहब ...साहब अपुन के साथ एक आदमी है जो बड़ा बॉस से मिलना मांगता है” - दूसरी ओर से कुछ कहा गया जिसकी प्रतिक्रिया-स्वरूप विमल ने फौरन थिल्लू के चेहरे का रंग उड़ता देखा - “साहब, वो क्या है कि... अपुन से गलती हो गया साहब । ...अपुन का माथा फिरेला था जो ...जी साहब । बरोबर । ...बरोबर साहब...अपुन बी नेई आने का है...”
विमल ने फोन उसके हाथ से झपट लिया । उसने जल्दी से रिसीवर अपने कान से लगाया और बोला - “लाइन न काटना, भट्टी ।”
कुछ क्षण खामोशी रही ।
“कौन है ?” - फिर दूसरी ओर से कोई सावधान स्वर में बोला - “क्या नाम है ?”
“मेरे बहुत नाम है, किसी एक नाम से तुम्हारा कोई मतलब हल नहीं होगा ।”
“क्या चाहता है ?”
“यह फोन पर बताना ठीक नहीं होगा लेकिन एक बात जान लो ।”
“क्या ?”
“मेरे से मुलाकात न करके बहुत घाटे में रहोगे । मेरे से मिलने में इब्राहीम कालिया को बहुत फायदा है ?”
“क्या फायदा है ?”
“मालूम हो जाएगा ।”
“सिर्फ उसे फायदा है ?”
“मुझे भी । सिर्फ दूसरों के लिए फायदे के काम वालंटियर करते हैं । मैं कोई वालंटियर नहीं ।”
“तू कोई कंपनी का भेदिया तो नहीं ?”
“तू कोई निरा ही अहमक आदमी तो नहीं ?”
“क्या बकता है ?”
“मूढ आदमी ! अगर मैं कंपनी का आदमी होता तो मैं तेरे इस थिल्लू-पिल्लू के जरिए तेरे से बात करने की कोशिश करता ? मैं इसके जरिए तेरे तक पहुंचकर पहले तेरी गरदन न रेतता !”
“क्या !”
“पहले तेरी और फिर तेरे बिग बॉस की ।”
“क्या !”
“क्या मुश्किल काम है ?”
“ठहर जा, साले !”
“साला तो ठहरा ही हुआ है, जीजाजी भी तो किसी मुकाम पर आकर ठहरें !”
कुछ क्षण खामोशी रही ।
“हल्लो !” - विमल बोला ।
“अबे तू है कौन ?”
“मिलोगे तो मालूम पड़ जाएगा ।”
फिर खामोशी छा गई ।
“फिर सांप सूंघ गया !” - विमल बोला ।
“बकवास बंद ।”
“ठीक है ।”
“फोन थिल्लू को दे ।”
विमल ने रिसीवर थिल्लू को थमा दिया ।
रिसीवर हाथ में लेकर थिल्लू कुछ क्षण ‘हां बाप’ ‘बरोबर बाप’ करता रहा, फिर उसने फोन हुक पर टांग दिया ।
“क्या हुआ ?” - वह बोला ।
“चलो ।” - थिल्लू बोला ।
“कहां ?”
“ग्रांट रोड । भट्टी साहब के पास ।”
विमल ने चैन की सांस ली ।
***
“कौन होगा ?” - इंब्राहीम कालिया विचारपूर्ण स्वर में बोला ।
“जो कोई भी था” - शमशेर भट्टी बोला - “आदमी कांटे का था । बहुत दिलेरी से बोल रहा था ।”
“लेकिन था किस फिराक में ?”
“इस बाबत वो टेलीफोन पर बात करने को तैयार नहीं था । यहां आ रहा है । अभी मालूम पड़ जाएगा । हमारे काम का आदमी निकला तो बढिया वरना यहां से उसकी लाश ही बाहर निकलेगी ।”
“उसके इस्तकबाल का इंतजाम कर लिया ?”
“हां ।”
“बढिया ।”
तभी कॉलबेल बजी ।
“मैं देखता हूं ।” - भट्टी उठता हुआ बोला ।
इब्राहीम कालिया ने सहमति में सिर हिलाया ।
भट्टी वहां से बाहर निकल आया और मुख्यद्वार के करीब पहुंचा । वहां तीन हथियारबंद आदमी मौजूद थे । भट्टी के संकेत पर एक आदमी ने दरावाजा खोला ।
दोनों हाथ सिर से ऊपर उठाकर विमल भीतर दाखिल हुआ । उसके पीछे-पीछे तनिक सहमा-सा थिल्लू चल रहा था ।
“तू है वो आदमी ?” - भट्टी विमल को घूरता हुआ बोला ।
“हां ।” - विमल सहज स्वर में बोला ।
“हाथ उठाने को किसने कहा ?”
“किसी ने नहीं ।”
“तो ?”
“जिससे मैं दोस्ती का ख्वाहिशमंद होता हूं, उसके रूबरू मैं पहली बार ऐसे ही पेश होता हूं । डिफेंसलेस ।”
“अजीब आदमी हो ।”
“यह मेरा स्टाइल है ।”
“दिख रहा है ।”
“मेरे हाथ उठे न होते तो और दस सैकेंड बाद तुम्हारे इन चमचों ने भी तो यही कहना था कि हाथ ऊपर करो ।”
भट्टी ने उलझनपूर्ण भाव से उसकी ओर देखा ।
विमल मुस्काराया ।
“इसकी तलाशी लो ।” - भट्टी ने आदेश दिया ।
तीन हथियारबंद आदमियों में से दो ने विमल को अपनी रिवॉल्वरों से कवर कर लिया, तीसरा उसकी जेबें वगैरह थपथपाने लगा ।
“खाली है ।” - अंत में वह बोला ।
“हूं ।” - भट्टी बोला - “तुम लोग बगल के कमरे में जाओ । थिल्लू को थी साथ ले जाओ ।”
चारों जने खामोशी से वहां से विदा हो गए ।
पीछे केवल विमल और भट्टी रह गए ।
“अब तो हाथ गिरा दो ।” - भट्टी बोला ।
“हां । जरूर !” - विमल बोला । उसने हाथ नीचे गिराए तो उसके कोट की दाई आस्तीन में फंसी रिवॉल्वर सरककर उसके हाथ में आ गई । भट्टी के नेत्र फट पड़े ।
“खबरदार !” - विमल सांप की तरह फुफकारा - “आवाज न निकले । हरकत न हो ।”
भट्टी जैसे बुत बन गया ।
विमल उसकी ओर रिवॉल्वर ताने उसके करीब पहुंचा । जिस पहली जगह उसने हथियार की तलाश में भट्टी का जिस्म टटोला, वहीं से हथियार बरामद हो गया ।
रिवॉल्वर उसके शोल्डर होल्स्टर में थी ।
“एक सवाल ।” - विमल दबे स्वर में बोला - “जवाब हां या न में - कालिया फ्लैट में है ?”
भट्टी ने जवाब न दिया ।
“मैं आदमी को शूट करने का एक ऐसा तरीका जानता हूं कि जान इंतहाई मुश्किल से निकलती है ।”
भट्टी फिर भी खामोश रहा ।
“अपने आदमियों से कोई उम्मीद न रखना । गोली चलने की आवाज सुनकर जब वो अहमकों की तरह यहां दौड़े चले आएगे तो सब दरवाजे पर ही एक-दूसरे में गड्ड-मड्ड हुए मरे पड़े होंगे । उसके बाद अगर तुम्हारा बॉस इस फ्लैट में हुआ तो उसे ढूंढ निकालना क्या मुश्किल काम होगा ?”
“वो तुझे कच्चा चबा जाएगा ।”
“बहुत मुमकिन है । लेकिन ऐसा अगर होगा तो कम-से-कम तुम्हारी मौत के तो बाद ही होगा ।”
भट्टी ने बड़े नर्वस भाव से थूक निगली ।
“मैंने गलत कहा ?”
उसने उत्तर न दिया ।
“वैसे एक तरीके से तुमने कबूल कर ही लिया है कि वो यहां मौजूद है ।”
“क - कैसे ?”
“तुमने अभी कहा नहीं कि वो मुझे कच्चा चबा जाएगा ! यहां होगा नहीं तो क्योंकर अंजाम देगा इस हैवानों जैसे काम को ?”
भट्टी ने फिर थूक निगली ।
“वो भीतर है ?” - विमल लगभग उसके कान में फुसफुसाता हुआ बोला ।
भट्टी परे देखने लगा । अब वह बेहद बदहवास दिखाई देने लगा था ।
“भीतर चलो ।”
भट्टी अपने स्थान से न हिला ।
विमल ने इतने जोर से उसकी पसलियों में रिवॉल्वर की नाल घुसेड़ी कि वो पीड़ा से बिलबिला गया । फिर मन-मन के कदम उठाता हुआ वह पिछवाड़े की ओर चलने लगा ।
“आवाज न निकले ।” - विमल ने उसे चेतावनी दी ।
भट्टी के मुंह से बोल न फूटा ।
उसे अपने आगे चलाता हुआ विमल ड्राइंगरूमनुमा उस कमरे में पहुंचा जहां इब्राहीम कालिया बैठा था । विमल के हाथों में थमी रिवॉल्वर उसे तब तक दिखाई न दी जब तक कि विमल ने भट्टी को जबरन अपने से परे धकेलकर रिवॉल्वर कालिया की ओर न तान दी ।
कालिया उछलकर खड़ा हुआ ।
“खबरदार !” - विमल ने चेतावनी दी ।
कालिया हकबकाया सा कभी रिवॉल्वर की नाल को, कभी विमल को, तो कभी भट्टी को देखने लगा ।
“बैठो ।” - विमल बोला ।
कालिया धीरे से सोफे पर बैठ गया ।
“तुम भी ।” - विमल भट्टी से बोला - “अपने बॉस के पास ।”
अपनी हार से तिलमिलाता, अपनी कोताही से शर्मिदा होता भट्टी जाकर सोफे पर अपने बॉस के पहलू में बैठ गया ।
“अब इजाजत हो तो मैं भी बैठ जाऊं ?” - विमल बोला - “तनिक इंसान के बच्चों की तरह कोई बातचीत हो सके !”
“जिसके हाथों में ” - कालिया बोला - “एक नहीं दो-दो रिवॉल्वरें मौजूद हों उसे कुछ करने के लिए किसी की इजाजत की जरूरत नहीं होती ।”
“दुरूस्त । तो फिर मैं बैठ ही जाऊं ।” - विमल सोफे के साथ समकाया पर सटाकर रखी हुई सोफा चेयर पर बैठ गया । वह कुछ क्षण अपलक दोनो को देखता रहा ।
“क्या चाहता है ?” - कालिया बोला ।
“सबसे पहले तो मैं आपके लेफ्टीनेंट का कीमती माल उसे वापस लौटाना चाहता हूं !”
“कीमती माल !”
“यह रिवॉल्वर । हाथी दांत की मूठ है इसकी । लाख दमड़े से कम की तो क्या होगी !”
उसने भट्टी की रिवॉल्वर उसकी गोद में डाल दी ।
भट्टी हकबकाया लेकिन विमल की अपनी रिवॉल्वर क्योंकि अभी भी उसके हाथ में थी इसलिए गोद में पड़ी अपनी रिवॉल्वर की तरफ हाथ बढाने की उसकी हिम्मत न हुई ।
“और यह मेरी रिवॉल्वर आपकी खिदमत में ।”
विमल ने अपनी रिवॉल्वर कालिया की गोद में डाल दी और बड़े निश्छल भाव से मुस्कराया ।
कालिया और भट्टी यूं हकबकाए से एक दूसरे का मुंह देखने लगे जैंसे जो हुआ था, उसका यकीन न आ रहा हो ।
“आपका लेफ्टीनेंट गवाह है” - विमल मीठे स्वर में बोला - “आप खुद गवाह हैं कि मैंने इन रिवॉल्वरों में से गोलियां नहीं निकाली हैं और मेरे पास कोई दूसरा हथियार भी नहीं है । आप चाहें तो पलक झपकते मुझे शूट कर सकते हैं ।”
कई क्षण खामोशी छाई रही ।
“मतलब क्या हुआ इस ड्रामे का ?” - फिर कालिया बोला ।
“इस ड्रामे से मैंने ये स्थापित किया है कि मेरी आपने कोई दुश्मनी नहीं, कोई अदावत नहीं । मैं आपसे दोस्ती का ख्वाहिशमंद हूं और इसीलिए यहां आया हूं । यही बात मैं कितने ही लच्छेदार लफ्जों में जुबानी कहता, आपको उस पर फौरन यकीन नहीं आने वाला था । मुकम्मल यकीन नहीं आने वाला था । गलत कहा मैंने ?”
“नहीं ।” - कालिया बोला - “लेकिन नए नावाकिफ आदमी पर शक करना ही पड़ता है ।”
“जानता हूं । तभी तो मुझे ये सब नाटक करना पड़ा ताकि हम बिना वक्त जाया किए एक-दूसरे के करीब आ सकें, एक-दूसरे को एतबार में ला सकें ।”
कालिया ने सहमति में सिर हिलाया ।
“गुड !” - विमल भट्टी की ओर घूमा - “जनाब, अब आपकी समझ में आ गया कि क्यों मैं पहले से ही हाथ सिर के ऊपर उठाए हुए फ्लैट में दाखिल हुआ था ?”
“ताकि तुम्हारी रिवॉल्वर” - भट्टी के मुंह से निकला - “कोट की आस्तीन में अटकी रहे और तुम्हारे हाथ नीचे गिराते ही वो फिसलकर तुम्हारे हाथ में आ जाए ।”
“दुरूस्त । और अपने प्यादों को समझाइए कि तलाशी का मतलब तलाशी होता है, जोकि नख से शिख तक होनी चाहिए ।”
“मैं समझाऊंगा ।”
“तलाशी वाली क्या बात हुई ?” - कालिया बोला ।
भट्टी ने बताया ।
“ओह !” - कालिया बोला ।
कुछ क्षण खामोशी रही ।
फिर कालिया ने जेब से सिगरेट का पैकेट निकाला और एक सिगरेट विमल को ऑफर किया ।
“शुक्रिया ।” - विमल बोला - “मैं पाइप पीता हूं ।”
विमल अपनी जेब से पाइप और तंबाकू का पैकेट निकालकर पाइप में तबाकू भरने लगा ।
“विस्की ?” - कालिया ने पूछा ।
“अकेला नहीं पीता ।” - विमल बोला ।
“हम साथ पिएंगे ।”
“फिर क्या मुजायका है ।”
कालिया ने खुद उठकर ब्लैक डॉग के तीन पैग तैयार किए ।
तीनों ने चीयर्स बोला ।
“अब पहले” - कालिया भट्टी से बोला - “थिल्लू को बुलाकर उसकी कहानी सुनो और उसे यहां से चलता करो ।”
“उसे वैसे ही यहां से चलता करो” - विमल बोला - “जो किस्सा उसने दोहराना है, उसका मैं भी चश्मदीद गवाह हूं ।”
“अच्छा ! क्या हुआ था ?”
विमल खून-खराबे की हौलनाक दास्तान दोहराने लगा । उस दौरान भट्टी वहां से उठकर बाहर चला गया । जब तक वह वापस लौटा, तब तक विमल अपनी कहानी कह चुका था ।
कालिया का चेहरा बेहद गंभीद हो उठा ।
“तू वहां कैसे मौजूद था ?” - फिर उसने पूछा ।
“इत्तफाक से ।”
“वाकई ?”
“हां ।”
“अब यह तो बता कि तू है कौन ?”
“मैं वो शख्स हूं जिसका और आपका दुश्मन एक है ।”
“कौन ?”
“इकबालसिंह ।”
“तेरी उससे क्या दुश्मनी है ? क्या बिगाड़ा है उसने तेरा ?”
“यह एक लंबी कहानी है ।”
“मेरे पास सुनने के लिए बहुत वक्त है ।”
“लेकिन मेरे पास सुनाने के लिए वक्त नहीं ।”
कालिया ने घूरकर उसे देखा ।
“फालतू बातों में वक्त जाया करने का कोई फायदा नहीं । आप इतना समझ लीजिए कि इकबालसिंह ने मेरा कोई ऐसा नुकसान किया है जिसकी भरपाई इकबालसिंह और उसकी बादशाहत की हस्ती मिटाकर ही की जा सकती है ।”
“इकबालसिंह ने या ‘कंपनी’ ने ?”
“एक ही बात है ।”
“एक ही बात नहीं है ।”
“तो फिर दोनों ने ।”
“हस्ती मिटा सकता है तू इकबालसिंह की ? या ‘कंपनी’ की ?”
“अकेले नहीं मिटा सकता । इसीलिए तो यहां आया हू ।”
“यहां किसलिए ?”
“क्योंकि एक ही आदमी के दो दुश्मन दोस्त होने हैं ।”
“किसने कहा ?”
“क्या ?”
“कि मेरी इकबालसिंह से दुश्मनी है ?”
“कंपनी’ के सिपहसालार श्याम डोंगरे ने कहा । आपके आदमियों की उन डेढ दर्जन लाशों ने कहा जो वो धारावी के उस बेवड़े के अड्डे पर बिछा गया । उस संदेशे ने कहा जिसे आप तक पहुंचाने के लिए उसने आपके आदमी थिल्लू की जान-बख्शी थी ।”
“हूं । हूं । नाम अभी भी नहीं बताया तूने अपना ।”
“नाम में क्या रखा है । नाम तो शिनाख्त का एक जरिया होता है । नाम कुछ भी समझ लो ।”
“फिर भी ?”
“समझ लो कि मेरा नाम सोहल है ।”
कालिया ठठाकर हंसा ।
“क्या हुआ ? हंसने क्यों लगे ?”
“अगर तू सोहल होता तो मैं तेरे से गले लगकर मिलता और तेरी यहां आमद की खुशी में तेरे लिए सलामी परेड का इंतजाम करता, इक्कीस तोपों का इंतजाम करता ।”
“ऐसी क्या खूबी है उस शख्स में ?”
“जानता है कुछ उसके बारे में ? कभी नाम सुना है उसका ?”
“नाम तो सुना है ।”
“सिर्फ नाम सुना है ? उसके कारनामों की बाबत नहीं सुना ? यह नहीं सुना कि उस अकेले आदमी ने बखिया को और उसकी मुकम्मल बादशाहत को तबाह कर दिया था ।”
“अकेले ने तो नहीं किया था ।”
“अकेले ने ही किया था । तभी तो वो ‘वन मैन आर्गेनाइजेशन’ कहलाता है ।”
“गलत कहलाता है । अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता । अकेले आदमी के बस का क्या होता है ?”
“लेकिन उसने अकेले...”
“कुछ नहीं किया था । बखिया की बादशाहत से टक्कर लेने के लिए उसे शांताराम के चार भाइयों की मदद हासिल थी ।”
“वो उसे बाद में हासिल हुई थी ।”
“उससे पहले भी वो अकेला नहीं था । उसके कारनामों का बढा-चढाकर बयान करने वाले महज जाहिर करते हैं कि वो अकेला था, हकीकतन उसे हमेशा कोई-न-कोई मदद हासिल थी । वो अकेला होता तो दो दिन बखिया के सामने न टिक पाया होता ।”
“तू तो” - कालिया उसे घूरता हुआ बोला - “बहुत कुछ जानता है सोहल के बारे में ।”
“किस्से मशहूर जो बहुत हैं उसके कारनामों के । कान पक गए मेरे तो उसकी बाबत किस्से-कहानियां सुनते-सुनते ।”
“कोई खास रोब नहीं पड़ा मालूम होता तेरे पर उसके कारनामों का !”
“क्यों पड़े खास रोब ? मैं खुद क्या उससे कम हूं ?”
“ये उसके रोब का ही तो जहूरा है कि अभी तू अपना नाम सोहल बता रहा था ।”
विमल बड़े संकोचपूर्ण भाव से हंसा ।
“भट्टे !” - कालिया अपने लेफ्टीनेंट से संबोधित हुआ - “ये सोहल हो सकता है ?”
भट्टी ने गौर से विमल के चेहरे का मुआयना किया ।
“यह नकली दाढी-मूंछ लगाए है ।” - कई क्षण बाद भट्टी बोला - “आंखों का नीला रंग भी बनावटी लगता है । चश्मा प्लेन शीशों का मालूम होता है । बालों की सफेद रंगत भी फर्जी मालूम होती है ।”
“उतार ।” - कालिया बोला - “सब उतार ।”
विमल ने बड़ी शराफत से दाढी-मूंछ, नीले कांटैक्ट लैंस और सोने के फ्रेम वाला चश्मा उतार दिया ।
“बाल ऐसे ही रहने दो ।” - “वह बोला - “यहां इन्हें दोबारा सफेद करने का इंतजाम नहीं हो पाएगा ।”
“भट्टे !” - सहमति में सिर हिलाता हुआ कालिया बोला - “अब क्या कहता है ?”
“अगर ये सोहल है” - “भट्टी पुरजोर लहजे में बोला - “तो मैं बादशाह अकबर हूं ।”
“यानी कि नहीं है ?”
“सवाल ही नहीं पैदा होता । शक्ल तो शक्ल, इसकी तो आवाज तक नहीं मिलती ।”
“तुम तो” - विमल उपहासपूर्ण स्वर में बोला - “यूं कह रहे हो जैसे तुम सोहल से कभी मिले हो ।”
“एक बार हो चुका है मेरा सोहल से आमना-सामना ।”
विमल ने गौर से दोबारा भट्टी की सूरत का मुआयना किया । उसे वह सूरत कतई जानी-पहचानी न लगी । पता नहीं वो शख्स झूठ बोल रहा था या खुद उसकी अपनी याददाश्त दगा दे रही थी ।
“अच्छा !” - प्रत्यक्षत: विमल बोला - “कैसे ? कब ?”
“जब वो कंपनी के ओहदेदार ज्ञानप्रकाश डोगरा की तलाश में कमाठीपुरे में लेफ्टीनेंट घोरपड़े के घर आया था ।”
“कौन घोरपड़े ? जो बाद में कंपनी का सिपहसालार बन गया था ?”
“वही ।”
“तुम्हारा घोरपड़े से क्या रिश्ता था ?”
“पहले मैं उसका जोड़ीदार हुआ करता था । हिप्पी बना सोहल जब अपनी एक छोकरी के साथ घोरपड़े के यहां पहुंचा था, उस वक्त मैं भी वहीं मौजूद था ।”
तब विमल को याद आया कि जब वह घोरपड़े से डोगरा का कोई अता-पता कुबूलवाने के लिए उसके घर गया था तो वहां उसके साथ दो चमचे भी मौजूद थे जिनकी सूरतों की तरफ विमल ने कतई तवज्जो नहीं दी थी । जरूर उन्हीं में से एक भट्टी था ।
तरक्की के मामले में गुंडागर्दी का जुगराफिया भी राजनीति जैसा ही था । राजनीति की तरह इस धंधे में भी आदमी आनन-फानन कुछ का कुछ बन जाता था, कहीं-का-कहीं पहुंच जाता था ।
“तब तो पट्ठा हिप्पी बना हुआ था ।” - भट्टी कह रहा था ।
“फिर भी तुमने उसे पहचान लिया था ?” - विमल बोला ।
“तब नहीं पहचाना था लेकिन बाद में हमें यकीनी तौर पर मालूम हो गया था कि हिप्पी बनकर घोरपड़े को बेवकूफ बनाने आया आदमी ही सोहल था । तभी हमें मालूम हो जाता कि वो हिप्पी का बच्चा सोहल था तो हम वहीं उसका कीमा न कूट देते !”
विमल खामोश रहा ।
“अब भी कहता है ।” - कालिया बोला - “कि तू सोहल है ?”
विमल के चेहरे पर ऐसे भाव प्रकट हुए जैसे उसकी बहुत बड़ी चोरी पकड़ी गई हो ।
“मैंने कब कहा था” - फिर वह फर्जी दिलेरी दिखाता हुआ बोला - “कि मैं सोहल हूं ?”
“नहीं कहा था ?”
“मैंने सिर्फ ये कब कहा था कि समझ लो कि मेरा नाम सोहल है ।”
“अगर हम तेरे समझाए समझ लेते तो तू हो जाता सोहल ।”
विमल बड़े खिसियाए भाव से हंसा ।
“अब बोल” - कालिया बोला - “असल में कौन है तू ?”
“मेरा नाम नौशेरवानजी है ।” - विमल धीरे से बोला - “पेस्टन जी नौशेरवानजी घड़ीवाला ।”
“पारसी है ?”
“हां ।”
“धंधा क्या है तेरा ?”
“घड़ियों की स्मगलिंग का ।”
“कहां ?”
“बड़ौदा में ।”
“कंपनी’ ने क्या बिगाड़ा तेरा ?”
“मेरा धंधा चौपट कर दिया ।”
“बस ?”
“मेरे दो लड़कों को मरवा दिया, मेरी तेरह साल की लड़की को उठवा दिया, मेरी बीवी के साथ ‘कंपनी’ के इतने आदमियों ने बलात्कार किया कि वह मर गई ।”
“ओह !”
साफ जाहिर हो रहा था कि उन लोगों को विमल के नए चेहरे की कोई वाकफियत नहीं थी । विमल ने जो ड्रामा किया था उससे यह लाभ हुआ था कि वे दोनों समझ रहे थे कि यह उनकी काबिले तारीफ होशियारी थी जिससे उन्होंने विमल से उसकी असलियत कुबूलवा ली थी । वह सीधे-सीधे अपना परिचय देता तो वे लोग कभी यकीन न करते कि उसने अपनी बाबत सच बोला था ।
“भट्टे !” - कालिया बोला - “अपने पारसी भाई का गिलास खाली है । ड्रिंक बना । सबके लिए ।”
भट्टी ने उठकर तीनों गिलासों में ब्लैक डॉग विस्की डाली और साइफन से सोडा मिलाया ।
“तू चाहता क्या है ?” - फिर कालिया बड़े अपनेपन से बोला ।
“मैं चाहता हूं” - विमल बोला - “इकबालसिंह की लाश गिराने में आप लोग मेरी मदद करें ?”
“हम क्या मदद करें ?”
“कोई तरीका बताओ जिससे इकबालसिंह तक मेरी पहुंच हो सके ।”
“अगर ऐसा कोई तरीका हमें आता होता तो हम खुद ही जाकर उसकी लाश न गिरा आए होते !”
विमल ने बड़ी संजीदगी से सहमति में गरदन हिलाई ।
“अगर तू खुद खास इकबालसिंह की फिराक में बड़ौदा से चलकर बंबई आया है तो अब तक तुझे भी मालूम हो चुका होगा कि आज की तारीख में इकबालसिंह के करीब भी फटक पाना नामुमकिन है ।”
“यह बात तो सच है ।” - विमल ने विस्की का एक घूंट पिया, वह कुछ क्षण सोचता रहा और फिर बोला - “तो फिर किया क्या जाए ?”
“एक तरीका हो सकता है ।” - कालिया बड़े अर्थपूर्ण ढंग से भट्टी को देखता हुआ बोला ।
“क्या ?”
“कान को दूसरे तरीके से घुमाकर पकड़ना होगा ।”
“मतलब ?”
“लेकिन वैसे कामयाब होने के लिए जान लड़ाना जरूरी है ।”
“मुझे अपनी जान की कोई परवाह नहीं ।”
“और भेजा भी ।”
“वो भी, मैं समझता हूं कि, मेरे पास है ।”
“फिर क्या वांदा है ?”
“क्या तरीका है ?”
“तरीका बताने से पहले मुझे ‘कंपनी’ के मौजूदा निजाम की बाबत तेरे को कुछ समझना पड़ेगा ।”
“क्या ?”
“तू खुद क्या जानता है ‘कंपनी’ के मौजूदा निजाम की बाबत ?”
“ज्यादा कुछ नहीं । बस इतना जानता हूं कि बखिया की मौत के बाद से ‘कंपनी’ की बादशाहत इकबालसिंह सभाले हुए है ।”
“बस ?”
“और यह जानता हूं कि व्यास शंकर गजरे नाम का एक आदमी इकबालसिंह के बाद दूसरे नंबर का ओहदेदार है, श्याम डोंगरे नाम का एक मवाली उसका सिपहसालार है ।”
“ये सब तो वैसे ही मुंबई शहर का बच्चा-बच्चा जानता है ।”
“तुम्हारा इशारा किसी खास जानकारी की तरफ है ?”
“हां ।”
“क्या ? क्या जानकारी ?”
“सुन । देख, जब बखिया जिंदा था तो ‘कंपनी’ के कई कारोबार थे । जैसे प्रास्टीच्यूशन, मटका, कैसीनो स्टाइल जुआ, नारकाटिक्स स्मगलिंग, शराब का धंधा, गैरकानूनी धंधे करने वाले दूसरे लोगों को प्रोटेक्शन देकर उनसे चौथ वसूल करना, होटल और बार चलाना । इतना व्यापक व्यापार था ‘कंपनी’ का बखिया की छत्रछाया के नीचे । नारकाटिक्स स्मगलिंग में तो बखिया की सारे एशिया में, बल्कि सारे वर्ल्ड में धाक थी । उसके माफिया तक से संबंध बताए जाते थे । फिर बंबई में आन टपका सोहल नाम का गेंगस्टर जिसने बखिया की बादशाहत के बखिए उधेड़ दिए और उसके तकरीबन सारे के सारे ओहदेदार एक-एक करके मार गिराए । तब सोहल जैसे एक छलावे की तरह बंबई में आया था वैसे ही एक छलावे की तरह यहां से गायब हो गया और पीछे रह गया और पीछे रह गया इकबालसिंह जो बखिया की उजड़ी हुई कायनात का मालिक बना ।”
“कंपनी’ की तबाही की हिस्टरी छोड़ो, यार ।” - विमल बोला, अपने ही कारनामों को दूसरे की जुबानी सुनकर उसे क्या हासिल होता - “मतलब की बात करो ।”
“वही कर रहा हूं ।” - कालिया बोला - “बखिया की मौत के बाद इकबालसिंह ने बखिया की गद्दी तो हथिया ली लेकिन बखिया बनने की कूव्वत न उसमें थी न किसी और में । नतीजा यह हुआ कि अपने ही हित में उसे ‘कंपनी’ के कई धंधों से हाथ खींच लेना पड़ा ।”
“मसलन कौन से धंधों से ?”
“मसलन प्रास्टीच्यूशन । बखिया के वक्त बंबई में ‘कंपनी’ के कालगर्ल्स सप्लाई करने वाले बारह ठीये थे, अब सिर्फ एक है । सायन में जिसे कि ‘कंपनी’ की पुरानी वफादार मिसेज पिंटो चलाती है । उसका मूल ठीया, सायन का एक आलीशान बंगला तो सोहल जलाकर खाक कर गया था । अब बेचारी वहीं के एक फ्लैट से अपना धंधा चलाती है । मटका कहने को ‘कंपनी’ चलाती है लेकिन हकीकत ऐसा नहीं है । आजकल एक बहुत मामूली फीस के बदले में इकबालसिंह ने यह धंधा किसी और को सौंपा हुआ है । बखिया के वक्त मटके का हैडक्वार्टर उनका जेकब सर्कल पर स्थित ऑफिस था और ‘कंपनी’ का एक बड़ा ओहदेदार कांति देसाई उसका इंचार्ज था । सोहल की मेहरबानी से कांति देसाई का कत्ल हो गया और वो ऑफिस जलकर स्वाहा हो गया । उस वारदात के बाद से ही एक तरह से मटके का धंधा ‘कंपनी’ के हाथों से निकल गया । बूटलैगिंग से यानी कि शराब के धंधे से इकबालसिंह ने खुद हाथ खींच लिया । गैरकानूनी धंधे करने वाले दूसरे लोगों को प्रोटेक्शन देना उसके बस का न रहा । यहां से करीब ही, ग्रांट रोड पर ही, एक आठ मंजिला इमारत है जिसमें दिखाने को र्इस्टर्न एक्सपोर्ट हाउस करके एक फर्म चलती है लेकिन असल में जो एक चकला और जुआघर है और जिसे विट्ठल राव नाम का एक आदमी चलाता था । बखिया के वक्त उसे ‘कंपनी’ की प्रोटेक्शन हासिल थी और विट्ठल राव नियमित रूप से ‘कंपनी’ को अपनी कमाई का एक तिहाई हिस्सा पहुंचाता था । बखिया के होते हुए भी विट्ठल राव के कई आदमी मारे गए, वह खुद मरता-मरता बचा, नतीजन प्रोटेक्शन के मामले में विट्ठल राव पर से और उस जैसे दूसरे लोगों पर से ‘कंपनी’ का एतबार उठ गया । वो एतबार, जो बखिया के वक्त में ही उठ गया था, इकबालसिंह के बहुत कोशिश करने के बावजूद वापिस न बैठ सका । नतीजन उसे अपने प्रोटेक्शन के धंधे से हाथ खींच लेना पड़ा । होटल सी व्यू में फटे बमों ने वहां की हाई क्लास क्लायंटेल तकरीबन खत्म कर दी । यूं ही उमर खैयाम नाम का बार तबाह हुआ तो दोबारा ना चल सका ।”
“तुमने क्लब-29 का जिक्र नहीं किया ।”
कालिया ने तनिक सकपकाकर विमल की तरफ देखा ।
विमल ने लापरवाही से पाइप का एक कश लगाया ।
“उसका जिक्र” - कालिया बोला - “मैं आखिर में करना चाहता था ।”
“आखिर अभी हुई नहीं ।”
“हो गई है ।” - कालिया एक क्षण खामोश रहा और फिर बोला - “मेरा कहने का मतलब यह है कि आज की तारीख में इकबालसिंह की छत्रछाया में ‘कंपनी’ के पास दो ही मेन धंधे हैं । एक नारकाटिक्स स्मगलिंग और दूसरा कैसीनो स्टाइल जुआ । ‘कंपनी’ का नारकाटिक्स स्मगलिंग का धंधा बड़ा व्यापक है । इकबालसिंह में उसको ठीक से हैंडल करने की काबलियत नहीं लेकिन व्यास शंकर गजरे की वजह से धंधा चल रहा है ।”
“ठाठ से ?”
“ठाठ से तो नहीं ।”
“क्यों नहीं ?”
“एक तो मैं ही उस धंधे पर घात लगाए हूं । ‘कंपनी’ के काफी कांटेक्ट्स मैं अपनी तरफ कर चुका हूं । उसके काफी ग्राहक मैं पटा चुका हूं । ऊपर से बंबई पुलिस का एक कुछ ज्यादा ही जोशीला और र्इमानदार इंस्पेक्टर अशोक जगनानी ‘कंपनी’ के नारकाटिक्स ट्रेड का मालियामेट करने के लिए कमर कसे है । उसकी दहशत की वजह से ‘कंपनी’ को नारकाटिक्स स्मगलिंग के अपने एक बहुत ही फायदेमंद पुर्तगाल-गोवा रूट पर अपने आपरेशन बंद कर देने पड़े हैं । कहने का मतलब यह है कि इंस्पेक्टर अशोक जगनानी की चल जाए तो यह इन्तहाई फायदेमंद धंधा भी कंपनी के हाथ से निकल जाएगा ।”
“वही इंस्पेक्टर जो ‘कंपनी’ की आंख में डंडा किए है, वो तुम्हारे लिए कोई खतरा नहीं ?”
“नहीं ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि फिलहाल उसका निशाना, उसकी मुकम्मल तवज्जो, ‘कंपनी’ की तरफ है । मेरी तो उसे खबर तक नहीं ।”
“है नहीं तो हो जाएगी ।”
“वो मुझे पकड़ने मेरे पीछे दुबई नहीं आ सकता ।”
“तुम दुबई में रहते हो तो इस वक्त यहां मुंबई में कैसे हो ?”
“कभी-कभार आना पड़ता है लेकिन पुलिस को इसकी कानोंकान भनक नहीं लगती ।”
“आगे लग सकती है । कोई तुम्हारा अपना आदमी ही देर-सवेर तुम्हारे साथ दगा कर सकता है ।”
कालिया खामोश रहा ।
“अब शायद तुम ये कहोगे कि तुम्हारे आदमी बहुत परखे हुए, बहुत आजमाए हुए हैं, उनमें से कोई तुम्हारे साथ दगा नहीं कर सकता । ऐसा कहोगे तो अपनी मूर्खता का ही सबूत दोगे । इस धंधे में देर-सवेर अपना ही आदमी दगा करता है ।”
“तू ठीक कह रहा है” - कालिया धीरे से बोला - “लेकिन इस खतरे का हल भी उसी बात में से निकलेगा तो मैं आगे कहने जा रहा हूं ।”
“मैं सुन रहा हूं ।”
“जैसा कि मैंने पहले कहा कि ‘कंपनी’ का दूसरा मेन धंधा कैसीनो स्टाइल जुआ है । वही आज की तारीख में ‘कंपनी’ की मोटी आमदनी का मेन जरिया भी है । तूने अभी क्लब-29 का नाम लिया था । लेकिन सोहल के प्रकोप से वो भी नहीं बच सकी थी । कोई मोटी रकम लूटने में वह कामयाब नहीं हो सका था । लेकिन यह अफवाह जंगल की आग की तरह चारों तरफ फैली थी कि क्लब-29 कोई सेफ जगह नहीं थी ! वहां गल्फ कंट्रीज से बड़े-बड़े शेख जुआ खेलने आते थे जो लाखों-करोड़ों रुपए के दांव लगाते थे । डाके की खबर से उन्होंने ऐसा खौफ खाया कि उन्होंने वहां जाना बंद कर दिया । यानी कि कैसीनो की मोटी क्लायंटेल उखड़ गयी । ऐसी क्लायंटेल एक बार उखड़ जाए तो फिर चाहे बखिया जोर लगा ले चाहे इकबालसिंह, वो लौटकर नहीं आती ।”
“यानी कि क्लब-29 अब बंद है ?”
“हां ।”
“यानी कि ‘कंपनी’ का सबसे फायदेमंद धंधा बंद हो गया ?”
कालिया ने इनकार में सिर हिलाया ।
“तो ?” - विमल उलझनपूर्ण स्वर में बोला ।
“धंधा जारी है ।” - कालिया बड़े गंभीर स्वर में बोला - “सिर्फ नाम और जगह बदल गई है ।”
“मतलब ?”
“बंबई से पूरी तरह से वाकिफ है ?”
“पूरी तरह से तो नहीं ।”
“यह जानता है कि बंबई के आसपास के समुद्र में कई छोटे-मोटे टापू हैं जिनमें से काफी सारों पर इंडिया का हक है ।”
“जैसे वो टापू जिस पर एलिफेंटा केव्स हैं ?”
“हां । इसी तरह बूचर आइलैंड है, मिडल ग्राउंड है, ओइस्टर रॉक है ।”
विमल खामोश रहा ।
“अरब सागर में, बंबई से साठ मील दूर ऐसा ही एक टापू है जिसका नाम स्वैन नैक प्वाइंट है । यह टापू कराची से पांच सौ मील दूर है और पाकिस्तान की मिल्कियत माना जाता है ।”
“जबकि वो पाकिस्तान से इतना दूर है !”
“तो क्या हुआ ? हमारे अपने ऐसे आइलैंड जैसे लक्ष्यद्वीप, अंडमान, निकोबार वगैरह क्या हिंदोस्तानी धरती से सैकड़ों मील दूर समुद्र में नहीं हैं ?”
“होंगे ।” - विमल तनिक तिक्त स्वर में बोला - “तुम इस स्वैन नैक प्वाइंट के बारे में क्या कहना चाहते हो ?”
“यह टापू नाम को पाकिस्तान की प्रॉपर्टी है, असलियत में उन लोगों को खुद याद नहीं आता होगा कि अरब सागर में हिंदोस्तान के करीब मौजूद एक ऐसा टापू भी पाकिस्तान है । टापू का कुल जमा एरिया मुश्किल से पांच मील है । कुछ अरसा पहले तक यह एक उजाड़ बियावान जगह होती थी जहां न कोई आदमजात रहता था और न कोई जानवर ।”
“फिर ?”
“फिर ऐसी जगह पर पहुंचता है बादशाह अब्दुल मजीद दलवई नाम का एक आदमी ।”
“बादशाह ?”
“हां । तब तो उसने यूं ही सजावट के लिए अपना नाम बादशाह रखा हुआ था लेकिन अब तो वह सच में ही उस टापू का बादशाह बन बैठा है ।”
“वो वहां कैसे पहुंच गया ?”
“बस पहुंच गया । हिंदोस्तान इंटैलीजेंस और सी.आर.पी.एफ. का खदेड़ा पहुंच गया ।”
“करता क्या था वो ?”
“सारे एशिया के टैरेरिस्ट्स को हथियार और गोला-बारूद सप्लाई करता था । करोड़ों रुपया पीटा उस अल्लामारे ने इस नए और अनोखे धंधे से ।”
“ओह ! फिर वो ताल्लुकात बनाता है बंबई के अंडरवर्ल्ड के बादशाह राज बहादुर बखिया से । उस ताल्लुकात का नतीजा यह निकलता है कि उस उजाड़ टापू पर बंबई से लेबर पहुंचती है, बंबई से इमारती तामीर का सामान पहुंचता है और वहां कस्ट्रक्शन शुरू हो जाती है ।”
“यहां पुलिस वगैरह को कोई खबर नहीं लगती ?”
“लगती है । उन्हें यह भी खबर लगती है कि बादशाह अब्दुल मजीद दलवई उस टापू पर छुपा हुआ है लेकिन बंबई पुलिस जब उस ओर का रुख करती है तो हो-हल्ला मच जाता है । पाकिस्तान सरकार, जिसे ठीक से उस टापू की पोजीशन भी याद नहीं रहती, बंबई पुलिस के उस एक्शन को पाकिस्तान पर हुआ हमला करार देती है । नतीजन बंबई पुलिस रास्ते से ही वापिस लौट आती है । बादशाह और शेर हो जाता है । तब उसके पाकिस्तान से भी ताल्लुकात बन जाते हैं । वह उस छोटे-से टापू का पाकिस्तान से एक किराया मुकर्रर कर लेता है और फिर पाकिस्तान से लेबर और सामान मंगवाकर वहां कंस्ट्रक्शन शुरू कर देता है ।”
“हिंदोस्तानी लेबर का क्या हुआ ?”
“उस पर पुलिस ने रोक लगा दी थी । लेकिन बादशाह को उससे राई-रत्ती का भी फर्क न पड़ा । पूरी रफ्तार से उस उजाड़ टापू पर इमारतें बनती गई और बिजली, पानी जैसी दूसरी बुनियादी जरूरतों का जुगाड़ होता गया ।”
“आखिर में क्या हुआ ?”
“आखिर में वहां एक ऐसा आलीशान कैसीनो खड़ा हो गया जिससे क्लब-29 तो क्या अमरीका और फ्रांस के जुआघर भी शर्मिदा हो जाएं । कैसीनो में जुआ खेलने के लिए इंडिया से, पाकिस्तान से, गल्फ कंट्रीज से जुए के रसिया पहुंचने लगे । वह कैसीनो आनन-फानन बादशाह और बखिया के लिए, जो कि उसमें बराबर के पार्टनर थे, करोड़ों की कमाई का जरिया बन गया ।”
“यह सिलसिला आज भी जारी है ?” - विमल मंत्रमुग्ध स्वर में बोला ।
“पहले से ज्यादा जोर-शोर से । उस कैसीनो की वजह से आज बखिया के वारिस इकबालसिंह की पांचों उंगलियां घी में हैं । और वो साला हलकट बादशाह अब्दुल मजीद दलवई ! वो हिंदोस्तानी सरकार की नाक के आगे भिनभिनाती मक्खी की तरह उस टापू पर बैठा है और ऐश कर रहा है ।”
“तुम क्या चाहते हो ?”
“मैं चाहता हूं कि मैं” - एकाएक कालिया का स्वर बेहद हिंसक हो उठा - “उस बादशाह को तंदूरी चिकन की तरह चबा जाऊं और उसके टापू की खाक में उसकी हड्डियां छितरा दूं । मैं चाहता हूं कि मैं उसकी सारी दौलत लूट लूं और उसके कैसीनो का खुद मालिक बन जाऊं ।”
“इससे क्या होगा ?”
“इससे इकबालसिंह की रीढ की हड्डी टूट जाएगी । फिर मैं उससे ज्यादा ताकतवर और ज्यादा रसूख वाला बन जाऊंगा । फिर एक दिन ऐसा आएगा कि इकबालसिंह खुद गिड़गिड़ाता, रहम की भीख मांगता, मेरे से सुलह करने की ख्वाहिश करता मेरे पास पहुंचेगा ।”
“जो कि तुम उससे कर लोगे ।”
“क्या ?”
“सुलह ।”
वह उलझनपूर्ण भाव से विमल को देखने लगा । विमल का मंतव्य समझने में उसे वक्त लगा । जब वह समझ गया तो बोला - “नहीं । मैं उसे तेरे हवाले कर दूंगा । फिर चाहे तू उसे कच्चा चबा जाना या भूनकर खाना ।”
“हूं । यानी कि तुम उस कैसीनो के मालिक बन जाओ तो तुम्हारी ताकत बहुत बढ सकती है ।”
“ताकत भी और सेफ्टी भी । मैं मुंबई से जलावतन हुए रहने से बच सकता हूं ।”
“तब तुम उस टापू पर बस जाओगे ?”
“हां ।”
“पाकिस्तान सरकार को कोई एतराज नहीं होगा ?”
“नहीं होगा । उन्हें अपना रकम से मतलब होगा जो कि उन्हें खामखाह मिल रही है । इसके अलावा उन्होंने उस नन्हे-से टापू से कुछ लेना-देना नहीं । ऊपर से मुझे उम्मीद है कि वो लोग अपने मुसलमान भाई का लिहाज करेंगे ।”
“जैसा वो दूसरे मुसलमान भाई बादशाह अब्दुल का कर रहे हैं ?”
“हां ।”
“बन क्यों नहीं जाते हो मालिक ?”
“अगर यह काम इतना आसान होता तो मैं आज तक इंतजार कर रहा होता ?”
“क्या मुश्किल है ?”
“बादशाह मेरी सूरत से इतनी अच्छी तरह से वाकिफ है कि मैं टापू के पास भी नहीं फटक सकता ।”
“अपने इस लेफ्टीनेंट को” - विमल ने भट्टी की तरफ इशारा किया - “भेज दो ।”
“मेरे सब आदमी बादशाह के जाने-पहचाने हैं । हममें से कोई टापू के पास भी फटकेगा तो गोली से उड़ा दिया जाएगा । ‘कंपनी’ का जो कहर नाजिल होगा सो अलग ।”
“तो ?”
“तू अभी अपने आपको सोहल बता रहा था । सोहल जैसी” - कालिया के स्वर में एकाएक चैलेंज का पुट आ गया - “जरा भी सूरमाई तेरे में है तो इस काम को तू करके दिखा ।”
“मैं ?”
“तू बाहर का आदमी है । तुझे यहां या स्वैन नैक प्वांइट पर कोई जानता-पहचानता नहीं । अगर तेरे भेजे में भूसा नहीं भरा तो कोई तरकीब लगा और इस काम को करके दिखा ।”
“अकेले ?”
“तुझे मदद मुहैया करा दी जाएगी ।”
“ऐसे आदमियों की जिनकी बाबत तुम अभी कहकर हटे हो कि वे टापू के करीब भी फटकेंगे तो पहचान लिए जाएंगे । यानी कि तुम्हारी मुहैया कराई मदद के साथ मैं वहां जाऊं और गेहूं के साथ घुन की तरह पिस जाऊं । इतना अहमक मैं नहीं, खलीफा ।”
कालिया ने भट्टी की तरफ देखा । कुछ क्षण दोनों में कुछ इशारेबाजी चली और खुसर-पुसर हुई ।
“तू” - फिर कालिया बोला - “अपने मनमाफिक आदमी खुद तलाश कर ले ।”
“ऐसे आदमियों की खिदमत की फीस बहुत ऊंची होती है ।”
“वो फीस में भरूंगा । और भी जो कोई इंतजाम तू चाहेगा, जो सलाहियात तू मांगेगा मैं दूंगा ।”
“वहां से लूटी हुई दौलत का क्या होगा ?”
कालिया ने घूरकर उसकी तरफ देखा ।
विमल ने उसके घूरने की जरा भी परवाह नहीं की ।
“फिफ्टी-फिफ्टी ।” - फिर कालिया बोला ।
“मेरा फिफ्टी कितना होगा ?”
“जितना भी होगा बेशुमार होगा ।”
“फिर भी कोई अंदाजा ?”
“उस कैसीनो में लाखों के दांव लगते हैं इससे जाहिर है कि लूट का रुपया करोड़ों में होगा ।”
“यानी कि बादशाह वहां से हुई कमाई वहीं रखता होगा ?”
“ऐसा तो वो नहीं करता होगा ।” - कालिया को कबूल करना पड़ा - “अपनी कमाई तो वो जरूर किसी स्विस बैंक में रखता होगा लेकिन फिर भी वहां बहुत नावां होगा । कैसीनो को चलाने के लिए जो रकम दरकार होती है...”
“वर्किग कैपीटल ।” - भट्टी बोला ।
“...वो भी कुछ कम न होगी । आखिर वो रोज तो स्विस बैंक में जमा कराने के लिए रकम नहीं भेजता होगा ।”
“किसी रकम का नाम लो । अपना कोई अंदाजा बताओ ।”
“दो-तीन करोड़ रुपया तो एकमुश्त वहां होता ही होगा ।”
“ये तुम्हारा ज्यादा-से-ज्यादा अंदाजा है या कम-से-कम ?”
“किस फिराक में है भई तू ?” - कालिया संदिग्ध भाव से उसे घूरता हुआ बोला ।
“मैंने एक मामूली सवाल पूछा है ।”
“तो जवाब है ज्यादा-से-ज्यादा ।”
“कम-से-कम ?”
“दो करोड़ ।” - फिर कालिया ने जल्दी से संशोधन किया - “एक करोड़ ।”
“जिसको फिफ्टी-फिफ्टी किया जाए तो मेरे हिस्से में पचास लाख रुपया आएगा ।”
“हां ।”
“गारंटी करो ।”
“किस बात की ?”
“पचास लाख की ।”
“क्या मतलब ?”
“अगर वहां से हासिल माल में मेरा हिस्सा पचास लाख न बना तो कमीबेशी की भरपाई तुम्हें अपने हिस्से से करनी पड़ेगी ।”
“क्या बकता है ?”
“और अगर तुम्हारा हिस्सा इस काम के लिए नाकाफी हुआ तो अपने पल्ले से करनी पड़ेगी ।”
“क्या बकता है ?”
“मैंने पहले ही कहा था कि मैं कोई वालंटियर नहीं हूं ।”
“लेकिन... लेकिन...।”
“चलो यूं सही । तुम इस काम की मेरी फीस पचास लाख रुपए मान लो । नफा-नुकसान सब तुम्हारा ।”
“मतलब ?”
“मतलब यह कि अगर तुम्हारे पहले अंदाजे के मुताबिक वहां से दो-तीन करोड़ रुपए की रकम बरामद हुई तो भी मेरा हिस्सा पचास लाख रुपया, अगर वहां से फूटी कौड़ी हाथ न आई तो भी मेरा हिस्सा पचास लाख रुपया । बोलो मंजूर ?”
कालिया और भट्टी दोनों एक-दूसरे का मुंह देखने लगे ।
विमल लापरवाही से पाइप के कश लगाता रहा ।
“मंजूर ।” - आखिरकार कालिया बोला ।
“मेरा हिस्सा या फीस पचास लाख रुपया ?”
“हां ।”
“हर हाल में गारंटीड ?”
“हां ।”
“जमा ऊपरी खर्चे ।”
“ऊपरी खर्चे ?” - कालिया सकपकाया ।
“क्या नहीं होंगे ? लड़ाई वहां क्या ईंट-पत्थरों से लड़ी जाएगी ? समुद्र में साठ मील दूर टापू पर क्या तैरकर पहुंचा जाएगा ?”
“ठीक है । मोटरबोट, हथियार, असला जो कुछ भी चाहिए वो मेरे जिम्मे ।”
“जमा उन आदमियों की उजरत जिन्हें मैं भरती करूंगा ।”
“बशर्ते कि वो उजरत खुद तेरी उजरत से मैच करती हुई न हो ।”
“नहीं होगी ।”
“उसकी कोई हद मुकर्रर कर ।”
“दस लाख ।”
“कमी-बेशी का जिम्मेदार तू ?”
“हां ।”
“फिर यह भी मंजूर ।”
“गुड ।”
“कुल जमा साठ लाख रुपया और ऊपरी खर्चों की मेरी जिम्मेदारी की शर्तों पर तू यह काम करेगा ।”
“अगर करूंगा तो ।”
“क्या मतलब ?” - कालिया अचकचाया ।
“काम होने लायक होगा तभी तो करूंगा । यूं ही खुदकशी करने तो मैं उस टापू पर पहुंच नहीं जाऊंगा ।”
“यानी तू पहले टापू को परखेगा ?”
“जाहिर है ।”
“हूं ।”
“उसके बाद मैं तुम्हें अपना फाइनल जवाब दूंगा । अगर मेरा जवाब हां में हुआ तो जो शर्तें अभी हमने डिसकस की है, उन पर सौदा पक्का ।”
“और अगर तुम्हारा जवाब न में हुआ तो ?”
“तो समझ लेना हम दोनों एक-दूसरे के मतलब के आदमी नहीं । तो समझ लेना कि यह मुलाकात हुई ही नहीं ।”
“वो समझ की जरूरत नहीं । कंपनी को हिट करने के लिए तब हम कोई नई तरकीब सोच लेंगे ।”
“गुड !” - विमल ने अपना विस्की का गिलास खाली किया - “तो अब मुझे इजाजत है ?”
“तेरा पता-ठिकाना क्या है ?”
“बड़ौदा के करीब उधना नाम की एक जगह है, वहां...”
“अरे, मैं तेरा बंबई का पता-ठिकाना पूछ रहा हूं ।”
“अभी यहां मेरा कोई पक्का पता-ठिकाना नहीं । अभी तो मैं भटक रहा हूं । छुपता फिर रहा हूं ।”
“हम बना दें ?”
“सेफ ?”
“जाहिर है ।”
“फिर मुझे क्या एतराज होगा !”
“तेरे से कांटैक्ट कैसे होगा ?”
“फिलहाल तो मैं ही कांटैक्ट करूंगा ।”
“कहां ?”
“भिंडी बाजार की ट्रेवल एजेंसी वाले नंबर पर ।”
कालिया सकपकाया । उसने भट्टी की तरफ देखा ।
“थिल्लू से जाना होगा ?” - भट्टी बोला ।
विमल मुस्कराया । उसने मेज पर से अपनी नकली दाढी-मूंछ, कांटैक्ट लैंस और चश्मा उठा लिया ।
“कहीं शीशा होगा ?” - वह बोला ।
“उधर” - भट्टी एक बंद दरवाजे की ओर इशारा करता हुआ बोला - “बाथरूम है ।”
“विमल उठकर बाथरूम में चला गया ।”
“इसके पीछे कोई होशियार आदमी लगा” - कालिया जल्दी से बोला - “जो मालूम करके आए कि ये कहां जाता है और इसके साथ और कौन है ।”
भट्टी सहमति में सिर हिलाता हुआ फौरन बाहर को लपका ।
कुछ क्षण बाद वापिस लौटकर वह अभी अपनी जगह पर बैठा ही था कि सोहल बाथरूम से बाहर निकला । लंबे डग भरता हुआ वह उनके करीब पहुंचा और फिर बोला - “मैं यहां तक बिस्कुटी रंग की सैकेंड हैंड फियेट में आया था जिसका नंबर एमआरए-3194 है । वापिस भी उसी पर जाऊंगा । यहां से मैं सीधा जुहू जाऊंगा । इतनी रात गए रास्ते में उजाड़ सड़कों पर आपके आदमियों को डाज देना...”
“हमारे आदमी ?” - कालिया बड़ी मासूमियत से बोला ।
“जिन्हें आप लोग अभी मेरे पीछे लगाएंगे । उन्हें रास्ते में डाज देना मुश्किल होगा इसलिए ये काम मैं जुहू पहुंचकर करूंगा ।”
“लेकिन हमारा तो...”
“जुहू में मैं होटल सी व्यू जाऊंगा जिससे आपके आदमी कूदकर इस नतीजे पर पहुंच जाएंगे कि मेरा ‘कंपनी’ से कोई गठजोड़ है । वहां मेरी कोशिश उन्हें यही जताना होगी कि मैं वहीं ठहरा हुआ हूं । जब वे लोग इस इनाम के काबिल जानकारी के साथ वापिस लौट जाएंगे तो मैं होटल से निकलकर किसी सेफ ठिकाने पर पहुंच जाऊंगा ।”
“तेरे पीछे आदमी लगाने का हमारा कोई इरादा नहीं है ।”
“हो भी तो क्या फर्क पड़ता है ? मैंने अपना प्रोग्राम आपको इसलिए बताया है कि कहीं सड़क पर मैं और आपके आदमी बिछुड़ जाएं तो मुझे दोबारा तलाश कर लेने में उन्हें कोई दिक्कत न हो । यहां से निकलकर मैं मौलाना आजाद रोड पकड़कर जेकब सर्कल पहुंचूंगा । वहां से हेनस रोड और फिर तुलसी पाइप रोड पकड़कर सीधे माहिम काजवे । फिर आगे घोड़बंदर रोड़ और फिर जुहू जहां का प्रोग्राम मैं पहले ही...”
“अरे क्यों मेरे दिमाग की पावभाजी बना रहा है ! बोला न तेरे पीछे आदमी लागने का हमारा कोई इरादा नहीं ।”
विमल मुस्कराया ।
“अब एक आखिरी मेहरबानी और हो जाए ।” - वह बोला - “मेरी रिवॉल्वर मुझे वापिस मिल जाए ।”
कालिया ने बिना हुज्जत विमल की रिवॉल्वर उसे लौटा दी ।
फिर विमल ने बड़ी गर्मजोशी से दोनों से हाथ मिलाया और वहां से विदा हो गया ।
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