इंस्पेक्टर फरीदी
सारे घर में मातम छा गया। क़स्बे के थाने को सूचना मिल गयी थी और उस वक़्त एक सब-इन्स्पेक्टर और दो हेड कॉन्स्टेबल मृत महिला के कमरे के सामने बैठे खुसुर-फुसुर कर रहे थे। नौकरानी के बयान पर उन्होंने अपने दिमाग़ी घोड़े दौड़ाने शुरू कर दिये थे। उनके ख़याल में वही सन्दिग्ध आदमी क़ातिल था जो रात को बाग़ में आया था और सविता देवी रात में उसी से झगड़ा कर रही थीं। डॉक्टर शौकत उनकी बातों से सन्तुष्ट नहीं था। जैसे-जैसे वे अपनी तजरुबेकारी का इज़हार कर रहे थे, उसका ग़ुस्सा बढ़ता जा रहा था। वैसे भी वह अपने क़स्बे की पुलिस को नाकारा समझता था। इसीलिए उसने खुफ़िया डिपार्टमेंट के इन्स्पेक्टर फ़रीदी को एक निजी ख़त लिख कर बुलवा भेजा था। फ़रीदी उन चन्द इन्स्पेक्टरों में से था जो बहुत ही अहम कामों के लिए बुलाया जाता था, लेकिन निजी सम्बन्धों के चलते डॉक्टर शौकत को पूरा यक़ीन था कि यह केस सरकारी तौर पर उसे न भी सौंपा गया, तो भी वह उसे अपने हाथ में ले लेगा।
लगभग दो घण्टे के बाद इन्स्पेक्टर फ़रीदी अपने असिस्टेंट सार्जेंट हमीद के साथ वहाँ पहुँच गया। इन्स्पेक्टर फ़रीदी तीस-बत्तीस साल का एक तेज़ दिमाग़ और बहादुर जवान था। उसके चौड़े माथे के नीचे दो बड़ी-बड़ी आँखें उसकी क़ाबिलियत को नुमायाँ करती थीं। उसके लिबास के रख-रखाव और ताज़ा शेव किये चेहरे से मालूम हो रहा था वह एक उसूल वाला आदमी है। सार्जेंट हमीद की चाल-ढाल में थोड़ा-सा ज़नानापन था। उसके अन्दाज़ से मालूम होता था कि वह ज़बर्दस्ती अपने हुस्न की नुमाइश करने का आदी था। उसने कोई बहुत ही तेज़ ख़ुशबू वाला सेंट लगा रखा था। उसकी उम्र चौबीस साल से ज़्यादा न थी, लेकिन इस छोटी-सी उम्र में भी वह बहुत चतुर और बुद्धिमान था।
इसी बुद्धिमानी की बिना पर उसके साथ इन्स्पेक्टर फ़रीदी के ताल्लुक़ात दोस्ताना थे। दोनों की आपस की गुफ़्तगू से अफ़सरी या मातहती का पता लगाना मुमकिन नहीं तो मुश्किल ज़रूर था।
थाने के सब-इन्स्पेक्टर और दीवान उनके अचानक आ जाने से घबरा गये, क्योंकि उन्हें उनके आने की ख़बर नहीं थी। उन्हें उनका आना बुरा लगा।
‘‘डॉक्टर शौकत...!’’ फ़रीदी ने अपना हाथ बढ़ाते हुए कहा- ‘‘इस नुक़सान की भरपाई नामुमकिन है, लेकिन रस्मी तौर पर मैं अपने ग़म का इज़हार ज़रूर करूँगा।’’
‘‘इन्स्पेक्टर, आज मेरी माँ मर गयी।’’ शौकत की आँखों में आँसू छलक आये।
‘‘सब्र करो...तुम्हें एक मज़बूत दिल का आदमी होना चाहिए।’’ फ़रीदी ने उसके कन्धे पर हाथ रखते हुए कहा।
‘‘कहिए दारोग़ा जी, कुछ सुराग़ मिला?’’ उसने सब-इन्स्पेक्टर की तरफ़ मुड़ कर पूछा।
‘‘अरे साहब! हम बेचारे भला सुराग़ क्या जानें।’’ सब-इन्स्पेक्टर ने बड़े स्टाइल से जवाब दिया।
फ़रीदी ने जवाब की कड़वाहट महसूस ज़रूर की, लेकिन वह सिर्फ़ मुस्कुरा कर ख़ामोश हो गया।
‘‘शौकत साहब! यह तो आप जानते ही हैं कि मैं आजकल छुट्टी पर हूँ।’’ फ़रीदी बोला, ‘‘और फिर दूसरी बात यह कि आम तौर पर क़त्ल के केस उस वक़्त हमारे पास आते हैं जब सिविल पुलिस छान-बीन में नाकाम रहती है।’’
थाने के सब-इन्स्पेक्टर की आँखें ख़ुशी से चमक उठीं।
इन्स्पेक्टर फ़रीदी ने सब-इन्स्पेक्टर की ख़ुशी को महसूस किया और अपने जाने-पहचाने अन्दाज़ में बोला, ‘‘लेकिन मैं निजी तौर पर इस केस को अपने हाथ में लूँगा।’’ थाने के सब-इन्स्पेक्टर की आँखों की चमक एकदम से ग़ायब हो गयी, उसका मुँह लटक गया।
फ़रीदी ने पूरा क़िस्सा सुनने के बाद नौकरानी का बयान लेना शुरू किया। नौकरानी ने शुरू से आखिर तक रात की सारी कहानी दोबारा सुना दी।
‘‘क्या तुम बता सकती हो कि रात में तुमने इस हादसे के बाद भी कोई आवाज़ सुनी थी?’’
‘‘जी नहीं...मैंने सिर्फ़ देवीजी के बड़बड़ाने की आवाज़ सुनी थी। वे अकसर सोते वक़्त बड़बड़ाया करती थीं।’’
हूँ...क्या तुम बता सकती हो कि वे क्या बड़बड़ा रही थीं?’’
‘‘कुछ बेकार की बातें बड़बड़ाती थीं। ठहरिए, याद करके बताती हूँ।’’ कुछ देर सोचने के बाद वह बोली, ‘‘हाँ, ठीक याद आया...वे राजरूप नगर...राजरूप नगर बड़बड़ा रही थीं। मैंने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया, क्योंकि मैं उनकी आदत जानती थी।’’
‘‘राजरूप नगर...!’’ फ़रीदी ने धीरे से दुहराया और कुछ सोचने लगा।
‘‘हमीद...तुमने इससे पहले भी यह नाम सुना है?’’
हमीद ने ‘‘नहीं’’ में सिर हिला दिया।
‘‘डॉक्टर शौकत, तुमने।’’
‘‘मैंने तो आज तक नहीं सुना।’’
‘‘क्या सविता देवी ने भी यह नाम कभी नहीं लिया?’’
‘‘मेरी याददाश्त में तो नहीं।’’ डॉक्टर शौकत ने ज़ेहन पर ज़ोर देते हुए जवाब दिया।
‘‘हूँ...अच्छा...!’’ फ़रीदी ने कहा—‘‘अब मैं ज़रा लाश को देखना चाहता हूँ।’’
सब लोग उस कमरे आये जहाँ लाश पड़ी हुई थी। चारपाई के सिरहाने वाली खिड़की खुली हुई थी। उसमें सलाख़ें नहीं थीं। इन्स्पेक्टर फ़रीदी देर तक लाश का मुआइना करता रहा। फिर उसने वह छुरा सब-इन्स्पेक्टर की इजाज़त से लाश के सीने से खींच लिया और उसके हत्थे पर उँगलियों के निशान ढूँढने लगा।
फिर खिड़की की तरफ़ गया और झुक कर नीचे देखने लगा। खिड़की से तीन फ़ुट नीचे लगभग एक फ़ुट चौड़ी कॉर्निस थी, जिससे बाँस की एक सीढ़ी टिकी हुई थी। खिड़की पर पड़ी हुई धूल कई जगह से साफ़ थी और एक जगह पाँचों उँगलियों के निशान साफ़ देखे जा सकते थे।
‘‘यह तो साफ़ ज़ाहिर है कि क़ातिल इस खिड़की से आया था।’’ फ़रीदी ने कहा।
‘‘यह तो इतना साफ़ है कि घर की नौकरानी भी यही कह रही थी।’’ थाने के सब-इन्स्पेक्टर ने मज़ाक में कहा।
फ़रीदी ने मुस्कुरा कर उसकी तरफ़ देखा और फिर ख़ामोशी से ख़ंजर का जायज़ा लेने लगा।
‘‘क़ातिल ने दस्ताने पहन रखे थे और वह एक बेहतरीन ख़ंजरबाज़ मालूम होता है।’’ इन्स्पेक्टर फ़रीदी बोला। ‘‘और वह एक ताक़तवर इन्सान है...दरोग़ा जी इस ख़ंजर के बारे में आपकी क्या राय है।’’
‘‘ख़ंजर...जी हाँ, यह भी बहुत मज़बूत मालूम होता है।’’ सब-इन्स्पेक्टर मुस्कुरा कर बोला।
‘‘जी नहीं...मैं इसकी बनावट के बारे में पूछ रहा हूँ।’’
‘‘इसकी बनावट के बारे में सिर्फ़ लुहार ही बता सकते हैं।’’
‘‘जी नहीं...मैं भी बता सकता हूँ। इस क़िस्म के ख़ंजर नेपाल के अलावा और कहीं नहीं बनते।’’
‘‘नेपाल...!’’ डॉक्टर शौकत को जैसे झटका लगा और वह एक क़दम पीछे हट गया।
‘‘क्यों...क्या हुआ?’’ फ़रीदी उसे घूरता हुआ बोला।
‘‘कुछ नहीं।’’ शौकत ने ख़ुद पर क़ाबू पाते हुए कहा।
‘‘ख़ैर। हाँ तो मैं यह कह रहा था कि इस क़िस्म के ख़ंजर सिवा नेपाल के और कहीं नहीं बनाये जाते और डॉक्टर, मैं तुमसे कहूँगा कि...!’’ अभी वह इतना ही कह पाया था कि एक कॉन्स्टेबल ने आ कर ख़बर दी कि उस शख़्स का पता लग गया है जिससे कल रात सविता देवी का झगड़ा हुआ था।
सब लोग तेज़ी से दरवाज़े की तरफ़ बढ़े। बाहर एक कॉन्स्टेबल खड़ा था। आने वाले कॉन्स्टेबल ने बताया कि रात सविता देवी उसी से झगड़ रही थीं। वह रात में इस तरफ़ से गुज़र रहा था कि सविता देवी ने उसे पुकारा। उसे जल्दी थी, क्योंकि वह गश्त पर जा रहा था। लेकिन वह फिर भी चला आया। सविता देवी ने उसे बताया कि कोई आदमी उनकी मुर्गियों की ताक में है और हमसे इधर का ख़याल रखने को कहा। उसने जवाब दिया कि पुलिस मुर्गियाँ ताकने के लिए नहीं है और फिर वह दूसरी चौकी का कॉन्स्टेबल है, उसी पर बात बढ़ गयी और झगड़ा होने लगा।
थाने का दारोग़ा उसे अलग ले जा कर पूछ-ताछ करने लगा और फ़रीदी ने बुलन्द आवाज़ में कहना शुरू किया। ‘‘हाँ तो डॉक्टर, मैं तुमसे यह कह रहा था कि यह ख़ंजर दरअसल तुम्हारे सीने में होना चाहिए था। सविता देवी धोखे में क़त्ल हो गयीं और जब क़ातिल को अपनी ग़लती का पता चलेगा तो वह फिर तुम्हारे पीछे पड़ जायेगा। अब फिर उसी कमरे में चल कर मैं इसका ख़ुलासा करूँगा।’’
इस बात पर सब-के-सब बौखला गये। शौकत घबराहट में जल्दी-जल्दी पलकें झपका रहा था। दारोग़ा जी की आँखें हैरत से फटी हुई थीं और सार्जेंट हमीद उन्हें मज़ाक़िया तौर पर घूर रहा था।
सब लोग फिर लाश वाले कमरे में वापस आये। इन्स्पेक्टर फ़रीदी खिड़की की कॉर्निस पर उतर गया और लाइन से सारे कमरों की खिड़कियों को देख कर लौट आया।
अब मामला बिलकुल ही साफ़ हो गया कि सविता देवी डॉक्टर ही के धोखे में क़त्ल हुई थीं। ‘‘अगर क़ातिल सविता देवी को क़त्ल करना चाहता था तो उसे यह कैसे मालूम हो सकता था कि सविता देवी शौकत के कमरे में सोयी हुई थीं।’’ इन्स्पेक्टर फ़रीदी ने कहा। ‘‘अगर वह तलाश करता हुआ इस कमरे तक पहुँचा था तो दूसरी खिड़कियों पर भी इस क़िस्म के निशान होने चाहिएँ थे जैसे कि इस खिड़की पर मिले हैं और फिर सविता देवी के क़त्ल की सिर्फ़ एक ही वजह हो सकती थी—उनकी जायदाद। लेकिन अगर उसका फ़ायदा उनके किसी रिश्तेदार को पहुँचता तो वह उन्हें अब से दस बरस पहले ही क़त्ल कर देता या करा देता, जब उन्होंने अपनी जायदाद धर्मशाला के नाम लिखने का सिर्फ़ इरादा ही ज़ाहिर किया था। अब जबकि दस साल गुज़र चुके हैं और जायदाद के बारे में क़ानूनी वसीयत की कार्रवाई पूरी हो चुकी थी, उनके क़त्ल की कोई ठीक-ठाक वजह समझ में नहीं आ सकती थी। अगर क़ातिल चोरी की नीयत से अचानक इस कमरे में दाख़िल हुआ था, जिसमें वे सो रही थीं तो क्या वजह है कि कोई चीज़ चोरी नहीं गयी।’’
‘‘हो सकता है कि इस कमरे में उसके दाख़िल होते ही सविता देवी जाग उठी हों और वह पकड़े जाने के ख़ौफ़ से उन्हें क़त्ल करके कुछ चुराये बग़ैर ही भाग खड़ा हुआ।’’ दारोग़ा जी ने अपना दिमाग़ी तीर मारा।
‘‘माई डियर...!’’ फ़रीदी जोश में बोला, ‘‘मैं साबित कर सकता हूँ कि क़ातिल हमले के बाद काफ़ी देर तक इस कमरे में ठहरा रहा।’’
सब-इन्स्पेक्टर के चेहरे पर कँटीली मुस्कुराहट फैल गयी और सार्जेंट हमीद उसे दाँत पीस कर घूरने लगा।
इन्स्पेक्टर फ़रीदी ने कहना शुरू किया। ‘‘जिस वक़्त शौकत ने लाश को देखा, वह सिर से पैर तक कम्बल से ढँकी हुई थी। ज़ाहिर है कि इससे पहले कोई कमरे में दाख़िल भी न हो सकता था, क्योंकि दरवाज़ा अन्दर से बन्द था। लिहाज़ा लाश पर पहले शौकत ही की नज़र पड़ी। इसलिए किसी और के मुँह ढाँकने का सवाल ही पैदा नहीं होता। अब ज़रा लाश के क़रीब आइए...दारोग़ा जी, मैं आपसे कह रहा हूँ। यह देखिए लाश का निचला होंट दाँतों में दब कर रह गया है। इससे साफ़ ज़ाहिर होता है कि क़ातिल ने एक हाथ से सविता देवी का मुँह दबाया था और दूसरे हाथ से वार किया था। फिर फ़ौरन ही मुँह दबाये हुए इनके पैरों पर बैठ गया था ताकि ये हिल न सकें और वह इस हालत में उस वक़्त तक रहा जब तक कि इन्होंने दम न तोड़ दिया। होंट का दाँतों में दबा होना ज़ाहिर कर रहा है कि ये तकलीफ़ के कारण सिर्फ़ इतना कर सकीं कि इन्होंने दाँतों में होंट लिया, लेकिन क़ातिल के हाथ के दबाव की वजह से होंट फिर अपनी असली हालत पर न आ सका और इसी हालत में लाश ठण्डी हो गयी। क़ातिल को अपने मक़सद की कामयाबी पर इतना यक़ीन था कि उसने कम्बल उलट कर अपने शिकार का चेहरा तक देखने की ज़हमत गवारा न की। हो सकता है कि उसने बाद में मुँह खोल कर देखा भी हो।’’ इन्स्पेक्टर फ़रीदी रुका, लेकिन फिर कुछ सोच कर बोला, ‘‘मगर नहीं, अगर ऐसा करता तो फिर दोबारा ढँक देने की कोई ऐसी ख़ास वजह समझ में नहीं आती।’’
‘‘शायद यह ख़ुदकुशी का केस हो।’’ सब-इन्स्पेक्टर ने फिर अपनी क़ाबिलियत दिखायी।
‘‘जनाबे आला...!’’ सार्जेंट हमीद बोला, ‘‘इतनी उम्र हो गयी, लेकिन कम्बल ओढ़ कर आराम से ख़ंजर घोंप लेने वाला एक भी न मिला कि मैं उसकी क़द्र कर सकता।’’
सब-इन्स्पेक्टर ने झेंप कर सिर झुका लिया।
इन्स्पेक्टर फ़रीदी इन सब बातों को सुनी-अनसुनी करके डॉक्टर शौकत से बोला।
‘‘डॉक्टर...तुम्हारी जान ख़तरे में है। यह प्लान तुम्हारे ही क़त्ल के लिए बनाया गया था। सोच कर बताओ, क्या तुम्हारा कोई ऐसा दुश्मन है जो तुम्हारी जान तक ले लेने में क़सर नहीं छोड़ेगा।’’
‘‘मेरी याददाश्त में तो कोई ऐसा आदमी नहीं। आज तक मेरे सम्बन्ध किसी से ख़राब नहीं रहे; लेकिन ठहरिए...आपको याद होगा कि मैं नेपाली ख़ंजर की बात पर अचानक चौंक पड़ा था...तक़रीबन पन्द्रह दिन पहले की बात है, एक रात मैं एक बहुत ही ख़तरनाक क़िस्म का ऑपरेशन करने जा रहा था कि एक अच्छी हैसियत का नेपाली मेरे पास आया और मुझसे बोला कि मैं उसी वक़्त एक मरीज़ को देख लूँ जिसकी हालत नाज़ुक थी। मैंने मजबूरी ज़ाहिर की तो वह रोने और गिड़गिड़ाने लगा। लेकिन मैं मजबूर था, क्योंकि पहले ही से एक ख़तरनाक केस मेरे पास था। ख़तरा था कि उसी रात उसका ऑपरेशन न किया तो मरीज़ की मौत हो जायेगी। आखिर जब वह नेपाली उदास हो गया तो मुझे बुरा-भला कहते हुए वापस चला गया। दूसरे दिन सुबह जब मैं हस्पताल जा रहा था तो चर्च रोड के चौराहे पर पेट्रोल लेने के लिए रुका। वहाँ मुझे वही नेपाली नज़र आया। मुझे देख कर उसने नफ़रत से बुरा-सा मुँह बनाया और अपनी ज़बान में कुछ बड़बड़ाता हुआ मेरी तरफ़ बढ़ा और मुक्का तान कर कहने लगा। ‘‘‘‘शाला...हमारा आदमी मर गया। अब हम तुम्हारी ख़बर ले लेगा।’’ मैंने हँस कर मोटर स्टार्ट की और आगे बढ़ गया।’’
‘‘हूँ...अच्छा...!’’ फ़रीदी बोला। ‘‘उसकी शक्ल-सूरत के बारे में कुछ बता सकते हो?’’
‘‘यह ज़रा मुश्किल है, क्योंकि मुझे तो सारे नेपाली एक ही जैसी शक्ल-सूरत के लगते हैं।’’ डॉक्टर शौकत ने जवाब दिया।
‘‘‘‘ख़ैर, अपनी हिफ़ाज़त का ख़ास ख़याल रखो...अच्छा दरोग़ा जी, मेरा काम ख़त्म...डॉक्टर शौकत, मैंने तुमसे वादा किया था कि इस केस को मैं अपने हाथ में लूँगा, लेकिन मुझे अफ़सोस है कि मैं ऐसा नहीं कर सकता। मेरा ख़याल है कि दारोग़ा जी इस काम को बख़ूबी अंजाम देंगे। अच्छा, अब मैं जाना चाहूँगा। हाँ डॉक्टर, ज़रा कार तक चलो, मैं तुम्हारी, हिफ़ाज़त के लिए तुम्हें कुछ हिदायतें देना चाहता हूँ...अच्छा दारोग़ा जी, आदाब अर्ज़ ।’’
कार के क़रीब पहुँच कर फ़रीदी ने जेब से एक छोटी-सी पिस्तौल निकाली और डॉक्टर शौकत को थमा दी। ‘‘यह लो,’’ वह बोला, ‘‘हिफ़ाज़त के लिए मैं तुम्हें यह देता हूँ...और कल तक इस का लाइसेन्स भी तुम तक पहुँच जायेगा।’’
‘‘जी नहीं...शुक्रिया, इसकी ज़रूरत नहीं...!’’ डॉक्टर शौकत ने मुँह फुला कर जवाब दिया।
‘‘बेव़कूफ़ आदमी, बिगड़ गये क्या...? क्या सचमुच तुम समझते हो कि मैं इस केस की खोज-बीन नहीं करूँगा। हाँ, उन गधों के सामने मैंने यह केस अपने हाथ में लेने से इनकार कर दिया। ये कमबख़्त सिर्फ़ बड़े अफ़सरों तक शिकायत पहुँचाने ही के क़ाबिल होते हैं।’’ डॉक्टर शौकत के चेहरे पर रौनक़ आ गयी और उसने पिस्तौल ले कर जेब में डाल ली।
‘‘देखो, जब भी कोई ज़रूरत हो, मुझे बुलवा लेना। हो सकता है कि मैं दस बजे रात तक फिर आऊँ। लेकिन तुम होशियार रहना...अच्छा, ख़ुदा हाफ़िज़।’’
ड्राइवर ने कार स्टार्ट कर दी। सूरज धीरे-धीरे डूब रहा था।
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