शाम के सात बजे। होटल का वही कमरा।
रंजन, महेश और दीपक के अलावा रूपा भी वहाँ मौजूद थी।
"हम अपने काम में सफल हो रहे हैं।" रूपा ने कहा, "वालिया की नजरें पूरी तरह मुझ पर टिक चुकी हैं। बल्कि लंच के बीच में उसने मुझे यह भी कहा कि हमारा यह लंच जिंदगी भर चलता रहे।"
"तो अब वह तुम पर दाना फेंकेगा कि तुम उस के जाल में फँस जाओ।" रंजन बोला।
"बहुत जल्दी वह ऐसा ही करेगा।"
"लेकिन इस बात का क्या भरोसा कि वह तुमसे क्या चाहता है। हमारी प्लानिंग है कि वह तुमसे शादी कर ले। क्या पता वह बिना शादी के ही तुम्हें हासिल कर लेना चाहते हो। तुम्हें फँसा रहा हो कि...।"
"मेरे ख्याल में ऐसा नहीं है।" रूपा ने गंभीर स्वर में कहा।
"तुम्हारा ख्याल किस आधार पर है?"
"कोई आधार नहीं है।" रूपा ने इनकार में सिर हिलाया, "परन्तु मुझे लगता है कि वह मुझे लेकर गंभीर है।"
"कल तक पता चल जाएगा।" महेश ने कहा, "वह कल तुम्हें फोन अवश्य करेगा।"
"हाँ, मैंने नौकरी लगवाने के लिए उससे जो कहा है।"
"आज मैंने देवली के घर पर निगाह रखी। जगत पाल आज उससे फिर मिलने आया था। उसका बार-बार देवली के पास जाना मुझे समझ नहीं आ रहा है। आखिर देवली के साथ उसका क्या रिश्ता है?" रंजन बोला।
"जो भी रिश्ता हो।" रूपा बोली, "वह दोनों हमारी योजना के बीच नहीं आने वाले। उनके रास्ते अलग है, और हमारे अलग। फिर भी तुम तीनों में से जिसे फुर्सत मिले, वह देवली पर नजर रख लिया करे।"
"वालिया आज भी देवली के पास गया था।"
"कब?" रूपा ने पूछा।
"पाँच बजे के आस-पास का वक़्त था। उसका देवली के पास इतना जाना ठीक नहीं।"
"कोई फर्क नहीं पड़ता। वालिया मेरे जाल में फँसता जा रहा है। मैं धीरे-धीरे सब ठीक कर लूँगी।"
"हम अगली योजना की तैयारी करें?" दीपक ने कहा।
"जल्दी मत करो। पहले यह योजना पूरी हो लेने दो। तब दूसरी योजना के लिए हमारे पास पर्याप्त वक्त होगा।" रूपा ने गंभीर स्वर में कहा, "खेल कोई भी खेला जाए, वह सिर्फ जीतने के लिए खेला जाता है। मैं इस खेल में जीतकर रहूँगी।"
■■■
जगत पाल, रंजन के पीछे-पीछे, अपनी कार में होटल तक आया था। रंजन के पीछे ही उसने कार को पार्किंग में रोका। तब थोड़ा दिन का उजाला मौजूद था। जब रंजन कार से निकलकर, होटल के मुख्य द्वार की तरफ बढ़ा तो जगत पाल ने भरपूर नजरों से उसे देखा, जैसे उसकी तस्वीर आँखों में उतार रहा हो।
इसके साथ ही जगत पाल कार से बाहर निकला और काफी फासला रखते हुए होटल में प्रवेश द्वार की तरफ बढ़ गया। उसका सारा ध्यान रंजन पर था। ऐसे में वह उस कार को ज्यादा तवज्जो न दे पाया जो अभी-अभी पार्किंग में प्रवेश हुई थी। गलती जगत पाल की ही थी जो अचानक पलट गया।
कार उसके जूते पर चढ़ती चली गयी।
जगत पाल के होंठों से छोटी-सी चीख निकली और वह नीचे बैठता चला गया। पाँव में पीड़ा इतनी थी कि जान निकलने लगे रही थी। कार रुकी और चलाने वाला फौरन पास पहुँचा।
"क्या हुआ भाईसाहब, लग गयी क्या?"
"साले तूने मेरा पाँव पूरा तोड़ दिया।" जगत पाल ने गुस्से से कहा।
"मैंने जानबूझकर नहीं किया जनाब। माफी चाहता हूँ। मैं आपको डॉक्टर के पास ले चलता हूँ।"
उस व्यक्ति ने जगत पाल को सहारा दिया। खड़ा किया। दर्द की वजह से पाँव नीचे रखा नहीं जा रहा था।
"ठोक दी तूने तो मेरी।" जगत पाल ने गुस्से से कहा, "चल डॉक्टर के पास। सब कुछ खराब कर दिया तूने।"
"मैंने जानबूझकर नहीं...।"
"ठीक है, ठीक है। सुन लिया। कब मुझे डॉक्टर के पास ले चल। पता तो चले कि कितनी टूट-फुट हुई है।"
■■■
अगले दिन सुबह नौ ही बजे थे। रूपा नहा-धोकर नाश्ता कर रही थी कि उसका फोन बजने लगा।
"हेलो!" रूपा ने बात की।
"कैसी हो?" उसके कानों में अजय वालिया की आवाज पड़ी।
"ओह आप! मेरे लिए नौकरी का इंतजाम कर लिया क्या?" रूपा मुस्कुराकर मीठे स्वर में कह उठी।
"एक नौकरी का इंतजाम किया तो है। अगर तुम्हें पसंद आ जाये तो...।"
"मुझे पसंद आ जायेगी। मुझे नौकरी की सख्त जरूरत है।"
"तुम्हें पसंद आई तो मुझे खुशी होगी। कल हमने जहाँ लंच किया था, तुम वहीं 2 बजे मुझे मिलो।"
"उस रेस्टोरेंट में?"
"हाँ!"
"लेकिन नौकरी तो ऑफिस में...।"
"सब ठीक हो जाएगा। तुम मिलो। 2 बजे।"
"ठीक है!" रूपा ने जानबूझकर लम्बी साँस ली।
"मुझे वहाँ पर तुम्हारा कितना इंतजार करना पड़ेगा?"
"जरा भी नहीं। मैं 2 से दस मिनट पहले पहुँचूंगी।"
"ठीक है। लंच पर मिलते हैं।" कहने के साथ ही उधर से वालिया ने फोन बंद कर दिया था।
रूपा ने फोन रखा और नाश्ते में पुनः व्यस्त हो गयी। उसके चेहरे पर सोच की गंभीरता ठहरी हुई थी।
■■■
रूपा के हाथ में छोटा सा पर्स था। वह जब 2 बजे कल वाले रेस्टोरेंट में पहुँची तो अजय वालिया को उसी टेबल पर अपने इंतजार में बैठा पाया। रूपा ने चेहरे पर दिलकश मुस्कान ओढ़ ली और उसके पास पहुँची।
"तुम सच में वक़्त की पाबंद हो।" वालिया ने मुस्कुराकर कहा।
"नौकरी का सवाल है। वक़्त पर क्यों नहीं पहुँचूंगी।" रूपा बैठते हुए बोली, "तनख्वाह कुछ भी हो, चलेगी। बस मेरे महीने का खर्चा-पानी चल जाना चाहिए। एक-दो घण्टे ज्यादा भी काम करना पड़े तो करूँगी।"
वालिया रूपा को निहारने लगा।
वह सफेद सूती सूट में थी, जिस पर बड़े-बड़े फूल छपे थे। खुले लम्बे बाल। कानों में वही टॉप्स।
कज वालिया को रूपा कल से ज्यादा सुंदर लगी।
"ऐसे क्या देख रहे हैं आप?" रूपा हड़बड़ाकर कह उठी।
"तुम्हें देख रहा हूँ।"
"मुझे?"
"तुम बेहद सुंदर हो। मासूम हो। मेरे दिल के गहराईयों को छू लिया है तुमने।"
"मिस्टर वालिया।"
"प्लीज मुझे कह लेने दो। इस वक़्त मैं तुमसे जो भी बात कह रहा हूँ, बहुत सोच-समझकर कह रहा हूँ।" वालिया एकाएक गंभीर हो गया था, "मैं तुमसे शादी करना चाहता हूँ रूपा।"
"क्या?" रूपा ने हैरान हो जाने का दिखावा किया।
"मैंने जब से तुम्हें देखा है, तभी से जैसे अपना दिल हार चुका हूँ। तुम्हारे अलावा मुझे कुछ भी सूझ नहीं रहा।"
"वह आप क्या कह रहे हैं मिस्टर वालिया?"
"मैं सच कह रहा हूँ। कुछ भी गलत नहीं कह रहा।" अजय वालिया ने अपने शब्दों पर जोर देकर कहा,"मैं तुम्हें अपनी कम्पनी में नौकरी नहीं, कम्पनी की मालकिन बना देना चाहता हूँ।"
"कम्पनी की मालकिन?" रूपा ने हैरानी जाहिर की।
"हाँ!" वालिया गम्भीर था, "तुम अभी भी मेरे बारे में नहीं जानती। मैं वालिया कंस्ट्रक्शन कक मालिक, अजय वालिया हूँ। मेरा अरबों रुपयों का कंस्ट्रक्शन का काम है। अकेला हूँ। माँ-बाप नहीं है। मैं तुमसे प्यार करने लगा हूँ और हर हाल में शादी करना चाहता हूँ। तुम हाँ कहो तो मैं शादी की तैयारियाँ शुरू करूँ।"
रूपा देखती रही वालिया को। उसकी खामोशी पर वालिया बेचैन हो गया।
खामोशी लम्बी होने लगी।
"क्या तुम्हें मैं पसंद नहीं?" वालिया ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा।
"पसंद हो।"
"तो तुम हाँ क्यों नहीं करती?"
"मेरे बारे में आप जानते ही क्या है मिस्टर वालिया?" रूपा ने गंभीर स्वर में कहा।
"जानना जरूरी है क्या?"
"हाँ!"
"क्यों?"
"क्योंकि मैं अपने घर से भागी हुई हूँ।"
"ओह!" वालिया के चेहरे पर अजीब से भाव उभरे, "अगर ऐसा है तो तब भी मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। मुझे तुम पसंद हो तो तुम्हारे घरवालों से मुझे कोई मतलब नहीं।"
रूपा ने अपने हाथ में दबा छोटा सा पर्स खोला और उसमें से अखबार की छोटी सी कटिंग निकालकर वालिया की तरफ बढ़ाते हुए कहा-
"मेरी खुदकुशी का इश्तिहार भी अखबार में छप चुका है।"
वालिया ने वह कागज खोलकर देखा।
किसी अखबार की कटिंग लग रही थी वह। लगता था अखबार के बीच के हिस्से से फाड़ा गया है। उस पर तारीख वगैरा नहीं पड़ी थी। तीन इंच लम्बी और चार इंच चौड़ी जगह पर गुमशुदगी का इश्तिहार छपा था। रूपा की तस्वीर भी छपी हुई थी साथ में। इश्तिहार में छपा था कि रूपा का पता बताने वाले को उचित इनाम दिया जाएगा। नीचे पुलिस स्टेशन के नम्बर दिए गए थे।
अजय वालिया ने वहाँ से नजर हटाकर रूपा को देखा।
"मैं जगन्नाथ सेठी की बेटी रूपा सेठी हूँ।"
"जगन्नाथ सेठी?" वालिया के होंठों से निकला, "जिनका काफी बड़ा कारोबार है? लगभग रोज ही अखबारों में नाम आता है?"
"हाँ, वही मेरे पिता हैं।"
अजय वालिया अविश्वास भरी निगाहों से रूपा को देखने लगा।
"हैरानी हो रही है?" रूपा का स्वर गंभीर था।
"हाँ, कुछ हैरानी तो हुई।"
"मैं जगन्नाथ सेठी की इकलौती औलाद हूँ। अरबों की अकेली ही मालकिन हूँ।"
"और तुम एक छोटी सी नौकरी पाना चाहती हो।" अजय वालिया ने अपने को हैरानी से बाहर निकालने की कोशिश की।
"हाँ!"
"मुझे समझ नहीं आ रहा है कि आखिर तुमने घर क्यों छोड़ा। तुम तो...।"
"मेरी माँ तब चल बसी जब मैं दस बरस की थी।" रूपा ने भारी स्वर में कहा, "उसके बाद पिता की आवारा गर्दियाँ बढ़ती चली गईं। मेरे लाख समझाने पर भी वह नहीं माने। यहाँ तक कि शराबी दोस्तों और औरतों को घर में लाकर रात-रात भर पार्टियाँ होने लगीं। पिता का एक दोस्त तो शराब पीकर रात को मेरे कमरे में आ गया। मैंने धक्का देकर उसे बाहर निकाला। परन्तु मेरे पिता को सही राह पर लाने वाला घर में कोई नहीं था। मेरी वह सुनते नहीं। इन्हीं बातों से तंग आकर मैंने घर से निकल भागना ही ठीक समझा। दिल्ली रहती तो मेरे पिता मुझे तलाश कर सकते थे। इसलिए मैं मुम्बई आ गयी कि नौकरी करके साधारण सी जिंदगी बीता लूँगी।"
"तुम्हारे साथ जो हुआ, उसका मुझे अफसोस है।" अजय वालिया के चेहरे पर सोच दौड़ रही थी, "लेकिन मेरा जो फैसला है वह बदलेगा नहीं। मैं तुम्हें पसंद करने लगा हूँ। तुमसे शादी करना चाहता हूँ।"
"बेहतर होगा कि आप सोच लें और मुझे भी सोचने दें। शादी करना पूरी जिंदगी का सवाल होता है।"
"मैंने फैसला ले लिया है। तुम इस बारे में सोचने के लिए वक़्त चाहती हो तो तुम वक़्त ले सकती हो।" अजय वालिया ने गंभीर स्वर में कहा, "लेकिन यह तो तय है कि मैं शादी करूँगा तो तुमसे, नहीं तो नहीं...।"
■■■
"हमारी सब चालें सीधी पड़ रही हैं।" रंजन ने कहा।
वे तीनों रूपा के साथ उसी होटल के कमरे में थे।
"सीधी इसलिए पड़ रही है कि हम लोग पूरी तैयारी करके मैदान में उतरे हैं।" रूपा बोली।
"एक खतरा भी था। परन्तु अब हम उस खतरे को पार कर चुके हैं।" दीपक बोला।
"कैसा खतरा?" रंजन ने दीपक को देखा।
"अगर वालिया रूपा को देखकर मोहित न होता तो हमारी सारी मेहनत बेकार चली जाती।"
"फिर कुछ और सोचते।"
"मुझे पूरा विश्वास था कि वालिया मेरा दीवाना हो जाएगा। मैं मर्दों को अच्छी तरह जानती हूँ। खुद तो वह दस जगह मुँह मारेंगे लेकिन पत्नी ऐसी चाहेंगे जो गाय बनी उसके दरवाजे पर बंधी रहे और खामोशी से दूध देती रहे।" रूपा के होंठों पर शांत सी मुस्कान थिरक उठी, "तुम तीनों तो कुछ ही वक़्त से इस मामले पर मेरे साथ हो लेकिन मैं तो कब से वालिया पर नजर रखवा रही थी। उसके हर हरकत की रिपोर्ट मुझे मिलती रही। सब कुछ सामने रखकर, सोच-समझकर ही मैंने प्लान बनाया था। वालिया को मैं गाय के तौर पर पसंद आ गयी, जिसे कि वह खूँटे से बाँध सकता है।
"लेकिन वह यह नहीं जानता कि यह गाय साँप से भी खतरनाक होगी उसके लिए।"
रूपा ने तीनों पर नजर मारी फिर गंभीर होकर बोली-
"आगे का वक़्त कठिनाईयों भरा है। किसी भी कदम पर वालिया मुझे पर शक कर सकता है। लेकिन मैं सतर्क रहूँगी। एक बार वालिया के सामने महेश को ऐसे इंसान के रूप में पेश करूँगी कि जिसने मुझे जगन्नाथ की बेटी के तौर पर पहचान लिया है और यह जगन्नाथ को मेरे बारे में खबर देने को उतावला हो रहा है कि इनाम मिलेगा।"
"इससे क्या फायदा होगा?"
"वालिया को मेरी बात पर अच्छी तरह यकीन आ जायेगा कि मैं जो कह रही हूँ, वह सही है।"
"क्या अभी उसे यकीन नहीं तुम्हारी बात पर?"
"यकीन है। परन्तु ऐसा करने पर उसके यकीन पर पक्का ठप्पा लग जायेगा।"
"सब कुछ ठीक चल रहा है। जगन्नाथ सेठी को बीच में न लाती तब भी ठीक रहता।"
"जरूरी था ऐसा करना।"
"क्यों?"
"क्योंकि वालिया ने अपना सारा पैसा इमारतों में लगा रखा है। बाजार से भी करोड़ों रुपया उठा रखा है। ऐसे में वालिया को और क्या चाहिए कि लड़की उसे पसंद की मिले और उसके पीछे अरबों की दौलत हो। ऐसे में वह मेरे में ज्यादा दिलचस्पी लेगा।"
"तुम इस मामले को हमसे बेहतर समझ सकती हो। हम तो वही कर रहे हैं जो तुम चाहती हो।"
"वालिया के घर में, उसकी पत्नी के तौर पर मेरे कदम पड़ने जरूरी हैं, तभी तो वह हो पायेगा जो मैं चाहती हूँ।"
उसी पल रंजन कह उठा-
"तुमने जो अखबार का गुमशुदा वाला नकली इश्तिहार दिखाया था उस पर वालिया को किसी तरह का शक तो नहीं हुआ?"
"नहीं! उस इश्तिहार को उसने सच माना।" रूपा ने सोच भरे स्वर में कहा।
"अब आगे तुम्हारा ही काम है।"
"हाँ! फिर भी बीच-बीच में देवली पर नजर रखते रहना। थोड़ा-बहुत उसके पास आने वाले, जगत पाल पर भी नजर रख लेना।"
तीनों ने सहमति से सिर हिला दिया। तभी दीपक बोला-
"वालिया तुम्हारी किसी चाल को पहचान गया तो वह तुम्हें छोड़ेगा नहीं।"
रूपा के चेहरे पर खतरनाक मुस्कान नाच उठी।
"वह मेरे पत्तों को नहीं पहचान सकता।" रूपा कह उठी, "मेरा गेम कच्चा नहीं है, जो खुल जायेगा। अभी लम्बा सफर बाकी है।"
तीनों वहाँ से चले गए। रूपा कुर्सी पर बैठी और आँखें बंद कर ली।
0 Comments