शुक्रवार : बीस दिसम्बर
“हे भगवान !” - नीलम विमल को चाय का गिलास थमाती हुई बोली - “क्या बनेगा इस शहर का !”
“क्यों सुबह-सवेरे भगवान को याद कर रही है ?” - विमल बोला - “अब क्या हो गया ?”
“अभी राजधानी का ये हाल है कि खून-खराबे का नंगा नाच हो रहा है, और जगहों में तो जो न हो जाये वो थोड़ा है ।”
“फिर अखबार में कुछ पढ लिया ?”
“हां । आजकल तो दहशत होती है अखबार को हाथ लगाते ।”
“तू कुछ दिन के लिए अखबार पढना बन्द कर दे । तब तक के लिए तो कर ही दे तब तक तेरा बच्चा नहीं पैदा हो जाता । कहीं ऐसा न हो कि डरावनी खबरें पढ-पढ के तुझे घर में ही प्रीमैच्योर डिलीवरी हो जाये ।”
“मजाक मत करो ।”
“अब क्या हुआ ? क्या छपा है आज के अखबार में ?”
“कल रात लोधी गार्डन में एक अकेली लड़की को तीन बदमाशों ने पकड़ लिया । वो उसकी इज्जत लूटने की तैयारी कर रहे थे कि खुदाई मददगार की तरह से पता नहीं कहां से कोई आदमी वहां पहुंचा और उसने उन तीनों बदमाशों को शूट कर दिया ।”
“मर गये तीनों ?”
“हां । नर्क में जायें कमीने ।”
“वहीं जायेंगे ।”
“कौन होगा वो आदमी जो जैसे जादू के जोर से ऐन मौके पर लड़की की रक्षा करने वहां पहुंच गया था ?”
“होगा कोई खुदाई फरिश्ता । आसमान से उतरा होगा ।”
“फरिश्ता तो वाकई था वो । मैं तो कहती हूं वो तो भगवान श्रीकृष्ण थे जो द्रौपदी की लाज बचाने आये थे ।”
विमल हंसा ।
“वो जो कोई भी था” - नीलम बोली - “भगवान भला करे उसका । भगवान लम्बी उम्र दे उसे ।”
“अरे, उसने तीन आदमी मार डाले और तू उसका भला चाह रही है, उसके लिए लम्बी उम्र की दुआयें मांग रही है !”
“कीड़े पड़ें ऐसे आदमियों को । जैसी करतूत करेंगे, वैसा ही तो अंजाम होगा । मैं कहती हूं बिल्कुल ठीक किया उस आदमी ने । और मार गिराये ऐसे दस-बीस आदमी तो शहर में कुछ तो अमन-शान्ति होगी ।”
“चाहे वो बेगुनाहों को मार गिराने लगे ?”
“खामखाह !”
“उस लड़की को भी तो कोई दोष दे । नौजवान लड़कियां क्यों अकेली फिरती है रात-बे-रात तनहा जगहों पर ।”
“अरे, उसकी कोई मजबूरी होगी । जान-बूझ के कोई करता है अपनी आ बैल मुझे मार जैसी हालत ?”
“तू बता !”
“नहीं करता । ऊपर से औरत की जात । पता नहीं क्यों हर जुल्म की शिकार औरत ही होती है ।”
“हर जुल्म की नहीं ।”
“अभी हफ्ता नहीं हुआ ऐसी वारदात पड़ोस में हुए, कल फिर हो गयी ।”
“होते-होते बची ।”
“वो भलामानस न ऐेन मौके पर पहुंचा होता तो हो हो गयी थी । काश सुमन की मां-बहन की इज्जत बचाने में भी वो निमित्त बना होता ।”
“लड़की की बाबत कुछ लिखा है अखबार में ?”
“हां । तसवीर भी छपी है उसकी । नाम सोनिया शर्मा लिखा है । हस्पताल में है बेचारी ।”
“हस्पताल में ? वो किसलिए ? क्या बहुत नोचा-खंसोटा उन बदमाशों ने ?”
“वो तो किया ही । लेकिन हस्पताल में वो और वजह से है ।”
“और वजह ?”
“उसके पांव में गोली लगी है । कहते हैं कि बदमाशों को मारने के लिए जो गोलियां उस सखी हातिम ने चलाई थीं, उनमें से एक लड़की के पांव में जा लगी थी ।”
“ओह ! लड़की ने पुलिस को कोई बयान दिया है या अभी वो बयान देने की हालत में नहीं है ?”
“बयान दिया है । उसने सारा वाकया बयान किया है और उसने उस सखी हातिम का, उस भलेमानस का, हुलिया बयान किया है जिसने कि उसकी इज्जत लुटने से बचाई थी ।”
विमल सन्न रह गया ।
“हु... हुलिया, बयान किया है ?” - वो बोला - “क्या हुलिया बयान किया है ?”
“अखबार में इतना ही लिखा है कि उस लड़की के कहने के मुताबिक वो एक लम्बा- ऊंचा छरहरे बदन वाला नौजवान था, उसके बाल काले थे जिनमें वो बाई साइड में मांग निकालता था और वो एक गहरे रंग का लम्बा ओवरकोट पहने था ।”
“ये तो कोई खास हुलिया न हुआ । ये हुलिया तो किसी का भी हो सकता है ।”
“किसी का क्या, तुम्हारा भी हो सकता है ।”
“क्या बकती है ?”
“और तुम्हारे पास ओवरकोट भी है गहरे रंग का ।”
“लेकिन मैं उसे पहनता कहां हूं । वो तो बस रखा है ।”
“वो तो है ।” - नीलम एक क्षण ठिठकी और फिर बोली - “हस्पताल में लड़की की तबीयत सुधर जायेगी तो मेरे खयाल से पुलिस ज्यादा डिटेल में उसका बयान तब लेगी । तब शायद वो बारीकी से हुलिया बयान करे अपने जीवनरक्षक का ।”
“हूं ।”
“एक बात बताओ ।”
“क्या ?”
“क्या ये कारनामा भी उसी आदमी का हो सकता है जिसने परसों रात दोनों बलात्कारियों को शूट किया था ?”
“पागल हुई है ! उसे क्या कोई दिव्य दृष्टि प्राप्त होगी जिससे कि उसे मालूम हो जाता होगा कि कब, कहां, क्या होने वाला था ?”
“पीर-पैगम्बरों को होती है ऐसी दिव्यदृष्टि प्राप्त ।”
“होती होगी । लेकिन पीर-पैगम्बर क्या हाथ में पिस्तौल लेकन रातों में विचरते हैं और लोगों को शूट करते फिरते हैं ?”
“पता नहीं क्यों मुझे लगता है कि ये दोनों करनामे एक ही आदमी के हैं ।”
“आदमी के नहीं” - विमल खोखली हंसी हसा - “पीर-पैगम्बर के । माडर्न, ओवरकोटधारी, पिस्तौल वाले पीर-पैग्मबर के ।”
“हटो । तुम तो मजाक करने लगे ।”
“तू हट और जरा अखबार ला ।”
नीलम ने उसे अखबार लाकर दिया और स्वयं बाथरूम में घुस गयी ।
विमल ने अखबार खोला । वो खबर मुखपृष्ठ पर प्रकाशित थी । खबर के लाथ दोनों बदमाशों की तसवीरें भी छपी थीं और हस्पतांल के पलंग पर लेटी सोनिया शर्मा की भी तसवीर छपी थी । विमल के हुलिये के नाम पर खबर में उतना ही छपा था जितना कि नीलम ने उसे बताया था ।
खबर के मुताबिक पुलिस ने सोनिया शर्मा को विलिंगडन हस्पताल में दाखिल कराया था ।
विमल ने चाय के गिलास और अखबार से निजात पायी और उठ खड़ा हुआ । वो बाथरूम के बाहर लगे शीशे के सामने खड़ा होकर शेव करने लगा ।
तभी नीलम बाथरूम से बाहर निकली ।
“आज क्या बात है ?” - वो अचरज से बोली ।
“आफिस जल्दी जाना है । जरूरी काम है ।” - विमल बोला और फिर बाथरूम में दाखिल हो गया ।
***
ठीक आठ बजे विमल विलिंगडन हस्पताल के रिसैप्शन पर पहुंचा ।
“सुमित शुक्ला ।” - वो रिसैप्शनिस्ट से बोला - “एक्सीडेंट का केस । कल रात भरती हुआ था । कहां भरती है ?”
रिसैप्शनिस्ट ने एक मोटा रजिस्टर खोला और उसका मुआयना किया ।
“इस नाम का कोई पेशेन्ट यहां भरती नहीं है ।” - फिर वो बोली ।
“जरा ठीक से देखिए, बहन जी, वो...”
“आप खुद देख लीजिये ।” - रिसैप्शनिस्ट रजिस्टर का मुंह उसकी तरफ फेरती हुई भुनभुनाई ।
“शुक्रिया ।”
विमल ने पीछे की तरफ पहला ही पृष्ठ पलटा तो उसे रजिस्टर में दर्ज सोनिया शर्मा का नाम दिखाई दे गया । नाम के आगे वार्ड फाइव, रूम टू लिखा या ।
वो कुछ क्षण और रजिस्टर के पृष्ठ पलटता रहा ।
“इसमें तो” - आखिरकार वो निराश स्वर में बोला - “नहीं है सुमित शुक्ला का नाम ?”
“होता तो मैं न बताती ! आप लोग तो बस...”
“अब मैं भी क्या करूं, बहन जी ! मुझे तो ये ही बताया गया था कि पुलिस की एम्बूलेंस उसे कल रात यहां सफदरजंग हस्पताल में लेकर आयी थी ।”
“कहां लेकर आयी थी ?”
“यहां । सफदरजंग हस्पताल में ।”
“अरे, बाबा, तो सफदरजंग में जाओ । वे तो विलिंगडन हस्पताल है ।”
“ये सफदरजंग हस्पताल नहीं है ?”
“नहीं । कहीं बाहर से आये हो ?”
“जी हां, करनाल से ।”
“तभी तो ।”
“यानी कि टैक्सी वाले ने मुझे धोखा दिया । मैंने उसे कहीं चलने को कहा और वो मुझे कहीं छोड़ गया ।”
“हां ।”
“अच्छा !” - विमल मरे स्वर में बोला - “मैं पहुंचता हूं सफदरजंग ।”
वो रिसैप्सन से हट गया ।
बड़ा सुखद संयोग था कि सोनिया शर्मा उसी रूम में भरती थी जिसमें कि सुमन थी ।
वो लिफ्ट द्वारा ऊपर पहुंचा ।
सैमी प्राइवेट रूम नम्बर दो के सामने एक स्टूल पर उसे एक हवलदार बैठा दिखाई दिया ।
वो दरवाजे के करीब पहुंचा तो हवलदार बोला - “क्या है ?”
“क्या है क्या, भई ।” - विमल बोला - “भीतर हमारा पेशेन्ट है । उसके पास जाना है ।”
“नाम बोलो ।”
“सुमन वर्मा ।”
“डयूटी रूम से नर्स को साथ लेकर आओ ।”
“लेकिन...”
“सुना नहीं ।”
विमल वहां से हटा और ड्यूटी रूम में पहुंचा । वहां जो नर्स मौजूद थी, संयोगवश वो वही थी जो पहले शाम की ड्यूटी में हुआ करती थी और जो रोज सुमन से मिलने आने वाले के रूप में उसे पहचानती थी ।
विमल ने उसे अपनी समस्या बताई तो वो तुरन्त उसके साथ हो ली ।
दोनों वापिस रूम नम्बर दो के सामने पहुंचे ।
“ये सुमन वर्मा के मिलने वाले हैं ।” - नर्स बड़े रोब से बोली - “जाने दो इन्हें ।”
“ठीक है ।” - हवलदार बोला - “मुझे मालूम तो होना चाहिए था न ।”
“अब हो तो गया मालूम !”
“ठीक है । ठीक है ।”
नर्स उसके साथ भीतर दाखिल हुई ।
विमल ने सुमन को आंखें बन्द किए पलंग पर लेटे पाया ।
“कैसी तबीयत है इसकी ?” - वो बोला ।
“ठीक है । रात को जरा बिगड़ी थी जिसकी वजह से सिडेटिव का इन्जेक्शन देना पड़ गया था ।”
“मैं जगा लूं इसे ? कोई हर्ज तो नहीं होगा ?”
“नहीं ।”
नर्स वहां से चली गयी ।
विमल ने उसे जगाने का उपक्रम नहीं किया । उसने नोट किया कि वहां दो बैड अभी भी खाली थीं जो कि उसे दिखाई दे रही थीं । जो चौथी बैड नहीं दिखाई दे रही थी वो प्रत्यक्षत: उस मोटे पर्दे के पीछे छुप गयी थी जो कि उस घड़ी दीवार की तरह सुमन की बैड के उधर वाले पहलू मे खिंचा हुआ था ।
विमल ने एक सशंक निगाह दरवाजे की तरफ डाली और फिर पर्दे की पार्टीशन के करीब पहुंचा । उसने हौले से पर्दा सरकाया और भीतर झांका ।
वहां पलंग पर पिछली रात वाली लड़की पड़ी थी । उसका मुंह सिर सूजा हुआ था और एक पांव पट्टियों में लिपटा दिखाई दे रहा था ।
उसकी विमल से निगाह मिली ।
विमल तनिक मुस्कराया, उसने पर्दे से पार कदम रखा और पीछे पर्दे को यथास्थान सरका दिया ।
एकाएक सोनिया के नेत्र फैले ।
“तुम्हारी सूरत बता रही है” - विमल बहुत धीमे स्वर में बोला - “कि तुमने मुझे पहचान लिया है ।”
“आप... आप...”
“हां । मैं वो ही आदमी हूं कल रात लोधी गार्डन में जिसने तुम्हें बलात्कार का शिकार होने से बचाया था, जिसने तुम्हारे बलात्कारियों को शूट किया था ।”
“शु... शक्रिया ।”
“मुझे अखबार पढकर ही मालूम हाथ कि मेरी चलाई एक बोली तुम्हें भी जा लगी थी ।”
“अखबार में सब कुछ छपा है ?”
“हां । तुम्हारी तसवीर समेत ।”
“मेरी तसवीर भी ?”
“हां ।”
“हे भगवान ! अब मैं लोगों को क्या मुंह दिखाऊंगी ?”
“तुम्हारे साथ कुछ हुआ थोड़े ही था ।”
“कौन मानेगा ये बात ? तौबा ! जो बात मैं अपने घरवालों से भी छुपा के रखना चाहती थी, वो सारी दुनिया को मालूम हो गयी !”
“तुम्हारे घरवालों को तुम्हारी यहां मौजूदगी की खबर नहीं ?”
“नहीं । मैंने खास कोशिश की थी छुपाकर रखने की, लेकिन अब लग जायेगी खबर उन्हें । अखबार पढ के लग जायेगी । वो आते ही होगे यहां । हे भगवान, किस सांसत में फंस गयी मेरी जान !”
“हौसला रखो ।”
वो खामोश रही लेकिन उसके चेहरे पर से चिन्ता के भाव न गये ।
“पांव कैसा है अब ?” - विमल ने सहानुभूतिपूर्ण स्वर में पूछा ।
“ठीक है ।” - वो बोली - “कोई खास चोट नहीं लगी । हड्डी नहीं टूटी । सिर्फ मांस फटा है । डाक्टर कहता था शाम तक मैं घर जा सकूंगी ।”
“गुड ।”
“आपने मेरी जान बचाई, उसका बहुत-बहुत शुक्रिया, सर ।”
“मैं यहां शुक्रिया हासिल करने के लिए नहीं आया ।”
“तो ?”
“कल रात तुमने मुझे देखा था । तब मुझे नहीं मालूम था लेकिन अखबार में दर्ज तुम्हारे बयान की वजह से अब मालूम है । मैं समझा था कि अन्धेरे की वजह से कल रात मेरी सूरत की तरफ तुम्हारी तवज्जो नहीं गयी थी लेकिन लगता है तुम्हारी निगाह कुछ खास ही तीखी है । अब मेरी तुमसे ये दरख्वास्त है कि तुम पुलिस को मेरा हुलिया न बताओ ।”
“वो तो मैं बता चुकी हूं ।”
“मोटे तौर से । सरसरी तौर से । बारीकी से हुलिया बयान करने के लिए पुलिस तुम्हें आज कहेगी और इस काम के लिये कोई पुलसिया यहां पहुंचता ही होगा । देखो, अगर तुम समझती हो कि कल मैंने तुम्हारी कोई मदद की है...”
“आपने मेरी बहुत मदद की है । आपने मुझे तबाह होने से बचाया है । मेरे लिए तो आप भगवान है ।”
“...तो तुम्हें भी मेरी मदद करनी चाहिये । मैं गिरफ्तार हो गया तो ये कहानी यहीं खत्म हो जायेगी । आजाद रहा तो मैं जैसे कल तुम्हारी मदद कर सका, वैसे हो सकता है किसी और की भी मदद कर सकूं । तुम समझ रही हो न मेरी बात ?”
“हां । लेकिन मैं ये कह रही हूं कि मैं आपका हुलिया पुलिस को पहले ही बता चुकी हूं ।”
“क्या बताया ?”
“यही कि आप नौजवान थे । कद लम्बा था । बदन छरहरा था । बाल काले थे । मांग बाईं ओर निकालते थे । ओवरकोट पहने थे जिसका रंग गहरा था ।”
“ओह !”
“काश मैं अपनी जुबान बन्द रख पायी होती । सर, मझे अफसोस है कि आपने तो मेरी जान बचाई और मैंने अनजाने में मुंह फाड़कर आपके लिए दुश्वारी खड़ी कर दी ।”
“तुम चाहो तो बिगड़ी बात अभी भी संवार सकती हो ।”
“कैसे ?”
“चाहती हो ऐसा करना ?”
“बिल्कुल चाहती हूं । आप जो कहें मैं करने को तैयार हूं ।”
“तो ऐसा करो कि पुलिस जब दोबारा तुम्हारा बयान लेने के लिए आये तो उन्हें नया तो कुछ बताओ ही नहीं, जो बता चुकी हो उससे भी मुकर जाओ ।”
“कैसे ?”
“कह दो कि कल तुम सदमे की हालत में थीं इसलिए मेरी बाबत तुम्हारे से गलतबयानी हो गयी थी । तुम वहां अन्धेरा ज्यादा होने पर खास तौर से जोर दे सकती हो । कह सकती हो कि अन्धेरा इतना ज्यादा था कि साफ तो कुछ दिखाई दे ही नहीं रहा था, ऊपर से उन लोगों ने तुम्हें मारा-पीटा था जिसकी वजह से तुम्हारा सिर घूम रहा था और तुम्हें अपनी निगाह को फोकस करने में दिक्कत महसूस हो रही थी ।”
“ये तो सच भी है ।” - उसके मुंह से निकला ।
“फिर क्या बात है ।”
“कद लम्बा था लेकिन बदन भारी था ।” - सोनिया एकाएक यूं बोलने लगी जैसे सबक याद कर रही हो - “बाल अधपके थे । मांग दाईं ओर थी । ओवरकोट मैंने देखा था लेकिन अन्धेरे में उसके रंग का मुझे कोई अन्दाजा नहीं हो सका था । मूंछ” - उसने विमल की मूंछों पर निगाह डाली - “नहीं थीं । दाढी भी नहीं थी ।”
“गुड, गुड । थैंक्यू वैरी मच । अब मैं चलता हूं । मेरा यहा ज्यादा देर ठहरना खतरनाक साबित हो सकता है ।”
“सर !” - सोनिया व्यग्र भाव से बोली ।
“हां ।”
“कल अगर आप न होते तो पार्क में से मेरी लाश ही बरामद हुई होती ।”
“बहुत मुमकिन है ।”
“आपने मेरी इज्जत बचाने की खातिर तीन खून कर दिये !”
“ये सब ऊपर वाले के खेल हैं । इन्सान तो कठपुतली होता है जिसकी डोर वो ऊपर कही” - उसने छत की ओर उंगली उठाई - “थमी होती है । तू कर्ता करण मैं नाहि जा हुऊ करी न होई ।”
पीछे मन्त्रमुग्ध-सी सोनिया को छोड़कर वो पर्दा हटाकर वापिस परली तरफ पहुंच गया । यह देखकर वो सकपकाया कि सुमन पलंग पर उठकर बैठी हुई थी और अपलक उसकी तरफ देख रही थी । उसकी गोद में उस रोज का अखबार पड़ा था ।
“हल्लो !” - विमल जबरन मुस्कराया - “जाग गयीं ?”
“हां ।” - वो बोली - “आप कब आये ?”
“बस, थोड़ी ही देर पहले ।”
सुमन ने अपलक उसकी ओर देखा ।
“पर्दा खिंचा हुआ था” - विमल तनिक हंसा - “उत्सुकतावश झांकने चला गया कि उधर कौन था ।”
“यहां तो जो होगा मरीज ही होगा ।”
“जाहिर है । अखबार पढ लिया ?”
“नहीं, सिर्फ सुर्खियां देखी हैं । तसवीरें देखी हैं । कल बहुत खून-खराबा हो गया शहर में ।”
“शहर ही ऐसा है । खून-खराबा यहां राजमर्रा की बात है ।”
“तीन बलात्कारी मारे गये ।”
“क्या बुरा हुआ ?”
“कौल साहब, उन तीनों में से एक की शक्ल उन पांच जनों में से एक से मिलती है जिन्होंने मेरी मां और बहन के साथ...”
“अच्छा ! किसकी ?”
सुमन ने अखबार में छपी छंगू की तसवीर पर उंगली रखी ।
“पक्की बात ?” - विमल बोला - “ठीक से पहचाना ?”
“जी हां । इसका क्या मतलब हुआ, कौल साहब ?”
“किसका क्या मतलब हुआ ?”
“इसी का ।” - उसने अखबार ठकठकाया - “क्या मुझे हमलावर बांह मुहैया हो चुकी है, कौल साहब ? दो बलात्कारी तरसों मारे गये, एक आज मारा गया । क्या मुझे बदला हासिल हो रहा है ?”
“सुमन, तुम बीमार हो । जेहनी तौर से बीमार हो । ऐसी बातें सोच-सोचकर तुम्हें अपने दिमाग पर जोर नहीं देना चाहिए । तुम सिर्फ ये समझो कि जो होता है ठीक होता है ऊपर वाले की मर्जी से होता है । जो तुध भावे नानका सोई भली कार । तुम तन्दुरूस्त हो के घर लौटो ताकि...”
“घर लौटूं ? किसके पास घर लौटूं ? क्या रखा है अब घर में ?”
“सुमन, ये निराशावादी सोच तुम्हें छोड़नी होगी । घर में कुछ नहीं रखा फिर भी घर तो जाना ही है । जो तिनका-तिनका एकाएक बिखर गया है उसे बीन-बीनकर जोड़ोगी तो नये नीड़ का निर्माण होगा न । और...”
एकाएक वह बोलता-बोलता रुक गया ।
उसी क्षण दरवाजा खुला था और उसी सब-इंस्पेक्टर ने भीतर कदम रखा था जो कि पिछली रात उसे लोधी गार्डन के प्रवेश द्वार पर मिला था । विमल तत्काल परे देखने लगा ।
सब-इंस्पेक्टर ने एक सरसरी निगाह उन दोनों को तरफ डाली और फिर पर्दा हटाकर उसके पीछे चला गया ।
“मैं अब चलता हूं ।” - विमल तत्काल उठ खड़ा हुआ - “मैंने आज जरा जल्दी दफ्तर पहुंचना है ।”
सुमन ने सहमति में सिर हिलाया ।
“किसी चीज की जरूरत हो तो बोलो ।”
उसने पहले जैसे ही यन्त्रचालित ढंग से इनकार में सिर हिला दिया ।
विमल उठा, उसने एक बार बड़े आश्वासनपूर्ण भाव से उसका कन्धा थपथपाया और फिर वहां से विदा हो गया ।
***
“हल्लो !” - अजीत लूथरा मुस्कराता हुआ बोला - “कैसी हैं आप ?”
“ठीक ।” - सोनिया सहज भाव से बोली ।
“मैं सब-इंस्पेक्टर लूथरा । कल रात मुलाकात हुई थी । याद है न ?”
सोनिया ने सहमति में सिर हिलाया ।
“कल आप बहुत आन्दोलित थीं । हिस्टीरिया के पेशेन्ट जैसी हालत थी आपकी । हादसा ही ऐसा गुजरा था । कल ठीक से बयान भी नहीं दे पायी थीं आप । इसीलिए आज फिर हाजिर होना पड़ा ताकि कल के हादसे की बाबत जरा फिर से, जरा तफसील से बात हो जाती ।”
सोनिया खामोश रहो ।
“मैं बैठ जाऊं ?”
“जी हां ।” - सोनिया हड़बड़ाकर बोली - “शौक से ।”
“शुक्रिया ।” - वो पलंग के करीब पड़े एक ऊचे स्टूल पर बैठ गया ।
“आपने” - एकाएक सोनिया सख्त शिकायत भरे स्वर में बोली - “मेरी तसवीर अखबारों में छपवा दी ।”
“हमने ?” - लूथरा हड़बड़ाया - “हमने काहे को ? अखबार वालों पर हमारा क्या जोर है ?”
“क्यों नहीं जोर आपका ? आप उन्हें तसवीर छापने से नहीं रोक सकते तो खींचने से तो रोक सकते थे । आखिर मैं आपकी हिफाजत में थी । अच्छी हिफाजत की आपने मेरी ! सारे शहर में कहीं मुंह दिखाने के काबिल नहीं छोड़ा मुझे । आपसे अच्छा तो वो खुदाई फरिश्ता था जिसने मेरी इज्जत-आबरू की हिफाजत की, आप पुलिस वाले तो मेरी नेकनामी की हिफाजत न कर सके ।”
“वो... वो क्या है कि...”
“खैर, छोड़िये । अब बोलिये, क्या चाहते हैं आप ?”
“कल रात की बाबत चन्द सवालात और पूछना चाहता हूं ।”
“और सवालात ! लेकिन मुझे तो जो मालूम था, मैं सब बता चुकी हूं ।”
“सब नहीं बता चुकीं । सब तो हमने पूछा भी नहीं था । मैंने कहा न कि आपकी कल रात की हालत...”
“आई अण्डरस्टैण्ड । पूछिये क्या पूछना चाहते हैं ?”
“दूसरे कई बार कई बातें बाद में याद आती हैं जबकि...”
“आई सैड आई अण्डरस्टैण्ड । आप पूछिए क्या पूछना चाहते हैं ?”
“पहले आप उस शख्स को याद कीजिये जिसने आपको बचाया था । मैं चाहता हूं कि उसका हुलिया आप जरा तफसील से बयान करें ।”
“देखिए, उस शख्स के बारे में नया तो कुछ याद आने का कोई मतलब ही नहीं । कितनी देर उसकी ओर देखने का मौका मिला था मुझे ? बहुत थोड़ी देर । सब कुछ पलक झपकते ही तो हो गया था । और सच पूछिये तो मुझे तो लगता है कि मैंने आपको जो कुछ उसकी बाबत बताया है, वो भी ठीक नहीं बताया है ।”
“जी !”
“आप मेरी पोजीशन पर गौर कीजिये । मैं जमीन पर गिरी पड़ी थी और वो मेरे करीब खड़ा था । यूं कहीं कद-काठ का अन्दाजा होता है ? यूं कहीं हुलिया दिखाई देता है ?”
“क्या मतलब है आपका ? क्या कहना चाहती हैं आप ?”
“मैं ये कह रही हूं कि कल मैंने उसका कद लम्बा बताया था जब कि असल में हो सकता है कि वो लम्बा न हो । मैंने उसे छरहरा बताया था जब कि हो सकता है कि वो मोटा हो । उसके बाल मुझे काले लगे थे लेकिन ऐसा अन्धेरे की वजह से लगा हो सकता है । अलबत्ता उसके बालों में निकली मांग मुझे ठीक से दिखाई दी थी जो कि दाईं तरफ थी ।”
“दाईं तरफ ! कल तो आपने बाईं तरफ कहा था ।”
“गलत । मुझे अच्छी तरह से याद है मैंने दाईं तरफ कहा था ।”
“और ! और क्या याद है आपकी अच्छी तरह से ?”
“और मुझे उसका कोट याद है जो कि शायद ट्वीड का था ।”
“ओवरकोट के नीचे आप उसका कोट कैसे देख पायीं ?”
“इंस्पेक्टर साहब” - सोनिया बड़ी मासूमियत से बोली - “क्या इसी से साबित नहीं होता कि मुझे वहम हुआ था कि वो ओवरकोट पहने था ?”
“ओवरकोट नहीं पहने था वो ?”
“मेरे खयाल से नहीं ।”
“उसके हाथ में ब्रीफकेस था ?”
“नहीं । ब्रीफकेस थाम के वो बन्दूक कैसे चला सकता था ?”
“बन्दूक ? आपने उसे बन्दूक चलाते देखा था ?”
“मेरा खयाल तो यही है ।”
“आपका खयाल गलत है । उसके पास जो हथियार था, वो बन्दूक नहीं था ।”
“आपको कैसे मालूम ?”
“ऐसे मालूम कि जो आठ गोलियां मरने वालों के जिस्मों में से बरामद हुई हैं और जो एक गोली आपके घायल पांव के करीब जमीन में धंसी पायी गयी थी, वो तमाम की तमाम एक ही रिवाल्वर से चलाई गयी गोलियां थीं । रिवाल्वर से, बन्दूक से नहीं । फर्क समझती हैं न आप रिवाल्वर और बन्दूक में ! रिवाल्वर छोटा- सा हथियार होता है जो एक हाथ से चलाया जा सकता है । बन्दूक लाठी जैसा लम्बा हथियार होता है जिसको चलाने के लिए दोनों हाथ, और एक कन्धा भी, इस्तेमाल करने पड़ते हैं ।”
“शायद उसके पास कोई लाठी हो जो कि मुझे बन्दूक लगी हो ।”
“शुक्र है बन्दूक तक ही समझौता कर लिया आपने । तोप नहीं बताई आपने उसके पास ।”
“आप मेरा मजाक उड़ा रहे हैं ?”
“हरगिज नहीं ।”
“नाखुश क्यों दिख रहे हैं आप मेरे बयान से ?”
“क्योंकि आप अब जो कुछ भी कह रहीं है, वो उससे ऐन उलट है जो कि आपने पिछली रात कहा था । ऐसा क्यों है, मैडम ?”
“ऐसा जरूर इसीलिए है कि कल मैं उत्तेजित थी, मेरे साथ बहुत बुरी बीती थी और अभी आपने खुद कहा था कि कल मेरी हालत हिस्टीरिया के रोगी जैसी थी । ऐसी हालत में कल मेरे से गलतबयानी हुई हो सकती है ।”
“जो कि अब नहीं हो रही । अब जो कुछ आप कह रही हैं, ठीक कह रही हैं, सोच-समझ के कह रही हैं ?”
“हां ।”
“एक बात बताइये । कल रात यहां आपके भरती कराये आने के वक्त से लेकर अभी मेरे यहां आने के वक्त तक आपकी यहां किसी से कोई बात हुई ?”
“हुई ।”
“किससे ?”
“डॉक्टर से । नर्स से ।”
“उनके अलावा ? हास्पिटल स्टाफ के अलावा ?”
“उनके अलावा तो मेरी किसी से कोई बात नहीं हुई ।”
“पक्की बात ?”
“जी हां ।”
“किसी ने यहां आकर आपको धमकाया नहीं ? आप पर अपना बयान बदलने के लिए जोर नहीं डाला ?”
“नो । नैवर ।”
“मैडम, अगर ऐसा कोई शख्स है तो आप हमें उसका नाम बाताइये ताकि हम आपकी उससे हिफाजत का इन्तजाम कर सकें ।”
“ऐसा कोई शख्स नहीं है ।”
“ठीक है ।” - लूथरा एकाएक उठ खड़ा हुआ - “नहीं है तो नहीं है । आप कोई मुलजिम तो हैं नहीं जिस पर कि मैं कोई जोर-जबरदस्ती का तरीका इस्तेमाल कर सकूं । आप तो मजलूम हैं । आप कहती हैं तो मुझे मानना ही पड़ेगा कि ऐसा कोई शख्स नहीं है ।”
“ये हकीकत है ।”
“होगी । बहरहाल मुझे अफसोस है कि फिलहाल इसे हकीकत मान लेने के अलावा मेरे पास कोई चारा नहीं । मैं आप से फिर मिलूंगा, मैडम ।”
“मेरा फिर भी यही जवाब होगा ।”
“देखेंगे ।”
लूथरा पर्दा हटाकर उसके पार निकल गया । उसकी निगाह स्वयंमेव ही उधर के पेशेन्ट की ओर उठी । उसने पाया कि जिस युवक को उसने जाती बार उस पेशेन्ट के पास बैठे देखा था, वो अब वहां नहीं था ।
वो बाहर निकला ।
स्टूल पर बैठा हवलदार उठकर खड़ा हो गया ।
“यहीं था हर वक्त ?” - लूथरा सख्ती से बोला - “बीच में उठ के तो नहीं चला गया था ?”
“नहीं, साहब ।” - हवलदार बोला ।
“कोई धार-वार मारने तो गया होगा ?”
“तब एक अर्दली को इधर खड़ा करके गया था, साहब ।”
“अभी एक आदमी अन्दर बेठा था !”
“साहब, मैंने उसे ऐसे ही नहीं अन्दर चला जाने दिया था ।” - हवलदार अकड़कर बोला - “नर्स से उसकी शिताख्त करवाई थी ।”
“नर्स पहचानती थी उसे ?”
“हां, साहब ।”
“जरा उस नर्स को बुलाकर ला ।”
हवलदार ड्यूटी रूम से नर्स को बुला लाया ।
“वो तो सुमन वर्मा के रेगुलर विजिटर हैं ।” - लूथरा के सवाल के जवाब में नर्स बोली - “रोज आते हैं ।”
“रिश्तेदार हैं सुमन वर्मा के ?”
“नहीं । पड़ोसी हैं । लेकिन बहुत ही भले पड़ोसी हैं । रिश्तेदारों से बढकर । बहुत ही भले आदमी हैं । आदमी हैं । शरीफ । दयावान । नेक ।”
“नाम क्या है उनका ?”
“कौल ।”
“कौल । पूरा नाम क्या है ?”
“पूरा नाम तो मुझे मालूम नहीं ।”
“उनके पेशेन्ट को - सुमन वर्मा को - मालूम होगा । जरा पूछ के आइये ।”
नर्स सहमति में सिर हिलाती हुई भीतर दाखिल हुई और फिर लगभग उलटे पांव वापिस लौटी ।
“अरविन्द कौल ।” - वो बोली ।
“अरविन्द कौल !” - लूथरा ने हौले से दोहराया और फिर अपेक्षाकृत उच्च स्वर में बोला - “ठीक है । शुक्रिया, सिस्टर ।”
***
लूथरा थाने पहुंचा ।
वो थानाध्यक्ष रतनसिंह के हुजूर में पेश हुआ ।
“आज बड़ी जल्दी आ गये ?” - रतनसिंह बोला ।
“विलिंगडन गया था ।” - लूथरा बोला - “कल रात की रेप विक्टिम सोनिया शर्मा का दोबारा बयान लेने । पट्ठी ने नया तो कुछ बताया नहीं, कल जो बताया था, उसमें भी भांजी मार दी ।”
“क्या हुआ ?”
“अपने कल दिए बयान से पूरी तरह फिर गयी । लोधी गार्डन में जिस आदमी ने उसकी रक्षा की थी, कल उसने उसके बारे में इतना कुछ बताया, आज उस जानकारी में कोई इजाफा करने की जगह जो कल बताया उससे भी मुकरने लगी ।”
“तुम्हारा मतलब है लड़की जानबूझ के झूठ बोल रही है ?”
“हां ।”
“वजह ?”
“सही बजह नहीं मालूम लेकिन मेरा अन्दाजा है उसे किसी ने डराया धमकाया है और यूं अपना बयान बदलने के लिए उसे मजबूर किया है ।”
“ये तुम्हारा वहम भी हो सकता है ।”
“हो तो सकता है ।” - लूथरा ने कबूल किया - “लेकिन नहीं भी हो सकता । सर, लड़की की शाम तक हस्पताल से छुट्टी हो जानी है । मैं ये चाहता हूं कि उसकी निगरानी का कोई इन्तजाम किया जाये । जिस आदमी ने उसे अपना बयान बदलने की पट्टी पढाई है वो उससे फिर मिलने की कोशिश कर सकता है । ऐसा कोई शख्स हमारी जानकारी में आ गया तो फिर ये फैसला करना आसान होगा कि मुझे वहम हुआ है या नहीं ।”
रतनसिंह कुछ क्षण सोचता रहा और फिर बोला - “ठीक है । कोशिश करके देखो । सहजपाल को लगा दो इस ड्यूटी पर । खाली है वो ।”
“थैक्यू, सर ।”
तभी फोन की घन्टी बजी ।
रतनसिंह ने फोन उठाया । वह कुछ क्षण फोन सुनता रहा फिर उसने रिसीवर वापिस क्रेडिल पर रख दिया और लूथरा से सम्बोधित हुआ - “लैब से फोन था । बैलेस्टिक एक्सपर्ट का कहना हैं कि कल रात लोधी में चली आठों गोलियां और पहले मजनू का टीला से बरामद हनीफ और गोविन्द की लाशों से निकली गोलियां एक ही किस्म की हैं । अलवत्ता रिवाल्वर की किस्म की शिनाख्त होना अभी बाकी है ।”
“इसका मतलब तो ये हुआ” - लूथरा गम्भीरता से बोला - “कि इन दोनों कारनामों को एक ही शख्स ने अंजाम दिया है ।”
“अभी ये दावे से नहीं कहा जा सकता । अभी बैलेस्टिक एक्सपर्ट की रिपार्ट अधूरी है । अभी उसने सिर्फ ये कहा है कि वो गोलियां एक ही किस्म की हैं । उसने ये नहीं कहा कि वो चलाई भी एक ही रिवाल्वर से गयी हैं ।”
“फिर भी सम्भावना तो है ही दोनों वारदातों के पीछे एक ही शख्स का हाथ होने की ।”
“हां सम्भावना तो है । अगर ऐसा है तो क्या मतलब है इसका ? शहर के गुण्डों में कोई गैंगवार तो नहीं छिड़ गयी ?”
“गैंगवार बम्बइया स्टाइल क्राइम है, सर । दिल्ली में ऐसे क्राइम्स की कोई हिस्ट्री नहीं ।”
“भई, कभी तो पहल होनी ही होती है हर काम की ! गैगस्टर्स की तो कोई कमी है नहीं हमारे शहर में भी । अब जब गैगस्टर्स हैं तो गैंगवार क्यों नहीं हो सकती ?”
“हमारे शहर के गुण्डे-बदमाश इतने आर्गेनाइज्ड नहीं हैं सर, कि वो...”
“अरे बोला न, भई । हर काम की कभी तो पहल होनी ही होती है ।”
लूथरा खामोश रहा । प्रत्यक्षत: वो अपने आला अफसर की सोच से आश्वस्त नहीं था ।
“कल तुम्हारी एम्बैसेडर होटल वाली टिप तो बेकार गयी ।” - रतनसिंह बोला - “वो तुम्हारा नोन स्मगलर... क्या नाम था उसका ?”
“लेखराज मूंदड़ा ।” - लूथरा बोला ।
“हां । लेखराज मूंदड़ा । वो तो पहुंचा नहीं वहां ।”
“मुझे खुद हैरानी है, सर । टिप तो बड़ी मजबूत थी । मैं अपने खबरी से फिर बात करूंगा इस बाबत ।”
“ठीक है ।”
लूथरा अपने आला अफसर का अभिवादन करके वहां से बाहर निकल आया ।
वो अपने कमरे में पहुंचा ।
वो एक खूब बड़ा कमरा था जहां कई मेजें लगी हुई थीं ।
उन्हीं मेजों में से एक मेज उसकी थी जिस पर वो जा बैठा ।
सहजपाल अपनी मेज पर बैठा सिगरेट फूक रहा था । वो एक कोई चालीस साल का निहायत कमीनी शक्ल-सूरत वाला पुलसिया था और महकमे में असिस्टेंट सब-इंस्पेक्टर था ।
उस घड़ी वहां बस वो दो जने ही मौजूद थे, बाकी लोग शायद गश्त की ड्यूटी पर गए थे ।
सहजपाल एक निहायत करप्ट पुलसिया था जो कि शहर के दादा लोगों से हफ्ता खाने के इलजाम में दो बार पकड़ा जा चुका था और सस्पैंड हो चुका था । दोनों ही बार उसके खिलाफ ऐसा केस था कि उसकी नौकरी तो छूटती - ही - छूटती, वो जेल भी जा सकता था लेकिन पता नहीं उसने ऊपर तक क्या सिफारिश लगवाई थी कि एक बार उसे वार्निग देकर नौकरी पर बहाल कर दिया गया था और दूसरी बार उसे डिमोट करके एस आई से ए एस आई बना दिया गया था । महकमे में हर किसी को उम्मीद थी कि डिमोशन मंजूर करने की जगह वो इस्तीफा दे देगा लेकिन उसने ऐसा नहीं किया था । वो पूरी बेशर्मी से पुलिस की नौकरी से चिपका रहा था । नतीजतन सहजपाल, जो कभी लूथरा का सीनियर हुआ करता था, अब उसके अन्डर काम करता था ।
लूथरा ने सहजपाल को अपने करीब बुलाया, वो लूथरा पर अहसान-सा करता हुआ उठकर उसकी मेज पर आया तो लूथरा ने उसे सोनिया शर्मा के बारे में तफसील से बताया और उसे उसकी असाइनमैंट समझाई ।
फिर उसने सहजपाल को रुख्सत कर दिया ।
सहजपाल वापिस अपनी मेज पर जा बैठा ।
लूथरा की मेज उस बड़े कमरे के पिछले दायें कोने में थी और सिर्फ उसी की मेज के साथ एक साइड रैक था और टेलीफोन था । कोने की सीट का वो ये भी फायदा उठाता था कि वो पीछे दीवार पर अपनी वर्दी वगैरह टांग लेता था ।
उसने चाय मंगायी और फिर उसे चुसकता हुआ सोचने लगा । उसका ध्यान बार-बार भटक जाता था और एक ही नाम उसके जेहन में बार-बार बजने लगता था ।
अरविन्द कौल ! अरविन्द कौल !
पिछली रात उसके विजिटिंग कार्ड पर उसने उसकी कम्पनी का नाम पढा था जिसे वो दिमाग पर जोर देकर याद करने की कोशिश करने लगा ।
क्या नाम था उसकी कम्पनी का ? कोई ट्रेडिंग कारपोरेशन थी । कनाट प्लेस का पता था । मीनाक्षी ट्रेडिंग करपोरेशन !
उसने डायरेक्ट्री निकाली ।
उस नाम की कोई एन्ट्री उसमें नहीं थी ।
कहीं गैलेक्सी तो नहीं ?
‘जी’ में उसे गैलेक्सी ट्रेडिंग कारपोरेशन की ऐन्ट्री मिल गयी । यह देखकर उसे बड़ा संतोष हुआ कि आगे पता भी कनाट प्लेस का ही था । उसने कम्पनी के नाम के आगे लिखे दो नम्बर मेज पर बिछे ब्लाटर पर नोट किये और फिर उनमें से एकाएक फोन किया ।
तत्काल उत्तर मिला ।
“गैलेक्सी ट्रेडिंग । गुड मोर्निंग ।”
“आई वांट टु स्पीक मिस्टर अरविन्द कौल !”
“होल्ड आन, प्लीज ।”
उसने होल्ड न किया । उसने धीरे से रिसीवर वापिस क्रेडिल पर रख दिया ।
***
विमल के आफिस टेलीफोन की घन्टी बजी ।
उसने कम्प्यूटर फीड आउट के उस पुलन्दे से सिर उठाया जिसकी कि वो एन्ट्रियां चैक कर रहा था और फिर हाथ बढा कर फोन उठाया ।
“यस ।” - वो माउथपीस में बोला ।
“सर ।” - उसे रिसैप्शनिस्ट की आवाज सुनाई दी - “आई हैव ए पुलिसमैन हेयर हू वान्ट्स टु सी यू ।”
“पुलिसमैन ?” - विमल सकपकाया ।
“एक सब-इंस्पेक्टर, अजीत लूथरा नाम है ।”
“अकेला है ?”
“यस, सर ।”
“आने दो ।”
कोई पुलिसवाला उससे मिलने के लिए ‘अकेला’ आया था तो ज्यादा खतरे की बात नहीं हो सकती थी ।
वाहे गुरु सच्चे पातशाह । - वो होंठों में बुदबुदाया - तू मेरा राखा सबनी थाहीं !
तभी उसके केबिन का दरवाजा खुला और सब- इंस्पेक्टर लूथरा ने भीतर कदम रखा ।
“गुड मार्निग, मिस्टर कौल ।” - वो मुस्कराता हुआ बोला ।
विमल ने उठकर उससे हाथ मिलाया और कुर्सी पेश की । दोनों बैठ गए तो लूथरा बोला - “आपने मुझे पहचाना, जनाब ?”
“नाम से नहीं पहचाना ।” - विमल गम्भीरता से बोला - “सूरत से पहचाना । कल रात लोधी के बाहर नाम तो आपने अपना बताया ही नहीं था ।”
“याददाश्त अच्छी है आपकी ।”
“एकाउन्ट्स की नौकरी कहीं अच्छी याददाश्त के बिना चलती है !”
“ठीक फरमाया आपने ।”
“कैसे आए ?”
लूथरा ने उत्तर न दिया । उसकी निगाह पैन होती हुई केबिन में बायें से दायें फिरी और फिर वापिस लौटती बार साइडटेबल पर रखे ब्रीफकेस पर टिकी ।
“ये कल वाला ब्रीफकेस तो नहीं ।” - वो बोला - “कल तो, जहां तक मुझे याद पड़ता है, आपके हाथ में जो ब्रीफकेस था, वो लाल चमड़े में मंढा हुआ था ।”
“ठीक याद पड़ता है आपको ।” - विमल शुष्क स्वर में बोला - “वो कदरन बड़ा ब्रीफकेस था जिसे मैं तब इस्तेमाल करता हूं जब मैंने ज्यादा कागजात, ज्यादा फाइलें ढोनी हों ।”
“आई सी । ओवरकोट नहीं दिखाई दे रहा आपका ?”
“वो” - विमल ने उस घूरा - “क्या कोई नुमायश की चीज है ।”
“आप तो बुरा मान गये ?”
“नहीं, नहीं । ऐसी कोई बात नहीं ।”
“मैंने तो यूं ही पूछ लिया था । उत्सुकतावश । आपको एतराज हुआ तो मैं माफी चाहता हूं ।”
“नहीं, नहीं । ऐसी कोई बात नहीं वो क्या है कि ओवरकोट मैं तभी पहनता हूं जब मैंने देर रात तक घर से बाहर रहना होता है । कल रात मुझे बाहह बज गए थे घर पहुंचते-पहुंचते । और सर्दियों में दिल्ली की रातें तुम जानते हो कि...”
“बहुत ठण्डी होती हैं ।”
“ऐग्जैक्टली ।”
“यानी कि आज देर रात तक घर से बाहर रहने का इरादा नहीं है आपका ?”
“मतलब ?”
“ओवरकोट जो नहीं पहने हुए आप ।”
उत्तर में विमल बड़े औपचारिक भाव से केवल हंसा ।
“दिल्ली में कब से हैं आप ?” - लूथरा बोला ।
“यही कोई चार महीने से ।”
“उससे पहले कहां रहते थे ?”
“चण्डीगढ में । अब” - विमल के स्वर में उपहास का पुट आ गया - “पता भी बताऊं ?”
“बता दीजिये । क्या हर्ज है ?”
विमल हड़बड़ाया । फिर उसने उसे चण्डीगढ का पता बताया ।
“आप कश्मीरी हैं न ?”
“हां । चण्डीगढ से पहले सोपोर में रहता था । वहां मेरा अपना कारोबार था । टिम्बर का लेकिन अब तो सब पीछे छूट गया । अपने ही मूल्क में शरणार्थी हो गए हम लोग ।”
लूथरा ने बड़ी सहानुभूतिपूर्ण सूरत बनाई ।
“आना कैसे हुआ इंस्पेक्टर साहब ?”
“ड्यूटी बजाने ही आया हूं, जनाब । चन्द सवाल पूछना चाहता हूं ।”
“वो तो आप पूछ ही रहे हैं । अगर यही ड्यूटी बजाने आए है तो वो तो आप पहले से ही बजा रहे हैं ।”
“वो तो यूं ही औपचारिक, दुनियादारी के सवाल थे जो मैंने उत्सुकतावश पूछ लिए । उनका मेरी ड्यूटी से कुछ लेना-देना नहीं हैं ।”
“और सवाल आप किस बाबत पूछना चाहते हैं ?”
“और सवाल मैं कल रात की बाबत पूछना चाहता हूं ।”
“क्या बात है, भई ?” - विमल जबरन मुस्कराया - “राजधानी में रात के वक्त किसी पार्क में से गुजरना काग्नीजेबल ऑफेंस डिक्लेयर हो गया है ?”
“वो बात नहीं ।”
“तो और क्या बात है ? मुझे तो अपनी इतनी ही खता याद आ रही है कि शार्ट कट अख्तियार करने के लिए मैं पार्क में से गुजरा ।”
“मैं कुछ और पूछना चाहता हूं ।”
“और क्या ?”
“क्या आप दिल्ली के मजनू का टीला के नाम से जाने जाने वाले किसी इलाके से वाकिफ हैं ?”
“मजनू का टीला ! वहां क्या मजनू का या लैला-मजनू दोनों का कोई स्मारक है ?”
“नहीं । सिर्फ नाम है वो उस इलाके का । वहां तिब्बती शरणार्थी बसे हुए हैं जो वहां चायनीज फूड - सूप, नूडल्स वगैरह - और चावल से निकाली गयी शराब के ढाबानुमा रेस्टोरेंट चलाते हैं ।”
“नहीं । मैं इस नाम के किसी इलाके से वाकिफ नहीं ।”
“नाम से न वाकिफ हों लेकिन कभी गए हों वहां ? बिना ये जाने गए हों कि वो इलाका मजनू का टीला के नाम से मशहूर है ?”
“कहां पड़ता है ये इलाका ?”
“रिंग रोड से जी टी रोड की ओर जाने वाले बाई पास पर । माल रोड से भी रास्ता है ।”
“मैं तो उधर कभी नहीं गया ।”
“पक्की बात ?”
“हां ।”
“पिछले दिनों में आप कभी विलिंगडन हस्पताल गए हैं ?”
“वहां तो गया हूं । रोज जाता हूं । शुक्रवार से रोज जा रहा हूं । वहां एक पेशेन्ट है जिसको मेरी देखभाल की जरूरत है ।”
“सुमन वर्मा ? वार्ड नम्बर पांच ? रूम नम्बर दो ?”
“वही ।”
“रिश्तेदारी है आपकी उस लड़की से ?”
“नहीं । रिश्तेदारी कोई नहीं । पड़ोस का नाता है । पड़ोसी का फर्ज निभाने जाता हूं । बेचारी के साथ इतनी बड़ी ट्रेजेडी हुई है । कोई भी तो नहीं उसकी देखभाल करने वाला ।”
“बहुत दयाभाव है आपके मन में प्राणी मात्र के लिए ।”
विमल ने उत्तर न दिया । उसने अपना पाइप निकाला और उसमें तम्बाकू भरने लगा ।
“अमूमन कब जाते हैं आप हस्पताल में ?” - लूथरा बोला ।
“शाम को । यहां से छुट्टी होने के बाद ।”
“लेकिन आज सुबह गए ?”
विमल की भवें उठीं ।
“गए ?” - लूथरा जिदभरे स्वर में बोला ।
“जब मालूम ही है तो क्यों पूछते हो ?”
“वजह ? वजह शाम की जगह आज सुबह जाने की ?”
“आज शाम को मैं नहीं जा सकता । मेरे अपने घर में भी एक पेशेन्ट मौजूद है । मेरी बीवी बीमार है । प्रेग्नेंट है । आठवा महीना चल रहा है । नाजुक केस है । आज शाम को मैंने उसे डाक्टर के पास ले जाना है । शाम को मैं विलिंगडन जाने के लिए फ्री नहीं इसीलिए यहां आते समय वहां से हो के आया ।”
“बस, ये ही वजह है ? और कोई वजह नहीं ?”
“और क्या वजह होगी ?”
“आप बताइये !”
“और कोई वजह नहीं ।”
“आज आपके पेशेन्ट वाले कमरे में एक और पेशेन्ट भी मौजूद था । आपने देखा ?”
“देखा नहीं । बीच में पर्दा खिंचा हुआ था । पर्दा खिंचा होने से ही मालूम हो रहा था कि कोई और पेशेन्ट वहां पहुंच गया था ।”
“आपको उत्सुकता नहीं हुई ये जानने की कि वो दूसरा पेशेन्ट कौन था ?”
“काहे को होती ? हस्पताल में सैकड़ों की तादाद में पेशेन्ट आते-जाते हैं । उसकी बाबत उत्सुकता दिखाने वाली कौन सी बात है ?”
“वो खास पेशेन्ट था ।”
“क्या खासियत थी उसमें ?”
लूथरा खामोश रहा । उसे उत्तर न देता पाकर विमल ने अपना पाइप सुलगा लिया ।
“आपने आज का अखबार पढा ?” - लूथरा बोला ।
“हां, पढा ।” - विमल बोला ।
“कल रात लोधी गार्डन में सोनिया शर्मा नाम की एक नौजवान लड़की के साथ जो बीती, उसकी बाबत खबर भी आपने पढी होगी । फ्रंट पेज पर छपी थी ।”
“हां । पढी थी खबर मैंने । किसी अजनबी आदमी ने उस लड़की की इज्जत बचाने के लिए उसके तीन बलात्कारियों को शूट कर दिया था ।”
“प्वायन्ट ब्लैंक । बचने की कोई गुंजाइश ही नहीं थी ।”
“हां । ऐसा ही कुछ पढा था मैंने अखबार में । ये भी छपा था कि वो तीनों पक्के हिस्ट्रीशीटर थे ।”
“कौल साहब, मैं आपकी तवज्जो इस बात की ओर दिलाने की कोशिश कर रहा हूं कि जिस वक्त पार्क में ये हादसा हो रहा था, ऐन उस वक्त आप पार्क में थे । न सिर्फ पार्क में थे, मौकायेवारदात के करीब थे क्योंकि आपका अख्तियार किया वो शार्टकट मौकायेवारदात के ऐन पहलू से गुजरता है ।”
“इत्तफाक की बात है ।”
“और वो लड़की सोनिया शर्मा जो बलात्कारियों का शिकार होने से बाल-बाल बची थी, वो विलिंगडन हस्पताल में आपके पेशेन्ट से दो गज दूर उसी कमरे में मौजूद थी ।”
“इत्तफाक की बात है ।” - विमल ने फिर दोहराया ।
“आपको नहीं मालूम था कि वो वहां थी ?”
“कैसे मालूम होता ? मैंने अर्ज किया न कि बीच में पर्दा खिंचा हुआ था ।”
“पर्दा खिंचा हुआ था । कोई अभेद्य दीवार नहीं तनी हुई थी बीच में जिसे कि आप पार नहीं कर सकते थे ।”
“आप कहना क्या चाहते हैं ?”
“बताता हूं । गौर से सुनिये मैं ये कहना चाहता हूं कि कल रात लोधी गार्डन में जिस शख्स ने उन बलात्कारियों को शूट किया था वो आप थे । और अगर वो आप थे तो फिर मजनू के टीले पर उन हिस्ट्रीशीटर जेबकतरों को शूट करने वाले भी आप थे । आगे मैं ये कहना चाहता हूं कि आज सुबह सवेरे विलिंगडन हस्पताल में आपकी मौजूदगी बेमानी नहीं थी । आप एक खास मकसद से सुबह-सवेरे वहां पहुंचे थे और वो मकसद ये था कि आपने वहां जाकर सोनिया शर्मा को धमकाया या मिन्नतसमाजत की लेकिन उसे ये पट्टी पढाई कि वो पिछली रात पुलिस को दिया अपना बयान बदल दे ।”
“वाह !” - विमल हंसा - “आपने तो कमाल कर दिया मिस्टर... मिस्टर... क्या नाम बताया था आपने अपना ?”
“लूथरा । सब-इंस्पेक्टर लूथरा । और मैं अभी आपकी अच्छी याददाश्त की तारीफ करके हटा हूं ।”
“आपने तो वाकई कमाल कर दिखाया । आनन-फानन एक डबल और एक ट्रिपल मर्डर के केस को हल करके दिखा दिया । देख लीजियेगा, कोई मैडल-वैडल तो आपको हाथ-के-हाथ मिल जायेगा तरक्की होने में शायद थोड़ी लग जाये ।”
“लगता है कि आप मेरी बात को गम्भीरता से नहीं ले रहे हैं ।”
“ठीक पहचाना आपने । आप पिनक में कोई शोशा छोड़ें और मैं उसे गम्भीरता से लूं, ये कैसे हो सकता है !”
“ये कोई शोशा नहीं है और न मैं पिनक में हूं । मैंने जो कुछ कहा है, पूरी गम्भीरता से, पूरी जिम्मेदारी से कहा है । इत्तफाफ हो जाता है कभी-कभार । लेकिन यूं आनन-फानन होने वाले इत्तफाकों पर मेरा एतबार नहीं । ऐन वारदात के वक्त मौकायेवारदात पर आप मौजूद । दिन चढते ही विक्टिम के सिरहाने आप मौजूद ।”
“फिर तो आपको इसमें भी मेरी ही कोई चाल लगी होगी कि वो लड़की सोनिया शर्मा, उसी कमरे में मौजूद थी जिसमें कि मैं रोज जाता था ?”
“वो जरूर इत्तफाक था जो कि इसलिए हुआ क्योंकि वहां के अलावा हस्पताल में और कोई बैड खाली नहीं थी । और वो बहुत मुफीद इत्तफाक निकला आपके लिए वर्ना आपका काम इतनी आसानी से न हो जाता ।”
“मेरा काम ?”
“जी हां । आपका काम । लड़की को अपना बयान बदलने के लिए तैयार करने का आपका काम । आपकी जानकारी के लिए कल रात लड़की ने अपने मुहाफिज का जो हुलिया बयान किया था वो बिल्कुल आपसे मिलता है ।”
“वो आम हुलिया है । दिल्ली शहर में हजारों शख्स उस हुलिये के हो सकते हैं ।”
“अब आप ये बात कह सकते हैं, क्योंकि अब लड़की अपने बयान से फिर चुकी है । पहले आपको इस बात का एतबार नहीं था । होता तों सुबह-सवेरे लड़की के सिरहाने न पहुंच गये होते ।”
“मैं लड़की के सिरहाने नहीं पहुंचा था । मुझे नहीं पता था वो लड़की कौन थी और कहां पायी जाती थी ! वो वहां होती या न होती मैंने वहां जाना ही जाना था । शाम की जगह सुबह ही जाना था क्योंकि शाम को मैं खाली नहीं । अलबत्ता ऐन वारदात के वक्त पार्क में मौजूद होने का गुनहगार मैं जरूर हूं ।”
“आप ही ने वो तीन कत्ल किये थे ।”
“झूठ । बकवास । पार्क से निकलते ही तो आपसे मेरा आमना-सामना हो गया था । तब आपने मेरी जामातलाशी तक ली थी । आपको मेरे पास कोई हथियार मिला था ! बोलिए ?”
“हथियार आपने पार्क में कहीं फेंक दिया हो सकता है ।”
“काहे को ? मुझे क्या सपना आया था कि वहां से बाहर निकलते ही मेरा पुलिस से टकराव हो जाना था ? अगर मैं कातिल था तो हथियार फेंक देने की जगह उसे पास रखने में फायदा नहीं था मुझे ?”
“क्या फायदा था ?”
“बहुत फायदा था । हथियार मेरे पास होता तो पार्क के गेट पर मैं आपको और आपके उस सिपाही को भी शूट कर देता जो जीप में बैठा था !”
लूथरा हड़बड़ाया ।
“क्या मुश्किल काम था ? कौन रोकता मुझे ? वहां तो आसपास दूर-दूर तक कोई परिन्दा पर नहीं मार रहा था । जहां तीन, बल्कि आपके कहने के मुताबिक तो पांच, कत्ल किये, वहां दो और सही ।”
“पुलिस वालों का कत्ल करना इतना आसान नहीं ।”
“क्यों ? पुलिस वाले लोहे के बने होते हैं ? या अमृत पिये होते हैं ?”
“मैं आपसे बहस नहीं करना चाहता ।”
“मैं खुद आपसे बहस नहीं करना चाहता । आई एम ए बिजी मैन एण्ड यू आर वेस्टिंग माई टाइम ।”
“आप...”
“छोड़िये । मैं आपकी वाहियात दलीलों से इत्तफाक या नाइत्तफाकी दिखाकर अपना वक्त बरबाद नहीं करना चाहता । आप एक सैकेंड में साफ-साफ लफ्जों में अपनी यहां आमद का मकसद बताइये । आप मुझे गिरफ्तार करने आये हैं ?”
“नहीं ।”
“तो क्यों आये हैं ? अगर आपको गप्पें मारने का शौक है तो कहीं और जाके मारिये । किस्से-कहानियां गढने और सुनाने का शौक है तो ये शौक कहीं और जा के पूरा कीजिये ।”
“मिस्टर कौल, आप इसलिए इतना पसर रहे हैं क्योंकि आप जानते हैं कि मेरे पास आपके खिलाफ कोई सबूत नहीं है । लेकिन, जुबानी कबूल करें या न करें, आप भी जानते हैं कि मैं जो कुछ भी कह रहा हूं सच कह रहा हूं । कल रात जो कुछ आपने किया, वो क्यों किया, ये मेरी समझ से बाहर है । मुझे नहीं मालूम कि जो कुछ आपने वो जान-बूझकर किया या संयोगवश हो गया । मुझे ये भी नहीं मालूम कि जो हुआ, वो हो चुका या आपके ऐसे ही खतरनाक इरादे अभी और भी हैं ।”
“कैसे खतरनाक इरादे ?” - विमल उपहासपूर्ण स्वर में बोला - “शहर के तमाम बलात्कारियों को मार गिराने के इरादे ?”
“ऐसी कोई ख्वाहिश हो सकती है आपके मन में । जुल्म और नाइंसाफी के खिलाफ ‘सिंगल हैण्डिड’ जेहाद खड़ा करने का कोई किताबी या फिल्मी जुनून आप पर काबिज हो चुका हो सकता है । सिरफिरों की कमी नहीं है हमारी सोसायटी में । सिरफिरों की किस्मों की भी कमी नहीं हैं ।”
“आप मुझे सिरफिरा कह रहें हैं ?”
“मैं सिर्फ ये कह रहा हूं कि आइन्दा जो कुछ करें, सोच समझकर करें । मेरी हर घड़ी आप पर निगाह होगी । आपकी कोई हरकत मेरे से छुपी नहीं रहेगी । ये मेरी वार्निग है आपको । अगली बार आपका एक कदम गलत उठा नहीं कि दूसरा कदम हवालात में होगा । सो” - लूथरा एकाएक उठ खड़ा हुआ और एक-एक शब्द चबाता हुआ बोला - “वाच युअर स्टैप, मिस्टर कौल ।”
“यू आलसो वाच युअर स्टैप, मिस्टर पुलिस आफिसर”- विमल बर्फ के से सर्द स्वर में बोला - “इफ यू इनटेंड का कन्टीन्यू विद युअर प्रेजेन्ट एम्पलायमेंट । जो जुबानदराजी अभी तुम मेरे साथ करके जा रहे हो, वो आइन्दा कहीं और जाके आजमाना । ये मेरा सब्र था जिसने मुझे तुम्हारी इतनी बकवास सुनने के लिए मजबूर किया, अगली बार मेरे सब्र का प्याला छलक सकता है । इसलिए दोबारा यहां कदम न रखना । रखना तो या तो मैंने गिरफ्तारी का वारन्ट साथ लेकर आना या अपने लिए किसी दूसरे कारोबार का जुगाड़ पहले से ही करके आना क्योंकि तब तुम्हारी पुलिस की नौकरी तो गयी ।”
लूथरा का चेहरा कानों तक लाल हो गया ।
“और खुशकिस्मत जानो अपने आपको” - विमल बोला कि मैं वो नहीं हूं जो कि तुम मुझे साबित करने की कोशिश कर रहे हो । होता तो एक मामूली सब-इंस्पेक्टर की क्या हस्ती होती मेरे सामने, उसकी वाहियात धमकियों की क्या औकात होती मेरे सामने, लोग-बाग बस याद ही करते कि होता था कोई लूथरा करके सब-इंस्पेक्टर दिल्ली शहर में ।”
लूथरा खून का घूंट पी के रह गया । उसने बड़ी मुश्किल से अपने-आप पर जब्त किया ।
“ठीक है ।” - फिर वो बोला - “आपने अपनी धमकी सुना ली और मेरी धमकी सुन ली । फिलहाल हिसाब बराबर हो गया । अब मैं इस बात का खास खयाल रखूंगा कि आइन्दा कभी कत्ल का खाता खुले तो उसमें आपकी ऐन्ट्री पर लाल स्याही फिरी हो । ऐसे ।”
लूथरा ने यूं उंगली विमल के चेहरे पर लहराई जैसे क्रॉस लगा रहा हो ।
“मुझे तो” - विमल बोला - “तुम कोई फर्जी पुलसिये लगते हो जो झूठ-मूठ की वर्दी पहनकर यहां आ गये हो । मैं पुलिस को फोन करता हूं ।”
और उसने फोन की तरफ हाथ बढ़ाया ।
लेकिन सब-इंस्पेक्टर लूथरा पहले ही वहां से बाहर निकल गया ।
विमल ने फोन पर से हाथ खींच लिया और विचारपूर्ण भाव बनाये पाइप के कश लगाने लगा ।
ये अच्छे लक्षण नहीं थे कि कोई पुलसिया यूं उसके पीछे पड़ गया था । पता नहीं वो गीदड़ भभकी दे के गया था या सच में ही हर वक्त उस पर निगाह रखने का इरादा रखता था लेकिन अब आगे बहुत-बहुत सावधान रहना तो निहायत जरूरी हो गया था ।
मन्दे कम्मी नानका - वो एक आह-सी भरता हुआ बोला - जद कद मन्दा होये ।
***
“सामने वाले खाली फ्लैट में कोई आ गया मालूम होता है ।” - विमल शाम को घर लौटा तो नीलम ने उसे बताया ।
“अच्छा ।” - विमल सहज भाव से बोला - “कैसे जाना ?”
“एक आदमी फोन करने की नीयत से आया था । उसने खुद ही बताया था कि उसने सामने वाला खाली फ्लैट किराये पर लिया था और...”
“नीलम !” - विमल सख्त स्वर में बोला - “मैंने तुम्हें कितनी बार समझाया है कि मेरी गैरहाजिरी में किसी को, किसी को भी, घर में दाखिल नहीं होने देना । भूल भी गयी कि अभी पिछले हफ्ते ही हमारे से ऊपर वाले फ्लैट में क्या कांड होकर हटा है !”
“वो कांड यहां नहीं हो सकता ।”
“क्यों ? क्यों नहीं हो सकता ?”
“ये ढोल देख रहे हो ?” - नीलम ने हंसते हुए अपने फूले पेट पर हाथ फिराया - “देखते ही भाग जायेगा कांड करने वाला । कहेगा, बहन जी, कोठरी खाली जाये तो खबर करना, लौट के आ जाऊंगा ।”
“बकवास मत कर । मजाक भी मत कर ।”
“अरे सरदार जी, किसने दाखिल होने दिया किसी को घर के भीतर ? मैंने तो दरवाजे को सेफ्टी चेन लगाकर उसके आरपार से उससे बात की थी ।”
“लेकिन टेलीफोन...”
“मैंने कह दिया था कि खराब पडा़ था ।”
“हां ।” - विमल ने चैन की सांस ली - “ठीक किया तूने ।”
“बात समझते नहीं हो । बरसने लगते हो ।”
“सारी ।”
“सारी क्या ?” - नीलम ने फिर अपने पेट को छुआ - “आजकल तो मैं डेढ हूं । सवा तो शर्तिया हूं ।”
विमल हंसा और फिर बोला - “मैं एक मिनट में आया ।”
वो फ्लैट से बाहर निकला और उसने सामने फ्लैट के प्रवेश द्वार पर जाकर उसकी कालबैल बजाई ।
एक आदमी ने दरवाजा खोला । उसके पीछे एक कुर्सी पर बैठा उसे एक और आदमी दिखाई दिया । दोनों की सूरतों पर शरीफ शहरियों जैसी कोई छाप नहीं थी । उनकी सूरतों से लगता था कि या तो वो घुटे हुए बदमाश थे या पक्के पुलसिये थे ।
“क्या है ?” - वो रूख स्वर में बोला ।
“मेरा नाम कौल है ।” - विमल मीठे स्वर में बोला - “मैं सामने फ्लैट में रहता हूं । वाइफ ने बताया कि इस खाली फ्लैट में नये किरायेदार आ गये हैं । पड़ोसी के नाते हाजिर हुआ हूं । कोई खिदमत हो तो निसंकोच बताइयेगा ।”
“शुक्रिया ।” - वो आदमी जबरन मुस्कराया - “होगी तो जरूर बतायेंगे ।”
“आखिर पड़ोसी ही पड़ोसी के काम आता है ।”
“जी हां ।”
“पुलिस में हैं आप ?”
वो हड़बड़ाया । उसके चेहरे पर से मुस्कराहट उड़ गयी ।
“किसने कहा ?” - वो कठोर स्वर में बोला ।
“किसी ने नहीं कहा ।” - विमल पूर्ववत् मीठे स्वर में बोला - “मैंने ही कहा । अन्दाजन ।”
“नहीं, नहीं । हम पुलिस में नहीं हैं । हमारा तो ट्रांसपोर्ट का बिजनेस है ।”
“बढिया बिजनेस है । नाम जान सकता हूं आपका ?”
“रावत । रावत नाम है मेरा ।”
“आपसे मिलकर बहुत खुशी हुई, रावत साहब ।” - विमल ने जबरन उसका हाथ थामा और उसे ऊपर-नीचे चलाता हुआ बोला ।
“मुझे भी ।” - रावत अपना हाथ छुड़ाता हुआ बोला ।
“फिर मिलेगें ।”
“जरूर ।”
उसने विमल के मुंह पर दरवाजा बन्द कर दिया ।
विमल कुछ क्षण वहीं ठिठका खड़ा रहा, फिर वो लिफ्ट पर सवार होकर नीचे ग्राउन्ड फ्लोर पर पहुंचा । वहां उसने इमारत के चौकीदार राम सेवक को तलाश किया ।
“सातवी मंजिल के खाली फ्लैट में नये किरायेदार आ गये हैं ।” - विमल बोला - “मालूम ?”
“मालूम, साहब ” - चौकीदार राम सेवक बोला - “बिल्कुल मालूम । हमें नहीं मालूम होगा तो और किसे मालूम होगा ? आखिर हम यहां के चौकीदार होते हैं ।”
“थोड़ा कम बोला कर ।”
राम सेवक हड़बड़ाया । उसने आहत भाव से विमल की ओर देखा ।
“कौन हैं वो लोग ?”
“कोई रावत साहब हैं ।”
“कितने लोगों की फैमिली है ?”
“अभी तो दो मर्द ही दिखाई दिये हैं । फैमिली के और लोग शायद सामान के साथ आयेंगे ।”
“सामान के साथ आयेंगे ? अभी सामान नहीं आया इनका ?”
“जी नहीं ।”
“अरे, वो कोई चोर-उचक्के ही न हों जो खाली फ्लैट में जबरन घुस आये हों ?”
“ऐसे कैसे हो जायेगा, साहब ! ऐसे कैसे होने देंगे हम । आखिर हम यहां के चौकीदार हैं । हम तो...”
“फिर शुरू हो गया !”
राम सेवक की जुबान को ब्रेक लगी । फिर वो बोला - “साहब, हम उनके साथ ऊपर गये थे । उन्होने हमारी आंखों के सामने दरवाजे को बाकायदा चाबी लगाकर दरवाजा खोला था ।”
“ओह !”
“पुलिस के महकमे के लोग मालूम होते हैं, साहब ।”
“वो कैसे जाना ?” - विमल तनिक चौंककर बोला ।
“एक पुलिस की जीप उन्हे यहां छोड़कर गयी थी, साहब ।”
“ओह ! आज फाकी नहीं लगाई हुई ?”
“वो... वो... क्या है साहब कि...”
“अब लगा ले ।” - विमल ने उसे एक बीस का नोट दिया - “मेरी तरफ से ।”
राम सेवक खुश हो गया । उसने विमल को ठोककर सलाम मारा ।
विमल वापस लौट पड़ा ।
सब-इंस्पेक्टर लूथरा ने बहुत जल्द अपनी धमकी पर खरा उतरकर दिखा दिया था । उसकी निगरानी शुरू हो भी गयी थी ।
अब मौजूदा हालात में उसे सच में ही नीलम को डाक्टर को दिखाने ले जाना पड़ना था ।
और अपने इतने करीब मौजूद अपने निगहबीनों को डाज देने की कोई जुगत सोचनी थी ।
***
जिस लेडी डाक्टर के पास नीलम का केस था, उसका नाम मिसेज कुलकर्णी था और कर्जन रोड पर उसका रेजीडेंस कम क्लीनिक था ।
नीलम को साथ लेकर एक टैक्सी पर विमल वहां पहुंचा ।
वो जगह एक एकमंजिली कोठी थी जिसके सामने एक बहुत बड़ा कम्पाउन्ड था । विमल के निर्देश पर ड्राइवर टैक्सी को कम्पाउण्ड के भीतर ले गया ।
पीछे सारे रास्ते विमल को अपने पीछे लगा कोई दिखाई तो नहीं दिया था लेकिन फिर भी उसे यकीन था कि उसका वहां तक पीछा जरूर किया गया होगा ।
उसने टैक्सी ड्राइवर को वहीं रूकने को कहा और वो नीलम को लेकर भीतर क्लीनिक में पहुंचा । वहां रिसैप्शन पर अपनी बारी के इन्तजार में चार-पांच महिलायें बैठी थी । विमल ने नीलम को वहां बिठाया और बाहर निकला ।
उस कोठी के कम्पाउन्ड की चारदीवारी इतनी ऊंची थी कि इसके पार सड़क पर नहीं झांका जा सकता था । केवल खुले फाटक से भीतर झांका जा सकता था लेकिन विमल की टैक्सी कम्पाउन्ड में यूं खड़ी थी कि वो दीवार की ओट में आ गयी थी और वो बाहर से तभी देखी जा सकती थी जब कोई ऐन फाटक पर पहुंचकर भीतर झांकता ।
वो टैक्सी के करीब पहुंचा ।
उसके ड्राइवर ने उसे देखकर बाहर निकलने की कोशिश की तो विमल ने हाथ के इशारे से उसे वहीं बैठे रहने का संकेत किया और स्वयं उसके पहलू में अगली सीट पर जा बैठा ।
“किराया कितना बना ?” - वो बोला ।
“बाइस रूपये ।” - ड्राइवर बोला ।
“ये” - विमल ने उसे एक सौ का नोट थमाया - “तुम्हारा किराया और बकाया भी तुम्हारा ।”
ड्राइवर ने हैरानी से उसकी तरफ देखा ।
“बदले में तुम्हें मेरा एक छोटा-सा काम करना है ।”
“क्या ?” - ड्राइवर तनिक सन्दिग्ध भाव से बोला ।
“सुजान सिंह फार्क में एम्बैसेडर होटल का टैक्सी स्टैण्ड देखा है ?”
“देखा है ।”
“वहां जाना है । वहां मुबारक अली टैक्सी ड्राइवर का पता करना है । उसकी टैक्सी का नम्बर डी एल टी 8201 है ।”
“वो वहां होगा ?”
“शायद हो शायद न हो । बहरहाल अगर वो वहां हो तो तुमने उसको यहां भेज देना है । यहां । मेरे पास । कौल साहब के पास । मेरा नाम और यहां का पता याद रहेगा ?”
“हां । अगर वो वहां न हुआ तो ?”
“तो टैक्सी स्टैण्ड के खोखे में टेलीफोन पर जो आदमी बैठा होता है, उसके पास ये सन्देशा छोड़ आना कि मुबारक अली जब भी वहां आये कौल साहब को फोन करे और खुद यहां लौट आना । यूं मुझे मालूम हो जाएगा कि मुबारक अली तुम्हें नहीं मिला ठीक ?”
“ठीक ।”
“करोगे मेरा काम ?”
“जरूर ।”
“शुक्रिया ।”
वो टैक्सी से बाहर निकल आया ।
टैक्सी वहां से रवाना हो गयी ।
ड्राइवर उसे धोखा भी दे सकता था लेकिन वो महज अठहत्तर रुपये नुकसान की बात होती ।
वो वापस रिसैप्शन पर पहुंचा ।
“कहां गये थे ?” - नीलम बोली ।
“टैक्सी वाले का भाड़ा चुकता करने गया था ।”
“रोक के रखना था । वापस भी तो जाना था ।”
“ध्यान नहीं आया । कोई बात नहीं टैक्सी और मिल जायेगी ।”
“हां मेरे पास बैठो ।”
“बैठा तो हूं ।”
दस मिनट बाद नीलम की बारी आयी । एक नर्स उसे अपने साथ भीतर डाक्टर के चैम्बर में ले गयी । उसके दृष्टिे से ओझल होते ही विमल तत्काल बाहर कम्पाउन्ड में पहुंचा । वहां उस घड़ी मौजूद वाहनों में टैक्सी केवल एक थी जिसकी तरफ वो बढ़ा । वो करीब पहुंचा तो उसकी ड्राइविंग सीट पर उसने मुबारक अली को बैठा पाया ।
“आओ, बाप ।” - मुबारक अली उसकी तरफ का टैक्सी का दरवाजा खोलता हुआ बोला ।
विमल टैक्सी में जा बैठा ।
“तुम्हेरा” - मुबारक अली बोला - “वो क्या कहते है अंग्रेजी में, सन्देशा, बस इत्तफाक से ही मिला । अपुन बस अड्डे पर पहुंचा ही था जब वो अपना डिरेवर भाई वहां आया ।”
“सन्देशा कैसे भी मिला, मिला तो सही ।”
“वो तो है । उदर काहे नेई आयेला था ?”
विमल ने उसे लूथरा से अपनी झड़प और अपनी निगाहबीनी की बाबत बताया।
“ओह !” - मुबारक अली बोला - “फिर तो, बाप, बहुत, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में खबरदार रहने का है ।”
“वो तो है । तू बोल, क्या खबर है ?”
“कल रात छंगू का ताश पत्ती का वो खास यार जो छंगू को खेल में नंगा करके गयेला था, वो वापिस लौटा नहीं था । पण मैं उसके दूसरे साथियों के पीछू पड़ा था । उन तीनों ने भी बाहर निकलते ही अलग-अलग राह पकड़ ली थीं । अब मैं तीनों के पीछू तो जा नेई सकता था इसलिये...”
“तू उनमें से एक के पीछे लगा । आगे बढ ।”
“वो आदमी पहाड़गंज के एक अंग्रेजी तरीके के रेस्टोरेंट में गया था जहां की खास चीज मैदे की बड़ी वाली रोटी होती है जिस पर किस्म-किस्म की सब्जियां और गोश्त चिपकाकर, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, बिजली की भटटी में सेंकते हैं ।”
“पीजा ! पीजा कहते हैं उसे और जहां ऐसी चीज मिलती है उसे पीजा पार्लर कहते हैं ।”
“वहीं । वहां इम्पीरियल सिनेमा के बाजू में है वो, वो... जो अबी तू बोला ।”
“आगे ।”
“बाप, उस... ठीये को चार्ली नाम का एक आदमी चलाता है और मेरे कू तो वो नशे का अड्डा मालूम हुआ । वो इलाका फिरंगी हिप्पियों से तो वैसे ही भरा रहता है । फिट जगह है वो ऐसे काम के लिये ।”
“मालूम क्या हुआ वहां से ?”
“कल तो इतना ही मालूम हुआ लेकिन आज अपुन उदर फिर गयेला था । अक्खी दिहाड़ी उदर ही खोटी की अपुन ने आज ।”
“तेरे काम का बहुत हर्जा हो रहा है, मुबारक अली, मुझे इस बात का अफसोस है...”
“अरे, बाप । क्यूं कांटों में घसीटेला है ! दिहाड़ी का नाम अपुन इसलिए थोड़े ही लिया ! एक दिहाड़ी क्या, अपुन की जिन्दगी की तो सारी दिहाड़ियां तेरे ऊपर कुरबान हैं । उदर बम्बई में अपुन तेरे कू क्या बोला था ? भूल गया ? अपुन तो तेरा मुरीद है तू जो बोलेंगा, करेंगा । बोल, बोला कि नेईं बोला ?”
“बोला । सारी, मुबारक अली, दरअसल मैं...”
“उदर अल्लामारी विलायती परांठे की दुकान की क्या बात है, तु अपुन को जहन्नुम में जा कू अक्खी जिन्दगी खोटी करने कू बोलेंगा तो करेंगा ।”
“सारी ।”
“दिहाड़ी खोटी अपुन ये बताने कू बोला कि अपुन उदर बहुत मेहनत कियेला है और कुछ मालूम ही करके आयेला है ।”
“गुड । क्या मालूम हुआ ?”
“अपना वो लम्बू, जिसे वो छंगू सुन्दरलाल स्मैकिया बोला चार्ली का यार बताया जाता है । हर कोई बोला कि लम्बू उदर रोज आता है । अब बाप, जरा सोच । रोज पी... पी...”
“पीजा ।”
“पीजा खाने तो आता नेईं होगा वो उदर ।”
“यानी कि नशे-पानी के लिए आता होगा ?”
“बरोबर ।”
“वो... वो चार्ली डोप पैडलर है ?” - मुबारक अली के चेहरे पर उलझन के भाव आये तो वो बोला - “पुड़िया... पुड़िया बेचने वाला ?”
“नक्को । बाप, वो बहुत फैंसी जगह बैठेला है, वो फेरी वाला नेईं हो सकता ।”
“तो डोप डीलर होगा । लेकिन डीलर तो ग्राहक को सीधे पुड़िया देता नहीं !”
“खास गिराहक को देता होयेंगा । बाप, वो अपना सुन्दरलाल स्मैकिया शहर के किसी बड़े बाप का सगे वाला है ! भूल गया ?”
“हूं । तो वो पीजा उसका पक्का अड्डा है !”
“हां । पण अब वो कई रोज से उदर नेईं आयेला है ।”
“कैसे मालूम ?”
“मैं मालूम किया । अक्खा दिन मैं खुद उदर का निगाहबीनी किया ।”
“क्या पता वो शाम को आता हो ? अब जब कि तू यहां है तो हो सकता है कि वो वहां हो !”
“बाप, अपुन उदर का एक वेटर चौकस कियेला है । वो आया होयेंगा तो मेरे कू खबर लग जायेंगा ।”
“कोई ये नहीं जानता कि वो रहता कहां है ?”
“उदर तो कोई नेईं जानता ।”
“पीजा पार्लर का मालिक, चार्ली, तो जानता होगा ?”
“वो मेरे कू मिला नेईं उदर ।”
“उस वेटर का नाम क्या है जिसे तूने चौकस किया है ?”
“बद्री ।”
“और ?”
“और कुछ नक्को ।”
तभी विमल को रिसैप्शन के दरवाजे पर दायें-बायें निगाह दौड़ाती नीलम दिखाई दी ।
“टैक्सी वहां सामने लेकर चला ।” - विमल बोला - “वो मेरी बीवी खड़ी है । उसके सामने कोई ऐसी बात न करना जिससे लगे कि मैं तुझे जानता है ।”
“मेरे को जानने में” - मुबारक अली आहत भाव से बोला - “खराबी है, बाप ?”
“तेरे को जानने में खराबी नहीं, किसी राह चलते टैक्सी ड्राइवर को जानने में खराबी है जो कि तू इस वक्त है ।”
“ओह ! गलती हुआ, बाप । अपुन सारी बोलता है । अंग्रेजी में माफी मांगता है ।”
“अब चल ।”
मुबारक अली ने टैक्सी आगे बढाई ।
विमल अगली सीट फांदकर पिछली सीट पर पहुंच गया । मुबारक अली ने टैक्सी ले जाकर नीलम के सामने रोकी तो विमल टैक्सी का नीलम की ओर का पिछला दरवाजा खोलकर बाहर निकला ।
“टैक्सी लेने गया था ।” - नीलम के मुंह खोल पाने से पहले ही वो बोल पड़ा था - “आ ।”
दोनों टैक्सी में सवार हुए । मुबारक अली ने तत्काल टैक्सी बाहर की ओर दौड़ा दी ।
टैक्सी गोल मार्केट पहुंची ।
नीलम और विमल टैक्सी से बाहर निकले । नीलम इमारत की लाबी की ओर बढी, पीछे विमल बोला - “कितने पैसे बने, भाई ?”
“बाप” - मुबारक अली ने तत्काल विरोध किया - “क्या जुल्म...”
“अक्ले कर, मियां ।” - विमल दबे स्वर में बोला - “चौकीदार देख रहा है । कोई और भी देख रहा हो सकता है ।”
“ओह !” - फिर मुबारक अली ने तत्काल मीटर में झांका और उच्च स्वर में बोला - “बीस रुपया !”
विमल ने उसे एक बीस का नोट थमाया और घूमकर नीलम के पीछे चल दिया ।
***
शनिवार : इक्कीस दिसम्बर
सब-इंस्पेक्टर अजीत लूथरा थाने में अपनी सीट पर बैठा था । उसके सामने उस रोज का अखबार पड़ा था जिसके मुख-पृष्ठ पर छपी एक खबर को वो घर से पढकर आया था और ड्यूटी पर आकर भी कई बार पढ चुका था ।
खबर का शीर्षक था ‘चेन स्नैचर्स किल्ड’ ।
खबर के मुताबिक पिछली रात नौ बजे के करीब पंखा रोड के बस स्टैण्ड पर बस की इन्तजार में एक युवती अकेली खड़ी थी जब कि एक मोटरसाइकल पर सवार दो नौजवान वहां पहुंचे थे, उन्होंने युवती के गले में पड़ी सोने की चेन झटकी थी और फिर मोटरसाइकल वहां से भगा दी थी । लेकिन इससे पहले कि वो वारदात करके वो वहां से फरार हो पाते, एक लम्बा ओवरकोट पहने एक व्यक्ति वहां प्रकट हुआ था और उसने उन दोनों को प्वायन्ट ब्लैंक शूट कर दिया था । फिर उसने दूर से ही युवती की चेन उसकी तरफ उछाली थी और जैसे वहां एकाएक प्रकट हुआ था, वैसे ही वहां से एकाएक गायब हो गया था ।
जो दो बातें कल के अखबार में नहीं छप पायी थी वो लूथरा को ड्यूटी पर पहुंचने के बाद मालूम हुई थीं । वो दो बातें थीं ।
हत्प्राण युवकों में से एक जमानत पर छूटा हुआ कार थीफ था और दूसरा दो साल के लिए तड़ीपार हिस्ट्री शीटर था ।
युवकों को ऐन उसी किस्म की गोलियों से शूट किया गया था जिनसे कि पहले मजनू का टीला पर दो जनों को और फिर लोधी गार्डन में तीन जनों को शूट किया गया था ।
अब उस हथियार की भी शिनाख्त हो चुकी थी जिससे कि वो गोलियां चलाई गायी थीं ।
पुलिस के बैलेस्टिक एक्सपर्ट की रिपोर्ट के मुताबिक दो हथियार था एफ-14 मार्का, दस फायर करने वाली, चौवालीस कैलीबर की जर्मन रिवाल्वर ।
अलबत्ता ये स्थापित होना अभी बाकी था कि वो तमाम की तमाम गोलियां एक ही रिवाल्वर से चलाई गयी थीं ।
तभी हवलदार रावत वहां पहुंचा । उसने लूथरा का अभिवादन किया और उसके सामने बैठ गया ।
“क्या खबर है ?” - लूथरा बोला ।
“सर” - रावत बोला - “हमने सारी रात पूरी मुस्तैदी से कौल के फ्लैट की निगरानी की है ।”
“तो ?’
“उसकी बीवी तो सच में हामला है । बिल्कुल तैयार केस है । कभी भी बच्चा जन सकती है ।”
“आई सी ।”
“और वो अपनी बीवी को लेडी डाक्टर को दिखाने को भी सच में लेकर गया था ।”
“कहां ? किसके पास ?”
“कर्जन रोड पर मिसेज कुलकर्णी नाम की लेडी डाक्टर के पास । वो वहीं रहती है और वहीं क्लीनिक चलाती है । वो अपनी बीवी के साथ एक टैक्सी पर वहां पहुंचा था, पन्द्रह-बीस मिनट वहां रुका था और फिर एक दूसरी टैक्सी पर सवार होकर वापिस अपने फ्लैट पर लौट आया था ।”
“और कहीं नहीं गया था ?”
“न ।”
“वो हर घड़ी तुम्हारी निगाहों में था ?”
“हर घड़ी निगाहों में वो नहीं था लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता । हम क्लीनिक वाली कोठी के कम्पाउन्ड में उसके पीछे नहीं घुसे थे, ऐसा करते तो उसे यकीनन हमारी खबर लग जाती, लेकिन इतनी हमारी गारन्टी है कि उसकी टैक्सी हमारे सामने भीतर दाखिल हुई थी और हमारे सामने बाहर निकली थी ।”
“क्या पता वो बीवी को वहां बिठाकर पिछले दरवाजे से कहीं रफूचक्कर हो गया हो, पन्द्रह-बीस मिनट बाद पिछले रास्ते से ही वापिस लौट आया हो और तुम लोगों को इस बात की खबर ही न लगी हो !”
रावत खामोश रहा ।
“कर्जन रोड पर बड़ी-बड़ी कोठियां है और सबके पिछवाड़े में बैक लेन है !” - लूथरा ने रावत को घूरा - “क्या मुश्किल काम है ?”
रावत विचलित दिखाई देने लगा । उसने बेचैनी से पहलू बदला ।
“तुम चार जने हो, तुममे से एक को पिछवाड़े में जाने का भी खयाल आना चाहिए था !”
“आना तो चाहिए था, साहब । अफसोस है कि नहीं आया लेकिन इससे बिगाड़ क्या हो गया ?”
“आज का अखबार पढा ?”
“हां, पढा ।”
“ये” - लूथरा, ने उसका ध्यान ‘चेन स्नैचर्स किल्ड’ वाली खबर की ओर आकर्षित किया - “खबर पढी ?”
“पढी ।”
“वो वारदात करने वाला शख्स कौल हो सकता है ।”
“क्या बात करते हो, साहब !” - रावत ने तत्काल प्रतिवाद किया - “कैसे हो सकता है ?”
“क्यों नहीं हो सकता ?”
“अरे, साहब, वो वारदात पंखा रोड पर हुई है जो कि कर्जन रोड से कम-से-कम नहीं तो बीस किलोमीटर दूर है । पन्दरह बीस मिनट में कहीं बीस किलोमीटर जाना और बीस किलोमीटर वापिस आना किया जा सकता है ? ऊपर से उसे क्या सपना आया था कि खास पंखा रोड पर ही किसी औरत की जंजीर झटकने की ऐसी वारदात होने वाली थी ?”
“और ?”
“और अखबार में उस वारदात का वक्त नौ बजे के करीब का छपा है । साहब, वो शख्स, कौल, नौ बजे अपनी हामला बीवी को सम्भाले मेरी आंखों के सामने गोल मार्केट में अपने फ्लैट वाली इमारत की लिफ्ट में दाखिल हो रहा था ।”
“हूं । फिर दोबारा घर से बाहर नहीं निकला वो ?”
“नहीं निकला । मेरी गारन्टी । ऊपर उसके फ्लैट के दरवाजे पर मेरी और युद्धवीर की निगाह थी और नीचे इमारत के मुख्य द्वार पर काले खान और शीशपाल की निगाह थी ।”
“हूं ।” - लूथरा कुछ क्षण सोचता रहा और फिर बोला - “रावत, ये निगाहबीनी अभी चलेगी । जब तक मैं न कहूं तब तक तुम्हारी दिन में छुट्टी है और रात को ड्यूटी है । लेकिन ये बात तुम्हारे और मेरे बीच में ही रहनी है । एस एच ओ साहब को भनक भी नहीं पड़नी चाहिए इस बात की ।”
“नहीं पड़ेगी ।”
“और तुम्हारे साथ जो तीन आदमी हैं उनको भी यही ही बोल दो । सख्ती से समझा दो उन्हें कि अगर उन्होंने कहीं जरा भी मुंह फाड़ा तो तीनों पर अफीम की बरामदी दिखा दूंगा । फिर आगे क्या होगा...”
“साहब” - रावत ने खीसें निपोरीं - “ये कहीं जरूरत है उन सालों को बताने की । सब समझते है वो ।”
“बढिया । अब तुम जा सकते हो ।”
रावत अभिवादन कर के वहां से विदा हो गया ।
पीछे बैठा लूथरा विचारपूर्ण मुद्रा बनाये उंगलियों से मेज ठकठकाता रहा ।
रावत उसका भरोसे का आदमी था और बाकी के - युद्धवीर, काले और शीशपाल नाम के - तीन आदमियों का कौल की निगरानी के लिए उसी ने इन्तजाम किया था । सातवीं मंजिल क जिस फ्लैट को रावत अपना अड्डा बनाये था, वो खाली था और उसके मालिक का पता लगाने में और उससे चन्द दिनों के लिए फ्लैट की चाबी हासिल कर लेने में उसे कोई दिक्कत नहीं हुई थी ।
सोनिया शर्मा से वो एक बार फिर मिला था लेकिन उसके रक्षक की शिनाख्त के बारे में वो उसे उसके पहले बयान पर नहीं लौटा ला सका था ।
अब उसके सामने अहमतरीन सवाल ये था कि कहीं वो खौमखाह ही तो कौल के पीछे नहीं पड़ा हुआ था । पिछली रात की पंखा रोड की वारदात उसके इस विश्वास को डगमगा रही थी कि कौल ही सखी हातिम का रोल अदा कर रहा था । रावत उसकी निगरानी न कर रहा होता तो वो हरगिज न मानता कि पंखा रोड वाली वारदात कौल की करतूत नहीं थी ।
ऊपर से उसकी कही हर बात की तो तसदीक हो रही थी ।
उसकी बीवी गर्भवती थी और नाजुक केस थी ।
पिछली शाम की उसकी बीवी की अपनी डाक्टर से अप्वायन्टमेंट भी थी ।
चण्डीगढ का जो पता कौल ने बताया था, वहां वो वाकई रहते रहे थे । चण्डीचढ पुलिस ने उसे खबर भिजवाई थी कि चण्डीगढ वाले उस पते पर नीलम नाम की एक लड़की वाकई रहती थी जो अपनी शादी के चन्द महीनों बाद उस फ्लैट को सदा के लिए छोड़कर कहीं चली गयी थी ।
क्या था उसके पास कौल के खिलाफ ?
सिवाय इसके कि वो लोधी वाली वारदात के वक्त मौकायेवारदात के करीब मौजूद था ।
आम हालात में लूथरा शायद उस पर से हाथ खींच भी लेता लेकिन अब वो ये सोच-सोचकर तड़प रहा था कि उससे खौफ खाने की जगह और मिन्नत-समाजत की जुबान से ये समझने की जगह कि वो एक रेक शहरी था और उसका किसी अपराध से कुछ लेना-देना नहीं था, उस शख्स ने उलटे उसी की इज्जत उतारकर रख दी थी और उसकी नौकरी तक छुड़वा देने की धमकी दे दी थी उसे ।
अपनी जिद में ही उसने चण्डीगढ पुलिस के महकमे में कार्यरत अपने एक दोस्त सब-इन्सपेक्टर प्यारासिहं को टैलीग्राम भेजकर कहा था कि जो आफिशियल रिपोर्ट उसे चण्डीगढ से मिली थी, वो उससे सन्तुषट नहीं था इसलिए वो व्यक्तिगत तौर से और, विस्तृत पूछताछ करके उसे खबर भिजावाये ।
दीदादलिरी देखो साले की ! यूं तो दिल्ली पुलिस का कोई मामूली कान्स्टेबल धमकी में नहीं आता, वो तो सब-इंस्पेक्टर था । - वो मन-ही-मन भुनभुनाया - देख लूंगा साले को । सच मे शरीफ निकला तो कोई झूठा केस बना दूंगा साले के खिलाफ । उग्रवादी साबित कर दूंगा हरामी के पिल्ले को । सारी हेंकड़ी निकल जायेगी । मुझे धमकाता है । रण्डीबाजी में फंसा दूंगा । कालिख पुत जायेगी सारी सफेदपोशी पर ।
कितनी ही देर वो यूं ही कौल के खिलाफ भुनभुनात बैठा रहा ।
जाहिर था कि जिद के मारे उस सब-इंस्पेक्टर की विमल से तत्काल हाथ खींच लेने का कोई इरादा नहीं था । ये जानते हुए भी कि उसके ए सी पी को अगर उसके उस स्वतन्त्र अभियान की खबर लग जाती तो उसकी खैर नहीं थी, उसने कुछ दिन और रावत को विमल की निगरानी पर बिठाये रखने का फैसला किया था ।
***
उसका नाम शफीक खबरी था और वो खैफजदा था ।
बुधवार उसे हनीफ और गोविन्द के कत्ल की खबर लगी थी तो उसने यही समझा था कि वो किसी गलत आसामी से पंगा ले बैठे थे जिसका माल तो वो झटक नहीं सके थे, उलटे वो उनकी जानें झटका गया था ।
लेकिन कल जब उसे पता चला कि ऐन उसी तरीके से छंगू भी मारा गया था तो उसका दिल लरज गया था ।
कहीं वो सब कुछ पिछले शुक्रवार दोपहर की गोल मार्केट वाली वारदात की वजह से तो नहीं हो रहा था ? पूरा हफ्ता नहीं बीता था कि उस वारदात में शामिल पांच जनों में से तीन जने मारे भी जा चुके थे, गोलियों से उड़ाये जा चुके थे ।
अब उसकी बारी थी ।
या पहले सुन्दरलाल और फिर वो ।
इस खयाल ने उसको ऐसा आन्दोलित किया हुआ था कि वो कल से ही अपने हौलनाक अंजाम से थर्राया रजिया के जी बी रोड पर स्थित उस कोठे में दुबका बैठा था ।
उसके नाम के साथ लगे खबरी से लोग समझते थे कि दीन-दुनिया पर क्या बीत रही थी, इसकी वो बहुत खबर रखने वाला आदमी था लेकिन असल में उसे वो नाम पुलिस का दिया हुआ था । वो पुलिस वालों को जी बी रोड के कोठों पर भगाकर लाई गयी नाबालिग लड़कियों की खबर करता था । शफीक खबरी की मुखबिरी की बिना पर पुलिस वाले ऐसी लड़कियों की टोह लेते थे, वो सच में ही कमसिन और हसीन निकलती थी तो ‘साहब लोगों’ के काम आ जाती थीं, चालू माल निकलता था तो वो उनकी कोठों से बरामदी दिखाकर प्रैस के माध्यम से पब्लिक की वाहवाही लूट लेते थे ।
शफीक औरतों को रसिया था और जी बी रोड का कोठा-कोठा घूमना उसका पसन्दीदा शगल था । वहां कोठों में अगर ये पता लग जाता कि नाबालिग लड़कियों की बरामदी के मामले में वहां जितने छापे पड़ते थे, उनमें से तीन चौथाई में शफीक खबरी का हाथ होता था तो पलक न झपकती कि शफीक खबरी की बोटी-बोटी जी बी रोड के एक सिरे से दूसरे सिरे तक छितराई पड़ी होती ।
उसके औरतों के शौक की वजह से ही शुक्रवार तेरह तारीख की गोल मार्केट में सबसे तगड़ी दावत उसी की हुई थी, इतनी तगड़ी दावत हुई थी कि सिर्फ वो ही था जिसे वहां उस घर में कोई नावां-पत्ता हाथ लगने का कोई खास मलाल नहीं हुआ था । वहां बेटी को तो उन पांचों ने ही रौदा था, वो अकेला जना था जिसने मां को भी नहीं छोड़ा था । मां के साथ बद्फेली करके जब वो उस पर से उठा था तो उसने पाया था कि मां मरी पड़ी थी । लेकिन इस बात से दहशत खाने की जगह वो और भी ज्यादा आनन्दित हुआ था ।
बाद में बड़ी बहन के वहां पहुंच जानके के बाद बाकी चार जनों के घसीटे ही वो वहां से रुख्सत हुआ था वर्ना उसे तो बड़ा बहन के साथ पीछे अकेला रह जाना भी मंजूर था ।
उसका दूसरा शौक स्मैक था जिसने कि उसे सुन्दरलाल स्मैकिये का यार बनया था ।
उसका कारोबार था खड़ी कारों के पहिये और उनके भीतर का स्टैपनी, घड़ी, टी वी कैसेट प्लेयर जैसा कीमती सामान चुराना । इस प्रकार की चोरी अमूमन ग्रुप बनाकर की जाती थी यानी कि एक जना निगाहबीनी करता था, दूसरा कार खोलता था, तीसरा पहिये उतारता था तो चौथा सब तामझाम समेटता था लेकिन शफीक खबरी इस काम को अकेले अंजाम देता था, कामयबी से अंजाम देता था इसीलिए आज तक कभी पकड़ा नहीं गया था ।
कल से वो रजिया के कोठे पर पड़ा था और उसकी वहां से बाहर निकलने की हिम्मत नहीं हो रही थी । सुबह का अखबार उसने इस आशंका के हवाले होकर खोला था कि उसमें सुन्दरलाल के कत्ल की खबर छपी होगी - क्योंकि वो खुद तो जिन्दा था - लेकिन ऐसी कोई खबर उसे अखबार में छपी नहीं दिखाई दी थी, अलबत्ता पंखा रोड पर दो चेन स्नैचर्स को शूट कर दिये जाने वाली खबर अखबार में थी लेकिन उसने उनसे क्या लेना देना था ?
थोड़ी देर पहले वो अपना पसन्दीदा नशा करके हटा था और अब उसकी आंखों में गुलबी डोरे तैर रहे थे । अब कम-से-कम वक्ती तौर पर ये खयाल उसके जेहन से निकल गया था कि उसके सिर पर मौत मंडरा रही थी ।
उसने एक जोर की अंगड़ाई ली और उठ खड़ा हुआ । फिर वो कबूतर के दड़बे जैसी उस कोठरी से निकला जिसमें कि वो कल से मौजूद था और रजिया के कमरे में पहुंचा । था तो वो भी दड़बा ही लेकिन वो अपेक्षाकृत बड़ा था और उसमें एक पलंग बिछा हुआ था ।
रजिया पलंग पर अधलेटी-सी बैठी थी । वो कोई सत्ताइस अट्ठाइस साल की तीखे नयन-नक्श वाली भरे-भरे हाथ-पांव वाली सांवली औरत थी जो कि उस घड़ी निर्विवाद भाव से तम्बाकू, किमाम वाला पान चबा रही थी । शफीक खबरी को देखकर उसने नाक चढाया ।
शफीक दांत निकालकर हंसा ।
“क्या है ?” - शफीक ने पूर्ववत् हंसते हुए दोहराया - “तेरे को नहीं मालूम क्या है ?”
“पुड़िया खींच ली मालूम होती है !”
“हां ।”
“तभी तो ।” - फिर शफीक को पलंग पर बैठता पाकर वो तीखे स्वर में बोली - “दूर रह मेरे से ।”
“क्यों भला ?” - शफीक उसकी जांघ पर हाथ रखता हुआ बोला ।
“मूड नहीं है ।” - वो उसका हाथ झटकती हुई बोली ।
“मैं सदके जाऊं ! तू तो बीवियों जैसे नखरे झाड़ रही है ।”
“देख, तू मुझे तंग न कर । थोड़ी देर आराम करने दे मुझे ।”
“आराम गया तेल लेने । थोड़ी देर बेआराम होने की तैयारी कर ।”
“तू नहीं मानेगा ?”
“नहीं ।”
“ठीक है । नावां निकाल ।”
“नावां !” - शफीक हड़बड़ाया ।
“हां नावां ! और क्या फोकट में बेआराम करना चाहता है मुझे ?”
“मिल जायेगा नावां । नावां कहीं भागा जा रहा है ?”
“हां, भागा जा रहा है ।”
“अभी धन्धे से निकलूंगा । कल तक नावां ही नावां होगा ।”
“यानी कि अभी कड़का है ?”
“अरे, बोला न कल नावां...”
“माटी पड़े ! रण्डी से उधार करता है !” - उसने एक जोर की दुलत्ती झाड़ी तो शफीक पलंग से परे छिटक गया - “चल, दफा हो यहां से ।”
“देख रजिया” - शफीक आंखें निकालता हुआ बोला - “तू ऐसे पेश मत आ मेरे से...”
“चल, चल, पेश का बच्चा ! और खबरदार, जो वापिस पीछे कोठरी में कदम रखा ।”
“क्या ?”
“सड़क पर चलता-फिरता नजर आ ! ”
“ठहर जा, साली...”
“हां, ये ठीक रहेगा । कोई साली-वाली हो तो जाके उसे पकड़ ले । वो कर देगी तेरा काम मुफ्त में । साला, कड़का ! जा जाके किसी धर्मशाला में मर ।”
“साली, यूं भौंकेगी तो काट के गेर दूंगा ।”
“अब जाता है या बुलाऊं फत्ते खां को !”
फत्ते खां कि जिक्र से ही शफीक ठण्डा पड़ गया । फत्ते खां एक पहाड़ जैसे पहलवान का नाम था जो शफीक जैसों को बगल में दबाकर भाग सकता था ।
“अच्छा, अच्छा ।” - वो भुनभुनाया - “जाता हूं । कल लौट के करता हूं तेरे कलपुर्जे ढीले ।”
“अंटी में नावां लेके आना । मैं तेरे पांव धो-धो के पिऊंगी ।”
“एक बात बता दे ।”
“क्या ?”
“फत्ते खां से भी फीस लेती है ?”
“अरे, शफीक ! तेरे पर खुदा की मार । अरे, मुंहझांसे, वो मेरे अब्बा की तरह है ।”
“अब्बा की तरह है । हा हा हा !”
फिर रजिया को उसे मारने के लिए एक फूलदान उठाती पाकर वो तत्काल वहां से बाहर निकल गया ।
धन्धे को उसका मूड नहीं था, मूड न हो तो लापरवाही होती थी और लापरवाह चोर का अगला कदम हवालात में ही पड़ता था ।
उसने सुन्दरलाल के घर जाने का निश्चय किया ।
***
विमल के आफिस से पहाड़गंज का मुश्किल से पांच मिनट का रास्ता था । लंच ब्रेक के दौरान एक आटो पर सवार होकर वो इम्पीरियल सिनेमा पहुंचा जिसके करीब कि मुबारक अली ने चार्ली का पीजा पार्लर बनाया था ।
कल रात से ही चार्ली नाम उसके जेहन में खटक रहा था । चार्ली नाम का एक डोप पैडलर राजनगर में अमरीकी डिप्लोमैट सिडनी फोस्टर के अपहरण में विमल के एक साथी महेन्द्रनाथ का यार होता था । फिलहाल पीजा पार्लर सिर्फ चार्ली की सिर्फ सूरत देखने की नीयत से वो वहां आया था ।
सुबह के अखबार में उसने पंखा रोड वाली घटना की बाबत पढा था और उस घटना ने उसे बहुत आन्दोलित किया था । वो समझ नहीं पा रहा था कि वो महज इत्तफाक था या उसकी तरह कोई और भी सखी हातिम वाला रोल अदा करने की कोशिश कर रहा था ! उसे ये अन्देशा भी सता रहा था कि सब-इंस्पेक्टर लूथरा वो अपराध भी उसके मत्थे मंढने की कोशिश कर सकता था हालांकि ऐसी कोई कोशिश करनी उसकी नादानी होता क्योंकि उस वारदात के वक्त तो वो अपने घर मौजूद था और उसकी घर पर मौजूदगी के उसकी निगरानी पर तैनात उसी के आदमी गवाह थे ।
लेकिन वो क्या कबूल करता कि रावत और उसके साथी उसके आदमी थे और वो उसकी निगरानी पर तैनात थे ?
जो होगा देखा जायेगा - उसने लापरवाही से कन्धे झटकते हुए सोचा और पीजा पार्लर में दाखिल हो गया । उसने पाया कि लंच के उस टाइम में वो जगह खचाखच भरी हुई थी ।
“बद्री कौन है ?” - एक वेटर को रोककर उसने पूछा ।
वेटर ने एक अन्य वेटर की ओर संकेत कर दिया ।
विमल दूसरे वेटर के करीब पहुंचता । उसने उसके कन्धे पर दस्तक दी और धीरे से बोला - “मैं मुबारक अली का दोस्त हूं ।”
बद्री की भवें उठीं ।
“सुन्दरलाल आया ?”
बद्री ने इनकार में सिर हिलाया ।
“चार्ली कहां है ?”
बद्री ने सर्विस काउन्टर के एक कोने में बने एक बन्द दरवाजे की ओर इशारा किया ।
विमल उस दरवाजे की ओर देखा ।
फिलहाल वो सिर्फ चार्ली की सूरत देखने का ख्वाहिशमन्द था । ऐसा वो इस बहाने से भी कर सकता था कि वो फोन करना चाहता था और उसने सोचा था कि फोन वहां होगा । फोन वो करने देता या न करने देता, फोन वहां होता या न होता, यूं वो चार्ली की सूरत तो देख ही लेता ।
उसने उस दरवाजे के करीब पहुंचकर उसे ठेला और भीतर कदम रखा ।
वो एक आफिसनुमा कमरा था जहां एग्जीक्यूटिव चेयर पर एक आदमी अधलेटा-सा बैठा था ।
विमल के आगमन पर वो सीधा हुआ ।
“यस ।” - वो बोला - “क्या चाहते हो ?”
विमल ने उसे तत्काल पहचाना । उसकी सूरत और रख-रखाव में कई तब्दीलियों के बावजूद उसे तत्काल पहचाना ।
“चार्ली !” - वो बोला ।
“यस ।” - वो तनिक सकपकाकार बोला ।
“चार्ली ! इस पीजा पार्लर का मालिक...”
“भई, बोला न हां ।”
“राजनगर वाला ? पीटर परेरा का जात भाई ? जग्गी का यार ?”
वो चौंका ।
“औरतों जैसे लम्बे बाल कटवा लिए ! हिप्पियों जैसे चीथड़ा कपड़े पहनने भी बन्द कर दिये । शरीफ आदमी बन गया ! फैंसी सूट-बूट डाटने लगा !”
“कौन है, भाई, तू ?”
“लहजा भी तब्दील कर लिया ! पहले हर किसी को जैक, डार्लिंग और स्वीट हार्ट बोलता था ! अब भाई बोलता है !”
“भई, क्या बक रहा है तू ? तू है कौन और चाहता क्या है ?”
“पीजा पार्लर उन दो लाख रुपयों से खोता जो सिडनी फोस्टर को अमेरिका एम्बैसी वापिस पहुंचाने की एवज में मिले थे ?”
तब चार्ली बुरी तरह चौंका । फिर उसका हाथ धीरे से मेज के एक दराज में सरक गया ।
“नहीं बदलीं तो दो बातें नहीं बदलीं” - विमल बड़े निर्विकार भाव से बोला - “हथियार पर भरोसा करने की आदत नहीं बदली और कारोबार नहीं बदला ।”
“कारोबार !”
“ड्रग्स का ।”
“क्या बकता है ! मेरा ड्रग्स के कारोबार से क्या लेना-देना ! मैं तो पीजा पार्लर...”
“की ओट में डोप डीलर बना बैठा हूं । ओके ?”
चार्ली चेहरे पर गहन उलझन के भाव लिये कितनी ही देर खामोश बैठा अपलक विमल को देखता रहा ।
“दराज में रिवॉल्वर है न ?” - विमल बोला - “लेकिन किस काम आयेगी ? दिन-दिहाड़े इतने लोगों के बीच मुझे शूट कर सकेगा ?”
“अपना बचाव तो कर सकूंगा ।” - वो बोला ।
“किससे ?”
“तेरे से ।”
“मैं तो निहत्था हूं ।” - विमल ने हंसते हुए उसे अपने दोनों हाथ दिखाये ।
“निहत्था भी हमला कर सकता है ।”
“मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं । कसम उठवा ले ।”
उसने हिचकिचाते हुए दराज में से अपना हाथ खींच लिया ।
“जग्गी तो” - विमल बोला - “तेरे सामने ही नूरपुर में मर गया था । पीटर की क्या खबर है तुझे ?”
“वो बम्बई में है ।”
“था ।”
“क्या मतलब ?”
“मर गया । बरसोवा बीच पर । बहुत अरसा हो गया ।”
“कैसे मर गया ?”
“नूरपुर समुद्र तट पर उसने जिस आदमी की छाती में बर्फ काटने वाला सुआ उतारा था, उसका भूत आके लिपट गया उससे ।”
“मैं समझ गया !” - एकाएक वो उछलकर खड़ा हुआ और विमल के करीब आया ।
“क्या समझ गया ?”
“तू सोहल है ।”
“अच्छा !”
“सोहल नूरपुर में सुये से घायल होकर मरा नहीं था, ये बात तो अखबार में भी छप चुकी है । नूरपुर सी बीच मौजूद रहे हुए बिना कोई जना इतनी बातें नहीं जान सकता जितनी कि तू जानता है । तू सोहल है ।”
“मैं तुझे साहल लगता हूं ?”
“नहीं लगता । आवाज भी नहीं मिलती । फिर भी तू सोहल है ।”
“अब शक्ल नहीं मिलती, आवाज नहीं मिलती तो मैं सोहल कैसे हुआ ?”
“वो मैं नहीं जानता । नूरपुर सी बीच पर सब मर-खप गये थे । मेरे और पीटर के और गोरे साहब के अलावा कोई बचा था तो या तू या तेरा जोड़ीदार जगमोहन । तू जगमोहन नहीं है । तेरा कद-काठ, डील-डौल जगमोहन से नहीं मिलता । तू जगमोहन नहीं है इसलिए तू सोहल है ।”
“पक्की बात ?”
“हां ।”
“फिर भी अपने पैरों पर खड़ा है ! खौफ से घिग्घी नहीं बन्ध रही तेरी !”
“देख मेरे भाई” - चार्ली बड़े नम्र स्वर में बोला - “मैं बहुत मामूली हैसियत का आदमी हूं । तेरे जैसे टॉप के गैंगस्टर के मुकाबले में तो मेरी मामूली हैसियत भी नहीं है । न अब है, न पहले थी, न आगे होगी । तेरी मेरे से कोई जाती अदावत नहीं होनी चाहिए । राजनगर में महेन्द्रनाथ के पीछे पड़कर मैंने जो पंगा लिया था मुझे नहीं था मुझे नहीं मालूम था कि वो एक पहाड़ जैसा हाथी था जिसकी मुझे सिर्फ दुम दिखाई दे रही थी । महेन्द्रनाथ मेरे तीन हजार रुपये दबाये बैठा था, राजनगर के कृष्णा नदी के लोहे के पुल में उसे गोरे साहब के ड्राईवर सुनामसिंह को शूट करता देखकर मेरी सिर्फ इतनी ख्वाहिश हुई थी कि मुझे तीन की जगह तीस हजार रुपये मिल जाते । इससे ऊपर की सोचने की न मेरी औकात थी और न मेरी हिम्मत ।”
“झूठ ! नूरपुर सुमुद्र तट पर तूने अपने दोनों साथियों के साथ अपनी औकात भी दिखाई और हिम्मत भी ।”
“नहीं भाई । वहां जो कुछ हुआ, इत्तफाक से हुआ । अलबत्ता इतना जरूर है कि हालात की रवानगी में थोड़ा-सा वक्ती जोश हमारे में भी आ गया था ।”
“उसी जोश में तेरे जोड़ीदार पीटर ने मेरी छाती में सुआ घोंप दिया ?” - विमल व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला - “ठीक ?”
“नहीं ठीक । याद कर सुआ उसने कब घोंपा ? सुआ उसने तब घोंपा जब तू जग्गी को शूट कर चुका था और उसे शूट करने वाला था । वो सुआ निकालकर तेरे पर झपटा न होता तेा तेरी गोली खाई उसकी लाश भी जग्गी की लाश की बगल में पड़ी होती ।”
विमल खामोश रहा । उसे कबूल करना पड़ा कि बात तो चार्ली ठीक ही कह रहा था ।
“तुम लोग” - वो बोला - “हमारे पीछे न पड़े होते तो वो नौबत क्यों आती ?”
“हां, ये खता तो हुई हमसे ।” - वो बोला - “लेकिन उसकी मैंने वजह भी बताई है - अगर तुम लोगों के जोड़ीदार महेन्द्रनाथ ने मेरा तीन हजार रुपया न दबा लिया होता तो....”
“ठीक है । ठीक है ।”
“वहां नूरपुर में” - चार्ली पूर्ववत् विनयशील स्वर में बोला - “हमारी भी जान की बाजी लगी हुई थी । फिर भी हाथ क्या आया हमारे ? गोरा साहब तुम्हारे काबू में रहता तो दस करोड़ रुपये का था, हैलीकाप्टर वाली पार्टी के काबू में आता तो भी दस करोड़ रुपये का था । हमारे किस काम का था वो ? हमारे किस काम का निकला वो ?”
“क्यों नहीं निकला किसी काम का ? एम्बैसी से तुझे और पीटर दोनों को दो-दो लाख रुपये नहीं मिले ?”
“मिले ! लेकिन इनाम के तौर पर । खैरात के तौर पर । गोरे साहब को, दस करोड़ रुपये की फिरौती वाले गोरे साहब को, उसकी एम्बैसी में वापिस पहुंचाने की शाबाशी के तौर पर । दस करोड़ रुपये के मुकाबले में वो चार लाख रूपया एक ताम्बे का काला पैसा था जो उन गोरे साहबान ने हम मंगतों की झोली में डाल दिया था ।”
“जिसका कि तुझे अफसोस है ?”
“हरगिज भी नहीं । मेरे भाई, हम तो फुल राजी थे । इतनी ही औकात थी हमारी । बल्कि इससे भी कम । गोरे साहब को कब्जाये रखकर दस करोड़ की फिरौती की मांग करना कहीं हमारे बस का था ? आई स्वियर बाई माई गाड, हम तो राजी-राजी उसे एम्बैसी लेकर गये थे । एक बहूत मामूली इनाम के लालच में ।”
“तुम्हारी करतूत ने हमारा काम तो बिगाड़ा ?”
“वो तो है । अब शायद उसी की मुझे सजा देने तू यहां आया है ?”
“नहीं ।”
“नहीं ?”
“नहीं । मेरे यहां आने की और वजह है ।”
“और क्या वजह है ?”
“मुझे सुन्दरलाल का पता चाहिये ।”
“सुन्दरललाल !”
“स्मैकिया । तेरा यार । जो रोज यहां आता है । अब ये न कहना कि तू किसी सुन्दरलाल स्मैकिेये को नहीं जानता !”
“वो” - चार्ली दबे स्वर में बोला - “बुधवार से यहां नहीं आया ।”
“यहां नहीं आया तो सही । मेरा उससे यहां मिलना जरूरी नहीं । तू मुझे उसका पता बाता । कहां रहता है वो ?”
“मुझे नहीं मालूम ।”
“क्या ?” - विमल आंखें निकालाता हुआ बोला ।
“बाई गाड, मुझे नहीं मालूम ।”
“नहीं मालूम तो मालूम कर ।”
“मैं कोशिश करूंगा ।”
“तेरी सूरत से लगता नहीं कि तू कोशिश करेगा ।”
“उससे तेरी क्या अदावत हो गयी ?”
“कोई अदावत नहीं । मैं सिर्फ उससे मिलना चाहता हू्ं ।”
“क्यों ?”
“है कोई वजह ।”
“खामखाह तो तू उसे ढूंढता फिर रहा हो नहीं सकता !”
“जाहिर है ।”
“एक बात तुझे न मालूम हो तो बोलूं ?”
“बोल ।”
“उसका मामा गुरबख्श लाल” - वो बेहद दबे स्वर में बोला - “इस शहर का सबसे बड़ा दादा है । तूती बोलती है यहां के अन्डरवर्ल्ड में, उसके नाम की । मेरा ये ठीया भी उसी की प्रोटेक्शन में उसी के भरोसे चल रहा है और...”
“और छोड़ । जितना तूने कहां उतने से भी विश्वास जान कि इस गुरबखलाल का, जो कोई भी वो है, पूरा-पूरा रोब मेरे पर गालिब हो गया है । मैं ऊपर से दिलेरी दिखा रहा हूं । असल में जब से उसका नाम सुना है, अन्दर-ही-अन्दर थर-थर कांप रहा हूं । मरा जा रहा हूं खौफ से ।”
“हंसी उड़ा रहा है मेरी ?”
“तेरी नीयत नहीं मालूम होती मुझे सुन्दरलाल का पता बताने की । मुझे तो लगता है कि उसका पता तुझे अभी मालूम है लेकिन तू बताना नहीं चाहता । ऐसा है तो साफ बोल ।”
“मैं साफ बोलूंगा तो तू यहीं मेरी गर्दन नाप देगा ।”
“नहीं । यहीं नहीं । यूं नहीं ।”
“तो सुन । अगर मैंने इस शहर में रहना है और ये धन्धा करना है जो मैं इस वक्त कर रहा हूं तो मैं गुरबख्श लाल से वैर मोल नहीं ले सकता । जैसे तू सुन्दरलाल का पता पूछा रहा है, उससे बच्चा भी समझ सकता है कि उसकी मौत आई हुई है । गुरबख्शलाल को पता लग गया कि उसके भांजे का पता तुझे बता कर उसकी मौत का सामान मैंने किया था तो क्या ये बताने की जरूरत है कि फिर मेरा क्या होगा ?”
“नहीं । अब मेरा सवाल सुन । अगर तू मुझे सुन्दरलाल का पता नहीं बतायेगा तो क्या ये बताने की जरूरत है कि तब तेरा क्या होगा ?”
“मुझे प्रोटेक्शन हासिल है । फीस भरता हूं मैं गुरबख्श लाल की प्रोटेक्शन के लिए । गुरबख्श लाल के होते कोई मुझे या मेरे इस ठीये को हाथ नहीं लगा सकता ।”
एकाएक विमल की आंखों में ऐसी ज्वाला धधकी कि चार्ली घबराकर एक कदम पीछे हट गया ।
“चार्ली !” - विमल बड़े हिंसक स्वर में बेाला - “अभी तो तू बकरी की तहर मिमिया रहा था, गुरबख्श लाल का नाम लेते ही शेर हो गया ।”
“तू समझता नहीं है । वो बहुत पावरफुल आदमी है । बादशाह है वो इस शहर का ।”
“और मुझे उसने गोद लिया हुआ है ?”
“मैं कहता हूं उससे टक्कर लेना मजाक नहीं ।”
“चार्ली ! अभी बात तेरी हो रही है । तू अपना बोल ।”
“मैं और कुछ नहीं बोलना चाहता । मैंने जो बोलना था । बोल दिया । यहां मुझे प्रोटेक्शन हासिल है और मैं...”
“और तू मेरे पीठ फेरते ही अपने बाप गुरबख्श लाल को मेरी बाबत बताने पहुंच जायेगा ?”
“हरगिज भी नहीं । मैं खामखाह के फसाद में नहीं पड़ता चाहता ।”
“फसाद तो होगा ।”
“मैं चक्की के दो पाटो में नहीं पिसना चाहता ।”
“वो भी तू पिसेग ।”
“देख मेरे भाई, मैं...”
“मैं तेरे इस पीजा पार्लर की ईट से ईट बजा दूंगा । मैं इस शहर के ऐसे तमाम ठीये तबाह कर दूंगा जिन्हें किसी गुरबख्श लाल की प्रोटेक्शन हासिल है ।”
“ओह माई गाड !” - चार्ली एकाएक रूमाल निकालकर चेहरे को पसीना पोंछने लगा - “किस सांसत में फंस गया मैं ?”
“अभी नहीं फंसा है । फंसेगा । चार्ली, जल्दबाजी का कोई फैसला अच्छा नहीं होता इसलिये मैं तुझे सोचने का वक्त देता हूं । शाम तक का । तेरे सामने कई रास्ते हैं । उनके से जो तुझे ज्यादा लुभायेंगे वो चार हैं । एक, तू गुरबख्श लाल के पास जा सकता है । दो, तू पुलिस के पास जा सकता है - इश्तिहारी मुजरिम सोहल को गिरफ्तार कराके उसकी गिरफ्तारी का इनाम बटोर सकता है...”
“नैवर ।”
“...तीन, तू ये शहर छोड़कर गायब हो सकता है ।”
“ओह, नो । इतनी मुश्किल से मैं दिल्ली में सैटल हुआ हूं ।”
“...और चार, तू मुझे सुन्दरलाल का पता बता सकता हैं ।”
“ओह माई गाड ! ओह माई गुड गाड !”
“अभी मैं जा रहा हूं । शाम को फिर आऊंगा ।”
“मैं तेरे लिए कोई पीजा वगैरह मंगाऊ ?”
“शाम को । शाम को मंगाना । वैसे आर्डर अभी नोट कर ले ।”
“बोल । खुशी से बोला ।”
“पीजा चिली कैप्सीकम अनियन सुन्दरलाल ।”
तत्काल चार्ली के चेहरे पर फटकार बरसने लगी ।
विमल वहां से विदा हो गया ।
***
शफीक खबरी बाड़ा हिन्दुराव पहुंचा जहां के एक पुराने जमाने के बने मकान में सुन्दरलाल अपनी मां के साथ रहता था ।
उसकी विधवा मां ने उसे बताया कि वो घर पर नहीं था, वो कल से ही घर नहीं लौटा था और वो उसके लिए बहुत फिक्रमन्द थी ।
शफीक को मां की फिक्र से कोई हमदर्दी या इत्तफाक न हुआ । अम्माओं का तो शगल ही फिक्र करना होता था ।
शफीक जानता था कि जब सुन्दरलाल घर नहीं लौटा होता था तो कहां होता था !
गुलाबी बाग में वहां के डी डी ए के फ्लैट्स में राजेश्वरी नाम की एक लड़की रहती थी जो कि कालगर्ल थी और पता नहीं उसे सुन्दरलाल में क्या भाया था कि वो तन-मन-धन सब उस पर निछावर किये रहती थी ।
एक आटो पर सवार होकर वो गुलाबी बाग के लिए रवाना हो गया ।
***
विमल अपने आफिस पहुंचा तो उसने रिसैप्शन पर सब-इंस्पेक्टर लूथरा को बैठा पाया ।
वो ठिठका ।
उसे देखकर लूथरा उठा खड़ा हुआ, उसने जबरन मुस्कराते हुए विमल की ओर देखा ।
विमल उसके करीब पहुंचा और अप्रसन्न स्वर में बोला - “तुम फिर आ गये ?”
“मुझे अफसोस है” - लूथरा बोला - “लेकिन... क्या करूं ! नौकरी जो ठहरी । मजबूरन ऐसी जगह भी जाना पड़ता है जहां से बेइज्जत होकर निकलना पड़ा हो ।”
“बेइज्जत होकर या बेइज्जत करके ? अपने रुतबे का बेजा इस्तेमाल करके तरह-तरह की धमकियां तो तुम मुझे देकर गये थे ।”
“आल इन लाइन आफ माई ड्यूटी, सर, आई होप यू अन्डर स्टैण्ड ।”
“क्या कहती है तुम्हारी ड्यूटी ! लॉ अबाइडिंग सिटिजंस के बेवजह गले पड़ने को कहती है तुम्हारी ड्यूटी ?”
“नैवर, सर ।”
“अब कैसे आये ? कोई धमकी बाकी रह गयी थी ? बाद में याद आयी ?”
“ऐसी कोई बात नहीं, कौल साहब ।”
“तो कैसी बात है ? क्या चाहते हो ?”
“मैं आपसे एक मिनट बात करना चाहता हूं ।”
“कर तो रहे हो ?”
लूथरा ने रिसैप्शनिस्ट की ओर देखा जो कान खड़े किये उनका वार्तालाप सुन रही थी ।
विमल ने उसकी निगाह का अनुसरण किया और फिर बोला - “आओ ।”
“थैंक्यू ।” - लूथरा बोला ।
अपना क्रैश हैल्मेट उसके स्ट्रैप के सहारे एक हाथ से लटकाये वेा विमल के पीछे हो लिया ।
विमल अपने केबिन में पहुंचा । उसने लूथरा को कुर्सी पेश की और स्वयं अपनी एग्जीक्यूटिव चेयर पर बैठ गया ।
“क्या चाहते हो ?” - विमल बोला ।
“वही जो पहले चाहता था, जनाब ।” - लूथरा बोला - “आपका सहयोग चाहता हूं ।”
“किसलिए ? मुझे पांच बलात्कारियों का, दो चेन स्नैचर्स का कातिल साबित करने के लिए ?”
“जी हां ।” - लूथरा पूरी ढिठाई से बोला ।
“क्या !”
“या ये सबित करने के लिए कि आप अपराधी नहीं है । कौल साहब, आपको नेक शहरी साबित करने के लिए भी मुझे आपके वैसे ही सहयोग की जरूरत है ।”
“क्या चाहते हो ?”
“मैं चाहता हूं कि आप एक कागज पर मेरी बताई एक तहरीर लिखें ।”
“क्या लिखूं ? कि मैं कातिल हूं और अपने जुर्म का इकबाल करता हूं ?”
“नहीं ।”
“शुक्र है । तो और क्या लिखूं ?”
“लिखिए ‘ये आदमी बलात्कारी है जो कि शुक्रवार को गोल्ड मार्केट में हुई गैंग रेप की वारदात में शामिल थे’ ।”
“क्या मतलब हुआ इसका ?” - विमल भड़ककर बोला ।
लूथरा ने मतलब समझाने की कोशिश न की ।
“अखबार में छपा है कि ऐसी तहरीर वाला एक रुक्का मजनू का टोला वाली वारदात मे लाशें के करीब पड़ा पाया गया था । तुम उस रुक्के की तहरीर से मेरे हैंडराइटिंग का मिलान करना चाहते हो ?”
“हां ।”
“ताकि तुम मुझे गुनहगार साबित कर सको ।”
“ताकि मैं आपको बेगुनाह साबित कर सकूं ।”
“तुम बाज नहीं आओगे ?”
“तो लिख रहे है आप ?”
“नहीं । हरगिज नहीं ”
“आपको हैंडराइटिंग का नमूना मैं और तरीके से भी हासिल कर सकता हूं ।”
“पड़े करते रहो ।”
विमल जानता था कि वो काइयां सब-इंस्पेक्टर उसे किसी जाल में, किसी गलतबयानी में फंसाना चाहता था । विमल ने उस रुक्के की इबारत टाइप की थी इसलिए हैंडराइटिंग का नमूना लूथरा के किसी काम नहीं आने वाला था । ये बात अखबारों में नहीं छपी थी कि वो इबारत हस्तलिखित थी या टाइप की हुई थी, विमल के मुंह से निकली कोई ऐसी बात कि वो इबारत टाइप की हुई थी, उसे फंसवा सकती थी । उसके पास ये जानने का, कि वो इबारत टाइप की हुई थी, एक ही साधन हो सकता था कि वो इबारत उसने खुद टाइप की हो ।
“अपने” - लूथरा बोला - “फिंगर प्रिंट्स का नमूना पुलिस को मुहैया कराने से तो आपको कोई एतराज नहीं होगा न ?”
“क्यों नहीं होगा ?” - विमल बोला - “सरासर होगा । फिंगर प्रिंट्स गुण्डे-बदमाशों के लिये जाते हैं । नेक शहरियों के नहीं ।”
“नेक शहरयिों कें भी लिये जाते हैं । तसदीक करने के लिए कि वो गुण्डे-बदमाश नहीं हैं ।”
“लिये जाते होंगे । लेना । तुम भी लेना । मेरे भी लेना लेकिन पहले मुझे गिरफ्तार करो ।”
“आप तड़प रहे हैं गिरफ्तार होने के लिये ?”
“तुम ऐसे नहीं मानोगे । लगता है मुझे तुम्हारी बाबत तुम्हारे आला अफसरों से मिलना ही पड़ेगा । मैं” - विमल ने मेज पर पड़ा एक फोन अपनी तरफ घसीटा - “मैं पुलिस कमिश्नर को फोन लगाता हूं ।”
“आप नाहक खफा हो रहे हैं ।” - लूथरा उठकर खड़ा हो गया - “मैं तो जा रहा हूं ।”
विमस ने फोन पर से हाथ खींच लिया । वो आग्नेय नेत्रों से उसे देखता रहा ।
“असहयोग के लिए शुक्रिया ।” - लूथरा बोला ।
विमल ने उत्तर न दिया ।
लूथरा ने अपनी कुर्सी पीछे सरकाई तो पता नहीं क्या हुआ कि वो कुर्सी पीछे को उलट गयी, लूथरा यूं लड़खड़ाया जैसे धराशायी होने लगा हो, हैल्मेट उसके हाथ से निकलकर हवा में उछली और इससे पहले कि वो ऐन विमल के चेहरे से जाकर टकराती विमल ने बड़ी फुर्ती से दोनों हाथ बढाकर उसे हवा में लपक लिया ।
“वाट नानसेंस ?” - वो भड़का - “ये... ये...”
“आई एम सारी, सर ।” - लूथरा ने हाथ बढाकर हैल्मेट का स्ट्रैप थामा और उसे विमल की उंगलियों में से खींच लिया - “मेरा पांव कुर्सी से उलझ गया था । मैं शर्मिन्दा हूं । नमस्ते ।”
फिर इससे पहले कि विमल दोबारा मुंह भी खोल पाता लूथरा लम्बे डग भरता हुआ वहां से रुख्सत हो गया ।
***
शफीक खबरी ने सुन्दरलाल को राजेश्वरी के फ्लैट में अकेले बैठे वीडियो पर फिल्म देखते पाया ।
“आ भई” - सुन्दरलाल हषिर्त स्वर में बोला - “मेरे यारों के यार । आ बैठ ।”
शफीक उसके पहलू में एक कुर्सी पर बैठ गया ।
“क्या बात है ?” - सुन्दरलाल बोला - “चौखटे पर बारह क्यों बजे हुए हैं ?”
शफीक ने बड़ी संजीदगी से उसे अपनी फिक्र की वजह बताई ।
सुन्दरलाल हो-हो करके हंसने लगा ।
“हंसता क्यों है ?” - शफीक मुंह बिसूरकर बोला ।
“हंसता क्यों है !” - सुन्दरलाल पूर्ववत् हंसता हुआ बोला - “पूछता है हंसता क्यों है ? अबे मेरे यारों के यार ! ये सब खलल है तेरे दिमाग का ।”
“अच्छा !” - शफीक सन्दिग्ध भाव से बोला ।
“और क्या ? अबे, पागल ! किसी ने देखा हमें वहां ? आते ? जाते ? इमारत में घुसते ? इमारत से निकलते ? फ्लैट में घुसते ? फ्लैट से निकलते ? बोल, देखा किसी ने ? टकराया कोई कहीं ? मिला कोई हमें कहीं भी ?”
“मिला तो कोई नहीं ।”
“तो फिर ? कौन जानता है हमारे को ?”
“वो लड़की । बड़ी वाली । जो बाद में आयी थी । उसके बारे में क्या कहता हैं ?”
“उसने भी कुछ नहीं देखा । उसके आने के बाद हम वहां ठहरे ही कितनी देर थे ? एक मिनट ! बड़ी हद दो मिनट ! हमने उसे भीतर घसीटकर धूल चटाई थी और चलते बने थे ।”
“एक-दो मिनट कोई कम वक्त नहीं होता । एक-दो मिनट में भी बहुत कुछ देखा जा सकता है ।”
“उन हालात में नहीं । अरे, उसकी जान पर बनी थी । दहशत से मरी जा रही थी वो । ऐसे में वो हमारी शक्लें पहचानती ?”
“फिर भी, यार...”
“फिर भी ये कि अगर वो हमारे बारे में पुलिस को कुछ बता पायी होती तो वो छापे में छपा होता । आज नौवां दिन है उस वारदात को हुए । पुलिस को हमारे बारे में कुछ मालूम होता तो अब तक नौ सौ बार हमें पकड़कर ले गई होती । क्या समझा ?”
शफीक खामोश रहा ।
“अब, कुछ बोल तो सही, यारों के यार ।”
“तो” - शफीक बोला - “ये मेरे दिमाग को खलल के सिवाय कुछ नहीं कि अपने तीन दोस्तों के बाद अब हम भी मारे जाने वाले हैं ?”
“बिल्कुल !”
“यानी कि ऐसा कुछ नहीं हो सकता ?”
“न ।”
“यानी कि हमारी जानों को कोई खतरा नहीं ?”
“उस वजह से कोई खतरा नहीं जिसे सोच-सोचकर तू हलकान हो रहा है । जैसे हो सकता है अभी धड़के से दिल बैठ जाये, अभी भूचाल आये या बिजली गिरे और इस फ्लैट की छत हमारे सिरों पर आ गिरे, अभी कहीं से सांप निकले और हमें लड़ जाये, रसोई में रखा गैस का सिलेंडर फूटे और....”
“यानी कि हमारी पिछले शुक्रवार की करतूत की वजह से हमें कोई खतरा नहीं ?”
“न ।”
“तो फिर यहां छुपा क्यों बैठा है ?”
वो हड़बड़ाया ।
“घर क्यों नहीं जाता जहां बैठी तेरी विधवा मां तेरा इन्तजार कर रही है ?”
“मर्जी मेरी ।”
“मर्जी तो तेरी है । लेकिन तेरी ये मर्जी हुई क्यों ? इसीलिए न क्योंकि किसी ने हनीफ और गोविन्द को शूट कर दिया ? किसी ने छंगू को शूट कर दिया ?”
“अबे, साले । मैं क्या यहां पहली बार आया बैठा हूं ?”
“जिसके लिए यहां आता है, उसके बिना पहली बार ही आया बैठा है । ऐसा पहले कब हुआ, सुन्दरलाल जबकि राजेश्वरी के बिना भी तू यहां बैठा है !”
उसके मुंह से बोल न फूटा । अलबत्ता हंसी उसके चेहरे से लुप्त हो गयी ।
“दाई से पेट छुपाता है ?” - शफीक धीरे से बोला - “मेरे से अपना वो मर्ज छुपाता है जिसका मैं खुद बराबर का मरीज हूं ?”
“वो बात नहीं, यार ।”
“वो बात नहीं, तो कबूल कर कि जो अन्देशा मेरे मन में है, वो ही तुझे सता रहा है । हम पांच थे । आनन-फानन हममें से तीन कत्ल हो गये । हम दो बाकी हैं । जो अंजाम हमारे तीन साथियों का हुआ, वो ही हमारा भी हो सकता है, ये है ही फिक्र की बात ।”
“तेरा मतलब है किसी एक ही आदमी ने उन तीनों का कत्ल किया है ?”
“लगता तो ऐसा ही है ।”
“किसी को उनकी खबर कैसी लगी ?”
“वैसी ही जैसे उसे हमारी खबर लगेगी ।”
“तू तो डरा रहा है, यार !”
“यानी कि मानता है कि तू डर रहा है ? मेरी ही तरह ? तभी घर छोड़कर यहां आन बैठा ?”
“अब यही समझ ले, यार । लेकिन बात कुछ पल्ले नहीं पड़ रही । ऐसा कौन हिमायती निकल आया उस कुनबे का जिसे कि कत्ल करने से गुरेज नहीं ।”
“सुन्दरलाल, इस वक्त अहम सवाल ये नहीं है कि ऐसा कौन कर रहा है । इस वक्त अहम सवाल ये है कि उस शख्स से हम कैसे बचें !”
“इसके लिए भी हमें मालूम होना चाहिए कि वो शख्स कौन है ।”
“मालूम होने से क्या होगा ?”
“बहुत कुछ होगा । बल्कि सब कुछ होगा । तब इससे पहले कि वो हमें खत्म करने के लिए कोई कदम उठाये, हम उसे खत्म कर देंगे ।”
“खयाल बुरा नहीं ।”
“खयाल बुरा नहीं लेकिन पता कैसे लगे उस हरामजादे का ?”
“देख । यूं कत्ल दर कत्ल करने की दीदादिलेरी कोई घर-गृहस्थी वाला बन्दा नहीं दिखा सकता । ऐसे बन्दे के न ऐसे साधन होते हैं और न ऐसा हौसला होता है । ऐसी दीदादिलेरी कोई हेंकड़ दादा ही दिखा सकता है । अब सोच, दिल्ली शहर का ऐसा कौन-सा दादा होगा जो तेरे मामा से छुपा रह सकता हो !”
“मामा !” - सुन्दरलाल के मुंह से निकला ।
“हां । मामा । तेरा मामा । गुरबख्श लाल । बादशाह है वो दिल्ली के अन्डरवर्ल्ड का । तू खुशकिस्मत है कि ऐसा ताकतवर आदमी तेरा सगा मामा है । तू उसे जाके सारी बात बता । फिर वो ही कोई सूरत निकालेगा हमें मरने से बचाने की ।”
“बात तो तेरी ठीक है यार, लेकिन ...”
“क्या लेकिन ?”
“वो खफा हो जायेगा । मेरी स्मैक की आदत की वजह से तो पहले ही मेरे से खफा रहता है । अब जब उसे मेरी नयी करतूत की खबर लगेगी तो फट ही पड़ेगा वो ।”
“फट पड़ेगा तो क्या करेगा ? जान से मार डालेगा तुझे ?”
“नहीं, जान से तो नहीं मार डालेगा ।”
“फिर ? जो जूतपजार हो वो सह लेना । जान तो बच जायेगी तेरी । अपने सगे भांजे को वो कत्ल तो नहीं हो जाने देगा ? वो कुछ करेगा न तेरी जान बचाने को ?”
“करेगा तो सही ।”
“क्या करेगा ?”
“वही जो तू कह रहा है । वो उस आदमी को तलाश करवायेगा और उसे बाज आने की धमकी देगा । वो नहीं बाज आयेगा तो वो उसे खलास करा देगा ।”
“यानी कि तेरी जान तो बच गयी न ?”
“वो तो है ।”
“तेरी जान बच गयी तो मेरी अपने आप बच गयी ।”
“बन्दा तो तू सयाना है यार, यारों के यार । अपने मामा का तो मुझे खयाल ही नहीं आया था ।”
“ये तो तू ठीक नहीं कह रहा । खयाल तो तुझे बराबर आया होगा । अलबत्ता खौफ खा रहा होगा तू अपने मामा का ।”
“यही समझ ले, यार । तेरे कहने पर ही सूझा कि आखिर मामा है, मेरी मां उसकी इकलौती बहन है, वो मार थोड़े ही डालेगा अपनी बहन के लड़के को । ”
“वही तो मैं बोला ।”
“बढिया बोला ।”
“अब पहुंच ।”
“कहां ?”
“अपने मामा के पास और कहां !”
“अभी ?”
“और कब ? मेरा काम हो जाने के बाद ? या अपना भी काम हो जाने के बाद ?”
“तब क्या मैं उसे ऊपर से आसमान फाड़ के आवाज दूंगा ?”
“वही तो ।”
“मै... मैं पहले फोन करता हूं ।”
“ठीक है ।”
“तू यहां बैठ । फोन के लिए नीचे पब्लिक काल पर जाना पड़ेगा । मैं आता हूं ।”
“ठीक है ।”
सुन्दरलाल फ्लैट से निकल गया ।
अब पहले से कहीं ज्यादा आश्वस्त शफीक खबरी पीछे बैठा टी वी पर चलती वो वीडियो फिल्म देखने लगा जिसकी तरफ अब तक एक भी बार उसकी तवज्जो नहीं गयी थी ।
पांच मिनट बाद चेहरे पर मायूसी के भाव लिए सुन्दरलाल वापस लौटा ।
“क्या हुआ ?” - शफीक सशंक भाव से बोला ।
“मामा दिल्ली में नहीं है । बम्बई गया हुआ है । परसों लौटेगा ।”
“ओह !”
“हौसला रख, यारों के यार । परसों तक में कुछ नहीं बिगड़ जाने वाला ।”
“लेकिन अब परसों तक खबरदार तो रहना पड़ेगा ।”
“वो तो बाद में भी रहना पड़ेगा, तब तक रहना पड़ेगा जब तक हमारे साथियों के कत्ल के लिए जिम्मेदार शख्स का तिया पांचा एक नहीं हो जाता । और यारों के यार, बावजूद मामा की हिमायत के इस काम में कई दिन लग सकते हैं ।”
“तो क्या किया जाये ?”
“मामूली काम है । तू भी वही कर जो मैं कर रहा हूं । कुछ दिन घर मत जा । कुछ दिन रोजमर्रा की मुलाकात वाले यार-दोस्तों से न मिल ।”
“यार-दोस्तों से न मिलना तो आसान है लेकिन घर न जाऊं तो कहां जाऊं ?”
“ढूंढ कोई ठिकाना ।”
“एक ठिकाना ढूंढा था लेकिन वहां से बेइज्जत हो के बाहर निकलना पड़ा ।”
“कौन-सा ?”
शफीक ने उसे रजिया के कोठे की बाबत बताया ।
“ओह !” - सुन्दरलाल बोला ।
“सुन ।” - शफीक व्यग्र भाव से बोला - “तू मुझे यहां रख ले ।”
“नहीं, यारों के यार, ये नहीं हो सकता ।”
“अरे सुन्दरलाल, दो-चार दिन की तो बात है ।”
“बोला न, नहीं हो सकता । ये मेरा फ्लैट थोड़े ही है । जिसका फ्लैट है उसे तेरा यहां रहना मंजूर नहीं होगा ।”
“यार मना ले उसे । आखिर वो तेरी माशूक है ।”
“वो नहीं मानेगी । उसे रात को किसी और मर्द का यहां रहना मंजूर नहीं होगा । सच पूछे तो मुझे ही मंजूर नहीं होगा ।”
“बहुत दिल तोड़ने वाली बात कर रहा है, सुन्दरलाल । एक तरफ यारों का यार कहता है, दूसरी तरफ...”
“तू मेरा यार है” - सुन्दरलाल चिढकर बोला - “राजेश्वरी का नहीं । उसे अगर किसी का यहां रहना नामंजूर तो नामंजूर है । तेरी खातिर इस बाबत मैंने ज्यादा जिद की तो वो मुझे भी बाहर निकाल देगी । इसलिए इस बात का पीछा छोड़ और कोई और ठिकाना सोच ।”
“और ठिकाना तो रजिया का कोठा ही है । रजिया को जब तक मैं नावें की झलक नहीं दिखाउंगा, वो मुझे पास नहीं फटकने देगी । यार सुन्दरलाल, तू मुझे यहां नहीं रख सकता तो चार पैसे ही उधार दे मुझे ।”
“उसका भी तो तोड़ा है आजकल ।”
“यानी कि मना कर रहा है ?”
“मजबूरी है, यार ।”
“तो साथ चल । कोई हाथ मार के आते हैं ।”
“अरे, यरों के यार, मौजूदा हालात में ये कोई अक्ल का काम होगा ? ये तो आ बैल मुझे मार जैसी बात होगी ।”
“तो फिर तू ही सुझा मेरी दुश्वारी का कोई हल । मेरे पास तो नशे-पानी के लिए भी पैसे नहीं हैं ।”
सुन्दरलाल कुछ क्षण अनमना-सा खामोश बैठ रहा । फिर उसने अपने स्मैकिये भाई के चेहरे पर ऐसे दयनीय भाव देखी कि वो पिघले बिना न रह सका । उसने उसे स्मैक की दो पुड़िया और सौ का एक नोट दिया ।
“कल तक काम चला ।” - वो उसे समझाता हुआ बोला - “आज रात तो मुझे राजेश्वरी से” - उसने बड़े कुत्सित भाव से एक आंख दबाई - “बहुत काम है । कल रात मैं तेरे लिए - सच पूछे तो अपने लिए भी - कहीं से चार पैसे मुहैया करने की कोशिश करूंगा ।”
“कहां से ?”
“कहीं से भी ।”
“तो कल मैं यहां आऊं ?”
“हरगिज भी नहीं । अब जब तक कि इस मौजूदा सांसत से जान न निकल जाये, यहां न फटकना ।”
“क्यों ?”
“क्यों ? पूछता है क्यों ? अरे कहीं हमारी जान का दुश्मन तेरे पीछे-पीछे लगा यहां पहुंच गया तो ?”
“मुझे जानेगा तो मेरे पीछे लगेगा न !”
“जान गया तो ?”
“ऐसे कैसे जान जायेगा ? यूं खामखाह...”
“जान गया तो ?”
शफीक खामोश हो गया ।
“तो फिर ?” - आखिरकार वो बोला ।
“कल रात पहाड़गंज पहुंच जाना अपने चार्ली के पीजा पार्लर में । मैं तुझे वहीं मिलूंगा ।”
“कितने बजे ?”
“ये कहना मुश्किल है लेकिन मैं वहां पहुंचूंगा जरूर ।”
“कोई अन्दाजा तो बता ।”
“यार, गले न पड़ । कल रात मैं वहां पहुंचूंगा और जरूर पहुंचूंगा । थोड़ा इन्तजार कर लेगा तो शामत आ जायेगी !”
“थोड़ा इन्तजार कर लूंगा । ज्यादा भी कर लूंगा ।”
“शाबाश ।”
“लेकिन तू न आया तो ?”
“क्यों न आया ?”
“मेरा मतलब है तेरी मर्जी तो है न वहां आने को ?”
“अरे पागल हुआ है, यारों के यार ! मैं तेरे से गलतबयानी करूंगा ?”
“देख सुन्दरलाल, मेरी हालत बहुत पतली है इसलिए ध्यान में रखना, अगर कल रात तू वहां न पहुंचा तो मैं यहां पहुंच जाऊंगा ।”
“यार !” - सुन्दरलाल वितृष्णापूर्ण स्वर में बोला - “तू तो धमकी दे रहा है ।”
“फरियाद कर रहा हूं, सुन्दरलाल । गिड़गिड़ा रहा हूं तेरे आगे ।”
“तू हौसला रख ।” - सुन्दरलाल ने उसका कन्धा थपथपाया - “मैं वहां जरूर पहुचूंगा । बोला न ।”
शफीक खामोश रहा ।
“चल अब फूट । राजेश्वरी के आने का टाइम हो रहा है ।”
शफीक खबरी वहां से रुख्सत हो गया ।
***
अपनी हैल्मेट को स्ट्रेप से ही थामे सब-इंस्पेक्टर लूथरा झण्डेवालान पहुंचा जहां कि पुलिस की फोरेंसिक साइंस लैबोरेट्री थी ।
वो फिंगर प्रिंट एक्सपर्ट तिवारी के पास पहुंचा, उसने हैल्मेट उसे दी और बोला - “इस पर एक शख्स के दोनों हाथों की उंगलयों के निशान हैं । ये निशाना उठाकर इनका नोन क्रिमिनल्स की उंगलियों के निशानों से मिलना का इन्तजाम करना है ।”
“लम्बा काम है ।” - तिवारी बोला - “टाइम लगेगा ।”
“पहले ऐसे क्रिमिनल ट्राई करना जिनका सफेदपोशी का, उच्च शिक्षा का और सोफिस्टिकेटिड क्राइम का रिकार्ड है ।”
“ठीक है ।”
“रिपोर्ट जो भी हो, उसकी बाबत मुझे, सिर्फ मुझे, फोन करना ।”
“कोई इनाम वाला केस है ।”
“हो सकता है । केस इनाम वाला निकला और वो इनाम मुझे मिला तो फिफ्टी-फिफ्टी ।”
“फिर क्या बात है ?”
“सो हरी अप ।”
“श्योर ।”
***
शाम को सात बजे विमल एक आटो रिक्शा पर से पहाड़ गंज में चार्ली के पीजा पार्लर से थोड़ा परे उतरा । उसने आटो वाले को भाड़ा देकर रुख्सत किया और एक ओर खड़ा होकर अपना पाइप सुलगाने में मशगूल हो गया ।
अभी उसने पाइप के दो-तीन कश ही लगाये थे कि मुबारक अली जैसे जादू के जोर से उसके पहलू में प्रकट हुआ ।
विमल ने प्रश्नसूचक नेत्रों से उसकी तरफ देखा ।
“बारह आदमी हैं मेरे साथ, बाप ।” - वो धीरे से बोला - “टेम का तोड़ा था । इतने ही इकट्ठे कर पाया अपनी जात-बिरादरी वाले । तू थोड़ा टेम और देता तो...”
“काफी हैं । - विमल बोला - “भरोसे के हैं ?”
“अपुन भरोसे का है, बाप ?”
“समझ गया । बढिया ।”
“सब हथियारबन्द हैं । कड़क । जिगरे वाले ।”
“उन्हें समझा दिया सब ?”
“बाप, जब अपुन समझ गया तो अपुन का अक्खा बिरादरी भी समझ गया ।”
“बढिया । तू कब से यहां है ?”
“आधे घन्टे से ।”
“यहां मेरे स्वागत का कोई खास इन्तजाम तेरी निगाह में आया ?”
“नक्को ।”
“लेकिन हो सकता है ?”
“हो तो सकता है । भीतर उसका ठीया फुल है । अब क्या मालूम जो लोग भीतर बैठेले हैं वो गिराहक हैं या गिराहक बने कोई मवाली ।”
“मालूम पड़ जायेगा । मैं जाता हूं । वापिस न लौटूं तो...”
विमल ने जान-बूझकर वाक्य अधूरा छोड़ दिया ।
“तो मेरे कू मालूम मेरे कू क्या करना है ।” - मुबारक अली बोला - “तू बेखौफ जा, बाप ।”
विमल सहमति में सिर हिलाता हुआ आगे बढा ।
वो भीड़ भरे पीजा पार्लर में दाखिल हुआ और मेजों के बीच से गुजरता हुआ चार्ली के आफिस के दरवाजे पर पहुंचा ।
दरवाजे को धक्का देने से पहले वो ठिठका ।
अपने प्रोटेक्टर गुरबख्श लाल के सदके अगर उसने वहां विमल के लिए किसी रिसैप्शन कमेटी का इन्तजाम किया था तो उसके भीतर आफिस में ही होने की ज्यादा सम्भावना थी ।
विमल को चार्ली पर कतई एतबार नहीं था इसलिए वो वहां हर स्थिति के लिए तैयार होकर आया था ।
उसने दरवाजे को धक्का दिया और भीतर कदम रखा ।
विमल पर निगाह पड़ते ही चार्ली की भृकुटि तन गयी । उस तनी भृकुटि से ही विमल समझ गया कि चार्ली ने क्या फैसला किया था । वो चार्ली की मेज के करीब पहुंचा और बड़े इत्मीनान से मेज के सामने पड़ी तीन कुर्सियों में से एक पर बैठ गया ।
“तू फिर आ गया ?” - चार्ली सख्ती से बोला ।
“जाहिर है ।” - विमल बोला - “मैंने कहा था मैं शाम को फिर आऊंगा । पीजा खाने । मेरा पीजा तैयार है ?”
“तूने कहा था, लेकिन बदले में मैंने भी तो कुछ कहा था !”
“मौजूदा हालात में तेरे कहे की कोई कीमत नहीं ।”
“यार, बात को समझ, बात की नजाकत को समझ और पीछा छोड़ ।”
“चार्ली...”
“क्या चार्ली ! मैं तो समझा था कि तुझे अक्ल आ गयी होगी ।”
“और मैं समझा था कि तुझे अक्ल आ गयी होगी ।”
“तू गुरबख्श लाल की ताकत को बहुत कम करके आंक रहा है ।”
“गलत । तू मेरी ताकत को बहुत कम करके आंक रहा है ।”
“तू वहम का शिकार है इसीलिए मैंने तेरा लिहाज किया ।”
“क्या लिहाज किया ?”
“मैंने पुलिस को खबर नहीं की । मैंने गुरबख्श लाल को खबर नहीं की । मैंने यहां तेरे स्वागत के लिए कोई रिसैप्शन कमेटी बिठकार नहीं रखी ।”
“चार्ली, क्योंकि मुझे तेरे से ऐसी ही अक्ल की उम्मीद थी इसलिए मैंने भी तेरा बहुत लिहाज किया ।”
“तूने क्या लिहाज किया मेरा ?”
“पहले अपना जवाब दे ले फिर बताता हूं ।”
“जवाब में अभी कोई कसर रह गयी है ?”
“हां । रह गया है । मैंने तेरा जवाब, तेरा फाइनल, दो टूक जवाब अपने कानों से नहीं सुना ।”
“तो सुन ले । मैं तुझे सुन्दरलाल का पता नहीं बता सकता । मैं सुन्दरलाल का पता नहीं जानता । जानता होता तो भी न बताता । ये है मेरा जवाब ।”
“जो तू गुरबख्श लाल, जो कोई भी वो है, की शै पर मुझे दे रहा है ?”
“यही समझ ले । अब खुदा के वास्ते जो यहां से और दोबारा कभी यहां कदम न रखना । इसी में हम दोनों की भलाई है ।”
“जाता हूं । लेकिन मुझे भेजने से पहले ये तो जाने ले कि मैंने तेरा क्या लिहाज किया है ।”
“क्या लिहाज किया है ?”
“लिहाज किया था । अब वो लिहाज विदड्रा हो गया है ।”
“यार, क्या कह रहा है तू ! क्यों खाली-पीली...”
“ये खिड़की” - विमल उसके पहलू की एक बन्द खिड़की की ओर इशारा करता हुआ बोला - “बाहर सड़क पर खुलती न ?”
“हां । क्यों ?”
“जहां कि तेरी नई मारुति-1000 कार खड़ी है ?”
“हां । क्यों ?”
“यही खयाल था मेरा । खिड़की खोल ।”
“क्यों ?”
“खोल ।”
चेहरे पर बहुत असमंजस के भाव लिए चार्ली ने वो खिड़की खोली ।
विमल ने माचिस की एक तीली निकालकर जलाई ।
“क्या है ?” - चार्ली बोला ।
“वो” - विमल ने खिड़की से बाहर इशारा किया - “नीली वाली मारुति-1000, वही है न तेरी कार ?”
“है तो क्या है ?”
“एक मिनट धीरज रख । अभी पता चलता है ।” - विमल बोला । उसने तब तक बुझ चुकी माचिस ऐशट्रे में डाल दी और फिर बोला - “बाहर देख ।”
चार्ली ने बाहर देखा । उसके देखते-देखते कोई दर्जन भर आदमियों ने उसकी कार को सड़क पर से उठाया और उसे अपने सिरों से ऊंचा कर लिया । फिर सबने कार को एक साथ छोड़ दिया और अलग हट गये ।
कार एक भीषण धड़ाम की आवाज के साथ सड़क पर गिरी । उसके सारे शीशे टूट गये और जिस पहलू के बल वो गिरी, वो एकदम पिचक गया ।
फिर उन लोगों ने गिरी हुई कार को कछुवे की तरह उसकी पीठ पर उलटा दिया तो टूट-फूट में जो कसर रह गयी थी, वो भी पूरी हो गयी ।
फिर चार जनों के हाथों में चार लम्बे चाकू दिखाई दिये और चारों टायरों का कल्याण हो गया । उन लोगों ने ध्वस्त कार को यूं सीधा कर दिया जैसे कुछ हुआ ही न हो । फिर वो दर्जन-भर लोग कार के इर्द-गिर्द से जैसे जादू के जोर से गायब हो गये ।
चार्ली के नेत्र फट पड़े ।
विमल ने हाथ बढाकर खिड़की बन्द कर दी ।
चार्ली हक्का-बक्का-सा उसे देखने लगा ।
“तेरी कोठी ।” - विमल सहज भाव से बोला - “जो वसन्त विहार में है, बहुत खूबसूरत है । मैंने देखी । बहुत जल्द तरक्की की तूने दिल्ली शहर में । बनायी थी या बनी-बनायी खरीदी थी ?”
“ख...खरीदी थी ।” - स्वयंमेव ही उसके मुंह से निकला ।
“बढिया । फिर तुम्हें कम दिक्कत होगी । ऐसी फिर खरीद लेना ।”
“फिर खरीद लेना ?” - चार्ली फुसफुसाया ।
“उसकी तो अब तू राख ही बटोरेगा ।”
“तू... तू ऐसा नहीं करेगा ।”
“नहीं करूंगा ।” - विमल मुस्कराया - “मैं भला क्यों करूंगा ! मैंने तो तेरी कार को भी कुछ नहीं किया । मैं तो चुपचाप यहां बैठा हूं तेरे दरबार में । तूने मुझे यहां से हिलते भी देखा !”
“ये दादागिरी नहीं चल सकती...”
“दादागिरी ! कौन-सी दादागिरी ? किसने की ?”
“...मैं पुलिस को फोन करता हूं ।”
“जरूर ।” - विमल ने खुद मेज पर पड़ा टेलीफोन उसकी ओर सरका दिया ।
चार्ली ने फोन की तरह हाथ न बढाया ।
“यानी कि बाद में करेगा ?” - विमल ने भवें उठाईं - “मेरे चले जाने के बाद ?”
चार्ली अपने बाल नोचने लगा ।
तभी एकाएक भड़ाक से उसके आफिस का दरवाजा खुला और एक बदहवास वेटर चौखट पर प्रकट हुआ ।
“साहब !” - वो हांफता हुआ बोला - “साहब, आपकी कार...”
“भाग जा !” - चार्ली बोला ।
“साहब” - वेटर हकबकाया - “वो बाहर आपकी नयी कार...”
“दफा हो जा ।”
हक्का-बक्का वेटर चौखट से हटा । दरवाजा पूर्ववत् बन्द हो गया ।
“तो मैं” - विमल ने एक नकली जम्हाई ली - “चलूं ?”
“ठहर ! ठहर, मेरे बाप, ठहर ।”
कुर्सी पर से उठने को तैयार विमल फिर उस पर पसर गया ।
“तू क्या करेगा मेरी कोठी को ?” - चार्ली बोला ।
“मैं ! मैं तो कुछ नहीं करूंगा ।”
“क्या होगा मेरी कोठी का ?”
“आज तो कुछ नहीं होगा । आज तो तू पूरे चैन और इत्मीनान से वहीं सोयेगा । हमेशा की तरह ।”
“कल क्या होगा ?”
“कल किसने देखा है ?”
“कल क्या होगा, मेरे बाप ?”
“सुन्दरलाल का पता बतायेगा तो कुछ नहीं होगा ।”
“गुरबख्श लाल मेरा खून पी जायेगा, वो मुझे...”
“चार्ली !” - विमल कर्कश स्वर में बोला - “तेरी ये सब बकवास मैं दिन में सुन चुका हूं । गुरबख्श लाल तेरा खून पी जायेगा या वो तुझे कच्चा चबा जायेगा या वो तेरा सुरमा पीस देगा, इन बातों से मेरा क्या लेना-देना ?”
“लेना-देना होता तो चाहिए न ।” - वो गिड़गिड़ाया - “तेरी वजह से मेरी जान सांसत में पड़े और तेरे को ही उससे कुछ लेना-देना न हो, ये तो बहुत नाइंसाफी है ।”
“तू क्या चाहता है ?”
“इंसाफ ।”
“क्या इंसाफ चाहता है ?”
“गुरबख्श लाल का कहर अगर मेरे पर टूटा तो मुझे मेरे को उससे बचाना होगा ।”
“ये तू शर्त लगा रहा है मुझे सुन्दरलाल का पता बताने की ?”
“फरियाद कर रहा हूं ।”
विमल खामोश रहा ।
“मैं गुरबख्श लाल से वैर मोल लेकर जिन्दा नहीं बच सकता ।” - वो विनीत भाव से बोला - “लेकिन मैं तुझसे भी वैर मोल लेना नहीं चाहता ।”
“दोनों बातें कैसे हो सकती हैं ?”
“हो सकती हैं । तेरे किये हो सकती हैं ।”
“अजीब आदमी है तू, चार्ली । एक तरफ तू गुरबख्श लाल को मेरे सामने हौवा बनाकर खड़ा करता है और दूसरी तरफ तू मेरी सामर्थ्य को उससे कहीं ज्यादा करके आंकता है ।”
“मैं इसलिए कन्फ्यूज हूं क्योंकि मुझे अपने सामने बैठा सोहल दिखाई नहीं दे रहा लेकिन तेरी बातें, तेरी हरकतें और मेरी अक्ल यही कह रही है कि तू सोहल के अलावा और कोई हो ही नहीं सकता ।”
विमल हंसा ।
“सोहल नाम के शख्स के मुकम्मल कारनामे अखबारों में नहीं छपते लेकिन उनके चर्चे अन्डरवर्ल्ड के बच्चे-बच्चे की जुबान पर होते हैं । जिस शख्स के आगे बम्बई के राजबहादुर बखिया जैसे सुपर अन्डरवर्ल्ड बास की बादशाहत न ठहर सकी, जो मैक्सिमम सिक्योरिटी हासिल अमेरिकन डिप्लोमैट सिडनी फोस्टर का दिन दहाड़े अगुवा करने में कामयाब हो गया...”
“बस-बस ।”
“जो सोहल होते हुए सोहल न लगता हो, वो कोई पीर-पैगम्बरों जैसी सलाहियात वाला आदमी ही हो सकता है । ऐसे शख्स को मैं गुरबख्श लाल के वजूद की क्या धमकी दे सकता हूं !”
“फिर भी दे रहा है । दोपहर से ही दे रहा है ।”
“क्या करूं मैं । मेरे आगे कुआं है तो पीछे खाई है । बास, तू मुझे कुयें में गिरने से बचा, तू मुझे खाई में गिरने से भी बचा । फिर मैं तेरे साथ हूं ।”
“मुझे तेरा साथ नहीं चाहिए, सुन्दरलाल का पता चाहिए ।”
“मैं मालूम कर दूंगा ।”
“मालूम कर देगा ।” - विमल उसे घूरता हुआ बोला - “मालूम नहीं तुझे ?”
“नहीं मालूम । बाई जीसस, नहीं मालूम । कभी जरूरत ही नहीं पड़ी उसका पता जानने की । रोज तो वो यहां आता था । लेकिन मैं मालूम कर दूंगा ।” - उसने बड़े व्यग्र भाव से अपने गले की घन्टी छुई - “आनेस्ट ।”
“कोठी बचाने के लिए झूठ तो नहीं बोल रहा ?”
“नहीं ।”
“पुलिस के पास जाने की सोच रहा होगा ?”
“बिल्कुल भी नहीं । पुलिस के पास जाना होता तो अब तक चला न गया होता ?”
“क्यों नहीं गया ?”
“मैं इनाम का तलबगार नहीं ।”
“जरूर नहीं होगा । पैसा तेरे पास बहुत दिखाई दे रहा है मुझे । लेकिन मेरी गिरफ्तारी से तेरे सिर पर मेरी धमकी की जो तलवार लटक रही है, वो तो हट जाती, तेरी मारूति-1000 तो सलामत बाहर खड़ी होती ! अपनी खाक होती कोठी का अक्स तो न उभर रहा होता तेरे जेहन में !”
“वो खोखली तसल्ली है । जिस शख्स की सोहल से सूरत नहीं मिलती, आवाज नहीं मिलती, कुछ नहीं मिलता, पता नहीं मेरी रिपोर्ट पर पुलिस उसे गिरफ्तार करने को राजी होती भी या नहीं होती । राजी होती तो पता नहीं उसे गिरफ्तार किये रख पाती या नहीं ।”
“सयाना आदमी है ।”
“मेरे में धेले की अक्ल नहीं है । होती तो इस झमेले में फंसा होता ! बॉस, मेरा कुछ सोच !”
“तुझे गुरबख्श लाल की प्रोटेक्शन की जरूरत क्यों है ? पीजा पार्लर चलाने के लिए ?”
“नहीं ।”
“यानी कि अपने दूसरे धन्धे के लिए ? ड्रग्स के धन्धे के लिए ?”
“यही समझ ले ।”
“पीजा पार्लर तो खूब चल रहा है तेरा । अच्छे पैसे नहीं कमाता इससे ?”
“कमाता हूं । अब अच्छे पैसे कमाता हूं ।”
“तो लालच छोड़ । लालच छोड़ और आदमी का बच्चा बन ।”
“क्या मतलब ?”
“ड्रग का धन्धा छोड़ ।”
“कहना आसान है । ये यूं छूटने वाला धन्धा नहीं । ड्रग्स का धन्धा कम्बल है जो मैंने ओढा हुआ है । मैं कम्बल को छोड़ूंगा तो भी कम्बल मुझे नहीं छोड़ेगा ।”
“छोड़ेगा ।”
“गुरबख्श लाल नहीं छोड़ने देगा ।”
“नहीं छोड़ने देगा तो न वो रहेगा, न उसका धन्धा रहेगा ।”
“लेकिन...”
“ये लम्बी गुफ्तगू का वक्त नहीं, चार्ली । तू सुन्दरलाल का पता मुझे दे और ड्रग्स का धन्धा छोड़ने का वादा कर, फिर मैं मुहाफिज हूं तेरा गुरबख्श लाल से और गुरबख्श लाल जैसे किसी भी शख्स से ।”
“और कोई रास्ता नहीं ?”
“नहीं ।”
“ठीक है फिर । मैं पता करता हूं सुन्दरलाल का ।”
“धोखधड़ी बहुत महंगी पड़ेगी, चार्ली ! मेरे हजार हाथ हैं । मैं एक नहीं, सवा लाख हूं । याद रखना । याद रखना मेरी बात ।”
“याद रखूंगा ।”
“कल फिर बात होगी ।”
“ठीक है ।”
“अपना फोन नम्बर दे ।”
उसने अपना एक विजिटिेंग कार्ड सोहल को सौंपा ।
***
विमल विलिंगडन हस्पताल पहुंचा ।
कमरा नम्बर दो के सामने उसको पुलिस का हवलदार बैठा न मिला ।
वो भीतर दाखिल हुआ ।
उसने सुमन को कमरे में अकेली पाया । सोनिया शर्मा की बैड की ओर वाला पर्दा उस घड़ी हटा हुआ था और उसकी बैड खाली थी ।
“हल्लो !” - विमल मुस्कराता हुआ बोला - “कैसी हो ?”
“ठीक ।” - सुमन के होंठों पर भी एक फीकी मुस्कराहट आयी ।
“सिर्फ ठीक ?”
“बिल्कुल ठीक ।”
“फिर छुट्टी में क्या देर-दार है ?”
“उम्मीद है कि कल शाम को मिल जायेगी । परसों सुबह तो जरूर ही मिल जायेगी ।”
“गुड । पड़ोस के पेशेन्ट की छुट्टी हो गयी मालूम होती है ?”
“हां । उसकी छुट्टी तो कल शाम ही हो गयी थी ।”
“आई सी ।”
“कौल साहब, कल सुबह आपके यहां से चले जाने के बाद मुझे मालूम हुआ था कि वो लड़की सोनिया शर्मा थी जिसके साथ कि लोधी गार्डन वाला हादसा हुआ था ।”
“अच्छा ! वो वो लड़की थी ?”
“जी हां ।”
“मैंने अखबार में उसकी बाबत पढा था ।”
“मैंने भी पढा था । बाद में सब कुछ उसकी जुबानी भी सुना । वो खुशकिस्मत थी जो यूं उसकी इज्जत बच गयी । मेरी मां, मेरी बहन” - उसने आह भरी - “इतनी खुशकिस्मत न निकलीं । दोनों मर गयीं ।”
“तुम जिन्दा हो ।”
वो सकपकाई ।
“सुमन, मैंने कल भी कहा था, फिर कहता हूं । ये निराशावादी सोच तुझे छोड़नी होगी । ऐसा नहीं करेगी तो तेरी यहां से छुट्टी ही नहीं होगी, होगी तो उलटे पांव वापस यहीं लौटना पड़ जायेगा ।”
“मैं कोशिश करूंगी । कर रही हूं ।”
“दैट्स लाइक ए गुड गर्ल ।”
फिर विमल वहां से विदा हुआ और रिसैप्शन पर पहुंचा । वहां उसने सुमन वर्मा के बिल की बाबत सवाल किया तो सम्भावित बिल चार साढे चार हजार का बताया गया ।
एडवांस के तौर पर उसने वहां पांच हजार रुपये जमा कर दिये ।
***
दरवाजे पर दस्तक पड़ने से पहले ही रावत ने सब-इंस्पेक्टर लूथरा के लिए फ्लैट का मुख्य द्वार खोल दिया । विमल के फ्लैट की निगरानी करता वो दरवाजे के पीछे बैठा था जबकि उसने लूथरा को लिफ्ट में से निकलते देखा था ।
उस वक्त रात का एक बजा था ।
“जोड़ीदार कहां गया ?” - लूथरा बोला ।
“बैडरूम में है ।” - रावत ने बताया - “अभी सोने गया है । पहले मैं सोया हुआ था ।”
“हूं ।”
“युद्धवीर है मेरे साथ । काले खां और शीशपाल नीचे हैं ।”
“मालूम है । मैं उनसे मिल के आया हूं ।”
“आना कैसे हुआ ?”
“वो अपने फ्लैट में है ?”
“हां । आठ बजे वापिस लौटा था । तब से एक बार भी बाहर नहीं निकला ?”
“पक्की बात ?”
“हां । आप कैसे आये इतनी रात गये ?”
“अभी-अभी राजौरी गार्डन के इलाके में एक वारदात हुई है जिसमें फिर एक लम्बे ओवरकोट वाले ने एक चलती बस में ऐसे चार बदमाशों को शूट कर दिया है जो कि बस में सवार एक नयी ब्याही लड़की की इज्जत उसके मर्द के सामने लूटने को आमादा थे । इस वारदात को हुए अभी दस मिनट हुए हैं । मैंने पुलिस कन्ट्रोल रूम में ऐसी सांठ-गांठ की हुई है कि इस किस्म की वारदात दिल्ली शहर में कहीं भी हुई होने की रिपोर्ट वहां आये तो मुझे उसकी फौरन खबर की जाये । खबर लगते ही मैं यहां पहुंचा हूं ।”
“आपके खयाल से वो वारदात सामने फ्लैट वाले कौल ने की है ?”
“अगर वो अपने फ्लैट में है तो नहीं की । वारदात बालीनगर के करीब हुई है । दस मिनट में बालीनगर से यहां नहीं पहुंचा जा सकता ।”
“सर, वो भीतर अपने फ्लैट में है ।”
“क्या गारन्टी है ?”
“शाम आठ बजे के बाद से उसने अपने फ्लैट से बाहर कदम नहीं रखा ।”
“क्या गारन्टी है ?”
“मैं और युद्धवीर गारन्टी हैं । नीचे मुख्य द्वार के सामने सड़क पर मौजूद काले खां और शीशपाल गारन्टी हैं । हम लोगों की निगाहों में आये बिना वो फ्लैट से, इमारत से बाहर कदम नहीं रख सकता ।”
“रावत, इस वारदात का पैट्रन ऐन वैसा है जैसा ऐसी पहले हो चुकी तीन वारदातों का था । मेरा दिल गवाही दे रहा है कि इन चारों वारदातों के लिए एक ही शख्स, जो कि सामने फ्लैट में रहता है, जिम्मेदार है । और मेरा दिल ये भी गवाही दे रहा है कि वो शख्स इस वक्त अपने फ्लैट में नहीं है ।”
“सर” - रावत तनिक झुंझलाया - “आप तो हमें अन्धा बना रहे हैं...”
“बकवास न कर । इतनी रात गये नींद से उठकर मैं तेरी बकवास सुनने नहीं आया मालूम कर वो भीतर फ्लैट में है या नहीं ।”
“कैसे मालूम करूं ?”
“सोच कोई तरकीब ।”
“रात का एक बजा है !”
“कर कोई जुगाड़ ।”
रावत कुछ क्षण खामोश रहा और फिर भुनभुनाता हुआ बोला - “अच्छा । करता हूं । आप यहीं रहियेगा ।”
लूथरा ने सहमति में सिर हिलाया ।
रावत फ्लैट से बाहर निकला । उसने आगे बढकर विमल के फ्लैट की घण्टी बजाई ।
कुछ क्षण बाद पहले भीतर रोशनी हुई और फिर दरवाजा खुला । चौखट पर आंखें मलता हुआ विमल प्रकट हुआ । उसकी सूरत बता रही थी कि वो गहरी नींद से जागा था ।
“रावत साहब, आप !” - विमल बोला - “इतनी रात गये ?”
“मेरे भाई को एकाएक कुछ हो गया है ।” - रावत अपने स्वर में घबराहट का पुट लाता हुआ बोला - “आपको आसपास किसी डाक्टर की खबर है जो नाइट काल पर आ जाता हो ?”
“हां, हां । चौक के पास डाक्टर मजूमदार करके एक बंगाली डाक्टर हैं । मैं बुला लाता हूं उन्हें ।”
“आप इतनी तकलीफ न कीजिये...”
“तक्लीफ कैसी, रावत साहब ? आखिर पड़ोसी ही पड़ोसी के काम आता है ।”
“जी हां । जी हां । फिर भी आप मुझे सिर्फ पता बता दीजिये, बाकी मैं कर लूंगा ।”
“मर्जी आपकी ।” - विमल बोला, उसने पता बताया और उस पते पर पहुंचने का तरीका भी बताया ।
“शुक्रिया, जनाब ।” - रावत बोला ।
“जब तक आप डाक्टर को बुलाकर लाते हैं” - विमल सहज भाव से बोला - “आपके भाई साहब के पास मैं बैठ जाता हूं ।”
“जी ! जी नहीं, जरूरत नहीं ।”
“क्यों जरूरत नहीं भला । भई, वो पीछे अकेले...”
“वो अकेला नहीं है । मेरा... मेरा एक दोस्त आया हुआ है, वो उसके पास बैठा है । दरअसल मैं दोस्त को ही डाक्टर लिवाने भेजूंगा और मैं भाई के पास बैठूंगा ।”
“हां । ये ठीक रहेगा ।”
“शुक्रिया, कौल साहब ।”
“मेरे लायक कोई सेवा हो तो निसंकोच बताइयेगा । मैं जाग रहा होऊंगा ।”
“जी हां । जरूर । नमस्ते ।”
“नमस्ते ।”
रावत वापिस लौटा ।
उसने लूथरा का चेहरा घुटनों तक लटका पाया ।
“वो घर पर है ।” - रावत बोला ।
“देख लिया मैंने ।” - लूथरा भुनभुनाया ।
“सर, ऐसा सम्वेदनशील, शरीफ और दुनियादार आदमी अपराधी नहीं हो सकता । हम खामखाह वक्त बरबाद कर रहे है यहां...”
“शटअप !” - लूथरा कहरभरे स्वर में बोला ।
रावत सकपकाकर चुप हो गया ।
“जब तक मैं म कहूं, निगरानी जारी रहे इस शरीफ आदमी की । समझ गये ?”
बहुत कठिनाई से रावत का सिर सहमति में हिला ।
ऐसा अड़ियल, जिद्दी और ढीठ आदमी था सब-इंस्पेक्टर अजीत लूथरा !
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