28 अक्तूबर-सोमवार
वही हुआ जिसका विमल को अन्देशा था।
अगले रोज के अख़बार के लेट सिटी एडीशन में मुखपृष्ठ पर बड़ी सुर्खी थी:
सरेराह नौजवान लड़की अगवा
भगवानदास रोड पर बड़ी वारदात
कार सवार तीन युवक बस स्टॉप पर खड़ी लड़की को जबरन उठाकर ले गये
विमल ने जल्दी-जल्दी तमाम ख़बर पढ़ी।
ख़बर के मुताबिक अगवा लड़की क्षत-विक्षत, अर्धमृतावस्था में छतरपुर के उजाड़ रास्ते पर एक खड्ड में पड़ी पाई गयी थी। उसके कपड़े तार- तार थे, सारे जिस्म पर जख्मों और खरोंचों के निशान थे, जो बलात्कार के अलावा उसके साथ हुए अत्याचार के भी गवाह थे। संयोगवश एक टैम्पो ड्राइवर की निगाह उस पर पड़ गयी थी और उसने पुलिस को उस बाबत ख़बर की थी। पुलिस मौका-ए-वारदात पर पहुँची थी और शुरूआती पुलिस कार्यवाही के बाद उन्होंने उसे सफदरजंग हस्पताल पहुँचाया था, जहाँ वो जिन्दगी और मौत के बीच झूलती बतायी जाती थी।
अख़बार में ये भी दर्ज था कि पुलिस भगवानदास रोड पर हुई अगवा की वारदात से वाकिफ थी, क्योंकि वारदात के वक्त बस स्टैण्ड पर खड़े कई पैसेंजरों में से आखि़र एक की गैरत जागी थी और उसने सौ नम्बर डायल करके पुलिस को अगवा की वारदात की जानकारी दी थी। तब पुलिस को अगवा युवती की उम्र, पोशाक और हुलिये की जानकारी मिली थी जिसकी बिना पर उन्होंने ये नतीजा निकाला था कि उसी युवती को बलात्कारी युवकों ने आधी रात के करीब छतरपुर के रास्ते में मरने के लिये फेंक दिया था।
या समझा था कि मर चुकी थी।
उस वारदात की बाबत अख़बार में एक सम्पादकीय टिप्पणी भी थी जिसमें उसे ‘एक और निर्भया काण्ड’ की संज्ञा दी गयी थी और इस बात पर भारी आक्रोश व्यक्त किया गया था कि मौका-ए-वारदात तिलक मार्ग पुलिस स्टेशन से सिर्फ दो फरलांग और दिल्ली पुलिस हैडक्वार्टर से सिर्फ एक किलोमीटर दूर था। लिहाजा शहर में अपराधी इतने बेखौफ थे कि उन्हें ऐन पुलिस की नाक के नीचे वारदात करने से कोई गुरेज नहीं था। वो वारदात एक बार फिर दिल्ली पुलिस की अकर्मण्यता को उजागर करती थी। ये हाल तब था, जबकि दिल्ली पुलिस गृह मंत्रलय के तहत काम करती थी और गृह मंत्रलय पुलिस हैडक्वार्टर से सिर्फ दो किलोमीटर दूर था।
अंत में उस सम्पादकीय में लिखा गया था:
अब एक बार फिर कैंडल मार्च होगी, ‘निर्भया को इंसाफ दो’ लिखे नामपट्टों के साथ जुलूस निकाले जायेंगे। धरना प्रदर्शन होंगे, जिनमें पुलिस के खिलाफ नारे लगाये जायेंगे। पुलिस फिर बहत्तर घंटों में अपराधियों को खोज निकालने के दावे पेश करेगी। गृह मंत्रलय से फिर स्टैण्डर्ड विज्ञप्ति जारी होगी कि ‘दोषियों को बख्शा नहीं जायेगा और उन पुलिसकर्मियों पर भी कार्यवाही होगी जिनके नाकारेपन की वजह से गुंडा एलीमेंट उस वारदात को अंजाम दे पाया’। कोई बड़ी बात नहीं कि खुद गृहमंत्री ये घोषणा करें कि पीडि़ता को इलाज के लिये सिंगापुर भेजा जायेगा और इलाज का सारा खर्चा सरकार देगी।
लेकिन नतीजा क्या निकलेगा?
क्या दिल्ली पुलिस होशियार और मुस्तैद हो जायेगी?
क्या अपराधियों के मन में कायदे कानून का खौफ बैठ जायेगा?
क्या ऐसी वारदातें होनी बंद हो जायेंगी?
ऐसा कुछ न होगा।
चार छः दिन मामला गर्माया रहेगा, फिर सब शांत हो जायेगा और धरना प्रदर्शन वाले, फर्जी हमदर्दी दिखाने वाले लोकसेवक, लिप-सर्विस देने वाले नेतागण फिर ऐसी किसी नयी वारदात का इंतजार करेंगे जिसमें मीडिया का, पब्लिक का मुकम्मल फोकस फिर उन पर होगा।
फिर ख़बर आयेगी कि:
पीडि़ता ने सिंगापुर ले जाये जाने से पहले ही, बिना इतना होश में आये हुए कि बयान देने के काबिल होती, प्राण त्याग दिये थे।
दिल्ली पुलिस कमिश्नर को गृह मंत्रलय में तलब किया गया था।
तिलक मार्ग थाने के गश्त के दो सिपाहियों को सस्पैंड कर दिया गया था।
वारदात के लिये जिम्मेदार दो — या तीन या चार — संदिग्ध युवकों को हिरासत में लिया गया था, जिनसे पूछताछ जारी थी।
बाकी माहौल ठीक था।
कब तक?
अगली वारदात तक
और उस बीच ‘पुलिस तमाशा’ पूरे जलाल पर होगा ताकि गृह मंत्रलय तक सिग्नल जा सके कि पुलिस अब जाग गयी थी।
‘पुलिस तमाशा’ टर्म से हमारे सुधी पाठक नावाकिफ नहीं हैं।
पुलिस तमाशा है जिप्सी वैंस की जगह-जगह हाजिरी के जरिए नेक, कर्त्तव्यपरायण नागरिकों में — ज्ञातव्य है, नागरिकों में, मुजरिमों में नहीं — खौफ पैदा करना।
पुलिस तमाशा है सड़कों पर जगह-जगह बैरियर लगा कर लम्बे-लम्बे ट्रैफिक जाम खड़े करना और कम्यूटर्स को हलकान करना।
पुलिस तमाशा है सैंड माफिया, शराब माफिया के ट्रक्स को छोड़ कर काले शीशों वाली कारों के चालान को वरीयता देना।
पुलिस तमाशा है सार्वजनिक पार्कों से बाहर की सड़कों पर हुजूम लगाने वाले गैरकानूनी हाकरों को छोड़कर पार्क में बैठे नौजवान जोड़ों को खाकी वर्दी से खौफजदा करना।
पुलिस तमाशा है अपनी ही शह पर धंधा करती कालगर्ल को और उसके पिम्प को पकड़ कर यूँ बधाईयां बटोरने की कोशिश करना जैसे दाउद को पकड़ लिया हो।
कब सुधरेगा दिल्ली का निजाम! इस मुल्क का निजाम!
हमारा आकलन है:
सरकार में और सरकारी अमले में गफलत का यही आलम रहा तो कभी नहीं।
विमल ने अख़बार एक ओर डाल दिया और गहरी साँस ली। बाकी अख़बार पढ़ने में उसकी रुचि नहीं रही थी।
“अरे! चाय नहीं पी!”
विमल ने सिर उठाकर देखा तो पाया नीलम उसके सामने खड़ी थी।
“चाय!” — वो हड़बड़ाया — “ओ, हाँ। चाय। पीता हूँ।”
“अब क्या पीते हो! अब तो वो ठण्डी हो गयी! उसे रहने दो। मैं और बनाती हूँ।”
“नहीं, अब दिल नहीं है।”
“क्या हुआ दिल को?”
विमल ने संजीदगी से सामने मेज पर पड़े अख़बार की ओर इशारा किया।
“क्या है इसमें?” — नीलम सशंक भाव से बोली।
“वो लड़की” — विमल ने बताया — “जिसको कल शाम हमने अगवा होता देखा था, आधी रात को छतरपुर के रास्ते में एक खड्डे में एक गुडि़या की तरह छिन्न भिन्न पड़ी पायी गयी और अब सफदरजंग हस्पताल में, बेहोश पड़ी अपनी आखि़री साँसें गिन रही है।”
“हाय राम! ये गत बनी बेचारी की!”
विमल ख़ामोश रहा।
“बड़े दुख की बात है लेकिन . . . यही लिखा था बेचारी के भाग्य में।”
विमल ने घूर के उसे देखा।
“क्यों देखते हो ऐसे घूर के? कोई किसी का भाग्य नहीं बदल सकता, भले ही वो कोई सरदार सुरेन्द्र सिंह सोहल हो।”
“कोई वो ही तो नहीं रहा वर्ना . . .”
“वर्ना क्या?”
“शहीद हो जाता लेकिन जो होते देखा, वो न होने देता।”
“ये तुम नहीं, तुम्हारा अहंकार बोल रहा है . . .”
“गलत पहचाना। ये अहंकार नहीं, खालसा की — खालिस मानस की — अनख है।”
“. . . मुम्बई की चंद कामयाबियों ने तुम्हें बौरा दिया है। असुरों से लड़ते-लड़ते तुम्हारे में आसुरी प्रवृत्तियाँ पैदा हो गयी हैं जो अब जिन्दगी की धारा मुकम्मल तौर से बदल लेने का तहैया कर चुकने के बाद भी तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ रही हैं। जरा कुछ इंकलाबी होता है तो तुम भूल जाते हो कि अब तुम क्या हो और क्या तुमने नहीं होना है। सरदार जी, अगर अतीत भुलाये नहीं भूलता तो कम-से-कम इतना तो याद रखे रह सकते हो कि तुम कोई पीर-पैगम्बर नहीं हो, कोई अवतारी पुरुष नहीं हो, पापियों के नाश के लिये जिसने अवतार लिया है। ऐसी कोई खुशफहमी तुम्हें पहले थी तो अब न रखो। अब तुम सूरज के पिता हो, नीलम के पति हो, गैलेक्सी के मुलाजिम हो, बस। तुम्हारा जो दिल गैर के लिये पसीजता है, वो अपनों के लिए भी पसीजना चाहिए।”
“क्या मतलब?”
“तुम्हें ऐसी हरकतों से बाज आना चाहिये, जो तुम्हारे बच्चे को अनाथ कर दें, बीवी को विधवा कर दें।”
“इस अंजाम से तुम बेख़बर नहीं हो। तुम नहीं कह सकती कि तुम इस हकीकत से वाकिफ नहीं थीं कि मवाली की बीवी विधवा मरती है।”
“अब ये मेरे लिये कोई बड़ा अन्देशा नहीं। मौत सब को आती है। सधवा को भी, विधवा को भी। वो कैसे आती है, किस हालात में आती है, ये जुदा मसला है। लेकिन तुम्हारी बड़ी बड़ी — कभी जज्बाती, कभी जोशीली — बातें मुझे उस राह से नहीं भटका सकतीं जिस का राही बनने के लिये हम एकबार फिर दिल्ली आकर बसे हैं। सरदार जी, मैं तुम्हें अपने कौल-करार से नहीं फिरने दूँगी।”
“मुझे सरदार मत कहा कर। सौ बार कहा है।”
“हजार बार याद रखा है। पर मुँह से निकल जाता है।”
“क्यों निकल जाता है?”
“क्योंकि ऐसा कहना मुझे अच्छा लगता है।”
“जो-जो कुछ तुझे अच्छा लगता है, उसकी कोई लिस्ट है तो देख उसमें चाय गर्म कर लाना दर्ज है?”
“देख ली। नहीं दर्ज है। लेकिन नयी चाय बना लाना दर्ज है। लाती हूँ।”
वो चली गयी।
माहौल एकाएक तल्ख हो उठा था, ग़नीमत थी कि जल्दी नॉर्मल हो गया था।
अगले दिन अख़बार में ख़बर छपी कि अगवा और बलात्कार की शिकार लड़की ने सफदरजंग हस्पताल में — जहाँ कि वो भरती थी — बिना होश में आये दम तोड़ दिया।
और अगले दिन ख़बर छपी कि भगवानदास रोड की अगवा की वारदात का पुलिस ने एक चश्मदीद गवाह काबू में किया था। वो गवाह उन तमाशबीनों में से एक था जो कि अगवा के वक्त बस स्टैण्ड पर मौजूद थे। उसका बयान था कि लड़की की मौत की ख़बर ने उसे बहुत आंदोलित किया था और वो खुद ही तिलक मार्ग थाने पहुँच गया था, जहाँ कि वो अगवा का केस दर्ज था।
बकौल गवाह, उसने अपहर्ताओं की शक्ल-सूरत की तरफ तो कोई खास तवज्जो नहीं दी थी, लेकिन दो बातें अनायास उसके नोटिस में आ गयी थीं:
उसने अपहर्ताओं की कार आई-20 के ड्राइवर की सूरत अच्छी तरह से देखी थी।
उसे आई-20 कार का रजिस्ट्रेशन नम्बर याद था।
बाकी दो जनों की सूरत क्यों नहीं देखी थी? — पुलिस का सवाल था।
क्योंकि तकरीबन वक्त उनकी उसकी तरफ पीठ थी।
जबकि कार बस स्टैण्ड पर यूँ आकर खड़ी हुई थी कि कार की ड्राइविंग सीट पर मौजूद युवक का उसकी तरफ मुँह था।
पुलिस ने व्हीकल्स रजिस्ट्रेशन के रिकॉर्ड से कार के मालिक की बाबत जाना और फिर उस युवक को — जिसका नाम अमित गोयल था और जो कार मालिक रघुनाथ गोयल का पुत्र था — गिरफ्तार कर लिया, इतवार को — वारदात की शाम को — कार जिसके हवाले थी।
पुत्र अमिल गोयल से पूछताछ का नतीजा ये निकला कि कार यकीनन उसके हवाले थी, ये भी सच था कि विकास जिन्दल और केतन साहनी नामक उसके दो हमउम्र दोस्त उसके साथ थे लेकिन इतवार शाम को वो भगवानदास रोड पर तो क्या, उसके आसपास भी नहीं थे। उस शाम वो गुड़गाँव में थे जहाँ पहले उन्होंने ‘रईस’ देखी, फिर कार में ही बैठकर ड्रिंक्स एनजॉय किये और फिर एक ढाबे पर खाना खाकर घर लौटे।
अमित गोयल की रिहायश सैक्टर पन्द्रह-ए, नोएडा में थी, उसके पिता का पहाड़गंज में टिम्बर का बिजनेस था।
विकास जिन्दल और केतन साहनी कहाँ रहते थे, क्या करते थे, इस बात का अख़बार में कोई जिक्र नहीं था।
थाने में गवाह को पकड़े गये युवकों के रूबरू कराया गया था तो उसने निसंकोच अमित गोयल नामक युवक की बतौर आई-20 के ड्राइवर शिनाख्त की थी।
आगे ख़बर थी कि तीनों युवकों को गुरुवार को पटियाला हाउस कोर्ट में पेश किया जाना था।
31 अक्टूबर—गुरुवार
गुरुवार सुबह विमल उस मैजिस्ट्रेट के कोर्ट में मौजूद था, जहाँ तीनों आरोपी युवकों की पेशी थी। उस कोर्ट की बाबत और पेशी के वक्त की बाबत जानकारी उसे बाजरिया अजीत लूथरा हासिल हुई थी।
वो ख़ामोशी से भीतर दाखिल हुआ और उस वक्त लगभग खाली पड़े कोर्ट में पीछे के एक बैंच पर जाकर बैठ गया।
फिर धीरे-धीरे वहाँ वकीलों की, अपनी-अपनी पेशी से ताल्लुक रखते वादी-प्रतिवादियों की, गवाहों की, दर्शकों को आमद बढ़ने लगी।
दस बजे अपने चैम्बर और कोर्टरूम के बीच का दरवाजा खोल कर मैजिस्ट्रेट ने कोर्टरूम में कदम रखा।
उसके सम्मान में सब उठ कर खड़े हुए।
तदोपरान्त विमल को पता चला कि पहला ही केस भगवानदास रोड के अगवा और बलात्कार वाला था।
दो पुलिसियों ने तीन नौजवानों को मैजिस्ट्रेट के सामने पेश किया।
विमल ने नोट किया कि दोनों पच्चीस और तीस के पेटे में थे और अपनी उस वक्त की दुश्वारी से कोई खास हलकान-परेशान नहीं दिखाई देते थे। तीनों के चेहरों पर उद्दंडता की स्पष्ट छाप थी।
सरकारी वकील ने नाम ले ले कर तीनों का कोर्ट को परिचय दिया।
अमित गोयल — क्लीनशेव्ड, खड़े कान, पकौड़े जैसी नाक।
विकास जिन्दल — क्लीनशेव्ड, गोरा-चिट्टा, तीनों में सबसे ज्यादा खूबसूरत। एक कान में बाली।
केतन साहनी — दाढ़ी मूँछ दोनों, रंगत साँवली, होंठों की रंगत ऐसी जैसे बीड़ी पीता हो और दाँतों की रंगत ऐसी जैसे रेगुलर खैनी-जर्दा चबाता हो।
अपने वकील के सुपरविजन में उन्होंने पुरजोर लहजे से वही दोहराया जो उनका पुलिस के सामने बयान था — वारदात के वक्त वो मौका-ए-वारदात से मीलों दूर गुड़गाँव में थे यानी मौका-ए-वारदात भगवानदास रोड से दूर थे और बयान किया कि आधी रात तक वो वहाँ क्या करते रहे थे।
“योर आनर!” — सरकारी वकील बोला — “इनके खिलाफ एक चश्मदीद है।”
मैजिस्ट्रेट की भवें उठीं।
“झूठा है।” — अमित गोयल बोला।
“बनाया हुआ है।” — केतन साहनी बोला।
“या किसी मुगालते में है।” — विकास जिन्दल बोला।
“योर आनर” — सरकारी वकील बोला — “गवाह ने इन तीनों में से एक की, अमित गोयल की, जिसका पिता उस आई-20 कार का मालिक है जो वारदात की शाम को इनके कब्जे में थी, पक्की, मजबूत, निर्विवाद, शिनाख्त की है।”
“ऐसी कोई शिनाख्त नहीं हुई!” — अमित गोयल आवेशपूर्ण स्वर में बोला।
“गवाह को कोर्ट में पेश किया जा सकता है।” — सरकारी वकील बोला।
“ऐसे मामलों में पुलिस की सलाहियात से कौन वाकिफ नहीं, योर आनर!” — मुलजिमों का वकील बोला — “उनकी शह पर मिस्टर पब्लिक प्रासीक्यूटर यहाँ काले चोर को खड़ा कर देंगे और दावा करेंगे कि वो मेरे क्लायन्ट्स के खिलाफ चश्मदीद गवाह है।”
“दैट्स शियर नानसेंस . . .”
“आई ऑब्जेक्ट। दिस इज अनसिविल लैंग्वेज।”
“. . . चश्मदीद का गवाहों के सामने दिया गया, तसदीकशुदा बयान फाइल में है।”
“कौन नहीं जानता कि ऐसे तसदीकशुदा बयान कैसे वजूद में आते हैं! जब हमारा दावा है कि गवाह फर्जी है, तो उसका बयान भी तो फर्जी ही होगा!”
“दैट्स प्रीपोस्टरस्!”
“यू कैननॉट हुडविंक ऐनीबॉडी बाई सच हैवी वडर््स।”
“लेकिन . . .”
“क्वाइट!” — मैजिस्ट्रेट बोला — “एण्ड लिसन।”
दोनों वकील चुप हो गये, उन्होंने मजिस्ट्रेट की तरफ देखा।
“क्या वो कथित चश्मदीद गवाह इस वक्त कोर्ट में मौजूद है? — मैजिस्ट्रेट बोला।
“नो, योर आनर।” — सरकारी वकील बोला।
“क्या उसे कोर्ट में पेश किया जा सकता है?”
“जरूर।”
“कितनी जल्दी?”
सरकारी वकील हिचकिचाया।
“क्या आज ही पेश किया जा सकता है?”
“यस, योर आनर।”
“लंच ब्रेक के बाद तक इस केस की सुनवाई मुल्तवी की जाती है। तब पुलिस के इन मुलजिमों के खिलाफ चश्मदीद गवाह को अदालत में पेश किया जाये। नैक्स्ट केस।”
लंच के बाद जो गवाह पेश किया गया वो एक कोई चालीस साल का व्यक्ति था जो कि सूरत से ही दक्षिण भारतीय लगता था।
उसने कोर्ट को बताया कि उसका नाम देवन नायर था और वो फैब इंडिया में मुलाजिम था।
“इतवार के दिन” — सरकारी वकील ने पूछा — “शाम के वक्त भगवानदास रोड पर आप क्या कर रहे थे?”
“आगा खान हाल में फैब इंडिया की सेल लगी है” — उसने जवाब दिया — “वहाँ अपनी ड्यूटी खत्म करके घर की बस पकड़ने के लिये बस स्टैण्ड पर खड़ा था।”
“वहाँ आपकी कहाँ ड्यूटी थी?”
“पहली मंजिल के उस हाल में जिसमें फैब इंडिया की सेल थी।”
“फैब इंडिया तो दिल्ली और एनसीआर में बहुत जगह है! आपकी मुलाजमत कहाँ है?”
“जनपथ पर।”
“वहाँ भी फैब इंडिया का शोरूम है?”
“जी हाँ। हाल में खुला है।”
“पहले कहाँ थे?”
“आई ऑब्जेक्ट। ये ग़ैरजरूरी सवालात हैं।” — प्रतिपक्ष का वकील बोला।
मैजिस्ट्रेट ने सहमति में सिर हिलाया।
“बस, ये आखि़री सवाल।” — सरकारी वकील बोला।
“खान मार्केट में।” — गवाह बोला।
“कहाँ रहते हैं?”
“मयूर विहार।”
“इतवार शाम को जब आप भगवानदास रोड पर बस स्टैण्ड पर खड़े थे तो आपकी मौजूदगी में वहाँ क्या हुआ था?”
“ऑब्जेक्शन।” — विपक्ष का वकील बोला — “ये बहुत जनरल, बहुत वेग क्वेश्चन है। इनकी मौजूदगी में वहाँ कितना ही कुछ वाकया हुआ हो सकता है। मैं नहीं समझता कि कोर्ट की तब के वहाँ के हर वाकये में दिलचस्पी होगी।”
मैजिस्ट्रेट का सिर फिर सहमति में हिला।
“बी स्पैसिफ़िक, मिस्टर पब्लिक प्रॉसीक्यूटर।” — वो बोला।
“यस, योर आनर।” — सरकारी वकील बोला — “आपकी बस स्टैण्ड पर मौजूदगी में वहाँ एक आई-20 कार पहुँची थी, जिसमें से दो युवक बाहर निकले थे, उन्होंने स्टैण्ड पर बस के इन्तजार में खड़ी एक युवती को जबरन दबोचा था, उसे कार में धकेला था और कार वहाँ से भाग निकली थी। आप इस वाकये की तसदीक करते हैं?”
गवाह का सिर सहमति में हिला।
“प्लीज, जुबानी जवाब दीजिये।”
“मैं इस बात की तसदीक करता हूँ।”
“कार में कितने जने थे?”
“तीन। एक ड्राइविंग सीट पर और दो पीछे थे जिन्होंने बाहर निकल कर लड़की को दबोचा था।”
“आप कहते हैं कि क्योंकि कार का रुख आपकी तरफ था, इसलिये आपने ड्राइवर की सूरत देखी थी?”
“जी हाँ।”
“अच्छी तरह से?”
“जी हाँ।”
“इतनी अच्छी तरह से कि आप उसे दोबारा देखते तो पहचान लेते?”
“जी हाँ।”
“गुड। अब इन तीन युवकों की तरफ देखिये, जो बतौर उस केस के अभियुक्त यहाँ आपके सामने मौजूद हैं।”
“देख रहा हूँ।”
“अब ये बताइये कि क्या इनमें से कोई उस आई-20 कार का ड्राइवर था . . .”
“नहीं।”
“. . . था तो कौन था . . .।” — सरकारी वकील एकाएक यूँ ठिठका जैसे उसे बिजली का झटका लगा हो — “अभी क्या बोला आपने?”
“ ‘नहीं’ बोला।”
“वो तो बोला लेकिन किस बाबत बोला?”
“इनमें से कोई उस कार का ड्राइवर नहीं था।”
“वाट नॉनसेंस! आपने पुलिस द्वारा आयोजित आइडेन्टिटी परेड में बतौर कार ड्राइवर इनमें से एक की शिनाख़्त की थी!”
“शिनाख़्त की थी, लेकिन इनमें से एक की नहीं की थी।”
“तो किसकी की थी?”
“जिसकी मैंने शिनाख़्त की थी, वो यहाँ नहीं है।”
“ये कैसे हो सकता है? कैसे हो सकता है कि . . .”
“मेरे को नहीं पता कैसे हो सकता है! जो पता है वो ये है कि आइडेन्टिटी परेड में जिसकी मैंने शिनाख़्त की थी, वो यहाँ नहीं है।”
सरकारी वकील मुँह बाये उसे देखने लगा।
विपक्ष के वकील के चेहरे पर संतुष्टि के भाव आये, उसने विजेता की तरह अपने क्लायन्ट्स की तरफ देखा।
तीनों युवकों ने दाँत निकाले, तत्काल संजीदा हुए।
मैजिस्ट्रेट ने अपने रोजनामचे में कुछ नोट किया।
“तो” — सरकारी वकील बोला — “तुम्हारा दिलोदिमाग, तुम्हारी सोच समझ ये कहती है कि पुलिस की हाजिरी में जिस शख़्स की शिनाख़्त का दम तुमने भरा, वो इन तीनों में से कोई नहीं है?”
“हाँ। अब मैं जा सकता हूँ? मैं शोरूम से एक घंटे की छुट्टी लेके आया . . .”
“नहीं! नहीं जा सकते। इतनी जल्दी यहाँ से तुम्हारी खलासी नहीं हो सकती।”
“आई ऑब्जेक्ट।” — विपक्ष का वकील बोला — “मिस्टर पब्लिक प्रासीक्यूटर इज ट्राईंग टु इनटिमिडेट दि विटनेस। वो खुद अपने गवाह को धमकाने की कोशिश कर रहे हैं।”
“ऑब्जेक्शन सस्टेंड।” — मैजिस्ट्रेट बोला।
“तुम्हें उन पुलिस वालों के रूबरू किया जा सकता है जिन की मौजूदगी में तुमने इन तीनों में से एक की शिनाख़्त की थी।”
“कीजिये। तब वो पुलिस वाले ही मेरे बयान की तसदीक करेंगे कि जिस शख़्स की मैंने शिनाख़्त की थी, वो इन तीनों में से कोई नहीं है।”
“फिर भी तुम्हारी खलासी . . . आई एम सॉरी, योर ऑनर . . . तुम भूल रहे हो कि तुम्हारे बयान पर आधारित, बल्कि यूँ कहो कि तुम्हारा ही मुहैया कराया हुआ, अभी एक सबूत और है पुलिस के पास।”
“कौन-सा सबूत?”
“आई-20 कार का रजिस्ट्रेशन नम्बर जो, तुमने अपने बयान में कहा, तुमने साफ देखा था और जिसे पहले तुमने अपनी याददाश्त में और फिर अपने मोबाइल के ‘नोट्स’ में महफूज किया था। डीएल 7यूसीसी 7034 जो कि इनमें से एक की फैमिली कार है।”
“क्या नम्बर बोला?”
“डीएल 7यूसीसी 7034।”
“कुछ गड़बड़।” — गवाह बड़बड़ाया, उसने जेब से अपना मोबाइल निकाला और जल्दी-जल्दी उसके की-पैड पर उँगलियाँ चलाने लगा।
“आप गलत नम्बर कोट कर रहे हैं।” — फिर मोबाइल पर से सिर उठाता बोला — “जो कार नम्बर यहाँ मेरे मोबाइल के नोट्स में दर्ज है, वो ये नम्बर नहीं है जो आपने बोला। जो कार नम्बर मेरे पास रिकार्डिड है, वो डीएल 7यूसीसी 7043 है।”
“यही तो मैंने बोला . . .”
“नहीं बोला। आपने ‘7034’ बोला। जो नम्बर मैंने देखा और नोट किया था, वो ‘7043’ था।”
“तुम्हारे से नोट करने में चूक हुई। जो नम्बर तुमने पुलिस के पास अपने स्वेच्छा से दिये, तसदीकशुदा बयान में दर्ज कराया था, वो ‘7034’ था।”
“मुझे नहीं पता पुलिस ने क्या दर्ज किया। मैंने ‘7043’ ही बोला था।”
“तुम्हारी साइन्ड स्टेटमेंट फाइल में है। तुम उससे नहीं मुकर सकते।”
“मेरा बयान हिन्दी में दर्ज किया गया था। मैं मलयाली हूँ। मैं हिन्दी सिर्फ बोल सकता हूँ, लिख पढ़ नहीं सकता।”
“जो अब कह रहे हो” — सरकारी वकील भड़कने को हुआ — “वो पुलिस को क्यों न बोला?”
“बोला था, सर, बोला था।” — गवाह यूँ बोला जैसे फरियाद कर रहा हो — “उन्होंने कहा था कोई फर्क नहीं पड़ता था। उन्होंने मेरा बयान मुझे पढ़ कर सुनाया था, मैंने उसे ठीक पाया था इसलिये साइन कर दिये थे।”
“लेकिन अब तुम अपने ही तसदीकशुदा बयान में खामी निकाल रहे हो। बयान में कार नम्बर गलत दर्ज हो गया था, तो तब क्यों न बोले?”
“क्योंकि तब नम्बर के दो डिजिट्स की जक्स्टापोजीशन मेरी पकड़ में नहीं आयी थी। ये तो अब पकड़ में आयी जब आपके बोले नम्बर को मैंने अपने नोटिड नम्बर से कम्पेयर किया।”
“तुम झूठ बोल रहे हो।” — सरकारी वकील गर्जा — “तुम अन्डर ओथ झूठ बोल रहे हो।”
“आई कांट अन्डरस्टैण्ड वॉट्स गोइन्ग आन, योर ऑनर।” — विपक्ष का वकील भी उतनी ही बुलन्द आवाज में बोला — “मेरे फाजिल दोस्त अपने ही गवाह को झूठा करार दे रहे हैं।”
“ये सरकारी गवाह है।” — सरकारी वकील गुस्से से बोला — “इसकी बाबत आपको फ़िक्र करने की जरूरत नहीं।”
“जरूरत है। इसकी गवाही पर मेरे क्लायन्ट्स की आइन्दा जिन्दगी का दारोमदार है। जब ये कहता है कि पुलिस ने बेध्यानी से गलत नम्बर रिकॉर्ड किया है तो . . .”
“गलत कहता है। नाजायज कहता है। पुलिस से ऐसी बेध्यानियाँ होने लगें तो चल चुका पुलिस का महकमा।”
“ह्यूमन ऐरर की कहीं भी, कभी भी गुंजायश होती है। मैनुअल काम में अनजाने में ऐसी गलती हो जाना कोई बड़ी बात नहीं।”
“ये अपने पुलिस को स्वेच्छा दिये बयान से भी तो मुकर रहा है!”
“नहीं मुकर रहा।”
“कैसे नहीं मुकर रहा? अभी इसने कहा या नहीं कहा कि बतौर आई-20 कार ड्राइवर इन तीनों मुलजिमों में से ये किसी को नहीं पहचानता!”
“कहा। बराबर कहा। लेकिन क्यों कहा? क्योंकि इसने गीता पर हाथ रख कर सच बोलने की कसम खायी है। ही टुक दि ओथ दैट ही विल स्पीक दि ट्रुथ, दि होल ट्रुथ एण्ड नथिंग बट दि ट्रुथ। अब ये पुलिस और पब्लिक प्रासीक्यूटर की सहूलियत के लिये कसम नहीं तोड़ सकता। झूठ नहीं बोल सकता। मैं और मेरे क्लायन्ट्स इसके धन्यवादी हैं कि इस वक्त ये पुलिस को माफिक आने वाली गवाही देने की जगह अपने विवेक के हवाले गवाही दे रहा है।”
“बतौर गवाह इसने एकाएक जो करवट बदली है, उसका इसके विवेक से कोई रिश्ता नहीं है। आई कैन ले ऐनी बैट अपॉन इट दैट ही हैज बिन रीच्ड . . .”
“मिस्टर पब्लिक प्रासीक्यूटर!” — विपक्ष के वकील के बोलने से पहले ही खुद मैजिस्ट्रेट ने ऐतराज जाहिर किया।
“आई एम सॉरी, योर आनर।” — सरकारी वकील भुनभुनाया — “बट आई मस्ट सबमिट दैट दिस विटनेस हैज सडनली टर्न्ड होस्टाइल। इस बिना पर पुलिस की तरफ से मैं मुलजिमों के दो हफ्ते के रिमांड की दरख्वास्त पेश करता हूँ।”
“मैं इस दरख्वास्त का प्रबल विरोध करता हूँ।” — विपक्ष का वकील बोला — “योर ऑनर ने देखा ही है कि कैसे पुलिस का मेरे क्लायन्ट्स के खिलाफ खड़ा किया गया केस कोर्ट में नहीं ठहर पाया है। ठहर पाना तो दूर, कैसे उनके अपने ही गवाह के कन्डक्ट से वो छिन्न-भिन्न हो गया है। जब कोई केस ही नहीं है तो रिमांड का क्या मतलब! कोई केस बनाना ही है तो अपने गवाह के खिलाफ़ बनायें जो सरकारी वकील साहब दावा करते हैं कि होस्टाइल हो गया है, परजुरी पर उतर आया है। मैं कोर्ट से पुरजोर दरख्वास्त करता हूँ कि मेरे क्लायन्ट्स को या तो बाइज्जत बरी किया जाये या पैंडिंग केस, तुरंत जमानत पर छोड़ा जाये।”
मुलजिमों को इस वार्निंग के साथ जमानत मिल गयी कि वो वक्ती थी, पुलिस द्वारा रिवाइज्ड पेटीशन दाखिल किये जाने की सूरत में खारिज हो सकती थी।
शाम को सात बजने को थे, जब कि विमल जनपथ पहुँचा।
फोन कर के वो पहले ही मालूम कर चुका था कि वहाँ फैब इंडिया का शोरूम शाम सात बजे बंद होता था।
वो भीतर दाखिल होने लगा तो गार्ड ने उसे टोका — “क्लोजिंग टाइम हो गया है, साहब।”
“मालूम है, भाई।” — विमल मीठे लहजे से बोला — “मेरी बीवी अभी अन्दर है इसलिये जाना है।”
गार्ड ने उसे भीतर चले जाने दिया।
एग्जिट डोर वहाँ से थोड़ा परे था इसलिये एन्ट्री पर के गार्ड को नहीं मालूम होने वाला था कि जब वो वहाँ से रुख़सत हुआ था तो बीवी साथ थी या नहीं।
भीतर उसने देवन नायर को तलाश किया।
वो गारमैंट्स के एक रैक के करीब अकेला खड़ा था।
लम्बे डग भरता विमल उसके करीब पहुँचा।
“हल्लो!” — वो बोला।
नायर ने सिर उठाया, उसके चेहरे पर उलझन के भाव आये।
“मैं कौल। अरविन्द कौल। जनसत्ता का रिपोर्टर।”
“रिपोर्टर!”
“हाँ। आज सुबह मैं पटियाला हाउस में उस कोर्ट में भी था जहाँ बतौर गवाह तुम्हारी पेशी थी।”
“अच्छा!”
“सुबह भी और लंच के बाद भी।”
“वजह?”
“इस केस को अपने अख़बार के लिये शुरू से मैं कवर कर रहा हूँ।”
“यहाँ कैसे आये?”
“तुम्हारे से मिलने आया।”
“मालूम था मेरी जॉब यहाँ है?”
“भई, कोर्ट में तुमने खुद बताया था कि तुम फैब इंडिया में मुलाजिम थे और उसके जनपथ पर नये खुले शोरूम में ड्यूटी करते थे।”
“ओ, हाँ। सॉरी! मैं भूल गया था।”
“नैवर माइन्ड।”
“मेरे से क्यों मिलना चाहते हो?”
“तुम्हारी गवाही ने कोर्ट में अच्छी खलबली मचाई थी। उसी सिलसिले में कुछ सवालात हैं मेरे जेहन में जो मैं तुम्हारे सामने रखना चाहता हूँ।”
“तुम अख़बार वाले हो। मैं पब्लिसिटी नहीं चाहता।”
“मेरे भाई, उससे तुम अब नहीं बच सकते। तुमने कोर्ट में बयान दिया है, इसलिये सब कुछ ऑन रिकॉर्ड है, पब्लिक डोमेन में पहले से है।”
“अच्छा!”
“फिर तुम्हारे बयान में ऐसा क्या है जो पुलिस से नहीं जाना जा सकता है? पुलिस तो ऐसे मामलों में मीडिया को बाकायदा भाव देती है।”
“तो उन्हीं के पास जाओ।”
“तुम नाउम्मीद करोगे तो जाऊँगा ही। करोगे?”
वो सोचने लगा।
“मैं तो ये सोच के तुम्हारे पास आया था कि शाम का वक्त है, एक एक ड्रिंक शेयर करेंगे . . .”
नायर की आँखों में चमक आयी।
गुड! घूँट का रसिया था।
“. . . और छोटी-मोटी बात भी कर लेंगे।”
“ऐसा?”
“हाँ। अब बोलो, क्या कहते हो?”
“बाहर चलो। मैं पाँच मिनट में फारिग होके आता हूँ।”
“शुक्रिया।”
“नाम क्या बताया था तुमने अपना?”
“कौल। अरविन्द कौल।”
“आता हूँ।”
विमल शोरूम से बाहर निकल गया और बरामदे में जाकर इन्तजार करने लगा।
दिल्ली प्रवास के शुरूआत में ही उसने धूम्रपान से किनारा कर लिया था। वैसे भी धूम्रपान वो महज अपने बहुरूप को मजबूती देने के लिए करता था। दिल्ली में ऐसा दिखावा करने की कोई जरूरत नहीं थी। जाती तौर पर धूम्रपान में उसकी कोई रूचि नहीं थी — वो दिखावा था पर वो हमेशा उसे अपने पर लगा कलंक मानता था — लेकिन फिलहाल कभी-कभी आदतन, अनायास उसका हाथ पाइप की तलाश में जेब में सरक जाता था।
वैसा तब भी हुआ था, लेकिन जल्दी ही उसने अपना हाथ वापिस खींच लिया था।
पाँच मिनट से पहले नायर शोरूम से निकलकर उसके करीब पहुँचा।
विमल ने चेहरे पर फर्जी मुस्कराहट लाकर उसका स्वागत किया।
“कहाँ चलें?” — नायर ऐसी आत्मीयता से बोला जैसे मुद्दत से विमल को जानता हो।”
“तुम्हारे तो पड़ोस में ही बार है, भई” — विमल बोला — “यहीं चलते हैं।”
“देख लिया?”
“हाँ। यहाँ बरामदे में खड़ा तुम्हारा इन्तजार कर रहा था तो देखा न!”
“हमारी तरह ये भी नया खुला है। ज्यादा एक्सपेंसिव भी नहीं है।”
“हो भी तो क्या है! दोस्तों में एक्सपेंसिज नहीं देखे जाते।”
“दोस्त!”
“हो, न!”
उसके चेहरे पर अनिश्चय के भाव आये।
“अरे, अभी नहीं हैं तो बार में जाके बैठेंगे तो हो जायेंगे।”
“गुड। आओ।”
बार फैब इंडिया से तीन इमारत परे फर्स्ट फ्लोर पर था, जो कि शाम की उस घड़ी लगभग खाली था। वो दोनों बार से विपरीत दिशा में एक तनहा टेबल पर जाकर बैठे।
आपसी मशवरे के बाद विमल ने ‘हन्ड्रेड पाइपर्स’ का आर्डर दिया।
दोनों ने चियर्स बोला।
“आज के जमाने में” — विमल अर्थपूर्ण स्वर में बोला — “सरेराह हुए नौजवान लड़की के अगवा के केस में गवाह बनना हौसले का काम है।”
“है तो सही!” — वो अनमने भाव से बोला।
“जबकि सुना है कि उस वक्त बस स्टैण्ड पर कई लोग मौजूद थे!”
“हाँ, भई।”
“तुम पुलिस के पास पहुँचे या पुलिस तुम्हारे पास पहुँची?”
“पुलिस कैसे पहुँचती? किसी के खुद के बताये बिना उन्हें कैसे मालूम होता कि कौन तब बस स्टैण्ड पर मौजूद था!”
“ठीक! तो तुम गये पुलिस के पास?”
“हाँ!”
“फौरन?”
“फौरन तो नहीं! अगले रोज शाम को। पहले तो मैं यही सोचता रहा कि मुझे क्या, फिर मेरे अंदर से आवाज उठी कि हर काेई यही सोच ले मुझे क्या तो कैसे कभी कोई मुजरिम पकड़ा जाये! क्रिमिनल क्राइम करें और छुट्टे घूमें, ये तो ठीक नहीं!”
“ठीक।”
“फिर अख़बार में ख़बर पढ़ी कि छतरपुर के रास्ते से उस अगवा लड़की को अधमरी हालत में उठाकर हस्पताल पहुँचाया था और पता लगा कि उसके साथ सामूहिक बलात्कार हुआ था। तब मेरे से न रहा गया! मैंने सौ नम्बर पर फोन किया और अपनी आइडेंटिटी रिवील की। पाँच मिनट बाद तिलक मार्ग थाने से उस सब-इन्सपेक्टर का, जो कि उस केस का इनवैस्टिगेटिंग आफिसर था, मेरे पास फोन आ गया। मैं थाने जाकर उससे मिला और बाकायदा अपना बयान रिकॉर्ड कराया।”
“जिसकी बिना पर पुलिस ने उन तीन लड़कों को गिरफ्तार किया।”
“हाँ। लेकिन गड़बड़ हुई। ऐसी गड़बड़ हुई जो कि फौरन जाहिर भी न हो पायी। मुझे तो कोर्ट में अपने बयान के वक्त ही मालूम हुआ कि वारदात वाली कार के रजिस्ट्रेशन नम्बर के मामले में मेरे कहने में और पुलिस के दर्ज करने में फर्क आ गया था। नम्बर के दो डिजिट्स में उलटफेर हो गया था।”
“बयान तो सुना है रिकॉर्ड किया जाता है!”
“मैंने भी सुना है लेकिन मेरा बयान रिकॉर्ड नहीं किया था। एक क्लर्क ने साथ बैठकर उसे तहरीरी तौर पर दर्ज किया था।”
“शार्टहैण्ड में?”
“मेरे ख़याल से लांगहैण्ड में, क्योंकि बीच-बीच में उसने मुझे कई बार टोका था और किसी-न-किसी बात को दोहरा कर बोलने को बोला था।”
“इसी वजह से कार का नम्बर लिखने में उलट फेर हुई?”
“जाहिर है।”
“बयान रिकॉर्ड किया गया होता तो ऐसा न होता। तब रिकार्डिंग को दोबारा सुनकर तसदीक की जा सकती थी कि असल में तुमने क्या कहा था!”
“बयान रिकॉर्ड नहीं किया गया था।”
“बहरहाल ये दिलचस्प और काबिलेगौर बात है कि तुम्हारे बयान की वजह से ही वो लड़के गिरफ्तार हुए और तुम्हारे बयान की वजह से ही रिहा हुए।”
“हाँ, ऐसा हुआ, लेकिन मेरी इसमें क्या गलती थी? जब कोर्ट में मेरे सामने ये बात जाहिर हो गयी थी कि पुलिस की लापरवाही से मेरा बताया नम्बर यूँ दर्ज हुआ था कि दो डिजिट्स में उलट फेर हो गयी थी। मैंने वारदात वाली कार का नम्बर डीएल 7 यूसीसी 7043 बोला उन्होंने डीएल 7 यूसीसी 7034 दर्ज किया। उन्होंने अपने दर्ज किये नम्बर के मुताबिक आई-20 कार को ट्रेस किया तो आगे वो तीन लड़के गिरफ्तार हुए, जिनमें से एक के बाप की वो कार थी।”
“तुम वक्त रहते उस उलट फेर को पुलिस की जानकारी में ला पाये होते तो न वो गिरफ़्तारियाँ होतीं और न कोर्ट में पुलिस की किरकिरी होती।”
“मैं कैसे लाता? मुझे कैसे मालूम पड़ता कि मेरा बयान दर्ज करने के दौरान पुलिस से क्या बंगलिंग हुई थी!”
“ये बात भी ठीक है! पुलिस को ये बात हज्म हो गयी कि उनके यहाँ हुई क्लैरिकल मिस्टेक की वजह से ही सब गड़बड़ हुई थी?”
“कहाँ हज्म हो गयी! वो तो पटियाला हाउस में ही मेरे गले पड़ गये। तमाम बंगलिंग के लिये मुझे जिम्मेदार ठहराने लगे। पकड़ के तिलक मार्ग थाने ले गये।”
“अरे! क्यों?”
“बोले, मोटर व्हीकल्स रजिस्ट्रेशन के रिकॉर्ड से अब उस दूसरी कार को ट्रेस किया जायेगा, जिसका नम्बर मैंने कोर्ट में बताया था और वारदात वाली कार को अब मैं उस नम्बर वाली कार बता रहा था। फिर कार मालिक के जरिये नये सस्पेक्ट्स को हिरासत में लिया जायेगा, जिनकी कि मेरे को शिनाख्त करनी होगी?”
“की?”
“कहाँ? की होती तो मैं यहाँ तुम्हारे सामने बैठा होता!”
“क्या हुआ?”
“दूसरी कार तो फटाफट ट्रेस कर ली गयी, लेकिन वो आई-20 न निकली।”
“अरे!”
“सब इन्स्पेक्टर फिर गले पड़ने लगा कि अगर मैंने वो कार — नम्बर डीएल 7यूसीसी 7043 देखी थी तो मैंने उसे आई-20 क्यों बताया था जबकि वो स्विफ्ट थी।”
“क्या जवाब दिया?”
“वही जो सीधा था, सच्चा था, मुनासिब था। मैं मामूली हैसियत का आदमी हूँ, मैं कारों के बारे में खास क्या जानता हूँ? जो कार मैंने देखी, वो मुझे आई-20 लगी, मैंने आई-20 बोल दिया।”
“यानी अन्दाजे से बोला!”
“नहीं, बिल्कुल अन्दाजे से तो नहीं बोला! यहाँ इस ब्लॉक के बाहर ही पार्किंग है, आते जाते रोज कारें दिखाई देती हैं इसलिए मैं आई-20 को पहचानता था।”
“वारदात वाली कार पर मार्का लिखा न देखा?”
“कैसे देखता? उस कार का मेरी तरफ मुँह था, पीठ होती तो देखता न! मार्का तो बैक पर होता है, फ्रंट पर तो होता नहीं!”
“कार आगे बढ़ी थी या यू टर्न लेकर भागी थी?”
“आगे बढ़ी थी।”
“तब बैक दिखाई दी होगी!”
“हाँ। लेकिन तब मेरा मार्के की तरफ ध्यान नहीं गया था।”
“हम्म!”
“भई, जब मुझे मालूम था वो आई-20 थी तो खास मार्के की तरफ ध्यान न जाना क्या बड़ी बात थी?”
“क्या बड़ी बात थी!”
“अरे, मैं तुमसे पूछ रहा हूँ।”
“और मैं तुमसे पूछ रहा हूँ।”
“तुम क्या पूछ रहे हो?”
“और ड्रिंक्स ऑर्डर करें?”
“अच्छा वो! हाँ, प्लीज।”
विमल ने रिपीट का ऑर्डर दिया जो तुरन्त सर्व हुआ।
“थाने से तुम्हारी जल्दी खलासी हो गयी, इसका मतलब है कोई नयी गिरफ्तारियाँ नहीं हुईं?”
“हाँ।”
“वजह?”
“वो कार किसी गवर्नमेंट एग्जीक्यूटिव की थी, जो किसी मेजर रिपेयर जॉब की वजह से शनिवार सुबह से मोतीबाग की एक वर्कशाप में खड़ी थी, जहाँ कि वो रहता था।”
“रंग?”
“रंग क्या?”
“भई, रंग। स्विफ्ट का!”
“अच्छा वो! ग्रे।”
“कैसे मालूम?”
“जब पुलिस ने उस गैराज में खड़ी कार के मेक के बारे में बोला था तो रंग के बारे में भी बोला था।”
“ग्रे? स्टील ग्रे नहीं?”
“फर्क होता है?”
“होता तो है?”
“स्याह सफेद जैसा?”
“नहीं, ऐसा तो नहीं!”
“तो कैसा?”
“मोटे तौर पर तो दोनों रंग एक ही जैसे लगते हैं। जो नहीं जानता ग्रे और स्टील ग्रे दो रंग होते हैं, वो तो उसे ग्रे ही बोलेगा।”
“तो फिर?”
“और! और क्या पता लगा स्विफ्ट के बारे में?”
वो हिचकिचाया।
“ओ, कम ऑन! प्लीज!”
“बकौल इनवैस्टिगेटिंग आफिसर, कार का मालिक रिटायरमेंट की एज के करीब पहुँचता एक उम्रदराज शख़्स था, जिसका एक ही बेटा था जो इंग्लैंड में रहता था।”
“भई, इस सिनेरियो पर गौर किया जाये तो पुलिस को तो तुम्हारी नम्बरों की अनजाने में हुई उलट फेर की कहानी हज्म नहीं हुई होनी चाहिये!”
उसकी भवें उठी।
“वारदात में लिप्त आई-20 की अपनी शिनाख़्त को तुमने कोर्ट में नकार दिया, जो नयी सम्भावना पेश की वो सम्भावित न निकली, आई मीन, फीजिबल न निकली! तो फिर चश्मदीद गवाह काहे के हुए तुम?”
विमल को पहले लगा कि वो आवेश में आने लगा था, फिर वो खुद को काबू करता लगा, फिर उसने अपने गिलास में से व्हिस्की का एक घूँट भरा और चिन्तित भाव से बोला— “वो सब-इन्स्पेक्टर भी इसी बात को लेकर भड़क रहा था।”
“ये भी तुम्हारे हक में एक अच्छा इत्तफाक हुआ कि स्विफ्ट लाइट कलर की, आई-20 से मिलते-जुलते कलर की निकली। किसी डार्क कलर की — जैसे कि रेड, ब्लू, डस्ट — निकलती तो तुम्हारी गवाही में बड़ा फच्चर पड़ जाता . . .”
“कहानी?”
“गवाही। तुम्हारी अपनी जुबान में स्याह सफेद जैसा फर्क पड़ जाता। नम्बरों में उलट फेर को तो तुमने जैसे-तैसे जस्टीफाई कर लिया, रंगों में जमीन आसमान के फर्क को कैसे जस्टीफाई कर पाये होते?”
उसने जवाब न दिया।
“तुम्हारा क्या ख़याल है, आखि़र हुआ क्या था?”
“मेरे ख़याल से तो” — वो कठिन स्वर में बोला — “कार का नम्बर देखने और उसे अपने मोबाइल पर नोट करने के बीच मेरे से ही कोई चूक हुई थी। मेरे से ही कोई डिजिट अनजाने में गलत पंच हो गया था।”
“यानी असल में अभी कोई तीसरा ही नम्बर था! एक नम्बर तुमने देखा, एक तुमने नोट किया और एक गलत पंच किया। नो?”
“अब . . . क्या बोलूँ!”
“तुम कहते हो सब-इन्स्पेक्टर भड़क रहा था। तुमने उनका केस बिगाड़ा, बतौर चश्मदीद गवाह पुलिस के किसी काम न आये, कोर्ट में पुलिस की फिर किरकिरी का बायस बने, फिर भी आजाद कर दिये गये! वो भी इतनी जल्दी कि यहाँ आकर अपनी ड्यूटी करने लगे!”
“अब क्या बोलूँ! मैं खुद हैरान हूँ।”
“कि जल्दी छूट गये?”
“हाँ। पकड़े तो वो मुझे नहीं रह सकते थे — क्योंकि मैं तो मुजरिम नहीं, मैंने तो कोई जुर्म नहीं किया — लेकिन वहाँ के तल्ख माहौल से मुझे साफ लग रहा था कि आधी रात तक भी बिठाये रखते तो कोई बड़ी बात न होती। फिर भी जाने देते तो इस वार्निंग के साथ जाने देते कि अगले रोज मैंने फिर हाजिर होना था।”
“कैसे जल्दी छूट पाये?”
“बोला न, मैं खुद हैरान हूँ। वो सब-इंस्पेक्टर बुरी तरह से मेरे पर गरज बरस रहा था, खा जाने को पड़ रहा था, फिर एक हवलदार ने आकर बताया कि कोई उससे मिलने आया था। वो उठ के गया तो आधे घन्टे बाद लौटा। लौटा तो काफी हद तक शांत था। बोला, मुझे इस वार्निंग के साथ जाने दिया जा रहा था कि मैं कहीं गायब न हो जाऊँ, आइन्दा चन्द दिन पुलिस को हमेशा अवेलेबल रहूँ।”
“कुछ सोचा तो होगा कि कैसे सब-इन्स्पेक्टर के मिजाज ने पलटा खाया?”
“भई, सोचा तो सही पर सूझा कुछ नहीं।”
“उस सब-इन्स्पेक्टर ने तुम पर ये इलजाम न लगाया कि तुमने दबाव में आकर अपना बयान बदला था?”
“दबाव! कैसा दबाव?”
“जैसा कोर्ट कचहरियों में दूसरी पार्टी के गवाहों के खिलाफ रुतबे और रसूख वाले लोग आम आजमाते हैं। मुखालफत में गवाही दी तो जान से मार डालेंगे। बहन बेटी पर अत्याचार करेंगे, वगै़रह!”
“सब किताबी बातें हैं। फिल्मी बाते हैं।”
“हकीकी बातें हैं।”
“हैं तो मुझे इस हकीकत की कोई ख़बर नहीं।”
“सरकारी वकील ने कोर्ट में साफ कहा था . . .”
“क्या! क्या कहा था?”
“दि विटनेस हैज बिन रीच्ड . . .”
“मुझे नहीं मालूम इसका क्या मतलब होता है।”
“क्यों? पढ़े लिखे नहीं हो?”
“ग्रैजुएट हूँ।”
“तो फिर . . .”
“फिर वही। नहीं मालूम।”
“नहीं मालूम तो मालूम कर लो। इसका मतलब है गवाह को अपने बयान से फिरने के लिए मजबूर किया गया था। कोई दबाव डाल कर, उसको परजुरी के लिये तैयार किया गया था।” — विमल ने एक क्षण अपलक उसे देखा, फिर बोला — “लगता है तुम्हें परजुरी का मतलब भी नहीं मालूम।”
“खामखाह!”
“अभी तुमने कहा था तुम मुजरिम नहीं, तुमने कोई जुर्म नहीं किया . . .”
“ठीक कहा था।”
“परजुरी इज ए क्राइम। झूठी गवाही देना अपराध है।”
“होगा। मुझे क्या?”
“तुम्हें होना चाहिये। तुम्हारे अपने बयान से फिरने की वजह से ही वो लड़के जमानत पा गये।”
“नॉनसेंस! मैंने ऐसा कुछ नहीं किया। मैंने जो किया, अपने विवेक के, अपने बैटर जजमेंट के हवाले किया।”
“रिश्वत के हवाले किया।”
पहले जैसे बात उसकी समझ में न आयी, फिर एकदम भड़का— “क्या बोला?”
“रिश्वत खाकर तुमने अपना बयान बदला, ताकि उन लड़कों के खिलाफ़ खड़ा केस ढेर हो जाता। रिश्वत ने ही उस सब-इन्स्पेक्टर का मिजाज बदला जो, तुम ने खुद कहा कि, थाने में बुरी तरह से तुम्हारे गले पड़ रहा था। जिनके हाथों तुम बिके और परजूरी के लिये तैयार हुए! वो लोग जानते थे कोर्ट में तुम्हारे अपने रिकार्डिड एण्ड एनडोर्स्ड बयान से फिरते ही केस ने कोलैप्स कर जाना था और फिर पुलिस का कहर तुम पर टूट पड़ना था। पैसे के दबाव में आके तुमने झूठ बोला, डण्डे के दबाव में आके तुम सच उगल सकते थे इसलिए जैसे तुम्हें सैट किया गया था, वैसे तुम्हारे इनवेस्टिगेटिंग आफिसर को भी सैट किया जाना जरूरी था। अब समझ में आया कि वो गरजता बरसता सब-इन्स्पेक्टर क्यों एकाएक शांत हो गया था!”
“तुम . . . तुम कौन हो?”
“बोला तो था!”
“क्या बोला था? फिर बोलो।”
“मीडिया पर्सन हूँ। जनसत्ता का रिपोर्टर हूँ।”
“अपना आई-कॉर्ड दिखाओ।”
“आई-कॉर्ड बाई चांस आज मेरे पास नहीं है।”
“विजिटिंग कॉर्ड दो। अब ये न कहना वो भी नहीं है।”
विमल की जेब में अपने मेहरबान योगेश पाण्डेय का, जो कि सीबीआई के महकमे में एण्टीटैरेरिस्ट स्क्वॉड का डिप्टी डायरेक्टर था, एक विजिटिंग कॉर्ड था, सरकारी नियम के अनुसार जो बाईलिंगुअल था, यानी उसकी एक साइड में उसका परिचय अंग्रेजी में था और दूसरी साइड में हिन्दी में था। उसने जेब से वो कार्ड निकाला और सावधानी से हिन्दी वाली साइड से उसे नायर को थमाया।
नायर ने कार्ड पर निगाह डाली।
“योगेश पाण्डेय” — कार्ड पर से पढ़ता वो बोला — “डिप्टी डायरेक्टर। वॉट द हैल! तुमने तो अपना नाम अरविन्द कौल बताया। खुद को जनसत्ता का रिपोर्टर बताया . . .”
“सॉरी!” — विमल ने हाथ बढ़ाकर बड़ी सफाई से कार्ड उसके हाथ से निकाल लिया — “रांग कार्ड! आज मेरे से गलती पर गलती हो रही है। लगता है विजिटिंग कॉर्ड भी घर रह गये। सॉरी अगेन!”
“कौन हो तुम?” — वो तीखे स्वर में बोला।
“घबराओ नहीं। वो नहीं हूँ जो तुम समझ रहे हो।”
“क्या समझ रहा हूँ मैं?”
“पुलिस वाले ऐसे पेश नहीं आते। उनको अपने डंडे पर बड़ा गुमान होता है इसलिये पूछते नहीं, कबुलवाते हैं। फिर तुम्हारे केस में तो अब चोर-चोर मौसेरे भाई वाली मसल चरितार्थ है। अफ़सर भी बिका हुआ, गवाह भी बिका हुआ तो कौन किसके खिलाफ कुछ करेगा!”
“ख़बरदार!” — गुस्से में वो उठकर खड़ा हो गया — “ख़बरदार, जो मुझे बिका हुआ कहा।”
“अच्छा, भई, लीज पर किया हुआ सही।”
“मैं . . . मैं जाता हूँ।”
वो यूँ लम्बे डग भरता वहाँ से रुख़सत हुआ जैसे वापिस घसीट लिया जा सकता हो।
शाम साढ़े आठ के करीब विमल घर लौटा।
“क्या हुआ?” — नीलम व्याकुल भाव से बोली — “आज देर लगा दी इतनी!”
“छुट्टी के बाद कहीं अटक गया था थोड़ी देर के लिये।” — विमल बोला।
“क्यों अटक गये थे?”
“बोलता हूँ।”
“महक रहे हो! कहीं इसी वजह से तो . . .”
“हाँ, है ये भी वजह। बोला न, बोलता हूँ। जरा चेंज कर लूँ, हाथ मुँह धो लूँ, फिर बोलता हूँ।”
“तब तक खाना लगाऊँ?”
“अभी रुक जा। जरा चैन से बैठने दे, रिलैक्स करने दे, फिर। फिर।”
“ठीक है।”
विमल बैडरूम में घुस गया।
दस मिनट बाद ड्राईंगरूम में वो आैर नीलम एक सोफे पर अगल-बगल बैठे हुए थे।
विमल ने उसे बताया कि भगवान दास रोड वाले केस में सुबह कोर्ट में क्या बीती थी। फिर शाम को अपनी सरकारी गवाह देवन नायर से मीटिंग की बाबत बताया।
“ओह!” — नीलम बोली — “तो वो लड़के छूट गये!”
“हाँ। फिलहाल तो छूट ही गये लेकिन साफ जाहिर हो रहा है कि बरी भी हो जायेंगे।”
“तुमने देखा उन्हें! तुम्हारा क्या ख़याल है? निर्दोष हैं?”
“मेरा ख़याल पूछती है तो नहीं। तीनों सूरत से शोहदे लग रहे थे। बिगड़े हुए मुश्टंडे। भड़के हुए सरकारी सांड! कोर्ट में खड़े थे फिर भी न विनीत थे, न भयभीत थे। पूरी तरह से निडर थे और सूरत से उद्दंडता साफ झलकती थी।”
“बड़े घरों के होंगे!”
“मैंने मालूम किया था। सिर्फ एक — जो आई-20 कार वाला था और जिसका नाम अमित गोयल था — पैसे वाले बाप का बेटा है? उसके बाप का पहाड़गंज में टिम्बर का बड़ा कारोबार है और परिवार नोएडा के सैक्टर पन्द्रह-ए में एक बड़ी कोठी में रहता है। बाकी दो अपर मिडल क्लास से हैं, लेकिन अमित गोयल के जिगरी हैं।”
“चमचे होंगे।”
“चमचे जिगरी ही होते हैं अगरचे कि हमउम्र हों।”
“तुम कोर्ट क्यों गये?”
“उनकी सूरतें देखने के लिये।”
“क्यों भला?”
“अरे, हम भी तो इतवार शाम की उस वारदात से चश्मदीद गवाह थे! मैं सोच रहा था कि शायद मैं किसी को पहचान पाऊँ।”
“पहचान पाये?”
“नहीं।”
“शुक्र है। वर्ना नया सयापा खड़ा हो जाता। जा के गवाह बन जाते उनके खिलाफ।”
“तू बनने देती?”
“नहीं। हरगिज नहीं।”
“ऐसे मामलों में गवाही देने के लिये आगे आना और यूँ मुल्क के कायदे कानून के हाथ मजबूत करना हर नेक शहरी का फर्ज होता है।”
“नेक शहरी का न!”
“क्या मतलब है, भई, तेरा?”
“तुम तो अभी नेक शहरी-इन-मेकिंग हो। मेकिंग कम्पलीट होने में अभी टाइम है।”
“क्या बात है, आजकल अंग्रेजी बहुत झाड़ने लगी है!”
“अरे, प्राणनाथ, तुम्हारे आफ़िस चले जाने के बाद सारा दिन टीवी ही तो देखती हूँ! टीवी से ढाई अक्खर अंग्रेजी के सीख लिये तो अंग्रेज थोड़े ही हो जाऊँगी! अन्त पन्त रहूँगी तो तुम्हारी मिडल फेल बीवी ही!”
“पास!”
“शुकर! शुकर! कभी तुम्हारे मुँह से भी मेरे लिये पास निकला!”
“और कभी तेरे अपने मुँह से अपने लिये फेल निकला।”
“बहरहाल, मैं ये कह रही थी कि फर्ज निभाया न अपना एक नेक शहरी ने!”
“हाँ। लेकिन ऐन वक्त पर मुकर गया।”
“तुम्हें क्या पता मुकर गया?”
“अगर वो लड़के साधारण हैसियत वाले घरों के होते तो न कहता कि मुकर गया। लेकिन एक का बाप साहिबेजायदाद है। कैसे वो अपनी औलाद को सजा होने दे सकता है!”
“सजा बाप की मर्जी से होती है?”
“आज जैसे मुल्क का निजाम चल रहा है, उसमें बाप अगर पैसे वाला है तो हाँ, उसकी, उसी की, मर्जी से होती है।”
“लेकिन वो चशम . . . चशम . . . चशमे वाला गवाह . . .”
“चश्मदीद गवाह!”
“वही। वो भी तो है!”
“बिक गया।”
“तुम्हें क्या पता?”
“अपने इकबालिया बयान से मुकर गया तो और क्या हुआ?”
“तुम्हें क्या पता मुकर गया?”
“अरे, साफ जाहिर हो रहा था। सरकारी वकील ने साफ कहा कि ही वॉज रीच्ड।”
“वो क्या होता है?”
“कुछ नहीं समझती साली। वैसे कहती है मिडल पास हूँ।”
“शुकर है फिर पास कहा। अब बोलो, रीच्ड क्या होता है?”
“बिक गया। रिश्वत खा गया। पैसे से खरीद लिया गया। इसलिये परजुरी पर उतर आया।”
“कौन सी जूड़ी?”
“जूड़ी नहीं, जुरी। परजुरी। कोर्ट में शपथ लेकर बयान से फिरने को, झूठ बोलने को कहते हैं।”
“हाय राम! ऐसे आदमी को सजा नहीं होती?”
“सजा का प्रावधान है मुल्क के कायदे कानून में। लेकिन आज तक तो परजुरी की सजा किसी को हुई नहीं! हमारे लोअर कोर्ट्स में गवाहों का पुलिस को दिये अपने तसदीकशुदा बयान से फिर जाना रोजमर्रा के वाकयात हैं। एक राजनेता के खिलाफ़ केस में तो दो-चार-दस नहीं, अस्सी गवाह बयान से फिर गये थे। कोई अनपढ़ होने की दुहाई देता है, तो कोई कहता है कि पुलिस ने मारपीट के बयान हासिल किया, पर असल में सबने सामर्थ्यवान की सामर्थ्य का मजा चखा होता है या चांदी का जूता खाया होता है। इस केस का गवाह तो मॉडर्न था, पढ़ा लिखा था लेकिन मलयाली था, इस बात की आड़ लेकर बोला उसे हिन्दी नहीं आती थी, बयान हिन्दी में दर्ज था जिस पर पुलिस के कहने पर उसने साइन कर दिये थे। वो नहीं जानता था उसके साइनशुदा बयान में हिन्दी में क्या लिखा था। बयान उसे पढ़ कर सुनाया गया था और उसके पास ये जानने का कोई जरिया नहीं था कि जो उसे पढ़ कर सुनाया जा रहा था, वही उसकी तहरीर के तौर पर दर्ज था।”
“झूठा खसमांखाना।”
“बिल्कुल। किसी को कोई भाषा नहीं आती तो बयान उस भाषा में दर्ज किया जाने का प्रावधान है, जो उसे आती हो। बयान किसी भी भाषा में दर्ज किया गया हो, गवाह को साइन करने के लिये उसके बयान का उस भाषा में अनुवाद मुहैया कराया जाता है जो वो जानता समझता हो। वो मलयाली गवाह माँग कर सकता था कि उसका बयान उसे इंग्लिश में या मलयाली में मुहैया कराया जाये।”
“क्यों न कहा?”
“क्योंकि हिन्दी उसे आती थी। हिन्दी में दर्ज बयान को पढ़कर ही उसने उस पर साइन किये थे।”
“तुम्हें क्या पता! वो तुम्हारे लिये अजनबी था। वो तुम्हें जानता तक नहीं था।”
“जनवाया न जबरन!”
“अच्छा!”
“तभी तो घर लौटने में देर हुई। शाम को मैं उससे मिला था और उसको कल्टीवेट करने के लिये मैंने उसके साथ घूँट लगाया था। इसी वजह से तो घर लौटने में देर हुई!”
“तुम्हें क्या जरूरत पड़ी थी?”
“यूँ ही थोड़ी उत्सुकता जागी थी मन में उसके बारे में। सोचा, शांत कर लूँ।”
“सुबह कोर्ट पहुँच गये। शाम को चश्मादीद . . .”
“चश्मदीद।”
“. . . गवाह से मुलाक़ात करने पहुँच गये। मुझे आसार अच्छे नहीं लग रहे।”
“कमली है तू। ऐसा है तो मेरे अख़बार पढ़ने पर, टीवी देखने पर पाबन्दी लगा दे और आफिस भी मेरे साथ चला कर।”
“हटो। ऐसा कहीं होता है!”
“तो चुप कर। और सुन, मैं क्या कर रहा हूँ।”
“अच्छा।”
“उसे हिन्दी आती थी, इस बात की तसदीक मैंने खुद की।”
“कैसे?”
“मैंने उसे खुद को जनसत्ता का रिपोर्टर बताया था। शुरू में तो ये बात उसने सहज ही मान ली लेकिन बाद में, वार्तालाप के दौरान जब माहौल थोड़ा तल्ख हो उठा तो वो मेरे को आई-कार्ड दिखाने को बोलने लगा। मैंने बहाना बनाया कि आई-कार्ड — जनसत्ता का — बाई चांस घर रह गया था तो बोला विजिटिंग कार्ड दूँ। मैंने उसे पाण्डेय जी का एक कार्ड थमा दिया जिसकी एक साइड हिन्दी में थी। उसे हिन्दी न आती होती तो उसे न पता चलता कि उस पर क्या छपा था, जबकि उसने तो फौरन ऐतराज किया कि वो किसी जनसत्ता के रिपोर्टर का कार्ड नहीं था, वो किसी डिप्टी डायरेक्टर योगेश पाण्डेय का कार्ड था। क्या मतलब हुआ इसका?”
“हिन्दी खूब आती थी खसमांखाने नूं।”
“बिल्कुल! अब बोल, जाहिर है कि नहीं है कि हिन्दी में दर्ज बयान को पढ़कर ही उसने एक अच्छे नागरिक की तरह अपना फर्ज समझकर साइन किये। और उसका अपने बयान से मुकरने का जरूर तब कोई इरादा भी नहीं था। जाहिर है बाद में किसी बड़ी रकम की पेशकश हुई तो वो परजुरी के लिये तैयार हो गया। ये भी उसे पैसे वाले बाप के आलादिमाग वकीलों ने सबक दिया होगा कि किस बिना पर वो अपने पुलिस को दिये बयान से फिरता तो उसका कुछ न बिगड़ता। तभी उसने कार के नम्बर में फच्चर डाला और ये दावा किया उसे हिन्दी नहीं आती थी।”
“नम्बर तुम कहते हो उसके मोबाइल में दर्ज था!”
“और जो मोबाइल में दर्ज हो, बाद में जरूरत के मुताबिक उसको बदला तो जा नहीं सकता, खरदिमाग!”
“कौन सा दिमाग?”
“वो . . . वो . . . नर दिमाग। नर यानी मर्द। मादा से दर्जे में ऊँचा दिमाग!”
“औरत का?”
“हाँ।”
“मेरा?”
“अगर तू औरत है तो हाँ।”
“अच्छा! तुम्हें नहीं पता मैं औरत हूँ?”
“है तो सही! लेकिन मर्दानी। झाँसी वाली रानी।”
“तुमने कुछ और कहा था। मेरे ख़याल से खर कहा था।”
“अरे, नहीं।”
“खर कहा था। खरदिमाग कहा था। अब बोलो, खर का क्या मतलब होता है!”
“अब छोड़ न!”
“जरूर कोई खराब मतलब होता है, वर्ना तुमने कहा ही न होता।”
“थोड़ा और पढ़ लिख जाती, मैट्रिक ही पास-फेल कर लेती तो जानती होती।”
“कोई बात नहीं। इस मामले में अभी एक मौका है मेरे पास।”
“वो कौन सा?”
“सूरज बड़ा होगा” — नीलम अरमान से बोली — “पढ़े-लिखेगा, आठवीं से आगे बढ़ेगा तो जो वो स्कूल से पढ़ के आया करेगा, वो वो मुझे पढ़ाया करेगा।”
“न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी।”
“क्यों नहीं होगा? छोटा सोहल क्या अनपढ़ निकलेगा मेरी तरह!”
विमल हँसा।
“तुम असल बात से मेरा ध्यान भटकाने के लिये दायें बायें की लम्बी-लम्बी छोड़ रहे हो।”
“असल बात!”
“सरदार जी, अगर भीतर कहीं फिर ‘ख़बरदार शहरी’ करवटें बदल रहा है, तो उसे थपक कर वापिस सुला दो। गहरी नींद। कुम्भकरण से भी गहरी नींद। वर्ना वादाखिलाफी होगी, जो मैं जीते जी तुम्हें नहीं करने दूँगी।”
“बड़ी सख्त हाकिम है!”
“इस एक मामले में तो बराबर हूँ!”
“तू हर मामले में सख्त हाकिम बन, नीलम कौरे, मुझे कोई ऐतराज नहीं।”
“हाँ।” — नीलम मुदित भाव से बोली — “ये टोन ठीक है। ये मूड ठीक है।”
“सूरज क्या कर रहा है?”
“सो रहा है।”
“जगा दे।”
“अरे! क्यों?”
“उसके साथ पिता-पिता खेलने का जी कर रहा है।”
“पहले मेरे साथ पति-पति तो खेल लो!”
“उसमें टाइम है अभी। जा, ले के आ।”
“लाती हूँ।”
सोमवार को तीनों युवकों को कोर्ट ने बाइज्जत बरी कर दिया।
आदत के मुताबिक पुलिस ने फैसले के खिलाफ अपील करने की घोषणा की।
विमल जानता था ऐसे मामलों में पुलिस की वो स्टैण्डर्ड प्रतिक्रिया थी।
अमूमन ऐसी अपील कभी नहीं होती थी।
बाकी का हफ्ता उस अमन शांति से गुजरा जिसको दिल्ली के बाशिन्दे अमन शांति मानते थे। यानी:
चेन स्नैचिंग की घटनायें अक्सर हुईं।
स्नैचर्स ने नयी स्ट्रेटेजी अखि़्तयार की कि मार्निंग वॉक करने वाली अधेड़ और वृद्ध महिलाओं को झपटमारी का शिकार बनाया।
किसी भी वारदात में कोई चेन स्नैचर पकड़ा न गया; इक्का-दुक्का पकड़ा गया तो सिर्फ इसलिये कि उसके शिकार ने दिलेरी दिखाई, उसे वारदात कर के भागती मोटरसाइकल से गिरा दिया और फिर खुद ही उसको भागने न दिया।
लगता था कि चेन स्नैचिंग, पर्स स्नैचिंग जैसे वाकयात पुलिस की निगाह में पब्लिक में सिगरेट पीने या सरेराह मूत्र त्याग, या बस में बिना टिकट सफर करने जितने लैवल के ही अपराध थे। कभी अपराधी पकड़ा नहीं जाता था। जनता की जागरुकता की वजह से कभी कोई पकड़ा जाता था तो पुलिस बड़े फैनफेयर के साथ मीडिया के जरिये घोषणा करती थी कि उस गिरफ्तारी के साथ उन्होंने पैंतालीस — या पैंसठ — झपटमारी के केसों को हल कर लिया था।
रोडरेज की वारदात आम थीं, जिनमें से अधिकतर की रिपोर्ट भी दर्ज नहीं की जाती थीं। ऐसी वारदातों के दौरान गोली चल जाना भी अब आम हो गया था। बतौर समाचार पत्र, मंगोलपुरी के एक ऐसे केस में तो वारदात करने वाले नौजवान ट्रिपल राइडिंग कर रहे थे, किसी के भी सिर पर हैलमेट नहीं थी और वो निहायत खतरनाक तरीके से मोटरसाइकल चला रहे थे। एक स्कूटर सवार को उन्होंने ऐसे ओवरटेक किया कि वो गिरते-गिरते बचा और फिर जानबूझ कर मोटरसाइकल उसके आगे आड़ी-तिरछी दौड़ाने लगे, जबकि जिग-जैग ड्राइविंग में भी चालान का प्रावधान था। स्कूटर सवार ने ऐतराज जताया और उसके सामने मोटरसाइकल अड़ा कर उन्होंने उसे यूँ जबरन रोका कि वो स्कूटर पर से गिर पड़ा। पीडि़त उनकी मोटरसाइकल का नम्बर नोट करने लगा तो एक ने उसको घूँसा जड़ दिया। उसने मोबाइल पर ‘100’ नम्बर पर काल लगाने की कोशिश की तो उसका मोबाइल तोड़ दिया। स्कूटर वाला फिर भी उनसे उलझता रहा तो एक ने गन निकाली और उस पर गोली चला दी जो कि संयोगवश उसकी जाँघ में लगी। फिर तीनों फरार हो गये।
सरेआम वो वाकया हुआ, जिसमें उन छोकरों ने, गौरतलब है कि, कितने ट्रैफिक नियमों का उल्लंघन किया:
ट्रिपल राइडिंग।
विदाउट हैलमेट राइडिंग।
जिगजैग ड्राइविंग।
काजिंग ओब्सट्रक्शन टु अदर ड्राइवर्स।
अनप्रोवोक्ड शूटिंग।
लेकिन किसी पुलिसकर्मी को वो सब दिखाई न दिया। वारदात के आधे घंटे बाद पुलिस मौका-ए-वारदात पर पहुँची और पीडि़त को हस्पताल पहुँचाया गया।
अपराधियों को पकड़ने के लिये पुलिस क्या कर रही है?
इलाके के सीसीटीवी कैमरों की फुटेज को स्कैन कर रही है — उन कैमरों की फुटेज की, जिनमें से अधिकतर खराब पड़े हैं।
पीडि़त के बयान देने लायक स्थिति में आने का इन्तजार कर रही है।
मंगोलपुरी थाने में केस रजिस्टर कर लिया गया है और इलाके की गश्त बढ़ा दी गयी है — यानी पहले एक सिपाही ऐसे वाकयात की तरफ से पीठ फेर कर खड़ा होता था, अब दो खड़े होते हैं।
स्नैचिंग और रोडरेज के बाद दिल्ली में सूरज डूबे सार्वजनिक स्थलों पर शरेआम शराब पीने का नम्बर आता था, पुलिस की तमाम चेतावनियों के बावजूद जिस पर दिल्ली में कोई अंकुश नहीं था। अपने घर के करीब के पार्क में ईवनिंग वॉक को निकले एक सत्तर साल के बुजुर्गवार ने चार लोगों को शरेआम पार्क में शराब पीते देखा, तो गुनाह किया जो टोका। उनकी उम्र का कोई लिहाज किये बिना, अपनी बेजा हरकत पर कोई शर्मिन्दगी का इजहार किये बिना, चारों ने उन्हें बुरी तरह से धुना और माँ बहन की गालियाँ देते भाग गये।
अगले रोज या उसके अगले रोज फिर लौटने के लिये।
और ईव टीजिंग तो दिल्ली में जैसे कोई अपराध ही नहीं था।
इस सिलसिले में पुलिस की राय हाजिर थीः
नागरिक अपनी हिफाजत खुद करना सीखें। अपने तमाम जरूरी कामकाज छोड़कर सैल्फ डिफेंस की क्लासिज अटैंड करें, जूडो कराटे की ट्रेनिंग लें और इन्तजार करें अपने साथ वारदात होने का ताकि उन्हें अपनी ट्रेनिंग को आजमाने का मौका मिले।
आखि़र पुलिस एक नागरिक पर एक सिपाही तो नहीं तैनात कर सकती थी न!
न ही वो वारदात के दौरान पहले से मौका-ए-वारदात पर मौजूद हो सकती है।
बेचारी, हमदर्दी के काबिल पुलिस!
बहरहाल दिल्ली चल रही है।
माहौल ठीक है।
फिर दिल्ली में एक नये अदद की जिन्दगी में एकाएक एक बड़ा तूफान आया।
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