तीसरा बयान

आओ प्यारे पाठको | आज हम आपको इस कहानी का थोड़ा-सा पिछला हिस्सा सुनाते हैं। इस किस्से को पढ़ते समय आपको यह याद रखना चाहिए कि यह किस्सा उन सभी बयानों से पहला है, जो अब तक हम लिख आए हैं। साथ ही हम यह भी कहते हैं कि यह बयान इन उलझी हुई गुल्थियों को स्पष्ट करने वाला है। इस बयान का सम्बंध पीछे लिखे किसी बयान से मिलेगा, तभी आप समझ पाएंगे कि असली कहानी क्या है ? वो देखो एक छोटा-सा मकान-एक मकान चमनगढ़ रियासत में आबादी से अलग-थलग बना हुआ है। इस मकान में छोटे-से दो कमरे नीचे और दो ऊपर हैं, थोड़ा-सा चौक है और एक आदमी के बराबर लंबाई की लम्बी चारदीवारी से घिरा हुआ है। वो देखो— नीचे के दो कमरों में से एक में किसी चिराग की रोशनी चमक रही है।


- कमरे के अन्दर चलकर हाल देखते हैं। वो देखो - एक चारपाई पर सोलह-सत्रह साल की एक लड़की लेटी है। वह कोई खास सुन्दर तो है नहीं, परन्तु फिर भी नाक-नक्श काफी अच्छे हैं। रंग हल्का-सा सांवला है। हम जानते हैं कि हम अगर इस लड़की का परिचय दे दें तो इस बयान के प्रति आपकी दिलचस्पी बढ़ जाएगी। आप पहले भाग में किसी बयान में पिशाचनाथ नाम पढ़ चुके हैं। हमें यह बताने में कोई आपत्ति नहीं है कि यह लड़की पिशाचनाथ की बेटी है। इसका नाम जमुना है। इसकी मां यानी पिशाचनाथ की पत्नी का नाम रामकली है। पिशाच यहां के राजा दलीपसिंह का खास ऐयार है। ऐयारी के सिलसिले में वह अधिकतर बाहर ही रहता है। अतः अधिकांशत घर में रामकली और जमुना ही रहती हैं। आज रात भी पिशाच कहीं बाहर गया है। रामकली ऊपर के कमरे में सोई हुई है – परन्तु जमुना अभी तक जाग रही है। रात के इस तीसरे पहर में जमुना क्यों जाग रही है, इसका सबब हम नहीं बता सकते। हां, इतना संकेत अवश्य कर सकते हैं कि आमतौर पर इस उम्र में इतनी रात तक जागने का कारण किसी से प्रीत होना होता है। इस बात से भी हम इंकार नहीं कर सकते कि जमुना प्रेम करती है। खैर, वह किससे प्रेम करती है, अभी वह लिखने की आवश्यकता नहीं जान पड़ती।


पर यह लिख देना उचित है कि अपने प्रीतम की स्मृति ही उसे सोने से रोक रही है।


कुछ देर पश्चात वह चिराग बुझा देती है और कमरे में अंधेरा करके चारपाई पर लेटकर निद्रारानी से दोस्ती करने की सोचती है। अभी निद्रा उससे दोस्ती करने हेतु हाथ बढ़ा ही रही थी कि अचानक एक खटके की आवाज उसे चौंका देती है। उसके कान सजग हो उठते हैं। उसके पिता पिशाचनाथ ने उसे भी थोड़ी-बहुत ऐयारी सिखाई है। इसीलिए तो हल्के-से  खटके पर वह चौंक पड़ी । वह ध्यान से सुनती है तो उसे महसूस होता है कि ऊपर वाले कमरे में कुछ आदमी चल रहे हैं — जमुना सजग होकर चारपाई पर बैठ जाती है।


अपने कमरे के जंगले से वह बाहर देखती है—बाहर चन्द्रमा की चांदनी का पर्याप्त प्रकाश है। इसी प्रकाश में वह देखती है—जीने से उतरकर चार नकाबपोश चुपचाप चौक में आ गए। उसके देखते ही देखते ये चारों आदमी चोरों की भांति उसकी मां के कमरे की ओर बढ़े । रामकली के कमरे में जाकर वे जमुना की आंखों से ओझल हो गए। जमुना सोचने लगी कि ये कौन लोग हैं ? यहां क्यों आए हैं और क्या करना चाहते हैं ? साथ ही यह सोचने का भी प्रयास कर रही थी कि इस परिस्थिति में उसे क्या करना चाहिए—–किन्तु वह सोचती ही रही और अभी किसी निर्णय पर भी नहीं पहुंची थी कि वे चारों आदमी मां के कमरे से निकलकर पुनः चौक में आ गए। जमुना ने देखा कि उन चारों में से एक की पीठ पर एक गठरी लटक रही थी। जमुना ने सोचा कि शायद वे कोई चोर हैं और उनके घर से कोई सामान चुराकर ले जा रहे हैं। जमुना के देखते ही देखते वे चारदीवारी कूदकर घर से बाहर निकल गए। अब जमुना ने फैसला किया कि वह इन चोरों का पीछा करेगी ।


पिशाचनाथ ने उसे जितनी ऐयारी सिखाई थी, उसका प्रयोग करते हुए जमुना ने उनका पीछा सतर्कता के साथ किया । वे लोग घने जंगल में घुस गए। रात के इस समय सर्दी काफी तेज थी । अगर जमुना चलते समय अपने बदन पर गर्म कपड़ा न डाल लेती तो निश्चय ही वह जाड़े में ठिठुर जाती । जंगल में कोई एक कोस तक उसने उनका पीछा किया तब उसे एक स्थान पर आग जलती दिखाई दी। उस आग के चारों ओर बैठे पांच आदमी हाथ ताप रहे थे। जमुना समझ गई कि यह मठ है। चारों नकाबपोश गठरी सम्भालकर मठ की तरफ ही बढ़ गए। जमुना तुरन्त एक पेड़ के पीछे छुप गई। उन चारों को आता देख हाथ तापते पांचों आदमी उठ खड़े हुए। 


“आ गए पिशाचनाथ ?" हाथ तापने वालों में से एक बोला — उनकी बातें जमुना बखूबी सुन सकती थी।


उन चारों में से एक ने आग के समीप पहुंच नकाब उलट दिया । जमुना यह देखकर भौचक्की रह गई कि यह आदमी और कोई नहीं, बल्कि खुद उसका पिता पिशाचनाथ था। उसकी समझ में ये नहीं आया कि उसके पिता को अपने ही घर में नकाब डालकर चोरों की भांति जाने की क्या जरूरत थी और वे गठरी में क्या लाए हैं ? गठरी का रहस्य भी जमुना के सामने खुलने वाला था क्योंकि बाकी तीन नकाबपोशों में से एक गठरी खोल रहा था। जब गठरी खुली तो जमुना के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। 


गठरी में उसकी मां थी—–रामकली !


अब जमुना का दिमाग और भी अधिक उलझ गया उसकी मां को खुद उसके पिता इस प्रकार बेहोश करके गठरी में लाए हैं-भला उसके पिता को इसकी क्या आवश्यकता थी ? कहीं यह कोई ऐयार तो नहीं है, जिसने पिशाच की सूरत बना रखी हो ? 


काफी सोचने के बाद भी जमुना किसी खास निर्णय पर नहीं पहुंच सकी।


- "बहुत सतर्कता के साथ काम करना पड़ा।" पिशाचनाथ की आवाज जमुना ने सुनी, जो मठ के लोगों से कह रहा था – "मुझे डर था कि कहीं जमुना जाग न जाए। अगर जमुना यह सब देख लेती तो सारा किया-धरा चौपट हो जाता। "


"इसका मतलब तुम्हारी बेटी को कुछ पता नहीं लगा ?" उनमें से एक ने पूछा।


"नहीं । पिशाचनाथ बोला- "उसे पता लगना भी नहीं चाहिए - अब इससे ( रामकली) उसका पता पूछना तुम्हारा काम है । " 


- "तुम इसे नीचे छोड़ आओ ।” उस आदमी ने कहा – “कल तक मैं इसकी जुबान खुलवा लूंगा।" यह कहते हुए उसने वह मिट्टी का कुंडा, जिसमें हाथ तापने के लिए वह आग जल रही थी, हटा लिया—कंडे के नीचे की धरती में एक गुप्त रास्ता था । पिशाचनाथ ने एक किवाड़-सा ऊपर उठाया और फिर धरती में समा गया । उसके तीनों नकाबपोश साथी भी चारों के साथ बैठकर कूंडे की आग में हाथ तापने लगे। गुप्त रास्ता अभी तक खुला हुआ था । जमुना सोचने का प्रयास कर रही थी कि यह सब क्या हो रहा है तथा इसका मतलब यानी यह सब है क्या ? ये कौन लोग हैं, और उसकी मां को उठाकर यहां क्यों लाए हैं ?


 -“अब देखेंगे कि दुश्मन हमसे कैसे बाजी मारता है।” हाथ तापने वालों में से एक बोला— “ अपनी तरफ से तो उन्होंने भी काफी ऐयारी की थी, लेकिन उस्ताद भी हमेशा दुश्मन की ऐयारी पर ही अपनी ऐयारी चलाते हैं । "


— “ अब वे लोग बहुत बड़ा धोखा खाएंगे।" हाथ तापते हुए एक नकाबपोश बोला ।


उसी समय पिशाचनाथ बाहर आ गया, रास्ता बन्द करके आग का कूंडा उसी पर रख दिया गया । पिशाचनाथ ने उन सबकी ओर देखकर कहा – “अब हम चलते हैं, तुम लोग रामकली का ख्याल रखना — "कोई दुश्मन उसे यहां से न निकाल ले जाए।”


इतना कहकर पिशाचनाथ वहां से चल दिया। बाकी आठों आदमी वहां हाथ तापते रह गए । जमुना धीरे-धीरे अपने पिता पिशाचनाथ के पीछे चल दी। कोई आधा कोस दूर निकलने पर जमुना ने उसे पुकारा – "पिताजी... पिताजी!"


पिशाच जमुना की आवाज सुनकर एकदम चौंककर पलटा-"अरे जमुना तू, यहां ?" "पिताजी- आप अम्मा को कहां छोड़कर आए हैं ?" जमुना ने पिशाच के समीप जाकर कहा।


 —"ये तुम्हें क्या जवाब देगा बेटी ?" पिशाच के बोलने से पहले ही वहां तीसरी आवाज गूंजी – “अगर ये पिशाचनाथ होता तो तेरी मां को इस तरह क्यों लेकर जाता ? अगर मैं इस समय नहीं आता तो तू बहुत बड़ा धोखा खा जाती जमुना ये पिशाचनाथ नहीं बेगम बेनजूर का ऐयार है। " इन शब्दों के साथ ही जो सूरत सामने आई, वह पिशाचनाथ की ही थी । एक साथ दो पिशाच देखकर जमुना की बुद्धि चकरा गई। अभी वह निर्णय भी नहीं कर पाई थी उसका असली पिता कौन है - पहला पिशाच बोला – “तुम ?"


-“अब अगर ज्यादा चालाक बनने की कोशिश करोगे तो उससे पहले देख लेना । " कहने के साथ ही नवागन्तुक पिशाच ने बटुए में से एक छोटा-सा लाल टमाटर निकाला और अपनी हथेली पर रखकर पहले पिशाच के सामने कर दिया ।


—"नहीं !" टमाटर को देखते ही पहला पिशाच चीख पड़ा - "ये नहीं हो सकता । और उसकी हालत बड़ी अजीब होने लगी। वह बुरी तरह घबरा रहा था । इतनी सर्दी में भी बदन पसीने से नहा गया। उसकी घबराहट इस हद तक बढ़ी कि वह एक चीख मारकर धरती पर गिरा तथा बेहोश हो गया। तब नवागन्तुक पिशाच ने मुस्कराकर टमाटर अपने बटुए में डाल लिया । 


अचानक जमुना ने महसूस किया कि उसे नशा-सा छाता जा रहाहै। सम्भलने की कोशिश करने के बाद भी वह स्वयं को सम्भाल न सकी और बेहोश होकर गिर गई। यह सब भी उसकी समझ में नहीं आया । जब उसे होश आया तो उसे यह अनुमान भी नहीं था कि वह कितनी देर बेहोश रही। मगर होश आने पर उसने दोनों में से किसी भी पिशाच को वहां नहीं पाया। हां उसके पास ही एक लिखा हुआ कागज अवश्य पड़ा था। उसने कागज उठाया और चन्द्रमा की रोशनी में पढ़ा—


बेटी जमुना, 

मेरे पास इतना समय भी नहीं कि तुझे घर छोड़कर आ सकूं। तू देख ही रही है कि दुश्मनों की ऐयारी कितनी जोर-शोर से चल रही है। अगर मैं तुझे घर छोड़ने में समय लगाता तो उधर तेरी मां खतरे में घिर जाती। मैं तेरी मां को इन दुश्मनों के कब्जे से निकालकर घर पहुंचूंगा। तुझे मेरी आज्ञा है कि तू यहां से सीधी घर चली जा और मेरे वहां पहुंचने का इन्तजार कर । 

- तेरा पिता पिशाचनाथ ।


पत्र पढ़ने के कुछ देर बाद तक जमुना वहीं खड़ी कुछ सोचती रही और फिर पिता की आज्ञानुसार घर की राह ली। सारे रास्ते वह इन घटनाओं का मतलब समझने की कोशिश करती रही, किन्तु कुछ ठीक ढंग से समझ नहीं पाई । उस समय रात्रि का अंतिम पहर समाप्ति पर था जब वह घर पहुंची। सबसे पहले वह मां के कमरे में गई और यह देखकर वह भौचक्की रह गईं कि उसकी मां रामकली आराम से बिस्तर पर पड़ी सो रही थी। यह देखकर जमुना के मस्तिष्क की जैसे सारी नसें हिल उठीं। उसने चकमक से चिराग जलाया । वह सोचने लगी कि कहीं उसके पिता उसकी मां को छुड़ा तो नहीं लाए हैं ? किन्तु इतनी जल्दी यह विचार उसे असम्भव-सा लगा | अगर ये सच भी है तो उसके पिता को यहां होना चाहिए था। वह अपने किसी विचार पर दृढ न रह सकी । उत्सुक होकर उसने अपनी मां को जगाया । वह आसानी से जाग गई और बोली – “अरे जमुना तू यहां इस समय ?"


"मां – तू कब आई ?" जमुना ने प्रश्न किया ।


–“कहां से ?" जवाब में उसकी मां ने भी प्रश्न कर दिया –"ये तू क्या कह रही?"


— "क्या तू यहीं सो रही है मां – तू कहीं गई नहीं थी ? " बुरी तरह उलझकर जमुना ने पुनः प्रश्न किया – “तुझे तो कुछ लोग उठाकर ले गए थे। क्या तुझे पिताजी यहां नहीं लाए ? मैंने अपनी आंखों से देखा था—मां कुछ लोग तेरी गठरी बनाकर...।"


और जो कुछ जमुना ने देखा, वह सब उसने मां को बता दिया ।


— सुनकर रामकली मुस्कराकर बोली – “मुझे लगता है जमुना कि तूने कोई बुरा सपना देखा है। मैं तो यहीं हूं—तीसरे पहर में मैंने उठकर पानी पिया था और तू कहती है कि दूसरे पहर में ही कुछ लोग मुझे बेहोश करके गठरी में ले गए, जा आराम से जाकर सो जा, कोई खतरा नहीं है, तू अपने पिता से ऐयारी सीखती है न, इसलिए ऐसे-ऐसे सपने देखती है । " कहने के बाद रामकली आराम से लेट गई। जमुना के आश्चर्य का कोई ठिकाना नहीं था। उसे लगा कि कहीं उसके पिता के दुश्मन किसी और को तो यहां उसकी मां के भेष में नहीं छोड़ गए हैं। उसे अपना यही विचार सही लगा और इसलिए वह बिना अधिक बात किए कमरे से बाहर निकल गई, परन्तु कमरे की दीवार की आड़ लगाकर वह वहीं खड़ी हो गई ।


जमुना सावधानी के साथ जंगले के माध्यम से कमरे में झांक रही थी । एकाएक उसने देखा चारपाई के नीचे से एक आदमी निकला। जमुना उसकी सूरत न देख सकी, क्योंकि उसके चेहरे पर नकाब थी । रामकली ने रहस्यम ढंग से उसके कान में कुछ कहा। रामकली ने उसके कान में क्या कहा, यह तो जमुना नहीं सुन सकी, किन्तु उसने देखा, सुनने के बाद नकाबपोश ने गरदन हिलाई और कमरे से बाहर की ओर आने लगा । जमुना एकदम दीवार से चिपक गई । वह नकाबपोश चौंक में से गुजरा और चारदीवारी  फांदकर बाहर चला गया। जमुना ने उसका पीछा करने के लालच में चारदीवारी फांदी, किन्तु यह देखकर वह और भी सोच में पड़ गई कि वह नकाबपोश उसे दूर-दूर तक कहीं नजर नहीं आ रहा था । निश्चय ही जमुना पुनः अपने कमरे में लौट गई।

चौथा बयान


उनमें से जो सबसे सुन्दर लड़की है, उसका नाम है प्रगति, उसकी आयु सोलह वर्ष है। रंग एकदम गोरा है । आकर्षक नाक-नक्श | मतलब ये कि सबकुछ मिलाकर वह इतनी सुन्दर है कि इन्द्र की अप्सरा-सी प्रतीत होती है। मगर उसके मुखड़े पर इस समय उदासी के बादल मंडरा रहे हैं । हालांकि, उसकी सखियां उसका दिल बहलाने की बहुत कोशिश कर रही हैं—किन्तु वह चुपचाप उस झरने के करीब बैठी न जाने क्या सोच रही है । उस सहित वहां लगभग दस सखियां और हैं — उनके सामने झरना बह रहा है और पीछे हरा-भरा बाग है... जो फल और मेवों के पेड़ों से भरा पड़ा है । दूसरे बयान में हम लिख आए हैं, प्रगति वंदना की लड़की है। वंदना के पिता का नाम अर्जुनसिंह है—मामा का नाम गौरवसिंह है, वह इन तीनों से बेहद प्यार करती है—किन्तु यह उसका दुर्भाग्य है कि तीनों में से कोई भी उसके पास नहीं हैं। केवल वह इतना जानती है कि कम-से-कम दस दिन से उसने तीनों में से अपने किसी भी प्यारे की सूरत नहीं देखी है।


कदाचित् प्रगति की उदासी का यही सबब है।


वह कई दिन से इसी प्रकार उदास रहती है। जहां इस समय वह बैठी हुई है, यह स्थान उसका निवास है। दो पहाड़ियों के बीच बना यह एक बहुत ही रमणीक स्थान है। बाग के उस पार वह विशाल इमारत है, जहां वे रहते हैं। यह स्थान गुरुजी का है। पाठक शायद समझ गए हों कि यहां हमारा संकेत वंदना और गौरव के गुरु से है। वह अधिक समय इसी स्थान पर रहती है ।


एकाएक दूर से एक आदमी झरने की ओर ही आता दिखाई पड़ा । 


–“प्रगति !” एक सखी बोली – “देखो नानकराम आते हैं... शायद तुम्हारे पिता का कोई सन्देश लाए हों । "


प्रगति की विचार-तन्द्रा भंग हुई और उसने मुड़कर उस तरफ देखा । नानक उसके पिता का खास साथी था। इस बार भी जिस दिन से उसके पिता गायब हुए हैं, नानक ही उनका संदेश लेकर आता है। आज भी नानक उसके पास आया और जेब से एक कागज़ निकालकर प्रगति को देता हुआ बोला— “ये अर्जुन भैया ने आपको लिख भेजा है।”


प्रगति ने उत्सुक होकर कागज लिया और खोलकर पढ़ा, लिखा था—


प्रिय बेटी प्रगति,

मैं इस समय काफी गहरे चक्कर में उलझा हुआ हूं...इतना समय भी नहीं मिलता कि मैं तुमसे वहां मिल सकूं। एक काम निकालने में मुझे तुम्हारी बहुत सख्त जरूरत पड़ रही है। मैं तुम्हारे पास नानक को भेज रहा हूं, तुम फौरन इसके साथ चली आओ।


प्रगति अपने पिता की लिखाई को अच्छी तरह पहचानती थी। अतः किसी प्रकार के धोखे का कोई प्रश्न नहीं उठता था। किन्तु फिर भी प्रगति ने उस गुप्त शब्द का प्रयोग किया, जो ऐसे अवसरों के लिए उसके पिता ने उसे बता रखा था। उन्होंने कहा कि अगर कोई तुम्हारे पास मेरा सन्देश लेकर आए तो उससे 'लाभा' कहना, अगर वह तुम्हें इसके जवाब में 'बोना' कहे तो समझना कि वह व्यक्ति वास्तव में मेरे द्वारा भेजा गया आदमी है... अगर वह जवाब में चुप रहे अथवा कुछ और जवाब दे तो समझना कि वह धोखा है, परन्तु नानक इस परीक्षा में भी उत्तीर्ण साबित हुआ। कुछ देर पश्चात दो घोड़ों पर सवार नानक और प्रगति जंगल में एक तरफ को दौड़े चले जा रहे थे। जहां प्रगति रहती है, उस घाटी और उसमें आने जाने का मार्ग हम यहां लिखना मुनासिव नहीं समझते, किसी अन्य आवश्यक समय पर हम वह दिलचस्प वर्णन लिखेंगे ।


इस समय केवल इतना ही लिख देना पर्याप्त है कि लगभग दस कोस का रास्ता तय करके वे एक निर्जन से खण्डहर में पहुंच गए। नानक प्रगति को उसी खण्डहर में ले गया। एक गन्दे से कमरे में वह अपने पिता—यानी अर्जुनसिंह से मिली। दोनों बड़े प्रेम से मिले और कुछ देर गिले-शिकवे होते रहे । नानक चुपचाप एक तरफ खड़ा था। अभी वे असली विषय पर नहीं आ पाए थे कि कमरे के दरवाजे की ओर से हल्की-सी आहट हुई और जिस व्यक्ति पर प्रगति की दृष्टि पड़ी... उसे देखकर एक बार को तो प्रगति घबरा गई। उसके जिस्म में भय की ठण्डी-सी लहर दौड़ गई। वह आदमी गजब का पतला और लम्बा था । लम्बी गरदन पर एकदम गोल चेहरा ऐसा प्रतीत होता था मानो किसी बांस पर हंडिया टिका दी गई हो। उसकी आंखें भूरी और छोटी थीं, परन्तु उनमें गजब की चमक थी । होंठ पतले और जबड़े भिंचे हुए थे। उसने अपनी लम्बी-लम्बी उंगलियां आपस में मिलाकर जोर से चटकाई ।


-"आओ पिशाचनाथ... तुम हमेशा की तरह बिल्कुल ठीक समय पर आए हो।” अर्जुनसिंह उससे बोला ।


-“पिशाच अपने वायदे का पक्का है।" उसने आगे बढ़ते हुए कहा – “आपको ये भी याद होगा कि मैंने कहा था कि मैं अधिक देर तक यहां नहीं रुक सकूंगा । प्रगति को मुझे सौंपिए और फिर देखिए कि मैं रक्तकथा किस आसानी से लाकर आपको देता हूं। आपने मुझ पर एक अहसान किया है। मेरी मुसीबत में आप मेरे काम आये हैं। आप जानते हैं कि एक बार जो आदमी पिशाच के काम आ जाता है, उसके लिए जीवन-भर पिशाच गरदन कटाने को तैयार रहता है — आप यकीन मानिए, इस बार मैं रक्तकथा के साथ ही आपसे मिलूंगा।"


- "मुझे तुम पर पूरा विश्वास है, पिशाच ।” अर्जुनसिंह ने कहा — "दुनिया के लिए चाहे तुम कितने ही बुरे सही, लेकिन मेरे साथ कभी बुराई नहीं कर सकते। यह विश्वास कम नहीं होता कि मैं अपनी प्रगति जैसी भोली-भाली लड़की को तुम्हारे साथ भेज रहा हूं। मैं ये समझता हूं कि तुम बुराई नहीं कर सकते, मैं ये समझता हूं कि मेरी बेटी तुम्हारी बेटी के बराबर है। तुम इसे किसी प्रकार के खतरे में नहीं फंसने दोगे।"


–‘‘आप चिन्ता न करें !” पिशाच बोला – “उमादत्त को मूर्ख बनाने में मुझे अब अधिक देर नहीं लगेगी । उसने मुझसे वादा किया था कि अगर मैं उसे किसी प्रकार प्रगति ला दूं तो वह मुझे रक्तकथा दे देगा। एक तरीका ये भी हो सकता था कि हम किसी भी लड़की को प्रगति बताते और उसके सामने ले जाते। किन्तु जैसा कि मैं पहले ही कह चुका हूं कि अभी वह मुझ पर पूर्णतया विश्वास नहीं करता है । अतः वह भली प्रकार चैक करेगा कि जो प्रगति मैं उसे दे रहा हूं वह असली है अथवा नहीं। इस स्थिति में वह जब देखेगा कि मैं उसे असली प्रगति दे रहा हूं तो उमादत्त मुझ पर विश्वास करने लगेगा। बल्कि न केवल मुझे रक्तकथा देगा, बल्कि अपना ऐयार भी स्वीकार करेगा | बस — उस दिन के बाद उमादत्त का तख्ता पलटने में हमें अधिक दिन नहीं लगेंगे। आपका तो दुश्मन है ही उमादत्त, लेकिन आप जानते हैं कि उसने मेरा भी अपमान किया है और पिशाच सबकुछ सह सकता है, लेकिन अपमान नहीं। इस अपमान का बदला मुझे लेना है। मेरे दिल को उस दिन शांति मिलेगी, जिस दिन मैं अपने हाथों से उमादत्त की हत्या कर दूंगा । मेरा दिल उसके प्रति घृणा से भरा पड़ा है। "


- "हम सच कहते हैं पिशाच... हमें तुम जैसे एक आदमी की बेहद सख्त जरूरत थी।" अर्जुनसिंह बोला – “जो ऐयार होने के साथ-साथ नेकनीयत, नेकनाम और वफादार भी हो। हमें तुम्हारी वफादारी पर पूरा-पूरा विश्वास ही नहीं बल्कि फख्र है – बेशक तुम प्रगति को अपने साथ ले जा सकते हो। प्रगति !” अर्जुनसिंह प्रगति की ओर उन्मुख होकर बोला— "तुम इस आदमी के साथ चली जाओ बेटी... ये हमारे दोस्त हैं... तुम इन पर पूरा भरोसा कर सकती हो । ये तुम्हें जहां ले जाएं, चली जाना... जो काम बताएं वह अच्छी तरह करना । " हालांकि प्रगति का दिल पिता की इस बात का समर्थन नहीं कर रहा था, परन्तु फिर भी बोली – “जी ।"


-"कल मैं इसी समय आपको यहीं मिलूंगा।" पिशाच ने अर्जुनसिंह से कहा और प्रगति अपने पिता के चरणस्पर्श करना नहीं भूलो थी। उसके जाने के थोड़ी देर बाद अर्जुनसिंह नानक से बोले - "तुम्हारा क्या ख्याल है नानक – क्या पिशाचनाथ दगा कर सकता है ? "


-" वैसे तो आप जानते ही हैं भाई साहब" नानक ने कहा – “कि पिशाच कभी किसी का सगा नहीं हुआ। कोई नहीं जानता कि उसका दिमाग कब किसकी ओर घूम जाएगा और कब किसके पक्ष में और विपक्ष में काम करेगा, लेकिन फिर भी अहसान को देखते हुए जो आपने इस पर किया है, अगर यह आदमी की औलाद होगा तो आपसे कभी दगा नहीं करेगा आगे वह खुद जाने।'


– "फिर भी तुम सावधानी से उसका पीछा करो।” अर्जुनसिंह ने नानक को आदेश दिया – “कहीं ऐसा न हो कि यह उमादत्त के स्थान पर हमें ही मूर्ख बना रहा हो । इसने हमसे कहा है कि उमादत्त ने मुझसे वादा किया है कि...।”


—''मैं सुन चुका हूं भाई साहब ।" नानक बीच में ही बोल पड़ा — "अगर मुझे उसका पीछा ही करना है तो फिर चलता हूं मैं !" इस प्रकार नानक भी पिशाच और प्रगति के पीछे-पीछे खण्डहर से निकल गया। अब वह अपनी तरफ से काफी सतर्कता के साथ पिशाच और प्रगति का पीछा कर रहा था । दो कोस का रास्ता तय करते-करते उन्हें शाम हो गई। नानक का पूरा ध्यान उन्हीं पर केन्द्रित था, उसने तो स्वप्न में भी कल्पना न की थी कि उस पर इस प्रकार अचानक हमला हो जाएगा । वह सम्भल भी नहीं पाया और अचानक एक पेड़ से उसके ऊपर चार आदमी टूट पड़े। किसी ने उसके जिस्म से एक नंगी तलवार स्पर्श की तो एक चीख के साथ नानक बेहोश हो गया ।


जिन चारों ने नानक पर यह हमला किया था, उनमें से एक की सूरत और जिस्म इत्यादि ठीक नानक जैसा ही था । उसने जल्दी से नानक के कपड़े उतारे और खुद पहन लिए । तभी उसके तीन साथियों में से एक बोला— "बारूसिंह, सबकुछ उसी प्रकार करना जैसे उस्ताद ने कहा है।"


– “तुम चिन्ता मत करो—इस काम के लिए कुछ सोचकर ही उस्ताद ने मुझे चुना है।" बाकी तीनों ने नानक की गठरी बनाई और उनमें से एक ने अपने कन्धे पर डाल ली । वे तीनों नानक को लेकर एक तरफ को चल दिए और नानक (बारूसिंह) कुछ सोचता हुआ उधर ही चला, जिधर पिशाच गया था ।


अब जरा हम पिशाच की हरकत की ओर आपका ध्यान खींचते हैं। जिस जगह पीछा करता हुआ नानक बदला है, उस जगह से कोई आधा कोस आगे जाने पर पिशाच ने प्रगति को रुकने का संकेत किया और जाफिल से सीटी बजाई जाफिल की आवाज जंगल में गूंज उठी और इसके साथ ही आस-पास के पेड़ों से चार नकाबपोश कूद पड़े। एक बार को तो प्रगति डर गई, परन्तु सहमी-सी चुपचाप खड़ी रही। उन चारों नकाबपोशों के काले लिबास पर नम्बर लिखे हुए थे। पिशाच के समीप आकर वे आदर से झुक गए ।


- "तुम इनके साथ चली जाओ प्रगति, ये मेरे साथी हैं।" पिशाच ने कहा— “हम अभी एक जरूरी काम से निपटकर आते हैं।"


– प्रगति मानो एकदम दिमाग रहित एवं गूंगी हो— उसने स्वीकृति में गरदन हिला दी।


—"नम्बर एक हमारे साथ आओ।" पिशाच ने कहा और उसे साथ लेकर अपने रास्ते पर आगे बढ़ गया। शेष दो, तीन और चार नम्बर के नकाबपोश प्रगति को साथ लेकर एक तरफ को चले गए। पीछे दूर-दूर तक भी कहीं नानक (वारूसिंह) नजर नहीं आता था। उधर नम्बर एक नकाबपोश कुछ देर तक तो उसी प्रकार पिशाच के साथ चलता रहा, किन्तु थोड़ी दूर जाने के बाद उसने अपने चेहरे से नकाब उतार ली। नकाब के नीचे जो चेहरा छुपा हुआ था, वह प्रगति का ही था । चलते-चलते उसने अपना काला लिबास उतार लिया उसके नीचे जनाने कपड़े थे अथवा यूं कहिए कि वह कोई औरत ही थी, किन्तु प्रगति नहीं थी। यह और बात है कि इस समय वह प्रगति के भेष में थी। 


- "जमुना... तुझे अच्छी तरह याद है ना कि वहां जाकर तुझे क्या करना है ?"


-“आप बिल्कुल भी चिन्ता न करें, पिताजी ।" जमुना बोली – “आपने मुझे जो भी कुछ बताया है, वह सबकुछ मुझे अच्छी तरह याद है । "


इसी प्रकार की बातें करते हुए पिता और पुत्री रात के दूसरे पहर में उमादत्त के महल पर पहुंच गए। महल पर खड़े चोबदार द्वारा उसने राजा उमादत्त के पास समाचार भिजवाया कि पिशाच आया है और उसके साथ प्रगति भी है। महल आने से कुछ देर पहले पिशाच ने प्रगति बनी जमुना को इस प्रकार कंधे पर लाद लिया था, मानो वह बेहोश हो। यह और बात है कि वास्तव में वह बेहोश थी नहीं ।


कुछ ही देर बाद चोबदार ने आकर सूचना दी कि राजा साहब आपका इन्तजार कर रहे हैं।


तब जबकि प्रगति (जमुना) को कंधे पर डाले उसने दीवान-ए- खास में प्रवेश किया तो वास्तव में उमादत्त को अपनी प्रतीक्षा में पाया । उसे देखते ही उमादत्त बोले – “आ गए पिशाच ?" 


 –“आ भी गया हूं और आपका काम भी पूरा कर दिया है। पिशाच मुस्कराता हुआ बोला – “अब आपको अपना वादा पूरा करना होगा। ये देखिए—मैं प्रगति को ले आया हूं। यह तो आप अच्छी तरह से जानते ही हैं कि इसे अर्जुनसिंह आदि सात पदाँ में रखते हैं। अतः इसे निकालकर लाना कितना कठिन था ।


-"किन्तु फिर भी मैंने अपनी ऐयारी के बल पर किसी प्रकार अर्जुनसिंह को बेवकूफ बनाया। अब आप अपने वादे के अनुसार दो हजार सोने की मोहरें मुझे दीजिए तो मैं अपना रास्ता नापूं- मुझे इस समय मोहरों की बहुत सख्त जरूरत थी और आप ये भी जानते हैं कि में आपकी कितनी इज्जत करता हूं। अगर कोई और मुझसे यह काम पचास हजार मोहरें देकर भी कराता तब भी नहीं करता—क्योंकि अर्जुनसिंह जैसे सच्चे आदमी को धोखा देना नीच कर्म ही कहलाता है, किन्तु आपके प्यार की खातिर मैंने यह नीच कर्म भी कर दिया। आपने मुझ पर जीवन में बहुत से अहसान किए हैं। उसी का फल है कि आज मैंने यह नीच कर्म भी कर दिया – अन्य कोई इस कठिन कार्य को कर भी नहीं सकता था।"


-"हम जानते हैं पिशाच, अच्छी तरह जानते हैं।" उमादत्त बोले – “तुससे अच्छा ऐयार अभी तक हमारी नजरों से नहीं गुजरा। हम तो तुमसे पहले भी कई बार कह चुके हैं कि तुम हमारी नौकरी कर लो। अगर तुम जैसा ऐयार हमारे साथ हो तो गौरव, वंदना और अर्जुनसिंह का सफाया करने में हमें अधिक देर नहीं लगे—परन्तु न जाने क्यों यह बात तुम्हें स्वीकार नहीं है। "


- "आप जानते हैं कि शुरू-शुरू में मैं दलीपसिंह का ऐयार था । " पिशाच बोला—“मैंने गौरव और वंदना को खत्म करने के लिए अपनी ऐयारी का एक दांव खेला। जब उनके दूसरे ऐयार बलवंतसिंह ने उन्हें बताया—पिशाच ये कर रहा है तो दलीपसिंह ने सोचा कि मैं उन्हीं के खिलाफ काम कर रहा हूं और उन्होंने मुझे बेइज्जत किया, साथ ही कैदखाने में भी डाल दिया। वह तो मैं किसी प्रकार उनके कैदखाने से मुक्त हो गया— लेकिन उसी दिन से प्रण कर लिया कि जीवन में कभी किसी राजा का ऐयार बनकर नहीं रहूंगा- आजाद होकर काम करूंगा।” 


“आप जानते हैं कि अब पिशाच पर किसी की भी बात का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। पिशाच ने कहा – “मेरा आपसे सौदा तय हुआ था कि अगर मैं प्रगति को लाकर आपके हवाले कर दूं तो आप मुझे दो हजार मोहरें देंगे। मैंने अपना काम पूरा कर दिया, मुझे मोहरें दीजिए—मैं चलूं । " 


– “हम तुमसे एक सौदा और करना चाहते हैं।" उमादत्त ने कहा । 


—"बोलिए ?"


- "हम तुम्हें दस हजार मोहरें देंगे।" उमादत्त ने कहा – “तुम अर्जुनसिंह को हमारे हवाले कर दो । " – “अर्जुनसिंह इतना सस्ता नहीं है राजा साहब ।" पिशाच ने कहा – “वैसे तो प्रगति भी इतनी सस्ती नहीं थी, किन्तु आपके पिछले अहसानों को ध्यान में रखकर मैंने यह काम कर दिया लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि हर काम में मैं आपके अहसानों के बारे में सोचूंगा। मैं बेशक अर्जुनसिंह को अपनी ऐयारी के जाल में फंसाकर आपको सौंप सकता हूं, लेकिन कीमत पूरी बीस हजार मोहरें होंगी ।"


अंततः बीस हजार में यह सौदा पिशाच और उमादत्त के बीच तय हो गया । उमादत्त ने उसे सात हजार मोहरें दीं और विदा किया ।


दो हजार प्रगति वाले सौदे की और पांच हजार अर्जुनसिंह वाले सौदे की पेशगी। काफी खुश होता हुआ पिशाच महल से बाहर निकला और चलता-चलता वह अपनी आगे की योजना सोच रहा था । यह एक बहुत ही दिलचस्प और रहस्यपूर्ण किस्सा है—–कि वह अर्जुनसिंह को किस प्रकार मूर्ख बनाता है। इसके लिए आपको अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी, अगले बयान में ही हम वह किस्सा लिख देते हैं ।

पांचवां बयान


ऊपर आप पढ़ आये हैं कि पिशाचनाथ किस खूबसूरती से अर्जुनसिंह को बेवकूफ बनाता है। अभी तक आप ये नहीं समझ पाए होंगे कि पिशाच किसके पक्ष एवं किसके विपक्ष में है। किसको कितना धोखा देना चाहता है ! पिशाचनाथ की इस रहस्यमय कार्यप्रणाली के पीछे उसका क्या उद्देश्य है ? अभी तक यह भी स्पष्ट नहीं हो पाया है। किन्तु हम यह अवश्य कह सकते हैं कि पिशाचनाथ किसी बहुत ही गहरे चक्कर में उलझा हुआ है । यह बयान भी हम उसी की कार्यप्रणाली पर लिख रहे हैं—आइए देखें ।


इस बार यह दिलचस्प पात्र अपने दिमाग से किस-किस को किस-किस ढंग से मूर्ख बनाता है ! पिशाचनाथ की जालसाजी को समझाने हेतु थोड़ा सा हाल – नकली नानक यानी बारूसिंह और अर्जुनसिंह की बातों को लिख देना भी अनिवार्य है।


उनकी बातें इस प्रकार हुई थीं


-"क्या रहा—कहीं पिशाच ने किसी प्रकार की गड़बड़ तो नहीं की ?"


–“मेरी निगाह में तो उसने कोई भी गड़बड़ नहीं की... मगर गड़बड़ हो अवश्य गई है । " नानक (बारूसिंह) ने जवाब दिया ।


“क्या ?" एकदम चौंककर खड़े हो गए अर्जुनसिंह — "क्या गड़बड़ हो गई है?" –“आप भी सुनकर आश्चर्य करेंगे।" नकली नानक ने कहा – “मैंने उमादत्त के महल तक बराबर पिशाच और प्रगति का पीछा किया । मेरा पूरा प्रयास था कि पिशाच ये न जान सके कि मैं उसका पीछा कर रहा हूं और मुझे विश्वास है कि उसे पता भी नहीं चला। सारे रास्ते मेरी दृष्टि उन दोनों पर ही रही है। सच पूछें तो मुझे भी यह सम्भावना थी कि रास्ते में पिशाच किसी प्रकार की गड़बड़ करेगा, किन्तु वास्तविकता ये है कि उसने किसी प्रकार की कोई गड़बड़ नहीं की। प्रगति होश में थी, किन्तु पिशाच अपने कन्धे पर उसे इस प्रकार से डालकर ले गया, मानो वह बेहोश हो गई हो। यह क्रिया भी उसने उमादत्त को धोखे में डालने के लिए की थी, मगर सब चौपट हो गया । " -“क्या हो गया ? तुम बताते क्यों नहीं ?" अपनी जिज्ञासा को अर्जुनसिंह दबा न सके।


–“उमादत्त और पिशाचनाथ में झगड़ा हो गया । " नानक ने इस प्रकार कहा था- मानो उसे इस बात का बेहद अफसोस हो ।


-"क्यों... क्यों हो गया झगड़ा ?" अर्जुनसिंह चीख पड़े– “हमने अपनी भोली-भाली बेटी को भी फंसाया—–— और फिर भी हमारा वह काम न हो सका ! आखिर उन दोनों के बीच झगड़ा किस बात पर हो गया ? पिशाचनाथ से क्या गलती हो गई ?”


“आप सुनेंगे तो आश्चर्य करेंगे !”


— “तुम कहो नानक... तुम हमें बताओ कि यह झगड़ा क्यों हुआ ?"


- "झगड़े का सबब ये है अर्जुनसिंह कि पिशाचनाथ ने जो प्रगति उमादत्तजी को दी थी, वह असली नहीं थी, नकली थी !” 


—“क्या ?" आश्चर्य के कारण अर्जुनसिंह उछल पड़े – “ये क्या वकते हो तुम —प्रगति नकली – वह प्रगति, जिसे मैंने अपने हाथों से पिशाच को सौंपा है। असम्भव प्रगति नकली हो ही नहीं सकती। उसे तुम स्वयं ही तो जाकर रमणीघाटी से लाए थे !"


-“जी !" नानक ने उत्तर दिया ।


- "तो फिर भला नकली कैसे हो सकती है नानक ?" अर्जुनसिंह वोले – “ये तो हो ही नहीं सकता कि रमणीघाटी में नकली प्रगति हो और अगर वह नकली होती तो तुम्हारे गुप्त शब्द का उत्तर वह गुप्त शब्द में दे ही नहीं सकती थी। वहां से प्रगति को तुम खुद यहां लाए हो, फिर में भी दावे के साथ कह सकता हूं, जिस प्रगति को पिशाच यहां से ले गया है, वह असली प्रगति थी । "


–“लेकिन उमादत्त ने पिशाच और प्रगति के वहां पहुंचते ही सबसे पहले प्रगति के मुख पर एक चूर्ण लगवाया, जब प्रगति का चेहरा धुलवाया गया तो वह कोई और लड़की थी। मैं छुपकर यह सब देख रहा था- और फिर प्रगति के चेहरे नीचे जिस लड़की का चेहरा निकला था— उसे मैंने उस समय से पूर्व पहले कभी नहीं देखा—अतः मैं उसे पहचान नहीं सका । "


- "इसका मतलब पिशाच ने रास्ते में किसी तरह की ऐयारी की है।" अर्जुनसिंह कुछ सोचते हुए बोले – “उसने किसी प्रकार तुम्हारी आंखों में धूल झोंककर रास्ते में ही प्रगति को बदल दिया । असली प्रगति को उसने अपने आदमियों के हवाले कर दिया होगा — और फिर किसी दूसरी लड़की को प्रगति बनाकर उमादत्त के पास ले गया—पिशाच ने हमसे धोखा किया है, नानक !"


-'" लेकिन मैं तो बराबर पिशाच के पीछे रहा हूं।" नकली नानक बोला—"तो फिर यह अदला-बदली वह कैसे कर सकता है ?" —"ठीक से याद करो।" अर्जुनसिंह बोले – "क्या इतने लम्बे रास्ते में पिशाच कुछ देर के लिए भी तुम्हारी आंखों से ओझल नहीं हुआ ?"


-"एक मोड़ पर केवल कुछ समय (क्षण) के लिए वे मेरी आंखों से ओझल हुए थे ।" नकली नानक ने कहा – “परन्तु मोड़ पर मुड़ते ही वे दोनों फिर मेरी आखों के सामने थे और उसी प्रकार चलते जा रहे थे । मैं सच कहता हूं कि कठिनता से पांच सायत (क्षण ) तक मेरी आंखों से ओझल रहे होंगे और जहां तक मैं समझता हूं—इतने कम समय में पिशाच प्रगति को नहीं बदल सकता। "


-"तुम ये क्यों भूल रहे हो नानक कि पिशाचनाथ नम्बर एक का शैतान ऐयार है !” अर्जुनसिंह क्रोध से दांत पीसते हुए बोले – “हम भली प्रकार जानते हैं कि वह यह काम दो सायत में भी कर सकता है। पांच सायत तो पिशाच के लिए बहुत हैं नानक – अब हमें पूरा विश्वास हो गया है कि यह धोखेबाजी खुद पिशाच ने ही की है। वह बड़ा धोखेबाज है, उसे मालूम होगा कि तुम उसका पीछा कर रहे हो, परन्तु उसने तुम पर जाहिर नहीं किया होगा। मौका लगते ही उसने प्रगति को बदल दिया — वह रक्तकथा हमें देना नहीं चाहता होगा अथवा उमादत्त से उसे किसी तरह का लालच होगा। उसे मालूम था कि तुम उसके पीछे हो, तुम्हें दिखाने के लिए वह नकली प्रगति को उमादत्त के पास ले गया। उसे पता था कि उमादत्त यह पता लगा लेगा कि प्रगति नकली है यह जानने के बाद वह झगड़ा करेगा——इस झगड़े को तुम देख रहे होगे। उसने सोचा होगा कि इस झगड़े के बारे में तुम मुझे जरूर बताओगे । झगड़ा होने की स्थिति में उमादत्त उसे रक्तकथा देगा ही नहीं। अतः वह मुझसे भी यह कहकर छूट जाएगी, क्योंकि उमादत्त से मेरा झगड़ा हो गया है— — इसलिए उसने मुझे रक्तकथा नहीं दी। मेरा ख्याल है कि वह इस बात का आरोप भी हम पर ही लगाएगा कि तुमने मुझे नकली प्रगति दी है ।


–“आने दो उसे ।"


–“आज मैं उसे जीता नहीं छोडूंगा । उसने मेरी फूल-सी बेटी को धोखा देकर कैद किया है— मैं आते ही उससे बदला लूंगा वह खुद को दुनिया का सबसे बड़ा ऐयार समझने लगा है।”


-“मेरा ख्याल तो ये है कि इतना बड़ा धोखा देने के बाद वह यहां पर आएगा ही नहीं । " नकली नानक ने कहा – “उसका तो काम निकल गया — फिर भला वह यहां क्यों आएगा ? लेकिन यह मानना पड़ेगा अर्जुनसिंह कि पिशाच है वास्तव में बहुत कमीना ।”


"तुम अभी पिशाच की हरकतों से अच्छी तरह वाकिफ नहीं हो, नानक ।” अर्जुनसिंह क्रोध में मुट्ठी भींचते हुए बोले – “पिशाच इतना बेशर्म है कि वह चोरी पर सीना जोरी करता है। मेरा ख्याल तो ये है कि वह ठीक समय पर यहां आएगा और हमसे कहेगा कि हमने उसे नकली प्रगति दे दी है। मगर मेरा भी निश्चय है कि मैं इस बार उसके धोखे में नहीं आऊंगा और आते ही उसकी खबर लूंगा।"


इस प्रकार अर्जुनसिंह क्रोध से भुनभुनाते रहे । धीरे-धीरे वह समय आ गया, जिस समय कल पिशाच उन्हें सही स्थान पर मिला था । ठीक समय ऐसी आहट हुई कि जैसे कोई क्रोध में पैर पटकता हुआ आ रहा हो और अगले ही क्षण पिशाच कमरे के दरवाजे पर दिखाई दिया और उसका चेहरा क्रोध से तमतमाया हुआ था । जो अर्जुनसिंह ने कहा था, वही हुआ । पिशाच गुर्राया— "मेरे साथ इतना बड़ा धोखा ! " 


क्रोध में अर्जुनसिंह ने अपनी म्यान से तलवार खींच ली — और गरजे — “सीधी तरह बता कमीने ! मेरी फूल-सी बेटी कहां पर है ? वर्ना एक ही सायत में तेरा सर कलम कर देंगे—बहुत हो चुकी तेरी ऐयारी ! अब हमारी तलवार का सामना करना होगा । "


—" बहुत खूब !" व्यंग्यात्मक ढंग से मुस्कराता हुआ बोला पिशाच – “पहले चोरी फिर ऊपर से सीना-जोरी ।”


–“यही कहेगा ना पापी कि हमने नकली प्रगति दी थी !" तलवार तानकर गुर्राए अर्जुनसिंह ।


" और नहीं तो क्या ?" पिशाच एकदम अविचलित स्वर में बोला – “तुमने होशियारी दिखाते हुए मुझे नकली प्रगति दी – तुम क्या जानो तुम पर विश्वास करके पिशाच को कितना बड़ा अपमान सहना पड़ा। मैंने तो कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि तुम मेरे साथ धोखा करोगे। जैसे ही उमादत्त ने उसके मुख पर चूर्ण मलवाया, तुम्हारे धोखे का रहस्य मुझ पर खुल गया ।


- उमादत्त क्या जानता था कि मैं प्रगति को तुमसे मांगकर लाया हूं। उसने तो यही समझा कि मैंने उससे धोखा किया है। उसने मुझे अपमानित करके महल से निकाला । मेरा ये अपमान तुम्हारे कारण हुआ है—मैं इसका बदला तुमसे लूंगा- तुमने मेरे साथ धोखा किया है। "


-"जबान सम्भालकर बात कर, पापी।" अर्जुन चीखा- " ऐयार हैं, ऐयारी के नाम पर कलंक नहीं। अब तेरा यह नाटक हमारे सामने नहीं चलेगा, सीधी तरह बता कि प्रगति कहां है ?"


—"ये सब बकवास है...।" पिशाच भी एकदम अपनी म्यान से तलवार खींचता हुआ बोला- "तुमने मुझे धोखा दिया है!" 


- "इसका मतलब, नहीं बताओगे कि तुमने मेरी बेटी को कहां रखा है ?"


अर्जुनसिंह का क्रोध सातवें आसमान पर पहुंचता जा रहा था- "ये याद रख पिशाच कि अगर प्रगति का पता नहीं लगा तो मैं तेरे सारे खानदान को खत्म कर दूंगा।"


— " अपने दिमाग से यह बात निकाल दो कि मैंने तुमसे किसी प्रकार का धोखा किया है । " पिशाच बोला— "मैं उसकी कमस खाकर कहता हूं जो इस दुनिया में मुझे सबसे अधिक प्यारा है। मैंने तो तुम्हारे साथ कोई धोखा नहीं किया है। मैं उसी प्रगति को उमादत्त के पास ले गया था, जो तुमने मुझे दी थी । "


अर्जुनसिंह का तलवार वाला हाथ पिशाच पर वार करने के लिए उठा ही था कि उसके शब्द सुनकर हवा में ही ठिठक गया। उसने ध्यान से पिशाच के चेहरे की ओर देखा और बोले – "मैं भी कसम खाकर कहता हूं कि मैंने तुम्हारे साथ कोई धोखा नहीं किया है।"


-"मुझे लगता है अर्जुनसिंह कि हम किसी गलतफहमी के शिकार होकर आपस में ही लड़ रहे हैं।" पिशाच ने अपनी बुद्धि का जाल फैलाते हुए कहा – “मैं सच कहता हूं कि मैंने तुमसे धोखा नहीं किया है और तुम भी मुझसे यही कहते हो। कहीं ऐसा तो नहीं कि बीच में हम दोनों को भिड़ाने के लिए किसी दूसरे ने ही ऐयारी न खेल दी हो, ताकि हम दोनों बेवकूफ बन जाएं।"


—"लेकिन बीच में प्रगति को कौन बदल सकता है ?" अर्जुनसिंह तरदुत (सोच) में पड़ गए।


- "शायद हम ठण्डे दिमाग से सोचने पर कुछ समझ पाएं । " 


पिशाच ने तलवार अपनी म्यान में रखते हुए कहा । कई सायत (क्षण ) तक वह इस प्रकार का अभिनय करता रहा कि मानो कुछ सोच रहा हो। फिर एकदम बोला – “तुमने प्रगति को यहां किसके हाथ मंगाया था ?” 


— "नानक के हाथ | " अर्जुनसिंह नानक की ओर देखकर बोला – “नानक स्वयं जाकर उसे लाया था। "


घूमकर पिशाच की दृष्टि नानक पर जम गई । नानक ऊपर से नीचे तक कांप उठा – वह घूरता हुआ बोला- "तो क्या ये ऐयारी इसकी नहीं हो सकती ? सम्भव है कि रमणीघाटी से यहां तक के रास्ते में इसी ने प्रगति को बदल दिया हो?”


अर्जुनसिंह एकदम बोले – “नानक पर मुझे खुद से भी ज्यादा विश्वास है।" " नानक पर विश्वास होगा अर्जुनसिंह, लेकिन दुश्मन के किसी ऐयार पर तो विश्वास नहीं किया जा सकता।" पिशाच खूनी ढंग से नानक की ओर बढ़ता हुआ बोला – “हो सकता है कि दुश्मन का कोई ऐयार नानक के भेष में हो ?"


-"नहीं पिशाच —ये असम्भव है !”


-“अगर ऐसा होता तो यह कभी भी रमणीघाटी के अंदर नहीं पहुंच सकता था। " अर्जुनसिंह ने कहा – “रमणीघाटी का रास्ता इतना पेचीदा है कि हमारे गिने-चुने ऐयारों के अतिरिक्त दुनिया के किसी और आदमी की समझ में नहीं आ सका है और अगर ये नानक न होता तो प्रगति के पास जाकर ये सांकेतिक शब्द कभी नहीं कह पाता, जो केवल नानक को ही पता हैं, उन्हें कोई दूसरा नहीं जान सकता । "


- "जरा इससे पूछो कि इसने रमणीघाटी में प्रगति के पास जाकर क्या गुप्त शब्द कहे थे ?” पिशाच नकली नानक को घूरता हुआ बोला । 


- " मैं तुम्हारे सामने वे गुप्त शब्द कैसे कह सकता हूं ?" नकली नानक अपनी घबराहट पर काबू पाता हुआ बोला ।


 —"नहीं नानक ।" अर्जुनसिंह ने आदेश दिया—“इस समय पिशाच से पर्दा रखने की कोई जरूरत नहीं है। तुम बता दो कि तुमने प्रगति से जाकर क्या सांकेतिक शब्द कहे थे, वर्ना यह तुम पर ही शक किए जाएगा।"


नकली नानक अवाक्-सा रह गया । वह क्या जानता था कि असली नानक को कौन-सा गुप्त शब्द बताया गया था, वह महसूस कर रहा था कि वह बुरी तरह फंस गया है और अब उसका रहस्य खुलना ही चाहता है। फिर भी वह जल्दी से बोला – “हरियाली शब्द मैंने प्रगति के पास जाकर हरियाली ही कहा था —— इसका मतलब प्रगति से...


-“बकता है ये ।" नानक की बात को बीच में ही काटकर अर्जुनसिंह बोला—‘‘गुप्त शब्द ये नहीं है। नानक के भेस में यह दुश्मन का ऐयार है, इसे गिरफ्तार कर लो।"


परन्तु इस बीच नानक एक झटके के साथ अपनी म्यान से तलवार निकाल चुका था । तलवार हाथ में लेकर वह पैंतरा बदलता हुआ बोला— 'मैं दलीपसिंह का ऐयार हूं और अगर आपने मुझे हाथ भी लगाने की कोशिश की तो प्रगति को खत्म कर दिया जाएगा !"


-"दलीपसिंह के ऐयार अभी इतने चालाक नहीं हुए हैं बेटे कि पिशाचनाथ से टकरा सकें।" पिशाच अपनी तलवार लेकर उसकी ओर बढ़ता हुआ बोला— "प्रगति मेरी बेटी के बराबर है। जो उसकी ओर आंख उठाएगा...मैं उसकी आंखें निकाल लूंगा ।”


इस प्रकार बारूसिंह और पिशाचनाथ में तलवारी जंग छिड़ गई। किंकर्त्तव्यविमूढ़ से अर्जुनसिंह उन दोनों को लड़ते हुए देख रहे थे। परिस्थिति ने जो पलटा खाया था— इस बारे में तो वे सोच भी नहीं सकते थे। नकली नानक अर्थात् बारूसिंह पिशाच के सामने परास्त हो गया, उसकी तलवार भी टूट गई, शीघ्र ही पिशाच ने उस पर काबू पा लिया और कमन्द से कसकर बांध लिया। फिर पिशाच ने अर्जुनसिंह के सामने' ही उससे पूछताछ की। उसने जो कुछ बताया, वह इस प्रकार था— “मेरा नाम बारूसिंह है। मैं दलीपसिंह का खास ऐयार हूं। मैं जंगल में बालादवी ( भेद जानने की कोशिश में इधर-उधर चक्कर लगाना) कर रहा था कि अचानक मुझे नानक और प्रगति चमके मेरे साथ मेरे + तीन साथी और भी थे, जिनमें एक लड़की भी थी । दलीपसिंह प्रगति पर आसक्त है, अतः वह प्रगति को अपनी पत्नी बनाना चाहता है। हमने सोचा कि अंगर हम प्रगति को गिरफ्तार करके दलीपसिंह को सौंप दें तो वह बहुत खुश होगा और हमें बहुत सा इनाम भी देगा। कुछ देर हमने नानक और प्रगति का पीछा किया और उनकी होती हुई बातों से पता लगा लिया कि वे यहां आ रहे हैं। हमने अवसर पाते ही दोनों को गिरफ्तार किया और मैं नानक तथा हमारे साथी ऐयार प्रगति बनकर यहां आए। मेरे बाकी साथी नानक और प्रगति को लेकर दलीपसिंह के पास पहुंच गए होंगे। मैंने दलीपसिंह के लिए एक बड़ा काम किया है, अतः वह मुझसे बहुत खुश होगा, अगर उसे पता लग गया कि आपने मुझे किसी तरह की हानि पहुंचाई है तो वह जबरदस्ती प्रगति को अपनी पत्नी बना लेगा।" 


"अब क्या किया जाए ?” उसकी सारी कहानी सुनने के बाद अर्जुनसिंह ने पिशाच से कहा ।


–“सबसे पहले हमें दलीपसिंह की कैद से नानक और प्रगति को निकालना चाहिए।" पिशाच ने राय दी ।


- "लेकिन इतनी जल्दी यह कैसे सम्भव हो सकेगा ?" अर्जुनसिंह बोले—“अगर दलीपसिंह को यह पता लग गया कि हमने उसके ऐयार बारूसिंह के साथ ऐसा दुर्व्यवहार किया है तो कहीं वह वास्तव में मेरी बेटी को...!” इससे आगे कहते-कहते स्वयं ही रुक गए थे अर्जुनसिंह । –‘‘अगर आप मेरी मानें तो मैं एक योजना बता सकता हूं।" पिशाच ने कहा— “जिससे हम दलीपसिंह को करारा धोखा दे सकेंगे । " 4 –“बोलो पिशाच !” परेशान से अर्जुनसिंह बोले – “अब तो तुम ही मेरे एकमात्र सहारे हो। तुम तो जानते हो कि मैं प्रगति से कितना प्यार करता हूं। वह कभी यदा-कदा ही रमणीघाटी से बाहर निकली होगी। मैं इसीलिए उसे रमणीघाटी से बाहर नहीं निकलने दिया करता था, क्योंकि हमारे बहुत दुश्मन हैं और प्रगति सुन्दर भी बहुत है। उमादत्त और दलीपसिंह दोनों ही राजा उस पर आसक्त हैं। प्रगति के पीछे वे इतने पागल हो गए हैं कि उसे पाने के लिए वे कुछ भी कर सकते हैं। दुनिया की गन्दी नजरों से बचाने के लिए ही मैं प्रगति को रमणीघाटी में रखता था, मगर रक्तकथा को पाने के लिए मैंने उसे बाहर निकालने की हिम्मत की— मैं क्या जानता था कि जरा-सी देर में ही प्रगति इतने बड़े खतरे में घिर जाएगी। पिशाच मेरे दोस्त, अब तो तुम्ही मेरी मदद करो तो कुछ हो सकता है। "


-"आप घबराइए नहीं मैं पहले ही कह चुका हूं कि प्रगति आपकी बेटी है, इसलिए मेरी भी बेटी है । मैं अपनी बेटी को किसी भी मुसीबत में नहीं फंसने दूंगा | सुनें, ध्यान से सुनें मैं अपने चेहरे पर एक बार में दो मेकअप कर सकता हूं, अर्थात मैं अपनी सूरत इस बारूसिंह जैसी बना लूंगा ! उसके ऊपर नानक की सूरत बना लूंगा, जैसे कि इसने बना रखी है। मैं खुद, बारूसिंह बनकर आपको बेहोश करके दलीपसिंह के दरबार में पहुंचूंगा, वास्तव में आप बेहोश होंगे नहीं इस प्रकार हम दलीपसिंह के दरबार में पहुंच जाएंगे। मेरी सूरत इस जैसी होगी ही —— अतः मैं आसानी से वहां से सबको निकाल लाऊंगा ।" 


अर्जुनसिंह ने पिशाच की बात का समर्थन किया, बोले – “ठीक है— हम इसे तहखाने में डालते हैं। "


“आप इसे तहखाने में डालकर आइए।" पिशाच बोला, जब तक मैं खण्डहर के आसपास बालादवी करके देखता हूं कि कहीं दलीपसिंह का कोई ऐयार हमारी कार्यवाही तो नहीं देख रहा है।" अर्जुनसिंह को पिशाच का विचार उपयुक्त लगा और उन्होंने इजाजत दे दी। अर्जुनसिंह तहखाने का दरवाजा खोलने लगे और पिशाच खण्डहर से बाहर आया। कनखियों से वह बराबर पीछे देख रहा था कि कहीं अर्जुनसिंह उस पर नजर तो नहीं रखे हुए हैं। जब उसे यकीन हो गया कि किसी की दृष्टि उस पर नहीं है तो उसने जाफिल बजाई।


उसके जाफिल बजाते ही एक आदमी घनी झाड़ियों में से निकलकर उसके पास आया ।


-"सारा नाटक सफल हो गया । " पिशाच ने धीरे से उस आदमी के कान में कहा – “हमारे यहां से जाने के बाद बारूसिंह को यहां से निकाल लेना । "


" —–“ठीक है उस्ताद !" उस आदमी ने गरदन हिलाई—– “नानक और प्रगति को हमने ठिकाने पर पहुंचा दिया है। " यह सन्देश देने के बाद एक क्षण के लिए भी वह आदमी पिशाच के सामने न खड़ा रहा । जिस प्रकार वह निकला था, उसी प्रकार झाड़ियों में गुम हो गया । पिशाच इस तरह आगे बढ़ गया, मानो अभी-अभी उसने किसी से कोई बात की ही न हो। वह अभी लगभग पचास गज दूर ही आया होगा कि अचानक एक दृश्य देखकर पिशाच बुरी तरह घबरा गया। पिशाच का सारा जिस्म भय से कांप गया। चेहरे पर पसीना उभर आया। हाथ-पैर ढीले पड़ गए । चमकीली आंखों में मौत की परछाइयां नृत्य करती नजर आने लगीं। सामने के दृश्य को देखकर पिशाच इस तरह घबरा गया, मानो उसके ठीक सामने साक्षात् मौत खड़ी हो । उसे यकीन हो गया कि किसी भी हालत में अब वह जीता नहीं बचेगा ।


हम पाठकों को उस दृश्य के बारे में बताएं तो पाठक आश्चर्य करेंगे ।


क्योंकि वह दृश्य जरा भी भयानक नहीं था । पिशाच के ठीक सामने धरती पर एक लाल सुर्ख टमाटर रखा था। उस टमाटर के नीचे किसी हाथ से लिखे कागज का पुर्जा दबा हुआ था । बस इतना सा ही दृश्य था, जिसे देखकर पिशाच की हालत बहुत बुरी हो गई थी। कांपता हुआ वह जमीन पर रखे उस लाल सुर्ख टमाटर की ओर बढ़ा। टमाटर उठाने के लिए उसने हाथ बढ़ाया--पर हाथ कांप गया पिशाच का। उसने टमाटर में जोर से ठोकर मारी – टमाटर दूर जा गिरा और फूट गया। कांपते हाथों से पिशाच ने वह कागज का पुर्जा उठाया और पढ़ा-


पिशाचनाथ, 

ऐसे नीच काम करते समय आखिर तुझे टमाटर का ख्याल क्यों नहीं आता ! 


बस इतना ही लिखा था कागज पर और इसे पढ़कर पिशाच का सारा शरीर पसीने से नहा उठा – इस वक्त वही पिशाच बुरी तरह घबराया हुआ और भयभीत था, जिसने कुछ ही देर पूर्व अर्जुनसिंह को बहुत ~ जबरदस्त धोखा दिया था। इस कागज को पढ़ने के बाद पिशाच घबराया-सा जंगल में इधर-उधर देख रहा था। उस समय तो पिशाच का दिल दहल उठा, जब उसके आसपास ही जंगल में छुपा हुआ कोई आदमी बहुत जोर से हंस पड़ा। यह हंसी बड़ी भयानक थीं और पिशाच तो इसे कांप उठा था, फिर पिशाचनाथ के कान में एक आवाज पड़ी।


सुनकर और — यह सुनकर तो पिशाचनाथ की आंखों के समक्ष जैसे अंधेरा होने लगा । दिल कांप रहा था। अभी तक ऐयारी में शेर नजर आने वाला पिशाच इस समय चूहा नजर आ रहा था। जंगल में गूंजती एक आदमी की हंसी मानो उसके कानों के पर्दे फाड़ डालना चाहती थी ।

*****