तीन बजे के करीब गुलशन सोकर उठा।
वह नहाया धोया, उसने अपने कपड़े बदले और सड़क पर आ गया।
शाम का अखबार सड़क पर बिक रहा था।
उसने अखबार खरीदा, उसके मुख्यपृष्ठ पर निगाह पड़ते ही उसका दिल धक्क से रह गया। वहां मोटे मोटे अक्षरों में छपा हुआ था—
आसिफ अली रोड की धनाड्य महिला की हत्या।
उसने जल्दी जल्दी खबर पढ़ी और फिर अखबार को लपेट कर जेब में रख लिया।
पुलिस की रिपोर्ट के मुताबिक राजेश्वरी देवी दम घुटने से मरी थी।
उसे उसके के मुंह में रूमाल नहीं ठूंसना चाहिये था।
एकाएक उसका गला सूखने लगा। उसने गला तर करने के लिये जोर से थूक निगली। लेकिन उस क्रिया में उसे अपनी जुबान गले में फंसती महसूस हुई।
एक बात हथौड़े की ही तरह उसके जेहन पर दस्तक दे रही थी।
अब वह चोरी का नहीं, हत्या का भी अपराधी था।
सूरज चावड़ी बाजार में कूचा मीर आशिक के एक बड़े जर्जर से मकान के एक कमरे में रहता था। वह इकलौता डिब्बे जैसा कमरा भी उसने अपने काशीनाथ नाम के एक दोस्त के साथ मिलकर लिया हुआ था। उसका वह दोस्त अपने गांव गया हुआ था इसलिए उन दिनों वह वहां अकेला था।
वह भी कमरे में आते ही सो गया था और फिर दोपहर के काफी बाद सोकर उठा था।
उठ कर उसने रगड़ कर शेव की और नए कपड़े पहने।
सूरज शक्ल सूरत में किसी से कम नहीं था और रहन सहन का सलीका भी उसे था। वह कद में असाधारण रूप से लम्बा था इसलिए उसका गठीला कसरती बदन भी कपड़ों के नीचे छुप सा जाता था।
उसके व्यक्तित्व में दो ही बातें थीं जो उसके पहलवान होने की चुगल करती थीं—उसके चपटे कान और उसकी मोटी गरदन।
कमरे से निकलने से पहले उसने अपनी जेब से हीरे की अंगूठी निकाली और बड़ी प्रशंसात्मक निगाह से उसका मुआयना किया। उसे पूरी उम्मीद थी कि उस अंगूठी से उसका वह मतलब हल हो सकता था जिसके लिए उसने अपने साथियों के साथ दगाबाजी करके उसे चुराया था। उस अंगूठी का रौब मोहिनी पर गालिब हुए बिना नहीं रहने वाला था। उस अंगूठी की भेंट के बाद मोहिनी उससे बेरुखी का रवैया अख्तियार किए नहीं रह सकती थी। और फिर अंगूठी तो अभी ट्रेलर था। हीरे जवाहरात की बिक्री के बाद जो दौलत सूरज को हासिल होने वाली थी, उसका तो एक अंश ही मोहिनी के छक्के छुड़ा देने के लिए काफी था।
मोहिनी उस रेस्टोरेन्ट में बिल क्लर्क की नौकरी करती थी जिसमें कि उस कमरे में हिस्सेदार उसका दोस्त काशीनाथ वेटर था। एक बार वह उस रेस्टोरेन्ट में सूरज को ले कर गया था और उसी ने सूरज का मोहिनी से अपने दोस्त की सूरत में परिचय करवाया था। सूरज मोहिनी को देखते ही उस पर मर मिटा था। मोहिनी बेहद नौजवान और बेहद कमसिन लड़की थी। आज वह सूरज के साथ बेरुखी से पेश आती थी लेकिन शुरुआत में वह उसके साथ ऐसी मुहब्बत से पेश आई थी कि सूरज का दिल झूम गया था। उससे दोस्ती बढ़ाने के चक्कर में सूरज ने उस रेस्टोरेन्ट के बहुत चक्कर काटे थे और गांठ का बहुत पैसा गंवाया था।
लेकिन अब कम से कम पैसा उसकी समस्या नहीं बना रहने वाला था। बत्तीस सौ रुपए तो अभी ही उसकी जेब में थे और दस बारह लाख रुपये की धनराशि का स्वामी भी वह बहुत जल्द बनने वाला था।
अपनी जवाहरात वाली शनील की थैली पहले उसने अपने कमरे में ही अपने सामान में छुपा दी थी लेकिन इतना माल वहां आरक्षित छोड़ने के लिए उसका दिल नहीं माना था। उसने अपनी बनियान में दुकानदारों जैसी एक जेब लगाई थी और थैली को उसमें बन्द करके जेब का मुंह सी दिया था। उस वक्त वह अपने कपड़ों के नीचे वही बनियान पहने था। सौ सौ के बत्तीस नोट उसकी पतलून की जेब में थे।
वह बाजार में पहुंचा।
पैसा बचाने के लिए लम्बे लम्बे फासले पैदल तय करने वाला सूरज उस रोज बाजार में पहुंचते ही एक रिक्शा पर सवार हो गया।
उसने रिक्शा वाले को मोरी गेट चलने को कहा।
वहां मोहिनी रहती थी।
वह उस इमारत के सामने रिक्शा से उतरा जिसका एक कमरा मोहिनी ने किराये पर लिया हुआ था। वह मोहिनी की मकान मालकिन को भी जानता था।
उसने दरवाजे पर दस्तक दी तो एक अधेड़ औरत ने दरवाजा खोला।
“राम-राम मौसी।”—सूरज मीठे स्वर में बोला—“मोहिनी है?”
“सूरज बेटा।”—वह बोली—“मोहिनी तो दो दिन हुए अपना कमरा खाली कर गई।”
सूरज के दिल को धक्का सा लगा।
“अच्छा!”—उसके मुंह से निकला—“यूं एकाएक!”
“हां।”
“कहां गयी?”
“क्या पता कहां गई!”
“चिट्ठी-पत्री के लिए कोई पता तो छोड़ गई होगी?”
“कोई पता नहीं छोड़ गई, बेटा। वह तो आनन फानन ही कूच कर गई यहां से। वैसे अच्छा ही हुआ कि वह मेरा मकान खाली कर गई। बला छूटी। कौन सी कोई भली लड़की थी वो!”
“मौसी कुछ तो अन्दाजा तुम्हें जरूर होगा”—सूरज ने जिद की—“कि वह कहां चली गई और एकाएक क्यों चली गई?”
“सूरज बेटा, मुझे मालूम है मोहिनी के लिए तुम्हारे दिल में जो है, लेकिन तुम उसे भूल ही जाओ तो अच्छा है। मैं जानती हूं तुम कितने भले लड़के हो और तुम उससे कितना प्यार करते हो, लेकिन वह तुमसे प्यार नहीं करती। वह किसी से प्यार नहीं करती। वह किसी से प्यार करती है तो सिर्फ अपने आपसे। तुम उसका खयाल छोड़ दो, बेटा। सुखी रहोगे।”
लेकिन सूरज को वृद्धा की सीख कबूल नहीं थी। वह न मोहिनी का खयाल छोड़ना चाहता था और न उसके बिना सुखी रहना चाहता था।
“मौसी”—वह कर्कश स्वर में बोला—“लैक्चर छोड़ो और जो मैं पूछ रहा हूं उसका जवाब दो। साफ बोलो वह कहां चली गयी है! अगर तुमने मुझसे झूठ बोला तो भगवान कसम मुझसे बुरा कोई न होगा।”
“सूरज बेटा, वह एक खराब लड़की है। वह...”
“वो अच्छी है या खराब”—सूरज कहरभरे स्वर में बोला—“लेकिन गई कहां?”
“मैं नहीं बता सकती।”—वह कंपित स्वर में बोली—“यह बड़ी खतरनाक बात है।”
“क्यों?”
“यह बताना भी खतरनाक बात है कि यह क्यों खतरनाक बात है। तुम जाओ यहां से।”
“ऐसे तो मत गया मैं यहां से।”
“तुम...”
“देखो, मेरे सब्र का इम्तहान मत लो। फौरन मतलब की बात जुबान पर लाओ नहीं तो टेंटुवा दबा दूंगा।”
“तुम मेरे साथ ऐसा करोगे?”
“हां।”
उसने आहत भाव से सूरज को तरफ देखा और फिर बोली—“अच्छा, बताती हूं। लेकिन वादा करो कि तुम कभी यह नहीं कहोगे कि उसका पता तुम्हें मैंने बताया था।”
“मैं वादा करता हूं।”
“बजरंगबली की कसम खाकर वादा करो।”
“मैं बजरंगबली की कसम खाकर वादा करता हूं।”
“वो अब कर्जन रोड के एक आलीशान फ्लैट में रहती है।”
कर्जन रोड के सामने मोरीगेट के उस इलाके की शीशमहल के सामने झोंपड़ी जैसी औकात थी।
“कर्जन रोड पर कहां?”—उसने पूछा।
“नौ नम्बर इमारत में।”
“फ्लैट का नम्बर बोलो।”
“मुझे नहीं मालूम।”
सूरज ने आंखे तरेरकर उसकी तरफ देखा।
“कसम बजरंगबली की।”—वह बोली—“मुझे नहीं मालूम।”
सूरज कुछ क्षण सोचता रहा फिर दरवाजे पर से हट गया।
मौसी ने फौरन भड़ाक से दरवाजा बन्द कर लिया।
सूरज मोरीगेट के बस टर्मिनस पर पहुंचा और वहां से कनाट प्लेस की एक बस पर सवार हो गया।
सूरज कमउम्र था, औरतों के मामले में नातजुर्बेकार था, इसलिए वह मोहिनी की जात नहीं पहचानता था और उसके प्रति उसके मन में ऐसा सम्मोहन था। मोहिनी वेश्या तो नहीं थी लेकिन अपने किसी फायदे के लिये अपनी मेहरबानियां किसी को तश्तरी में रखकर पेश करने से उसे कोई गुरेज भी नहीं था। नौकरी करने में उसकी कोई रुचि नहीं थी। नौकरी उसे मजबूरन करनी पड़ती थी और वह उसे छोड़ने का हर क्षण बहाना तलाश करती रहती थी। वह समझती थी कि नौकरी करना या तो मर्दों का काम था और या उन लड़कियां का काम था जिन्हें भगवान ने उस जैसा रूप नहीं दिया था। वह सूरज के बलिष्ठ शरीर से तो बहुत प्रभावित हुई थी लेकिन ज्यों ही उसे मालूम हुआ था कि सूरज कड़का था तो उसने उसके प्रति बेरुखी का रवैया अख्तियार कर लिया था। ऐसे मर्दों के लिए उसकी जिन्दगी में कोई जगह नहीं थी जो दौलत के मुहाज पर नाकामयाब हो चुके थे। अब वह खुश थी कि उसे एक बहुत पैसे वाले आदमी की छत्रछाया हासिल हो गई थी और रेस्टोरेण्ट की उस दो टके की नौकरी से और मोरीगेट के उस गन्दे मकान से उसे निजात मिल गई थी।
वह आदमी दारा के नाम से जाना जाता था और वह पुरानी दिल्ली का बहुत बड़ा गैंगस्टर था।
मोहिनी उसे फौरन पसन्द आ गई थी और फौरन ही वह उस पर इतना मेहरबान हो गया था कि उसने उसे कर्जन रोड वाला अपना वह फ्लैट दे दिया था जो काफी अरसे से खाली पड़ा था और उसे इतने कपड़े खरीदकर दिये थे कि मोहिनी सबको अभी एक-एक बार भी नहीं पहन पाई थी।
सूरज कनाट प्लेस में सुपर बाजार के आगे बस में से उतरा और पैदल कर्जन रोड की ओर बढ़ा।
नौ नम्बर इमारत उसने बड़ी सहूलियत से तलाश कर ली। वह एक नयी बनी बहुमंजिला इमारत थी। इमारत में दर्जनों फ्लैट थे। अब उसने यह मालूम करना था कि उनमें से मोहिनी कौन-से फ्लैट में थी।
उसने लॉबी में लगी नेम प्लेट पढ़नी शुरू कीं।
मोहिनी का किसी नेम प्लेट पर नाम लिखा होने की उम्मीद तो उसे नहीं थी, लेकिन वहां उसकी अक्ल किसी और तरीके से काम कर गई। उसे केवल एक फ्लैट नम्बर ऐसा लिखा दिखाई दिया, जिसके आगे कोई नेम प्लेट नहीं थी।
वह फ्लैट तीसरी मंजिल पर था।
वह तीसरी मंजिल पर पहुंचा।
उसने कालबैल बजाई और प्रतीक्षा करने लगा। उसका दिल नाहक जोर-जोर से धड़कने लगा था।
दरवाजा खुला।
चौखट पर गुड़िया-सी सजी मोहिनी प्रकट हुई।
सूरज पर निगाह पड़ते ही उसके चेहरे पर गहन वितृष्णा के भाव प्रकट हुए।
“तुम!”—उसके मुंह से निकला।
“नमस्ते।”—सूरज उसकी कीमती पोशाक पर निगाह डालता धीरे से बोला। अब इस बात में शक की कोई गुंजायश नहीं रही थी कि मोहिनी ने किसी बड़े आदमी की रखैल बनना स्वीकार कर लिया था। उसने मन-ही-मन निश्चय कर लिया कि वह उसे ऐसी गन्दी जिन्दगी से निजात दिला कर रहेगा। वह नहीं जानता था कि जिस जिन्दगी को वह गन्दी करार दे रहा था, वह मोहिनी को पसन्द थी और वह उसने खुद, बिना किसी की जोर-जबरदस्ती के चुनी थी।
“क्या चाहते हो?”—वह रुखाई से बोली।
“मैं जरा बात करना चाहता हूं तुमसे।”—वह बोला।
“मैं तुमसे बात नहीं करना चाहती। तुम जाओ यहां से।”
“मैं तुम्हारे लिये एक चीज लाया हूं।”
“मुझे नहीं चाहिए कोई चीज। फूटो।”
“कम-से-कम देख तो लो मै क्या लाया हूं!”
“कोई जरूरत नहीं। अब जाओ यहां से।”
और उसने दरवाजा बन्द करने की कोशिश की।
लेकिन सूरज ने पहले ही चौखट में अपना ग्यारह नम्बर का जूता अड़ा दिया। दरवाजा बन्द न हो सका। उसने अपने कन्धे का एक जोर का धक्का दरवाजे को दिया तो दरवाजा मोहिनी के हाथ से छूट गया। वह लड़खड़ाकर दो कदम पीछे हट गई। सूरज फ्लैट में दाखिल हो गया।
मोहिनी बगल के एक दरवाजे के भीतर घुस गई। उसने वह दरवाजा भी बन्द करने की कोशिश की लेकिन सूरज ने उसे कामयाब न होने दिया। वह उसके पीछे-पीछे उस दरवाजे के भीतर दाखिल हो गया।
वह एक बड़े सलीके से सजा हुआ ड्राइंगरूम था। सेण्टर टेबल पर एक ऐश-ट्रे पड़ी थी जो सिगरेट के टुकड़ों से भरी हुई थी। उसे देखकर सूरज के नेत्र सिकुड़ गये।
मोहिनी कमरे के मध्य में खड़ी विचलित भाव से उसे देख रही थी।
“दफा हो जाओ।”—वह बिल्ली की तरह गुर्राई।
“मेरी बात सुनो...”
“तुम यहां पहुंच कैसे गए? जानते नहीं हो यह जगह...”
“एक मिनट... एक मिनट मेरी बात सुनो।”
“क्यों सुनूं? तुम क्या लगते हो मेरे? तुम्हें क्या हक है यूं जबरदस्ती यहां घुस आने का?”
“अरे, कुछ सुनेगी भी”—सूरज झल्लाकर बोला—“या बोले ही जायेगी?”
मोहिनी सकपकाई। फिर वह बदले स्वर में बोली—“ठीक है। जल्दी बोलो, क्या कहना चाहते हो?”
“बैठ जाओ।”
“ऐसे ही बोलो।”
“बैठती है कि नहीं!”—सूरज चिल्लाया।
मोहिनी सहमकर एक सोफे पर बैठ गई।
सूरज भी उसके सामने बैठ गया। वह कुछ क्षण अपने-आप पर काबू करने की कोशिश करता रहा और फिर मीठे स्वर में बोला—“देखो, मेरी जान...”
“मैं तुम्हारी जान नहीं हूं।”—वह तमककर बोली।
“नहीं हो तो हो जाओगी।”
“मैं...”
“देखो, अब मैं पहले वाला सूरज नहीं रहा। मेरे हालात ने ऐसी करवट बदली है जिसकी तुम कल्पना नहीं कर सकतीं। अब मैं पैसे वाला आदमी हो गया हूं।”
“अच्छा!”—वह व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोली।
“और यह देखो मैं क्या लाया हूं तुम्हारे लिए!”
उसने जेब से अंगूठी निकाल कर मोहिनी के सामने की।
मोहिनी कतई प्रभावित नहीं हुई।
“क्या है यह?”—वह बोली।
“हीरे की अंगूठी है।”
उसने एक उचटती निगाह फिर अंगूठी पर डाली और लापरवाही से बोली—“नकली होगी।”
“अरे, यह एकदम असली हीरे की अंगूठी है।”
“कहां से मारी?”
“मैंने खरीदी है।”
“क्या कहने!”
“मैने नकद पैसे देकर खरीदी है।”
“तुम्हारे पास और पैसे!”
“यह देखो।”—सूरज ने जेब से सौ-सौ के नोटों का पुलन्दा निकाल कर उसे दिखाया।
नोटों की झलक ने भी मोहिनी पर वह प्रभाव न छोड़ा जिसकी कि वह अपेक्षा कर रहा था।
सूरज को बहुत मायूसी हुई।
“ठीक है”—वह लापरवाही से बोली—“तुम्हारे हाथ कहीं से चार पैसे लग गए हैं। लेकिन मुझे क्या!”
“तुम्हें है।”—सूरज ने जिद की—“तुम्हें होना चाहिए। यह बहुत कीमती, बहुत शानदार अंगूठी है। यह किसी राजकुमारी की उंगली पर ही सज सकती है। इसे मैं तुम्हारे लिए लाया हूं। समझ लो यह सगाई की अंगूठी है।”
“क्या!”
“मैं तुमसे शादी करना चाहता हूं, मेरी जान। लो, पहन लो यह अंगूठी। और अपना यह बेरुखी का रवैया छोड़ो।”
मोहिनी ने अंगूठी की तरफ हाथ न बढ़ाया।
“मुझे अंगूठी पहनाते ही पूछोगे”—वह बोली—“कि बैडरूम कहां है?”
“मैंने आज तक तुमसे कभी ऐसी बात की है?”—वह आहत भाव से बोला—“मोहिनी, मैं तुमसे शादी करना चाहता हूं और तुम्हें बहुत सुख से रखना चाहता हूं।”
मोहिनी ने जोर का अट्टहास किया।
“यह मजाक की बात नहीं है।”—सूरज कठिन स्वर में बोला।
“यह मजाक की बात नहीं है तो और क्या है?”—वह पूर्ववत् हँसती हुई बोली—“तुम मुझसे शादी करना चाहते हो! मुझे सुख से रखना चाहते हो! मैं क्या जानती नहीं तुम्हारी औकात को! कहीं से चार पैसे मार लाए हो तो मोहिनी के मालिक बनने के सपने देखने लगे हो। इस अंगूठी में जड़े हीरे की तुम मुझे रिश्वत देना चाहते हो। तुम सारी दुनिया जहान के हीरे लाकर मेरे कदमों में रख दो तो भी मैं तुम्हारी नहीं बन सकती। समझे!”
“समझा।”—सूरज दांत पीसता बोला—“यह भी समझा कि तुम कितनी कमीनी, कितनी गिरी हुई लड़की हो। तुम्हें एक शरीफ आदमी की बीवी बनना कबूल नहीं, लेकिन किसी ऐसे जलील बूढ़े बैल की रखैल बनना कबूल है जो तुम्हें इस शानदार फ्लैट में रख सकता है, जो तुम्हें ये कीमती पोशाकें खरीद कर दे सकता है, जो तुम्हें...”
मोहिनी उछल कर खड़ी हुई। उसकी मुट्ठियां भिंच गयीं और नथुने फूल गए।
“तुम्हारी यह मजाल!”—वह कहरभरे स्वर में बोली—“तुम मुझ पर किसी बूढ़े आदमी की रखैल होने का इलजाम लगा रहे हो!”
“हां।”—सूरज बोला—“तुम्हारे जैसी लड़की को इतने ठाटबाट किसी विलासी बूढ़े से ही हासिल हो सकते हैं। लेकिन ये सब भी वक्ती ही समझो।”
“क्या!”
“यह चार दिन की चांदनी है, मेरी जान। ज्यों ही तुम्हारे यार को तुम्हारी औकात पता लगेगी, उसे पता लगेगा कि उसने पीतल को सोने के दामों में खरीदा है तो उसकी मेहरबानियों की छतरी तुम्हें अपने सिर पर नहीं दिखाई देगी। देर सवेर उसे मालूम होना ही है कि उसने तुम्हारी बहुत ज्यादा कीमत लगा दी है, हकीकतन तुम बहुत सस्ती हासिल होने वाली चीज थीं, तब...”
“तुम्हारे मुंह में खाक।”—वह बिफरकर बोली—“निकल जाओ यहां से। दफा हो जाओ।”
“जाता हूं।”—सूरज उठता हुआ बोला—“मैं खुद यहां नहीं ठहरना चाहता। तुम्हारे जैसी छोकरियां दिल्ली शहर में टके की तीन मिलती हैं। मेरा दिमाग खराब हो गया था जो इतनी कीमती अंगूठी और इस अंगूठी के पीछे छुपा वह मान-सम्मान, जो सिर्फ इज्जतदार औरतों को हासिल होता है, मैं तुम्हें दे रहा था। रखैल की नई जिन्दगी मुबारक हो तुम्हें, मोहिनी बाई।”
“तुमने मुझे बाई कहा?”
“हां।”
“तुम जानते नहीं हो मैं तुम्हारी क्या गत बनवा सकती हूं!”
“क्या गत बनवा सकती हो?”
“मैं तुम्हारे टुकड़े-टुकड़े करवा सकती हूं। मैं तुम्हारी लाश जमना में फिंकवा सकती हूं।”
“किससे करवाओगी यह काम? अपने उस बूढ़े यार से जिसकी कि तुम रखैल हो?”
“वह बूढ़ा नहीं है।”—उसके मुंह से निकला।
“यानी कि मेरी आधी बात गलत है, आधी बात ठीक है। वह बूढ़ा नहीं है लेकिन तुम रखैल हो।”
“सूरज।”—वह दांत पीस कर बोली—“अगर अपना भला चाहते हो तो...”
“जाता हूं। जाता हूं। अब खुद मुझे यहां एक क्षण भी और ठहरना गवारा नहीं। नमस्ते, मोहिनी बाई।”
वह घूमा और लम्बे डग भरता वहां से बाहर निकल गया।
मोहिनी फ्लैट के मुख्यद्वार तक उसके पीछे-पीछे आयी। वह निगाह से ओझल हो गया तो उसने फ्लैट का दरवाजा भीतर से बन्द कर लिया।
वह कुछ क्षण वहीं ठिठकी खड़ी अपनी सांसों को व्यवस्थित करती रही फिर ड्राइंगरूम पार करके बैडरूम में पहुंची।
वहां पलंग पर अधलेटा-सा बैठा एक आदमी शाम का अखबार पढ़ रहा था।
मोहिनी उसके सामने जा खड़ी हुई।
उसने अखबार पर से फौरन सिर न उठाया।
वह लगभग चालीस साल का, साफ सुथरे नयन-नक्श वाला, बहुत रोबदार चेहरे वाला आदमी था। उसके कन्धे चौड़े थे, कमर पतली थी और हाथ-पांव बलिष्ठ थे। वह एक कीमती पोशाक पहने था।
वह दारा था।
दारा के व्यक्तित्व में एक ही कमी थी जिसे वह कभी नहीं छुपा पाता था। उसके चेहरे पर कुलीनता की वो छाप नहीं थी, जो बड़े घरों में पैदा हुए होने वाले व्यक्तियों के चेहरे पर होती थी। अपने तमाम रख-रखाव के बावजूद किन्हीं पारखी निगाहों से यह हकीकत नहीं छुपी रह सकती थी कि वह गन्दी गलियों की पैदायश था।
अन्त में दारा ने अखबार पर से सिर उठाया।
“गया?”—वह भावहीन स्वर में बोला।
“हां।”—मोहिनी ने नर्वस भाव से उत्तर दिया।
“कौन था?”
“यूं ही एक लड़का था। जिस रेस्टोरेन्ट में मैं नौकरी करती थी वहां आया करता था। खामखाह मुझ पर लार टपकाता रहता था। खुद मेरा उससे कभी कोई वास्ता नहीं रहा।”
“तुमने उसे सूरज के नाम से पुकारा था?”
“हां।”
“पूरा नाम क्या है उसका?”
“सूरजसिंह डबराल।”
“यह वही सूरजसिंह तो नहीं जो कभी दिल्ली के दंगल में उतरा करता था और मास्टर चन्दगीराम का शार्गिद था?”
दारा खुद कुश्ती का बहुत शौकीन था। वह दिल्ली के छोटे-बड़े सब पहलवानों को जानता था।
“वही होगा।”—मोहिनी विचलित भाव से बोली—“मैं ज्यादा कुछ नहीं जानती उसके बारे में।”
“वह तुम्हें एक अंगूठी दे रहा था?”
“हां।”—मोहिनी खोखली हँसी हँसी—“कहता था असली हीरे की थी। बताओ तो। उसके पास और असली हीरे की अंगूठी!”
“और क्या दे रहा था वह तुम्हें?”
“दे नहीं रहा था। दिखा रहा था।”
“क्या?”
“सौ सौ के नोटों का एक पुलन्दा। चार पांच हजार रुपए तो जरूर रहें होंगे।”
दारा ने फिर अखबार के मुख्यपृष्ठ पर मोटी सुर्खियों में छपी खबर पर निगाह डाली। वह आसिफ अली रोड पर हुए कत्ल और चोरी की खबर की खबर पढ़ ही रहा था कि सूरज की सूरत में वहां व्यवधान आ गया था। चोरी गए कीमती जेवरात में जगत प्रसिद्ध फेथ डायमण्ड का भी जिक्र था जो हत्प्राण के ड्राइवर के कथनानुसार हत्प्राण पिछली रात पहने हुए थी। रुपयों का जिक्र अखबार में नहीं था लेकिन यह जरूर छपा था कि लाश के समीप पाए गए हत्प्राण के हैंडबैग में से नकदी बरामद नहीं हुई थी।
कल रात चोरी हुई और आज एक पिटा हुआ पहलवान, एक मामूली छोकरा हीरों की अंगूठी की और नोटों के पुलन्दे की नुमायश कर रहा था।
“यह”—दारा ने पूछा—“सूरज रहता कहां है?”
मोहिनी हिचकिचाई।
“सूरज”—दारा उसे घूरता हुआ पूर्ववत् भावहीन स्वर में बोला—“कहां रहता है?”
“चावड़ी बाजार में।”—मोहिनी जल्दी से बोली—“कूचा मीर आशिक में।”
“मकान नम्बर?”
“नहीं मालूम।”
“मालूम हो जाएगा। तुम्हारा कोई बूढ़ा यार भी है?”
“बूढ़ा यार!”—मोहिनी घबरा कर बोली।
“जिसका वह बार-बार जिक्र कर रहा था। यहां तक आवाजें साफ नहीं पहुंच रही थी इसलिए मैं ठीक से सारा वार्तालाप नहीं सुन सका था।”
“पता नहीं क्या बक रहा था। दारा, वह खामखाह मुझे जलील करने की कोशिश कर रहा था। वह मुझसे जलता है।”
“हूं! देखो, जो लड़कियां अपने बाप की उम्र के लोगों से रिश्ता रखती हैं, उन्हें मैं किसी हद तक बर्दाश्त कर सकता हूं लेकिन जिन्हें अपने दादा परदादा की उम्र के आदमी के आगे बिछने से भी गुरेज नहीं, उन्हें मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता। बद्कारी की भी कोई हद होती है।”
“तुम मुझे यह क्यों सुना रहे हो, दारा?”—मोहिनी रुआंसे स्वर में बोली—“मेरा तुम्हारे सिवाय किसी से कोई वास्ता नहीं है, चाहो जिसकी मर्जी कसम खिलवा लो।”
“जानकर खुशी हुई।”—वह शुष्क स्वर में बोला और पलंग पर से उठ खड़ा हुआ—“मैं चलता हूं।”
“अभी रुको न।”—मोहिनी आगे बढ़ कर उसके साथ लगती हुई बोली—“अभी तो आए हो!”
“नहीं! एक निहायत जरूरी काम को मेरी तवज्जो की फौरन जरूरत है।”
“काम तो होते ही रहते हैं!”
“अब मूड भी नहीं रहा।”—दारा उसे धीरे से परे धकेलता हुआ बोला।
मोहिनी परे खड़ी आहत भाव से उसे देखती रही।
उस पर दोबारा निगाह डाले बिना वह फ्लैट से निकल गया।
वह नीचे सड़क पर पहुंचा।
अपनी लाल रंग की डीजल की शेवरलेट कार उसने इमारत से काफी परे खड़ी की थी। उस कार पर वह ऐसी जगह कभी नहीं जाता था, जहां वह चोरी छुपे जाना चाहता था। आज इत्तफाक से और कोई गाड़ी उपलब्ध नहीं थी इसलिए उसे वह गाड़ी इस्तेमाल करनी पड़ी थी और इसीलिए उसने उसे नौ नम्बर इमारत से परे खड़ा किया था।
डीजल की वह लाल शेवरलेट पुरानी दिल्ली में हर किसी को मालूम था—सूरज को भी मालूम था—कि दारा की थी, लेकिन सूरज की निगाह दारा की गाड़ी पर न आती बार पड़ी थी और न जाती बार।
शाम आठ बजे के करीब तीनों दोस्त पूर्वनिर्धारित स्थान पर दोबारा मिले।
वह पूर्वनिर्धारित स्थान जामा मस्जिद के ऐन सामने स्थित एक रेस्टोरेण्ट था। रेस्टोरेण्ट का मालिक वहां चोरी-छुपे बार भी चलाता था और ड्राई डे वाले दिन बड़े-बड़े सफेदपोशों को शराब बेचना उसका प्रमुख काम था।
वे तीनों दरवाजे से काफी परे हटकर एक तनहा कोने में लगी एक मेज के गिर्द बैठे थे।
तब तक पिछली रात हुई राजेश्वरी देवी की मौत की खबर तीनों को लग चुकी थी और वे उस बुरी खबर से काफी फिक्रमन्द दिखाई दे रहा थे।
सबसे पहले उन्होंने खामोशी से उस रकम का बंटवारा किया जो सूरज सफदर हुसैन नामक सुनार के हाथ सोना और प्लैटीनम बेचकर लाया था।
हर किसी के हिस्से में चार-चार हजार रुपये आये।
तीनों चिन्तित भाव से चाय की चुस्कियां मार रहे थे और कोशिश कर रहे थे कि राजेश्वरी देवी की मौत का जिक्र उनकी जुबान पर न आये, हालांकि उस बारे में कुछ कहकर दिल का बोझ हल्का करने के लिए वे मरे भी जा रहे थे।
“मौलाना को भी”—एकाएक जगदीप बोला—“खबर लगी होगी उस... हादसे की।”
“हां”—गुलशन गम्भीरता से बोला—“और वह बहुत खौफ खाये हुये है। अखबार में वह खबर छपने के बाद मेरी उससे बात हुई थी। मौजूदा हालात में वह नहीं चाहता कि हम उसके पास भी फटकें। उसने यह भी कहा है कि हम अपने माल की फिलहाल किसी को हवा भी न लगने दें। यानी कि अगर हममें से कोई माल को खुद बेच सकता हो तो भी वह ऐसा न करे।”
“जो काम वह तीन दिन में करने वाला था, उसे अब वह करेगा या नहीं?”
“मालूम नहीं। मैं उससे गुप्त रूप से मिलने की कोई सूरत निकालूंगा। तभी मालूम हो पायेगा कि आगे क्या मर्जी है उसकी।”
“यानी कि वह उस काम से हाथ खींच भी सकता है!”
“हां!”
“तुमने खामखाह उस औरत के मुंह में रूमाल ठूंसा। बेहोश तो वह थी ही। मगर तुम...”
“बको मत।”—गुलशन तनिक गुस्से से बोला—“अगर तुम इतने ही उस्ताद हो तो उसी वक्त क्यों नहीं बके थे कि मुझे ऐसा नहीं करना चाहिये था? अब वह इत्तफाक से टें बोल गई है तो तुम इस काम की सारी जिम्मेदारी मुझ पर थोपना चाहते हो?”
“मेरा यह मतलब नहीं था।”—जगदीप हड़बड़ाकर बोला।
“और क्या मतलब था तुम्हारा?”
जगदीप ने उत्तर नहीं दिया। उसने बेचैनी से पहलू बदला और परे देखने लगा। कत्ल में अपनी शिरकत उसे मन्जूर नहीं थी।
तभी गुलशन को ऐसा अहसास हुआ जैसे उनसे दो मेजें परे बैठा एक आदमी बड़ी गौर से सूरज का मुआयना कर रहा था। सूरज की उस आदमी की तरफ पीठ थी लेकिन फिर भी उस आदमी की सारी तवज्जो सूरज की तरफ लगी मालूम होती थी।
गुलशन ने गौर से सूरज की तरफ देखा। उसे हमेशा के मुकाबले में सूरज कुछ गुमसुम लगा।
“सूरज!”—गुलशन बोला—“उस औरत के अंजाम ने तुम्हें भी बहुत फिक्र लगा दी लगती है।”
“नहीं, नहीं।”—सूरज ने हड़बड़ाकर अपने चाय के कप से सिर उठाया—“ऐसी कोई बात नहीं।”
“फिर भी!”
“मैं तुम लोगों के साथ हूं। जो होगा, देखा जायेगा।”
“तुमने कोई ऐसी हरकत तो नहीं की जिसे विश्वास की हत्या का दर्जा दिया जा सकता हो?”
“न... नहीं।”—सूरज तनिक चौंककर बोला—“नहीं तो!”
“हूं।”
“ऐसा क्यों कहा तुमने?”
“जो मैं कहूं, उसे गौर से सुनना।”—गुलशन तनिक आगे को झुककर बेहद गम्भीर स्वर में बोला—“और घूमकर पीछे मत देखना। हमसे दो मेजें परे तुम्हारे पीछे एक आदमी बैठा है जो सिर्फ तुम पर निगाह जमाये हुये है। वह एक पतला-सा आदमी है जो भूरे रंग की कमीज पतलून पहने है। उसके गले में फूलदार लाल रूमाल बंधा हुआ है।”
“मैं ऐसे किसी आदमी को नहीं जानता।”—सूरज जल्दी से बोला।
“शायद जानते होवो। जब मैं कहूं तब घूमकर उसका चौखटा देखना।”—लगभग फौरन ही वह बोला—“देखो।”
सूरज और जगदीप दोनों ने फौरन गरदनें घुमायीं और उस आदमी पर निगाह डाली जो कि उस वक्त एक सिगरेट सुलगाने में व्यस्त था। सिगरेट सुलगा चुकने के बाद जब उसने सिर ऊपर उठाया तो दोनों ने फौरन उस पर से निगाह हटा ली।
“जानते हो?”—गुलशन से सवाल किया।
जगदीप ने फौरन इनकार में सिर हिला दिया लेकिन सूरज बोला—“मैं इसका नाम नहीं जानता लेकिन जामा मस्जिद के होटलों के गिर्द मैंने इसे अक्सर मंडराते देखा है।”
“काम क्या करता है?”
“मेरे खयाल से दल्ला है। होटलों में ठहरे यात्रियों के लिये लड़कियां मुहैया कराता है।”
“फिर यह जरूर दारा का आदमी होगा। इस इलाके में यह काम दारा की सरपरस्ती के बिना नहीं चल सकता। रहता कहां है?”
“पता नहीं।”
“लगता है उसे अहसास हो गया है कि हमें उसकी खबर लग गई है। पहले वह सिर्फ तुम्हारी तरफ देख रहा था लेकिन अब वह तुम्हारी तरफ देखने के अलावा हर तरफ देख रहा है।”
सूरज खामोश रहा। जब से गुलशन ने दारा का नाम लिया था, उसकी दिल की धड़कन तेज हो गई थी। मोहिनी की कई बातें हथौड़े की तरह उसके जहन में बजने लगी थीं :
“मैं तुम्हारे टुकड़े-टुकड़े करवा सकती हूं।”
“मैं तुम्हारी लाश जमना में फिंकवा सकती हूं।”
“वह बूढ़ा नहीं है।”
उस लाल रूमाल वाले का सूरज के पीछे लगा होना साबित करता था कि वह जरूर दारा आदमी था जिसकी कि मोहिनी रखैल बन चुकी थी।
और वह मोहिनी को चोरी के माल का अंग हीरे की अंगूठी और सौ-सौ के नोटों का मोटा पुलन्दा दिखा आया था।
कैसा अक्ल का अन्धा साबित हुआ था वह!
आशिकी में कैसी भयंकर भूल कर बैठा था!
उसने अपने दोस्तों के विश्वास की हत्या की थी।
उसने अपने लिये ही नहीं, अपने दोस्तों के लिये भी मुसीबत का सामान किया था।
मोहिनी ने जरूर दारा को उसके पास मौजूद हीरे की अंगूठी और नोटों के मोटे पुलन्दे के बारे में सब कुछ बता दिया था।
भगवान न करे उसकी मूर्खता की वजह से दारा चोरी के माल की सूंघ में लग गया हो।
लेकिन सूरज ने वे तमाम बातें मन में ही सोचीं। उसने अपने साथियों के विश्वास की हत्या की थी, लेकिन अपना गुनाह उनके सामने कबूल कर लेने का उसका कोई इरादा नहीं था। आखिर वे भी तो कोई दूध के धुले नहीं थे। क्या पता उन्होंने सूरज से ज्यादा बड़ी गलतियां की हों जो कि वे उसे बता न रहे हों।
और फिर गुलशन का खयाल गलत भी हो सकता था। जरूरी नहीं था कि वह आदमी उसी की निगरानी कर रहा हो। वह उसी इलाके का पंछी था। उसकी उस रेस्टोरन्ट में मौजूदगी इत्तफाकिया भी हो सकती थी।
“क्या सोच रहे हो?”—गुलशन बोला।
“कुछ नहीं।”—सूरज अपने स्वर को भरसक सन्तुलित करता बोला—“गुरु, इस आदमी के मेरे पीछे पड़ने की कोई वजह मेरे पल्ले तो पड़ नहीं रही!”
गुलशन खामोश रहा। चिन्तित वह उस आदमी की वजह से नहीं था, चिन्तित वह इस वजह से था कि वह दारा का आदमी था। दारा से वह कभी मिला नहीं था लेकिन उसने दारा के चर्चे बहुत सुने हुये थे। चान्दनी चौक और आसिफ अली रोड के बीच का सारा इलाका दारा का माना जाता था। उस इलाके में नाजायज शराब का धन्धा, जुआ, वेश्यावृति, पॉकेटमारी, चरस और मछली के तेल की स्मगलिंग जैसा कोई धन्धा उसकी जानकारी और हिस्सेदारी के बिना नहीं चल सकता था। वहां जो कुछ भी होता था, दारा के नाम पर होता था, दारा की शह पर होता था। पुलिस आज तक उसके खिलाफ कोई केस नहीं बना सकी थी, क्योंकि पुलिस का धन्धा मुखबिरी से चलता था और दारा के इलाके में किसी की उसके खिलाफ मुखबिर बनने की हिम्मत नहीं होती थी, होती थी तो दारा उसके मुखबिर बन पाने से पहले ही उसका पत्ता साफ करवा देता था।
“गुरु”—सूरज कह कह रहा था—“मुझे तो यह तुम्हारा वहम ही लगता है कि यह आदमी मेरी निगरानी कर रहा है।”
“तुम्हारी माशूक का क्या हाल है?”—गुलशन ने उसकी राय को नजरअन्दाज करते सवाल किया।
“कौन-सी माशूक?”—सूरज हड़बड़ाया।
“सौ-पचास माशूक हैं तुम्हारी? मैं मोहिनी की बात कर रहा हूं।”
“ओह! वह!”—सूरज जबरन हंसा—“वह अब मेरी माशूक नहीं रही।”
“क्यों, क्या हुआ?”
“अब वह किसी की रखैल बन गई है। बढ़िया फ्लैट में रहती है। कीमती पोशाकें पहनती है। ऐश करती है।”
“किसकी रखैल बन गई है?”
“पता नहीं।”
“दारा की ही रखैल तो नहीं बन गई? मैंने सुना है दारा औरतों का बहुत रसिया है।”
“कहा न, इस बारे में मुझे कुछ पता नहीं।”—वह उखड़े स्वर में बोला।
“मोहिनी से हाल ही में मिले तुम?”
“न... नहीं। जब से उसने अपना मोरी गेट वाला कमरा छोड़ा है, तब से मेरी मुलाकात नहीं हुई उससे।”
उत्तर देने में उसने जो हिचकिचाहट दिखाई थी, वह न गुलशन से छुप सकी और न जगदीप से। दोनों की आंखों में सन्देह की छाया तैर गई।
“अब कहां रहती है?”—गुलशन ने पूछा—“कहां है उसका वह बढ़िया फ्लैट?”
“सुना है कर्जन रोड पर कहीं है।”—सूरज लापरवाही से बोला।
“सुना है?”
“हां। अरे, गुरु, तुम यह मुझसे वकीलों की तरह जिरह क्यों कर रहे हो? मोहिनी का या दारा का हमारे वाले चक्कर से क्या रिश्ता?”
“रिश्ता गले में लाल रूमाल लपेटे तुम्हारे पीछे बैठा है।”—गुलशन शुष्क स्वर में बोला—“अगर रिश्ता नहीं है तो दारा का यह आदमी क्यों तुम्हारे पीछे लगा हुआ है?”
“यह तुम्हारा वहम है कि वह मेरे पीछे...”
“सूरज, तुमने जरूर अपने सौ-सौ के नोटों के पुलन्दे की कहीं नुमायश की है।”
“मैंने नहीं की। मैं क्या पागल हूं जो...”
“ताव मत खाओ।”
“और इस आदमी को भी तुम खामखाह मेरे सिर थोप रहे हो। मैं फिर कहता हूं कि तुम्हारा वहम है कि यह मेरे पीछे लगा हुआ है।”
“वहम है तो इसे अभी रफा किया जा सकता है।”
“कैसे?”
“अभी यह भी पता लग जायेगा कि यह तुम्हारे पीछे है या नहीं और यह भी पता लग जायेगा कि वह दारा का आदमी है या नहीं!”
“कैसे? कैसे?”
“तुम अपनी चाय खत्म करो, हमसे विदा लो और यहां से उठकर चल दो। अगर यह आदमी तुम्हारे पीछे लगा तो हम इसके पीछे लग लेंगे। फिर हम तीन जने क्या इस अकेले आदमी से यह नहीं कबुलवा सकते कि यह क्या बेचता है?”
“यह ठीक है।”—जगदीप फौरन बोला।
“मैं उठकर कहां जाऊं?”—सूरज तनिक विचलित स्वर में बोला।
“डर रहे हो?”
“हरगिज भी नहीं।”—सूरज फिर हड़बड़ाया—“मैं तो सिर्फ यह पूछ रहा हूं कि यहां से निकलकर मैं जिधर मर्जी चल दूं या कोई खास रास्ता पकड़ूं?”
“तुम यहां से दरियागंज की तरफ जाना। अंसारी रोड और सुभाष मार्ग के चौराहे से बाएं घूम कर पैट्रोल पम्प के सामने से लाल किले की दीवार के साथ साथ बनी सड़क पर चल देना। रात को वह सड़क सुनसान होती है और वहां अंधेरा होता है। अगर यह आदमी तुम्हारे पीछे लगा होगा तो हम वहीं सैंडविच बना देंगे पट्ठे की।”
“ठीक है।”
“वहां तुम एकाएक वापिस घूमोगे तो यह भी वापिस घूम पड़ेगा। लेकिन पीछे हम होंगे। हम मार मार कर भुस भर देंगे स्साले में।”
“बढ़िया।”
सूरज ने अपना चाय का कप खाली कर दिया।
और एक मिनट बाद वह उठ खड़ा हुआ। उसने दोनों से हाथ मिलाया और उन्हें पीछे बैठा छोड़ कर बिना लाल रूमाल वाले की तरफ निगाह डाले लम्बे डग भरता वहां से निकल गया।
उसके रेस्टोरेन्ट से बाहर कदम रखते ही लाल रूमाल वाला भी उठ खड़ा हुआ और दरवाजे की ओर बढ़ा। रास्ते में बिना ठिठके उसने काउन्टर पर एक सिक्का उछाला और वहां से बाहर निकल गया।
गुलशन और जगदीप भी उठ खड़े हुए।
“क्या घपला किया है पहलवान ने?”—वे बाहर सड़क पर पहुंचे तो गुलशन के साथ साथ चलता जगदीप चिंतित भाव से बोला।
“पता नहीं।”—गुलशन बोला—“लेकिन कुछ किया जरूर है पट्ठे ने। और जो कुछ भी इसने किया होगा, अपनी उस मोरी गेट वाली छोकरी पर रोब गांठने की फिराक में ही किया होगा। जरूर उसके सामने बड़ की हांक बैठा होगा कि अब वह पैसे वाला आदमी हो गया था। इससे ज्यादा कुछ करने का हौसला तो शायद ही हुआ होगा इसका।”
“इतना क्या कम है?”
“बहुत ज्यादा है। साले को खासतौर से समझाया था कि उसने किसी को भनक भी नहीं लगने देनी थी कि उसके पास कोई माल पानी था।”
“अगर वह लड़की दारा की रखैल निकली और दारा हमारे माल के पीछे पड़ गया तो बहुत मुश्किल हो जाएगी।”
“जो होगा सामने आ जायेगा। फिलहाल तो हर बात के साथ ‘अगर’ ही लगा दिखाई दे रहा है।”
जगदीप खामोश हो गया।
भीड़भरे मछली बाजार में लाल रूमाल वाला उधर ही चला जा रहा था, जिधर सूरज गया था।
वो दोनों भी उधर ही हो लिए।
जगत सिनेमा से आगे भीड़ कम थी। वहां दोनों ने अपने और लाल रूमाल वाले के बीच का फासला बढ़ा लिया।
सूरज बिना पीछे निगाह डाले लापरवाही से चलता आगे चौराहे की तरफ बढ़ा जा रहा था।
चौराहे से वह बाएं घूमा और फिर सड़क पार करके दाएं हो लिया।
पैट्रोल पम्प के सामने से वह किले की खायी के साथ साथ बनी उजाड़ सड़क पर हो लिया।
लाल रूमाल वाला भी उधर ही बढ़ा।
अब गुलशन को गारण्टी हो गई कि वह सूरज के ही पीछे लगा हुआ था।
उस सड़क पर थोड़ा और आगे बढ़ जाने के बाद एकाएक सूरज ठिठका और तुरन्त वापिस घूमा।
लाल रूमाल वाला उस वकत उसके दस बारह कदम ही पीछे था। सूरज को लौटता पाकर वह हड़बड़ाया और फिर वह भी घूम कर वापिस चलने लगा।
लेकिन वापिसी के रास्ते में उसने चट्टान की तरह जगदीप और गुलशन को अड़े पाया। वह उनकी बगल में से होकर गुजरने लगा तो गुलशन से मजबूती ने उसकी बांह थाम कर उसे रोक लिया।
लाल रूमाल वाले के मुंह से एक हैरानीभरी सिसकारी निकली। उसने एक झटके से अपनी बांह छुड़ाई और वापिस भागा।
लेकिन उधर तब तक सूरज उसके सिर सर पहुंच चुका था।
सूरज ने उसे थामने की कोशिश की तो वह एकदम झुकाई दे गया। उसका एक हाथ हवा में लहराया। सूरज तत्काल पीछे हटा। उसके मुंह से आश्चर्यभरी चीख निकली। फिर वह सिर नीचा िकये बैल की तरह उसकी छाती से टकराया। लाल रूमाल वाला पीछे गुलशन और जगदीप के बीच में जाकर गिरा। दोनों ने मजबूती से उसे दबोच लिया और उसे सड़क से परे ढलुवां मैदान की तरफ घसीट लिया।
गुलशन ने आगे बढ़ कर उससे वह चाकू छीन लिया जो कि उसने सूरज पर चलाने की कोशिश की थी। चाकू उसने सड़क और किले की दीवार के बीच बनी खाई में फेंक दिया।
“अभी आंखें निकाल दी होतीं तो मेरी हरामजादे ने।”—सूरज आतंकित स्वर में बोला। साथ ही उसने एक जोरदार घूंसा उसके पेट में रसीद किया। उसके मुंह से यूं आवाज निकली जैसे एकाएक गैस के गुब्बारे का मुंह खुल गया हो। उसके बाद उसने हाथ-पांव पटकने की कोशिश नहीं की। उसने अपना शरीर जगदीप और गुलशन की गिरफ्त में ढीला छोड़ दिया। उसे अहसास हो चुका था कि वह तीन जनों से नहीं लड़ सकता था।
“कौन हो तुम?”—गुलशन ने पूछा।
उत्तर न मिला।
गुलशन ने एक करारा घूंसा उसकी पसलियों में जमाया और कहरभरे स्वर में बोला—“अपना नाम बोल, हरामजादे।”
“जुम्मन।”—वह कठिन स्वर में बोला।
“कहां रहते हो?”
“अन्धा मुगल।”
“काम क्या करते हो?”
“कुछ नहीं। बेकार हूं।”
“हमारे साथी के पीछे क्यों लगे हुए थे?”
“मैं किसी के पीछे नहीं लगा हुआ था।”
“अन्धेरे में इधर कहां जा रहे थे?”
“लाल किले।”
“क्या करने?”
“अपने एक यार से मिलने।”
“यार का नाम बोलो।”
“जवाहरलाल नेहरू।”
गुलशन ने एक इतनी जोर का झांपड़ उसके चेहरे पर रसीद किया कि उसका निचला होंठ कट गया और उसमें से खून रिसने लगा।
“हरामजादे!”—गुलशन दांत पीस कर बोला—“मसखरी करता है।”
“तुम पछताओगे।”—जुम्मन सांप की तरह फुंफकारा।
“अच्छा!”—गुलशन व्यंगपूर्ण स्वर में बोला।
“तुम जानते नहीं हो मैं किसका आदमी हूं।”
“अब जान लेते हैं।”
“मैं दारा का आदमी हूं।”—वह बड़े रौब से बोला—“तुम लोग अपनी खैरियत चाहते हो तो मुझे छोड़ दो।”
“नहीं छोड़ेंगे तो तुम्हारी हिफाजत के लिए क्या करेगा तुम्हारा बाप? मिलिट्री भेज देगा?”
वह खामोश रहा।
“स्साले! यह दारा का इलाका नहीं है। यहां दारा की धौंस नहीं चलती। यह हमारा इलाका है। यहां हमारी धौंस चलती है। बता देना अपने बाप को।”
“मैं जरूर बताऊंगा।”
“जरूर बताना। अब बोलो। उसने तुम्हें हमारे साथी के पीछे क्यों लगाया था?”
“मैंने कब कहा कि मुझे उसने किसी के पीछे लगाया था?”
“उसने न सही, तुम खुद ही हमारे साथी के पीछे क्यों लगे हुए थे?”
“मैं किसी के पीछे नहीं लगा हुआ था।”
गुलशन ने उसकी छाती पर एक घूंसा जमाया और फिर अपना सवाल दोहराया।
उसने उत्तर नहीं दिया।
“हमने खुद तुझे अपने साथी के पीछे लगे देखा था, उल्लू के पट्ठे।”—गुलशन गरजा—“साफ-साफ बोल, क्या बात है वर्ना ऐसी मार मारेंगे कि नानी याद आ जाएगी।”
लेकिन जुम्मन साफ-साफ तो क्या, कैसा भी न बोला।
फिर गुलशन के संकेत पर तीनों ने मिलकर जुम्मन की इतनी धुनाई की कि वह बेहोश हो गया।
उसकी यूं धुनाई करके गुलशन दारा के लिए यह स्थापित करना चाहता था कि उसके इलाके से बाहर कोई दूसरा शक्तिशाली गैंग भी सक्रिय था। इस प्रकार जिस माल पानी की नुमायश सूरज करता रहा था, उसे गैंग का सदस्य होने के नाते उसकी उजरत माना जा सकता था, यानी कि दारा को यह सोचने पर मजबूर किया जा सकता था कि सूरज के पास जो रकम थी, वह जरूरी नहीं था कि आसिफ अली रोड वाली चोरी का हिस्सा होती।
ऐसा गुलशन ने इसलिए सोचा था कि क्योंकि उसे हीरे की उस अंगूठी की खबर नहीं थी जो सूरज ने लूट के माल में से चुपचाप मार ली हुई थी। उसे वह बात मालूम होती और यह मालूम होता कि सूरज ने मोहिनी के सामने वह अंगूठी भी पेश की थी तो जुम्मन की धुनाई करना उसे कतई बेमानी लगता।
“इसकी जेबें टटोलें?”—जगदीप बोला।
“छोड़ो, कोई फायदा नहीं होगा।”—गुलशन बोला—“यह हम जानते ही हैं कि यह दारा का आदमी है। और दारा सूरज की फिराक में कैसे पड़ गया, यह हमें इसकी जेबें टटोलने से मालूम नहीं होने वाला। अब चलो यहां से।”
तीनों वापिस लौट चले।
सूरज का दिमाग तेजी से ऐसी कोई तरकीब सोच रहा था जिससे सन्देह का रुख उसकी तरफ से फिर सकता।
“गुरु।”—एकाएक वह बोला—“शायद सफदर हुसैन सुनार ने कोई घपला किया हो! सुबह जब मैं उसके पास सोना और प्लैटीनम बेचने गया था, तब शायद उसने मुझे पहचान लिया हो और उसने दारा को खबर कर दी हो! आखिर दरीबा भी तो दारा का ही इलाका है।”
“न।”—गुलशन इन्कार में सिर हिलाता बोला—“सफदर हुसैन ऐसा नहीं कर सकता। अगर वह मुकम्मल तौर पर भरोसे का आदमी न होता तो शौकत अली हमें कभी उसके पास न भेजता।”
“ओह!”
“सूरज, तुम सच कह रहे हो कि आज तुम मोहिनी से नहीं मिले?”
“जिसकी मर्जी कसम उठावा लो, गुरु, मैं नहीं मिला। मैं क्या इतनी सी बात के लिए तुमसे झूठ बोलूंगा?”
“नहीं। ऐसी उम्मीद तो मुझे तुमसे नहीं है। लेकिन सूरज, तुम्हारे लिए अब भारी सावधानी बरतने की जरूरत है। यूं किसी की तवज्जो तुम्हारी तरफ जाना तुम्हारे लिए खतरनाक साबित हो सकता है।”
“तो मैं क्या करूं?”
“मेरे खयाल से तुम फौरन से पेश्तर अपना कूचा मीर आशिक वाला ठीया छोड़ दो। तुम यह इलाका छोड़ दो और रहने के लिए यहां से कहीं दूर चले जाओ। आज ही रात कोई नई जगह तलाश कर लेना तुम्हारे लिए मुश्किल होगा, इसलिए बेशक मेरे घर चले आओ। कल यहां से दूर कहीं, जमना पार के इलाके में या तिलक नगर वाली साइड में या किसी और दूर दराज जगह में कोई नया ठिकाना तलाश कर लेना। अपना नाम भी कोई नया रख लो तो और भी अच्छा होगा। तब दारा के आदमी तुम्हें सहूलियत से तलाश नहीं कर सकेंगे। कहने का मतलब यह है कि अपने मौजूदा ठिकाने को तो तुम जितनी जल्दी नमस्ते करोगे, उतना ही अच्छा होगा।”
“ठीक है, मैं ऐसा ही करूंगा।”
मन-ही-मन वह उस इलाके को क्या, उस शहर को ही छोड़ देने की सोच रहा था। पहला मौका हाथ आते ही वह दिल्ली से इतनी दूर निकल जाएगा कि दारा हरगिज भी उसे तलाश नहीं कर पाएगा। फेथ डायमंड में अपना हिस्सा उसे पीछे छोड़ना पड़ेगा लेकिन मामला ठण्डा पड़ जाने के बाद वह एकाध दिन के लिए चुपचाप दिल्ली लौट सकता था और अपना हिस्सा हासिल करके चुपचाप वापिस खिसक सकता था।
“अभी सीधे घर ही चले जाओ।”—गुलशन ने राय दी।
सूरज ने सहमति में सिर हिलाया।
“हम हवामहल में होंगे। जब निपट जाओ तो वहां आ जाना।”
“ठीक है।”—सूरज बोला।
सुभाष पार्क के सामने से वह एक रिक्शा पर सवार हो गया। उसने अपने साथियों से विदा ली और रिक्शा पर चावड़ी बाजार की तरफ रवाना हो गया।
गुलशन और जगदीप बदस्तूर पैदल चलते रहे।
पीछे कोई पन्द्रह मिनट बाद जुम्मन को होश आया। वह कांपता कराहता उठा। बड़ी मुश्किल से वह अपनी टांगों को अपने शरीर का वजन सम्भालने के काबिल बना पाया। सबसे पहले उसने अपने चारों तरफ निगाह डालकर इस बात की तसल्ली की कि उसकी वह गत बनाने वाले उसके दुश्मन वहां से जा चुके थे फिर वह लड़खड़ाती चाल से चलता हुआ पैट्रोल पम्प की तरफ बढ़ा।
उसने फौरन कहीं फोन करना था।
जो कुछ हुआ था, उसकी खबर फौरन कहीं कर पाने में असफल रहने की सूरत में उसकी अभी और—पहले से ज्यादा—धुनाई हो सकती थी।
सूरज अपने एक कमरे के घर में पहुंचा। उसका कमरा निचली मंजिल पर था और उसका दरवाजा बाहर गली में खुलता था। नीचे वैसे ही तीन कमरों में तीन किरायेदार और थे, ऊपर सारे में मकान मालिक रहता था।
वहां पहुंचते ही उसने अपना सारा सामान एक सूटकेस में पैक करना आरम्भ कर दिया।
तभी एक आदमी बाहर गली में पहुंचा। दाएं-बाएं झांके बिना वह सीधा ऊपर की सीढ़ियां चढ़ गया। उसने गली में खेलते बच्चों से पहले ही पूछताछ कर ली थी कि मकान मालिक ऊपर पहली मंजिल पर रहता था।
उस आदमी की सूरत पर एक निगाह पड़ते ही मकान मालिक का चेहरा पीला पड़ गया। वह उस आदमी को जानता था। वह दारा का आदमी था। दारा के आदमी का किसी गृहस्थ आदमी के घर आना किसी अच्छी बात का द्योतक नहीं होता था। उस आदमी ने जब उससे उसके किरायेदार सूरजसिंह डबराल के बारे में सवाल पूछने शुरू किए तो उसने यूं जल्दी-जल्दी जवाब देने आरम्भ किए जैसे उसने किसी इम्तहान में पास होना था।
उसके जवाबों से सन्तुष्ट होकर जब वह आदमी वहां से विदा हो गया तभी मकान मालिक की जान में जान आई।
कोई दस मिनट बाद सूरज उसके पास पहुंचा।
“मैं कहीं जा रहा हूं।”—उसने मकान मालिक को चाबी सौंपते हुए कहा—“यह नीचे की चाबी है। इसे आप काशीनाथ को दे देना। काशीनाथ को कह देना कि मैं दो-तीन महीने बाद लौटूंगा।”
मकान मालिक ने सहमति में सिर हिला दिया। उसका सूरज को यह बताने का हौसला नहीं हुआ कि उस इलाके के सबसे बड़े बदमाश का कोई आदमी उसके बारे में पूछताछ करने आया था।
सूरज अपना सूटकेस सम्भाले वहां से विदा हो गया।
नीचे के ताले की दूसरी चाबी काशीनाथ के पास भी थी लेकिन अब जब कि वह वहां लौटने का कोई इरादा ही नहीं रखता था तो उसने अपनी वाली चाबी अपने पास रखना मुनासिब नहीं समझा था।
बाहर गली में नीमअन्धेरा था। मकान से कुछ ही कदम आगे गली एक डयोढ़ी में से गुजरती थी, जिसकी मेहराब के नीचे के छोटे से टुकड़े में दूर जलती स्ट्रीट लाइट की रोशनी बड़ी ही मुश्किल से पहुंच रही थी।
सूरज मेहराब के नीचे कदम रखते ही ठिठक गया।
सामने दायें बायें की दीवारों से टेक लगाये दो आदमी खड़े थे और उन दोनों की निगाहें उसी पर टिकी थीं।
सूरज सकपकाया, उसने गरदन घुमाकर अपने पीछे देखा।
वैसे ही दो आदमी उसे अपने पीछे भी दिखाई दिये।
उसके कानों में खतरे की घंटियां बजने लगीं।
उसके पीछे मौजूद आदमी अभी उससे दूर थे। उसने घूमकर वापिस मकान में घुस जाना चाहा लेकिन तभी मेहराब के नीचे मौजूद दोनों आदमी उस पर झपट पड़े। एक आदमी ने उसे पीछे से पकड़कर वापिस मेहराब के नीछे घसीट लिया और दूसरे ने एक मजबूत डन्डे का भारी प्रहार उसके सिर पर किया।
सूरज की आंखों के सामने लाल-पीले सितारे नाच गये।
सूटकेस पर से उसकी पकड़ छूट गई। सूटकेस धम्म से नीचे गली में गिरा। उसका एक हाथ अपनी पतलून की एक जेब से सरक गया, जिसमें कि वह एक पीतल का मुक्का रखता था।
तभी डन्डे का एक और प्रहार उसकी कनपटी पर पड़ा।
तब तक उसके पीछे वाले दोनों आदमी भी उसके सिर पर पहुंच चुके थे।
चारों ने उसे घेर लिया।
एक और प्रहार उसकी खोपड़ी पर पड़ा। इस बार वह अपने पैरों पर खड़ा न रह पाया। उसके घुटने मुड़ गये और वह जमीन चाट गया।
तुरन्त कोई उसके ऊपर चढ़ बैठा।
फिर कई हाथ उसके सारे शरीर पर फिरने लगे।
एक हाथ ने उसकी जेब में मौजूद नोटों का पुलन्दा निकाल लिया। एक और हाथ ने उसकी बनियान की जेब में रखी शनील की थैली अपने अधिकार में कर ली। एक तीसरा हाथ हीरे की उस अंगूठी पर पड़ा, जिसे सूरज मोहिनी को देना चाहता था। फिर एक चौथा हाथ उसके जमीन पर पड़े सूटकेस पर भी पड़ा।
अगले ही क्षण चारों यह जा वह जा।
सूरज औंधे मुंह गली की धूलभरी जमीन पर पड़ा रहा। वह होश में था लेकिन उसमें उठकर अपने पैरों पर खड़े हो पाने की शक्ति नहीं थी।
जो कुछ उसके साथ बीती थी, उसमें मुश्किल से पूरा एक मिनट लगा था और उस दौरान किसी ने भी उस गली में कदम नहीं रखा था।
तभी उसका एक पड़ोसी वहां पहुंचा। वह सूरज को पहचानता था। उसने बड़े आतंकित भाव से उसे सहारा देकर उठाया। वह उसे ड्योढ़ी से बाहर ले आया और उसने उसे एक मकान के सामने बने चबूतरे पर बिठा दिया।
सूरज वहां बैठा रहा और अपने गोल-गोल घूमते सिर को काबू में रखने की कोशिश करता रहा। उसके सिर में से कहीं से खून रिस रहा था जो कि उसकी उंगलियां भिगो रहा था।
“क्या हुआ?”—पड़ोसी ने पूछा।
सूरज उत्तर न दे सका।
तभी गली के तीन-चार और लोग वहां जमा हो गये।
सूरज का सिर घूमना कुछ बन्द हुआ तो सबसे पहले उसका हाथ अपनी बनियान की जेब पर पड़ा।
शनील की थैली गायब थी।
उसने जल्दी-जल्दी अपनी सारी जेबें टटोलीं।
उसे अपनी जेबों में एक रूमाल और थोड़ी सी खरीज के अलावा कुछ न मिला।
उसने ड्योढ़ी की तरफ निगाह डाली तो वहां से अपना सूटकेस भी गायब पाया।
पीतल का मुक्का उन लोगों की निगाह में शायद इसलिए नहीं आया था, क्योंकि वह उसकी जेब में होने की जगह उसकी उंगलियों पर चढ़ा हुआ था।
उसने मुक्का वापिस जेब में डाल लिया।
“तुम्हें लूटा गया है?”—पड़ोसी ने हमदर्दी से पूछा।
“हां।”—सूरज क्षीण स्वर में बोला।
“ज्यादा नुकसान तो नहीं हुआ?”
“नहीं। पचासेक रुपये ही थे मेरी जेब में।”
“हरामजादे! कमीने! ऐसे ही सूरमा थे तो जाकर कोई बैंक लूटते!”
“हद हो रही है गुन्डागर्दी और बद्अमनी की।”—कोई और बोला—“बताओ तो! राह चलते डाकू पड़ रिये हैं।”
“अरे, उस्ताद, लौंडे के सिर से तो खून बह रिया हैगा।”
“इसे डाक्टर के पास लेकर चलो।”
“नहीं।”—सूरज बोला—“मैं ठीक हो जाऊंगा।”
“चोट गहरी नहीं है।”—उसका पड़ोसी बोला—“तुम मेरे घर चलो। मैं ही दवा लगा देता हूं।”
सूरज ने सहमति में सिर हिलाया।
पड़ोसी उसे अपने घर ले आया।
वहां सूरज ने सबसे पहले अपने हाथ और चेहरा धोया। उसके सिर पर लगी चोट गहरी नहीं थी। पड़ोसी ने उस पर टिंचर लगा दी और उसे थोड़ी रम पिलाई।
सूरज की जान में जान आई।
वह और आधा घण्टा वहीं पड़ोसी के घर ठहरा। उसके बाद उसका धन्यवाद करता वह वहां से विदा हो गया।
हौजकाजी चौक से वह कनाट प्लेस को जाते एक तांगे पर सवार हो गया। मिन्टो ब्रिज के नीचे वह तांगे से उतरा और पैदल कर्जन रोड की तरफ बढ़ा।
वह मोहिनी के फ्लैट वाली इमारत के सामने पहुंचा।
उसे उसके फ्लैट की किसी भी खिड़की में रोशनी न दिखाई दी।
प्रत्यक्षत: मोहिनी कहीं गई हुई थी।
सड़क से पार एक बस स्टैंड था। सूरज उसके सायबान के नीचे बने बैंच पर बैठ गया और प्रतीक्षा करने लगा।
उसकी खोपड़ी में सांय-सांय सी हो रही थी लेकिन अब उसका सिर घूम नहीं रहा था और उसमें दर्द भी कम था।
आधी रात को दारा की लाल शेवरलेट वहां पहुंची।
मोहिनी उसे कार में दारा के साथ बैठी दिखाई दी।
दोनों कार से बाहर निकले। दारा ने कार को लॉक किया। और फिर मोहिनी की कमर में हाथ डाले इमारत में दाखिल हुआ।
दो मिनट बाद मोहिनी के फ्लैट की कई खिड़कियों में रोशनी दिखाई देने लगी।
सूरज प्रतीक्षा करता रहा।
गश्त का एक सिपाही सड़क पर प्रकट हुआ। उसका सूरज की तरफ ध्यान नहीं था। वह इमारत वाली साइड के फुटपाथ पर चल रहा था। दारा की कार के पास वह एक क्षण के लिए ठिठका। उसने कार के भीतर झांका और फिर अपना डण्डा हिलाता आगे बढ़ गया।
सूरज यथास्थान बैठा रहा।
उसका दिमाग जिस योजना का ताना बाना बुन रहा था, उस पर अमल करना उसे कोई कठिन काम नहीं लग रहा था।
अन्त में जब दारा ने इमारत से बाहर कदम रखा, उस वक्त रात के दो बजने वाले थे।
उस वक्त रास्ते एकदम सुनसान पड़े थे और गश्त का सिपाही भी सूरज को दोबारा दिखाई नहीं दिया था।
सूरज उठकर खड़ा हो गया।
दारा लम्बे डग भरता कार की तरफ बढ़ा।
सूरज ने अपना पीतल का मुक्का अपने दायें हाथ की उंगलियों पर चढ़ा लिया। कार की ड्राइविंग साइड के दरवाजे का लॉक खोलने के उपक्रम में जब दारा की उसकी तरफ पीठ हो गयी तो सूरज दबे पांव आगे बढ़ा। बिल्ली की तरह उसने चौड़ी सड़क पार की और दारा के सिर पर पहुंच गया। दारा नीचे झुककर कार में दाखिल होने ही लगा था कि सूरज ने अपने बायें हाथ से पीछे से उसका कन्धा थामकर उसे फिरकनी की तरह अपनी तरफ घुमाया, फिर उसने अपने मुक्का चढ़े हाथ का एक अत्यन्त शक्तिशाली प्रहार दारा पर किया। दारा की तुरन्त चेतना लुप्त हो गई और वह कार के दरवाजे के पास सड़क पर ढेर हो गया।
सूरज ने अपनी उंगलियों पर से मुक्का उतारकर जेब में डाल लिया और उकड़ू होकर दारा के अचेत शरीर के पास बैठ गया। उसने अपने दोनों हाथों से दारा का चेहरा थाम लिया और फिर अपने दोनों हाथों की उंगलियों को साथ-साथ मिलाकर उनके नाखूनों से दारा के दोनों गालों को नोच डाला। दारा के गालों में आठ खूनी लकीरें खिंच गयीं लेकिन उसके अचेत जिस्म में कोई हरकत न हुई। सूरज ने अपनी उंगलियों को जान-बूझकर बहुत करीब-करीब रखा था, ताकि दारा के गालों पर खिंची लकीरें किन्हीं जनाना हाथों की करामात लगतीं।
चाबियों का गुच्छा अभी भी दारा के हाथ में था। उसने गुच्छा वहां से निकाल लिया। उस गुच्छे में कार की चाबियों के अलावा और भी चाबियां दिखाई दे रही थीं। उन और चाबियों में से एक चाबी शर्तियां मोहिनी के फ्लैट की भी होनी थी।
फिर उसने दारा की जेबें टटोलीं।
उसका पर्स उसके कोट की भीतरी जेब में था। उसने पर्स निकाल कर उसे खोला। वह नोटों से ठुंसा पड़ा था। सौ सौ के सारे नोट उसने पर्स में से निकाल लिए और पर्स वापिस दारा की जेब में रख दिया। पर्स में उसने दस और बीस के कुछ नोट ही छोड़े थे।
फिर दारा को वहीं कार के पहलू में अचेत छोड़ कर वह आगे बढ़ा। उसने इमारत की लॉबी में कदम रखा।
वह एक लिफ्ट में दाखिल हो गया।
लिफ्ट के तीसरी मन्जिल पर पहुंचने तक उसने दारा की जेब से निकाले नोट गिने।
पूरे चालीस नोट थे।
लिफ्ट तीसरी मंजिल पर जाकर रुकी तो उसने उसमें से बाहर निकलने का उपक्रम न किया। उसने लिफ्ट का दरवाजा बन्द करने वाला बटन दबाया और दरवाजों की पटड़ी के बीच अपना एक पांव रख दिया। दोनों दरवाजे उसके पांव के साथ टकरा कर रुक गए। अब लिफ्ट किसी और फ्लोर से बुलाई जाने पर भी वहां से हिल नहीं सकती थी। उसी स्थिति में पांव को टिकाए-टिकाए उसने अपना कोट कमीज और जेब वाली बनियान उतारी। कमीज और कोट को उसने दोबारा पहन लिया ओर बनियान को अपने कोट की एक बाहरी जेब में ठूंस लिया। उसने अपनी कमीज के ऊपरले तीन बटन जान-बूझ कर खुले छोड़ दिए। खुले कॉलर में से उसकी बालों भरी चौड़ी छाती बाहर झांकने लगी। फिर उसने लिफ्ट का दरवाजा खोलने वाला बटन दबाया और लिफ्ट से बाहर कदम रखा।
वह मोहिनी के फ्लैट के मुख्यद्वार पर पहुंचा।
दारा की चाबियों में से एक चाबी से मुख्यद्वार का ताला खुल गया।
अपने पीछे दरवाजा खुला छोड़ कर वह दबे पांव फ्लैट में दाखिल हुआ। उसने ड्राइंगरूम में झांका।
वह खाली था।
वह पूर्ववत् दबे पांव चलता बैडरूम के दरवाजे पर पहुंचा।
भीतर मोहिनी मौजूद थी। वह सम्पूर्ण नग्नावस्था में अपनी ड्रैसिंग टेबल के आदमकद शीशे के सामने खड़ी थी और बड़े मुग्ध भाव से अपने नौजवान, पुष्ट, सुडौल शरीर के प्रतिबिम्ब को निहार रही थी। जिन कपड़ों में उसने उसे दारा के साथ इमारत में दाखिल होते देखा था, वे एक ओर एक कुर्सी की पीठ पर पड़े थे। डबल बैड की हालत ऐसी थी जैसे उस पर दंगल हुआ था।
सूरज ने धीरे से बैडरूम में कदम रखा।
तभी शायद उसकी परछाईं मोहिनी को शीशे में दिखाई दे गई। उसके मुंह से एक चीख सी निकली और वह तुरन्त सूरज की तरफ घूमी।
सूरज छलांग मारकर उसके सिर पर पहुंच गया। उसने मोहिनी को उसके गले से पकड़ लिया और कहरभरे स्वर में बोला—“खबरदार! आवाज न निकले। नहीं तो गला घोंट दूंगा।”
आवाज उसके मुंह से न निकली लेकिन भयभीत वह इतनी थी कि उसकी आंखें अपनी कटोरियों में से उबली पड़ रही थीं।
सूरज उसे घसीटता हुआ पलंग तक ले आया। उसका गला छोड़े बिना उसने उसको पलंग पर धकेल दिया।
“कैसी हो़ मोहिनी बाई?”—वह दांत निकाल कर हंसता हुआ बोला।
उसे हंसता देख कर मोहिनी के चेहरे से भय के भाव गायब हो गए और उनका स्थान नफरत ने ले लिया। भयभीत अब वह इसलिए नहीं रही थी, क्योंकि वह सूरज के यूं वहां घुस आने का मतलब कुछ और ही समझ रही थी। लेकिन वह उसकी गलती थी और इसीलिए सूरज को हंसी आ गई थी।
एकाएक सूरज ने उसका गला दबाना शुरू कर दिया।
मोहिनी फिर आतंकित हो उठी। उसके दोनों हाथ सूरज की नंगी छाती पर पड़े और वह अपनी पूरी शक्ति के साथ उसे अपने ऊपर से परे धकेलने की कोशिश करने लगी। सूरज ने उसके गले पर अपना दबाव और बढ़ाया तो मोहिनी के हाथों के नाखुन सूरज की छाती में गड़ने लगे।
इसी बात की सूरज को अपेक्षा थी। इसी बात की सूरज को प्रतीक्षा थी।
मोहिनी के नाखूनों के नीचे से खून और नुची हुई चमड़ी के अंश बरामद होना जरूरी था।
ज्यों ही उसे लगा कि उसका वह मन्तव्य पूरा हो गया था, उसने मोहिनी का गला घोंट कर उसे मार डाला।
मोहिनी पर बिना दोबारा निगाह डाले वह वहां से विदा हो गया। फ्लैट को उसने बदस्तूर ताला लगा दिया और लिफ्ट में पहुंचा।
वहां उसने कोट और कमीज उतार कर बनियान फिर पहन ली। मोहिनी के नाखूनों से उसकी छाती पर आई खरोंचें उसके घने बालों में छुपी हुई थीं। उसने अपने कॉलर वाले बटन को छोड़ कर कमीज के सारे बटन बन्द कर लिए।
वह नीचे पहुंचा।
नीचे अभी भी सन्नाटा था। कहीं कोई नहीं था।
वह दारा की कार के पास पहुंचा।
दारा कार के पहलू में वैसे ही पड़ा था, जैसे वह उसे छोड़कर गया था। उसने उसकी कार की चाबियां दरवाजे के ताले में लटका दीं ओर वहां से हट गया। फिर लम्बे डग भरता वह कार से परे चलने लगा।
तभी उसके पीछे एक कार की हैडलाइट्स चमकीं।
वह फौरन एक पेड़ की ओट में हो गया और कार के सड़क पर से गुजर जाने की प्रतीक्षा करने लगा।
लेकिन कार वहां से गुजरने के स्थान पर दारा की कार के समीप रुक गई। कार में से चार आदमी बाहर निकले और दारा के इर्द गिर्द जमा हो गए। किसी ने सूरज की दिशा में निगाह तक न डाली।
सूरज पेड़ की ओट में से निकला और फिर लम्बे डग भरता फुटपाथ पर आगे बढ़ गया।
कनाट सर्कस की गोल सड़क पर उसका पहला कदम पड़ा तो उसने चैन की गहरी सांस ली।
अब उसे कोई खतरा नहीं था।
और अपना बदला उसने ले लिया था।
वह सन्तुष्ट था कि उसने यूं ही मार नहीं खा ली थी, वह यूं ही नहीं लुट गया था।
कनाट प्लेस पहुंच कर भी उसने पुरानी दिल्ली की तरफ जाने का उपक्रम न किया। वह गुलशन के घर जा सकता था लेकिन गुलशन उससे बहुत सवाल पूछता और अभी फिलहाल वह किसी पूछताछ के मूड में नहीं था।
जाने को वह अपने घर भी जा सकता था लेकिन उसके दिल ने गवाही न दी कि वह वहां जाता।
वह रीगल के करीब पहुंचा।
उसके बरामदे के एक खम्भे से लगी खड़ी एक लड़की उसे दिखाई दी। उसके खड़े होने का अन्दाज ऐसा था जैसे वह किसी सवारी के इन्तजार में हो लेकिन सूरज जानता था कि उसे किस चीज का इन्तजार था।
सूरज उसके समीप पहुंच कर ठिठका।
वह पच्चीस के करीब की थी और उसके नयन नक्श भी बुरे नहीं थे।
लड़की ने एक सरसरी निगाह सूरज पर डाली और फिर सामने सड़क पर देखने लगी।
“कितने?”—सूरज धीरे से बोला।
लड़की ने फिर उसकी तरफ देखा और उसे दो उंगलियां दिखाईं।
“अपना कोई ठिकाना है?”
लड़की ने सहमति में सिर हिलाया और फिर उसे तीन उंगलियां दिखाईं।
सूरज ने उसे दो उंगलियां दिखाई और धीरे से बोला—“ठिकाने समेत। सुबह तक।”
“फूट।”—लड़की दांत भीच कर बोली।
सूरज ने आगे कदम बढ़ाया।
लड़की ने व्याकुल भाव से चारों तरफ देखा और फिर बोली—“ठहर।”
सूरज ठहर गया।
“चल।”—वह बोली—“पास ही जाना है।”
“पास कहां?”
“बंगाली मार्केट।”
सूरज उसके साथ हो लिया।
गुलशन और जगदीप हवामहल में बैठे थे।
हवामहल दिल्ली गेट के पहलू में बना एक रेस्टोरेन्ट था जिसमें एक पंडालनुमा अस्थाई हाल में रात को कैब्रे भी चलता था। कैब्रे की वजह से वहां आधी रात के बाद तक हलचल रहती थी। वे दोनों उस पंडाल से बाहर खुले में बिछी मेज-कुर्सियों में से एक पर बैठे थे। वे विस्की की एक पूरी बोतल पी चुके थे। लेकिन टुन्न उन दोनों में से फिर भी कोई नहीं था। सूरज की चिन्ता में नशा उन पर हावी नहीं हो रहा था।
रेस्टोरेन्ट बन्द होने का वक्त हो रहा था और सूरज अभी तक वापिस नहीं लौटा था।
“गुरु।”—अन्त में इन्तजार से तंग आकर जगदीब बोला—“पहलवान फूट गया लगता है।”
“फूट गया हो तो अच्छा ही है।”—गुलशन गम्भीरता से बोला—“साली चिंता तो मिटे कि कहीं वह हमें न फंसवा दे। मुझे तो उससे खतरा लगने लगा है। उसी की वजह से वह जुम्मन नाम का आदमी हमारे पल्ले पड़ गया। अभी पता नहीं और क्या गुल खिलाएगा वो।”
“हूं।”
“मुझे तो उसकी मोहिनी नाम की माशूक का भी कोई चक्कर लगता है, लेकिन साला कुछ बक कर तो देता नहीं! बड़ी खुदगर्ज और कमीनी लड़की है। सूरज कहता है वो उससे नहीं मिला, लेकिन अगर वह उससे मिला हुआ और उसे उसने बताया हुआ कि उसके पास चार पैसे आ गए हैं तो वह जरूर उसकी खाट खड़ी करवा कर छोड़ेगी।”
“पहलवान जाए भाड़ में लेकिन, गुरु, साथ में हमारी खाट नहीं खड़ी हो जानी चाहिए।”
“इसी बात से तो मुझे डर लग रहा है।”
जगदीप खामोश रहा।
“जगदीप, फिलहाल दारा की निगाह में आने से तो हमें हर हाल में बचना चाहिए। मैं चाहता हूं कि दारा अगर हमें ढूंढ़ना भी चाहे तो न ढूंढ़ सके। इसके लिए अब आगे से हमें जामा मस्जिद के इलाके में नहीं दिखाई देना चाहिए।”
“तो फिर हम मिला कहां करेंगे?”
“कनाट प्लेस में। प्लाजा के सामने से जो गली ओडियन को जाती है, उसमें ‘कोलाबा’ नाम का एक छोटा सा रेस्टोरेन्ट है, कल दिन में दो बजे मुझे वहां मिलना। अगर किसी वजह से वहां हमारी मुलाकात न हो सकी तो शाम को सात बजे मैं तुम्हें प्लाजा के सामने मिलूंगा।”
“ठीक है।”
“इस बात का खास खयाल रखना कि कोई तुम्हारे पीछे न लगने पाए। न पुलिस, न दारा का कोई आदमी, न कोई और।”
“मैं खयाल रखूंगा।”
“अपना माल तुमने कहां छुपाया है?”
“कहीं भी नहीं। मेरा माल इस वक्त भी मेरी जेब में है। इसे छुपाने की कोई बढ़िया जगह मुझे नहीं सूझी है अभी तक।”
तभी कैब्रे वाले पंडाल से लोग बाहर निकलने लगे।
वे दोनों भी उठ खड़े हुए।
उन्होंने वेटर को बुलाकर बिल चुकाया और उन्हें चोरी-छिपे वहां विस्की पीने देने की एवज में उसे बीस रुपए टिप दी।
वे सड़क पर पहुंचे।
जगदीप वहीं से फव्वारे को जाते एक फटफटे पर सवार हो गया। वह चारहाट में रहता था। लालकिले के सामने उतर कर वह पैदल चारहाट जा सकता था। चारहाट में उसके घर में वह और उसका बाप बस दो ही जने रहते थे लेकिन फिर भी अपनी शनील की थैली उसने अपने घर पर नहीं छुपाई थी। न जाने क्यों अभी इतने माल को अपने से अलग कर देने को उसका दिल नहीं मान रहा था। ऊपर से वह दारा से भयभीत था। क्या पता दारा पहले ही मालूम करवा चुका हो कि जगदीप कौन था और कहां रहता था। दिन में उसका बाप अपने काम पर चला जाता था और वह भी घर पर नहीं होता था। खाली घर में इतना माल वह असुरक्षित नहीं छोड़ सकता था।
दिल्ली गेट से गुलशन के घर का फासला कुछ भी नहीं था। बस चितली कबर बाजार पार किया और घर।
वह घर पहुंचा।
उसे घर अन्धेरे में डूबा मिला।
मंगलवार को गली में कहीं कथा होती थी जहां चन्द्रा ने उसे दिन में ही बताया था कि उसने जाना था। प्रत्यक्ष था कि चन्द्रा अभी तक कथा से वापिस नहीं लौटी थी।
वह ताला खोलकर भीतर दाखिल हुआ। उसने एक दो बत्तियां जलायीं और भीतर जाकर पलंग पर लेट गया।
उसने घड़ी देखी।
एक बजने को था।
चन्द्रा बस आती ही होगी।
जिस कथा में चन्द्रा गई थी, वह, उसने बताया था कि, शुरू ही रात के दस बजे होती थी इसलिए उसका एक डेढ़ बजे तक चलना मामूली बात थी। इलाके का दुकानदार तबका वह कथा करा रहा था। दुकानदारी और भोजन से फुरसत हासिल होने तक उन लोगों को दस बज जाना मामूली बात थी। गुलशन चन्द्रा को ऐसी जगहों पर जाने से या कभी गली की किसी लड़की के साथ सिनेमा वगैरह चले जाने से कभी रोकता नहीं था, इसलिए नहीं रोकता था क्योंकि वह खुद उसे कहीं ले जा नहीं पाता था और कथा सुनने जैसे कामों में उसे कोई दिलचस्पी नहीं थी।
वह आराम ले पलंग पर पसरा रहा।
अगर उसे पता होता कि उसकी उससे ज्यादा पढ़ी-लिखी, खूबसूरत बीवी उस वक्त कथा में बैठी होने की जगह कहीं और थी तो वह यूं आराम से लेटा न रह पाता। वह कल्पना भी नहीं कर सकता था कि उसकी सूरत से इतनी भोली भाली और मासूम लगने वाली बीवी उसके साथ बेवफाई कर सकती थी।
जबकि ऐन यही काम वह उस वक्त कर रही थी।
उस वक्त वह गली के एक नए बनते मकान के अन्धेरे बरामदे में एक युवक के साथ खड़ी थी। दोनों कसकर एक दूसरे के साथ लिपटे हुए थे। रात के उस वक्त गली सुनसान थी, मकान में अन्धेरा था और तिराहा बैरम खां के चौक में कथा अभी भी चल रही थी। युवक का नाम श्रीकांत था। उसके होंठ चन्द्रा के होंठों से जुड़े हुए थे, एक हाथ से वह उसके शरीर को अपने शरीर के साथ लगाए था और उसका दूसरा हाथ चन्द्रा के कपड़ों के नीचे घुसा उसके सारे शरीर को सहलाता हुआ भटक रहा था। चन्द्रा की व्याकुल आंखें रह रहकर सुनसान गली की तरफ उठ जाती थीं, वह बड़ी मुश्किल से कह पाती थी कि श्रीकान्त अब उसे जाने दे लेकिन श्रीकान्त ‘एक मिनट और’ कहकर उसे फिर पहले से ज्यादा मजबूती से दबोच लेता था। वह ‘और’ वाला एक मिनट पन्द्रह मिनट लम्बा पहले ही खिंच चुका था। श्रीकांत चाहता था कि वह अपनी ‘जाऊं-जाऊं’ बन्द करे और आज वह उसे उस बनते मकान की नंगी ऊबड़ खाबड़ जमीन पर ही लंबी लिटा ले।
श्रीकान्त चन्द्रा के साथ हाथापाई के कई मौके हासिल कर चुका था लेकिन उसके मन की असली मुराद आज तक पूरी नहीं हुई थी। अपनी वह मुराद पूरी करने के लिए वह उसे अच्छी तरह विश्वास दिला चुका था कि वह उसे दिलोजान से प्यार करता था और अगर वह पहले से विवाहित न होती तो वह पलक झपकते उसके साथ शादी कर लेता। चन्द्रा को उसकी बातों पर पूरा विश्वास था, वह समझती थी कि श्रीकान्त वाकई उससे दिल से प्यार करता था लेकिन चन्द्रा अभी तक अपने आप को श्रीकान्त के सामने समर्पित कर देने के लिए तैयार नहीं कर पाई थी। जब कभी भी उस क्षण जैसी कोई नौबत आती थी और हालात उसके काबू से बाहर होते नजर आते थे तो हमेशा या तो कोई व्यवधान आ जाता था और या फिर वही किसी तरह से अपने आपको काबू कर लेती थी।
श्रीकान्त बार-बार की नाकामियों से झुंझला जाता था। वह नहीं समझता था कि चन्द्रा कोई आदतन हरजाई या बद्कार औरत नहीं थी, गुनाह का मजा उसके ख्यालात पर अभी इस कदर हावी नहीं हुआ था कि वह अपनी अन्तरात्मा की वह आवाज न सुन पाती जो ऐसे वक्त पर हमेशा उसके विवेक के दरवाजे पर दस्तक देने लगती थी कि पति के साथ बेवफाई करना कोई भला काम नहीं होता था। ऊपर से उसे इस बात का भय भी सताता था कि अगर उसके पति को खबर लग गई तो वह तो जरूर मार मारकर उसका दम ही निकाल देगा। भय और लालसा की उस लड़ाई में आज तक आखिरी जीत भय की ही होती आई थी। वह श्रीकान्त के साथ चोरी छुपे सिनेमा देख आने में, कभी उस प्रकार की हाथापाई कर लेने में, जैसी कि उस वक्त हो रही थी, ही सन्तुष्ट थी। लेकिन श्रीकान्त उतने से सन्तुष्ट नहीं था। वह तो चन्द्रा के पीछे पड़ा ही उसके साथ हमबिस्तर होने की नीयत से था और यह बात उसे बहुत हलकान कर रही थी कि असली मकसद टलता चला जा रहा था।
श्रीकान्त एक सुन्दर युवक था, उसके रख-रखाव में बड़ा सलीका था और औरतों को रिझाने के सारे लटके वह जानता था। यही वजह थी कि अभी वह केवल छब्बीस साल का था, लेकिन दर्जन से ज्यादा औरतों का मानमर्दन कर चुका था। बातें वह ऐसी रसीली करना जानता था कि औरतें उसकी सूरत से ज्यादा उसकी बातों पर मुग्ध होती थीं। चन्द्रा भी पहले उसकी वाकपटुता की वजह से ही उसकी तरफ आकर्षित हुई थी। श्रीकांत अपने मनमोहक अन्दाज में जब कोई दिलचस्प बात कहता था तो चन्द्रा के मन में जो पहला खयाल आता था—बड़े वितृष्णापूर्ण ढंग से जो पहला खयाल आता था—वह यह होता था कि वैसी बढ़िया बातें उसके साथ गुलशन क्यों नहीं कर पाया था? उसे कोई ऐसी बात कहनी क्यों नहीं सूझती थी जिसे सुनकर औरत का दिल मर्द पर बलिहार जाने को करने लगता था।
वैसे डरता गुलशन से श्रीकान्त भी था। गुलशन श्रीकान्त को नहीं जानता था लेकिन श्रीकान्त गुलशन को खूब जानता था। वह जानता था कि अगर कभी गुलशन को पता लग गया कि श्रीकान्त का उसकी बीवी से अफेयर था तो वह श्रीकान्त के हाथ पांव तोड़े बिना नहीं मानने वाला था।
लेकिन चन्द्रा पर वह इस कदर फिदा हो चुका था कि वह खतरा मोल लेने को वह तैयार था।
“अब मुझे जाने दो।”—चन्द्रा हांफती हुई पता नहीं कितनवी बार बोली—“अगर गुलशन को पता लग गया कि मैं कथा में नहीं बैठी हुई थी तो वह मुझे जान से मार डालेगा।”
उसे जाने देने की जगह श्रीकान्त ने और कसकर उसे अपने साथ लिपटा लिया।
“श्रीकान्त!”—चन्द्रा बड़े भावुक स्वर में फुसफुसाई—“तुम मुझे प्यार करते हो न?”
“दिलोजान से।”—श्रीकान्त बोला—“हद से ज्यादा।”
“मैं भी तुमसे बहुत प्यार करती हूं। तुम मुझे छोड़ तो नहीं दोगे?”
“सवाल ही नहीं पैदा होता।”
मन ही मन वह कह रहा था—अगर लेटेगी नहीं तो छोड़ूंगा नहीं तो और क्या करूंगा। कितना तो वक्त पहले ही बरबाद कर चुका हूं।
“लेकिन हमारी यह कहानी पहुंचेगी किस अंजाम तक?”
अभी तीन दिन पहले उसने श्रीकान्त के साथ जगत के बाक्स में बैठकर जो फिल्म देखी थी, उसमें वह डायलॉग था जो कि फिल्म में रेखा ने बोला था। अपनी तरफ से चन्द्रा ने रेखा जैसे ही खूबसूरत अन्दाज से वह बात कहने की कोशिश की थी।
“अगर हम दिल से एक दूसरे को प्यार करते हैं”—श्रीकान्त भी अपने स्वर में धर्मेन्द्र जैसी भावुकता भरता बोला—“तो हमारी कहानी किसी गलत अंजाम तक तो पहुंच नहीं सकती। देख लेना, हमारा साथ हमेशा हमेशा बना रहेगा। लेकिन, चन्द्रा, जब तक मुझे मन वचन कर्म से मेरी नहीं बनकर दिखाओगी तब तक मुझे कैसे विश्वास होगा कि तुम भी मुझे उतना ही प्यार करती हो जितना कि मैं तुम से करता हूं?”
“मैं हूं तो सही तुम्हारी।”
“मन से ही, वचन से हो लेकिन कर्म से नहीं हो।”
“मैं हर तरह से तुम्हारी हूं।”
“तो फिर”—श्रीकान्त और कसकर उसे अपने साथ लिपटाता हुआ बोला—“ऐतराज कैसा?”
“लेकिन कोई मौका तो लगे?”
“आज है मौका। चन्द्रा, आज मेरी बन जाओ। आज मेरे शरीर का रोम रोम तुम्हारे सहवास के लिए तड़प रहा है। आज...”
श्रीकान्त ने ऐसी बातों के अपने स्टॉक में से और ऐसी कई चुनिंदा, लच्छेदार बातें चन्द्रा को कहीं।
चन्द्रा उस दिन पूरी तरह से पिघल गई।
श्रीकान्त ने भी फौरन महसूस किया कि उसका शरीर किसी समर्पिता की तरह शिथिल पड़ने लगा था। वह उसे फर्श पर लिटाने ही लगा था कि एकाएक चन्द्रा छिटककर उससे अलग हो गई।
“क्या हुआ?”—श्रीकान्त हड़बड़ाया।
“कोई आ रहा है।”—वह त्रस्त भाव से बोली।
वासना के कुएं में गोते खाता श्रीकान्त तनिक उतराया तो उसे भी गली में पड़ते भारी कदमों की आवाज सुनाई दी।
“होगा कोई।”—वह चन्द्रा से तनिक परे हटता बोला—“गुजर जाएगा।”
दोनों सांस रोके खड़े रहे।
कदमों की आवाज करीब आती जा रही थी।
जो आदमी गली में प्रकट हुआ, वह गुजर जाने की जगह वहीं, बनते मकान के सामने, ठिठक गया।
श्रीकान्त अन्धेरे में था, लेकिन गली में रोशनी थी। उसने देखा, वह उस इलाके का चौकीदार था।
“कौन है?”—चौकीदार तनिक उच्च स्वर में बोला।
चन्द्रा का दम खुश्क हो गया। उसने पीछे को सरक कर सीधी खड़ी कुछ बल्लियों की ओट ले ली।
तभी चौकीदार के हाथ में थमी टॉर्च जली। उसने टॉर्च का प्रकाश भीतर की तरफ डाला और फिर पूछा—“कौन है रे भित्तर?”
अब चौकीदार से छुपा रहना असम्भव था। श्रीकान्त तुरन्त बाहर गली में आ गया।
“क्यों शोर मचा रहे हो, चौधरी?”—वह चौकीदार के पास जाकर बोला।
ऊपर से वह दिलेरी दिखा रहा था लेकिन भीतर से उसका दम निकला जा रहा था।
चौकीदार ने एक सरसरी निगाह उसके अस्त-व्यस्त कपड़ों पर और फक चेहरे पर डाली, फिर कठोर स्वर में बोला—“कौन हो तुम? और भीतर क्या कर रहे थे?”
“इधर आओ।”—श्रीकान्त बोला—“बताता हूं।”
“हियां ही कह जो कहना है।”
“अरे, आओ तो।”—श्रीकान्त जेब से एक बीस का नोट निकाल कर उसे दिखाता हुआ बोला।
चौकीदार दो-चार कदम उसके साथ चला और ठिठक गया। श्रीकान्त जान बूझकर उसके सामने यूं खड़ा हुआ कि मकान की तरफ चौकीदार की पीठ हो गई।
“क्या माजरा है?”—चौकीदार बोला।
“यह तो पकड़ो।”—श्रीकान्त जबरन उसकी मुट्ठी में नोट ठूंसता हुआ बोला—“माजरा भी बताता हूं।”
तभी पीछे चन्द्रा मकान से बाहर निकली और सिर नीचे किए तीर की तरह गली में आगे उधर बढ़ गई जिधर उसका घर था।
पीछे आहट सुनकर चौकीदार ने घूमकर देखा।
“ओहो!”—वह बोला—“इब समझा मैं माजरा।”
श्रीकान्त खिसियाई सी हंसी हंसा।
“हियां ही रहे है?”
श्रीकान्त ने सहमति में सिर हिलाया।
“कहां?”
“कूचा चेलान में।”
“ऐसी एक पर्ची और निकाल।”
“क्या?”
“सुना नहीं। जल्दी कर ले नहीं तो मैं अभी उस छोरी के पिच्छे भाज के उसे धड़ पकडूं सूं।”
श्रीकान्त ने फौरन उसे बीस का एक और नोट थमा दिया।
“भाज जा इब।”—चौकीदार सन्तुष्ट भाव से बोला—“फिर की मति न करियो ऐसी हरकत। चल फूट।”
चौकीदार गली में आगे बढ़ गया।
अपनी तकदीर को कोसता, बीस रुपये की चपत का मातम मनाता और अगला मौका हाथ आने पर चन्द्रा को हरगिज न छोड़ने का संकल्प लेता श्रीकान्त अपने घर की तरफ चल दिया।
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