थानाध्यक्ष भारकर ने आंख भर कर अपने सामने बैठी उस महिला को देखा जिसका परिचय वो एसआई रवि कदम से प्राप्त कर चुका था।

बढ़िया बनी हुई थी साली। शक्ल सूरत भी ऐन झक्कास। लगती नहीं थी तीस के पेटे में पहुंची हुई।
भारकर की निगाहबीनी से विचलित वो बार-बार पहलू बदल रही थी।
“नाम बोले तो?” – भारकर बोला।
“कोंपल मेहता।” – वो दबे स्वर में बोली।
“क्या काम करती हो?”
“इवेन्ट आर्गेनाइज़र हूँ।”
“बोले तो?”
“स्मॉल स्केल पर होने वाली पार्टियाँ आर्गेनाइज़ करती हूँ, उनके कॉन्ट्रेक्ट उठाती हूँ।”
“अच्छी कमाई होती होगी?”
“ख़ास नहीं। ऐसी पार्टियाँ आर्गेनाइज़ करने का काम कम ही हाथ में आता है।”
“किधर से ऑपरेट करती हो?”
“कोई पक्का ठिकाना नहीं है। डिमेलो रोड के एक बार से ही अपना काम चलाती हूँ।”
“बार मालिक चलाने देता है?”
“अभी तो . . . हाँ।”
“क्यों भला?”
वो ख़ामोश रही।
“क्योंकि लिहाज़ वाली आइटम। इकसठ माल। क्या!”
उसने जवाब न दिया।
“जब वो . . . ईवेन्ट आर्गेनाइज़र करके नहीं होती हो, तो क्या करती हो?”
“अमूमन तो काम का इन्तज़ार ही करती हूँ। कभी-कभार कैजुअल होस्टेस का टैम्परेरी काम भी मिल जाता है।”
“फिर भी कुछ करो तो क्या करती हो?”
“कुछ नहीं।”
“ईवेन्ट आर्गेनाइज़र के तौर पर केटरिंग का प्रबन्ध भी तो करना पड़ता होगा!”
“जी हां, करना पड़ता है।”
“बार सर्विस का?”
“वो भी, लेकिन टैम्परेरी लाइसेंस लेकर जो कि फीस भर कर मिलता है।”
“सर्विस स्कॉच की?”
“स्कॉच, वाइन, वोदका, बीयर।”
“स्कॉच एक्साइज ड्यूटी अनपेड!”
“नेवर, सर। ऐसी स्कॉच का मेरा कोई सोर्स नहीं।”
“मुम्बई में आम मिलती है। ठेकेदार हैं न! दलाल हैं न! जहां कहो, पहुंचाते
“मैं ऐसे लोगों से वाकिफ नहीं।”
“पक्की बात?”
“जी हां।”
“स्ट्रेट बिज़नेस?”
“जी हां।”
“पार्टियों में ड्रिंक्स के अलावा पार्टी ड्रग्स की सर्विस आम होती है!”
“मेरा ऐसी सर्विस से कोई वास्ता नहीं।”
“वास्ता हो तो पार्टी में किसी को ख़बर लगती है! कोई ख़बर लगने देता है! एस्टेसी की एक गोली निगलने में कितना टाइम लगता है? मूड एनहांसिंग एल्प्रॉक्स लेने में कितना टाइम लगता है? टॉयलेट में जाकर मारिजुआना के सिग्रेट के कश लगाने में कितना टाइम लगता है? फिर कीटामाइन है, ट्रामाडोल है, म्याऊं-म्याऊं है। सब कॉमन पार्टी ड्रग्स हैं। नहीं?”
“सर, मैं इन बातों से वाकिफ नहीं। मेरी आर्गेनाइज़्ड पार्टियों में ऐसा नहीं होता।”
“होता नहीं या होता पता नहीं लगता?”
“होता नहीं।”
“पार्टी में पचास मेहमान हों, साठ मेहमान हों, तुम सबकी जामिन कैसे बन सकती हो!”
उससे जवाब देते न बना। “जवाब दो।” – भारकर सख़्ती से बोला।
“सर”– वो कठिन स्वर में बोली- “ड्रग्स सप्लाई या सर्विस मेरी ऑर्गेनाइज्ड ईवेंट का हिस्सा कभी नहीं होते, कोई अपने इन्तज़ाम के साथ पार्टी में आता है तो मैं क्या कर सकती हूँ?”
“अपना इन्तज़ाम!”
“किसी के अपने पास एस्टेसी की गोली हो, गांजे का सिग्रेट हो, हेरोइन की डोज़ हो तो कोई क्या कर सकता है?”
“हूँ। बहरहाल ड्रग्स ट्रेड में तुम्हारा कोई दखल नहीं! न बतौर सप्लायर, न बतौर पैडलर, न बतौर यूज़र?”
“जी हां।”
“क्या जी हां?”
“मेरा कोई दखल नहीं।”
“अभी तुमने ख़ुद कहा कि ईवेंट ऑर्गेनाइज़ करने का बिज़नेस तुम्हें कभी कभार ही मिलता है! अमूमन काम का इन्तज़ार करना पड़ता है?”
“जी हां।”
“यानी तुम्हारे पास काफी स्पेयर टाइम होता है?”
“होता तो है! कैजुअल होस्टेस का काम मिल जाने पर भी होता तो है!”
“क्या करती हो ऐसे स्पेयर टाइम में?”
“कुछ नहीं।”
“कुछ तो करती हो! बोले तो मै सुझाऊं?”
“फरमाइए।”
“ड्रग पैडलिंग करती हो। इज्ज़तदार, हैसियत वाले एक्चुअल यूज़र्स तक पार्टी ड्रग्स पहुंचाती हो।”
“नैवर।”
“आजकल शराब के नशे से बाइज़्ज़त, बारसूख, मॉडर्न लोग बोर हो चुके हैं। सबको डायवर्जन मांगता है, वैरायटी मांगता है। वैरायटी पार्टी ड्रग्स में है – पार्टी ड्रग्स जैसे कि मारिजुआना, हशीश, एस्टेसी, हेरोइन, फॉक्सी, एलएसडी ...”
“मेरा इन बातों से कोई वास्ता नहीं।”
“अभी ऐसे कुछ नाम मैंने पहले भी गिनाए! जैसे . . .”
“मेरा किन्हीं से कोई वास्ता नहीं।”
“नाम तो फिर भी सुने होंगे इन ‘इन-थिंग’ नशों के!”
“नाम तो सुने हैं! अख़बारों में अक्सर छपते हैं।”
“हूँ। अगर मैं कहूँ कि बड़े लो लैवल पर, ढंके छुपे ढंग से, अन्डरटोन में तुम पार्टी ड्रग्स की पैडलिंग में शरीक हो तो?”
“तो ये मेरे पर बेजा इलज़ाम होगा।”
“हाल में तुम्हारे पर निगाह रखी जाने का इन्तज़ाम किया गया था। जब पुलिस ऐसा इन्तज़ाम करती है, तो खाली पीली टेम ज़ाया नहीं करती। बोले तो आज भी तुम अपने एक ऐसे ही अभियान पर थीं जबकि खड़े पैर थाम कर तुम्हें थाने लाया गया था।”
“गलत, नाजायज़ लाया गया था। ज़ल्म किया गया था मेरे साथ।”
“बतौर पैडलर न सही, बतौर यूज़र भी तुम ड्रग्स के पोजेशन से इंकार करती हो?”
“पुरजोर इंकार करती हूँ।”
“अगर ड्रग्स की बरामदी के लिए इस वक्त तुम्हारी जामातालाशी ली जाए तो ....”
“आप ऐसा नहीं कर सकते। मैं औरत हूँ और ...”
“मैं नहीं करूँगा, भई। औरत ही करेगी। लेडीज़ पुलिस है न थाने में!”
“आप . . . किसी लेडीज़ पुलिस को मेरी जामातालाशी के लिए बोलेंगे?”
“ज़िम्मेदार लेडीज़ पुलिस को। सब-इन्स्पेक्टर रेखा सोलापुरे ख़ुद ये काम करेगी।”
“क्या फायदा होगा?”
“देखेंगे।”
भारकर ने कॉल बैल बजाई, एसआई रेखा सोलापुरे को तलब किया और आवश्यक निर्देश दिए।
“सर्च का नतीजा एसआई कदम को रिपोर्ट करने का।” – आखिर में भारकर बोला – “वो मेरे को रिपोर्ट करेगा।”
“यस, सर।” – एसआई रेखा सोलापुरे बोली।
“ले के जाओ।”
“सर, रिटन रिपोर्ट ....”
“बाद में । बाद में। जब मैं बोलूं, तब? ओके?”
“यस, सर।”
एसआई सोलापुरे ने कोंपल मेहता को उठाया और उसे अपने साथ ले चली। पीछे भारकर ख़ामोश बैठा विचारपूर्ण भाव से उंगलियों से मेज़ ठकठकाता रहा।
पन्द्रह मिनट बाद एसआई कदम ने एसएचओ के ऑफिस में कदम रखा। भारकर ने सवालिया निगाह अपने ख़ास मातहत पर डाली।
कदम ने एक छोटी-सी शीशी एसएचओ के सामने रखी और मुस्कराता हुआ बोला – “एस्टेसी। पांच गोलियाँ। एक गोली की यूज़र के लिए कीमत आठ सौ रुपये। हॉलैंड की हो तो हजार रुपये। ज्यादा भी।”
“गुड।” – भारकर बोला – “कहां मिली?”
“हैण्डबैग के मैटल के फ्रेम में। फ्रेम खोखला था लेकिन मालूम नहीं पड़ता था। समझिए कि रेखा ने कमाल ही कर दिखाया जो उसे ख़बर लग गई कि फ्रेम खोखला था और उसके भीतर कुछ छुपाया जा सकता था। पांच गोलियाँ बरामद हुई।”
“मूवमेंट में सब्र दिखाया आइटम ने! बहुत थोड़ा-थोड़ा करके माल सरकाया!”
“जी हां। तभी तो कभी पकड़ी न गई!”
“मेरे को शक बराबर था उस पर। अब क्या बोलती है?”
“क्या बोलेगी! बोलती बन्द है उसकी।”
“बुला।”
“अभी।”
कदम के साथ रेखा ख़ुद कोंपल मेहता को एसएचओ के ऑफिस में छोड़ कर गई।
भारकर ने कदम को भी डिसमिस कर दिया। पीछे उसने एक सरसरी निगाह कोंपल पर डाली जिसकी शक्ल पर हवाईयाँ उड़ रही थीं।
“बैठ।” – को सहज भाव से बोला।
डरती झिझकती वो भारकर के सामने एक विज़िटर्स चेयर पर बैठी
“ड्रग्स के साथ पकड़ी गयी। अंजाम बुरा होगा। क्या!”
कोंपल के मुंह से बोल न फूटा।
“पांच गोलियाँ। लेकिन जब तक पंचनामा होगा, तादाद पचास होगी।”
कोंपल ने तमक कर सिर उठाया।
“हैरान होने की क्या बात है? पुलिस अपने केस को ऐसे ही मज़बूत करती है। पांच से सात साल तक के लिए नपेगी। वाट लग जाएगी ज़िन्दगी की। अब बोल!”
“म-मैं . . . मैं क्-क्या बोलू?”
“अरे, कुछ तो बोल!”
“मैं कोई समगलर या डीलर नहीं हूँ। जो किया, मजबूरी में किया ताकि पेट भरने का जुगाड़ हो सकता। रहम कर दीजिए। बचा लीजिए।”
“बचा लें?”
“अहसान होगा, साहब। जो मैं उम्र भर नहीं भूलंगी।”
“ठीक है। बचा लेते हैं।”
उसके चेहरे पर से हैरानी छुपाए न छुपी।
“तेरी खातिर ड्रग्स की बरामदी का पंचनामा नक्की कर देते हैं।”
“साहब, मैं आपका अहसान . . .”
“नहीं भूलेगी। भूलना भी नहीं चाहिए। इंसान का बच्चा कुछ भी हो, उसको नाशुक्रा नहीं होना चाहिए। अहसानफ़रामोश नहीं होना चाहिए। या होना चाहिए?”
कोंपल ने व्यग्रता से इंकार में सिर हिलाया।
“लेकिन कुछ पाना हो तो कुछ देना तो पड़ता है न! आखिर एक हाथ दूसरे हाथ को धोता है।”
“म-मैं समझी नहीं।”
“अभी मैंने समझाया किधर है?”
उसने चेहरे पर उलझन के भाव आए।
“या समझाए बिना ही सब समझ गई?”
“क्या! नहीं। नहीं।”
“हम्म!”
भारकर एकाएक अपनी एग्जीक्यूटिव चेयर पर से उठा और अपनी विशाल ऑफिस टेबल का घेरा काट कर कोंपल की तरफ पहुंचा। वो उसके करीब ठिठका फिर उसके बाजू में एक विज़िटर्स चेयर पर बैठ गया।
कोंपल अपने आप में सिकुड़ गई।
“रिलैक्स!” – भारकर आश्वासनपूर्ण स्वर में बोला – “क्या!”
कोंपल ने मशीनी अंदाज से सहमति में सिर हिलाया लेकिन सहज होती न दिखाई दी।
“अभी सुन।” – भारकर का स्वर धीमा हुआ – “गौर से सुन। तेरे को मेरा एक काम करने का और तेरा केस डिसमिस। तेरे पर कोई चार्ज नहीं। एस्टेसी या दूसरा कोई भी बैन्ड ड्रग, कुछ न बरामद हुआ तेरे पास से।”
“साहब, ऐसा हो जाए तो ...”
“समझ, हो गया। भले ही ये गोलियाँ भी वापिस ले ले, चार पैसे खड़े करने के लिए तेरे काम आएंगी। पण मैं बोला न, मेरा एक काम, एक ख़ास काम तेरे को करने का।”
“मैं करूँगी।”– उसके स्वर में व्यग्रता का पुट आया- “आपजो कहेंगे, मैं करूँगी।”
“कहता हूँ। करना। सुन। इधर मेरे थाने में मेरे अन्डर में काम करने वाला अनिल गोरे नाम का एक सब-इन्स्पेक्टर है जो मेरे लिए प्रॉब्लम्स खड़ी कर रहा है, इस वास्ते मेरे को उसको सैट करने का। तेरी मदद से सैट करने का। क्या!”
“मुझे क्या करना होगा?”
भारकर ने अपलक उसे देखा।
वो फिर विचलित हुई, प्रत्यक्षतः बार-बार पहलू बदलने लगी।
“क-क्या करना होगा?” फिर फंसे कण्ठ से बोली।
“उसके खिलाफ बलात्कार का चार्ज खड़ा करना होगा।”
“जी!”
“तू औरत है, तेरे लिए मामूली काम है। अपने एक केस की तफ्तीश के दौरान शक की बिना पर तेरे को उसने थामा और पूछताछ के लिए थाने ले आया। उसने तेरे से ड्रग्स की फर्जी बरामदी दिखाई और फिर केस को रफा-दफा करने की फीस के तौर पर तेरे साथ बलात्कार किया।”
“थाने में!” – कोंपल हाहाकारी लहजे से बोली।
“वो सीनियर सब-इन्स्पेक्टर है, उसका अपना ऑफिस है, ऑफिस में अटैच्ड बैडरूम है। क्या प्रॉब्लम है?”
“लेकिन ...”
“जेल नहीं जाना चाहती तो ये मामूली काम है तेरे लिए।”
“ल-लेकिन साहब, जिस एसआईसाहब को मैं जानती तक नहीं, कैसे मैं...”
“जानेगी न! मैं हूँ न जनवाने के लिए!”
“साहब, कोई उल्टी पड़ गई तो!”
“नहीं पड़ेगी। मेरी गारन्टी। आखिर मैं थाना प्रभारी हूँ, उस . . . उस मामले की रपट तो मैं ही दर्ज करूँगा।”
“ओह!”– वो एक क्षण ठिठकी फिर बोली- “आखिरकार जो होगा, उसकी बाबत मेरे को ख़ामोश रहना होगा।’
“येड़ी!”
कोंपल सकपकाई।
“बुलन्द आवाज़ में दुहाई देनी होगी कि एसआई अनिल गोरे ने पहले तेरे को एक फर्जी केस में फंसाया फिर केस रफा-दफा करने के लिए तेरा शोषण किया, तेरा बलात्कार किया।”
“साहब, कौन यकीन करेगा?”
“कौन नहीं करेगा? तेरे पर जुल्म हुआ, जुल्म की दुहाई वो नहीं देगा जिस पर जुल्म हुआ तो और कौन देगा!”
“साहब, कह देना ही तो काफी नहीं होता! मैडीकल होता है। डीएनए होता है। और पता नहीं क्या-क्या होता है!”
“सब अरेंज हो जाएगा। मैडीकल एग्जामिनेशन से बलात्कार की पुष्टि होगी। एक महीने बाद डीएनए की रिपोर्ट आएगी कि किन्हीं टैक्निकलिटीज़ के तहत टैस्ट इनकनक्लूसिव था। नतीजतन, अनिल गोरे की नौकरी ही नहीं जाएगी, वो जेल भी जाएगा। खाली तेरे को अपने इस क्लेम पर मज़बूती से टिके रहना होगा कि थाने में तेरा बलात्कार हुआ था और बलात्कारी सब-इन्स्पेक्टर अनिल गोरे था। क्या वान्दा है?”
कोंपल का सिर पहले ही इंकार में हिलने लगा।
“बोले तो!” – भारकर का लहजा सख़्त हुआ।
“साहब, ये जुल्म मेरे से नहीं होगा।” – कोंपल दृढ़ता से बोली – उस सबइन्स्पेक्टर पर, जिसे मैं जानती भी नहीं ....”
“अब जान जाएगी। बोला न!”
“. . . इतना बड़ा झूठा इलज़ाम नहीं लगा सकती।”
“जो बोला, वो करना पड़ेगा वर्ना जेल जाएगी। लम्बी नपेगी।”
“ये जुल्म होगा।”
“खामख़ाह! भूल गई कि ड्रग्स के साथ पकड़ी गई है!”
“मेरे पास कोई ड्रग्स बरामद नहीं हुए थे। एस्टेसी की गोलियाँ मेरे पर प्लांट गई थीं। ऐसी बरामदी गवाहों से सामने होती है और फौरन रिकार्ड में लाई जाती है। वहां कहां था कोई गवाह! कहां थी कोई ऑफिशियल रिकॉर्ड में बरामदी की हाजिरी!”
भारकर के चेहरे का रंग एकाएक बदरंग हुआ।
“ठहर जा, साली!” – वो दान्त पीसता बोला। एकाएक उसने हाथ बढ़ा कर बड़े नृशंस भाव से उसका गला दबोच लिया।
कोंपल की आंखें उबल पड़ीं, उसका चेहरा सुर्ख हो गया - ऐसा कि जैसे खून टपकने लगेगा – उसकी सांस फंसने लगी और मुंह से घों-घों की आवाज़ निकलने लगी।
एकाएक भारकर ने हाथ वापिस खींच लिया।
हांफती कोंपल दोनों हाथों से अपना गला सहलाने लगी। धीरे-धीरे उसके चेहरे की नॉर्मल रंगत वापिस लौटने लगी।
भारकर अपलक उसे देखता रहा।
“बोले तो?” – आखिर वो बोला।
“क्या बोले तो?” — वो रुआंसी सी बोली – “मेरे पास आपकी पसन्द का बोलने लायक कुछ नहीं है।”
“है। मालूम मेरे को। इसलिए मालूम मेरे को क्योंकि तेरी जानबख्शी तभी होगी जब ....”
“जब आप थाने में, अपने ऑफिस में मुझे मार डालेंगे?”
भारकर हड़बड़ाया।
“न-हीं।” — फिर ज़ब्त करता-सा बोला।
“नहीं तो मैं थाने में खड़ी होकर चिल्लाऊंगी, बुलन्द आवाज में सबको बताऊंगी कि ख़ुद थाने का थानेदार ही अपने एक मातहत सब-इन्स्पेक्टर को बलात्कार के झूठे केस में फंसाने के लिए मुझे मजबूर कर रहा था ...”
“बर्बाद कर दूँगा, साली हरामन!” – इस बार भारकर का लहजा हिंसक नहीं था, प्रलयंकारी था।
“कर सकते हैं आप। जाबर कुछ भी कर सकता है। लेकिन ऐसा होने से पहले मेरी दाद-फरियाद कोई तो सुनेगा! और कोई नहीं तो आपका वो सबइन्स्पेक्टर तो सुनेगा जिसका नाम आपने अनिल गोरे बताया और जिसे किसी ज़ाती खुन्दक के तहत आप सैट करना चाहते हैं। मैं . . . मैं उसे बताऊंगी कि थानेदार अपने मातहत एसआई को बलात्कार के झूठे केस में फंसाने के लिए मुझे हथियार बनाना चाहता था।”
भारकर भौंचक्का-सा उसका मुंह देखने लगा।
“कौन औरत ऐसा घिनौना इलज़ाम ख़ुद अपने सिर लेती है, साहब! जो पट्टी आप मुझे पढ़ाना चाहते हैं, उस पर कोई ऐतबार नहीं लाने वाला। फिर ये न भूलें कि और कोई हो न हो, जिस एसआई की आप ज़ाती खुन्दक में वाट लगाना चाहते हैं, वो ज़रूर मेरी हिमायत में मेरे साथ खड़ा होगा। कोई और यकीन करे न करे, वो ज़रूर मेरी बात पर यकीन करेगा कि थानेदार की शह पर मैं उस पर बलात्कार का झूठा इलज़ाम लगाने पर आमादा थी। आप सब-इन्स्पेक्टर अनिल गोरे को बुलाइए यहां ताकि मैं आपके नापाक इरादों की उसको ख़बर कर सकू!” ।
“अंजाम जानती है? पोटला बनवा दूँगा।”
“और ये काम आप करेंगे? जो इस थाने के थानेदार हैं, मुल्क के कायदेकानून के रखवाले हैं!”
“साली! खड़े पैर इतनी दिलेरी आ गई!”
“कोई दिलेरी नहीं आई, साहब। जान पर आन बनी जान पड़ी, इसलिए ज़ुबान खुल गई।”
“हूँ।”
कुछ क्षण ख़ामोशी रही।
“तू” — फिर भारकर बदले लहजे से बोला – “क्या चाहती है?”
“वो नहीं चाहती जो आप चाहते हैं।” – कोंपल विनयशील भाव से बोली“साहब, मुझे कोई भी सज़ा मंजूर होगी लेकिन इतना बड़ा फरेब मेरे से नहीं खड़ा किया जाएगा। आपके हुक्म पर मेरे से झूठ कहते नहीं बनेगा कि मेरा बलात्कार हुआ था और बलात्कारी आपका मातहत सब-इन्स्पेक्टर अनिल गोरे था। साहब, बलात्कार की भक्तभोगी कोई औरत ये नामराद बात ज़बान पर लाने से पहले सौ बार सोचती है और अक्सर तो ज़ुबान पर लाती ही नहीं; जो उसके साथ बीती, उसकी बाबत होंठ सी लेती है। हमेशा के लिए। मेरी इज़्ज़त नहीं लुटी होगी फिर भी आपकी खातिर मेरे को दावा करना होगा कि लुट गई। कैसे होगा?”
“साली यूं कह रही है जैसे मर्द की कभी परछाई नहीं पड़ी तेरे पर! मैडीकल होगा तो वर्जिन पाई जाएगी!”
“नहीं कह रही – थर्टी प्लस ऐज है मेरी - लेकिन झूठे बलात्कार की हामी मैं फिर भी नहीं भर सकती।”
“हूँ।”
“साहब, अपनी ताकत को, अपनी सलाहियात को आप बहुत ज़्यादा कर के आंक रहे हैं। आप पुलिस में, थाने में कितने ही ताकतवर क्यों न हों, ये कतई ज़रूरी नहीं कि हर कोई आपकी लाइन टो करे। कोई एक जना भी आपका साथ देने से फिर गया तो आपके केस की धज्जियां उड़ जाएंगी ...”
“ये तू इस थाने के एसएचओ को कह रही है?”
“... और मेरी ऐसी फज़ीहत होगी कि मुझे कोई नहीं बचा सकेगा। आप भी नहीं। मैं फिर कहती हूँ, औरतज़ात की इज़्ज़त लुटी हो तो वो नहीं बताती, मेरी नहीं लुटी होगी और मुझे लुटी बतानी पड़ेगी। ये मेरे से नहीं होगा।”
“क्या कहने! मैं ज़रा नर्मी से पेश आया तो मेरे को हूल देने लगी!”
“नहीं, साहब।”
“बाहर जाके ढोल पीटेगी कि थानेदार भारकर तेरे को क्या कहता था और कैसे तूने उसके कहे का पलस्तर उधेड़ दिया था?”
“साहब, ऐसे अपनी शामत ख़ुद बुलाने वाला काम भला मैं क्यों करूँगी?”
“क्योंकि थानेदार की मूंछ का बाल उखाड़ना होगा!”
“साहब, मेरी मजाल नहीं हो सकती।”
“नमूना देखा मैंने तेरी मजाल का। लेकिन . . .खैर। अब जो मैं कहता हूँ, उसे गौर से सुन। तेरे ही भले के लिए कहता हूँ, इसलिए गौर से सुन।”
“साहब, सुन रही हूँ।”
“मेरे जेहन में कुछ था जो वो वो शक्ल न अख्तियार कर सका जो मैं चाहता था कि वो करता। जरायमपेशा लोग, फंसे हुए लोग हाकिम के किसी काम आने के लिए ख़ुद बेताब होते हैं और जितना कहा जाये, उससे ज्यादा कर दिखाने का दम भरने लगते हैं ताकि हाकिम खुश होकर उनकी जानबख्शी कर दे। मैंने जो कुछ तेरे को बोला, मेरे को कतई उम्मीद नहीं थी कि तू उससे ऐसा, दो टूक इंकार कर देगी। लेकिन वो जुदा मसला है। मसला ये है कि मैंने तुझे अपना राज़दां बनाया है और उस बाबत तूने चुप रहकर दिखाना है। तेरे को जेल में सड़ाने के दस तरीके हैं मेरे पास। तू ड्रग्स समगलिंग में पकड़ी गई है। एक ही तरीका काफी है तेरे को सैट करने के लिए ... . सुनती रह। बीच में न बोल ... तेरे पास से ड्रग्स की बरामदी गवाह के सामने न हुई, ये कोई बड़ा मुद्दा नहीं है। जब वक्त आता, ज़रूरत पड़ती तो गवाह भी होता बराबर तेरे पास से ड्रग्स की बरामदी की तसदीक करने के लिए। कभी जेल गई है?”
उसने पुरज़ोर इंकार में सिर हिलाया। “कभी कोई केस खड़ा हुआ तेरे खिलाफ?” उसका सिर मजबूती से इंकार में हिला। “लेकिन पुलिस के राडार पर तू बराबर थी। तेरे पर कोई केस बनना या तेरे को कोई सज़ा होना महज़ वक्त की बात थी। तेरा असल किरदार पहले ही उजागर है। भले ही कभी थामी नहीं गई लेकिन तू ड्रग पैडलिंग में रेगुलर है, एक्साइज़ अनपेड शराब की मूवमेंट में रेगुलर है। अब तू बता, तेरे जैसी जरायमपेशा औरत की कोई हालदुहाई एक थाने के एसएचओ के सामने ठहर पाएगी! ऐसा हो पाएगा कि कोई थानाप्रभारी की नहीं सुनेगा, तेरी सुनेगा?”
“साहब” – उसके स्वर में घबराहट का पुट आया – “क्या कहना चाहते हैं?”
“आसानी से तेरे मगज में आने वाली एक सिम्पल बात कहना चाहता हूँ। बिना किसी सबूत के तू मेरे पर कोई इलज़ाम लगायेगी तो तेरा अंजाम बुरा होगा। कोई सबूत है तेरे पास?”
“न-नहीं।”
“तो मेरे खिलाफ बोल कर कैसे साबित करेगी कि मैंने तेरे साथ कोई फर्जी बलात्कार की कहानी की थी?”
उससे जवाब देते न बना।
“तेरे नपने के लिए इतना ही काफी होगा कि तूने एक सीनियर पुलिस ऑफिसर पर एक गलत, नाजायज़ इलज़ाम लगाया। क्या!’
“साहब, मैं क्या बोलू? प्लीज़ ... प्लीज़ आप बोलो न!”
“मैं बोलूं जो तेरे को माफिक आए?”
“साहब, प्लीज़!”
“तो सुन। जो यहां तेरे-मेरे बीच बीती, उसे अभी भूल जा। हमेशा के लिए। क्या!”
“मैं भूल गई।”
“उस बाबत किसी से कभी कोई कहानी नहीं करनी।”
“कतई नहीं करनी।”
“या तो अपना धन्धा बदल या यहां से दूर निकल।”
“साहब, मैं दोनों काम करूँगी। मैं साउथएण्ड के करीब भी नहीं फटकूगी।”
“पक्की बात?”
“जी हां। सौ टांक पक्की बात।”
“तो समझ ले मैं तुझे नहीं जानता। तू मेरे लिए फ्रेम से बाहर है।”
“थै क्यू बोलती हूँ, साहब।”
“जा।”
वो हड़बड़ाई, उसने सन्दिग्ध भाव से भारकर की तरफ देखा। “अरे, जा न! क्यों टेम खोटी करती है! अपना भी और मेरा भी। जा।” वो उछल कर खड़ी हुई। स्वयमेव कृतज्ञ भाव से उसके दोनों हाथ जुड़े। “अपनी गोलियाँ भी ले जा।”
गोलियों की शीशी की तरफ उसने निगाह भी न उठाई, उसने झुककर, दोहरी होकर भारकर के पांव छुए।
उसके पीछे एसएचओ के ऑफिस का दरवाज़ा बन्द हो गया।
भारकर विज़िटर्स चेयर पर से उठा और वापिस जाकर अपनी एग्जीक्यूटिव चेयर पर बैठा।
‘साली डेढ़ दीमाक!’ – वो होंठों में बड़बड़ाया – ‘मेरे को हिला गई। पण वान्दा नहीं। ख़ाली ढील दी है। डोर नहीं छोड़ दी है। जल्दी ही वापिस खींच लूँगा। बिना इस बार वाली गलती दोहराए।’
एक हवलदार ने दरवाज़े से झांका।
भारकर ने एक फाइल पर से सिर उठाया।
“साब” – हवलदार आधे खुले दरवाज़े पर से ही बोला – “मैं देखता था आप खाली हैं?”
“हां। क्यों?” – भारकर बोला।
हवलदार लम्बे डग भरता एसएचओ की टेबल के करीब पहुंचा, उसने आगे झुककर एक एंग्रेव्ड आइवरी फिनिश वाला विजिटिंग कार्ड अपने आला अफसर के सामने रखा।
भारकर ने सरसरी निगाह कार्ड पर डाली जिस पर दर्ज था :
सर्वेश सावन्त
को-ओनर, ऑलिव बार
उसने कार्ड को उलट कर देखा।
पीछे बॉलपैन से दर्ज था – ‘सुबोध नायक के हवाले से’
“बुला।” – भारकर बोला।
“अभी।”
हवलदार एक सूटबूट से सजे व्यक्ति को एसएचओ के रूबरू छोड़कर गया। अभिवादनों के आदान-प्रदान के बाद आगन्तुक ने एक विज़िटर्स चेयर पर मुकाम पाया और बोला – “सुबोध नायक मेरा बिजनेस पार्टनर है, ग्रांट रोड पर के ऑलिव बार में मेरे साथ को-ओनर है। नायक आपका फ्रेंड है, इस इक्वेशन से शह पाकर मैं आपके पास हाज़िर हुआ हूँ।”
“वैलकम!” – भारकर बोला – “जो नायक का दोस्त, वो मेरा दोस्त। वैलकम अगेन।”
“शुक्रिया, जनाब।”
“आमद की कोई ख़ास वजह?”
“है तो सही! वजह तो ख़ास ही है लेकिन नायक – जिसके कि आप से ताल्लुकात हैं – बयान करता तो बेहतर होता।”
“करता। वान्दा कोई?”
“था तो सही!”
“क्या? जो कहना है, बेहिचक कहिए।”
“भारकर साहब, वो क्या है कि कल रात ऑलिव बार में मेरे साथ कुछ ऐसा हुआ कि उसके बाद नायक की बार में मौजूदगी ज़रूरी हो गई। हम डे-टाइम और ईवनिंग की दो वीकली शिफ्ट में बार की हाजिरी भरते हैं और इस बार डे-टाइम शिफ्ट नायक के हवाले थी। कल रात ऐसा कुछ हुआ कि हमें बार को अनसुपरवाइज़्ड छोड़ना मुनासिब न लगा। इसी वजह से ख़ुद नायक की राय पर मैं आपसे मिलने आया ताकि नायक से आपकी वाकफ़ियत – गुस्ताख़ी माफ - हमारे किसी काम आ पाती।”
“हुआ क्या?”
“हआ ये कि कल रात विनायक घटके नाम का एक आदमी बार में आया और मेरे ऑफिस में मेरे से मिला . . ." आगे सावन्त ने पिछली रात का तमाम किस्सा बयान किया।
“कमाल है!” – सावन्त ख़ामोश हुआ तो भारकर मन्त्रमुग्ध स्वर से बोला - “वो भीड़, जिसका नाम आपने विनायक घटके बताया, बोला कि उसका बॉस ऑलिव बार में पार्टनर बनना मांगता था और वो भी रोकड़ा इनवेस्ट करके नहीं, धौंसपट्टी से, भाईगिरी से!”
“बोले तो ऐसीच था।”
“लेकिन मवाली नहीं था ये घटके कर के भीड़! आप कहते हैं कोई डीसेंट, प्रेज़ेन्टेबल भीड़ था!”
“शुरू में ऐसा लगा था लेकिन बाद में मवालियों वाली ज़ुबान बोलने लगा था। यूँ समझिए कि अपनी ज़ात-औक़ात पर आते ही जैसे उसका कायापलट हो गया था, अच्छे पहरावे और रख-रखाव के बावजूद मवाली लगने लगा था। खुद को अपने बॉस टोपाज़ क्लब के मालिक रेमंड परेरा का ख़ास बताता था और परेरा के नाम पर बाकायदा कराची वाले भाई की हूल देता था।”
“ताकि रेमंड परेरा को बिना इनवेस्टमेंट फोकट में ऑलिव बार की पार्टनरशिप हासिल होती!”
“जी हां। बोला, कराची से सीधे ‘भाई’ का हुक्म था कि ऐसा होता।”
“क्यों? क्योंकि वो अपना बिज़नेस बढ़ाना चाहता था और इस सिलसिले में उसे ऑलिव बार की लोकेशन पसन्द थी!”
“जी हां। साफ धमका के गया कि परेरा साहब को जो मांगता था, मांगता था बरोबर, परेरा साहब को इस सिलसिले में सीधे कराची से शह थी और परेरा साहब की मांग ठुकराने का नतीजा गम्भीर हो सकता था।”
“ये.... विनायक घटके . . . इससे आप बिल्कुल नावाकिफ़ हैं?”
“कभी नाम तक न सुना। कभी पहले शक्ल तक न देखी। न मैंने, न कभी नायक ने।”
“हूँ| क्या उम्मीद करते हैं आप, करेगा तो क्या करेगा वो घटके या कोई और?”
“इस बारे में हम कुछ कहने के नाकाबिल हैं। इसीलिए चाहते थे कि आपसे कोई एक्सपर्ट राय हासिल हो पाती!”
“आपने कोई एहतियात बरती?”
“जी हां। जो हमें सूझा, वो तो किया बराबर!”
“क्या किया?”
“दस सादे लिबास में आई सिक्योरिटी गार्ड्स का एकस्ट्रा इन्तज़ाम किया, बाउन्सर्ज़ डबल किए और ख़ुद भी टॉप लैवल पर सुपरवाइज़री विजिल बढ़ाई। इसके अलावा या इससे ज़्यादा हम क्या कर सकते थे?”
“क्या एक्सपेक्ट करते हैं, क्या होगा?” ।
“ठीक से कुछ कहना तो मुहाल है लेकिन एन्टीसिपेशन तो सैबोटाज की ही है। पहले भी ऐसी मिसाल सामने आई हैं कि बार का चलता धन्धा बिगाड़ने के लिए वहां व्यापक तोड़-फोड़ की गई, कस्टमर्स को बाकायदा धमकाया गया कि वो फलां बार के करीब भी न फटकें। मुम्बई में बारों की कोई कमी तो है नहीं! कौन पंगा लेगा भाई लोगों से! नतीजतन हमेशा फुल रहने वाले बार में अगले ही रोज़ उल्लू बोलने लगे थे।”
“हूँ।”
“भारकर साहब, बार और केटरिंग बिज़नेस में एक्सेसिव सिक्योरिटी ड्रिल भी धन्धा बिगाड़ने वाला काम होता है। यूं ग्राहक इन्सल्टिड फील करते हैं, खफ़ा हो जाते हैं और खफ़ा ग्राहक लौटकर नहीं आते।”
“यानी सिक्योरिटी के मामले में आपकी एकस्ट्रा एहतियात, किसी हद तक ही कामयाब होती है!”
“जी हां।”
“हूँ। आपकी प्रॉब्लम के जेरेसाया एक ही शख़्स आपके फोकस में है और उसके नाम के अलावा उसकी बाबत आप कुछ जानते नहीं।”
“सूरत से वाकिफ़ हैं न!”
“इतना तो किसी पर सीरियस तोहमत लगाने के लिए काफी नहीं! ज़रूरत पड़ने पर वो रेमंड परेरा बड़े आराम से कह देगा कि वो घटके नाम के किसी शख़्स से वाकिफ नहीं, कि उसे किसी भाई’ की कोई शह नहीं। नहीं?”
“जी हां। लेकिन जनाब, इस मामले में हम मजबूर हैं, आप तो मजबूर नहीं हैं! आप पुलिस ऑफिसर हैं, थाना प्रभारी हैं, आपके हाथ में ताकत है, आप चाहें तो उस मवाली का फुल अता-पता निकाल सकते हैं और फिर अपने लैवल पर उससे निपट सकते हैं।”
“मवाली मुम्बई शहर में एक ईंट उखाड़े दस मिलते हैं और सब सीधे या बाजरिया कोई लोकल भाई, अपने तार कराची से जड़े होने का दम भरते हैं। और जहां तक मैं समझता हूँ, बड़े मवाली – जैसे अमर नायक, जैसे बेजान मोरावाला जो कि सब जानते हैं कि गैंगस्टर से नेता बने बहरामजी कॉन्ट्रेक्टर का कवर है, जैसे शमशेर मिर्ची - किसी लोकल बार को जबरन हथियाने या उसमें फोकट का पार्टनर बनने जैसी टुच्ची हरकतें नहीं करते या करवाते।”
“यानी”– सावन्त के स्वर में निराशा का पुट आया- “आप कुछ नहीं कर सकते?”
“ये तो मैंने अभी ... अभी नहीं कहा लेकिन . . .आपके बार में सीसीटीवी सर्वेलेंस का इन्तज़ाम है?”
“जी हां, है।”
“फिर तो कल रात बार में इस विनायक घटके की आमद भी कवर हुई होगी!”
“मैं समझ गया आपकी बात। कवर हुई थी। कवरेज में से निकाल कर उसकी एक तस्वीर भी मैं लाया हूँ।”
“गुडा दिखाइए!”
सावन्त ने पांच गुणा सात का एक ग्लॉसी प्रिंट एसएचओ के सुपुर्द किया। भारकर ने बड़ी देर, बड़ी तल्लीनता से प्रिंट का मुआयना किया।
उस दौरान सावन्त पूर्णतया ख़ामोश रहा।
“ये फोटो” – आख़िरकार भारकर बोला – “वैसे तो कुछ नहीं बताती लेकिन एक जुदा तरीके से कारगर साबित हो सकती है।”
सावन्त की भवें उठीं।
“आजकल नोन क्रिमिनल्स का रिकॉर्ड पूरी तरह से कम्प्यूटराइज़्ड हो गया है। कोई कभी भी पुलिस के फेर में आया हो तो उसका रिकॉर्ड बन जाता है जो रिजनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो में महफूज हो जाता है।”
“आई सी।”
“विनायक घटके अगर इस शख्स का सही नाम है तो इसकी बाबत कुछ न कुछ रिकार्ड में जरूर होगा जो कि सामने आ जायेगा। मैं इस घटके की बाबत रिजनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो में इंक्वायरी रेज़ करूँगा।”
“गुस्ताख़ी माफ, कब करेंगे?”
“फौरन। आपसे फारिग होते ही।”
“ओह! मेरे से तो अब आप फारिग ही फारिग हैं। वैसे जवाब कब तक आने की उम्मीद होती है?”
“वहां ऐसी बहुत इंक्वायरी आती हैं। मेरे वाली अगर कतार में न लग गई तो बहुत जल्दी, आपकी उम्मीद से ज़्यादा जल्दी। मुमकिन है आज ही।”
“ओह! फिर तो” – सावन्त उठ खड़ा हुआ – “मैं रुखसत पाता हूँ।”
“इंक्वायरी का जो जवाब मुझे मिलेगा, उसकी मैं आपको ख़बर करूँगा।”
“मेहरबानी होगी, जनाब। मशकूर होंगे हम दोनों पार्टनर।”
“मैं कल रात की सीसीटीवी की रिकॉर्डिंग भी देखना चाहूँगा।”
“नो प्रॉब्लम। मैं ख़ुद कॉपी लेकर आऊंगा।”
“इतनी ज़हमत की ज़रूरत नहीं। शाम तक मैं ख़ुद आपके बार का चक्कर लगाऊंगा।”
“मुझे ख़ुशी होगी, जनाब। शाम को आधी रात के बाद तक आप मुझे बार में मौजूद पाएंगे।”
“बैंक्यू!”
सावंत ने उठकर बड़ी गर्मजोशी से एसएचओ से हाथ मिलाया और काफी चैन महसूस करता थाने से रुख़सत हुआ।
दो घन्टे में एसएचओ उत्तमराव भारकर की इंक्वायरी की ई-मेल का रिजनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो से जवाब आ गया। रिकॉर्ड के मुताबिक सब्जेक्ट विनायक घटके पिछले तीन सालों में दो बार बलात्कार के अपराध में गिरफ्तार हुआ था लेकिन दोनों ही बार भुक्तभोगी के अपने बयान से फिर जाने की वजह से उसके खिलाफ कोर्ट में केस नहीं ठहर सका था और वो बरी हो गया था।
इसके अलावा उसके खिलाफ रिकॉर्ड में कुछ नहीं था।
यानी न कोई कनविक्शन, न कोई सज़ा।
शाम छ: बजे के करीब भारकर ने ऑलिव बार में कदम रखा।
उस घड़ी सर्वेश सावन्त हाल में बार पर मौजूद था और वहीं अपने लिकर सप्लायर से उसके बिल की बाबत बात कर रहा था। वो भीड़ का वक्त नहीं था, बार का बिज़ी सैशन आठ बजे के बाद शुरू होता था।
भारकर उस घड़ी वर्दी में नहीं था फिर भी बार में दाखिल होते ही सावन्त ने उसे तुरन्त पहचाना। अपने सप्लायर को पूरी तरह से नजरअन्दाज़ करके वो लपकता हुआ भारकर के करीब पहुंचा।
“वैलकम! वैलकम!” – गर्मजोशी से उससे हाथ मिलाता सावन्त बोला - “मेरी उम्मीद से जल्दी आए, जनाब!”
“टाइम लगने की बात है।” – भारकर मुस्कराया – “अभी लगा।”
“आइए, ऑफिस में चलते हैं।”
सावन्त उसे ऊपर ऑफिस में लेकर आया, सादर उसे कुर्सी पेश की और ख़ुद उसके सामने बैठा।
“वैलकम!”– खींसे निपोरता निरर्थक भाव से वो फिर बोला – “क्या पिएंगे?”
“कुछ नहीं।”
सावन्त की भवें उठीं।
“बोले तो, अभी नहीं।” – भारकर बोला।
“ओह! अभी नहीं।”
“किसी के साथ बिज़ी थे? मैंने डिस्टर्ब किया?”
“बिल्कुल नहीं। मेरा लिकर सप्लायर था, बिल के लिए आया था, वेट कर सकता है।”
“हूँ।”
“आपका जवाब आ गया?”
“हां, भई, आ गया। उस वजह से भी यहां आया।”
“क्या जवाब आया? कोई बैड कैरेक्टर, कोई हिस्ट्रीशीटर निकला विनायक घटके?”
“नहीं।”
“तो?”
भारकर ने बताया।
“ओह!”– सावन्त का चेहरा उतर गया – “मेरे को नाउम्मीदी हुई। रेमन्ड परेरा को बड़ी तोप प्रोजेक्ट करता था, कराची वाले ‘भाई’ से उसका लिंक बताता था, मैं तो समझा था कि ख़ुद भी कोई ख़ास औकात वाला निकलेगा ...."
“ज़रूरी नहीं होता कि किसी ‘भाई’ के शह पर उछलने वाले बड़ी औकात वाले हों। गोली सरकाने में माहिर होते हैं इसलिए अक्सर उनका सैट अप फर्जी भी निकल आता है।”
“बोले तो वो लीड अब आपके किसी काम की नहीं?”
“ऐसा नहीं है। अभी मैंने उसका पीछा छोड़ नहीं दिया है। उन लोगों के बीच पुलिस के अपने भेदिए, अपने इनफार्मर होते हैं। मैं थामूंगा ऐसे किसी भेदिए को और उसकी मार्फत विनायक घटके की कोई ख़ास जानकारी निकलवाऊंगा।”
“लेकिन हैरानी है कि दो बार रेप जैसे बड़े केस में फंसा, फिर भी कुछ न बिगड़ा उसका! साफ बरी हो गया!”
“होता है।”
“क्यों ऐसे केस अदालत में नहीं ठहर पाते?”
“मैं क्या बोले! किसी केस का अदालत में ठहरना, न ठहरना केस-टु-केस डिफर करता है।”
“लेकिन बोले तो एक बात ऐसे केसों में फिर भी कॉमन पाई जाती है।”
भारकर की भवें उठीं।
“सुना है कि पुलिस की, ख़ुद विवेचन अधिकारी की, शह पर पीड़ित को बाकायदा डराया धमकाया जाता है कि वो केस वापिस ले ले वर्ना उसका अंजाम बहुत बुरा होगा। ये भी सुना है कि धमकी कारगर न हो तो पैसे से उसका मुंह बन्द किया जाता है। पीड़ित फिर भी इंसाफ पाने की, रेपिस्ट को उसकी करतूत की सख़्त सज़ा दिलाने की ज़िद करे तो उसका कत्ल करवा दिया जाता है।”
“गलत सुना है।” – भारकर का स्वर एकाएक शुष्क हुआ – “मुल्क में अभी इतनी बदअमनी नहीं है।”
“लेकिन ...”
“क्या लेकिन? मैं क्या यहां पुलिस के खिलाफ आपके रौशन ख़याल सुनने आया हूँ?”
सावन्त को एकाएक झटका-सा लगा।
“पुलिस इतने प्रैशर के तहत काम करती है इसलिए कभी-कभार कोई छोटी मोटी कोताही हो जाती है जिसका ये तो मतलब नहीं कि पुलिस मुजरिमों को खूटा तुड़ाए सांड की तरह छुट्टे घूमने देती है! पब्लिक साथ न दे तो पुलिस क्या करे? गवाह गवाही देना अपना फर्ज़ न माने तो पुलिस क्या करे? सबके सामने सरेआम वारदात हो और सबके सब दावा करने लगे कि उनकी तो उधर पीठ थी, उन्होंने तो कुछ देखा ही नहीं था, तो पुलिस क्या करे? मुजरिम को जानते पहचानते चश्मदीद गवाह ख़ामोश रहे तो पुलिस क्या करे?”
“स-सॉरी।”
“वारदात को होने से कोई नहीं रोक सकता। पुलिस एक आदमी पर एक पुलिसवाला तैनात नहीं कर सकती। मुजरिम छूट जाते हैं तो पकड़े भी जाते हैं। मुजरिमों से ओवरफ्लडिड जेलें इस बात का सबूत हैं।”
“सर, आई एम सॉरी। मैं ज़रा जज़्बात की रौ में बह गया था। शर्मिंदा हूँ।”
“नैवर माइन्ड। मैं कल रात विनायक घटके की यहां आमद की सीसीटीवी फुटेज देखने आया था, रिजनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो से आई रिपोर्ट तो मैं आपको फोन पर भी सुना सकता था, मेल से भी फारवर्ड कर सकता था।”
“मैं आपकी ज़हमत के लिए शुक्रगुजार हूँ। मैं अभी सब इन्तज़ाम करता हूँ।”
“थै क्यू।”
आनन-फानन उसने मॉनीटर को भारकर के सामने सैट किया।
“वहां बैक करो” – भारकर बोला – “जहां से मैं देखना चाहता हूँ।”
उसने आदेश का पालन किया, फिर बोला – “आप फुटेज चैक कीजिए, तब तक मैं नीचे लिकर सप्लायर को फारिग करके आता हूँ।”
भारकर ने सहमति में सिर हिलाया।
उसे मॉनीटर के साथ अकेला छोड़कर सावन्त वहां से रुख़सत हो गया।
पीछे भारकर ने ग़ौर से वो फुटेज देखी, बैक कर के फिर देखी।
कुछ हाथ न आया।
सिवाय इसके कि विनायक घटके नाम के शख्स की वो सूरत देख ली जिसका प्रिंट सर्वेश सावन्त उसे पहले ही मुहैया करा चुका था।
इसके जेहन में एक स्कीम पनप रही थी जिसके तहत उसे लग रहा था कि उसे उस सीसीटीवी फुटेज में से विनायक घटके की ऑलिव बार में आमद और रुख़सती वाला हिस्सा इरेज़ कर देना चाहिए था। अलबत्ता अभी निश्चित तौर से अपनी उस मूव के नफे नुकसान की बाबत कोई फैसला तो नहीं कर सका था।
‘देखा जाएगा’ – अपनी पुलिसिया दबंग फितरत के तहत उसने निर्णायक भाव से सोचा।
नए मिशन के तहत वो मॉनीटर के हवाले हुआ।
तभी सावन्त वापिस लौटा।
तत्काल भारकर ने मॉनीटर ऑफ कर दिया।
“हो गया?” – अपनी कुर्सी पर वापिस बैठता सावन्त बोला।
भारकर ने सहमति में सिर हिलाया।
“कोई काम बना?”
उसका सिर इंकार में हिला। फिर एकाएक वो उठ खड़ा हुआ।
“चलता हूँ।”– वो बोला।
“चलते हैं!” – सावन्त हैरानी से बोला – “जनाब, कोई चाय पानी ....”
“नहीं, भई। अभी मूड नहीं है। फिर कभी ... .देखेंगे। जय हिन्द!”
लपकता-फुदकता सावन्त उसके पीछे दौड़ा।
“भारकर साहब, प्लीज़” – वो निकास द्वार के करीब पहुंच चुके अपने मेहमान से सम्बोधित हुआ।
भारकर ठिठका।
“एक मिनट ..... सिर्फ एक मिनट रुकिए।”
भारकर ने सहमति में सिर हिलाया।
सावन्त लपकता सा बार के पीछे कहीं गया और एक पेपर बैग के साथ उलटे पांव वापिस लौटा। फिर वो उसके साथ बार से बाहर निकला और सामने खड़ी पुलिस की जीप के करीब पहुंचा।
“साहब, ये।” – उसने बैग भारकर को थमाया।
“क्या है?” – भारकर बोला।
“मामूली चीज़ है।” – सावन्त व्यग्र भाव से बोला – “आपने जाम को नक्की बोला, इस वास्ते ....”
“क्या है, भई?”
“मामूली चीज़ है।”
भारकर ने बैग में झांका तो भीतर ग्लैनलिवेट की एक बोतल मौजूद पाई।
“ये क्या!” – भारकर बोला।
“सर, आपको कोई परवाह है! समझिएगा आपने हमें मेहमाननवाज़ी का मौका दिया।”
“अच्छा !”
“यस, सर। प्लीज़ . . . प्लीज़ कुबूल कीजिए।”
“ओके। बैंक्यू।”
सावन्त ने चैन की लंबी सांस ली।
□□□