रिसीवर अभी भी मेरे हाथ में था लेकिन अब मेरे कानों में दूसरी ओर से आती सोनिया तलवार की आवाज के स्थान पर डायल टोन की आवाज पड़ रही थी । मैं ऐसे ही बुत बना खड़ा रहा । मेरी निगाह फर्श पर पड़ी मंजुला की लाश पर पड़ती थी और फौरन वहां से भटक जाती थी । मुझे अब भी विश्वास नहीं हो रहा था कि मंजुला मर चुकी थी और यह कि वह मेरे घर आई थी । उसके एक बार मेरे घर से रुखसत होने के बाद से वह मेरी उससे पहली मुलाकात थी । अपना बाकी का सामान लेने भी वह खुद नहीं आई थी । एक छुट्टी वाले दिन उसने किसी वाकिफकार को भेजकर अपना सामान मंगवा लिया था ।
फिर मंजुला द्वारा नियुक्त एक वकील ने मेरे ऑफिस में मुझ से संपर्क स्थापित किया था और मुझे मंजुला से विधिवत तलाक दिलवा दिया था ।
अब मेरी तलाकशुदा बीवी मेरे सामने मरी पड़ी थी और उसकी सोनिया तलवार नाम की कोई सहेली मुझे टेलीफोन पर यह बताने की कोशिश कर रही थी कि मंजुला किसी भारी मुसीबत में पड़ गई हो सकती थी, लेकिन टेलीफोन में बार-बार व्यवधान आ जाता था ।
पिछले दो सालों में, हमारी अलहदगी के बाद से मुझे इत्तफाक से भी कभी मंजुला की सूरत दिखाई नहीं दी थी । आरम्भ में मेरे मन में यह ख्याल अक्सर आया करता था कि मैं उसके ऑफिस में टेलीफोन करके उसका हाल-चाल पूछूं लेकिन ऐसा मैंने किया कभी नहीं था । सच पूछिये तो मैने तो कभी यह भी जानने की कोशिश नहीं की थी कि जिन्दा थी या मर गई थी या वह कहीं यह शहर छोड़ तो नहीं गई थी । मर्द जो ठहरा मैं । किसी औरत की ऐसी परवाह करना मेरी शान के खिलाफ बात जो होती ।
इतनी मामूली बात समझने के लिए मेरा शरलाक होम्स होना जरूरी नहीं था कि उस पर कातिलाना हमला उसके वहां पहुंचने के बाद ही किया था । नीचे सड़क पर ऐन मेरी इमारत के सामने उसे चाकू मारा गया था, यह बात ताजे जख्म से तब भी बहते खून से साफ जाहिर हो रही थी ।
वह घायल होने से पहले मुझ तक पहुंच जाती तो मैं देखता कि कौन माई का लाल उसका बाल भी बांका कर पाता था । किस्मत की खूबी देखिए टूटी कहां कमंद । दो-चार हाथ जबकि लबे बाम रह गए ।
फिर मुझे उन कारों की याद आई मंजुला के वहां पहुंचने से पहले जिनकी आवाजें मैंने सुनी थीं । जरूर मंजुला वहां कार चला कर आई थी और उसका हत्यारा एक अन्य कार पर उसके पीछे-पीछे वहां पहुंचा था ।
वह कुछ क्षण और जिन्दा रहती तो शायद मुझे यह बताने में कामयाब हो जाती कि उसका आक्रमणकारी कौन था । लेकिन अपनी जिन्दगी के आखिरी क्षणों में अपने आक्रमणकारी का नाम लेने से ज्यादा जरूरी काम उसे मुझसे माफी मांगना लगा था ।
वह मेरे पास इसीलिए आई थी क्योंकि उसे मेरी जरूरत थी । दो साल की अलहदगी के बाद भी उसे मुझ पर इतना मान था कि उसकी जरूरत में मैं उससे विमुख नहीं हो सकता था ।
छोडूंगा नहीं हरामजादे को - उसके हत्यारे के प्रति अपने आप ही मेरे मुंह से वे उदगार निकल गए ।
फिर मुझे रिसीवर यूं हाथ में थामे रहने की अपनी मूर्खता का आभास हुआ ।
मैंने रिसीवर वापिस क्रेडिल पर रख दिया ।
तुरन्त टेलीफोन की घन्टी फिर बजी ।
मैंने फिर रिसीवर उठा लिया ।
“मिस्टर कोहली ? - मुझसे पहले वाले ही स्त्री स्वर में पूछा गया ।
“हां ।” - मैं बोला ।
“मैं फिर सोनिया बोल रही हूं । यह टेलीफोन को बार-वार क्या हो जाता है ?”
“पता नहीं ।”
“अगर इस बार लाइन कट जाये तो भगवान के लिए आप 43845 पर फोन कीजिएगा ।”
“अच्छा । बात क्या है ?”
“बात ही तो मैं बताने की कोशिश कर रही हूं लेकिन आप सुनते ही नहीं, समझते ही नहीं ।”
“मैं अब सुन रहा हूं, समझ रहा हूं ।”
“मिस्टर कोहली, आज-कल मंजुला दो ऐसे युवकों की सोहबत में है जो सूरत से ही गुंडे-बदमाश लगते हैं । कल वह उन्हीं दोनों के साथ गई थी और वह कोई बहुत फसादी और खतरनाक काम कर बैठी मालूम होती है । बड़ी देर से यहां बाहर सड़क पर एक आदमी खड़ा है जो मुझे लगता है कि हमारे ही फ्लैट की निगरानी कर रहा है । फासले की वजह से मैं उसकी सूरत ठीक से तो नहीं देख पा रही, लेकिन वह मुझे उन्हीं दोनों युवकों में से एक मालूम होता है । वैसे मेरा ख्याल गलत भी हो सकता है । कितनी ही देर से वह मुझे यहां मंडराता दिखाई दे रहा है । वह कभी यहां से चला जाता है और कभी फिर वापिस लौट आता है । कभी टेलीफोन की घन्टी बजने लगती है । मैं फोन उठाकर हल्लो कहती हूं तो लाइन कट जाती है । ऐसा कितनी ही बार हो चुका है । मेरी समझ में नहीं आ रहा कि क्या हो रहा है, मिस्टर कोहली । मुझे तो बहुत डर लगा रहा है । अपने से ज्यादा मुझे मंजुला की चिन्ता सता रही है । पता नहीं क्या कर दिया है उसने जो इतनी अनोखी-अनोखी बातें हो रही हैं ।”
“तुम अपने फ्लैट में अकेली हो ?”
“हां ।”
“तुम दोनों के साथ एक और लड़की भी तो रहती थी ?”
“पहले रहती थी, अब नहीं रहती । डेढ़ साल से यहां मैं और मंजुला ही रह रही हैं ।”
“क्या तुम अपने लिए भी कोई खतरा महसूस कर रही हो ?”
“नहीं । मिस्टर कोहली, मुझे खतरा नहीं, डर लग रहा है । किसी अज्ञात आशंका से मेरा दिल बैठा जा रहा है । मुझे ऐसा लगता है जैसे बहुत बुरा कुछ होने वाला है । जो आदमी बाहर फुटपाथ पर मौजूद है, अगर वह मेरी भी फिराक में है तो.. लेकिन मैंने क्या किया है ? कोई भला मेरी फिराक में क्यों होगा ?”
“क्या पता वह आदमी मंजुला के वहां लौटने की इन्तजार कर रहा हो ?”
“हां । यह हो सकता है ।”
“तुमने मुझे क्यों फोन किया ?”
“क्योंकि आप कभी मंजुला के पति थे । और मंजुला अभी भी आप पर बहुत मान रखती है । मिस्टर कोहली आपका जिक्र करते, आपकी तारीफ करते, वह कभी अघाती नहीं । मैंने कितनी ही बार उसे यह कहते सुना है कि अगर उस पर कभी कोई मुसीबत आई और उसे किसी की मदद की जरूरत हुई तो वह आप ही के पास जाना पसन्द करेगी और उसे पूरा भरोसा था कि आप उसे निराश नहीं करने वाले थे ।”
“आई सी ।”
“मिस्टर कोहली, मंजुला को कहीं से भी तलाश कीजिये । पता लगाइए कि उसे कुछ हो तो नहीं गया । अगर आप जरूरी समझें तो बेशक पुलिस को फोन कीजिए ।”
“तुम मुझे अपना पता बताओ । मैं वहां आता हूं और सबसे पहले यह मालूम करने की कोशिश करता हूं कि तुम्हारी इमारत के बाहर फुटपाथ पर मौजूद आदमी क्या वाकई मंजुला की फिराक में है ।”
उसने मुझे कर्जन रोड का एक पता बता दिया ।
“हमारा फ्लैट सबसे ऊपर की मंजिल पर सामने वाला है” - वह बोली ।
“बाहर जो आदमी मौजूद है वह कब से वहां है ?”
“काफी देर से है । मैं रात दस बजे के करीब वापिस लौटी थी । तभी मैंने पहली बार उसे देखा था ।”
“उसे मालूम होगा कि इतनी रात गये तक भी अभी तुम सोई हुई नहीं हो ?”
“नहीं । मेरे फ्लैट की सड़क से दिखाई देने वाली कोई बत्ती नहीं जल रही ।”
“गुड । मैं आधे पौने घन्टे में वहां पहुंच रहा हूं । मेरे आने पर भी तुम कोई बत्ती न जलाना ।”
“आप क्या करेंगे ?” - वह सशंक स्वर में बोली ।
“जो मैं करूंगा, तुम्हारे सामने आ जाएगा । पहले तुम मुझे वहां पहुंचने तो दो । और सावधान रहना ।”
“आप तो मुझे और भी डरा रहे हैं, मिस्टर कोहली ।”
“डरने की कोई बात नहीं, लेकिन सावधानी बरतने में भी कोई हर्ज नहीं ।”
“अच्छी बात है ।”
मैने उसे मंजुला के अंजाम के बारे में जान-बूझकर नहीं बताया था । जब मैं वहां पहुंच ही रहा था तो टेलीफोन पर वह बात कह कर उसे हलकान करने का क्या फायदा था ।
मैंने फोन रख दिया और घड़ी पर निगाह डाली ।
पौने तीन बजने को थे ।
यानी कि तब से केवल दस मिनट पहले तक मंजुला जिन्दा थी ।
मंजुला की लाश दरवाजे के सामने इस प्रकार पड़ी थी कि बाहर निकलने के लिए अगर मैं उसके ऊपर से लांघना नहीं चाहता था तो उसे वहां से थोड़ा परे सरकाना जरूरी था । मैंने बड़ी हिम्मत करके उसकी दोनों टांगें पकड़ी, और उसके शरीर को थोड़ा परे किया और दरवाजा खोलकर बाहर निकल गया ।
बाहर गलियारे में और सीढ़ियों पर मुझे जगह-जगह उसके जिस्म से निकला खून बिखरा दिखाई दिया । कई जगह दीवार पर उसके खून से सने हाथ का पूरा पंजा छपा हुआ था । बेचारी पता नहीं कितनी मुश्किल से कहां-कहां सहारा लेती हुई ऊपर तक पहुंची थी ।
मैं बाहर सड़क पर आ गया ।
सड़क सुनसान पड़ी थी ।
मेरी इमारत के सामने एक काली एम्बैसडर खड़ी थी । मैंने देखा कार की चाबियां उसके इग्नीशन में झूल रही थीं । लेकिन खून की जिस लकीर का पीछा करता हुआ मैं नीचे पहुंचा था, वह एम्बैसडर की तरफ नहीं बढ़ रही थी । खून के छींटे एम्बैसडर से कोई तेरह-चौदह गज पीछे एक स्थान पर खत्म होते दिखाई दे रहे थे । वहां शायद दूसरी कार आकर रुकी थी जिस पर कि मंजुला का पीछा करता हुआ हत्यारा वहां तक पहुंचा था । वहां एक स्थान पर खून का अपेक्षाकृत बड़ा ढेर दिखाई दे रहा था ।
एम्बैसडर के इग्नीशन में लटकती चाबियां साबित कर रही थी कि मंजुला उसी पर सवार होकर वहां पहुंची थी, लेकिन वह मेरे फ्लैट वाली ईमारत के कम्पाउंड में दाखिल होने के स्थान पर पहले पीछे उधर गई थी जहां उसके आक्रमणकारी की कार खड़ी हुई थी । इसका एक ही मतलब हो सकता था कि वह दूसरी कार के ड्राइवर को जानती थी । अपने सिर पर मंडराता जो खतरा उसे मेरी पनाह में लाया था, वह निश्चय ही उस दूसरी कार के ड्राईवर से नहीं था वर्ना वह अपनी कार से उतरकर उसके पास न गई होती । अगर उसे मालूम होता कि दूसरी कार का ड्राईवर ही उसका खून करने वाला था तो वह निश्चय ही फौरन शायद गला फाड़कर चिल्लाती हुई, मेरे फ्लैट की तरफ भाग पड़ती ।
मैं कल्पना करने की कोशिश करने लगा की क्या हुआ होगा ।
क्या हत्यारा उस पर आक्रमण करते ही वहां से कूच कर गया होगा या वह यह देखने के लिए रुका होगा कि उसके प्राण निकल गए थे या नहीं । या शायद उसे गारंटी थी कि ऐन दिल के पास उस भीषण प्रहार से वह बचने वाली नहीं थी और इसलिए उसने इस बात की परवाह नहीं की थी कि वह मरकर कहीं गिर जाने के स्थान पर सामनी इमारत में दाखिल होने की कोशिश करने लगी थी ।
अगर हत्यारे ने उसे मुझ तक पहुंचते देखा था तो फिर तो उसे यह अंदेशा भी हो सकता था कि शायद मंजुला अपने आक्रमणकारी का नाम मुझे बताने के बाद मरी थी ।
भगवान करे ऐसा ही सोच रहा हो वह हरामजादा ।
और इसी वजह से उसे मुझ पर भी आक्रमण करना जरुरी लगने लगे ।
फिर देख लूंगा मैं साले को ।
उसे फर्क तो महसूस होगा एक औरत पर वार करने में और मुझ पर वार करने में ।
मैं वापस काली एम्बैसडर के पास पहुंचा ।
मैंने कार का दरवाजा खोला तो भीतर डोम लाइट जल उठी ।
कार के डैशबोर्ड में बने खाने में एक डायरी पड़ी थी । मैंने उसे उठाकर खोला और डोम लाइट की रोशनी में उसके उस पृष्ठ पर निगाह डाली जो डायरी के मालिक द्वारा अपनी व्यक्तिगत बातें दर्ज करने के लिए सुरक्षित होता था । वहां उसका नाम, पता, टेलीफोन नंबर, ड्राइविंग लाइसेंस का नंबर, बीमे की पालिसी का नंबर और उस कार का नंबर वगैरह सब-कुछ दर्ज था ।
उस डायरी की मुताबिक वह कार किसी किरण कुमार नाम के आदमी की थी जोकि विलिंगडन क्रीसेंट की एक कोठी में रहता था ।
मैंने कार की चाबियां इग्नीशन से निकालकर अपनी जेब में डाल ली और कार से बाहर निकला ।
आपके खादिम के पास एक पुरानी-सी फिएट कार है तो सही लेकिन इत्तफाक से उस रोज वह ओवरहालिंग के लिए एक मोटर वर्कशॉप में जमा थी । कर्जन रोड जाने के लिए मैंने उस काली एम्बैसडर को इस्तेमाल करने का फैसला कर लिया था ।
तभी मुझसे कोई टकराया ।
मैंने उसे एकाएक थाम न लिया होता तो वह जरुर फुटपाथ पर ढेर हो गया होता । उसने फिर सिर उठाया तो मैंने पाया कि वह एक लगभग पचास साल का आदमी था और नशे में बुरी तरह धुत्त था । उसके मुंह से ही नहीं बल्कि उसके कपड़ों से भी विस्की की गंध आ रही थी । उस आदमी की सूरत मैं पहचानता था । वह मेरे वाले ही ब्लाक में कहीं रहता था, लेकिन वह कौन था और क्या करता था, यह मुझे नहीं मालूम था ।
“मेरे दोस्त, मेरे भाई, मेरे बाप” - वह नशे से थरथराती आवाज में बोला - “मैं तुम्हें अपनी बेहतरीन पालिशी पेश करना चाहता हूं ।”
प्रत्यक्षतः वह उस दिशा से पैदल वहां पहुंचा था जिधर दूसरी कार गई हो सकती थी । मैंने उस कार के बारे में उससे कुछ पूछने की कोशिश की लेकिन कामयाब न हो सका । वह इस कदर टुन्न था कि उसे अपनी ही कहने की होश थी, किसी की सुनने की होश नहीं नहीं थी ।
“श्पैशल पालिशी” - वह मेरा कन्धा थामे आगे-पीछे झूलता कहता रहा - “एक्श्ट्रा श्पैशल पालिशी । लेटेस्ट थिंग, शर । ग्रुप श्युशाईट प्लान । जब आप मरेंगे तो आपका इंश्योरेंश एजेंट आपके शाथ मरेगा । हमारा नया श्लोगन हैं । अजनबियों के शाथ मरने जगह अपनों के शाथ मरिये । आप अपने मरने के वक्त और जगह के बारे में फैशला कर के अपने इंश्योरेंश एजेंट को फोन भर कर दीजिये । जिश इमारत शे आप कूदेंगे वही शे वह आपके साथ कूदेगा । मरने की गारंटी । पालिशी की पेमेंट की डबल गारंटी । शुपर श्पैशल पालिशी...”
पता नहीं क्या बके जा रहा था कमबख्त । बड़ी मुश्किल से मैंने उसे अपने से अलग किया तो एकाएक वह रोने लगा ।
“तुम मेरे भाई हो” - वह सड़क पर हवा में हिलते दरख्त की तरह हिलता हुआ बोला - “मैं तुम्हारा भाई हूं । मेरे भाई, तुम मुझे अपने गले शे क्यों नहीं लगा रहे हो ? क्या मुझसे खफा हो ? तुम...?”
उसे वैसे ही बकता-झकता छोड़कर मैं वापिस अपने फ्लैट में पहुंचा ।
मुझे मंजुला के आसपास कोई हैंडबैग दिखाई न दिया ।
मैंने उसकी जेबे टटोली तो उसकी कोट की जेब में से मैंने एक चमड़े का पर्स बरामद किया । उस पर्स में दो सौ के करीब रुपये थे, कुछ खरीज थी, खरीददारी की कुछ रसीदें थी, एक कंघी थी, एक लिपस्टिक थी, एक चाबी थी और - एक मेरी तस्वीर थी ।
मैंने सब-कुछ वापस पर्स में डाल दिया ।
मैंने जल्दी-जल्दी कपडे पहने । मेरी उस वक्त की पोशाक में एक शोल्डर होलस्टर भी शामिल था । उसमे जो 38 कैलिबर की स्मिथ एंड वैसन रिवाल्वर मैंने रखी, उसका लाइसेंस मेरे पास था और मेरा वह कोट इस प्रकार सिला हुआ था की उसके नीचे से रिवाल्वर का आभास बड़ी मुश्किल से ही हो पाता था ।
मैंने मलकानी को फोन किया ।
मलकानी मेरा दोस्त था । पहाडगंज में वह एक होटल चलाता था जो दरअसल विलायती रंडियों का और देसी-विलायती दोनों तरह के नशेबाजों का अड्डा था ।
बड़ी देर बाद दूसरी तरफ से फोन उठाया गया ।
“हल्लो” - मुझे एक विलायती जनानी आवाज सुनाई दी - “हू इज देयर ?”
खुशकिस्मत था पट्ठा । रोज नई औरत के साथ सोता था ।
“सुधीर कोहली” - मैं बोला - “मलकानी को फोन दो ।”
“वह सो रहा है ।”
“तो जगा दो ।”
“वह अभी थोड़ी देर पहले ही सोया हैं ।”
“सुना नहीं” - मैं कहर भरे स्वर में बोला ।
“ओके । ओके । डोंट हिट दी सीलिंग ।”
थोड़ी देर बाद मेरे कान में मलकानी की आवाज पड़ी ।
“क्या आफत आ गई है ?” - वह नींद में डूबे स्वर में बोला ।
“मलकानी” - मैं तीखे स्वर में बोला - “होश में आओ । मेरे फ्लैट में एक लाश पड़ी हैं और मुझे तुम्हारी मदद की जरुरत हैं ।”
“तुमने किसी का खून कर डाला है” - मलकानी बोला - “यार इतनी तो अकल की होती । अपने ही फ्लैट में किसी का खून करने की क्या जरुरत आ पड़ी थी तुम्हे ?”
“मैंने किसी का खून नहीं किया है । मलकानी, मंजुला का खून हो गया है ।”
“किसका ?”
“मंजुला का ।”
“वही मंजुला जो...”
वह जान-बूझकर ठिठक गया ।
“हां, वही मंजुला” - मैंने उसका फिकरा पूरा किया - “जो कभी मेरी बीवी हुआ करती थी ।”
“ओह माई गॉड ।”
“मलकानी, मैं चाहता हूं तुम फौरन मेरे फ्लैट पर पहुंचो और आकर सारे सिलसिले को संभालने की कोशिश करो । मैं तुम्हारे यहां पहुंचने से पहले यहां से जा चुका होऊंगा ।”
“क्यों ? कहां ?”
“मंजुला कर्जन रोड पर अपनी जिस सहेली के पास रहती थी, उसका फोन आया था । मुझे फौरन उसके पास पहुंचना है । वहां से मुझे मंजुला के कत्ल से ताल्लुक रखता कोई क्लू मिलने की उम्मीद है ।”
“लेकिन मंजुला का कत्ल कैसे हो गया ?”
“अभी कुछ मालूम नहीं । मैं तुमसे फिर बात करूंगा ।”
“लेकिन मुझे कुछ तो बताओ । आखिर मुझे पुलिस के ढेर सारे सवालों का जवाब देना होगा ।”
“मलकानी, मैं कुछ नहीं जानता । आनेस्ट, मैं कुछ नहीं जानता । मैं सिर्फ इतना जानता हूं की ढाई बजे के करीब एकाएक वह यहां पहुंची थी । वह छाती पर हुए चाक़ू के वार से घायल थी । वह वार उस पर नीचे सड़क पर ही किया गया मालूम होता था और वह किसी तरह मेरी बाहों में दम तोड़ने के लिए ऊपर मेरे फ्लैट तक पहुंचने में कामयाब हो गई थी ।”
“पुलिस मुझसे तुम्हारे बारे में पूछेगी ?”
“तो तुम कह देना कि तुम्हें नहीं मालूम कि मैं कहां हूं । तुम साफ बता देना कि तुम मेरे बुलाये से वहां पहुंचे थे । बाद में मैं सब भुगत लूंगा ।”
“लेकिन...”
“मलकानी, बात को समझने की कोशिश करो । पुलिस के आगमन की प्रतीक्षा में मैं यहां रुका नहीं रह सकता । वे लोग तो घण्टों मेरी खलासी नहीं करेंगे ।”
“इतना तो बता दो की मंजुला यूं एकाएक तुम्हारे पास कैसे आ गई ? क्या तुम्हारी उससे फिर से मेल-मुलाकात शुरू हो गई थी ?”
“नहीं । वह एकाएक यहां आई थी ।”
“फिर भी...”
“मलकानी, प्लीज । बातों में वक्त जाया मत करो ।”
“फ्लैट को तुम खुला छोड जाओगे ?”
“नहीं । मैं फ्लैट को ताला लगाकर चाबी मेन गेट के पास बने लैटर बॉक्स में रख जाऊंगा ।”
“ओके । मैं आ रहा हूं ।”
मैंने रिसीवर रख दिया ।
मैंने वार्डरोब में से मुख्यद्वार की वह चाबी निकाली जो कभी मंजुला के अधिकार में हुआ करती थी । फ्लैट से बाहर निकलने से पहले मैंने आखिरी निगाह मंजुला के चेहरे पर डाली, लेकिन मैं ज्यादा देर उसे देखते रहने की ताव न ला सका । मैंने फौरन उसकी तरफ से मुंह फेर लिया और बाहर निकला । मैंने मुख्य द्वार को ताला लगाया और नीचे पहुंचा । चाबी मैंने लैटर बॉक्स में डाल दी और सड़क पर आ गया ।
मैं किरण कुमार साहब की काली एम्बैसडर में सवार हुआ ।
पता नहीं कौन था यह किरण कुमार ।
मंजुला के अधिकार में उसकी कार होना उसके मंजुला से जिस रिश्ते की ओर इशारा था, उसे अब मैं मंजुला की मौत के बाद अपने जहन में नहीं लाना चाहता था ।
मेरे से अलहदगी के बाद उसकी जिंदगी सिर्फ उसकी जिंदगी थी । मैं उसमें नुक्स निकालने वाला कौन होता था ?
मैंने कार आगे बढ़ाई ।
सुनसान सड़कों पर कार दौड़ाता हुआ मैं कर्जन रोड की तरफ उड़ चला ।
अब मुझे मंजुला की मौत की खबर उसके घर वालों को देने की बदमजा जिम्मेदारी भी निभानी पड़नी थी ।
अपनी भूतपूर्व सास और साली दोनों मुझे बहुत पसंद थीं । दोनों में से किसी ने भी कभी मुझे शिकायत का मौका नहीं दिया था और न ही कभी मुझे यह जताया था कि मैं उनकी इंतहाई खूबसूरत और मोटी तनखाह कमाने वाली लड़की के काबिल नहीं था ।
कार कर्जन रोड पहुंची ।
वहां जिस इमारत का पता मुझे दिया गया था, वह मैंने बड़ी सहूलियत से तलाश कर ली, लेकिन मैंने उसके सामने कार रोकने का उपक्रम नहीं किया । मैं सावधानी से दाएं बाएं निगाह फिराता हुआ कार को सीधा निकालकर ले गया ।
मुझे कहीं किसी आदमी के दर्शन नहीं हुए ।
मैंने कार को आगे एक स्थान पर खड़ा किया और पैदल वापिस लौटा ।
कहीं कोई नहीं था ।
मैंने इमारत के एक पहलू में मौजूद एक संकरी गली और पिछवाड़े में मौजूद चौड़ी सड़क का भी चक्कर लगाया ।
कहीं कोई नहीं था ।
फिर मैंने इमारत में कदम रखा ।
इमारत में लिफ्ट थी लेकिन वह उस वक्त बंद थी । सीढ़ियों के रास्ते मैं सबसे ऊपर की मंजिल पर पहुंचा ।
मैं उस आदमी के बारे में सोच रहा था जो सोनिया के कथनानुसार शायद मंजुला की फिराक में वहां मंडरा रहा था । जरूर वह मंजुला की इंतजार से तंग आकर वहां से टल गया चुका था ।
मैंने उस मंजिल के सामने वाले फ्लैट की कॉलबैल का बटन दबाया । मुझे भीतर कहीं घंटी बजने की धीमी-सी आवाज सुनाई दी । लेकिन घंटी की प्रतिक्रियास्वरूप मुझे भीतर से कोई आहट न सुनाई दी ।
मैंने फिर घंटी बजाई और साथ ही दरवाजे पर हल्की-सी दस्तक भी दी ।
इस बार मुझे दरवाजे की तरफ बढ़ते कदमों की आहट सुनाई दी । मैं दरवाजा खुलने की प्रतीक्षा में बाहर ठिठका खड़ा रहा ।
मुझे एक चिटखनी सरकाने जाने की आवाज आई । फिर दरवाजे का हैंडल घूमा और किसी ने दरवाजे को थोड़ा सा भीतर को खींचा । दरवाजे और चौखट के बीच में पैदा हुई कोई तीन इंच की झिरी में से एक चीज मुझे अपनी तरफ झांकती दिखाई दी ।
वह एक पिस्तौल की नाल थी जो उस झिरी में से निकलकर मेरी छाती से आ लगी ।
***
वह एक असाधारण लंबी नाल वाली देसी पिस्तौल थी जो किसी नकली पिस्तौल-तमंचे बनाने वाले बहुत ही घटिया कारीगर द्वारा बनाई गई मालूम होती थी ।
“भीतर आओ” - दरवाजे के पीछे से मुझे आदेश दिया गया ।
वह एक खरखराती हुई भारी आवाज थी जो किसी सोनिया तलवार की हरगिज नहीं हो सकती थी ।
मैंने दरवाजे का हैंडल थामा । उसे धीरे से धकेलकर भीतर कदम रखने के स्थान पर मैंने उसे जोर का धक्का दिया । दरवाजा पिस्तौल वाले के जिस्म से कहीं टकराया । पिस्तौल की नाल मेरी छाती पर से हट गई । मैंने फुर्ती से भीतर छलांग लगाई और अपने बाएं हाथ का एक घूंसा उसके थोबड़े पर रसीद किया । मेरा दायां हाथ एक कैरेट चाप की सूरत में उसके पिस्तौल वाले हाथ की कलाई से टकराया । पिस्तौल उसके हाथ से निकाल गई और टन्न की आवाज के साथ नंगे फर्श पर जाकर गिरी । चेहरे पर पड़े घूंसे के प्रहार से वह एक कदम पीछे लड़खड़ाया और फिर संभल गया । वह जमीन पर पड़ी अपनी पिस्तौल की तरफ झपटने ही वाला था कि मैंने फुर्ती से अपने शोल्डर होलस्टर में से अपनी रिवॉल्वर खींच ली और उसे उसकी तरफ तान दिया ।
वह ठिठक गया और व्याकुल भाव से कभी मेरे चेहरे की तरफ और कभी अपनी तरफ तनी रिवॉल्वर की नाल की तरफ देखने लगा ।
मैंने पांव की ठोकर से अपने पीछे दरवाजा बंद कर दिया और कर्कश स्वर में बोला - “पीछे हटो ।”
वह बड़ी अनिच्छा से दो कदम पीछे हटा ।
“और पीछे” - मैं बोला ।
वह और पीछे नहीं हटा । अब वह चेहरे पर हिंसक भाव लिए मेरी तरफ देख रहा था ।
मैं एक कदम आगे बढ़ा ।
फिर मेरी लात हवा में घूमी और मेरा भारी बूट जोर से उसकी छाती से टकराया ।
उसके पांव उखड़ गए । वह पीछे दीवार से टकराया और भरभरा कर फर्श पर ढेर हो गया ।
“सुना नहीं था, हरामजादे ।” - मैं कहरभरे स्वर में बोला ।
उसने उत्तर नहीं दिया । वह जहां गिरा था चुपचाप वहीं पड़ा रहा । शायद अब वह मेरे आदेश पर ही उठकर अपने पैरों पर खड़ा होना चाहता था ।
मैं उसकी तरफ से निगाह हटाये बिना नीचे झुका और मैंने फर्श पर से उसके हाथ से निकली पिस्तौल उठा ली । उसे मैंने जोर से जमीन पर पटका तो उसकी नाल, हैंडल और चैंबर तीनों भाग अलग-अलग हो गए । मैंने भारी हैंडल एक ओर उछाल दिया और नाल और चैंबर को अपने कोट की जेब में डाल लिया ।
फिर मैंने अपने चारों तरफ निगाह डाली । वह एक बैठक की तरह सजा हुआ कमरा था । उसकी पिछली दीवार में एक दरवाजा था जो उस वक्त बंद था लेकिन जिसके नीचे खिंची रोशनी की लकीर भीतर रोशनी होने की चुगली कर रही थी ।
मैं फिर फर्श पर पड़े आदमी की तरफ आकर्षित हुआ ।
वह एक लगभग पच्चीस साल का हिप्पियों जैसे लंबे बालों वाला, क्लीन शेव्ड, युवक था । उस वक्त वह अपने बायें हाथ से अपने दायें हाथ की कलाई सहला रहा था ।
“उठकर के खड़े हो जाओ” - मैं कर्कश स्वर में बोला ।
“मेरा हाथ तोड़ दिया तुमने ? - वह बोला ।
“खड़े तुमने अपने पैरों पर होना है, हाथों पर नहीं ।”
वह बड़ी मेहनत से उठकर खडा हुआ ।
मैंने अपनी रिवॉल्वर अभी भी उसकी तरफ तानी हुई थी ।
“यह देख रहे हो न मेरे हाथ में क्या है ?” -.मैं बोला ।
उसने रिवॉल्वर पर निगाह डाली ओर अपने सूखे होंठों पर जुबान फेरी ।
“यह तुम्हारा देसी तमंचा नहीं” - मैं बोला - “पांच हजार रुपये की विलायती रिवॉल्वर है । तुम्हारी बाल्कनी में यह एक ऐसा नफीस रोशनदान बना देगी जो शायद कोई ड्रिल मशीन भी नहीं बना सकेगी । तुम अपनी बाल्कनी में रोशनदान बनवाना चाहते हो ?”
“बालकनी ?” - वह कठिन स्वर में बोला - “रोशनदान !”
“तुम अपनी खोपड़ी में सुराख करवाना चाहते हो ?”
“नहीं ।”
“शाबाश । अब साबित करके दिखाओ कि तुम अपनी खोपड़ी में सुराख नहीं करवाना चाहते ।”
“क..कैसे.. .कैसे साबित करके दिखाऊं ?”
“शुरुआत जो मैं पूछूं, उसका जवाब देकर करो । ओके ?”
उसने सहमति में सिर हिलाया ।
लडकी कहां है?
“कौन सी लड़की ?”
“हरामजादे । मैंने कहा है सवाल का जवाब दे । यह नहीं कहा है कि उल्टे मेरे से सवाल कर ।”
“भ....भीतर ।”
“भीतर कहां ?”
उसने बंद दरवाजे की तरफ इशारा कर दिया ।
“वह बैडरूम है ?”
“हां ।”
“आगे बढ़ो ।”
वह आगे बढ़ा ।
लेकिन दरवाजे के पास पहुंचकर वह ठिठक गया ।
“दरवाजा खोलो ।” - मैंने आदेश दिया ।
दरवाजा खोलने की जगह उसने भयभीत भाव से मेरी तरफ देखा ।
मैंने अपना रिवॉल्वर वाला हाथ तनिक ऊंचा उठाया और घूरकर उसे देखा ।
उसने मजबूरन दरवाजा खोला ।
उसने भीतर कदम रखा और उसके पीछे मैं भी बैडरूम में दाखिल हुआ ।
तब मेरी समझ में आया कि वह दरवाजा खोलने से हिचक क्यों रहा था ।
भीतर एक खूबसूरत युवती मौजूद थी । वह जिस कुर्सी पर बैठी हुई थी, उसी के साथ वह बंधी हुई थी । उसकी टांगें कुर्सी की टांगों के साथ बंधी हुई थी और हाथ कुर्सी की पीठ के पीछे बंधे हुए थे । वह शलवार-कमीज पहने थी लेकिन वह कमर तक नंगी थी ।जिस ढंग से उसकी कमीज सामने से फटी हुई थी और उसकी अंगिया अपनी एक तनी के सहारे उसके एक पहलू में लटक रही थी, उससे लगता था कि तमंचे वाले सूरमा ने उसका गिरहबान सामने से पकड़ा था और एक झटके मे उसे नीचे तक फाड़ दिया था । लड़की के मुंह पर कपड़ा बंधा हुआ था जिसकी वजह से वह कोई आवाज निकालने में असमर्थ थी । उसकी गोरी-चिट्टी दूधिया छातियों पर दो जगह बहुत बड़े-बड़े फफोले पड़े दिखाई दे रहे थे । फफोलों के लाल सुर्ख दायरे बता रहे थे कि वे अभी ताजे ही थे । पास ही एक मेज पर एक सुलगता हुआ सिगरेट पड़ा था जो तमंचे वाले की करतूत की कहानी खुद कह रहा था ।
मैंने कहर-भरी निगाहों से उसकी तरफ देखा ।
उसने मुझसे निगाह नहीं मिलाई । वह नर्वस भाव से परे देखने लगा ।
मैंने आगे बढ़कर झन्नाटेदार थप्पड़ उसके चेहरे पर रसीद किया और नफरत भरे स्वर में बोला - “यू लाउजी सन आफ बिच । यू फिल्दी स्वाइन । यू सैडिस्ट बास्टर्ड ।”
इतनी गालियां शायद उसे बर्दाश्त नहीं हुई । एकाएक मुझे लगा जैसे वह मुझ पर झपटने लगा था ।
मेरा रिवॉल्वर वाला हाथ हवा में घूमा । रिवॉल्वर की पक्के लोहे की नाल उसकी खोपड़ी से टकराई और उसकी खोपड़ी खुल गई । उसने दोनों हाथों से अपना सिर थाम लिया । मैंने एक और प्रहार उसकी कनपटी पर किया । उसके मुंह से एक चीख निकली और उसके घुटने मुड़ने लगे । तीसरा प्रहार मैंने उसकी खोपड़ी के पृष्ठ भाग पर किया । वह फर्श पर लोट गया और फिर शायद उसकी चेतना लुप्त हो गई । उसकी खोपड़ी में से खून निकल रहा था जो उसके चेहरे को रंगता हुआ फर्श पर आकर गिर रहा था ।
उस वक्त मुझ पर शैतान सवार था । वह अचेत न हो गया होता तो शायद मैंने उसे जान से ही मार डाला होता ।
युवती की आतंकित आंखें मशीन की तरह उसकी कटोरियों में फिर रही थीं ।
सबसे पहले मैंने उसके मुंह पर से पट्टी हटाई ।
“तुम सोनिया तलवार हो ?” - मैंने पूछा ।
मुंह से पट्टी हट जाने के बावजूद भी उसके मुंह से बोल न फूटा, उसने केवल सहमति में सिर हिलाया ।
मैंने जल्दी-जल्दी उसके बाकी बन्धन भी खोल दिये ।
उसने अपनी फटी हुई कमीज को अपने सामने पर्दे की तरह तान लिया और रोने लगी ।
मैंने फर्श पर पड़े तमंचे वाले की तरफ देखा । वह जल्दी होश में आने वाला नहीं मालूम होता था । मैंने रिवॉल्वर फिर शोल्डर होलस्टर में रख ली ।
“बाथरूम कहां है ?” - मैं बोला ।
रोते-रोते उसने एक पिछले दरवाजे की तरफ संकेत कर दिया ।
मैं बाथरूम में गया । वहां मैं नील की तलाश में आया था लेकिन अच्छा था कि वहां नारियल का तेल भी मौजूद था । मैंने वहां पड़ी टीन की एक प्लेट में तेल और नील को मिलकर एक पेस्ट सा बनाया और प्लेट के साथ वापिस बैडरूम में लौटा ।
“इसे” - मैं प्लेट उसकी गोद में रखता हुआ बोला - “फफोलों पर लगा लो । चैन पड़ जाएगा ।”
उसने सहमति में सिर हिलाया और फिर रोते-रोते बोली - “तुम उधर देखो ।”
मैं उधर देखने लगा ।
मैंने एक सिगरेट सुलगा लिया ।
जिधर मुझे देखने की राय दी गई थी, उधर ड्रेसिंग टेबल पड़ी थी जिसका ख्याल शायद सोनिया को नहीं आया था । उसकी तरफ मेरी पीठ थी लेकिन ड्रैसिंग टेबल के शीशे में से वह मुझे साफ दिखाई दे रही थी । पर्दे की तरह अपने वक्ष के आगे तनी अपनी फटी कमीज को उसने अपनी गोद में वापिस गिर जाने दिया । फिर वह बड़े यत्न से मेरे द्वारा बनाया नील और तेल का पेस्ट फफोलों पर लगाने लगी ।
सैक्स के बारे में सोचने का वह कोई वक्त नहीं था लेकिन फिर भी उसके पुष्ट स्तनों पर से मेरी निगाह नहीं हट रही थी ।
फिर थोड़ी देर बाद वह कुर्सी से उठ खड़ी हुई । वह लड़खड़ाती हुई एक वार्डरोब के पास पहुंची । वहां से उसने एक मैक्सीनुमा ऊनी गाउन निकाला । अपने सिर पर से उसे पिरोकर उसने वह गाउन अपने फटे कपड़ों के ऊपर ही पहन लिया । गाउन में पीछे की तरफ जिप थी जो कूल्हों तक आती थी ।
“सुनो” - वह बोली ।
मैं उसकी तरफ घूमा ।
वह मेरी तरफ पीठ करके खड़ी हो गई और बोली - “जरा जिप खींच दो ।”
मैं उसके समीप पहुंचा । मैंने जिप खींच दी । गाउन पीछे से गर्दन तक बन्द हो गया ।
औरत न सिर्फ मर्द की मोहताज है बल्कि वो रहना भी मर्द की मोहताज चाहती है । अगर यह बात नहीं है तो आप मुझे कोई ऐसा मर्द दिखाइए जिसकी कमीज के बटन उसकी पीठ के पीछे बन्द होते हों ।
“थैंक्यू” - वह मेरी तरफ घूमकर बोली ।
“नेवर माइन्ड ।”
“तुम सुधीर ही हो न ? सुधीर कोहली ?”
“हां ।”
“मैंने तुम्हें कभी देखा नहीं, लेकिन मंजुला तुम्हारी तस्वीर मुझे अक्सर दिखाया करती थी ।”
“आई सी । हुआ क्या था ?”
उसने एक निगाह फर्श पर अचेत पड़े तमंचे वाले पर डाली ।
उसके शरीर ने एक झुरझुरी ली और फिर वह बोली - “अभी थोड़ी देर पहले, तुम्हारे आने से शायद कोई पन्द्रह मिनट पहले, एकाएक कॉलबैल बजी थी तो मैंने समझा था कि तुम आये थे । मैंने दरवाजा खोला तो यह भीतर घुस आया । इसके हाथ में पिस्तौल थी और यह मुझे जान से मार देने को उतारू मालूम होता था । यह आते ही मुझ पर झपट पड़ा और.... और....”
वह फिर रोने लगी ।
“हौसला रखो” - मैं उसका कन्धा थपथपाता हुआ बोला - “जो होना था हो चुका । अब तुम एकदम सुरक्षित हो ।”
उसने अपने गालों पर ढुलक आये आंसू पोंछ लिये ।
“वह चाहता क्या था ?” - मैंने पूछा ।
“मुझ से जानना चाहता था” - वह बोली - “कि मंजुला कहां थी । लेकिन जो बात मुझे मालूम ही नहीं थी, वह मैं उसे कैसे बताती ? मैंने इसे बार-बार कहा कि मैंने मंजुला को परसों से नहीं देखा था लेकिन इसे मेरी बात पर विश्वास ही नहीं होता था । फिर इसने मेरे हाथ-पांव बांध दिये, मेरे कपड़े फाड़ दिये और एक सिगरेट सुलगा लिया । सिगरेट से इसने क्या किया यह तुमने देखा ही है ।”
उसकी आंखें डबडबा आई लेकिन इस बार उसने जबरन अपने आंसुओं को बहने से रोक लिया ।
“मुझे वाकई नहीं मालूम कि मंजुला कहां है ।” - वह फिर बोली ।
“यह वही आदमी है जिसे तुमने बाहर सड़क पर मंडराता देखा था और जो उन दो युवकों में से एक है जिनकी सोहबत में आजकल मंजुला ज्यादा दिखाई देती थी ?”
“हां ।”
“इसका नाम नहीं मालूम तुम्हें ?”
“मालूम है । मंजुला ने भी बताया था और इसने खुद भी बताया था । इसका नाम राजीव है । इसके दूसरे साथी का नाम डेविड है । है वो भी ऐसा ही हिप्पीनुमा युवक लेकिन वह इससे उम्र में बड़ा है और बहुत खूबसूरत है ।”
“परसों जब मंजुला यहां से गई थी तो कुछ कहकर नहीं गई थी ?”
“यही कहकर गई थी कि वह राजीव और डेविड के साथ कहीं जा रही थी ।”
“अगर मंजुला दोनों के साथ गई थी तो यह राजीव मंजुला को तलाश करता हुआ अकेला यहां कैसे आ गया ?”
“यह कहता था कि यह डेविड से अलहदा हो गया था । यह किसी काम का हवाला दे रहा था जिसमें डेविड और शायद मंजुला भी शामिल थी लेकिन बात ठीक से मेरी समझ में नहीं आई थी ।”
“मंजुला की इससे और इसके साथी से मेल-मुलाकात कब से चल रही है ?”
“पता नहीं, लेकिन मेरे ख्याल से यह सिलसिला कोई ज्यादा पुराना नहीं, क्योंकि अभी दो हफ्ते पहले मंजुला एक रात को इन दोनों को अपने साथ लेकर यहां आई थी । मुझे तो पहली निगाह में ही इन दोनों से अरुचि हो गई थी । हिप्पीनुमा हुलिया तो इन दोनों का था ही, मुझे तो ये गुंडे-बदमाश भी लगे थे । लेकिन मंजुला इनकी सोहबत में बहुत खुश थी । बाद में मैंने मंजुला को समझाने की भी कोशिश की थी कि वे दोनों उसके स्तर से बहुत नीचे लोग थे और वैसे भी खराब मालूम होते थे, लेकिन मंजुला ने बात को हंसकर उड़ा दिया था । तुम तो उसकी आदतें जानते ही हो । उसकी निगाह में खराब या न पसंद आने वाला मर्द तो कोई भी नहीं होता था । वह तो...”
वह ठिठक गई । फिर वह सकपकाकर बोली - “आई एम सॉरी ।”
“नैवर माइंड” - मैं बोला - “यह बात जगविदित है कि मंजुला कैसी औरत थी ।”
“लेकिन अगर कोई मुझसे पूछे तो मैं यही कहूंगी कि अपनी तमाम खामियों के बावजूद भी मंजुला कोई खराब औरत नहीं है । मर्द का औरत में और औरत का मर्द में आकर्षण एक स्वाभाविक प्रक्रिया होती है । फर्क सिर्फ यह है कि और लड़कियां मर्द को परखती हैं, ठोकती-बजाती हैं और फिर अपने करीब आने देती हैं । मंजुला आखिरी काम पहले करती है और बाकी के काम करती ही नहीं । जो हरकतें वह करती थी उन पर वह बाद में बहुत पछताती थी, लेकिन बाज फिर भी नहीं आती थी । मेरे रोकने पर कहती थी कि यह कोई बीमारी होती थी जिसमें औरत मर्द सोहबत से बाज नहीं आ सकती । सुधीर, क्या वाकई ऐसी बीमारी होती है ?”
“अगर तुम्हारी सहेली कहती थी तो होती ही होगी ।”
“इस बीमारी का सीधा और सरल इलाज तो शादी ही हुआ ।”
“शादी ।” - मेरे स्वर में न चाहते हुए भी तल्खी आ गई - “शादी एक औरत की एक मर्द से होती है, एक औरत की हजार मर्दों से नहीं हो सकती ।”
उसने विस्मय से मेरी तरफ देखा ।
“तुम ये बात छोड़ो” - मैं बोला - “और आगे बढ़ो ।”
“बेहतर । लेकिन एक बात मैं फिर भी कहना चाहती हूं, सुधीर ।”
“वह क्या ?”
“मंजुला तुमसे बहुत प्यार करती है, अब भी बहुत करती है जब भी वह तनहा और परेशान होती है तो वह तुम्हारी तस्वीर निकालकर उसे निहारने लगती है । तुम्हारे जिक्र भर से ही उसकी आंखें स्वप्निल हो जाती हैं ओर चेहरा तमतमा जाता है । ऐसे में एक बात वह हमेशा कहती है कि उसे मर्द बहुत मिल सकते थे लेकिन तुम्हारे जैसा पति नहीं मिल सकता था ।”
“छोड़ो । ये सब भावुकता की बातें हैं ।”
“सुधीर, क्या तुम्हारा और मंजुला का फिर से मिलाप नहीं हो सकता ?”
मेरे जहन पर मंजुला की लाश का अक्स उभरा ।
“दरअसल उसे एक ऐसे संवेदनशील मर्द की जरूरत है जो उसकी बीमारी को, उसकी मजबूरी को, समझ सके और उसके साथ सब्र और हमदर्दी से पेश आ सके । और ऐसा मर्द तुम्हारे अलावा दूसरा कोई नहीं हो सकता ।”
मंजुला की मौत की खबर मैं उसे अन्त में सुनाना चाहता था लेकिन उसकी वकालत खत्म न होती पाकर मुझे कहना पड़ा - “सोनिया, मंजुला मर चुकी है ।”
पहले तो उसने यूं निर्विकार भाव से मेरी तरफ देखा जैसे मेरे मुंह से निकले शब्द तो उसने सुने हों लेकिन उनका मतलब उसकी समझ में न आया हो । फिर एकाएक उसके नेत्र फैल गये । वह हक्की-बक्की सी मेरा मुंह देखने लगी । फिर वह एकदम इतनी जोर से रोई कि मैं घबरा गया ।
मैंने उसे सहारा देकर पलंग पर बिठाया, किचन से पानी लाकर पिलाया और कई बार खुद उसके आंसू पोंछे ।
“वह मर कैसे गई ?” - अंत में उसने आंसुओं से भीगी आवाज में पूछा ।
कम से कम शब्दों में मैंने उसे बताया ।
मेरे खामोश होने के बाद कुछ क्षण वह अपने आंसुओं को बहने से रोकने की कोशिश में स्तब्ध बैठी रही । फिर एकाएक उसकी मुट्ठियां भिंच गई और जबड़े कस गए । उसने कहर-भरी निगाहों से फर्श पर अचेत पड़े राजीव की तरफ देखा और उछलकर खड़ी हो गई । मेरे रोकते-रोकते वह उसके समीप पहुंची और उसने ताबड़तोड़ अपने पांव की कई ठोकरें उसके शरीर के विभिन्न भागों पर जड़ दीं ।
बड़ी मुश्किल से मैंने उसे खींचकर वापिस पलंग पर बैठाया ।
“मैंने कितनी बार कहा था मंजुला को” - वह निराश स्वर में बोली - “कि ये अच्छे लोग नहीं हैं । मंजुला, इन दोनों कमीनों की सोहबत छोड़ दे, लेकिन उसने मेरी एक नहीं सुनी ।”
“अब शांत हो जाओ” - मैं बोला ।
वह खामोश रही ।
“तुम उसके बारे में कुछ बता रही थी मुझे ।”
“बताने को को खास कुछ नहीं है । जैसा कि मैंने पहले ही कहा है कि कोई दो हफ्ते पहले एक रात को मंजुला इन दोनों को यहां लाई थी । मुझे लगा था कि मंजुला डेविड के साथ थी और राजीव केवल डेविड के साथ आया था । शायद उसके मन में यह ख्याल रहा हो कि राजीव में मेरी दिलचस्पी हो जाएगी, लेकिन वह मुमकिन नहीं था । मुझे तो ऐसे हिप्पी छोकरों की जात से नफरत है । मैं औपचारिक तौर पर थोड़ी देर उनके साथ बैठी थी, फिर बहाना बना कर यहां से बाहर निकल गई थी और पड़ोस में किसी के पास जा बैठी थी । मेरे वापिस लौटने तक वे लोग फ्लैट से जा चुके थे । अगली सुबह मैंने मंजुला से बात की थी और उनके बारे में अपने खयालात उस पर जाहिर किये थे । मैंने उसे समझाने की कोशिश की थी कि वह वैसे घटिया लोगों की सोहबत में न पड़े लेकिन उसने बात हंसकर उड़ा दी थी । उसने कहा था कि घटिया-बढ़िया उसे नहीं पता था लेकिन वे दिलचस्प लोग थे और दिलचस्प लोग उसे पसंद थे । बहरहाल उस रोज के बाद क्योंकि उन दोनों का कदम हमारे फ्लैट में नहीं पड़ा था इसलिए बात आई गई हो गई थी । फिर परसों उन दोनों का जिक्र फिर आया । मंजुला ने मुझे बताया कि वह उन दोनों के साथ एक-दो दिन के लिए कहीं जा रही थी । उसने ऑफिस में यह कहलवा दिया था कि वह एक-दो दिन के लिए शहर से बाहर जा रही थी, लेकिन मुझे उसने यही कहा था कि वह कल वापिस आ जाने वाली थी ।”
“उसने यह नहीं बताया था, कि वह उन दोनों के साथ जा कहां रही थी ?”
“नहीं । मेरे पूछने पर भी नहीं बताया था लेकिन, इतना जरूर कहा था उसने कि वह अपनी रोजमर्रा की एकरसतापूर्ण जिंदगी से बोर हो चुकी थी और इसलिए एक तजुर्बे के तौर पर वह एक निहायत एडवेंचरस काम करने जा रही थी । उसके व्यवहार से ऐसा लगता था जैसे वह जो कुछ करने जा रही थी इसके ख्याल से ही वह थर्राये जा रही थी । बहरहाल वह बहुत खुश थी, बहुत उत्तेजित थी । पहले तो मुझे यह भी शक हुआ था कि वह नशे में थी, लेकिन मेरा ख्याल गलत था । वैसे वह पहला मौका नहीं था जब वह किसी के साथ तफरीह का दो-तीन दिन का प्रोग्राम बनाकर गई थी । रात को यहां वापिस न आना उसके लिए कोई बड़ी बात नहीं थी लेकिन, परसों का किस्सा कुछ और ही था । पता नहीं ऐसी कौनसी एडवेंचर वो मारने जा रही थी जिसके ख्याल से ही उसका चेहरा तमतमा जाता था । उसके व्यवहार ने ही मुझे फिक्र में डाला था और यह सोचने पर मजबूर किया था कि उसका इस बार का जाना हमेशा के जाने जैसा नहीं था । कल की तो मैंने परवाह नहीं की लेकिन जब वह आज रात को भी घर न लौटी तो मुझे उसके किसी अनिष्ट की आशंका होने लगी । दफ्तर से लौटने के बाद दो-तीन घंटे के लिए मैं कहीं गई गई थी । उस दौरान भी मैंने यहां कई बार फोन किया था लेकिन वह लौटी नहीं थी । फिर दस बजे मैं घर लौटी तो मुझे उसके किसी अनिष्ट की आशंका होने लगी । दफ्तर से लौटने के बाद दो-तीन घंटे के लिए मैं कहीं गई थी । उस दौरान भी मैंने यहां कई बार फोन किया था लेकिन वह लौटी नहीं थी । फिर दस बजे मैं घर लौटी तो मैंने राजीव को इमारत के सामने मंडराता पाया, हालांकि उस वक्त मैंने उसे पहचाना नहीं था । पहचाना मैंने उसे तभी था जब वह अभी थोड़ी देर पहले जबरन यहां घुस आया था । मेरे यहां लौटने और उसके यहां घुसने के बीच तीन-चार बार टेलीफोन की घंटी भी बजी थी...”
“तुमने बताया थे मुझे ।”
“....लेकिन लाइन पर कोई भी नहीं होता था । शायद राजीव ही इस उम्मीद में फोन करता था कि शायद फोन मंजुला उठाए । मुमकिन है वह सोच रहा हो कि मंजुला पहले भीतर थी या उसकी निगाह में आए बिना भीतर पहुंच गई थी । मुझे तुम्हें फोन करने का तभी ख्याल आया था, लेकिन तब मैंने सोचा था कि मंजुला की खातिर मेरा फोन करना तुम्हें शायद पसंद न आए । लेकिन अब मैं सोचती हूं कि अगर मैंने तुम्हें पहले फोन कर दिया होता तो....तो शायद मंजुला इस वक्त जिंदा होती ।”
वह फिर रोने लगी ।
इस बार मैंने उसे चुप कराने की कोशिश नहीं की ।
मैं बाथरूम में गया ।
मैंने वहां से एक तौलिया उठाया और उसे गीले पानी में डुबोया । तौलिया संभाले मैं वापिस बैडरूम में पहुंचा ।
सोनिया ने असमंजसपूर्ण भाव से मेरी तरफ देखा ।
“मैं इसे होश में लाने जा रहा हूं” - मैं बोला - “तुम चाहो तो दूसरे कमरे में चली जाओ ।”
उसने सहमति में सिर हिलाया और उठकर बैठक में चली गई ।
राजीव नाम का वह देसी हिप्पी कांखता-कराहता उठ बैठा था । उसने अपने दोनों हाथों से अपना सिर थाम लिया था और उसकी सूरत बता रही थी कि उसमें अपने पैरों पर खड़ा हो पाने की शक्ति अभी भी नहीं थी । मैंने उसका मुंह-सिर सब ठंडे पानी से तर कर दिये थे जिसकी वजह से अब उसके दांत भी बज रहे थे ।
“इधर मेरी तरफ देखो” - मैं कर्कश स्वर में बोला ।
उसने मेरी तरफ नहीं देखा । वह बड़ी कमजोर आवाज में बोला - “मुझे किसी डॉक्टर तक पहुंचा दो ।”
“बाद में । पहले जो कहा जाए वह करो ।”
“तुमने मेरा सिर फाड़ दिया ?”
“तो क्या बुरा किया ? हरामजादे ! क्या भूल गया है कि उस लड़की के साथ तू क्या सलूक कर रहा था ?”
उसके शरीर ने जोर की झुरझुरी ली ।
“अब भौंकना शुरू करो ।” - मैं बोला ।
“अगर मैं मर गया तो मेरा खून तुम्हारे सिर होगा ।”
“मरोगे नहीं तुम । अब इधर मेरी तरफ देखो ।”
बड़ी मुश्किल से उसने रह-रहकर अपनी छाती पर लटके जाते सिर को सीधा किया ।
“तुम्हारा नाम राजीव है ?”
“हां । मुझे एक सिगरेट दे दो, प्लीज ।”
मैंने तभी डनहिल का एक सिगरेट सुलगाया था । वही सिगरेट मैंने उसके होंठों से लगा दिया ।
मैंने अपने लिए एक नया सिगरेट सुलगा लिया ।
“तुम यहां किस फिराक में आए थे ?” - मैंने पूछा ।
“मैं उस औरत की फिराक में आया था । इस वाली की नहीं । दूसरी वाली की जो कि यहीं इसके साथ रहती है । मैं इस वाली को कोई नुकसान नहीं पहुंचाना चाहता था । उसे सिर्फ आतंकित करने के लिए मैंने उसे कुर्सी से बांध दिया था और दो बार उसके जिस्म से अपना सिगरेट टच किया था । मैं उससे सिर्फ यह मालूम करना चाहता था कि दूसरी वाली कहां थी ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि मुझे अपना हिस्सा चाहिए था । अगर मैं अपना हिस्सा हासिल करना चाहता था तो क्या कुछ गलत था ?”
“कैसा हिस्सा ?”
उसने अपने मुंह से सिगरेट निकालकर अपने सूखे होंठों पर जुबान फेरी और पूछा - “तुम क्या पुलिसिए हो ?”
“नहीं । मैं तो इस इलाके का अखबारवाला हूं । अनापशनाप मत बको और साफ-साफ बोलो । तुम कौनसे हिस्से की बात कर रहे हो ?”
वह हिचकिचाया ।
“लगता है तुम भरी जवानी में ही मर जाना चाहते हो ।” - मैं बोला और मैंने रिवॉल्वर निकालकर फिर अपने हाथ में ले ली ।
वह भयभीत हो गया ।
तभी बीच का दरदाजा खुला और चौखट पर सोनिया प्रकट हुई । उसने बैडरूम में दाखिल होने की कोशिश नहीं की । वह वहीं चौखट के साथ लगकर खड़ी हो गई और कभी राजीव की तरफ और कभी मेरी तरफ देखने लगी ।
आखिरकार औरत थी वो । भीतर क्या हो रहा था, यह जानने की उत्सुकता वह भला कैसे दबा पाती ।
“इसे परे करो” - राजीव भयभीत भाव से बोला ।
मैंने रिवॉल्वर की नाल का रुख नीचे फर्श की तरफ कर दिया ।
“तुम किसी हिस्से के बारे में मुझे कुछ बता रहे थे ?” - मैं बोला ।
“कल हमने पानीपत की एक फैक्ट्री का पे रोल लूटा था” - वह फट पड़ा ।
“हम में कौन-कौन शामिल हैं ?” - मैंने सशंक भाव से पूछा ।
“मैं, मेरा साथी डेविड और उसकी फ्लेम ।”
“ऐसी जुबान बोलो जो मेरी समझ में आ सके । फ्लेम कौन ?”
“मंजुला ।”
ओह ! तो यह था वो एडवेंचरस काम जो रोजमर्रा की एकरसता पूर्ण जिन्दगी से बोर हो चुकी मंजुला ने किया था ।
“मैं मंजुला के हक में नहीं था” - राजीव कह रहा था - “ऐसे मामलों में औरतों का भरोसा करने को मैं मूर्खता मानता हूं, लेकिन वह औरत डेविड पर इस कदर हावी थी कि उसने जिद की तो डेविड उसकी बात टाल न सका । एक बार डेविड का किसी औरत पर दिल आ जाए तो उसकी अकल पर पर्दा पड़ जाता है । आखिर कार बात मेरी ही सच निकली । इतने चौकस काम में हमने औरत को शामिल किया और सब घोटाला हो गया ।”
“तुम लोगों की करतूत में मंजुला का क्या रोल था ?”
“उसने कार चलानी थी ।”
“और तुम लोगों ने वह गाड़ी लूटनी थी जिसमें फैक्ट्री का पे रोल आता था ?”
“नहीं । इतने पागल हम नहीं । गाड़ी लूटना कोई मजाक नहीं था । वह तो बैंक की बख्तरबंद गाड़ी थी जिसके साथ दो सशस्त्र गार्ड होते थे ।”
“तो ?”
“बैंक की गाड़ी फैक्ट्री के एडमिनिस्ट्रेशन ब्लॉक के कम्पाउंड में लोहे का वह बक्सा उतारकर चली जाती है जिसमें पे रोल की रकम होती है । वहां एक एकाउन्ट्स विभाग का कर्मचारी मौजूद होता है जो बक्से को लिफ्ट द्वारा ऊपर तीसरी मंजिल पर अकाउंट विभाग में ले जाता है जहां कि तनख्वाह बंटती है । अगर लिफ्ट पहले से ही ग्राउंड फ्लोर पर मौजूद न हो तो कभी-कभार उसे थोड़ा इन्तजार भी करना पड़ जाता है । इन्तजार के उस वक्फे को बढ़ाने के लिए डेविड का एक चचेरा भाई, जो कि उसी फैक्ट्री में काम करता है, हमारी मदद कर रहा था । उसका काम था कि वह एन मौके पर लिफ्ट को ऊपर पांचवी मंजिल तक इस प्रकार ले जाए कि ऑटोमैटिक लिफ्ट पांचवीं मंजिल तक पहुंचने के लिर हर फ्लोर पर रुके । ऑटोमैटिक लिफ्ट के सारे बटन एक साथ दबा देने से ऐसा हो जाता है ।”
“आगे बढ़ो” - मैं बेसब्रेपन से बोला ।
“इस तरह एकाउन्ट्स विभाग का वह कर्मचारी एकाध मिनट की जगह तीन-चार मिनट नीचे ग्राउंड फ्लोर पर अटका खड़ा रहता है । हम वहां पहले से ही मौजूद होते हैं ।”
“कैसे ?”
“कैसे क्या ? फैक्ट्री में बिजली के पंखे बनते हैं । अपने आपको बिजली के सामान का विक्रेता बताकर उनके बारे में पूछताछ करने की नीयत से कोई भी आदमी भीतर जा सकता है । हमने पहले से अपोइंटमेंट ली हुई थी, इसलिए कार समेत एडमिनिस्ट्रेशन ब्लॉक तक जाने से हमें किसी ने रोका नहीं था । लेकिन हम कार से निकलकर भीतर जाने के स्थान पर कार में ही बैठे रहे थे और किसी का ध्यान हमारी तरफ नहीं गया था । मंजुला ड्राइविंग सीट पर थी, डेविड उसकी बगल में बैठा था और मैं पीछे था । बैंक की बख्तरबन्द गाड़ी हमारे सागने वहां पहुंची थी और बक्से को एकाउन्ट्स विभाग के कर्मचारी के हवाले करके वहां से चली गई थी । वह कर्मचारी बक्सा लेकर लिफ्ट के पास पहुंचा था तो लिफ्ट वहां मौजूद नहीं थी । वह उसका कॉल बटन दबाकर लिफ्ट के पास खड़ा हो गया था । उस आदमी की वह हमेशा की रूटीन थी । उसने तो कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा भीतर पहुंच जाने के बाद भी पे रोल लुट सकता था । तब तक मैं और डेविड कार से बाहर निकल आये थे और आगे बढ चले थे । मंजुला ने कार का इंजन चालू कर दिया था और वह वहां से फौरन कार भगा ले जाने के लिए तैयार थी । उस वक्त इत्तफाक से लिफ्ट के सामने कोई नहीं था । होता भी तो हम उस स्थिति से निपटने के लिए तैयार थे । हम दोनों सशस्त्र थे और शूट आउट के लिये तैयार थे लेकिन वैसी नौबत न आई । मेरे द्वारा उसकी खोपड़ी पर किए गए एक ही अप्रत्याशित प्रहार से वह धराशायी हो गया था । डेविड बक्सा उठाकर बाहर कार की तरफ लपका जो कि ऐन उसी वक्त मंजुला ने वहां ला खड़ी की थी । वह बक्से समेत कार में सवार हो गया और मंजुला ने कार वहां से भगा दी ।”
“तुम्हारे कार में सवार हो पाने से पहले ही ?” - मैं हैरानी से बोला ।
“हां । पता नहीं वह घबरा गई थी या हरामजादी ने जान बूझकर ऐसा किया था ।”
“खबरदार” - मैं चेतावनी भरे स्वर में बोला - “गाली नहीं ।”
“कार के पिछले दरवाजे का हैंडल मेरे हाथ में था जबकि कार तोप से छूटे गोले की तरह वहां से भाग निकली थी । मैं मुंह के बल पथरीली जमीन पर गिरा था ।”
मैं मन ही मन डकैतों की सहेली के तौर पर मंजुला की कल्पना करने की कोशिश कर रहा था, लेकिन कामयाब नहीं हो पा रहा था । क्या यह छोकरा सच बोलता हो सकता था ? क्या मंजुला वाकई ऐसे खतरनाक काम में शरीक हुई हो सकती थी ?
सोनिया अभी भी चौखट से लगी खड़ी थी और मन्त्र-मुग्ध सी सब कुछ सुन रही थी ।
“फिर ?” - मैं बोला ।
“फिर यह कि मेरी तकदीर ही अच्छी थी जो मैं वहां पकड़े जाने से बाल-बाल बचा था । तब तक पीछे लिफ्ट के पास फर्श पर गिरे एकाउन्ट विभाग के कर्मचारी ने शोर मचा दिया था और लोग उधर लपकने लगे थे । इत्तफाक से उसी वक्त एक फियट कार पर एक लड़की वहां पहुंची थी । मैं उस पर झपट पड़ा था । मैंने बिजली की फुर्ती से उसे घसीट कर कार से बाहर निकाला था और स्वयं कार में सवार हो गया था । उस लड़की को अभी इग्नीशन से ऑफ करने का अवसर नहीं मिला था । उस कार पर सवार होकर मैं धुआंधार रफतार से वहां से भाग निकला । तब तक अभी किसी की समझ में तो आया नहीं था कि वास्तव में क्या हुआ था इसलिए मेरी जान बच गई थी ।”
“आगे बढो ।”
“जो कार हमने डकैती के लिए इस्तेमाल की थी, वह चोरी की थी । हमने एक और कार वहां से थोड़ी दूर एक सुनसान जगह पर छुपाकर रखी हुई थी । उस वक्त अपने पर हावी आतंक और घबराहट की वजह से मैं उस जगह का रास्ता भूल गया । अंत में जब मैं वहां पहुंच पाया तो दूसरी कार वहां से गायब थी, यानी कि मंजुला और डेविड वह कार वहां से ले जा चुके थे । जिस कार पर मैं सवार था, वह मेरे लिए खतरनाक साबित हो सकती थी इसलिए मैंने मजबूरन उसे वहीं छोड़ दिया ।”
“फिर ?”
“फिर मैने उन दोनों की तलाश शुरू की ।”
“कहां ?”
“सबसे पहले मैं डेविड के होटल में पहुंचा ।”
“वो होटल में रहता है ?”
“हां ।”
“कहां ?”
उसने मुझे पहाडगंज के एक होटल का पता बताया ।
“वह वहां नहीं था ?” - मैंने पूछा ।
“नहीं । और अगर उसके मन में बेईमानी आ गई है तो अब वहां लौटकर भी क्या आएगा ?”
“शायद आ जाए ।”
वह खामोश रहा ।
“डेविड ने मंजुला को इतने खतरनाक काम में शामिल होने के लिए तैयार कैसे कर लिया ?”
“तुमने मेरी बात गौर से नहीं सुनी मालूम होती । मैंने पहले ही बताया है कि हम क्या करने वाले थे, इसकी भनक पड़ते ही मंजुला ने जिद की थी कि हम उसे भी इस काम में शामिल करें ।”
“डेविड उससे मिला कैसे था ?”
“सुधीर !” - सोनिया पहली बार बोली ।
मैं उसकी तरफ घूमा ।
“क्यों सुनना चाहते हो ? इस सवाल का जवाब क्या तुम्हें मालूम नहीं ? कोई कैसे मिला होता था मंजुला से ?”
“अब क्या फर्क पड़ता है ?” - मैं उदासीन स्वर में बोला - “फर्क तो पहले भी नहीं पड़ता था अब तो कतई नहीं पड़ता ।”
“लगता है” - राजीव बोला - “वो तुम्हारी कोई एक्स फ्लेम है ।”
मैने एक जोर का झापड़ उसके चेहरे पर रसीद किया । सिगरेट का जो बचा हुआ टुकड़ा अभी भी उसके होंठों में लगा हुआ था, वह वहां से उछलकर एक ओर जा गिरा । वह एक ऐसे कुत्ते की तरह बिलबिलाकर चीखा जिसकी पूंछ एक एकाएक किसी वाहन के पहिये के नीच आ गई हो ।
“तुमने मेरे सवाल का जवाब देना है” - मैं सांप की तरह फुंफकारा - “अपने ख्यालात मुझ पर जाहिर नहीं करने । अंडरस्टैंड ।”
वह अपनी डबडबाई आंखें मिचमिचाता हुआ मेरी तरफ देखता रहा ।
“सवाल याद है या दोहराऊं ?”
“वह कोई तीन हफ्ते पहले हमें कनाट-प्लेस के एक रेस्टोरेंट में मिली मिली थी । डेविड की फौरन ही उससे कन्टीन्यूटी लग गई थी । उन्हीं दिनों हम पानीपत वाली फैक्ट्री का पे रोल लूटने की योजना बना रहे थे । एक रोज नशे में डेविड वह चर्चा मंजुला के सामने ले बैठा था । दरअसल नशे में डेविड अपनी जुबान पर काबू नहीं रख पाता । नशे में वह उन तमाम कारनामों की डींग हांकने लगा जिन्हें वह पहले कामयाबी से अन्जाम दे चुका था । मंजुला बहुत प्रभावित हुई । उसने बहुत थ्रिल महसूस की । वह कहने लगी कि वह भी ऐसे किसी एडवेंचर वाले काम में शामिल होना चाहती थी । डेविड उसे रात को अपने होटल में ले जाया करता था । वहीं मंजुला ने किसी तरह जिद करके डेविड को इस बात के लिए मना लिया कि वह भी उस काम में शरीक समझी जाए । वैसे कार सम्भालने के लिए कोई तीसरा साथी तलाश करने का तो हमारा इरादा था ही । फर्क सिर्फ यह था कि मैं किसी औरत के हक में नहीं था । मैंने डेविड को समझाया भी कि अगर ऐन मौके पर मंजुला की हिम्मत दगा दे गई तो सब गुड़-गोबर हो जाएगा । लेकिन डेविड बोला कि वह उसे खूब परख चुका था, वह डरने वाली नहीं थी । मुझे मजबूरन हामी भरनी पड़ी ।”
“वक्त आने पर मंजुला भयभीत हुई थी ?”
“ऊपर से तो वह बहुत दिलेरी दिखा रही थी, लेकिन मुझे लग रहा था कि भीतर से वह बहुत भयभीत थी और इस बात के लिए पछता रही थी कि वह हम लोगों में शामिल हुई थी । पानीपत के सारे रास्ते वह कुछ बोली नहीं थी । मैंने हर क्षण उसके जबड़े भिंचे हुए थे और चेहरे का रंग उड़ा हुआ पाया था । मुझे तो आखिरी क्षण तक उससे यह अन्देशा था कि वह सब-कुछ छोड़-छाड़ कर भाग जाएगी । बहरहाल भागी तो वह नहीं । एन मौके पर कार को निर्धारित स्थान पर लाकर खड़ा करने में भी उसने बहुत मुस्तैदी दिखाई । मेरी समझ में सिर्फ यह नही आ रहा कि वह भयभीत थी दसलिए उसने मेरे कार में सवार हो जाने से पहले ही कार भगा दी थी या डेविड ने उसे ऐसा करने के लिए कहा था ।”
“डेविड तुम्हें अपने होटल में नहीं मिला तो फिर तुम कहां गए ?”
“पहले मैं यहां आया था लेकिन यहां ताला लगा हुआ था । फिर मैंने डेविड को उसके दो-तीन और ठिकानों पर तलाश किया लेकिन वह कहीं नहीं था । अन्त में मैं वापस यहां आ गया । हमारा प्रोग्राम पानीपत से वापिस यहीं आने का था । यहां हमने माल का बंटवारा करना था । डेविड के भाई ने बताया था कि पे रोल की रकम लगभग पौने दो लाख रुपए की होती थी । उसमें से दस हजार रुपए हमने डेविड के भाई को देने थे और बाकी की रकम हम दोनों ने आधी-आधी बांट लेनी थी ।”
“और मंजुला ? मंजुला का कोई हिस्सा नहीं था उस लूट में ?”
“मंजुला डेविड की जिम्मेदारी थी । उसे डेविड ने शामिल किया था मैंने नहीं । इसलिए मैंने पहले ही जाहिर कर दिया था कि अगर लड़की को कोई हिस्सा दिया जाना था तो वह डेविड ने अपने हिस्से में से देना था । वैसे असलियत यह थी कि लड़की हिस्से कि तलबगार थी ही नहीं । वह तो किसी और ही वजह से इस काम में शामिल हुई थी ।”
“बाद में उसका डेविड के साथ कहीं जाने का प्रोग्राम था ?”
“मुझे नहीं मालूम। क्या पता रहा हो । वैसे डेविड फिदा तो उस पर बुरी तरह से था । वह तो माल हाथ आते ही उसके साथ दुनिया कि सैर के लिए निकाल जाना चाहता था, लेकिन लड़की ने हामी भरी थी या नहीं, यह मुझे नहीं मालूम ।”
“जिस कार में वे बाद में सवार हुए थे, वह कैसी थी ?”
“वह एक दोरंगी फिएट थी ।”
“नंबर बोलो ?”
“नंबर की तरफ तो मैंने ध्यान नहीं दिया था ।”
“तुमने यहां फोन भी किया था ?”
“हां । यहां मैंने तीन बार फोन किया था। मैं जानना चाहता था कि मंजुला यहां लौटी थी या नहीं ।”
मैंने सोनिया की तरफ देखा ।
“हां ।” - वह बोली - “तीन बार ही ऐसा फोन आया था, जबकि दूसरी तरफ से कोई बोला नहीं था ।”
“तुम फोन करके बोलते क्यों नहीं थे ?” - मैं राजीव से बोला ।
“दरअसल तीनों बार मैंने पब्लिक बूथ से फोन किया था ।” - वह बोला - “और बक्से में डालने के लिए अठन्नी मेरे पास थी नहीं । बिना अठन्नी डाले दूसरी तरफ की आवाज़ तो आ जाती है लेकिन आप की आवाज दूसरी तरफ नहीं जाती । अगर मुझे मंजुला कि आवाज सुनाई दे जाती तो मैं निश्चित ही उसे पहचान लेता और मेरा काम बन जाता ।”
मुझे उस टेलीफोन कॉल की याद आई जो सोनिया की कॉल से पहले मेरे फ्लैट पर आई थी । तब भी शायद इसीलिए मुझे दूसरी ओर से कोई बोलता सुनाई नहीं दिया था क्यूंकि फोन करने वाला पी सी ओ से बोल रहा था और उसके पास बक्से में डालने के लिए अठन्नी नहीं थी या उसका मतलब मेरी आवाज सुनकर ही हल हो जाता था ।
मुझे मंजुला का ख्याल आया ।
क्या वह कॉल मंजुला द्वारा की गयी हो सकती थी ?
क्या उसने केवल यह जानने के लिए मेरे फ्लैट का नंबर डायल किया था कि मैं वहां था या नहीं ।
“यह भी तो हो सकता था” – प्रत्यक्षत: मैं बोला - “कि मंजुला यहां मौजूद रही होती लेकिन इत्तफाक से फोन हर बार इसने उठाया होता ।” - मैंने सोनिया कि तरफ संकेत किया ।
“हो सकता था” - वह बोला - “इसीलिए तो मैं यहां वापस लौटा था ।”
“तुम किसी सुधीर कोहली को जानते हो ?”
“यह नाम मैंने अभी थोड़ी देर पहले इस लड़की के ही मुंह से पहली बार सुना था । तुम्हारा नाम है ?”
“कभी मंजुला की जुबान से भी मेरा नाम सुना था ?”
“नहीं । यानि कि यह तुम्हारा ही नाम है ।”
लेकिन डेविड ने सुना हो सकता था - मैंने मन ही मन सोचा - आखिर मंजुला कि आशनाई तो डेविड से थी न कि राजीव से ।
इस लिहाज से तो मेरे फ्लैट से सोनिया कि फोन कॉल से पहले आई कॉल डेविड द्वारा भी की हो सकती थी । हालात साफ बता रहे थे कि मंजुला उससे भी अलग हो गयी थी और डेविड को भी उसकी उतनी ही तलाश थी जितनी कि राजीव को ।
लेकिन मंजुला एकाएक डेविड से अलग क्यूं हो गई ?
शायद उसे गुनाह का एहसास होने लगा था । शायद वह डर गई थी और अपने अंजाम से घबरा गई थी । अपने गुनाह की तलाफी शायद उसने यही समझी थी कि वह लूट का माल मुनासिब हाथों तक वापिस पहुंचा दे ।
लेकिन डेविड को यह भला क्योंकर गवारा होता ।
अब मुझे लगने लगा कि मंजुला कि हत्या डेविड ने ही की थी ।
डेविड ने जरूर कभी मंजुला के मुंह से मेरा जिक्र सुना था और वह जिक्र इस प्रकार का था कि उसे लगा था कि संकट की घड़ी में मंजुला अभी भी मेरे पास आ सकती थी । मंजुला ने कभी खुद ही उसे मेरा पता बताया था, नहीं बताया था तो वह टेलीफोन डायरेक्ट्री से जाना जा सकता था । उसे मंजुला के मेरे फ्लैट पर आगमन की उम्मीद थी इसलिए वह मंजुला से पहले ही वहां पहुंच गया था । मंजुला वहां आई थी तो उसने उसको चाकू घोंप दिया था और उससे लूट का रुपया छीन लिया था ।
यही बात युक्तिसंगत लगती थी ।
रुपया मंजुला के हत्यारे ने उससे छीन न लिया होता तो वह जरूर काली एंबेसडर में मौजूद होता ।
मुझे कार के मालिक किरण कुमार का ख्याल आया ।
क्या वह भी राजीव और डेविड जैसा गैंगस्टर ही था ?
नहीं, ऐसा नहीं हो सकता था ।
उसका पता ही इस बात का सबूत था कि वह उन जैसे लोगों का संगी-साथी नहीं हो सकता था ।
विलिंग्टन क्रेसेंट गुंडे-बदमाशों के रहने की जगह नहीं थी ।
“अपने यार का हुलिया बयान करो” - मैंने उसे आदेश दिया ।
उसने हुलिया बयान किया । उसने हुलिया बयान करने से बेहतर काम किया । उसके पर्स में उसकी और डेविड की एक तस्वीर थी जो उसने मुझे दिखाई ।
उस तस्वीर में डेविड फिल्म अभिनेताओं से भी ज्यादा खूबसूरत लग रहा था ।
“उसके पानीपत की फैक्ट्री वाले चचेरे भाई का क्या नाम है ?”
“फ्रांसिस ।”
अब कत्ल के बाद डेविड का दिल्ली में ही टिका रहना भी जरा संदेहजनक ही लगता था ।
मुझे लगने लगा कि अगर मुझे मंजुला के हत्यारे को तलाश करना था तो मुझे पानीपत भी जाना पड़ सकता था ।
डेविड दिल्ली से भागकर अपने भाई के पास पानीपत गया हो सकता था ।
मैं टेलीफोन के पास पहुंचा ।
मैंने अपने फ्लैट का नंबर डायल किया ।
दूसरी ओर से तुरंत रिसीवर उठाया गया और मुझे मलकानी का स्वर सुनाई दिया ।
“मैं कोहली बोल रहा हूं” - मैंने बताया ।
“मैं अभी यहां पहुंचा हूं” - मलकानी बोला ।
“पुलिस को फोन कर दिया तुमने ?”
“बस, करने ही वाला था । फोन करने के लिए रिसीवर उठाने ही लगा था कि घंटी बज उठी थी । क्या हुआ ? कुछ पता लगा ? कैसे खून हो गया मंजुला का ?”
“हां । लगा है पता । आजकल मेमसाहब किन्हीं गुंडे-बदमाशों की सोहबत में थीं । कल एडवेंचर की खातिर दो बदमाशों के साथ पानीपत गई थीं और उन लोगों ने वहां की एक फैक्टरी का पेरोल लूटा था । उन दोनों बदमाशों में राजीव नाम का छोकरा इस वक्त मेरे अधिकार में है और उसका डेविड नाम का दूसरा साथी पता नहीं कहां है । मलकानी, हालात साफ जाहिर कर रहे हैं कि मंजुला का खून डेविड ने किया है ।”
“ओह !”
“पुलिस को तुम यह बात बता देना और यह भी बता देना कि डेविड का राजीव नाम का दूसरा साथी इस वक्त कर्जन रोड पर मंजुला के फ्लैट में मौजूद है ताकि वे लोग उसे गिरफ्तार कर लें । मंजुला के फ्लैट का पता नोट कर लो ।”
“अच्छा ।”
मैंने उसे पता लिखवा दिया ।
राजीव व्याकुल भाव से मेरी तरफ देख रहा था ।
“राजीव के हाथ-पांव बांधकर मैं उसे फ्लैट के मुख्य द्वार के आगे डाल जाऊंगा” - मैं फिर बोला - “वह घायल है और उसे डाक्टरी सहायता कि जरूरत है, इसलिए पुलिस वालों को कह देना कि वे जल्दी से जल्दी यहां पहुंचने की कोशिश करें ।”
“कोहली” – मलकानी बोला – “तुम्हें खुद ही उसे हस्पताल पहुंचाना चाहिए ।”
“वह इतना घायल नहीं है । इंतजार कर सकता है वो ।”
“लेकिन घायल हुआ कैसे वो ?”
“फिसल गया था बेचारा ।”
“तुम वहां से भी फूट रहे हो ?”
“हां ।”
“पुलिस वाले तुम्हारी इस भाग-दौड़ को अच्छी निगाहों से नहीं देखेंगे ।”
“मैं उन्हें समझा दूंगा । उन्हें तो मेरा शुक्रगुजार होना चाहिए कि पानीपत की पे रोल रोबरी के एक मुजरिम को वे मेरी वजह से गिरफ्तार कर रहे हैं ।”
“तुम्हारी बातें तुम ही जानो । मैं जो कुछ तुम कह रहे हो वह पुलिस के आगे दोहरा दूंगा ।”
“ठीक है । थैंक यू ।”
मैंने रिसीवर रख दिया ।
“मंजुला का खून हो गया है” – राजीव ने बड़े अविश्वासपूर्ण स्वर में दोहराया ।
“हां ।” - मैं बोला ।
“तुम फोन पर कह रहे थे कि खून डेविड ने किया है ।”
“ठीक कह रहा था ।”
“यह नहीं हो सकता ।”
“क्यों नहीं हो सकता ?”
“क्योंकि डेविड मंजुला से मोहब्बत करता था । वह तो मंजुला पर इतना फिदा था कि वह उससे शादी करना चाहता था । जिससे वह मुहब्बत करता था, वह उसका खून कर सकता था ?”
“तुम्हारा यार औरत से ज्यादा दौलत से मोहब्बत करता था बेटा ।”
वह खामोश रहा, लेकिन उसके चेहरे पर आश्वासन के भाव न आए।
“और फिर मंजुला कि जुबान बंद करना इसलिए भी जरूरी मालूम होने लगा होगा कि मंजुला कहीं उसकी पोल न खोल दे ।”
“वह तो मैं भी खोल सकता था । तुम मुझे पुलिस के हवाले करने जा रहे हो । पुलिस क्या डेविड के बारे में जाने बिना मुझे बख्श देगी ?”
“उसे क्या पता कि तुम गिरफ्तार हो जाओगे ?”
वह कुछ क्षण इंकार में सिर हिलाता रहा और फिर धीरे से बोला - “नहीं । डेविड मंजुला का खून नहीं कर सकता । वह मंजुला से दिल से मोहब्बत करता था।”
“तुम अभी बच्चे हो ! अभी प्यार-मोहब्बत समझने की उम्र तक नहीं पहुंचे हो ।”
वह चुप रहा ।
“तुम” - मैं सोनिया की तरफ घूमा - “किसी किरण कुमार की जानती हो ?”
“किरण कुमार ?” - सोनिया ने नाम दोहराया ।
“जो विलिंगटन क्रीसेन्ट में रहता है और जो एक काले रंग की नई एम्बैसडर कार का मालिक है ?”
“मैं नहीं जानती ।”
“कभी मंजुला के मुंह सें उसका नाम सुना हो ?”
“नहीं । क्या उसका भी इस सारे सिलसिले से कोई रिश्ता है ?”
“पता नहीं । लेकिन हो सकता है मेरे पास आने सें पहले मंजुला उस किरण कुमार के पास गई हो । जो कार चलाती हुई वह मेरे पास तक पहुंची थी, वह किरण कुमार की मिल्कीयत थी ।”
“अच्छा ! लेकिन मंजुला ने कभी किसी किरण कुमार का जिक्र मेरे सामने नहीं किया था ।”
“हूं । तुम्हरी कोई ऐसी सहेली है जिसके पास तुम दो-तीन दिन रह सको ?”
उत्तर देने के स्थान पर उसने भयभीत भाव से राजीव की तरफ देखा ।
“इससे तुम्हें कोई खतरा नहीं” - मैं जल्दी से बोला - “इसे तो अभी पुलिस पकड़कर ले जाएगी । लेकिन मैं चाहता हूं कि जब तक इसका दूसरा साथी भी न पकड़ा जाए, तब तक तुम इस फ्लैट में न रहो ।”
“है ।” - वह बोली - “हेली रोड पर मेरी एक सहेली है जो मेरे साथ ऑफिस से काम करती है । कुछ दिन मैं उसके पास रह सकती हूं ।”
“गुड । तैयार हो जाओ । तुमने अभी वहां चलना है ।”
“मैं तयार ही हूं । बस, दो-चार कपड़े ही समेटने हैं ।”
“तो समेट लो । तब तक मैं इसका इन्तजाम करता हूं ।”
मैंने राजीव के हाथ-पांव बांध दिये और उसके मुंह में कपड़ा ठूंसकर ऊपर से पट्टी बांध दी । फिर मैंने उसे उठाया और फ्लैट के बाहर ले जाकर मुख्य द्वार के सामने बरामदे में डाल दिया ।
तब तक सोनिया ने एक छोटा-सा सूटकेस पैक कर लिया था ।
हम दोनों फ्लैट से बाहर निकले ।
उसने फ्लैट में ताला लगा दिया ।
नीचे आकर हम काली एम्बैसडर में सवार हुए । हेली रोड वहां से पास ही थी । मैं उसे उसकी सहेली के घर छोड़ आया ।
वहां से रवाना होने से पहले मैंने उस इमारत का नम्बर नोट कर लिया था ।
दोबारा सड़क पर आकर मैंने घड़ी पर दृष्टिपात किया ।
पांच बजने को थे ।
तब तक दूध वालों की, अखवार वालों की, सफाई कर्मचारियों की रास्तों पर आवाजाही हो गई थी ।
अब मैंने मंजुला की मौत की खवर उसकी मां और बहन को सुनाने की बदमजा जिम्मेदारी निभानी थी ।
मंजुला से तलाक के बाद मैंने सिर्फ एक बार अपनी ससुराल में कदम रखा था । मेरी साली मृदुला ने मुझे फोन किया था कि मां मुझसे मिलना चाहती थी । मैं जानता था वह मुझसे क्यों मिलना चाहती थी, लेकिन फिर भी मैं एक बार न्यू राजेंद्र नगर उनके घर गया था । मेरा ख्याल सच निकला था । बेचारी वृद्धा मुझसे यही जानना चाहती थी कि तलाक की नौबत क्यों आ गई थी । मैं उसे क्या जवाब देता ? मैं किसी तरह टाल-मटोल करके वापस आ गया था ।
आज शायद डेढ़-पौने दो साल बाद मैं दोबारा उस घर की तरफ बढ़ रहा था ।
मैं न्यू राजेन्द्र नगर पहुंचा ।
मैंने कार को उस इमारत के सामने खड़ा किया जिसके ग्राउंड फ्लोर पर वे लोग रहते थे ।
उनकी मोरिस माइनर बिना तिरपाल के फाटक के सामने खड़ी थी, जिससे लगता था कि वह उन दिनों इस्तेमाल की जा रही थी ।
फाटक ठेलकर मैं भीतर दाखिल हुआ ।
खिड़की, दरवाजों पर पर्दे पड़े हुए थे लेकिन भीतर से रोशनी का आभास मिल रहा था ।
मैंने कॉल बैल बजाई ।
मंजुला की बूढी मां लगभग बहरी थी । घन्टी जैसी आवाज उसे सुनाई नहीं देती थी, उससे वार्तालाप करने के लिए भी उसके कान के पास मुंह ले जाकर चिल्लाना पड़ता था, इसलिए मुझे मालूम था कि दरवाजा मृदुला ने ही खोलना था ।
“कौन है ?” - भीतर से मुझे मृदुला का सशंक स्वर सुनाई दिया ।
“मैं” - मैं वोला - “सुधीर ।”
“कौन ?”
“सुधीर । सुधीर कोहली ।”
कुछ क्षण खामोशी रही, फिर आवाज आई - “ठहरो खोलती हूं ।”
मैं प्रतीक्षा करने लगा ।
मन ही मन रिहर्सल करने लगा कि मैंने कैसे उन लोगों को बताना था कि मंजुला का डेविड नाम के एक हिप्पी गैंगस्टर के हाथों कत्ल हो गया था ।
फिर दरवाजा खुला ।
चौखट पर मृदुला प्रकट हुई ।
उसके भयभीत चेहरे से फिसलती हुई मेरी निगाह जब उसके पहलू में पड़ी तो मैंने अनुभव किया कि जो कुछ कहने का मैं रिहर्सल कर रहा था, उसका सिर्फ पहला भाग ही ठीक था ।
यह ठीक था कि मंजुला का कत्ल हुआ था ।
लेकिन कत्ल डेविड ने नहीं किया था ।
डेविड मृदुला के पहलू से एक पिस्तौल सटाए उससे एक कदम परे खड़ा था ।
उसकी वहां मौजूदगी की सिर्फ एक ही वजह हो सकती थी कि वह भी मंजुला की तलाश में था ।
यानी कि उसे तो मालूम तक नहीं था कि मंजुला की मौत हो चुकी थी ।
“भीतर आओ” - एन राजीव की तरह ही उसने मुझे आदेश दिया । जो पिस्तौल उसके हाथ में थी वह भी उस पिस्तौल का ही डुप्लीकेट थी जो मैंने राजीव के हाथ से छीनी थी ।
वह अपनी तस्वीर से कहीं ज्यादा खूबसूरत था । अपने अस्त-व्यस्त लम्बे बालों और हिप्पियों जैसे ऊलजलूल परिधान के बावजूद भी वह कामदेव का अवतार लग रहा था ।
“कैसे भीतर आऊं ?” - मैं बोला - “तुम रास्ते से हटोगे या मैं तुम्हें रौंदता हुआ भीतर दाखिल होऊं ?”
“तुम ऐसा कर सकते हो ?”
“सरासर कर सकता हूं । क्यों नहीं कर सकता ?”
“बड़े दिलेर हो । लेकिन जानते नहीं हो किसके आगे दिलेरी दिखा रहे हो ।”
“जानता हूं । तुम्हारे जैसे एक लंगूर का मैं अभी-अभी हुलिया बिगाड़ कर आया हूं । एक बार फिर सही । उसके पास भी ऐसी ही देसी पिस्तौल थी । ये पिस्तौलें शायद जोड़ों में ही मिलती हैं ।”
“बकवास बहुत करते हो” - वह मुंह बिगाड़कर बोला - “तुम भीतर आते हो या मैं इस लड़की को गोली मारूं ?”
मृदुला पत्ते की तरह कांपी ।
मैंने भीतर कदम रखा ।
“सामने दीवार तक पहुंचो” - उसने आदेश दिया - “मुंह दीवार की तरफ ही रहे ।”
मैंने आदेश का पालन किया ।
“दोनों हथेलियां दीवार के साथ टिका दो और सिर भी दीवार के साथ लगा दो ।”
“बाप-दादा पुलिस की नौकरी कर चुके मालमू होते हैं, बेटा ।”
“जल्दी करो” - वह डपटकर बोला ।
मैंने फिर आदेश का पालन किया ।
मैं जानता था कि वह मेरी तलाशी लेना चाहता था ।
मुझे पीछे दरवाजा बंद होने की आवाज आई ।
“तुम सोफे पर बैठ जाओ” - वह मृदुला से बोला - “और अगर अपनी खैरियत चाहती हो तो वहां से हिलना भी नहीं ।”
कुछ क्षण खामोशी रही । फिर वह मेरे करीब पहुंचा । उसकी पिस्तौल की नाल मेरी पीठ से आ लगी ।
अपने खाली हाथ से उसने मेरी तलाशी लेनी आरम्भ की ।
“मेरा बटुवा मेरे कोट की भीतरी जेब में है” - मैं बोला - “रिवॉल्वर मेरे शोल्डर होलस्टर में है और तुम्हारे यार की तुम्हारे जैसी पिस्तौल के खंडहर मेरे कोट की दाईं ओर की बाहरी जेब में हैं । अगर तुम पौने दो लाख रुपए के लूट के माल के लिए मेरी तलाशी ले रहे हो तो तुम्हें मायूसी होगी क्योंकि उस सारी रकम की तो मैंने आइसक्रीम खा डाली है ।”
वह खामोश रहा । उसने मेरी रिवॉल्वर, मेरा बटुवा और राजीव की पिस्तौल की नाल और चैम्बर निकाल लिए ।
राजीव की पिस्तौल के भग्नावशेष पता नहीं उसने पहचाने या नहीं, लेकिन अगले ही क्षण वे दोनों चीजें मेरे कदमों से थोड़ी दूर फर्श पर लुढकी पड़ी थीं ।
“सुधीर कोहली” - वह बोला । वह जरूर मेरे पर्स का मुआयना कर रहा था - “प्राइवेट डिटेक्टिव हूं । मेरी तरफ घूमो ।”
मैंने दीवार पर से अपना सिर और हाथ हटाए और उसकी तरफ घूमा ।
“तो” - वह बोला - “पौने दो लाख की लूट की कहानी तुम राजीव से कबुलवा चुके हो । और क्या जानते हो तुम प्राइवेट डिटेक्टिव साहब ?”
मेरे नाम की उस पर कोई विशेष प्रतिक्रिया न होना ही साबित कर रहा था कि मंजुला ने उसके सामने मेरा कभी जिक्र भी नहीं किया था ।
मैंने मृदुला की दिशा में निगाह दौड़ाई ।
वह यूं गुच्छा-मुच्छा हुई सोफे पर बैठी हुई थी जैसे वह सोफे में ही समा जाना चाहती हो । वह बेहद भयभीत थी और बड़े कातर भाव से मेरी तरफ देख रही थी । साधारणतया वह नजर का चश्मा लगाती थी जो वह वक्त उस नहीं लगाए हुए थी । उस नाजुक स्थिति में भी मैंने पहली बार महसूस किया कि उसकी आखें बहुत खूबसूरत थीं और उसकी शक्ल भी थोड़ी-बहुत मंजुला से मिलती थी । एक अपने अध्यापन के पेशे और दूसरे अपनी बढ़ती उम्र की वजह से वह बहुत सादगी से रहती थी वर्ना अगर वह भी अपनी अत्याधुनिक छोटी बहन की तरह बनाव-श्रृंगार करती तो निश्चय ही बहुत हसीन और दिलकश लगती । शादी की बात तो दूसरी थी, लेकिन यह मैं अक्सर सोचा करता था कि क्या उसका कभी किसी से रोमांस भी नहीं हुआ होगा । जरूर वह ठण्डी औरत थी और खुद ही रोमांस ओर शादी-ब्याह के मामलों से कतराती थी ।
क्या औलाद पैदा की थी उनकी मां ने !
एक बर्फ का टुकड़ा थी तो दूसरी आग का धधकता हुआ शोला थी ।
डेविड मुझसे परे कमरे के मध्य में जा खड़ा हुआ था । मुझे उत्तर न देता पाकर उसने अपना पिस्तौल वाला हाथ धमकी भरे अन्दाज से मेरी तरफ झटका और बोला - “अब बोलो, वो कहां है ?”
“कौन कहां है ?”
“मंजुला । और मेरे से होशियारी दिखाने की कोशिश मत करो । बाई गॉड, मैं बहुत बुरा अदमी हूं ।”
“तुम डकैती के - माल की खातिर मजुंला को तलाश कर रहे हो तो खामखाह अपना वक्त बरबाद कर रहे हो । माल मंजुला के पास नहीं था ।”
मंजुला के जिक्र पर मृदुला ने मेरी तरफ सिर उठाया ।
“तुम्हारी मां कहां है ?” - मैंने पूछा ।
“वह गंगाराम हस्पताल में भरती है” - उसने बताया ।
“क्यों ? क्या हुआ ?”
“दिल का दौरा । एक हफ्ता हो गया ।”
“ओह !”
“किसी मौसी बुआ वगैरह का भी हाल पूछना हो” - डेविड बोला - “तो लगे हाथों पूछ लो ताकि हम मतलब की बात पर आ सकें । साथ ही यह भी बता दो कि आम तौर पर कितनी बार पूछे जाने पर, तुम एक सवाल का जवाब देते हो ।”
“मैं तुम्हें पहले ही बता चुका हूं कि तुम्हारा माल मंजुला के पास नहीं है ।”
“लेकिन वो है कहां ?”
“उसे ढूंढकर क्या करोगे ?”
“मैं साली की गरदन मरोड़ दूंगा ।”
“तुम ऐसा करोगे ?” - मैं हैरानी जताता हुआ बोला - “तुम्हारा जोड़ीदार तो कहता था कि तुम उसके दीवाने हो और उससे शादी करना चाहते हो ।”
“चाहता था लेकिन तब मुझे यह नहीं मालूम था कि वह हरामजादी एक नम्बर की धोखेबाज और छिनाल औरत थी । औरत जात पर तो भरोसा करना ही बेवकूफी है । मैं सिर्फ दस मिनट के लिए उससे अलग हुआ था और इतने में ही वह कमीनी माल के साथ खिसक गई । एक बजे मैं एक सिगरेट का पैकेट लेने के लिए नीचे गया था । ठीक दस मिनट बाद जव मैं वापिस लौटा था तो कमबख्त मेरे होटल के कमरे में से माल समेत गायब थी ।”
मेरे फ्लैट पर वह ढाई बजे के करीब पहुंची थी । पहाड़गंज से ग्रेटर कैलाश आने में डेढ़ घण्टा तो नहीं लगता था । वह तो मुश्किल से पन्द्रह मिनट का रास्ता था । इसका साफ मतलब यह था कि वह बीच में कहीं और भी गई थी ।
वह बोलता-बोलता रुक गया । वह कुछ क्षण खामोशी से मुझे घूरता रहा और फिर बदले स्वर में बोला - “तुम मुझे बहला रहे हो । तुम मुझे कुछ बताने की नहीं, मुझसे कुछ जानने की कोशिश कर रहे हो । मंजुला की खबर, लगता है, तुम्हें भी नहीं है । लेकिन मेरी तरह तुम्हें भी उसकी तलाश है । क्योंकि राजीव से हुई बातों की वजह से तुम्हें अन्दाजा हो गया है कि माल मंजुला के पास है और माल तुम खुद हथियाना चाहते हो । इसी वजह से तुम मुझे यह पट्टी पढाने की कोशिश कर रहे हो कि माल मंजुला के पास नहीं है । जबकि यह हो ही नहीं सकता कि माल उसके पास न हो । जब वह मेरे पास से भागी थी तो माल उसके पास था तो अब माल कहां चला गया ।”
एकाएक उसकी आंखों से कहर बरसने लगा ।
“साले” -वह एक कदम आगे बढ़ आया और गरजकर बोला - “साफ-साफ बोल कि राजीव तेरे हाथ कैसे लग गया और तू और क्या कुछ जानता है, नहीं तो मैं अभी तेरा भेजा उड़ाता हूं ।”
और उसने अपना पिस्तौल वाला हाथ एकदम सीधा मेरी तरफ तान दिया ।
मृदुला के मुंह से एकाएक चीख निकल गई ।
वह चीख इतनी अप्रत्याशित थी कि डेविड की गर्दन एक झटके के साथ अपने आप ही उसकी तरफ घूम गई ।
एक क्षण भी नष्ट किये बिना मैंने उस पर छलांग लगा दी ।
मैंने कराहते हुए आंखें खोलीं ।
सबसे पहले मुझे जो चीज दिखाई दी वह कमरे का फर्श था ।
मैं फर्श पर औंधे मुंह पड़ा था ।
मैं बड़ी कठिनाई से उठकर बैठा ।
मेरी खोपड़ी में एक जगह लोहार की ठक-ठक की तरह खून बज रहा था । मैंने उस स्थान पर सिर को टटोला तो पाया कि वहां टेबल टेनिस की गेंद जितना बड़ा गूमड़ बना हुआ था लेकिन गनीमत थी कि सिर फटा नहीं था ।
मैंने घड़ी पर निगाह डाली ।
मैं कोई बीस मिनट बेहोश रहा था ।
डेविड मेरी उम्मीद से ज्यादा फुर्तीला निकला था । और यह उसकी मेहरबानी थी कि उसने मुझे जान से नहीं मारा था ।
मेरी रिवॉल्वर और मेरा पर्स मुझे कहीं दिखाई न दिए । जरूर वे दोनों चीजें डेविड अपने साथ ले गया था ।
मैं लड़खड़ाता हुआ उठकर अपने पैरों पर खड़ा हुआ ।
फिर मुझे मृदुला दिखाई दी । वह सोफे पर पड़ी थी । उसके हाथ-पांव बन्धे हुए थे और मुंह पर भी एक पट्टी बन्धी हुई थी । उसकी आंखें घायल हिरणी की तरह अपनी कटारियों में फिर रही थीं ।
मैं उसके पास पहुंचा । उसके समीप पहुंचकर मैंने उसके बंधन खोलने कर कोशिश की, लेकिन गांठ इतनी मजबूत थी कि मेरे हाथों से खुल न पाई । अलबत्ता उसके मुह पर बन्धा कपड़ा खोलें में मैं कामयाब हो गया ।
“ठीक हो ?” - मैने पूछा ।
उसके मुंह से बोल न फूटा, लेकिन उसने सहमति में सिर हिला दिया ।
मैं किचन में पहुंचा ।
बड़ी मुश्किल से मैं वहां से एक सब्जी काटने वाली छुरी तलाश कर पाया । वह छुरी इतनी बेकार थी कि मुझे हैरानी थी कि वे लोग उससे सब्जी कैसे काटते थे लेकिन उस वक्त मुझे मजबूरन उसी से काम चलाना था ।
बड़ी मुश्किल से मैंने उसके बन्धन काटे ।
लेकिन उसके शरीर में हरकत फिर भी न आई । काफी देर तक बन्धे रहने की वजह से रक्त-प्रवाह में व्यवधान आ गया था ।
मैं बारम्बारी उसके हाथ पांव मसलने लगा ।
ऐसी बातें सोचने का कोई वक्त नहीं था, लेकिन मैं यह बात महसूस किये बिना न रह सका कि उसके हाथ-पांव बहुत सुडौल थे और जिस्म बहुत मुलायम था । क्या यह हो सकता था कि पैंतीस के पेटे में पहुंची हुई वह लड़की - बल्कि औरत - अभी तक वरजिन हो, उसने कभी किसी पुरुष के सहवास का सुख न उठाया हो । रहती तो वह किसी नन की तरह तरह ही थी ।
“बस करो” - एकाएक वह मेरा हाथ थामकर मुझे रोकती हुई रुआंसे स्वर में बोली ।
मैंने उसकी टांग पर से अपने हाथ हटा लिए ।
मैंने चारों तरफ निगाह दौड़ाई । वहां फैली अव्यवस्ता बता रही थी कि वहां से विदा होने से पहले डेविड सारे फ्लैट की भरपूर तलाशी लेकर गया था ।
“यह सब क्या हो रहा है, सुधीर ?” - वह बोली - “मंजुला ने इस बार कौन-सी मुसीबत मोल ले ली है ?”
“मृदुला” - मैं बड़ी कठिनाई से कह पाया - “बहुत बुरी खबर है ।”
“क्या ? जल्दी बताओ । मुझे सस्पेंस में न डालो ।”
“तुम्हारी बहन मर चुकी है, मृदुला ।”
“क...क्या ?”
“उसका कत्ल हो गया है ।”
वह हक्की-बक्की सी मेरा मुंह देखने लगी । फिर उसने दोनों हाथों में अपना मुंह छुपा लिया और सिसकियां ले-लेकर रोने लगी ।
मैंने दिलासे के तौर पर उसका कंधा थपथपाया ।
उसने मेरे कंधे पर अपना सिर रख दिया ।
थोड़ी देर हम दोनों यूं ही खामोश बैठे रहे ।
वह मेरे से उम्र में बड़ी थी । मंजुला से अपनी शादी के दौर में मैं जब भी वहां आता था, मैं उसे एक साली की निगाह से नहीं बल्कि एक बुजुर्ग की निगाह से, जैसे आप अपनी किसी आंटी-वान्टी को देखते हैं, देखा करता था । लेकिन उस क्षण मुझे लग रहा था कि उम्र बढ़ जाने के बावजूद भी वह बहुत कमसिन थी, बहुत नाजुक थी ।
“यह... यह सब” - वह बोली - “कैसे हो गया ?”
“सुनोगी तो छक्के छूट जाएंगें तुम्हारे” - मैं बोला - “मृदुला, तुम्हारी बहन ने जो आदमी अभी यहां से गया है उसके और उसके एक साथी के साथ एक सशस्त्र डकैती में हिस्सा लिया था । डकैती के रुपये के चक्कर में ही किसी ने उसकी छाती में चाक़ू घोंपकर उसका खून कर दिया है ।”
“हे भगवान !” - वह आतंकित स्वर में बोली - “मां सुनेगी तो मर ही जागेगी । वह तो पहले ही दिल की मरीज है ।”
“फिर तो उसे अभी यह बुरी खबर मत सुनाना ।”
“मुझे ठीक से बताओ, सुधीर क्या हुआ था ?”
जो कुछ मैं जानता था, मैने दोहरा दिया । मैंने उसे बता दिया कि वह कैसी हालत में मेरे पास तक पहुंची थी और कैसे मेरी बांहों में उसने दम तोड़ा था ।
“वह” - मृदुला मंत्रमुग्ध स्वर में बोली - “इतनी बिगड़ चुकी थी ।”
“तुम अगर डकैती की बात कर रही हो तो...”
“नहीं । मैं उसकी गैर मर्दों से इस हद तक बढ़ चुके ताल्लुकात की बात कर रही थी ।”
“उसमें नई बात कौन सी है । तुम उसकी बहन हो, हमेशा उसके साथ रही हो । क्या यह हो सकता है कि तुम्हें मालूम न हो कि वह एक निम्फोमैनियक थी । क्या यह हो सकता है कि आज तक तुम्हें यह मालूम न हुआ हो कि मेरा उससे तलाक किस वजह से हुआ था ?”
“बेचारी !”
मैंने कोई सख्त बात कहने के लिए मुंह खोला, लेकिन फिर ख्याल बदल दिया । क्या फायदा था ? मंजुला की मौत के बाद अब ऐसी बातों के जिक्र से क्या फायदा था !
“मां के दिल पर कोई बुरा असर न हो जाये” - वह धीरे से बोली - “मंजुला की मौत की खबर मैने उससे फिलहाल छुपा कर रखनी है । यह कोई पहला मौका नहीं है, सुधीर, जब मुझे ऐसी कोई बदमजा जिम्मेदारी निभानी पड़ रही है । मंजुला के बचपन के दिनों से ही मैं उसकी करतूतों पर परदे डालती चली आ रही हूं । हर बार मुझे उम्मीद होती थी कि जो कुछ उसने उस बार किया था, वह दोबारा नहीं करेगी । लेकिन हर बार मेरी उम्मीद टूटती थी और हर बार वह पहले से ज्यादा खतरनाक कदम उठाकर दिखाती थी ।”
“सैक्स के मामले में उसका बचपन से यही रवैया था ?”
“हां । जिस उम्र में लड़कियां गुड़ियों से खेलती हैं, मंजुला उस उम्र में..। अब मैं क्या कहूं । सुधीर, मैंने कितनी ही बार उसे अड़ोस-पड़ोस के लड़कों के साथ अश्लील हरकतें करते, रंगे हाथों पकड़ा था, हर बार उसे समझाया था कि अच्छी बच्चियां वैसी हरकतें नहीं करती थी और हर बार वह पहले से ज्यादा बेहूदी हरकत करके दिखती थी ।”
“वह ऐसी क्यों थी ? वह आम लड़कियों जैसी लड़की क्यों नहीं थी ?”
“क्योंकि...क्योंकि उसके बचपन में उसके साथ जो हादसा हुआ था वह....वह आम लड़कियों के साथ नहीं होता ।”
“क्या हुआ था उसके बचपन में ?”
वह कुछ क्षण हिचकिचाती रही और फिर बोली - “कभी उसने तुम्हें बताया था की जब वह तुगलकाबाद के खंडहरों में खो गई थी और दो दिन बाद कहीं मिली थी ।”
“हां ।” - मैं मंजुला की दाईं जांघ पर बने सिले हुए जख्म के निशान को याद करता हुआ बोला - “बताया था ।”
“सुधीर, तब वह खोई नहीं थी । तब कोई आदमी उसे बहला-फुसलाकर ले गया था ।”
“क्यों ?”
“उसके साथ अपना मुंह काला करने के लिए ।”
“आठ साल की लड़की के साथ ?” - मैं आतंकित भाव में बोला ।
“हां । वही आदमी उसे दो दिन वहां रखे रहा था । बाद में वह गिरफ्तार हो गया था और उसे जेल की सजा भी हुई थी, लेकिन उससे क्या होता था ? जो सत्यानाश वो मंजुला का कर गया था, वो तो ठीक नहीं हो सकता था न । सुधीर, मुझे लगता है कि बचपन की उस घटना को प्रत्यक्षत: तो वह भूल-भाल गई थी, लेकिन उसकी गंभीरता हमेशा-हमेशा उसके अन्तर्मन पर हावी रही थी । जरूर बचपन की उस भीषण घटना की वजह से अपनी नौजवानी में वह निम्फोमैनियक बन गई थी । साधारणतया ऐसी घटना का जो मानसिक आघात अपरिपक्व मस्तिष्क पर अपेक्षित होता है, वह तो यह होता है कि बच्ची बड़ी होकर सैक्स के नाम से दहशत खाने लगती है, पुरुष के सहवास के ख्याल से ही उसे विरक्ति होने लगती है । लेकिन मंजुला के साथ जो कुछ हुआ, इससे एन उलटा हुआ । अपोजिट सैक्स उसके लिए फैंसी बन गया । मर्द का सहवास उसकी ऐसी भूख बन गया जो कभी मिटती ही नहीं थी । एक तो बचपन के उस हादसे की वजह से उसके खयालात ऐसे बन गए थे, ऊपर से तकदीर की मार कि वह वक्त से पहले जवान हो गई थी । तेरह साल की उम्र में वह भरी-पूरी औरत लगने लगी थी । वह मुझसे दस साल छोटी थी लेकिन कभी मजाक में अपनी फ्रॉक उतारकर मेरी साड़ी बांध लेती थी तो मेरे से बड़ी लगती थी ।”
“ओह !”
“उन दिनों कुछ ऐसी मानसिक प्रवृत्ति हो गई थी उसकी कि मर्द की शक्ल देखकर ही वह खुश हो जाती थी । मुझे तो उसकी सूरत देखकर ऐसा लगा करता था जैसे मर्द से बात कर लेने भर से, चाहे वह कैसा भी क्यों न हो, उसका ख्याल भर कर लेने से, उसे रति सुख की अनुभूति होती थी । उसकी निगाह में सब मर्द एक जैसे थे - अच्छे, प्यार करने वाले, औरत को सुख देने वाले, उसकी शारीरिक जरूरत पूरी करने वाले, उसको रिझाने वाले और...और पता नहीं क्या-क्या । यही वजह थी कि गली में आइस-क्रीम वगैरह बेचने आने वाले फेरी वालों तक से वह ऐसी बातें कर लेती थी कि वे सारा-सारा दिन हमारे ब्लॉक के गिर्द ही मंडराते रहते थे और मुझे उन्हें डांटकर भगाना पड़ता था । इतनी अवेलेबल लड़की की अगर कोई एडवांटेज लेना चाहता तो यह उसके लिए क्या मुश्किल बात थी ?”
“कोई मुश्किल बात नहीं थी” - मैं मंजुला के भोले-भाले चेहरे को याद करता हुआ बोला ।
“उन दिनों हमारे घर में गैस नहीं थी । वह गली में अंगीठी रखकर उसको पंखा मारने जैसा संक्षिप्त-सा काम करती करती राह चलते आदमी से बात कर लेती थी - ऐसे राह चलते आदमी से बात कर लेती थी जिसकी उसने जिंदगी में कभी सूरत नहीं देखी होती थी और जिसकी यह भी गारंटी नहीं होती थी कि वह जिंदगी में दोबारा उधर से गुजरेगा । ऐसे ही किसी लड़के को देखकर जमीन पर कुछ गिरा देना और फिर असाधारण देर करके उसे इस प्रकार जमीन से उठाना कि लड़का उसके गिरहबान के भीतर झांक सके, उसकी बड़ी आम और पसंदीदा शरारत थी ।”
“यह सब-कुछ वह तेरह साल की उम्र में करती थी ?”
“उससे भी पहले । तेरह साल की उम्र में तो यह फर्क पड़ा था कि तब उसके पास दिखाने के लिए बहुत कुछ आ गया था ।”
“तौबा !”
“मां को तो ऐसी बातों का पता नहीं लगता था लेकिन मेरे से उसको हरकतें अकसर छुपी नहीं रह पाती थीं । लेकिन मैं चौबीस घंटे तो उसकी निगरानी नहीं कर सकती थी न । अलबत्ता उसे डांटती और समझाती जरूर रहती थी मैं । लेकिन मेरी डांट का, मेरे समझाने का, उस पर कोई असर ही नहीं होता था । मैं बड़ी संजीदगी से उसे कोई सबक देने की कोशिश करती थी और वह मेरे सामने खड़ी खी-खी करके हंसती रहती थी । बाद में बड़ी हो जाने पर तो वह मेरे से जुबान भी लड़ाने लगी थी और साफ कहने लगी थी कि मैं दकियानूसी खयालात वाली मूर्ख औरत थी जो मुनासिब तौर पर जिंदगी का आनंद लेना नहीं जानती थी ।”
“ओह !”
“स्कूल तक तो मैं फिर भी उस पर थोड़ा-बहुत अंकुश रखे रही, लेकिन एक बार कॉलेज में भरती हो जाने पर तो वह घर के कंट्रोल से एकदम बाहर निकल गई । तब तक मैं भी उसे एक लाइलाज केस समझकर हथियार डाल चुकी थी और समझाना बंद कर चुकी थी । फिर वह नौकरी करने लगी तो रही-सही कसर भी पूरी हो गई । फिर तो उसे हमारे साथ रहना भी अपनी आजादी में खलल मालूम होने लगा । मां से तो कोई ऐसी बातें करता नहीं था, लेकिन मुझे अकसर सुनने को मिलता था कि हर शाम को मंजुला किसी नए लड़के के साथ किसी नई जगह तफरीह करती पाई जाती थी । कभी-कभार वह यहां दो-तीन दिन रहकर जाती थी तो मैं इस बारे में उससे बात चलाने की कोशिश करती थी, तो वह मुझे उलटा डांट देती थी कि मैं उसे उल्टी पट्टी पढ़ा रही थी ।”
“उल्टी पट्टी ?”
“हां । उसकी निगाह में मैं बेवकूफ थी जो पुरुष सहवास से वंचित थी और अपनी जवानी खराब कर रही थी और उसी बेवकूफी भरी राह पर मैं उसे चलाना चाहती थी ।”
“यानी कि वह समझदारी का काम कर रही थी ।”
“हां । वह कहती थी कि जवानी तो ऐसी दौलत थी जिसे जितना लुटाओ उतना ही ज्यादा बढ़ती थी, वह ऐसी मशीन थी जो न इस्तेमाल किए जाने पर जंग खा जाती थी ।”
मैं खामोश रहा । मेरे मानस पटल पर उस वक्त मेरी और मंजुला की पहली मुलाकात की तस्वीर उभर रही थी ।
“उसके बिगड़ने में उसकी खूबसूरती ने भी तो बहुत बड़ा रोल अदा किया था” - मृदुला कह रही थी - “एक तो नीयत ऐसी, ऊपर से हर आने वाले दिन वह गुजरे दिन से ज्यादा खूबसूरत लगती थी । ऊपर से उस पर जवानी यूं झूम के आई, जैसी कभी किसी पर न आई हो । खुदा ने उसे खूबसूरती और जवानी तो झोलियां भरकर दी ही थी, ऊपर से उसकी निगाह में पता नहीं ऐसा क्या था कि वह जिस मर्द की तरफ आंख भरकर देख लेती थी, वह कुत्ते की तरह दम हिलाता हुआ उसके पीछे चलने लगता था ।”
वह ठीक कह रही थी । क्या मेरी अपनी हालत भी वैसी ही नहीं हुई थी ?
फिर थोड़ी देर के लिए खामोशी छा गई । उसका सिर अभी भी मेरे कंधे पे टिका हुआ था और अब वह कुछ इस प्रकार बैठी हुई थी कि उसका लगभग सारा भार मेरे कंधे पर था ।
“मैंने फोन करना है” - एकाएक मैं बोला ।
उसने मेरे कंधे पर से सिर उठाया । मैंने उसकी पीठ थपथपाई और उससे जुदा होकर उठ खड़ा हुआ ।
टेलीफोन भी उन चंद चीजों में से एक चीज थी जो उनके अच्छे दिनों की यादगार के तौर पर उनके अधिकार में थी ।
“किसे फोन करोगे ?” - वह उत्सुक भाव से बोली ।
“पुलिस को” - मैं बोला ।
“पुलिस को” - उसने धीरे से कहा - “सुधीर, हमें...हमें लाश क्लेम करने के लिए भी तो जाना होगा ।”
“उसकी अभी जल्दी नहीं । पुलिस लाश को पोस्टमार्टम के बाद ही अंतिम संस्कार के लिए रिलीज करेगी और अभी तो शायद वह मेरे फ्लैट से भी नहीं उठवाई गई है ।”
“ओह !” - वह एक क्षण ठिठकी और बोली - “सुधीर, मैं बिल्कुल अकेली हूं । इस काम में तुम मेरी मदद करोगे न ?”
“जरूर करूंगा ।”
“शुक्रिया ।”
फोन दूसरे कमरे में था । मैं उठकर वहां पहुंचा ।
मैंने अपने फ्लैट पर फोन किया ।
दूसरी तरफ से तुरंत फोन उठाया गया, लेकिन जो आवाज मुझे उधर से आती सुनाई दी, वह मलकानी की नहीं बल्कि सब-इंस्पेक्टर यादव की थी ।
सब-इंस्पेक्टर यादव फ्लाइंग स्क्वाड के उस दस्ते से सम्बद्ध था जो केवल कत्ल के केसों की तफतीश के लिए भेजा जाता था ।
“मैं कोहली बोल रहा हूं” - मैंने उसे बताया ।
“जल्दी क्या थी बोलने की” - वह व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला - “अभी तो तीन ही घंटे का वक्त गुजरा है कत्ल हुए । हफ्ते-दस दिन में फोन कर लिया होता ।”
मैं खामोश रहा ।
“अब क्या हो गया है ?” - वह बोला - “अभी तो तुम कह रहे थे कि मैं कोहली बोल रहा हूं । अब बोल क्यों नहीं रहे हो ?”
“सोचा शायद तुमने अभी और बोलना हो ?”
“ज्यादा स्मार्ट बनने की कोशिश मत करो और पिछले तीन घंटों में पुलिस को सुनने के लिए जो कहानी तुमने घड़ी है, उसे कह डालो । और लगे हाथों यह भी बता देना कि इतना अरसा तुम कहां रहे हो और अब इस वक्त कहां हो ?”
“मैं इस वक्त न्यू राजेन्द्र नगर में हूं और मकतूल के घर वालों के यहां से बोल रहा हूं । तुमने कर्जन रोड से राजीव को अभी पकड़ मंगवाया है या नहीं ?”
“पकड़ तो मंगवाया है लेकिन अगर उस पर कोई पुख्ता चार्ज न लग सका तो तुम्हारी खैर नहीं । अगर उसने यह बयान दिया कि तुमने किसी अदावत की वजह से उसकी धुनाई कर डाली थी तो वह बाहर होगा और तुम सीखचों के अंदर होगे ।”
“यादव साहब, क्या मलकानी ने तुम्हें पानीपत की पे रोल रोबरी वाली बात नहीं बताई ?”
“बताई है लेकिन मुझे नहीं मालूम कि पानीपत में ऐसी कोई डकैती पड़ी है ।”
“कल वहां यह कांड हुआ था । आज के अखबार में सारी कहानी जरूर छपी होगी ।”
“छपी होगी लेकिन अखवार अभी यहां आया नहीं हैं ।”
“नहीं आया तो आ जाएगा, लेकिन यह हकीकत है कि राजीव उस डकैती में शामिल था । उसके दूसरे साथी का नाम डेविड था । वह भी मुझसे टकराया तो था लेकिन उसे पुलिस को डिलीवर करने के लिये मैं उसे काबू में नहीं कर पाया । बहरहाल मंजुला की फिराक में यह भी उन्हीं जगहों के चक्कर काटेगा जहां के पुलिस ने चक्कर काटने हैं क्योंकि मैंने उसे यह नहीं बताया था कि मंजुला मर चुकी थी ।”
“मंजुला भी उस डकैती में शामिल थी ?”
“हां ।”
“मलकानी ने मुझे मंजुला से तुम्हारे रिश्ते के बारे में बताया है ।” - इस बार उसके स्वर में सहानुभूति का पुट था ।
“यादव” - मैं जल्दी से बोला - “मंजुला एक बजे तक डेविड के साथ थी । फिर वह डकैती का माल लेकर चम्पत हो गयी थी । यह बात मैंने खुद डेविड के मुंह से सुनी है । वह ढाई बजे के करीब मेरे फ्लैट पर पहुंची थी ।”
“तुम यह कहना चाहते हो कि डेविड ने, राजीव के उस दूसरे साथी ने, मंजुला का कत्ल किया है ?”
“तुम मेरी बात गौर से नहीं सुन रहे हो । । मैंने अभी कहा था कि डेविड को तो अभी मालूम भी नहीं कि मंजुला मर चुकी थी । और राजीव को यह तक भी नहीं पता था कि मंजुला डेविड के साथ गयी थी या वह उसका माल लेकर चम्पत हो चुकी थी ।”
“यानी कि इन दोनों ने ही मंजुला कत्ल नहीं किया ?”
“हां । मंजुला डेविड से अलग होने पर सीधी मेरे पास नहीं आई थी । उसने ऐसा किया होता तो उसे मेरे पास पहुंचने तक डेढ़ घण्टा न लगा होता । इससे साफ जाहिर होता है कि मेरे पास आने से पहले वह माल समेत एक-दो और जगहों पर भी गई थी जहां से कि कोई उसके पीछे लग लिया था और फिर उसे चाकू मारकर उससे माल छीनकर ले गया था ।”
“वह तुम्हारे फ्लैट तक पहुंची कैसे थी ? टैक्सी पर ?”
“नहीं । एक काली एम्बैसडर कार पर । उसे खुद ड्राइव करती हुई ।”
“मुझे तो तुम्हारे फ्लैट के बाहर सड़क पर कोई काली एम्बैसडर नहीं दिखाई दी ?”
“वह गाड़ी मैं ले आया था ।”
“क्या ?” - वह गरजा ।
मैं जल्दी में था ।”
“लेकिन तुम...”
“यादव साहब, यह मत भूलो कि अगर मैंने जल्दी न दिखाई होती तो राजीव तुम्हारे हाथ न आया होता । और यह याद करने की कोशिश करो कि डकैती के चौबीस घण्टे के भीतर-भीतर एक डकैत को गिरफ्तार भी कर चुके होने की वजह से तुम प्रेस, पब्लिक और अपने अफसरान की कितनी बड़ी वाहवाही के हकदार बनने वाले हो ।”
“लड़की ने मरने से पहले कुछ कहा था कि उस पर चाकू का वार किसने किया था ?” - यादव बात बदलता हुआ बोला ।
“नहीं ।”
“लेकिन वह कह तो सकती थी ?”
“हां ।”
“फिर तो हत्यारा बड़ा बेवकूफ था जो कि इस बात की तसदीक किए बिना ही वहां से भाग गया कि वह मर भी चुकी थी या नहीं ।”
“या तो वह ऐन मौके पर भयभीत होकर भाग गया था और या फिर उसे गारन्टी थी कि लड़की की चन्द सांसें ही बाकी थी । यादव, जिस हालत में वह थी, उसमें यह करिश्मा लगता था कि एक मंजिल सीढियां चढ़कर वह मुझ तक पहुंच गई थी ।”
“वह ऊपर आते ही मर गई थी ? मरने से पहले उसने कतई कुछ नहीं कहा था ?”
“कुछ कहा था लेकिन जो थोड़ा कुछ उसने कहा था, वह सब हमारी शादीशुदा जिन्दगी से ताल्लुक रखता था ।”
“कमाल है ! वो कोई वक्त था शादीशुदा जिन्दगी की बात करने का ।”
“उसकी निगाह में था ।”
“उसे तो आते ही सबसे पहले अपने आक्रमणकारी का नाम लेना चाहिए था ।”
“उसने नहीं लिया था ।”
“क्यों नहीं लिया था ?”
“वह अभी तुम्हारे सामने ही पड़ी होगी । उसे जगाकर पूछ लो ।”
“बकवास मत करो ।”
“अच्छा ।”
“और अपनी ऐसी थ्योरियां भी अपने पास रखो कि तुम्हारे पास पहुंचने से पहले लूट के माल के साथ वह पहले यहां गई होगी, वहां गई होगी । सुधीर कोहली, अगर अपनी खैरियत चाहते हो तो जो मैं कहता हूं, वह करो ।”
“क्या ?”
“जिस काली एम्बैसडर पर मंजुला यहां पहुंची थी, उसके समेत फौरन यहां दिखाई दो ।”
“यादव, मुझे तुम्हारे से ऐसे नाशुक्रेपन की उम्मीद नहीं थी । मैने तीन घण्टे में इतना काम करके दिखाया जो तुम्हारी सारी पुलिस फोर्स तीन दिन में न कर पाती । मैंने...”
“तुम्हारे ये तमाम दावे भी मैं सुनूंगा । लेकिन टेलीफोन पर नहीं । जो कहना चाहते हो, यहीं आकर मेरे सामने बैठकर कहो ।”
“..मैने सबसे अहम काम यह किया है” - मैं कहता रहा - “कि मैंने तुम्हें मंजुला के कत्ल का उद्देश्य समझाया है । मंजुला के कत्ल के सन्दर्भ में अगर पानीपत से लूटे पौने दो लाख रुपए की बात सामने न आई होती तो..”
“पौने दो लाख रुपए की नहीं” - वह मेरी बात काटकर बोला - “एक लाख चौहत्तर हजार आठ सौ बत्तीस रुपए साठ पैसे की बात ।”
एकाएक मैं बेहद खामोश हो गया ।
“हल्लो ।” - यादव बोला - “क्या जुबान को लकवा मार गया ?”
“यादव” - मैं धीरे-से बोला - “तुम तो कह रहे थे कि तुम्हें न तो डकैती की खबर है और न तुमने अभी तक आज का अखबार देखा है ।”
“ठीक कह रहा था ।”
“तो फिर डकैती में लुटे माल की नए पैंसों तक एकदम सही रकम तुम्हें कैसे मालूम हो गई ?”
“डकैती में लुटे माल को गिनने से ।”
“क्या ?”
“माल एक एयरबैग में बन्द था और वह एयरबैग हमने तुम्हारे बैडरूम में से तुम्हारे पलंग के नीचे से बरामद किया है ।”
सब-इन्सपेक्टर यादव के सख्त आदेश के बावजूद भी मैंने सीधे अपने फ्लैट का रुख करने का उपक्रम नहीं किया । विलिंगडन क्रीसेन्ट न्यू राजेन्द्र नगर और ग्रेटर कैलाश के रास्ते में पड़ता था, इसलिये यादव के पास पहुंचने से पहले मैंने काली एम्बैसडर के मालिक किरण कुमार से मिलने का फैसला कर लिया ।
मृदुला को आखिरी बार तसल्ली देकर मैं वहां से विदा हो गया ।
शंकर रोड के रास्ते मैं विलिंग्डन क्रीसेन्ट की तरफ बढा ।
यादव ने टेलीफोन पर मुझसे यह नहीं पूछा था कि लूट का माल मेरे फ्लैट में कैसे पहुंच गया था । पूछता भी तो मैं क्या जवाब देता ? वह खुद मेरे लिये एक मिस्ट्री थी ।
वैसे सम्भावना एक ही दिखाई देती थी ।
मेरे फ्लैट से विदा होने के बाद हत्यारा वहां घुसा था ।
अगर उसे यह डर था कि मरने से पहने मंजुला ने मेरे सामने जुबान खोली थी तो वह मुझे फंसाने के लिए लाश के साथ माल भी बरामद होने का सामान कर सकता था ।
मेरी खोपड़ी बुरी तरह से दुख रही थी और सारी रात सो न पाया होने की वजह से मुझे ऊंघ भी आ रही थी । मुझे डर लग रहा था कि कही मैं गाड़ी चलाता-चलाता ही स्टियरिंग पर सिर डालकर सो न जाऊं ।
चौकन्ना होने की कोशिश में मैने एक सिगरेट सुलगा लिया ।
मैं विलिंग्डन क्रीसेंट पहुंचा ।
वहां कार के मालिक किरण कुमार की कोठी तलाश करने में मुझे कोई दिक्कत न हुई । वह वहां की बाकी कोठियों जैसी ही एक कोठी निकली ।
मैने कार को फुटपाथ से लगाकर खड़ा किया और बाहर निकला । फाटक ठेलकर मैं विशाल कम्पाउन्ड में दाखिल हुआ और इमारत की तरफ बढा ।
अभी मैं आधे रास्ते में ही था कि इमारत का एक दरवाजा खुला और चोरी की तरह एक तेरी सुबह कह रही है तेरी रात का फसाना मार्का लड़की ने बाहर कदम रखा । मुझे देखकर वह ठिठकी, उसके चेहरे पर झुंझलाहट के भाव आए और एक क्षण के लिए मुझे यूं लगा जैसे वह वापस इमारत में घुस जाना चाहती हो । लेकिन वास्तव में उसने ऐसा नहीं किया । वह तेजी से आगे बढ़ी और बिना मुझ पर निगाह डाले मेरी बगल से गुजर गई ।
“किरण कुमार साहब यहीं रहते हैं ?” - मैने पीछे से आवाज लगाई ।
उसने उत्तर न दिया । वह बिना घूमकर देखे लम्बे डग भरती हुई सड़क पर पहुंची और एक ओर चल दी ।
मैंने बरामदे में जाकर कॉलबैल बजाई ।
उस लड़की को देखकर मैंने यही राय कायम की कि उस विशाल कोठी में उस वक्त औरतों का रसिया कोई मर्द अकेला होना चाहिए था ।
घंटी के जवाब में जो शख्स दरवजे पर प्रकट हुआ, वह एक मुश्किल से चौबीस-पुच्चीस साल का, सूरत से ही विलासी और बदनीयत लगने वाला, छोकरा था । उसके बाल अस्त-व्यस्त थे और वह एक गर्म गाउन पहने था जिसमें सें उसकी नंगी टांगें और नंगी छाती बाहर झांक रही थी ।
“क्या है ?” - वह झुंझलाए स्वर में बोला ।
“तुम्हारा नाम किरण कुमार है ?” - मैं कठोर स्वर में बोला ।
“है तो फिर ?”
“मैं एक डिटेक्टिव हूं ।”
“डिटेक्टिव !” - उसने दोहराया, फिर तुरन्त उसके चेहरे पर हर्ष के भाव आए - “मिल गई ?”
“क्या ?” - मैं हैरानी से बोला ।
“मेरी गाड़ी और क्या ?” - फिर उसने मेरे पीछे सड़क पर निगाह डाली - “वाह ! आप लोगों ने तो कमाल कर दिया । पुलिस का महकमा तो बड़ा मुस्तैद हो गया है । मेरी चोरी गई गाड़ी इतनी जल्दी बरामद भी कर ली आपने और उसे यहां भी पहुंचा दिया । थैंक्यू । थैंक्यू । मेरी जान बचा ली आपने । पापा को पता चलता कि हमारी नई एम्बैसडर मेरी लापरवाही से चोरी चली गई थी तो वे मेरी बहुत बुरी गत बनाते । अब तो....”
“एक मिनट चुप करो ।”
वह फौरन खामोश हो गया ।
“यह गाड़ी तुम्हारी है ?” - मैंने बाहर खड़ी काली एम्बैसडर की तरफ संकेत किया ।
“हां । कोई ऐक्सीडेन्ट-वेक्सीडेन्ट तो नहीं हुआ ?”
“नहीं हुआ । गाड़ी एकदम सही-सलामत है ।”
“शुक्र है ।”
“भीतर चलो । तुमसे एक मिनट बात करनी है ।”
वह मुझे एक सजे हुए ड्राईंग रूम में ले आया ।
उसने मुझे एक सोफे पर बिठाया और स्वयं मेरे सामने बैठ गया ।
“कोठी में अकेले हो ?” - मैंने पूछा ।
“हां ।” - वह बोला ।
“यहां रहते ही अकेले हो ?”
“नहीं । मेरे माता-पिता और बाकी भाई-बहन एक शादी में बम्बई गए हुए हैं ।”
“तुम नहीं गए ?”
“नही ।”
“क्योंकि तुम्हें यहीं सुहागरात का मजा आ रहा है ?”
उसका चेहरा सुर्ख हो गया ।
“खैर, छोड़ो । मुझे इससे क्या कि तुम यहां अकेले होने का क्या फायदा उठाते हो । तुम गाड़ी की बात करो । गाड़ी की चाबियां भी इग्नीशन में थीं । ऐसी लापरवाही क्या तुम अक्सर करते हो ?”
“यही समझ लो” - वह बोला - “चाबियां इग्नीशन में रह गई थीं इसीलिए तो गाड़ी इतनी आसानी से चोरी चली गई, वर्ना मैं तो सिर्फ पांच मिनट के लिए गाड़ी छोड़कर गया था ।”
“कहां से चोरी गई थी गाड़ी ?”
“पहाड़गंज के एक होटल के सामने से ।”
“किस वक़्त ?”
“कोई एक बजे के करीब । होटल से मैंने किसी को पिक करना था । मैं भीतर गया, कुछ क्षण बाद बाहर निकला तो गाड़ी गायब थी ।”
होटल में वह जरूर उस लड़की को ही पिक करने गया था जिसे मैंने अभी वहां से चुपचाप खिसकते देखा था ।
“तुम मंजुला नाम की किसी लड़की को जानते हो ?”
“मंजुला ? कौन मंजुला ?”
मैंने उसे मंजुला का कर्जन रोड वाला पता बताया ।
“नहीं” - वह बोला - “मैं नही जानता । क्या उसी ने मेरी कार चुराई थी ?”
“तुमने कार की चोरी की रिपोर्ट कहां लिखाई थी ?”
“पहाड़गंज पुलिस स्टेशन ।”
“टेलीफोन कहां है ?”
उसने मेरे पीछे कहीं संकेत किया ।
मैं उठकर टेलीफोन के पास पहुंचा । उसके समीप ही पड़ी डायरेक्ट्री में मैंने पहाड़गंज पुलिस स्टेशन का टेलीफोन नम्बर देखा ओर फिर वहां फोन किया ।
“हल्लो ?” - दूसरी ओर से उत्तर मिलते ही मैं बोला - “मैं विलिंगडन क्रीसेन्ट से किरण कुमार बोल रहा हूं” - किरण कुमार ने विरोध के लिए मुंह खोला, लेकिन मैंने हाथ के इशारे से उसे चुप रहने के लिए कहा - “मैंने कल आधी रात के बाद अपनी कार की चोरी की रिपोर्ट लिखाई थी । मेरी कार का कुछ पता चला ?”
“अभी कुछ पता नहीं चला, किरण कुमार जी” - दूसरी ओर से उत्तर दिया - “ऐसे मामलों में इतनी जल्दी कोई नतीजा सामने आना मुमकिन नहीं होता । वैसे कोशिश जारी है । आपकी कार का नम्बर नगर से निकासी के तमाम रास्तों पर तैनात पुलिस कर्मियों में सर्कुलेट कर दिया गया है । कार बरामद होगी तो आप को खबर कर दी जाएगी । हमारे पास आपका टेलीफोन नम्बर है ।”
“थैंक्यू ।”
मैंने फोन रख दिया और किरण कुमार की तरफ घूमा - “हौसला रखो, मैंने सिर्फ यह कनफर्म किया है कि तुम कार की चोरी के बारे में सच बोल रहे हो ।”
“लेकिन जब तम खुद डिटेक्टिव हो तो…”
“मैं प्राइवेट डिटेक्टिव हूं । तुम्हारी कार इस वक्त एकदम सही-सलामत मेरे अधिकार में है, लेकिन मैं उसे यहां छोड़कर नहीं जा सकता ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि एक कत्ल के केस की तफ्तीश में पुलिस को इस कार की जरूरत है ।”
“कत्ल ?”
“हां । पहाड़गंज से जिस लड़की ने तुम्हारी कार उठाई थी, उसका कत्ल हो गया है लेकिन उस मामले में तुम्हारे लिए चिन्ता की कोई बात नहीं । अलबत्ता पुलिस सरसरी तौर पर तुमसे पूछताछ करने जरूर आएगी ।”
“लेकिन मुझे मेरी गाड़ी कब वापिस मिलेगी ?”
“बड़ी हद कल तक ।”
“फिर ठीक है” - उसने चैन की सांस ली ।
“यानी कि तुम्हारी फैमिली अभी कल तक वापिस नहीं आने वाली ।”
वह खिसियाई-सी हंसी हंसा ।
“तुम अभी किसी मंजुला का जिक्र कर रहे थे” - फिर वह बोला - “क्या वह वही लड़की थी जिसने मेरी कार चुराई थी और जिसका...जिसका कत्ल हो गया है ?”
“हां ।”
“लड़की कैसी थी ?”
“कैसी थी, क्या मतलब ?”
“क्या बहुत खूबसूरत थी वो ?”
“बच्चा, राजधानी में जो लड़कियां आधी रात को भी अभी सड़क पर विचर रही होती हैं, उनका खूबसूरत होना, लाजिमी होता है ।”
उसने उल्लुओं की तरह पलकें झपकाईं ।
“यहां से जो लड़की मैंने अभी जाती देखी थी, वह अगर खूबसूरत न होती तो तुम उसे पहाड़गंज के होटल से लेने न गए होते ?”
उसका चेहरा फिर लाल हो गया ।
मैं उसे वैसे ही खड़ा छोड़कर बाहर निकल गया ।
पौने सात बजे के करीब मैं ग्रेटर कैलाश पहुंचा ।
तब तक वातावरण में भोर का उजाला फैलने लगा था ।
मुझे अपने फ्लैट वाली इमारत के सामने पुलिस की दो जीपें खड़ी दिखाई दी । वहां सड़क पर लोगों की भीड़ लगी हुई थी ।
मैंने कार को परे ही रोक दिया और बाहर निकला ।
मैं पैदल आगे बढ़ा ।
तभी मुझे अपनी तरफ वह अधेड़ व्यक्ति आता दिखाई दिया जो रात को नशे में धुत मुझसे टकराया था और मुझे अपनी “बेहतरीन पालिसी” बेचने की कोशिश कर रहा था । उस वक्त वह बड़ा सभ्रांत और इज्जतदार व्यक्ति लग रहा था । वह एक शानदार सूट पहने था और अपने हाथ में एक कीमती ब्रीफकेस थामे था ।
मैंने उसे रोका ।
उसने उलझनपूर्ण भाव से मेरी तरफ देखा ।
“आज मुझे कोई पालिसी ऑफर नहीं करोगे, बन्दानवाज ?” - मैंने मुस्कराते हुए पूछा ।
“पालिसी ?” - वह बोला ।
“रात को आप मुझे ग्रुप सुइसाइड प्लान के अन्तर्गत अपनी एक एक्सट्रा स्पेशल पालिसी ऑफर कर रहे थे ।”
“आई एम सॉरी । मुझे याद नहीं कि मैंने कभी आपको कोई पॉलिसी ऑफर की थी, लेकिन अगर आप इंश्योरेंस कराना चाहते हैं तो फरमाइए मैं आपकी क्या खिदमत कर सकता हूं ?”
“आपकी तारीफ ?”
उसने मुझे अपना बिजनेस कार्ड दिया । कार्ड के मुताबिक उस का नाम के एन गांगुली था और वह लाइफ इंश्योरेंस कारपोरेशन में डवैलपमैंट आफिसर था ।
“मैं” - मैंने उसे बताया - “उस सामने इमारत की पहली मंजिल पर रहता हूं ।”
“वो इमारत” - वह सकपकाया - “जिसके सामने पुलिस जमा है ।”
“हां ।”
“वहां तो एक खून हो गया है ।”
“मुझे मालूम है । खून मेरे ही फ्लैट में हुआ है ।”
उसने आतंकित भाव से मेरी तरफ देखा ।
“कल जिस वक्त खून हुआ था, तकरीबन उसी वक्त आप वापिस लौटे थे । हो सकता है आपने हत्यारे को देखा हो । या ऐसा कुछ देखा हो जो इस केस की तफ्तीश में मददगार साबित हो सकता हो ।”
“मैंने ?”
“जी हां आपने । कल रात ढाई बजे के करीब जब आप घर वापिस लौट रहे थे, उस वक्त आप नशे में धुत थे, लेकिन फिर भी हो सकता है कि आपने कुछ देखा हो और...”
“नॉनसेन्स” - वह मुंह बिगाड़कर बोला - “तुम जरूर मुझे कोई गलत आदमी समझ रहे हो । मैं ड्रिंक करता ही नहीं ।”
“भाई साहब, पिछली रात की पी हुई की मुश्क अभी तक तो आपके मुंह से आ रही है और आप फरमा रहे हैं कि...”
“मुझे मालूम है मैं क्या फरमा रहा हूं” - वह सख्ती से बोला - “और तुम मेरे जाती मामलात में अपनी टांग अड़ाने की कोशिश मत करो ।”
“आपके जाती मामलात में सफेद झूठ बोलना भी शामिल मालूत होता है ।”
“और मैं अपनी इंश्योरेंस कंपनी का एक जिम्मेदार अफसर हूं । आधी रात को राह चलते लोगों को पॉलिसी बेचना मेरा काम नहीं है ।”
“लेकिन...”
“और पॉलिसी में मुझे तुम्हारी कोई दिलचस्पी नहीं मालूम होती । मेरा कार्ड वापिस करो ।”
उसका कार्ड अभी भी मेरे हाथ में था जो कि उसने झपट लिया और फिर मुझे पूरी तरह से नजरअन्दाज करके लंबे डग भरता हुआ वह वहां से आगे बढ गया ।
नशा भी क्या चीज थी ! जो आदमी नशे में मुझे अपना, भाई और बाप तक करार दे रहा था और मेरे कलेजे से लग जाना चाहता था, वह होश में मेरी सूरत से बेजार था ।
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