संध्या चाय के दो गिलास थामे वापिस लौटी ।
“मुझे” - वह बोली - गिलास में चाय पीना ज्यादा भाता है इसलिए मैं कप प्लेट...”
“खुद मैं” - विमल ने उसकी बात काटी - “गिलास में चाय पीना पसन्द करता हूं ।”
वह उसके समीप बैठ गई । उसने एक गिलास विमल को थमा दिया।
“तो तुम” - चाय का एक घूंट पीकर वह बड़ी संजीदगी से बोली - “कम्पनी’ का कोई ऐसा नुकसान करना चाहते हो जिस से काले पहाड़ के पैरों के नीचे से जमीन खिसक जाए ?”
“हां लेकिन मैं तुम्हारा कोई नुकसान करके ‘कम्पनी’ का नुकसान नहीं करना जाहता ।”
“उस बात को छोड़ो अब । मेरा जो नुकसान होना था वो हो चुका । तुमसे बात करके अव कोई नया नुकसान नहीं होने वाला मेरा ।”
विमल ने खामोशी से चाय का एक घूट पिया ।
“काले पहाड़ का ऐसा नुकसान तो” - संध्या सोचती हुई बोली - “तुम उसके नारकाटिक्स ट्रेड को ही चोट पहुंचाकर कर सकते हो ।”
“अच्छा !”
“बखिया एशिया को नारकाटिक्स किंग कहलाता है । मादक द्रव्यों का व्यापार ही उसकी धाक को योरोप और अमेरिका तक पहुंचा चुका है । मैंने तुम्हें पहले भी वताया था कि सुवेगा के कफ परेड वाला आफिस में उसके सारे एशिया में फैले नारकाटिक्स आपरेशन का रिकॉर्ड रखा जाता है ।”
“कैसा रिकार्ड ?”
“जैसे एजेण्टों के नाम पते । उन लागों के नाम पते जिनसे हेरोईन,एलएसडी और उससे भी खतरनाक नारकाटिक्स कम दामों में मुहैया किये जा सकते हैं । और ऐसे लोगों के नाम और पते जिन्हें ये चीजें महंगे दामों में बेची जा सकती हैं । भेदियों के नाम और पते । ऐसे लोग के नाम और पते जो बखिया के नारकाटिक्स के धन्धे के लिए खतरनाक साबित हो सकते हैं । एशिया के विभिन्न नगरों में इन नशों की खपत के आकड़े । इतनी महत्वपूर्ण जानकारी एक डायरी में बन्द है और वह डायरी कम्पनी के हाई सर्कल में ‘लिटल ब्लैक बुक’ के नाम से जाने जाती है ।”
“लिटल ब्लैक बुक !” - विमल ने नाम दोहराया ।
“हां डायरी पर काले बकरम की जिल्द चढ़ी हुई है और इसी वजह से उसे ‘लिटल ब्लैक बुक’ का नाम दिया गया मालूम होता है ।”
“तुमने वह डायरी देखी है ?”
“नहीं ।”
“तो फिर...”
“मुझे कैसे मालूम है कि ऐसी कोई डायरी है और वह लिटल ब्लैक बुक के नाम से जानी जाती है ?”
“हां ।”
“पहले डायरी के बारे में बाकी बात सुन लो, फिर बताती हूं ।”
“बेहतर ।”
“उस डायरी का जो संरक्षक है और कम्पनी के नारकाटिक्स विंग का जो सीधा इन्चार्ज है, उसका नाम जोशी है ।”
“लेकिन तुमने तो कहा था कि सुवेगा के कफ परेड वाले ऑफिस का इन्चार्ज मुहम्मद सुलेमान है ?”
“वह वहां का ओवरआल मैनेजर है । सुवेगा के उस ऑफिस का निजाम चलाना उसकी जिम्मेदारी है लेकिन नारकाटिक्स के धन्धे का इन्चार्ज जोशी है ।”
“यह सुलेमान के बराबर का ओहदेदार है ?”
“नहीं । उसके एक सीढी नीचे का । मोटलानी नाम के उस आदमी के बराबर का जिसका आज तुमने कत्ल किया है । जैसे मोटलानी मटके का इन्चार्ज था, वैसे ही जोशी नारकाटिक्स का इन्चार्ज है ।”
“हूं ।”
“लिटल ब्लैक बुक जोशी के अधिकार में रहती है । उसकी हिफाजत की मुकम्मल जिम्मेदारी जोशी की है ।”
“आई सी !”
“तुमने उस जिन्न की कहानी तो सुनी ही होगी जिसकी जान एक तोते में थी ? तोते की टांग टूट जाती थी । तोते की गर्दन मरोड़ दो तो जिन्न की टांग टूट जाती थी । तोते की गर्दन मरोड़ दो तो जिन्न की गर्दन का कल्याण हो जाता था । इसलिए अपनी जान की हिफाजत के लिए जिन्न को तोते की जान की हिफाजत करनी पड़ती थी । सब्ज शहजादे ने उस तोते को ही मारा था तो जिन्न मरा था ।”
“सुनी है ।”
“बस, यह समझ लो कि वह लिटल ब्लैक बुक वह तोता है जिससें काले पहाड़ की जान है । जिसके कब्जे में वह डायरी होगी उसी के कब्जे में काले पहाड़ की जान होगी । जैसे सब्ज शहजादे ने वह तोता हथियाया था, वैसे ही अगर तुम वह डायरी हथिया सको तो समझ लो बखिया के खिलाफ इस जंग में तुम्हारी फतह हो गयी । उस डायरी के बिना बखिया का नारकाटिक्स का धन्धा तो चल ही नहीं सकता उल्टे वह डायरी गलत हाथों में पंहुचकर बखिया की एशिया के धन्धे का पूरी तौर से सर्वनाश कर सकती है । बखिया की एशिया में फैली बादशाहत को एक ही झटके में धराशायी करने के लिए वह इकलौती डायरी ही काफी है ।”
“ऐसी डायरी अगर नारकाटिक्स का धन्धा करने वाले बखिया के दुश्मनों के हाथों में पहुंच जाए तो ?”
“तो बखिया की हालत वो हो जाएगी जो औरंगजेब द्वारा गद्दी से उतार दिये जोने पर शाहजहां की हुई थी ।”
“फिर तो उस डायरी की फिराक में बहुत लोग होंगे ?”
“बहुत लोग तो नहीं, लेकिन कोशिशें तो उस डायरी को हथियाने की गाहे-बगाहे होती ही रहती हैं ।”
“कोई कामयाब हुआ ?”
“नहीं । जिसने भी कोशिश की कुत्ते की मौत मारा गया । और हर ऐसी कोशिश के बाद डायरी की हिफाजत के इन्तजामात और मजबूत कर दिए गए ।”
“कोशिश तो फिर भी होती होगी ?”
“होती है । बखिया के प्रतिद्वद्वियों द्वारा तो होती ही है, ऐसे लोगों द्वारा भी होती है जिनका नारकाटिक्स के ट्रेड से कोई रिश्ता नहीं ।”
“उनके द्वारा किसलिए ?”
“क्योंकि वह डायरी बखिया के दुश्मनों के हाथों करोड़ों रुपयों में बेची जा सकती है ।”
“आई सी !”
“किसी बैंक का वाल्ट लूटने से ज्यादा फायदेमन्द काम उस डायरी को हथियाना है ।”
“जाहिर है ।”
“लेकिन बैंक का वाल्ट लुट सकता है, वह डायरी नहीं लुट सकती ।”
“ऐसी महफूज है वो ?”
“हां ।”
“ओह !” ­ विमल के स्वर में निराशा का पुट था ।
उसकी निराश सूरत देखकर संध्या तनिक मुस्कराई ।
“हाथी” ­ वह बोली ­ “कितना शक्तिशाली जानवर होता है ?”
“बहोत !”
“आम धारणा यही होती है कि इतने शक्तिशाली जानवर को तो उससे ज्यादा शक्तिशाली जानवर ही मार गिरा सकता है ।”
“हां ।”
“लेकिन उसे चींटी मार गिराती है । चींटी मार गिराती है हाथी को ।”
“यानी कि तुम समझती हो कि मैं वह डायरी हथिया सकता हूं ।”
“मैं ऐसा नहीं समझती । ऐसा समझने की कोई बुनियाद मेरे सामने नहीं है । लेकिन लिटल ब्लैक बुक ही वह हथौड़ा है जिसकी चोट बखिया सहन नहीं कर सकता और बखिया को झुकने के लिए जिसकी तुम्हें जरूरत है ।”
“लेकिन जो काम हो नहीं सकता, उसकी उम्मीद में...”
“पहले मेरी पूरी बात सुन लो । फिर फैसला करना कि काम हो सकता है या नहीं ।”
“बेहतर ।”
“वह डायरी जोशी के ऑफिस के पिछवाड़े के एक कमरे में बने एक वाल्ट में बन्द है । वह वाल्ट कम्प्यूटर प्रणाली को इस्तेमाल करके बनाई गई एक विशाल सेफ है जिसका दरवाजा उस पर लगा एक डायल घुमाने पर खुलता है । लेकिन कौन से दिन कौन सा नम्बर डायल करने पर वह दरवाजा खुलेगा; यह बात भी वह कम्प्यूट्राइज्ड सेफ खुद बताती है ।”
“मतलब ?”
“सेफ का कम्प्यूटर एक साल के लिए प्रोग्राम्ड होता है । हर रोज शाम को उसमें से एक कागज का रिबन बाहर निकलता है जिस पर टेलीप्रिंटर की तरह छः अंकों का एक नम्बर अपने आप छप गया होता है वह नम्बर निकलते ही पिछला नम्बर कैंसिल हो जाता है और नया नम्बर चौबीस घण्टे की अवधि के लिए सक्रिय हो जाता है ।”
“वह नम्बर शाम को अपने आप निकलता है ?”
“नहीं । उसका कहीं कोई इलैक्ट्रानिक रिमोट कन्ट्रोल है । वह कन्ट्रोल कहां है, किसी को नहीं मालूम । वह सुवेगा के ऑफिस में भी हो सकता है और उससे मीलों दूर ­ होटल सी व्यू तक में भी ­ कहीं भी हो सकता है । और तो और, वह कन्ट्रोल जोशी की जेब में भी हो सकता है । कहने का मतलब यह है कि रिमोट कन्ट्रोल द्वारा जोशी जब तक कम्प्यूटर को चलाएगा नहीं तब तक वह नम्बर नहीं निकलेगा । किसी निर्धारित समय पर नम्बर निकलता होता तो फिर उस सेफ को खोलना आसान था । फिर तो कोई नम्बर निकलने के वक्त जोशी की छाती पर पिस्तौल रखकर खड़ा हो जाता और वह नम्बर हथिया लेता ।”
“वैसा अब क्यों नहीं हो सकता ?”
“एक तो इसलिए कि जिस रिबन पर वह नम्बर लिखा हुआ निकलता है, जोशी उस नम्बर को याद करके उसे फौरन नष्ट कर देता है ।”
“कभी नम्बर उसे भूल जाए तो ?”
“जोशी की बहुत बढिया याददाश्त भी उस काम के लिए जोशी की एक क्वालीफिकेशन है लेकिन जरा हौसला रखो, यह याददाश्त वाली बात अभी आगे आएगी ।”
“अच्छा ।”
“फिर भी उसके रिमोट कण्ट्रोल का बटन दबा चुकने के बाद और सेफ में से नम्बर निकलने से पहले अगर कोई जोशी को अपने अधिकार में इस उम्मीद में कर लेता है कि जब नम्बर निकलेगा तो वह उसे हथिया लेगा और फिर वह नम्बर डायल करके वह सेफ खोल लेगा तो उसकी वह उम्मीद हरगिज पूरी नहीं हो सकती ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि सेफ के कम्प्यूटर में साउण्ड कण्ट्रोल भी है, जिसकी खबर किसी को नहीं । जोशी एक बार उच्च स्वर में कहेगा ­ ‘कम्प्यूटर न चले’ और कम्प्यूटर नहीं चलेगा ।”
“वाह ! यह तो ‘खुल जा सिमसिम । बन्द हो जा सिमसिम’ जैसा इन्तजाम हो गया ! माड्रन अलीबाबा चालीस चोर का किस्सा हो गया यह तो !”
“यही समझ लो ।”
“फिर ?”
“कहने का मतलब यह है कि नम्बर निकालने का जो प्रोग्राम सेफ के कम्प्यूटर को फीड किया जा चुका है, वह उस आवाज से ही अपने आप कैंसिल हो जाएगा और फिर दुनिया की कोई शक्ति ­ कोई भी बाहरी, अवांछित शक्ति ­ उसे नहीं खोल सकेगी ।”
“बारूद भी नहीं ?”
“बारूद भी नहीं । थोड़े-बहुत बारूद का उस पर कोई असर नहीं होने वाला और ज्यादा बारूद हो सकता है, सुवेगा के ऑफिस वाली पूरी इमारत उड़ा दे लेकिन वाल्ट के दरवाजे पर खरोंच भी न आये ।”
“दरवाजा गलाया तो जा सकता होगा ?” ­ विमल अमृतसर के भारत बैंक के उस वाल्ट को याद करता हुआ बोला जिसे कि उसने दरवाजा गलाकर खोला था ।
“अव्वल तो ऐसा हो नहीं सकता क्योंकि उस सूरत में सुवेगा के ऑफिस के तमाम लोगों को अधिकार में करना जरूरी हो जाएगा और ऐसा करने के लिए एक पूरी फौज दरकार होगी, ऊपर से हो सकता है उस दरवाजे में भी कोई ऐसी खूबी हो कि वह गलाया न जा सकता हो लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि सेफ में लगे अत्याधुनिक कम्प्यूटर की वजह से जैसे उसमें साउण्ड कण्ट्रोल है, वैसे ही उसमें हीट कण्ट्रोल भी है ।”
“हीट कण्ट्रोल क्या मतलब ?”
“उस सेफ का टेम्प्रेचर अगर एक पूर्व-निर्धारित तापमान से ऊपर उठ जाता है सेफ के भीतर मौजूद सारे सामान को अपने आप आग लग जाने की व्यवस्था है जिससे कि वह अपने आप नष्ट हो जाएगा । यानी कि दरवाजा गलाकर अगर कोई उस सेफ को खोल भी लेता है तो ब्लैक बुक की जगह उसे भीतर एक राख का ढेर ही मिलेगा ।
“ओह !”
“कहने का मतलब वह है कि यह काम जोर जबरदस्ती से होने वाला नहीं है । वाल्ट अगर खुलेगा तो अपनी मर्जी से खुलेगा नहीं तो नहीं खुलेगा ।”
“यह बात मेरे गले से नहीं उतर रही कि जोशी को काबू में करके उसे वाल्ट खोलने पर मजबूर नहीं किया जा सकता ।”
“अभी आगे सुनो, उतर जाएगी ।”
“यानी कि अभी और चमत्कार बाकी है ?”
“हां । वाल्ट की हिफाजत के मामले में खुद जोशी ही एक चमत्कार है ।”
“वो कैसे ?”
“किसी आदमी को कोई काम करने पर तुम इसी बिना पर तो मजबूर कर सकते हो न कि अगर वह तुम्हारा कहना नहीं मानेगा तो तुम उसकी जान ले लोगे ?”
“हां ।”
“लेकिन जिसे अपनी जान की परवाह न हो, उसके साथ ऐसी जोर जबरदस्ती तुम कैसे करोगे ?”
“टॉर्चर ! मार के आगे भूत भी भागते हैं ।”
“मार के आगे वही भूत भागते हैं जिन्हें अपनी जान कीमती लगती है । लेकिन जिस शख्स को अपनी जान खुद दे देने से गुरेज न हो उसे तुम कैसे कण्ट्रोल कर पाओगे ?”
“मतलब ?”
“जोशी के मुंह में उसके दांतों की नीचे की कतार में एक दाढ नकली है जिसमें वह एक घातक जहर का एक छोटा सा कैप्सूल हर क्षण रखता है । टॉर्चर की नौबत आने पर वह खुशी खुशी वह कैप्सूल निगल जाएगा और तुम्हारे सामने जान दे देगा । जोर जबरदस्ती की नौबत आ जाने पर अपनी जबान खोलने की जगह वह खुशी-खुशी पिस्तौल की गोली खा जाएगा ।”
“खुशी-खुशी ?”
“हां ।”
“यूं मरने को तैयार तो कोई आदमी नहीं होता ।”
“होता हैं । ऐसा आदमी होता है जिसकी जिन्दगी उसके सिर किसी का उधार हो ।”
“मतलब ?”
“जोशी को दिल की कोई ऐसी बीमारी थी जिसके लिए उसकी ओपन हार्ट सर्जरी होनी जरूरी थी । जो एक दो लोकल डॉक्टर हिन्दुस्तान में ओपन हार्ट सर्जरी करने में सक्षम हैं, उन्होंने जोशी के केस को होपलैस करार दे दिया था । और कह दिया था कि वह ऑपरेशन टेबल पर ही दम तोड़ सकता था । ऑपरेशन के अलावा जोशी के दिल का और कोई इलाज नहीं था । यानी कि उसकी मौत लाजमी थी । ऐसी नाजुक घड़ी में जबकि वह जिन्दगी की सारी उम्मीदें खो चुका था, बखिया ने उसकी मदद की । उसने जोशी की ऑपरेशन के लिए अमेरिका भिजवाया । वहां संसार के जिस टॉप सर्जन ने उसका ऑपरेशन किया, दस लाख रुपये तो उसकी फीस ही थी । उसके अलावा ऑपरेशन के खर्चे, ऑपरेशन के वाद के खर्चे और पता नहीं क्या-क्या ! कहने का मतलब यह है कि जोशी की जान बचाने के लिए बखिया ने चालीस लाख रुपया खर्च किया । जोशी का कामयाब ऑपरेशन हुआ । उसके दिल में बड़ी कामयाबी से एक प्लास्टिक का वैल्व आरोपित कर दिया गया ।”
“बदले में बखिया को क्या मिला ?”
“बदले में बखिया को जोशी की ऐसी निष्ठा मिली जिसे कुल जहान की दौलत से नहीं खरीदा जा सकता । अपनी जान को जोशी अपने पास बखिया की अमानत मानता है । वह कहता है कि जो जिन्दगी वह जी रहा है, उसका मालिक वह नहीं, बखिया है । वह बखिया के एक इशारे पर अपनी जान दे सकता है । वह बखिया के इशारे के बिना उसके हित को निगाह में रखते हुए अपनी जान दे सकता है । उसकी उसी क्वालीफिकेशन की वजह से उसे नारकाटिक्स विंग का इंचार्ज बनाया गया है । अब तुम बताओ, जोशी जैसे आदमी से कोई जबरन उस वाल्ट का दरवाजा खुलवा सकता है जिसके भीतर वह फेमस लिटक ब्लैक बुक बन्द है ?”
“नहीं ।” ­ विमल ने स्वीकार किया ­ “लेकिन तुम्हारी बातों से लगता है कि कहीं कोई तरकीब है । कहीं कोई छेद है इस फुलप्रूफ, एयर टाइट, इन्तजाम में । ऐसा न होता तो तुम चींटी और हाथी की मिसाल कभी न देतीं ।”
“है छेद ।” ­ संध्या बोली ।
“कौन-सा ?”
“खुद जोशी वो छेद है ।”
“अच्छा !”
“जोशी वो शख्स है जो इस सारे इन्तजाम की गारण्टी है लेकिन वही उसका नुक्स भी है ।”
“कैसे ?”
“तुमने जोशी की याददाश्त के बारे में सवाल किया था । तुमने पूछा था, अगर जोशी वह भूल जाए तो ?”
“हां ।”
“याददाश्त कभी अच्छी थी जोशी की । कभी उसकी अच्छी याददाश्त भी उस काम के लिए उसकी क्वालीफिकेशन मानी जाती थी लेकिन आज खुद जोशी अपनी याददाश्त के प्रति आश्वस्त नहीं ।”
“क्यों ? याददाश्त खराब हो गई है उसकी ?”
“हो नहीं गई तो होनी शुरू हो गई होगी । या उसे और ऐसा ही कोई अन्देशा होगा । बहरहाल कोई गड़बड़ है जरूर जिसकी वजह से जोशी को अपनी याददाश्त का भरोसा नहीं रहा । हो सकता है, उसके ऑपरेशन का उसके दिमाग पर कोई असर हो गया हो !”
“हो सकता है । बड़े ऑपरेशनों के बड़े अनोखे आफ्टरइफेक्ट सामने आते हैं ।”
“बहरहाल यह बात जोशी बखिया को तो बता नहीं सकता क्योंकि फिर वह बखिया को उस निहायत जिम्मेदारी के काम के लिए नाकाबिल लगने लगेगा । वह यह भी गवारा नहीं कर सकता कि वह सेफ को खोलने वाला नम्बर भूल जाए । ऐसी कोई गड़बड़ न हो, इसका उसने एक अपना अत्यन्त गोपनीय इन्तजाम किया हुआ है ।”
“क्या ?”
“सेफ में नम्बर के निकलते ही वह अपने घर पर अपनी बीवी को फोन करता है और उसे वह नम्बर बता देता है । इस प्रकार अगर नम्बर उसे भूल जाएगा तो उसकी बीवी को तो याद रहेगा ।”
“बीवी नम्बर लिख लेती हैं ?”
“नहीं । याद कर लेती है । लिखने का तो मतलब ही नहीं है ।”
“जोशी कभी नम्बर भूला है ?”
“आज तक तो नहीं भूला ।”
“लेकिन उसे अन्देशा रहता है कि वह नम्बर भूल सकता है ?”
“हां ।”
“तुम्हारा इशारा जोशी की बीवी की तरह है । तुम यह कहना चाहती हो कि नम्बर बीवी से मालूम किया जा सकता है ?”
“हां । जोशी की जान बखिया की अमानत है, उसकी बीवी की जान नहीं । बखिया के माल की हिफाजत के लिए जोशी खुशी खुशी जान दे सकता है, उसकी बीवी शायद ऐसा न कर सके ।”
“नम्बर जोशी के अलावा उसकी बीवी को भी मालूम होता है, इस बात की किसी को खबर नहीं ?”
“नहीं ! खुद बखिया को नहीं तो और किसीको क्या होगी ?”
“लेकिन तुम्हें है ?”
“हां ।”
“कैसे ?”
“मेरा धन्धा क्या है, यह तुम भूल गए मालूम होते हो ।”
“यानी कि जोशी भी तुम्हारा कद्रदान रह चुका है ?”
“रह क्या चुका है । आज भी है । ‘कम्पनी’ के सारे ओहदेदार मेरे क्लायण्ट हैं ?”
“तुम्हारा मतलब है कि ये सारी बातें खुद जोशी ने तुम्हें बताई हैं ?”
“नशे में । बिस्तर में कलाबाजियां खाते हुए ।”
“उस लिहाज से तो जोशी बड़ा गैर जिम्मेदार आदमी हुआ ।”
“शराब और शबाब की गिरफ्त में आकर बड़े-बड़े तीसमारखां गैर-जिम्मेदार हो जाते हैं । खासतौर पर मेरी जैसी लड़की के सामने । मैं ‘कम्पनी’ की बाई हूं, ‘कम्पनी’ का हिस्सा हूं । मेरे सामने मुंह फाड़ने में और काले चोर के सामने ­ मेरा मतलब है, काली चोरनी के सामने ­ मुंह फाड़ने में फर्क है ।”
“आई सी !”
“इस बात को तुम बखिया के निजाम का बहुत बड़ा नुक्स समझो कि उसके सारे ऊंचे ओहदेदार हद से ज्यादा विलासी प्रवृत्ति के हैं । एक मुहम्मद सुलेमान कट्टर मुसलमान होने की वजह से शराब नहीं पीता वर्ना सबके सब कुछ करते हैं ।”
“बखिया भी ?”
“वह तो औरों से दस हाथ आगे है इन मामलों में । अपनी हुकूमत का बादशाह जो ठहरा । सत्तर साल का हो गया हरामजादा लेकिन तृष्णा नहीं घटी । उसके मातहतों को तो एक लड़की चाहिए होती है, वह तो नौजवान लड़कियों का बिस्तर बिछाकर सोता है । वह तो...”
“छोड़ो । यह बताओ, जोशी का घर कहां है ?”
संध्या ने उसे मैरिन ड्राइव की एक इमारत का पता बताया जिसकी पांचवी मंजिल पर जोशी का फ्लैट था ।
“जोशी ‘कम्पनी’ के होटल में नहीं रहता ?”
“पहले रहता था । अब नहीं रहता ।”
“अब क्यों नहीं रहता ?”
“अब उसने शादी जो कर ली है ।”
“वह कितनी उम्र का आदमी है ।”
“छोकरा नहीं है । सैंतालीस साल का है । तुमने उसकी शादी के जिक्र की वजह से यह बात पूछी मालूम होती है ।”
“हां ।”
“शादी वह जान-बूझकर नहीं करता था । उसके दिल का रोग बढा बाद में था लेकिन नुक्स उसमें बहुत पुराना था । वह कहता है कि वह नहीं चाहता था कि वह आज शादी करे और कल उसकी बीवी विधवा हो जाए ।”
“आई सी !”
“अपने कामयाब ऑपरेशन के बाद उसने शादी की थी ।”
“किसी अपनी हमउम्र औरत से ?”
“पागल हुए हो । चौबीस साल की कड़क जवान छोकरी से ।”
“कोई बाल-बच्चा ?”
“एक है । इसी साल हुआ है । लड़का । कोई छः महीने का होगा ।”
“उसके घर में और कौन रहता है ?”
“कोई नहीं ।”
“नौकर चाकर तो होंगे ?”
“हैं । लेकिन स्थायी, फ्लैट में ही रहने वाला, कोई नहीं है । सब अपनी अपनी किस्म के काम के वक्त आते हैं और काम करके चले जाते हैं ।”
“बच्चे के लिए कोई आया तो स्थायी ही होगी ?”
“इस बारे में मुझे नहीं मालूम ।”
“तुम्हें उसके फ्लैट और उसके निजाम के बारे में भी इतनी जानकारी कैसे है ?”
“जिन दिनों जोशी की बीवी गर्भवती थी, उन दिनों जोशी अपनी बीवी की मौजूदगी में, उसकी जानकारी में, मुझे अपने फ्लैट में बुलाया करता था ।”
“कमाल है !”
“अपनी बीवी की प्रेग्नन्सी के आखिरी दिनों में तो उसने पूरे दस दिन मुझे वहीं रखा था । जाने ही नहीं देता था कमीना । दोपहर को भी खास मेरे साथ लेटने के लिए ऑफिश से घर आ जाता था ।”
“उसकी बीवी यह सब कैसे बर्दाश्त करती थी ?”
“बीवी !” - वह बड़े व्यंग्यपूर्ण ढंग से बोली - “ऐसे हरामजादों की बीवियां उनके लिए एक रुमाल से ज्यादा अहमियत नहीं रखतीं जिससे वक्त जरूरत वे अपने गंदे हाथ पोंछ लेते हैं । बीवी ने मरना हैं जोशी की किसी करतूत से एतराज करके ?”
“ऐसी बीवी अपने पति के प्रति निष्ठावान तो क्या होगी ! वह तो थोड़े से ही दबाव में आकर सेफ का नम्बर बक देगी ।”
“हो सकता है और नहीं भी हो सकता ।”
“मतलब ?”
“जैसा मुरीद जोशी बखिया का है, वैसी मुरीद उसकी बीवी तो जोशी की नहीं होगी लेकिन उसका खौफ तो वह बहुत खाती होगी । वह इस वजह से अपनी जुबान बन्द रख सकती है कि बाद में जब जोशी को पता लगेगा कि वाल्ट का नम्बर उसने दुश्मनों को बताया था तो उसकी क्या गत बनेगी ।”
“हूं ।” - वह कुछ क्षण गम्भीरता से सोचता रहा और फिर बोला - “मुझे उम्मीद है कि मैं उसकी जुबान खुलवा लूंगा । इस बाजी को जीतने के लिए एक तुरुष का पता है मेरे हाथ में ।”
“कौन सा ?”
“कि वह एक बाऔलाद औरत है ।”
“तुम उसके बच्चे को हथियार बनाकर उस पर दबाव डालोगे ?”
“अगर जरूरत पड़ी तो ।”
“तुम एक अबोध बालक को...”
“छोड़ो । अभी कुछ हो नहीं गया है । मुमकिन है, मुझे कुछ भी न करना पड़े । मुमकिन है, कल सुबह बखिया का यही हुक्म हो कि नीलम को छोड़ दिया जाए ! मुझे वाल्ट के बारे में कुछ और बताओ उसकी कम्प्यूट्राइज्ड प्रोटेक्शन के अलावा और क्या इन्तजाम हैं उसकी सुरक्षा के ?”
“और क्या इन्तजाम होंगे ? यही क्या कम हैं ?”
“यानी कि और कोई इन्तजाम नहीं ?”
“तुम शायद उन फिल्मी इन्तजामात का ख्याल कर रहे हो जिसमें वाल्ट के करीब कदम रखते ही आदमी भस्म हो जाता है, या वाल्ट के छुते ही पच्चीस हजार वोल्ट के करेण्ट का झटका खा जाता है या जिसके दरवाजे पर लगे फोटो इलैक्ट्रिक सैलों के सामने से गुजरते ही सारी इमारत में चेतावनी की घण्टियां बजने लगती हैं या उसके भीतर कदम रखते ही लोहे के आटोमैटिक शटर बन्द होने लगते हैं या...”
“बस, बस । मैं कबूल करता हूं कि सुरक्षा के आधुनिक साधनों का तुम्हारा ज्ञान बहुत विस्तृत है ।”
वह हंसी ।
“कहां से सीखा यह सब ?”
“फिल्मों से ।”
“आई सी ! यानी कि ऐसा कोई इन्तजाम वहां नहीं है ?”
“सवाल ही पैदा नहीं होता । जरूरत कहां है ऐसे किसी इन्तजाम की। जोशी । कहता है कि रिजर्व बैंक लुट सकता है लेकिन वह वाल्ट नहीं खुल सकता ।”
“फिर भी कुछ तो अतिरिक्त इन्तजाम होगा ?”
“एक लोहे का शटर है वाल्ट के दरवाजे के सामने और एक सशस्त्र गार्ड है ।”
“बस ?”
“इसके अलावा अगर कोई और इन्तजाम वहां की सुरक्षा का है तो मुझे खबर नहीं ।”
“वह वाल्ट वाला कमरा जोशी के ऑफिस के पिछवाड़े में है ?”
“हां । बताया तो है मैंने ।”
“लेकिन यह नहीं बताया कि इमारत में जोशी का ऑफिस कहां है ?”
“चौथी मंजिल पर । गलियारे के आखिरी सिरे पर गलियारे के माथे पर जो दरवाजा है, वह जोशी के ऑफिस का है ।”
“जोशी वहां सारा दिन होता है ?”
“जरूरी नहीं । सारा दिन भी हो सकता है लेकिन शाम को जरूर होता है । शाम को उसका वहां होना...”
तभी एकाएक कॉलबेल बज उठी ।
संध्या ने चिड्डककर दरवाजे की तरफ देखा ।
“कोई आने वाला था ?” - विमल ने पूछा ।
“नहीं तो !” - वह चिन्तित भाव से बोली - “कौन आया होगा ? यहां तो इस वक्त कोई नहीं आता । मैं हर वक्त घर थोड़े ही होती हूं ।”
“देखो कौन है ?”
“जो होगा, दरवाजा खुलता न पाकर अपने-आप चला जाएगा । वह समझेगा घर कोई नहीं है ।”
तभी कॉलबेल फिर बजी ।
बिना वजह के संध्या के चेहरे पर उत्कण्टा के भाव उत्पन्न हो गए थे ।
“संध्या !” - बाहर से आवाज आई - “दरवाजा खोलो । मुझे मालूम है कि तुम भीतर हो ।”
“यह !” - संध्या के नेत्र फट पड़े - “यह तो दण्डवते की आवाज है ।”
विमल अपने स्थान से उठा । वह दबे पांव दरवाजे के पास पहुंचा । लैंस में आंख लगाकर उसने बाहर झांका ।
दण्डवते का चेहरा उसे यूं दिखाई दिया जैसे बीच में दरवाजा था ही नहीं ।
वैसे ही दबे पांव वह वापस लौट आया ।
“दण्डते ही है ।” - वह फुसफुसाया - “उसने सड़क से ही तुम्हारे फ्लैट की खिड़कियों में रोशनी देख ली होगी । दरवाजा तो तुम्हें खोलना ही पड़ेगा । वैसे भी न खोलने की कोई वजह नहीं ।”
“वह यहां कैसे आया ?” - संध्या कांपती हुई बोली - “वह आज तक कभी यहां नहीं आया । उसका आना किसी तबाही और बरबादी के आगमन का सबूत होता है । पहली बार वह मेरे बाप के लिए आया था तो मेरा खानदान तबाह हो गया था अब...”
कॉलबेल फिर बज उठी ।
साथ ही दरवाजे पर दस्तक भी पड़ी ।
“अब मेरा क्या होगा ?” - वह आतंकित स्वर में बोली - “उसने यहां तुम्हें देख लिया तो वह मुझे हरगिज भी जिन्दा नहीं छोड़ेगा । वह यहां खामखाह भी आया होगा तो तुम्हारी यहां मौजूदगी अपनी कहानी खुद कह देगी ।”
“यहां से निकासी का कोई रास्ता नहीं ? कोई फायर एस्केप या...”
“नहीं, कोई रास्ता नहीं ।”
“फिर आने दो उसे । मैं भुगत लूंगा उसे । एक अकेला आदमी...”
“वह अकेला नहीं होगा । वह कहीं अकेला नहीं जाता । उसके कम-से-कम दो आदमी बॉडीगार्ड के तौर पर हमेशा उसके साथ होते हैं ।”
“ओह !”
“तुम कहीं छुप जाओ । इसी में हम दोनों की भलाई है ।”
“मेरी भलाई की खैर है, तुम अपनी भलाई सोचो ।”
“बैडरूम में वार्डरोब है । तुम उसमें छुप जाओ ।”
“दिखाओ ।”
दोनों लपककर बैडरूम में पहुंचे ।
संध्या ने उसे वार्डरोब में खड़ा कर दिया और उसका दरवाजा बन्द करके उसे बाहर से ताला लगा दिया । चाबी उसने पलंग पर बिछी मैट्रेस के नीचे छुपा दी ।
कॉलबेल फिर बजी - इस बार यूं बजी जैसे कोई बटन से उंगली उठाना भूल गया हो ।
“आती हूं ।” - संध्या उच्च स्वर में बोली और दरवाजे की तरफ लपकी ।
कांपते हाथों से उसने दरवाजा खोला ।
दण्डवते ने उसे एक जोर धकेलकर भीतर कदम रखा ।
***
मुहम्मद सुलेमान ने चोरों की तरह अमीरजादा आफताब खान के सुइट में कदम रखा । वह वहां पहले फोन पर अपने आगमन की खबर देकर आया था इसीलिए दरवाजा खुला था ।
अमीरजादा आफताब खान बखिया की बादशाहत में उसी के बराबर का ओहदेदार था ।
खान निहायत फिक्रमन्द मुहम्मद सुलेमान से बगलगीर होकर मिला।
“बैठो, बिरादर !” - वह बोला ।
मुहम्मद सुलेमान एक सोफे पर ढेर हो गया ।
“क्या बात है ? प्यूज क्यों उड़ा हुआ ?”
“बखिया वापस आ रहा है ।” - मुहम्मद सुलेमान बोला ।
“अच्छा ! कब ?”
“आज ही रात वह किसी वक्त यहां पहुंच जाएगा ।”
“उसकी वापसी तुम्हारे लिए फिक्र का बायस बनी हुई है ?”
“हां ।”
“वजह ?”
“उस हरामजादे रोडरीगुएज के हाथों तो मेरी बेतहाशा तौहीन हुई ही है, अब जो कसर बाकी रह गई है, उसे वह बखिया से पूरी करवा देगा ।”
“तुमने क्या किया है ?”
“ऐसा कुछ नहीं किया जो मुझे करना चाहिए था लेकिन जब रोडरीगुएज अपने नमक-मिर्च के साथ बखिया को रिपोर्ट पेश करेगा तो ऐसा मालूम होगा कि ऐन वही काम मुझे हरगिज नहीं करने चाहिए थे जो कि मैंने किये, यह बात तुमसे छुपी नहीं हुई ।”
“तुमने किया क्या है ?”
“काबिलेएतराज कुछ नहीं किया, जो किया मुनासिब समझकर किया, ‘कम्पनी’ की भलाई को जेरेनिगाह रखकर किया ।”
“फिर भी ?”
धीरे-धीरे सुलेमान ने उसे डोगरा के कत्ल के बाद से लेकर तब तक की तमाम घटनाएं कह सुनाई ।
“मैं दुबई से आज ही लौटा हूं ।” - सारी बात सुन लेने के बाद खान गम्भीरता से बोला - “मेरी चन्द दिनों की गैरहाजिरी में यहां इतना हंगामा बरपा गया ?”
सुलेमान खामोश रहा ।
“तुम्हारा ख्याल है कि यह सरदार का बच्चा बखिया से भी टक्कर ले लेगा ?”
“अभी तक तो ले ही रहा है । कामयाबी से ले रहा है । उसकी उस छोकरी की सूरत में उसको झुकाने का एक जरिया हमारे हाथ आया था लेकिन वह किसी काम आने से पहले ही हमारे हाथ से निकल गया । लड़की को पुलिस ले गयी ।”
“पुलिस को लड़की की खबर कैसे लग गई ?”
“यही तो एक मिस्ट्री है जो मेरे पल्ले नहीं पड़ रही ।”
“बिरादर, तुम्हारे यहां आने के पीछे क्या कोई खास वजह है ?”
“हां ।”
“क्या ?”
“पहले एक सवाल का जवाब दो ।”
“पूछो ।”
“बखिया सोहल के सामने झुक जाएगा ?”
“हरगिज नहीं । मौजूदा हालात में तो सवाल ही नहीं पैदा होता ।”
“वह सोहल का सिर कुचलने में कामयाब हो जाएगा ?”
खान हिचकिचाया ।
“क्या ऐसा हो सकता है कि उलटे सोहल बखिया का सिर कुचल दे?”
“एक अकेला आदमी !”
“अभी तक भी तो एक अकेला आदमी ही काले पहाड़ की बुनियादें हिला रहा है ।”
“फिर भी... बिरादर, अगर ऐसा हो गया तो यह करिश्मा होगा ।”
“अगर यह करिश्मा हो गया तो ?”
“तो क्या ?”
“खान, तुम्हें यह गवारा होगा कि बखिया के बाद सारे एशिया में फैली उसकी बादशाहत रोडरीगुएज हथिया ले ?”
“हरगिज भी नहीं । तुम्हें गवारा होगा यह ?”
“सवाल ही नहीं पैदा होता । तुम्हारे और मेरे ख्यालात में ऐसा इत्तफाक है, इसलिए तो मैं यहां आया हूं ।”
“हूं ।”
“खान !” - सुलेमान एकाएक आगे बढा और बड़े व्यग्र भाव से बोला - “क्या तुम इस वक्त किसी एडवांस तैयारी की जरूरत महसूस नहीं करते ?”
“किस बात की एडवांस तैयारी ?”
“इसी बात की एडवांस तैयारी कि बखिया की मौत का फायदा इकलौता रोडरीगुएज ही न उठा जाए ।”
“करता हूं ।”
“तुम्हारे ख्याल से हमें क्या करना चाहिए ?”
“हमें रोडरीगुएज को जन्नतनशीन करने का एडवांस में इन्तजाम करना चाहिए । बखिया को कुछ हो जाने के बाद अगर उसे भी कुछ हो गया तो वह भी उस अल्लामारे सोहल का ही काम समझा जाएगा ।”
“ऐग्जैक्टली ।” - सुलेमान गहरी सांस लेकर बोला । जब से वह वहां आया था, तब से पहली बार उसे शान्ति की सांस आई थी । यही तो वह बात थी जो वह खान के मुंह से सुनना चाहता था ।
फिर दोनों सिर जोड़कर मन्त्रणा करने लगे कि कैसे वे वक्त के तराजू का पलड़ा अपनी तरफ झुका सकते थे ।
***
“मर गयी थी ?” - दण्डवते सांप की तरह फुंफकारा ।
“मैं टॉयलेट में थी ।” - संध्या कम्पित स्वर में बोली ।
“आज धन्धे पर नहीं गयी ?”
संध्या ने इनकार में सिर हिलाया ।
“क्यों ?”
“तबीयत खराब है ।”
“बैठ जा ।”
संध्या बैठ गयी ।
दण्डवते उसके सामने बैठने के स्थान पर उसकी बगल में, विमल द्वारा खाली की जगह पर बैठ गया ।
उसने सामने मेज पर पड़े चाय के दो गिलासों पर निगाह डाली । उसके नेत्र सिकुड़ गए । उसने एक तीखी निगाह सिर झुकाए बैठी संध्या पर डाली ।
“इधर मेरी तरफ देख ।” - दण्डवते बोला ।
संध्या ने सिर उठाया ।
“अभी यहां कौन आया था ?”
“कोई नहीं ।” - वह बोली ।
“तू दो गिलासों में चाय पीती है ?”
संध्या की सशंक निगाह अपने आप मेज पर पड़े गिलासों की तरफ उठ गयी ।
“म.. मेरी” - वह हकलाई - “एक सहेली आयी थी ।”
“अभी तो तू कह रही थी, यहां कोई नहीं आया था ।”
“अभी भी कह रही हूं । आया कोई नहीं था । आयी थी । मेरी एक सहेली आयी थी ।”
“कब गई वह यहां से ?”
संध्या हिचकिचाई ।
“गिलास” - दण्डवते ने हाथ बढा कर बारी-बारी दोनों गिलासों को छुआ और तनिक चेतावनी-भरे स्वर में बोला - “अभी भी गर्म है ।”
“वह अभी-अभी यहां से गयी है ।” - संध्या हड़बड़ा कर बोली ।
“मेरे यहां पहुंचने से पहले ?”
“हां । जरा ही पहले ।”
“सीढियों में मुझे तो कोई लड़की मिली नहीं ।”
“वह यहीं रहती है ।”
“इसी इमारत में ?”
“हां !”
“इसी माले पर ?”
“नहीं । ऊपर । तीसरी मंजिल पर ।”
“उठ ।”
“क... क्या ?”
“मुझे जरा अपनी उस सहेली से मिला ।”
“क... क्यों ?”
“सुना नहीं ?”
“वह... वह शादीशुदा है । उसका प... पति घर होगा ।”
“कोई बात नहीं ।”
“वह... वह कह रही थी, उसने अपने पति के साथ कहीं जाना था । वह अब तक चली गयी होगी ।”
“शायद न गयी हो ।”
“वह चली गयी होगी ।”
“ठीक है ।” - दण्डवते बड़ी दयानतदारी से बोला - “जाने दे ।”
संध्या की जान में जान आई ।
“त... तुम ?” - वह पूछे बिना न रह सकी - “यहां कैसे ?”
“क्यों ?” - दण्डवते के होंठों पर एक कुटिल मुस्कराहट आई - “मेरे यहां आने पर पाबन्दी है ?”
“नहीं तो ।” - वह हड़बड़ाकर बोली - “मेरी तरफ से तुम यहां रोज आओ ।”
“शुकिया ।”
“आज तो मैं तुम्हारी कोई खिदमत नहीं कर सकती क्योंकि मैं...”
“मालूम है । मालूम है । मैं यहां कोई खिदमत करवाने नहीं आया ।”
“तो ?”
“तो उस रोज तू सुलेमान साहब के किसी मेहमान को एण्टरटेन करने के लिए होटल में गई थी और उन्होंने तुझे दो हजार रुपये भी दिये थे ?”
“हां ।”
“लेकिन” - वह उसे घूरता हुआ बोला - “सुलेमान साहब तो कहते हैं कि उन्होंने तुझे बुलाया ही नहीं था । मैंने खुद पूछा है उनसे ।”
संध्या के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं ।
“हरामजादी !” - एकाएक दण्डवते का एक झन्नाटे दार थप्पड़ उसके चेहरे पर पड़ा - “कुतिया !” - वह सांप की तरह फुंफकारा - “जानती नहीं, किससे झूठ बोल रही है !”
पीड़ा और अपमान से संध्या की आंखों में आंसू छलक आए ।
“सच बोल नहीं तो पेट फाड़कर आंते बाहर निकाल दूंगा । कुबूल कर कि तू सोहल के साथ थी ?”
“वह मुझे जबरन पकड़ कर ले गया था ।” - उसने आर्तनाद किया ।
“पकड़कर ले ही गया था । पकड़े रखा तो नहीं था । लौट कर बताया होता कि असल में क्या हुआ था ।”
“मैं डर गयी थी । उसने मुझे वार्निग दी थी कि अगर मैंने किसी के सामने जुबान खोली तो वह मेरा खून कर देगा ।”
“क्या बताया था तूने उसे ?”
“कुछ भी नहीं ।”
“कुछ भी नहीं !” - दण्डवते व्यंगपूर्ण स्वर में बोला - “उसने कुछ पूछा नहीं था तो क्या वो तुझे चौपाटी की सैर कराने ले गया था ?”
“उसने पूछा बहुत कुछ था लेकिन जो वह पूछ रहा था मुझे मालूम नहीं ता ।”
“क्या पूछ रहा था वो ?”
“बखिया साहब का गोवा का पता । होटल की कम्पनी की मंजिलों में दाखिल होने का कोई गोपनीय रास्ता ! ऐसी ही और कई बातें जिसकी मुझे खुद खबर नहीं थी ।”
“सच कह रही है ?”
“हां । गणपति की कसम !”
“फिर समझ ले कि तेरी जान बच गई ।”
संध्या की जान में जान आई ।
“उसने कभी दोबारा तेरे पास आने की कोशिश नहीं की ?”
“नहीं ।”
“वैसे जानता है वह तेरा पता ?”
“नहीं ।”
“तूने बताया नहीं ?”
“मैं काहे को बताती ?”
“शायद उसने पूछा हो ।”
“नहीं पूछा था ।”
“हूं । अब एक बात और बता ।”
“क्या ?”
“जैसी शराफत और ईमानदारी से तूने बाकी बातें बताई हैं, वैसा ही शराफत और ईमानदारी से एक बात और बता ।”
“पूछो ।”
दण्डवते तनिक आगे को झुका और दबे में बोला - “वो कहां है ?”
“कौन ?”
“जो अभी तुम्हारे साथ बैठा चाय पी रहा था ?”
“क... क्या ?”
“और जो शर्तिया अभी भी फ्लैट में है ।”
“यहां कोई नहीं है ।”
“धीरे बोल ।” - वह घुड़क कर बोला ।
संध्या सहमकर चुप हो गई ।
“बैडरूम में है वो ?” - दण्डवते फिर धीरे से बोला ।
“मैं कहती हूं, यहां...”
“कोई है, शतिया कोई है । मर्द की मौजूदगी मैं हवा सूंघकर भांप सकता हूं ।”
“लेकिन...”
“देख । मुझे तेरी जाती जिन्दगी से कुछ लेना देना नहीं है । तुझे यार पालने का पूरा अख्तियार है और उसे घर में रखने का भी पूरा अख्तियार है । अब बोल वो फ्लैट में है कहां ?”
“मैं कहती हूं, यहां कोई नहीं है ।”
“संध्या ! झूठ बोलकर तू मेरे शक को दोबाला कर रही है ।”
“मैं सच बोल रही हूं ।”
“अच्छी बात है ।” - दण्डवते दांत पीस कर बोला - “अभी निकालता हूं मैं तेरा सच ।”
वह अपने स्थान से उठा । फ्लैट का दरवाजा खोलकर उसने बाहर झांका और फिर हाथ हिलाकर किसी को इशारा किया ।
वह वापस संध्या के पास आकर बैठ गया ।
फ्लैट में एक प्यादा दाखिल हुआ ।
“फ्लैट में कोई है ।” - दण्डवते बोला - “उसे तलाश करो और पकड़कर यहां लाओ ।”
प्यादा फौरन फ्लैट के भीतर की तरफ बढ गया ।
संध्या का दिल धाड़-धाड़ उसकी पसलियों के साथ बजने लगा । अपने दिल के भाव चेहरे पर लक्षित होने से रोकने का भरसक प्रयत्न करती हुई वह खामोश बैठी रही । वह देख रही थी कि दण्डवते की पैनी निगाह उसके चेहरे पर ही टिकी हुई थी ।
थोड़ी देर बाद प्यादा वापिस लौटा ।
“फ्लैट में तो कोई नहीं है, बॉस !” - वह बोला ।
“अच्छा !” - दण्डवते निराश स्वर में बोला ।
“लेकिन, बॉस...”
“क्या ?”
“बैडरूम में जो वार्डरोब है, उसको ताला लगा हुआ है ।”
“अच्छा ! वार्डरोब इतनी बड़ी है कि उसके भीतर एक आदमी खड़ा हो सके ?”
“बॉस, वार्डरोब इतनी बड़ी है कि उसके भीतर चार आदमी खड़े हो सकते हैं ।”
“हूं ।” - दण्डवते सन्तुष्टिपूर्ण ढंग से गर्दन हिलाता हुआ बोला - “तो यह माजरा है ! इसलिए नहीं मिला फ्लैट में आदमी ।” - उसने कहर भरी निगाहों से संध्या की तरफ देखा - “उठ !”
बदहवास संध्या यथास्थान बैठी रही ।
दण्डवते उठा । उसने संध्या की एक बांह कन्धे के पास से थामी और एक झटके से उसे पैरों पर खड़ा कर दिया । वह उसे लगभग धकेलता हुआ बेडरूम में ले आया ।
“खोल !” - वह बोला ।
“क... क्या ?”
“वार्डरोब का ताला । मैं तेरा ग्राहक नहीं हूं, हरामजादी !”
वह थर-थर कांपती खामोश रही ।
“सुना नहीं ?” - दण्डवते दहाड़ा ।
“च... चाबी !”
“क्या हुआ चाबी को ?”
“पता नहीं कहां रख दी है मैंने ।”
“तुझे मालूम नहीं, तेरे वार्डरोब की चाबी तेरे फ्लैट में कहां है ?”
“न... नहीं ।”
“चाबी को ढूंढने की कोई कोशिश किए बिना ही तूने फतवा दे दिया कि तुझे नहीं मालूम कि चाबी तूने कहां रख दी है ? पहले उसे ढूंढने की कोशिश तो होती ।”
उसके मुंह से बोल न फूटा ।
“पहले मुझे तुझ पर तरस आ रहा था । लेकिन अब मुझे लग रहा है कि तेरी मक्कारियों और हरामजदगियों की यही सजा है कि तुझे जोजो के हवाले कर दिया जाए ।
संध्या सिर से पांव तक पत्ते की तरह कांप गई ।
“तू क्या समझती है, चाबी के बिना वार्डरोब का ताला खुल नहीं सकता ? तू क्या समझती है, मैं वार्डरोब में झांके बिना यहां से चला जाऊंगा ?”
वह खामोश रही ।
दण्डवते ने जेब से रिवॉल्वर निकाल ली ।
उसकी देखा देखी प्यादे ने भी अपनी रिवॉल्वर निकालकर अपने हाथ में ले ली ।
दण्डवते ने रिवॉल्वर की नाल को वार्डरोब के ताले के पास ले जाकर एक फायर किया ।
बैडरूम में फायर की आवाज बड़े जोर से गूंजी ।
संध्या के गले से एक चीख निकल गयी ।
“बाहर आ जाओ बेटा !” - दण्डवते विष भरे स्वर में बोला ।
कोई उत्तर न मिला ।
दण्डवते ने प्यादे को संकेत किया ।
प्यादे ने आगे बढकर एक झटके से वार्डरोब के दोनों दरवाजे खोल दिये ।
वार्डरोब में कोई नहीं था ।
बेशुमार जनाने कपड़ों के अलावा भीतर कुछ नहीं था ।
वार्डरोब खाली थी ।
***
‘कम्पनी’ का जो काम पटवर्धन करता था उसके लिए उसमें दरकार इकलौती क्वालीफिकेशन उसका व्यक्तित्व था । और व्यक्तित्व उसका एक विशेष, जोशी के पसन्दीदा, नाप जोख का था । उसकी छाती का नाप बयालीस इन्च था, कालर का नाप साढे सोलह इन्च था और तीरे का नाप छब्बीस इन्च था । देखने में वह किसी बड़ी कम्पनी का टॉप एग्जिक्यूटिव लगता था । उसके नाप का महत्व इसलिए था क्योंकि हर महीने जिस व्यक्ति से उसने दिल्ली एयरपोर्ट पर मिलता होता था, उसकी छाती का नाप भी बयालीस इन्च था, उसके कालर का नाप भी साढे सोलह इंच था और उसके तीरे का नाप भी छब्बीस इंच था । कहने का मतलब यह था कि दर्जी अगर पटवर्धन के लिए एक सूट सीता था तो हो ही नहीं सकता था कि वह सूट दूसरे व्यक्ति को फिट न आए ।
दूसरे व्यक्ति का नाम चन्द्रगुप्त था ।
चन्द्रगुप्त के व्यक्तित्व में भी वे तमाम गुण थे जो कि पटवर्धन के व्यक्तित्व में थे ।
हर महीने के पहले सप्ताह में किसी दिन पटवर्धन ने एक निहायत शानदार नीला सूट पहनकर प्लेन द्वारा बम्बई से दिल्ली जाना होता था । उस नीले सूट के कोट की लाइनिंग के भीतर लगभग पन्द्रह लाख रुपये की प्योर, अनकट हेरोइन छुपी हुई होती थी ।
वैसा ही शानदार नीला सूट पहने चन्द्रगुप्त ने उसे दिल्ली एयरपोर्ट पर मिलना होता था । उसके सूट के कोट की लाइनिंग के भीतर कम से कम छः दर्जन गोल्ड बिस्कुट सिले होते थे ।
हर महीने के पहले सप्ताह में दिल्ली में चन्द्रगुप्त को एक टेलीग्राम प्राप्त होती थी, जिसमें लिखा होता था - ‘मां बीमार पड़ गयी है । अभी नहीं आ सकती’ - कमला ।
उस टेलीग्राम का मतलब होता था कि दोपहर बाद की फ्लाइट से माल लेकर पटवर्धन दिल्ली पहुंच रहा है ।
चन्द्रगुप्त दिल्ली के सबसे बड़े नारकाटिक्स स्मगलर का कर्मचारी था, जो बरसों से इसी तरीके के कैश पेमेण्ट पर बखिया से हेरोइन खरीदता चला आ रहा था ।
जिस रोज दिल्ली में चन्द्रगुप्त को टेलीग्राम मिलती थी, उसी सुबह पटवर्धन के टेलीफोन की घन्टी बजती थी । साधारणतया वह टेलीफोन कॉल सुबह नौ बजे आती थी जबकि वह अभी सोया पड़ा होता था । वह फोन उठाता तो उसे एक मधुर स्त्री-स्वर सुनाई देता था । जो हमेशा एक ही बात कहता था - “आपकी साढे ग्यारह बजे वाली फ्लाइट से दिल्ली के लिए सीट की बुकिंग कनफर्म हो गयी है ।”
वह फोन रखता था, फौरन बिस्तर से निकलता था और फटाफट नित्यकर्म से निवृत्त होकर अपना शानदार नीला सूट पहन लेता था । फिर वह एक टैक्सी पर सवार होता और सीधा कफ परेड पर स्थित सुवेगा इण्टरनेशनल के ऑफिस के सामने जाकर रुकता था । वहां उसे तकरीबन हर कोई पहचानता था इसलिए उसे फौरन जोशी के ऑफिस में भेज दिया जाता था । वहां वह अपने शानदार नीले सूट का कोट उतारता था और उसे जोशी को सौंप देता था । बदले में जोशी उसे ऐन वैसा ही नीला कोट थमा देता था । दोनो कोटों में सिर्फ एक ही फर्क होता था कि जोशी द्वारा दिए कोट के भीतर ऐसी चतुराई से पन्द्रह लाख रुपये की हेरोइन छुपी होती थी कि कोट की धज्जियां उड़ाए बिना उसे बरामद नहीं किया जा सकता था । पटवर्धन फौरन वहां से विदा हो जाता था और सीधा सान्ताक्रूज एयरपोर्ट पहुंचता था जहां कि वह अपने दिल्ली के प्लेन पर सवार हो जाता था ।
प्लेन-टिकट उसे हमेशा जोशी द्वारा दिए कोट की बाहरी जेब में मिलता था । उसी जेब में पांच हजार रुपये होते थे जो कि दिल्ली से बम्बई का प्लेन टिकट खरीदने के और वहां एक-दो या तीन रिहायश के काम आते थे ।
दिल्ली में चन्द्रगुप्त उसे अपने जैसा ही सूट पहने एयरपोर्ट पर मिलता था । फिर उन्होंने कोई सुरक्षित मौका तलाश करके एयरपोर्ट के टॉयलेट में या उस होटल में जिसमें कि पटवर्धन हमेशा ठहरता था या और किसी भी सुरक्षित और सहूलियत की जगह पर अपने कोट बदल लेने होते थे । फिर अगले तीन दिनों में जिस दिन की भी रिटर्न फ्लाइट उपलब्ध होती थी, पटवर्धन उसमें अपने लिए सीट बुक करा लेता था और बाकी का समय वह दिल्ली में उस कम्पनी के ऑर्डर हासिल करने में लगता था जिसका कि वह वाकई सेल्ज एग्जिक्यूटिव था ।
कोट तब्दील हो जाने के बाद चन्द्रगुप्त सीधा आजादपुर पहुंचता था जहां कि उस ट्रांसपोर्ट कम्पनी का ऑफिस था जो कि उसके स्मगलर बॉस मुख्तियार सिंह की मिल्कियत थी और जो उसके नागरकाटिक्स के धन्धों की ओट थी । वहां वह कोट खुद मुख्तियार सिंह को सौंपता था और जो कि बदले में उसे वैसा ही नया कोट दे देता था ।
उस नये कोट में पांच हजार रुपये होते थे जो कि उस काम के लिए उसकी फीस होती थी ।
उसी प्रकार पटवर्धन को बम्बई पहुंचकर सोने के बिस्कुटों वाला कोट जोशी को सौंपने के बाद जो कोट हासिल होता था उसमें उसकी फीस, पांच हजार रुपये, मौजूद होती थी ।
इस प्रकार नीले रंग के चार शानदार सूटों और एक ही नाप-जोक के दो व्यक्तियों के माध्यम से वह सिलसिला बड़े सुचारू रूप से चल रहा था ।
पटवर्धन हेरोइन के साथ दिल्ली जाता था और सोने के बिस्कुटों के साथ वापिस लौटता था । उसका आकर्षक व्यक्तित्व और उसकी बढिया कम्पनी की बढिया नौकरी उसकी बेहतरीन ओट थी । कभी कोई बखेड़ा नहीं । कभी कोई अड़ंगा नहीं । हर महीने नौ दस हजार रुपये की अतिरिक्त कमाई, प्लेन फेयर और होटल का खर्चा वह अपनी कम्पनी से भी जो हासिल कर लेता था ।
कोई एक साल पहले पटवर्धन का अपैग्डेसाइटिस का ऑपरेशन हुआ था जो खामखाह थोड़ी पेचीदगी अख्तियार कर बैठा था और जिसकी वजह से चार महीने वह बिस्तर पर पड़ा रहा था । उन दिनों मुख्तियार सिंह की हेरोइन की न टल सकने वाली मासिक मांग पूरी करने के लिए कम्पनी को उस रूट के लिए किसी नये हरकारे की जरूरत आन पड़ी थी । पटवर्धन और चन्द्रगुप्त जैसे ही शारीरिक नाप जोख वाला जो नया, अस्थायी हरकारा तैयार किया गया, उसका नाम युसुफ पेण्टर था । पटवर्धन के तन्दुरूस्त होने से पहले उसने चार चक्कर दिल्ली के लगाए जिनमें कोई गड़बड़ तो न हुई लेकिन न जाने क्यों उस आदमी में जोशी का विश्वास न जमा । इसलिए पटवर्धन के खुद वह मासिक ट्रिप लगाने के काबिल होते ही युसुफ पेण्टर की छुट्टी कर दी गयी । उसे उस काम के लिए तो क्या, किसी और काम के भी काबिल न समझा गया । उस काम के लिए तो फिर भी उसमें वह इकलौती क्वालीफिकेशन थी कि ‘नीला सूट’ उसे फिट आता था और किसी काम के लिए तो उसमें कोई भी क्वालीफिकेशन नहीं पायी गयी थी ।
वैसे जोशी को वह ठीक ही विश्वास के काबिल आदमी नहीं लगा था । अपनी तरफ से उसने उसे बहुत जल्दी दफा कर दिया था लेकिन फिर भी युसुफ पहले ही अपना मुंह फाड़ चुका हुआ था ।
युसुफ शादीशुदा था और उसकी अपने साले हबीब से बहुत बनती थी । दोनों हमप्याला, हमनिवाला थे । युसुफ को नहीं मालूम था कि उसका साला जो दिखावे को तारदेव में मोटर मैकेनिक गैरेज चलाता था, वास्तव में घड़ियों का स्मगलर था और शान्ताराम के भाइयों के गेंग से उसके बड़े घनिष्ठ सम्बन्ध थे ।
जीवाराम से तो उसकी खास दोस्ती थी ।
एक दिन शराब के नशे में युसुफ ने अपने साले के सामने डींग हांक दी कि अब वह ‘कम्पनी’ का आदमी हो गया था । हबीब की मामूली सी जिद पर ही उसने बक दिया कि ‘कम्पनी’ का क्या काम उसे सौंपा गया था ।
“बहुत बादशाही काम हाथ लगा है ।” - नशे में उसने डींग हांकी - “साली महीने में एक बार की हलचल और पांच हजार रुपये खरे । ऊपर से पन्द्रह लाख रुपये का माल हर वक्त निगाह में । कभी मुझे रोकड़े की बहुत भारी जरूरत आन पड़ी तो मैं तो फूट जाऊंगा ‘कम्पनी’ का पन्द्रह लाख रुपये का माल झपट कर ।”
तब तक युसुफ दो फेरे लगा चुका था और उसे मालूम था कि वह क्या लेकर जाता था और लेकर लौटता था ।
युसुफ की मेहरबानी से ‘कम्पनी’ के एक अत्यन्त गोपनीय सिलसिले की सारी दास्तान एक बाहरी आदमी की जानकारी में आ गयी ।
यह बात नहीं थी कि युसुफ ‘कम्पनी’ का खौफ नहीं खाता था । वह खूब जानता था कि उस बाबत किसी गैर के सामने मुंह फाड़ने पर उसकी सजा मौत ही हो सकती थी लेकिन हबीब ‘कोई’ थोड़े ही था, हबीब ‘गैर’ थोड़े ही था । वह तो माशा-अल्ला उसका साला था ।
हबीब को उस दास्तान में बहुत रस आया । उसने बड़े गौर से सारा प्रोग्राम सुना और फिर खोद-खोदकर अपने बहनोई से कई सवाल भी पूछे ।
उन सवालों के जवाब में उसे मालूम हुआ -
दिल्ली का वह ट्रिप हमेशा महीने के पहले सप्ताह में ही लगाता था ।
कभी कोई महीना खाली नहीं जाता था ।
दिल्ली में उसे हर बार वही आदमी मिलता था जिसका नाम चन्द्रगुप्त था और जो मुख्तियार सिंह का आदमी था ।
हरकारे की कोई निगरानी की जाती थी तो कम से कम युसुफ को उसकी खबर नहीं लगी थी ।
हेरोइन की मिकदार में कभी कोई घट-बढ नहीं होती थी ।
यानी कि पन्द्रह लाख रुपये का आदान-प्रदान का सिलसिला हमेशा ही होता था ।
वह हबीब की लाइन का काम नहीं था लेकिन फिर भी उस ने उसे महज इसलिए याद रखा कि वह ‘कम्पनी’ का एक गोपनीय रहस्य था । उस बात को उसने एक तरह से फ्यूचर रेफरेंस के लिए अपने मस्तिष्क में फायल कर लिया ।
फिर कोई छः महीने बाद नशे में युसुफ एक ऐसे आदमी के सामने मुंह फाड़ बैठा जो कम्पनी का प्यादा था । युसुफ की करतूत की खबर उसने फौरन दण्डवते को दी ।
दण्डवते ने बात जोशी तक पहुंचायी ।
जोशी ने बेहिचक फैसला सुना दिया कि उस शख्स की जुबान हमेशा के लिए बन्द की जानी जरूरी थी ।
उससे अगले दिन युसुफ पेण्टर की लाश माहिम क्रीक में तैरती पाई गई ।
जोशी ने अपनी तरफ से वक्त रहते उस शख्स की जुबान बन्द कर दी थी, लेकिन वह क्या जानता था कि युसुफ अपना मुंह पहले ही अपने साले के सामने भी फाड़ चुका था ।
अपने बहनोई की मौत के बाद हबीब ने महसूस किया कि उस बारे में अगर वह कोई करतब कर दिखाता तो कम से कम ‘कम्पनी’ को यह पता नहीं लग सकता या कि ऐसा किसकी वजह से हुआ था । अपनी तरफ से तो ‘कम्पनी’ युसुफ को जहन्नुम रसीद करके उसकी वजह से पैदा हुआ लीक बन्द कर ही चुकी थी ।
लेकिन सिलसिला चाहे कितना ही सुरक्षित था, काले पहाड़ के निजाम के खिलाफ कोई कदम उठाने का हौसला हबीब अपने-आपमें न जुटा पाया ।
फिर एक बार अनायास ही उसने उस सिलसिले का जिक्र अपने खास दोस्त जीवाराम से कर दिया ।
शान्ताराम के भाइयों के लिए वह एक महत्वपूर्ण जानकारी थी ।
उनकी दिलचस्पी पन्द्रह लाख रुपये हेरोइन या उतनी ही कीमत के सोने के बिस्कुटों में नहीं थी, उनकी दिलचस्पी तो उस सिलसिले में इसलिए थी कि उस पर हाथ डालकर वे बखिया के निजाम को चोट पहुंचा सकते थे । वे ‘कम्पनी’ का एक स्थाई सिलसिला डिस्टर्ब कर सकते थे ।
लेकिन वह जानकारी उनके हाथों में उन दिनों आई थी, जब वे बखिया की दुर्दान्तता का खौफ एक डरे हुए कुत्ते की तरह दुम दबाए दुबके बैठे थे ।
फिर जब विमल नाम की ढाल उनके हाथ लग गयी तो उन्हें उस सिलसिले को डिस्टर्ब करना सूझा ।
वह भी एक ऐसा काम था जिसकी अन्जाम वे देते लेकिन जिसकी तोहमत विमल के नाम लगती ।
अगले रोज महीने के पहले सप्ताह का आखिरी दिन था ।
यानी कि वह सुचारू रूप से चलता माहवारी सिलसिला अगर उसी महीने से बन्द नहीं हो रहा था तो कल पटवर्धन ने दिल्ली रवाना होना था ।
पिछले दो महीनों में उन्होंने नोट किया था कि पटवर्धन अपना शानदार नीला सूट तभी पहनता था जब उसने दिल्ली जाना होता था इसलिए किस रोज वह हरकारे का रोल अदा करने वाला था, यह इस बात से भी जाना जा सकता था कि किस रोज वह अपने घर से नीला सूट पहनकर निकलता था ।
पहली तारीख से ही उन्होंने एक आदमी पटवर्धन की निगरानी पर लगाया हुआ था ।
और -
पहली तारीख से ही उन्होंने हर रोज की साढे ग्यारह बजे की दिल्ली की फ्लाइट से एक बुक कराई हुई थी । जिस रोज सुबह घर से निकलते समय पटवर्धन नीला सूट नहीं पहने होता था, उस रोज की सीट कैन्सिल करवा दी जाती थी ।
अगले रोज उन्हें पटवर्धन के दिल्ली रवाना होने की पूरी उम्मीद थी इसलिए उसी रात को उनका प्रधान नामक एक आदमी प्लेन द्वारा दिल्ली रवाना हो गया था । वहां अगली सुबह वह एडवांस में चन्द्रगुप्त के ट्रेस करके रख सकता था ।
शान्ताराम के भाइयों के सौजन्य से अगले रोज ‘कम्पनी’ का एक अत्यन्त गोपनीय स्मगलिंग रूट डिस्टर्ब होने वाला था लेकिन उनके उस कारनामे का सेहरा भी विमल के ही माथे बंधने वाला था ।
***
एक कार ऐन उस इमारत के सामने आकर रुकी जिसमें थोड़ी देर पहले विमल दाखिल हुआ था ।
इमारत से कोई पचास गज दूर अपनी कार में बैठे वागले का ध्यान तुरन्त उसकी तरफ आकर्षित हुआ ।
कार में से एक आदमी ने बाहर कदम रखा ।
उसने सड़क पर दायें-बायें और इमारत के भीतर निगहा दौड़ाई ।
फिर उसने कार का अपनी तरफ वाला पिछला दरवाजा खोला ।
जिस शख्स ने तब कार से बाहर कदम रखा, नीम अन्धेरे में भी वागले ने उसे साफ पहचाना ।
वह दण्डवते था
वागले के माथे पर बल पड़ गये ।
दण्डवते वहां कैसे पहुंच गया था ?
क्या किसी प्रकार उसे खबर लग गई थी कि विमल उस इमारत में था ?
नहीं, ऐसा नहीं हो सकता था ।
ऐसा होता तो दण्डवते सिर्फ दो आदमियों के साथ वहां न पहुंचा होता ।
तो फिर ?
विमल के उस इमारत में दाखिल होते ही वागले भी दबे पांव उसके पीछे गया था । इसलिये उसे मालूम था कि विमल दूसरी मंजिल के कौन से फ्लैट में गया था । उस फ्लैट के मुख्य द्वार के की-होल में आंख लगाकर उसने भीतर झांका था तो उसने भीतर विमल को एक युवती के साथ बैठी बातें करते पाया था ।
उसी फ्लोर से मामूली सी पूछताछ करने पर उसे मालूम हो गया था कि उस फ्लैट की मालकिन का नाम संध्या था और वह वहां अकेली रहती थी ।
विमल को वहां सुरक्षित मानकर वह वहां से विदा हो गया था और नीचे अपनी कार में आ बैठा था ।
तुकाराम ने उसे विमल की हर क्षण निगरानी का निहायत जिम्मेदारी का जो काम सौंपा था, उसे वह अब तक पूरी मुस्तैदी से अन्जाम दे रहा था । विमल के देवाराम के साथ अन्धेरी से निकलने के बाद से ही वह ‘सेकेण्ड लाइन ऑफ डिफेंस’ के तौर पर साये की तरह उनके पीछे लगा हुआ था । तुकाराम को जितनी आशंका विमल के गायब हो जाने की थी, उससे ज्यादा फिक्र अपने युवा भाई की हिफाजत की थी इसलिए वागले पर विमल की निगरानी और देवाराम की हिफाजत की दोहरी जिम्मेदारी थी ।
अब दण्डवते के वहां अप्रत्याशित आगमन ने उसे चिन्ता में डाल दिया था ।
अगर वह उसी फ्लैट में गया तो ?
तो विमल चूहे की तरह वहां फंस सकता था ।
तभी दण्डवते और उसके साथी ने इमारत के भीतर कदम रखा ।
पीछे कार में रह गया व्यक्ति को थोड़ा आगे बढाकर ले गया, फिर उसने कार को घुमाया और सड़क के पार इमारत से परे खड़ा कर दिया ।
अब ड्राइवर की निगाह इमारत के मुख्य द्वार पर थी ।
इमारत में तो दर्जनों फ्लैट हैं - वागले ने मन ही मन अपने-आपसे जिरह की - दण्डवते का लक्ष्य कोई और फ्लैट भी तो हो सकता था ।
उसे तसल्ली न हुई ।
वह महसूस कर रहा था कि उसे मालूम होना । चाहिए था कि दण्डवते कौन से फ्लैट में गया था । वह मालूम न भी हो तो उसे यह जरूर मालूम होना चाहिए था कि दण्डवते कम से कम संध्या नाम की उस लड़की के फ्लैट में नहीं गया था जिसमें कि विमल मौजूद था ।
ऐसा कैसे हो ?
फिर उसने मन-ही-मन एक फैसला किया और चुपके से कार से बाहर निकला । कार की ओट में ही चलता हुआ वह ब्लाक के सिरे तक पहुंचा और वहां से घेरा काटकर इमारतों के पिछवाड़े की संकरी गली में दाखिल हुआ । इमारतें गिनता हुआ आगे बढता रहा और फिर उस इमारत के सामने ठिठका जो उसके हिसाब से संध्या के फ्लैट वाली इमारत का पिछवाड़ा था ।
एक भी क्षण नष्ट किए बिना किसी बन्दर जैसी फुर्ती से वह परनाले के पाइप को पकड़कर ऊपर चढने लगा ।
पलक झपकते ही वह दूसरी मंजिल के प्रोजेक्शन पर उकड़ू बैठा हुआ था ।
उधर कई खिड़कियां थीं जिनमें कुछ अन्धेरी थी और बन्द थी और कुछ में रोशनी थी ।
भरपूर सावधानी बरतते हुए उसने बारी-बारी रोशन खिड़कियों से झांकना आरम्भ किया ।
तीसरी खिड़की में से उसे विमल और उस युवती के दर्शन हुए, जिसके साथ विमल को बातें करते उसने की-होल में से झांक कर देखा था ।
वह एक बैडरूम था और उस क्षण विमल एक वार्डरोब में दाखिल हो रहा था । उसके देखते-देखते युवती ने वार्डरोब का दरवाजा बन्द किया, उसे ताला लगाया और चाबी पलंग पर बिछी मैट्रेस के नीचे छुपा दी ।
फ्लैट रह-रहकर कॉलबैल की कर्कश आवाज से गूंज रहा था ।
फिर युवती बैडरूम से बाहर की तरफ लपकी ।
वागले ने बेहिचक खिड़की के रास्ते भीतर बैडरूम में कदम रखा ।
दबे पांव वह पलंग की तरफ बढा ।
बाहर एक दरवाजा खोले जाने की आवाज के साथ कॉलबैल बजनी बन्द हुई ।
वागले ने मैट्रेस के नीचे से चाबी निकाली ।
“मर गई थी ?” - बाहर से एक भारी आवाज आई ।
दण्डवते की आवाज वागले ने साफ पहचानी ।
तो दण्डवते वहीं आया था ।
अब वह खुश था कि ऐन मौके पर उसकी अक्ल काम दे गई थी और उसे यूं पिछवाड़े का पाइप पकड़कर वहां तक चढ आना सूझ गया था ।
“मैं टॉयलेट में थी ।”
वागले ने वार्डरोब के ताले के छेद में चाबी डाली और उसे धीरे से घुमाया ।
चाबी निशब्द घूम गई ।
“आज धन्धे पर नहीं गई ?”
वागले ने दरवाजा खोला ।
उसे विमल के हाथ में वार करने को तत्पर रिवॉल्वर दिखाई दी ।
वागले ने अपने होंठों पर उंगली रखी ।
विमल ने निशब्द वार्डरोब से बाहर कदम रखा ।
“तबियत खराब है ।”
वागले ने वार्डरोब के दरवाजे एक-दूसरे से मिलाए और चाबी फिर ताले के छेद में फिरा दी ।
उसने चाबी यथास्थान मैट्रेस के नीचे रख दी ।
बाहर से युवती और दण्डवते के बीच चलते वार्तालाप की आवाजें बदस्तूर आ रही थी ।
वागले ने विमल की बांह पकड़कर उसे खिड़की की तरफ खींचना चाहा लेकिन विमल ने उसका हाथ झटक दिया और बैडरूम और ड्राइंगरूम के बीच के दरवाजे की ओर बढा ।
“बेवकूफ मत बनो ।” - वागले फिर उसकी बांह थामता हुआ उसके कान में फुसफुसाया - “वह अकेला नहीं है ।”
“लड़की...”
“उसे कुछ नहीं होने वाला । तलाशी में उसे यहां जब तुम नहीं मिलोगे तो क्या कहेगा दण्डवते उसे ?”
“लेकिन...”
“वक्त बरबाद मत करो । फौरन यहां से निकल चलो । कोई किसी भी क्षण कदम रख सकता है । लड़की को यहां कोई खतरा नहीं है । इतनी भरी-पूरी इमारत में कोई गलत हरकत करके वह भीड़ इकट्ठी नहीं करना चाहेगा ।”
विमल हिचकिचाया ।
“सोच-विचार नीचे चलकर कर लेना । दण्डवते के यहां से रवाना होने के बाद लड़की की सलामती की तसदीक करने के लिए दोबारा यहां आ जाता । ओ के ?”
विमल ने सहमति में सिर हिलाया ।
दोनों खुली खिड़की की तरफ बढे ।
वागले की जिद पर पाइप पकड़कर पहले विमल नीचे उतरा ।
फिर उसके पीछे-पीछे ही वागले भी नीचे गली में उतर गया ।
तभी ऊपर से फायर की आवाज आई ।
साथ ही संध्या के गले से निकली चीख की आवाज विमल के कानों में पड़ी ।
विमल के मानसपटल पर लाश की सूरत में संध्या उभरी । क्रोध और बेबसी में उसने वागले को झिंझोड़ डाला ।
“तेरी वजह से लड़की की जान गई ।” - वह घुटे स्वर में बोला - “कहता था इतनी भरी-पूरी इमारत में दण्डवते कोई गलत हरकत नहीं करेगा ।”
“सही कहा था मैंने ।” - वागले खेदपूर्ण स्वर में बोला - “मैं तो सपने में भी नहीं सोच सकता था कि...”
“ऐसी की तैसी तुम्हारे सोचने की । खामखाह लड़की को हलाक करा दिया ।”
“अब मुझे क्या पता था कि वो...”
“शटअप !”
“क्या शटअप !” - अब वागले भी झल्ला पड़ा - “खैर नहीं मनाते कि तुम्हारी अपनी जान बच गई, खामखाह दूसरे के अन्देशे में मरे जा रहे हो । वो क्या तुम्हारी कोई सगे वाली थी जो...”
“हां ।” - विमल के मुंह से ऐसी चीत्कार निकली जैसे उसका कलेजा चाक हो गया हो - “वह मेरी सगे वाली थी । वह मेरी बहन थी । वह मेरी बहन थी हरामजादे !”
फिर एकाएक विमल विक्षिप्तों की तरह संकरी अन्धेरी गली में दौड़ चला ।
***
वार्डरोब के एक कोने में से कपड़ों के हैगर इस प्रकार परे सरकाए गए थे कि वहां अगर कोई खड़ा होता तो उसका जिस्म कपड़ों से नहीं उलझ सकता था ।
“यहां कोई नहीं था ।” - दण्डवते उस खाली जगह की तरफ इशारा करता हुआ कहर-भरे स्वर में बोला ।
“यहां कोई नहीं था ।” - संध्या ने आर्तनाद किया ।
“यहां शर्तिया कोई खड़ा था ।”
“वार्डरोब का तो ताला वन्द था ।” - संध्या तनिक दिलेरी से बोली - “तुमने खुद देखा था । अगर कोई भीतर था तो क्या वह जादू के जोर से भीतर से गायब हो गया ?”
“भीतर कोई था ।” - दण्डवते दांत पीसता हुआ बोला - “तू जानती थी, भीतर कोई था तभी तो वार्डरोब का ताला खोलने में तु इतनी हील-हुज्जत कर रही थी । साली, तेरे माथे पर लिखा है कि तू खुद हैरान हो रही है है कि जो भीतर बन्द था, वो कहां गायब हो गया ? कैसे गायब हो गया ?”
दण्डवते ने उसकी दिली हालत को एकदम ठीक पहचाना था ।
बन्द वार्डरोब में से बिमल का गायब हो जाना वाकई करिश्मा था उसके लिए ।
क्योंकर हुआ वह करिश्मा ?
“संध्या ! आखिरी बार पूछ रहा हूं । असलियत बकेगी या नहीं ?”
“मैं सच कह रही हूं कि...”
एकाएक दण्डवते ने हाथ बढाकर उसको बालों से पकड़ लिया और उसे अपनी तरफ घसीटा ।
“यहां सोहल आया था ।” - वह दहाड़ा - “कबूल कर कि यहां सोहल आया था ।”
“यहां कोई नहीं आया था ।” - संध्या बिलखती हुई बोली ।
“देख अगर तू सच बोल देगी तो मै तुझे कुछ नहीं कहूंगा । मैं जानता हूं, वह सरदार बहुत खतरनाक है । तुझे क्या, वह किसी को भी इतना खौफ खिला सकता है कि वह झूठ बोलने लगे । लेकिन अब तुझे कोई खतरा नहीं है । मेरे होते वह तेरा बाल भी बांका नहीं कर सकता । आगे भी मैं तेरी हिफाजत के लिए तेरे साथ बॉडीगार्ड लगा दूंगा । मैं कहता हूं, वह तेरे पास भी नहीं फटक पाएगा । अब बोल, सोहल ही था न जो यहां आया था ? सच बोल । बोल ?”
“मैं सच बोल रहा हूं । यहां कोई नहीं...”
“तू ऐसे नहीं मानेगी ।” - दण्डवते असहाय भाव से बोला । उसने उसके बाल छोड़ दिए और अपने प्यादे की बांहों में धकेल दिया - “तेरी जुबान जोजो ही खुलवाएगा । देखते हैं जोजो के सामने तू कैसे सच बोलने से बाज आई रह सकती है !” - वह प्यादे से बोला - “ले चल इसे यहां से ।”
“बॉस !” - प्यादा संध्या के कफ्तान पर निगाह डालता हुआ बोला - “कपड़े बदलवा दें इसके ?”
“क्या जरूरत है ? जहां पर ले जाई जा रही है, वहां इसे कपड़ों की जरूरत नहीं पड़ने वाली । मेरी तरफ से तो जो यह पहने हुए है, उसे भी यहीं उतार दो ।”
प्यादा बड़ी कुत्सित हंसी हंसा । उसने बड़े अर्थपूर्ण ढंग से संध्या के कफ्तान के गिरहबान पर उंगली फिराई ।
“नीचे कार तक पहुंचने की बात न होती” -प्यादा बोला - “तो करता तो मैं यही ।”
“अब चलो ।”
प्यादे ने संध्या को बाहर की तरफ धकेला ।
***
वागले भी पूरी शक्ति से विमल के पीछे दौड़ रहा था ।
ब्लाक का घेरा काटकर विमल सामने सड़क पर पहुंच गया था और अब वह इमारत के मुख्य द्वार की तरफ लपक रहा था ।
वागले उससे सिर्फ एक कदम पीछे था ।
उसी क्षण उसे एक कार अपनी तरफ आती दिखाई दी ।
कार उसने तुरन्त पहचान ली ।
वह दण्डवते की कार थी और उसे वही प्यादा चला रहा था जिसे दण्डवते कार के साथ बाहर छोड़ गया था ।
वागले ने एकदम सामने छलांग मारकर विमल को दबोच लिया और उसे नीम अन्धेरे में खड़ी अपनी कार की ओट में घसीट लिया जिसके पास तक वे दौड़ते हुए उस क्षण पहुंच चुके थे ।
“छोड़ो !” - विमल उसकी पकड़ में छटपटाता हुआ बोला - “छोड़ो !”
दण्डवते की कार और करीब आई ।
वागले को पिछली सीट पर दण्डवते बैठा दिखाई दिया । उसे उसके और दूसरे प्यादे के बीच में बैठी एक जनानी सूरत की झलक दिखाई दी ।
“छोड़, हरामजादे !”
तभी कार उनकी बगल से गुजरी ।
“बेवकूफ !” - वागले उसका मुंह दबोचता हुआ उसके कान में सांप की तरह फुफकारा - “वह जिन्दा है ।”
कार उनके परे सड़क पर दौड़ गई ।
विमल ने जबरन अपने मुंह से वागले का हाथ हटाया और हांफता हुआ बोला - “कौन ?”
“तुम्हारी वही छोकरी जिसे अभी तुम अपनी बहन बता रहे थे । वह उस कार में थी ।”
“वह जिन्दा है ?”
“सौ फीसदी जिन्दा है ।”
“तो फिर वह गोली ? वह चीख ?”
“वह सब मुझे नहीं पता लेकिन लड़की एकदम चौकस है । मेरा मतलब है फिलहाल । जैसे हालात में वह यहां से ले जाई गई है, उसमें आगे तो उसके साथ जो न हो, वह थोड़ा है ।”
“वागले !” - विमल व्याकुल भाव से बोला - “किसी तरह उस कार के पीछे चलो । अभी कोई सवारी...”
“हाजिर है ।” - वागले झपटकर अपनी कार का दरवाजा खोलता हुआ बोला - “बैठो जल्दी ।”
दोनों कार में सवार हुए ।
वागले ने कार को रिवर्स गियर में डाला और उसे उलटी चलाता हुआ मेन रोड की तरफ भगा ले चला ।
“वह उसे लेकर होटल ही जाएगा ।” - विमल बोला ।
“तुम्हें कैसे मालूम ?” - वागले बोला ।
“मालूम है ।”
मेन रोड पर पहुंच कर वागले ने कार को घुमाकर सीधा किया और उसे सामने भगा दिया ।
“कार कहीं दिखाई तो नहीं दे रही ?” - वह बोला ।
“दिखाई देगी । वह इसी सड़क पर आगे कहीं होगी । तुम रफ्तार बढाओ ।”
“अच्छा ।”
वागले बड़ी दक्षता से कार को हैंडल कर रहा था ।
“तुम्हें कैसे मालूम” - वागले ने पूछा - “कि लड़की होटल ही ले जाई जाएगी ?”
“मेरा अन्दाजा है । मुझे लड़की ने ही बताया था कि वहां होटल के तहखाने में इन लोगों का टॉर्चर चैम्बर है । जिस नीयत से और जिस हालात में लड़की को वहां से ले जाया गया है, उसमें लड़की की मंजिल वह टॉर्चर चैम्बर ही मालूम होती है । वागले, अगर वह वहां पहुंच गई तो बेचारी की बहुत दुर्गति होगी । वहां उसकी ऐसी हालत बना दी जाएगी कि वह खुद ही मौत की कामना करने लगेगी । दोस्त, भगवान के लिए कुछ ऐसा करो कि दण्डवते लड़की के साथ होटल न पहुचने पाए ।”
“कार तो वह रही उसकी ।” - एकाएक वागले सामने इशारा करता हुआ बोला ।
विमल ने ट्रैफिक मैं दौड़ती दण्डवते की कार पर निगाह डाली ।
पिछली सीट पर बैठी संध्या उसे साफ दिखाई दी । फासले से उसकी पहचान के लिए उसका बेशुमार रंगों वाला कफ्तान ही काफी था ।
“उसे ओवरटेक करने की कोशिश करो ।” - विमल रिवॉल्वर निकालकर हाथ में लेता हुआ बोला ।
“अभी नहीं ।” - वागले बोला - “अभी हम बहुत ज्यादा ट्रैफिक में से गुजर रहे हैं । तुमने यहां गोली चलाई तो उनका कोई नुकसान तो पता नहीं होगा या नहीं, हमारा भाग निकलना मुहाल जरूर हो जाएगा ।”
“लेकिन...”
“हौसला रखो । गाड़ी को माहिम काजवे पार करके जरा घोड़बन्दर रोड पर दाखिल होने दो, तभी इन लोगों से उलझना मुनासिब होगा ।”
“गाड़ी जुहू न पहुंचने पाए ।”
“नहीं पहुंचने पाएगी ।”
विमल खामोश हो गया ।
लेकिन उसके चेहरे से गहन चिन्ता और उत्कण्ठा के भाव न गए ।
एक फर्लांग के फासले से दोनों गाड़ियों ने माहिम काजवे पार किया ।
“अगली गाड़ी के घोड़बन्दर रोड पर दाखिल होते ही” - वागले बोला - “मैं अपनी गाड़ी उनके पहलू में ले जाऊंगा । अच्छा है कि दण्डवते दायीं तरफ बैठा है । तुम उसे निशाना बनाने की कोशिश करना । हमारी कामयाबी इसी में है कि तुम्हारी चलाई पहली ही गोली उसे जा लगे । एक बार तुम्हारा निशाना चूक गया और उन्हें पता लग गया कि उन पर गोली चलाई गई है तो दण्डवते की कार का ड्राइवर हमें अपनी हवा भी नहीं लगने देगा ।”
“हम ड्राइवर को ही क्यों न निशाना बनाएं ताकि वे लोग भाग न सकें ?”
“ड्राइवर को निशाना बनाने में उनकी गाड़ी का एक्सीडेण्ट हो जाने का खतरा होगा । एक्सीडेण्ट हो गया तो तुम्हारी सहेली की - मेरा मतलब है बहन की - जान भी नहीं बच सकेगी ।”
“ओह !”
एकाएक विमल को अपनी जेब में पड़े उस बटन बम का ख्याल आया जो उसे देवाराम ने दिया था ।
उसने बटन बम निकालकर वागले को दिखाया और बोला - “यह...”
“मुझे मालूम है ।” - वागले बोला - “देवाराम ने दिया होगा ।”
“हां मुझे एक बात सूझी है ।”
“क्या ?”
“घोड़बन्दर रोड पर तुम अपनी कार को दण्डवते की कार के समानान्तर ले जाने की जगह थोड़ा आगे निकाल ले जाना । मैं यह बटन बम उनकी कार के रास्ते में फेंकूंगा । कार की चपेट में आकर जब यह फटेगा तो दण्डवते का ड्राइवर यही समझेगा कि कार को कुछ हो गया था । वह शर्तिया गाड़ी रोकेगा । गाड़ी नहीं भी रोकेगा तो रफ्तार जरूर घटाएगा । तब दण्डवते पर अचूक निशाना लगाना मेरे लिए आसान होगा ।”
“ठीक है । तैयार हो जाओ । सड़क आयी कि आयी ।”
घोड़बन्दर रोड पर ट्रैफिक काफी कम था । अगली कार के उस पर दाखिल होते ही वागले ने एकाएक जोर से एक्सीलरेटर दबाया ।
कार पहले अगली कार के पहलू में पहुंची - “तैयार ।” - वागले बोला - और फिर पार निकल गयी ।
विमल ने बटन बम सड़क पर फेंका !
दण्डवते की कार का एक पहिया उस पर से गुजरा ।
जोर का धमाका हुआ ।
दण्डवते के ड्राइवर ने पूरी शक्ति से ब्रेक का पैडल दबाया ।
उसने यही समझा कि कार का कोई टायर फट गया था ।
वागले ने कार को ब्रेक लगाई ।
एक क्षण में दोनों कारें समानान्तर हो गयीं ।
विमल ने खिड़की में से हाथ निकालकर फायर किया ।
गोली धमाके की वजह जानने की खातिर ड्राइवर से बात करने को आगे को झुके दण्डवते की कनपटी पर लगी ।
विमल की चलाई दूसरी गोली ड्राइवर की गर्दन में धंस गई ।
तब तक दण्डवते की कार की रफ्तार बहुत घट चुकी थी ।
वागले ने अपनी कार को गहरा झोल दिया और उसे दण्डवते की कार के आगे ले जाकर रोक दिया ।
वातावरण पहले वागले की कार के ब्रेकों की चरचराहट से और फिर दोनों कारों के आपस में टकराने की आवाज से गूंजा ।
दण्डवते की कार वागले की कार के पिछले हिस्से से आकर टकराई थी ।
झटके से विमल के हाथ से रिवाँल्वर निकल गयी और उसका सिर पहले कार की छत और फिर डैशबोर्ड से टकराया ।
वागले ने उससे ज्यादा फुर्ती; होशियारी और मौके की सूझबूझ दिखाई ।
कार के गति शून्य होते ही वह उसमें से कूद गया ।
हाथ में रिवॉल्वर लिए दौड़ता हुआ वह दण्डवते के दूसरे प्यादे वाली कार की साइड में पहुंचा ।
भौंचक्का सा दूसरा प्यादा अभी हालात को समझने की कोशिश ही कर रहा था कि वागले ने उसे शूट कर दिया ।
सब कुछ पलक झपकते हो गया ।
वहां चली गोलियों की तरफ किसी की तवज्जो न गयी ।
सड़क से गुजरते वाहन चालकों ने यही समझा कि किसी प्रकार दो गाड़ियों की टक्कर हो गई थी, कोई खामखाह विटनेस बनने की जहमत उठाने को तैयार नहीं था इसलिए हर किसी ने वहां रुकने की कोशिश करने की जगह अपने वाहन की रफ्तार बढा दी ।
विमल ने कार में गिरी अपनी रिवॉल्वर को तलाश करने की कोशिश नहीं की । बुरी तरह से सन सन करते अपने सिर को थामे वह कार से बाहर कूदा ।
यह देखकर उसकी जान में जान आई कि संध्या आतंकित थी; बुरी तरह से थर्राई हुई थी लेकिन सलामत थी ।
प्यादे की लाश के ऊपर से घसीट कर उसने उसे कार से बाहर निकाला ।
संध्या रोती बिलखती उसके साथ लिपट गई ।
“होश में आओ ।” - विमल घुड़क कर बोला - “संभालो अपने आपको ।”
वह और जोर जोर से रोने लगी और विक्षिप्तों की तरह हाथ पांव पटकने लगी ।
विमल ने उसे बायें हाथ से पकड़कर अपने से परे हटाया और दायें हाथ का एक झन्नाटेदार थप्पड़ उसके चेहरे पर रसीद किया ।
थप्पड़ की तुरन्त प्रत्याशित प्रतिक्रिया हुई ।
संध्या ने रोना और हाथ-पांव पटकना बन्द कर दिया ।
वागले अपनी कार की ड्राइविंग सीट पर पहुंच गया था ।
उसकी कार की एक साइड बुरी तरह पिचक गयी थी ।
उसने कार को सीधा किया और उसे दण्डवते की कार के समान्तर यूं ला खड़ा किया कि वह कार उसकी कार की ओट में हो जाए ।
विमल ने वागले की कार का अगला दरवाजा खोला और संध्या को उस कार के भीतर धकेल दिया ।
खुद वह दण्डवते की कार के करीब पहुंचा ।
ड्राइविंग सीट से परली तरफ का दरवाजा खोल कर वह भीतर दाखिल हुआ । स्टियरिंग के पीछे मरे पड़े ड्राइवर को उसने घसीटकर सीट के नीचे धकेल दिया और स्वयं ड्राइविंग सीट पर जा बैठा ।
गियर में फंसी गाड़ी को उसने गियर में से निकाला; उसे फिर से स्टार्ट किया और उसे गियर लगाकर तनिक एक्सलरेटर दिया ।
गाड़ी सही सलामत थी और चलने के काबिल थी ।
अपनी गाड़ी में से निकलकर वागले उसके समीप पहुंचा ।
“क्या बात है ?” - वागले उतावले स्वर में बोला - “अब कूच क्यों नहीं करते हो ?”
“इन लोगों की लाशों को” - विमल चिन्तित भाव से बोला - “मैं पीछे यूं सरेराह छोड़कर नहीं जा सकता ।”
“क्यों ?”
“ऐसे लाशें बरामद हो जाएंगी । और कोई वाहन नहीं रुकेगा तो गश्ती पुलिस की गाड़ी ही यहां पहुंच जाएगी । दण्डवते की शिनाख्त कोई कठिन काम नहीं । फिर उसकी मौत की खबर आनन फानन ‘कम्पनी’ में पहुंच जाएगी ।”
“तो क्या हुआ ?”
“नीलम की सलामती के लिए मैंने जॉन रोडरीगुएज से वादा किया था कि कल सुबह आठ बजे तक ‘कम्पनी’ की खिलाफत में मैं कोई नया कदम नहीं उठाऊंगा, मैं उनका कोई नया नुकसान नहीं करूंगा । दण्डवते की मौत को वे लोग मेरी वादा-खिलाफी मानेंगे और फिर कल सुबह तक नीलम पर कोई जुल्म न ढाने का अपना वादा वे भी नहीं निभायेंगे ।”
वागले का जी चाहा कि वह उसे बता दे कि नीलम ‘कम्पनी’ के कब्जे में नहीं थी ।
लेकिन उसने ऐसा न किया ।
“तो ?” - प्रत्यक्षतः वह बोला ।
“मुझे दण्डवते की लाश गायब करनी होगी ।” - विमल बोला - “नीलम की भलाई इसी में है कि दण्डवते के मौजूदा अन्जाम की बात अभी राज रहे ।”
“तुम यह क्यों सोचते हो कि इसका कातिल तुम्हें समझा जाएगा ? बम्बई में ‘कम्पनी’ के या दण्डवते के दुश्मनों की कमी है ?”
“नहीं । बम्बई में दण्डवते के सैंकड़ों दुश्मन हो सकते हैं; हजारों लोग इसके खून के प्यासे हो सकते हैं लेकिन आज की तारीख में तुम्हारे शहर में होने वाले ‘कम्पनी’ के हर नुकसान की जिम्मेदारी मेरी, सिर्फ मेरी है । कोई नहीं मानेगा कि यह मेरी करतूत नहीं । मैं ऐसा रिस्क नहीं ले सकता । नीलम की सलामती के खातिर मैं ऐसा रिस्क नहीं ले सकता ।”
“दन्डवते की मौत तुम्हारे लिए समस्या बन सकती थी, यह बात तुम्हें पहले नहीं सूझी थी ?”
“सूझी थी ।”
“तो फिर बाज आए होते ।”
“मैं अपनी आंखों देखे इस लड़की को ‘कम्पनी’ के कहर का शिकार बनने नहीं जाने दे सकता था ।”
“इसकी सलामती की कोशिश करते-करते चाहे नीलम की जान चली जाती ? तुम नीलम की जान को अपनी जान से ज्यादा अजीज बताते हो । उसकी गिरफ्तारी की बात सुनते ही तुम आत्मसमर्पण के लिए होटल की तरफ भाग खड़े होने को उतारू हो गए थे ताकि तुम्हारी जान के बदले में वे लोग नीलम की जान छोड़ देते । लेकिन अब तुम एक अनजान लड़की के लिए नीलम की जान को खतरे में डालने पर उतारू हो गए !”
“यह मेरी बहन है ।”
“बकवास मत करो । मैं जानता हूं यह तुम्हारी कितनी बहन है ।”
“तुम नहीं समझोगे ।”
“ऐसी जहालतें और बेहूदगियां मैं समझना भी नहीं चाहता ।”
“छोड़ो । तुम लड़की को किसी महफूज जगह पर ले जाओ । मैं इस गाड़ी को लाशों समेत कहीं ठिकाने लगाकर आता हूं ।”
“यह तुम्हारे बस का काम नहीं । यह तुम्हारी किस्म का काम नहीं ।”
“मतलब ?”
“चैम्बूर का रास्ता तलाश कर लोगे ? वहां वह इमारत तलाश कर लोगे जहां मैं तुम्हें लेकर गया था ?”
“हां । क्यों ?”
“तुम मेरी गाड़ी संभालो और यहां से जाओ । इस गाड़ी को मैं ठिकाने लगाकर आता हूं ।”
“लेकिन...”
“बहस मत करो । बाहर निकलो । तुम बम्बई से उतने वाकिफ नहीं जितना मैं वाकिफ हूं । मेरी सारी उम्र यहां कटी है । मैं यहां ऐसे कई ठिकाने जानता हूं जहां से कयामत के दिन तक दण्डवते की लाश बरामद नहीं होगी । तुम्हें ऐसा एक भी ठिकाना ढूंढने में दिक्कत होगी ।”
“लेकिन फिर भी...”
“कहना मानो, सरदार साहब ! तुम मेरी जिम्मेदारी हो । मैं नहीं चाहता कि तीन-तीन लाशों के साथ तुम गिरफ्तार हो जाओ ।”
“लेकिन तुम भी तो...”
“मुझे कुछ नहीं होगा । तुम बाहर तो निकलो ।”
विमल ने एक गहरी सांस ली ।
“धन करतार !” - वह कार से बाहर निकलता हुआ बुदबुदाया ।
वागले उसकी जगह कार मे सवार हो गया ।
अगले ही क्षण दण्डवते की कार यह जा, वह जा ।
“अब तुम्हारी सलामती इसी में है” - वागले की कार में सवार होता हुआ विमल बोला - “कि तुम फौरन से पेश्तर इस शहर से कूच कर जाओ और यहां से ज्यादा से ज्यादा दूर निकल जाओ ।”
“मैंने” - वह धीरे से बोली - “उस आदमी का और तुम्हारा वार्तालाप सुना था ।”
“अच्छा ! कान बहुत पतले हैं तुम्हारे ।”
“विमल !” - वह कातर स्वर में बोली - “तुम्हारे किसी काम तो आ न सकी, उल्टे तुम्हारी दुश्वारियां और बढा दी मैंने ।”
“तुम मेरे बहुत काम आई हो और तुमने मेरी कोई दुश्वारी नहीं बढाई है ।”
“लेकिन...”
“एक समस्या पेश आई जरूर भी लेकिन तुमने देखा ही है कि वह अपने आप हल हो गयी है ।”
“मेरी खातिर तुमने दण्डवते का कत्ल किया और मुझे उसके चंगुल से छुड़वाया ।”
“तुमने भी तो मेरी खातिर अपनी जान को खतरे में डाला था । तुमने ‘कम्पनी’ के कहर का शिकार बनना कुबूल किया लेकिन मेरी बाबत दण्डवते को कुछ बताकर न दिया ।”
“तुम्हें क्या पता ?”
“क्यों नहीं पता ? दण्डवते को तुमने कुछ बताया होता तो वह तुम्हें यूं कपड़े बदलने तक का मौका दिये बिना पकड़ कर अपने साथ न ले जा रहा होता ।”
वह खामोश रही ।
“तुम्हारे हाथ में तो उल्टे एक ऐसा मौका था जिसे इस्तेमाल करके तुम चाहती तो ‘कम्पनी’ की तारीफी निगाहों का ऐसा हकदार बनकर दिखा सकती थीं जैसा कभी कोई न बना होगा । आज की तारीख में जो शख्स मुझे पकड़वा सकता हो वह खुद बखिया का गोल्ड मैडल और इक्कीस तोपों की, सलामी हासिल करने के काबिल है । मैं तुम्हारे फ्लैट की अलमारी में बन्द था जहां से कि मैं बिना बाहरी मदद से हरगिज भी बाहर नहीं निकल सकता था । तुम सिर्फ वार्डरोव की चाबी दण्डवते को सौंप देती तो क्या दण्डवते और क्या बखिया, सब तुम्हें सिर माथे बिठाते । लेकिन तुमने ऐसा नहीं किया । तुमने अपनी लाजमी मौत को गले लगाना कबूल किया लेकिन ऐसा नहीं किया ।”
“लेकिन” - उसने आर्तनाद किया - “तुम्हारे लिए नीलम को छुड़ाना जरूरी था या मुझे छुड़ाना ?”
“तुम्हारे इस सवाल का जवाब बड़ा कठिन है । सच पूछो तो जब तक मुझे तुम्हारी जान बचती दिखाई नहीं दे गयी थी, मुझे नीलम का ख्याल तक न आया था । ऐसा क्यों कर हुआ, इसका जवाब मेरे पास नहीं है । पिछले चन्द मिनटों में जो कुछ हुआ है, वह किसी अदृश्य व्यक्ति ने मुझसे कराया है । लगता है, मैं वाहे गुरु के हवाले था और जिस राह वह मुझे चलाना चाहता था, मैं चला । बहरहाल जो हुआ, ठीक हुआ ।”
वह खामोश रही ।
“तू आपे कर्ता तेरा किया सब होई ।” - विमल धीरे से बोला - “तुझ बिन दूजा अवर न कोई ।”
“तुम वार्डरोब से बाहर कैसे निकले ?”
विमल ने बताया ।
“ओह !” - वह बोली ।
“मैं तुम्हें पहले तुम्हारे घर ले जा रहा हूं ।” - विमल कार स्टार्ट करता हुआ बोला - “ताकि वहां से तुम अपनी जरूरत का सामान समेट सको । फिर मैं तुम्हें बम्बई सेण्ट्रल स्टेशन लेकर जाऊंगा और वहां से जो पहली गाड़ी बम्बई से बाहर के लिए रवाना होने वाली होगी, तुम्हें उस पर सवार होना होगा । गाड़ी कहां की भी हो, तुम्हें उस पर सवार होना होगा । ओके ?”
उसने उत्तर न दिया ।
विमल ने कार को यू टर्न दिया और उसे वापिस दादर की तरफ दौड़ा दिया ।
***
शाम तक भी राहुलराव दण्डवते से सम्पर्क स्थापित न कर सका । दण्डवते के फोन की घण्टी तो बजती थी लेकिन दूसरे सिरे पर उसे उठाने वाला कोई नहीं था । एक्सचेंज में फोन करके उसने इस बात की भी तसदीक की थी कि टेलीफोन खराब नहीं था, यानी कि घण्टी वाकई बज रही थी ।
वह ‘कम्पनी’ के किसी और नम्बर पर फोन कर सकता था लेकिन ऐसा करने की उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी । उसका दिल कह रहा था कि वह उसका मामा ही था जो उसे उसकी मौजूदा दुश्वारी से निजात दिला सकता था, निजात नहीं दिला सकता था तो वह कम से कम उसकी बात पर विश्वास तो कर सकता था ।
इत्तफाक से उस रात कफ परेड से वहां आने वाला कलेक्टर भी बहुत लेट - अंधेरा हो जाने के बाद - पहुंचा ।
उसने राहुलराव और गंगवानी के चेहरों पर ऐसी फटकार बरसती पाई जैसे अभी-अभी उन्हें अपने किसी नजदीकी रिश्तेदार की मौत की खबर मिली हो ।
वह माहौल की मनहूसियत से प्राभावित हुए बिना न रह सका ।
“क्या हुआ !” - उसने सशंक स्वर में पूछा ।
“डाका पड़ गया ।” - राहुलराव बड़ी कठिनाई से कह पाया ।
“क्या ?” - कलेक्टर चौंका - “कैसे ?”
राहुलराव ने हिचकते, झिझकते,कराहते बताया ।
“एक इकलौता आदमी” - कलेक्टर मन्त्रमुग्ध स्वर में बोला - “यहां से माल लूटकर ले गया !”
“लेकिन वह इकलौता आदमी” - राहुलराव ने आर्त्तनाद किया - “कोई मामूली शख्स नहीं, सोहल था ।”
“क्या ?”
“मैं सच कह रहा हूं ।”
“तुम्हें कैसे मालूम कि वह सोहल था ?”
“उसने खुद बताया था ।”
“क्या बताया था ?”
“कि वह मशहूर इश्तिहारी मुजरिम सरदार सुरेन्द्रसिंह सोहल था ।”
“राहुलराव !” - कलेक्टर कठोर स्वर में बोला - “मुझे बीच में से कोई भी बात छोड़े बिना सारी कहानी फिर से सुनाओ ।”
राहुलराव ने डाके की, और अपनी बरबादी की, दास्तान दोहराई ।
गंगवानी ने आततायी की फियेट कार का नम्बर और हुलिया बयान किया ।
एन आर ए 4472 नम्बर की काले रंग की पुरानी सी फियेट कार ।
कलेक्टर ने भी पहले ‘कम्पनी’ के सिपहसालार को ही फोन किया ।
जब वहां बात न बनी तो उसने मुहम्मद सुलेमान को फोन किया ।
इस प्रकार सोहल के एक और कथित कारनामे को खबर बखिया के हैडक्वार्टर में पहुंची ।
***
“सोहल !”
विमल बुरी तरह चौंका ।
संध्या को गाड़ी पर सवार कराकर बम्बई सेण्ट्रल को पार्किंग के एक अंधेरे कोने में खड़ी अपनी कार में वह सवार होने ही वाला था कि वह आवाज हथौड़े की तरह उसकी चेतना से टकराई थी ।
तभी एक मजबूत हाथ उसकी एक बांह पर पड़ा और किसी ने फिरकनी की तरह उसे अपनी तरफ घुमा लिया ।
हक्का बक्का सा वह सामने देखने लगा ।
सबसे पहले उसकी निगाह का असाधारण रूप से लम्बी नाल वाली पिस्तौल पर पड़ी जो कि पिस्तौल जैसे की असाधारण आकार के हाथ में दबी हुई थी । फिर वहां से फिसल कर उसकी निगाह हाथ के मालिक के चेहरे पर पड़ी ।
वह विकराल चेहरा एक बूढे सरदार का था । उसकी मैली-कुचैली सफेद दाढी उसकी छाती पर उड़ रही थी और वैसी ही मूंछे उसकी दाढी पर झुकी हुई थीं । सिर पर पगड़ी उसने ऐसे ढीले ढाले ढंग से बांधी हुई थी कि वह बंधी होने की जगह सिर के गिर्द लटकी हुई मालूम होती थी और ऐसा लगता था कि वह किसी भी क्षण वहां से फिसल कर उसके गले में पहुंच जाएगी ।
उसके कपड़ों तक से रम की गंध आ रही थी ।
“तू सोहल है ?” - वह लाल लाल आंखों से उसे घूरता हुआ बोला ।
रम का एक तीखा भभका विमल के चेहरे से टकराया ।
“तू सोहल है ?” - वह फिर बोला ।
“नहीं ।” - विमल फंसे स्वर में बोला ।
“क्या नहीं ?”
“मैं सोहल नहीं हूं ।”
“झूठ ।”
“मैं सच कह रहा हूं “
“झूठ ! झूठ ! वाहेगुरु दा खालसा होकर झूठ बोलता है ?”
“लेकिन मैं...”
“देख ! ये देख...”
अपने खाली हाथ से उसने अपने फटेहाल कोट में से कई तहों में मुड़ा हुआ एक कागज निकाला । कागज का एक कोना पकड़ककर उसने उसे दो तीन झटके दिए तो वह खुल गया । उसने खुला कागज उसके सामने कर दिया ।
वह विमल की गिरफ्तारी की अपील वाला पोस्टर था जिस पर उसकी सूरत छपी हुई थी ।
“इसे देख” - पिस्तौल वाले ने हुंकार भरी - “और फिर बोल कि तू सोहल है कि नहीं । जो तू झूठ बोले तो तैनू बाबे दी सौ ।”
“क्या चाहते हो, गुरमुखो ?” - विमल ने निरर्थक सा सवाल किया ।
और क्या चाहता होगा वह शख्स ? उसकी गिरफ्तारी पर घोषित सवा लाख रुपये का इनाम ही तो चाहता होगा वह ।
“पहले बोल कि तू सोहल है कि नहीं ?”
“जो बात आपको मालूम ही है, उसे मेरे से पूछने का फायदा ?” - विमल लगभग अपनी पसलियों को छूती पिस्तौल की नाल को देखता हुआ बोला ।
“फिर भी बोल ।”
“बेहतर । मैं सोहल हूं ।”
पिस्तौल वाले के चेहरे पर सन्तुष्टि के भाव आए । उसने पोस्टर पर से अपनी गिरफ्त ढीली कर दी । पोस्टर तिनक फड़-पड़ाता हुआ दोनों के बीच जा गिरा ।
“मैं कब से ढूंढ रहा हूं तुझे ।” - वह बोला ।
इस बार उसके स्वर में कहर की जगह एक अजीब सी नर्मी थी ।
“आप क्या” - विमल धीरे से बोला - “सारी बम्बई ढूंढ रही है मुझे । सवा लाख का इनाम जो...”
“मैं तेरे जिले का हूं ।”
“जी !”
“तेरा गांव सोहल, जिला गुरदासपुर है न ?”
“हां ।”
“मैं धारीवाल का हूं ।”
विमल खामोश रहा ।
“सूबेदार मेजर लहनासिंह” - वह बड़े गर्व से बोला - “रिटायर्ड ।”
“सरदारजी !” - विमल उलझनपूर्ण स्वर में बोला - “आप...”
“मुझे कब से तेरी तलाश थी ।” - पिस्तौल वाले का स्वर एकाएक आर्द्र हो उठा - “बाबे दी मेहर दी छतरी तेरे सिर से सदा सलामत रहे पुत्तरा । तू गुरु गोविन्दसिंह वाकर शत्रु आं दा नाश करें । तू वाहे गुरु दा खालसा ऐं । तेरी फतह होवे । फतह होवे तेरी !”
विमल भौंचक्का सा उसका मुंह देखने लगा ।
“यह ले” - सरदार ने अपने हाथ में थमी पिस्तौल जबरदस्ती विमल के हाथ में थमा दी - “पकड़ इसे ।”
“सरदार जी यह...”
“यह सूबेदार मेजर लहनासिंह की पिस्तौल है । इसी से बखिया की रूह को उसके नापाक जिस्म से फना करना । तभी मेरे कलेजे को ठण्ड पड़ेगी ।”
“सरदारजी, आप नशे में हैं ।”
“हां” - वह कातर स्वर में बोला - “मैं नशे में हूं । मैं हमेशा ही नशे में रहता हूं लेकिन यह नामुराद नशा मेरा साथ नहीं देता । यह तो सुबह उतर जाता है । सुबह उतर जाता है यह नशा और मुझे फिर अपने उन दो नौजवान लड़कों की याद सताने लगती है जिनकी जान बखिया ने ली । और कितना मजबूर है उनका बाप लहनासिंह कि वह उनके हत्यारे से उनकी मौत का बदला नहीं ले सकता । बेटा, मुझे नशा नहीं होता । मुझे ऐसा नशा क्यों नहीं होता जो कभी न उतरे और जिसके असर में सब कुछ भूल जाऊं ?”
“कभी न उतरने वाला नशा शराब में नहीं होता गुरमुखो !”
“तो फिर किसमें होता है ?”
“उसकी लग्न में ।” - विमल आसमान की तरफ उंगली उठाता हुआ बोला - “उसके नाम में । नशा भंग, शराब दा उतर जाए प्रभात । नाम खुमारी नानक चढी रहे दिन-रात ।”
“नाम खुमारी नानक चढी रहे दिन-रात” - बूढे ने उसके साथ दोहराया - “यही होगा । ऐसा ही होगा लेकिन सबसे पहले तू सूबेदार लहना सिंह की इस पिस्तौल की एक गोली बखिया के कलेजे में ठण्डी कर । इस पिस्तौल की एक गोली बखिया के कलेजे में ठण्डी होगी तो मेरे भी कलेजे में ठण्ड पड़ेगी । पुत्तरा, छोड़ना नहीं उस हत्यारे को ।”
“नहीं छोडूंगा । आपका और मेरा दुश्मन एक है, सरदार जी !”
“हां । हां । इसीलिए तो तेरी तलाश में मैं सारी बम्बई की खाक छानता फिर रहा था । जो काम वाहेगुरु का एक खालसा नहीं कर सकता, वह दूसरा कर सकता है । तू भी मेरे परमजीत के समान है । तू भी मेरे इन्द्रजीत के समान है । तू भी मेरा बेटा है । बेटा, बखिया को न छोड़ना । किसी आतयायी को न छोड़ना बहुत घर उजाड़े हैं इन राक्षसों ने । बोल । बोल । करेगा मेरा काम ?”
“आपका काम मेरा काम है ।”
“लेकिन तू मेरी... मेरी पिस्तौल से गोली मारना उस कुत्ती दे पुत्तरां नूं ।”
“जरूर ।”
“वादा करता है ?”
“हां ।”
“फिरेगा तो नहीं अपने वादे से ?”
“नहीं ।”
“खा वाहे गुरु दी सौं ।”
“वाहे गुरु दी सौं ।”
“बोल वोहे गुरु दा खालसा...”
“वाहे गुरु दी फतह ।”
“ज्यूंदा रह पुत्तरा । वड्यिां उम्रां ।”
एकाएक बुजुर्ग घूमा और लड़खड़ाते कदमों से चलता हुआ वहां से विदा हो गया ।
विमल का पोस्टर उसके कदमों में पड़ा फड़फड़ा रहा था ।
विमल अपलक दूर होते जा रहे बुजुर्गवार करे देखता रहा ।
वह दृष्टि से ओझल हुआ तो विमल ने उस पिस्तौल पर निगाह डाली जो वह जबरन विमल के हाथ में थमा गया ।
पिस्तौल को जगह-जगह जंग लगा हुआ था । उसका घोड़ा टूटा हुआ था, कुत्ता जंग की वजह से जाम हो चुका था और उसमें एक भी गोली नहीं थी ।
वह पिस्तौल किसी भी सूरत में इस्तेमाल के काबिल नहीं थी ।
“वाहे गुरु सच्चे पातशाह !” - विमल किे मुंह से निकला - “तेरे रंग न्यारे ।”
उसने पिस्तौल वहीं फेंक दी और कार में सवार हो गया ।
***
राज बहादुर बखिया उर्फ काला पहाड़ साढे छ: फुट कद का काला भुजंग आदमी था । सत्तर साल की उम्र में भी वह खूब हट्टा-कट्टा और अत्यन्त शक्तिेशाली था । अपने काले रंग और आसाधारण डीलडौल की वजह से देखने में वह काला पहाड़ ही लगता था इसलिए जब बम्बई के अण्डरवर्ल्ड में आरम्भ में उसका आतंक फैला था तो वह काल पहाड़ कहलाने लगा था ।
उसी नाम से वह आज भी प्रसिद्ध था ।
काला पहाड़ कभी बीस साल की उम्र का छोकरा था जो गुजरात के एक छोटे-से गांव में चलकर बम्बई आया था । तब वह बहादुर के नाम से जाना जाता था और फ्लोरा फाउण्टेन के सामने बैठकर बूट पालिश किया करता था । उन दिनों बूट पालिश कराने की इकन्नी लगा करती थी । एक दिन एक मामूल बदमाश ने उससे बूट पालिश करवाया और उसे वह इकन्नी नहीं दी । बहादुर ने उस बदमाश को पीट दिया । मार खाने वाला बदमाश अपने तीन-चार हिमातियों के साथ लौटा लेकिन बहादुर ने उन चारों की भी धुनाई कर दी । उन पिटे हुए बदमाशों में से एक उस इलाके के एक मशहूर दादा का चमचा था और वह दादा खुद एक ऐसे स्मगलर का सहकारी था जो स्मगलरों के एक बहुत बडे़ गैंग का एक छोटा-सा पुर्जा था । पिटे हुए बदमाशों ने जाकर उस दादा से बहादुर की शिकायत की । वह दादा जमाना देखे हुए था । वह बहादुर जैसे लोगों की जात पहचानता था । वह जानता था कि ऐसे लोग गरीबी और अभाव से तंग आकर मन में ‘डैथ-विश’ लेकर घर से निकलते थे इसलिए उनका कोई बुरा या खतरनाक अंजाम उन्हें डरा नहीं सकता था । उस दादा ने बहादुर को कोई सजा देने के स्थान पर उसे एक काम का आदमी समझकर अपने सरक्षण में ले लिया । फिर बहादुर उस दादा के माध्यम से उसके उस्ताद स्मगलर तक पहुंचा, जहां कि उसे पहली बार दौलत की बू मिली । एक बार दौलत की बू लगने की देर थी कि कभी बूट पालिश करने वाले उस छोकरे ने तबाही मचा दी । वह सीढी-दर-सीढी तरक्की की बेशुमार मंजिलें तय करता चला गया । पहले उसने उस स्मगलर का खून करके उसकी जगह खुद ले ली । फिर उसने गैंग में अपने लिए एक महत्वपूर्ण स्थान बना लिया । फिर वह उस गैंग का बॉस बन गया । फिर उसने गांव से अपने तीन भाइयों को भी बुला लिया और उन्हें भी अपने धंधे में लगाकर अपनी शक्ति का विस्तार करना आरम्भ कर दिया । उसका वह बढता हुआ प्रभुत्व बम्बई के अन्य टॉप के स्मगलरों और बड़े गैंगस्टरों को पसन्द न आया । उन्होंने बहादुर और उसके भाइयों केा पहले दबाने की, फिर अपनी तरफ मिलाने की और फिर खत्म कर देने की कोशिश की लेकिन तब तक बहादुर और उसके भाईयों पर भी शक्ति का नशा हावी हो चुका था । उन्होंने बॉस लोगों का डटकर विरोध किया । उसी चक्कर में बम्बई अण्डरवर्ल्ड में ऐसी गैंगवार छिड़ी, जिसकी दूसरी मिसाल सारे हिन्दुस्तान में मिलनी मुश्किल थी । बहुत खून बहा, बहुत लोगों की जाने गयीं, बहादुर के कई आदमियों के साथ उसके दो भाई भी मारे गये लेकिन अन्तिम जीत बहादुर की हुई । उसे जीत ने उसका सिक्का सारी बम्बई के गैंगस्टरों पर जमा दिया । सबने बहादुर के सामने घुटने टेक देने में ही अपना कल्याण समझा । बहादुर की बम्बई में जय-जयकार हो गयी । वह बहादुर से राज बहादुर बखिया और राजबहादुर बखिया से काला पहाड़ बन गया और तब बम्बई के अण्डरवर्ल्ड के बेताज बादशाह माने जाने वाले विशम्भरदास नारंग से दो या तीन कदम ही नीचा माना जाने लगा । नारंग का मुकाबला तब वह नहीं कर सकता था क्योंकि नारंग तो सारे एशिया का स्मगलर किंग माना जाता था । लेकिन काला पहाड़ बन जाने पर नाम बखिया ने भी कम न कमाया । वक्त के साथ-साथ भंवर की लहरों की तरह उसका नाम भी बम्बई से बाहर फैलता चला गया ।
उन्हीं दिनों विमल के हाथों गोवा में नारंग की और उसके जल्लाद रणजीत चौगुले की और उसके एक और अत्यन्त विश्वसनीय व्यक्ति की हत्या हो गयी ।
नारंग की हत्या होते ही उसकी जगह के कई दोवेदार निकल आए । उन दावेदारों में एक जॉन रोडरीगुएज भी था लेकिन जॉन रोडरीगुएज काले पहाड़ से हुई अपनी पहली ही मुलाकात में उसका मुरीद बन गया और स्वेच्छा से उसकी छत्रछाया में आ गया ।
एक और एक मिलकर ग्यारह हो गए ।
नारंग का सिंहासन हथियाने के लिए बम्बई के अण्डरवर्ल्ड में फिर एक भयंकर गैंगवार छिड़ गयी, खूब मारकाट मची लेकिन उस बार भी अन्तिम विजय काले पहाड़ की ही हुई । उसने नारंग की जगह तो ली ही, अपना प्रभुत्व भी उसने नारंग से कई गुण ज्यादा बनाकर दिखाया । उसने माफिया तक से गठजोड़ पैदा कर लिया और एक बारगी एशिया को ही नहीं, बल्कि सारी दुनिया को अपना कार्य-क्षेत्र बनाकर दिखाया । नारकाटिक्स की स्मगलिंग के धन्धे पर उसने विशेष जोर दिया । वह एक ऐसा काम था जिसे नारंग कभी ठीक से अंजाम नहीं दे सका था लेकिन काले पहाड़ की सूझबूझ की उपज पहले एरिक जानसन कम्पनी और फिर सुवेगा इण्टरनेशनल की ओट में नारकाटिक्स का धन्धा खूब पनपा ।
आज काले पहाड़ की बादशाहत एक सैल्फ-लुब्रिकेटिंग, सैल्फ रनिंग, मशीन जैसे सुचारू रूप से चल रही थी कि एकाएक विमल के रूप में ऐसा तूफानी व्यवधान सामने आया कि उसकी बादशाहत की बुनियादें हिल गयी । विमल नाम के एक छोटे-से कंकड़ ने उसके निजाम के ठहरे पानी में ऐसी हलचल पैदा की कि आखिरकार गोवा में तफरीह मनाते खुद बखिया को गोवा से बम्बई लौटना पड़ा ।
अपने हैडक्वार्टर होटल सी व्यू में पहुचते ही सबसे पहले उसने जॉन राडरीगुएज को तलब किया और उससे एक लम्बी मन्त्रणा के बाद हालात की नजाकत को पूरी तरह से समझा ।
फिर उसी रात उसने होटल के प्रेजीडेंशल सुइट में कम्पनी के तमाम महत्वपूर्ण ओहदेदारों की एक मीटिंग बुलवाई । बखिया और रोडरीगुएज के अलावा उस मीटिंग में शामिल होने वाले महत्वपूर्ण नाम थे -
मुहम्मद सुलेमान ।
अमीरजादा आफताब खान ।
रतनलाल जोशी ।
इकबाल सिंह ।
शान्तिलाल ।
और -
मैक्सवैल परेरा ।
दण्डवते ही इकलौता ऐसा आदमी था जिसकी उपस्थिति वहां अपेक्षित थी, वांछित थी लेकिन वह वहां नहीं था । उसे बखिया के आगमन की और उसके आते ही उसी रात होने वाली सम्भावित मीटिंग की खबर थी लेकिन फिर भी वह वहां नहीं था ।
कहां था ‘कम्पनी’ का सिपहसालार ?
किसी को खबर न थी ।
बखिया अपने सारे ओहदेदारों से बगलगीर हो-होकर मिला, उसने सबका हाल-चाल पूछा और इस बात से सन्तुष्टि प्रकट की कि सब तन्दुरुस्त थे, किसी को कोई खांसी-जुकाम नहीं हुआ था ।
फिर उसने ओल्ड स्मगलर की एक बोतल खोली और सब के लिए अपने हाथों से जाम तैयार किए ।
उसे मालूम था कि मुहम्मद सुलेमान शराब नहीं पीता था इसलिए उसने उसके लिए खास तौर से एप्पल जूस की एक बड़ी, व्हिस्की की बोतल जितनी ही बड़ी, बोतल मंगवाई और उसके लिए एप्पल जूस का एक गिलास भरा ।
सबने चियर्स बोला ।
मुहम्मद सुलेमान ने अपना एप्प्ल जूस का गिलास अपने बॉस के व्हिस्की के गिलास से टकराया ।
फिर सब लोग एक टेबल के गिर्द यूं बैठ गये जैसे किसी बहुत बड़ी कम्पनी के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स की मीटिंग हो रही हो ।
बखिया ने विशेष रूप से अपने लिये आयातित हवाना सिगार का एक नया डिब्बा खोला और उसे अपने ओहदेदारों में सर्कुलेट किया ।
सबने - मुहम्मद सुलेमान ने भी - सिगार लिये ।
फर्क सिर्फ इतना था कि बाकी सबने सिगार सुलगा लिये, जबकि मुहम्मद सुलेमान ने अपना सिगार सहेजकर अपने कोट की ऊपरली जेब में रख लिया ।
चारों तरफ से धुआं उगला जाने लगा ।
बखिया ने अपने सिगार ने तीन-चार लम्बे-लम्बे कश लगाये और फिर उसका यह मुआयना करके, कि वह बड़े सलीके के सुलग रहा था, सन्तुष्टि से सिर हिलाया ।
फिर उसकी पैनी निगाह बारी बारी तमाम ओहदेदारों पर फिरने लगी ।
मुहम्मद सुलेमान पर उसकी निगाह एक क्षण को ठिठकी और फिर आगे बढ गयी ।
“साहबान !” - बखिया बोला - “अपने सिपहसालार की यहां गैर मौजूदगी बखिया को बहुत खटक रही है ।”
जैसा विशाल बखिया का शरीर था, वैसा ही बुलन्द उसकी आवाज थी । उसकी आवाज में वह असर था जो बहुत बरसने पर आमदा बादलों के गम्भीर गर्जन में होता है ।
“वह आ जायेगा” - रोडरीगुएज बड़े विश्वास से बोला - “उसे आपके आगमन की खबर है । वह जरूर किसी बहुत ही जरूरी काम में अटक गया होगा ।”
“हूं !” - बखिया बोला । वह एक क्षण ठिठका और फिर बोला - “साहबान, यह जो कुछ बखिया सुन रहा है, ठीक सुन रहा है ? क्या यह हकीकत है कि हम एक मच्छर की भिनभिनाहट बन्द कर पाने के भी काबिल नहीं रहे हैं ? क्या यह हकीकत है कि हम एक इकलौते आदमी से मुकाबिल हैं ? बखिया जो सारी बम्बई से नहीं हारा, उसे क्या अब एक इकलौते आदमी से शिकस्त खानी पड़ेगी ?”
कोई कुछ न बोला ।
“यकीन नहीं आता ।” - वह गर्जा - “यकीन नहीं आता कि हमारे इतने मजबूत, काबिल और जांबाज ओहदेदारों की मौजूदगी में एक इकलौते शख्स ने इतनी तबाही मचाई ! शिवाजीराव, डोगरा, देसाई, मोटलानी और पालकीवाला अगर आज बखिया को यहां अपने सामने दिखाई नहीं दे रहे हैं तो एक इकलौते शख्स की वजह से ? हमारे और कई लोगों की जानें गयीं तो एक इकलौते शख्स की वजह से ? क्लब- 29 में डाका पड़ा तो एक इकलौते शख्स की वजह से ? मिसेज पिन्टो का बंगला जला तो एक इकलौते शख्स की वजह से ? हमारे जेकब सर्कल वाले ऑफिस का कैश लुटा या वो जलकर राख हो गया तो एक इकलौते शख्स की वजह से ? रेसकोर्स वाले पेट्रोल पम्प की सेफ में से बीस लाख रुपया लुटा तो एक इकलौते शख्स की वजह से ?”
“उस बीस लाख को छब्बीस लाख गिनिये ।” - रोडरीगुएज धीरे से बोला - “वह ‘शाने पंजाब’ नाम का घोड़ा रेस में फर्स्ट आया था । उस पर एक और बारह का दांव था और हमारे एक क्लायंट ने हमारे माध्यम से उस पर पचास हजार रुपये का दांव लगाया था जो कि पेट्रोल पम्प का कैश लुट जाने की वजह से बुकिंग विण्डो तक पहुंच ही नहीं सका था ।”
“बढिया !” - बखिया बड़े क्रूर भाव से मुस्कराया - “बहुत बढिया ! ऐसी ही कोई और शानदार, दिलफरेब, खबर ?”
सब सिर झुकाये खामोश बैठे रहे ।
“इतने कारनामे !” - बखिया गर्जा - “और उनकी पीठ पर सिर्फ एक आदमी । एक इकलौता आदमी ! इतना कुछ हुआ एक इकलौते शख्स की वजह से ? इतने तमाचे बखिया के मुंह पर आप लोगों की जानकारी में पड़े और आप लोग कुछ न कर सके ? अब सिर्फ दो ही काम बाकी रह गये हैं जिनके होने का, लगता है, आप इन्तजार कर रहें हैं । आप इन्तजार कर रहे हैं कि अब सोहल यहां आकर हम सबकी गरदनें रेत जाये और हमारे इस हैडक्वार्टर को आग लगा दे ताकि तमाशा मुकम्मल हो जाये । काला पहाड़ रेत का एक ऐसा भुरभुरा टीला कैसे बन गया, साहबान, जिसको कि जो चाहे, जब चाहें, लात मारकर गिरा सकता है ?”
किसी ने उत्तर न दिया ।
सब बेचैनी से पहलू बदलने लगें ।
बखिया उठकर खड़ा हो गया । फर्श को रोंदने के से अंदाज में चलता हुआ वह हॉल के सिरे तक पहुंच गया । वहां वह एक क्षण ठिठका खड़ा खिड़की से बाहर दिखाई देते समुद्र का नजारा करता रहा और फिर घूमकर वापिस लौटा ।
वपिसी में वह मुहम्मद सुलेमान के सामने ठिठका ।
“सुलेमान !” - वह ढेर सारा धुआं उसकी दिशा में उगलता हुआ बोला ।
सुलेमान ने सिर उठाया ।
“बखिया तुमसे पूछता है” - बखिया गर्जा - “यह मामलूी खरोंच नासूर कैसे बन गयी ? शुरुआत में ही इसका कोई हल क्यों न निकाल पाये तुम ?”
“बखिया साहब !” - सुलेमान बोला - “वह आदमी कम्पनी पर बेजा दबाव डालने की, कम्पनी को ब्लैकमेल करने की कोशिश कर रहा था । मैं उसकी मांग स्वीकार नहीं कर सकता था । शुरू में मांग चाहे मामूली थी...”
“मांग चाहे खोटी अठन्नी की होती” - बखिया ने बड़े बेसब्रीपन से उसकी बात काटी - “हम स्वीकार नहीं कर सकते थे । उस बारे में तुमने जो कुछ किया, ठीक किया । लेकिन सवाल यह है कि ‘कम्पनी’ के बेइन्तहा सलाहियात के बावजूद तुम उस मच्छर को तलाश करके उसे मसल क्यों न सके ? एक आदमी - एक इकलौता आदमी - बम्बई में कम्पनी की निगाहों से बचा रह पाया, ऐसा क्योंकर हुआ ?”
“साहब, वह तो शेर की मांद में घुसकर बैठा हुआ था किसी को उम्मीद नहीं थी कि वह यहां होगा ।”
“यह होटल बम्बई में नहीं है ? फ्रांस में है यह होटल ?”
“नहीं साहब लेकिन...”
“क्या लेकिन ? जब सारी बम्बई में उस आदमी की तलाश हो रही थी तो इसी जगह को क्यों छोड़ा गया ? वह कहीं नहीं मिल रहा था, यही इस बात का सबूत नहीं था कि वह यहां था ? कम-से-कम तुम्हें यह सूझना तो चाहिये था कि वह यहां हो सकता था ।”
सुलेमान का जवाब न सूझा ।
“तुम जानते हो, वादाखिलाफी को बखिया नापसन्द करता है ?” - बखिया खा जाने वाली निगाहों से उसे घूरता हुआ बोला - “जानते हो ? जवाब दो ।”
“जानता हूं ।” - सुलेमान मरे स्वर में बोला । वह उसके लिये मौत की घड़ी थी । अपने से कम रुतबे के ओहदेदारों के सामने उसकी इज्जत-आबरू का जनाजा निकल रहा था ।
“तुमने सोहल को जुबान दी थी कि शाम तक उस लड़की को कुछ नहीं होगा ?”
“जी हां ।”
“फिर भी शाम होने से पहले ही तुम उस पर टूट पड़े ! क्यों ? क्यों किया तुमने ऐसा ?”
“मुझे... मुझे सोहल पर गुस्सा था ।”
“जो तुमने उस लड़की पर उतारा ?”
“ह... हां ।”
“लेकिन शाम होने से पहले किसलिये ? तुमने उस लड़की पर अपना गुस्सा नहीं उतारा, एक ओछे, छिछोरे, विवेकहीन आदमी की तरह उस पर लार टपकाई । वैसा भी किया तो कोई हर्ज की बात नहीं । लेकिन जब तुम्हारी यह नीयत थी तो सोहल से वादा नहीं करना था, उसे जुबान नहीं देनी थी । शाम तक लड़की पर टूट न पड़ने का वादा करते वक्त तुम अपनी नीयत को क्यों भूल गये ?”
सुलेमान ने बैचैनी से पहलू बदला ।
“तुमने गवाहों के सामने” - बखिया कहर-भरे स्वर में बोला - “पुलिस कमिश्नर पर रिवॉल्वर तानी, उसे जान से मार देने की धमकी दी । तौबा ! सुनकर यकीन नहीं आया कि ऐसी हिमाकत मुहम्मद सुलेमान ने की - ऐसे शख्स ने की जो कल को रोडरीगुएज की जगह ले सकता है, खुद बखिया की जगह ले सकता है और बखिया के जमाये निजाम का बादशाह बन सकता है । तुमने अपनी नहीं तो बखिया की इज्जत और मान-मार्यादा का तो ख्याल किया होता ।”
सुलेमान ने अपने एकाएक सूख आयें होंठों पर जुबान फेरी । उसने यूं अमीरजादा आफताब खान की तरफ निगाह डाली जैसे वह उससे मदम की फरियाद कर रहा हो ।
“यह पुलिस कमिश्नर की मेहरबानी थी” - बखिया बोला - “कि उसने तुम्हें - तुम्हें क्या, बखिया को - बख्श दिया । बखिया के कमिश्नर से अच्छे ताल्लुकात न होते तो तुम्हारी उस वाहिद करतूत के बदले में वह इस होटल की ऐसी ईंट से ईंट बजाकर जाता कि आने वाले दिनों में इसकी हालत एक भटियारखाने से भी गयी बीती हो जाती ।”
“बखिया साहब !” - अमीरजादा आफताब खान हिम्मत करके बोला - “सुलेमान पर बहुत भारी मनोवैज्ञानिक दबाव था । इतने दबाव में एकाध गलत कदम उठ जाना स्वाभाविक होता है ।”
“आप” - बखिया उसे घूरता हुआ बोला - “सुलेमान की पैरवी कर रहे हैं ? सुलेमान ने आपको अपना वकील मुकर्रर किया है ?”
खान गड़बड़ा गया । उसने यूं अपना मुंह बन्द किया जैसे सन्दूक का ढक्कन बन्द हुआ हो ।
बखिया ने तुरन्त उसकी तरफ से निगाह फिरा ली । वह वापिस अपनी सीट के करीब पहुंचा । उसने मेज पर से अपना गिलास उठाया और उसको खाली करके वापिस मेज पर रख दिया ।
उसकी देखादेखी बाकी सबने भी अपने गिलास खाली कर दिये ।
“आप बता सकते हैं” - बखिया सांप की तरह फुंफकारा - “कोई बता सकता है कि लड़की की होटल में मौजूदगी की खबर - वह खबर जो खुद आपको चन्द मिनट पहले हासिल हुई थी - पुलिस तक कैसे पहुंच गयी ?”
सब एक-दूसरे का मुंह देखने लगे ।
“सुलेमान !” - बखिया गुर्राया ।
“खबर” - सुलेमान कठिन स्वर में बोला - “खुद सोहल ने की हो सकती है ।”
“खुद सोहल ने ?”
“जी हां । उसने महसूस किया होगा कि वह लड़की को हमारे चंगुल से नहीं छुड़वा सकता था इसलिये लड़की की सलामती के लिये उसने खुद पुलिस को फोन कर दिया होगा । आखिर लड़की पर कोई चार्ज तो था नहीं । उसका यह सोचना वाजिब था कि बहुत पुलिस के हाथों ज्यादा सुरक्षित थी ।”
“लेकिन” - बखिया अपने एक हाथ का घूंसा दूसरे हाथ पर जमाता हुआ बोला - “सोहल को यह कैसे मालूम हुआ कि लड़की तुम्हारे कब्जे में भी ? अपने सुइट के पास तो वह फटका ही नहीं था ।”
सुलेमान स्तब्ध रह गया ।
तब उसे पहली बार महसूस हुआ कि यह बात उसे खुद ही सोचनी चाहिये कि आखिर सोहल को पता कैसे लग गया था कि लड़की उनकी पकड़ में आ गयी थी । उसने अपने सुइट में फोन करके सुलेमान से बात करने की इच्छा व्यक्त की थी । उसे यही कैसे मालूम था कि उसके सुइट में सुलेमान मौजूद था ?
उसने पहले कुछ क्षण के लिये ऐसा जरूर सोचा था कि नीलम ने सोहल को कोई इशारा किया था लेकिन बाद में जब उसका गुस्सा उतरा था और उसका विवेक उसके काबू में आया था तो उसने महसूस किया था कि वह लड़की पर नाहक लाल-पीला हुआ था । प्यादों की मौजूदगी में आठवीं मंजिल से नीचे कहीं सोहल को कोई इशारा कर पाना नामुमकिन था ।
लड़की ने सोहल को कोई इशारा नहीं किया था ।
और फिर फोन पर छूटते ही सोहल ने कहा था कि वह लड़की को छोड़ दे वर्ना...
उसे अपने-आप पर अफसोस होने लगा ।
उसकी बेइज्जती खामखाह नहीं हो रही थी । उसकी अक्ल पर वाकई पत्थर पड़ गये थे ।
“होटल में जरूर उसका कोई हिमायती मौजूद था ।” - बखिया दहाड़ा ।
बखिया ठीक कह रहा था - सुलेमान ने इस बात पर अफसोस करते हुए कि यह बात उसे नहीं सूझी थी, मन-ही-मन सोचा - किसी ने नीलम को उन लोगों की गिरफ्त में आते देखा था और वक्त रहते सोहल को चेतावनी दे दी थी । ऐसा न हुआ होता तो उन्हें फोन करने की जगह सोहल सीधा अपने सुइट में आया होता और गिरफ्तार हो गया होता ।
“परेरा !” - बखिया बोला ।
“यस बॉस !” - मैक्सवैल परेरा बोला ।
“दण्डवते की गैरहाजिरी में एक काम तुमसे करवाना है ।”
“क्या ?”
“आठवीं मंजिल पर ठहरे सारे लोगों को चेक करो । अगर वहां कोई सन्दिग्ध व्यक्ति दिखाई दे तो उसकी निगरानी के लिए आदमी लगाकर फौरन उसकी खबर मुझे करो ।”
“राइट, बॉस !”
बखिया ने सबके गिलास खाली देखे तो उसने विस्की की बोतल, सोडा साइफन और एप्पल जूस वाली ट्रे उठा ली ।
उसने अपने एक-एक ओहदेदार के पास पहुंचकर बारी-बारी उनके गिलासों में विस्की डाली आरम्भ कर दी ।
वह सुलेमान के पास पहुंचा ।
उसने सुलेमान का गिलास उठाया और -
उसमें एप्पल जूस डालने की जगह उसे उलटा करके सुलेमान के सामने रख दिया ।
सुलेमान का चेहरा कागज की तरह सफेद पड़ गया ।
ड्रिंक्स के दूसरे राउण्ड में बखिया ने उसे शरीक नहीं किया था ।
सुलेमान उस तिरस्कार का मतलब बखूबी समझता था ।
बखिया वापिस अपनी सीट पर पहुंचा ।
सबसे आखिर में उसने अपने लिए पैग बनाया ।
“बहादुर आदमी की बखिया कद्र करता है ।” - अपने दूसरे पैग में से एक घूंट भरने और सिगार का एक लम्बा कश लगाने के बाद बखिया बोला - “सोहल के कारनामों का वैसे ही बखिया पर बड़ा रौब है । अगर उसने ‘कम्पनी’ की तरफ अपनी मैली आंख ने उठाई होती तो ‘कम्पनी’ में बखिया उसका इस्तकबाल करता और उसे गले लगाकर उससे मिलता, लेकिन अब” - बखिया, जो अच्छा-भला टिककर बैठ गया था, फिर उठकर खड़ा हो गया - “वह बखिया का दुश्मन नम्बर एक है । बखिया के पांच ओहदेदारों का कत्ल करके, उसके पांच ठिकानों पर वार करके सोहल अब बम्बई में तो क्या, इस धरती पर जिन्दा नहीं रह सकता ।” - उसने अपने एक हाथ में थमे सिगार की ऐशट्रे में डालकर यूं मसला जैसे वह सोहल का दिल मसल रहा हो । उसने विस्की का गिलास एक ही घूंट में खली किया और फिर गिलास को इतने जोर से अपने असाधरण आकार के हाथ की मुट्ठी में दबाया कि गिलास एक चटाख की आवाज के साथ टूट गया और टूटा कांच उसकी हथेली को कई जगह बींध गया ।
हथेली में से खून बहने लगा ।
उसने अपना खून बहता खुला हाथ सिर से ऊपर उठाकर अपने ओहदेदारों के सामने फैला दिया ।
सब आतंकित भाव से उस हाथ को देखने लगे जिसमें से खून की बूंदें अब मेज पर टपकने लगी थीं ।
“कसम है बखिया को अपने पुरखों की !” - बखिया ने एक खून जमा देने वाली हुंकार भरी - “वह सोहल की वो मैली आंख नोच लेगा जो ‘कम्पनी’ की तरफ उठी, वह वो हाथ काट देगा जो कम्पनी के ओहदेदारों के लिए मौत का फरमान बने, वह सोहल की बोटी-बोटी काटकर चील-कौवों को खिला देगा, वह सोहल की और सोहल के हिमायतियों की हस्ती मिटा देगा । बखिया का दुश्मन ऐसी मौत मरेगा कि देखने-सुनने वालों को इबरत हासिल होगी । और मरने से पहले वह खून के आंसू रोएगा ।”
हॉल में मरघट का सा सन्नाटा छा गया ।
बहुत अरसे बाद बखिया के ओहदेदारों ने उसे इतने भयंकर गुस्से में देखा था ।
दो राउण्ड में ओल्ड समगलर की पहली बोतल खाली हो चुकी थी ।
रोडरीगुएज अपने स्थान से उठा ।
साइड टेबल पर पड़ी बोतलों में से एक बोतल उठाकर उसने उसे खोला और बखिया के समीप पहुंचा ।
उसने बखिया के गिलास में विस्की डाली ।
उसने सोडा साइफन की तरफ हाथ बढाया तो बखिया ने बड़े बेसब्रेपन से हाथ हिलाकर उसे रोक दिया ।
रोडरीगुएज बाकी लोगों की विस्की सर्व करने लगा ।
जब तक वह टेबल का घेरा काटकर बखिया के पास वापिस लौटा, बखिया अपना गिलास खाली कर चुका था । उसने दोबारा गिलास में विस्की डाल दी ।
बखिया को गिलास की तरफ हाथ बढाता न पाकर उसने सिगार का डिब्बा खोलकर उसमें से एक सिगार निकाला । सिगार का कोना काटकर उसे उसने बखिया को पेश किया ।
बखिया ने सिगार ले लिया ।
रोडरीगुएज ने बड़े अदब से सिगार सुलगा दिया ।
बखिया सिगार के कश लेने लगा ।
फिर उसने रोडरीगुएज को बैठ जाने का संकेत किया ।
रोडरीगुएज अपनी कुर्सी पर जा बैठा ।
अन्त में बखिया ने ही स्तब्धता भंग की ।
“कोई साहब बता सकते हैं” - वह बोला - “कि आज की तारीख में सोहल को कहां और कैसे तलाश किया जा सकता है ?”
किसी के पास बखिया के सवाल का जवाब नहीं था ।
बखिया को पैनी निगाह सह बपर से भटकती हुई रोडरीगुएज पर आकर टिक गई ।
“वह सुबह आठ बजे मुझे टेलीफोन करेगा ।” - रोडरीगुएज बोला - “हम यह पता लगाने की कोशिश कर सकते हैं कि उसकी कॉल कहां से आई थी ।”
“ऐसे पता” - इकबालसिंह बोला - “घटिया जासूसी नाबलों में ही लगाया जा सकता है । आटोमैटिक एक्सचेंज मे कॉल हो जाने के बाद किसी के फरिश्ते नहीं बता सकते कि कॉल कहां से आयी थी ।”
“लेकिन” - जोशी बोला - “कॉल होते होते में पता लगाया जा सकता है कि कॉल कहां से की जा रही थी । पुलिस वाले ऐसा अक्सर करते हैं ।”
“करते हैं” - इकबालसिंह बोला - “लेकिन टेलीफोन एक्सचेंज की मदद से । एक्सचेंज में से कॉल के चालू रहते यह बताया जा सकता है कि कौन से नम्बर ने कौन से नम्बर को रिंग किया है ।”
“एक्सचेंज की ऐसी मदद क्या हमें नहीं हो सकती ?” - बखिया बोला ।
“हो सकती है ।” - रोडरीगुएज पूरे विश्वास के साथ बोला - “होगी ।”
“लेकिन उसमें हमें क्या हासिल होगा ?” - अमीरजादा आफताब खान बोला - “इतने बड़े बम्बई शहर में से कॉल कहीं से भी हुई हो सकती है । हम सारी बम्बई के टेलीफोनों की रखवाली पर आदमी नहीं बिठा सकते ।”
“वह चालाक आदमी है ।” - शान्तिलाल बोला - “कॉल वह जरूर पब्लिेक टेलीफोन से ही करता होगा ।”
“क्या हम सारे पब्लिक टेलीफोन पर पहरा नहीं बिठा सकते ?” - बखिया बोला ।
“पहरा बिठाना तो दूर” - इकबालसिंह बोला - “कल सुबह आठ बजे तक तो हम यहीं नहीं मालूम कर सकते कि बम्बई में पब्लिक टेलीफोन हैं कहां कहां ।”
“उसकी लिस्ट तो” - मैक्सवैल परेरा बोला - “डायरेक्टरी में होगी ।”
“डायरेक्टरी में ?” - इकबाल सिंह सन्दिग्ध स्वर में बोला ।
“हां । जब शहर के हर टेलीफोन का नम्बर डायरेक्टरी में होता हैं, तो पब्लिक टेलीफोनों का भी होता होगा ।”
“डायरेक्टरी मंगाओ ।” - बखिया ने आदेश दिया ।
डायरेक्टरी मंगाई गयी ।
‘कम्पनी’ के सिपहसालार की वहां कमी अब सबको खल रही थी । दण्डवते को ऐसी बातों की जानकारी वैसे ही होती थी ।
डायरेक्टरी में पब्लिक टेलीफोनों की लिस्ट तो थी लेकिन वह लिस्ट हर किसी की उम्मीद से ज्यादा बड़ी थी ।
उसमें छ: हजार से भी ज्यादा पब्लिक टेलीफोनों के नम्बर अंकित थे ।
“छोड़ो ।” - बखिया डायरेक्टरी परे उछालता हुआ बोला - “इतने पब्लिक टेलीफोन कवर करने के लिए हमें बीस हजार आदमी चाहियें और फिर हमारे पास ऐसी कोई गारण्टी भी नहीं कि फोन वह पब्लिक टेलीफोन से ही करेगा ।”
सबने सहमति जताई ।
“लेकिन इतना इन्तजाम फिर भी करवाओ कि हमें यह जरूर मालूम हो जाए कि सोहल की कॉल कहां से आई थी । इस प्रकार हम कम से कम वह इलाका तो छनवा सकेंगे जहां कि वह टेलीफोन स्थित होगा ।”
“यह भी तो तभी मुमकिन होगा” - इकबालसिंह बोला - “जब वह रोडरीगुएज के ही फोन पर रिंग करे । होटल में तो अस्सी लाइनें चलतीं है । सारी लाइनों को आनन फानन एक्सचेंज में चैक करना नामुमकिन नहीं तो मुश्किल जरूर होगा ।”
“वह मेरे फोन पर ही रिंग करेगा ।” - रोडरीगुएज बोला - “उसने कहा था ऐसा ।”
“फिर ठीक है ।”
“कमाल है ।” - जोशी बोला - “फिल्मों में और जासूसी नावलों में तो कॉल हो जाने के बाद पुलसिया या जासूस टेलीफोन एक्सचेंज में रिंग करके पूछता है कि कॉल कहां से आई थी और उसे फौरन बता दिया जाता है कि कॉल फलां जगह से आई थी ।”
“किसी का बाप नहीं बता सकता ।” - इकबालसिंह बोला - “कॉल करने वाले के एक बार सम्बन्ध विच्छेद कर देने के बाद खुदा नहीं बता सकता कि कॉल कहां से आई थी ।”
“फिल्मी और जासूसी लेखक फिर ऐसा कैसे दिखाते हैं ?”
“गलत दिखाते हैं । कमअक्ली की वजह से दिखाते हैं । ऐसा बाबा आदम के जमाने में तब मुमकिन हुआ करता था जब बड़े शहरों में भी ‘नम्बर प्लीज’ मार्का मैनुअल एक्सचेन्ज होते थे । तब कॉल आटोमेटिक मशीनरी की जगह टेलीफोन आपरेटर हाथ से कनैक्ट करती थी और तब इस बात की संभावना होती थी - माइण्ड इट, तब भी सिर्फ संभावना होती थी - कि बाद में शायद ऑपरेटर को फोन करने वाले का नम्बर याद रह गया हो या अभी तक उसने अपने स्विच बोर्ड पर उसके छेद में से कार्ड न खींची हो । तब तो...”
“खतम करो ।” - बखिया बोर होता हुआ बोला ।
इकबालसिंह खामोश हो गया ।
“उस लड़की की गिरफ्तारी की खबर लगने पर जैसा सोहल तड़पा है” - बखिया धीरे से बोला - “उसको निगाह में रखकर सोचा जाए तो हमारे हाथ से सोहल के खिलाफ इस्तेमाल किया जा सकने वाला तुरुप का एक बहुत बड़ा पत्ता निकल गया ।”
रोडरीगुएज ने सहमति में सिर हिलाया ।
“लड़की को” - शान्तिलाल बोला - “पुलिस के पंजे से छुड़ाने की...”
“कोशिश करना भी हिमाकत होगी ।” - बखिया बोला - “साहबान, बखिया की यहां से गैरहाजिरी के दौरान जितनी हिमाकतें और बेहूदगियां फैलाई गयी हैं, उनमें इत्तफाकिया एक समझदारी की बात फिर भी हो गयी है ।”
सबकी प्रश्नसूचक निगाहें बखिया की तरफ उठ गयीं ।
“यह बहुत अच्छा हुआ कि सोहल को यह नहीं मालूम कि लड़की हमारे हाथ से निकल चुकी है । उसका उस भुलावे में रहना हमारे हक में अच्छा है । इस प्रकार हमारा उससे सम्पर्क तो बना रहेगा । हम तो उससे सम्पर्क कर नहीं सकते । लेकिन लड़की के चक्कर में वह लाजमी तौर पर हमसे सम्पर्क बनाये रखेगा, इस तरह कभी तो हमें उसका कोई सुराग मिलेगा । कभी तो वह हमारे काबू में आयेगा । आखिर कब तक खैर मनाएगी बकरे की मां ?”
“लेकिन” - खान बोला - “अगर कल ही सोहल की सहेली की पुलिस द्वारा गिरफ्तारी की खबर अखबार में छप गयी तो ?”
“अपने अल्ला मियां से” - बखिया शुष्क स्वर में बोला - “दुआ मांगिए कि ऐसा न हो ।”
खान हड़बड़ाकर चुप हो गया ।
उसके बाद मीटिंग बर्खास्त हो गयी ।
विदा के समय बखिया ने सबसे हाथ मिलाया ।
- सिवाय मुहम्मद सुलेमान के ।
उस रात मुहम्मद सुलेमान को पहले तो नींद ही न आई और जब नींद आई तो उसे बहुत ही डरावना सपना आया ।
सपने में उसने देखा कि उसके सुइट का दरवाजा खटखटाया जा रहा था ।
उसने उठकर दरवाजा खोला तो उसने अपने सामने बखिया और रोडरीगुएज को खड़ा पाया ।
दोनों ने बड़े अदब से उसका आभिवादन किया ।
“तुम शहनशाह हो ।” - बखिया बोला ।
“तुम शहनशाहों के शहनशाह हो ।” - रोडरीगुएज बोला ।
दोनों ने झुक-झुककर उसे फर्शी सलाम किये, उसकी सेहत के लिए जाम पिये, उसकी काबलियत और दानिशमन्दी की तारीफों के पुल बांध दिये ।
“चलिए !” - फिर बखिया बोला ।
“और चलकर अपनी बादशाहत संभालिये !” - रोडरीगुएज बोला ।
उन्होंने सुलेमान के लिए नया सूट निकाला और उसे पहनने में उसकी मदद की । बखिया ने उसके गले में टाई बांधी तो रोडरीगुएज ने उसके जूतों के तसमे बांधे ।
फिर दोनों ने अपने हाथों में लेकर हीरे-जवाहरात से झिलमिलाता एक ताज उसके सिर पर रखा ।
फिर वे वहां से रवाना हुए ।
दो वफादार भृत्यों की तरह वे दोनों उसके दाएं-बाएं चल रहे थे ।
नीचे एक हवाई जहाज जैसी कार खड़ी थी ।
बखिया ने खुद उसके लिए कार का दरवाजा खोला ।
दोनों उसके साथ कार में सवार हुए । वह उन दोनों के बीच में बैठा ।
रोडरीगुएज ने दरवाजे में लगा एक बटन दबाया तो अगली सीट के पृष्ठ भाग में से निकलकर उनके सामने एक बार प्रकट हुआ ।
रोडरीगुएज ने उसके लिए जाम तैयार किया ।
बखिया ने उसे सिगार पेश किया ।
कार मालाबार हिल के सबसे ऊंचे मकान पर पहुंची ।
वहां सोने-चांदी की छतों और दीवारों वाला एक विशाल महल बना हुआ था ।
महल के एक विशाल हाल में सैंकड़ों लोग मौजूद थे जो उसे देखते ही उसकी जय-जयकार करने लगे ।
वे ‘सुलेमान ! सुलेमान !’ पुकार रहे थे लेकिन सुलेमान को वे ‘सुलतान ! सुलतान !’ कहते लग रहे थे । गर्दन की हल्की-सी जुम्बिश के साथ उनके अभिवादनों का जवाब देता हुआ सुलेमान उनके बीच में से गुजरता चला गया और हाल के पृष्ठभाग में मौजूद एक ऊंचे राज-सिंहासन पर जा बैठा ।
बखिया और रोडरीगुएज हाथ बांधे उसके दाएं-बाएं खड़े हो गए ।
हाल की एक विशाल खिड़की से उसने बाहर झांका तो उसे सारा बम्बई शहर अपने कदमों पर लोटा दिखाई दिया ।
“सब तुम्हारा है ।” - बखिया बोला ।
“सबका सब तुम्हारा है ।” - रोडरीगुएज बोला ।
“तुम शहनशाह हो ।” - बखिया बोला ।
“तुम शहनशाहों के शहनशाह हो ।” - रोडरीगुएज बोला ।
“सुलेमान ! सुलेमान !” हाल में जमा लोगों ने उसके नाम के नारे लगाए ।
“सुल्तान ! सुल्तान !” - उसे सुनाई दिया ।
फिर रोडरीगुएज ने उसके हाथ में एक सोने का जाम थमा दिया ।
बखिया ने एक चांदी की सुराही में से उसमें मदिरा डाली ।
“पियो ! पियो !”
सुलेमान ने मदिरा पीकर जाम हाल में लोगों की भीड़ के बीच उछाल दिया ।
“अपना दायां हाथ ऊंचा करो ।” - रोडरीगुएज बोला ।
सुलेमान ने दायां हाथ उठाया ।
बखिया ने उसके खुले हाथ की हथेली में एक चाकू घोंप दिया ।
हाथ में से खून का फव्वारा बह निकला ।
रोडरीगुएज खून को एक पतीले के आकार के जाम में जमा करने लगा ।
“कसम खाओ ।” - बखिया बोला - “कसम खाओ अपने पुरखों के खून की ।”
पूरा जाम उसके खून से भर गया तो रोडरीगुएज ने उसे जबरन सुलेमान के होठों से लगा दिया और बोला - “पियो ! पियो !”
वह न पी सका ।
रोडरीगुएज ने सारा खून उसके सिर पर उलट दिया ।
उसका ताज, उसका सिर, उसके खून से - उसके अपने खून से-रंग गया ।
फिर रोडरीगुएज ने उसकी तरफ एक तलवार बढाई और बखिया की तरफ इशारा करता हुआ चिल्लाया - “इसका गला काट दो ।”
बखिया ने उसकी तरफ एक गंडासा बढाया और रोडरीगुएज की तरफ इशारा करता हुआ चिल्लाया - “इसके टुकड़े-टुकड़े कर दो ।”
सुलेमान ने बखिया का गला काट दिया ।
सुलेमान ने रोडरीगुएज के टुकड़े-टुकड़े कर दिए ।
लोगों ने हर्ष-ध्वनि की, जोर-जोर से तालियां बजायीं ।
फिर भीड़ में से एक आदमी निकला और उसके सामने आ खड़ा हुआ ।
वह अमीरजादा आफताब खान था ।
वह यूं हंस रहा था जैसे वह सुलेमान की खिल्ली उड़ा रहा हो ।
सुलेमान ने तलवार के एक ही वार से उसका सिर धड़ से अलग कर दिया । खान का सिर उसके धड़ से कोई दस गज परे जमीन पर जाकर गिरा और जोर-जोर से अट्टाहास करने लगा ।
धड़ नाचने लगा ।
सुलेमान ने गंड़ासे से उसके धड़ के टुकड़े-टुकड़े कर दिए ।
हर टुकड़ा अलग-अलग नाचने लगा ।
खान का कटा सिर और जोर-जोर से अट्टाहास करने लगा ।
फिर खान का सिर सोहल का सिर बन गया और अट्टाहासों की आवाजें सारे हाल को गुंजाने लगीं ।
फिर धड़ के सारे टुकड़े इकट्ठे होकर जुड़ गए और सिर भी धड़ से जा लगा ।
अब उसके सामने सोहल खड़ा था ।
“मैं सोहल हूं ।” - वह बोला ।
“मैं सुलतान हूं ।” - सुलेमान बोला ।
“तुम सुलेमान हो ।” - बखिया और रोडरीगुएज के कटे सिर सम्वेत स्वर में बोले ।
“तुम फेल हो गए ।” - सोहल बोला ।
“तुम नालायक सुलेमान हो ।” - बखिया बोला ।
“तुम नामाकूल सुलतान हो ।” - रोडरीगुएज बोला ।
बखिया ने उसके सिर से ताज उतार दिया ।
रोडरीगुएज ने उसे कान पकड़कर तख्त पर से खड़ा कर दिया ।
सोहल के हाथ में एक भूरे रंग का लिफाफा प्रकट हुआ । उस लिफाफे में से उसने एक दरांती निकाली । उस दरांती से उसने यं सुलेमान के कन्घों पर से उसका सिर उतार लिया जैसे खीरा काटा हो । उसने दरांती फेंक दी और उसका सिर भूरे लिफाफे में रख दिया । उसने लिफाफा बखिया की तरफ बढाया ।
बखिया ने कृतज्ञताज्ञापन करते हुए लिफाफा ले लिया और उसे रोडरीगुएज को थमा दिया ।
फिर बखिया और सोहल एक-दूसरे की बांहों में बांहों में बांहें डाल कर नाचने लगे ।
रोडरीगुएज तख्त पर बैठ गया । ताज उसने पने सिर पर रख लिया । उसने अपने कोट की जेब में से एक लम्बी सलाई निकाली और उससे सुलेमान के लिफाफे में रखे सिर में छेद करने लगा ।
फिर वह बच्चे की तरह किलकारियां मारता हुआ यूं सुलेमान का भेजा निकाल-निकालकर खाने लगा जैसे पाप कार्न खा रहा हो ।
सुलेमान चिहुंककर उठा ।
उसका सारा जिस्म पसीने से नहाया हुआ था । उसकी कनपटियों में खून बज रहा था और उसका दिल धाड़-धाड़ उसकी पसलियों के साथ टकरा रहा था ।
उसने अपनी कनपटियां थाम लीं और यह जानते-समझते हुए कि उसने सपना देखा था, अपने सिर को हिला-हिलाकर तसदीक की कि वह उसके धड़ पर सलामत था ।
बाकी की रात उसकी पलक न झपकी ।

वह आंख भी झपकाता था तो उसे अपना कटा हुआ सिर सोहल के हाथ में थमे भूरे लिफाफे में दिखाई देता था ।