एक अगस्त 2021

औसत रफ़्तार से दौड़ती काले रंग की एक मर्सडीज कार कालका जी के इलाके में दाखिल हुई और लंबी चौड़ी गलियों से होती हुई एक दो मंजिला बंगले के सामने जाकर खड़ी हो गयी।

गेट के बाईं तरफ गार्ड के लिए पान के खोखे जैसा दिखने वाला एक केबिन बना हुआ था, जबकि दाईं तरफ को दीवार में मोल्ड कर के एक नेम प्लेट लगाई गयी थी, जिस पर मोटे अक्षरों में लिखा था- ‘अंबानी हाउस’। उसके नीचे ‘सत्यप्रकाश अंबानी’, फिर मकान का पता, ‘डी-2, कालकाजी, नयी दिल्ली, 110019’ लिखा गया था।

वह इमारत आठ हजार स्क्वायर फीट में बनाई गयी थी, जिसकी भव्यता आते जाते लोगों के लिए अक्सर कौतुहल का विषय बन जाती थी। फिर बात चाहे बाउंड्री वॉल के परकोटों की हो, स्टील के विशाल फाटक के डिजाइन की हो, या भीतर खड़ी की गयी इमारत की, सब-कुछ एकदम खास दिखाई दे रहा था।

ऐसा, जिस पर आँखें ठहरकर रह जायें।

मर्सडीज को बंगले के सामने रूकता देखकर भीतर बैठे दो हथियारबंद, वर्दीधारी गार्ड तुरंत केबिन से बाहर निकल आये और ये देखे बिना ही एक सेल्यूट ठोंक दिया कि कार में बैठकर वहाँ कौन पहुँचा था। प्रत्यक्षतः उन दोनों ने मेहमान को नहीं बल्कि उसकी गाड़ी को इज्जत दी थी, क्योंकि मेहमान की शक्ल दिखाई देनी तो अभी बाकी थी।

उसी वक्त पिछला विंडो ग्लास डाउन होने लगा। फिर जैसे ही गार्ड्स की निगाह भीतर बैठे शख्स पर पड़ी उनका हाथ एक बार फिर मशीनी अंदाज में सिर तक पहुँच गया।

“अंबानी साहब हैं भीतर?” आगंतुक ने पूछा।

“जी हैं।”

“मुझे पहचानते हो?”

“सॉरी सर, नहीं पहचानते।”

“भीतर खबर करो कि मौर्या साहब आये हैं।”

“अभी करता हूँ सर।” कहकर एक गार्ड वापिस केबिन में घुस गया।

मौर्या इंतजार करने लगा।

थोड़ी देर बाद केबिन में गया गार्ड वापिस लौटा और बिना एक शब्द बोले फाटक को पूरा का पूरा खोलते हुए उन्हें गाड़ी भीतर ले जाने का इशारा कर दिया।

सामने करीब पचास मीटर लंबा ड्राईव वे था, जिसके आखिरी सिरे पर बने पोर्च को देखकर लगता था जैसे वह अभी-अभी बनकर तैयार हुआ हो, कम से

कम पेंट तो एकदम नया ही जान पड़ता था।

कंपाउंड में दो हथियारबंद गार्ड और नजर आ रहे थे, मगर उन लोगों ने मर्सडीज की तरफ निगाह उठाकर देखने की भी कोशिश नहीं की।

ड्राईवर ने पोर्च के नीचे ले जाकर गाड़ी खड़ी कर दी, जहाँ पहले से दो कारें मौजूद थीं। उनमें से एक लाल रंग की फरारी थी और दूसरी ऑरेंज कलर की लैम्बॉर्गिनी।

गाड़ी रोकते के साथ ही ड्राईवर नीचे उतरा और पिछला दरवाजा खोलकर खड़ा हो गया।

मैरून कलर के सूट में सजे-धजे निशांत मौर्या ने मर्सडीज से बाहर कदम रखा तो सबसे पहले उसकी निगाह वहाँ खड़ी लैम्बॅर्गिनी पर ही गयी। उसने बड़ी अजीब निगाहों से गाड़ी को देखा।

‘ठाठ में रहना तो कोई इस अंबानी के बच्चे से सीखे।’ बड़बड़ाते हुए उसने सामने जमीन के लेबल से दो फीट की ऊंचाई पर बने चबूतरे की तरफ देखा फिर उसकी निगाहें लकड़ी के नक्काशीदार दरवाजे पर जाकर ठिठक गयी, जो कि उस वक्त भी बंद ही दिखाई दे रहा था।

मौर्या की उम्र पैंतालिस के आस-पास थी, मगर पतली दुबली देहयष्टि के कारण चालीस से ज्यादा का नहीं लगता था। ऊपर से सज संवरकर रहने की आदत थी, इसलिए भी उम्र के कई साल छिप जाया करते थे।

सूरत से बेहद सीधा सादा नजर आता था, जबकि उससे ज्यादा काइयां आदमी ढूंढे से भी नहीं मिलता। और पहनावा ऐसा कि दूर से देखकर ही लगने लगता था कि उसको संभ्रांत होने की सनद हासिल थी, जबकि अपनी जिंदगी में कई छोटे-मोटे जुर्म कर चुका था, जिसकी आज तक किसी को हवा भी नहीं लगी थी।

वह ‘हेल्थ फॉर्मा’ के नाम से जानी जाने वाली दवाइयों की एक कंपनी का मालिक था, जिसकी वैल्यू पिछले दो सालों से लगातार नीचे गिरती जा रही थी। यही वह चिंता का विषय था, जिसने मौर्या के होश उड़ा रखे थे और यही वह कारण था, जिसने उसे अंबानी के दर पर पहुँचने को मजबूर कर दिया था।

चबूतरे पर पहुँचकर वह दरवाजे पर दस्तक देने ही जा रहा था कि तभी दरवाजा खुल गया। सामने ब्लैक कलर का सूट पहने अनंत गोयल खड़ा था, जो कि सत्यप्रकाश अंबानी का पीए था।

“नमस्कार मौर्या साहब।” गोयल मुस्कराया।

“नमस्कार भई, तुम्हारे साहब कहाँ हैं?”

“यहीं हैं, आइए।” कहकर वह दरवाजे से परे हटकर खड़ा हो गया।

बड़े ही शान से चलता हुआ मौर्या भीतर दाखिल हुआ और सामने सोफे पर बैठे अंबानी की तरफ बढ़ चला, जिसने उसे देखकर भी अनदेखा कर दिया था। उठकर उसका स्वागत तक करने की फॉर्मेलिटी निभाना जरूरी नहीं समझा।

सत्यप्रकाश अंबानी की उम्र अड़तालीस साल थी, कद पांच फीट दस इंच, सूरत बेहद आम, मगर रौब से भरा हुआ और रंगत खूब गोरी थी। बाकी दौलतमंद तो वह था ही। बल्कि मौर्या की हैसियत से उसकी हैसियत की तुलना की जाती तो अंबानी राजा था और मौर्या रंक, जो कि आज भिखारी बनकर ही उसके दरवाजे पर हाजिरी लगाने पहुँचा था।

निशांत मौर्या की ही तरह अंबानी भी दवाइयों की एक बड़ी कंपनी का मालिक था, जो कि ‘यूनिवर्सल फॉर्मास्यूटिकल्स प्राइवेट लिमिटेड’ के नाम से जानी जाती थी। उसका ऑफिस साउथ दिल्ली के भीकाजी कामा प्लेस की एक बिल्डिंग में था, जबकि फैक्ट्री ओखला फेज वन के इलाके में कहीं स्थित थी।

साथ ही साथ अंबानी एक नर्सिंग होम का भी मालिक था, जो कि कालका जी के ही इलाके में उसके घर से महज एक किलोमीटर की दूरी पर स्थित था। दोनों ही धंधे ऐसे थे, जिनसे वह चांदी नहीं बल्कि गोल्ड काट रहा था, डायमंड काट रहा था।

सत्यप्रकाश ने मौर्या को बैठने का इशारा किया फिर अपने पीए की तरफ देखता हुआ बोला- “बैठ जा भाई, तू क्यों खड़ा है मेरे सिर पर?”

“थैंक यू सर।” कहकर गोयल ने एक चेयर संभाल ली।

प्रत्यक्षतः मौर्या को वहाँ देखकर सत्यप्रकाश अंबानी को कोई खुशी नहीं हुई थी, मगर हैरानी की बात ये थी कि अपने मन के भावों को उसने छिपाने की भी कोशिश नहीं की, जैसा कि आमतौर पर लोग बाग कर जाया करते हैं।

“कोई चाय पानी मंगाई जाये तुम्हारे लिये?” उसने पूछा।

कहने का अंदाज कुछ ऐसा था कि मौर्या चाहकर भी हाँ नहीं बोल पाया। उसकी जगह कोई और भी होता तो शायद नहीं ही बोल पाता। फिर वह चाय पीने थोड़े ही आया था वहाँ।

“नहीं, जरूरत नहीं है।” मौर्या जबरन मुस्कराता हुआ बोला – “मैं जानता हूँ तुम बहुत बिजी आदमी हो इसलिए ज्यादा वक्त नहीं लूंगा तुम्हारा, मगर इतना जरूर चाहता हूँ कि जो थोड़ा सा वक्त हासिल है मुझे, उसमें मुझे सम्मान दो। यूँ मत पेश आकर दिखाओ जैसे तुम्हारे दरवाजे पर कोई खुजली का मारा कुत्ता पहुँच गया हो।”

सत्यप्रकाश सकपकाया, फिर जबरन हो-हो कर के हँसता हुआ बोला- “कैसी बात करते हो, अगर सम्मान नहीं देना होता तो मिलने का वक्त भी नहीं दिया होता मैंने। खामख्वाह की बातें मत सोचा करो।”

“थैंक यू।”

“अब बोलो क्यों मिलना चाहते थे?”

“कुछ याद दिलाना चाहता था। कुछ ऐसा, जिसे तुम भूल चुके हो, या फिर जानबूझकर भूल गया होने की एक्टिंग कर रहे हो।”

“पहेलियां मत बुझाओ यार, साफ-साफ कहो, जो कहना चाहते हो।”

“साल भर पहले तुम्हारे पिता जी ने मेरे साथ एक करार किया था, और वह करार ये था कि हेल्थ फॉर्मा और यूनिवर्सल फॉर्मा आने वाले वक्त में यूनिवर्सल हेल्थ फॉर्मा के रूप में एक इकाई बन जायेंगी, ना कि आज की तरह दोनों कंपनियों को अलग-अलग नामों से जाना जायेगा।”

“तुम थोड़ा गलत बोल गये, मैं संसोधित करता हूँ। डैडी ने तुम्हारा साथ ऐसा कोई बिजनेस एग्रीमेंट किया नहीं था मौर्या, बल्कि करने वाले थे, जो कि इसलिए किसी सिरे नहीं लग पाया क्योंकि उससे पहले ही अपनी जरूरत को देखते हुए भगवान् ने उन्हें अपने पास बुला लिया था।”

“नहीं, ये पूरा सच नहीं है। डील महज साइन भर होनी बाकी थी, वरना पेपर्स तो सब तैयार कराये जा चुके थे। कंपनी में किसकी कितनी हिस्सेदारी होगी, ये तक फाइनल हो चुका था और ये बात तुम खुद भी अच्छी तरह से जानते हो।”

“पेपर्स का क्या है भई।” अंबानी बड़े ही लापरवाह अंदाज में बोला – “अभी मैं टाटा ग्रुप को खरीदने के लिए कागजात तैयार करा लूं, तो क्या कल को रतन टाटा साहब अपनी कंपनी को बेचने के लिए तैयार भी हो जायेंगे, सिर्फ इसलिए कि पेपर्स तैयार हो चुके हैं, उन्हें जाया होने देना ठीक बात नहीं होगी?”

“दोनों बातें एक ही नहीं है सत्य। हमारे मामले में तुम्हारे डैड पूरी तरह तैयार बैठे थे, अफसोस कि अनुबंध साइन कर पाने से पहले ही उनका देहावसान हो गया, वरना आज मैं तुम्हारे सामने बैठा उस बात की याद नहीं दिला रहा होता।”

“फिर तो यही कहूँगा कि अच्छा ही हुआ, जो डैडी वैसी कोई डील कर पाने से पहले ही दुनिया से निकल लिये, वरना सिवाये पछताने के और हासिल भी क्या हो सकता था उन्हें।” कहकर उसने एक गहरी सांस ली फिर बोला – “बिजनेस को जज्बातों के हवाले होकर नहीं, नफा-नुकसान विचार कर किया जाता है निशांत। तुम्हारी कंपनी हमारी कंपनी में शामिल हो जाती है तो इसमें सिर्फ और सिर्फ तुम्हारा मुनाफा है, हमें भला क्या हासिल होगा? और जब कुछ होगा ही नहीं तो हम भला वैसा कोई कदम क्यों उठाने लगे?”

“तुम अपने बड़ों की मान रखना नहीं जानते?”

“नहीं, मैं नहीं जानता।” अंबानी का लहजा थोड़ा खिन्न हो उठा – “वह बात तो तुम पिता जी के साथ ही खत्म हो गयी समझो। मैं उस किस्म की औलाद हरगिज भी नहीं हूँ, जो अपने बाप की जुबान रखने के लिए अपना वर्तमान खराब कर ले। हमारी कंपनी के ऑनर उस वक्त डैडी थे, वह चाहे जैसा फैसला ले सकते थे, मगर इस वक्त मैं हूँ, जो कि हरगिज भी ऐसा कोई करार नहीं कर सकता। भावुकता के हवाले होकर तो बिल्कुल नहीं।”

“तुम ऑनर नहीं हो सत्य, पार्टनर हो क्योंकि कंपनी में तुम्हारे भाई की भी बराबर की हिस्सेदारी है। मत भूलो कि मैं यही प्रपोजल उसके पास भी लेकर जा सकता हूँ। और कहीं मैं उसे राजी करने में तैयार हो गया तो होगा ये कि तुम्हारे इंकार करने की सूरत में पूरा नहीं तो यूनिवर्सल फॉर्मा का आधा हिस्सा यकीनन हेल्थ फॉर्मा के साथ आकर जुड़ जायेगा।”

“तुम सोचते हो आकाश मेरे खिलाफ जाकर तुम्हारे साथ धंधा करने को तैयार हो जायेगा?”

“समझदार होगा तो क्यों नहीं हो जायेगा?”

“ठीक है, जाकर उससे बात कर के अपनी तसल्ली कर लो। मैं ईश्वर से तुम्हारी कामयाबी की दुआयें जरूर मांगूंगा, अलबत्ता पूरी नहीं होगी इस बात की गारंटी मैं अभी किये देता हूँ।” कहकर उसने पूछा – “और कुछ बोलना है तुम्हें इस बारे में?”

“बस एक आखिरी कोशिश और कर लेने दो।”

“क्या?”

“मैं कोई फिफ्टी-फिफ्टी की बात नहीं कर रहा। तुम ऐसा करो कि सिक्सटी परसेंट शेयर रख लो, बल्कि सिक्सटी फाइव रख लो, मैं थर्टी फाइव पर भी तसल्ली कर लूंगा।”

“जबकि मुझे एट्टी और ट्वेंटी भी घाटे का सौदा दिखाई दे रहा है।”

“अब इतनी भी बुरी हालत में नहीं है हमारी कंपनी।”

“किसे बहलाने की कोशिश कर रहे हो मौर्या, ऐसा नहीं होता तो क्या तुम हमारे साथ आने को मरे जा रहे होते?”

“मरा नहीं जा रहा सत्य। बात सिर्फ इतनी है कि मैं तुम्हारे पिता जी की बहुत इज्जत करता था, इसलिए चाहता हूँ कि उनकी आखिरी ख्वाहिश पूरी हो जाये, जिसकी तुम्हें जरा भी कद्र नहीं मालूम पड़ती।”

“ठीक समझे, मुझे कोई कद्र नहीं है।” वह बड़े ही बेरूखे लहजे में बोला – “इसलिए तुम्हारा वक्त बर्बाद करना भी कोई मायने नहीं रखता। मेरा जवाब कल भी ना में था और आज भी है, बल्कि आगे चलकर पूछोगे तो भी मेरी तरफ से इंकार ही सुनने को मिलेगा।”

“ठीक है, फिर तो बात ही खत्म हो गयी।” वह उठ खड़ा हुआ।

“उम्मीद करता हूँ दोबारा इस मुद्दे पर मेरा वक्त जाया करने की कोशिश नहीं करोगे।”

गेट की तरफ बढ़ते मौर्या ने पलट कर पीछे देखे बिना हौले से गर्दन हिला दी।

‘साला, हरामजादा।’ वह बड़बड़ाता हुआ आगे बढ़ता जा रहा था – ‘सोचता है दुनिया इसके हिसाब से चलती है, जो ये चाहेगा वही होगा। अब देखना मैं क्या करता हूँ। तुझे झुकने पर मजबूर न कर दिया तो मेरा भी नाम निशांत मौर्या नहीं।’

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