कर्नल ज़रग़ाम के दोनों भतीजे अनवर और आरिफ़ रेलवे स्टेशन पर ट्रेन के आने का इन्तज़ार कर रहे थे। गुप्तचर विभाग के सुपरिन्टेंडेण्ट कैप्टन फ़ैयाज़ ने उनके चचा के कहने पर एक आदमी भेजा था जिसे लेने के लिए वे स्टेशन आये थे। गाड़ी एक घण्टा लेट थी।
उन दोनों ने भी कैप्टन फ़ैयाज़ का तार देखा था और आने वाले के बारे में सोच रहे थे।
ये दोनों जवान, सुन्दर, स्मार्ट और पढ़े-लिखे थे। अनवर आरिफ़ से सिर्फ़ दो साल बड़ा था। इसलिए उनमें दोस्तों की-सी बेतकल्लुफ़ी थी और आरिफ़ अनवर को उसके नाम ही से पुकारा करता था।
‘कैप्टन फ़ैयाज़ का तार कितना अजीब था!’ आरिफ़ ने कहा।
‘इस कमबख़्त ट्रेन को भी आज ही लेट होना था!’ अनवर बड़बड़ाया।
‘आख़िर वो किस क़िस्म का आदमी होगा!’ आरिफ़ ने कहा।
‘उँह, छोड़ो! होगा कोई चिड़चिड़ा, बददिमाग़।’ अनवर बोला, ‘कर्नल साहब ख़ामख़ा ख़ुद भी बोर होते हैं और दूसरों को भी बोर करते हैं।’
‘यह तो तुम्हारी ज़्यादती है।’ आरिफ़ ने कहा, ‘इन हालात में तुम भी वही करते जो वो कर रहे हैं।’
‘अरे छोड़ो...! कहाँ के हालात और कैसे हालात....सब उनका वहम है। मैं अक्सर सोचता हूँ कि उन जैसे वहमी आदमी को एक पूरी बटालियन की कमाण्ड कैसे सौंप दी गयी थी...कोई तुक भी है। आख़िर घर में बिल्लियाँ रोयेंगी तो ख़ानदान पर कोई-न-कोई आफ़त ज़रूर आयेगी। उल्लू की आवाज़ सुन कर दम निकल जायेगा। अगर खाना खाते वक़्त किसी ने प्लेट में छुरी और काँटे को क्रास करके रख दिया तो बदशगुनी!...सुबह-ही-सुबह अगर कोई काना आदमी दिखाई दे गया तो मुसीबत!’
‘इस मामले में तो मुझे उनसे हमदर्दी है।’ आरिफ़ ने कहा।
‘मुझे ताव आता है!’ अनवर भन्ना कर बोला।
‘पुराने आदमियों को माफ़ करना ही पड़ता है।’
‘ये पुराने आदमी हैं।’अनवर झल्ला कर कहा, ‘मुझे तो उनकी किसी बात में पुरानापन नहीं नज़र आता, सिवा पुराने ख़यालात के।’
‘यही सही! बहरहाल, वो पिछले दौर की विरासत है।’
तेज़ क़िस्म की घण्टी की आवाज़ से वे चौंक पड़े। यह ट्रेन के आने का इशारा था। यह एक छोटा-सा पहाड़ी स्टेशन था। यहाँ मुसाफ़िरों को होशियार करने के लिए घण्टी बजायी जाती थी। पूरे प्लेटफ़ार्म पर आठ या दस आदमी नज़र आ रहे थे। उनमें नीली वर्दी वाले ख़लासी भी थे जो इतनी शान से अकड़-अकड़ कर चलते थे जैसे वे स्टेशन मास्टर से भी कोई बड़ी चीज़ हों। खाना बेचने वाले ने अपना जालीदार लकड़ी का सन्दूक़ जिसके अन्दर एक लालटेन जल रही थी, मोंढे से उठा कर कन्धे पर रख लिया। पान, बीड़ी, सिगरेट बेचने वाले लड़के ने, जो अभी मुँह से तबला बजा-बजा कर एक अश्लील-सा गीत गा रहा था, अपनी ट्रे उठा कर गर्दन में लटका ली।
ट्रेन आहिस्ता-आहिस्ता रेंगती हुई आ कर प्लेटफ़ार्म से लग गयी।
अनवर और आरिफ़ गेट पर खड़े रहे।
पूरी ट्रेन से सिर्फ़ तीन आदमी उतरे। दो बूढ़े देहाती और एक जवान आदमी जिसके जिस्म पर ख़ाकी गैबरडीन का सूट था। बायें कन्धे पर ग़िलाफ़ में बन्द की हुई बन्दूक़ लटक रही थी और दाहिने हाथ में एक बड़ा-सा सूटकेस था।
ज़्यादा मुमकिन यही था कि इसी आदमी के लिए अनवर और आरिफ़ यहाँ आये थे।
वे दोनों उसकी तरफ़ बढ़े।
‘क्या आप को कैप्टन फ़ैयाज़ ने भेजा है?’ अनवर ने उससे पूछा।
‘अगर मैं ख़ुद ही न आना चाहता तो उसके फ़रिश्ते भी नहीं भेज सकते थे।’ मुसाफ़िर ने मुस्कुरा कर कहा।
‘जी हाँ! ठीक है।’ अनवर जल्दी से बोला।
‘क्या ठीक है?’ मुसाफ़िर पलकें झपकाने लगा।
अनवर बौखला गया। ‘वही जो आप कह रहे हैं।’
‘ओह!’ मुसाफ़िर ने इस तरह कहा जैसे वह पहले कुछ और समझा हो।
आरिफ़ और अनवर ने अर्थपूर्ण नज़रों से एक-दूसरे को देखा।
‘हम आपको लेने के लिए आये हैं।? आरिफ़ ने कहा।
‘तो ले चलिये ना!’ मुसाफ़िर ने सूटकेस प्लेटफ़ार्म पर रख कर उस पर बैठते हुए कहा।
अनवर ने कुली को आवाज़ दी।
‘क्या!’ मुसाफ़िर ने हैरत से कहा, ‘यह एक कुली मुझे सूटकेस समेत उठा सकेगा!’
पहले दोनों बौखलाये, फिर हँसने लगे।
‘जी नहीं!’ अनवर ने शरारती अन्दाज़ में कहा, ‘आप ज़रा खड़े हो जाइए।’
मुसाफ़िर खड़ा हो गया। अनवर ने कुली को सूटकेस उठाने का इशारा करते हुए मुसाफ़िर का हाथ पकड़ लिया, ‘यूँ चलिए!’
‘लाहौल विला क़ूवत!’ मुसाफ़िर गर्दन झटक कर बोला, ‘मैं कुछ और समझा था।’
उसने अनवर और आरिफ़ को सम्बोधित करके कहा, ‘शायद तार का मज़मून तुम्हारी समझ में आ गया होगा?’
आरिफ़ हँसने लगा। लेकिन मुसाफ़िर इतनी संजीदगी से चलता रहा जैसे उसे इस बात से कोई सरोकार ही न हो। वह बाहर आ कर कार में बैठ गये। पिछली सीट पर अनवर मुसाफ़िर के साथ था और आरिफ़ कार ड्राइव कर रहा था।
अनवर ने आरिफ़ को सम्बोधित करके कहा, ‘क्या कर्नल साहब और कैप्टन फ़ैयाज़ में कोई मज़ाक़ का रिश्ता भी है।’
आरिफ़ ने फिर क़हक़हा लगाया। वे दोनों सोच रहे थे कि इस मूर्ख मुसाफ़िर के साथ वक़्त अच्छा ग़ु़ज़रेगा।
‘जनाब का इस्मे-शरीफ़,’ अचानक अनवर ने मुसाफ़िर से पूछा।
‘कलियर शरीफ़।’ मुसाफ़िर ने बड़ी संजीदगी से जवाब दिया।
दोनों हँस पड़े।
‘हाँय! इसमें हँसने की क्या बात!’ मुसाफ़िर बोला।
‘मैंने आपका नाम पूछा था।’ अनवर ने कहा।
‘अली इमरान। एम.एस.सी, पी-एच.डी।’
‘एम.एस.सी, पी-एच.डी.,’ आरिफ़ हँस पड़ा।
‘आप हँसे क्यों? इमरान ने पूछा?
‘ओह...मैं दूसरी बात पर हँसा था।’ आरिफ़ जल्दी से बोला।
‘अच्छा तो अब मुझे तीसरी बात पर हँसने की इजाज़त दीजिए।’ इमरान ने कहा और बेवक़ूफ़ों की तरह हँसने लगा।
वे दोनों और ज़ोर से हँसे। इमरान ने उनसे भी तेज़ क़हक़हा लगाया और थोड़ी ही देर बाद अनवर और आरिफ़ ने महसूस किया जैसे वह ख़ुद भी बेवक़ूफ़ बन गये हैं।
कार पहाड़ी रास्तों में चक्कर काटती आगे बढ़ रही थी।
थोड़ी देर के लिए ख़ामोशी हो गयी। इमरान ने उन दोनों के नाम पूछे थे।
अनवर सोच रहा था कि ख़ासा मज़ा रहेगा। कर्नल साहब की झल्लाहट देखने लायक़ होगी। यह बेवक़ूफ़ आदमी उनका जीना हराम कर देगा और वे पागलों की तरह सिर पीटते फिरेंगे।
अनवर ठीक ही सोच रहा था। कर्नल था भी झल्ले मिज़ाज आदमी। अगर उसे कोई बात दोबारा दुहरानी पड़ती तो उसका पारा चढ़ जाता था। उनका इमरान जैसे आदमी के साथ क्या होगा!
आधे घण्टे में कार ने कर्नल की कोठी तक का सफ़र तय कर लिया। कर्नल अब भी बेचैनी से उसी कमरे में टहल रहा था और सोफ़िया भी वहीं मौजूद थी।
कर्नल ने इमरान को ऊपर से नीचे तक तौलने वाली नज़रों से देखा। फिर मुस्कुरा कर बोला—
‘कैप्टन फ़ैयाज़ तो अच्छे हैं?’
‘अजी तौबा कीजिए! निहायत नामाक़ूल आदमी हैं!’ इमरान ने सोफ़ें पर बैठते हुए कहा। उसने कन्धे से बन्दूक़ उतार कर सोफ़ें के हत्थे से लटका दी।
‘क्यों नामाक़ूल क्यों?’ कर्नल ने हैरत से कहा।
‘बस यूँही।’ इमरान संजीदगी से बोला, ‘मेरा ख़याल है कि नामाक़ूलियत की कोई वजह नहीं होती।’
‘ख़ूब!’ कर्नल उसे घूरने लगा। ‘आपकी तारीफ़?’
‘अजी ही...ही...ही, अब अपने मुँह से अपनी तारीफ़ क्या करूँ।’ इमरान शर्मा कर बोला।
अनवर किसी तरह ज़ब्त न कर सका। उसे हँसी आ गयी और उसके फूटते ही आरिफ़ भी हँसने लगा।
‘यह क्या बदतमीज़ी है!’ कर्नल उनकी तरफ़ मुड़ा।
दोनों यकायक ख़ामोश हो कर बग़लें झाँकने लगे। सोफ़िया अजीब नज़रों से इमरान को देख रही थी।
‘मैंने आपका नाम पूछा था।’ कर्नल ने खँखार कर कहा।
‘कब पूछा था?’ इमरान चौंक कर बोला।
‘अभी,’ कर्नल के मुँह से बेसाख़्ता निकला और वे दोनों भाई अपने मुँह में रूमाल ठूँसते हुए बाहर निकल गये।
‘इन दोनों की शामत आ गयी है।’ कर्नल ने ग़ुस्सायी आवाज़ में कहा और वह भी तेज़ी से कमरे से निकल गया। ऐसा मालूम हो रहा था जैसे वह उन दोनों को दौड़ कर मारेगा।
इमरान बेवक़ूफ़ों की तरह बैठा रहा। बिलकुल ऐसे ही निर्विकार भाव से जैसे उसने कुछ देखा-सुना ही न हो। सोफ़िया कमरे ही में रह गयी थी और उसकी आँखों में शरारती चमक लहराने लगी थी।
‘आपने अपना नाम नहीं बताया।’ सोफ़िया बोली।
इस पर इमरान ने अपना नाम डिग्रियों समेत दुहरा दिया। सोफ़िया के अन्दाज़ से ऐसा मालूम हो रहा था जैसे उसे इस पर यक़ीन न आया हो।
‘क्या आपको अपने यहाँ आने का मक़सद मालूम है?’ सोफ़िया ने पूछा।
‘मक़सद?’ इमरान चौंक कर बोला, ‘जी हाँ, मक़सद मुझे मालूम है, इसीलिए मैं अपनी एयरगन साथ लाया हूँ?’
‘एयरगन!’ सोफ़िया ने हैरत से दुहराया।
‘जी हाँ।’ इमरान ने संजीदगी से कहा, ‘मैं हाथ से मक्खियाँ नहीं मारता।’
कर्नल, जो पिछले दरवाज़े में खड़ा उनकी गुफ़्तगू सुन रहा था, झल्ला कर आगे बढ़ा।
‘मैं नहीं समझ सकता कि फ़ैयाज़ ने बेहूदगी क्यों की?’ उसने सख़्त लहजे में कहा और इमरान को खड़ा घूरता रहा।
‘देखिए, है न...नामाक़ूल आदमी! मैंने तो पहले ही कहा था!’ इमरान चहक कर बोला।
‘आप कल पहली गाड़ी से वापस जायेंगे!’ कर्नल ने कहा।
‘नहीं!’ इमरान ने संजीदगी से कहा, ‘मैं एक हफ़्ते का प्रोग्राम बना कर आया हूँ।’
‘जी नहीं, शुक्रिया!’ कर्नल खिन्न हो कर बोला, ‘मैं आधा मुआवज़ा दे कर आपको विदा करने पर तैयार हूँ। आधा मुआवज़ा कितना होगा?’
‘यह तो मक्खियों की तादाद पर है।’ इमरान ने सिर हिला कर कहा, ‘वैसे एक घण्टे में डेढ़ दर्जन मक्खियाँ मारता हूँ...और...’
‘बस...बस।’ कर्नल हाथ उठा कर बोला, ‘मेरे पास बेकार बातों के लिए वक़्त नहीं!’
‘डैडी...प्लीज़!’ सोफ़िया ने जल्दी से कहा, ‘क्या आपको तार का मज़मून याद नहीं।’
‘हूँ!’ कर्नल कुछ सोचने लगा। उसकी नज़रें इमरान के चेहरे पर थीं जो मूर्खों की तरह बैठा पलकें झपका रहा था।
‘हूँ....तुम ठीक कहती हो।’ कर्नल बोला। अब उसकी नज़रें इमरान के चेहरे से हट कर उसकी बन्दूक़ पर जम गयीं।
उसने आगे बढ़ कर बन्दूक़ उठा ली और फिर उसे ग़िलाफ़ से निकालते ही बुरी तरह बिफर गया।
‘क्या बेहूदगी है!’ वह हलक़ फाड़ कर चीख़ा, ‘यह तो सचमुच एयरगन है।’
इमरान के इत्मीनान में ज़र्रा बराबर भी फ़र्क़ नहीं आया।
उसने सिर हिला कर कहा, ‘मैं कभी झूठ नहीं बोलता।’
कर्नल का पारा इतना चढ़ा कि उसकी लड़की उसे धकेलती हुई कमरे के बाहर निकाल ले गयी। कर्नल सोफ़िया के अलावा और किसी को ख़ातिर में न लाता था। अगर उसकी बजाय किसी दूसरे ने यह हरकत की होती तो वह उसका गला घोंट देता। उनके जाते ही इमरान इस तरह मुस्कुराने लगा जैसे यह बड़ी सुखद घटना हो।
थोड़ी देर बाद सोफ़िया वापस आयी और उसने इमरान से दूसरे कमरे में चलने को कहा।
इमरान ख़ामोशी से उठ कर उसके साथ हो लिया। सोफ़िया ने भी इसके अलावा और कोई बात नहीं थी शायद वह कमरा पहले ही से इमरान के लिए तैयार रखा गया था।
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