वो एक छोटा सा लोहे का दरवाजा था जिससे होकर पार्क में प्रवेश किया जाता था। जिन्हें आश्रम के क्रियाकलापों में रूचि नहीं थी वो यहीं अपना वक़्त गुज़रते थे। शहर में कोई और तरीके का पार्क नहीं होने के कारण स्थानीय लोग भी यहाँ आना पसंद करते थे और ये ओग आश्रम के मुख्या हिस्से को बाईपास कर सीधे पार्क की तरफ बढ़ जाते थे। पार्क में प्रवेश के लिए हाल ही में ५० रूपये का टिकट लगा दिया गया था जिससे वहां आवाजाही कुछ कम हुई थी। इसके प्रवेशद्वार के दाएँ ओर केयरटेकर का कमरा था जिसमें बाथरूम और किचन अटैच्ड थे और वहीँ पर एक टिकट काउंटर बना दिया गया था।
दोनों लाश को उठाकर पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया गया था। यहाँ से धरमशाला फाटक तक पहुँचने में तकरीबन पांच मिनट का वक़्त लगता था। अन्दर अभी भी ४-५ पुलिस तैनात थे साथ ही चबूतरे के पास जो कल रात अद्भुत घटनाक्रम का गवाह बना था, एस पी और एस आई खड़े थे और एक शख्स से पूछताछ कर रहे थे।
दोनों उसी चबूतरे की और बढ़ चले।
शिष्टाचार के आदान प्रदान के बाद महंत जी ने कहा- “इन्हें दिल्ली से स्वास्थय मंत्री जी के रिकमेन्डेशन पर भेजा गया है।”
“क्यों? इसमें स्वास्थ्य मंत्रालय का क्या काम?” एस पी ने घूरा।
“दरअसल जिनकी हत्या हुई है वो स्वास्थय मंत्री जी की कजन होती हैं।”
कन्हैय्या को छोड़ सभी लोग चौंके। पास में खड़ा शख्स जो यकीनन अल्फांसे था विशेष रूप से चौंका था। तो मामला राजनितिक भी होता जा रहा था। एक और व्यक्ति पर उसका ध्यान बार-बार जा रहा था जो कुछ लगभग एक महीने पहले ही आश्रम में आया था जिसका परिचय सभी आश्रम वासी के सामने आचार्य जी ने तिब्बती स्कॉलर ताशी के रूप में कराया था। वो तिब्बत से आकर धर्मशाला के तिब्बती सेटलमेंट में करीब छः महीने रहा था और इसके बाद दलाई लामा का पत्र लेकर यहाँ आया था और भारतीय ध्यान पद्धति सीखना चाहता था। वो एक खुशमिजाज़ शख्स था और कुछ ही दिनों में अपने व्यवहार और तिब्बत के जादुई किस्सों से सबका मन मोह लिया था। अब भी वो पास में ही तीन युवा सन्यासियों को तिब्बती गुरु मिलारेपा की कहानी सुनाने में व्यस्त था।
“इस तरह मिलारेपा ने अपने चाचा से बदला ले लिया। सोचो एक नन्ही सी जान कितना अकेला पर बड़ा जादूगर!”
“एक युवा सन्यासी जिसकी उम्र २५ वर्ष रही होगी ने अविश्वास से कहा- “अरे नहीं, कोई तूफ़ान कैसे पैदा कर सकता है?”
“नहीं सच! हमारी किताबों में लिखा है। उसने यूँ हाथ हिलाया और हर तरफ आंधी तूफ़ान! उसके चाचा का मकान उड़ा ले आया!” फिर आंखें सिकोड़ कर कहा, “दुष्ट था उसका चाचा दुष्ट।”
“पर चच्चा बदला लेना तो बुरी बात है न? ये तो बैड मैनर्स है।”
“सही कहा बेटा इसलिए तो बाद में उसे अफ़सोस हुआ।” एक अनजानी आवाज को सुनकर ताशी ने सर उठाकर देखा तो कन्हैया को सामने खड़ा पाया।
“कौन हो बेटा तुम्हें यहाँ पहले तो नहीं देखा।”
“ऐसा नहीं कहो चाचा, इतनी बार हम लोग मिल चुके हैं। पिछली बार जब हम धर्मशाला गए थे तो बहुत सारी कहानियां सुनी थी आपसे। आप तो भूल ही गए।”
“ताशी के माथे पर बल पड़ गए? वो याद करने की कोशिश करने लगा।”
“युवा सन्यासी अभी भी उसकी कहानियों में उलझा था। आपको जादूगरी आती है ताशी?”
पर ताशी अभी भी याद करने की कोशिश में लगा था और कन्हैय्या आगे बढ़ चुका था। उधर एस पी सचदेवा महंत जी पर भड़क रहा था कि मरने वाली की बाबत उससे हकीक़त क्यों छुपाई गयी और महंत जी उसे बताने में लगे थे की लोकल एस पी महोदय जो भारत के स्वास्थय राज्य मंत्री भी होते थे और उनके विशेष अनुरोध पर खबर को अनावश्यक तूल देने से बचाया जा रहा था।
उधर आश्रम के दोनों फाटकों पर पत्रकारों और टीवी चैनल्स वालों के साथ-साथ स्थानीय वासियों की भीड़ बढती जा रही थी। और पिछले दरवाजे से कोलाहाल का स्वर आसानी से सुना जा सकता था जिधर कन्हैय्या और महंत जी के साथ साथ एस पी महोदय भी बढ़ते जा रहे थे। आधे घंटे में ये खबर सबसे बड़ी खबर बननी थी क्योंकि एक टीवी चैनल के हाथ सेवाराम वाला विडियो लग गया था और वो उसे टेलीकास्ट करने को तैयार थे।
“चलो ताशी बाहर से चाय पीकर आते हैं।” बर्मन नामक एक व्यक्ति जो ताशी का हम उम्र प्रतीत होता था, बोला। ताशी को अकसर बर्मन के साथ ही देखा जाता था।
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“उधर महंत जी चाभी से ताले को बंद करने की असफल कोशिश में लगे थे। माथे पर पसीने की बूँद उभर आयी थी। यकीनन ये मौसम का असर नहीं था।
कुछ देर बाद कन्हैय्या धीरे से महंत जी के कान में फुसफुसाया, “मैंने कहा था न चच्चा, इस चाभी से दरवाजा खुल बंद नहीं होने वाला।”
महंत जी ने पलटकर कन्हैय्या को देखा।
“क्या हुआ महंत जी?” एस पी ने पूछा। “चाभी काम नहीं कर रही?”
“कुछ नहीं एस पी साहब।” जवाब कन्हैय्या ने दिया, “महंत जी बेध्यानी में गलत चाभी लेकर चले आये हैं।” चलिए महंत जी असली चाभी लेकर आते हैं।”
“असली चाभी मेरे पास है।” कन्हैय्या ने महंत जी के कान में बम सा फोड़ा।
यही वो वक़्त था जब ऐसा महसूस हुआ मानों धरती हिल रही हो। कन्हैय्या अपने पैरों के नीचे के कम्पन को महसूस कर सकता था।
“ये क्या हो रहा है चच्चा? इसने तो हमें हिलाकर रख दिया।”
“ये आचार्य जी का बुलावा है। चलिए साधना कक्ष की तरफ चलते हैं।”
कन्हैय्या और एस पी गौतम के समझ में कुछ नहीं आया था फिर भी वो महंत जी के पीछे पीछे चल पड़े।
कुछ ही देर में सभी साधना कक्ष के सामने थे।
वो आनंद का कमरा था और वो हमेशा की तरह कंप्यूटर पर नज़र गडाए बैठा था।
कंप्यूटर के स्क्रीन पर शहर का नक्शा नज़र आ रहा था और कुछ बिंदु उस पर उभर रहे थे।
तो इस तरह यह विडियो मोबाइल नंबर आठ पर ट्रान्सफर हो गया। वो खुद से ही बात कर रहा था।
पहला सेवाराम
दूसरा शरवन
तीसरा सुधीर गुप्ता
चौथा महंत रामदास
पांचवां महामहिम ब्रह्मदेव आचार्य
छठा ताशी
सातवाँ गौतम सचदेवा
आठवां राधा
नौवा कन्हैय्या
दसवा दिवाकर।
हुंह इतने साधारण क्वालिटी के विडियो के लिए इतने मोबाइल को क्यों गन्दा किया जा रहा है!
सबके मोबाइल से इसे डिलीट कर देता हूँ। मज़ा आएगा!
आनंद के एक क्लिक से सारे मोबाइल से वो विडियो डिलीट हो चुका था!
आनंद ने ताली बजाई।
तभी पीछे दरवाजे पर खटका हुआ।
“आइये महंत चाचा।” आनंद बिना देखे ही बोला।
“सारे सीसीटीवी कैमरे सही काम कर रहे हैं न?”
“जी।”
“और रात में जो कैमरे काम नहीं कर रहे थे?”
“उन्हें भी सही कर दिया गया है।”
“कुछ पता चला कि वो कैसे ख़राब हुए थे?”
“जी वो दयाल का हीं काम था।”
“मेरा भी ऐसा हीं ख्याल था। और मोबाइल जैमर सही काम कर रहा है न। उससे तो छेड़-छाड़ नहीं की गयी?”
“वह संभव नहीं है।”
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वो एक विशाल कक्ष था जिसमे बायीं ओर ज़मीन से लगभग तीन फीट ऊँचा एक मंच था और उसके सामने दो सौ के करीब आसन बिछे थे। लगभग ४०-४५ लोग आसन पर पद्मासन में बैठ चुके थे। सभी के शरीर पर नील रंग का चोगानुमा लिबास था जो कमरे में अजीब सी आभा प्रस्तुत कर रहा था। मौजूद लोगों में सात महिलाएं भी थी पर उनके वस्त्र बाकी लोगों जैसा ही थे। शायद ये इस आश्रम का ड्रेस कोड था। कमरे में हल्का सा प्रकाश था। प्रवेश द्वार पर एक सन्यासी मौजूद था जिसने द्वितीय पंक्ति में खाली कुछ आसन की ओर इशारा किया। एस आई गुप्ता को भय था की एस पी कहीं कोई बखेड़ा न करे पर वो भी बिना कोई हुज्ज़त किये एक आसन पर बैठ गया। शायद केंद्रीय मंत्री के इन्वोल्वेमेंट का प्रभाव उस पर पड़ा था।
कम से कम गुप्ता को ऐसा ही लगा था।
मंच पर आचार्य जी विराजमान थे और उनकी दायीं जंघा के नीचे एक पखावज नुमा एक वाद्य यन्त्र था जो लम्बाई में कुछ ज्यादा ही था। आचार्य जी के लम्बे हाथ आराम से उसके दोनों छोरों पर पहुँच रहे थे और हथेलियों की थाप पूरे लय के साथ पखावज के दोनों छोरों पर पड़ रही थी, जो कमरे में विचित्र सा कम्पन प्रस्तुत कर रही थी।
अल्फांसे अगली पंक्ति में बैठा था और उसे ऐसा लग रहा था मानों थाप सीधे शरीर पर पड़ रहा हो!
मस्तिष्क पर, हाथ पर पैरों पर और सबसे विशेष कर अपने नाभि केंद्र पर!
उसे ऐसा लग रहा था मानों नाभि सक्रिय होकर उसके शरीर से बाहर निकल जाना चाहता हो।
रीढ़ की हड्डी बिना किसी प्रयास के बिलकुल सीधी अवस्था में मनों अकड़ गयी हो।
फिर उसे ऐसा लगा मानों सारा तनाव उसके शरीर से बहार निकल रहा हो।
उधर कन्हैय्या का पूरा ध्यान मंच पर बैठे आचार्य जी पर था।
वो किसी साधू टाइप के व्यक्ति का शरीर न होकर एक सुदृढ़ योगी का शरीर था। क़द छह फुट से थोडा भी कम नहीं रहा होगा, गेंहुआ रंग और चेहरे पर अमित आभा से दमक रहा था मानों शरीर के अन्दर प्रकाश यन्त्र फिट कर दिया गया हो। शरीर का उपरी भाग आवरण रहित था, बस कमर से नीचे का भाग श्वेत धोती से यूँ ढका था मानों वो भी शरीर का ही अंग हो। चेहरा क्लीन शेव्ड था पर सर पर लम्बे श्वेत बाल लहरा रहे थे।
मंच पर एक और व्यक्ति मौजूद था जो पीछे एक कोने में बैठा था और सारे कोलाहल से अनजान प्रतीत होता था।
हाल में मौजूद शायद हीं कोई वाद्य यन्त्र के आकाशीय प्रभाव प्रभाव से स्वयं को बचा सका था। लगभग २० मिनट बाद जब आचार्य जी ने अपने हाथों को आराम दिया तो अधिकांश लोगों के आँखों में आंसू थे। कुछ बिलख बिलख कर रो रहे थे और कुछ यूँ स्थिर बैठे थे मानों किसी और लोक में पहुँच गए हों। अल्फांसे जैसे व्यक्ति भी आज आचार्य जी के सम्मोहन से बच नहीं सका था।
कन्हैय्या की दृष्टि ताशी पर घूमी जो अपने आसन पर ही गिरा पड़ा था और बेहोशी की अवस्था में प्रतीत हो रहा था। केवल एस पी सचदेवा पर ही मानों कोई असर नहीं पड़ा था। अपने दोनों हाथ पीछे अडाए आराम से पीछे झुका था।
सबसे अनोखी अवस्था महंत जी की थी जो आचार्य जी के चरणों में गिरा पड़ा था और बिलख बिलख कर रो रहा था।
“उठिए महंत जी, आचार्य जी ने भी उसे उसके सर्वमान्य नाम से ही संबोधित किया था, “स्वयं को दोष देना उतना ही बड़ा अपराध है जितना किसी और को।” आचार्य जी के आवाज में अजीब सी शांति थी, “भुवन मोहिनी एक सिध्द योगिनी थी। उसका चला जाना स्वयं उसके लिए एक महान क्षति है। वो साधना के पथ पर बहुत आगे बढ़ चुकी थी और अगर मृत्यु ने अपना ग्रास नहीं बनाया होता तो इस जन्म में ही वो मृत्यु पर विजय प्राप्त कर लेती।” आचार्य जी सुंसयत स्वर में कहे जा रहे थे।
“तो क्या वो हमारी परंपरा से ही आती थी गुरुदेव?”
“जो साधना के पथ पर होते हैं वो किसी पंथ से बंधे नहीं होते। हाँ ये सही है की पिछले छह महीने से वो हमारे मार्गदर्शन में थी।”
अल्फान्से के लिए ये नयी खबर थी। पिछले महीनों में यहाँ का हर शख्स उसकी नज़र में था पर ये युवती एक बार भी उसकी नज़र से नहीं गुज़री थी।
“वो कौन सी साधना कर रही थी गुरुदेव?” एक शिष्य ने टोका।
“इसके बारे में हम बाद में बात करेंगे। अभी हम एक जिम्मेदार व्यक्ति की तरह एस पी महोदय को वक़्त देना चाहेंगे। ये एक हत्या का केस भी है। साथ ही हमारे एक प्यारे साथी की भी हत्या हुई है। हम चाहेंगे कि दोषी व्यक्ति को सजा मिले।”
“मुझे तो यह किसी राक्षस का कृत्य लगता है गुरुदेव।” गुप्ता बोला, “एक सामान्य व्यक्ति के लिए यह संभव नहीं हो सकता है। मरने के बाद भी उसे नहीं छोड़ा हत्यारे ने। दुर्गति कर दी उसके शरीर की।”
“आत्मोद्धार के लिए कर्म करने वाला मनुष्य कभी दुर्गति को प्राप्त नहीं करता, ऐसा कृष्ण ने कहा है गीता में। बेहोशी में किया गया हर कृत्य गलत होता है। और जो हो चुका है उस पर मंथन करना व्यर्थ की समय बर्बादी है।”
“सभी लोग अपने अपने ध्यान साधना में लग जाएँ। साथ ही सभी लोगों से अनुरोध है कि जहाँ जहाँ आवश्यकता हो पुलिस से पूर्ण सहयोग करें।” कहते हुए आचार्य जी खड़े हो गए थे।
“एस पी महोदय और कन्हैय्या जी आप दोनों हमारे साथ आयें। भुवन मोहिनी के विषय में आप जो भी जानना चाहते हैं मुझसे जान सकते हैं। और आश्रम के विषय में जो भी जानना है उसकी जानकारी नरेन्द्र जी आपको दे देंगे।”
आचार्य जी जाने के लिए मंच से नीचे उतर आये थे फिर पलटे और अपने शिष्यों के मध्य एक पर उनकी निगाह स्थिर हो गयी, पुनः संबोधित हुए।
“आज के कोलहल भरी सुबह में एक बात हम भूल ही गए थे। विगत कुछ दिनों से हम प्रयास कर रहे थे की हमारे मध्य एक योग की शिक्षिका हो। राधा जी एक प्रशिक्षित योग शिक्षिका हैं और अपनी पिछली नौकरी को छोड़कर हमारे आश्रम में आ गयी हैं। प्रतिदिन प्रातः और शाम में सभी आश्रम वासियों को योग का प्रशिक्षण देंगी। संभव है कि मुझे भी इनसे कुछ नया सिखने का अवसर मिलेगा।” आचार्य जी दोनों के साथ बाहार निकल गए।
बाहर निकलने से पहले कन्हैय्या जानबूझकर ताशी के पास से गुज़रा और बुदबुदाया- “ताशी, याद आया कुछ?” कहते हुए वो तेज़ी से बढ़ गया।
साधना कक्ष ने निकालकर अधिकांश लोगों ने आहार कक्ष का रुख किया था।
पर महंत जी के कदम अपने कक्ष की और बढ़ रहे थे। अभी बहुत सारा काम बाकी था। भोजन तो बाद में भी किया जा सकता था।
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उधर लोकल टीवी चैनल वाले परेशान थे। सेवाराम और उसके साथी के मोबाइल से रिकॉर्डिंग पुलिस ने पहले ही डिलीट कर दिया था ताकि वो किसी और को इसे ट्रान्सफर न कर सकें पर शरवन ने अपने दूसरे मोबाइल में उसे ट्रान्सफर कर रख लिया था। सेवाराम के साथी शरवन से पूरे दस हज़ार देकर रिकॉर्डिंग हासिल किया था उन्होंने। पर अब रिकार्डिंग गायब हो चुकी थी। पुनः रिकार्डिंग हासिल करने दौड़े पर रिकार्डिंग दोस्त के पास नहीं थी।
रिकॉर्डिंग तो अब सेवाराम के पास भी नहीं थी।
जिन्होंने रिकॉर्डिंग नहीं देखा था वो मानने को तैयार नहीं होने वाले थे कि सच में ऐसी कोई रिकॉर्डिंग थी भी।
कुछ देर में एस पी और एस आई भी अपना सर धुनने वाले थे इस बाबत।
ऐसी ही हालत बाकियों की भी होने वाली थी।
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एस पी गौतम सचदेवा खुश नहीं था। ऐसा पहली बार उसके साथ हो रहा था जब एक एस पी के तौर पर वो खुलकर काम नहीं कर पा रहा था। शुरू में ही सीधे प्रदेश के डी जी पी सुबह सुबह ही उसे फ़ोन पर कह चुके थे की मामले को जितनी ज़ल्दी हो सके रफा-दफा करना है वरना मामला गंभीर रूप ले सकता है क्योंकि इसमें पब्लिक की धार्मिक भावना आहात हो सकती है।
फिर उस नरेन्द्र से मुठभेड़, ये वो घटना थी जिसे वो याद नहीं करना चाहता था।
“उस पर से ये छोकरा कन्हैय्या जिसे लोग मेरे साथ बराबरी का भाव दे रहे हैं। कमबख्त का टेटुआ दबा दूं तो मुंह से खून की जगह दूध निकल आये।”
मौका मिलने पर सबको देख लूँगा मैं।
और सबसे बढ़कर उसे आचार्य जी के नाम से जाने जाने वाले शख्स से चिढ हो रही थी। और अभी उसे उसी की सेवा में प्रस्तुत होना था।
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अल्फांसे अपने अभूतपूर्व अनुभव से बहुत कुछ बाहर निकल आया था।
अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसे ज़ल्द से ज़ल्द कुछ करना होगा वरना ये आश्रम उसे सच का सन्यासी बनाकर छोड़ेगा। अब तक आश्रम का जुगराफिया पूरी तरह उसके दिमाग में आ गया था और अपने प्लान के मुताबिक एक महीने के अन्दर उसे अपनी मंजिल पा लेनी थी। आचार्य जी तो काफी हद तक उससे खुश थे और आश्रम के क्रियाकलापों के बारे में उससे सलाह लेना भी शुरू कर दिया था। केवल तीन शख्स यहाँ ऐसे थे जो उसके संदेह के घेरे में आते थे। एक तो वो ताशी था जो उससे आंख मिलाने से भी कतराता था जिसके पास जाते ही वो दूर छिटक जाता था। पता नहीं वो उससे क्यों भय खाता था। दुसरे शख्स अर्जुन देव थे जिसे उसने आज तक आचार्य जी के अलावे और किसी से बात करते नहीं देखा था। आचार्य जी भी उसे विशेष इज्ज़त देते थे और हर कार्यक्रम के दौरान उसे मंच पर ही बैठते थे। यह फैसिलिटी पाने वाला वह आश्रम का इकलौता शख्स था।
तीसरा शख्स आनंद था जो अपने घर से शायद ही कभी बाहर निकलता था। केवल एक बार महंत जी ही उसे लेकर उसके घर गए थे जहा आनंद को उसने कंप्यूटर टेबल पर व्यस्त पाया था। पहली नज़र में वो उसे एक पढ़ाकू सा नौजवान लगा था जिसके चेहरे पर एक मोटा गिलास का चश्मा चढ़ा था और केवल एक बार उसने नज़र उठाकर उसे देखा था। अल्फांसे को कुछ ऐसा महसूस हुआ था मानों वो किसी एक्सरे से गुज़र रहा हो। महंत जी के मुताबिक वो आचार्य जी का सबसे बड़ा भक्त था और वो उस पर आंख मूंदकर विश्वास करते थे।
और हमलोगों को उपदेश देते हैं कि किसी पर भी आंख मूंदकर विशवास मत करो।
क्योंकि विश्वास अँधा होता है!
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परेशान तो महंत जी भी थे। ऐसा पहली बार हुआ था जब आचार्य जी ने उनके जाने बिना कोई क़दम उठाया था। हत्प्रान युवती का नाम भुवन मोहिनी था और आचार्य जी उसे करीब तीन महीने से जानते थे।
तो क्या आचार्य जी का उसके प्रति विश्वास कम हो गया था?
आश्रम तो लगभग १८ वर्ष पुराना हो चला था जब स्वामी जयंत देव ने इस आश्रम की स्थापना की थी। आज भी उनकी आदमकद प्रस्तर प्रतिमा साधना कक्ष के पास उनके समाधी स्थल में मौजूद थी। जहाँ तक उसे ज्ञात था आचार्य जी का यहाँ पदार्पण स्वामी जयंत देव के स्वर्गारोहण के एक वर्ष पूर्व हुआ था और अपने जीवनकाल में ही उन्होंने अपना उत्तराधिकारी चुन लिया था। पहले जो एक छोटा सा आश्रम था वो अब एक विशाल क्षेत्र में परिणत हो चुका था और इसका श्रेय आचार्य जी को ही जाता था।
जयंत देव के समय के अभी ५-६ शिष्य ही बचे थे और इनमें सबसे पुराने शिष्य में अर्जुन का नाम आता था। सच्चाई तो ये थी अर्जुन और जयंत देव ने मिलकर इस आश्रम की स्थापना की थी। और कुछ पुराने शिष्यों के अनुसार अर्जुन देव आचार्य जी के अति प्रगतिवादी सोच से खुश नहीं थे पर आश्रम को टूटने से बचने के लिए अक्सर चुप ही रहते थे।
खुद उसे आश्रम में आये चार वर्ष हो चुका था और उसे आश्रम में नियुक्त करने वाले खुद आचार्य जी ही थे।
उसके साक्षात्कार के समय खुद अर्जुन देव भी मौजूद थे और नियुक्ति के समय इन्होंने एक ही बात कही थी।
“एक बात का ध्यान हमेशा रखना, तुम्हारी सेवा आश्रम के लिए है न की किसी व्यक्ति विशेष के लिए। चाहे वो व्यक्ति स्वयं ब्रह्मदेव ही क्यों न हो। अगर कभी तुम्हें आश्रम और आचार्य में से एक को चुनना हो तो आश्रम को ही चुनना। इस आश्रम से मानवता को बहुत सारी अपेक्षाएं हैं। लोग आते जाते रहेंगे पर आश्रम हमेशा बना रहेगा। इस आश्रम पर परम गुरु शिव का सीधा आशीर्वाद है।”
वह अर्जुन देव की बात मानने के लिए बाध्य नहीं था पर उसने जयंत देव की बात को हमेशा सर्वोपरि रखा था।
आज भी वो वही करेगा जो आश्रम के लिए सही है।
और उसके आने के कुछ महीने बाद ही सरस्वती का आगमन हुआ था। उसकी बौद्धिक प्रतिभा अद्भुत थी। वाणी में तो सचमुच सरस्वती का वास था। आश्रम की ओर से टीवी डिबेट में हिस्सा लेने वही जाती थी। बाकी सभी प्रतिभागी के छक्के छुड़ाने में सिद्धहस्त थी। आश्रम के बारे में यदा कदा कुछ अन्यथा छपता तो उसे जवाब देने के लिए सरस्वती देवी थी। अगर आश्रम की व्यवस्था और सुरक्षा के लिए वह उत्तरदायी था तो यहाँ की कार्यकारिणी अध्यक्षा सरस्वती थी। और आज आश्रम के माथे पर जब कलंक का टिका लगा था तो वो यहाँ नहीं थी।
आश्रम के हर सदस्य पर उसकी पैनी दृष्टि रहती थी। भुवन मोहिनी के बारे में उसे दो दिन पहले ही पता चला था वो भी आचार्य जी से नहीं वरन सरस्वती देवी से।
अब उसे राधा जी पर दृष्टि रखनी थी।
राधा, आश्रम की नयी योग शिक्षिका। उसके सारे पेपर्स को वो पहले ही वेरीफाई कर चुका था।
उम्र ३४ वर्ष। पर लगती २८ वर्ष से ज्यादा की नहीं थी।
“आचार्य जी के व्यक्ति को परखने की योग्यता पर उसे ज़रा भी शक नहीं था।”
पर अब वो अपने काम में कोई कसर बाकी नहीं रखना चाहता था।
मुलाकाती कक्ष में कन्हैय्या और एस पी पहुँच चुके होंगे। मुलाकाती कक्ष आचार्य जी के आवास का ही हिस्सा था। वहां की बातचीत को वह भी सुनना चाहता था। अपने ब्लूटूथ इयरफ़ोन को मोबाइल से कनेक्ट कर कानों में फिट कर लिया। आचार्य जी के कक्ष में यह नया इंतज़ाम आज ही किया था।
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उसके कक्ष से कुछ ही दूर आनंद इस मौके को कैसे छोड़ सकता था।
“वाह महंत जी। आपने तो महामहिम को भी नहीं छोड़ा।”
“ये बातचीत मैं भी सुनूंगा। मज़ा आएगा।”
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“आपके आश्रम की एक चीज़ हमे पसंद आयी।” एस पी बोला।
“क्या?”
“आपके आश्रम का ये पेय।”
उसने अपने सामने एक बड़े गिलास में रखे पेय की और इशारा किया।
आचार्य जी मुस्कुराये।
उसने कमरे में ही दरवाजे पर मौजूद अपने सेवक को इशारा किया। कुछ ही देर में पुनः दोनों अतिथि के सामने एक एक गिलास पेय सर्व कर दिया गया था।
“इसका नाम हमने सोहनी रखा है। वैसे तो इसमें जड़ी बूटियों का ही प्रयोग किया गया है पर स्वाद का विशेष ध्यान रखा गया है।”
“एक बात है आचार्य जी। रात में इतना बड़ा घटनाक्रम हो जाने के बाद भी आप पर इसका कोई विशेष असर नहीं हुआ है। आप बिलकुल ही तरोताजा दिखाई दे रहे हैं।” कन्हैय्या ने मुस्कुराते हुए कहा।
“शायद आचार्य जी मोह माया से परे है।” एस पी के स्वर में व्यंग्य था।
“दरअसल कोई घटना मुझे लम्बे समय तक नहीं बांधती।” एस पी के शब्दों को आचार्य जी ने अन्यथा नहीं लिया था, “चलिए मैं सीधे असली विषय पर आता हूँ। मेरे उम्र का अधिकांश भाग यात्रा करते हुए ही बीता है। भारत नेपाल, श्रीलंका, तिब्बत का शायद ही कोई भाग मेरे क़दमों से अछूता रहा हो। ऐसे ही एक यात्रा के दौरान दस वर्ष पहले मैं असम की यात्रा पर था जहाँ पहली बार भुवन मोहिनी से मुलाक़ात हुई थी। कामरूप कामाख्या शुरू से ही तंत्र का गढ़ रहा है और तंत्र मंत्र की चाहत रखने वालों के आकर्षण का केंद्र है। दूर दूर से यहाँ तंत्र में सिद्धि की इच्छा रखने वाले लोग आते हैं। मान्यता यहाँ तक है कि तंत्र में सिद्धि के लिए कम से कम एक बार यहाँ आकर किसी मनुष्य की बलि देना आवश्यक है वरना सिद्धि प्राप्त नहीं होती। वैसे तो वो वहां के एक राज परिवार से ताल्लुक रखती थी पर कम उम्र में ही वो एक तांत्रिक की भैरवी बन चुकी थी।”
“तांत्रिक और भैरवी?” एस पी सचदेवा को भी शायद बातचीत में रस आने लगा था।
“हाँ कुछ ऐसा ही। दरअसल इश्वर प्राप्ति के अनेक मार्गों में ये भी एक मार्ग मानते हैं लोग पर उचित गुरु के आभाव में मॉस मदिरा तक ही सिमित रह जाते है लोग बाग।”
“और भैरवी की क्या भूमिका होती है इसमें?”
“भैरवी ही वो धुरी है जिसके चारों ओर तांत्रिक की साधना घुमती है। कापालिक लोग माँ काली की साधना करते हैं और अपनी साधना के दौरान इंसानी बलि देने से भी परहेज नहीं करते। पर इस साधना के लिए एक ऐसी लड़की की आवश्यकता होती है जिसने किसी के साथ सम्भोग न किया होया हो या फिर मानसिक रूप से अत्यधिक पवित्र हो।”
“उस तांत्रिक को जिसने कम उम्र में ही बहुत सारी सिद्धियाँ हासिल कर ली थी और उच्च स्तरीय साधना के लिए एक भैरवी की आवश्यकता थी। कामाख्या में ही उसने मोहिनी को देखा जब वो नवरात्र के दौरान साधना करते हुए देखा तो उसने मान लिया कि उसकी तलाश पूरी हो गयी थी। एक ब्रह्मचारी के रूप में वो उसे मिला और धीरे धीरे उसे अपने प्रेम जाल में फांसना शुरू कर दिया। देखने में तो वो कापालिक मासूम था ही उम्र भी उसकी ज्यादा नहीं थी। जब मोहिनी पूरी तरह उसके वश में हो गयी तो धीरे धीरे उसे तंत्र के जाल में लाना शुरू कर दिया। अब दोनों ने दुसरे शहर के शमशान में ही रहना शुरू कर दिया। तांत्रिक ने अब अपनी तंत्र साधना शुरू कर दी। शराब और मुर्गे का मांस खाकर रात रात भर न जाने क्या क्या साधना करता और कुछ समय में मोहिनी भी उसी साधना में रम गयी। शुरू में वो एक उच्च स्तरीय तांत्रिक की सहयोगिनी बन कर खुद को धन्य मानती और वो कई अनोखी क्रियाकलापों की गवाह बनी। आसपास के गाँव वाले अपनी समस्या लेकर उनके पास आते और तांत्रिक चुटकियों में उनकी समस्या सुलझा देता।
पर धीरे धीरे तांत्रिक अपनी असली साधना का रंग दिखने लगा। साधना के वक़्त वो मोहिनी को पूर्ण नग्न कर तरह तरह की विभूतियों से उसका श्रृंगार करता और फिर उसे मृत शरीर पर पद्मासन में बैठना पड़ता। हद तो तब हो गयी जब पहली बार उसने नरबली दी तो मोहिनी को उस तांत्रिक का असली रंग समझ में आने लगा। दिन के वक़्त वो कोई और ही पुरुष होता और अपने कृत्यों के लिए उससे छमा मांगता और रात होते ही वो एक क्रूर तांत्रिक में बदल जाता। जब तीसरे अमावस की रात उसने तीसरी नर बलि दी तो मोहिनी का मन उससे पूरी तरह उचाट हो चुका था। वो अब उससे बचने का रास्ता तलाश करने लगी। कापालिक में बहुत सारी शक्तियां आ चुकी थी और शारीरिक रूप से वो असीम बलशाली हो चुका था। मोहिनी ने पास के गाँव वालों से सहायता लेनी चाही। ८-१० गाँव वालों ने उस पर काबू करना चाहा पर उसने अकेले सबको मारपीट कर भगा दिया। दोबारा किसी गाँव वालों ने उस पर हाथ उठाने की जहमत नहीं की।
भैरवी जान चुकी थी कि उसकी मंशा कुल २१ नरबली देने की है। वो इस घृणित व्यक्ति से छुटकारा चाहती थी। गिनती उन्नीस तक पहुँच चुकी थी। बीसवां शिकार संजोगवश उसका सहोदर भाई निकल गया। इसकी जानकारी तांत्रिक को नहीं थी। किस्मत ने मोहिनी की मदद की। तांत्रिक अपने शिकार को पूरी तरह बेहोश नहीं कर पाया था या शायद मोहिनी ने कुछ ऐसा किया था कि उसके भाई ने केवल बेहोशी का नाटक किया था। तांत्रिक जब तक संभलता तब तक किसी तरह आँखों में मिर्ची वगैरह डालकर किसी तरह उस पर काबू कर लिया था। अधमरे तांत्रिक को झोंपड़ी में डालकर उसमे चारों तरफ से आग लगा दी भाई बहन ने और दोनों वहां से फरार हो गए।
बाद में वहां पुलिस पहुँच गयी थी और अधजले अवस्था में उस तांत्रिक को बरामद किया था। सुना था कि वो तांत्रिक पागल हो गया था।”
“और आपके अनुसार वो तांत्रिक ही हत्यारा है?” अच्छी कहानी है।
कन्हैय्या तन्मयता से सबकुछ सुनता जा रहा था। एक बार भी उसने टोकने की कोशिश नहीं की थी।
“मैं जनता था कि आप लोगों को इस घटनाक्रम पर आसानी से विश्वास नहीं होगा। ये घटना कामख्या के विष्णु पुर गाँव की है। पुलिस रिकॉर्ड में भी सारी घटनाएं दर्ज होंगी। आप अपने श्रोतों से कन्फर्म कर सकते हैं।”
“वो तो मैं करूँगा ही। वैसे इस घटना में आप कहाँ से फिट होते हैं और उस घटना से कल रात की घटना का क्या सम्बन्ध? और वो भुवन मोहिनी आपके पास कैसे पहुंची?”
“अगर सम्बन्ध न होता तो मैं इतनी पुरानी बात आपको क्यों सुनाता। जिस वक़्त की ये घटना है उस समय ही हम लोग यानि मैं और मेरे गुरूजी उस गाँव में उपस्थित थे। उसके भाई ने अपनी बहन को गाँव वापस ले जाने की बहुत कोशिश की पर वह तैयार नहीं हुई। उसका भाई मेरे गुरूजी से पुराना परिचित था और दोनों भाई बहन हमारे संग हो लिए और मोहिनी के इच्छानुसार उसे ऋषिकेश के आश्रम में छोड़ आये। हमारे गुरूजी ने उसे संन्यास धर्मे में दीक्षित किया और हम लोग वापस लौट आये।”
“और बर्षो बाद वो आपके पास पहुँच गयी!” कन्हैय्या ने बात पूरी की।
“ऐसा ही हुआ। हमारे किसी शिष्य की मार्फ़त उसे हमारे और इस आश्रम के बारे में ज्ञात हुआ और लगभग तीन महीने पहले यहाँ पहुंची। इस दौरान वो काफी बदल चुकी थी फिर भी हम दोनों ने एक दूसरे को पहचानने में कोई गलती नहीं की। वो अध्यात्मिक पथ पर बहुत आगे बढ़ चुकी थी और बस उसे शांत माहौल की तलाश थी। वो उसे यहाँ प्राप्त हुआ। मैंने उसके रहने का इन्तेजाम कल्कि नदी के तट पर एक कुटिया में करा दिया जो यहाँ से करीब १० किलोमीटर दूर है।”
“पर अपनी मृत्यु से कोई कितना भाग सकता हैं। जाने कैसे वो तांत्रिक, वो राक्षस यहाँ कैसे पहुँच गया और पुनः पुरानी दुनिया में उसे ले जाना चाहता था। उसने मुझे बताया तो मैंने उसके रहने का इंतज़ाम कोई और इंतज़ाम होने तक इसी आश्रम में करा दिया।”
“भूल किया आपने। आपको पहले उसे लेकर पुलिस के पास जाना चाहिए था। अगर आपके जैसे जिम्मेदार लोग पुलिस पर यकीन नहीं करेंगे तो बाकी लोग क्या करेंगे।”
“मैं ऐसा ही चाहता था। पर उसका कहना था की वो एक विशेष अनुष्ठान कर रही थी और तीन दिन बाद ही खुलकर सामने आना चाहती थी। इसके लिए वह एकांत में पूर्णाहुति हेतु हवन करना चाहती थी।”
“पर, इस बार कन्हैय्या ने टोका, महंत जी के अनुसार भुवन मोहिनी को उसने आश्रम में कहीं नहीं देखा था। आश्रम में भी उसके नाम का कोई रिकॉर्ड नहीं है।”
“मेरे अनुरोध पर केयरटेकर ने उसे अपने कमरे में रखा था।”
“ओह।” पर जब सब कुछ इतने गुप्त तरीके से हो रहा था तो उस राक्षस को खबर कैसे हुई। क्या ये इंगित नहीं करता की कोई अन्दर का आदमी उनसे मिला हुआ है?”
“ज़रूरी नहीं। दिन भर में कितने लोग आते जाते है। हो सकता है कि राक्षस भेष बदलकर यहाँ पहुँच गया हो और मोहिनी को किसी तरह उसने यहाँ देख लिया हो।”
“कुछ और पूछना हो तो पूछ सकते हैं।”
“प्रश्न तो बहुत सारे हैं आचार्य जी।” एस पी अपने सीट पर पीछे की ओर झुक गया था, “अब बहुत सारी बातें मेरी समझ में आने लगी हैं। फिर भी बहुत सारे प्रश्नों का जवाब हमारे पास अभी भी नहीं है। मसलन अगर पिछले फाटक की चाभी आपके आनंद या महंत के पास थी तो फिर दरवाजा क्यों और किसके लिए खुला? अगर आपके कहे मुताबिक रात में कापालिक रात में अन्दर आया था तो ज़रूर केयरटेकर ने उसे सेफ पैसेज दिया होगा या फिर किसी अंदर वाले ने इसके लिए सहायता की होगी।”
“और आपके मुताबिक वो अन्दर वाला कौन हो सकता है? किस पर शक है आपको?”
“शक नहीं मुझे यकीन है कि ये काम नरेन्द्र को छोड़कर किसी का नहीं हो सकता।” एस पी के स्वर में दृढ़ता झलक रही थी।
“आपकी कहानी को सुनने के बाद सारा किस्सा शीशे की तरह साफ़ हो गया है। जैसा की मुझे अपने एस आई से ज्ञात हुआ है की नरेन्द्र का उस केयरटेकर से रोज़ का मिलना था। आपकी मोहिनी तीन दिन से उस केयरटेकर के घर में रह रही थी। किसी तरह से आपके उस कापालिक से नरेन्द्र का मिलना हो गया होगा। केयरटेकर से किसी तरह नरेन्द्र ने चाभी हासिल कर ली होगी और मौका देखकर पिछला दरवाजा खोल दिया होगा।” कहानी ख़त्म। “बस एक बार इस नरेन्द्र की गर्दन मेरे हाथ में दे दो सारी कहानी खुद ही खुद बक देगा।” एस पी के स्वर में पुलिसिया तेवर झलकने लगा था। वैसे उससे बेहतर और कौन जनता था की नरेन्द्र अकेले उसके बस की चीज़ नहीं था।
कन्हैय्या मुस्कुराया, “क्या बचकानी थ्योरी है आपकी एस पी साहब। अगर ये मौका नरेन्द्र को हासिल था तो आश्रम के कई और शख्स को भी हासिल था। केयरटेकर कोई मंत्री प्रधानमंत्री नहीं था की उससे मिलने के लिए किसी को मुश्किल होती।”
“इन्वेस्टीगेशन में अभी तुम बच्चे हो कन्हैय्या। मुझे डेली इस तरह के लोगों से सामना करना पड़ता है। प्लेन या उस नरेन्द्र को हत्यारे जैसे कपडे पहनाकर देखो। रत्ती भर भी फरक निकल आये तो कहना।”
“मेकअप से तो लोग जैसे तैसे लोगों को भी अमिताभ बच्चन बनाकर खड़ा कर देते हैं बड़े भाई। और हमारे पूज्य आचार्य जी ने तो अभी अभी बताया कि ये हत्यारा किसी पुराने ज़माने का तांत्रिक है।”
“इस बात का प्रूफ होना बाकी है अभी।”
“कोई मुश्किल नहीं है एस पी साहब,” आचार्य जी ने टोका- “एक फ़ोन कॉल पर आप अभी कामख्या से तस्कीद कर सकते हैं। उस वक़्त समाचार पत्र और लोकल टीवी चैनल्स और पत्रिकाओं में भी काफी कुछ छपा था उस बारे में। सरस्वती जी भी आती ही होंगी। उन्हें मैंने कह दिया था पुराने फुटेज का इंतज़ाम कर लेते आने को। वो सब देखने के बाद आपको कोई शुबहा नहीं रह जायेगा कि पुराने ज़माने का एक तांत्रिक ही हत्यारा है और उसके भेष में कोई दूसरा आदमी नहीं।”
“एक बात और, मुझे बताया गया था कि मोहिनी देवी एम पी महोदय की कजन हैं। ये बात किस तरफ जाती है?”
“इस बात की मुझे भी कोई जानकारी नहीं थी। आज जब दिल्ली से मिनिस्टर का फ़ोन आया तो मुझे ये बात पता चली। मिनिस्टर साहब का पुश्तैनी घर असम में है। हो सकता है की कुछ दूर की रिश्तेदारी रही हो।
“रिश्तेदारी अगर इतने दूर की थी तो फिर मंत्रीजी इतना अधिक इंटरेस्ट क्यों लेने लगे कि आनन फानन एक सरकारी जासूस को यहाँ भेज दिया!”
“इस प्रश्न का उत्तर मैं देना चाहूँगा गौतम साहब।” कन्हैय्या की आवाज में तबदीली आ गयी थी, “अब सही प्रश्न किया है आपने। दरअसल भुवन मोहिनी जी के हत्या के इन्वेस्टीगेशन से मेरा कोई ताल्लुक नहीं। मेरे आश्रम में पहुँचने से पहले हीं दोनों हत्याएं हो चुकी थी। दरअसल अगले महीने यहाँ कुछ विदेशी मेहमान पहुँचने वाले हैं। इसी बीच ऐसी कुछ खबर मिली कि यहाँ पर कुछ विदेशी जासूस सक्रिय हैं जो कुछ गड़बड़ कर सकते हैं। बस यही खोजबीन मुझे यहाँ आश्रम में केयरटेकर दयाल तक ले आई।”
एस पी आश्चर्य के भंवर में तैर रहा था। आचार्य जी भी चौंके।
“ऐसी क्या खास बात थी उस केयरटेकर में?”
“वो पाकिस्तानी जासूस था। पता नहीं किस उद्देश्य से वो यहाँ छुपकर रह रहा था। दो दिन पहले ही हमें अपने सूत्रों से पता चला कि ये किसी विशेष वारदात को अंजाम देने के फिराक में है।”
“अगर वो यहाँ था तो ज़ाहिर है उसके और भी साथी रहे होंगे।”
“सही कहा आपने सचदेवा साहब”, कन्हैय्या की गंभीर आवाज में कोई और ही शख्स प्रतीत हो रहा था, “यहाँ दयाल को धर पकड़ने के बाद कुछ और सुराग मिलने की उम्मीद थी। पर जाने कैसे उसके आकाओं को खबर लग गयी और उसकी हत्या कर दी गयी।”
“मतलब भुवन मोहिनी की हत्या की जांच से आपका कोई सम्बन्ध नहीं?“
“हो सकता है अगर दोनों हत्याएं एक दुसरे से सम्बंधित हो।”
इस बार आचार्य जी ने टोका- “कन्हैय्या जी उस इंटेलिजेंस डिपार्टमेंट से ताल्लुक रखते हैं जिनका काम हमारे पडोसी देशों में भारत विरोधी गतिविधियों पर नज़र रखना है। दो दिन पहले होम मिनिस्ट्री से हमारे पास कॉल आया और केयरटेकर दयाल के बारे में दरयाफ्त किया गया। एक जिम्मेदार भारतीय के रूप में मैंने सहयोग के लिए हामी भर दी।”
“पर ये भी तो हो सकता है कि जिसने मोहिनी की हत्या कि है उसी ने अपने गवाह मिटने के लिए दयाल की हत्या कर दी हो।”
“हो सकता है पर इसकी संभावना बहुत कम है। जैसा की हम जानते हैं कि मोहिनी जी की हत्या रात ११:५० के करीब हुई है। पर दयाल की हत्या लगभग सुबह ३:३० के आस पास हुई है। अगर उस राक्षस को अपने गवाह मिटाने होते तो वह पहली हत्या करने के बाद इतना इंतज़ार नहीं करता।”
“ऐसा आप कैसे कह सकते हैं? अभी तो पोस्टमार्टम रिपोर्ट आना बाकी है।”
“अगर आँखें खुली रखी जाए तो बिना पोस्टमार्टम के भी हम लोग बहुत कुछ जान सकते हैं।”
“हूँ, एक बात और, क्या मैं आपका आई डी कार्ड देख सकता हूँ?”
“बिलकुल सचदेवा साहब”, कहते हुए अपने पॉकेट से अपना कार्ड निकालकर एस पी की तरफ बढ़ा दिया।
वो गृह मंत्रालय की तरफ से जारी किया गया कार्ड था। शक की कोई गुंजाइश नहीं थी।
“ओके सर।” कार्ड वापस करते हुए एस पी ने सम्मान जनक स्वर में कहा, “फिर भी आपसे अनुरोध है की नरेन्द्र पर आप विशेष ध्यान रखेंगे। उसने खुद मेरे सामने कबूला है कि नरेन्द्र उसका असली नाम नहीं है।”
“जी शुक्रिया। जब तक हमें अपनी मंजिल नहीं मिल जाती एक एक शख्स हमारे शक के घेरे में है। उम्मीद है की आपका सहयोग हमें मिलता रहेगा। बस आचार्य जी से एक सवाल पूछना था, क्या किसी तंत्र मंत्र से हम विशेष शक्तियों के मालिक बन सकते हैं?”
आचार्य जी मुस्कुराये, “फिलहाल तो मैं प्रमाण देने की स्थिति में नहीं हूँ, पर मेरा उत्तर हाँ में है।”
“एक और प्रश्न, यहाँ मैंने किसी के पास मोबाइल नहीं देखा। क्या यहाँ मोबाइल प्रतिबंधित है?”
“सही फ़रमाया आपने। मैं लोगों के तार उसके अंतर्मन से जोड़ना चाहता हूँ न की बाहरी दुनिया से।”
“और अगर कोई छुपाकर मोबाइल यहाँ ले आया तो?”
“अव्वल तो लोग ऐसा नहीं करते। बाकी काम मोबाइल जैमर कर देता है। वैसे अगर किसी को ज़रूरत पड़ी तो उसके लिए यहाँ लैंड लाइन मौजूद हैं।”
“बड़े कठोर व्यक्ति हैं आप।”
आचार्य जी ने संछिप्त उत्तर दिया- “गुरु हूँ न।”
अब एस पी को ध्यान आया कि इतनी देर से उसका मोबाइल शांत क्यूं पड़ा है।
इसके साथ ही वार्तालाप का अंत हो गया।
उधर महंत जी ने भी एअरपिस कानों से निकाल कर रख दिया। बहुत सारी नयी बातें मालूम हुई थी उसे।
उधर अपने कमरे में मौजूद आनंद ने भी ताली बजाई।
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“तुम्हें क्या लगता है बर्मन, ये सब किसका काम है? तुम तो सालों से इस इस आश्रम से जुड़े रहे हो।”
“सही कहा तुमने। मैं तो उस समय से आचार्य जी के साथ हूँ जब ये आश्रम बना भी नहीं था। उनके साथ देश विदेश घुमा हूँ। कैलाश मानसरोवर तक जा चुका हूँ उनके साथ। किसी साधारण इंसान के साथ ऐसी घटनाएं घटती तो बुरा हाल होता उसका। पर उनके ऊपर कोई असर मालूम होता उनका।”
ताशी की भंवे सिकुड़ी, “तो साधारण लोग तो उन्हीं पर शक कर रहे होंगे।”
“रात भर मैं उनके आस पास ही था। सुबह खबर जब मेरे पास पहुंची तो मैंने ही उन्हें बताया। कुछ देर आँखें बंद रही उनकी फिर धीरे से कहा, बेचारी भुवन मोहिनी, “वैसे तुम बताओ, कैसे इंसान लगते हैं हमारे आचार्य जी।”
‘वही जानने की कोशिश कर रहा हूँ दो महीने से।’ ताशी सोच रहा था।
“मैं जब धर्मशाला के तिब्बत सेटलमेंट में था तभी पहली बार उनके बारे में सुना था।”
“मैं जब पहली बार उनसे मिला था तो उन्होंने ठीक वही भाषा बोलने लगे जो मेरे गाँव में बोली जाती है।”
“उनको समझ पाना बहुत मुश्किल है। मुझसे तो वो बंगाली में भी बात कर लेते हैं। वैसे ताशी भाई, तुम भी तो हिंदी भाषा कमाल की बोल लेते हो।”
ताशी ने शर्माने की एक्टिंग की। इसलिए तो उसे इस मिशन पर भेजा गया था।
“मैं तो पहले भी कई बार इंडिया आया हूँ। यहाँ रहकर हिंदी सीखी है मैंने। I love Indian culture।”
“सुनकर अच्छा लगा। पर पता नहीं क्यों लोग हम दोनों के देशों में दुश्मनी लगाते रहते हैं।”
“वो सब राजनीतिज्ञों की बातें है। ज्ञान की कोई सीमा नहीं। हमारे यहाँ तो लोग तुम्हारी फिल्मों के दीवाने हैं। तुमने हीं तो बताया था की तुम भी चाइनीज़ मार्शल आर्ट जानते हो। बस मुझे भी थोडा सिखा दो।”
“ताशी पुनः शरमाया।”
“बस यूँ हीं थोडा-थोडा। कोशिश करूँगा मैं। चलो कल सुबह से कोशिश करता हूँ।”
“बढियाँ।”
वैसे भी ताशी बर्मन के ज्यादा निकट आना चाहता था। क्योंकि बर्मन आचार्य जी के ज्यादा निकट था। बर्मन इस आचार्य तक पहुँचने का माध्यम बन सकता था।
एक और शख्स जो उसके लिए सबसे ज्यादा मददगार हो सकता था वो आनंद था। सारे ऑनलाइन रिकार्ड्स उसी के पास थे। उसे तो वो अभी तक नजदीक से देख भी नहीं पाया था। इतने छोटे से आश्रम में न जाने क्या-क्या राज छुपे थे।
और फिर चपटे नाक वाली लड़की सरस्वती! सिकंदर के माध्यम से उस तक वह लगभग पहुँच हीं चूका था।
जून २६ संध्या
शाम ने रात की तरफ कदम बढ़ा दिए थे। आज आश्रम के दरवाजे आगंतुकों के लिए बंद ही रहे थे। पार्क में दो पुलिस की तैनाती कर दी गयी थी। कन्हैय्या ने असली चाभी महंत जी को सौंप दी थी और महंत जी अभी भी समझ नहीं पा रहे थे कि चाभी का फेर बदल कैसे हुआ और चाभी कन्हैय्या के पास पहुंची कैसे। दोनों तरफ के फाटक बंद कर दिए गए थे। आश्रम में ही कन्हैय्या के रहने की व्यवस्था कर दी गयी थी।
आचार्य जी ने अपने घर जो आश्रम के ही एक छोर पर बना था को छोड़ साधना कक्ष के पीछे बने गुरु जयंत देव के समाधी कक्ष में ही रात अकेले बिताने का निश्चय किया था।
पूरे आश्रम की तलाशी ली गयी थी और आश्रम वासियों को छोड़कर किसी भी बाहरी आदमी के होने का सुराग नहीं मिला था। दस बजे तक सभी आश्रमवासी अपने अपने कमरे में पहुँच गए थे और सबको विशेष हिदायत दी गयी थी की रात में कोई बाहर निकलने की कोशिश न करे।
सबसे अंत में अपने कमरे में जाने वालों में सरस्वती थी। चांदीपुर पहुँचते पहुँचते शाम हो गयी थी। उसके लिए आज का दिन सबसे ज्यादा भाग दौड़ वाला रहा था। इस बार प्रेस को जवाब देने में उसके पसीने छूट गए थे। बहुत दिनों बाद प्रेस को आश्रम के विरोध में कहने का अच्छा मौका मिल गया था और चैनल वालों ने ये प्रसारित करना शुरू कर दिया था की दोनों हत्याएं आश्रम में चलने वाले तांत्रिक क्रियाओं का परिणाम थी।
सरस्वती देवी ने इन्टरनेट से डाउनलोड कर सबूत के तौर पर पुराने पेपर के कतरन के साथ साथ कुछ मैगजीन्स भी प्रस्तुत किये थे। एक निष्पक्ष चैनल ने कामख्या के थाने से आनन फानन फाइल बरामद कर अपने टीवी चैनल पर दिखाया था जिससे आश्रम के पक्ष को बल मिला था। अंत में चैनल वालों ने इस बात पर ही मोहर लगा दी थी की केयरटेकर की गलती से फाटक खुला रह गया था और “राक्षस” पुराने रंजिश की खातिर बदला लेने के लिए पार्क में पहुँच गया था और क्रोध में भुवन मोहिनी की हत्या कर दी थी। सेवाराम के रिकॉर्डिंग का ज़िक्र भी बार बार आया था पर कोई भी रिकॉर्डिंग उपलब्ध नहीं होने के कारण बात आइ गयी हो गयी थी।
रिकॉर्डिंग के लिए सबसे ज्यादा गुस्से में एस पी था और उसे पूरा शक था कि सारा किया धरा कन्हैय्या का ही था जो सबसे ज्यादा देर तक वो ही उसके साथ रहा था।
आश्चर्य तो कन्हैय्या को भी था की रिकॉर्डिंग कहा चली गयी पर इस बाबत वो सोचकर अपना समय ख़राब नहीं करना चाहता था।
सरस्वती देवी ने आचार्य जी से सलाह मशवरा कर आश्रम को बाहर के लोगों के लिए तीन दिनों के लिए बंद कर दिया था। महंत जी भी इसी के पक्ष में थे।
सबसे अंत में सरस्वती देवी ने अपने कमरे का रुख किया जो उपरी मंजिल पर स्थित था। दरअसल उसका फ्लैट दूसरी मंजिल पर था और इस फ्लोर पर एक ही फ्लैट था और बाकी हिस्से खुला छत था। आश्रम के स्थायी निवासियों के लिए कमरे पीछे की ओर बने थे और उस तरफ जाने के लिए एक बड़े लोहे के गेट से होकर गुज़ारना पड़ता था जिसे लॉक तो नहीं किया जाता था पर लोग बाग़ उधर नहीं ही जाते थे। स्थाई लोगों में कुल २० लोगों के आलावा आश्रम के स्थाई कर्मचारी भी होते थे जो इस हिस्से में रहते थे। इन सभी के हिस्से में वन बेडरूम सेट टाइप का क्वार्टर था केवल महंत जी और सरस्वती देवी का क्वार्टर थोडा बड़ा था। आचार्य जी का क्वार्टर भी इसी हिस्से में था पर क्वार्टर का एक हिस्सा दूसरी तरफ यानी कॉलोनी के बाहर भी खुलता था। हर दिन शाम कमरे में प्रवेश करने पर वो ऐसा ज़रूर करती थी।
अस्थाई रूप से रहने वालों के लिए इसी किस्म के क्वार्टर बाहरी हिस्से में बने थे। कमरे की सजावट में विशेष ध्यान दिया गया था।
कमरे में आकर सरस्वती देवी ने सबसे पहले कमरा लॉक किया और पूरे क्वार्टर को चेक किया।
सभी कुछ चाक चौबंद था।
जो खेल वो खेल रही थी उसके लिए उसका पूरी तरह सावधान रहना ज़रूरी था।
वो एक छोटा सा ड्राइंग रूम था जिसमें सोफे वगैरह के साथ साथ एक कोने में कंप्यूटर टेबल और चेयर भी लगा था। मेहमानों को रिसीव करने के लिए यही कमरा प्रयुक्त होता था। ड्राइंग रूम से ही अन्दर के बेडरूम के लिए एक पैसेज था और उसी पैसेज में दाईं ओर बाथरूम अटैच्ड था। दूसरा बाथरूम अन्दर वाले बेडरूम से अटैच्ड था। दोनों बाथरूम के मध्य करीब चार फुट का स्पेस था जो बाथरूम की चौड़ाई के कारण लगभग 4X6 के आकार के कमरे का रूप धारण कर लेता था। कमरे में प्रवेश के लिए बेडरूम वाले बाथरूम की दीवार का ही प्रयोग करती थी हमारी सरस्वती देवी।
अब वो कमरे में बंद हो चुकी थी कमरे में एक विशाल स्क्रीन वाला कंप्यूटर मौजूद था साथ ही बहुत सारे साजों सामान मौजूद थे। एक दक्ष कंप्यूटर ऑपरेटर की तरह उसने अपना सीट संभाल ली थी। उसके बैठते ही डिस्प्ले एक्टिवेट हो चुका था। बड़ी ही मेहनत से उसने इस सिस्टम को डेवलप किया था। इस सिस्टम को ओपन करना उसे और एक और शख्स को छोड़कर किसी और के बस की बात नहीं थी। स्क्रीन के सामने आते ही उसका कम्पलीट फेस डीटेकटिंग सिस्टम एक्टिव हो जाता था और उसके खोपड़ी और आँख की बनावट को रीड करके ही एक्टिवेट होता था। किसी भी और तरीके से इसे ऑन करना संभव नहीं था। सिस्टम के ऑन रहने के बाद भी उसे पूरी तरह यूज़ भी वो ही कर सकती थी।
तो यह था उसका फुल प्रूफ सिस्टम जिसका नाम उसने खोपड़ी रखा था। एक आश्रम प्रमुख के पी ए के पास ऐसी ‘खोपड़ी’ का होना तफ्तीश का विषय हो सकता था अगर लोगों को इसके बारे में पता चल जाता।
अव्वल तो ऐसी नौबत नहीं आयी थी।
और इस कंप्यूटर को IP ट्रैक करना भी किसी के लिए मुमकिन नहीं था।
अभी स्क्रीन पर उसके सामने आश्रम में मौजूद लोगों के प्राइवेट ईमेल पर रिसीव हुए थे या उनके द्वारा भेजे गए थे। आश्रम में लोग अपने मोबाइल का तो इस्तेमाल नहीं कर सकते थे पर आश्रम के बाहर ये सुविधा मौजूद थी। कुछ मेल दुसरे भाषा में भेजे या प्राप्त किये गए थे।
आश्रम में रहने के लिए ईमेल का होना ज़रूरी था। आज पहली बार उसके ध्यान में आया कि केवल दो लोग ऐसे थे जिनका ईमेल अकाउंट शक पैदा करता था।
पहला शख्स ताशी था।
उसका ईमेल अकाउंट केवल छः मास पुराना था यानि जब उसने इंडिया में प्रवेश किया था। सारे मेल इंडिया में उसके द्वारा बनाये गए नए दोस्तों द्वारा ही भेजे गए थे।
ताशी रोज़ आश्रम के बाहर मौजूद साइबर कैफ़े में एक दो घंटा गुज़रता था।
तो क्या ताशी अपने अतीत को छुपाकर रखना चाहता था?
पता लगाना होगा, सरस्वती ने निश्चय किया।
आश्रम में ऐसे लोगों का आना लगा रहता था जो कहीं क्राइम करके आते थे और अपनी पहचान छुपाकर यहाँ रहना पसंद करते थे।
ऐसे लोगों के अतीत को ट्रेस करना और इसके बदले में उन लोगों से कुछ सुविधा शुल्क वसूल करना, कभी कभी ये सुविधा शुल्क करोड़ो में होता था। क्या ताशी के साथ भी ऐसा किया जा सकता था?
दूसरा शख्स नरेन्द्र था जिसका ईमेल अकाउंट अभी तक ब्लैंक था। उसको अच्छी तरह वो तौल चुकी थी।
सब कुछ सावधानी से करना होगा...।
अब सरस्वती ने अपने एकाउंट्स टटोलने शुरू किये। ये एकाउंट्स उसके अपने नाम से न होकर ‘खोपड़ी’ के नाम से था।
वो अपने ‘कस्टमर’ को रेडकॉइन के फॉर्म में जमा करने का निर्देश देती थी जो बीसवीं सदी का सबसे सेफ इन्वेस्टमेंट था। पिछले छह महीने में इस अकाउंट में जमा धनराशी छह गुना होकर सत्तर करोड़ के ऊपर हो चुकी थी।
“सत्तर करोड़ की खोपड़ी।” बुदबुदाते हुए मुस्कुराई।
अब उसने कल के कार्यक्रम पर नज़र दौड़ाई।
कोई ख़ास इंगेजमेंट नहीं था, सिवाय एक के।
सुबह नौ बजे उसे सिकंदर से मिलना होगा।
सिकंदर, जिसके नाम से ही उसके सारे बदन में झुरझुरी सी दौड़ रही थी। एक ही बार तरीके से उससे सामना हुआ था।
अनजाने में किससे पंगा ले लिया था उसने।
कमबख्त ने उसे बोलने का मौका ही नहीं दिया था। पता नहीं कैसे जान गया था वो की छह महीने पहले उसे ब्लैकमेल करने वाली वो हीं है। कमबख्त ने उसका पर्सनल मोबाइल नंबर भी निकलवा लिया था।
एक दिन पहले किस तरह पिलपिला रहा था वो। एक झटके से उसने पचास लाख फिर मेरे अकाउंट में ट्रान्सफर कर दिए। काम छोटा सा था।
उसके भाई को एक दिन के लिए कहीं छुपा कर रखना था।
उसका भाई यानी केयरटेकर दयाल।
जो मैं चाह कर भी नहीं कर सकती थी। मैं तो दिल्ली से आज ही लौटी थी।
और फिर आज शाम! फ़ोन पर उसकी आवाज शीशे की तरह उसके कान में उतर गयी थी।
“तेरे कारण मरा है मेरा भाई। तू चाहती तो बचा सकती थी उसे। एक करोड़ दिए हैं मैंने तुझे। कल सुबह दो करोड़ लेकर श्मशान के पास बारासाहब के बंगले में चली आना। नहीं तो कल १२ बजे तक मैं तेरे गुरु के सामने रहूँगा।”
दो करोड़!
कहने को तो वो करोड़ों की मालकिन थी पर दो करोड़ कैश चाह कर भी इकट्ठे नहीं कर सकती थी।
दयाल की रक्षा का वादा किया था उसने। या यूँ कहा जाये तो बेहतर होगा कि उसने उससे वादा ले लिया था। वही दयाल जो केयरटेकर के भेष में यहाँ काम कर रहा था। वही दयाल जिसकी बेदर्दी से हत्या कर दी गयी थी।
दयाल की सेफ्टी के एवज में सिकंदर पचास लाख रुपये ‘खोपड़ी’ में कुर्बान कर चुका था।
इतनी आसानी से वो अपने पैसे और दयाल को भूलने वाला नहीं था वो।
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“ए मरद।”
“कहो औरत।”
“ई कहाँ ले आये हमको।”
“अरे बहुत बढियां ढाबा है ये। यहाँ का मसाला नान बहुत फेमस है।”
“पर हमको ई जगह जरिक्को पसंद नहीं आ रहा है। देखिये साइड में लोग बईठ के दारू पी रहे हैं।”
“तो का हुआ, हम भी पी लेंगे थोड़ा-मोड़ा।”
“अरे नहीं नहीं, आपको तो हम पीने ही नहीं देंगे। एकदम से नशा हो जाता है आपको।”
“ई देखो कर दी न बुरबक जैसी बात। अगर नशा नहीं होगा तो पैसा कहे खरचेंगे दारू पर। कहिये भैय्या ठीक कहे न”, मरद अब पास बैठे व्यक्ति को संबोधित हुआ बोला।
रात के ग्यारह बज चुके थे। शहर के बाहर हाईवे पर स्थित यह ढाबा रोज की तरह देर रात तक खुला रहता था। ग्राहक के नाम पर बस तीन लोग पहले से पुरानी सी कुर्सियों पर बैठे थे। बाद में पहुँचने वाले दोनों एक मोटर साइकिल पर पहुंचे थे और कपड़ों से ही किसी सुदूर गाँव के वासी प्रतीत हो रहे थे। लड़के ने चटक मटक शर्ट और औरत ने एक सूती साडी पहन रखी थी, पल्लू माथे पर था। दोनों २४-२५ से ज्यादा के प्रतीत नहीं हो रहे थे।
जिस व्यक्ति को बाद में पहुँचने वाले पुरुष ने संबोधित किया था वो भी बातचीत में शामिल हो गया।
“ये बात तो सही कहे हो। अगर नशा नहीं होगा तो हम लोग का बुरबक है”, कहकर जोर से हंस पड़ा। “ई लों भैय्या, एक पेग हमारी तरफ से, कहते हुए एक गिलास में पेग बना कर बढ़ा दिया।
पीने वालों में दोस्ती बनने में देर नहीं लगती।
कुछ ही देर में अपनापन छा गया था उन लोगों में।
दूसरे युवक ने लड़खड़ाते हुए स्वर में कहा जिसे यकीनन नशा हो गया था, “एक ब बात कहूँ भैय्या, इतनी रात में औरत जात क क को लेकर बाहर निकलना ठीक नहीं जा... ज़माना ख़राब है।”
“ई बात तो आपने सही कही भैय्या, पर हमर मरद हमारा बात सुनते कहाँ हैं?”
“चुप बे कुतिया।” कहते हुए मरद ने औरत के पीठ पे एक धौल जामा दिया, “मर्दों के बीच में ‘औरत’ को ज्यादा नहीं बोलना चाहिए।”
औरत खिसियाते हुए चुप हो गयी।
पीते पीते मरद का हाथ एकाएक थम गया, “अरे यहाँ तो शराब बंदी है न? कहीं पुलिस ने धर लिया तो?”
“अरे नहीं जनाब, यहाँ सबको अपना अपना खुद धरना पड़ता है,” कहते हुए उस तीसरे युवक ने आंख मारी और ठहाका मार कर हंस पड़ा।
“अरे चिंता नहीं कीजिये, ये खुद यहाँ के ए एस आई हैं।”
मरद घबराते हुए खड़ा हो गया, माफ़ कीजियेगा हुज़ूर, पहचाने नहीं थे, “कहते हुए हाथ जोड़कर आधा झुक गया था।”
अपनी इज्ज़त पर ए एस आई फूल कर कुप्पा हो गया था, “अरे नहीं अभी हम ऑफ ड्यूटी हैं।”
“हाँ भैय्या, टेंशन नहीं लीजिये। सर जी एकदम सोना आदमी हैं सोना। आज दिन भर आश्रम में ड्यूटी बजाये हैं अभी जाकर फुरसत मिला है तब यहाँ आये हैं।”
“का करे हमारे एस पी साहब हमारे बिना कहीं जाते हीं नहीं हैं। चांदीपुर में कदम रखे की सबसे पहले हम ही को याद करते हैं।”
“आदमी सलीका का हो तो लोग काहे नहीं याद रखेंगे जी, देखिये दरोगा बाबू को इतना बड़ा ऑफिसर होक भी हम जैसन लोगों से भी कितना प्रेम से बात करते हैं, “औरत ने बात जोड़ी।”
ए एस आई निहाल हो गया, “आपकी मेहरारू तो पढ़ी लिखी मालूम होती है जी।”
“एकदम सही पहचाने। दसवीं पास है, बस मेट्रिक पास नहीं कर पाई। वैसे हुआ का था कल रात में? सुना कि कोई राछस घुस गया था आश्रम में?”
“है जी, आजकल के ज़माने में राछस कहाँ से आएगा?” औरत ने बुद्धिमानी दिखाई।
“नहीं जी, एकदम राछस था राछस”, उस युवक का नशा फिर हिरण हो गया था।
“सुनी सुनी बात पे कहे यकीन करते हैं?”
“का कहते हैं मरदे, यहीं तो हैं सेवाराम बाबू जिन्होंने खुद देखा था अपनी आँखों से।”
“ई देखिये, अरे सही कहे आप ही का तो फोटो बार बार टीवी में दिखा रहा था बार बार।”
“और आप…क्या नाम बताये अपना?”
“जी हमको शरवन कहते है। हम ही तो इस सेवा को खिंच के यहाँ लाये हैं। इ तो डर के मारे घर से निकलने को तैयार ही नहीं था।”
“तो आप भी यहीं चांदीपुर में रहते हैं शरवन जी?”
“नहीं भैय्या। हम तो थोडा दूर शहर की तरफ रहते हैं। कल बड़े दिन के बाद अपने सेवा से मुलाक़ात हुई। आज सेवा का हाल पूछने चला आया।”
“पर आपको इतना देर से ऑफिस से लौटने का कौन ज़रूरत रहा सेवाराम जी। ज़माना ख़राब है न। कहीं उ राछस आप पर हमला कर देता तो?”
“सेवाराम का दिल बाग़ बाग़ हो गया। कितनी प्यारी है इसकी बीवी। काश उसे भी इतनी प्यारी बीवी मिल जाये!”
“अरे हम तो खुद ही ज़ल्दी लौट जाते हैं डेली। उ तो दोस्त लोगन बैठा लिए इसलिए लेट हो गया। नहीं तो हमको पीने उने का कोई शौक़ नहीं है।”
“सब मर्दन का एक ही हाल है। हमारे मर्द भी दोस्त लोगन के चक्कर में रेगुलरली बैठ जाते हैं और फिर अनाप शनाप हरक़त करते हैं।”
“पर हम रोज़ रोज़ वाले में से नहीं हैं। वरना ऑफिस से हम तो सीधे घर आते हैं। और कल दूसरी बार ऐसा हुआ। इसके पहले भी एक बार दोस्त यार लोग बैठा लिए थे और रास्ते में ही तबियत ख़राब हो गया था। उस दिन ऐसा तबियत बिगड़ा की क़सम खा लिए थे की अब ऑफिस से सीधा घर आयेंगे। पर कल तो यार लोग एकदम पैर पकड़ लिए थे कि आज बैठना ही पड़ेगा। बस थोडा मजबूर हो गए उनकी विनती पर।”
“ऐसा कहीं होता है भैय्या!” मरद बोला, “ज़रूर किसी ने उनसे बाज़ी लगाया होगा की सेवा भैय्या को पिला के दिखा दे तो जाने।”
“कहीं आपके इ दोस्त शरवन ही तो ऐसा नहीं कर दिए सेवाराम जी”, औरत बोली।
“अरे ये हमारा दोस्त शरवन बड़ा मजाकिया है। अरे शरवन कहीं ये तेरी शरारत तो नहीं थी?”
शरवन हतप्रभ हो गया। ये बातचीत किस दिशा में जा रही थी।
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उधर अल्फांसे की आँखों में भी नींद नहीं थी। दयाल से उसके अच्छे सम्बन्ध बन गए थे। दयाल ने ही उससे अनुरोध किया था कि रोज़ उसके साथ चाय पिए। अल्फांसे को भी सुबह सुबह चाय की ज़रूरत महसूस होती थी। पिछले दो महीने से ये सिलसिला चल रहा था। और फिर कल!
खुद अल्फांसे को यकीन था कि दोनों क़त्ल अलग अलग लोगों द्वारा किये गए हैं। युवती जहाँ क्रोध में हुई हिंसा का परिणाम लगती थी वहीँ दयाल को देखकर ऐसा लगता था कि उसे टॉर्चर किया गया है।
क्या पुलिस को ये अंतर पता नहीं चला रहा था?
दरअसल उस सेवाराम के विडियो ने ऐसा माहौल पैदा कर दिया था की सारा ध्यान ‘राक्षस’ ने अपनी और खिंच लिया था। और फिर वो सेवाराम राक्षस के चंगुल से बच कैसे गया? क्या राक्षस ने जानबूझकर उसे छोड़ दिया था, एक गवाह के रूप में? अपना खौफ लोगों में कायम रखने के लिए?
आज उसने सेवाराम को भी देखा था जब उसे हत्प्रण को पहचान करवाने के लिए लाया गया था?
इतना कमजोर आदमी उस राक्षस के चंगुल से भागने की कुवत रखता था?
इस सेवाराम से उसे मिलना होगा, अल्फांसे ने निश्चय किया।
सच्चाई की तह तक ज़ल्द से ज़ल्द पहुंचना ज़रूरी था वरना वो एस पी उसे फंसाने के लिए चाल चल सकता था जिससे उसने बेमतलब का पंगा ले लिया था।
सुबह का इंतज़ार बेमानी था। अभी ग्यारह भी नहीं बजे थे।
प्रभुद्वार यानि सामने वाले फाटक के गार्ड से भी उसकी थोड़ी पहचान थी वरना रात में गेट खुलवाना थोडा मुश्किल होता।
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शरवन ने बेबस नज़रों से ए एस आई जिसका नाम दिवाकर था, की और देखा। दिवाकर ने सर हिलाया।
“अरे भाई, हां क्या नाम बताया तुमने अपना...?”
“अभी बताये कहाँ हैं? मोहन नाम है हमारा।”
“और हमारा नाम मुरली है।” औरत ने बात पूरी की।
“मोहन की मुरली”, कहकर पुरुष खी खी कर हंसा।
“अरे मोहन बाबू इ कहाँ का किस्सा लेकर बैठ गए। दिन भर आश्रम के चक्कर में परेशान हुए हैं। दोनों लाश के चक्कर में आज का सारा दिन ख़राब रहा और फिर आप लोग उसी का किस्सा लेकर बैठ गए।”
“सॉरी इंस्पेक्टर साहब। का करे जब से टीवी पर उसका रिपोर्ट देखे हैं दिमाग घाईघाई कर रहा है।”
“अच्छा भाई लोग, चलिए उठते हैं। बहुत लेट हो गया।” शरवन ने उठने का उपक्रम किया।
“अरे शरवन भैय्या अभी तो खाना पीना भी नहीं हुआ है। “
“हम तो आपके लिए कह रहे थे मोहन बाबू। हम तो आज सेवा के साथ ठहरेंगे। लेट हो जाइएगा तो मुश्किल होगा।”
“लेट तो सच में हो गया। अब यहीं ढाबा में सो जायेंगे और सुबह सुबह निकलेंगे। काहे भैय्या”, चिल्लाते हुए काउंटर पर बैठे शख्स से बोला, “यहाँ रेस्ट कर सकते हैं न?”
काउंटर पर बैठे शख्स ने मुंडी हिलाई।
“बढियाँ। चलिए एक ब्लेंडर्स प्राइड का आधा वाला बोतल भेजिए ज़ल्दी और साथ में फ्रीज़ वाला पानी और साथ में प्याज और पापड को सेंक के।”
फिर ठहरकर बोला।
“पर सेवाराम जी आप वहां से बच कर कैसे निकल आये उस राक्षस से।”
इस बार दिवाकर ने बिगड़कर गिलास नीचे फ़ेंक दिया, “चुप रह साले, सारा मूड ख़राब किये दे रहा है।”
एकाएक उसके मूड को बदलता देख मोहन मुंह खोलकर ताकने लगा और हतप्रभ होकर बोला, “आपने तो हमको गाली दे दिया।”
मोहन की मुरली ने भी मुंह खोला, “गाली क्यों दे दिए इंस्पेक्टर साहब, हमारे मरद को गाली से बहुत गुस्सा आता है। कहीं गुस्सा में आपको पीट दिए तो?”
अब ए एस आई का गुस्सा नियंत्रण से बाहर था। उसके पुलिसिया गुरुर ने जोर मारा।
“ठहर बे साले, मसखरी करता है हमसे।” कहते हुए झपटा।
पर बेचारे को क्या पता था कि उसका पाला किसी मसखरे से नहीं बल्कि भारत के सर्वश्रेष्ट जासूस जोड़ियों में से एक से पाला पड़ा है। जानने वाले इसे तोता मैना की जोड़ी भी कहते थे। ऑफिसियल रिकॉर्ड में ये इनका नाम कन्हैय्या और राधा था। तीन साल पहले इन्होंने उस सीक्रेट सर्विस को ज्वाइन किया था जो ‘एच आई जी’ के नाम से जाना जाता था जिसका काम भारत के पडोसी देशो में होने वाले भारत विरोधी गतिविधियों पर नज़र रखना था।
एच आई जी यानी हिमालयन इंटेलिजेंस ग्रुप कहा जाता था।
एक जोरदार थप्पड उसके गाल पर पड़ा और पूरी तरह से खड़ा होने से पहले ही कुर्सी को लिए उलट गया।
शरवन अपने पुलिस यार को थप्पड़ खाते हुए देख कन्हैय्या पर झपटा पर राधा ने उसके कपड़े को पकड़कर झटका दिया। वो भी गिर पड़ा।
प्यार से बोली राधा, “बैठिये न देवर जी। क्यों दोनों के बीच में पड़ते हैं।”
जितनी बार दिवाकर ने उठने की कोशिश की उतनी बार वो थप्पड़ खा चूका था।
इतना तो तीनों समझ गए थे की उनका पाला घुटे हुए लोगों से पड़ा है।
शरवन भी कई बार उठने की नाकाम कोशिश कर चुका था।
सेवाराम एक कोने में दुबका पड़ा था। ढाबे में मौजूद तीनों स्टाफ निर्लिप्त दूर खड़े सबकुछ देख रहे थे। ढाबे में शराब के जोर में मारपीट होना आम बात थी। पर लोकल थाने के ए एस आई को पीटाई खाते हुए उन्होंने शायद ही कभी देखा था। दिवाकर के मुंह से गालियाँ छूट रही थी।
पांच मिनट तक दिवाकर की कुटाई होती रही।
“हाँ अब दोनों आराम से कुर्सी पर बैठ जाइए।”
दोनों ने कोई विरोध नहीं किया।
“ए मरद।”
“कहो औरत।”
“आपने तो कुछ ज्यादा ही कूट दिया दिवाकर बाबू को। ऐसा कोई किसी को कूटता है क्या। पता नहीं कहाँ कहाँ से खून निकल रहा है जेठ जी को।”
“क्या करें औरत। हम शरवन से कुछ पूछ रहे थे और बीच में जेठ जी बक बक कर रहे थे। आंख से कुछ इशारा भी किये थे, हम देखे नहीं थे क्या।”
“अब पूछ लीजिये न, अब एकदम शांति से बैठेंगे इंस्पेक्टर साहब।”
“तू मरेगा छोरे, तुझे मालूम नहीं की किससे पंगा लिया है।”
इस बार राधा अपनी जगह से उठी और एक जोरदार मुक्का दिवाकर के गाल पर लगाया। दिवाकर को ऐसा लगा मानों बीस किलो का लोहा उसके चेहरे पर पटक दिया गया हो। वो चकराकर गिर पड़ा।
“अब साढ़े तीन मिनट बाद इसके नाक से खून निकलना शुरू होगा।” राधा ने इतमीनान से कहा।
“अब क्या करना है औरत?”
“पहले शरवन जी के दायें हाथ की एक अंगुली तोड़ दीजिये। उसके बाद ही बातचीत करेंगे। वरना ये झूठ झाठ बोलना शुरू कर देगा।”
“पर बायें हाथ की अंगुली क्यों नहीं?”
“सुबह धोने में दिक्कत होगी।”
“अच्छा, ठीक।”
पांच मिनट के अन्दर अपनी टूटी अंगुली के साथ शरवन सब कुछ बताने को तैयार था।
अल्फांसे दूर एक पेड़ के नीचे खड़ा दोनों की सारी कारिस्तानी देख रहा था जो सेवाराम को खोजता यहाँ तक आ गया था। दोनों को उसने आराम से पहचान लिया था। कन्हैय्या को उसने एस पी के साथ देखा था और राधा का परिचय आज सुबह योग टीचर के रूप में करवाया गया था।
इतना तो वो समझ गया था की दोनों पुलिस या जासूस हैं। दोनों सही लाइन पर जा रहे थे और दोनों के सवाल जवाब उसी के काम आने वाले थे।
“पहला सवाल, शरवान भैय्या, आपको किसने कहा था कि सेवाराम जी को शराब पार्टी के बहाने देर तक बिजी रखा जाये?”
“चुप बे साली, ‘मरद’ ने ‘औरत’ से कहा, तुझे कैसे मालूम कि शरवन बाबू ने ऐसा किया?”
“एकदम भुलक्कड़ हो का, अभी दो घंटे पहले तो इनके यार दोस्त से मिलके लौटे है। का कहे रहे उ लोग?”
“अरे हाँ हम तो भूल गए थे। पार्टी के लिए ५००० भी तो भेजा था इस शरवन बाबु ने। अब ऐसा फटीचर आदमी ५००० रूपया कहाँ से लायेगा?”
“इंस्पेक्टर साहब ने दिए होंगे। शकल से ही दिलदार लगते हैं।”
“नहीं रे, इंस्पेक्टर लोगों का काम देना नहीं लेना होता है। सच तो शरवन जी बताएँगे।”
सेवाराम को कुछ कुछ समझ में आ रहा था। तो क्या शरवन ने सचमुच उसके साथ गेम खेला था?
दर्द से कराहता शरवन मानों फट पड़ा, “मुझे राक्षस ने कहा था।”
“ये लों पूरा शहर राक्षस को खोजने में लगा है। तुझे कहाँ से मिल गए?”
‘सच कह रहा हूँ। पूरे पचास हज़ार भी दिए थे मुझे। उसी पैसे से मैंने मोबाइल भी खरीद कर सेवाराम को दी थी।”
“अब चल ये बता कि तुझे किसने कहा था कि अगर कोई पूछताछ करे तो कह देना कि राक्षस ने कहा था?”
शरवन हकबकाया। क्या इन दोनों से कुछ भी छुपाना संभव था!
“मुझे एक अनजान आदमी ने इस काम के लिए पैसे दिए थे।” शरवन इस बार सच बोलता प्रतीत हो रहा था। अब वो उसका हुलिया बताने लगा।
अल्फांसे आराम से सब कुछ सुनता रहा। पता नहीं और क्या क्या चल रहा था इस शहर में। तो भैया, कन्हैय्या ने कहा, “दयाल आपके घर कब आया था?”
“दयाल कौन दयाल? मेरे घर तो वो अजनबी ही आया था पैसे लेकर।”
राधा ने टोका, “पता नहीं देवर जी क्या क्या बोले जा रहे हैं। हम इनसे पूछना चाह रहे हैं की आश्रम का केयरटेकर दयाल कल इनके घर क्यों गया था और ये अजनबी अजनबी भज रहे हैं। अब कोई इनके घर गया या इंस्पेक्टर साहब के घर गया इससे हमे क्या? आप तो हमे दुखी कर दिए शरवन भैय्या।”
“अच्छा वो भी छोड़िये शरवन जी, बस इतना बता दीजिये कि जो पुलिंदा दयाल ने आपको सौंपा था वो आपके पास ही है या उसे आगे बढ़ा दिया?”
शरवन को काटो तो खून नहीं नहीं।
जाने वो किसका मुंह देखकर उठा था।
“घर में है...” इतना ही कह सका था वो।
सेवाराम सोच रहा था कि जाने किस नक्षत्र में शरवन उससे मिला था।
दोनों अपनी कुर्सी से खड़े हो गए।
“अच्छा देवर जी और जेठ जी। अगर राक्षस जी का अभी का पता मालूम हो तो बता दीजिये। जाकर दुआ सलाम कर लेंगे।”
शरवन ने इनकार में सर हिलाया। वैसे भी वो बोलने की स्थिति में नहीं था। दर्द से उसका बुरा हाल था।
यही वो वक़्त था जब पुलिस की गाड़ी वहां आकर रुकी और उसमें से एस आई गुप्ता और चार पुलिसिये नीचे उतरे। शायद ढाबे वाले ने पुलिस स्टेशन को फ़ोन कर दिया था। अपने पुलिस स्टेशन की गाड़ी देख दिवाकर के सांस में सांस आयी।
पर उसका दिन भी कोई खास अच्छा नहीं था। जब गुप्ता ने कन्हैय्या को देखते ही सैलूट मारा तो उसके रही सही हिम्मत ने जवाब दे दिया।
एस आई के पास कन्हैय्या के बारे में एस पी का शाम में ही निर्देश पहुँच था।
सेवाराम और शरवन पुलिस की गाड़ी में उनके घर की तरफ जा रहे थे। पर उनका सेवाराम के घर जाना बेकार ही साबित होने वाला था।
वो पुलिंदा अल्फांसे के पास पहुँच चुका था।
“एक बात बता कन्हैय्या, तुझे पता कैसे चला कि दयाल ने शरवन को कुछ सौंपा है?”
“सिंपल मेरी राधा, इतना तो पता चल ही गया था कि शरवन का दयाल से मिलना जुलना है। कल भी आनन फानन में दोनों की मुलाक़ात हुई। एक दो लोगों ने पूछताछ में तस्कीद की थी कि दयाल एक पैकेट लेकर बाहर निकला था।
“झूठ सब झूठ। राधा से बात छुपाते तुझे शर्म नहीं आती।”
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