देवराज चौहान भारी उलझन में था।
जगमोहन की कार वहीं खड़ी थी। परन्तु वो खुद पास में कहीं भी नहीं था। जबकि अब तक तो उसे कार लेकर निकल जाना चाहिये था। बात यहीं तक होती तो ठीक था, परन्तु उसे फोन करने पर पल भर के लिए बेल बजी थी, फिर फोन बंद हो गया था। उसके बाद बार-बार उसने ट्राई किया, परन्तु स्विच ऑफ ही आया था।
ये ही बात देवराज चौहान को परेशान करने वाली थी।
बुरी आशंकाओं ने मन में घर बनाना शुरू कर दिया था।
कहीं जगमोहन के साथ बुरा हादसा तो पेश नहीं आया? ढेरों दुश्मन थे उनके। कभी भी कुछ भी हो सकता था। देवराज चौहान ने व्याकुलता से आस-पास नजर मारी। ऐसा कोई भी नहीं था कि जिससे कुछ पूछा जा सके। तभी उसकी निगाह एक गाड़ी पीछे मारुति वैन पर पड़ी। उसमें ड्राइविंग सीट पर बैठा कोई दिखा। देवराज चौहान उसी तरफ बढ़ गया। इसके साथ-साथ उसकी निगाहें आसपास भी जा रही थीं। वो वैन के ड्राइविंग डोर के पास पहुँचा।
भीतर बैठे मल्होत्रा ने शांत निगाहों से उसे देखा।
"आप कब से यहाँ हैं?" देवराज चौहान ने मल्होत्रा से पूछा।
"बीस-पच्चीस मिनट हो गये--- क्या बात है?"
"वो कार मेरे दोस्त की है। अब तक उसे कार लेकर चला जाना चाहिए था। परन्तु कार यहीं है, वो नजर नहीं आ रहा...।"
मल्होत्रा ने कार की तरफ देखा।
चूँकि वैन पर काले शीशे चढ़े थे, इसलिये भीतर के हालात वो नहीं देख पाया।
"शायद मैंने देखा था आपके दोस्त को...।" मल्होत्रा एकाएक कह उठा--- "वो उस तरफ से आया था। आकर अपनी कार के भीतर बैठा, फिर वो बाहर निकला और टैक्सी लेकर चला गया था।"
"टैक्सी लेकर?"
"हाँ, सड़क पर जाती टैक्सी को हाथ देकर रुकवाया था उसने।"
"ओह... शुक्रिया।" कहकर देवराज चौहान वहाँ से हटा और पुनः जगमोहन की कार के पास जा पहुँचा।
देवराज चौहान अब ये ही सोच रहा था कि जगमोहन के मोबाइल का स्विच क्यों ऑफ है?
कार के पास पहुँचकर यूँ ही भीतर निगाह मारी।
अगले ही पल उसकी आँखें सिकुड़ती चली गईं।
इग्नीशन में चाबियाँ फंसी दिखाई दे गई थीं उसे।
कितनी अजीब बात थी कि कार को छोड़कर जगमोहन टैक्सी में गया। चाबियाँ कार में छोड़ गया। कहीं कार खराब तो नहीं हो गई? देवराज चौहान कार का दरवाजा खोलकर भीतर बैठा और कार स्टार्ट की।
वो एक ही बार में स्टार्ट हो गई।
कार को उसने थोड़ा आगे-पीछे किया।
कार ठीक थी।
देवराज चौहान ने कार का इंजन बंद किया। खतरे की घण्टी उसके मस्तिष्क में बज उठी।
कुछ तो गड़बड़ है?
होंठ भींचे देवराज चौहान कार से बाहर निकला। पुनः हर तरफ नजर मारी। सब ठीक था। ऐसा कुछ भी नहीं था कि जिसे देखकर उसकी सोचों को बढ़ावा मिलता। आखिर मामला क्या है?
तभी देवराज चौहान के माथे पर बल पड़े।
जिस वैन के ड्राइवर ने बताया था कि जगमोहन टैक्सी लेकर गया है, वो वैन अब नहीं थी वहाँ।
देवराज चौहान ने वैन की तलाश में नजरें दौड़ाईं।
परन्तु वो कहीं भी नहीं दिखी।
जाने क्यों देवराज चौहान को महसूस हुआ कि उस वैन के ड्राइवर ने ही उससे गलत कहा था और गड़बड़ करने वाला वो ही हो सकता था। परन्तु ये सब तो सोचें थीं।
जो भी हालात थे, वो ठीक नहीं थे।
देवराज चौहान को टिड्डा, प्रतापी, शेख और पव्वे का ध्यान आया, जो कि होटल में मौजूद थे। अगर जगमोहन पर कोई खतरा आ सकता है तो उन पर भी आ सकता है। परन्तु अभी कुछ भी पक्का नहीं था। क्या पता जगमोहन किसी वजह से कार छोड़ गया हो और टैक्सी पर गया हो?
परन्तु इन हालातों में देवराज चौहान कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहता था।
बैंक वैन डकैती की पूरी तैयारी हो चुकी थी। वो चारों उसी के भरोसे थे और पन्द्रह दिनों से दिन-रात मेहनत कर रहे थे। डकैती टाली नहीं जा सकती थी। वैसे भी डकैती में ज्यादा वक्त नहीं लगना था। देवराज चौहान ने जेब से मोबाइल निकाला और शेख का नम्बर मिलाया।
"हैलो...।" शेख की आवाज कानों में पड़ी।
"तुम चारों इसी वक्त ये होटल छोड़ दो।" देवराज चौहान की नजरें आसपास दौड़ रही थीं।
"क्यों?" शेख का हैरानी भरा स्वर कानों में पड़ा।
"जो कहा है, वो ही करो। बाहर निकलने के लिए होटल का पीछे का दरवाजा इस्तेमाल करना। सतर्कता बरतना। कहीं और ठिकाना बनाओ। ये देख लेना कि कोई पीछे न हो। मुझे फोन पर बता देना कि तुम लोग कहाँ हो। शाम को मिलूँगा।""
"कोई खतरा है?"
"अभी कुछ नहीं पता। जो कहा है, वो ही करो।" कहकर देवराज चौहान ने फोन बंद किया।
सब ठीक लग रहा था देवराज चौहान को।
परन्तु कार में चाबी लगी मिलना। जगमोहन के फोन का स्विच ऑफ होना। ये दोनों बातें उसके मन में बार-बार उठ रही थीं कि कहीं जगमोहन के साथ कुछ हुआ तो नहीं?
उसके बाद देवराज चौहान अपनी कार में बैठा और आगे बढ़ गया।
◆◆◆
देवराज चौहान जब मल्होत्रा से पूछ कर गया तो पीछे मौजूद मलिक ने कहा---
"निकल चल। अब हमारा यहाँ रुकना ठीक नहीं...।"
मल्होत्रा ने उसी पल वैन स्टार्ट की, आगे बढ़ाकर सड़क पर जाते ट्रैफिक में शामिल हो गया।
सुदेश ने अभी तक जगमोहन के पेट से रिवाल्वर लगा रखी थी।
"हमें यहीं उतार दो।" अम्बा बोला।
मल्होत्रा ने फौरन वैन की रफ्तार सड़क पर ही बेहद कम कर दी।
अम्बा और जगदीश वैन से बाहर निकल गये। मलिक ने दरवाजा बंद किया। उनके जाने के बाद वैन में जगह बन गई थी। वैन की रफ्तार अब तेज हो गई थी।
सुदेश, जगमोहन से रिवाल्वर हटाता कठोर स्वर में कह उठा---
"कोई हरकत मत करना। वरना तेरे को चीर-फाड़ कर खा जाऊँगा।"
"इसके हाथ पीछे करके बांध दो।" मल्होत्रा वैन चलाता बोला--- "डोरी सीट के नीचे पड़ी है।"
सुदेश ने ऐसा ही किया।
जगमोहन के हाथ पीछे करके बाँध दिए।
"आखिर तुम लोग चाहते क्या हो?" जगमोहन थके स्वर में कह उठा--- "कुछ पता तो चले...।"
"तुमने देखा कि हम देवराज चौहान को कितनी आसानी से शूट कर सकते थे?" मलिक बोला।
जगमोहन ने सहमति में सिर हिलाया।
"परन्तु हमने ऐसा नहीं किया। क्योंकि तुम उसे जिन्दा देखना चाहते हो।" मलिक ने कहा।
जगमोहन ने होंठ भींच लिए।
"हो सकता है तुम सोच रहे हो कि एक बार तो देवराज चौहान को हमने ढूंढ लिया, परन्तु अब नहीं ढूंढ सकेंगे।"
"मैं कुछ नहीं सोच रहा।" जगमोहन ने कहा।
"तुम बहुत कुछ सोच रहे हो। जिसमें दो बातें खास हैं। पहली ये कि हम चाहते क्या हैं, दूसरी ये कि तुम हमारे हाथों से कैसे बचकर भाग सकोगे। ये दो बातें तो बार-बार तुम्हारे दिमाग में आ रही होंगी। परन्तु मैं तुम्हें दूसरी बात का जवाब दे देता हूँ कि तुम हमारे हाथों से, हमारी मर्जी के बिना बचकर नहीं निकल सकते।"
"और पहली बात का जवाब...।"
"उसका जवाब भी तुम्हें जल्दी मिल जायेगा।"
"अभी क्यों नहीं बताते?"
"पहले हम तुम्हें समझा देना चाहते हैं कि हमारे हाथ बहुत लम्बे हैं। ये सब खेल नहीं हो रहा। ये तो शुरुआत भर है। असली खेल तो अभी शुरू भी नहीं हुआ।" मलिक ने कहा।
"कैसा खेल?"
"पता चल जायेगा।"
"मैं अभी जानना चाहता हूँ...।" जगमोहन ने बेचैनी से कहा।
"अभी नहीं। लेकिन जल्दी सब कुछ जान जाओगे। अब खामोश रहो।"
"लेकिन तुम तो...।"
उसी पल मलिक का मोबाइल बजा।
"कहो।" मलिक ने बात की।
"देवराज चौहान अपनी कार में चल पड़ा है।" अम्बा की आवाज कानों में पड़ी।
"किस तरफ?"
"जिधर हमारी वैन गई है।"
"नजर रखो और बताते रहना।" कहकर मलिक ने मोबाइल बंद किया और मल्होत्रा से बोला--- "वैन को किसी ओट में रोक लो।"
मल्होत्रा ने वैन की रफ्तार कम करनी शुरू कर दी।
"आखिर ये सब क्या हो रहा है?" जगमोहन गुस्से से कह उठा।
मलिक ने जगमोहन की आँखों में देखा, फिर कह उठा---
"जब देवराज चौहान निशाने पर था, तब तो तुम्हारी आवाज नहीं निकल रही थी। अब ऊँचे बोल रहे हो?"
"तुम ठीक से बताते क्यों नहीं कि मुझसे क्या चाहते हो?"
"कहा तो है कि बताऊँगा। परन्तु सब्र के साथ। हमारे हाथों की लम्बाई देख लो।"
"तुम...।"
तभी सुदेश ने रिवाल्वर की नाल उसकी छाती पर रख दी।
जगमोहन ने सुदेश को देखा।
"चुप हो जा! वरना दिल में छेद बना दूँगा। तेरे से ऐसा कोई प्यार नहीं है हमें कि तुझे बख्श दें।" सुदेश ने खतरनाक स्वर में कहा।
मल्होत्रा वैन को मुनासिब जगह रोक चुका था।
वे सब वैन में ही बैठे रहे।
अम्बा और जगदीश के फोन आते रहे। मलिक उनसे बात करता रहा।
◆◆◆
जगमोहन के हाथ पीछे की तरफ सख्ती से बांधे हुए थे। वो सीट पर बैठा परेशान अन्दाज में कभी मलिक को देखता तो कभी सुदेश को। मल्होत्रा उसकी पीठ के पीछे ड्राइविंग सीट पर था। वो तभी नजर आता जब थोड़ी सी गर्दन घुमा कर पीछे की तरफ देखता था। सुदेश ने रिवाल्वर अपने हाथ में पकड़ी हुई थी।
अभी-अभी वैन एक बाजार में दुकानों के सामने रुकी थी।
जगदीश का फोन आया मलिक को।
"कहो।"
"तुम लोग ठीक जगह रुके हो। देवराज चौहान ठीक सामने वाली दुकान के भीतर है।"
मलिक ने फोन बंद करके जेब में रखा और एक तरफ रखी टैलिस्कोप लगी गन उठाई।
जगमोहन ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी।
मलिक ने सामने वाले वैन डोर का काला शीशा थोड़ा सा सरकाया और गन की नाल वहाँ रख कर अटका दी। फिर जगमोहन को देखकर टैलिस्कोप पर आँख लगा दी।
"क्या करने जा रहे हो तुम?" जगमोहन बेचैन था।
"उधर देख, जिधर गन का मुँह है। ठीक सामने दुकान में...।" मलिक ने टैलिस्कोप पर आँख लगाए कहा।
जगमोहन में उधर देखा। दुकान के भीतर।
काले शीशों के बाहर स्पष्ट नजर आ रहा था।
अगले ही पल जगमोहन की आँखें फैल गईं।
दुकान के भीतर देवराज चौहान खड़ा नजर आ रहा था। जगमोहन समझ गया कि जो काम देवराज चौहान ने उसे करने को कहे थे, उन कामों को वो स्वयं कर रहा है। इस दुकान में उसके मौजूद होने का यही मतलब था। इससे जगमोहन को ये भी समझ में आ गया कि देवराज चौहान को उसके साथ कोई गड़बड़ होने का एहसास हो चुका है, तभी तो वो उसके हिस्से के कामों को पूरा करने में लगा हुआ है। यानि कि कल डकैती तो होगी ही।
"तुम क्या करने जा रहे हो?" जगमोहन ने तेज स्वर में कहा--- "उस पर गोली मत चलाना।"
"मैं सोच रहा हूँ कि शिकार इतने करीब है कि टैलिस्कोप की जरूरत नहीं है।" मलिक बोला।
"भगवान के लिये ये सब मत करो। गन हटा लो...।"
"निशाना बहुत बढ़िया लगेगा।" मलिक टैलिस्कोप पर आँख लगाए बोला।
जगमोहन ने बंधे हाथों से ही मलिक पर झपटना चाहा।
सुदेश तैयार बैठा था। उसने फौरन उसके पेट से रिवाल्वर लगाई और गुर्राया---
"वहीं रह, वरना देवराज चौहान से पहले तू मरेगा।"
जगमोहन होंठ भींचकर ठिठक गया।
"अब वो जल्दी ही दुकान से निकलेगा।" मलिक टैलिस्कोप पर आँख लगाए बोला।
"तुम ये सब क्यों कर रहे हो? गन हटा लो।" जगमोहन सूखे स्वर में कह उठा।
मलिक ने टैलिस्कोप से आँख हटाकर जगमोहन को देखा।
"ना मारूँ?"
"नहीं...।" जगमोहन कह उठा।
"लेकिन मैं तुम्हारी बात क्यों मानूँ?" मलिक के चेहरे पर गम्भीरता थी।
"तुम अगर मुझसे कोई काम लेना चाहते हो तो, मैं वो करूँगा।"
"इतनी जल्दी मान गये? काम सुने बिना ही मान गये?" मलिक ने गम्भीरता से कहा।
"देवराज चौहान को मत मारो। तुम जो कहोगे... मैं वही करूँगा।"
"गन हटा लूँ?"
"हाँ...।"
मलिक ने शराफत से गन हटा ली।
खिड़की का शीशा बंद कर दिया।
जगमोहन ने राहत की साँस ली।
"बाहर देखो, देवराज चौहान को।"जगमोहन ने बाहर देखा।
देवराज चौहान दुकान से बाहर निकल रहा था।
जगमोहन ने उसे देखते हुए होंठ भींच लिए। वैन पर देवराज चौहान की निगाह नहीं पड़ी थी। हाथ में एक लिफाफा पकड़ा हुआ था और वो कुछ दूर खड़ी अपनी कार की तरफ बढ़ गया था।
होंठ भींचे जगमोहन ने मलिक को देख कर कहा---
"क्या चाहते हो तुम?"
"मैं तुम्हें समझाना चाहता हूँ कि मेरे हाथ बहुत लम्बे हैं। देवराज चौहान को मैं कभी भी मार सकता हूँ।" मलिक बोला।
"मैं समझ गया।"
"अभी नहीं समझ सके तुम।" मलिक ने इन्कार में सिर हिलाया--- "तुम अभी की बात को हवा में ले रहे हो। मैं तुमसे कोई मजाक नहीं कर रहा। कड़वी हकीकत का तुम्हें एहसास कराने की कोशिश कर रहा हूँ...।"
"मुझे एहसास हो गया है।"
"जल्दी मत करो। अभी तसल्ली से एहसास करो। हमारे पास बहुत वक्त है। मल्होत्रा, चलो यहाँ से।"
मल्होत्रा ने वैन स्टार्ट की और वहाँ से आगे बढ़ा दी।
जगमोहन के होंठ भिंचे हुए थे।
सुदेश ने रिवाल्वर उस पर से हटा ली।
"हाथ बंधे होने की वजह से मुझे बैठने में तकलीफ हो रही...।"
"तुम्हारे भले के लिए ही ये सब किया गया है।"
"मेरा भला?"
"देवराज चौहान का भी भला है इसमें।"
"मैं समझा नहीं...।"
"जब मैं देवराज चौहान को शूट करूँगा तो उस वक्त तुम मुझ पर झपट सकते हो। ऐसा किया तो सुदेश तुम्हें गोली मार देगा और देवराज चौहान भी नहीं बचेगा। ये सब ना हो, इसलिए तुम्हारे हाथ बांधे गये हैं।" मलिक का चेहरा सपाट था।
जगमोहन कठोर चेहरे को घुमाकर वैन के काले शीशों से बाहर देखने लगा।
तभी मलिक का फोन बजा।
"कहो...।" मलिक ने बात की।
"देवराज चौहान कार में बैठ कर रवाना हो रहा है।" जगदीश की आवाज कानों में पड़ी।
"पीछे रहो और मुझे बताओ कि अब मैं कहाँ पर देवराज चौहान का निशाना ले सकता हूँ।" कहकर मलिक ने फोन बंद किया।
जगमोहन कह उठा---
"तुमने अम्बा और जगदीश को देवराज चौहान के पीछे लगा रखा है।"
"गलतफहमी में मत रहो। वो सिर्फ दो नहीं। काफी सारे लोग हैं। देवराज चौहान घिरा पड़ा है।" मलिक गम्भीर था।
जगमोहन, मलिक को देखता रहा।
"शायद तुम्हें मेरी बात का भरोसा नहीं हो रहा। तुम सोचते हो कि मैं ये बात झूठ कह रहा हूँ...।"
जगमोहन चुप रहा।
"ठीक है। मैं तुम्हें साबित करके दिखाऊँगा कि देवराज चौहान को मैंने पिंजरे में बंद कर रखा है।"
"तुम साबित ही करते रहोगे या अपने बारे में भी कुछ...।"
"बताऊँगा। बताऊँगा। लेकिन इससे पहले तुम्हें हर बात की तसल्ली करा देना चाहता हूँ कि ये सब खेल नहीं हो रहा।"
जगमोहन पुनः बाहर देखने लगा।
वैन तेजी से दौड़ी जा रही थी।
"मल्होत्रा!" मलिक कह उठा--- "वैन को कहीं खड़ी कर दो। जब तक कि अगला फोन नहीं आता।"
देवराज चौहान कार में बैठा और हाथ में थाम रखा लिफाफा बगल की सीट पर रखा। चेहरे पर चिन्ता की लकीरें कभी-कभार दिखाई देने लगती थीं। जेब से मोबाइल निकाला और जगमोहन का नम्बर मिलाया।
स्विच ऑफ ही आया।
दो-तीन बार नम्बर मिलाया।
परन्तु कोई फायदा नहीं हुआ।
देवराज चौहान ने कार स्टार्ट की और आगे बढ़ा दी।
कहाँ जा सकता है जगमोहन? क्या हुआ होगा उसके साथ? देवराज चौहान को इस बात का विश्वास आ चुका था कि जगमोहन के साथ बुरी घटना घटी है। तभी तो चाबी कार में लगी रह गई। तभी तो उसके मोबाइल का स्विच ऑफ आ रहा है। तभी तो जगमोहन ने उसे फोन नहीं किया। यकीनन उसके साथ कोई हादसा पेश आया है। आखिर क्या हुआ होगा उसके साथ?
अपने सवालों का उसके पास कोई जवाब नहीं था।
कुछ देर बाद देवराज चौहान ने बाजार के अन्य हिस्से में कार पार्क की और दुकानों वाली एक गली में प्रवेश कर गया। जगमोहन के हिस्से के काम अब वो स्वयं पूरे कर रहा था।
◆◆◆
मलिक खिड़की का शीशा थोड़ा सा खोले, गन उस पर टिकाये, टैलिस्कोप पर आँखें टिकाये बैठा था। सामने वो गली थी, जिधर देवराज चौहान गया था। लोग गली में आ-जा रहे थे।
जगमोहन होंठ भींचे बेचैनी से मलिक को देख रहा था।
सुदेश ने जगमोहन के पेट से रिवाल्वर लगा रखी थी।
मल्होत्रा वैन की स्टेयरिंग सीट पर सतर्क अन्दाज में बैठा था।
"तुम आखिर करना क्या चाहते हो?" जगमोहन ने उखड़े स्वर में मलिक से पूछा।
"अभी भी नहीं समझे...।"
"तुम मुझे दिखाना चाहते हो कि तुम कभी भी देवराज चौहान को मार सकते हो।"
"हाँ। तुम्हारे लिये ये गम्भीर मसला है। नहीं है क्या?"
जगमोहन चुप रहा।
"लगता है तुम इन बातों से तंग आ गये हो और अब देवराज चौहान को शूट होते देखना चाहते हो...।"
"नहीं, मैं ऐसा नहीं चाहता।"
मलिक की आँख, बातों के दौरान, टैलिस्कोप पर ही थी।
"सच में...।"
"हाँ, सच में...।"
"वो देखो। देवराज चौहान आ रहा है। अब तुम मेरा निशाना देखना मिस्टर जगमोहन...।"
जगमोहन की निगाह फौरन गली की तरफ गई।
देवराज चौहान आता दिखा। हाथ में एक लिफाफा थमा था।
"गोली मत चलाना।" जगमोहन ने तेज स्वर में मलिक से कहा।
"आवाज नीची रख...।" सुदेश गुर्राया।
"गोली मत चलाना।" जगमोहन भिंचे स्वर में बोला--- "प्लीज, उसे मत मारना।"
"न मारूँ?"
"न... हीं...।" जगमोहन का गला सूख रहा था।
मलिक ने टैलिस्कोप पर से आँख हटाई और जगमोहन को देखकर बोला---
"ठीक है। तेरी बात मानी। देवराज चौहान को शूट नहीं करता।"
इसके बाद मलिक ने गन भीतर की और खिड़की के जरा से खुले शीशे को बंद कर दिया।
जगमोहन की निगाह देवराज चौहान पर थी। जो कि गली से बाहर निकल कर आगे को जा रहा था और वैन से पांच कदमों की दूरी से निकला था। सुदेश ने जगमोहन के पेट से रिवाल्वर सटा रखी थी।
जगमोहन होंठ भींचे, चिन्ता भरी आँखों से देवराज चौहान को जाते देखता रहा।
मलिक ने सिग्रेट सुलगा कर कश लिया और बोला---
"सिग्रेट लोगे मिस्टर जगमोहन...।"
"नहीं...।" जगमोहन ने बेचैनी से मलिक को देखा।
मलिक पुनः कश लेकर गम्भीर स्वर में कह उठा---
"तुम बार-बार देवराज चौहान को बचा लेते हो और मैं भी तुम्हारी बात मान कर गोली नहीं चला रहा। मैं भी देखता हूँ कि आखिर कब तक मुझे रोकते रहोगे। कभी तो तंग आकर कहोगे कि मार दो गोली!"
जगमोहन ने होंठ भींच लिए।
"चलो मल्होत्रा।"
मल्होत्रा ने वैन आगे बढ़ा दी।
◆◆◆
घण्टे भर में काम निपटा कर देवराज चौहान बंगले पर आ पहुँचा। आशा तो नहीं थी, फिर भी बंगले पर एक नजर मार लेना जरूरी समझा कि कहीं जगमोहन वहाँ ना हो।
जगमोहन वहाँ नहीं मिला उसे।
देवराज चौहान के चेहरे पर स्पष्ट तौर पर चिन्ता झलक उठी। कहाँ होगा जगमोहन? क्या हुआ होगा उसके साथ?
कोई जवाब नहीं था उसके पास।
परेशानी बढ़ने लगी देवराज चौहान की। कल बैंक वैन डकैती करनी थी और आज जगमोहन के साथ कोई हादसा पेश आया और वो लापता हो गया। इस मौके पर अपनी मर्जी से जगमोहन कहीं नहीं जा सकता था।
इसी पल देवराज चौहान का मोबाइल बजने लगा।
उसने जल्दी से फोन निकाला और कॉलिंग स्विच दबा कर बात की---
"हैलो।"
"हमने वो होटल छोड़ दिया और इस वक्त कुर्ला के ठाकर होटल में हैं।" पव्वे की आवाज कानों में पड़ी।
"ठीक है।" देवराज चौहान ने कहा।
"बात क्या हुई? तुमने हमें आनन-फानन होटल छोड़ने को क्यों कहा?"
"शाम को बात करूँगा।"
"सब ठीक तो है?"
"हाँ...।" देवराज चौहान ने कठिनता से कहा।
"कल हम बैंक वैन पर डकैती कर रहे हैं ना?"
"हाँ। ये काम पक्का होगा।"
"शुक्र है! मैं सोच रहा था कि कहीं काम खटाई में ना पड़ जाये।"
"सब ठीक है। शाम को मिलूँगा।" कहकर देवराज चौहान ने फोन बंद करके जेब में रखा।
उसके बाद देवराज चौहान ने किचन में जाकर कॉफी बनाई और सोफे पर बैठ कर छोटे-छोटे घूंट भरने लगा। चेहरे पर सोचों का समन्दर तैर रहा था। हर सोच जगमोहन पर जाकर खत्म हो रही थी।
चाय पीने के बाद देवराज चौहान उठा और बंगला लॉक करके कार में बैठ कर बाहर निकल गया।
◆◆◆
"तुम बार-बार गन से देवराज चौहान का निशाना लेने की कोशिश क्यों करते?" जगमोहन तेज स्वर में बोला।
"मिस्टर जगमोहन! मैं तुम्हें समझा रहा हूँ कि देवराज चौहान बार-बार मेरी गन के निशाने पर आता है। मैं उसे गोली मारना चाहता हूँ, परन्तु तुम्हारी बात मानकर, मैं देवराज चौहान को शूट नहीं कर रहा।"
"शुक्रिया...।" जगमोहन ने होंठ भींचकर कहा और बाहर देखा।
सामने बंगला था।
अभी-अभी देवराज चौहान कार में बैठकर बाहर गया था।
वो जानता था कि देवराज चौहान उसे ढूंढ रहा है।
"चलो मल्होत्रा।" मलिक ने कहा।
मल्होत्रा ने उसी पल वैन आगे बढ़ा दी।
सुदेश ने जगमोहन के पेट पर लगा रखी रिवाल्वर हटा ली।
दोनों हाथ पीछे बंधे होने की वजह से जगमोहन बेबस सा हुआ पड़ा था।
जगमोहन ने मलिक को देखकर कहा---
"तुम अण्डरवर्ल्ड से वास्ता रखते हो?"
"नहीं...।"
"पुलिस वाले या फिर किसी तरह के सरकारी कर्मचारी हो?"
"वो भी नहीं।"
"फिर कौन हो और ये सब क्यों कर रहे हो? इतना तो जाहिर है कि तुम मुझसे कुछ चाहते हो।"
मलिक ने नाल भीतर की और खिड़की बंद करके, गन एक तरफ रखी।
"तुम आखिर सीधे मुँह बात क्यों नहीं करते?" जगमोहन झल्लाया।
"वो वक्त भी आयेगा।"
"मैं जान चुका हूँ कि तुम्हारे हाथ लम्बे हैं और तुम जब भी चाहो, देवराज चौहान को शूट कर सकते हो।"
"मैं ये ही समझाना चाहता हूँ, परन्तु अभी कच्चे समझे हो। मैं पक्की तरह समझाना...।"
"मैं पक्की तरह समझ चुका...।"
"तुम्हारे कहने से क्या होता है! मुझे भी तो इस बात का विश्वास होना चाहिये।" मलिक का स्वर गम्भीर था।
"तुम्हें कैसे विश्वास होगा?"
"जल्दी हो जायेगा। तुम्हें इस बारे में परेशान नहीं होना चाहिये। ये मेरी परेशानी है।"
"तुम मामले को लम्बा खींच रहे हो।"
"नहीं। मैं सारा काम तसल्लीबख्श करना चाहता हूँ। जल्दी नहीं कर रहा। क्योंकि हालात गम्भीर होने वाले हैं।"
जगमोहन होंठ भींचे व्याकुल सा मलिक को देखने लगा।
मलिक का मोबाइल बजा।
"कहो...।" मलिक ने बात की।
"मेरे ख्याल में देवराज चौहान वहाँ पर वापस जा रहा है, जहाँ जगमोहन की कार खड़ी है।" अम्बा की आवाज कानों में पड़ी।
"यह ठीक है। हम भी उसी तरफ आते हैं।" फिर वो मल्होत्रा से बोला--- "जहाँ जगमोहन की कार खड़ी है, वहाँ चलो।"
मल्होत्रा ने सिर हिला दिया।
अम्बा की आवाज पुनः कानों में पड़ी---
"देवराज चौहान परेशान है कि जगमोहन कहाँ चला गया...।"
"वो जो करता है, करने दो। तुम सुनो। जगमोहन को दिखाना है कि तुम सिर्फ दो नहीं, ज्यादा हो। इस बार देवराज चौहान को घेर लेना और सबसे कह देना कि आते-जाते दो-दो हाथ उसे लगाते जायें...।"
"ये तुम क्या कह रहे हो...।" जगमोहन ने कहना चाहा।
परन्तु मलिक उसकी बात की परवाह किए बगैर कह रहा था---
"ये काम पूरी तरह सावधानी से करना। मत भूलना कि वो डकैती मास्टर देवराज चौहान है। कहीं ऐसा न हो कि तुम लोगों की बेवकूफी की वजह से वो तुम सब को ठोक दे।" कहकर मलिक ने फोन बंद कर दिया।
"ऐसा तुमने क्यों कहा?" जगमोहन तीखे स्वर में बोला।
"मैं तुम्हें दिखाना चाहता हूँ कि मेरे कितने आदमी इस काम पर हैं...।"
"मुझे विश्वास है तुम पर। तुम क्यों झगड़ा...।"
"मैं तुम्हें अच्छी तरह यकीन दिलाऊँगा मिस्टर जगमोहन...।" मलिक गम्भीर स्वर में बोला--- "मेरी आदत है कि एक काम को अच्छी तरह करने के बाद दूसरा काम करो। ताकि दोबारा पीछे देखने की जरूरत न पड़े। मल्होत्रा!"
"हाँ...।" मल्होत्रा ने बिना पीछे देखे कहा।
"वैन को वहीं रोकना, जहाँ पहले रोकी थी।" मलिक ने कहा।
◆◆◆
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