बैल बजने पर सत्या बाहर आई। शांता को देखकर उसने ग्रिल में लगी जंजीर का ताला खोला। शांता के भीतर प्रवेश करने पर, सत्या ने पुनः ग्रिल में जंजीर लगाई और भीतर की तरफ बढ़ गई।
भीतर प्रवेश करने पर उसने शांता को सोफा चेयर पर आराम की मुद्रा में बैठे पाया। सत्या की प्रश्नभरी निगाह शांता पर जा टिकी। शांता ने पास पड़ा पैकिट उठाया और सिगरेट सुलगा ली।
"ऐसे क्या देखती है मां। काम निपट गया है।" शांता ने कश लेकर कहा।
सत्या के चेहरे पर कोई भाव नहीं आया। जवाब में हौले से उसने सिर हिला दिया।
"फोन आया ?"
"एक फोन काम का था।" सत्या के होंठ खुले--- "छः महीने पहले तूने चार लड़कियों की शादी कराई थी। उनमें से एक का फोन था। बोलती थी उसका मरद उसे धंधा करने को बोलता है। और खुद कुछ नहीं करता ।"
"भेज दे किसी को उसके पास । उसके हाथ-पांव तोड़कर उसे सबक सिखा देगा और साथ में बोल देगा कि जब हाथ-पांव ठीक हो जायें तो मुझसे आकर मिले।" शांता ने कहा।
सत्या ने फोन उठाया और यह आदेश आगे किसी को दे दिया। जब वह इस काम से फारिग हुई तो शांता ने आंखें बंद करते हुए कहा।
"पानी पिला मां।"
सत्या गई और पानी लेकर आ गई।
शांता ने सीधा बैठते हुए पानी पिया और गिलास सत्या को थमा दिया।
"विष्णु नहीं आया अभी तक ?”
"नहीं।" सत्या की निगाह, शांता पर जा टिकी ।
शांता का चेहरा कठोर होने लगा।
"मां, बाहर वालों को तो रिवॉल्वर दिखाकर, गोली मारकर सीधा किया जा सकता है। लेकिन विष्णु का क्या करूं। गोली मारूं क्या? एक बार समझा चुकी हूं। नहीं समझा। लगता है इसे हॉस्टल में पढ़ाकर गलती की है। मैंने तो सोचा था कि हमारे धंधे में पढ़ा-लिखा कोई होगा तो आड़े वक्त हमारे काम आयेगा । परन्तु विष्णु हाथों से निकलता नजर आ रहा है।" शांता के होंठ भिंचे हुए थे। शब्दों में अजीब-सी सख्ती थी।
सत्या के चेहरे पर भी खिंचाव आ गया था।
तभी बगल वाले कमरे से केदारनाथ निकला और शांता को देखते ही बोला ।
"शांता, तू बद्दी को अकेले ही मारने गई। पागल तो नहीं हो गई। फोन करके दो-चार को भेज.....।"
"पापा, ज्यादा मत बोल, मेरा जाना जरूरी था।" शांता ने केदारनाथ को घूरा--- "मैं विष्णु की बात कर रही हूं।"
“सुना, मैंने तेरी बात सुनी।" केदारनाथ बैठता हुआ बोला--- "वही सुनकर बाहर आया हूं। सब तेरी गलती है।"
"मेरी!" शांता का चेहरा कठोर हुआ।
"हां, मैंने बोला था, हमारी अपनी दुनिया है। विष्णु को हॉस्टल पढ़ने मत भेज। बिगड़ जायेगा। शराफत की हवा लग गई तो हाथ नहीं आयेगा और शायद वही हो रहा है।" केदारनाथ ने गम्भीर स्वर में कहा--- “बीस साल, मैंने धंधा संभाला है। लेकिन कभी गलती नहीं की। बाहर भी संभाला और घर भी। विष्णु को हॉस्टल भेजकर गलती कर बैठी है।"
"ज्यादा मत बोल।" शांता कठोर आवाज में कह उठी--- "अगर मुझसे गलती हुई है तो उससे कहीं अच्छी तरह संभाल लूंगी।"
"क्या करेगी, सजा देगी भाई को, गोली मारेगी उसे?"
"हमारे धंधे के खिलाफ जो जायेगा।” सत्या ने केदारनाथ को घूरा--- "बेशक वह घर का ही क्यों न हो, उसके साथ नरमी के साथ नहीं पेश आया जा सकता, आज विष्णु गलत कर रहा है। कल दामोदर करेगा। फिर मीना, एक कड़ी टूटती है तो फिर दूसरी कड़ियों को भी निकलने का रास्ता मिल जाता है। विष्णु को किसी तरह की रियायत नहीं मिलेगी। शांता, तेरे को जो करना है कर, जैसे भी हो विष्णु को अपने कहने में रख।"
केदारनाथ ने दोनों को देखा।
"जवान खून है, बगावत कर दी तो?"
"चुप रहो ।” सत्या ने केदारनाथ को देखा--- “हमारा जवान खून, हमारे ही काम का नहीं तो वह दुनिया के लिये भी बेकार है।"
“जो ठीक समझो, करो। मेरी यह राय है कि सोच-समझकर विष्णु के सामने पेश आना।"
शांता ने कश लेकर सिगरेट ऐश-ट्रे में डाल दी।
“पापा, तुम खान का होटल मून लाइट अपने कंट्रोल में लो । अपने लोग साथ ले जाना । काम जैसे चल रहा है, वैसे ही चलने देना । जो स्टाफ है वही रहेगा। सबको नोट करते रहो। जो काम का न लगे या खान का ज्यादा वफादार लगे, उसे निकाल दो और खान का कोई आदमी होटल में नहीं आये।"
"वो खान का इलाका है। अगर वो कोई पंगा करने की कोशिश...।"
"वो कुछ नहीं करेगा, तुम जाओ।"
केदारनाथ ने जेब में रखी रिवॉल्वर निकाली उसे चैक किया फिर उठ खड़ा हुआ।
■■■
शाम के आठ बज रहे थे जब विष्णु आया।
शांता नहा-धोकर कपड़े बदल चुकी थी और अब फ्रेश लग रही थी। तभी फोन की बेल बजी। अपने कमरे से वह निकली और दूसरी तरफ से सत्या ने आकर फोन उठाया, बात की। फिर रिसीवर रखकर शांता से बोली।
"तेरे बाप का फोन था। बोलता है मून लाइट होटल का चार्ज संभाल लिया है। सुबह लौटेगा ।"
शांता ने सिर हिलाकर कहा।
"मां, पैग बना दे।"
सत्या पलटने लगी कि तभी बैल बजी, वो बाहर की तरफ बढ़ गई।
कुछ पलों बाद लौटी तो साथ में विष्णु था, सत्या वहां से चली गई।
शांता ने विष्णु को देखा, हौले से मुस्कराई।
"आ विष्णु, बैठ।"
आगे बढ़कर विष्णु बैठा। चेहरे पर किसी तरह का भाव नहीं था।
"तेरे को दस दिन दिए थे, डॉक्टर वधावन की बेटी को फुसलाकर कहीं लाने के लिए, वो पूरे हो गये हैं । लेकिन काम अभी तक नहीं हुआ। अगर काम करने की तेरी यही रफ्तार रही तो मेरे को सोचना पड़ेगा।” शांता का स्वर सपाट था।
"मैं अपना काम ही कर रहा हूं।” विष्णु ने कहा--- "ये काम इतना लम्बा नहीं है, जितना कि तू वक्त ले रहा है। वधावन की लड़की को फांस चुका है। अब देरी किस बात की ?"
"कोई देरी नहीं।"
"साफ बोल ।"
"वो मेरा घर और मेरे घर वालों से मिलने को कह रही है।" विष्णु ने स्थिर स्वर में कहा ।
शांता उसे देखती रही।
"आस्था मेरे साथ शादी करने को भी कह रही है।"
"शादी!"
"हां।"
"तू क्या सोचता है, इस बारे में?"
"मैं कुछ नहीं सोचता, तू जो कहती है, वही करता हूं।" विष्णु के चेहरे पर कोई भाव नहीं था ।
"अच्छा बोलता है तू, हॉस्टल से आकर पहली बार समझदारी की बात की है।" शांता ने उसे देखा ।
तभी सत्या वहां पहुंची और हाथ में थमा पैग, शांता के हवाले कर दिया।
शांता ने घूंट भरा।
सत्या वहीं खड़ी रही, एक निगाह उसने विष्णु को देखा।
"तेरे को बताया है कि डॉक्टर वधावन के पास करोड़ों रुपया है। अमेरिका से वह अंधी दौलत कमाकर लौटा है। अपनी बेटी को पाने के बदले वह पच्चीस करोड़ आसानी से हमारे हवाले कर देगा।"
विष्णु शांत रहा।
"काली पुलिया के पास का इलाका देखा है?"
"हां।" विष्णु ने सिर हिलाया--- “उसके पास एक नई कालोनी बन रही है।"
“उसी कालोनी की बात कर रही हूं। आस्था को वहां ले जा । इकतालीस नम्बर के मकान में उसे रख। घर का सारा सामान वहां मौजूद है। वो बनायेगी और तू खाना। लेकिन तुम दोनों में से कोई भी मकान से बाहर नहीं निकलेगा। अगर वो बिदके तो उसे संभालना तेरा काम है।"
"संभाल लूंगा।"
शांता ने घूंट भरते हुए विष्णु को घूरा ।
“तू उस छोकरी से प्यार करता है या प्यार का नाटक ?”
"क्या मतलब?"
“सीधी बात का मतलब नहीं होता विष्णु ।" शांता का स्वर शांत था।
"तूने क्या बोला था करने को ?” विष्णु ने शांता की आंखों में झांका।
शांता कई पल विष्णु की आंखों में देखती रही फिर बोली।
“मैंने प्यार के नाटक के लिये बोला था।"
"तूने जो बोला था। मैं वो ही कर रहा हूं।" विष्णु की आवाज में किसी तरह का भाव नहीं था।
शांता मुस्कराई। खुलकर मुस्कराई।
"तो कब ले जा रहा है उस छोकरी को, उस मकान में?"
"कल या परसो। जब भी मौका मिला।"
"उससे अगला दिन तो नहीं होगा ?"
"नहीं।"
"जा आराम कर।"
विष्णु उठा और ड्राइंगरूम पार करता हुआ बाहर दूसरे कमरे में निकल गया।
शांता और सत्या की आंखें मिलीं।
शांता ने इशारे से उसे पास बुलाया।
"बैठ ।"
सत्या, शांता के करीब बैठ गई।
"मां, विष्णु डॉक्टर वधावन की छोकरी से प्यार करने लगा है।" शांता ने धीमे स्वर में कहा--- “इस पर पूरी तरह विश्वास नहीं किया जा सकता। बीच मामले में कहीं गड़बड़ कर सकता है।"
"तेरे को ये लगा ?"
"मेरी आंखें धोखा नहीं खातीं और विष्णु की आवाज में काम के प्रति दम भी नहीं है। छोकरी को ले उड़ने की जब बात आती है तो होंठों पर हां होती है, लेकिन आंखें इन्कार करती हैं।" शांता ने तगड़ा घूंट भरा--- "और यह वक्त ऐसा है कि विष्णु पर सख्ती करना ठीक नहीं। एक-दो दिन विष्णु छोकरी को लेकर उस मकान में जायेगा ही। तब वहां अपने दो आदमी भी भेज देना ताकि विष्णु छोकरी के हक में कोई काम न कर पाये। दोनों आदमी इनकी रखवाली करेंगे।"
"विष्णु पर नजर रखने को किसी को लगा दे।” सत्या धीमे स्वर में बोली ।
"ये ही बोलने जा रही हूं।"
"छोटेलाल किसी पर नजर रखने का काम बढ़िया करता है, , उसे बोल दे । विष्णु पर नजर रखे। थोड़ा-बहुत मामला उसे समझा देना ताकि छोटेलाल कहीं भी धोखा न खा सके।" कहने के साथ ही शांता ने एक ही सांस में पैग खाली किया। तब तक सत्या उठकर फोन की तरफ बढ़ गई थी। छोटेलाल से बात करने के लिये।
■■■
रात को बारह बजे दामोदर आया। शांता उसके इन्तजार में ड्राइंगरूम में टहल रही थी। सत्या कुर्सी पर बैठी, अपने व्हिस्की के गिलास से छोटे-छोटे घूंट ले रही थी।
"तुम सोई नहीं शांता । कोई लफड़ा है क्या?" दामोदर ने शांता और सत्या पर निगाह मारी।
"तेरा इन्तजार था दामोदर ।" सत्या ने ठिठककर कहा और सोफे पर बैठ गई।
"मेरा इन्तजार?” दामोदर की निगाह शांता पर जा टिकी।
“जो काम तेरे को बोले थे, पूरे हुए?" शांता बोली।
"हां।"
"मां को तू बोला, देरी से आयेगा, पर्सनल काम है।" शांता का स्वर शांत था।
"हां।" दामोदर संभला।
"तेरे पर्सनल काम कब से शुरू हो गये?" शांता के स्वर में चुभन आ गई।
"वो, मेरे को कहीं जाना था।"
"कहां?"
दामोदर, एकाएक कुछ न कह सका।
"उस छोकरी के पास जाना था, जिसके पास तू जाता है।" शांता ने दामोदर की आंखों में देखा।
"हां।"
"तो जा, मना कौन करता है। लेकिन मुझे मालूम होना चाहिये। कि तू किस वक्त कहां है। हमारे धंधे में कब कहां किसकी जरूरत पड़ जाये। मालूम नहीं पड़ता। कौन-सा वक्त कैसा आ जाये।" शांता ने शब्दों पर जोर देकर कहा ।
“तो मोबाइल मारकर मुझसे बात...।" दामोदर ने कहना चाहा।
“फिर भी।” शांता ने उसकी आंखों में झांका---"मुझे मालूम होना चाहिये कि तू कब कहां है?"
"समझा।"
"आज के बाद तेरे मुंह से पर्सनल काम जैसा शब्द नहीं निकलेगा।" शांता का स्वर कठोर हो गया।
"समझा, पूरी तरह समझा।"
शांता की निगाह सत्या पर गई।
"मीना अभी तक नहीं लौटी ?"
"वो स्मैक छोड़ने गई थी नाके पार। साथ में राजेलाल को भेजा था। दोनों मोटरसाइकिल पर गये थे कि देखने वालों को लगे वो मौज-मस्ती कर रहे हैं।” सत्या ने कहा--- “काम तो हो चुका होगा, उनके अब तक न लौटने से स्पष्ट है कि काम के बाद वे दोनों वास्तव में ही कहीं मौज-मस्ती में लग गये होंगे।"
शांता का चेहरा कठोर हो गया।
"मीना ने स्मैक देकर पच्चीस लाख रुपया लाना था।" शांता एक-एक शब्द चबाकर बोली--- "अगर उसे मौज-मस्ती करनी थी तो रुपया तेरे हवाले करके करती। जवान होने का यह मतलब तो नहीं कि जिम्मेवारी भूल जाये।"
"मैं बात करूंगी उससे।" सत्या बोली।
"अगर तेरी बात न समझे तो मेरे पास भेजना।" कहने के बाद शांता ने दामोदर को देखा--- "तू जा, अभी कोई काम नहीं है।"
दामोदर ने सिगरेट सुलगाई।
"एक खबर सुनने को मिल रही है।" दामोदर ने कहा।
"क्या ?"
"नाके का छोकरा बद्दी जो बहुत तेजी से अपने पैर फैला रहा था, लगता था तरक्की करेगा आगे जाकर। इन दिनों खान के इलाके पर धीरे-धीरे कब्जा करने की कोशिश कर रहा था, किसी ने उसे मार दिया।"
सत्या ने फौरन, शांता को देखा।
"एक पैग बना मां, कुछ देर आराम कर लूं। फिर कोई झंझट आ गया तो रात यूं ही बीत जायेगी।"
सत्या वहां से चली गई।
"तूने मेरी बताई बात को भाव नहीं दिया?" दामोदर बोला।
"खान के कहने पर उसे मैंने मारा है।"
"तुमने?" दामोदर चौंका, फिर संभलकर बोला--- "खान के कहने पर।"
"हां।" शांता मुस्कराई ।
दामोदर ने शांता की आंखों में झांका।
"खान का होटल मूनलाइट देखा है।" शांता बोली।
तभी सत्या पैग ले आई। शांता को दिया, शांता ने घूंट भरा।
"हां।" दामोदर की निगाह शांता पर थीं।
"वो होटल अब मेरे नाम है। इस वक्त पापा उसे संभाल रहे हैं।" शांता ने कहा।
"ओह!" दामोदर मुस्कराया--- “अब समझा।"
"बद्दी को खत्म करना, धंधेबाजी थी। खान से हमारा कोई वास्ता नहीं। यह सिर्फ बिजनेस था, जो हो गया।"
"मूनलाइट से तगड़ी पैदा है। इस तरह खान के इलाके में हमारे पांव जमने शुरू हो जायेंगे और...।"
"ज्यादा आगे मत बढ़ दामोदर । खान को कमजोर मत समझ ।" शांता ने घूंट भरा--- "बद्दी के मामले में वह इस तरह मजबूर हो गया था कि मुझसे बात करने के लिये उसे आगे आना पड़ा। उसका कमाई वाला होटल मिल गया। इसी पर सब कर और अपने धंधे की तरफ ध्यान दे। बेकार का झगड़ा मत ले लेना । हमारे अपने काम ही पूरे नहीं होते। ऐसे में दूसरे के कामों में दखल देना समझदारी नहीं होती।"
"मैंने तो यूं ही बात की थी।"
"मां।" शांता ने सत्या से कहा--- "इसे खाने को दे। जाकर सो जा। कल तेरे को खास काम करना है दामोदर ।"
"क्या ?"
"सुबह बात करना।"
दामोदर अपने कमरे की तरफ बढ़ गया। सत्या किचन की तरफ बढ़ गई।
शांता ने पैग खाली किया और गिलास रखकर फोन उठाया। नम्बर मिलाया, बात की।
"कहां मरा रहता है तू?" बात होते ही शांता ने कहा--- "तेरे को कितनी बार बोला है तीन-चार दिन में एक बार रात को आ जाया कर। मेरी बात पर तू ध्यान क्यों नहीं देता।"
"ये बात नहीं है शांता ।" दूसरी तरफ से युवक की आवाज कानों में पड़ी--- "घर पर आने में झिझक होती है। तेरे सारे घर वाले वहां होते हैं। ऐसे में...।"
"फिर वो ही बात।" शांता उखड़ी— “कभी हमने रात को कमरे का दरवाजा खुला रखा है क्या? दरवाजा बंद ही रहता है। और फिर वो सब ये नहीं करते क्या। मेरी मां ने बाप से किया, तभी मैं और बाकी पैदा हुए। ये सब भी जरूरी होता है, जैसे खाना, पेट के लिए जरूरी होता है। तू अभी पहुंच यहां। आग लगी हुई है। मां को बोल दूंगी। तेरे वास्ते वो भीतर आने के लिये ताला खोल देगी। जल्दी पहुंच ।" कहने के साथ ही शांता ने फोन बंद किया और उसे वापस रखकर सिगरेट सुलगा ली।
■■■
अगले दिन सुबह दामोदर को छः बजे काम पर भेजकर, शांता फुर्सत पाकर हटी तो सत्या को उसने चाय लाने को कहा। तभी विष्णु अपने कमरे से निकलकर शांता के पास पहुंचा।
"बहन ।"
शांता ने उसे देखा ।
"आज, जैसे भी हो, मैं आस्था को वहां ले जाऊंगा।” विष्णु के स्वर में दृढ़ता थी।
शांता के होंठों पर मुस्कराहट उभरी।
“अच्छा फैसला किया है तुमने।"
विष्णु के चेहरे पर कोई भाव नहीं आया।
"कब मिलना है आस्था से ?"
"ग्यारह बजे, उसके बाद एक साथ लंच करना है। लंच के बाद घुमाने के बहाने उसे उसी मकान में ले जाऊंगा। जहां तुमने बोला था। मेरे ख्याल में चार बजे तक हम वहां पहुंच जायेंगे ।"
“ठीक है। लेकिन मैंने प्रोग्राम को थोड़ा-सा बदला है।" शांता बोली।
"क्या ?"
"तुम आस्था के साथ वहां अकेले नहीं रहोगे, दो आदमी वहां रहेंगे। इससे छोकरी की रखवाली भी हो जायेगी और तुम्हें भी आराम मिलेगा। छोकरी चौबीसों घंटे तंग करती रही तो उसे संभालना तुम्हारे लिये कठिन होगा। बिना आराम किए, कोई भी काम ठीक ढंग से नहीं किया जा सकता।"
"मेरे ख्याल में तो आस्था को संभालने के लिये, मुझे किसी सहारे की जरूरत नहीं है।" विष्णु ने कहा।
"मेरे ख्याल में है।" शांता ने विष्णु की आंखों में झांका।
विष्णु कंधे उचकाकर रह गया।
"छोकरी को कैद करने के बाद, उससे रियायत मत करना। पहले वो शोर डालेगी। बहुत तंग करेगी। सख्ती के साथ पेश आना। फिर धीरे-धीरे ठण्डी होती चली जायेगी।" शांता की निगाह विष्णु पर थी— "जब यह काम हो जाये तो फौरन खबर करना, ताकि डॉक्टर वधावन से बात करके उसे समझाया जा सके कि पुलिस के पास जाने का कोई फायदा नहीं। यह बात दामोदर करेगा। मेरा बात करना ठीक नहीं। पुलिस को युवती की आवाज के कारण इस बात का शक हो सकता है कि इस मामले के पीछे मेरा हाथ है। दामोदर ही डॉक्टर से पच्चीस करोड़ लायेगा ।"
तभी सत्या चाय ले आई।
विष्णु वहां से चला गया।
"मां।" शांता ने चाय का घूंट भरा--- "विष्णु आज छोकरी को ले उड़ेगा। तुमने छोटे लाल को बोल दिया था विष्णु पर नजर रखने को।"
"हां, छोटे लाल अपना काम नहीं भूलता।” सत्या बोली।
■■■
सुबह के सात बज रहे थे।
विजय बेदी, शुक्रा और उदयवीर तैयार होकर गैराज से बाहर निकले और गैराज को ताला लगा दिया। छोकरों ने नौ-साढ़े नौ पर आना था। उनके पास दूसरी चाबी थी।
उदयवीर ने एम्बैसेडर कार की ड्राइविंग सीट संभाली।
बेदी और शुक्रा पीछे वाली सीट पर बैठ गये। उदयवीर ने कार आगे बढ़ा दी। तीनों के बीच कुछ देर खामोशी रही फिर शुक्रा ही बोला।
"आज से हम डॉक्टर वधावन की लड़की को उठा लाने का अभियान शुरू कर रहे हैं और यह अभियान तब तक नहीं खत्म होगा, जब तक हम वधावन की बेटी को नहीं उठा लाते।"
"कितना वक्त लग जायेगा, आस्था को उठाने में?” बेदी कुछ नर्वस हो रहा था।
"कुछ कहा नहीं जा सकता।" शुक्रा ने बेदी पर निगाह मारी--- "भगवान साथ दे तो यह काम आज भी हो सकता है या फिर होने में पन्द्रह दिन भी लग सकते हैं।"
"पन्द्रह दिन।" बेदी के होंठों से निकला और हाथ बरबस ही सिर पर जा पहुंचा।
शुक्रा उसकी हरकत का मतलब समझकर बोला।
"चिन्ता मत कर यार, तेरे दिमाग में फंसी गोली वधावन से ही निकलवाऊंगा।"
बेदी ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी ।
"मैं ठीक हो जाऊंगा ना ?"
"हां, तभी तो भागदौड़ कर रहे हैं। चिन्ता क्यों करता है।" शुक्रा जबरन मुस्कराया।
"विजय, तू अब तक ठीक हो गया होता।" उदयवीर कह उठा--- "अगर पिछली बार मैं तुम लोगों के साथ होता।"
“बकवास मत कर, तेरे को बोला था कि...।" शुक्रा ने गुस्से से कहना चाहा।
“बोला था, सिर्फ बोला था। मैंने सोचा यूं ही चोरी करने की बात कह रहे हो। अगर मुझे मालूम होता कि तुम लोग पक्का इरादा किए बैठे हो तो मैं पीछे नहीं हटता, इन्कार नहीं करता।"
“तू साथ होता तो क्या कर लेता?" शुक्रा ने तीखे स्वर में कहा।
"मालूम नहीं क्या करता, लेकिन अंजना और राघव को डेढ़-दो करोड़ की दौलत लेकर भागने नहीं देता। सालों की टांगे तोड़ देता, गर्दन घुमा देता और...।”
“बस-बस, बाद में सब ऐसे ही कहते हैं।" शुक्रा ने व्यंग्य से कहा— “मैं... ।”
"ऐसे नहीं कह रहा मैं।" उदयवीर गुर्रा उठा--- "मैं सच्ची में ऐसा ही करता।"
उनकी बातों पर बेदी व्याकुल हो रहा था।
"सच पूछ तो गलती अंजना की ज्यादा रही।" शुक्रा एकाएक थके स्वर में कह उठा— “बगल में रहकर छुरी का काम कर गई वो। अगर उसने विजय से रिवॉल्वर लेकर राघव के हवाले न की होती तो वो लोग कभी भी अपनी चाल में सफल नहीं हो सकते थे। हम क्या कर रहे हैं। पास रहकर अंजना सारे हालातों की खबर राघव को देती रही और ठीक मौके पर राघव ने बाज की तरह दौलत पर झपट्टा मार दिया। अंजना घर की भेदी न होती तो, फिर कोई बाहर का हमसे दौलत छीनने में सफल नहीं हो सकता था।"
"यह बात तो है।" उदयवीर का स्वर तीखापन लिए था।
तभी बेदी गुस्से में चीख उठा ।
"तुम लोग क्यों इन बेकार की बातों में वक्त खराब कर रहे हो। मेरे दिमाग में फंसी गोली के बारे में सोचो। डॉक्टर वधावन की बेटी के बारे में सोचो कि उसे कैसे उठाना है। अंजना-राघव को भूल जाओ। बीती बातें ही करते रहेंगे तो फिर कुछ नहीं कर सकते।" बेदी के चेहरे पर गुस्सा नाच रहा था।
कार में कुछ देर के लिये खामोशी-सी छा गई।
"सुनो।" बेदी अपने पर काबू पाकर संयत स्वर में कह उठा--- "हम सोच के मुताबिक डॉक्टर वधावन के बंगले की निगरानी करेंगे। जब उसकी बेटी आस्था बाहर निकलेगी तो उसके पीछे लग जायेंगे। जब भी, जहां भी ठीक-ठाक मौका मिलेगा उसे उठाकर कार में डालकर भाग निकलेंगे। जब भी उसे उठाना होगा, ऐसा ही करना होगा।"
"वधावन का बंगला आ गया है।" तभी उदयवीर कह उठा।
"कार को किसी ऐसी जगह पर खड़ा कर ले कि जब वो लड़की बाहर निकले तो हमें नजर आ जाये।" बेदी बोला ।
"हो सकता है, आज वो बाहर ही न निकले।" उदयवीर कह उठा ।
"कोई बात नहीं, कल-परसों या उससे अगले दिन, कभी तो निकलेगी । तू कार लगा।" शुक्रा ने उदयवीर का कंधा थपथपाकर कहा--- "वधावन की लड़की को हमने हर हाल में उठाना है।"
बेदी के चेहरे पर चिन्ता और तनाव स्पष्ट नजर आ रहा था।
■■■
उस समय ग्यारह बजे थे।
दरबान ने बंगले का गेट खोला तो बेदी कह उठा।
"उदय।" बेदी कह उठा--- "कोई बाहर आयेगा। दरबान ने गेट खोला है ।"
"कोई क्या, वधावन की बेटी आस्था ही होगी। वधावन तो दो-ढाई घंटे पहले क्लीनिक जा चुका है।" शुक्रा बोला।
उदयवीर ने कार स्टार्ट कर ली।
तभी बंगले के खुले गेट से नीले रंग की कार निकली और कुछ आगे आकर उनके पास से ही गुजर कर आगे गई। कार की ड्राइविंग सीट पर बैठी खूबसूरत आस्था की झलक स्पष्ट मिली।
“यही है वधावन की बेटी आस्था ।" शुक्रा जल्दी से बोला--- “उदय कार दौड़ा।"
तैयार बैठे उदयवीर ने एम्बैसेडर को तुरन्त आगे बढ़ा दिया।
तीनों के चेहरे उत्तेजना से भर चुके थे।
आगे वाली कार की स्पीड सामान्य थी। इसलिये एम्बैसेडर से पीछा करने में कोई परेशानी नहीं हो रही थी। अगर स्पीड तेज होती तो एम्बैसेडर से पीछा करना कठिन था।
उत्तेजना से बेदी का दिल धड़क रहा था। उसने शुक्रा की कलाई थपथपाई।
“शुक्रा।" बेदी की आवाज में थिरकन थी-- “अगर आज ही आस्था काबू में जा जाये तो कितना अच्छा हो।”
"देखते हैं भगवान कब मेहरबान होता है।" शुक्रा की निगाह आगे जा रही कार पर थी--- "रिवॉल्वर कहां है?"
"रिवॉल्वर ?" बेदी हड़बड़ाया।
"हां।"
"उसकी क्या जरूरत है।" बेदी ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी।
"डराने के लिये दिखानी तो पड़ेगी ।"
"ओह! हां।" कहने के साथ ही बेदी ने जेब में डाल रखी रिवॉल्वर निकाली जो कि बेहद पुरानी थी। उसका रंग इस कदर उड़ा हुआ था कि समझ नहीं आ रहा था कि जब वह नई थी तो उसका असली रंग क्या रहा होगा। उसे खोला चैम्बर पूरा भरा हुआ था। उसे देखने के बाद बेदी बोला--- “अभी जेब में डाल लेता हूँ। जब जरूरत पड़ेगी तो निकाल लूंगा।"
"ठीक है। मैंने तो तुझे याद दिलाया था कि जब रिवॉल्वर की जरूरत पड़े तो निकालना मत भूलना।"
बेदी ने सिर हिलाकर रिवॉल्वर जेब में डाल ली।
उदयवीर सावधानी से आस्था की कार का पीछा कर रहा था।
“उदय।" शुक्रा ने उदयवीर का कंधा थपथपाया।
"हां।"
"उस लड़की को उठाना है। तेरे को डर तो नहीं लग रहा?"
"नहीं। नहीं, डर कैसा, लेकिन... ।" उदयवीर ने जल्दी से कहा।
"क्या लेकिन?"
"कोई गलत काम पहली बार कर रहा हूं ना, इसलिये दिल धड़क रहा है।"
"ओए, अपने दिल पर काबू रख, नहीं तो अपना यार खड़क जायेगा। इसके दिमाग से गोली निकलवानी है।"
"चिन्ता मत कर, मौका मिलने दे, लड़की को उठा ले जायेंगे।" उदयवीर पक्के स्वर में कह उठा।
"लेकिन इस वक्त यह जा कहां रही होगी ?" शुक्रा बड़बड़ाया।
"उसी विष्णु से मिलने जा रही होगी।" बेदी कह उठा।
"जरूरी तो नहीं।"
"देखते हैं।"
■■■
आस्था ने खूबसूरत होटल के पार्किंग में कार रोकी तो दिन के पौने बारह बज रहे थे। कार से निकलकर कुछ ही आगे बढ़ी कि एक तरफ विष्णु को खड़े पाकर, चेहरे पर मुस्कान आ गई।
"हाय।" आस्था ने हाथ हिलाया।
"हैलो।” विष्णु के चेहरे पर प्यारी-सी मुस्कराहट उभरी।
"सॉरी, लेट हो गई। तुम्हें इन्तजार करना पड़ा।" करीब पहुंचकर आस्था ने हाथ मिलाते हुए कहा।
"कोई बात नहीं।" विष्णु हौले से हंसा--- "मैं भी अभी-अभी पहुंचा हूं।"
"फिर मेरी 'सॉरी' वापस करो।" आस्था हंसी।
दोनों होटल के प्रवेश द्वार की तरफ बढ़ गये।
"लंच में अभी वक्त है।" आस्था कलाई पर बंधी घड़ी पर निगाह मार कर बोली--- "कुछ देर लॉबी में बैठते हैं।"
"मैं भी यही कहने वाला था ।"
दोनों ने होटल के भीतरी हिस्से में प्रवेश किया और लॉबी में मौजूद गद्देदार सोफों पर करीब-करीब बैठ गये। वहां और भी कई लोग थे। मध्यम सी आवाजें वहां गूंज रही थीं। एक तरफ रिसेप्शन, पर दो खूबसूरत युवतियां मुस्कराकर आने वाले लोगों से बात कर रही थीं।
“विष्णु।” आस्था मीठे स्वर में कह उठी--- "जिस दिन तुमसे न मिलूं। दिल नहीं लगता।"
"तो मैंने कब मिलने से मना किया है। सच पूछो तो मेरा भी यही हाल है।" विष्णु ने कहा।
आस्था कई पलों तक उसके खूबसूरत चेहरे को देखती रही।
"आस्था आज मैं तुम्हें खास जगह ले जाऊंगा।"
"कहां ?"
"अपने घर ।"
“सच?" आस्था का चेहरा खुशी से भर उठा।
"हाँ।"
"वहां पर कौन-कौन होगा ?"
"सब। मेरे मां-बाप, भाई-बहन। सबसे कहकर आया हूं कि घर पर रहें।” विष्णु कहकर हंसा ।
"उन्हें बता दिया, मेरे बारे में।" आस्था के स्वर में खुशी भरी पड़ी थी।
"हां।"
"तो क्या कहा उन्होंने ?" आस्था ने उत्सुकता भरे स्वर में पूछा।
“तुम्हारे पापा को जिस तरह तुम पर विश्वास है। उसी तरह मेरे घर वालों को मुझ पर भरोसा है। वह जानते हैं कि मेरी पसन्द उनकी पसन्द पर पूरी तरह खरी उतरेगी।” विष्णु के स्वर में प्यार भरा हुआ था।
"तो अभी चलो।”
"कहां?"
"अपने घर, मैं तुम्हारे घर वालों से...।"
"लंच के बाद, वैसे भी मैंने उन्हें कहा था कि तीन बजे तुम्हे लेकर आऊंगा। उन्हें कुछ इन्तजार तो करने दो।"
आस्था हंसी।
"यह सोचकर मुझे बहुत अच्छा लग रहा है कि आज मैं तुम्हार घरवालों से मिलूंगी।" आस्था ने कहा--- "विष्णु आज रात मैं पापा से बात करूंगी। मैं तुमसे बहुत जल्द शादी करना चाहती हूँ। लेकिन विष्णु जब पापा पूछेंगे कि तुम क्या काम करते हो तो मैं क्या कहूंगी। अभी तक तुमने बताया ही नहीं कि... ।"
"मैं कई काम करता हूँ। मेरे घर वालों के बहुत काम हैं। खानदानी बिजनेस है। मेरे पापा तुम्हारे पापा को बता देंगे ।"
"ठीक है। आज मैं तुम्हारे घर वालों से मिलकर, पापा से बात करके कल का दिन तय करूंगी, बड़ों की बातों के लिये...।" आस्था जैसे फैसले वाले ढंग में कह उठी।
"मंजूर ।" विष्णु ने आस्था का हाथ प्यार से थपथपाया।
■■■
बेदी, शुक्रा और उदयवीर भी होटल की लॉबी में एक तरफ बैठे थे। उन तीनों की निगाहें विष्णु और आस्था पर थीं। जो कि बातों में व्यस्त थे।
"यह विष्णु है।" शुक्रा ने धीमें स्वर में कहा--- “शांता बहन का भाई। वो इतनी खतरनाक है कि बता नहीं सकता।"
दोनों ने कुछ नहीं कहा।
"शांता बहन की मर्जी के बिना उसका परिवार कोई कदम नहीं उठाता। जो कि सुनने में आया है। यहां तक कि प्यार करने की भी इजाजत नहीं है, जैसे कि यह विष्णु कर रहा है। आंखों में आंखें डालकर ।"
“मतलब कि विष्णु चोरी-छिपे यह सब कर रहा है।" बेदी के होंठों से निकला।
"नहीं।" शुक्रा का धीमा स्वर तीखा हो गया--- "मेरे ख्याल में शांता बहन के इशारे पर कर रहा है। वधावन तगड़ी आसामी है। वधावन से नोट झाड़ने की सोच रखी होगी शांता बहन ने ।"
"तूने शांता को देखा है।" बेदी ने शुक्रा पर निगाह मारी।
"हां, एक बार देखा था। बहुत पहले यूँ ही नजर आ गई थी। तब किसी ने बताया था कि वो शांता है।"
"मेरे ख्याल में हमें जल्दी दिखानी चाहिये, इस लड़की को उठाने में।" उदयवीर कह उठा।
"क्यों? शुक्रा बोला।
"वक्त का कोई भरोसा नहीं। कहीं ऐसा न हो कि शांता-विष्णु कुछ कर जाये और हम कुछ न कर सकें।"
"मैं भी यही कहने वाला था।" बेदी व्याकुलता से कह उठा।
"तो?" शुक्रा ने गम्भीर निगाह दोनों पर मारी।
"मैं तो चाहता हूं आज ही किसी तरह लड़की को उठा लें।" कहकर बेदी ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी।
शुक्रा ने उदयवीर को देखा।
"क्या कहता है ?"
"कोशिश करते हैं।" उदयवीर का दिल धड़क रहा था--- "हो सका तो उठा ही लेते हैं आज लड़की को।"
शुक्रा की निगाह विष्णु और आस्था की तरफ उठी ।
"इन दोनों पर बराबर नजर रखनी होगी।" बेदी बोली--- "जहां मौका मिला, पकड़ लेंगे ।"
"साथ में विष्णु है। शांता बहन का भाई। हो सकता है इसके पास रिवॉल्वर हो।" शुक्रा ने कहा।
"रिवॉल्वर?" बेदी का चेहरा पीला पड़ने लगा
"और साला चलाने से परहेज भी नहीं करता होगा। शांता बहन का भाई जो ठहरा।" शुक्रा दांत भींचकर कह उठा।
दो पल उनके बीच खामोशी रही।
"तुम दोनों मेरी बात सुनो।" उदयवीर कह उठा-- आवाज में गम्भीरता थी--- "खतरा तो हर कदम पर सामने आयेगा। खतरा देखकर पीछे हटेंगे तो काम कैसे होगा। इसलिये जो करना है कर दो, सोचेंगे बाद में।"
“शुक्रा, उदय ठीक कहता है।" बेदी के चेहरे पर तनाव उभरा--- "जो काम हम कर रहे हैं। खतरा तो है ही। मेरे ख्याल में लड़की उठाने के बाद ज्यादा खतरों का सामना हमें करना पड़ेगा।"
"वो कैसे?" उदयवीर ने उसे देखा।
"लड़की को उठाने के बाद डॉक्टर वधावन से बात करना, उसे ऑपरेशन के लिये तैयार करना, जाने वह क्या करेगा। क्या जवाब देगा। किसी तरह उसे लाइन पर लाना पड़ेगा। हो सकता है वो पुलिस को खबर कर दे।" बेदी का दिल यह कहते हुए जोरों से धड़का--- "मालूम नहीं तब क्या हो।"
दोनों खामोश रहे।
"और विष्णु, अगर वह शांता के कहने पर आस्था के साथ है तो वह कभी नहीं पसन्द करेगी कि उसके होते काम में कोई और दखल दे । काम खराब कर दे। तब तो वो भी हमारे लिये मुसीबत खड़ी कर सकती है। इसलिये खतरों के बारे में बात करना छोड़कर, हमें अपना काम कर गुजरना चाहिये। जो होगा, देखा जायेगा ।"
शुक्रा ने गम्भीर निगाह बेदी पर मारी ।
"विजय, यह कहना बहुत आसान होता है कि जो होगा, देखा जायेगा। जब होता है तो संभाला नहीं जाता।" शुक्रा बोला।
"तो क्या पीछे हट जायें। लड़की को नहीं उठायें। दिमाग में फंसी गोली न निकालें। मर जाऊं मैं ।" बेदी दांत भींचकर धीमे स्वर में कह उठा--- "मेरी परवाह भी है तुम लोगों को कि नहीं ?"
"है यार, तेरी परवाह न होती तो मैं आराम से लोगों को कार चलानी सिखा रहा होता।" शुक्रा मुस्कराया।
उदयवीर गम्भीर स्वर में कह उठा।
"अब यह तय रहा कि हमारी कोशिश यही होगी कि आज ही लड़की को उठा लें।"
■■■
ढाई बजे लंच लेने के पश्चात विष्णु और आस्था होटल से बाहर निकले। आस्था के चेहरे पर रौनक फूट-फूट रही थी। पार्किंग की तरफ बढ़ते हुए उसने विष्णु का हाथ थाम रखा था।
“आज मुझे बहुत खुशी हो रही है।" आस्था वास्तव में खुश थी।
"सच?"
"हां, आज मैं तुम्हारे घर वालों से मिलूंगी, बहुत अच्छा लगेगा !"
विष्णु ने मुस्कराकर उसका हाथ दबाया।
"तुम्हारी कार यहीं रहने देते हैं। मेरी कार पर चलो। शाम को तुम्हें यहीं छोड़ दूंगा। कार ले लेना।"
"ठीक है।" आस्था ने फौरन सहमति दे दी।
विष्णु ने पार्किंग में खड़ी अपनी कार संभाली और ड्राइविंग सीट पर बैठा। आस्था के बगल में बैठते ही विष्णु ने कार आगे बढ़ा दी।
■■■
“देख तो ।” उदयवीर एम्बैसेडर, विष्णु की कार के पीछे लगाता हुआ बोला--- "कैसे चिपक-चिपक रहे हैं।"
“इसी तरह अंजना भी मुझसे चिपका करती थी।" बेदी नफरत भरे स्वर में कह उठा--- "जो बाद में राघव पर सवार होकर पिशोरीलाल की तिजोरी से निकाला डेढ़ करोड़ लेकर भाग गई। धोखेबाज कमीनी औरत थी वो। बोलती थी मेरे बच्चों की मां बनेगी, शादी करेगी। जाने यह शब्द उसने किस-किस से कहे होंगे।"
"हमें बीती बात करने को मना करता है और खुद करता है।" शुक्रा उसका ध्यान बंटाने के लिये कह उठा।
बेदी ने गहरी सांस ली।
"मैं तो यूँ ही कह रहा था।"
"हम भी यूं ही कहते हैं। जब तेरे को तकलीफ होती है।" शुक्रा हौले से हंसा।
बेदी ने कुछ नहीं कहा।
उदयवीर सावधानी से विष्णु वाली कार का पीछा कर रहा था।
"अब क्या करें?" उदयवीर बोला।
"पीछे लगा रह।" बेदी की निगाह भी विष्णु की कार पर थी--- "जहां भी रास्ते में मौका लगे, सड़क पर भीड़भाड़ कम हो, अपनी कार उसके आगे लगा दे। लड़की को शुक्रा बाहर निकालकर कार में डालेगा और मैं रिवॉल्वर विष्णु को दिखाऊंगा। रिवॉल्वर देखकर वो कुछ देर सोचेगा। तब तक हमारा काम निपट जायेगा।"
आस्था का अपहरण करने के लिये तीनों दिलोजान से तैयार थे।
“एक गड़बड़ हो गई।” उदयवीर कह उठा।
"क्या?" बेदी की निगाह फौरन उस पर गई।
"कार की नम्बर प्लेट बदल लेनी चाहिये थी। नम्बर के दम पर, कोई हम तक पहुंच भी सकता है।"
"तो यह बात पहले सोचनी चाहिये थी।” शुक्रा झल्ला उठा ।
“कुछ नहीं होता, इसने इतनी जल्दी काम करना है कि किसी को कार का नम्बर देखने का मौका ही नहीं मिलना।" बेदी ने कहा।
शुक्रा ने बेदी को घूरा ।
"विजय।” शुक्रा व्यंग्य से कह उठा--- "तूने कभी किसी का कुत्ता उठाया है। चोरी किया है।"
"कुत्ता?"
"जवाब दे।"
"नहीं तो ।"
“तो एक काम कर, लड़की को उठाने से पहले किसी के कुत्ते को उठाने की सोचते हैं।"
"क्यों?"
“ताकि तेरे को पता लग जाये कि किसी को उठाना, आसान काम नहीं है। हम शरीफ लोग। वो काम करने की कोशिश कर रहे हैं, जो बड़े-बड़े बदमाश करते हैं। सड़क पर दिन-दहाड़े लड़की को उठाना है और तू कहता है कि किसी की नज़र कार के नम्बर पर भी नहीं जायेगी।"
बेदी कुछ न कह सका।
"ज्यादा शेर बनने की कोशिश मत कर।" अपने को जानता ही है कि कितने पानी में है। या फिर यूं कह ले कि हम तीनों को अपनी औकात पता है कि हम किसी का कुत्ता भी उठाने का हौसला नहीं रखते और इस वक्त लड़की को उठाने जा रहे हैं। शुक्रा के स्वर में बेचैनी थी।
“शुक्रा।" उदयवीर ने कहा--- "इस वक्त हौसला बढ़ाने वाली बात कर। बोल हम दस-दस कुत्ते उठा सकते हैं। जंगल में जाकर शेर पकड़ सकते हैं। हाथी को सूंड से पकड़कर पटक सकते हैं। हर वो काम कर सकते हैं, जो हम नहीं कर सकते। समझा, बड़ी-बड़ी बातों की हवा हमारे अन्दर घुसी होगी तो तभी हम लड़की को उठा पायेंगे।"
"जब वक्त आयेगा तो सारी हवा, हवा हो जायेगी तेरी ।" शुक्रा ने गहरी सांस ली।
उदयवीर ने मुंह बनाया।
"आगे वाली कार भागी जा रही है।" बेदी बेचैनी से कह उठा।
"कहीं तो मौका मिलेगा।" उदयवीर ने कहा।
तीनों की निगाह विष्णु की कार पर थी।
“मौका अभी मिल जाये तो।" बेदी ने कहना चाहा।
“कहीं तो कार रुकेगी।" शुक्रा ने टोका--- "वैसे यह सड़क अन्य सड़कों की अपेक्षा खाली है।"
"तभी तो मैं कह रहा था।"
परन्तु विष्णु वाली कार एक-आध लाल बत्ती को छोड़कर कहीं नहीं रुकी।
इसी तरह आधा घंटा बीत गया।
■■■
विष्णु ने शांता के बताये पते वाले मकान के सामने कार रोकी। मकान वास्तव में शानदार था। बेशक वह नई कालोनी में था। आस्था ने मकान पर नजर मारी।
"यह है तुम्हारा घर ।"
"हमारे छः घर हैं।" विष्णु कार का इंजन बंद करता हुआ बोला--- "सब शहर में, बहुत बड़े बंगले पर रहते हैं। लेकिन आज मेरा सारा परिवार यहां आयेगा। आ गया होगा या आने वाला होगा। तुमसे मिलने के लिये ?"
“यहाँ क्यों?” आस्था ने उसे देखा--- "मुझे वहीं बंगले पर ले जाते ?"
"नहीं, ऐसा नहीं हो सकता था।"
"क्यों?" आस्था की आवाज में उलझन आई।
"हमारे खानदान के रस्मो-रिवाज हैं। होने वाली बहू के पांव घर में डोली आने के साथ ही पड़ते हैं। शादी से पहले घर में बहू के कदमों का पड़ना, शुभ नहीं माना जाता।" विष्णु ने मीठे स्वर में कहा।
"अजीब विचार है तुम लोगों के?"
"हर इन्सान अपने रिवाज के साथ चलता है।" विष्णु ने प्यार भरे स्वर में कहा--- "आओ ।"
दोनों कार से उतरे, आगे बढ़े। विष्णु ने गेट खोला और भीतर प्रवेश कर गये। दरवाजे के पास पहुंचकर विष्णु ठिठका। जेब से चाबी निकाली और ताला खोलने लगा।
"अभी आने वाले होंगे। आये होते तो दरवाजा खुला होता और हमारे इन्तजार में खड़े होते ।"
आस्था सिर हिलाकर रह गई।
दरवाजा खोलकर दोनों भीतर प्रवेश कर गये।
सजा-सजाया खूबसूरत घर था। ऐसा कि जैसे वहां कोई रहता हो। किसी चीज की वहां कमी नहीं थी। सामने ही ड्राइंगहाल में कीमती सोफे रखे हुए थे।
आस्था ने वहां की हर चीज को ध्यानपूर्वक देखा।
"घर छोटा है, लेकिन अच्छा है।" वह बोली।
"अभी तुमने हमारा बंगला नहीं देखा।” विष्णु मुस्कराया--- "तुम्हारे पापा के बंगले से बड़ा है।"
"सच ?"
"हां, वो तुम्हें बहुत पसन्द आयेगा। मैंने तो तुम्हारा बेडरूम भी सोच लिया है कि कौन-सा होगा?"
"कौन-सा होगा?" आस्था की आंखों में सपने तैरने लगे।
"ऐसे बताने का कोई फायदा नहीं। बंगला तो तुमने देखा नहीं। कैसे समझ पाओगी?" विष्णु हंसा ।
"हां, यह तो मैंने सोचा ही नहीं था।"
"डोली में बैठकर आओगी, तब ही देखना ।"
आस्था प्यार भरी निगाहों से विष्णु को देखने लगी।
"आओ, मैं तुम्हें मकान दिखाता हूँ।"
"हां।"
विष्णु, आस्था को मकान दिखाने लगा। अब तक वह महसूस कर चुका था कि शांता ने जो दो आदमी भेजने को कहा था, वह अभी तक नहीं पहुंचे हैं। मकान में कहीं नहीं हैं।
■■■
एम्बैसेडर कार में बैठे तीनों कुछ दूर से मकान को देख रहे थे। रास्ते में उन्हें कहीं भी मौका नहीं मिला था कि कार को घेर पाते। उनके चेहरों पर झल्लाहट के भाव नाच रहे थे।
"सारी कोशिश बेकार गई।" उदयवीर उखड़े स्वर में कह उठा।
"क्यों बेकार गई?" बेदी गुस्से से चीखने वाले ढंग में कह उठा।
उदयवीर-शुक्रा की निगाह, बेदी के गुस्से भरे चेहरे पर गई।
"वो सामने मकान है।" कार में बैठे बेदी ने हाथ से इशारा करके कहा--- "विष्णु आस्था को लेकर, उसमें गया है मौज-मस्ती करने के लिये, चलो और उठा लो लड़की को।"
उदयवीर-शुक्रा की निगाह मिली।
"विष्णु के पास रिवॉल्वर ।"
"तो क्या हो गया ? मेरे पास नहीं है क्या?" बेदी ने दांत भींच कर कहा--- "वो लड़की खुद आकर हमारी कार में बैठने से रही। उसे लाना होगा। उठाना होगा, जबरदस्ती करनी होगी।"
"उदय ।"
"हूं।"
"विजय ठीक कहता है ।" शुक्रा ने गम्भीर स्वर में कहा--- "मुझे लगता है कि हम डर रहे हैं। लड़की को उठाने में हिचक रहे हैं। शायद इसलिये कि ऐसे काम करने का हौसला हममें नहीं है।"
"मुझे भी यही लगता है कि बात कुछ-कुछ ऐसी ही है।" उदयवीर ने आस-पास नजर मारते हुए कहा--- "यह कालोनी अभी बन रही है। मकान भी कम हैं। दोपहर के इस वक्त लोग भी नजर नहीं आ रहे। अगर इस वक्त हम लड़की न उठा सके तो फिर कब उठायेंगे।"
बेदी कार का दरवाजा खोलकर बाहर आ गया।
शुक्रा भी निकला।
बारी-बारी तीनों की नजरें मिलीं।
"तुम लोग चलो, हिम्मत का साथ मत छोड़ना ।" उदयवीर गम्भीर स्वर में बोला--- “जब तुम दोनों मकान के भीतर प्रवेश कर जाओगे तो मैं कार को मकान के ठीक सामने ले आऊंगा।"
"तो तू बाहर रहेगा।" शुक्रा ने उसे देखा।
"नहीं कार खड़ी करके भीतर आऊंगा।"
"साथ क्यों नहीं चलता ।"
"अक्ल से काम ले।" उदयवीर ने समझाया--- "तूने ही तो कहा था कि वो विष्णु है। खतरनाक है। ऐसे में मैं अभी कार को उस मकान के सामने रोकता हूं तो ईंजन की आवाज सुनकर वह देखने के लिये आ सकता है कि बाहर कार किसकी है? खुला इलाका है। ईंजन की आवाज गूंजती है।"
"उदय ठीक कहता है।" बेदी होंठ भींचकर बोला--- "आ शुका ।"
शुक्रा ने उदयवीर को घूरा।
"कहीं डरकर बाहर ही मत खड़े रहना।"
उदयवीर ने उसे घूरा, कहा कुछ नहीं।
दोनों मकान की तरफ बढ़ गये।
■■■
"अभी आये नहीं तुम्हारे घर वाले?" दस मिनट बीतने पर आस्था ने कहा। सारा घर देखने के बाद आस्था ड्राइंगरूम में आ बैठी थी। विष्णु भी बैठ गया था।
"आने वाले होंगे।" विष्णु ने मुस्करा कर कहा--- "हो सकता है तुम्हारे लिये प्रेजेन्ट खरीदने के लिये शॉप पर रुक गये हों।"
आस्था मुस्कराकर रह गई।
"मेरे हाथ की चाय पिओगी, बनाऊं?"
"तुम्हें चाय बनानी आती है?" आस्था हंसी।
"हाँ, थोड़ा-बहुत खाना भी बना लेता हूं।"
"गुड, फिर शादी के बाद मुझे आराम रहेगा। बनाओगे तुम। खाऊंगी मैं।” आस्था पुनः हंसी ।
"वैसे भी तुम्हें आराम रहेगा, क्योंकि यह सारे काम घर के नौकर ।”
तभी कॉल बैल बजी।
विष्णु समझ गया कि शांता के भेजे दो आदमी आये हैं।
"तुम्हारे घर वाले आ गये।" आस्था खुशी से कहते हुए उठ खड़ी हुई।
विष्णु सिर हिलाकर उठा और दरवाजे की तरफ बढ़ गया।
खुशी में डूबी आस्था वहीं खड़ी, विष्णु को दरवाजे की तरफ बढ़ते देखती रही।
दरवाजा खोलते ही विष्णु की निगाह सबसे पहले बेदी पर पड़ी फिर पास खड़े शुक्रा को देखा। इससे पहले वह कुछ पूछता, बेदी ने उसकी छाती पर हाथ रखकर जोरों से धक्का दिया।
विष्णु को उनसे ऐसी किसी हरकत की आशा नहीं थी। वह तो उन्हें शांता का भेजा समझ रहा था। इसी लापरवाही में धक्का पड़ते ही उसके पांव उखड़े और कुल्हों के बल वह नीचे जा गिरा । इससे पहले कि संभलता, शुक्रा, बेदी की बगल से निकला और विष्णु के पास पहुंचकर उसे ठोकरे मारने लगा।
"ये क्या हो रहा है।" आस्था दूर खड़ी चीखी--- “कौन हो तुम लोग?"
दांत भींचे विष्णु ने अपने बचाव की चेष्टा की तो शुक्रा का पांव उसके हाथ में आया तो तीव्रता से झटका दिया। शुक्रा लड़खड़ाकर नीचे जा गिरा।
विष्णु खुद को संभालकर शुक्रा पर झपटने लगा कि बेदी की चीख सुनकर ठिठका ।
“हिलना मत, नहीं तो गोली मार दूंगा, मर जायेगा तू ।”
विष्णु ने ठिठक कर बेदी को देखा तो उसकी आंखें सिकुड़ गई।
बेदी के दांत भिंचे हुए थे। चेहरे पर पसीना छलका हुआ था। आवेश में लाल सुर्ख चेहरा। वह चार कदमों के फासले पर खड़ा था। दोनों हाथ में रिवॉल्वर दबा रखी थी, जिसका रुख विष्णु की तरफ था।
“गोली मार दूंगा। ऐसे ही खड़ा रह।" बेदी पुनः चीखा।
विष्णु ने बेदी को सिर से पांव तक देखा। उसके हाथों के कम्पन को भी महसूस किया। जिनमें रिवॉल्वर दबी हुई थी। बेदी पर सवार घबराहट को भी उसने स्पष्ट पहचाना। साथ में यह भी सोचा कि यह लोग उसके परिवार के दुश्मन होंगे। उसकी तो अभी तक किसी से दुश्मनी हुई नहीं।
विष्णु ने आस्था पर निगाह मारी जो कुछ दूरी पर डरी खड़ी थी।
बेदी की घबराहट हर पल बढ़ती जा रही थी। रिवॉल्वर निकालकर, सामने वाले पर तानना, ऐसे हालातों का वह आदी नहीं था।
"तू क्या देख रहा है।" बेदी चिल्लाया--- "चल लड़की की तरफ।"
शुक्रा को होश आया, वह फौरन आस्था की तरफ भागा।
"क्या चाहते हो?"
"चुपचाप खड़ा रह, हम सिर्फ लड़की को--लड़की को लेने आये हैं। हिलना मत।" बेदी ने दांत पीस कर कहा।
विष्णु की आंखें सिकुड़ीं।
"लड़की को---जो मेरे साथ है।"
"हां।"
"क्यों?"
"चुप कर। चुपचाप खड़ा रह।" बेदी का रिवॉल्वर वाला हाथ कांप रहा था--- "नहीं तो--तो गोली मार दूंगा।"
"तुम्हारी हालत बता रही है कि तुमने पहली बार रिवॉल्वर पकड़ी है।" विष्णु का स्वर सख्त था--- "तुम्हें तो ठीक से रिवॉल्वर पकड़नी भी नहीं आती। मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि तुमने कभी गोली नहीं चलाई।"
"हां, नहीं चलाई। अब चलाऊं क्या, मुझे हवा देगा तो खुद मरेगा।" बेदी चीख उठा।
तभी आस्था का स्वर वहां गूंजा।
"मुझे क्यों पकड़ रहे हो, छोड़ो मुझे।"
दोनों की निगाह उस तरफ घूमी ।
शुक्रा, आस्था की कलाई थामे बाहर की तरफ ले जाता खींच रहा था।
"हाथ मत लगाओ इसे।" गुस्से से कहते हुए विष्णु ने शुक्रा की तरफ बढ़ना चाहा।
बेदी चीखा।
"गोली मार दूंगा, हिलना मत।"
विष्णु ठिठका, उसने बेदी को देखा, जिसका चेहरा उत्तेजना से अजीब-सा हो रहा था। रिवॉल्वर पकड़ने वाला खिलाड़ी होता तो शायद विष्णु को इतना डर नहीं होता। परन्तु सामने अनाड़ी खड़ा था। जो ठीक से रिवॉल्वर भी नहीं पकड़ पा रहा था और जिससे घबराहट में कभी भी गोली चल सकती थी।
"क्यों ले जा रहे हो तुम लोग इसे।” विष्णु गुस्से में कह उठा ।
"चुप!" बेदी की घबराहट चरम सीमा पर पहुंचती जा रही थी।
शुक्रा आस्था की कलाई पकड़कर दरवाजे की तरफ खींच रहा था। जबकि आस्था का छटपटाना शुक्रा के काम में रुकावट बन रहा था।
"कंधे पर डालकर ले चल इसे। देर लग रही है।" बेदी ने चीखकर शुक्रा से कहा ।
अगले ही पल शुक्रा ने आस्था की कलाई को झटका दिया।
आस्था लड़खड़ाकर शुक्रा से आ टकराई। शुक्रा ने फौरन उसे संभाला और झटके के साथ कंधे पर डाल लिया।
आस्था छूटने की कोशिश करती चीख उठी।
"छोड़ो मुझे, छोड़ो।"
शुक्रा पलटकर तेजी से दरवाजे की तरफ बढ़ा।
"विष्णु बचाओ मुझे।"
दांत भींचे विष्णु ने बेबस निगाहों से बेदी को देखा। जो कांपते हाथों से रिवॉल्वर थामे उसके प्रति सतर्क था। उसे ही देख रहा या ।
ठीक उसी पल बेदी के सिर में जोरों का दर्द उठा। चेहरा पीड़ा से लाल सुर्ख हो उठा। बदन जोरों से कांपा । रिवॉल्वर को दबाने वाले दोनों हाथ खुल गये। तर्जनी उंगली में रिवॉल्वर दबी रही। दोनों हाथ सिर पर जा टिके । घुटने मुड़ते चले गये। अगले ही पल वह नीचे जा गिरा।
शुक्रा ने यह सब देखा तो हक्का-बक्का-सा ठिठक गया। कंधे पर पड़ी आस्था बंधन से छूटने का प्रयास कर रही थी। बेदी की हालत देखकर वह समझ नहीं पाया कि क्या करे।
"विजय।" शुक्रा जोरों से बोला ।
विष्णु कुछ समझ नहीं पाया कि रिवॉल्वर तानने वाले को क्या हुआ है । परन्तु उसे मौका मिल गया था। ऐसा मौका मिलेगा, उसने सोचा भी नहीं था।
शुक्रा ने घबराहट भरी निगाहों से विष्णु को देखा।
विष्णु के पास रिवॉल्वर थी। लेकिन उसने रिवॉल्वर निकालने की जरूरत नहीं समझी और फुर्ती से बेदी की तरफ झपटा।
तभी उदयवीर ने भीतर प्रवेश किया। वह मामला पूरी तरह समझ नहीं पाया कि शुक्रा चीखा।
"उदय, विष्णु को संभाल, जल्दी ।"
शुक्रा को कहने की देर थी कि बेदी के पास पहुंच चुके विष्णु पर उसने बिना सोचे-समझे छलांग लगा दी और विष्णु को साथ लिए नीचे गिरता चला गया। वे भिड़ गये। सांडों की तरह ।
शुक्रा वहीं खड़ा रहा। कंधे पर पड़ी आस्था को पक्की तरह जकड़ रखा था। अब आस्था को बाहर ले जाने का कोई फायदा नहीं था। क्योंकि जिस तरह वह भीतर शोर डाल रही थी, उसी तरह बाहर डालती। उसके सिर के बालों को पकड़कर आस्था कई बार खींच चुकी थी। शुक्रा हर तकलीफ सह रहा था और उसे कंधे से उतारना भी ठीक नहीं था। दोबारा उस पर काबू पाने में दिक्कत आती।
विष्णु से मुकाबला करने में उदयवीर को दिक्कत अवश्य आ रही थी, लेकिन वह किसी तरह विष्णु को रोके हुए था। वह जानता था कि विजय के सिर में फंसी गोली की वजह से सिर में पीड़ा उठती है। लेकिन फिर एक-आध मिनट में वह सामान्य अवस्था में आ जाता है।
और अब भी वही हुआ।
बेदी का तड़पना थम गया था। धीरे-धीरे वह सामान्य अवस्था में आता जा रहा था। विष्णु के कई घूंसे उदयवीर के चेहरे पर बर्दाश्त कर चुका था और उसने भी हथोड़े की तरह दो घूंसे विष्णु के चेहरे पर मारे थे। जिनमें से एक नाक पर लगा था। जिसकी वजह से विष्णु की नाक से खून बह निकला था।
बेदी संभल चुका था। पीड़ा की वजह से उसका चेहरा सुर्ख हो रहा था। वह गहरी-गहरी सांसें ले रहा था। अभी उसे आराम की जरूरत थी। लेकिन ताजा हालातों की वजह से वह फौरन उठ खड़ा हुआ। रिवॉल्वर अभी भी उंगली में फंसी हुई। जोकि उसने ठीक तरह संभाली और फिर से विष्णु की तरफ कर दी।
"छोड़।" बेदी का स्वर हांफ रहा था। आवाज में दम नहीं था--- "हट जा विष्णु, उदय को छोड़ दे।"
विष्णु की निगाह बेदी की तरफ गई।
मौका पाते ही उदयवीर, विष्णु को छोड़कर अलग जा खड़ा हुआ।
“अब तूने।" बेदी ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी। चेहरा पीड़ा की वजह से फक्क था--- "कुछ किया तो मैं गोली मार दूंगा। खड़ा हो जा। कुछ मत करना।"
विष्णु बेदी को घूरते खड़ा हो गया। उसकी नाक से बहने वाला खून होंठों से होकर ठोड़ी तक पहुंच चुका था। अब खून बहना रुक चुका था।
"उदय, शुक्ला ।" बेदी जल्दी से बोला--- "तुम लोग लड़की को लेकर कार तक चलो। मैं बाद में आता हूं।"
"तू साथ चल।"
"जो कहा है वो ही कर।" बेदी की आवाज में गुस्सा उभरा--- “जल्दी ।"
उदयवीर और शुक्रा की आंखें मिलीं, इशारे हुए।
दोनों दरवाजे की तरफ बढ़े।
"विष्णु।” आस्था चीखी--- "मुझे बचाओ, प्लीज, ये लोग... ।"
तब तक शुक्रा, आस्था को कंधे पर लादे दरवाजे से बाहर निकल चुका था।
उदयवीर भी बाहर।
विष्णु एकाएक गुर्राया, बेदी को देखते हुए ।
"जानता है मुझे?" विष्ण की आवाज में दरिन्दगी थी।
“हां, शांता का भाई है तू।" बेदी ने हिम्मत करके कहा।
"फिर भी तेरे को मुझसे डर नहीं लगता।” विष्णु के चेहरे पर पागलपन नजर आने लगा।
उसके चेहरे के भाव देखकर बेदी मन-ही-मन कुछ घबराया।
"डर लगता है। क्यों नहीं लगता, तुम जैसों से हर शरीफ आदमी डरेगा।" बेदी ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी।
"फिर भी तूने मेरे मामले में दखल दिया।” विष्णु के दांत भिंचे हुए थे।
"मजबूरी है, वरना मेरा रास्ता तो तुम लोगों से बहुत ही अलग था।" बेदी ने जल्दी से कहा।
"क्यों ले जा रहे हो लड़की को ?"
“बोला तो मजबूरी है। बता नहीं सकता।" रिवॉल्वर का रुख उसकी तरफ किए बेदी ने उसे समझाने की चेष्टा की--- "जो हुआ उसे भूल जाना। लड़की को कुछ नहीं होगा। उसे छोड़ दिया...।"
"मैं कहता हूँ तू अभी लड़की को छोड़...।"
"नहीं, अभी नहीं हो सकता यह। इस लड़की की मुझे तुमसे ज्यादा जरूरत है, मैं...।"
तभी बाहर कार स्टार्ट होने की आवाज आई।
कहते-कहते बेदी ठिठका। फिर बोला।
"चलता हूं। मन में कुछ मत रखना। लड़की को...।"
तभी विष्णु पागलों की तरह बेदी पर झपटा।
बेदी सिर से पांव तक कांप उठा। घबराहट के समन्दर में डूबे जाने कैसे, पास पहुंच चुके विष्णु की तरफ रिवॉल्वर के ट्रेगर पर रखी उंगली का दबाव बढ़ गया।
कानों को फाड़ देने वाला धमाका हुआ।
गोली चली।
विष्णु की चीख गूंजी। वह गिरता हुआ तीन-चार कदम दूर लुढ़कता चला गया। बेदी को लगा, जैसे विष्णु के जिस्म से खून निकल रहा है। उसकी टांगें इतनी ज्यादा कांप रही थीं कि अब खड़े होने की हिम्मत नहीं बची थी। वह पलटा और रिवॉल्वर थामें बाहर की तरफ भागा।
बाहर खड़ी एम्बैसेडर तक कैसे पहुंचा। उसे कोई होश नहीं। कार का अगला दरवाजा पहले से ही खुला था। कब वह भीतर बैठा, याद नहीं। इतना याद था कि भीतर बैठते ही कार भाग निकली थी।
दरवाजा खुद ही अटककर झटके से बंद हो गया था।
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