देवराज चौहान और मोना चौधरी को आगे बढ़ते हुए तीन घंटे बीत चुके थे । काली बिल्ली खामोशी से मोना चौधरी के कंधे पर बैठी हुई थी । दोनों के कदम तेजी से उठ रहे थे ।
"हम जा किस तरफ रहे हैं ।" देवराज चौहान ने पूछा ।
"तिलस्म से बाहर ।" मोना चौधरी ने कहा ।
"ये रास्ता सीधा तिलस्म से बाहर जाता है ?"
मोना चौधरी मुस्कुरा दी।
"नहीं । कोई भी रास्ता सीधा तिलस्म से बाहर नहीं जाता। जो भी एक बार तिलस्म में आ जाता है, वो जिंदा बाहर तभी जा सकता है, जब उसे तिलस्म के रास्तों का पूरा ज्ञान हो ।" मोना चौधरी ने मुस्कुरा कर कहा--- "अगर कोई रास्ता तिलस्म से बाहर जाने का अभी बना होता तो फिर तिलस्म बनाने का क्या फायदा ?"
देवराज चौहान ने होंठ सिकोड़कर सिर हिलाया ।
"ये सारा तिलस्म तुमने बनाया था ?" देवराज चौहान ने पूछा ।
"हां ।"
"क्यों ?"
"दुश्मनों की जान लेने से बेहतर, उन्हें तिलस्मी कैद में भेजना मुझे अच्छा लगता था । इसलिए मैंने तिलस्म का निर्माण किया था ।" मोना चौधरी ने कहा।
"मैं भी तो तुम्हारा दुश्मन था । फिर तुमने मुझे तिलस्म में क्यों नहीं भेजा ?" देवराज चौहान ने उसे देखा।
"दुश्मन-दुश्मन में फर्क होता है। मैं तुम्हें तिलस्म में न भेजकर अपने हाथों से खत्म करना चाहती थी । अगर तुम्हें तिलस्म में फंसा देती तो शायद, मुझे ही तुम्हें तिलस्म से मुक्त करना पड़ता ।" मोना चौधरी ने गहरी सांस ली--- "ऐसा करने के लिए मुझे बापू और बेला मजबूर कर सकते थे।"
देवराज चौहान खामोश रहा ।
"और फिर तुमने कई बार ऐसे काम किए कि मुझे लगा तुम मेरी ताकत को भड़का रहे हो । ऐसे में नगरी वालों को भी दिखाना था कि नगरी की देवी मैं किसी की सिफारिश पर नहीं, बल्कि अपने बलबूते पर बनी हूं । नगरी के हर इंसान से टकराने की और उसे हराने की हिम्मत रखती हूं मैं ।"
देवराज चौहान ने मोना चौधरी को देखा और सिर्फ मुस्कुरा कर रह गया ।
"वरना कोई भी योद्धा युवती, मुझे चुनौती देकर, जंग के मैदान में मेरी जान लेकर, देवी का ताज अपने माथे पर रखकर, मेरी जगह ले सकती थी ।"
"मालूम है ।" देवराज चौहान ने हौले से सिर हिलाया ।
ठीक तभी दोनों ठिठके ।
रूस्तम राव की आवाज उनके कानों में पड़ रही थी ।
दोनों ने दाईं तरफ देखा ।
रुस्तम राव भागता हुआ आ रहा था ।
"देवराज चौहान भाई । देवराज चौहान। आपुन यां यहां पे तेरे को ही ढूंढ रएला था । कितने दिन होकेला भटकते हुए । आपुन तो सोचेला कि येई पे भटक के मारेला । पण तुम मिएला बाप।"
रुस्तम राव खुशी से चीखता पास आता जा रहा था ।
देवराज चौहान और मोना चौधरी की निगाहें मिलीं ।
"लगता है ये दालूबाबा की कोई चाल हैं । देवराज चौहान के होंठ सिकुड़े ।
"परवाह नहीं ।" मोना चौधरी कड़वे स्वर में कह उठी--- "अब उसकी कोई चाल मेरे सामने नहीं सकती । क्योंकि ये चालें तो अब मेरे सामने बच्चों का खेल है ।"
रूस्तम राव अभी दस कदम दूर था कि मोना चौधरी चीखकर बोली।
"वहीं रुक जाओ ।"
रुस्तम राम फौरन ठिठका । हैरानी से उसने मोना चौधरी को देखा फिर देवराज चौहान को।
"ये अपुन क्या देखेला है ।" रुस्तम राव के स्वर में अजीब के भाव थे--- "पूरब और पश्चिम का मेल होएला है इधर तो देवा और मिन्नो साथ-साथ होएला । विश्वास नेई आने का ।"
"कौन हो तुम ?" देवराज चौहान की आवाज में कठोरता थी ।
"क्या बोला बाप । आपुन रुस्तम राव होएला।" रुस्तम राव उलझन भरे स्वर में बोला--- "तुम आपुन को नहीं पहचानेला क्या ? देवराज चौहान तुम...।"
"क्या पहचान है तेरी कि तू रुस्तम राव है ?" देवराज चौहान उसे घूर रहा था ।
रुस्तम राव के चेहरे पर अजीब से भाव उभरे ।
"तेरा दिमाग तो नेई फिरेला देवराज चौहान ?" रूस्तम राव ने देवराज चौहान और मोना चौधरी को भी देखा ।
"मैंने पूछा है कि अगर तू रूस्तम राव है तो अपनी पहचान बता ।" देवराज चौहान पुनः बोला ।
"आपुन जरूर तेरे को पहचान बताएला बाप ।" रुस्तम राव ने तीखे स्वर में कहा--- "पण आपुन को तेरे पर शक होएला कि तू देवराज चौहान नेई होएला । तू देवराज चौहान होएला तो अपनी पहचान दिखाएला कि तू देवराज चौहान होएला।"
देवराज चौहान होंठ भींचकर रह गया ।
तभी मोना चौधरी कह उठी ।
"अपनी जान बचाना चाहता है तो भाग जा यहां से।"
"तू अपुन को भागने के वास्ते बोएला मोना चौधरी ।" जालिम छोकरे की आवाज में सख्ती छलक उठी--- "तेरे को नेई मालूम रूस्तम राव को, थापर साहब ने पीठ दिखाकर, भागने के बारे में नेई बताएला।"
देवराज चौहान की आंखें सिकुड़ी ।
मोना चौधरी का चेहरा कठोर होने लगा । आंखें सुलग उठी ।
"मैं जानती हूं, तेरे को दालू ने रूस्तम राव के चेहरे में, हमारी जान लेने भेजा है । हमारे समझाने पर भी वो बाज नहीं आ रहा तो ले अपनी करनी का फल ।" दांत भींचकर कहने के साथ ही मोना चौधरी ने अपनी उंगली रूस्तम राव की तरफ की और होठों ही होठों में कुछ बुदबुदाने लगी ।
देवराज चौहान होंठ भींचे बारी-बारी दोनों को देख रहा था।
रुस्तम राव सिर से पांव तक उलझन में डूबा मोना चौधरी और देवराज चौहान को देख रहा था ।
तभी मोना चौथी की उंगली से किरण-सी निकली और तेजी से रूस्तम राव की तरफ बढ़ी । किरण की चमक देवराज चौहान और रुस्तम राव ने स्पष्ट देखी ।
रुस्तम राव समझ नहीं पाया कि क्या करे ?
तभी वो किरण उसे छूकर वापस मोना चौधरी की उंगली में आकर गुम हो गई ।
मोना चौधरी के चेहरे पर अजीब से भाव उभरे । हाथ नीचे कर लिया । फिर पास खड़े देवराज चौहान को देखा, जो उसे ही देख रहा था।
"ये दालू की कोई तिलस्मी चाल नहीं, बल्कि असली रूस्तम राव है ।" मोना चौधरी ने कहा ।
"ये बात तुमने कैसे जानी ?" देवराज चौहान के होठों से निकला।
"अगर रुस्तम राव का आना, तिलस्म का खेल होता तो मेरे द्वारा पढ़े गये तिलस्मी मंत्र से जो किरण निकलकर इसकी तरफ बढ़ी थी, वो इसे खत्म कर देती । लेकिन इसे कुछ नहीं हुआ । यानी कि ये असली रुस्तम राव है ।" मोना चौधरी ने गहरी सांस ली ।
"तुम्हें धोखा भी हो सकता है ।" देवराज चौहान के स्वर में शंका थी ।
"मुझे धोखा हो सकता है ।" मोना चौधरी मुस्कुराई--- "लेकिन मिन्नो को नहीं, जो तिलस्म की हर बात के कण-कण से वाकिफ है। मिन्नो के सामने किसी की तिलस्मी चाल सफल नहीं हो सकती ।"
देवराज चौहान ने रूस्तम राव को देखा । वह सतर्कता से काम ले रहा था । क्योंकि पहले जगमोहन के चेहरे को हथियार बनाकर, तिलस्मी चाल द्वारा उसकी जान लेने की चेष्टा की गई थी । उस वक्त अगर बेला उसे सावधान न करती तो तिलस्मी जहर उसकी और मोना चौधरी की जान ले लेता । यह सब जानने के लिए पढ़ें अनिल मोहन का पूर्व प्रकाशित उपन्यास 'ताज के दावेदार ।'
"तुम रूस्तम राव हो ?" देवराज चौहान की एकटक निगाह उस पर थी ।
"बाप । क्यों आपुन का दिमाग खराब कराएला है ।" रुस्तम राव ने आंखें सिकोड़ी ।
"ठीक है ।" देवराज चौहान उसी लहजे में बोला--- "मेरे सवाल का जवाब दो । जब हम नगरी की तरफ बढ़ रहे थे तो तब तुम नदी में नहाते हुए कहां गायब हो गये थे ?"
"क्या बोएला बाप । तुम्हारा खोपड़ी हिलेएला है क्या ?" रुस्तम राव के होठों से निकला--- "अपुन नदी में कहां गायब होएला अपुन तो पत्थर के घोड़े पर बैठेला तो घोड़ा हवा में आसमान में पोंचेला था ।" जानने के लिए पढ़ें अनिल मोहन का पूर्व प्रकाशित उपन्यास 'जीत का ताज' ।
"तब मैंने तुम्हारी टांग पकड़ी तो तुम घोड़े से नीचे क्यों नहीं उतरे ?"
"अपुन को पूरा विश्वास होएला कि तुम्हारी खोपड़ी फिरेला है " रुस्तम राव ने अजीब स्वर में कहा ।
"क्यों ?"
"अपुन की टांग तुमने किधर पकड़ेला था । घोड़ा तो अपुन को लेकर फौरन हवा में पोंचेला।"
देवराज चौहान मुस्कुराया ।
"माना कि तुम रुस्तम राव हो । असली हो ।" देवराज चौहान बोला ।
"बाप !" रूस्तम राव आगे बढ़ा--- "तुम अपुन पर शक क्यों करेला कि अपुन रूस्तम राव नहीं ?"
"नगरी और तिलस्म का इस वक्त दालू नाम का व्यक्ति मालिक बना हुआ है । वो हमसे डर रहा है। इसलिए कई तरह के कुचक्र करके मेरी और मोना चौधरी की जान लेना चाहता है ।" देवराज चौहान ने समझाने वाले स्वर में कहा--- "एक बार तो अपने तिलस्म के दम पर, जगमोहन के चेहरे वाले व्यक्ति को हमारे सामने कर दिया कि वो हम दोनों की जान ले सके । इसलिए तुम्हारे बारे में सावधानी बरती गई ।"
"समझेला बाप, खोपड़ी में पूरी बात घुसेला।" रुस्तम राव ने कहकर मोना चौधरी को देखा । दोनों की आंखें मिलीं । मोना चौधरी मुस्कुराई तो वो देवराज चौहान से बोला--- "तुम दोनों साथ कैसे होएला ?"
उसकी बात का जवाब न देकर, देवराज चौहान ने पूछा ।
"तुम तिलस्म में कैसे आ गये ?"
"बाबा अमको इधर पोंचाइला ।" रुस्तम राव मुस्कुराया ।
"फकीर बाबा ?" देवराज चौहान के होठों से निकला ।
"हां बाप । असल बात ये होएला कि अपुन को पैले जन्म का पूरी याद आएला । अपुन अपनी लाडो से भी मिएला ।" रूस्तम राव का चेहरा खुशी से भरा हुआ था--- "बाबा जानेला कि तुम दोनों इधर तिलस्म में होएला । बाबा बोएला कि तुम दोनों को पैले के जन्म की बात याद करायेला । इसी वास्ते बाबा ने अपुन को तिलस्म में भेजेला है । तुम दोनों झगड़ेला नेई । वो पैले जन्म की लड़ाई तो कालूराम और दालू करायेला, चालबाजी से । बाबा भी तब गड़बड़ करेला । पण अब उसका दिमाग ठीक होएला । वो मानेला कि उससे गलती होएला । अपुन तुम दोनों को बताएला कि पैले जन्म में क्या होएला । काए को तुम दोनों एक-दूसरे के खून के प्यासे होएला और...।"
कहते-कहते रुस्तम राव ठिठका।
देवराज चौहान और मोना चौधरी के चेहरों पर अजीब-सी मुस्कान बिखर गई थी ।
"क्या बात होएला बाप ?" उसकी मुस्कान पर रुस्तम राव उलझन में पड़ा ।
"तुम्हारा चेहरा देखकर लग रहा है कि कई दिनों से तिलस्म में भूखे-प्यासे भटक रहे हो।" देवराज चौहान मुस्कुराया।
"ठीक बोएला बाप । पन यां पे कोई अभी इंतजाम नेई होएला खाने के वास्ते ।"
"मैं अभी इंजमाम कर देती हूं ।" मोना चौधरी भी मुस्कुराई और अगले ही पल उसने आंखें बंद करके होठों-ही-होठों में कुछ बुदबुदाया तो एकाएक ही सामने टेबल और उस पर पड़ा गर्म खाना नजर आने लगा । पास में तीन कुर्सियां मौजूद थी। खाने की महक उनकी सांसो से टकराई ।
मोना चौधरी ने आंखें खोल लीं ।
रूस्तम राव ठगा-सा रह गया । उसकी निगाह टेबल-कुर्सियां और खाने पर फिरने लगी । चेहरे पर पचासों तरह के भाव गुड़मुड़ हो रहे थे । फिर उसकी निगाह मोना चौधरी पर जा टिकी और पहली बार उसे एहसास हुआ मोना चौधरी के कंधे पर मौजूद काली बिल्ली का ।
"तुम-तुम मिन्नो होएला ।" रुस्तम राव के होठों से निकला--- "ये काली बिल्ली तो मिन्नो की होएला। तिलस्मी मंत्र पढ़ेला तू, तभ्भी तो खाना आएला । तुम-तुम मिन्नो होएला । बस कुछ तुम्हें याद आएला ना ?"
देवराज चौहान मुस्कान भरे चेहरे के साथ कह उठा ।
"खाना खा ले त्रिवेणी । ठंडा हो जाएगा । अब मां तो पास बैठी नहीं जो तेरे को दोबारा गर्म करके खिलाये ।"
रुस्तम राव मुंह फाड़े देवराज चौहान को देखने लगा ।
"देवा ।" रुस्तम राव के होंठों से हक्का-बक्का स्वर निकला ।
"हां त्रिवेणी, मैं देवा ही हूं ।" देवराज चौहान की मुस्कान में गंभीरता आ गई--- "याद है तूने, पहले जन्म में मेरी जान कालूराम से बचाई थी । तब कालूराम मेरे को बेबस करके मेरी जान लेने जा रहा था और जब तेरे ब्याह के फेरे हो रहे थे, ये खबर मिलते ही तू वहां आ पहुंचा और तूने कालूराम को जाने कैसे खत्म कर दिया।"
"वो गुलचंद अपने को खबर देईला कि कालूराम देवा को मारने जारिला है । तब अपुन ब्याह के फेरे छोड़कर भागा ।" रुस्तम राव के होठों से बरबस ही निकला ।
दोनों कई पलों तक एक-दूसरे को देखते रहे ।
फिर रुस्तम राव तेजी से आगे बढ़ा । देवराज चौहान ने बाहें फैला दी । दोनों गले लग गये ।
"तेरे को सब याद आएला देवा । सब याद आएला ।" रुस्तम राव के स्वर में कंपन था।
"हां त्रिवेणी । सब याद आ गया । सब याद आ गया। मैं तो सब से मिल चुका हूं । मां बापू, ताऊ, ताई, चाचा, चाची, किशना और संध्या से, सबसे ले चुका हूं ।" देवराज चौहान ने गहरी सांस ली ।
रुस्तम राव अलग होते हुए बोला ।
"वो सब अभी भी होएला ?"
"हां, दालू ने नगरी का समय चक्र रोक रखा है । वो सब वैसे ही है जैसा हम उन्हें छोड़ कर गये थे ।"
"मेरे बारे में पूछेला वो सब ? त्रिवेणी का हाल पूछेला क्या ?" रुस्तम राव की आंखों में आंसू नजर आने लगे । देवराज चौहान के पूर्वजन्म के परिवार वालों के बारे में जानने के लिए पढ़ें अनिल मोहन का पूर्व प्रकाशित उपन्यास 'ताज के दावेदार' ।
"नहीं त्रिवेणी । बहुत कम समय गुजार पाया उनके साथ। कोई बात करने का पूरा वक्त ही नहीं मिल पाया । शाम से लेकर आधी रात तक, चंद घंटे ही उनके पास रह पाया ।"
"मालूम है, वो लोग किधर को होएला ?"
"मालूम हो जायेगा ।" मोना चौधरी कह उठी--- "मैं रास्ते में आने वाले, हर तिलस्म को खत्म करती जाऊंगी । देवा के परिवार वाले, बस्ती वाले जहां भी होंगे, मिल जायेंगे ।"
रुस्तम राव ने मुस्कुराकर मोना चौधरी को देखा ।
"मुझे खुशी होएला कि तुम दोनों को पूर्वजन्म की सब बातें याद आएला ।" रुस्तम राव के होठों पर मुस्कान बिखरी पड़ी थी--- "और इससे भी ज्यादा खुशी ये होएला कि वो पुरानी दुश्मनी तुम दोनों भुएला।"
मोना चौधरी मुस्कुराई ।
"त्रिवेणी । जिस मुद्दे पर दुश्मनी की बुनियाद पड़ी थी, वो मुद्दा इतना अहम नहीं कि याद आने पर उस मुद्दे को फिर से उठाया जाये । उस वक्त दुश्मनी का मुद्दा शायद ठीक रहा हो, परंतु आज लगता है कि वो सब बातें बेमानी थी । उसमें झगड़े जैसी कोई वजह पैदा नहीं होनी चाहिए थी ।"
"मिन्नो । वो झगड़ा तेरी जिद की वजह से होएला कि तू देवा से ब्याह...।"
"रहने दे त्रिवेणी ।" मोना चौधरी ने गंभीर स्वर में कहा--- "बीती बातें मत उखाड़ । मेरी गलती होते हुए भी, मैं खुद को शायद गलत नहीं मानती, क्योंकि दालू और पेशीराम की बातें मेरे सिर पर चढ़कर बोल रही थी। कुछ मेरी आदत गुस्से वाली थी, तो कुछ मैं दूसरों के भड़कावे में आ गई और फिर वो हो गया जो नहीं होना चाहिये था । मैं वो सब बातें याद नहीं करना चाहती ।"
"मोना चौधरी ।" रूस्तम राव सिर हिला कर कह उठा--- "अतीत की परछाइयां कभी भी पीछा नेई छोड़ेला । तुम जिधर को भी भागेला परछाईयां तुम्हारे साथ होएला । तुम्हारे ही कहने पर कालूराम, देवा की जान लेने जाएला था । अपनी हेकड़ी के वास्ते तुमने कालूराम को, देवा की जान...।"
"त्रिवेणी ।" देवराज चौहान ने टोका ।
रूस्तम राव ने देवराज चौहान को देखा ।
"पहले जन्म में हुए हादसों की परवाह मुझे नहीं है तो तुम्हें भी इन बातों को छोड़ देनी चाहिये ।"
"अपुन किधर बात पकड़ेला । यूं ही बात किएला था देवा।"
"आओ खाना खा लें ।"
तीनों कुर्सी पर बैठे गये और खाना खाने लगे ।
"अपुन को बहुत खुशी होएला कि तुम दोनों को सब याद आएला और दोस्ती बनेला दोनों में । पेशीराम ने अपुन को इसी वास्ते तिलस्म में भेजेला कि दोनों को पूर्वजन्म की बातें याद कराएला और दोस्ती कराएला, परंतु वो बात तो पहले ही फिट होएला ।" रूस्तम राव मुस्कुरा कर बोला ।
खाने के दौरान कुछ ऐसी ही बातें होती रही ।
उसके बाद रुस्तम राव बोला ।
"अब तुम लोग क्या करेला हो ?"
देवराज चौहान और मोना चौधरी की निगाह मिली ।
"हाकिम की याद है ?" देवराज चौहान बोला ।
"बरोबर याद है बाप । उसको अपुन ने देखेला नेई । बाद में पैदा होएला था । पण, ये मालूम होएला कि हाकिम गुरुवर का बेटा होएला गुरुवर ने उसे विद्वान बनाएला, देवताओं का आशीर्वाद दिलाएगा हाकिम को, गुरुवर ने, कि वो लोगों की सेवा करेला । पण वो बिगड़ेला। बोत बुरा बनेला वो । पण बात क्या हो गया ?"
"अपनी ताकत से भरी बुराइयों के साथ हाकिम अज्ञातवास पर चला गया था । कोई नहीं जानता कि वो कहां रह रहा है और क्या करता है । परंतु ये जाहिर है कि वो जहां भी है, वहां भी बुरे काम करके लोगों को दुखी कर रहा होगा । दालू ने कभी उसका भला किया था, इसलिए हाकिम ने मुसीबत के वक्त से बुलाने की तरकीब बता दी थी और हमें मालूम हुआ कि दालू अब हाकिम को बुलाने के लिए विधिनुसार अनुष्ठान कर रहा है कि हाकिम मुझे और मोना चौधरी को खत्म कर सके। "
"दालू डरेला मिन्नो और तुम्हारे से ।" रूस्तम राव का चेहरा गुस्से से भर उठा--- "खासतौर से मिन्नो से क्योंकि वो सब जानेला कि मिन्नो के साथ उसने क्या गड़बड़ करेला ।"
मोना चौधरी का चेहरा भी धधक उठा ।
"त्रिवेणी, देवा के साथ मेरी आखिरी लड़ाई में, मैंने इसे खत्म कर दिया था और तब मैं भी मरणासन्न अवस्था में पड़ी थी । मेरा उपचार होता तो मैं ठीक हो जाती, लेकिन दालू का सारा खेल तो मेरी जान खत्म करना ही था । वो मुझे जिंदा कैसे रहने देता । मेरे जिस्म से जान निकलने में सिर्फ एक आखिरी वार की जरूरत थी, जिसे देवा तो नहीं कर सका, लेकिन वो वार उसने धोखे से कर दिया ।"
"ओह !" रूस्तम राव के होठों से निकला ।
"और भी बातें हैं, जिससे दालू डर रहा है। मैंने उसे रखवाले के तौर पर तिलस्म सौंपा था। परंतु वो बापू और बेला के साथ षड्यंत्र करके, नगरी का भी मालिक बन गया । तिलस्मी ताज अपने कब्जे में करके नगरी के समय चक्र को रोक दिया । अभी भी वो बापू और बेला की जान के पीछे है । ऐसी और भी पचासों बातें हैं, जिसकी वजह से वो मेरे से डर रहा है कि अगर मुझे पूर्वजन्म याद आ गया तो वो कहीं का नहीं रहेगा । इसी वजह के कारण वो हाकिम को बुलाकर, मुझे खत्म कराना चाहता है । देवा से भी उसे डर है कि इसे भी अगर पूर्वजन्म की बातें याद आ गई और मालूम हो गया, उस झगड़े में दालूबाबा का हाथ था । उसने ही झगड़ा करवाया था और उसके परिवार और बस्ती वालों को समय चक्र में बांध रखा है तो देवा भी उसे नहीं छोड़ेगा । इसलिए दालू हम दोनों को हर हाल में खत्म करवाना चाहता है।"
तीनों के चेहरे पर गंभीरता और गुस्सा उभरा पड़ा था ।
"ये बात तो हाकिम को डराएला ही । पण ये सब तुम लोगों को कौन बताएला बाप ?"
"मेरे बापू ने । बेला ने। मोना चौधरी ने सख्त स्वर में कहा--- "बापू के प्रयत्न से ही, हमें पहले जन्म की याद आई ।"
"और अब बेला और तुम्हारा बापू किधर होएला ?"
"अभी तुम उससे नहीं मिल सकते ।"
रूस्तम राव सिर हिला कर रह गया।
"तो अब किधर का प्रोग्राम होएला ?" रुस्तम राव ने दोनों को देखा ।
"रुस्तम ।" देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा--- "गुरुवर के समझाने पर भी हाकिम ने अपने पिता की बात नहीं मानी । क्योंकि अमरत्व हासिल कर चुका हाकिम तो जैसे सबका हाकिम बन चुका था। लेकिन शायद हाकिम ने अपने पिता यानी कि गुरुवर की शक्तियों को ठीक तरह से समझा नहीं था । हाकिम जब गुप्त आवास पर, अपनी मनमानी कर के चला गया तो गुरुवर ने एक किताब लिखी, जिसमें अमरत्व प्राप्त हाकिम को खत्म करने की तरकीब का जिक्र था और वो किताब तब की नगरी की देवी को यह कर कर सौंप दी कि अगर हाकिम नगरी पर जुल्म ढाये तो इस किताब में उसे समाप्त करने का उपाय दर्ज है । परंतु हाकिम ने कभी भी इस नगरी पर जुल्म नहीं किया । कभी आया तो थोड़ा-बहुत करके फौरन चला गया । क्योंकि उस किताब का उसे भी पता था । ऐसे में वो किताब सुरक्षित रखी, उसके हवाले कर दी जाती जो कुलदेवी चुनी जाती ।"
रुस्तम राव ने सिर हिलाया ।
"और जब मोना चौधरी कुलदेवी बनी तो वो किताब इसके कब्जे में आ गई । उस किताब को मोना चौधरी ने अपने तौर पर सुरक्षित जगह पर रख दी और उसके बाद नगरी के झगड़े इस कदर बढ़ गये कि वो किताब महल में उसकी गुप्त जगह पर रही और सब कुछ तबाह हो गया ।"
"तो अब वो किताब का रगड़ेला किधर से आ गया ?"
"मुद्रानाथ ने बताया है कि गुरुवर के मुताबिक, जब हम दोनों को पूर्वजन्म की बातें याद आयेंगी तो उस वक्त दालू, हाकिम को बुलाने के लिए अनुष्ठान शुरू करने का प्रबंध कर रहा होगा ताकि हाकिम के दम पर वो हम दोनों की जान ले सके । तिलस्म में उसने कई बार तिलस्मी धौंको से हमारी जान लेने की चेष्टा की, परंतु हम बच गये और अब वो ये काम हाकिम से करवाना चाहता है ।" देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा।
"समझेला बाप ।" रुस्तम राव ने सिर हिलाया--- "बरोबर खोपड़ी में आएला । अब तुम दोनों महल में जाकर उस किताब को लाएला, जिसमें हाकिम को मारने का तरीका दर्ज होएला ।
"हां ।"
रुस्तम राव ने मोना चौधरी को देखा ।
"तुम्हें मालूम होएला कि वो किताब महल में किधर पड़ेला होएला ?" रुस्तम राव ने पूछा ।
"नहीं, ये नहीं मालूम ।" मोना चौधरी ने सोच भरे स्वर में कहा--- "लेकिन ये मालूम है कि मैंने वो किताब कहां पर छिपाकर रखी थी । वहां तिलस्म का पहरा भी बिठा दिया था ताकि कोई आसानी से किताब तक न पहुंच सके ।"
"तो फिर दिक्कत किधर होएला ?"
"अगर तिलस्म के किसी बड़े ज्ञाता ने वो जगह तलाश कर ली हो तो मेरे बिछाये उस तिलस्म को काट कर वो उस किताब तक पहुंच सकता है ।" मोना चौधरी के चेहरे पर गंभीरता थी ।
"मतलब कि फिफ्टी-फिफ्टी चांस होएला उस किताब का मिलने का ?"
मोना चौधरी के दांत भिंच गये ।
"उस किताब का मिलना बहुत जरूरी है रुस्तम राव ।" मोना चौधरी खतरनाक स्वर में कह उठी--- "क्योंकि उस किताब के बिना हम हाकिम का मुकाबला नहीं कर सकते और एक बार फिर दालू अपने इरादे में कामयाब हो जायेगा और अब मैं उनकी चालों में आकर जान नहीं गंवाना चाहती।"
दो पलों के लिए वहां खामोशी-सी छाई गई ।
देवराज चौहान ने दोनों के चेहरों पर निगाह मारी ।
"हमें यही सोचकर महल की तरफ बढ़ना है कि वो किताब वहीं होगी, तभी हम आसानी से और जल्दी रास्ता तय कर सकते हैं । महल में क्या होगा । किताब वहां है या नहीं, ये बाद की बात है ।"
मोना चौधरी की निगाह देवराज चौहान पर जा टिकी ।
"तुम दालू की कमीनगी नहीं जानते । उसकी कमीनगी का एहसास मुझे अब हो रहा है ।" मोना चौधरी एक-एक शब्द चबाकर कड़वे-तीखे स्वर में कह उठी--- "मेरी मौत के पश्चात नगरी को अपने कब्जे में लेने के पश्चात यकीनन उसने उस किताब की तलाश की होगी, जिसमें हाकिम की मौत का ढंग दर्ज है । हो सकता है दालू ने वो किताब तलाश कर ली हो या फिर किताब तक पहुंचने में सफल न हो सका हो । कुछ भी हो सकता है ।"
देवराज चौहान उठ खड़ा हुआ ।
दोनों ने उसे देखा ।
"हमें तुरंत यहां से चल देना चाहिये ।" देवराज चौहान ने कहा--- "अगर वो किताब महल में नहीं है तो हाकिम से निपटने का कोई और तरीका सोचना पड़ेगा ।"
मोना चौधरी और रुस्तम राव फौरन उठ खड़े हुए ।
"वो अपने बाकी साथी किधर को होएला । कोई मिएला क्या ?" रूस्तम राव ने दोनों को देखा ।
"नहीं ।" देवराज चौहान के होंठ भिंचते चले गये ।
तभी मोना चौधरी की निगाह काली बिल्ली की तरफ उठी । बिल्ली चमकदार निगाहों से उसे देख रही थी । मोना चौधरी के चेहरे पर सोच के भाव उभरे।
"क्या होएला ?" रुस्तम राव ने पूछा ।
मोना चौधरी सिर हिलाकर कह उठी ।
"अभी हमें कई तरह के खतरों से निकलना है । अजीब-अजीब रास्तों को पार करना है और बिल्ली के साथ की हमें जरूरत नहीं । यूं ही इसकी जान खतरे में डालना ठीक नहीं ।"
"तो ?"
"इसे बापू (मुद्रानाथ ) के पास ही भेज देना ठीक रहेगा ।"
रूस्तम राव ने बिल्ली को देखा ।
मोना चौधरी के होंठ बिल्ली को देखते हुए हिलने लगे। मंत्र के पूर्ण होते ही होंठ थमे तो बिल्ली के होठों से 'म्याऊं' की आवाज निकली और उछलकर वो मोना चौधरी के कंधे पर आ बैठी । मोना चौधरी ने उस पर हाथ फेरा तो वो पुनः 'म्याऊं' की पुकार निकाल कर नीचे कूदी और देखते-ही-देखते तेजी से एक तरफ दौड़ती हुई निगाहों से ओझल होती चली गई ।
"ये किधर हो गइला ?"
"मैंने इसे बापू के पास भेज दिया है ।" मोना चौधरी ने सिर हिलाकर कहा ।
"चल बाप, अब आगे बढ़ेला ।"
और फिर वे तीनों पुनः तेजी से आगे बढ़ने लगे ।
■■■
"कितने दिन से हम तिलस्म में भटक रहे हैं शुभसिंह ।" कीरतलाल बोला--- "लेकिन हमें देवी कहीं भी नहीं मिलीं ।"
"क्या मालूम देवी तिलस्म से निकल गई हो ।" प्रतापसिंह कह उठा ।
"देवी तिलस्म से नहीं निकल सकती ।" शुभसिंह ने दृढ़ता भरे स्वर में कहा ।
"क्यों ?"
"क्योंकि देवी को अपने पूर्वजन्म के बारे में कुछ भी याद नहीं । ऐसे में उसे अपना ही बनाया तिलस्म कैसे याद होगा । वो यकीनन तिलस्म में ही कहीं भटक रही है ।" शुभसिंह की आवाज में विश्वास था ।
"तिलस्म की 'थाह' पाना कोई आसान बात है कि देवी इस वक्त तिलस्म में कहां होगी ।" कीरतलाल सोच भरे स्वर में कह उठा--- "देवी के बारे में, दिशा ज्ञान भी हो जाये शायद हम देवी को ढूंढ निकालें ।"
शुभसिंह, कीरतलाल और प्रतापसिंह इस वक्त तिलस्म में ही पेड़ों की छांव में बैठे थे और भोजन कर रहे थे । मोना चौधरी की तलाश में, तिलस्म में आए उन्हें पांच दिन हो चुके थे । परंतु लाख ढूंढने पर भी वो मोना चौधरी को नहीं ढूंढ सके थे । शुभसिंह के बारे में जानने के लिए पढ़ें अनिल मोहन का उपन्यास 'ताज के दावेदार'।
"जो भी हो, हम देवी को ढूंढे बिना तिलस्म से बाहर नहीं जायेंगे।" शुभसिंह पक्के स्वर में कह उठा ।
"हम तो देवी को डेढ़ सौ बरस के बाद पुनः देखेंगे ।" प्रतापसिंह ने कीरतलाल को देखा ।
"हां ।" कीरतलाल ने सिर हिलाया--- "देवी को देखने की मेरी बहुत इच्छा हो रही है ।"
तभी प्रताप सिंह की निगाह हरीसिंह पर पड़ी । जो काफी दूर था और तेजी से एक तरफ बढ़ा जा रहा था, जैसे कहीं पहुंचने की उसे जल्दी हो ।
"वो देखो ।" प्रतापसिंह के होठों से निकला ।
दोनों ने उधर देखा ।
"ये तो हरीसिंह है । दालूबाबा का खास आदमी ।" शुभसिंह के चेहरे पर सोचकर भाव उभरे ।
"ये क्या कर रहा है ?" कीरतलाल कह उठा।
"दालूबाबा का खास आदमी है तो, किसी काम के लिए दालूबाबा ने ही हरिसिंह को तिलस्म में भेजा होगा और दालूबाबा की इस वक्त तिलस्म में दिलचस्पी देवी की वजह से ही हो सकती है ।" शुभसिंह बोला ।
"इसका मतलब हो सकता है हरीसिंह जानता हो कि देवी तिलस्म में कहां है ।" प्रतापसिंह ने कहा ।
"हो नहीं सकता, बल्कि हरीसिंह को अवश्य मालूम होगा देवी के बारे में ।" शुभसिंह उठता हुआ बोला--- "आओ इसके पीछे जाकर देखते हैं, ये कहां जा रहा है और क्या कर रहा है ।"
प्रतापसिंह और कीरतलाल भी फौरन खड़े हो गये ।
भोजन बीच में ही छोड़कर तीनों उस तरफ बढ़ गये, जिधर हरीसिंह जा रहा था । तीनों इस बात की पूरी कोशिश कर रहे थे कि कोई आहट पैदा न हो और हरीसिंह को उनके पीछे आने के बारे में मालूम न हो । पन्द्रह मिनट तो खामोशी से पीछा करते गुजर गये, परंतु आखिरकार उनके पांवों के नीचे पेड़ से गिरे सूखे पत्तों पर पड़े तो चरमराहट की आवाज से, आगे जाता हरीसिंह सावधान होकर, फौरन पीछे पलटा तो वे तीनों उसकी निगाहों में आ गये । उन्हें इस तरह पीछे आते पाकर हरीसिंह चौंका ।
तीनों ठिठके ।
"हरीसिंह ने हमें देख लिया है ।" कीरतलाल कह उठा ।
"कोई बात नहीं ।" शुभसिंह की आवाज में चुभन थी--- "अब इससे सीधे-सीधे बात करेंगे ।"
"तो तुम्हारा क्या ख्याल है, ये बता देगा कि देवी कहां है ?" प्रतापसिंह के माथे पर बल पड़े--- "ये तो दालूबाबा का आदमी है और दालू के लिए देवी के खिलाफ काम कर रहा होगा और ये बात भी ये अवश्य जानता है कि हम देवी के खास आदमी हैं और वक्त आने पर दालूबाबा के खिलाफ देवी का साथ ही देंगे तो ऐसे में ये हमें देवी के बारे में क्यों बतायेगा ?"
"हम मुंह खुलवाना भी तो जानते हैं ।" शुभसिंह ने सख्त स्वर में कहा ।
"दालूबाबा के आदमी के साथ सख्ती करोगे तो दालूबाबा छोड़ेगा नहीं ।" कीरतलाल बोला ।
"देखते हैं । कहने के साथ ही शुभसिंह सबसे आगे बढ़ गया ।
कीरतलाल-प्रतापसिंह उसके साथ चल पड़े ।
हरीसिंह बराबर उन्हें ही देख रहा था । परंतु वह सतर्क हो चुका था ।
तीनों को पास आया पाकर, हरीसिंह मुस्कुराया।
"आओ शुभसिंह ।" हरीसिंह शांत स्वर में कह उठा--- "डेढ़ सौ बरस के बाद पुनः तुम्हें देख कर खुशी हो रही है ।"
"मैं भी खुश हूं, तुम्हें सामने पाकर ।" शुभसिंह मुस्कुराया ।
"बहुत किस्मत वाले हो कि देवी ने तिलस्म में आकर तुम्हें बूत से पुनः इंसान बनाकर, सजा से मुक्ति दिला दी। यह भी हो सकता था कि देवी की निगाह तुम पर नहीं पड़ती ।"
"ठीक कहते हो हरीसिंह ।
हरीसिंह ने प्रतापसिंह और कीरतलाल को देखा ।
"तो तुम दोनों फिर इकट्ठे हो गये । तिलस्म में क्या कर रहे हो तुम लोग ?" हरीसिंह ने पूछा ।
"यही बात मैं तुमसे जानना चाहता हूं हरीसिंह कि तुम तिलस्म में क्या कर रहे हो ?" शुभसिंह बोला ।
"मैं तो दालूबाबा के काम की खातिर तिलस्म में हूं ।" हरीसिंह ने कहा ।
"दालूबाबा का काम---मतलब कि दालूबाबा के लिए तिलस्म में फंसी देवी की खबरें इकठ्ठी करके दालूबाबा तक पहुंचा रहे हो ।" शुभसिंह मुस्कुराया ।
"समझदार तो तुम शुरू से ही रहे हो शुभसिंह ।" हरीसिंह मुस्कुराया ।
शुभसिंह हरीसिंह को देखता रहा ।
"तुम तिलस्म में क्या कर रहे हो ?" हरीसिंह ने पूछा ।
"देवी की तलाश ।"
"वफादारी की आदत गई नहीं, अभी तक तुम्हारी।" हरीसिंह ने शांत स्वर में कहा-- "मेरी सलाह मानो तो अपना रास्ता बदल लो । दालूबाबा को इस बार पसंद नहीं आयेगा कि कोई मिन्नो की सहायता करे ।"
शुभसिंह का चेहरा कठोर हो गया
"मैं दालूबाबा का नौकर नहीं हूं । तुम हो उसकी जी-हजूरी करने वाले । मैं तो कुलदेवी की सेवा करके अपने फर्ज को पूरा कर रहा हूं ।" शुभसिंह शब्दों को चबाकर कह उठा ।
"मैंने तो तुम्हें आज के हालातों को देखते हुए सलाह दी है । आगे तुम्हारी मर्जी ।" हरीसिंह ने शांत स्वर में कहा--- "लेकिन तुम लोगों को इस तरह मेरा पीछा नहीं करना चाहिये ।"
"तुम ठीक कहते हो, हमें सीधे-सीधे बात करनी चाहिये ।" शुभसिंह ने कहा ।
"कैसी बात ?"
"तुम्हें खबर है कि देवी तिलस्म में कहां हैं ?" शुभसिंह गंभीर स्वर में बोला ।
"हां । पूरी नहीं तो आधी-अधूरी तो खबर है ही ।" हरीसिंह के माथे पर बल पड़े ।
"हमें देवी की तलाश है । बताओ देवी तिलस्म में कहां है ?"
"मैं नहीं बता सकता ।"
"क्यों ?"
"देवी के बारे में, तुम्हें बताना, दालूबाबा से गद्दारी होगी, क्योंकि तुम मिन्नो की सहायता करोगे ।"
"हरीसिंह ! गद्दारी उसे कहते हैं जो किसी शरीफ इंसान से की जाये । दालूबाब जैसे गद्दार के साथ गद्दारी करना तो एक अच्छा काम है ।" शुभसिंह मुस्कुराया ।
"तुम मुझे दालूबाबा के खिलाफ भड़का रहे हो ।" हरीसिंह ने तीखे स्वर में कहा ।
"नहीं, मैं समझा रहा हूं कि तुम बुरे इंसान का साथ दे रहे हो । गलत रास्ते पर चल रहे हो । अभी भी वक्त है, ये रास्ता छोड़कर हमारे साथ कदम मिला लो । गद्दार से गद्दारी करना बुरा नहीं होता । बता हरीसिंह देवी तिलस्म में कहां है ?" शुभसिंह की निगाह हरीसिंह पर थी ।
"मैं नहीं बताऊंगा ।"
"ठीक है । इतना ही बता दे कि देवी तिलस्म में किस दिशा में है ?"
"मैं कुछ नहीं बताऊंगा ।" हरीसिंह होंठ भींचकर कह उठा । कीरतलाल बोला।
"ये सीधी तरह नहीं मानने वाला ।"
"इसे रास्ते पर लाना होगा ।" शुभसिंह कठोर स्वर में कह उठा ।
शुभसिंह कहर भरे ढंग से मुस्कुराया ।
"सुना हरीसिंह । अब फैसला तू ही कर ले ।"
"शुभसिंह, हमारी कोई दुश्मनी नहीं है कि...।"
"हमारी दुश्मनी नहीं है, बल्कि हम लोगों के कर्मों की दुश्मनी है । तू गलत इंसान का साथ दे रहा है और मैं कुलदेवी की रक्षा करने के लिए भागदौड़ कर रहा हूं । बता, देवी तिलस्म में कहां है ?"
"नहीं । मैं तुम्हारे सवाल का जवाब नहीं दूंगा ।"
तभी कीरतलाल ने गुस्से में कमर में फंसी कटार निकाल ली ।
"हरीसिंह ।" शुभसिंह की आंखों में कठोरता बरसने लगी--- "दालूबाबा ने नगरी का समय चक्र रोक रखा है । लेकिन किसी को भी अमर रहने का वरदान प्राप्त नहीं है । हमारे सवाल का जवाब दिए बिना तू यहां से नहीं जा सकता । अपना भला सोच ले।"
"तुम्हारी धमकी मैं दालूबाबा को बताऊंगा ।" हरीसिंह दांत भींचकर बोला ।
शुभ सिंह ने कमर में फंसा खंजर निकाल लिया ।
"तू दालूबाबा तक तभी पहुंचेगा, जब हम तुझे जिंदा छोड़ेंगे ।" शुभ सिंह गुस्से से कह उठा ।
"तो तुम लोग मुझे जान की धमकी दे रहे हो ।" हरीसिंह गुस्से से भर उठा ।
"यह धमकी नहीं है । बल्कि सच में हम तेरी जान लेने जा रहे हैं तू जिंदा रहा तो देवी के खिलाफ दालू की सहायता करता रहेगा। एक-एक करके तेरे जैसे दालू के सब विश्वस्त आदमियों को खत्म करना जरूरी हो गया है । लेकिन तेरे लिए एक मौका है जीने का इस वक्त। तिलस्म में देवी किस दिशा में है ये खबर हमें दे दे और अपनी जान बचा ले ।" शुभसिंह खतरनाक स्वर में कह उठा ।
हरीसिंह ने फुर्ती के साथ कमर में फंसी तलवार निकाल ली ।
"शुभसिंह, अब तुम मेरे हाथों से नहीं बचोगे ।"
"ये गद्दार, गद्दार का ही साथ देगा ।" शुभसिंह क्रूर स्वर में बोला--- "खत्म कर दो इसे ।"
उसी क्षण पलक झपकते ही शुभ सिंह के हाथों से खंजर निकला और हवा में लहराता वो खंजर ठीक हरीसिंह की छाती में पूरा का पूरा जा धंसा ।
हरीसिंह जोरों से चीखा। तलवार हाथ से छूट गई और दोनों हाथ छाती में फंसे खंजर पर जा टिके । छाती खून से गीली होने लगी । उसके चेहरे पर पीड़ा के भाव थे ।
"शुभसिंह ।" हरीसिंह लड़खड़ाता कह उठा--- "तुम...।"
शुभसिंह आगे बढ़ा और जोरदार ठोकर उसके पेट में मारी । हरीसिंह जमीन पर लुढ़कता चला गया । शुभसिंह का चेहरा गुस्से से भरा पड़ा था ।
"ये तेरा आखिरी वक्त है हरीसिंह । तुमने दालू के साथ मिलकर बहुत बुरे काम किए हैं । मुझे पत्थर का बुत बना कर, डेढ़ सौ बरस तक झूठी सजा दे दी, क्योंकि में देवी का वफादार था। अभी भी वक्त है । अपने किए का पश्चाताप कर लो और बता दो देवी कहां है, तिलस्म में ।"
"न-नहीं...।" दर्द से तड़पता हरीसिंह कह उठा--- "नहीं बताऊंगा तुम...।"
"कीरतलाल ।" शुभसिंह मौत से भरे स्वर में बोला--- "एक ही वार में इसकी गर्दन अलग कर दो।"
कीरतलाल फौरन आगे बढ़ा और देखते-ही-देखते एक ही वार में कटार से हरीसिंह की गर्दन अलग कर दी । सिर दूर जा गिरा । हरीसिंह का शरीर जोरो से तड़पने लगा । बहता खून जमीन को सुर्ख कर रहा था । दिल दहला देने वाला दृश्य सामने था ।
परंतु तीनों के चेहरे कठोर हुए पड़े थे ।
"प्रतापसिंह ।" शुभसिंह कठोर स्वर में कह उठा ।
"हां।"
"गड्ढा खोदो और इसका सिर जमीन में दफन कर के, ऊपर मिट्टी डाल दो ।"
"ऐसा मत करो शुभसिंह ।" प्रताप सिंह बोला ।
"क्यों ?" शुभसिंह ने प्रतापसिंह को देखा ।
"नगरी में हर कोई जानता है कि दुश्मन को खत्म करके, शुभ सिंह उसका सिर काट कर ,जमीन में दफन कर देता है । बिना सिर की लाश, डेढ़ सौ बरस पहले जब भी नजर आती तो सब जान जाते थे कि तुमने उसे मारा है ।" प्रताप सिहं ने कहा ।
"तुम कहना चाहते हो कि ऐसा करने से दालू समझ जायेगा कि हरीसिंह को मैंने मारा है ?"
प्रताप सिंह ने सहमति से सिर हिलाकर कहा।
"हां । और इस वक्त हम दालू से मुकाबला करने की स्थिति में नहीं हैं इसलिए...।"
"अब मुझे दालू का डर नहीं, देवी डेढ़ सौ बरस बाद वापस आ चुकी है । देवी की सेवा की खातिर ही मैंने हरीसिंह की जान ली है । देवी मेरी सहायता करेगी । इस सेवा की राह में अगर दालू मेरी जान भी ले ले तो मुझे कोई दुख नहीं होगा। क्योंकि अब छिपकर दालू से नहीं लड़ा जा सकता । गड्डा खोदो और हरीसिंह के सिर को दबा दो । ऊपर मिट्टी डाल दो ।"
"जय कुलदेवी ।" शुभसिंह कहते हुए बेख़ौफ आगे बढ़ा और मृत हरीसिंह के सीने में धंसा खंजर निकालकर, उसे साफ करके कमर में लगाया और हरीसिंह के नीचे पड़ी तलवार उठाई और दस-बारह कदम दूर जाकर तलवार की नोक से गड्ढा खोदने लगा सिर्फ दफन करने के लिए ।
कीरतलाल खून में डूबी कटार को साफ करने में व्यस्त था ।
"बहुत पक्का निकला हरीसिंह । हमारे सवाल का जवाब नहीं दिया । जाने दे दी ।" कीरतलाल बोला ।
"पक्का नहीं था ।" शुभसिंह तीखे स्वर में कह उठा--- "यूं समझो कि इसकी जान धोखे से चली गई ।"
"क्या मतलब ?"
"इसे यकीन नहीं हो रहा कि हम उसकी जान ले सकते हैं ।" शुभसिंह ने गहरी सांस ली--- "अगर इसे मालूम होता कि हम वास्तव में इसकी जान ले लेंगे तो यह हमारे सवाल का जवाब दे देता ।"
"इसने ऐसा क्यों सोचा कि हम इसे नहीं मारेंगे ?"
"इसलिए कि नगरी में दालूबाबा से ताकतवर और कोई दूसरा नहीं । ऐसे में हम इसे मारकर दालूबाबा से क्यों दुश्मनी लेंगे । यही सोचा था इसने । तभी तो छाती तानकर खड़ा रहा । लेकिन बेवकूफ को इस बात का एहसास नहीं था कि देवी के अहित में जो ये काम कर रहा है, वो हम नहीं करने देंगे ।" शुभसिंह की आवाज काफी हद तक शांत हो चुकी थे, परंतु चेहरे पर गुस्सा मौजूद था।
शुभसिंह ने डेढ़ फीट गड्ढा खोद लिया ।
"कीरतलाल, सिर ला ।"
कीरतलाल ने लुढ़का पड़ा हरीसिंह के सिर को बालों से पकड़ा और प्रताप सिंह की तरफ बढ़ गया। बूंद-बूंद लहू अभी भी जमीन पर गिर रहा था । कीरतलाल ने कटा सिर गड्ढे में डाला तो प्रतापसिंह मिट्टी से पुनः गड्ढा भरने लगा ।
■■■
मोना चौधरी ठिठकी तो देवराज चौहान, रुस्तम राव भी रुक गये ।
रास्ता सामने जा रहा था, परंतु लाल पत्थरों की ऊंची, बेहद मजबूत दीवार दाईं तरफ कुछ दूर जा रही थी । मोना चौधरी की नजरें उसी दीवार पर जा टिकी थी ।
"क्या होएला बाप ?" रुस्तम राव बोला ।
मोना चौधरी रुस्तम राव देवराज चौहान पर नजर मारकर कह उठी ।
"हम इसी सीधे रास्ते पर पांच-छह दिन चलते रहे तो जाकर हम इसी दीवार के पार पहुंचेंगे ।"
"तुम्हारा मतलब कि हमें इस दीवार के पार पहुंचना है ?" देवराज चौहान बोला ।
"हां, इस दीवार के पार पहुंचकर हमें आगे जाना है । ये दीवार तिलस्म का भटकाव है और हम यहीं से इस दीवार को पार करके, आसानी से पांच-छह दिन का सफर बचा सकते हैं।"
देवराज चौहान और रुस्तम राव ने दीवार की तरफ देखा ।
"इस दीवार को पार करना कैसे संभव है ।" देवराज चौहान ने कहा--- "इसकी ऊंचाई आसमान को छूती लग रही है और दीवार में ऐसी जगह भी नहीं है कि ऊपर चढ़कर, दूसरी तरफ उतरा जा सके ।"
"देवराज चौहान ठीक बोएला है ।"
मोना चौधरी मुस्कुराई ।
"कुछ चीजों के अलावा यहां सबकुछ तिलस्म से बना है और जो तिलस्म से बना है उसे मैं अपने खास तिलस्म मंत्र से हटा सकती हूं । मत भूलो इस तिलस्म का निर्माण मैंने ही किया है ।"
"मिन्नो ठीक बोएला है बाप ।" रुस्तम राव ने सिर खुजलाया ।
"आओ ।"
वो तीनों दीवार की तरफ बढ़ गये ।
जंगल जैसे पथरीले रास्ते को दस मिनट में पार करके, तीनों दीवार के पास पहुंचे । दीवार को देखकर कोई भी नहीं कह सकता था कि ये तिलस्म द्वारा निर्मित नकली दीवार है । वो एकदम ठोस और असली दीवार थी जो कि पुरानी लग रही थी । बरसात और धूप के निशान दीवार पर मौजूद थे ।
"मोना चौधरी ।" रुस्तम राव बोला--- "दीवार को धकेल के पीछे कूं करेला या घूंसा मारकर तोड़ेला ?"
मोना चौधरी ने मुस्कुराकर रुस्तम राव को देखा ।
"ऐसा कुछ भी नहीं करना पड़ेगा ।
"तो ?"
मोना चौधरी ने आगे बढ़कर दीवार को छुआ फिर पास ही घुटनों के बल बैठकर, हाथों को जोड़ते हुए, आंखें बंद करके होठों-ही-होठों भी बुदबुदाने लगी।
देवराज चौहान और रुस्तम राव की निगाहें मिलीं । वे खामोश रहे ।
करीब बीस सेकंड बाद होना चौधरी ने आंखें खोली तो दीवार को उसी तरह सामने पाया । यह देखकर चेहरे पर अजीब से भाव आ गये । वो उठ गई। सिर से पांव तक वो परेशान नजर आने लगी ।
देवराज चौहान और रूस्तम राव ने उसकी परेशानी को महसूस किया ।
"क्या हुआ ?" देवराज चौहान ने पूछा ।
"इस...।" मोना चौधरी उलझन भरे स्वर में कह उठी--- "दीवार को हटाने के लिए जो तिलस्मी विधि का मंत्र था, वो मैं पूर्ण कर चुकी हूं । इस पर भी दीवार अपनी जगह से क्यों नहीं हटी ।"
"तुम कोई बात भुएला, तभ्भी...।"
"खामोश रहो ।" मोना चौधरी ने तीखी निगाहों से रूस्तम राव को देखा-- "मत भूलो ये तिलस्म मेरा बनाया हुआ है और मैं अपनी पूर्वजन्म में आकर मिन्नो और कुलदेवी बन चुकी हूं । सब कुछ मुझे शीशे की तरह याद है । ऐसे में किसी मंत्र को पढ़ने के बारे में मुझसे कोई गलती नहीं हो सकती ।"
रूस्तम राव कुछ नहीं बोला ।
"लेकिन कोई तो बात है ही, जो तुम्हारे मंत्र का तिलस्मी दीवार पर कोई असर नहीं हुआ ।" देवराज चौहान ने कहा।
होंठ भींचे मोना चौधरी पुनः दीवार की तरफ पलटी और पुनः दीवार को हाथ लगाकर, दोनों हाथ जोड़े, घुटनों के बल बैठने के पश्चात होठों-ही-होठों में मंत्र बुदबुदाने लगी ।
परंतु मंत्र पूर्ण होने के बाद भी दीवार अपनी जगह स्थापित रही ।
मोना चौधरी चेहरे पर अजीब से भाव समेटे उठ खड़ी हुई ।
"असंभव ! नामुमकिन, मुझे विश्वास नहीं हो रहा कि अपने बनाये तिलस्म में मैं खता खा सकती हूं ।" मोना चौधरी के चेहरे पर उलझन के भाव नजर आ रहे थे--- "नहीं-नहीं, ये नहीं हो सकता । मैं...।"
तभी मोना चौधरी की निगाह फकीर बाबा पर पड़ी तो मोना चौधरी खामोश हो गई ।
देवराज चौहान और रुस्तम राव भी फकीर बाबा को देख चुके थे ।
माथे पर तिलक, गले में मालाएं, सफेद दाढ़ी-मूंछें । करीने से बने बाल, पीछे को जाते हुए । कमर पर लिपटी सफेद धोती, जिसका छोर कंधे तक जा रहा था । होठों पर मधुरमय मुस्कान ।
"बाबा !" रूस्तम राव के होठों से निकला ।
फकीर बाबा ने आशीर्वाद देने वाले अंदाज में हाथ ऊपर उठाया ।
जाने क्यों देवराज चौहान और मोना चौधरी के चेहरे पर मुस्कान नाच उठी ।
"आओ पेशीराम ।" देवराज चौहान बोला--- "कैसे हो ?"
फकीर बाबा कुछ कदम उठाकर करीब आ पहुंचा ।
"अच्छा हूं देवा और मुझे खुशी है कि तुम्हें और मिन्नो को पूर्व जन्म की याद आ गई ।"
"हमें सब कुछ याद दिलाने में मुद्रानाथ ने मेहनत की है ।" देवराज चौहान ने कहा ।
"मैं जानता हूं । जो हो जाये, वो बातें मैं जान लेता हूं ।" फकीर बाबा के चेहरे पर बराबर मुस्कान थी ।
"यह देखकर मुझे खुशी हुई पेशीराम कि तुम कई शक्तियां हासिल कर चुके हो ।"
"देवा, ये सब गुरुवर के आशीर्वाद का नतीजा है । वरना मैं तो मिट्टी से ज्यादा नहीं था ।"
"त्रिवेणी बता रहा था कि वो लाडो से मिला है ।" देवराज चौहान ने कहा ।
"हां, लाडो अभी तक मुझसे नाराज है कि मैंने त्रिवेणी को तिलस्म में भेज दिया, लेकिन इसका यहां आना भी जरूरी था ।" फकीर बाबा ने मुस्कुराते हुए त्रिवेणी पर निगाह मारी।
त्रिवेणी कुछ न कह सका ।
फकीर बाबा ने मोना चौधरी को देखा
"क्यों मिन्नो ! तू खामोश क्यों है। पेशीराम को पहचाना नहीं है क्या ?" फकीर बाबा हौले से हंसा ।
"तुझे नहीं पहचानूंगी तो और किसे पहचानूंगी पेशीराम ।" मोना चौधरी शांत स्वर में कह उठी--- "लेकिन पहले जन्म में तूने जो काम किए थे, उनके बारे में अब सोचती हूं तो तुम्हारा वो सब किया मुझे अच्छा नहीं लगता ।"
"मैं कब कहता हूं कि मैंने अच्छा किया । मेरे द्वारा जो हुआ उसका मुझे स्वयं अफसोस है ।" फकीर बाबा का चेहरा गंभीर-सा हो उठा--- "तभी तो गुरुवर ने मुझे श्राप दिया कि...।"
"अभी बीती बातें मत करो बाबा ।" देवराज चौहान ने टोका ।
फकीर बाबा ने दोनों को देखा ।
"मुझे खुशी है कि तुम दोनों एक हो गये। यही मेरी कोशिश थी । अब गुरुवर से कहकर मैं जल्द ही खुद को श्राप से मुक्त करा लूंगा । अब एक-दूसरे के दुश्मन बनने की कोशिश मत करना और नहीं जीना चाहता मैं । इस पुराने शरीर को छोड़कर मैं मृत्यु को प्राप्त हो जाना चाहता हूं ।" फकीर बाबा का स्वर शांत था।
देवराज चौहान और मोना चौधरी की निगाहें मिलीं, उसके बाद नजरें पुनः फकीर बाबा पर जा टिकी ।
"क्यों मिन्नो, अब तो देवा से दुश्मनी नहीं रखेगी न ?" फकीर बाबा मुस्कुराये ।
"देवा से मेरी कोई जाती दुश्मनी तो है नहीं, जो कुछ भी है तुम्हारे सामने है पेशीराम । लेकिन वो 'ताज' वाली शर्त अभी बाकी है । जो ताज ले आयेगा, दूसरा उम्र भर उसकी गुलामी करेगा ।" मोना चौधरी मुस्कुराई ।
"सब कुछ तो ठीक है । अब ये जरा-सी बात है मिन्नो । इसे भी आज खत्म कर दे ।"
"जिस शर्त को सामने रखकर तुम हमें यहां लाये, वो अपनी जगह कायम है पेशीराम ।" मोना चौधरी बोली ।
फकीर बाबा ने देवराज चौहान को देखा ।
"इस बारे में तुम क्या कहते हो देवा ?"
"मैं मिन्नो की बात से सहमत हूं कि जिस काम के लिए हम यहां आए हैं, बाकी कामों के साथ-साथ वो काम भी हो जाना चाहिये । ताज के बारे में फैसला कर लें तो इसमें हर्ज ही क्या है पेशीराम ?"
"जैसे तुम दोनों की इच्छा ।" फकीर बाबा ने शांत स्वर में कहा ।
"बाबा, लाडो कैसी होएला ?"
"त्रिवेणी, उसे तो हर पल तुम्हारा इंतजार है ।" फकीर बाबा बोला ।
"अपुन इधर से फुर्सत पाते ही, लाडो के पास जायेगा ।"
फकीर बाबा ने सिर हिलाया और देवराज चौहान, मोना चौधरी को देखा ।
"तुम दोनों के लिए मेरे पास खबर है, जो कि अच्छी नहीं है ।" स्वर में गंभीरता आ गई थी ।
"क्या ?" मोना चौधरी के होठों से निकला ।
देवराज चौहान के माथे पर बल नजर आने लगे ।
रूस्तम राव के होंठ सिकुड़े ।
"दालू ने हाकिम को बुलाने के लिए अनुष्ठान का आरंभ कर दिया है । अगर अनुष्ठान विधिनुसार हुआ तो तीन दिन बाद हाकिम नगरी में मौजूद होगा । दालू, हाकिम को इसलिए बुला रहा है कि हाकिम के द्वारा तुम दोनों की जान ले सके और यह तो मालूम होगा ही कि हाकिम को अमरत्व हासिल है ।"
"मालूम है ।" देवराज चौहान ने कहा ।
"और इस अनुष्ठान में मनुष्यों के लहू की जरूरत पड़ती है । दालू ने तुम दोनों के साथियों को कैद कर रखा है और अनुष्ठान में उनका लहू इस्तेमाल हो रहा है ।"
फकीर बाबा की बात सुनकर देवराज चौहान, मोना चौधरी के चेहरे सुलग उठे ।
"मैं दालू को कुत्ते से भी बुरी मौत मारूंगी पेशीराम।" मोना चौधरी फुंफकार उठी।
"अपने साथियों को हम किस तरह बचा सकते हैं ?" देवराज चौहान के जबड़े भिंच गये ।
"अब उन्हें बचाने का वक्त नहीं रहा । भविष्य के गर्भ में क्या है उसकी खबर मुझे नहीं । दालू जहां पर अनुष्ठान कर रहा है, वहां तक पहुंचने के लिए इतना वक्त चाहिये कि तब तक अनुष्ठान पूर्ण हो चुका होगा । इसलिए हर तरफ से ध्यान हटाकर तुम दोनों को हाकिम से मुकाबला करने के लिए खुद को तैयार रखना होगा । हाकिम के प्राण कैसे लिए जा सकते हैं । यह बात जिस किताब में दर्ज है वो नगरी की देवी के पास है । उसने ही उस किताब को कहीं रखा है ।" कहने के साथ ही फकीर बाबा की निगाह मोना चौधरी पर जा टिकी ।
"हम वही किताब लेने, महल में जा रहे हैं ।" मोना चौधरी के होंठ भिंचे हुए थे--- "तुम्हें कोई खबर है पेशीराम कि वो किताब महल में ही है या फिर उसे कोई ले गया ।"
"मैं नहीं जानता मिन्नो ।" फकीर बाबा गंभीर स्वर में बोला--- "लेकिन हाकिम का खास आदमी है दालू और हाकिम के कहने पर दालू सवा सौ साल से उस किताब की तलाश कर रहा है । हाकिम उस किताब को पा लेना चाहता है ताकि उसकी जान को किसी भी तरह का खतरा न रहे । अब ये नहीं जानता कि दालू को वो किताब मिली कि नहीं ? मिली तो उसने हाकिम को लौटा दी या अपने पास ही किसी मौके के लिए छिपाकर रख दी ।"
मोना चौधरी ने भिंचे होंठों से देवराज चौहान को देखा।
"महल में जाकर ही असलियत मालूम होगी किताब के बारे में ।" देवराज चौहान बोला ।
"अनुष्ठान के आरंभ से पूर्व गुरुवर, दालू को समझाने गये थे, परंतु दालू ने गुरुवर की बात टाल दी । मतलब कि वो हर हाल में तुम दोनों की जान ले लेना चाहता है ।"
"अपुन देखेला दालू को इसीच बार ।" रुस्तम राव का चेहरा धधक उठा--- "दालू ने बहुत बखेड़ा किएला है । अपुन के हाथों से वो नेई बचेला ।"
तीनों ने गंभीर निगाहों से रूस्तम राव को देखा।
"पेशीराम ।" एकाएक मोना चौधरी कह उठी--- "मैं अपने ही बनाये तिलस्म में धोखा खा रही हूं । इस दीवार को कैसे, किस मंत्र द्वारा हटाया जा सकता है, मुझे अच्छी तरह वो तिलस्म मंत्र याद है । परंतु इस मंत्र के पश्चात भी दीवार अपनी जगह स्थिर है । मैं समझ नहीं पा रही हूं कि मुझसे गलती कहां हुई ?"
फकीर बाबा के होठों पर मुस्कान उभरी ।
"तेरी जल्दबाजी ही गलती की वजह बनी ।" फकीर बाबा ने कहा ।
"क्या मतलब ?"
"तिलस्म ऐसे किसी इंसान को स्वीकार नहीं करता, जिसके शरीर से मनुष्य जैसी महक आ रही हो और मत भूलो इस वक्त तुम लोग पृथ्वी से आये मनुष्य हो। पाताल नगरी के वासी नहीं हो ।"
मोना चौधरी के होठों में सिकुड़न आ गई ।
"सफेद पानी का तालाब ।" मोना चौधरी के होठों से निकला।
फकीर बाबा ने मुस्कुराकर सिर हिलाया। सफेद पानी के तालाब के बारे में पूर्व प्रकाशित उपन्यास 'ताज के दावेदार में जिक्र आ चुका है ।
"वो सफेद पानी का तालाब भी तुम्हारे बनाये तिलस्म का ही हिस्सा है । मैं नहीं जानता कि प्राण छोड़ने के पूर्व तुमने सफेद पानी के निर्माण का आदेश क्यों दिया था । लेकिन शायद तुम्हें पूर्वाभास हो रहा कि तुम्हारी वापसी पृथ्वी ग्रह से होगी और तब तुम्हें सफेद पानी के तालाब की आवश्यकता महसूस होगी ।"
"ये तो मैं नहीं जानती कि सफेद पानी के तालाब का निर्माण मैंने क्यों करवाया था ।" मोना चौधरी कह उठी-- "परंतु इतना जानती हूं कि उसमें नहा लेने के पश्चात मेरे शरीर से उठती मनुष्य होने की महक गायब हो जाएगी और उस महक को न पाकर ये तिलस्म मेरे इशारों पर नाचेगा ।"
देवराज चौहान और रुस्तम राव का पूरा ध्यान उनकी बातों पर था । ये वो बातें थी जो कि मिन्नो के देवी बन जाने के बाद घटी थी, इसी कारण, वे इन बातों से पूरी तरह वाकिफ नहीं थे ।
"लेकिन...।" मोना चौधरी के चेहरे पर बेचैनी के भाव नजर आने लगे--- "सफेद पानी का तालाब यहां से इतनी दूर है कि वहां तक पहुंचने में ही तीन दिन लग जायेंगे । तब तक दालू का अनुष्ठान पूरा हो चुका होगा और मैं जल्द से जल्द उस किताब को पा लेना चाहती हूं, जिसमें हाकिम को खत्म करने का तरीका दर्ज है ।"
"ओह !" देवराज चौहान के होठों से निकला-- "ये बात तो हमें मुसीबत में डाल सकती है ।"
"बाबा, आप ही कोई रास्ता निकाएला बाप ।" रुस्तम राव ने फकीर बाबा को देखा।
फकीर बाबा के चेहरे पर मुस्कान छाई हुई थी ।
"इस बात से चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है ।" फकीर बाबा ने कहा ।
"क्या मतलब ?" देवराज चौहान ने फकीर बाबा को देखा ।
"सफेद पानी के तालाब तक आने-जाने में कोई वक्त नहीं लगेगा । तुम लोगों को ले जाने और वापस ले आने का काम में सिर्फ पांच मिनट में कर दूंगा ।" फकीर बाबा ने मुस्कुरा कर कहा।
दो पल के लिए देवराज चौहान इस बात का मतलब नहीं समझ सका ।
परंतु मोना चौधरी मुस्कुरा पड़ी ।
"मैं तो भूल ही गई थी कि तुम अब वो पेशीराम नहीं रहे । कई तरह की विद्याएं हासिल कर चुके हो । जैसे देवी के रूप में मैं तब भी अनजान थी ।" मोना चौधरी कहकर हौले से हंसी।
"सब गुरुवर की कृपा है ।" फकीर बाबा ने आदर भाव से कहा ।
"पेशीराम जल्दी चलो ।" देवराज चौहान बोला--- "हमारे पास वक्त कम है ।"
"आओ देवा, मिन्नो, त्रिवेणी । पास आकर मेरे शरीर पर अपने हाथ रख लो ।" फकीर बाबा ने कहा ।
तीनों आगे बढ़े और अपना-अपना हाथ फकीर बाबा के शरीर पर रख दिया ।
"आंखें बंद कर लो ।" फकीर बाबा ने कहा ।
तीनों ने आंखें बंद कर लीं ।
फकीर बाबा ने अपनी आंखें बंद की और होठों-ही-होठों में कुछ बुदबुदाये तो देखते-ही-देखते चारों के शरीर हवा में विलीन होकर गुम होते चले गये ।
अब वहां कोई भी मौजूद नहीं था। जैसे कभी कोई वहां मौजूद रहा भी न हो ।
■■■
देवराज चौहान, मोना चौधरी और रुस्तम राव को अपने पांवों के नीचे जमीन होने का अहसास हुआ और इसके साथ ही फकीर बाबा का स्वर उनके कानों में पड़ा ।
"आंखें खोल लो ।"
तीनों ने आंखें खोली।
तो उन्होंने खुद को छोटे से गहरे हरे-भरे बाग में पाया। बाग तरह-तरह के फूलों से खिला हुआ था । फूलों की महक उनकी सांसों से टकरा रही थी। नीचे नर्म, हरी मखमली घास थी । फल वाले छायादार वृक्ष वहां लगे नजर आ रहे थे । बेहद सुंदर और मन को मोह लेने वाला दृश्य, हर तरफ नजर आ रहा था और बाग के बीचो-बीच काफी बड़े दायरे में सफेद पानी का तालाब था।
तालाब के बीचो-बीच कमल का बड़ा सा खूबसूरत फूल खिला हुआ था । जिसका रंग तो असली था, परंतु वो किसी कारीगर की कारीगरी का अद्भुत नमूना था । अगर असली फूल उतने बड़े होते तो यकीनन दूर से देखने पर वो असली फूल भी लगता ।
उनकी आंखें हर तरफ घूमती चले गई ।
फकीर बाबा के चेहरे पर मुस्कान थी ।
"पहचाना मिन्नो ?" फकीर बाबा ने पूछा ।
"हां पेशीराम । अपनी चीज को कैसे भूल सकती हूं ।" मोना चौधरी ने कहा ।
"पेशीराम ।" देवराज चौहान ने कहा--- "यह सब चीजें मैं पहली बार देख रहा हूं ।"
"हां ।" फकीर बाबा ने सिर हिलाया--- "यहां तिलस्म है और तिलस्म में नदी के बड़े लोग या रखवाले ही आ सकते थे । उस वक्त नगरी की देवी मिन्नो और मिन्नो से तुम्हारी जबरदस्त लड़ाई जारी थी । ऐसे में तुम्हें तिलस्म में आने की इजाजत ही कौन देता । फिर भी आ सकते थे, अगर तुमने तिलस्म विद्या पूर्ण कर ली होती, जोकि मिन्नो के साथ झगड़े की वजह से अधूरी रह गई थी ।"
देवराज चौहान सिर हिला कर रह गया ।
"सब कुछ तो तुम्हें याद है देवा, फिर मुझसे क्यों पूछते हो ?" फकीर बाबा मुस्कुराया ।
"पेशीराम ।" देवराज चौहान ने गहरी सांस ली--- "कभी-कभी बीते जन्म की बातें करने का बहुत मन करता है ।"
"अपुन का मन करेला बाप ।" रुस्तम राव ने कहा।
फकीर बाबा की निगाह मोना चौधरी पर गई ।
"सच तो यही है पेशीराम ।" मोना चौधरी मुस्कुराई---- "बीते जन्म में एक बार फिर जाने का मन मेरा भी है ।"
"अवश्य, इच्छा को दबाया नहीं जा सकता ।" फकीर बाबा ने कहा--- "परंतु अभी उचित समय नहीं आया ।"
"वो वक्त कब आयेगा फिर पेशीराम ?" मोना चौधरी ने पूछा।
"जब तुम्हारे सब साथी इकठ्ठे होंगे ।" कहते हुए फकीर बाबा के चेहरे पर गंभीरता आ गई--- "हो सकता है उनमें से भी कुछ को अपना पूर्वजन्म याद आ गया हो और कुछ तो नहीं आया होगा । ऐसे में वो भी जानना चाहेंगे कि पहले जन्म में क्या हुआ था । तब मैं उन सब बातों को दोहराऊंगा, जहां से कभी तुम लोग गुजरे थे ताकि उन घटनाओं से जो अनजान है, वे सब जान सकें ।"
तभी देवराज चौहान बोला ।
"ये बातें हम बाद में कर सकते हैं मोना चौधरी । दालू, हाकिम को बुलाने के लिए अनुष्ठान शुरू कर चुका है । ऐसे में हमारा एक-एक पल कीमती है । यहां जो करना है, वो करो ।"
"आओ ।" मोना चौधरी बाग के बीचो-बीच नजर आ रहे तालाब की तरफ बढ़ गई ।
देवराज चौहान, रूस्तम राव उसके साथ हो गये ।
फकीर बाबा शांत मुद्रा में वहीं खड़े रहे ।
पांच मिनट चलने के पश्चात वो तालाब के पास पहुंचे । सफेद पानी का तालाब बेहद स्वच्छ जल था, परंतु एक निगाह देखने पर ऐसा लगता था जैसे किसी ने पानी में दूध मिला दिया हो । वो दूधिया पानी जैसा लग रहा था । इसी वजह से उसे सफेद पानी का तालाब कहा जाता था ।
तालाब के किनारे पहुंचते ही मोना चौधरी अपने कपड़े उतारने लगी ।
"ये क्या करेला बाप, खुल्ले-खुल्ले में ?" रूस्तम राव हड़बड़ाकर बोला ।
मोना चौधरी ने उसे देखा, फिर देवराज चौहान को ।
"इस सफेद पानी के तालाब में नंगे बदन उतरना है । शरीर पर कोई भी कपड़ा नहीं होना चाहिये । शरीर के हर हिस्से को तालाब का सफेद पानी छूना चाहिये । तभी हम अपने शरीर से उठती मनुष्य होने की गंध से मुक्ति पाकर, तिलस्म के बड़े-बड़े ताले खोल सकेंगे ।" मोना चौधरी का स्वर शांत था ।
"लेकिन बाप...।" रुस्तम राव सकपकाया-सा बोला--- "सबके सामने तुम सारे कपड़े उतारोगी । देवा भी, मैं भी कपड़े उतारेला । अपुन तो शर्म से तालाब में ही मरेला।"
देवराज चौहान के चेहरे पर किसी तरह का भाव नहीं था ।
"किसी के सामने कपड़े उतारना । नंगे बदन होना, कोई बुरी बात नहीं है ।" मोना चौधरी ने स्थिर स्वर में कहा--- "बुरी होती है इंसान की अपनी नियत । अपनी सोच, अगर उस पर काबू हो तो नंगापन होते हुए भी किसी को नंगा नहीं देख पाओगे और इन बातों में अहम सवाल यह होता है कि हम किस उद्देश्य से कपड़े उतार रहे हैं । उद्देश्य में कोई बुराई नहीं तो कपड़े उतारने में क्या बुराई है ।"
रुस्तम राव ने देवराज चौहान को देखा ।
देवराज चौहान मुस्कुराया उसने पलटकर, उधर देखा, जिधर फकीर बाबा थे। परंतु वहां अब फकीर बाबा मौजूद नहीं थे । देवराज चौहान ने अपने कपड़े खोलने शुरू किए ।
"बाप, तुम भी ।" रूस्तम राव बोला--- "अपुन नेई उतारने का ।"
"रुस्तम ।" देवराज चौहान ने कमीज उतारकर, नीचे रखते हुए कहा-- "यह सोचकर कपड़े उतारो कि कोई तुम्हें नहीं देखेगा । तुम सिर्फ खुद को देखो। अपने शरीर पर निगाह रखो। कौन तुम्हें देख रहा है। कोई भी तो नहीं । दूसरे पर निगाह डालने से पहले यह सोच लो कि तुम भी नंगे हो फिर शर्म कैसी ?"
रुस्तम राव ने मोना चौधरी को देखा, जो आधे से ज्यादा कपड़े उतार चुकी थी । यह देखते ही उसने हड़बड़ाकर आंखें बंद कर ली और बोल उठा ।
"राम-राम ।" इसके साथ ही अपने कपड़े उतारने लगा ।
सभी अपने कपड़े तालाब के किनारे छोड़कर सफेद पानी के तालाब में उतर गये और सिर से पांव तक पानी में कई डुबकियां लगाई ।
दो-तीन मिनट सफेद पानी के तालाब में रहे ।
जब उन्हें विश्वास हो गया कि उनके शरीर के हर हिस्से को तालाब का सफेद पानी छू चुका है तो वे तीनों बाहर निकले और अपने-अपने कपड़े पहनने लगे । इस दौरान किसी ने भी आंख उठाकर दूसरे को नहीं देखा था ।
कपड़े पहनने के पश्चात उन्होंने एक-दूसरे को देखा । रुस्तम राव ने जेब से कंघी निकालकर गीले बालों पर फेरी । उसी कंघी से देवराज चौहान और मोना चौधरी ने गीले बालों को संवारा ।
"बाप ।" रुस्तम राव ने मोना चौधरी से कहा--- "तुम तो बोएला था कि सफेद पानी के तालाब में नहाने से शरीर से उठने वाली मनुष्य की महक नहीं आएली । पण वो तो पहले जैसी बराबर आएला है।"
मोना चौधरी मुस्कुराई ।
"तुम्हें आ रही है, परन्तु नगरी वालों को तिलस्म के तालों को अब वो महक महसूस नहीं होगी । इस तालाब का निर्माण ही इसी वजह से मैंने कराया था ।" मोना चौधरी ने कहा ।
"अपुन की समझ से तो बाहरेला तुम्हारी बातें।"
"सब बातें समझ में आयेंगी जब पहले जन्म में मेरी देवी बनने के बाद की बातें जानोगे ।"
ठीक उसी पल फकीर बाबा वहां प्रकट हो गये ।
"स्नान की क्रिया पूरी हो गई ?" फकीर बाबा ने पूछा ।
"हां पेशीराम ।" देवराज चौहान ने कहा।
"तो मेरे पास आकर, मुझे छू कर खड़े हो जाओ । मैं तुम सब को वापस ले चलता हूं ।"
देवराज चौहान, मोना चौधरी, रुस्तम राव आगे बढ़े और फकीर बाबा को छू कर खड़े हो गये ।
"आंखें बंद कर लो ।"
तीनों ने आंखें बंद कर ली ।
फकीर बाबा ने भी आंखें बंद की और होठों-ही-होठों में मंत्र बुदबुदाया तो वे सब फौरन हवा में विलीन हो गये । ठीक पहले की तरह, जैसे वहां कभी कोई रहा ही न हो।
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गीतलाल !
बीते तीन दिनों से वो परेशान-सा तिलस्म में घूम रहा था । गुलाबलाल का आदेश था कि तिलस्म में मौजूद देवा और मिन्नो के ताजा हालातों की जानकारी लाकर दी जाये । पहले तो गीतलाल को खबर थी कि देवा और मिन्नो तिलस्म में किस दिशा में है । परंतु उस दिशा में एकाएक देवा और मिन्नो कहां चले गये, गीतलाल की समझ में न आया । ढूंढने पर भी वो देवा और मिन्नो के किसी तरह के निशानों को हासिल नहीं कर पाया था । एक जगह उसने तिलस्मी जहर को मरा पाया तो गुलाबलाल को तिलस्मी जहर के मरने की खबर दे आया था । गीतलाल, गुलाबलाल और तिलस्मी जहर के बारे में जानने के लिए पढ़ें अनिल मोहन का पूर्व प्रकाशित उपन्यास 'ताज के दावेदार'।
गीतलाल इस वक्त बड़े से पत्थर पर बैठा सोच में डूबा था । वहां से तिलस्म का दूर-दूर का दृश्य साफ-स्पष्ट नजर आ रहा था । गर्मी की वजह से वह पसीने में डूबा हुआ था । थकान से भी बुरा हाल था । आराम करने के इरादे से वो उसी पत्थर पर लेट गया । परंतु बेचैन-सी खुली आंखें इधर-उधर देख रही थी । देवा और मिन्नो की कोई खबर न हासिल कर पाया तो गुलाबलाल की सख्त डांट उसे पड़ेगी । इसलिए गीतलाल खबर पाने को व्याकुल था । पत्थर पर पेड़ की छाया पड़ रही थी मध्यम-सी चलने वाली ठंडी हवा से उसके शरीर को चैन मिल रहा था ।
तभी गीतलाल चौंक कर उठ बैठा ।
आंखें हैरानी से फैल गई । दो बार उसने आंखों को हाथ से रगड़ा । शायद इसलिए कि जो वह देख रहा था, उस पर विश्वास करने का प्रयत्न कर रहा हो ।
दूर वो लाल ऊंची दीवारों से स्पष्ट दिखाई दे रही थी और वहां पर कोई भी नहीं था । उस वक्त भी कोई नहीं था, जब वो पत्थर पर लेटा उधर ही देख रहा था और एकाएक ही उसने देवा, मिन्नो, त्रिवेणी और पेशीराम वहां खड़े नजर आने लगे थे । यही वजह थी कि वो अविश्वास में घिर गया था।
और फिर गीतलाल को होश आया और पत्थर से उतरकर, उसकी ओट में वो उन चारों को देखने लगा । चेहरे पर आवेश से भरी चमक आ चुकी थी ।
"अब समझा ।" गीतलाल बड़बड़ाया--- "पेशीराम ही वो गद्दार है जो इन मनुष्य को पृथ्वी से लाया और अब दालू के खिलाफ उनकी सहायता भी कर रहा है । यह खबर मुझे फौरन गुलाबलाल को देनी चाहिये ।" बड़बड़ाने के पश्चात गीतलाल पलटा और दबे पांव वहां से दूर होता चला गया । चारों में से कोई भी उसे नहीं देख सका।
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