“अर्ज किया है...पका दे अपनी बोटी को अगर कुछ शोरबा चाहे... ध्यान देना माड़ा जया, मालको, कि अर्ज किया है... पका दे अपनी बोटी को अगर कुछ शोरबा चाहे, कि खाना बर्फ में लग कर नहीं तैयार होता है...”
रात के दस बजने को थे। यूथ क्लब के मेन हाल में बार के दूसरे सिरे पर दीवार के साथ एक टेबल थी जो रमाकान्त के लिये हमेशा रिजर्व रहती थी। इस घड़ी तो अपने कुछ जाने अनजाने क्लबमेट्स के साथ, जिन में सुनील भी था, वहां मौजूद था।
रमाकान्त के निर्देश पर जौहरी ने जैसे तैसे मालूम कर लिया था कि होटल स्टारलाइट रीजेन्सी में अंशुल खुराना कौन से कमरे में था। तत्काल वो नम्बर आगे कियारा सोबती को ट्रांसफर कर दिया गया था लेकिन अपनी नौकरी की किन्हीं मसरूफियात की वजह से रात नौ बजे से पहले वो कूपर रोड का रुख नहीं कर सकी थी जहां कि वो होटल स्थापित था। अंशुल खुराना से दो चार होने के अपने अभियान पर वो नौ बजे यूथ क्लब से निकली थी और उसे निर्देश था कि वो लौट कर वहीं आये ताकि सुनील को मालूम हो पाता कि अंशुल खुराना के सन्दर्भ में होटल में क्या बीती थी।
तब सुनील की क्लब में मौजूदगी की अहम वजह कियारा के लौटने का इन्तजार था।
“कपड़े कपड़े का है नसीब जुदा”—रमाकान्त जोश से कह रहा था—“कोई जम्फर कोई सलवार हुआ।”
“वाह! वाह!”
“उड़ा दे नींद आंखों की, कहानी उसको कहते हैं; जला कर खाक कर डाले, जनानी उसको कहते हैं।”
“मल्होत्रा साहब”—कोई बोला—“जनानी नहीं, जवानी... जवानी उसको कहते हैं।”
“तुम्हारे जिन्दगी के तजुर्बात कमजोर हैं, मोतियांवालयो”—रमाकान्त यूं बोला जैसे बच्चे पढ़ा रहा हो—“इस महकमे में जवानी जनानी के आगे कहीं नहीं ठहरती। जनानी फूंकने पर आये तो ऐसा फूंकती है कि राख भी नहीं बचती। समझे?”
“हां।”
“वदिया। हां तो मैं क्या कह रहा था?”
“आप शेर कह रहे थे...अगरचे वो शेर था।”
“बब्बर शेर था लेकिन वो तो मैं अब कह रहा था! उससे पहले क्या कह रहा था?”
“मुझे ध्यान नहीं।”
“उससे पहले”—कोई दूसरा श्रोता बोला—“आप किसी बाजार का, किसी मुलाकात का कोई जिक्र कर रहे थे।”
“हां, याद आ गया। हां तो मैं बेबीलोन के बाजार का जिक्र कर रहा था जहां एक मर्तबा मेरी मुलाकात महात्मा बुद्ध से हुई थी...”
सब हैरानी से रमाकान्त का मुंह देखने लगे।
“लेकिन”—श्रोता बोला—“मैंने तो कभी नहीं सुना कि महात्मा बुद्ध कभी मैसोपोटामिया गये थे!”
“लौ होर सुनो! ओये, जब सारी दुनिया में गये थे तो वहां क्यों नहीं गये थे?”
“लेकिन...”
“अब छोड़ न लेकिन!”
“...बेबीलोन के बाजार में! महात्मा बुद्ध से मुलाकात! जरूर आप कोई सपना बयान कर रहे हैं।”
“ओये, नहीं, वीर मेरे, सपने अव्वल तो मुझे आते नहीं, आते हैं तो याद नहीं रहते। मैं सपना नहीं, हकीकत बयान कर रहा हूं।”
“आप महात्मा बुद्ध से मिले?”
“आहो।”
“इसी जन्म में? इसी उम्र में?”
“आहो।”
“क्या उम्र है आप की?”
“तुम बताओ। गैस करो।”
“मेरा अन्दाजा तो चालीस के करीब का है।”
“गलत। एक हजार आठ।”
“श्री श्री?”
“ओये, मां सदके, सिरी सिरी, रम रम नहीं, मेरी उम्र।”
“एक हजार आठ साल!”
“गिव ऑर टेक ए कपल आफ डिकेड्स।”
“आई सी।”—श्रोता असमंजस में एक क्षण खामोश रहा, फिर रमाकान्त के करीब बैठे सुनील की तरफ घूमा और बोला—“ये ठीक कह रहे हैं?”
“पता नहीं।”—सुनील कन्धे उचकाता बोला—“मैं तो सिर्फ डेढ़ सौ साल से इन से वाकिफ हूं।”
श्रोता भौचक्का-सा कभी सुनील का तो कभी रमाकान्त का मुंह देखने लगा, फिर खुद को चिकोटी काटने लगा।
“ये क्या कर रहे हैं?”—सुनील बोला।
“लगता है मुझे नशा हो गया है।”—वो असहाय भाव से बोला—“कनफर्म कर रहा हूं कि होश में हूं और जो सुन रहा हूं, वाकेई सुन रहा हूं, कोई सपना नहीं देख रहा।”
सुनील हँसा।
“ओ वेटर किद्दर गया, मार्इंयवा?”—रमाकान्त अपने खाली गिलास का पेंदा मेज पर ठकठकाता बोला।
“यस, सर!”—करीब खड़ा वेटर तत्पर स्वर में बोला।
“ओये, पैग तेरा प्यो लयायेगा?”
“यस, सर! अभी, सर!”
“दौड़ के बार पर जा और दौड़ के आ—ऐसे जैसे बीवी को बच्चा होने वाला हो और तू दाई को बुलाने गया हो।”
गोली की रफ्तार से वेटर रमाकान्त के लिये नया जाम लाया।
“शावाशे!”—रमाकान्त ने नये जाम में से एक घूंट भरा और होंठ चटकाता बोला—“बल्ले भई, क्या चीज बनाई है विलायत वालों ने! मैं जब कभी भी विलियम शेख्सपियर के साथ चियर्स बोलता था तो जानते हो वो क्या कहता था?”
कोई कुछ न बोला।
“अरे, नामाकूलो”—रमाकान्त झल्लाया—“पूछो तो सही अपना शेख पीरू क्या कहता था!”
“शेख्सपियर!”—किसी ने संशोधन किया।
“वही बोला मैं। पूछो तो सही कि क्या कहता था?”
“क्या कहता था?”
“टु पी”—रमाकान्त का स्वर नाटकीय हुआ—“ऑर नाट टु पी, दैट्स दि क्वेश्चन।”
“क्या कहने!”
“कभी जिन्दगी से बेजार होता था तो जानते हो क्या कहता था?”
“क्या कहता था?”
“टु जी ऑर नॉट टु जी, दैट्स दि क्वेश्चन।”
“आप को कहता था?”
“ओये, जब चियर्स मेरे को बोल रहा होता था तो बोतल को कहता? जाम को कहता? फर्नीचर को कहता?”
“ठीक!”
रमाकान्त ने जाम में से एक घूंट और भरा और फिर पूरी संजीदगी से बोला—“जहांगीर के दरबार में जब मैंने बतौर तोहफा तम्बाकू और आलू का पौधा पेश किया था...”
“वो तो”—कोई विद्वान श्रोता बोला—“सर टाम्स रो ने पेश किया था!”
“वो मेरे साथ था तब। उस का काम पौधे उठाना था। पौधे उठाने के लिये कोई तो मुझे अपने साथ चाहिये था इसलिये वन ब्राइट समर मार्निंग जहांगीर के दरबार में मैं उसे अपने साथ ले के गया था। मेरे हुक्म पर मेरी तरफ से उसने जहांगीर को दो पौधे पेश किये थे और बाद में नादान दरबारियों की वजह से समझ लिया गया था कि पौधे वो लाया था और उसी ने पेश किये थे जो कि गलत था।”
“आपने ऐतराज न किया?”
“नहीं ही किया। समझो कि लिहाज किया फिरंगी का।”
“क्यों?”
“क्यों क्या! मार्इंयवी हिन्दोस्तानी दरियादिली दिखाई। ‘अतिथि देवो भव:’ कीत्ता माड़ा जया।”
“आई सी।”
“फिर जब मैंने पोलियो वैक्सीन का अविष्कार किया था तो तब तक मेरे फेमस बुलन्द सितारे माड़े जये गर्दिश में आने लगे थे...”
“लेकिन, जनाब, पोलियो वैक्सीन का अविष्कार तो जोनास एडवर्ड साक (JONAS EDWARD SALK) ने किया था!”
“वो लोग मार्इंयवे चाहते थे कि ऐसा समझा जाता ताकि किसी वड्डे अविष्कार का क्रेडिट किसी इन्डियन को न मिले।”
“आई सी।”
“फिरंगियों की हमेशा से पॉलिसी रही है कि किसी वड्डी अचीवमेंट का सेहरा किसी इन्डियन के सिर न बन्धे।”
“ओह!”
“फिर जब मैंने एप्पल कम्प्यूटर का अविष्कार किया...”
“जनाब, मेरे खयाल से तो वो स्टीव वाज़नियाक (STEVE WAZNIAK) ने किया था!”
“चुराया था। अब ये भी बताऊं किस से चुराया था, कब चुराया था?”
“बता ही दीजिये अगर जहमत न हो तो।”
“मेरे से, रमाकान्त मल्होत्रा अम्बरसरिया से चुराया था।”
“जो कि आप हैं?”
“जो कि मैं हूं।”
“कब चुराया था?”
“मेरे उसको मार्केट में इन्ट्रोड्यूस करने से कोई एक साल पहले। तब जब कि एलिजाबेथ टेलर से मेरे ताल्लुकात टूटने के कगार पर थे।”
“आप के! आप के एलिजाबेथ टेलर से ताल्लुकात थे?”
“बाकायदा अफेयर था।”
“कब?”
“रिचर्ड बर्टन से पहले और एडी फिशर के बाद में।”
“ये कब की बात हुई?”
“तब की जब कि मुझे एपल कम्प्यूटर के अविष्कार के लिये ओस्कार मिला था।”
“हे भगवान! अरे जनाब, ओस्कार तो फिल्मों को मिलता है!”
“फिल्म बनी थी न मेरे अविष्कार पर! मार्लन ब्रान्डो हीरो था।”
“तौबा!”
“उन दिनों को मैं कैसे भूल सकता हूं! उन्हीं दिनों तो मैंने डीएनए का जेनेटिक कोड अनलॉक किया था।”
“आपने किया था?”
“और क्या जेम्स बांड 007 ने किया था? शरलाक होम्ज ने किया था?”
“वो तो फ्रांसिस कोलिंस (FRANCIS COLLINS) ने किया था!”
“मेरा बचपन का, प्यार का नाम है।”
“फ्रांसिस कोलिंस?”
“हां। बाद में मुझे पसन्द नहीं आया था तो मैंने नाम बदल कर फ्रांसिस कान्त रख लिया था। वो भी पसन्द नहीं आया था तो आखिर रमाकान्त रख लिया था।”
“शुक्र है शाहरुख न बोला।”
“ओये, कमलया, मामूली लोगों के मामूली नाम परभावत नहीं कर मेरे को।”
“क्या नहीं करते?”
“प्रभावित नहीं करते।”—सुनील बोला।
“ओह! बहरहाल मुझे खुशी हुई ऐसे शख्स से मिल कर जिसने जमीं बनायी, आसमां बनाया, दरिया समन्दर बनाये, कुल जहां बनाया।”
“मेरे को तुम्हारी खुशी से खुशी हुई।”
“बाई दि वे, ये जो इस घड़ी आप के हाथ में है, बाई काउन्ट ये आपका कौन सा पैग है?”
“मैनूं की पता! वीर मेरे, गिन कर पैग टुच्चे लोग पीते हैं। मालूम?”
“मालूम।”
“या जिन को कोई डाक्टरी हिदायत हो, वो पीते हैं। मालूम?”
“अब मालूम।”
“हमारे यहां बोतल खोलने पर ढक्कन फेंक देने का रिवाज है। बार मेरे से पूछ कर बन्द करने का रिवाज है, भले ही सवेरा हो जाये। तू यूं समझ यहां के तौर तरीके को कि मुंह धो के आये अमली और हाथ धो के जाये, दोनों तरफ खुला है ठेका मेरी गली में?”
“इमली?”
“ओये, इमली नहीं, कमलया, अमली। अमल करने वाला। टिपलर। अब समझा?”
“नहीं, जनाब, मैं सरन्डर करता हूं।”
“सिलेंडर भरता है? कौन सा सिलेंडर भरता है? कुकिंग गैस का?”
“गुड नाइट श्री श्री एक हजार आठ जी।”
“ओये, कहां जा रहा है? आशीर्वाद तो लेता जा। चरनामत तो लेता जा।”
“क्या?”
“चरणामृत।”—सुनील बोला।
“जनाब, आपका आउट-आफ-दिस-वर्ल्ड प्रवचन सुनने को मिल गया, समझिये सब कुछ मिल गया। गुड नाइट, साक जी, वाज़नियाक जी, कोलिंस जी, और-भी-जो-कोई हैं जी।”
“गुड नाइट, प्यारयो, घर पहुंच के चिट्ठी लिखना कि राजी खुशी पहुंच गये और...”
सुनील को हाल में दाखिल होती कियारा सोबती दिखाई दी। उसने रमाकान्त को कोहनी मारी और दरवाजे की तरफ इशारा किया।
“उसे बोल, आफिस में वेट करे।”—रमाकान्त बोला।
“तुम हिलो यहां से।”
“ओये, कहना मान न! जा। जा, मां सदके।”
जाहिर था कि रमाकान्त का अपनी महफिल बर्खास्त करने का फिलहाल कोई इरादा नहीं था।
सुनील उठा और दरवाजे की तरफ बढ़ा।
उसे करीब आता देखकर कियारा ठिठकी।
उसके करीब पहुंच कर सुनील ने उसकी बांह थामी और खामोशी से उसे आफिस की तरफ ले चला जो कि हाल के बाहर रिसैप्शन के पहलू में था।
आफिस में उसने रमाकान्त की आफिस चेयर कब्जाई और कियारा को अपने सामने एक विजिटर्स चेयर पर बैठने का इशारा किया।
सुनील को सूरत से वो बहुत हैरान परेशान लगी। कुर्सी पर भी वो बैचैनी से पहलू बदलती बैठी।
“क्या बात है?”—सुनील बोला—“खैरियत तो है?”
“क्या?”—वो हड़बड़ायी—“खैरियत! ओ, हां। हां।”
“मुलाकात हुई? बात हुई?”
उसने कठिन भाव से इंकार में सिर हिलाया।
“किस बात से इंकार कर रही हो? मुलाकात से या बात से? या दोनों से?”
“बा-बात से।”
“मुलाकात हुई?”
“एक मिनट से भी कम की। समझो, सूरत दोबारा देखी, बस।”
“फिर तुम्हारे होश क्यों उड़े हुए हैं?”
“होश! नहीं तो! नहीं तो!”
“है तो ऐसा ही! शायद भाग दौड़ से, अफरातफरी से परेशान हो! नहीं?”
“हां। हां। यही बात है।”
“होता है। थोड़ा दम ले लो। फिर बात करते हैं।”
उसने सहमति में सिर हिलाया और सप्रयास नार्मल होने की कोशिश करने लगी। सुनील ने अपना लक्की स्ट्राइक का पैकेट निकाला और एक सिग्रेट सुलगा लिया।
“कुछ पियोगी?”—उसने पूछा।
“क्या?”—कियारा ने हड़बड़ा कर सिर उठाया—“नहीं। थैंक्यू।”
“तुम नौ बजे यहां से गयी थीं, साढ़े दस लौटी हो। जबकि मुलाकात तीस सैकण्ड की हुई बताती हो। रात की इस घड़ी तो यहां से कूपर रोड के रूट पर ट्रैफिक का रश भी नहीं होता! लौटते में इतनी देर क्यों लगी?”
“देर क्यों लगी?”
“हां। यही पूछा मैंने।”
“वो...वो क्या है कि...मैं...उसे रूबरू पाकर बौखला गयी थी और...और आइन्दा मुलाकात के प्रॉस्पैक्ट्स ने मुझे नर्वस कर दिया था। मैं नार्मल होने के लिये होटल के करीब के एक पार्क में जा बैठी थी।”
“इतनी रात गये?”
“हां।”
“कितना अरसा बैठीं?”
“यही कोई...कोई...बीस, पच्चीस मिनट।”
“पक्की बात?”
“भई, घड़ी तो नहीं देखी थी! अन्दाजन ही बोल रही हूं।”
“फिर यहां आयीं?”
“हां।”
“ये थी लेट होने की वजह?”
“हां।”
“नार्मल हुर्इं तो नहीं!”
“क-क्या?”
“तुम तो अभी भी पशेमान हो?”
“नहीं। नहीं। अब बिल्कुल ठीक हूं मैं।”
“दैट्स गुड न्यूज़। तो बताओ, क्या हुआ होटल में?”
“वो...वो क्या है कि...उसका जो कमरा मुझे बताया गया था, वो...वो होटल की पांचवीं मंजिल पर था। नम्बर 506। लॉबी में बिना रुके लिफ्ट के जरिये मैं सीधी पांचवीं मंजिल पर पहुंची थी...”
“किसी ने टोका नहीं?”
“न। ध्यान तक न दिया मेरी तरफ। तब लॉबी में काफी हलचल थी, शायद इसलिये।”
“या शायद तुम्हें रेजीडेंट समझा।”
“हो सकता है।”
“तब का टाइम का कोई अन्दाजा?”
“हां। तब साढ़े नौ बजे थे।”
“ये अन्दाजा तो न हुआ! ये तो ऐग्जैक्ट टाइम हुआ!”
“इत्तफाक से तब मेरी अपनी कलाई घड़ी पर निगाह पड़ी थी।”
“आगे?”
“पांचवीं मंजिल पर जा कर मैंने रूम नम्बर 506 की कालबैल बजाई तो उसने दरवाजा खोला। मुझे सामने खड़ा पा कर वो साफ हड़बड़ाया, फिर जल्दी ही सम्भल गया और नाराजगी जताने लगा कि मैं फिर आ गयी थी, पुरजोर लहजे से दोहराने लगा कि वो वो शख्स नहीं था जो मैं उसे समझ रही थी। मैंने भी जिद की कि वो वही था, नाम और थोड़ी बहुत शक्ल बदल लेने से हकीकत नहीं बदल जाती थी, मुझे यकीनी तौर पर मालूम था कि वो वही शख्स था जिसने मुझे अपना नाम आदित्य खन्ना बताया था और मेरे से उन्नीस लाख रुपये ठगे थे। तत्काल उसके मिजाज में तब्दीली आयी और वो मुझे धीरे बोलने को कहने लगा।”
“क्यों?”
“मिस्टर सुनील, कमरे में उसके साथ कोई था।”
“कोई कौन?”
“कोई ...कोई लड़की थी। मैंने एक बार उसके कन्धे पर से भीतर झांका था तो मुझे एक सोफाचेयर पर उसकी मौजूदगी का अहसास हुआ था। सोफाचेयर की दरवाजे की तरफ पीठ थी और पीठ के ऊपरी सिरे पर से मुझे भूरे जनाना बाल दिखाई दिये थे और सोफे के पहलू से एक ऊंची एड़ी की सैंडल वाला पांव दिखाई दिया था।”
“फिर?”
“फिर उसने खुद कुबूल किया कि भीतर वो अकेला नहीं था लेकिन ये न कहा कि साथ में कोई लड़की थी। वो नम्र स्वर में बोला कि अपनी प्रेजेंट कम्पनी से फारिग होकर वो मेरे से बात कर सकता था और निर्विवाद रूप से स्थापित कर सकता था उसके बारे में मेरे को मुगालता लगा था। उसने दरख्वास्त की कि मैं नीचे लॉबी में जाकर वेट करूं, अपने मेहमान से फारिग होते ही जहां फोन करके वो मुझे बुला सकता था। मैंने वेट करना कबूल किया लेकिन दबी जुबान में साथ ही उसे ये भी जताया कि मुझे मालूम था कि भीतर कोई नौजवान लड़की थी और जरूर वो उसका नया शिकार थी। मैंने कहा कि अगर उसने मुलाकात के मामले में मुझे कोई गोली देने की कोशिश की तो मैं सारे शहर में उसके फरेबी किरदार का ढ़ोल पीट दूंगी जो कि इस लड़की को भी सुनायी दिये बिना नहीं रहेगा जो कि उस घड़ी उसके साथ थी।”
“ब्लफ था!”
“था, लेकिन वो चला उस पर बराबर। उसकी सूरत से साफ झलका कि उसे लग रहा था कि मैं उस का खेल बिगाड़ सकती थी।”
“साफ झलका तो इससे तो ये स्थापित हुआ कि तुमने उसे सही पकड़ा था। वो वही शख्स था जिसने तुम्हें ठगा था और अब वो तुम्हारे जैसे एक नये प्रॉस्पैक्ट को कल्टीवेट कर रहा था।”
“वो लाख मुकरता, मैं ये कुबूल नहीं करने वाली थी कि वो मेरे वाला कॉनमैन नहीं था।”
“खैर! फिर क्या किया तुमने?”
“लॉबी में वेट करना कबूल किया। उसने मेरे मुंह पर दरवाजा बन्द कर दिया लेकिन मैं वहां से न टली।”
“अच्छा!”
“गलियारे में एक तरफ के कोने के करीब कैक्टस का एक डेकोरेटिव पौधा था जो कि इतना ऊंचा था कि मेरे कन्धों तक आता था। मैंने जाकर उसकी ओट ले ली और उस के कमरे में से उस के कथित मेहमान के निकलने का इन्तजार करने लगी।”
“वजह?”
“दो थीं। एक तो यूं ये कनफर्म होता कि रात की उस घड़ी उसके साथ वाकेई कोई खूबसूरत, नौजवान, उसके नये शिकार का दर्जा रखने लायक लड़की थी; दूसरे मैं उसकी तसवीर खींचना चाहती थी।”
“फासले से? गलियारे के कोने से?”
“फासला ज्यादा था, बहुत ज्यादा नहीं था, फिर मेरे पास आई-फोन है जिसे मैं जूम पर लगा कर फोटो खींचती तो कुछ तो उस में आ ही जाता।”
“फोटो खींची?”
“नहीं।”
“वजह?”
“एक वेटर की सूरत में विघ्न आ गया। वो संदिग्ध निगाह से मुझे देखने लगा। मैं जानती थी कि बजातेखुद तो उसकी मेरे से कोई सवाल करने की मजाल नहीं हो सकती थी लेकिन वो सिक्योरिटी स्टाफ को मेरी बाबत बोल सकता था जो कि मेरे लिये दिक्कत की बात होती। तब मैंने ये जाहिर किया कि मैं गलत फ्लोर पर पहुंच गयी थी। मैंने उसी से पूछा कि मैं कौन से फ्लोर पर थी। वो बोला पांचवें पर तो मैंने उसे सुनाकर कहा कि मैंने तो छटे पर लिफ्ट से उतरना था और उसके सामने फिर लिफ्ट पर सवार हो गयी। मैंने छटी मंजिल का बटन दबाया ताकि वेटर आश्वस्त हो जाता कि असल में मुझे छटी मंजिल पर जाना था। छटी मंजिल पर मैं लिफ्ट से निकली और परे मौजूद सीढ़ियों पर पहुंच गयी। मैं जानती थी कि वेटर पांचवीं मंजिल पर ज्यादा देर रुकने वाला नहीं था इसलिये एक रीजनेबल टाइम तक मैंने इन्तजार किया, फिर दबे पांव एक मंजिल नीचे सीढ़ियां उतरी। ओट से मैंने गलियारे में झांका तो उसे खाली पाया। वेटर वहां नहीं था। लेकिन तभी ‘506’ का दरवाजा खुला और एक लड़की ने यूं बाहर कदम रखा कि उसकी पीठ मेरी तरफ थी।”
“जमूरा उसके साथ बाहर न निकला?”
“बाहर तो निकला ही नहीं, मुझे ऐसा अहसास हुआ कि वो दरवाजे तक भी उसके साथ नहीं आया था क्योंकि लड़की तो कमरे से बाहर निकलते ही एड़ियां ठकठकाती गलियारे में लिफ्ट की ओर बढ़ चली जो कि सीढ़ियों से विपरीत दिशा में थी। अपने पीछे वो कमरे का दरवाजा बन्द करती गयी। दरवाजा बन्द हो गया था इसलिए मैंने हिम्मत की और दबे पांव लिफ्ट की तरफ दौड़ चली। मेरा इरादा लिफ्ट में उसके साथ ट्रैवल करने का था ताकि मैं अच्छी तरह से उसकी सूरत देख पाती लेकिन मेरे लिफ्ट तक पहुंच पाने से पहले ही लिफ्ट का दरवाजा बन्द हो गया और वो नीचे को चल दी। मैंने दूसरी लिफ्ट का बटन दबाया, उसके फिफ्थ फ्लोर पर पहुंचने में कदरन वक्त लगा क्योंकि रास्ते में वो सैकंड और फोर्थ फ्लोर पर रुकी। आखिर जब मैं लॉबी में पहुंची तो वो लड़की मुझे कहीं दिखाई न दी।”
“बहरहाल तुम उसकी सूरत न देख पायीं?”
“हां।”
“खाली पोशाक देखी?”
“हां।”
“कैसी थी?”
“बहुत माडर्न थी। घुटनों से नीचे तक आने वाली टाइट जींस पहने थी और साथ में माडर्न स्कीवी पहने थी जिस का निचला सिरा जींस तक नहीं पहुंचता था। जींस लो राइज थी और स्कीवी क्या थी, छोटा सा ब्लाउज था। स्कीवी और जींस के बीच में कम से कम आठ इंच स्किन नुमायां थी। मिस्टर सुनील, इस वजह से फासले से भी मैंने उसकी कमर पर पीठ की तरफ एक बर्थ मार्क देखा था जो कि श्रीलंका के नक्शे की शक्ल का था।”
“क्या कहने! निगाह तीखी है तुम्हारी!”
“वक्त पर हो गयी थी। मैं उसकी सूरत देखने पर जो आमादा थी!”
“और क्या देखा था?”
“और बाल देखे थे जो कि फुटे से खींची लकीरों की तरह सीधे थे और भूरी रंगत के थे। बाल कन्धों से नीचे तक आते थे इसलिये मैं नहीं देख पायी थी कि कानों में या गले में कुछ पहने थी या नहीं।”
“हाथ! किसी हाथ में कुछ था?”
“मुझे हाथ दिखाई नहीं दिये थे।”
“कमाल है! कमर पर का सीलोन के नक्शे जैसा बर्थमार्क दिखाई दे गया, हाथ न दिखाई दिये!”
“अब... था तो ऐसा ही!”
“और? और क्या देखा?”
“और बस हाई हील्स देखीं।”
“कद का कोई अन्दाजा?”
“कद तो अच्छा खासा लग रहा था लेकिन उसकी वजह एक्स्ट्रा हाई हील्स भी हो सकती थीं।”
“हाई हील्स को माइनस कर के कोई अन्दाजा बताओ कद का?”
उसने कुछ क्षण सोचा फिर बोली—“पांच फुट दो इंच।”
“यानी हील्स के साथ वो साढ़े पांच फुट के पेटे में थी।”
“साढ़े पांच नहीं तो पांच फुट पांच इंच से कम तो नहीं थी।”
“हूं। फिर तुमने क्या किया?”
“मैं लॉबी में आकर बेचैनी से चहलकदमी करने लगी और उसके फोन का इन्तजार करने लगी।”
“फोन कहां आता? लॉबी के हाउस फोन पर?”
“मेरे खयाल से रिसैप्शन पर। फिर वो लोग मुझे पेज करवाते और फोन पर बुलवाते।”
“तुम्हारे मोबाइल पर नहीं?”
उसने उस बात पर विचार किया।
“आ सकता था”—फिर बोली—“उसने अपने नम्बर से किनारा किया था, मेरा तो तब्दील नहीं हुआ था!”
“ठीक। फोन आया?”
“नहीं।”
“फिर तुमने क्या किया?”
“एक रीजनेबल टाइम तक फोन आने का इन्तजार किया, फिर हाउस टेलीफोन से मैंने उसका फोन खड़काया?”
“नम्बर मालूम था?”
“मिस्टर सुनील, बड़े होटलों में रूम नम्बर ही फोन नम्बर होता है।”
“गुलेगुलजार, दुखतरेरज से भेजा कदरन हिला हुआ है इसलिये अफसोस है कि इतनी मामूली बात जेहन से उतर गयी।”
“होता है।”
“फिर तुमने क्या किया?”
“मैं फिर पांचवीं मंजिल पर गयी और मैंने जाकर उसकी कालबैल बजाई। कोई जवाब न मिला तो दरवाजे पर दस्तक भी दी लेकिन फिर भी कोई जवाब न मिला।”
“यानी मेहमान को रुखसत करने के बाद खुद भी कहीं रुखसत हो गया?”
“शायद।”
“तब क्या टाइम हुआ था?”
“मैंने घड़ी तो नहीं देखी थी लेकिन मेरा तब के टाइम का अन्दाजा पौने दस के करीब का है। पौने दस नहीं तो बड़ी हद पांच मिनट ऊपर।”
“इतनी रात गये अकेला होटल के बाहर जाता तो कहां जाता! जाता तो लॉबी से गुजर के जाता और तुम्हें दिखाई देता! बार में देखा था?”
“मुझे खयाल तक नहीं आया था।”
“किसी रेस्टोरेंट में?”
“नहीं।”
“ब्राइटआइज, अब ये बताओ कि जो किस्सा तुमने मुझे सुनाया, उसमें ऐसी हैरान परेशान करने वाली कौन सी बात थी कि नार्मल होने के लिये होटल से निकल कर तुम करीबी पार्क में जा बैठीं?”
उसने जवाब न दिया, जवाब की जगह बेचैनी से पहलू बदला।
“शायद मुलाकात न हो पाने की वजह से मन खिन्न था?”
उसने उस प्रस्ताव का आसरा चाहने के अन्दाज से हामी भरी।
“तुम्हारी कनसिडर्ड ओपीनियन क्या है, क्वालीफाइड राय क्या है, वो भीतर था और जवाब नहीं दे रहा था या कहीं चला गया था?”
“मेरी राय में तो... भीतर था और जवाब नहीं दे रहा था।”
“यूं तुम्हारे से मुलाकात को वो कब तक टाल सकता था?”
“शायद...शायद उसका इरादा चैक आउट कर जाने का हो।”
“अपने कॉनमैनशिप के नये प्रोजेक्ट को मंझधार में छोड़ कर?”
“मैं स्टारलाइट होटल से चैक आउट कर जाने की बात कर रही थी जहां उसकी मौजूदगी की इत्तफाक से मुझे खबर लग गयी थी। वो इसी शहर में किसी और होटल में चैक इन कर लेता तो मुझे क्या खबर लगती?”
“बात तो ठीक है तुम्हारी!”
वक्ती खामोशी छा गयी।
उस दौरान सुनील ने सिग्रेट को ऐश ट्रे में झोंका और विचारपूर्ण मुद्रा बनाये उंगलियों के पोरों से मेज पर खामोश दस्तक देता रहा।
“मेरे खयाल से”—आखिर सुनील बोला—“इमीजियेट चैक आउट की कोशिश वो नहीं करेगा क्योंकि उसे तुम्हारी लॉबी में मौजूदगी का या होटल से बाहर कहीं मौजूदगी का अन्देशा होगा। वो ऐसा कोई कदम उठायेगा तो ये सुनिश्चित कर लेने के बाद ही उठायेगा कि होटल पर तुम्हारी या किसी दूसरे की नजर नहीं थी। इस लिहाज से अगर मैं फौरन होटल पहुंचूं तो मेरी उससे मुलाकात हो सकती है।”
“आप...आप मुलाकात करोगे?”
“क्या हर्ज है?”
“उसने तब भी यही जाहिर किया कि भीतर कोई नहीं था तो?”
“मेरे साथ शायद ऐसा न करे। मेल वायस सुनकर शायद ऐसा न करे।”
“आप क्या बात करेंगे उससे?”
“वही जो मुलाकात होती तो तुम करतीं।”
“ओह!”
“या तुम साथ चलो। मर्दाना आवाज के धोखे में दरवाजा खोल देगा तो दोनों उसके गले पड़ेंगे।”
“म-मेरा...मेरा फिर जाना शायद ठीक न होगा।”
“क्यों?”
“उसे भनक भी लग गयी कि मैं साथ थी तो... तो खेल बिगड़ जायेगा।”
“कैसे भनक लग जायेगी?”
“कैसे भी।”
“हूं।”—सुनील ने लम्बी हूंकार भरी—“ऐंजलफेस, बात तो ठीक है तुम्हारी! ठीक है, मैं अकेला जाता हूं।”
“तब तक मेरे लिये क्या हुक्म है?”
“तुम मेरे लौटने का यहां इन्तजार कर सकती हो... ”
“वो किसलिये?”
“शायद कोई बात तुम्हें बताने लायक निकल आये!”
“ऐसी बात सुबह होने का इन्तजार नहीं कर सकती?”
“कर तो सकती है!”
“फिर तो मैं घर जाती हूं। सुबह आप से कान्टैक्ट करूंगी।”
“ठीक है लेकिन कोई खास बात हुई तो मैं फोन करूंगा। इसलिये जाते ही न सो जाना।”
“इतनी जल्दी नीन्द नहीं आने लगी मुझे। आ भी गयी तो फोन की घन्टी सुन कर यकीनन जाग जाऊंगी।”
“ठीक है। गैट अलांग।”
उसने सुनील का औपचारिक अभिवादन किया और वहां से रुखसत हो गयी।
सुनील हाल में पहुंचा।
रमाकान्त की महफिल अभी भी जारी थी।
“मिस्टर मल्होत्रा”—कोई कह रहा था—“आप...”
“प्लीज डोंट काल मी मिस्टर मल्होत्रा।”—रमाकान्त चहकता सा बोला—“डू डोंट हैव टु बी फार्मल विद मी, पर्टीकुलरली वैन वुई आर बिटविन फ्रेंड्स। आप मुझे वही कह कर पुकारिये जो मेरे करीबी दोस्त कह कर पुकारते हैं, मेरी मां, नानी, दादी कहकर पुकारती हैं।”
“क्या?”
“सर।”
उस शख्स ने होंठ भींच लिये।
“तो, मालको, आप कह रहे थे?”
“कुछ नहीं।”
“कुछ तो कह रहे थे!”
“हां। लेकिन बात जेहन से उतर गयी।”
“ओये, रहे रब दा नां, ये तो छूत की बीमारी हो गयी! मार्इंयवी मेरी बात भी मेरे जेहन से उतर गयी। क्या कह रहा था मैं?”
“आप”—कोई दूसरा बोला—“किसी कुमारी कन्या की बात कर रहे थे जिस के साथ बलात्कार हुआ था।”
“हां। याद आ गया। वो बेचारी अपने हमदर्द अपने ब्वायफ्रेंड के पास गयी और उसे अपनी आपबीती बयान की। मार्इंयवे हमदर्द ने मालूम क्या किया?”
“क्या किया?”—कईयों ने मुसाहिबी अंदाज से पूछा।
“उसने भी बहती गंगा में हाथ धो लिये।”
“ओह, नो!”
“मैं बिल्कुल सच कह रहा हूं।”—रमाकान्त ने अपना सिग्रेट वाला हाथ ऊंचा किया—“अग्नि मेरे हाथ में है।”
“कमाल है!”
“और जानते हैं हमदर्द ने ऐसा क्यों किया?”
“क्यों किया?”
“क्योंकि वो जानता था...”
प्रत्याशा में सब खामोश रहे।
“ओये, तुहाड़ा कख न रहे, पूछो तो सही क्या जानता था?”
“क्या जानता था, मल्होत्रा साहब...आई मीन, सर, क्या जानता था?”
“वंसा केका कटीनो, नना मिसा पीसीनो।”
“जी! क्या बोला?”
“इटैलियन में बोला। सुना सब ने?”
कोई कुछ न बोला।
“क्या बोला?”—फिर एक ने झिझकते हुए पूछा।
“फिर बोलता हूं। गौर से सुनो। वंसा केका कटीनो, नना मिसा पीसीनो।”
“ये इटैलियन है?”
“और सिंधी है? मराठी है? मारवाड़ी है।”
“नानसेंस!”
“ओये! ओये, तेरे को इटैलियन आती है?”
“नहीं।”
“फिर तेरे को कैसे मालूम कि नहीं है?”
“आल राइट, है। लेकिन मतलब क्या हुआ इसका?”
“मतलब कौन सी जुबान में समझेगा? इंगलिश में, हिन्दी में या...”
“किसी में भी समझाइये।”
“इंगलिश में समझ। वंस ए केक इज कट, नो वन मिसिज ए पीस।”
“ओह!”
“हिन्दी में भी समझ। एक बार संतरा छिल जाये तो एक फांक की घट बढ़ का कोई पता नहीं चलता।”
“ओह!”
“अब बोल, तेरी मात्तरभाषा क्या है, मैं उसमें भी समझाऊं?”
“कौन सी भाषा?”
“मात्तर भाषा। मादरी जुबान। मां बोली। समझता कुछ है नहीं, बनता है बड़ा आलम फाजिल...”
सुनील ने उसकी बांह खींची।
“केड़ा ए ओये, केड़ा ए।”—रमाकान्त गुस्से से बोला, फिर तत्काल शांत हुआ—“ओये, ये तो अपना मित्तर प्यारा है। बोल काकाबल्ली, तेरे को भी इटैलियन समझनी है?”
“जरा इधर आके मेरी बात सुनो।”
रमाकान्त ने सुनी।
“ओये”—वो बोला—“यहां इतनी रौनक लगी है, इतना मजा आ रहा है। तू जा तो रहा है! मुझे क्यों घसीट रहा है?”
“नाजुक मामला है।”—सुनील संजीदगी से बोला—“साथी की जरूरत पड़ सकती है।”
“तो जौहरी को ले जा।”
“ठीक है। कार की क्या कहते हो?”
“सारी खड़ी हैं। जेड़ी मर्जी लै जा, काकाबल्ली, गोल्ली किदी ते गहने किदे! बालेनो ले जा, स्विफ्टेनो ले जा, आई-ट्वेन्टियानो ले जा, ऑडी-पौनी-पूरी ले जा, मासीजीज़ ले जा...”
“चाबी?”
“आफिस में। साइड रैक पर।”
सुनील वहां से रुखसत हुआ।
पीछे रमाकान्त अपने पुराने मुकाम पर पहुंचा कह रहा था—“ओये, जन्टलमैनो, हल की लकीरें देख कर नहीं बताया जा सकता कि खेत जोतने में कितने बैल लगे थे...”
सुनील और जौहरी कूपर रोड और आगे स्टारलाइट रेजीडेंसी पहुंचे।
तब साढ़े ग्यारह बजने को थे लेकिन लॉबी की हलचल बरकरार थी।
रास्ते में सुनील जौहरी को मोटे तौर पर समझा चुका था कि क्या माजरा था।
“मेरे मन में अभी एक खयाल आया है।”—सुनील बोला।
जौहरी ने प्रश्नसूचक नेत्रों से उसकी तरफ देखा।
“हमारा निशाना पांचवीं मंजिल का कमरा नम्बर 506 है। मैं चाहता हूं हमें मालूम हो कि उस फ्लोर पर कमरों की बुकिंग कैसी है! तेरे को इन कामों का तर्जुबा है। मालूम कर सकता है?”
जौहरी ने सहमति में सिर हिलाया।
“कर।”
“आप यहीं रुकिये।”
“ठीक है।”
जौहरी रिसैप्शन पर गया।
पीछे सुनील सिग्रेट के कश लगाता प्रतीक्षा करता रहा।
पांच मिनट बाद जौहरी वापिस लौटा।
“उस फ्लोर पर बारह कमरे हैं”—वो बोला—“उन में से सिर्फ एक—506—गैस्ट के हवाले है।”
“बहुत जल्दी जाना! कैसे किया?”
“मुम्बई की बड़ी फूं फां वाली कम्पनी का नाम लिया और बोला चेयरमैन के लिये एक रूम बुक कराना था जो ज्यादा हाइट पर न हो और रोड ट्रैफिक से कदरन ऊपर भी हो। फिर पांचवीं मंजिल पर की अवेलेबलिटी के बारे में पूछा तो वो बात मालूम हुई जो मैंने अभी बतायी।”
“चेयरमैन की बुकिंग के बारे में क्या बोला?”
“यही कि चेयरमैन की फिफ्थ फ्लोर की बाबत ओके लेनी थी जो कि कल हासिल होगी।”
“बढ़िया। अब तू यहां रुक, मैं ऊपर जाता हूं। किसी तरह की गड़बड़ का अन्देशा हो तो मोबाइल के जरिये मुझे खबरदार करना।”
“आप कैसी गड़बड़ की उम्मीद करते हैं?”
“उम्मीद तो नहीं करता लेकिन क्या पता लगता है! आखिर किसी तक जबरन, उसकी मर्जी के खिलाफ पहुंच बनानी है।”
“ओह!”
“मुझे किसी हैल्प की जरूरत होगी तो मैं फोन करूंगा।”
“ठीक है।”
सुनील ने सिग्रेट को तिलांजलि दी और लिफ्ट पर सवार होकर पांचवीं मंजिल पर पहुंचा।
गलियारे में उस घड़ी मुकम्मल सन्नाटा था। जब एक ही कमरा आकूपाइड था तो वस्तुत: वहां किसी भी घड़ी सन्नाटा ही अपेक्षित था।
वो ‘506’ के दरवाजे पर पहुंचा। उसने कुछ क्षण कान लगा कर कोई आहट लेने की कोशिश की, फिर कालबैल का बटन दबाया।
कोई प्रतिक्रिया सामने न आयी।
उसने घन्टी फिर बजायी।
जवाब नदारद।
वो दरवाजे पर दस्तक देने लगा तो ठिठका।
पल्ला चौखट के साथ लगा हुआ नहीं था।
उसने एक उंगली दरवाजे के साथ लगायी और दबाव डाला।
पल्ला चौखट से परे सरकने लगा। जब दरवाजा इतना खुल गया कि वो भीतर झांक पाता तो उसने उंगली हटा ली। उसने भीतर निगाह दौड़ाई तो पाया भीतर रौशनी थी लेकिन मुकम्मल सन्नाटा था।
“मिस्टर खुराना!”—उसने आवाज लगाई।
कोई जवाब न मिला।
“हल्लो! ऐनीबाडी होम!”
सन्नाटा।
उसने दरवाजे को और धकेला और भीतर कदम डाला। धीरे से अपने पीछे उसने दरवाजा भिड़काया और अनजाने सस्पेंस के हवाले आगे बढ़ा।
बाथरूम और वार्डरोब के बीच की राहदारी पार करके वो कमरे में पहुंचा तो उसे ड्रार्इंगरूम की तरह सुसज्जित पाया। पीछे एक दरवाजा था जो कि बन्द था। अब जाहिर था कि वो एक सुइट में खड़ा था जिसके बैडरूम का दरवाजा बन्द था।
उसने आगे कदम बढ़ाया तो तत्काल थमक कर खड़ा हो गया।
थ्री-सीटर सोफे और सैंटर टेबल के बीच में एक निश्चेष्ट मानव शरीर पीठ के बल पड़ा था। जिस्म पर वो ब्राउन पतलून और ट्वीड की मैचिंग जैकेट पहने था। जैकेट की जिप तीन चौथाई बन्द थी और बाकी के नीचे से सफेद कमीज और लाल नैकटाई झलक रही थी। उसकी आंखें पथराई हुई थीं और छाती में मूठ तक एक चाकू धंसा हुआ था। सैंटर टेबल पर एक पीतल का भारी फूलदान पड़ा था जो लगता था कि वहां से लुढ़क कर कार्पेट पर गिरा था और उसे बाद में वहां से उठा कर वापिस मेज पर रखा गया था। ये बात उन एक दो फूलों से जाहिर होती थी जो मेज पर और लाश के पहलू में अव्यवस्थित से पड़े थे।
लाश से थोड़ा परे कार्पेट पर एक बटुवा लुढ़का पड़ा था जिसके दोनों पल्ले खुले थे और भीतर से बटुवे के गिरने से बाहर सरक आये नोट झांक रहे थे।
उसने और करीब जाकर झुक कर लाश का मुआयना किया तो पाया कि चाकू का हैंडल नक्काशीदार था जिस से जाहिर होता था कि चाकू कोई मामूली चाकू नहीं था।
सावधानी से उसने लाश के माथे को छुआ तो उसे कदरन गर्म पाया, लिहाजा उसे मरे हुए डेढ़ेक घन्टे से ज्यादा नहीं हुआ था।
और वो यकीनी तौर पर आदित्य खन्ना उर्फ अंशुल खुराना था।
रमाकान्त ने आदित्य खुराना की तसवीर का जो दाढ़ी-मूंछ विहीन प्रिंट आउट बनवाया था, वो मकतूल की शक्ल से हूबहू मिलता था।
उसने अपने मोबाइल के कैमरे से विभिन्न ऐंगलों से लाश की तीन चार तसवीरें खींचीं।
फिर सेंटर टेबल के एक पाये के करीब उसे एक नग जड़ी अंगूठी दिखाई दी जो साइज और डिजाइन दोनों में जनाना जान पड़ती थी। उसने अंगूठी की भी करीब से तसवीर खींची।
एक सोफाचेयर के पहलू में कार्पेट पर एक लिपस्टिक लुढ़की पड़ी थी। उसने रूमाल के जरिये उठा कर उसका ढ़क्कन खींचा तो पाया कि वो लोरियल के क्रिमसन ब्रांड की थी। उस ने ढ़क्कन वापिस लगा कर उसे यथास्थान डाल दिया।
उसने लाश की जेबें टटोलने की सोची, फिर इरादा तर्क कर दिया। लाश को हिलाये डुलाये बगैर वो काम मुमकिन नहीं था और ऐसा करना मुनासिब न होता।
वो सीधा हुआ, उसकी निगाह पैन होती सारे कमरे में घूमी।
सोफे के बाजू में एक साइड टेबल थी जिस पर एक ट्रे में ड्रिंक्स के दो फैंसी गिलास और पीनट्स का कटोरा रखा था। उसने झुककर एक गिलास को सूंघा तो स्काच की साफ गन्ध उसके नथुनों से टकरायी। ट्रे में या आसपास कहीं स्काच विस्की की बोतल नहीं दिखाई दे रही थी जिससे जाहिर होता था कि ड्रिंक्स रूम सर्विस से आर्डर किये गये थे।
दोनों गिलासों में से किसी के रिम पर लिपस्टिक का दाग नहीं था।
यानी ड्रिंक्स में शरीक वो भूरे बालों वाली और बर्थमार्क वाली लड़की नहीं थी जिस का कियारा ने जिक्र किया था।
जमा, वो ट्रे वहां शाम से पड़ी हो सकती थी, उससे भी पहले से पड़ी हो सकती थी।
बहरहाल वो ट्रे वहां किसी नोन विजीटर की हाजिरी लगाती थी लेकिन उसने कब वहां विजिट दी थी, कहना मुहाल था।
वो बीच के दरवाजे पर पहुंचा और उसको धकेल कर उसने आगे बैडरूम में कदम रखा।
वहां भी उसकी निगाह चारों तरफ फिरी।
कमरे के पृष्ठभाग की पूरी दीवार पर आच्छादित एक भारी पर्दा था जिस के पीछे विशाल ग्लास विंडो होने की सम्भावना थी लेकिन भारी पर्दे की वजह से वो दिखाई नहीं दे रही थी। उसने आगे बढ़ कर पर्दा सरकाया तो पाया कि प्रत्याशित ग्लास विंडो के बाजू में एक दरवाजा भी था जो बाहर बालकनी में खुलता था। उसने नोट किया कि उस को बन्द करने के लिये उसके ऊपर के सिरे पर एक पीतल की चिटकनी थी जो कि चढ़ी हुई नहीं थी। उसने दरवाजे को हौले से धक्का देकर बाहर झांका तो पाया वहां दो बैंत की कुर्सियां और एक ग्लास टॉप वाली बैंत की ही गोल मेज पड़ी थी।
बालकनी के बायें बाजू के करीब से फायर एस्केप की सीढ़ियां गुजर रही थीं।
उसने दरवाजा पूर्ववत् बन्द कर दिया और पर्दे को यथास्थान व्यवस्थित कर दिया।
वो वापिस घूमा तो डबलबैड की उधर की साइड टेबल पर टेबल लैम्प के करीब उसे एक मोबाइल पड़ा दिखाई दिया जो कि चार्ज पर लगा हुआ था। उस लिहाज से वो उस सुईट के आकूपेंट का ही हो सकता था।
करीब जाकर उसके पहले जैसी सावधानी बरतते रूमाल के जरिये मोबाइल को उठाया और उसकी स्क्रीन पर निगाह डाली।
मोबाइल 100% चार्ज हो चुका था और इसीलिये फिर भी चार्ज पर लगा हुआ था क्योंकि उस का मालिक अब इस दुनिया में नहीं था।
उसने पहले फोन दबाया और फिर ‘रीसेंट्स’ दबाया।
कोई रीसैंट काल उस पर दर्ज नहीं थी।
उसने ‘फेवरिट्स’ दबाया तो पाया कि उस पर पांच नाम दर्ज थे। एक नाम मर्दाना था और चार जनाना थे। मर्दाना नाम प्रहलाद राज था और जनाना नाम तोरल, काव्या, देवीना और कियारा थे। पहले और आखिरी नाम के साथ मटर के दाने के व्यास जितनी आइकानिक तसवीर भी थी। इतनी छोटी तसवीर में भी कियारा को साफ पहचाना जा सकता था। मर्द पता नहीं कौन था।
लेकिन कियारा भी ‘फेवरिट्सʼ में!
जिस लड़की को वो मूंड चुका था, वो भी अभी ‘फेवरिट्स’ में!
शायद कोई और कियारा थी। कोई हमनाम कियारा।
उसने ‘आई’ पंच करके नम्बर चैक किया।
नम्बर वही निकला जो कियारा सोबती ने उसे दिया था।
इसका मतलब था कि मकतूल या लापरवाह बहुत था जो उस नम्बर को डिलीट करना भूल गया था, या खुशफहम बहुत था जो समझता था कि कियारा सोबती से उसका भविष्य में फिर कभी भी वास्ता पड़ सकता था।
कियारा को छोड़ कर उसने बाकी नाम बमय मोबाइल नम्बर अपने मोबाइल पर ‘नोट्स’ में दर्ज कर लिये और चार्ज पर लगे फोन को वापिस यथास्थान रख दिया।
उसकी निगाह फिर कमरे में घूमी।
राइटिंग टेबल पर फ्रेम में जड़ी एक खूबसूरत, नौजवान, फैशनेबल लड़की की क्लोज अप में तसवीर थी। लड़की कैमरे की तरफ देखती बड़े चित्ताकर्षक ढण्ग से मुस्करा रही थी।
वो टेबल पर पहुंचा, उसने हाथ को रूमाल में लपेट कर फ्रेम को उठा कर हाथ में लिया तो पाया कि फ्रेम के टॉप पर एक लम्बा खांचा था जिस में से फ्रेम में तसवीर पिरोई गयी थी। उसने गौर से उस खांचे को देखा तो उसे लगा कि तसवीर के पीछे कुछ और भी था। उस ने फ्रेम को उलटा कर के उसे झटका दिया तो मेज पर एक ही जगह तीन तसवीरें टपक पड़ीं। अतिरिक्त दो तसवीरें उसी लड़की की नहीं थीं जिसका चेहरा उसने फ्रेम में से झांकता पाया था। वो उतनी ही खूबसूरत दो जुदा लड़कियों की तसवीरें थीं। साफ जाहिर हो रहा था कि वो आगन्तुक लड़की को प्रभावित करने के प्रॉप था। वो उन तीनों लड़कियों से वाकिफ थाऔर जो भी लड़की उस से मिलने पहुंचती थी, वो फ्रेम में उसकी तसवीर आगे कर देता था। जाहिर था कि लड़की प्रभावित हुए बिना न रहती कि वो अपने करीब उसकी फ्रेम में जड़ी तसवीर लगा के रखता था। दूसरी लड़की आती थी तो वो फ्रेम में उसकी तसवीर फ्रंट में कर देता था।
उन तीन विभिन्न सुन्दरियों की तसवीरें जाहिर करती थीं कि अपने कॉनमैनशिप के अभियान में वो राजनगर की तीन लड़कियों के सम्पर्क में था जिन्हें कि वो अपनी ठगी का शिकार बनाने का तमन्नाई था। भूरे बालों वाली कमर पर सीलोन के नक्शे वाली जो लड़की उसके कमरे से निकल कर जाती कियारा ने देखी थी, इस बात की प्रबल सम्भावना दिखाई देती थी कि फ्रेम की फ्रंट वाली तस्वीर उसकी थी।
बशर्ते कि उसके जाते ही मकतूल ने तसवीर बदल न दी हो।
अगले शिकार के इन्तजार में।
बहरहाल बहुत पहुंचा हुआ खिलाड़ी था वो कॉनमैनशिप का।
उसने मोबाइल से तीनों स्नैप्स की अलग अलग तसवीरें खींच लीं और उन्हें फ्रेम में यथापूर्व स्थित में पहुंचा दिया।
फ्रेम के करीब ही राइटिंग टेबल पर एक पैड पड़ा था जिस पर बड़े बड़े अक्षरों में दर्ज था :
वो नाम और नम्बर उसके मोबाइल में ‘फेवरिट्स’ के अन्डर भी सेव्ड था।
तो स्क्रेच पैड पर क्यों लिखा!
कोई वजह उसे न सूझी, सिवाय इसके कि वो नम्बर पहले उसे बताया गया था और बाद में उसने उसे मोबाइल पर ‘फेवरिट्स’ में नोट किया था।
वो मेज पर से हटा।
जिस टेबल पर टीवी पड़ा था उसके बाजू में एक जूतों का डिब्बा पड़ा था। उसने करीब जाकर उसे उठाया तो वजन से ही जाहिर हो गया कि खाली था। डिब्बे पर लेडीज फुटवियर्स का इंटरनेशनल ब्रांड नेम दर्ज था और भीतर एक पैम्फलेट था जिस पर असाधारण हाई हील की लाल रंग की सैंडलों का अक्स दर्ज था। डिब्बे पर यूरो में कीमत दर्ज थी जो बताती थी कि जिन सैंडलों का वो डिब्बा था, वो बत्तीस हजार रुपये की थीं। डिब्बा एक दम नया था लेकिन भीतर से सैंडलें गायब थीं जो कि हैरानी की बात थी।
करीब ही एक बैग पड़ा था लेकिन उसको नम्बर्ड लॉक लगा हुआ था।
राइटिंग टेबल के दो दराजों में कुछ नहीं था।
उसने मैट्रेस उठा कर उन के नीचे भी झांका, सिरहानों के पीछे भी देखा लेकिन कहीं कुछ नहीं था।
वो बाहरले कमरे में आया और वार्डरोब पर पहुंचा। उसने उसका दरवाजा एक बाजू सरकाया तो भीतर अपने आप बत्ती जल उठी।
भीतर तमाम हैंगरों पर मर्दाना कपड़े टंगे हुए थे, केवल ऐन कोने में सरका हुआ एक हैंगर खाली था।
वार्डरोब के पहलू में एक बन्द दरवाजा था। उसने दरवाजे का मुआयना किया तो पाया कि उसमें उसे खोलने बन्द करने के लिये मेनडोर जैसा कार्ड-की का स्लॉट नहीं था। उसमें हैंडल वाला बिल्ट-इन लॉक था जो कि चाबी से खुलता था। उसने हैंडल ट्राई किया तो दरवाजे को मजबूती से लाक्ड पाया।
दरवाजे की पोजीशन से ही जाहिर होता था कि वो उस सुइट को बगल के सुईट से जोड़ता था और जरूर वो तब इस्तेमाल में लाया जाता था जब कि कोई बड़ा परिवार अगल बगल के दोनों सुइट बुक किये हो। जरूर उस सूरत में वो दरवाजा खोला जाता था और इस्तेमाल में लाया जाता था ताकि परिवार के किसी सदस्य को बगल के सुइट में जाने के लिये बाहर गलियारे में कदम न रखना पड़ता।
इसी वजह से उसमें की-कार्ड वाला लॉक नहीं था ताकि सिर्फ उस सुइट का आकूपेंट उस दरवाजे को न खोल सके, और बगल के सुइट में कोई दूसरा आकूपेंट हो तो उसकी प्राइवेसी में खलल न डाल सके।
तभी उसके मोबाइल की घन्टी बजी।
जौहरी की काल थी।
उसने काल रिसीव की।
“पुलिस!”—जौहरी सस्पेंसभरे लहजे से बोला—“खुद इन्स्पेक्टर प्रभूदयाल। ऊपर आ रहा है।”
सुनील ने तत्काल फोन जेब के हवाले किया, वार्डरोब का दरवाजा यथास्थान सरकाया और वहां से बाहर निकला। उसने अपने पीछे दरवाजा यथापूर्व बन्द किया और गलियारे में लिफ्ट की ओर झपटा।
एक लिफ्ट ऊपर आ रही थी, तीसरे फ्लोर तक पहुंच भी चुकी थी, और दूसरी टॉप फ्लोर पर खड़ी थी।
उसने व्याकुल भाव से सीढ़ियों की तरफ तवज्जो दी तो उस पर भी किसी के ऊपर आते कदम पड़ते जान पड़े।
ऊपर आती लिफ्ट अब चौथी मंजिल पर थी।
वो झपट कर वापिस ‘506’ के दरवाजे पर पहुंचा और उसकी काल बैल बजाने लगा। बैल बजा चुकने के बाद भी जानबूझ कर उसने हाथ बैल पुश के करीब चौखट पर से न हटाया। लिफ्टों की तरफ उसने जानबूझ कर पीठ फेरी हुई थी।
“वाट द हैल!”—उसे अपने पीछे से प्रभूदयाल की आवाज आयी।
सुनील ने बड़े दर्शनी अन्दाज से बैल पुश के करीब से हाथ हटाया और घूमकर पीछे देखा।
“अरे!”—उसने नकली हैरानी जतायी—“माई बाप, आप! यहां!”
“तुम यहां क्या कर रहे हो?”—प्रभूदयाल उसे घूरता सख्ती से बोला।
“किसी से मिलने आया था।”
“किसके?”
“इस रूम के आकूपेंट से।”
“वो कौन हुआ? नाम लो उसका?”
“अंशुल खुराना।”
“जानते हो उसे?”
“अब जानूंगा।”
“यानी नहीं जानते।”
“पहले से नहीं जानता।”
“कब आये?”
“बस, आप के आगे आगे ही आया।”
“घन्टी अभी पहली बार बजायी?”
“नहीं, जनाब, तीसरी बार।”
“जवाब न मिलने की कोई वजह आयी मगज में?”
“बाथरूम में होगा।”
“दरवाजा ट्राई किया?”
“दरवाजा! वो किसलिये?”
“भीतर दाखिला पाने के लिये!”
“नहीं। खयाल तक न आया। फिर भी करता तो तब करता न, जब जवाब की बाबत पूरी तरह से नाउम्मीद हो जाता!”
“दरवाजा खुला है।”
“अच्छा!”
“अन्धे को दिखाई देता है कि खुला है।”
“माई बाप, मैं अन्धा तो नहीं हूं न!”
“तो तुम अभी यहां पहुंचे हो और दरवाजा खुलने के इन्तजार में खड़े हो?”
“जी हां। माई बाप, आपने इतने सवाल पूछे, एक सवाल पूछने की मुझे भी इजाजत दीजिये।”
“क्या पूछना चाहते हो?”
“आप यहां कैसे?”
“जवाब तुम्हें मालूम है।”
“क्या बात करते हैं!”
“मैं क्या तुम्हें जानता नहीं! बोलो, क्या देखा भीतर?”
“बन्दानवाज, बद्किस्मती से पारदर्शी निगाह नहीं बख्शी मुझे मेरे बनाने वाले ने।”
“अच्छा! नहीं बख्शी?
“आप मेरी खिल्ली उड़ा रहे हैं।”
“बाजू हटो।”
सुनील तत्काल दरवाजे से परे सरका।
प्रभूदयाल ने साथ आये सब-इन्स्पेक्टर बंसल को इशारा किया।
बंसल ने दरवाजे को धक्का दे कर खोला और भीतर दाखिल हो गया।
सुनील ने देखा प्रभूदयाल के साथ बंसल के अलावा दो हवलदार थे और एक काला सूटधारी युवक था जिसे उसने नीचे रिसैप्शन पर देखा था।
सुनील ने दरवाजे पर से उचक कर भीतर झांकने का अभिनय किया तो प्रभूदयाल ने सख्ती से उसे परे धकेल दिया।
सुनील ने आहत भाव से उसकी तरफ देखा।
“चुपचाप खड़े रहो।”—प्रभूदयाल घुड़क कर बोला।
तभी बंसल चौखट पर प्रकट हुआ, उसने प्रभूदयाल को देखकर सहमति में सिर हिलाया।
“हो गया काम?”—सुनील बोला।
“किस का?”—प्रभूदयाल उसे घूरता बोला।
“किसी न किसी का। मैक्सीमम चान्सिज इस रूम में आकूपेंट के हैं।”
“कैसे जाना? क्योंकि पहले ही भीतर हो आये हुए हो।”
“अरे, नहीं जनाब, मैं तो अभी पहुंचा था। अभी घन्टी बजा रहा था।”
“तो कैसे जाना?”
“बंसल के व्यवहार से जाना। आप लोगों की यकायक आयद से जाना। और अपनी खास सुनीलियम सूंघ से जाना।”
“जैसे कह रहे हो, वैसे तुम्हें कत्ल सूझ सकता है, आखिर सुनील हो, लेकिन ये नहीं सूझ सकता कि कत्ल इस रूम के आकूपेंट का हुआ था।”
“मैंने ऐसा कहा भी नहीं। मैंने तो कहा था कि अगर भीतर कोई कत्ल का केस मौजूद था तो उसके रूम के आकूपेंट होने के चांसेज सब से ज्यादा थे।”
“अल्फाज कुछ भी हों लेकिन जो तुमने कहा था, यकीनी तौर पर कहा था। और ऐसा तुम एक ही सूरत में कह सकते थे कि तुम्हें आकूपेंट के कत्ल की फर्स्टहैण्ड नालेज थी।”
“खामखाह!”
“ठीक है खामखाह। अब नीचे लॉबी में जाकर बैठो और जब तक मैं तुम्हारा बयान न ले लूं, वहां से हिलना नहीं।”
“अरे, क्या जुल्म करते हो माई बाप!”
“कोई जुल्म नहीं है। जिस काम तुम आये थे, वो तो अब हो सकता नहीं! जिससे मिलने आये थे, वो तो गया! अब तुम्हें क्या?”
“मुझे है न! गरीबपरवर, सामाजिक सरोकार है न मुझे! सामाजिक सरोकार न्यूज है। बड़ा सरोकार बड़ी न्यूज है। कत्ल बड़ा सामाजिक सरोकार है इसलिये लाइफब्वाय है जहां, तन्दुरुस्ती है वहां।”
“क्या!”
“कत्ल है जहां, ‘ब्लास्ट’ है वहां।”
“हैरानी है, रिपोर्टर साहब, कैसे कर लेते हो? वो भी हर बार!”
“क्या कैसे कर लेता हूं?”
“जहां कहीं भी कत्ल होता है, वहां पहले से मौजूद होते हो।”
“इत्तफाक की बात है।”
“सारे इत्तफाक तुम्हारे ही साथ होते हैं?”
“ये भी इत्तफाक की बात है।”
“ठीक है, लॉबी में न सही, यही ठहरो। लेकिन खबरदार जो पुलिस के किसी काम में दखलअन्दाज हुए।”
“नो, सर। नैवर, सर।”
तभी पुलिस की फॉरेंसिक टीम वहां पहुंची। उनमें से सुनील फिंगरप्रिंट्स एक्सपर्ट शकील अहमद को और फोटोग्राफर प्रीतम कोहली को पहले से जानता था।
सब भीतर दाखिल हुए।
सुनील भी खामोशी से भीतर सरक आया।
काले सूट वाले ने बतौर रूम के आकूपेंट अंशुल खुराना की शिनाख्त की और फिर उसे रुखसत कर दिया गया।
फॉरेंसिक एक्सपर्ट्स अपने अपने काम में जुट गये।
प्रभूदयाल ने सुनील की बांह पकड़ी और उसे बाहर गलियारे में ले आया।
“अब बोलो”—वो सख्ती से बोला—“कैसे पहुंच गये यहां?”
“बोलता हूं।”
“कोई गोली सरकाये बिना बोलो।”
“यस, सर। लेकिन आप भी तो बोलिये, आप कैसे पहुंच गये यहां?”
“पुलिस के पास गुमनाम काल आयी थी।”
“क्या? कि यहां ‘506’ में कत्ल हुआ था?”
“नहीं। कहा गया था कि वायलेंस का केस था। यहां कोई मर रहा था या मर गया था। बस इतना ही कहा गया था, फिर लाइन काट दी गयी थी।”
“पुलिस रूटीन के तौर पर काल ट्रेस तो की गयी होगी?”
“की गयी थी। कूपर रोड के मोड़ पर एक पैट्रोल पम्प है, वहां के पीसीसीओ से की गयी थी।
“आई सी।”
“अब तुम बोलो।”
“ ‘ब्लास्ट’ को भी मिलती जुलती ही काल मिली थी, बस गुमनाम नहीं थी।”
“कौन था काल करने वाला।”
“ ‘ब्लास्ट’ का रेगुलर इनफार्मर था।”
“नाम बोलो।”
सुनील ने मजबूती से इंकार में सिर हिलाया।
प्रभूदयाल ने घूर कर उसे देखा।
“आप जानते हैं ऐसा करना कायदे के खिलाफ होगा। ये भी जानते हैं कि मीडिया पर अपना इनफर्मेशन का सोर्स रिवील करने का दबाव नहीं डाला जा सकता।”
“तुम ये कहना चाहते हो कि ‘ब्लास्ट’ पुलिस की तरह इनफार्मर्स को शह देता है?”
“सारे अखबार देते हैं। कड़क खबर कैसे भी मिले, कहीं से भी मिले, मीडिया को वैलकम है।”
“क्या बोला इनफार्मर?”
“आप को याद है पांच साल पहले नेपियन हिल के एक बंगले में एक मर्डर हुआ था जो कि नेपियन हिल मर्डर केस के नाम से मशहूर हुआ था?”
“याद है।”
“तो फिर ये भी याद होगा कि कातिल आज तक नहीं पकड़ा गया!”
“वो अन्डरवर्ल्ड से ताल्लुक रखती वारदात थी जिस में सुपारी लगाकर कत्ल किया गया। ऐसा सुपारी किलर हमेशा बाहर से आता है, वारदात को अंजाम देकर चलता बनता है इसलिए कभी पकड़ में नहीं आता। जब तक पुलिस को वारदात की खबर लगती है, तब तक सुपारी किलर मौकायवारदात से सैंकड़ों मील दूर निकल गया होता है।”
“ठीक। इनफार्मर के जरिये हमें टिप मिली थी कि इस कत्ल के लिये जिम्मेदार कातिल होटल स्टारलाइट के कमरा नम्बर ‘506’ में मौजूद था।”
“इसलिये तुम यहां आये?”
“हां।”
“कातिल से मुलाकात करने?”
“इरादा तो था!”
“तुम उसे सुपारी किलर ठहराते तो वो तुम्हें जिन्दा छोड़ देता?”
“ऐसा कुछ कहने का मेरा कोई इरादा नहीं था।”
“तो क्या इरादा था?”
“ये कहने का इरादा था कि हमें टिप मिली थी कि वो नारॅकॉटिक्स स्मगलर था।”
“तुम कहते और वो मान जाता?”
“इंकार तो करता! फिर ये तो बताता कि असल में कौन था! अगर वो अपनी कोई जुदा, पुख्ता आइडेन्टिटी स्थापित कर देता तो ठीक था वर्ना मैं उसकी और पड़ताल करता।”
“कौन करता? सुनील भाई मुलतानी? बजातेखुद?”
“क्या कहना चाहते हो?”
“एक जरायमपेशा शख्स से, जो कि तुम्हारे वजूद के लिये निहायत खतरनाक साबित हो सकता था, मिलने अकेले चले आये?”
“अकेला तो नहीं आया था, एक साथी है साथ में जो कि नीचे लॉबी में मौजूद है।”
“कौन?”
“आप उसे नहीं जानते।”
“नाम लो।”
“जौहरी?”
“वो जो तुम्हारे सदाशराबी यूथ क्लब वाले यार के लिये काम करता है?”
“यानी जानते हैं।”
“तुम कहते हो वो नीचे लॉबी में है। यहां तो तुम अकेले ही पहुंचे! कोई ऊंच नीच होती तो वो लॉबी से ही यहां तुम्हें मदद पहुंचा देता। ठीक?”
“मुझे उम्मीद नहीं थी कि कोई ऊंच नीच होती। इतने बिजी होटल में किसी पर कातिलाना हमला करना हँसी खेल नहीं।”
“हँसी खेल है। नमूना अन्दर मौजूद है।”
“दोनों बातों में फर्क है। वो रूम का रजिस्टर्ड आकूपेंट है जिसका किसी आउटसाइडर ने कत्ल किया। ऐसा कोई आकूपेंट अपने ही कमरे में किसी आउटसाइडर का—मेरा—कत्ल करना अफोर्ड नहीं कर सकता था।”
“बाहर से कोई आया और कत्ल कर के चला गया?”
“जाहिर है।”
“तुम्हारे सुपारी किलर का? जिससे मिलते तो तुम जिसे नॉरकॉटिक्स स्मगलर बताते?”
“क्या कहना चाहते हो, जनाब?”
“तुम्हारी खुफिया जानकारी पर एतबार लाया जाये तो भीतर नेपियन हिल मर्डर केस का कातिल मरा पड़ा है। नहीं?”
सुनील ने जवाब न दिया।”
“आकुपेंट के बारे में तुम और क्या जानते थे?”
“कुछ नहीं।”—सुनील बोला।
“रिसैप्शन से पता न किया?”
“कोशिश की थी लेकिन वो लोग कुछ बताने को तैयार न हुए।”
“नाम तो मालूम होगा!”
“नहीं।”
“इनफार्मर ने न बताया?”
“न।”
“इसलिये अपनी खुद की रिसर्च करने तुम यहां चले आये! अकेले! अनआर्म्ड!”
“अब...था तो ऐसा ही!”
“मुलाकात के तमन्नाई ‘506’ की अभी घन्टी ही बजा रहे थे कि पुलिस आ गयी?”
“हां।”
“इस बात की तरफ तुम्हारी तवज्जो न गयी कि दरवाजा लाक्ड नहीं था?”
“नहीं गयी। मैं बस अभी पहुंचा ही तो था! और थोड़ी देर जवाब न मिलता तो शायद जाती।”
“तब क्या करते? दरवाजा खोल कर भीतर चले जाते?”
“नहीं। खोल कर चौखट से आवाज लगाता।”
“किसे आवाज लगाते? नाम तो तुम्हें कोई मालूम नहीं था?”
“नाम जाने बिना भी आवाज लगाई जा सकती है।”
“कैसे?”
“‘कोई हैʼ कह कर। ‘एनीबाडी होम’ कह कर।”
“हूं। रिपोर्टर साहब, फिर पूछ रहा हूं, सच कह रहे हो कि भीतर नहीं गये थे?’
“मैंने पहले कभी आपसे झूठ बोला है?”
“हां। दर्जनों बार।”
सुनील ने आहत भाव से उसकी तरफ देखा।
“ड्रामा मत करो। मैं तुम्हारी नस नस से वाकिफ हूं। मैं मान ही नहीं सकता कि तुम्हारी सुनीलियन सूंघ तुम्हें भीतर नहीं ले गयी थी।”
“माई बाप, ये तो आप जुल्म...”
“बस करो। बस करो। अब यहां से टलो।”
“टलता हूं लेकिन वारदात के बारे में कुछ बताइये तो सही!”
“अभी कुछ नहीं बताया जा सकता। अभी तफ्तीश बस शुरू हुई है। नीचे लॉबी में जाकर इन्तजार करो। दो घन्टे बाद प्रैस को कुछ बताने की नौबत आयेगी।”
“इतना इन्तजार करना तो मैं एफोर्ड नहीं कर सकता। ऐसे तो कल के ‘ब्लास्ट’ में इस कत्ल की न्यूज नहीं जा पायेगी।”
“वो तुम्हारी प्राब्लम है।”
“है तो सही!”—सुनील एक क्षण ठिठका, फिर बोला—“वो फूलदान!”
“क्या बोला?”
“पीतल का फूलदान। जो भीतर सेंटल टेबल पर पड़ा था। प्लास्टिक के कभी न मुरझाने वाले फूलों से सुसज्जित।”
“क्या हुआ उसे?”
“उससे साफ जाहिर होता है कि वो मेज पर से गिरा था और फिर उसे उठा कर वापिस मेज पर रखा था।”
“तो?”
“ऐसा कत्ल के बाद कातिल ने किया हो सकता है। लिहाजा उस पर उसकी उंगलियों के निशान हो सकते हैं।”
“अच्छा हुआ तुमने मुझे बता दिया वर्ना इतनी बारीक बात कहां मेरी समझ में आने वाली थी!”
“सॉरी! तो वो आप की तवज्जो में है?”
प्रभूदयाल ने जवाब न दिया, उसने घूर कर सुनील को देखा।
“जाता हूं। जनाब, जाता हूं।”
“जाने से पहले एक बात और सुनते जाओ।”—प्रभूदयाल बोला।
“वो क्या?”
“अगर कल के ‘ब्लास्ट’ में मुझे मकतूल की तसवीर छपी दिखाई दी तो तुम्हारी खैर नहीं।”
“खामखाह!”
“नहीं खामखाह। तो तसवीर अपने आप में इस बात का सबूत होगा कि तुम कमरे के भीतर गये थे। समझे!”
सुनील खामोश रहा।
“छापना तसवीर। यूं साबित करना एक बार फिर ‘ब्लास्ट’ को सबसे आगे। फिर देखना मैं तुम्हारी क्या गत बनाता हूं!”
“क्या चार्ज लगायेंगे?”
“ट्रैसपासिंग। फोर्स्ड एन्ट्री। टैम्परिंग विद द इवीडेंस इन ए मर्डर केस।”
सुनील से कुछ कहते न बना।
“हिलो। अब।”
“ओके। थैंक्स फार नथिंग।”
सुनील विवेक नगर पहुंचा।
जौहरी को उसने कूपर रोड से ही रुखसत कर दिया था और रमाकान्त की आई-20 कार खुद कब्जा ली थी।
बड़ी सहूलियत से वो उस हाउसिंग कम्पलैक्स तक पहुंच गया जिस में कियारा सोबती का आवास था। लिफ्ट के जरिये वो चौथी मंजिल पर पहुंचा जहां कि उसका फ्लैट था। उस ने कालबैल बजाई।
कुछ क्षण खामोशी रही, फिर भीतर से पूछा गया—“कौन?”
“सुनील।”—वो बोला।
तत्काल दरवाजा खुला और नाइटी पहने चौखट पर कियारा प्रकट हुई। सुनील को देख कर अपनी जमहाई छुपाती वो जबरन मुस्कराई।
“हल्लो!”—सुनील बोला —“सो गयी थीं?”
“नहीं।”—वो बोली—“सोने की तैयारी कर रही थी।”
“ओह!”
“कैसे आये?”
“तुम से बात करनी है।”
“सुबह नहीं हो सकती?”
“नहीं।”
“आओ!”
उसने उसे फ्लैट के छोटे से ड्रार्इंगरूम में ले जाकर बिठाया और खुद उसके सामने बैठी। उसने सप्रयास सुनील की ओर देखा।
“मैं”—सुनील संजीदगी से बोला—“ऐसे शख्स से झूठ की उम्मीद नहीं करता जो मेरी मदद का तालिब हो।”
वो हड़बड़ाई।
“कौन?”—फिर बोली—“किसने झूठ बोला?”
“तुमने।”
“मैंने?”
“सरासर।”
“क्या... क्या झूठ बोला मैंने?”
“तुम्हें नहीं मालूम?”
“नहीं।”
“यानी मेरे से ही कहलवाओगी?”
“क्या कहना चाहते हो?”
“तुमने झूठ बोला कि होटल में तुम आदित्य खन्ना उर्फ अंशुल खुराना के कमरे में दाखिल नहीं हुई थीं।”
“मैं... मैं सच कहती हूं कि कालबैल के जवाब में उसने दरवाजा नहीं खोला था।”
“तुम्हें कालबैल के जवाब की जरूरत नहीं थी। तुम्हें मालूम था कि दरवाजा लाक्ड नहीं था, तुम भीतर दाखिल हुई थीं और उसके रूबरू हुई थीं।”
“ओह, नो।”
“ओह, यस। ठगी से गंवाई, अपनी रकम को ले कर तुम्हारी उस से तकरार हुई थी। तुमने उससे अपनी उन्नीस लाख रुपये की रकम की वापिसी की मांग की थी जिस को लौटाने से उसने साफ इंकार कर दिया था। फिर तकरार इतनी वायलेंट हो उठी थी कि तुमने उसकी छाती में चाकू घोंप दिया था।”
“म-मेरे...मेरे पास चाकू कहां से आया?”
“तुम बताओ।”
“म-मैं...मैं...”
“या चाकू तुम्हारे पास था या तुम्हें वहां पड़ा मिला था। तुमने चाकू उसकी छाती में घोंपा था जो कि उसकी मौत की वजह बना था। ऐसा तुमने इरादतन किया था या एक वक्ती जुनून के हवाले कर बैठी थीं, ये तुम जानो।”
“तुम...तुम...प्लीज मेरा यकीन करो। मैंने कत्ल नहीं किया।”
“न सिर्फ कत्ल किया बल्कि भूरे बालों और कमर पर बर्थमार्क वाली उस लड़की की बाबत झूठ बोला जिसे तुम कहती हो कि तुमने मकतूल के कमरे से निकल कर जाते देखा था। अगर तुम्हारी कहानी को फर्जी करार न दिया जाये तो वो उसमें फिट नहीं बैठती क्योंकि तब कातिल वो होती जो लाश को पीछे छोड़ के जा रही थी। तुम कहती हो कि जब उसने तुम्हारे लिये दरवाजा खोला था, तब वो लड़की भीतर सोफाचेयर पर बैठी हुई थी और जाहिरा तौर पर वो उससे वार्तालाप करता उठकर तुम्हें दरवाजा खोलने आया था। लिहाजा तुम्हारे वहां पहुंचने के वक्त भीतर अमन शान्ति का माहौल था। फिर चुटकियों में कत्ल की नौबत क्यों कर आ गयी? कातिल कत्ल करने वाला हो तो ऐसा करने से पहले क्या वो सोफाचेयर पर बैठा रिलैक्स कर रहा होता है?”
वो खामोश रही।
“ऐसी कोई लड़की नहीं थी। वो तुम्हारी कल्पना की उपज थी क्योंकि तुम चाहती थीं कि कातिल उसे समझा जाता। तुम अपना गुनाह उस फर्जी लड़की के सर थोपना चाहती थीं।”
मैंने कत्ल नहीं किया...”
“तुम्हीं ने किया। कत्ल ने ही तुम्हारे होशोहवास उड़ाये हुए थे जो यूथ क्लब पहुंचने तक तुम्हारे काबू में नहीं आये थे। जब तुम मुझे यूथ क्लब में मिली थीं तो तुम्हारे होश इसलिये नहीं उड़े हुए थे क्योंकि तुम भाग दौड़ और अफरा तफरी से पशेमान थीं। तुम्हारे होश इस लिये हुए थे क्योंकि तुम कत्ल कर के हटी थीं।”
“नहीं।”
“तुम्हारा ये कहना भी झूठ है कि यूथ क्लब पहुंचने से पहले तुमने बीस पच्चीस मिनट नजदीकी पार्क में गुजारे थे। ऐसा तुमने वक्त का हिसाब माकूल बनाने के लिये कहा था। असल में तुम्हारा वो वक्त मकतूल के साथ तकरार में गुजरा था, उस तकरार में गुजरा था जिसका समापन कत्ल पर जा कर हुआ था।”
“नहीं! नहीं। मेरा यकीन करो, मैंने कत्ल नहीं किया।”
“तुम्हें कत्ल की खबर है। तुम्हारी बातों से जाहिर हो रहा है तुम्हें कत्ल की खबर है। हां या न में जवाब दो।”
“हं-हां।”
“क्या हां।”
“मुझे कत्ल की खबर है।”
“क्योंकर खबर है? क्योंकि तुम कमरे के भीतर दाखिल हुई थीं।”
“हं-हां।”
“फिर भी कहती हो कि झूठ नहीं बोला!”
“मजबूरन बोला।”
“एक्सप्लेन।”
“उसकी...उसकी हालत बता रही थी कि जो हुआ था, वो तभी होके हटा था। खून तब भी उसकी छाती में से बह रहा था और...और...”
“क्या और?”
“वो अभी जिन्दा था।”
“क्या!”
“उसकी सांस फंस फंस कर चल रही थी लेकिन चल रही थी। मैं उसके सामने उकड़ू होकर बैठी, मैंने उससे पूछा क्या हुआ लेकिन वो बोल न पाया। मैं उसकी बांह पकड़ कर उसे तनिक झिंझोड़ कर सवाल किया तो उसने बोलने की कोशिश की और उस कोशिश में सिर्फ एक लफ्ज बोल पाया।”
“कौन सा एक लफ्ज?”
“मंगला।”
“तुमने साफ सुना?”
“साफ तो न सुना! साफ तो वो बोल ही नहीं पा रहा था! साफ बोलने लायक तो उसकी हालत ही नहीं थी! लेकिन उस हाल में जो एक लफ्ज उसने बोला और जो मेरी समझ में आया, वो मंगला था।”
“हूं।”
“पहले मुझे लगा था कि वो ‘बंगला’ कह रहा था लेकिन फिर मेरे दिल ने यही गवाही दी कि वो ‘मंगला’ कह रहा था, किसी का नाम ले रहा था।”
“क्यों?”
“ये भी कोई पूछने की बात है! क्योंकि कातिल मंगला नाम की कोई लड़की थी।”
“कौन मंगला?”
“मुझे क्या मालूम कौन मंगला!”
“तुम्हारी तरह उसकी ठगी का शिकार हुई कोई लड़की?”
“हो सकता है।”
“कहीं उसने ‘जंगला’ तो नहीं कहा था?”
वो हड़बड़ाई।
“बैडरूम के आगे एक बालकनी थी जिसकी रेलिंग लोहे की ग्रिल की थी। ऐसी रेलिंग को जंगला भी कहते हैं। जो एक शब्द वो बोल सका था, कहीं वो ‘जंगला’ तो नहीं था जो उसने ये बताने के लिये बोला हो कि कातिल उधर से फरार हुआ था?”
“तुम मुझे कनफ्यूज कर रहे हो।”
“बालकनी के बायें पहलू में फायर एस्केप की सीढ़ियां थीं जिन की वजह से कातिल का उधर से फरार होना मुमकिन तो था! फ्रंट का रास्ता क्लियर नहीं था इसलिये निकासी के लिये उसे वो आल्टरनेट रास्ता सूझा जो कि उसने अख्तियार किया।”
“अब मैं टोटली कनफ्यूज्ड हूं। लेकिन मैं फिर कहती हूं कि मुझे मंगला सुनाई दिया था।”
“चलो, ऐसे ही सही, फिर?”
“फिर क्या! फिर मेरी आंखों के सामने उसने दम तोड़ दिया।”
“इस का मतलब समझती हो?”
“नहीं।”
“अब समझो। इस का मतलबत ये हैं कि वो वारदात तुम्हारे वहां पहुंचने से बस जरा पहले होकर हटी थी और कातिल—या कातिला—अभी भी भीतर था।”
“ओ, माई गॉड!”
“तुमने एकाएक आकर कालबैल बजा दी थी तो वो भीतर फंस गया था। दरवाजा अनलॉक्ड था, इस वजह से किसी भी क्षण तुम भीतर दाखिल हो सकती थीं। अपनी इस कोशिश में तुमने दरवाजा खोला तो वो जाकर पिछले कमरे में, बैडरूम, में छुप गया।”
“ओ, माई गॉड!”
“वो तुम्हारी आंखों के सामने मर गया। फिर तुमने क्या किया?”
“मैंने क्या किया! मैंने बहुत शिद्दत से महसूस किया कि अगर किसी तरीके से उस घड़ी मेरी वहां हाजिरी लग जाती तो यकीनी तौर पर मुझे ही कातिल समझा जाता। इस वजह से मैंने उस बर्थ मार्क वाली लड़की की कहानी गढ़ी।”
“किस के लिये गढ़ी? मेरे लिये गढ़ी। ऐसे शख्स के लिये गढ़ी जो कि तुम्हारा तरफदार था।”
“मैं शर्मिन्दा हूं।”
“ऐसी कोई लड़की—जिसके भूरे बाल और सैंडलें ही दिख रही थीं—भीतर सोफे पर बैठी तुमने नहीं देखी थी?”
“हां।”
“क्या हां?”
“नहीं देखी थी।”
“उस बाबत भी तुमने जो कहा, अपनी लड़की वाली फर्जी कहानी को मजबूत करने के लिये कहा?”
“हं-हां।”
“तुम फौरन वहां से निकल पड़ी थीं?”
“हां। आई स्वियर।”
“किसी चीज को छुआ था?”
“नहीं।”
“खास तौर से छाती में धंसे चाकू की मूठ को?”
“गॉड, नहीं। मुझे खयाल तक नहीं आया था।”
“हालात बताते थे कि सेंटर टेबल पर पड़ा एक फूलदान वहां से उलट कर नीचे कार्पेट पर जा गिरा था। उसे उठाकर वापिस टेबल पर तुमने रखा था?”
“नहीं।”
“वापिसी में सच में जा कर नजदीकी पार्क में बैठी थीं?”
“हां। हां। उस वारदात ने मेरे होश उड़ा दिये हुए थे। होटल से निकल कर मैं सच में काफी देर नजदीकी पार्क में बैठी रही थी और तभी वहां से हिली थी जब कि मेरे होशोहवास कदरन ठिकाने आये थे।”
“कमरे के भीतर कितनी देर ठहरी थीं?”
“मुश्किल से एक मिनट। मैं सकते में आ गयी थी, जड़ हो गयी थी, इसलिये बड़ी हद दो मिनट।”
“किसी चीज को छेड़ा था?”
“तुमने पहले भी पूछा, मैंने पहले भी बोला कि...
“पहले मेरा सवाल स्पैसिफिक था, चाकू की बाबत था, फूलदान की बाबत था, अब मेरा सवाल जनरल है।”
“नहीं, किसी चीज को नहीं छेड़ा था। मेरी हालत ही नहीं थी किसी चीज की तरफ ऐसी तवज्जो देने की। मेरे तो होश उड़े हुए थे। मैं तो फौरन वहां से निकल भागी थी!”
“किसी को गलियारे में देखा था? अब फिर झूठ न बोलना।”
“नहीं देखा था।”
“लॉबी में किसी ने तुम्हारी तरफ तवज्जो दी थी?”
“लॉबी में उस घड़ी काफी हलचल थी। किसी ने मेरी तरफ तवज्जो नहीं दी थी।”
“मेरे से झूठ क्यों बोला?”
“मैं शर्मिन्दा हूं।”
“पहले भी बोला। दो बार इजहार से शर्मिन्दगी का असर दोबाला नहीं हो जाता।”
“वो...वो मेरी नादानी थी। मुझे तुम से झूठ नहीं बोलना चाहिए था।”
“अब गलती सुधार रही हो या अभी भी पैंतरेबाजी पर हो?”
उसने आहत भाव से सुनील की तरफ देखा।
“ऐसे देखने की कोई जरूरत नहीं। तुमने खुद अपना क्रेडिट खराब किया है।”
“आई...आई एम सॉरी।”
“यस, बी सो।”
“आई एम।”
“फर्जी लड़की के बयान में, बर्थमार्क वाली लड़की के बयान में, तुम्हारा उसकी हाई हील पर बड़ा जोर था। वजह?”
“कोई खास वजह नहीं। एक तो आजकल एक्स्ट्रा हाई हील का बहुत फैशन है; दूसरे, उसकी वजह से उसके कद काठ का मेरा अन्दाजा गड़बड़ा जाता तो भी चलता। आजकल पांच पांच इंच तक हाई हील चलती है, उसके होते क्या एक्यूरेट अन्दाजा होता कद का!”
“यानी उस का हुलिया गोलमोल, इनकनक्लूसिव, बयान करना चाहती थीं!”
“हं-हां।”
“क्यों कि लड़की फर्जी थी तो हुलिया भी तो फर्जी ही होता!”
“हां।”
“बैडरूम में गयी थीं?’
“नहीं। बिल्कुल नहीं। मैंने तो बाहरी कमरे के भी मिडल से आगे कदम नहीं रखा था।”
“जाती तो जानती हो क्या होता?”
“क्या होता?”
“तुम भी वहीं मरी पड़ी होतीं।”
उसके शरीर ने स्पष्ट झुरझुरी ली।”
“गवाह कौन छोड़ता है!”
“वो...वो... कातिल वाकेई बैडरूम में था?”
“जब वारदात तभी हो के हटी थी तो और कहां होता!”
“मैं बैडरूम में गयी होती तो वो मेरा भी खून कर देता?”
“अरे, बोला न, गवाह कौन छोड़ता है?”
“लेकिन ...लेकिन जब तुम कहते हो कि वो बालकनी का जंगला...जंगला लांघ कर फायर एस्केप के रास्ते भागा तो उसका बैडरूम में क्या काम?”
“पिछली सारी दीवार भारी पर्दे से कवर्ड थी। पर्दा सरकाये बिना नहीं जाना जा सकता था कि पीछे खिड़की थी, दरवाजा था और आगे बालकनी थी। मुमकिन है पर्दा सरका के बाहर झांकने का खयाल उसे फौरन न आया हो!”
“ओह! पर वो था कौन?”
“क्या पता कौन था! ‘मंगला’ का जिक्र कर के तुमने नयी घुंडी डाल दी है कि कोई औरत भी वारदात के लिये जिम्मेदार हो सकती है।”
“उसने...उसने बोला था मंगला।”
“साथ ही ये भी तो कहती हो कि साफ नहीं बोला था!”
“फिर भी मेरे खयाल से तो मंगला के सिवाय कुछ बोला नहीं हो सकता था।”
“चाकू मूठ तक छाती में पैबस्त था। मैं नहीं समझता कि इतना फोर्सफुल वार कोई औरत कर सकती थी।”
“फिर उसने मरने से पहले मंगला क्यों कहा?”
“शायद कुछ और कहा जिसे तुमने मंगला समझा।”
“और क्या कहा?”
“क्या पता!”
“मुझे मंगला ही सुनायी दिया था। फिर ये भी तुम्हारी खामखयाली है कि कोई औरत चाकू का जोरदार वार नहीं कर सकती।”
“कातिल को औरत साबित करने में तुम्हारी कोई खास दिलचस्पी है।”
“अरे, नहीं, भई। कहां की बात को कहां ले उड़ते हो!”
“बैडरूम में एक बहुत कीमती हाई हील की सैंडलों का डिब्बा मौजूद था लेकिन डिब्बे में सैंडलें नहीं थीं। तुमने वो सैंडलें बाहर ड्रार्इंगरूम में कहीं देखी थीं?”
“नहीं। क्यों?”
“ताकि वैसी सैंडलों को तुम अपनी फर्जी कहानी में सजा पातीं!”
“नहीं। मुझे न ऐसी सैंडलों की खबर है, न डिब्बे की खबर है। मैं बैडरूम में नहीं गयी थी कि डिब्बा देख पाती। मैंने तो लाश से आगे कदम ही नहीं रखा था। फिर इतनी देर तो मैं वहां ठहरी ही नहीं थी कि बैडरूम का फेरा लगा पाती।”
“हूं। वो खाली डिब्बा मुझे हैरान कर रहा है। मर्द के पास कीमती जनाना सैंडलों का क्या काम! सिवाय इसके कि वो प्रेजेंटेशन आइटम थी, किसी मैडम जी के लिये कीमती तोहफा था। ये नहीं हो सकता कि मैडम जी ने तोहफा कुबूल किया लेकिन सैंडिलें ही कब्जार्इं, डिब्बा पीछे छोड़ दिया।”
“क्या पता सैंडलें उसने हाथ के हाथ पहन ली हों!”
“ठीक! वो फिर जो उतारी थीं, वो कहां गयीं? हैण्डबैग में रख लीं जबकि रखने के लिये डिब्बा उपलब्ध था?”
कियारा का सिर स्वयमेव इंकार में हिला।
“वो होटल का कमरा था। होटल के कमरे में सैंडलों के खाली डिब्बे की कोई तुक नहीं बनती। घर में तो लोगबाग डिब्बा अगर बढ़िया हो, मजबूत हो तो स्टोरेज के इस्तेमाल के मद्देनजर नहीं फेंकते। होटल के कमरे में खाली डिब्बे का क्या काम! डिब्बे पर बत्तीस हजार रुपये कीमत लिखी हुई थी। कोई मर्द इतनी कीमती जनाना आइटम गिफ्ट देने के लिये ही खरीद सकता है। पैकिंग बिना गिफ्ट का क्या मतलब?”
वो खामोश रही।
“लिपस्टिक कौन सी लगाती हो?”
उसने हड़बड़ा कर सिर उठाया।
“कोई नहीं।”—फिर बोली—“मैं लिपस्टिक नहीं लगाती।”
“होंठ तो चमक रहे हैं!”
“लिप ग्लौस लगाती हूं।”
“आई सी। लिपस्टिक लगाती ही नहीं हो?”
“कोई फार्मल ओकेज़न हो, शादी ब्याह हो, कोई पार्टी हो तो लगाती हूं। अमूमन नहीं लगाती।”
“लिपस्टिक रखती तो हो न?”
“हां।”
“कहां? हैण्डबैग में?”
“नहीं। हैण्डबैग में तभी जब पार्टी वगैरह में जाना हो, वर्ना यहां। ड्रेसिंग टेबल पर।”
“ड्रिंक करती हो?”
वो हिचकिचाई।
“ओ, कम आन।”
“रूटीन के तौर पर नहीं। कभी कभार। ऐज सोशल ड्रिंकर।”
“क्या?”
“वाइन। या वोदका।”
“विस्की नहीं?”
“नैवर।”
“अपने हाथ आगे करो।”
“क्या?”
“दोनों। आगे मेरे सामने फैलाओ।”
उसने निर्देश का पालन किया।
सुनील ने देखा उसके बायें हाथ की बीच की उंगली में सोने की अंगूठी थी जो कि जड़ाऊ नहीं थी। दायें हाथ की कलाई में सिर्फ एक लेडीज वाच थी। उसने सिर उठा कर उसके गले और कानों पर निगाह डाली तो पाया कानों में मामूली टॉप्स थे और गला खाली था।
“मुझे जेवरों का शौक नहीं।”—उसने जैसे उसके मन की बात भांपी।
“कमाल है!—सुनील बोला।
वो चुप रही।
“गुलेगुलजार, अब फाइनली बताओ कि जो कहा, जो अब कहा, सच कहा?”
“हां। ऐज गॉड इज माई जज, आई स्पोक दि ट्रुथ।”
“इस वक्त गॉड तुम्हारा जज नहीं है। इस वक्त मैं तुम्हारा जज हूं।”
“अब मैंने जो कहा है, सच कहा है।”
“ओके। आई बिलीव यू।”—वो उठ खड़ा हुआ—“गुड नाइट। स्वीट ड्रीम्स।”
“अब”—वो भी उठी—“अब क्या होगा?”
“अभी जो हुआ है, वो ठीक से समझ तो आ ले! फिर मालूम पड़ेगा क्या होगा!”
वो खामोश रही।
“एक आखिरी बात और। कत्ल के वक्त के आसपास पुलिस को होटल में तुम्हारी मौजूदगी की बाबत जानकारी हासिल हो सकती है।”
“ओ, नो।”
“मैंने कहा, हो सकती है। इसलिये तुम्हें नेक राय है कि पुलिस से झूठ बोलने से परहेज करना। खामखाह उन से झूठ बोलोगी तो अपना केस खराब करोगी।”
“उन्होंने मुझे...मुझे ही कातिल समझ लिया तो?”
“ऐसा हो सकता है। इस वजह से तुम्हें छोटी मोटी जहमत से भी गुजरना पड़ सकता है। लेकिन अन्तिम जीत हमेशा सत्य की होती है। अगर तुम बेगुनाह हो...”
“मैं हूं। बाई गॉड, मैं...”
“तो दुनिया की कोई ताकत तुम्हें गुनहगार साबित नहीं कर सकती। ओके?”
उसने कठिन भाव से सहमति में सिर हिलाया।
“एण्ड माइन्ड इट, एक अक्ल का अन्धा अभी भी तुम्हारी तरफ है।”
“वो...वो कौन हुआ?”
“सुनील भाई मुलतानी।”
���
0 Comments