तेरह दिन बाद।

दोपहर का डेढ़ बज रहा था।

धूप बहुत तेज थी। गर्मी से बुरा हाल हो रहा था। पसीना शरीर में बह रहा था। सड़क पर चलना, भट्टी में तपने जैसा था। जमीन जैसे गर्म होकर आग उगल रही थी। जो छत के नीचे थे, वो खुले में जाकर गर्मी में सड़ना नहीं चाहते थे, परन्तु जरूरी काम लोगों को इस गर्मी में भी दौड़ा रहा था।

मुंबई का समुद्र शांत था। सूर्य की तपिश ने समुद्र की ऊपरी सतह को गर्म कर रखा था। रह-रहकर समंदर का कोई हिस्सा धूप की रोशनी से की वजह से चमककर आंखों को चौंधिया देता था।

समुद्र से ढाई सौ मीटर दूरी पर वो सरकारी कॉटेजें बनी हुई थीं, जो सैलानी अपनी छुट्टियों को समुद्र के किनारे बिताना चाहते, समुद्र का मजा लेना चाहते थे, ये कॉटेज है उनके लिए थीं। किराया थोड़ा ज्यादा था, परन्तु मजा भी था। अपना बनाओ, अपना खाओ और घर जैसा मजा पाओ। एक तरफ दो मंजिला पक्का-सा मकान बना हुआ था। वो इन कॉटेजों का ऑफिस था। दिन में वहां आठ-दस लोगों का स्टाफ मौजूद रहता था और रात को कॉटेजों की निगरानी के लिए दो चौकीदार मौजूद होते और उस ऑफिस जैसे मकान में भी ड्यूटी पर दो लोग मौजूद रहते।

वो बहत्तर बरस का व्यक्ति था।

पतला चुस्त शरीर, लंबा कद। गाल, उम्र ने थोड़े से भीतर धकेल दिए थे। सिर के बाल पूरी तरह सफेद थे और अब उम्र का प्रभाव उसके चलने,-फिरने पर दिखने लगा था। इस वक्त उसने आधी बांह की सफेद कमीज और पैंट पहन रखी थी। कमीज के बटन पेट तक खुले थे। वो बीते दो दिन से इस कॉटेज में मौजूद था। जब से वो कॉटेज में आया था, तब से बाहर नहीं निकला था। खाने-पीने का सामान साथ लेता आया था। एक सप्ताह के लिए उसने कॉटेज किराए पर ली थी। इस वक्त कुर्सी पर आंखें बंद किए बैठा था। ये कॉटेज का छोटा-सा ड्राइंगरूम था।

एकाएक वो आंखें खोलकर उठा और कमरे में चहलकदमी करने लगा। चेहरे पर गंभीरता दिखाई दे रही थी। फिर वो समुद्र की तरफ खुलने वाली खिड़की की तरफ बढ़ गया। उसने खिड़की खोली तो सामने नीला समुद्र दूर तक दिखाई दिया। वो खिड़की पर कोहनियां रखे कुछ देर समुद्र को देखता रहा, फिर खिड़की को वैसे ही खुला छोड़ कर फ्रिज के पास पहुंचा और भीतर से बर्गर निकालकर, ठंडा ही खाने लगा।

तभी कॉटेज की बेल बजी।

वो ठिठक गया। उसका चलता मुंह थम गया। नजरें दरवाजे की तरफ उठीं। अचानक ही वो सतर्क दिखने लगा था। फिर एक हाथ में बर्गर थामें टेबल पर रखे टी•वी• के पीछे हाथ डालकर, वहां रखी रिवाल्वर उठाई और होंठ भींचे शांत ढंग से दरवाजे की तरफ बढ़ने लगा।

बेल पुनः बजी।

वो दरवाजे के पास पहुंच गया था और धीमे स्वर में बोला।

"कौन है?"

"मैं हूं।" जो आवाज आई उसे उसने फौरन पहचाना कि वो जगदीप भंडारे की आवाज थी।

उसके चेहरे पर अजीब से भाव उभरे। चंद पल ठिठका रहा।

"खोल...।" बाहर से पुनः आवाज आई जगदीप भंडारे की।

उसने बर्गर खाया और दरवाजे की सिटकनी हटाकर पीछे हो गया।

तभी दरवाजे के पल्लों को बाहर से धकेलकर खोला गया और जगदीप भंडारे भीतर आया। वो चालीस बरस का, पके चेहरे वाला, पांच फीट, पांच इंच का सेहतमंद व्यक्ति था। एक ही नजर देखने पर पता चल रहा था कि वो खतरनाक इंसान है। उसकी सदा लाल रहने वाली आंखें, उसके हाथ में दबी रिवाल्वर पर गई फिर पलटकर दरवाजा बंद किया।

"इस उम्र में भी तुम रिवाल्वर से खेलते हो।" जगदीप भंडारे मुस्कुराया।

उसने रिवाल्वर जेब में रखी और जगदीप भंडारे को घूरता रहा।

"और बर्गर पड़ा है?" जल्दी भंडारे में नजरें घुमाते बोला--- "मैंने तो आज नाश्ता भी नहीं किया।"

"फ्रिज में है।" उसने गंभीर स्वर में कहा।

जगदीप भंडारे फ्रिज की तरफ बढ़ गया।

वो भंडारे को देखे जा रहा था।

"तुमने मुझे कैसे ढूंढा?" उसने उस पर निगाहें टिकाए कहा।

"मुझे लगा तुम यहीं मिलोगे। पांच साल पहले भी एक बार जब  तुम्हारे सिर पर मुसीबत आई थी तो तुम छिपने के लिए यहीं आ गए थे।" जगदीप भंडारे फ्रिज से बर्गर निकालकर पलटा और उसे देखता हुआ मुस्कुराकर बोला--- "भंडारे के लिए बाबू भाई सोनेवाला को ढूंढ लेना कठिन काम नहीं है। आखिर हम पन्द्रह सालों से साथ काम कर रहे हैं।"

बाबू भाई सोनावाला ने गहरी सांस ली और कुर्सी पर जा बैठा।

"तुमने भी मोबाइल भी बंद कर रखा है।" भंडारे ने कहा।

"खोल कर क्या करना?"

"डर रहे हो।" भंडारे हौले से हंसा।

"मैं क्यों डरूं।" बाबू भाई के होंठ भिंच गए--- "मैं सिर्फ प्लानर था। वो योजना मेरी थी। जैसे कि हमेशा ही होती है। योजना बनाने का काम हमेशा ही मेरा रहा है, परन्तु काम में मैं हिस्सेदारी नहीं करता। ऐसे में काम के दौरान जो भी गड़बड़ हो, उसकी जिम्मेदारी मुझ पर नहीं आती।"

"तो फिर यहां क्यों आ छिपे?" भंडारे व्यंग्य से कह उठा।

बाबूभाई, भंडारे को देखता रहा फिर गंभीर स्वर में कह उठा---

"तुमने बहुत गलत किया भंडारे!"

"मैंने कुछ भी गलत नहीं किया और तुम्हें तो पहले ही बता दिया था कि मैं ऐसा करने वाला हूं।"

"तुमने गलत किया। सबको अपने जाल में लपेट लिया।"

"मैं किसी की परवाह नहीं...।"

"देवराज चौहान की परवाह तुम्हें करनी चाहिए। वो डकैती मास्टर देवराज चौहान है और वक्त आने पर खतरनाक हो जाता है। मैंने तुम्हें सतर्क किया था कि देवराज चौहान से धोखा मत करना। वो तुम्हें छोड़ेगा नहीं।"

"बोला तो बाबू भाई, मैं देवराज चौहान की परवाह नहीं करता। फिर जब एक सवाल एक सौ अस्सी करोड़ की दौलत का हो तो परवाह करने का सवाल ही पैदा नहीं होता।" भंडारे की आवाज में खतरनाक भाव आ गए थे--- "इस दौलत से मेरी सारी जिंदगी मजे से कटेगी। तुम्हें भी इतना दे दूंगा कि बाकी की उम्र तुम...।"

"उसकी जरूरत नहीं...।" बाबू भाई ने शांत गम्भीर स्वर में कहा।

"क्यों? जरूरत क्यों नहीं?"

"डकैती मास्टर देवराज चौहान बहुत जल्द तुम तक पहुंच जाएगा।"

भंडारे, बाबू भाई को घूरने लगा।

"तुम खुद ही सोचो कि देवराज चौहान इस वक्त क्या कर रहा होगा। वो पागलों की तरह मुंबई छानता तुम्हें तलाश कर रहा होगा। मैंने तो सोचा था कि तुम सारी दौलत के साथ मुंबई से बाहर चले गए होगे।"

"इतना आसान नहीं है।" भंडारे ने होंठ सिकोड़े।

"तुम्हारे लिए क्या समस्या है?"

"अंडरवर्ल्ड डॉन वागले रमाकांत और हवाला किंग अशोक गानोरकर को क्यों भूल रहे हो।"

बाबू भाई चंद पल चुप रहकर बोला---

"उस वक्त पैसा किसकी कस्टडी में था?"

"किसी की भी नहीं। अशोक गानोरकर के आदमी मौजूद थे और वागले रमाकांत का खास आदमी उदय लोहरा वहां मौजूद था। उसी की निगरानी में नोटों की गड्डियों की गिनती जारी थी। एक तरह से पैसा दोनों पार्टियों के हाथों से लिया गया। मुंबई के हालात ये हैं कि वागले रमाकांत और अशोक गानोरकर के आदमी सारी सड़कों पर बिछे हमारी तलाश...।"

"उन्हें पता चल गया कि ये काम हमने किया है?"

"मालूम नहीं। पता नहीं चला तो चल जाएगा। उनके हाथ लंबे हैं।" भंडारे बोला।

"वो हम तक पहुंच गए तो जानते हो हमारा क्या अंजाम होगा। कुत्ते की मौत मारने से पहले वो अपना पैसा वसूल करेंगे। इनसे तो दुश्मनी मोल ली ही। लेनी ही थी। इनका पैसा जो ले उड़े हम, ऊपर से देवराज चौहान...।"

"तुम देवराज चौहान से इतना डर क्यों रहे हो?" भंडारे हौले से हंसा--- "शायद इस उम्र में तुम्हें डर लगना, उम्र का तकाजा है। कमजोर और बूढ़े हो गए हो तुम।"

बाबू भाई ने गम्भीर निगाहों से भंडारे को देखा और बोला---

"मैं कृष्णा पांडे से डरा?"

"बाबू भाई तुम...।"

"जवाब दो। मैं कृष्णा पांडे से डरा?"

"नहीं...।"

"जैकब कैंडी से डरा?"

"नहीं...।"

"मोहन्ती से डरा?"

"नहीं, लेकिन तुम...।"

"तो देवराज चौहान को लेकर मैं क्यों डर रहा हूं। क्यों यहां आ छिपा हूं...।" बाबू भाई सोनावाला भंडारे को देख रहा था।

"लेकिन तुम देवराज चौहान से क्यों डर रहे हो। तुमने तो कुछ नहीं किया। मैंने किया है और मैं...।"

"तुमने मुझे पहले ही बता दिया था कि तुम क्या करने वाले हो।"

"तो?"

"मैं अंजाने में तुम्हारी प्लानिंग में शामिल हो गया, क्योंकि मैं जान चुका था कि तुम क्या करने का इरादा बनाए हुए हो और इस बारे में, किसी से बात करने की मेरी हिम्मत नहीं हुई। तुम्हारे साथ मेरा सबसे पुराना संबंध है। मैंने मुंह बंद रखा और तुम अपनी कर गए। देखा जाए तो देवराज चौहान, कृष्णा पांडे और जैकब कैंडी और मोहन्ती के लिए मैं तुम्हारे बराबर का गुनहगार हो गया और...।"

"मेरे अलावा तो ये बात किसी को नहीं पता कि तुम जानते थे कि मैं डकैती के फौरन बाद क्या करने जा रहा हूं और किसी को पता चलेगी भी नहीं।"

"देवराज चौहान को तुम ठीक से जानते नहीं भंडारे। मैंने अपनी जिंदगी में हमेशा देवराज चौहान के बारे में खबर रखी है। उसे अच्छी तरह जाना है कि वो खतरनाक इंसान है। सबसे बड़ी बात तो ये है कि उसे नहीं पसंद कि कोई उसे धोखा दे, जबकि तुमने बहुत सफाई से उसे धोखा दे दिया।"

"मैं देवराज चौहान की जरा भी चिंता नहीं कर रहा...।"

"मरेगा तू जल्दी ही।" बाबू भाई शांत स्वर में कह उठा।

भंडारे दांत भींचकर, बाबू भाई को देखने लगा।

"जगमोहन को कहां रखा है?" बाबू भाई ने पूछा।

"बहुत संभाल के रखा है?" भंडारे एकाएक मुस्कुराया।

बाबू भाई, भंडारे को कुछ पल देखता रहा फिर बोला---

"तूने शेर के मुंह में हाथ डाल दिया है।" स्वर में गंभीरता थी--- "देवराज चौहान को धोखा ही नहीं दिया, उसके खास साथी को पकड़कर बैठा लिया। ये पागलपन है।"

"जरूरी था बाबू भाई! मैंने इस बारे में पहले ही पूरी प्लानिंग कर ली थी। मैं जानता था कि देवराज चौहान से टक्कर ले रहा हूं इसलिए अपने बचाव का भी इंतजाम करके रखना था। ताकि कभी बाजी पलटे तो मैं सुरक्षित रहूं...।"

"अपने बचाव के लिए जगमोहन को आगे कर देगा।"

"जब तक जगमोहन मेरे पास है, देवराज चौहान मुझ पर हाथ डालने की हिम्मत नहीं कर सकता।"

"तो फिर देवराज चौहान से बचता क्यों फिर रहा है, उसके सामने जा।"

"क्या जरूरत है। काम तो बढ़िया चल रहा है मेरा।" भंडारे हंसा--- "तगड़ा झटका दिया मैंने देवराज चौहान को।"

"वो तेरे तक पहुंच गया तो जगमोहन को पा लेगा।"

"जगमोहन मेरे पास नहीं है।"

"तो?"

"मैं मुंबई से खिसकने जा रहा हूं जबकि जगमोहन मुंबई में मेरे चार आदमियों की निगरानी में कैद रहेगा। हर तीन दिन बाद उन्हें मैं फोन करूंगा। सब समझा दिया है। अगर कभी तीसरे दिन फोन उन्हें ना पहुंचा तो वो जगमोहन को मार देंगे।" भंडारे ने कड़वे स्वर में कहा--- "ऐसे में देवराज चौहान मुझ पर हाथ डालने की हिम्मत नहीं कर सकता।"

"तुमने सबको अपना दुश्मन बना लिया।"

"तुम्हें नहीं बनाया।"

"कृष्णा पांडे, जैकब कैंडी, मोहन्ती, वो भी तुम्हें ढूंढ रहे होंगे।"

"वो बस ढूंढते ही रहेंगे।"

"वो भी कम खतरनाक नहीं।"

"मुझे किसी की भी परवाह नहीं है बाबू भाई...।"

बाबू भाई सोनावाला ने गहरी सांस ली, फिर उठकर उस खिड़की की तरफ बढ़ गया जो समुद्र की तरफ खुली हुई थी। वहां खड़ा होकर वो समुद्र को देखते कह उठा---

"तुम्हें मेरे पास नहीं आना चाहिए था इन हालातों में...।"

"एक सौ अस्सी करोड़ में से तुम्हारे लिए बीस करोड़ लेकर आया हूं।"

बाबू भाई पलटा और खिड़की से टेक लगाकर भंडारे को देखने लगा।

"तुम्हारी जिंदगी बीत जाए, उसके लिए बीस करोड़ काफी रहेंगे। तुमने काफी पैसा जमा कर रखा है। पन्द्रह सालों से मैंने तुम्हारे साथ कभी हेरा-फेरी नहीं की। करता भी कैसे। तुमने बढ़िया दिमाग पाया है। काम को हमेशा ही प्लान तुमने किया और अंजाम मैंने दिया। जरूरत के आदमियों को मैं ही इकट्ठा करता था।सलाह तुमसे ले लेता था। तुम न होते तो मैं आज दौलतमंद न होता।"

"तुमनेसोच रखा था कि 180 करोड़ हाथ आने पर तुमने सब को धोखा देना है तो इस काम में देवराज चौहान को ना लेते।"

"तुमने ही तो कहा था बाबू भाई कि इस काम में एक बंदा ऐसा होना चाहिए जो वक्त आने पर सब संभाल ले। संभाल भी लिया देवराज चौहान ने। उसके इस मामले में आते ही मैं निश्चिंत हो गया था कि काम पूरा हो जाएगा।"

"अस्सी करोड़ तुमने देवराज चौहान और जगमोहन को देने का वादा किया था।" बाबू भाई बोला।

"वो सिर्फ वादा था। मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं था।"

"तुम देवराज चौहान से जरा भी नहीं डर रहे।"

"मैं देवराज चौहान की परवाह नहीं कर रहा। जगमोहन मेरी कैद में है ऐसे में देवराज चौहान मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता।"

"ये तुम्हारा मामला है। तुम्हें ही निपटना होगा।" बाबू भाई ने शांत स्वर में उसे देखते हुए कहा।

"मैं तुम्हारी बीस करोड़ की दौलत तो भीतर ले आऊं। बाहर कार में रखी है।" भंडारे ने मुस्कुराकर कहा और पलटकर दरवाजा खोलते हुए बाहर निकल गया।

बाबू भाई पलटा और पुनः खिड़की से समुद्र को देखने लगा। उसकी आंखों के सामने कभी-कभार देवराज चौहान का चेहरा नाच उठता था। चेहरे पर गंभीरता दिखाई दे रही थी।

तीन-चार मिनट बाद दरवाजे पर आहट हुई।

बाबू भाई पलटा।

भंडारे फुल साइज का पहिए लगा सूटकेस खींचता भीतर ले आया था। उसके बाद बाहर निकल गया और इसी प्रकार दूसरा सूटकेस खींचता ले आया और तीसरे चक्कर में एक एयर बैग भीतर लाकर रख दिया, जो कि ठसाठस भरा हुआ था। फिर भंडारे ने दरवाजा बंद किया और पलटकर बोला---

"पूरा बीस करोड़ है। मैंने गिनकर सारा पैसा रखा है। मैंने तुमसे हेरा-फेरी नहीं की। तुम्हें ढूंढकर, तुम्हारा हिस्सा देने आ गया। इसी से स्पष्ट है कि मैं बेईमान नहीं हूं...।" भंडारे के चेहरे पर मुस्कान थी।

"देवराज चौहान तुम्हारे बारे में क्या सोच रहा होगा?"

"वो भाड़ में जाए। मैं उसकी परवाह नहीं करता।" कहने के साथ ही वो सूटकेसों को खोलने लगा।

"क्या कर रहे हो?"

"बीस करोड़ के दर्शन तो कर लो...।" भंडारे हौले से हंसा।

"तुम पर भरोसा है।"

"मैं भरोसे की नहीं, दर्शनों की बात कर रहा हूं। इस बार हमने बड़ा हाथ मारा।"

भंडारे में दोनों सूटकेस खोले।

बैग खोला।

हजार-हजार के नोटों की लाल गड्डियां चमक उठीं।

बाबू भाई ने गड्डियों को देखते ही हौले से सिर हिलाया फिर भंडारे को देखा।

"कैसा लगा?"

"अच्छा लगा कि तूने मुझे याद रखा और बीस करोड़ ले आया। मैंने भी हमेशा तेरा भला चाहा है।"

"हम पन्द्रह सालों से जुड़े हुए हैं। हमेशा मिलकर काम किया।"

"तो मुंबई से जा रहा है भंडारे...?"

"हां जब भी मौका लगा। दौलत के साथ निकल जाऊंगा। लेकिन तेरी हमेशा याद आएगी।"

बाबू भाई उसे देखकर पहली बार मुस्कुराया फिर मुस्कान लुप्त हो गई।

"अकेला जा रहा है या रत्ना मित्तल के साथ?"

भंडारे ने उसे देखा फिर गंभीर स्वर में कह उठा---

"तुम तो जानते ही हो कि रत्ना मेरी जान है।"

"तो उसे भी साथ ले जा रहे हो?"

"ले जाना है, परन्तु कैसे ले जाना है ये अभी प्लान नहीं किया। हालात के हिसाब से काम करूंगा। या तो मैं पहले निकल जाऊंगा और रत्ना को बाद में बुलाऊंगा। शायद उसे साथ भी ले लूं। अभी कुछ भी पक्का नहीं है।"

"रत्ना सब जानती है कि तूने देवराज चौहान को धोखा दिया है। सबको धोखा दिया और...।"

"तुम्हें पता तो है ही कि मैं रत्ना से कुछ भी नहीं छुपाता।" भंडारे ने लापरवाही से कहा।

"तो ये हमारी आखिरी मुलाकात है।" बाबू भाई ने सिर हिलाया।

"चलूंगा अब...।" भंडारे अपना दायां हाथ माथे तक ले गया सैल्यूट की मुद्रा में और मुस्कुराया।

"देवराज चौहान से संभलकर रहना।"

"हो सकता है देवराज चौहान मेरे हाथों से मरे। मेरे रास्ते में आया तो छोड़ूंगा नहीं। तुम्हें उसकी मौत की खबर कहीं-ना-कहीं से मिल ही जाएगी। परन्तु ऐसा नहीं होगा। वो मुझे कभी भी ढूंढ नहीं पाएगा।" भंडारे ने विश्वास भरे स्वर में कहा।

"भगवान करे, ऐसा ही हो।"

"तुम भी मुंबई से खिसक क्यों नहीं जाते?"

"कहां भागूंगा मैं। मेरी उम्र आराम करने की है। अब आराम से बैठूंगा।" बाबू भाई ने कहा।

"मर्जी तुम्हारी...।" भंडारे ने आगे बढ़कर बाबू भाई को गले से लगाया फिर विदा लेकर बाहर निकल गया।

कार स्टार्ट होने फिर उसके दूर जाने की आवाज आई।

बाबू भाभी ने अपना मोबाइल उठाया और स्विच ऑन करने के बाद बलबीर सैनी का नंबर मिलाने लगा। फिर मोबाइल कान से लगा लिया। लंबी बेल जाने के बाद बलबीर सैनी की फुसफुसाती आवाज कानों में पड़ी---

"हैलो...।"

"बलबीर...।" बाबू भाई ने गंभीर स्वर में कहा।

"बाबू भाई। तुम हो...?"

"हां...।"

बलबीर सैनी के गहरी सांस लेने की आवाज कानों में स्पष्ट पड़ी।

"गजब हो गया बाबू भाई! वागले रमाकांत और अशोक गानोरकर के आदमी पागल हुए मुंबई में घूम रहे हैं। उनके हाथ से कोई पैसा छीनकर ले जा सकता है, ये तो वो सोच भी नहीं सकते थे। तुम्हारे आदमियों ने अच्छा काम किया। मैंने काफी कुछ देखा। तब मैं वहां से दूर था, पर मैंने देखा। लेकिन मैं मुसीबत में पड़ गया। ये बात उन लोगों को पता चल गई है कि मैंने उनका प्रोग्राम जानकर बात बाहर की। वो मुझे ढूंढ रहे हैं।"

"तुम कहां हो?"

"छिपा पड़ा हूं।"

"वागले रमाकांत या गानोरकर को हमारे बारे में पता चला?"

"मेरे ख्याल में अभी तो नहीं। पर उन्हें पता चल जाएगा। उनके हाथ लंबे हैं। मेरी तो बज गई बाबू भाई...।"

बाबू भाई के चेहरे पर सोच के भाव रहे।

"तुमने मुझे मेरा एक परसेंट देने के लिए फोन किया?" बलबीर सैनी की आवाज आई।

"हां।" बाबू भाई ने सोच भरे स्वर में कहा--- "वो तो तेरे को देना ही है। कब लेगा?"

"अभी बाहर निकलने में खतरा है। अभी आऊं क्या?"

"मैं तेरे को फिर फोन करूंगा।"

"ठीक है, जल्दी करना। वहां बाद में क्या हुआ। मैं दूर से सब देख रहा था। भंडारे बाकी लोगों के साथ गाड़ी में वहां से निकल गया। बाद में भीतर से एक शख्स निकला और गाड़ी ना खड़ी पाकर एक तरफ भाग गया। क्या हुआ था?"

"कुछ नहीं हुआ। तू अपना ध्यान रख। जल्दी मिलेंगे।"

"मेरे एक सौ अस्सी करोड़ के साथ ना?"

"हां।" वागले रमाकांत या गानोरकर के हाथ में नहीं आना। छिपे रहना...।"

"वो तो मैं बहुत ध्यान रख रहा हूं...।"

बाबू भाई ने फोन बंद करके जेब में रखा और खिड़की से बाहर समुद्र को देखा फिर खिड़की से हटा और आगे बढ़कर दरवाजा बंद किया। उसके बाद खुले दोनों सूटकेसों को और बैग को बंद किया फिर ए•सी• ऑन करके कुर्सी पर आ बैठा। चेहरे पर सोच और गंभीरता दिखाई दे रही थी। अपनी सोचों से वो देवराज चौहान को नहीं निकाल पा रहा था। आंखें बंद कर लीं फिर धीरे-धीरे उस वक्त में जा पहुंचा जब ये मामला शुरू हुआ था। उस दिन उसे अपने मुखबिर बलबीर सैनी का फोन आया था।

"हैलो...।" बेल बजने पर बाबू भाई ने बात की थी।

"बाबू भाई...!" उधर से बलबीर सैनी बोला--- "तेरे काम की खबर है।"

"बोल...।"

"ऐसे नहीं। कीमत की बात कर। खबर भारी है।"

"ये तो तू कहता है कि खबर भारी है, क्या पता मेरे लिए वो बेकार हो।"

"खबर भारी है तुम्हारे लिए।"

"बता।"

"ये दस-बीस या पचास हजार या लाख वाली खबर नहीं है।" बलबीर सैनी की आवाज कानों में पड़ी।

बाबू भाई ने होंठ सिकोड़े। बोला---

"कितने वाली खबर है?"

"दस लाख तो जरूर लूंगा इस खबर के।"

"ये ज्यादा है सैनी!"

"मैंने कम मांगा है। बढ़िया पार्टी तो एक करोड़ भी दे देगी। तेरा-मेरा पुराना रिश्ता है, इसलिए...।"

"कहां मिलता है?"

"जहां छः महीने पहले मिले थे। उसी रेस्टोरेंट में...। दस लाख साथ में लाना।"

"साथ में?"

"बड़ी रकम है ना दस लाख। इसलिए उधार नहीं चलेगा।"

"अगर तेरी खबर मेरे काम की नहीं हुई तो?" बाबू भाई ने पूछा।

"तो दस लाख मत देना।"

"दो घंटे बाद उसी रेस्टोरेंट में मिलेंगे।" बाबू भाई ने कहा और मोबाइल एक तरफ रख दिया।

बाबू भाई के चेहरे पर सोच के भाव थे। उसका बूढ़ा चेहरा शांत था कई मिनटों तक वो कुर्सी पर बैठा रहा, फिर सिर हिलाकर सोचों से बाहर निकला और उठ खड़ा हुआ।

■■■

बलबीर सैनी।

उम्र चालीस बरस। सामान्य-सी कद-काठी। देखने वाला उसे किसी दफ्तर में काम करने वाला समझता। दब्बू-सा लगता था वो परन्तु अंडरवर्ल्ड का कीड़ा था। आदत के मुताबिक हर जगह उसे मुंह मारते देखा जा सकता था और अपने काम की ऐसी खबर ढूंढता था कि जिसे आगे बेचकर नोट कमा सके। ये खतरे वाला काम था और कई बार उसकी जान जाते-जाते बची थी। परन्तु यही काम उसे आसान लगता था। उसने बाबू भाई जैसे कई लोगों से यारी कर रखी थी कि काम की खबरें उन्हें बेचता रहे। परन्तु ये काम वो ईमानदारी से करता था। एक खबर को एक ही व्यक्ति के पास बेचता था। वो जानता था कि एक खबर को दो को बेची तो जिंदा नहीं बचेगा। इस बुरे धंधे में ईमानदारी की बहुत जरूरत थी। वरना बेईमान बंदे का तो पता ही नहीं चलता था कि वो अचानक कहां गायब हो गया।

बलबीर सैनी ने रेस्टोरेंट में प्रवेश किया शाम के चार बज रहे थे। बहुत कम लोग थे वहां। बाबू भाई सोनावाला उसे एक खाली टेबल पर बैठा नजर आया तो उसकी तरफ बढ़ गया। बाबू भाई ने काली पैंट और चार खाने वाली सफेद शर्ट पहन रखी थी। शेव कर आया था वो। सिर के बाल आगे से बीस प्रतिशत गायब थे और जो बचे थे वो सफेद थे।

बलबीर सैनी पास पहुंचकर मुस्कुराया और कुर्सी खींचकर बैठ गया।

दोनों बाप-बेटे जैसे लग रहे थे।

"दस लाख मुझे नजर नहीं आ रहे। उसके बिना तो हमारा बात करना बेकार है।" बलबीर सैनी बोला।

बाबू भाई ने बगल की कुर्सी पर रखा एक लिफाफा उठाकर उसे दिखाया। टेबल बीच में आने की वजह से कुर्सी की सतह छिप गई थी और वो लिफाफा नजर नहीं आ रहा था।

"लिफाफे के भीतर क्या है?" बलवीर सैनी मुस्कुराया।

"देख लो...।"

बलबीर ने हाथ बढ़ाकर लिफाफा लिया और खोलकर भीतर देखा।

भीतर पांच सौ के नोटों की गड्डियां भरी दिखीं।

"रख लूं?" बलबीर ने बाबू भाई को देखा।

"मुंह में पानी आ गया? मुझे दो।" बाबू भाई ने कहा।

बलबीर ने उसे लिफाफा दिया तो बाबू भाई ने लिफाफा पुनः बगल की कुर्सी पर रख दिया।

"तुम्हें ये नहीं कहना चाहिए था कि दस लाख के साथ तुमसे मुलाकात करूं। हम पुरानी पहचान वाले हैं।"

"खबर ही ऐसी है। तुम सुनोगे तो...।"

"पहले मेरी बात सुन सैनी!" बाबू भाई ने गंभीर स्वर में कहा--- "बहत्तर साल का हो गया हूं। अब ये काम-धंधा मेरे बस का नहीं रहा। पैसा भी इतना तो है ही कि जिंदगी बिता सकूं। मुझे अब आराम से रहना चाहिए। परन्तु अगर कोई आखिरी काम ज्यादा नोटों वाला मिलता है तो कर लूंगा। बस आखिरी काम।"

"जो मैं बताने वाला हूं उसमें नोट-ही-नोट हैं।" बलबीर मुस्कुराया।

"हाथ मारने की गुंजाइश भी है या नहीं?"

"ये तो तुम पर है। मेरा काम तो खबर देना है।"

"बता खबर।"

"बताने से पहले मेरी शर्त है कि माल का एक परसेंट मुझे मिलेगा।"

"एक परसेंट?" बाबू भाई की आंखें सिकुड़ी।

"सिर्फ एक परसेंट।" बलबीर मुस्कुराया।

"ऐसा पहले तो कभी नहीं हुआ। खबर की कीमत चुकाने पर, हममें बात खत्म हो जाती है।"

"वो एक परसेंट मेरी जिंदगी बना देगा।"

"तो काफी मोटी दौलत का मामला है।"

बलबीर सैनी उसे देखता खामोश रहा।

"सैनी!" बाबू भाई ने कहा--- "तेरे को एक परसेंट देना है या नहीं, ये बात मैं तय नहीं कर सकता। जो काम को अंजाम देंगे वो ही इस बारे में फैसला करेंगे। मैं तो सिर्फ काम का प्लानर रहूंगा, हर बार की तरह...।"

"भंडारे से काम लेगा तू बाबू भाई। वो तेरा पुराना है। तू मेरे एक परसेंट की बात करेगा तो वो टालेगा नहीं।"

"जो भी हो, हां तो उसी ने करनी है।"

"तू बात करेगा?"

"कर लूंगा।"

"एक परसेंट का एक करोड़ अस्सी लाख बनेगा।"

"मतलब कि एक सौ अस्सीकरोड़ का मामला है?" बाबू भाई सोनावाला संभला।

बलबीर सैनी ने गंभीरता से सिर हिलाया।

"ठीक है।" बाबू भाई ने फौरन कहा--- "सफल होने पर तेरे को एक करोड़ अस्सी लाख मिलेगा।"

"वादा?"

"वादा।"

तभी वेटर पास आ पहुंचा।

"पापा, कुछ खाने का मन है?" वेटर के सामने बलबीर सैनी बाबू भाई को पापा कहकर बोला था।

"मैंने भी आज लंच नहीं किया। भूख भी लग रही है। लेकिन ज्यादा भारी खाने को नहीं मंगाना।"

बलबीर सैनी ने वेटर को आर्डर नोट कराया।

वेटर चला गया तो बाबू भाई ने कहा---

"मामला बता कि एक सौ अस्सी करोड़ का क्या चक्कर है?"

"दौलत बड़ी है ना?"

"बात आगे बढ़ा...।" बाबू भाई की निगाह उसके चेहरे पर जा टिकी।

"दुबई से अतार अली हवाला के जरिए एक सौ अस्सी करोड़ की पेमेंट ग्यारह दिन बाद मुंबई में दे रहा है।"

"अतार अली?" बाबू भाई बोला--- "वो तो ड्रग्स स्मगलर है। वो भला किसे पेमेंट देगा?"

"वागले रमाकांत को। मुंबई अंडरवर्ल्ड डॉन को। वागले रमाकांत ने हथियारों का सौदा किया है दुबई में बैठे अतार अली से। अतार अली ने उन हथियारों का सौदा पाकिस्तान के एक आतंकवादी संगठन से किया है। अतार अली के कहने पर ही पाकिस्तान का वो आतंकवादी संगठन, अतार अली की तरफ से एक सौ अस्सी करोड़ की नकद पेमेंट मुंबई में वागले रमाकांत को दे रहा है। ग्यारह दिन बाद वरसोवा के दाऊद मेंशन में। चौथी मंजिल पर अंबे पेपर एजेंसी के ऑफिस में। हवाला का सबसे बड़ा कारोबारी अशोक गानोरकर ये पेमेंट वागले रमाकांत को देगा। ग्यारह दिन बाद। सही वक्त एक दिन पहले बता दूंगा। गुप्त खबर है ये। तुम जानते ही हो कि ऐसी बातें बाहर कभी नहीं आतीं। परन्तु मुझे किसी तरह खबर लग गई। इस मामले में मेरा नाम ना आए। वरना मैं जिंदा नहीं रहूंगा। वे मुझे मार देंगे। वहां पर पैसा कब इकट्ठा होगा, ये भी मैं एक दिन पहले बता दूंगा। लेकिन ये आसान काम नहीं है। अशोक गानोरकर कोई शरीफ आदमी नहीं है। वो खतरनाक है। उधर अंडरवर्ल्ड डॉन वागले रमाकांत का खास आदमी ही शायद पेमेंट लेने आएगा। जानते ही होंगे तुम उसे, उसका नाम उदय लोहरा है। उदय लोहरा अपने आप में दरिंदा माना जाता है। काम तुमने करना है, तुम जानो। अगर खबर काम की नहीं लगती तो कह दो और अपना मुंह बंद रख लो। मैं ये खबर किसी और को बेच देता हूं।"

बाबू भाई के चेहरे पर गंभीरता दिखने लगी थी। उसने बगल वाली कुर्सी से दस लाख के नोटों से भरा लिफाफा उठाया और टेबल के ऊपर से उसकी तरफ बढ़ाया।

"रख लो। खबर मेरी हुई...।"

बलबीर सैनी ने थैला थामकर पैरों के पास ही कुर्सी पर रख लिया।

"अगर कामयाब रहे तो एक परसेंट मुझे देना होगा।" बलबीर बोला।

"जरूर...।"

"तुम एक परसेंट का वादा कर रहे हो मुझसे...।"

"हां...।"

"अगर जगदीप भंडारे ना माना तो?"

"इस एक परसेंट से उसका कोई मतलब नहीं, सफल होने पर तुम्हें मैं दूंगा।"

"ये बढ़िया बात रही। मुझे तुम पर भरोसा है बाबू भाई...!"

तभी वेटर आर्डर का सामान टेबल पर लगा गया।

दोनों खाने में व्यस्त हो गए।

दोनों ही गंभीर दिख रहे थे।

"अब इस मामले में मेरा नाम कहीं भी नहीं आना चाहिए...।" बलबीर बोला।

"नहीं आएगा।"

"अच्छा होगा कि तुम भंडारे से ये कहो ही नहीं कि मैंने तुम्हें कुछ बताया है। इस तरह मैं सुरक्षित रहूंगा।"

"नहीं कहूंगा।"

बलबीर के चेहरे पर तसल्ली के भाव उभरे...।

"ये काम आसान नहीं है। खतरे वाला काम है एक तरफ हवाला किंग अशोक गानोरकर है तो दूसरी तरफ अंडरवर्ल्ड किंग वागले रमाकांत। इन दोनों के बीच से पैसा निकाल ले जाना, छोटी बात नहीं होगी।"

बाबू भाई खाने में लगा रहा।

"ये भी हो सकता है कि मुझे दिया तुम्हारा दस लाख बेकार हो जाए या काम असफल रहे। तुम लोग मारे जाओ।"

"तुम्हारा काम खत्म हुआ सैनी...!"

"हां...।" सैनी ने खाते-खाते सिर हिलाया।

"तुमने अब मुझे ये बताना है कि पैसा कब वहां इकट्ठा होगा। कैसे वे लोग लेन-देन करेंगे। कब करेंगे।"

"ये बात मैं तुम्हें वक्त रहते बता दूंगा।" सैनी ने गंभीर स्वर में कहा।

"खबर किसी और को बेचने की शरारत मत कर बैठना।" बाबू भाई ने शांत स्वर में कहा।

"क्या बात करते हो। मैंने आज तक किसी को धोखा नहीं दिया।"

"तभी तो जिंदा हो।"

"तुम ये बात जगदीप भंडारे को मत कहना कि ये खबर तुम्हें मुझसे मिली है।"

"बाबू भाई पर पूरा भरोसा रखो।"

"भरोसा है।"

■■■

रत्ना मित्तल दर्द निवारक गोली की तरह थी, यानि कि ऐसी जिसे देखते ही दुनिया भर की परेशानियां दूर हो जाएं। सांवला रंग, लंबा कद, तीखे नैन-नक्श कि देखने पर इंसान को लगता वो कहीं खो गया है। मुस्कुराती तो उसके ऊपरी दांतों की लड़ी चौगुना कर देती उसकी खूबसूरती को। नाक की बाली, उसके चेहरे की खूबसूरती को और भी बढ़ा रही थी। पंखुड़ियों की तरह फूले-फूले होंठ, नुकीली ठोड़ी, ये सब देखते ही बनता था। उसकी छातियों का उभार सामान्य था और वो युवती की तरह लगती थी, परन्तु उसके कूल्हे उत्तेजक थे। जब वो चलती तो उसके कूल्हों की चाल गजब ढाती थी और अगर किसी को देखकर मुस्कुरा दे तो कहना ही क्या।

कुल मिलाकर वो दर्द निवारक गोली की तरह थी।

वो ऐसी थी कि मर्दो के बीच पहुंचकर हलचल मचा दे।

सत्ताईस बरस की थी वो और इतने की ही लगती थी। पलकें झपकाकर जब सामने वाले को देखती तो, फिदा हो जाता था सामने वाला। परन्तु शुरू से ही उसके सामने जगदीप भंडारे रहा था। जगदीप भंडारे से उसका दस साल पुराना साथ था। अब तक उसने एक ही मर्द देखा था और वो भंडारे ही था। ऐसी दर्द निवारक गोली को मर्दों की कमी नहीं थी, जैसे कि अब सदाशिव उसकी जिंदगी में उसकी एक हां पर आ गया था।

दस साल पहले पूना में रहने वाले उसके चाचा ने उसे बेच दिया था। वो बारह की थी कि मां-बाप एक्सीडेंट में मर गए थे उसके बाद शराबी चाचा ने उसे पाला। चाची उसे जरा भी पसंद नहीं करती थी, क्योंकि वो खूबसूरत थी। चाची उसके साथ जब बाहर निकलती तो सब उसे ही देखते। चाची को कोई भाव ना देता। उसके सामने चाची को लगता वो बेकार है। इस समस्या के अलावा, चाची को अपने आदमी से समस्या थी कि दिन हो या रात, हर समय शराब के नशे में घर पर पड़ा रहता। अब तो उसने और भी कोई नशा करना शुरू कर दिया था।

घर का खर्चा चाची ही चलाती थी। वो क्या करती थी, ये तो पता नहीं। सुबह जाती और रात को घर लौटती। कभी-कभी तो रात को जाती और अगले दिन सुबह लौटती।

चाचा को नशा करने के अलावा कोई दूसरा काम नहीं था।

और रत्ना जब सत्रह की हुई तो किसी बम के गोले से कम नहीं लगती थी। एम दिन चाची दो आदमियों को घर लाई। रत्ना को दिखाया। वो दोनों आदमी चले गए। अगले दिन चाचा, रत्ना को ले गया और उन्हीं दो आदमियों के पास एक कार में छोड़कर आ गया। तब भी वो नशे में टुन्न था। चाची ने रत्ना को पांच लाख में बेच दिया था और चाचा ने इस काम को पूरा किया था।

इस तरह रत्ना मुंबई पहुंची। कॉलगर्ल्स रैकेट के घेरे में वो फंस चुकी थी। एक औरत संचालन करती थी उस सारे धंधे का। उसने रत्ना को स्पष्ट बताया कि उसने आठ लाख में खरीदा है। यानि जिन्होंने चाचा-चाची से पांच लाख में खरीदा था उन्होंने उसे आगे आठ लाख में बेच दिया था। उसने रत्ना को समझाया कि यहां उसे क्या करना होगा। सत्रह बरस की रत्ना नए हालातों में घबरा उठी।

परन्तु बचने का उसके पास कोई रास्ता नहीं था। उसे बात माननी पड़ी और पहला ग्राहक जो उसे मिला वो जगदीप भंडारे ही था। उस जैसी खूबसूरत लड़की को देखकर भंडारे ठगा-सा रह गया था। जब उसे पता चला कि रत्ना की ये शुरुआत है और पहली बार है उसकी तो रत्ना की सहमति पर भंडारे ने बीस लाख रुपया देकर रत्ना को उन लोगों से आजाद कराया और अपने साथ ले आया।

रत्ना मित्तल को एक फ्लैट लेकर दिया। ऐशो-आराम की हर चीज मुहैया कराई। भंडारे के पास नोटों की कमी नहीं थी। बाबू भाई योजनाएं बनाता था और भंडारे उस पर काम करता था। तगड़े नोट हाथ लग रहे थे। रत्ना को भंडारे ने हर वो आराम दिया जिसकी जरूरत रत्ना को हो सकती थी और बदले में भंडारे ने उसकी वफादारी मांगी। रत्ना ने खुशी से भंडारे की बात मान ली और अपनी बात पर कायम भी रही।

आज इस बात को दस साल हो गए थे।

जगदीप भंडारे क्या काम करता है। रत्ना जानती थी और कई बार तो भंडारे रत्ना से काम के बारे में सलाह भी ले लिया करता था। रत्ना सलाह देने में उस्ताद थी। परन्तु वो ये भी चाहती थी कि भंडारे अब ये काम छोड़ दे। उसके साथ घर बसा ले। भंडारे को कह चुकी थी ये बात रत्ना।

भंडारे भी रत्ना जैसी हसीना को बहुत पसंद करता था। जवाब में भंडारे हमेशा यही कहता कि कोई बड़ा हाथ लगते ही उससे शादी कर लेगा और शराफत से जिंदगी बसर करेगा।

रत्ना की जिंदगी की गाड़ी इसी तरह मजे से चल रही थी।

शाम के छः बज रहे थे इस वक्त। जगदीप भंडारे बैड पर रत्ना की बगल में लेटा हुआ था। रत्ना के सिर के बाल बिखरे जैसे उसके चेहरे को ढांप रहे थे और वो गजब की खूबसूरत लग रही थी इस वक्त। दोनों ने अपने ऊपर चादर ले रखी थी। भंडारे ने सिगरेट जला रखी थी और रह-रहकर कश ले रहा था।

रत्ना ने करवट ली और भंडारे की छाती पर सिर रखकर बोली---

"क्यों हीरो, अब क्या प्रोग्राम है?" रत्ना प्यार से भंडारे को हीरो कहकर ही बुलाती थी।

"कैसा प्रोग्राम?" भंडारे कश लेकर मुस्कुराया--- "कहीं घूमने का मन है?"

"मैं जिंदगी के प्रोग्राम की बात कर रही हूं। दस साल से तेरे साथ हूं। अब तेरा इरादा क्या है?"

"शादी की बात कर रही है तू?"

"वही मतलब है मेरा।"

"भंडारे ने मुस्कुराकर रत्ना को देखा।

"क्या देखता है?"

"शादी ना करूं तो?"

"तेरे में इतनी हिम्मत नहीं...।"

"हिम्मत तो...।"

"मेरा मतलब है मुझे छोड़ने के लिए भी हिम्मत चाहिए। दोबारा मेरे जैसी नहीं मिलेगी।" रत्ना हौले से हंसी--- "तेरी मर्जी है तो शादी कर, नहीं तो मत कर। नहीं करेगा तो मुझे कोई और ठिकाना देखना पड़ेगा।"

"ऐसा क्यों?"

"मैं अब घर बसा लेना चाहती हूं। बच्चा चाहिए मुझे। औरत हूं, माँ बने बिना मेरा गुजारा नहीं। वैसे भी तू कई-कई दिन के लिए चला जाता है। और मुझे अकेले रहना पड़ता है, बच्चा होगा तो मेरा दिल लगा रहेगा।"

"तेरे को पता है कि मैं तेरे बिना नहीं रह सकता।"

"मालूम है। तो शादी कर। बच्चा चाहिए मुझे।"

भंडारे के चेहरे पर सोच के भाव आ गए।

"अब क्या सोचने लगा हीरो?"

"ये ही कि शादी कब करना ठीक रहेगा। तूने जो कहा है, मैंने हमेशा माना है। ये बात भी...।"

इसी पल भंडारे का मोबाइल बजने लगा।

भंडारे ने बात अधूरी छोड़कर मोबाइल उठाया और बात की।

दूसरी तरफ बाबू भाई सोनावाला था।

"भंडारे! मेरे पास आ। एक काम आया है। तेरे से बात करनी है।"

"अभी?"

"हां अभी। मोटा काम है।" इसके साथ ही उधर से बाबू भाई ने फोन बंद कर दिया।

भंडारे ने मोबाइल रखा तो रत्ना कह उठी---

"बाबू भाई था?"

"हां, अभी बुलाया है। कोई काम आ गया है।"

"हीरो!" रत्ना ने गंभीर स्वर में कहा--- "ये काम बहुत हो गये। कभी पुलिस के लफड़े में फंस गया तो बूढ़ा होने तक ही जेल से बाहर निकलेगा। अब छोड़ दे इन कामों को। बहुत पैसा है तेरे पास। शराफत का धंधा कर ले।"

भंडारी ने करवट ली और रत्ना को बांहों में भर लिया।

"एक बार बढ़िया-सा हाथ मार लूं फिर छोड़ दूंगा। आराम से बैठकर खाऊंगा।"

"तूने कभी नहीं सोचा आराम से जिंदगी बिताने का?"

"जब भी तू मेरे पास होती है, तब सोचता हूं...।" भंडारे मुस्कुराया।

"बाद में नहीं सोचता?"

"तू कहेगी तो ये काम नहीं करूंगा।"

"अभी मना करूं तो मानेगा?"

"अब तो बाबू भाई का बुलावा आ गया है। काम होने पर वो ऐसे ही बुलाता है।"

"कितना पैसा है तेरे पास?"

"बहुत...।"

"बहुत कितना?"

"आराम से बैठ कर जिंदगी बिताई तो मजे से हमारी कट जाएगी।"

"तो अभी से इस धंधे को छोड़ने की सोचना शुरु कर दे। शादी करके हम अपना परिवार बनाएंगे। मजे से रहेंगे।"

"अब तो बाबू भाई के पास जा रहा हूं। लेकिन तेरी बात पर जरूर सोचूंगा।"

■■■

बाबू भाई सोसायटी के फ्लैट में रहता था। तारा सोसाइटी में उसका फ्लैट था और कोई नहीं जानता था कि वो एक खतरनाक इंसान है। जानने वाले उसे बुजुर्ग की हैसियत से जानते थे।

भंडारे बाबू भाई के फ्लैट पर पहुंचा। दरवाजा खुला हुआ था। भीतर प्रवेश करके उसने दरवाजा बंद किया। सामने ही ड्राइंगरूम था जहां बाबू भाई सोफे पर टांगे फैलाए बैठा था।

"खास काम आया लगता है।" भंडारे आगे बढ़ता कह उठा।

बाबू भाई खामोशी से उसे देखता रहा।

भंडारे ने कुर्सी उसके पास ही खींची और बैठता हुआ बोला---

"बोल बाबू भाई, काम की प्लानिंग की?"

"उससे पहले मैं तेरे से बात करना चाहता था। काम खतरनाक है।"

"मैंने हर तरह के खतरनाक काम किए हैं बाबू भाई!"

"ये काम, अब तक के कामों में सबसे खतरनाक है और पैसा भी बेपनाह है। तू हां करेगा तो मैं काम को प्लान करूंगा कि कैसे करेंगे ये काम। इस खबर को पाने के लिए सैनी को दस लाख देना पड़ा।"

"बलबीर सैनी?" भंडारे के होंठों से निकला।

"हां, वो...।"

"दस लाख तो बहुत ज्यादा दिया। उसे खबर के बदले एक लाख से ज्यादा कभी नहीं दिया।"

"काम बड़ा है। दौलत ज्यादा है। एक सौ अस्सी करोड़ का मामला है।"

"एक सौ अस्सी करोड़?" भंडारे अचकचा उठा।

"हमने आज तक एक-दो करोड़ तक के ही हाथ मारे हैं। ये एक सौ अस्सी करोड़ का मामला है।"

"पूरी बात बोल बाबू भाई...।"

"दुबई का अतार अली...।" बाबू भाई ने भंडारे को देखा।

"अतार अली, वो...।" भंडारे ने हड़बड़ाकर कहना चाहा।

"वो ही। उसने वागले रमाकांत से हथियार खरीदे हैं। बलबीर सैनी से बात होने के बाद मैंने पता किया है। ये खबर सही है। वागले रमाकांत ने वो हथियार श्रीलंका के एक संगठन से लेकर अतार अली को दिए। अतार अली ने वो हथियार पाकिस्तान पहुंचाने को कहा। वागले रमाकांत ने ये काम कर दिया। उन हथियारों का 180 करोड़ में सौदा हुआ और अब पाकिस्तान का संगठन अतार अली की तरफ से वागले रमाकांत को हवाला के रास्ते 180 करोड़ की पेमेंट मुंबई में कर रहा है। ये काम हवाला किंग अशोक गानोरकर कर रहा है।"

भंडारे, बाबू भाई को देखे जा रहा था।

"पैसों का लेन-देन पर बरसोवा दाऊद मैनशन नाम की इमारत में, चौथी मंजिल पर अम्बे पेपर एजेंसी में होगा। दिन और वक्त का पता नहीं। बलबीर सैनी दिन और वक्त हमें बता देगा।"

भंडारे ने गहरी सांस ली। कुर्सी पर पहलू बदला।

"अगर ये काम करने की हिम्मत हो तो हम आगे बढ़ें?" बाबू भाई की निगाह भंडारे के चेहरे पर टिकी थी।

"इस काम में तो सारे ही खतरनाक लोग हैं। दुबई का डॉन अतार अली। मुंबई का डॉन वागले रमाकांत। हवाला किंग अशोक गानोरकर तो एक नंबर का हरामजादा है। कुछ समझ में नहीं आता।"

"समझ में नहीं आता तो रहने दे।"

भंडारे बाबू भाई को देखने लगा।

"जरूरी नहीं है हम ये काम करें। मैं सैनी से कह देता हूं वो ये खबर किसी और को बेच देगा।"

"जल्दी मत करो बाबू भाई! सोचने दो।" भंडारे ने सिर हिलाकर कहा--- "इस काम के बारे में तुम्हारा क्या ख्याल है?"

"इस काम को आखिरी समझ के किया जा सकता है।" बाबू भाई ने शांत स्वर में कहा।

"आखिरी समझ के?"

"मतलब की सफल रहे तो भी आखिरी। ना सफल रहे तो भी आखिरी।" बाबू भाई ने कहा--- "अतार अली, वागले रमाकांत और अशोक गानोरकर का नाम सुनकर ही लोगों की हवा निकल जाती है। ऐसे में हम उनके पैसे पर हाथ डालेंगे तो सफल रहें या असफल हमें मुंबई छोड़नी होगी। हो सकता है ये नौबत ही ना आए और मारे जाएं। आसान नहीं होगा ये। मैं अब इस धंधे से सन्यास लेना चाहता हूं। बूढ़ा हो चुका हूं। इसलिए मेरे विचार कुछ भी कीमत नहीं रखते। सोचना तूने है। तेरी अभी बहुत उम्र पड़ी है फिर मैदान में काम तूने ही करना है, मैंने नहीं। तेरी हां होगी तो काम आगे बढ़ेगा।"

"काम करना कैसे होगा?"

"जहां पैसे का लेन-देन होना है मैंने अभी वो जगह नहीं देखी। तेरी हां होगी तो योजना के बारे में सोचूंगा।"

"ये नाजुक और खतरनाक मामला है।"

"बहुत ही नाजुक और बहुत ही खतरनाक।" बाबू भाई ने गम्भीर स्वर में कहा--- "अंडरवर्ल्ड की तीन हस्तियां इस मामले में शामिल हैं और उनके पैसे पर हाथ डालने की सोचकर ही इंसान कांपता है।"

"इतना तो मैं नहीं कांपा बाबू भाई...!" भंडारे ने गंभीर स्वर में कहा।

बाबू भाई ने कुछ नहीं कहा। उसे देखता रहा।

कुछ पल चुप्पी में ही निकल गए।

"सैनी को बोल देता हूं कि ये खबर किसी और को बेच दे।"

"जल्दी मत करो। मुझे कुछ वक्त दो कि सोच सकूं।" भंडारे उठ खड़ा हुआ।

"कितना वक्त?"

"कल सुबह इस बारे में बात करूंगा।"

"रत्ना से सलाह लेगा?"

भंडारे ने कुछ पल के लिए बाबू भाई को देखा, फिर कह उठा---

"नहीं।"

"दस-ग्यारह या बारह दिन तक पैसों का लेन-देन होगा। हां हो तो जल्दी बताना। योजना बनानी है। तेरे को साथ में काम के लिए जरूरत के बंदों को चुनना है, और भी पचासों काम करने हैं।"

भंडारे ने सिर हिलाया और पलटकर बाहर निकल गया।

■■■

रत्ना के खूबसूरत चेहरे पर सोच के भाव थे। नजरें भंडारे पर टिकी थीं, जो कि कुर्सी पर बैठा व्हिस्की का गिलास थामे हुए था और कभी-कभार घूंट भर लेता था। रात के दस बज रहे थे। बाबू भाई से मिलकर अपने घर जाने की अपेक्षा वो रत्ना के पास ही आ गया और सारी बात रत्ना को बताई।

सब कुछ जानकर रत्ना सोच में पड़ गई थी।

भंडारे की संगत में रहकर वो अंडरवर्ल्ड के लोगों को जानने लगी थी। उसे एक सौ अस्सी करोड़ का मामला खतरनाक लगा था। खतरनाक लोगों का पैसा ले उड़ना मौत को दावत देना था।

भंडारे ने गिलास खाली करके रखा तो रत्ना उसके पास जा पहुंची।

"हीरो...!" रत्ना सोच भरे स्वर में बोली।

"हूं...।" भंडारे ने उसका हाथ पकड़ लिया।

"मेरी मान तो ये काम ना कर। मेरी जान भी जा सकती है इस काम में।" रत्ना अपना जाल बुनने लगी थी।

"खतरा तो है।"

"रहने दे, नहीं तो मुझे कोई और आदमी ढूंढना पड़ेगा। ये काम करके तू बचने वाला नहीं। वो तुझे छोड़ेंगे नहीं। कुछ भी हो सकता है। पास में है तो सही, जिंदगी बीत जाएगी।" रत्ना ने कहा।

"तेरी सब बातें सही हैं। तू कभी गलत नहीं कहती।" भंडारे मुस्कुराया। चेहरे पर नशा ठहर चुका था।

"अब बाबू भाई का साथ भी छोड़ दे और...।"

"मेरी तो सुन रत्ना!"

"बोल...।"

"सोच रहा हूं कि इस काम को आखिरी काम बना लूं। पैसा बहुत...।"

"तेरा दिमाग अब खराब होने लगा है हीरो!" रत्ना कह उठी।

"सुन तो। सुना कर। हमने शादी करनी है ना?"

"हां...।"

"अगर मैं ये काम करता हूं और सफल हो जाता हूं तो...।"

"ये सोच वो खतरनाक लोग तुझे गोलियों से भून देते हैं तो क्या होगा।"

"ऐसा नहीं होगा...तू...।"

"क्यों नहीं होगा। कोई तेरा पैसा छीनने की चेष्टा करे तो तू क्या करेगा?"

"मार दूंगा साले को।"

"तो वो तुझे क्यों नहीं मारेंगे?" रत्ना का स्वर तेज हो गया--- "वागले रमाकांत कितना खतरनाक डॉन है। उसका नाम सुनकर ही बड़े-बड़े बैठ जाते हैं। दुबई का डॉन अतार अली और हवाला किंग अशोक गानोरकर, तेरा तो दिमाग खराब हो गया है जो तू इन लोगों के पैसे पर हाथ डालने की सोच रहा है। वो लोग हाथ से पकड़कर तेरी गर्दन उखाड़ देंगे हीरो। दो पैग पीकर तू क्या सोचता है कि तू बहुत बहादुर हो गया। उन तीनों में से कोई भी तेरे सामने आ गया तो तेरा नशा अभी उतर जाएगा। फिर ये काम करके तू मुंबई में नहीं रह सकता अगर काम कर निकला तो। लेकिन तू सफल हो ही नहीं सकता। जहां पर उन लोगों का पैसा होगा, वहां सख्त पहरेदारी होगी। तू सोच कि वहां तीनों के पांच-पांच आदमी भी हुए तो...।"

"ये मामला वागले रमाकांत और अशोक गानोरकर के बीच होगा। अतार अली का दखल नहीं है।"

"दो ही सही हीरो! वागले रमाकांत और अशोक गानोरकर के पांच-पांच आदमी भी वहां पहरे पर हुए तो वे तुझे और तेरे आदमियों को उड़ा देंगे। उन दस के अलावा वो लोग भी तो होंगे जो नोटों के पास होंगे।"

"देखता हूं...।"

"क्या देखेगा?" रत्ना के माथे पर बल पड़े।

"ऐसे कामों में सबसे पहले प्लानिंग पर ध्यान दिया जाता है। सब कुछ प्लान बाबू भाई ने करना है। मैं उसे प्लान करने देता हूं। प्लानिंग सामने आने पर ठीक से फैसला ले सकूंगा।"

"पागल मत बन...।"

"ये हमारी जिंदगी का सवाल है रत्ना! हम शादी करने जा रहे हैं। परिवार बनाने जा रहे हैं। ऐसे में हमारे पास बड़ी दौलत आ जाए तो हम अच्छी जिंदगी जी सकते हैं। हम मुंबई से बाहर निकल जाएंगे। कहीं दूर जाकर खामोशी से जीवन की नई शुरुआत करेंगे। यहां की जिंदगी यहीं छूट जाएगी। परन्तु पहले ये देखना है कि बाबू भाई की प्लानिंग क्या होगी इस काम में।" भंडारे ने मोबाइल निकाला और नंबर मिलाने लगा।

रत्ना खामोश खड़ी भंडारे को देखे जा रही थी।

भंडारे ने फोन पर बाबू भाई से बात की।

"बाबू भाई, तू प्लान बना।"

"तो हां है तेरी। सोच लिया?"

"तू प्लान कैसा बनाता है, सब कुछ इसी बात पर निर्भर करता है।"

"ठीक है। कल सुबह से मैं इस काम पर अपना काम शुरू करता हूं।" उधर से बाबू भाई ने कहा।

भंडारे ने फोन बंद कर दिया। रत्ना से बोला।

"एक गिलास और तैयार कर दे।"

रत्ना गिलास तैयार करने लगी। चेहरे पर सोच के भाव नाच रहे थे। उसे गिलास देते बोली---

"मैं जानती हूं तूने फैसला ले लिया है ये काम करने का।"

भंडारे ने घूंट भरकर उसके खूबसूरत चेहरे को देखा।

"बाबू भाई का प्लान देखूंगा पहले।"

"मैं तेरे को जानती हूं। तू ये काम करेगा। 180 करोड़ तेरे सिर पर सवार हो गया है।"

भंडारे हंसकर रह गया।

"मेरे को लगता है तेरी जान जाने के चांसेस बहुत ज्यादा है। तू मरेगा हीरो...!"

"मैं मरने वाला नहीं...।"

"तू पैसा कहां रखता है अपना। मेरे को बता देना। तेरे को कुछ हो गया तो वो मैं ले लूंगी।"

"इस काम पर जाने से पहले तेरे को बता दूंगा।"

"मेरी मान तो ये काम ना कर।"

भंडारे खामोश रहा।

"वैसे तो वो तुझे पहले ही मार देंगे। मान लो कि तुम उनका पैसा ले जाने में सफल हो जाते हो तो वो तुम्हें कहीं से भी ढूंढ लेंगे। उनके हाथ बहुत लंबे हैं। मुंबई में ही नहीं, पूरे देश में फैले हैं उनके हाथ...।"

"अगर मैं पैसा ले जाने में कामयाब रहा तो मेरा दावा है कि वो मुझे ढूंढ नहीं सकेंगे।"

रत्ना, भंडारे को देखने लगी।

भंडारे ने घूंट भरा।

"क्या देख रही है?" भंडारे मुस्कुरा पड़ा।

"सोच रही हूं कि पहले सबको ही ऐसा लगता है, जब मुसीबत सिर पर गिरती है तो भागने का भी रास्ता नहीं मिलता।"

"तू ऐसी बातें करके मुझे कमजोर मत बना। मैं तो...।"

तभी भंडारे का फोन बजा।

"हैलो।" भंडारे ने बात की।

"सुन।" बाबू भाई की आवाज कानों में पड़ी--- "मैं दो दिन में प्लानिंग की रूपरेखा तैयार कर लूंगा। तब तक तू साथ में काम करने के लिए कम-से-कम दो बंदों को तैयार कर। उन्हें ये नहीं बताना है कि किन लोगों के पैसों पर हाथ डालने का प्रोग्राम है। ये बताया गया तो वे पीछे हट सकते हैं। हो सकता है कोई वागले रमाकांत तक खबर भी पहुंचा दे कि तुम उसके पैसे पर हाथ डालने जा रहे हो। मामला इस तरह बहुत गड़बड़ हो जाएगा।"

"समझ गया। तुम्हारा क्या ख्याल है साथ में किसे लूं?"

"कृष्णा पांडे को ले। तू उसे लेकर कोई कई काम कर चुका है, और भी कई लोग हैं। तू फैसला कर।"

"ठीक है।" भंडारे ने कहा और फोन बंद कर दिया।

■■■

कृष्णा पाण्डे!

तीस बरस का स्वस्थ व्यक्ति था। कद-काठी सामान्य थी और शादी कर रखी थी। दो बच्चे थे। छोटा-सा घर खरीद रखा था। मोहल्ले में शरीफों की तरह रहता था। पुरानी-सी कार ले रखी थी। हर रोज सुबह दस-ग्यारह बजे तैयार होकर घर से चला जाता था, बेशक कोई काम हो या ना हो और शाम को लौट आता था। मोहल्ले वाले यही समझते थे कि वो काम पर जाता है। आस-पड़ोस में अच्छी पहचान थी। परन्तु उसकी पत्नी जानती थी कि वो क्या काम करता है। शादी से पहले ही वो कृष्णा पाण्डे के कामों को जानती थी। परन्तु उनकी गृहस्थी बढ़िया चल रही थी।

सुबह के दस बजे थे। कृष्णा पाण्डे नाश्ता कर रहा था कि उसका फोन बजा।

"हैलो।" कृष्णा पाण्डे ने बात की।

"खाली है या किसी काम में व्यस्त है?" उधर से भंडारे की आवाज कानों में पड़ी।

"तीन महीने से खाली हूं। कोई ढंग का काम नहीं दिखा।" कृष्णा ने कहा।

"काम का मूड है?"

"पूरी तरह...।"

"डेढ़ घंटे बाद मलॉड के बस स्टॉप पर मिल ले...।"

"पहुंच जाऊंगा।" कृष्णा ने कहा और पुनः नाश्ते में व्यस्त हो गया। उसे याद आया कि पिछली बार जब भंडारे के साथ काम किया था तो तब दो की जान लेनी पड़ी थी। उस काम में उसे बीस लाख मिले थे।

भंडारे और कृष्णा पाण्डे मलॉड के बस स्टॉप पर मिले। पाण्डे ने अपनी कार पास की पार्किंग में लगा दी और भंडारे की कार में आ बैठा। भंडारे ने कार को आगे बढ़ाते हुए कहा।

"कहीं नाश्ता करते हैं।"

"मैंने नाश्ता ले लिया। बीवी खिलाकर ही बाहर भेजती है।" पाण्डे मुस्कुरा पड़ा।

भंडारे खामोश रहा।

कार दौड़ती रही। कुछ देर बाद भंडारे ने एक पार्किंग के सामने कार रोकी। दोनों रेस्टोरेंट में प्रवेश कर गए। एक टेबल संभाली। वेटर आया तो भंडारे ने अपने लिए नाश्ता और पाण्डे की कॉफी के लिए कह दिया।

"क्या काम है?" पाण्डे ने भंडारे को देखा।

"एक जगह हाथ मारना है। रकम बड़ी है।" भंडारे बोला।

"कितनी बड़ी?"

"तेरे को दस करोड़ मिलेगा।"

"ओह...।" पाण्डे संभला--- "तो मामला काफी बड़ा है।"

भंडारे ने सिर हिलाकर कहा---

"खतरा भी बड़ा है।"

"कहां पर करना है काम?" उसकी आंखें सिकुड़ी।

"ये बात मौके पर ही पता चलेगी। पहले नहीं बताऊंगा।" भंडारे बोला।

"यारों से भी पर्दा।" पाण्डे की नजरें उसके चेहरे पर जा टिकीं।

"सावधानी बरती जा रही है।"

"बाबू भाई प्लानिंग तैयार करेगा?"

"वो प्लान तैयार कर रहा है।"

"और कितने लोग हैं?"

"अभी तो तेरे से बात की है। बाबू भाई ने दो लोग इकट्ठे करने को कहा है। जरूरत पड़ी तो और भी देखेंगे।"

"कुल कितने का हाथ मारा जा रहा है?"

"ये जानना तेरा काम नहीं। तेरे को दस मिलेंगे। तेरे लिए ये बहुत बड़ी रकम है।" भंडारे ने कहा।

"तुमने बताया कि खतरा भी बहुत है।"

"दस करोड़ जितना खतरा है तेरे लिए। सोच ले, जरूरी नहीं है कि तू मेरी बात मानकर काम करे। इस बारे में सोच कि पांच, दस, बीस लाख का हाथ ही उम्र भर मारता रहेगा और कभी भी पुलिस के रगड़े में फंसकर जेल जाएगा और पुलिस तेरे आगे-पीछे के मामले भी खोल देगी। लंबा फंसेगा। अगर एक ही बार में दस करोड़ तेरे हाथ आ गया तो सारी उम्र आराम से बैठकर खा सकेगा। काम-धंधा कर लेगा। सोचा है दस करोड़ के बारे में?"

"सोच लिया है। तेरे पल्ले कितना पड़ेगा।"

भंडारे के चेहरे पर सख्ती आ ठहरी।

वेटर आया और आर्डर का सामान लगाकर चला गया।

"मेरे को चार सौ करोड़ मिलेगा, तेरे को क्या?" तीखे स्वर में बोला भंडारे।

"यूं ही पूछा...।"

"नहीं करना तो मत कर ये काम। बहुत आदमी हैं इस काम को करने के...।"

"नाराज क्यों होता है। मैंने यूं ही पूछा था।"

"यूं ही मत पूछा कर।"

"कहां पर हाथ मारना है ये तो बता...।"

"नहीं बताया जाएगा। बस काम करो और अपना पैसा लो...।"

"ठीक है। काम करना कब है?"

"दस दिन तक...। तारीख फिक्स हो जाएगी।"

"किसी बैंक या वाल्ट पर तो हाथ नहीं डालना?"

"नहीं।" भंडारे ने सिर हिलाया--- "एक खास तारीख को कहीं पर पैसा इकट्ठा होना है। उस पर हाथ डालना है। फिर से सोच ले। हां करने के बाद मौके पर पीछे हटा तो गोली मार दूंगा।"

"ऐसा नहीं होगा।" पाण्डे ने सोच भरे स्वर में कहा--- "मेरे को दस करोड़ मिलेगा?"

"हां...।"

"और जो लोग इस काम में चाहिए उन्हें कितना देगा?"

"अभी तो एक ही और चाहिए। उसे भी दस करोड़...।"

"मोहन्ती को साथ ले लें।"

"वो कमीना गुस्से वाला है। कहीं काम ना बिगाड़ दे।" भंडारे कह उठा।

"तू उसके साथ एक बार काम कर चुका...।"

"दो बार...।"

"वो बढ़िया काम करता है। हिम्मती है। ऐसे कामों के लिए वो फिट है।"

भंडारे के चेहरे पर सोच के भाव उभरे।

"लगाऊं उसे फोन?"

"वो गुस्से वाला है। अपने गुस्से पर काबू नहीं रख पाता। कहीं काम बिगाड़ दिया तो सब कुछ...।"

"इतना भी बच्चा नहीं है वो कि...।"

"ठीक है। फोन लगा। अगर आ सके तो यहीं बुला ले। बता देना कि मैंने बुलाया है।" पाण्डे ने फोन निकाला और नंबर मिलाने लगा।

भंडारे बातों के दौरान खाता भी जा रहा था।

पाण्डे ने मोहन्ती से बात करके फोन जेब में रखते हुए कहा---

"वो इस वक्त पुणे से वापस आ रहा है। शाम तीन बजे मुंबई पहुंचकर बात करेगा।"

"मोहन्ती से मैं बात कर लूंगा। तो हममें बात पक्की रही कि तुम दस करोड़ के लिए मेरा बताया काम करोगे।"

"हां...।"

भंडारे ने कृष्णा पाण्डे को उसकी कार के पास छोड़ा और कुछ आगे ले जाकर कार को रोका और फोन निकालकर बाबू भाई का नंबर मिलाया।

"हैलो।" बाबू भाई की आवाज कानों में पड़ी।

भंडारे ने एक-दो और आवाजों को आते सुना।

"बाबू भाई!" भंडारे ने कहा--- "मैं अभी...।"

"वक्त पर फोन कर लिया बेटे। मैं तुम्हें फोन करने ही वाला था। मैं वरसोवा में अम्बे पेपर एजेंसी के ऑफिस में हूं। वो जो गीता सार के नाम से किताब छापनी थी, उसी कागज के लिए बात करने आया था। भाव तो ठीक मिल रहा है और जो भी गुंजाइश होगी, वो भी निकाल लेंगे। पर मैं भूल गया कि कागज के कितने 'रिम' लेने हैं हमने?"

भंडारे समझ गया कि बाबू भाई काम पर लग गया है।

"पैंसठ रिम।" बाबू भाई की आवाज आई--- "ठीक है। इन्हें पता दे देंगे, ये कागज को सीधा प्रेस पर पहुंचा देंगे जहां किताब छपनी है। दस हजार एडवांस दे देता हूं। पेपर मैंने पसंद कर लिया है। ठीक है बेटे, शाम को मिलेंगे।" इतना कहने के बाद बाबू भाई ने फोन उधर से बंद कर दिया था।

भंडारे मुस्कुरा पड़ा। बाबू भाई पर उसे हमेशा ही भरोसा रहा था कि वो अपने हिस्से के काम को ठीक से अंजाम देता है। वो निश्चिंत था कि बाबू भाई हमेशा की तरह बढ़िया योजना बनाएगा।

■■■

कृष्णा पाण्डे पार्किंग में खड़ी अपनी कार में आ बैठा था। चेहरे पर से बिना रुके सोचें गुजर रही थीं। उसने घड़ी में वक्त देखा, दोपहर का एक बज रहा था। कुछ सोचकर उसने फिर मोहन्ती को फोन किया। बेल गई फिर मोहन्ती की आवाज कानों में पड़ी। कार के इंजन की आवाज भी सुनाई दे रही थी।

"मुंबई में तू कहां पहुंचेगा मोहन्ती?" पाण्डे ने पूछा।

"क्यों?"

"तेरे से कुछ बात करनी है।"

"तीन बजे बोरीबंदर वाले घर पर पहुंच जाऊंगा।"

"घर का पता क्या है?"

उधर से मोहन्ती ने पता बता दिया।

"मैं तेरे पास तीन के बाद आऊंगा।" पाण्डे ने कहा और फोन बंद कर दिया।

पाण्डे सड़कों पर दो-सवा दो घंटे का वक्त बिताकर बोरीबंदर इलाके में उस मकान के बाहर जा पहुंचा, जिसका पता मोहन्ती ने बताया था। मकान के बाहर दो कारें खड़ी थीं। अपनी कार को एक तरफ रोकने के बाद पाण्डे उन कारों के पास आया और दोनों कारों के बोनट पर हाथ रखा तो एक कार का बोनट बहुत गर्म पाया। पाण्डे समझ गया कि मोहन्ती आ पहुंचा है। उसने आगे बढ़कर गेट के पास लगी बेल दबाई।

फौरन ही भीतर से एक आदमी बाहर आया।

"मोहन्ती से मिलना है।" पाण्डे बोला--- "उसे पता है कि मैं आने वाला हूं।"

"नाम?" उसने पूछा।

"कृष्णा पाण्डे...।"

वो पास आया। गेट खोला।

पाण्डे भीतर आ गया। उसने गेट बंद किया और पाण्डे को लेकर भीतर पहुंचा।

ये साफ-सुथरा घर था। सजा हुआ ड्राइंगरूम था।

"बैठो...। मोहन्ती अभी आता है। बाथरूम में है।" वो व्यक्ति बोला।

पाण्डे बैठ गया।

"चाय-ठंडा कुछ लोगे?" उस व्यक्ति ने पूछा।

"चाय ले लूंगा।" पाण्डे ने शांत स्वर में कहा।

वो आदमी कमरे से बाहर चला गया।

पाण्डे वहीं बैठा रहा। ड्राइंग रूम में नजरें दौड़ाता रहा।

जल्दी ही वो आदमी एक कप चाय पाण्डे के सामने रख गया।

फिर मोहन्ती वहां पहुंचा।

वो चालीस बरस का, लंबा और फुर्तीला दिखने वाला व्यक्ति था। सिर के बाल आगे से कुछ कम थे। पायजामा और बनियान पहन रखी थी। वो नहाकर आया लग रहा था।

"भंडारे नहीं आया, वो कहां है?" मोहन्ती कह उठा।

"मैंने दूसरी बार जब फोन किया, भंडारे का नाम नहीं लिया था।" पाण्डे मुस्कुराया।

मोहन्ती बैठता हुआ बोला---

"चाय क्यों पीता है। गर्मी बहुत है बियर ले...।"

"मैं दिन में शराब जैसी चीजों से दूर रहता हूं...।"

"मर्जी तेरी...।"

तभी वो आदमी शीशे का बड़ा गिलास बियर का भरा रख गया।

मोहन्ती ने गिलास उठाकर बड़ा-सा घूंट भरा।

"हम एक बार मिले थे। भंडारे के साथ हमने इकट्ठे काम किया था।" मोहन्ती बोला।

पाण्डे ने सिर हिलाया।

"तेरे को क्या काम पड़ गया मेरे से। पहले तो तूने फोन किया, तब कहा जगदीप भंडारे सामने बैठा है।"

"तब वो सामने ही बैठा था।"

"भंडारे ने तुझे मेरे पास भेजा?"

"नहीं, मैं ही आया हूं।"

"बोल...।"

पाण्डे ने चाय का घूंट भरा और कह उठा।

"भंडारे ने कोई काम बताया है, उसी सिलसिले में तेरे से बात करने आया हूं। क्या बात हम तक रहेगी?"

"ये तो इस बात पर निर्भर करता है कि तेरी बात कैसी है?"

"मैं सलाह के तौर पर तेरे से बात करने आया हूं।"

"फिर तो बात मेरे तक ही रहेगी।" मोहन्ती ने बियर का गिलास पूरा खाली करके ऊंचे स्वर में कहा--- "बियर ले आ।"

फौरन ही वो आदमी ठंडी बोतल थामें आया और गिलास भर कर चला गया।

"भंडारे आज दिन में मुझसे मिला, जब तेरे को पहला फोन किया था। उसने पहेली जैसी पेशकश मेरे सामने रखी।"

"वो क्या?"

"अपने साथ काम करने को कहा। काम हो जाने पर दस करोड़ देने का वादा...।"

"कितना?" मोहन्ती की आंखें सिकुड़ी।

"दस करोड़...।"

"तूने गलत तो नहीं सुना।" मोहन्ती सीधा होकर बैठ गया।

"सही सुना है।"

"साला कहीं पर मोटा हाथ मार रहा है।" मोहन्ती मुस्कुरा पड़ा।

"वो तेरे से भी मिलकर यही ऑफर देने वाला है।"

"दस करोड़ वाली ऑफर?"

"हां।"

"ऊंची उड़ान भरने की सोच रहा है भंडारे। बाबू भाई उसके साथ ही होगा?"

"हां...। वो काम की योजना बना रहा है।"

"तो इसमें तेरे को मेरी सलाह की क्या जरूरत पड़ गई? तू इस धंधे में पुराना है और...।"

"भंडारे के सामने तेरा नाम मैंने ही आगे रखा था।" पाण्डे ने कहा--- "जबकि वो तुझे साथ लेने में हिचक रहा था। उसका कहना है कि मोहन्ती गुस्से वाला है। कहीं मौके पर किसी वजह से काम बिगाड़ ना दे। लेकिन बाद में मेरी बात मान गया।"

मोहन्ती कृष्णा पाण्डे को देख रहा था।

"तेरे को प्रॉब्लम क्या है?"

"वो ये बताने को तैयार नहीं कि काम कहां पर करना है।"

"हूं...।"

"वो पैसा किसका है। पैसे के पीछे कौन लोग हैं वो कुछ नहीं बता रहा। उसने सिर्फ इतना ही कहा कि एक जगह पर पैसा इकट्ठा होने वाला है। उस पर हाथ डालना है। वो हमें किसी गाड़ी में भरकर ले जाएगा और काम शुरू हो जाएगा। दस करोड़ वो मुझे देने को तैयार है। तुम्हें देने को तैयार है। वो खुद कितना लेगा, नहीं बताता।"

"पूछने पर क्या कहता है?"

"नहीं बताने की बात करता है। कहता है काम करना है तो करो, नहीं तो किसी और को ढूंढ लेगा।"

"मेरे ख्याल में पचास-सत्तर करोड़ का मामला तो होगा ही। कितने लोगों को साथ ले रहा है?"

"अभी तक तो तुम्हें, मुझे ही साथ ले रहा है।" मोहन्ती ने सोच भरे अंदाज में बियर का गिलास उठाकर घूंट भरा।

"मेरे से क्या चाहता है?"

"क्या हमें ये काम करना चाहिए?"

"हर्ज क्या है?"

"हमें नहीं मालूम हम किसका पैसा लूटने जा रहे हैं। जहां पचास-सत्तर करोड़ इकट्ठा होगा, वहां पहरे का भी इंतजाम होगा। भंडारे कहता है कि खतरा भी है। परन्तु उसे भरोसा है कि ये काम कर लेगा।" पाण्डे ने ठंडी हो रही चाय का घूंट भरा--- "मैंने सब कुछ तेरे को बता दिया है। तू क्या सोचता है कि तू ये काम करेगा?"

"करूंगा।"

"भंडारे बताने को तैयार नहीं कि काम कहां होगा। करोड़ों रुपया किसका है, जिस पर हाथ डालना है। ये जरूर बताया कि दस-बारह दिन तक काम होगा। वो हमें काम होने तक पूरी तरह अंधेरे में रखेगा। जबकि ऐसा पहले कभी उसने नहीं किया। इसमें सोचने की बात है कि आखिर वो हमें स्पष्ट बता क्यों नहीं रहा, जबकि हम एक साथ काम करेंगे।"

मोहन्ती ने बियर के दो घूंट भरे और कह उठा---

"मालूम है तेरे को मैं पुणे क्या करने गया था। एक आदमी मेरा पांच लाख नहीं दे रहा था। तीन महीने से लटका रहा था। बहुत फोन किए उसे। बहुत समझाया। पर उसकी समझ में मेरी बात नहीं आई तो मैं पूना गया और दो दिन वहां रहा। उसे गोली से उड़ाने का मौका ढूंढता रहा। आज सुबह मौका मिला तो दो गोलियां मारकर उसका काम खत्म कर दिया। उसके बाद वापसी पर कार चलाता यही सोचता रहा कि आखिर मुझे क्या मिला। पांच लाख भी गया और पूना आने-जाने की जो तकलीफ हुई, वो अलग। ये भी मन में आया कि कभी पुलिस के हाथ पड़ा तो फिर छूटने वाला नहीं। यानि कि जिंदगी से मन खराब हो रहा था। एक ही विचार मन में बार-बार आ रहा था कि कहीं तगड़ा हाथ मारकर आराम से बैठा जाए। ऐसे में भंडारे की ऑफर मुझे शानदार लग रही है। दस करोड़ का काम मिलेगा तो मैं ये काम हर हाल में करूंगा।"

"भंडारे ये क्यों नहीं बता रहा कि वो पैसा किसका है। कहां पर हाथ मारना है।"

"होगी कोई वजह।"

"वही वजह जानने को तो मैं कह रहा हूं। भंडारे से पूछो तो वो उखड़ जाता है।"

"तू वजह मत जान। दस करोड़ को देख।"

"इतने ज्यादा करोड़ किसी शरीफ के तो होने से रहे। बाद में कोई और मुसीबत सिर पर आ गई तो...।"

"छोटी-छोटी बातों को इतनी गहराई से मत सोचा कर...।"

"ये छोटी बात नहीं है।"

"तो काम को मना कर दे...।"

"कैसे कर दूं। दस करोड़ मुझे मिलेंगे।"

मोहन्ती ठहाका मारकर हंस पड़ा।

"दस करोड़ भी नहीं छोड़ना चाहता और मामले पर शक भी कर रहा है।"

"मैं चाहता हूं भंडारे जब तेरे से बात करे तो तू उससे ये जानने की चेष्टा कर कि पैसा किसका...।"

"बात करूंगा उससे। वो जो जवाब देगा बता दूंगा।"

"एक बात और भी है मन में...।"

"वो भी बोल...।"

पाण्डे के चेहरे पर हिचकिचाहट के भाव उभरे।

"चुप क्यों हो गया?"

"बात हम दोनों के बीच ही रहे।"

"भरोसा रख। ये बातें ऐसी नहीं हैं कि बाहर जाएं।" मोहन्ती ने मुस्कुराकर कहा।

"दस करोड़ देने को वो कह रहा है। बाद में ना दिए तो। तब तो...।"

"इस तरह का धोखा करके वो अपनी मौत नहीं बुलाना चाहेगा। वो भी जानता है कि ऐसा करने पर उसका क्या होगा।" मोहन्ती के चेहरे पर जहरीली मुस्कान नाच उठी--- "ये बेकार की बात मत सोच। हम क्या कम हैं जो वो ऐसा करने की सोचे।"

"भंडारे जब तेरे से मिले तो उसके मुंह से बातें निकलवाने की कोशिश करना।"

कृष्णा पाण्डे वहां से चला गया।

मोहन्ती ने बियर का गिलास खाली किया और सिगरेट सुलगा ली। चेहरे पर सोच के भाव नजर आ रहे थे। कई मिनटों तक वो खामोशी से बैठा रहा, फिर मोबाइल उठाकर भंडारे का नंबर मिलाया। बात हो गई।

"बोल।" मोहन्ती ने कहा--- "मैं मुंबई पहुंच गया हूं।"

"काम करने के लिए फुर्सत है?" उधर से भंडारे ने कहा।

"है, काम बोल?" कहते हुए मोहन्ती ने गर्दन हिलाई।

"शाम को मिलेंगे। मैं तुम्हें फोन करूंगा।"

■■■

शाम चार बजे बाबू भाई ने बलबीर सैनी को फोन किया।

"बोल बाबू भाई...!" बलवीर सैनी की आवाज कानों में पड़ी।

"मुझे बाकी की जानकारी चाहिए।" बाबू भाई ने कहा।

"क्या?"

"रुपया कब अम्बे पेपर एजेंसी में पहुंचेगा और सुरक्षा के क्या-क्या इंतजाम होंगे।"

"रुपए के बारे में तो एक दिन पहले ही बता पाऊंगा और सुरक्षा की इंतजामों की मुझे जानकारी नहीं है। ये दोनों बातें मुझे हाथों-हाथ ही पता चलेंगी।" सैनी की आवाज कानों में पड़ी।

"ऐसे मेरा काम कैसे चलेगा। मुझे योजना बनानी है। जब तक ये पता नहीं होगा कि वहां सुरक्षा के क्या इंतजाम होंगे, तब तक मैं कोई योजना नहीं बना सकता।" बाबू भाई बोला।

"मेरा ख्याल है कि कम-से-कम दस लोग तो सुरक्षा पर होंगे ही। बाकी पांच-सात और ऊपर से लगा लो। ऐसे में...।"

"ये योजनाएं ख्यालों के आधार पर नहीं बनती।" बाबू भाई का स्वर सख्त हुआ।

सैनी की आवाज नहीं आई।

"क्या पता तब वहां वागले रमाकांत या अशोक गानोरकर खुद वहां मौजूद हों। मुझे पूरी जानकारी...।"

"अभी मैं कुछ नहीं बता सकता।"

"क्यों?"

"जिससे मैं जानकारी ले रहा हूं, वो भी इस बारे में अभी कुछ नहीं जानता। मैंने तुमसे पहले ही कहा था एक-दो दिन पहले ही बाकी बातें बता पाऊंगा। वो लोग ये काम गुप्त तौर पर कर रहे हैं। बात बाहर आते-आते ही आएगी।"

"इस तरह तो मुझे मुश्किल हो जाएगी प्लानिंग करने में।"

"तुम बाकी सब तैयारी पूरी रखो। अगर एक दिन पहले भी तुम्हें सब कुछ पता चल जाता है तो योजना बनाने के लिए तुम्हारे पास काफी वक्त होगा। सब संभाल लोगे तुम। भंडारे काबिल इंसान है, वो...।"

"मुझे मेरा काम मत सिखाओ।"

"ठीक है।"

"तुम्हारा ख्याल है कि जब वहां नोट होंगे, तब पन्द्रह से ऊपर लोग वहां मौजूद होंगे।"

"इतने तो होंगे ही।" उधर से सैनी ने कहा।

"फिर ये मामला काफी खतरनाक हो सकता है। इतने लोगों के बीच...।"

"भंडारे सब संभालने का दम रखता है।"

बाबू भाई ने कुछ नहीं कहा।

"मेरी सलाह तुम्हें सिर्फ इतनी है कि इस काम में बढ़िया और समझदार लोगों को लेना। कोई ऐसा आदमी जो भंडारे की तरह डकैतियों को संभालना जानता हो। ताकि मौके पर कैसे भी हालात हों संभाले जाएं। मुझे अपने एक परसेंट की चिंता है जो कि एक करोड़ अस्सी बनता है। इतने पैसे से मेरी जिंदगी बन जाएगी।"

"इस बारे में कोई भी काम की बात हो तो मुझे फौरन खबर करना।"

"उसी वक्त करूंगा।"

बाबू भाई ने फोन बंद कर दिया।

■■■

शाम सात बजे जगदीप भंडारे, बाबू भाई के फ्लैट पर पहुंचा।

तब बाबू भाई आंखें बंद किए बैड पर लेटा था। उसका दिमाग अम्बे पेपर एजेंसी के गिर्द ही घूम रहा था। सुरक्षा के इंतजाम मालूम नहीं तो योजना भी नहीं बन सकती थी।

"आज क्या देखा बाबू भाई?" भंडारे बैठते हुए बोला।

"अम्बे पेपर एजेंसी को भीतर से देखा वरसोवा में। पेपर खरीदने के बहाने से वहां गया था। दस हजार एडवांस दे आया हूं।" बाबू भाई ने गंभीर स्वर में कहा--- "वो चार कमरों की जगह है। भीतर प्रवेश करते ही पहला कमरा रिसेप्शन का है। उसके साथ के कमरे को ऑफिस का रूप दे रखा है। जहां एक आदमी मिला, उसने अपना नाम अम्बेलाल बताया। दिखावे के तौर पर अम्बे पेपर एजेंसी का मालिक वही है। उसी से कागज खरीदने के बारे में बात हुई। कागजों के सैंपल फाइल में लगा रखे थे। उस कमरे के साथ लगते दो कमरे और हैं। वहां पर जगह पर्याप्त है करोड़ों रुपया रखने की। वो जगह या तो अंडरवर्ल्ड किंग वागले रमाकांत की है या हवाला किंग अशोक गानोरकर की। जिसकी भी वो जगह है, उस जगह को वो अपने खास कामों के लिए इस्तेमाल करते हैं। मेरा मतलब कि सैनी की ये बात सही लगती है कि वहां पर 180 करोड़ की रकम रखी जा सकती है। वहां पर हवाला की रकम का लेन-देन हो सकता है।"

"और क्या देखा?" भंडारे ने पूछा।

"उस जगह को अपने कब्जे में करना जरा भी कठिन नहीं है। क्योंकि दाऊद मैनशन में चौथी मंजिल पर बना वो ऑफिस एक ही दरवाजे वाला है। एक दरवाजे से ही जाना और बाहर निकलना पड़ता है। आसपास भी ऑफिस है। आठ फीट चौड़ी गैलरी के दोनों तरफ ऑफिस बने हुए हैं और गैलरी में लोगों का आना-जाना लगा रहता है।"

"तुम्हारा प्लान क्या है?"

"अभी कोई प्लान नहीं है। क्योंकि सैनी नहीं बता पा रहा कि जब एक सौ अस्सी करोड़ वहां लाया जाएगा तो साथ में कितने आदमी होंगे। ऑफिस में कितने लोग होंगे और तब वहां की क्या स्थिति होगी?"

"सैनी क्यों नहीं बता पा रहा कि...।"

"वो कहता है एक या दो दिन पहले ही बता सकेगा। जिससे वो खबरें ले रहा है, उसे भी नहीं मालूम।"

"हरामजादा। दस लाख लेकर बैठ गया।" भंडारे ने दांत भींचे।

"सैनी को एक करोड़ अस्सी लाख भी देना है, अगर काम हो गया तो।"

"क्या मतलब?"

"वो कहता है दौलत बड़ी है। उसने एक परसेंट मांगा है।"

"और तुमने हां कर दी, मैं तो साले की...।"

"शांत भंडारे शांत!" बाबू भाई ने हाथ उठाकर कहा--- "ये उसकी और मेरी बात है। एक परसेंट उसे मैं दूंगा। काम तो हो जाने दो।"

भंडारे ने गहरी सांस ली, फिर बोला---

"वहां के सुरक्षा के इंतजामों का नहीं पता तो तुम योजना कैसे बनाओगे?"

"मेरे ख्याल में योजना बनाने के लिए मुझे वक्त मिल जाएगा।"

"वो कैसे?"

"सैनी काम के एक या दो दिन पहले बताएगा वहां की सुरक्षा के बारे में। इतने वक्त में मैं योजना बना लूंगा। परन्तु तब तक हमें अपनी तैयारी करके रख लेनी चाहिए।" बाबू भाई ने गम्भीर स्वर में कहा।

"कैसी तैयारी?"

"काम के लिए लोगों को इकट्ठा कर...।"

"कृष्णा पाण्डे से मैंने बात कर ली है। यहां से जाने के बाद मैं मोहन्ती से मिलने वाला हूं।"

"दोनों ही बढ़िया लोग हैं।" बाबू भाई ने सिर हिलाया--- "जैकब कैंडी से भी बात कर लो।"

"कैंडी से...। उसे भी साथ लेना...।"

"ये मामला छोटा नहीं है। अंडरवर्ल्ड किंग वागले रमाकांत से वास्ता रखता है। हवाला किंग अशोक गानोरकर का मामला है। एक सौ अस्सी करोड़ का मामला है। हमारे पास पर्याप्त संख्या में काबिल आदमी होने चाहिए। कृष्णा पाण्डे को तूने क्या बताया?"

"उसे बोला कि काम होने पर दस करोड़ मिलेंगे। ये नहीं बताया कि काम कहां पर होना है या किससे वास्ता रखता है।"

"उसेने जानने की कोशिश की?"

"की। पर मैंने नहीं बताया।"

"ठीक किया। उन्हें कुछ भी नहीं बताना है। वरना वे वागले रमाकांत और अशोक गानोरकर का नाम सुनकर उखड़ जाएंगे। तू मोहन्ती और जैकब कैंडी से भी बात कर ले। उन्हें तैयार रख। उसके बाद तेरे को एक का पता और बताऊंगा, उससे भी बात करना।"

"इतने लोगों की क्या जरूरत...?"

"जरूरत है, बहुत जरूरत है। मैं नहीं चाहता कि हम काम में असफल रहें। असफल रहने का मतलब मौत है।"

"लेकिन सबको दस-दस करोड़ देना पड़ेगा। हमारे पल्ले...।"

"हमारी जेब से कुछ नहीं जा रहा। तब भी बहुत बड़ी रकम हमारे हाथ आएगी।"

"और कौन है जिससे बात करनी है। किस का पता देने की बात कह रहे हो?"

"देवराज चौहान...।"

"देवराज चौहान?"

"डकैती मास्टर देवराज चौहान...।" बाबू भाई ने गम्भीर नजरों से भंडारे को देखा।

भंडारे चौंका। अचकचाकर बाबू भाई को देखने लगा।

बाबू भाई के चेहरे पर गंभीरता टिकी रही।

"डकैती मास्टर देवराज चौहान। वो तो ऊंची चीज है। उसे हम इस मामले में क्यों लें?" भंडारे का स्वर तेज हो गया।

"ये बड़ा मामला है भंडारे...!"

"तो क्या फर्क पड़ता है, मैं संभाल...।"

"ये एक सौ अस्सी करोड़ का मामला है। रमाकांत वागले का मामला है। अशोक गानोरकर का मामला है। वागले के पास अंडरवर्ल्ड की ताकत है। मेरे ख्याल में तो हमें इस मामले में आने को तैयार ही नहीं होना चाहिए था। अगर आने की सोच ही लिया है तो पूरी तैयारी के साथ ये काम करना चाहिए कि सफलता हाथ लगे और...।"

"लेकिन इस मामले में देवराज चौहान की क्या जरूरत है। वो बड़ा डकैती मास्टर है। खतरनाक है। पूरे एक सौ अस्सी करोड़ को भी हजम कर जाएगा। हम बेवकूफ बन कर रह जाएंगे।" भंडारे परेशान हो उठा था।

"देवराज चौहान के बारे में गलत मत सोचो।"

"तुम जानते हो उसे जो ऐसा कह...।"

"मैं उससे मिला नहीं, परन्तु उसे इतना जानता हूं कि हमारा काम चल सके।"

"क्या जानते हो?"

"वो धोखेबाज नहीं है और काम के प्रति गम्भीर रहता है। ऐसे काम करने का उसके पास जो अनुभव है, उससे बढ़िया अनुभव किसी के पास नहीं। तुम उससे बहुत कम हो और वो...।"

"लेकिन ये काम मैं कर सकता हूं। मैं...।"

"चुप हो जा...।" बाबू भाई ने सख्त स्वर में कहा।

भंडारे, बाबू भाई को देखने लगा।

"तेरे दिमाग पर 180 करोड़ का भूत सवार हो चुका है। तू ज्यादा-से-ज्यादा खुद हड़प जाना चाहता है। यही वजह है कि मैं देवराज चौहान को अपने साथ नहीं लेना चाहता। जबकि इस काम में देवराज चौहान जैसे इंसान की सख्त जरूरत है। तुम्हारी तरह वो भी हर तरह के हालातों को संभाल सकता है। सिर्फ दौलत के बारे में मत सोच, अपनी जान के बारे में भी सोच, जो कि जा सकती है। वागले रमाकांत पहले छोटे-छोटे टुकड़े करके मुंबई में फैला देगा। अशोक गानोरकर तेरे आगे-पीछे वालों को भी खत्म कर देगा। खतरा सिर्फ तुझे नहीं, मुझे भी है। हर उस इंसान को है जो हमारी योजना में शामिल होगा। कल को गड़बड़ हुई तो हम अपनी बंदूक देवराज चौहान के कंधे पर रखकर खुद बचे रह सकते हैं। खुद ही सोच कि वागले रमाकांत के सामने तेरी क्या औकात है। कुछ भी नहीं। वो तेरी परवाह भी नहीं करेगा। तेरा नाम भी उसने नहीं सुना होगा। परन्तु जब उसे पता चलेगा कि डकैती मास्टर देवराज चौहान भी इस काम में शामिल रहा है तो वो सबकुछ भूलकर देवराज चौहान के पीछे लग जाएगा। इस तरह हम वागले रमाकांत या अशोक गानोरकर के हाथों से बच निकल सकते हैं। देवराज चौहान का दखल इस मामले में रहेगा तो काम हो जाने की संभावनाएं बढ़ जाएंगी। मैंने बहुत शांति से सोचा है कि देवराज चौहान को साथ लेना हर मामले में फायदेमंद रहेगा।"

भंडारे, बाबू भाई को देखता रहा।

कई पलों तक उनके बीच खामोशी रही।

"क्या सोचता है?"

"मेरी समझ में तो कुछ नहीं आ रहा कि तुम्हारी बात सही है या गलत।"

"तेरी समझ में नहीं आ रहा तो मेरी मान ले। मेरी समझ में बहुत कुछ आ रहा है।"

"वागले रमाकांत बहुत खतरनाक आदमी है।" भंडारे ने सिर हिलाकर कहा।

"अगर काम सफलता से हो गया तो वो देवराज चौहान के पीछे पड़ जाएगा। तुम्हें खिसक जाने का वक्त मिल जाएगा।"

"सही कह रहे हो?"

"बाबू भाई पर भरोसा नहीं?"

"तुम पर ही तो भरोसा है।"

"तो मान ले मेरी बात। देवराज चौहान हमें बचाएगा।" बाबू भाई ने जैसे फैसला सुनाया हो।

"मुझे सोचने का वक्त दे।" भंडारे ने गंभीर स्वर में कहा।

"रत्ना से सलाह लेगा?"

"नहीं, परन्तु मुझे सोचने का वक्त चाहिए।"

"सोच ले, आराम से सोच। देवराज चौहान, वागले रमाकांत के सामने तेरी ढाल बन जाएगा। जब उसे पता चलेगा कि इस काम में डकैती मास्टर देवराज चौहान है तो वो तुझे भूलकर उसके पीछे पड़ जाएगा। तब तक तू खिसक लेना।"

"बाबू भाई, तूने तो परेशानी खड़ी कर दी मेरे दिमाग में।"

"आराम से सोचना फिर मेरे से बात करना। आज शाम तू क्या करेगा?"

"अब मोहन्ती से बात करूंगा।"

"जैकब कैंडी से भी बात कर लेना। ज्यादा आदमी होने बेहतर रहेंगे।"

"आदमी इकट्ठे कर लूं और योजना तूने तैयार नहीं की?" भंडारे कह उठा।

"सब काम हो जायेंगे वक्त आने पर। जैसे मैं कहता हूं वैसे ही तैयारी करता जा।" बाबू भाई गंभीर स्वर में बोला।

■■■

तयशुदा जगह पर भंडारे और मोहन्ती मिले।

रात के साढ़े नौ बज रहे थे। उनकी मुलाकात एक शॉपिंग मॉल में हुई थी। मॉल में रौनक थी। लोगों की भीड़ थी। वहां के रेस्टोरेंट भरे पड़े थे। तेज रोशनियों में हर चीज चमक रही थी।

"हम दस महीने पहले मिले थे।" मोहन्ती मुस्कुराकर बोला--- "पहले से मोटा हो गया है।"

"तेरा गुस्सा वैसा ही है या कम हो गया?" भंडारे भी मुस्कुराया।

"गुस्सा तो मेरे मरने के साथ ही जाएगा।" मोहन्ती हंसा।

"एक काम है। पर सोचता हूं कि तू अपने गुस्से की वजह से मौके पर काम को बिगाड़ ना दे।"

"पहले बिगाड़ा कभी तेरा काम?"

"एक बार ऐसा होने लगा था वो तो मैंने गोली चलाकर हालातों पर काबू पा लिया था।"

"बहुत पुरानी बात है।"

"इस बार बड़ा काम है।"

"ये तो अच्छी बात है।"

"अपने गुस्से को काबू में रखकर चलना होगा। गड़बड़ मत कर देना।"

"मैं बेवकूफी नहीं करता। इस काम से हाथ में कितना आएगा?" मोहन्ती ने पूछा।

"दस करोड़...।"

मोहन्ती ने गम्भीर निगाहों से भंडारे को देखा।

"दस करोड़?"

"हां...।"

"कितने का हाथ मारा जाएगा?"

"ये जानना तेरे काम का नहीं है। तेरे को दस करोड़ मिलेगा।" भंडारे बोला।

"मतलब कि साठ-सत्तर करोड़ का तो काम होगा ही?"

"कृष्णा पाण्डे भी इस काम में है। उसे उसे भी दसकरोड़ दिया जाएगा। एक और भी है। उसे भी इतना ही। इनके अलावा एक और भी है। बड़ा काम है तो खर्चे भी बड़े हैं। काम रास्ते पर पड़े नहीं मिल जाते। काम को ढूंढना पड़ता है।"

मोहन्ती सिर हिलाकर कह उठा---

"कहां पर काम करना है। इतनी बड़ी रकम कहां इकट्ठी होने जा रही है?"

"जो तेरे को बताना था ,बता दिया, और कुछ भी बताना मना है। काम दस-बारह दिन में होगा। खतरा दस करोड़ जितना है।"

"जब एक साथ काम कर रहे हैं तो मालूम होना चाहिए कि कहां काम करना है?"

"जरूरी तो नहीं कि बताया जाए...।"

"जरूरी है।"

"सरकार बड़े-बड़े ऑपरेशन करती है। वो तो सबको नहीं बताती कि कहां पर अटैक करना है। सिर्फ मौके पर सैनिकों को मंजिल के सामने खड़ा कर दिया जाता है और उस जगह के बारे में बता दिया जाता है।"

"तो तुम भी हमारे साथ ऐसा ही करने वाले हो।" मोहन्ती मुस्कुराया।

"बाबू भाई ने कहा है ऐसा।"

"कम-से-कम इतना तो बता दे कि पैसा किसका है, जिस पर हम हाथ मारेंगे?"

"तेरे को मेरे साथ काम नहीं करना तो वैसे ही कह दे। मैं वैसे ही मैं किसी और को साथ ले लूंगा।"

मोहन्ती ने गहरी सांस ली।

"काम होने तक, इस मामले को तू गुप्त रखना चाहता है तो मैं क्या कर सकता हूं। मानी तेरी बात।"

"बाबू भाई की बात मुझे रखनी पड़ती है। वो ऐसा चाहता है।"

"योजना बना ली बाबू भाई ने?"

"योजना लगभग तैयार है, और कई तरह की तैयारियां करनी हैं।"

"मेरे लायक काम बता।"

"तैयारी तो मिलकर करेंगे।" भंडारे मुस्कुराया--- "कल फोन करूंगा तुझे।"

■■■

जैकब कैंडी!

इंसान होते हुए भी वो कमीने कुत्ते जैसा था। सिर्फ अपनी सोचता था। सामने वाले से कितनी भी यारी क्यों ना हो। मतलब निकलता हो तो उसकी भी गर्दन काट देता था। उसे सिर्फ अपनी बेहतरी से मतलब था। पन्द्रह साल पहले मध्य प्रदेश के जबलपुर के साथ लगने वाले गांव से रिश्तेदार के साथ मुंबई कमाने आया था। तब वो पन्द्रह बरस का था। आज तीस का था और दादागिरी के धंधे में पांव जमा चुका था। तीन साल जेल में भी रह आया था। मुंबई में कदम रखने के बाद वो कभी भी अपने गांव नहीं गया था और अपनी कमीनी आदतों की वजह से कई दुश्मन बना लिए थे। ऐसे में वो सतर्क रहता था कि कोई उसकी पीठ में छुरा ना डाल दे। रहने को दो-तीन ऐसे ठिकाने बना रखे थे कि जिनके बारे में किसी को पता नहीं था। कभी एक जगह रहता तो कभी दूसरी जगह। पैसे की उसे कभी परेशानी नहीं होती थी।

छः महीने पहले ही उसने पैंतीस लाख का हाथ मारा था और अब मजे से बैठा उन पैसों से मौज कर रहा था। थोड़ा-सा पैसा अपने पास रखकर बाकी ब्याज पर चढ़ा रखा था। वो ऐसे ही करता था। हाथ मारा और पैसों को ब्याज पर या किसी धंधे में किसी के साथ लगा दिया।

इस वक्त सायन की झोपड़-पट्टी में एक झोपड़ी में दारू की बोतलें खोले बैठा था। ये झोपड़ी उसकी अपनी थी और रहने का सुरक्षित ठिकाना था। कोई उसे नहीं जानता था कि वो कौन है। ग्यारह बज रहे थे रात के। दूसरी गली में किसी का ब्याह हो रहा था। वहां से ढोलकी और गानों की आवाजें आ रही थीं। झोपड़ी में ट्यूबलाइट रोशन थी। दारू के साथ मुर्गा भी रखा हुआ था। वहां चारपाई के अलावा दो कुर्सियां और टेबल था। आधी बोतल वो खाली कर चुका था। चेहरा नशे में तमतमा रहा था। आंखें चढ़ी हुई थीं।

तभी उसका मोबाइल बजा।

"बोल...।" जैकब कैंडी ने बात की। आवाज नशे में भारी थी।

"कैंडी।" दूसरी तरफ से भंडारे की आवाज कानों में पड़ी।

"कौन तू? आवाज तेरी पहचानी लगती है, नाम बोल।"

"जगदीप भंडारे...।"

"ओह, भंडारे तू... मेरा ये नंबर किधर से मिला?"

"बाबू भाई ने दिया।"

"मैंने तो नंबर बदल लिया था, फिर उसे कैसे पता...?"

"बाबू भाई अपने काम के लोगों की खबर रखता है...।"

"कैसे फोन मारा?"

"काम के बारे में बात करनी है। फुर्सत में है या काम पर लगा है...।"

"तू काम बोल...।"

"मिल ले...।"

"अभी?"

"अभी मिलने में क्या हर्ज है। किधर है तू?" उधर से भंडारे ने पूछा।

"ये मत पूछ कि किधर हूं मैं। अभी मिलना है तो सायन के रॉयल रेस्टोरेंट में पहुंच। मैं उधर पहुंचता हूं।"

"आधे घंटे बाद वहीं पे मिलते हैं।"

"सुन...।" जैकब कैंडी ने टोका।

"हां...।"

"काम आज रात को तो नहीं करना ना?"

"नहीं, अभी सिर्फ काम के बारे में बात करनी है।"

"ठीक है। आज अपना मूड आराम करने का है। रॉयल रेस्टोरेंट पहुंच। मैं उधर अभी आया।"

■■■

भंडारे ने एक ही निगाह में पहचान लिया कि कैंडी तगड़ी पिये हुए है। वो रेस्टोरेंट के कोने वाली टेबल संभाले बैठा था। भंडारे उसके सामने कुर्सी पर बैठा तो जैकब कैंडी नशे भरे स्वर में कहा उठा---

"आपुन इधर दोस्त के यहां आया था तो वहां बोतल खाली कर दी। मैं उधर से चलने ही वाला था कि तेरा फोन आ गया। ये बता डिनर करेगा। कुछ खाऊंगा तो नशा कम होगा। बोल, क्या चलेगा?"

भंडारे ने कैंडी की आंखों में झांककर कहा।

"तू तगड़े नशे में है। शायद अभी बात करना ठीक नहीं होगा काम के बारे में...।"

कैंडी ने फौरन हाथ बढ़ाकर उसकी कलाई पकड़ ली। चेहरे पर सख्ती आ गई।

दोनों की नजरें मिलीं।

"मुझे नशे में कहकर, मेरे मुंह पर जूता मत मार। मैं कितनी भी पी लूं, होश में रहता हूं।"

भंडारे मुस्कुराया।

कैंडी ने उसकी कलाई छोड़ दी। वो फौरन ही सामान्य दिखने लगा था।

वेटर को बुलाकर डिनर का आर्डर दिया फिर भंडारे से बोला---

"कह दे अब जो कहना है।"

"दस करोड़ का काम है।" भंडारे ने धीमे स्वर में कहा--- "तेरे...।"

"दस करोड़ का काम?" कैंडी के होंठों से भी धीमा स्वर निकला--- "मुझसे कितना मिलेगा?"

भंडारे मुस्कुराया।

जैकब कैंडी उसे देखता रहा।

"दस करोड़ तुझे मिलेगा। काम ज्यादा का है।"

कैंडी के मस्तिष्क को झटका लगा। नशा कुछ उतरा।

"दस करोड़ मुझे मिलेगा?" कैंडी अविश्वास भरे स्वर में बोला।

भंडारे ने सहमति में सिर हिला दिया।

"मजाक करता है मेरे से। इतने बड़े हाथ के बारे में तो मैं सोच भी नहीं सकता।"

"ये मजाक नहीं, सच है।" भंडारे ने शांत स्वर में कहा।

कैंडी संभलकर बैठ गया।

"कुल काम कितने करोड़ का है?"

"इससे तेरे को क्या? तेरे को तो दस करोड़ मिल रहा है। ये तेरे लिए तगड़ी रकम है।"

कैंडी ने अपने मुंह पर हाथ फेरा। वो दस करोड़ की बात हजम करने की चेष्टा कर रहा था।

"कब करना है काम?" कैंडी अपने को संभाल रहा था।

"दस दिन तक।"

"कितने लोग हैं इस काम में?"

"बाबू भाई को मिलाकर छः...।"

"योजना हमेशा की तरह बाबू भाई की है?"

"हां। बाबू भाई ने ही कहा कि कैंडी को लेना है।"

"बाबू भाई बढ़िया आदमी है।" कैंडी का नशा अब कम हो गया था। चेहरा पहले की तरह तमतमा रहा था--- "जो भी काम करेगा, सबको दस करोड़ मिलेगा।"

"हां...।"

जैकब कैंडी ने गहरी सांस लेकर कहा।

"फिर तो ये काम नब्बे-सौ करोड़ का होगा। तू अपने लिए बीस-पच्चीस करोड़ रख रहा...।"

"तू सिर्फ अपने दस करोड़ के बारे में सोच। कुछ और सोचा तो तेरे को काम से बाहर कर दूंगा।"

"गर्म क्यों होता है। बात तो करनी-पूछनी पड़ती है। काम कहां करना है?"

"काम कहां करना है, ये सिर्फ मौके पर ही बताया जाएगा। पहले नहीं।"

"ऐसा क्यों?"

"बात बाहर निकल गई तो बाबू भाई की योजना फेल हो जाएगी। बाबू भाई ने बताने को मना किया है।"

जैकब कैंडी के चेहरे पर सोच के भाव नाच रहे थे।

"इतना मोटा माल किसका है, जिस पर हाथ डाला जाएगा।"

"मैं नहीं जानता। बाबू भाई ने ये बात मुझे नहीं बताई।" भंडारे ने शांत स्वर में कहा।

"तुझे नहीं बताई बाबू भाई ने?"

"नहीं...।"

"क्यों झूठ बोलता है।" जैकब कैंडी हंसा--- "तुझे सब पता है। ये बात भी बाबू भाई ने बताने को मना किया है?"

"हां...।"

तभी वेटर ट्रेन में प्लेटें रखे पहुंचा और टेबल पर रखने लगा।

उनकी बातचीत रुक गई।

दो-तीन मिनट में वेटर ने दो चक्कर लगाकर टेबल पर खाना लगाया और चला गया।

दोनों खाना खाने लगे।

"तो तुम मुझे ना तो ये बताने को तैयार हो कि कहां पर हाथ मारना है। ना ही ये बता रहे हो कि वो पैसा किसका है जो हमारे पास आने वाला है। तुम दस करोड़ देने को कहकर मुझे काम में साथ ले रहे हो।" कैंडी बोला।

"हां...।"

"तुम्हें कुछ तो बताना चाहिए।"

"इसके अलावा कुछ नहीं बताया जाएगा कैंडी। सिर्फ मौके पर काम के वक्त जरूरत की बात ही बताई जाएगी। तुम्हें मिलने वाले ड़ा करोड़ से मतलब रखना चाहिए। बाबू भाई ने बताने को मना किया है। चाहो तो इस बारे में बाबू भाई से बात कर लो।"

"कोई फायदा नहीं होगा। तुम नहीं बता रहे तो वो भी नहीं बताएगा।" खाते-खाते कैंडी ने कहा।

"तो तुम्हारा काम करने का इरादा है?"

"पक्का...। दस करोड़ कोई बेवकूफ ही छोड़ेगा।"

"दस दिन तक काम होगा। हर वक्त तैयार रहना है और फोन नंबर मत बदल लेना।"

कैंडी ने सिर हिलाकर कहा।

"और कौन है काम में?"

"कृष्णा पाण्डे और मोहन्ती...।"

"मोहन्ती को थोड़ा-बहुत जानता हूं। कृष्णा पांडे कौन है?"

"पाण्डे दो-तीन बार मेरे साथ काम कर चुका है।"

"जांचा-परखा आदमी है...।" खाते-खाते कैंडी ने सिर हिलाया।

"पूरी तरह...।"

"दो वो, एक तुम, एक मैं, एक बाबू भाई। पांच हो गए। तुमने छः की बात की थी। छठा कौन है?"

"अभी उससे बात करनी है।" भंडारे ने अनमने मन से कहा।

"मतलब कि बंदा चुन रखा है।"

"हां...।"

"कौन है?"

"बात हो जाने पर उसका नाम बताऊंगा।"

चंद पलों की खामोशी के बाद कैंडी ने कहा---

"दस करोड़ से मेरी जिंदगी संवर जाएगी। आराम से बैठकर जिंदगी बिताऊंगा।"

"काम में खतरा भी है कैंडी।"

"दस करोड़ हिस्से में आने वाला है तो खतरे की परवाह नहीं। पांच-सात को मारना भी पड़ा तो उड़ा दूंगा।"

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