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विक्रान्त होटल में मनोहर लाल के कमरे में उसकी और शबनम की मुलाकात हुई।


उस रोज का 'डेली एक्सप्रेस' उस वक्त शबनम की गोद में पड़ा था। उसने उसे यूं मोड़ लिया था कि कुमारी गिरिजा माथुर वाली खबर सामने आ गई थी ।


"इत्तफाक से एक दिलचस्प सिलसिला हाथ आ रहा है" - मनोहर बोला- "इसमें सम्भावनायें हैं । "


"क्या सम्भावनायें हैं ?" - शबनम बोली ।


"तुमने खबर अच्छी तरह पढी है ? "


"हां"


" और तस्वीर भी अच्छी तरह देखी है ?"


"हां"


"इस सिलसिले में मैंने थोड़ी पूछताछ की है। मुझे मालूम हुआ है कि गिरिजा एक निहायत शरीफ और खानदानी लड़की है जबकि जगतपाल एक घटिया जरायम-पेशा आदमी है । अब तुम्हीं बताओ इन दोनों में से भरोसे के काबिल कौन है ? कौन सच बोल रहा हो सकता है ?"


"लड़की ।" - शबनम बेहिचक बोली ।


“करैक्ट । लेकिन हालात उसकी कथित सच्ची बात से इत्तफाक जाहिर करते नहीं मालूम हो रहे । उसके बयान के मुताबिक राजनारायण की ज्वेल शाप कर डाका पड़ा है। लेकिन राजनारायण कहता है कि डाका नहीं पड़ा है। उसका माल न लुटा हो, यह तो हो सकता है लेकिन वह तो इस बात से भी इनकार कर रहा है कि जगतपाल उसकी दुकान में आया था या उसने उसे रिवाल्वर दिखाई थी।"


"इसका तो एक ही मतलब हो सकता है।"


"क्या ?"


"कि यह राजनारायण और जगतपाल की लड़की को खराब करने की कोई मिली-भगत है । "


"किसलिये ? किस फायदे की खातिर ?"


“अखबार में लिखा है कि लड़की अपना प्रोविजन स्टोर बेचना चाहती है । क्या पता उसे यूं हलकान करके वे लोग उसे अपना स्टोर औने-पौने दामों में बेचने के लिये मजबूर करना चाहते हों । "


“उहूं । राजनारायण स्टोर का क्या करेगा ? वह तो जौहरी है । उसका अचार-मुरब्बे और मिर्च-मसाले बेचने वाले स्टोर से क्या मतलब ? और जगतपाल जैसा जरायमपेशा आदमी दुकानदार बनने की कोशिश कर रहा हो, यह बात भी गले से नहीं उतरती ।"


हों ?" " शायद वे दोनों किसी और के हित में वह सब कर रहे


"अगर ऐसा है तो वे बड़ा बेहूदा तरीका अख्तियार कर रहे हैं।"


“जो तरीका कारआमद साबित हो उसे बेहूदा नहीं कहा जा सकता ।"


"हूं।"


"एक बात और ।"


"क्या ?"


"लड़की कहती है कि उसने जब जगतपाल को ज्वेल शाप से निकलते देखा था तो उसके हाथ में रिवाल्वर थी । राजनारायण को रिवाल्वर से जिस तरीके से कवर किये हुए उसे शाप से बाहर निकलता देखा होना वह बताती है, उस लिहाज से उसने स्टोर का कुछ माल भी जरूर लूटा होगा । फिर वह कहती है कि उसके देखते-देखते ही वह प्रोविजन स्टोर में घुस गया था और वहां भी वह कुछ ही क्षणों में गिरफ्तार हो गया था । अखबार में ही लिखा है कि लूट का माल या कोई रिवाल्वर तो उसके पास से बरामद हुई नहीं । अब सवाल यह पैदा होता है कि ये दोनों चीजें गई तो कहां गई ? उन्हें वह निगल तो गया नहीं होगा।”


“यही तो जगतपाल भी कहता है । इसीलिये तो पुलिस को गिरिजा की कहानी पर विश्वास नहीं हो रहा । "


"लेकिन तुम्हें विश्वास है ?"


"हां । वैसे भी लड़की की कहानी पर विश्वास करके ही हमारा कोई कल्याण हो सकता है । "


"करना क्या चाहते हो तुम ?"


“यह भी कोई पूछने की बात है ? धन्धा करना चाहते हैं, भाई । इसीलिये तो हम इस शहर में आये हैं ।”


“बकरा किसे बनाना चाहते हो ?"


"गिरिजा को तो बकरा बनाया जा नहीं सकता । वह तो बेचारी पहले ही पैसे से तंग है और अपना स्टोर बेचने पर आमादा है । राजनारायण बड़ा काइयां आदमी है । वह बकरा बनने वाला नहीं । जो आदमी स्टोर लुट जाने पर इस हकीकत से इनकार कर रहा हो, वह कितना पहुंचा हुआ आदमी होगा, इसकी कल्पना तुम कर ही सकती हो।”


"ऐसा आदमी खरा धन्धा तो कर रहा हो नहीं सकता


“मैने उसके बारे में बहुत पूछताछ की है । एजरा स्ट्रीट इस शहर का बड़ा हल्का इलाका है। वहां सम्पन्न लोग नहीं रहते। वहां जेवरों की दुकानदारी की कोई खास गुंजायश नहीं है लेकिन फिर भी राजनारायण ने अपनी ज्वेल शाप वहां खोली हुई है, यही बात उसके खिलाफ मेरे मन में शक की बुनियाद पैदा करने के लिये काफी थी। मुझे मालूम हुआ है कि राजनारायण की दुकानदारी केवल दिखावा है । वास्तव में वह फैंस है। "


"फैंस !"


"हां । फैंस चोरी का माल इधर से उधर करने वाले बिचौलिये को कहते हैं । राजनारायण की दुकानदारी एक झूठा फ्रन्ट है । उसका असली धन्धा चोरी के माल की खरीद-फरोख्त का ही है । वह चोरी के हीरे-जवाहरात कोड़ियों के मोल खरीदता है और फिर उनका हुलिया तब्दील करके वाजिब दामों पर आगे बेचता है । तुम्हीं सोचो, ऐसा आदमी अपनी दुकान से कोई माल लुट जाने की शिकायत पुलिस को कैसे कर सकता है ?"


" यानी कि हकीकत में माल लुटा है ?"


'अगर हमने गिरिजा के बयान पर विश्वास करा है तो माल तो जरूर लुटा है। मेरे ख्याल से तो राजनारायण ने जगतपाल को जरूर डबल क्रास किया होगा और जगतपाल ने उससे हिसाब बराबर करने का यह तरीका अख्तियार किया होगा ।”


"लेकिन माल तो जगतपाल के पास से बरामद नहीं हुआ। वह गया तो कहां गया ?"


“कहीं तो गया ही होगा । यही तो मालूम करना है कि माल कहां गया ।"


"लेकिन कैसे ?"


"जरा अखबार दिखाओ तो ।”


शबनम ने अखबार उसे सौंप दिया।


मनोहर बड़ी बारीकी से अखबार में छपी खबर और उसके साथ छपी गिरिजा और जगतपाल की तस्वीर का मुआयना करने लगा ।


"तुमने मेरे पहले सवाल का जवाब नहीं दिया” - शबनम तनिक उतावले स्वर में बोली- "बकरा कौन बनेगा ?"


"मैंने पहले ही कहा है कि गिरिजा और राजनारायण में से तो कोई बकरा बनने वाला नहीं ।"


“तो क्या जगतपाल ?"


“उस साले मामूली उचक्के से हमें क्या हासिल होगा?"


"तो फिर ?”


"बकरा बाहर से आयेगा जिसको बाकायदा कील की तरह इस केस में ठोका जायेगा ।"


"कौन ?"


"यहां एक बुजुर्गवार, लेकिन निहायत कमीने और निहायत लालची बैरिस्टर साहब हैं जो आजकल मुझसे यारी गांठने की कोशिश कर रहे हैं । "


“क्यों ?"


“मैने उन्हें कहा है कि बम्बई में एक प्राइवेट डिटेक्टिव एजेंसी चलाता हूं जिसकी भारत के कई शहरों में ब्रांचें हैं । अपनी एजेन्सी की एक ब्रांच मैं यहां भी खोलना चाहता हूं और इसी सिलसिले में यहां आया हूं । बैरिस्टर साहब बहुत प्रभावित हुए हैं मेरी बातों से। वे जानते हैं कि प्राइवेट डिटेक्टिव एजेन्सी चलाने वालों को वकीलों की सेवाओं की आम जरूरत होती है। वे अपनी सेवायें मुझे अर्पित करना चाहते हैं, इसलिए आजकल बहुत मस्का मार रहे हैं मुझे । उन्हीं को बकरा बनाने का इरादा है मेरा।”


"नाम क्या है वकील साहब का ?"


"दीवान पुरुषोत्तम दास ।”


"ये वकील साहब...


एकाएक मनोहर के मुंह से एक लम्बी सीटी निकल गई


"क्या हुआ ?" - शबनम सकपकाई ।


"लगता है" - मनोहर अखबर में छपी तस्वीर को एकटक देखता हुआ बोला- "माल का पता लग गया ।”


"क्या ?"


"उस लड़की से मिलना होगा" - मनोहर अखबार परे फेंकता हुआ बोला- "उसके स्टोर का चक्कर लगाना होगा|"


शबनम असमंजसपूर्ण निगाहों से अपने वयोवृद्ध सहयोगी ठग हो देखती रही ।


******


होटल की बगल में ही एक कार रैन्टल एजेन्सी थी जहां से ड्राइवर समेत या ड्राइवर कि बिना कारें किराये पर मिलती थीं । विकास ने वहां से एक फियेट कार हासिल की और फिर दोपहर तक का काफी समय उस नगर का मुआयना करने में, उसका जुगराफिया समझने में गुजारा ।


विशालगढ एक छोटा सा लेकिन समृद्ध नगर था । वहां बड़े कल-कारखाने तो नहीं थे लेकिन समाल स्केल इन्डस्ट्रीज की भरमार थी और ट्रांसपोर्ट का बिजनेस वहां बहुत था । एक सुन्दर झील और सोना नदी के सामीप्य की वजह से नगर की मनोरमा में भी पर्याप्त वृद्धि हुई थी।


ठगी के अपने मौजूदा अभियान के लिये विकास ने उस नगर को अनायस ही नहीं चुन लिया था । उसने बहुत सोच समझ कर और बहुत रिसर्च के बाद ऐसा किया था । वह समीप ही स्थित राजनगर नाम के महानगर में भी जा सकता था लेकिन वह जानता था कि उसका मतलब एक ऐसे छोटे नगर में ही हल हो सकता था जहां तकरीबन समृद्ध लोग एक दूसरे को जानते थे । वहां का पुलिस विभाग भी महानगर की पुलिस जैसा कार्य कुशल नहीं था। वहां से उसे पूरी उम्मीद थी कि उसकी गिरफ्तारी के बाद पुलिस वाले उसे बाहर से आया आदमी जानकर उससे बुरी तरह से पेश आयेंगे और अपने नगर के लोगों के साथ हमदर्दी और दरियादिली का व्यवहार करेंगे । गिरफ्तार तो उसने होना ही था । गिरफ्तारी के बाद स्थानीय पुलिस के हाथों वह जितना ज्यादा परेशान होता जितना ज्यादा खराब और जलील होता उतना ही ज्यादा उसे फायदा पहुंचता ।


रिचमंड रोड से गुजरते समय एक स्थान पर उसने कार रोकी ।


सड़क के किनारे एक बड़ा-सा कम्पाउन्ड था जिसमें दस बारह कारें खड़ी थीं। उन कारों में एक विदेशी स्पोर्टस कार भी थी । कम्पाउण्ड के प्रवेश द्वार के ऊपर लिखा था -


कार बाजार


प्रोप्राइटर : प्रकाशदेव महाजन |


कम्पाउण्ड के पृष्ठ भाग में एक छोटी सी एक मंजिली इमारत थी जो शायद मालिक का आफिस था ।


स्पोर्टस कार शक्ल सूरत में अच्छी हालत में मालूम होती थी ।


वह कमर्शियल स्ट्रीट पहुंचा ।


वहां सड़क के दहाने पर ही उसे 'कार बाजार' जैसा ही एक और गैरेज दिखाई दिया। वहां कम्पाउन्ड में पांच छः कारें खड़ी थीं । वहां लगे बोर्ड पर लिखा था : ।


मेहतानीज गैरेज


यहां सैकेण्ड हैंड कारें खरीदी और बेची जाती हैं ।


प्रोप्राइटर : जी. एन. मेहतानी ।


वैरी गुड विकास मन-ही-मन बुदबुदाया । -


उसने कार कमर्शियल स्ट्रीट में आगे बढा दी ।


अशोका प्रापर्टी डीलर्स का आफिस तलाश करने में उसे कोई दिक्कत न हुई । उसका मालिक सरदार प्रीतमसिंह एक सफेद दाढी वाला, बड़ा खुशमिजाज सिख निकला ।


विकास ने उसे अपना परिचय दिया और बताया कि वह उस नगर में सैटल होने की नीयत से आया था और इसलिये एक छोटा सा मकान खरीदना चाहता था ।


- "कितनी रकम खर्च करने का इरादा रखते हैं आप ? " प्रीतमसिंह ने पूछा ।


"नदी किनारे जो छोटे-छोटे काटेज बने हुए हैं" विकास ने पूछा- "वैसा एक काटेज कितने में मिल जाता है ?"


"नब्बे पिचानवे हजार में बात बन जाती है, बाउ जी ।"


"यह तो बहुत रकम है ।"


“इलाका भी तो देखो न । उतनी अकामोडेशन वाला मकान एजरा स्ट्रीट में पैंतीस-चालीस हजार में मिल जाता है ।”


"यहां आपके बैंक प्रापर्टी खरीदने के लिये कोई कर्जा वगैरह दे देते हैं ?"


"दे तो देते हैं लेकिन बैंक से कर्जा हासिल करना हर किसी के बस की बात नहीं ।”


"क्यों ?"


"रिश्वत चलती है जी, कर्जा पास कराने के लिये ।"


“अच्छा ! कितनी ?"


"दस पर्सेन्ट तक ।”


"और कर्जा कितना मिल जाता है ।"


"प्रापर्टी की कीमत के साठ पर्सेन्ट तक तो आम मिल जाता है। कभी-कभी ज्यादा भी मिल जाता है ।"


"हूं।"


"लेकिन बाकी का चालीस पर्सेन्ट एडवांस में बैंक में जमा होने पर ही कर्जे पर विचार होता है । "


"हूं। यानी कि मैं चालीस हजार रुपये पल्ले से बैंक में जमा करा दूं और बैंक वालों को छः हजार रुपये रिश्वत भी देना कबूल कर लूं तो मुझे साठ हजार रुपये का कर्जा मिल सकता है और मैं एक लाख रुपये तक की प्रापर्टी खरीदने का जुगाड़ बना सकता हूं।"


"हां"


"क्या कर्जा दिलवाने में आप मेरी कोई मदद कर सकते हैं ?" 


"मैं क्या कर सकता हूं? यह काम तो आपको खुद ही करना होगा ।"


- “कम से कम एकाउन्ट खुलवाने में तो आप मेरी मदद कर सकते हैं । जब तक एकाउन्ट नहीं खुलेगा, मैं पल्ले से चालीस हजार रुपये कैसे जमा कराऊंगा ? एकाउन्ट खोलने के लिये बैंक वाले इन्ट्रोडक्शन मांगते हैं। मैं इस शहर में परदेसी हूं। मैं किस की इन्ट्रोडक्शन दूंगा ?"


प्रीतमसिंह हिचकिचाया ।


“सरदार साहब, मैं गरीब आदमी हूं बहुत थोड़े-थोड़े पैसे जोड़ कर मैंने मकान खरीदने लायक रकम इकट्ठी की है । बूंद-बूंद से घड़ा भरा है मैंने । बैंक से कर्जा मुझे नहीं भी मिला तो मकान की कीमत नगद तो मैं फिर भी अदा नहीं करूंगा । मैं तो जिससे मकान खरीदूंगा, एकाउन्ट्स पेयी चैक दूंगा उसे ।"


"तब तो मकान की पूरी कीमत की रजिस्ट्री करानी होगी।" 


"मुझे कोई एतराज नहीं । लेकिन मैं रिस्क नहीं लेना चाहता ।" 


"हूं।"


"इसलिये यहां के किसी बैंक में मेरा एकाउन्ट खोलना निहायत जरूरी है ।"


“आप इस मामले में सीरियस हैं, बाउ जी ?"


"कमाल है ? सीरियस न होता तो मैं आपके पास आता ? और आप का नाम तो मुझे खास तौर से सुझाया गया था।"


“अच्छा ! किसने सुझाया ?"


"रिवर व्यू होटल की रिसैप्शनिस्ट योगिता ने ।"


"आप रिवर व्यू में ठहरे हुए हैं ?"


"ठीक है। यहां कमर्शयल स्ट्रीट में ही हमारी वाली लाइन में ही कोई दो ब्लाक आगे नैशनल बैंक है । आप उसके मैनेजर स्वरूप दत्त के पास चले जाइये । उसे कह दीजियेगा कि आप को अशोका प्रापर्टी वाले सरदार प्रीतमसिंह ने भेजा है । आपका एकाउन्ट खुल जायेगा ।”


"थैंक्यू" - विकास उठता हुआ बोला- "मैं एकाउन्ट खोलकर वापिस आता हूं, फिर आप मुझे कोई अच्छा-सा काटेज दिखाइयेगा।"


"काटेज दिखाने की हम फीस लेते हैं, बाउ जी ।"


"कितनी ?"


“पचास रुपये । काटेज आपको पसन्द आये या न आये, पचास रुपये फी काटेज तो आप को देना ही पड़ेगा ।"


"मुझे मंजूर है" - विकास ने जेब से एक सौ का नोट निकाल - “यह सौ रुपये एडवांस रखिये आप ।”


“अरे नहीं, नहीं, इसकी जरूरत नहीं।"


" रखिये तो, सरदार साहब ।" - विकास ने सौ का नोट जबरन प्रीतमसिंह की मुट्ठी में ठूंस दिया ।


“चलो आपकी मर्जी ।" - प्रीतमसिंह बोला ।


"लेकिन एक बात है, सरदार साहब ।"


"क्या ?" - प्रीतमसिंह सशंक स्वर में बोला ।


"अगर मुझे पहला ही काटेज पसन्द आ गया तो ये सौ रुपये मैं आपकी कमीशन में से काट लूंगा।”


“जरूर ।” - प्रीतमसिंह हंसता हुआ बोला- "जरूर ।”


विकास ने उससे उससे हाथ मिलाया और वहां से विदा हो गया ।


अपनी योजना का पहला पड़ाव उसने निर्विघ्न पार कर लिया था ।


वह नैशनल बैंक पहुंचा ।


वहां एक चपरासी ने उसे फौरन मैनेजर स्वरूप दत्त के आफिस में पहुंचा दिया ।


स्वरूप दत्त एक अधेड़ावस्था का आदतन मिलनसार आदमी निकला । वह विकास के साथ बड़े प्यार से पेश आया ।


“तशरीफ रखिये, जनाब ।" - वह बोला ।


विकास उसने सामने बैठ गया ।


"मैं आपके बैंक में खाता खोलना चाहता हूं।" विकास बोला ।


"उसके लिये आपको अपना खाता किसी से इन्ट्रोड्यूस करवाना होगा ।" - स्वरुप दत्त बोला ।


"मुझे मालूम है । मैं अशोका प्रापर्टी वाले सरदार प्रीतमसिंह का दोस्त हूं । उन्होंने ही मुझे आपको पास भेजा है। "


"फिर तो कोई बात ही नहीं है। प्रीतमसिंह जी तो मेरे भी दोस्त हैं ।”


"जानता हूं । प्रीतमसिंह जी ने बताया था मुझे आपकी दोस्ती की वजह से ही उन्होंने मुझे विश्वास दिलाया था कि यहां खाता खुलवाने में मुझे कोई दिक्कत नहीं होगी ।"


“कतई कोई दिक्कत नहीं होगी, गुप्ता साहब । हम तो आपके सेवक बैठे हैं । "


"थैंक्यू ।"


मैनेजर ने कालबैल बजा कर एक चपरासी को बुलाया और उससे खाता खोलने के लिये आवश्यक कागजात मंगवाये ।


विकास ने कागजात भरे और निर्दिष्ट स्थानों पर हस्ताक्षर कर दिये ।


मैनेजर ने उनमें से स्पैसिमन सिग्नेचर का कार्ड चपरासी को सौंप दिया और बोला- "इस पर सरदार प्रीतमसिंह के साइन करवा लाओ।"


चपरासी कार्ड लेकर चला गया ।


“पैसा कितना जमा कर रहे हैं, साहब ?" - मैनेजर ने पूछा।


उतर में विकास ने पचास हजार रुपये का एक ड्राफ्ट मैनेजर के सामने रख दिया ।


मैनेजर ने ड्राफ्ट देखा और बोला- "गुड | यह तो हमारे ही बैंक की जहांनारा रोड ब्रांच के नाम ड्राफ्ट है । इसकी रकम तो आज ही आपके खाते में लग जायेगी ।"


"शुक्रिया ।" - विकास बोला- "यही मैं चाहता हूं। दरअसल कल मैं एक कार खरीदना चाहता हूं । कार की कीमत का भुगतान मैं चैक द्वारा करना चाहता हूं । आज सारी कागजी कार्यवाही हो जायेगी तभी कल बात बनेगी।"


" आप अभी पांच मिनट में फ्री हो जायेंगे जनाब ।”


फिर विकास ने मैनेजर को भी वही पुड़िया दी कि वह उसी नगर में सैटल होने के इरादे से वहां आया था और जल्दी से जल्दी वहां कोई छोटा-मोटा रिहायशी मकान खरीदना चाहता था ।


"इस मामले में सरदार प्रीतमसिंह आपकी बहुत मदद कर सकते हैं । " - मैनेजर बोला ।


“सरासर कर सकते हैं" - विकास बोला - "कर रहे हैं । लेकिन मदद तो मुझे आपकी भी चाहिये ।"


"हमारी ?"


"जी हां । सुना है आपका बैंक प्रापर्टी खरीदने के लिये कर्जा देता है ।”


'ओह ! वह । आपको चाहिये कर्जा ?"


“जी हां । चाहिये तो।"


"ठीक है । पहले आप फैसला कर लीजिए कि आप क्या प्रापर्टी खरीदना चाहते हैं । फिर आप यहां अर्जी भर दीजियेगा । मैं जल्द से जल्द आपका काम करवा दूंगा ।"


"शुक्रिया ।" - विकास तनिक धीमे स्वर में बोला - " मुझे प्रीतमसिंह जी ने दस पर्सेन्ट वाली स्पेशल शर्त बता दी है, उसे मैं एडवांस में पूरी करने को तैयार हूं।"


मैंनेजर एक बार खांसा और फिर परे देखने लगा ।


तभी चपरासी वापिस लौटा ।


उसने प्रीतमसिंह का साइन किया हुआ कार्ड मैनेजर की मेज पर रख दिया ।


मैनेजर ने प्रीतमसिंह के हस्ताक्षरों का मुआयना किया और फिर सन्तुष्टिपूर्ण ढंग से सिर हिलाया ।


और पांच मिनट बाद विकास को पचास हजार के ड्राफ्ट की रसीद, पास बुक और चैक बुक मिल गई ।


विकास उठ खड़ा हुआ।


उसने विदा मांगी तो मैनेजर उसे अपने केबिन से बाहर तक छोड़ने आया ।


" जैसा कि मैंने अभी कहा था " विदा होने से पहले विकास बड़े सहज भाव से बोला- "मैं एक कार खरीदता चाहता हूं । सैकेण्ड हैंड । आपकी निगाह में कोई सैकेण्ड हैंड कार डीलर है जिसका धन्धा जरा भरोसे का और रियायत का हो ?"


"शहर


में चार-पांच कार डीलर हैं, जनाब" - मैनेजर बोला - " और सभी का धन्धा भरोसे का और रियायत का है ।”


" उनमें से कोई ऐसा डीलर है आपकी निगाह में जिसके पास कोई स्पोटर्स कार उपल्ब्ध हो ?"


"मेरी निगाह में तो ऐसा कोई डीलर नहीं है" - मैनेजर खेदपूर्ण स्वर में बोला - " और सच पूछिये तो कारों के बारे में मैं ज्यादा कुछ जानता भी नहीं।" -


"कोई बात नहीं । मैं खुद ही अपनी पसन्द की कार तलाश कर लूंगा।" विकास ने फिर उससे हाथ मिलाया - "थैंक्यू फार दि नाइस कोआपरेशन शोन ।”


“यू आर वैलकम ।" - मैनेजर बोला ।


विकास बैंक से बाहर निकल आया ।


मैनेजर अदालत में उसके हक में बहुत बढ़िया गवाह बनने वाला था । आखिर उसने इस बात की तसदीक करनी थी कि गिरफ्तारी से पहले उसके बैंक एकाउन्ट में पचास हजार रुपये जमा थे और स्पोर्टस कार खरीदने के बारे में वह बहुत गम्भीर था ।


यह भी अच्छा ही था कि मैनेजर को नहीं मालूम था कि नगर में स्पोर्टस कार किस कार डीलर के पास उपलब्ध थी। उसको यह बात मालूम होना विकास के लिए असुविधा का कारण बन सकता था ।


******


मनोहर लाल एजरा स्ट्रीट पहुंचा ।


वहां हर किसी को मालूम था कि गिरिजा माथुर का प्रोविजन स्टोर कहां था । शायद वह अखबार में छपी खबर की मेहरबानी थी ।


गिरिजा स्टोर में मौजूद थी । वह स्टोर के दहाने पर ही एक टेबल के पीछे बैठी हुई थी । वहीं लोग भीतर से खुद उठाकर लाई हुई चीजें चैक करवाते थे और उनका बिल बनवाकर उनकी कीमत अदा करते थे ।


मनोहर मालूम करके आया था कि स्टोर में टेलीफोन भी था जो स्टोर के पृष्ठ भाग में कहीं लगा हुआ था । यानी कि अगर टेलीफोन बजता था तो उसे अपनी सीट से उठकर पीछे कहीं जाना पड़ता था ।


एक पूर्वनिर्धारित समय पर शबनम वहां फोन करने वाली थी लेकिन उस फोन काल के आने में अभी काफी वक्त था।


स्टोर में दाखिल होने से पहले मनोहर ने आस-पास चारों तरफ निगाहें दौड़ाई । ज्वेल शाप और प्रोविजन स्टोर के बीच की सड़क के चप्पे-चप्पे पर उसकी निगाह फिर गई ।


एक स्थान पर उसकी निगाह ठिठकी।


एक स्थान पर एक गटर था जिसका गोल ढक्कन अपने स्थान से सरका हुआ था ।


वह समीप पहुंचा ।


बड़े आशापूर्ण ढंग से उसने गटर के भीतर झांका ।


भीतर उसे ऐसी कोई चीज न दिखाई दी जो वहां नहीं होनी चाहिए थी ।


वह स्टोर में दाखिल हुआ ।


उस वक्त वह फुल कर्नल की वर्दी में था और बहुत रोबदार और दबदबे वाला आदमी लग रहा था ।


गिरिजा पर उसका प्रत्याशित प्रभाव पड़ा ।


मनोहर उसको नजर अन्दाज करके सीधा उस तरफ पहुंचा जिधर डिब्बाबन्द वस्तुओं के डिब्बे एक दूसरे के ऊपर पिरामिड की सूरत में रखे हुए थे ।


"मैं आपकी कोई मदद करू ?" - गिरिजा बोली ।


"नो, थैंक्यू ।" - मनोहर बड़े रोबदार ढंग से बोला - "दिस इज सैल्फ सर्विस स्टोर । आई विल सैल्फ सर्व ।"


गिरिजा खामोश रही ।


"आई लाइक सैल्फ सर्विस स्टोर्स ।" - वह बोला । गिरिजा केवल मुस्काराई ।


मनोहर फिर डिब्बों का मुआयना करने लगा ।


गिरिजा अपने सामने रखे एक रजिस्टर पर झुक गई । इत्तफाक से उस वक्त स्टोर में मनोहर के अलावा कोई दूसरा ग्राहक नहीं था ।


मनोहर ने डिब्बों का वह पिरामिड तलाश किया जिसे उसने अखबार में छपी तस्वीर की पृष्ठभूमि में देखा था ।


वह पिरामिड गिरिजा की सीट के ऐन बगल में था ।


मनोहर ने देखा पिरामिड के तमाम डिब्बे सोहना ब्रांड के डिहाइड्रेटिड मटर के थे ।


उनमें से एक डिब्बा खास तौर से उसकी दिलचस्पी का केन्द्र था । लेकिन टेलीफोन की घण्टी बजने से पहले वह उसको हाथ नहीं लगाना चाहता था ।


उसी पिरामिड के नीचे जमीन पर चीनी, चावल, आटे बेसन वगैरह के खुले बोरे पड़े थे। उसने देखा चावलों के वहां तीन बोरे पड़े थे । दो में साधारण प्रकार के चावल थे लेकिन तीसरे में निहायत कीमती बासमती चावल भरा हुआ था ।


मटरों के एक विशिष्ट डिब्बे की तरह बासमती चावल का वह बोरा भी मनोहर की दिलचस्पी का केन्द्र बन गया ।


तभी स्टोर के पृष्ठ भाग में कहीं एकाएक टेलीफोन की घंटी बज उठी ।


गिरिजा उठकर फोन सुनने चली गई ।


उसकी पीठ फिरते ही मनोहर लाल ने सबसे बासमती चावल के बोरे में कोहनी तक अपनी बांह घुसा दी ।


उसका हाथ किसी सख्त चीज से टकराया । उसने अपनी उंगलियां उस चीज के गिर्द लपेट दीं और हाथ बाहर निकाला ।


उसने अपने हाथ में एक रिवाल्वर पाई ।


उसने रिवाल्वर यथास्थान पूर्ववत चावल में धकेल दी ।


उसने एक गुप्त निगाह टेलीफोन की दिशा में डाली और फिर डिब्बों के पिरामिड में से मटर का वह डिब्बा उठाया जो अखबार में छपी तस्वीर में भी और वहां भी उसकी दिलचस्पी का केन्द्र था । साठ सत्तर डिब्बों के पिरामिड में वही एक इकलौता डिब्बा था जिस पर लगे लेबल का रुख सामने की तरफ नहीं था ।


उस सीलबन्द डिब्बे का ढक्कन कटा हुआ था। उसने देखा पिरामिड के पास ही एक कैन ओपनर भी पड़ा था । उसने ढक्कन हटा कर भीतर झांका । भीतर मटरों के ऊपर एक शनील की थैली पड़ी थी। उसने थैली वहां से निकाली और उसे खोला ।


थैली के भीतर छोटे बड़े हीरों की झिलमिल झिलमिल हो रही थी ।


मनोहर ने फुर्ती से वे तमाम हीरे अपनी एक जेब में पलट लिये और दूसरी जेब से ढेर सारे नकली हीरे निकाल कर उस थैली में भर दिये । उसे वहां ज्वेल शाप से लुटे हीरे मिलने की इतनी गारन्टी थी कि वह नकली हीरों के साथ वहां तैयार हो कर आया था । फिर उसने दस पन्द्रह असली हीरे भी नकली हीरों के ऊपर थैली में डाल दिये ।


मन ही मन वह प्रार्थना कर रहा था कि शबनम लड़की को वार्तालाप में उलझाये रख पाये सही ।


उसने थैली को वापस मटर के डिब्बे में डाला, उसके ऊपर उसका कटा हुआ ढक्कन रखा और डिब्बे को वापिस पिरामिड पर यथास्थान ऐन उसी स्थिति में टिका दिया जिसमें उसने उसे पाया था ।


फिर वह वहां से परे हट गया ।


एक और स्थान से उसने सेब के मुरब्बे के दो जार उठा लिए ।


तभी गिरिजा वापिस लौट आई । वह वापिस अपनी सीट पर जा बैठी।


मनोहर जार उठाये उसके समीप पहुंचा। उसने दोनों जार उसके सामने रख दिये ।


गिरिजा बिल बनाने लगी ।


“सत्तरह रुपये पचास पैसे ।" - वह बोली ।


मनोहर ने उसे एक बीस का नोट सौंप दिया ।


गिरिजा ने उसे ढाई रुपये वापिस कर दिये ।


"मैंने आज के पेपर में तुम्हारी खबर पढ़ी थी ।” एकाएक मनोहर बोला ।


“आप ही ने क्या ।" - गिरिजा तनिक उदास स्वर में बोली - "सारे शहर ने पढी होगी ।"


“वह बदमाश अपनी फाल्स अरेस्ट के लिये तुम्हें जिम्मेदार ठहरा रहा है और तुम पर इज्जत हत्तक का दावा करना चाहता है ?"


"हां।”


“सन आफ ए गन ।" - मनोहर असली फौजी अफसर जैसा आक्रोश जाहिर करता हुआ बोला- "मिलिट्री में ता तो मैं साले का कोर्ट मार्शल करवा देता ।"


गिरिजा खामोश रही ।


"मैं जानता हूं तम खामखाह की परेशानी का शिकार बन रही हो ।”


उसने उत्तर नहीं दिया ।


"मुझे कर्नल जे एन एस चौहान कहते हैं। अगर तुम चाहो तो इस सिलसिले में मैं तुम्हारी कुछ मदद कर सकता हूं|" “आप क्या मदद कर सकते हैं मेरी ?"


"इस शहर का एक बहुत नामी वकील मेरा दोस्त है । मेरे कहने पर वह बहुत मामूली फीस पर तुम्हारा केस लड़ने को तैयार हो सकता है।"


"कौन-सा वकील ?"


“दीवान पुरुषोत्तम दास ।”


"वह ! वह तो सुना है एक ही पेशी के कम से कम पांच सौ रुपये लेता है ।"


"तुम्हारे से वह ऐसी फीस नहीं लेगा। उसे मैं कह दूंगा


"लेकिन..."


" और तुम्हारा केस कोई लम्बा नहीं चलने वाला । उसकी टांग तो देख लेना पहली ही पेशी में टूट जायेगी । जगतपाल कोई शरीफ आदमी नहीं है । मुझे मालूम हुआ है कि वह एक पेशेवर चोर-उचक्का है। उसकी तकदीर ही अच्छी है कि आज तक कभी गिरफ्तार नहीं हुआ है । अपनी इज्जत हत्तक हुई साबित करने से पहले उसे यह साबित करना पड़ेगा कि उसकी इज्जत है और ऐसा करने में उस कमीने के दांतों पसीने आ जाएंगे।"


"लेकिन जब वह कभी पकड़ा नहीं गया तो यह कैसे साबित हो सकेगा कि वह कोई चोर उचक्का है ?"


"वह हो जायेगा । यह काम दीवान पुरुषोत्तम दास का है। तभी तो वह इतना काबिल वकील माना जाता है । "


आप !" - वह तनिक संदिग्ध स्वर में बोली- "मुझ पर इतने मेहरबान क्यों हो रहे हैं ?"


“क्योंकि तुम एक अच्छी लड़की हो ।”


"बस ?"


“हां ।”


"विश्वास नहीं होता। यहां आने में जरूर आपका भी कोई स्वार्थ होना चाहिये । आप यहां सेब का मुरब्बा खरीदने ही आये हों, यह बात गले से उतर नहीं रही । "


"समझदार लडकी हो।" - मनोहर प्रशंसात्मक स्वर में बोला ।


"वह तो हुआ लेकिन..."


“सुनो । यह बात सच है कि तुम यह स्टोर बेचना चाहती हो ?"


"हां"


"क्यों ?"


“क्योंकि इसे चलाना मेरे, एक अकेली लड़की के बस का काम नहीं और यहां कोई खास मुनाफा भी नहीं होता ।"


"कितने में बेचना चाहती हो इस स्टोर को ?"


“माल, फर्नीचर, टेलीफोन समेत सत्तर हजार में । हजार दो हजार कम भी चलेगा ।"


"अगर कीमत ज्यादा मिल जाये ?"


"नहीं मिल सकती । सत्तर हजार इसकी एकदम जायज कीमत है । जब ये ही नहीं मिल रही तो ज्यादा कैसे मिलेगी ?”


“लेकिन अगर ज्यादा मिल जाये तो ?"


“आप मुझे सत्तर हजार रुपये कीमत दिलाइये । इससे ज्यादा जो मिले, वह आपका ।"


"सारा नहीं ।”


"तो।" 


"फिफ्टी-फिफ्टी "


"मन्जूर ।"


"मर्द बच्ची हो । वादे से फिर तो नहीं जाओगी ?" ।


"हरगिज नहीं ।"


"ठीक है । तुम्हारा यह काम भी दीवान पुरुषोतम दास ही करवायेगा । तुमसे अगर वह पूछे तो तुम स्टोर की कीमत नब्बे हजार रुपये बताना । अगर यह कीमत हासिल हो जाये तो बड़ी शराफत और ईमानदारी से दस हजार रुपये मुझे दे देना ।"


"मंजूर । और साथ में दस हजार बार शुक्रिया भी कहूंगी।" 


"दैट्स ए डील ।”


“अब बताइये और क्या करना होगा मुझे ?"


"कुछ नहीं । अब बताओ कल क्या हुआ था ?”


"वही हुआ था जो अखबार में छपा है ।"


"मैं तुम्हारी जुबानी सुनना चाहता हूं।"


"कल यही वक्त रहा होगा जब क वह नामुराद घटना घटी थी । यहां कोई ग्राहक नहीं था और मैं अकेली बैठी इस सामने वाली खिड़की में से बाहर सड़क पर देख रही थी । आप देख ही रहे होंगे कि मेरी वर्तमान स्थिति में मुझे खिड़की में से सड़क के पास स्थित राजनारायण की ज्वेल शॉप साफ दिखाई देती है। मैं खिड़की से बाहर देख रही थी कि एकाएक मुझे ज्वेल शॉप के दरवाजे से उल्टे पांव चलता हुआ बाहर निकलता जगतपाल दिखाई दिया था। मैंने उसके एक हाथ में रिवाल्वर साफ देखी थी । दरवाजे से परे रिवाल्वर की नाल के निशाने पर मैंने एक आदमी देखा था जो अपने हाथ अपने सिर से ऊपर उठाये हुए था और वह आदमी निश्यच ही राजनाराण ही था ।' "1


" यानी कि तुमने उसकी सूरत नहीं देखी थी ?”


"नहीं । लेकिन राजनारायण के अलावा और कोई वह हो ही नहीं सकता था । पड़ोस का मामला है। राजनारायण की दुकानदारी को मैं अच्छी तरह जानती हूं । दिन के इस वक्त मुझे मालूम है कि उसके सिवाय दुकान में और कोई नहीं होता ।"


“खैर, फिर ? "


“फिर तभी एजरा सट्रीट में पुलिस की एक गश्ती गाड़ी दाखिल हुई थी जिस पर निगाह पड़ते ही जगतपाल के छक्के छूट गये थे। वह जरूर यही समझा था कि राजनारायण किसी प्रकार पुलिस तक कोई सिग्नल पहुंचाने में कामयाब हो गया था और पुलिस की वह गाड़ी उसी की फिराक में वहां पहुंची थी । हालांकि बाद में मालूम हुआ था कि हकीकतन ऐसी बात नहीं थी । राजनारायण का उस गाड़ी के आगमन से कोई रिश्ता नहीं था । जो आदमी यही नहीं मान रहा था कि उसका स्टोर लुटा था, वह पुलिस को क्या खबर करता ।"


"फिर क्या हुआ ?"


"फिर पुलिस की निगाह से बचने के लिए जगतपाल मेरे स्टोर में घुस आया । यहां आकर वह यूं एक्टिंग करने लगा जैसे वह कोई ग्राहक था और सामान खरीदने की नीयत से ही यहां आया था। उसे सामान में नकली दिलचस्पी दिखाता छोड़कर मैं यहां से उठी, चुपचाप टेलीफोन के पास पहुंची और फिर मैंने चुपके से 100 नम्बर डायल करके पुलिस को सारी बात की खबर दे दी। पुलिस ने एजरा स्ट्रीट में उसी क्षण पहुंची गाड़ी को ही यहां डायरेक्ट कर दिया । यही वजह है कि पुलिस आनन फानन यहां पहुंच गई और उन्होंने जगतपाल को गिरफ्तार कर लिया । अब आप ही बताइये, कर्नल साहब, मैंने क्या कोई गलत काम किया था । जो आदमी अभी मेरी आंखों के सामने रिवाल्वर की नाल पर एक स्टोर लूटकर आया था, वह क्या मेरा स्टोर भी लूटने की कोशिश नहीं कर सकता था ? ऐसे हथियार बन्द आदमी से आखिर मुझे भी तो खतरा था ।"


"लेकिन हथियार तो उसके पास से बरामद हुआ नहीं था।"


" इसी बात की तो मुझे भी हैरानी है कि आखिर वह रिवाल्वर उसने कहां फेंकी जो मैंने उसके हाथ में देखी थी। "


"और लूट का कोई माल भी उसके पास से बरामद नहीं हुआ था ।”


"यह और भी हैरानी की बात है । "


“उसने तुम्हें फोन करते देखा या सुना था ?"


"मेरे ख्याल से नहीं । फोन स्टोर के पिछवाड़े में है । मटर के डिब्बों के जिस डिस्पले के सामने वह खड़ा था, वहां से स्टोर का टेलीफोन वाला कोना दिखाई नहीं देता और बोली मैं बहुत ही धीरे थी ।"


"गिरफ्तारी के बाद जगतपाल क्या बोला था ?"


"वह बहुत आग बबूला हुआ, साहब । कहने लगा कि जरूर मेरा दिमाग हिल गया था जो मैं उसे कोई चोर-डाकू समझ रही थी । वह बोला कि वह ज्वेल शाप की शो विन्डो के पास ठिठका जरूर था लेकिन वह भीतर दाखिल नहीं हुआ था । शो विन्डो के पास भी वह इसलिए ठिठका था क्योंकि उसमें एक अंगूठी रखी थी जो वह अपनी बीवी के लिए खरीदना चाहता था । लेकिन अंगूठी की कीमत बहुत ज्यादा लिखी हुई थी इसलिए उसकी दिलचस्पी उसमें नहीं रही थी । रिवाल्वर के बारे में उसने यही कहा कि उसने अपनी जिन्दगी में हाथ में रिवाल्वर कभी पकड़ कर भी नहीं देखी थी। पुलिस ने मेरे सामने उसकी तलाशी ली थी लेकिन उसके पास से न रिवाल्वर बरामद हुई थी और न कोई लूट का माल ।”


"फिर ?"


" फिर मैंने पुलिस को राय दी कि वे ज्वेल शाप में जाएं । मुझे उम्मीद थी कि उनके वहां जाते ही जगतपाल की पोल खुल जाएगी लेकिन राजनारायण ने जो बयान दिया था, उसने तो मुझे जगतपाल से भी ज्यादा हैरान कर दिया था । वह तो कहने लगा कि पिछले आधे घण्टे में वहां कोई आया ही नहीं था, उसे लूटता कौन ? कर्नल साहब, मैं बता नहीं सकती कि उस वक्त मेरी क्या हालत हुई थी । शर्म और अपमान से मेरा जी चाहने लगा था कि मैं वहीं जमीन में गड़ जाऊं । एक तो वैसे ही उतनी ख्वारी हुई, ऊपर से वह जगतपाल का बच्चा मुझे मानहानि के मुकद्दमे की धमकियां देने लगा ।"


“जो हो चुका सो हो चुका । अब आगे तुम किसी भी तरह की फिक्र मत करो । अब सब ठीक हो जाएगा । अब मैं तुम्हें इस जंजाल से निकलवाता हूं।"


"मुझे क्या करना होगा ?"


"तुम्हें कुछ भी नहीं करना होगा ।”


"मुझे वकील के पास तो जाना होगा ?"


"नहीं जाना होगा । वह खुद ही तुम्हारे पास आएगा।"


“अच्छा !"


"हां । लेकिन एक बात का खास ख्याल रखना ।"


"किस बात का ?”


"जब वह यहां आए तो तुम हरगिज भी उसके पास से मत टलना । वह तुम्हें बहाने से इधर-उधर भेजने की कोशिश करे तो भी तुम कहीं मत जाना । जैसे अभी टेलीफोन बजा था तो तुम उठ कर चली गई थी, वैसे भी मत जाना ।"


"क्यों ?" - वह सख्त हैरानी से बोली ।


“वजह तुम्हारी समझ में नहीं आयेगी। लेकिन नतीजा तुम्हारी समझ में आ जायेगा । इसलिये बराय मेहरबानी मेरा कहना मानो ।”


"ठीक है" - वह दार्शनिकतापूर्ण स्वर में बोली- "मेरा क्या जायेगा !"


“एग्जेक्टली । जायेगा तुम्हारा कुछ नहीं लेकिन जब आयेगा तो बहुत कुछ आयेगा ।"


"अच्छी बात है ।"


"यह मत भूलो कि मेरा कहा मानने में ही तुम्हारा फायदा है । और तुम्हारे फायदे में मेरा फायदा है। आखिर तुम्हारे सदके ही मैंने दस हजार रुपये कमाने हैं।"


उसके होंठों पर पहली बार एक मुस्कराहट आई ।


कर्नल ने सेब के मुरब्बे के दोनों जार एक लिफाफे में डाले।


वह लिफाफा उठाये वहां से निकला और बाहर सड़क पर आ गया ।


वह उसी क्षण सड़क पार करके ज्वेल शाप में दाखिल होना चाहता था और राजनारायण से मिलना चाहता था लेकिन वह उसे मुनासिब न लगा । गिरिजा अपने स्टोर से उसे देख रही थी। उसे ज्वेल शाप में जाता देखकर वह उसका कोई गलत मतलब लगा सकती थी । और फिर दीवान पुरषोत्तम दास, बार-एट ला, से उसकी लंच की अप्वायन्टमेंट भी तो थी जिसमें कि वह लेट नहीं होना चाहता था ।


आखिर वही तो वह बकरा था जो हलाल होने वाला था, जो कील की तरह उस केस में ठोका जाने वाला था ।


वह सड़का पर दो कदम ही आगे बढा था कि पीछे से आवाज आई- "कर्नल साहब !"


मनोहर ने घूमकर बोला ।


गिरिजा स्टोर के दरवाजे पर खड़ी उसे पुकार रही थी ।


मनोहर स्टोर में वापिस दाखिल हुआ ।


“पीछे से आवाज दे दी" - वह मुंह बिगाड़ कर बोला - "अब देख लेना काम जरूर बिगड़ेगा ।"


"बैठ जाइये" - वह बोली- "और एक गिलास पानी पी लीजिये । कुछ नहीं होगा।"


"आवाज क्यों दी थी ?" - मनोहर उसके सामने एक स्टूल पर बैठता हुआ बोला - "बात क्या थी ?"


"बात कोई खास नहीं थी " - वह संकोचपूर्ण स्वर में बोली - "आपके स्टोर से निकल जाने के बाद मुझे सूझा था कि आप ने अपना कोई पता ठिकाना तो बताया ही नहीं था । अगर मैंने आपको किसी बात की खबर करनी होती तो कहां करती ?"


"ओह ! यह मेरी गलती थी। मुझे खुद ही अपना पता बताना चाहिये था । खैर अब जान लो मेरा पता । मैं विक्रांत होटल के 122 नम्बर कमरे में ठहरा हुआ हूं।"


"यानी कि आप परदेसी हैं ?"


"हां ।”


"कब तक ठहरेंगे यहां ?"


"जब तक यहां दानापानी होगा ।"


गिरिजा ने उसे एक गिलास पानी पेश किया ।


मनोहर ने पानी पिया और बोला तुम्हें कहकर जानी याद आ गई है।" - "एक बात मुझे भी


"क्या ?"


"मैंने आरम्भ में तुम्हें कहा था कि दीवान पुरषोत्तम दास मेरा दोस्त है और तुम्हारे केस के सिलसिले में मैं तुम्हारी उससे सिफारिश करूंगा।"


"हां, कहा था ।”


"देखो सिफारिश तो मैं करूंगा। लेकिन वह सिफारिश ऐसी होगी की खुद वकील साहब की समझ में भी नहीं आयेगा कि मैं तुम्हारी सिफारिश कर रहा हूं।"


"मतलब ?"


"मतलब समझाने में वक्त लगेगा और मुझे जल्दी है फिलहाल मैं केवल इतना कहना चाहता हूं कि वकील साहब से मेरे बारे में कतई कोई बात मत करना । कोशिश करना कि अपनी तरफ से तुम्हें कुछ न कहना पड़े । तुम जो वह कहे, वह सुनना । उसकी बातों में से जो बात तुम्हें जंचे उसकी हामी भरना और अपनी निगाहों से ओझल उसे एक क्षण के लिये भी मत होने देना । वह कोई खरीददारी करे तो उसकी अच्छी तरह से जांच पड़ताल कर के चीज उसे सौंपना ।”


"इसका क्या मतलब हुआ ?"


"मतलब के पीछे मत पड़ो। जैसे मैं कहूं वैसे करो । विश्वास जानो, इसी में तुम्हारा फायदा है । इसी में तुम्हारी भलाई है ।"


“अच्छी बात है ।"


“अब पीछे से आवाज मत देना।" - मनोहर उठता हुआ उपहासपूर्ण स्वर में बोला ।


वह बड़े संकोचपूर्ण ढंग से हंसी ओर फिर सहमति में सिर हिलाती हुई बोली - "अच्छा ।"


मनोहर फिर स्टोर से बाहर निकल गया ।