बात उस समय की है, जब विकास दूसरा केक काटने के लिए चला, इस बार किसी को भी किसी घटना की आशा न थी। परंतु उस समय!
जब विकास छुरी से केक काटना ही चाहता था।
एकाएक सब लोग बुरी तरह से चौंके ।
कुछों की चीखें निकल गई।
विकास जंप लगाता हुआ फिर मेहमानों के पीछे जा गिरा। मेहमान भयभीत होकर पीछे हट गए।
ठाकुर साहब के हाथ में रिवॉल्वर आ गया। सबकी दृष्टि उस दृश्य पर जमी हुई थी।
हुआ यूं कि जैसे ही विकास केक काटने हेतु मेज के निकट पहुंचा कि मेज पहले तो आश्चर्यजनक ढंग से हिली, और फिर धीमे-धीमे ऊपर उठने लगी। कुछ देर तक तो ये ही समझ में नहीं आ रहा था कि मेज ऊपर कैसे उठने लगी, परंतु जब मेज काफी ऊपर उठ गई तो मेज के नीचे किसी की लंबी-लंबी टांगे नजर आई। शायद मेज के नीचे कोई इंसान था, जो ऐन वक्त पर मेज को सिर पर उठाकर खड़ा हो रहा था।
सभी लोग उस व्यक्ति की विचित्र हरकत को देख रहे थे । अभी किसी को भी उसका चेहरा दृष्टिगोचर नहीं हो रहा था।
मेज फर्श से लगभग सात फीट ऊपर जाकर स्थिर हो गई और अचानक उस अपरिचित ने अपने सिर को एक तीव्र झटका दिया, परिणामस्वरूप मेज हवा में लहराई। उधर के इंसान चीख मारकर एक तरफ हो गए और मेज धड़ाम से फर्श पर गिरी । केक एक बार फिर फर्श पर पर बिखर गया ।
एक पल के लिए लोगों का ध्यान उस मेज की ओर गया, परंतु अगले ही पल सबकी दृष्टियां घूमकर फिर उस अपरिचित पर स्थिर हो गई। ठाकुर साहब और विजय की दृष्टियां जैसे ही उस व्यक्ति पर पड़ी तो दोनों की आंखों में आश्चर्य उभर आया।
मेज फेंकने वाला अपरिचित स्वयं तो एक नमूना था ही, साथ ही उसका परिधान भी उसके नमूने में चार चांद लगा रहा था। उन लोगों के सामने एक पतला-दुबला मरियल-सा व्यक्ति खड़ा था। उसका कद सात फीट था, चेहरा लंबूतरा ।
यहां उपस्थित किसी भी व्यक्ति ने शायद अपने जीवन में उस व्यक्ति से अधिक अथवा उसके जैसा पतला व्यक्ति न देखा होगा।
गन्ने की भांति तना हुआ उसका बदन ऐसा लगता था, जैसे बस किसी गन्ने की भांति ही कट से दो भागों में विभक्त हो जाएगा। शुतुरमुर्गी लंबी व पतली गरदन पर उसका पतला चेहरा ऐसा लगता था, जैसे किसी ने लटका दिया हो! लंबूतरे चेहरे पर नाक मानो लटक रही थी, कान कुछ बड़े थे। आँखें छोटी-छोटी, परंतु बेहद चमकीली थीं। वास्तव में उसकी आखों में बेहद गजब की चमक थी। एक ऐसी चमक, जो इंसान को बरबस ही अपनी ओर आकर्षित कर ले। उसकी पतली-पतली कलाइयों के आगे दोनों हाथों की उंगलियों की संख्या बीस थी, बीसों उंगलियों के नाखून बढ्कर उसकी उंगलियों से भी बड़े हो गए थे (नाखून सख्त होने के कारण लटक नहीं रहे थे, बल्कि सीधे तने हुए थे। पुटे हुए सिर पर लंबे, परंतु अस्त-व्यस्त-से बाल थे।
यह तो थी उसके जिस्म की बनावट, जो उसे इंसान कम और नमूना अधिक कहने के लिए हमें बाध्य कर रही है और उसके जिस्म पर मौजूद परिधान तो ऐसा था कि विजय का दिल चाहा कि वह खुलकर एक ऐसा अट्टहास लगाए कि उसकी आवाज से सामने खड़ा यह गन्ने जैसा मानव लहराकर फर्श पर गिर पड़े ।
उसके लंबे और पतले जिस्म पर लटका हुआ कोट ऐसा प्रतीत होता था, जैसे किसी हैंगर पर लटका हो। शायद ही संसार का ऐसा कोई रंग हो जो उसके इस कोट में देखने को न मिलता हो। ऐसा लगता था जैसे बड़े कठिन परिश्रम के पश्चात उसने समूची दुनिया के रंगों के नमूने एकत्रित किए और फिर उसका कोट सिलवा लिया। उसकी पतली-पतली गन्ने की भांति तनी हुई टांगों में कुछ ऐसे रंग की पैंट थी, जिसे किसी भी रंग की संज्ञा देने में दिल नहीं ठुकता था। कुछ विचित्र - से रंग की पैंट थी व उसके लंबे पैरों में विचित्र किस्म के जूते थे। वास्तविकता तो ये थी कि उन्हें जूते कहते हुए भी मन नहीं ठुकता, परंतु हम क्योंकि उनका नाम नहीं जानते तो अपनी भाषा में फिलहाल हम उन्हें जूते ही कहेंगे। उसके जूतों का रंग ही दुनिया से नदारद था।
तो यह थी उसकी विचित्र हास्यास्पद वेशभूषा, ऐसी कि प्रत्येक इंसान कहकहा लगाने के लिए बाध्य हो जाए, परंतु समय की गंभीरता को देखते हुए कहकहा तो किसी ने नहीं लगाया, बल्कि आश्चर्य के साथ खड़े हुए उसे घूर अवश्य रहे थे। उस नमूने के होंठों पर ऐसी मुस्कान थी, मानो उसने मेज फेंककर हिमालय पर्वत एक तरफ फेंकने जैसा महान कार्य किया हो। कुछ पल तक तो उपस्थित लोग उस अजीब नमूने को देखते रहे। इस मौनता को सर्वप्रथम भंग करने का श्रेय ठाकुर साहब को प्राप्त हुआ। अपने रिवॉल्वर को संभालते हुए वे कुछ आगे बढ़कर बोले।
-"कौन हो तुम?"
-" बंदे को टुम्बकटू कहते हैं।" वह अदब से झुककर बोला।
उसकी आवाज में ऐसी तीव्र व भयानक घरघराहट थी, मानो फुल आवाज पर खुला रेडियो अचानक खराब हो गया हो! परंतु घरधराहट होने पर भी उसका प्रत्येक शब्द स्पष्ट था।
ये बात अवश्य है कि उसके नाम बताते ही लोगों ने बहुत चाहा कि अपना कहकहा रोकें, परंतु कोई भी स्वयं पर संयम न पा सका और अगले ही पल वहां कहकहों का साम्राज्य था। विजय भी उसकी बात पर हंसा तो नि:संदेह था, किंतु उसके इन शब्दों ने विजय के मस्तिष्क में उथल-पुथल- सी मचा दी थी। कुछ देर तक तो हॉल में कहकहों का साम्राज्य रहा, फिर ठाकुर साहब कुछ और आगे बढ़कर बोले -- -----"क्या बकते हो----सच बोलो, कौन हो तुम?"
"मै पहले ही नाम बता चुका हूँ।" फिर वही भयानक घरघराहट।
"तो तुम वही टुम्बकटू हो, जिसने विश्व को चैलेंज दिया है?'' ठाकुर साहब व्यंग्यात्मक लहजे में उसे घूरते हुए बोले ।
"क्या आपको कोई संदेह है?'' टुम्बकटू मुस्कराता हुआ बोला।
"लेकिन यहां इस बेहूदगी का क्या अर्थ..?"
"किस बेवकूफ ने आपको आई.जी. बना दिया?"
टुम्बकटू उसी प्रकार मुस्कराता हुआ बोला--- "मैंने अपने पत्र में लिखा है कि मैं खुली सड़क पर घूमूंगा, अगर आपमें बुद्धि होती तो अभी तक मुझ पर फायर कर देते ।"
उसके इन शब्दों पर तो ठाकुर साहब के तन-बदन में आग लग गई। उनकी आंखें क्रोध से दहकने लगी, जिस्म कांपने लगा, चेहरा क्रोध से कनपटी तक लाल हो गया, लगभग चीखते हुए वे बोले-- -"क्यों बेकार मरना चाहते हो बेवकूफ व्यक्ति?"
" मैं इसी तरह खुले रूप से प्रत्येक देश के कानून का उल्लंघन करूंगा।" टुम्बकटू फिर उसी प्रकार मुस्कराता हुआ बोला-----" और मुझे ये विश्वास है कि जब तक धरती पर आप जैसे मूर्ख पुलिस अधिकारी हैं, तब तक टुम्बकटू को तुम लोग नहीं मार सकते।"
ठाकुर साहब उसके मुंह से स्वयं को गाली न सुन सके, उनका क्रोध चरम सीमा पर पहुंच गया। उन्होंने फायर करने हेतु जैसे ही अपना हाथ आगे बढ़ाया।
उनकी आखें तो हैरत से फैल गई।
हुआ यूं कि जैसे ही ठाकुर साहब ने फायर करने हेतु रिवॉल्वर का रुख टुम्बकटू की ओर करना चाहा, वैसे ही टुम्बकदू ने अपना पतला हाथ रिवॉल्वर की ओर कर दिया और रिवॉल्वर आश्चर्यजनक रूप से ठाकुर साहब के हाथ से निकलकर क्षणमात्र के भी सौंवें भाग तक वायु में नजर आया और अगले ही पल रिवॉल्वर टुम्बकटू की उंगलियों से चिपका हुआ था।
यह सब पलक झपकते ही हो गया था, शायद ही किसी ने रिवॉल्वर को वायु में लहराते देखा हो ।
ठाकुर साहब ने लाख चाहा था कि रिवॉल्वर को अपने हाथ से न निकलने दे किंतु वे रोक न सके। रिवॉल्वर उनके हाथ से ऐसा निकला मानो किसी अदृश्य शक्ति ने उसे अपनी ओर खींच लिया हो। रिवॉल्वर टुम्बकटू की उंगलियों से लिपटा हुआ था। वह ठाकुर साहब की ओर देखकर व्यंग्यात्मक लहजे में बोला----- "आपको रिवॉल्वर पकड़ना तक नहीं आता, आप भला फायर क्या करेंगे?"
टुम्बकटू के इन शब्दों ने तो ठाकुर साहब के तन-बदन में मानो एकदम आग लगा दी थी.. . क्रोध में |
पलक झपकते ही, भयानक फुर्ती के साथ उन्होंने टुम्बकटू पर जंप लगा दी।
परंतु उफ्...!
टुम्बकटू मरियल-सा व्यक्ति था अथवा भयानक फुर्तीला छलावा-----कोई निश्चय न कर सका। कोई न देख सका कि कब उस भयानक छलावे ने अपना स्थान छोड़ दिया।
पलकें झपकीं ।
स्थिति एकदम आश्चर्य से परिपूर्ण और विपरीत थी। इस
समय ठाकुर साहब औंधेमुंह पड़े हुए रिक्त फर्श चाट रहे थे, जबकि टुम्बकटू उनके पीछे खड़ा हुआ मजे में कह रहा था।
"अरे, आप वहां क्या कर रहे हैं? मैं तो यहां हूं आपके पीछे।"
समस्त मेहमान आश्चर्यचकित रह गए। उनकी समझ में नहीं आया कि वे गंभीर रहें अथवा हंसे । स्थिति तो गंभीर रहने की थी, परंतु टुम्बकटू की प्रत्येक हरकत और उसके शब्द लोगों को कहकहा लगाने के लिए विवश कर रहे थे।
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