पैंतालिस मिनट लगे, वहाँ रास्ता बनाने में। जहां नानकचंद ने कहा था।

लेकिन वहाँ कोई दीवार नहीं मिली। नाले की परस कटने के बाद आगे मिट्टी ही मिट्टी थी।

“अब हम यहाँ वक़्त बर्बाद कर रहे हैं।” देवराज चौहान ने कहा – “सोहनलाल, बीस फीट आगे कल जहां निशान लगाया था, वहाँ से रास्ता बनाओ। केटली एंड केटली का बेसमेंट वहां हैं।”

वे लोग सामान उठाकर बीस फीट आगे जाने की तैयारी करने लगे।

“तुम्हारी बताई जगह गलत निकली।” देवराज चौहान बोला।

“नपाई में कहीं कमी रह गयी होगी। लेकिन कोई गम नहीं। जो मिलेगा वही बहुत।” नानकचंद मुस्कुराकर कह उठा – “तुमसे मुलाक़ात हो गयी, ये क्या कम है। ,मैंने तो सोचा भी नहीं था कि तुमसे मिल पाउँगा।”

देवराज चौहान ने कुछ नहीं कहा।

“तुम्हारे बारे में सुना जाता है कि तुम जुबान के पक्के हो। कभी धोखा नहीं देते।” नानकचंद बोला।

“जो मेरे साथ ठीक चलता है, मैं उसके साथ कभी गलत नहीं होता।” देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा।

☐☐☐

जहां देवराज चौहान और सोहनलाल ने बीती रात निशान लगाया था। ड्रिल करके वहाँ रास्ता बनाने पर भी, पीछे कोई दीवार नहीं मिली। मिट्टी ही मिट्टी मिली। उस छोटे से रास्ते में से दो फीट आगे तक की मिटटी चेक कर ली, परन्तु कोई दीवार नहीं मिली।

“ये क्या ?” भटनागर हडबडा उठा – “यहाँ तो कोई भी दीवार नहीं है।”

“हैरानी है।” सोहनलाल ने अजीब स्वर में कहा।

“कमाल है !” केसरिया कह उठा – “जहां सरदार ने कहा वहाँ भी नाले के पीछे कोई दीवार नहीं मिली और जहां देवराज चौहान ने कहा, वहाँ भी दीवार नहीं है।”

देवराज चौहान और नानकचंद करीब आ चुके थे।

“देवराज चौहान !” नानकचंद लम्बी सांस लेकर कह उठा – “कां पे गड़बड़ हो गयी ?”

देवराज चौहान ने होंठ सिकुड़े हुए थे। चेहरे पर सोच के भाव थे।

टॉर्च की रोशनियाँ वहाँ फैली हुई थी।

“सारी मेहनत बेकार गयी...।” भटनागर बोला।

“लगता है, नाले की पाइप की नपाई करने में कहीं गलती हो गयी है।” देवराज चौहान कह उठा।

“मैं न मानूं.. ?” नानकचंद ने सिर हिलाया।

“क्यों ?” देवराज चौहान ने उसे देखा।

“तुमने अपने हिसाब से नपाई की। हमने अपने हिसाब से। दोनों की नपाई गलत हो गयी। इस इत्तेफाक को मैं नहीं मानता। जबकि तुम्हारी-मेरी नपाई में बीस फीट का फर्क ही निकला। किसी एक की नपाई तो ठीक होनी चाहिए थी...।” नानकचंद अपने शब्दों पर जोर देकर कह उठा।

नानकचंद की बात अपनी जगह सही थी।

“हो सकता है, हम दोनों से ही कहीं पर गलती हो गयी हो।” देवराज चौहान के चेहरे पर सोच के भाव थे।

“मैं नहीं मानूं...।”

“कहीं न कहीं हम दोनों से ही गलती हुई है और वो गलती भी एक जैसी ही हुई है।” देवराज चौहान ने विश्वास भरे स्वर में कहा – “वरना एक जगह तो ठीक निकलती...।”

नानकचंद कुछ न कहकर अपनी मूंछों पर हाथ फेरने लगा।

“सरदार... !” केसरिया बोला।

“बोल केसरिया... !”

“हमने तो बहुत सोच-समझकर नपाई की थी कि उस शोरूम के नीचे वाला कमरा कहाँ हो सकता है।”

“वो ही तो हम कह रहे हैं केसरिया। हमसे गलती नहीं हौवे हो...।” नानकचंद ने सिर हिलाया।

“लेकिन गलती तो हुई है सरदार...।”

“ठीक बोला तू केसरिया। गलती तो हुई है। तभी हमारी बताई जगह के पीछे वो दीवार नहीं निकली हो।” नानकचंद ने केसरिया को देखा – “तू बता कहाँ गलती हुई है।”

“मैं क्या कहूं सरदार।”

“ठीक बोले तू कि क्या कहे। जब अपने शहरी डाकू देवराज चौहान से गलती हो सकती है तो फिर हमसे क्यों नहीं हो सकती। चम्बल होता तो अब तक माल लेकर अपने अड्डे पर भी पहुँच चुके होते।”

“ये बात तो ठीक है सरदार...।”

“अब क्या किया जाए ?” भटनागर ने व्याकुलता से देवराज चौहान को देखा।

देवराज चौहान ने सोच भरी निगाहों से सोहनलाल को देखा।

“सोहनलाल ! हमें जिस जगह की तलाश है, वो पास में ही कहीं है। मैं सोचता हूँ कि कहाँ पर, ठीक जगह पहचानने में गलती हो गयी। तुम कुछ-कुछ फासले पर नाले की पाइप को ड्रिल करके चेक करते रहो। कहीं भी पाइप के पीछे दीवार निकल सकती है।” देवराज चौहान ने कहा।

“ड्रिल मशीन करंट ज्यादा खींचती है।” सोहनलाल बोला – “बैटरी ख़त्म हो गयी तो ?”

“ये बाद की बात है। तुम हर दस फीट के फासले पर चेक करते रहो।”

“केटली एंड केटली का बेसमेंट कितना लम्बा-चौड़ा है ?” सोहनलाल ने पूछा।

देवराज चौहान की निगाह, सोहनलाल पर जा टिकी।

दोनों कई पलों तक एक-दूसरे को देखते रहे।

“ये तो मैनें मालूम नहीं किया कि केटली एंड केटली का बेसमेंट कितना बड़ा है।” देवराज चौहान ने सोच भरे स्वर में कहा – “लेकिन शोरूम आठ दुकानों को मिलाकर बनाया गया है तो ऐसे में बेसमेंट कम से कम तीन दुकानों के साइज़ का तो होगा ही।”

“तीन दुकानों के साइज़ का।” सोहनलाल ने होंठ सिकोड़े – “इसका मतलब, अगर हम कम से कम भी लें तो बेसमेंट की दीवार तीस फीट लम्बी होनी चाहिए। अगर सोचने में और भी कंजूसी कर लें तो बेसमेंट की दीवार को बीस फीट की लगा लेते हैं।” सोहनलाल की नज़रें देवराज चौहान पर थीं।

“वो तीस-बीस का कौन-सा पहाड़ा पढ़त हैं केसरिया ?”

“मालूम नहीं सरदार। शहरी हिसाब होगा ये...।”

देवराज चौहान ने सिर हिलाकर कहा।

“ठीक है। अगर हम बीस फीट की दीवार भी लें तो, तुम हर अट्ठारह फीट पर नाले की पाइप में ड्रिल से रास्ता बनाकर, चेक करते रहो कि कहाँ दीवार है।”

सोहनलाल और भटनागर अपने काम में व्यस्त हो गए। भटनागर के चेहरे पर मायूसी नज़र आ रही थी कि अगर वे साढ़े चार अरब के हीरे नहीं हासिल कर पायेंगे। नानकचंद और केसरिया को वहाँ पाकर, वो उखड़ा पडा था। परन्तु जब बेसमेंट तक पहुँचने का रास्ता नहीं मिला तो उसका सारा उखड़ापन, हीरे ने मिलने की चिंता में बदल गया था।

☐☐☐

सोहनलाल, भटनागर ड्रिल मशीन से रास्ता बना-बनाकर अट्ठारह फीट पर चेक करते रहे। केसरिया भी उनके साथ लग गया था। जहां भी रास्ता बनता। हर जगह मिट्टी ही मिलती। दीवार नहीं।

चार बार के बाद सोहनलाल ने भटनागर से कहा, “कोई फायदा नहीं। ड्रिल बंद कर दे।”

भटनागर ने ड्रिल बंद की और थके ढंग से वहीँ बैठ गया।

“सरदार !” केसरिया बोला – “हीरे नहीं मिलेंगे।”

“अच्छी बात बोला कर केसरिया।”

सोहनलाल ने देवराज चौहान से कहा।

“हम बहुत बड़ी गलती कर रहे हैं। अब तक हमें बेसमेंट की दीवार मिल जानी चाहिए थी। नहीं मिलने का मतलब है कि हमारा रास्ता ही गलत है।”

“रास्ता ठीक है। इतनी बड़ी गलती नहीं कर सकते।” देवराज चौहान ने सोच भरे स्वर में कहा – “कहीं पर छोटी-सी चूक हुई है, जो हमें समझ नहीं आ रही। बड़ी गलती होती तो अब तक समझ में आ गयी होती।”

“अब क्या क्या किया जाए ?” सोहनलाल बोला – “नपाई दोबारा करके, कल रात फिर कोशिश करें।”

“कोई फायदा नहीं।” देवराज चौहान बोला – “केटली एंड केटली के बेसमेंट तक पहुँचने के लिए, पाइप को हमने ठीक ढंग से नापा है। नानकचंद ने भी शायद गलती नहीं की। ऐसे में सोचने की बात है कि कहाँ पर गलती हुई है।”

“केसरिया... !”

“हाँ सरदार... !”

“कां पे गड़बड़ हो सकती है ?”

“मेरी तो समझ में नहीं आ रहा। तुम सरदार हो। मेरे से ज्यादा अच्छी तरह सोच सकते हो।”

“सोचना ही तो मुसीबत का काम है। गोली चलानी हो तो अभी चला दूं...।” नानकचंद बड़बड़ा उठा।

देवराज चौहान ने कलाई पर बंधी घड़ी में वक़्त देखा। रात के ढाई बज रहे थे।

“मेरे ख्याल में...।” भटनागर ने कहा – “हीरे हमें मिलने वाले नहीं। रास्ते को गलत नापा गया है। अब यहाँ से निकल चलना ही बेहतर होगा।”

“अभी दिन निकलने में बहुत वक़्त है।” देवराज चौहान ने कहा।

“लेकिन यहाँ रहकर अब क्या करेंगे ?” भटनागर झल्ला उठा।

“मुझे ये देखना है कि मुझसे कहाँ पर गलती हुई है। शायद समझ में आ जाए।” देवराज चौहान होंठ भींचकर बोला।

☐☐☐

उस वक़्त सुबह के चार बज रहे थे।

सब की आँखे नींद से भारी हो रही थीं और चेहरों पर काम ज्यादा हो जाने की वजह से थकान कुछ ज्यादा ही नज़र आ रही थी।

नानकचंद और केसरिया की कभी-कभार चम्बल की बातें शुरू हो जाती। वरना वहाँ खामोशी ही थी। सब नीचे, नाले की पाइप से टेक लगाए बैठे थे।

भटनागर सबसे ज्यादा बेचैन और उखड़ा हुआ लग रहा था।

देवराज चौहान उस रास्ते का चक्कर लगा रहा था, जहाँ से वो आया था और उस रास्ते को भी देख रहा था, जहां से नानकचंद और केसरिया आये थे। जिस रास्ते से वो आया था, वहाँ से यहाँ तक आने के बीच, नाले की पाइप में दो मोड़ थे और जिस रास्ते से नानकचंद आया था, उस रास्ते में पाइप के तीन मोड़ थे। जाने क्यों देवराज चौहान को महसूस हुआ कि पाइप के उन मोड़ों की वजह से ही कोई गड़बड़ हो रही है। एक बार फिर उसने अपने और नानकचंद वाले रास्ते का फेरा लगाया। इस वक़्त वो हर बात को ध्यान में रखकर, कदम उठा रहा था।

और जब दोनों रास्ते तय करके वहां पहुंचा तो एकाएक ही उसके होंठ सिकुड़ गए। चेहरे पर अजीब-सी मुस्कान उभरी। सिर इस तरह हिलाया जैसे बीते घंटे यूँ ही बर्बाद हो गए हो।

देवराज चौहान के चेहरे के भाव देखकर, सोहनलाल की आँखें सिकुड़ी।

“सरदार... !” केसरिया कह उठा।

“बोल... !”

“सुबह के चार से ऊपर का वक़्त होने लगा है। मेरे ख्याल में हीरे तो मिलने से रहे। घंटे भर में दिन की रौशनी फ़ैल जानी है। कोई और मुसीबत में न फंस जायें। पुलिस के हत्थे चढ़ गए तो, आगे-पीछे के सारे हिसाब देने पड़ जायेंगे। यहाँ से निकल चलना ही बढ़िया रहेगा।” केसरिया ने नानकचंद को देखा।

“बात तो तेरी सही लगे।” नानकचंद सिर हिला उठा – “लेकिन अपना ये देवराज चौहान जब यहाँ है तो फिर हम क्यों नहीं यहाँ रह सकते। ये बेवकूफ तो है नहीं, जो यहाँ टिका हुआ है। कुछ न कुछ तो जोड़-तोड़ करने में लगा ही हुआ है। अखबारों में पढ़ा नहीं कि देवराज चौहान जोड़-तोड़ करके अपना काम कर जाने में मास्टर है। इसका हाथ पकड़ ले केसरिया, तैराक बन जायेंगे। आज तक हम घोड़ों पर सवार होकर एक से दूसरे गाँव, राइफल लिए भागते रहते थे। अब घोड़ों को छोड़कर, देवराज चौहान को देखकर जमीन पर चलना सीख। यह मुम्बई है, चम्बल नहीं। देवराज चौहान को भी पुलिस पकड़ना चाहती है और हमें भी। जब ये नहीं डर रहा। इसे यहाँ से निकलने की जल्दी नहीं है, तो हमें जल्दी कहाँ से हो गयी...।”

“सरदार। मैनें तो ठीक सलाह दी थी। आगे तुम्हारी मर्जी...।”

“सुन ली तेरी सलाह। अब चुप रह।”

देवराज चुन उन दोनों को देखकर मुस्कुरा रहा था।

सोहनलाल की पैनी निगाह देवराज चौहान पर थी।

“केसरिया ठीक कहता है देवराज चौहान।” भटनागर अपने गुस्से पर काबू पाता हुआ कह उठा – “दिन निकलने वाला है। यहाँ से निकल चलना चाहिए। वरना किसी नयी मुसीबत में फंस जायेंगे।”

“अगर अब हम केटली एंड केटली ज्वेलर्स शोरूम के बेसमेंट में प्रवेश कर जाएँ। रास्ता मिल जाए तो क्या तब भी यहाँ से जाना चाहोगे भटनागर... ?” देवराज चौहान कह उठा।

“बेकार की बात है।” भटनागर उखड़े स्वर में बोला – “ मैं जानता हूँ, नहीं मिलेंगे।”

देवराज चौहान ने सोहनलाल को देखा।

“सोहनलाल। हम पाइप के उलटी तरफ केटली एंड केटली शोरूम का बेसमेंट तलाश कर रहे हैं। पीछे के मोड़ों और पाइप के इस तरफ चेक करो। बेसमेंट इधर है। जहां नानकचंद ने निशान लगाया था और जो हमारा निशान था, उसके बीच में सामने की तरफ से पाइप काटो। उसके पीछे बेसमेंट की दीवार मिलेगी।” देवराज चौहान की आवाज़ में विश्वास भरा हुआ था।

सब चौंके।

“सरदार ! ये क्या कह रहा है ?” केसरिया कह उठा।

“जोड़-तोड़ का नतीजा है।” नानकचंद ने देवराज चौहान को देखा।

“तुम तो ये बात पूरे विश्वास के साथ कर रहे हो।” भटनागर के माथे पर बल उभर आये थे।

“सोहनलाल...।” देवराज चौहान ने कहा – “काम शुरू करो।”

“आओ भटनागर...।” सोहनलाल बोला।

भटनागर फ़ौरन सोहनलाल के पास पहुंचा।

“ओ केसरिया !”

“हाँ सरदार... !”

“जा, तू भी हाथ लगा। बैठकर खाने की आदत छोड़ दे।”

“अच्छा सरदार...।” कहने के साथ ही केसरिया, सोहनलाल और भटनागर के पास पहुँच गया।

नानकचंद ने देवराज चौहान को देखा।

“तो तूने क्या जोड़-तोड़ फिट की देवराज चौहान ?” नानकचंद ने पूछा।

“तुम जिस रास्ते से आये, वहाँ नाले की पाइप में तीन मोड़ हैं और मैं जिस रास्ते से आया, उधर पाइप में दो मोड़ हैं। उन मोड़ों की वजह से, हम दोनों ही गलती खा बैठे। रास्ते की नपाई तो हमने ठीक की थी, लेकिन मोड़ों की वजह से दिशा का अनुमान ठीक से नहीं लगा पाए और यहाँ पाइप के इस तरफ की अपेक्षा उलटी तरफ रास्ता बनाने लगे, जबकि केटली एंड केटली का शोरूम इस तरफ है। इधर ही बेसमेंट है।” देवराज चौहान ने कहा।

नानकचंद ने उन तीनों को, अपने काम में व्यस्त देखा।

“वो जोड़ तोड़ भी गलत निकली तो ?” नानकचंद की निगाह देवराज चौहान पर जा टिकी।

“देखते रहो।” देवराज चौहान मुस्कुराया – “चाहो तो शर्त भी लगा सकते हो।”

“कैसी शर्त.... ?”

“अगर यहाँ से रास्ता निकल आया, इधर ही बेसमेंट हुआ तो तुम्हारा हिस्सा हमारा हुआ।” देवराज चौहान हंसा।

“और अगर इधर भी बेसमेंटन निकला तो ?”

“तो एक करोड़ रुपया मैं तुम्हे अपने पास से दूंगा।”

“सरदार... !”

“बोल केसरिया.... !”

“शर्त मत लगाना। हम चम्बल वाले गोली चलाना जानते हैं, लेकिन शहरी डाकू का, यानि कि देवराज चौहान के दीमाग का मुकाबला नहीं कर सकते। मात खा जाओगे सरदार...।”

“यही हम सोच रहे थे केसरिया।” नानकचंद ने कहते हुए देवराज चौहान को देखा – “कि ये हमें अपनी बातों में फंसाए हो। लेकिन हम भी फंसने वाले नहीं। शर्त नहीं लगाते हम...।”

देवराज चौहान मुस्कुराकर रह गया।

“देवराज चौहान...।” एकाएक नानकचंद बोला – “वो पहला समझौता तो बेकार हो गया जहां मैनें और जहां तुमने बताया था, वहाँ से तो रास्ता निकला नहीं। अगर यहाँ से रास्ता निकल आया तो आधा-आधा होगा।”

“अभी उस समझौते का कुछ हिस्सा सलामत है।” देवराज चौहान ने कहा।

“वो का ?”

“जहां वो हीरे पड़े हैं। अगर रास्ता निकल आया तो तुमने उसे जगह को खोलना है।”

“छैनी-हथौड़े से काट देंगे ससुरे उस ताले को, दरवाजे को।”

“जो भी करना, ये तुम्हारी सिरदर्दी है। काट दिया तो आधा तुम्हारा...।”

“और अगर नेई काट सकता तो ?”

“तो फिर तुम्हे तीसरा हिस्सा मिलेगा।” देवराज चौहान ने कहा।

“तीसरा... हूँ। वो कितना होगा।”

“साढ़े चार अरब के हीरे हैं। उसमें से डेढ़ अरब तुम्हे मिलेगा। जो कि तुम्हारे लिए मुफ्त का होगा। अगर हमसे टकराव न होता तो तुम किसी भी हालत में बेसमेंट तक नहीं पहुँच पाते और अगर पहुँच भी जाते तो छैनी-हथौड़े से स्टील केबिन के दरवाजे या लॉक को नहीं काट सकते थे।”

“ये तुम कैसे कहते हो कि... ?”

“मौक़ा मिलेगा।” देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा – “कोशिश करके देख लेना।”

“गाँवो में तो हम सेठों को तिजोरियां, इसी तरह काटकर...।”

“ये शहरी तिजोरियां हैं। अभी इनसे तुम्हारा वास्ता नहीं पडा...।” देवराज चौहान के होंठों पर मुस्कान उभरी, तभी ड्रिल मशीन चलने का स्वर वहाँ गूंज उठा।

☐☐☐

बीस मिनट में ही ड्रिल मशीन ने नाले की पाइप का काफी बड़ा हिस्सा काट दिया। केसरिया ने पाइप का वो टुकड़ा दोनों हाथों से पकड़कर एक तरफ रखा।

सामने मिट्टी नज़र आ रही थी।

सोहनलाल और भटनागर की नज़रें मिलीं।

ड्रिल मशीन भटनागर के हाथ में थी।

“ड्रिल से ही ये मिट्टी काटता जा।” सोहनलाल ने कहा।

“कोई फायदा नहीं।” भटनागर उखड़े स्वर में बोला और ड्रिल चालु करके मिट्टी को काटते हुए उसे भीतर घुसाने लगा। दो मिनट में ही उसने एक फीट भीतर की मिट्टी को उधेड़ दिया और ड्रिल बंद की – “यहाँ भी पीछे, मिट्टी है। कोई दीवार नहीं है।” भटनागर का स्वर पहले जैसा ही था।

सोहनलाल ने देवराज चौहान को देखा।

सोहनलाल ने उघडी मिट्टी को दोनों हाथों से नीचे गिराया।

“चल भटनागर...।”

भटनागर थोडा-सा आगे हुआ। दोनों हाथों से ड्रिल थामे उसे पुनः चालु किया और मिट्टी वाली जगह को और गहरी करने लगा। जबकि उसका मन कह रहा था कि कोई फायदा नहीं होने वाला। ड्रिलर वहीँ छोड़कर, वहाँ से बाहर निकल जाए।

“सरदार... !”

“बोल केसरिया... !”

“गलती हमारी ही थी कि चम्बल से मुम्बई आकर हमें इतना बड़ा हाथ नहीं मारना चाहिए था। चम्बल की तरह एक-दो लाख या तीन लाख तक का हाथ ठीक था। लेकिन तुम लाखों को क्या, करोड़ों को भी छोड़कर अरबों पर हाथ डालने की सोच बैठे।” केसरिया ने कहा।

“ठीक है। समझ गया। अब हम कहीं पर, दो-चार लाख वाला हाथ मारेंगे।” नानकचंद ने सिर हिलाया।

“सरदार ! हमारी किस्मत में लाखों से ज्यादा का माल नहीं है। बड़ी रकमों की तरफ अब ध्यान नहीं देना।”

“ठीक है। ठीक है। हम...।”

तभी सब चौंके।

इसी पल ड्रिल मशीन की आवाज़ बदल गयी। वो आगे किसी मजबूत चीज से टकराने लगी थी। भटनागर के हाथों को तीव्र झटका लगा। उसने फ़ौरन ड्रिलर बंद किया। चेहरा ख़ुशी से चमक उठा था।

“सो... सोहनलाल।” भटनागर के होंठों से कांपता स्वर निकला – “आगे... आगे शायद दी.. दिवार है।”

“बेसमेंट की दीवार...।” सोहनलाल का चेहरा मुस्कान से भर उठा।

“सरदार... !” केसरिया की आवाज़ ख़ुशी से बेकाबू हो गयी – “हो गया काम।”

“हीरे मिल गए का ?”

“नहीं सरदार। शायद बेसमेंट की दीवार मिल गयी।”

नानकचंद हौले से हंसा।

“फिर ये मत बोल काम हो गया और ये भी कभी मत बोलना कि हमारी किस्मत में करोड़ों-अरबों नहीं हैं। ऊपर वाले ने चम्बल से मुम्बई का रास्ता हमें इसलिए दिखाया है कि हम दौलत के ढेर पर बैठ सकें।”

“सच सरदार। तुम ठीक कहते हो।”

देवराज चौहान के होंठों पर मुस्कान थी।

“भटनागर ! ड्रिल दुसरा लगाओ और मिट्टी हटाकर दीवार को काटो। दीवार की कुछ ईंटें हट गयी तो बाकी की दीवार की ईटों को आसानी से हटाया जा सकता है। नाले के पाइप को थोडा और काटो, ताकि लेटकर आसानी से भीतर जाया जा सके।” देवराज चौहान ने कहा।

भटनागर ड्रिल बदलने लगा और सोहनलाल बनाए जा रहे रास्ते में हाथ डालकर उघड़ी मिट्टी खिसका-खिसका कर नीचे गिराने लगा। दो मिनट में ही सोहनलाल ने सारी मिट्टी नीचे गिरा दी। इसके साथ ही उसके हाथ की उंगलियाँ पत्थर जैसी चीज से टकरायीं तो उसने टॉर्च की रोशनी वहाँ डाली तो ईंट का थोडा-सा हिस्सा चमकता स्पष्ट नज़र आने लगा।

☐☐☐

अगले पैंतालिस मिनट में, नाले की पाइप और उसके पार मिट्टी फिर दीवार में से ड्रिल के कटर द्वारा इतना रास्ता बना लिया गया कि भीतर प्रवेश किया जा सके। बेसमेंट के भीतर तीव्र रोशनी हो रही थी और वही रौशनी अब उनके बनाए रास्ते से वहाँ भी पड़ने लगी थी।

सबके चेहरे खिले हुए थे।

देवराज चौहान के होंठों पर शांत मुस्कान जमी पड़ी थी।

“रास्ता तैयार है।” भटनागर ने ड्रिल मशीन ऑन करके नीचे रखते हुए ख़ुशी से कांपते स्वर में कहा।

“ओ केसरिया... !” नानकचंद हाथ से मूंछों को बल देने लगा।

“हां सरदार.. !”

“सबसे पहले हम भीतर जायेंगे।”

“क्यों नहीं सरदार। तुम हमारे सरदार....।”

तभी भटनागर कड़वे स्वर में कह उठा।

“चुप रहो। सरदार होगा ये तुम्हारा। चम्बल का। यहाँ इसका कोई भाव नहीं है। यहाँ अगर किसी की बात मानी जायेगी तो सिर्फ देवराज चौहान की। तुम दोनों अपने फैसले बंद कर दो।”

नानकचंद पल भर के लिए अचकचाया। चेहरे पर खतरनाक भाव उभरे उसके, लेकिन फ़ौरन ही गायब हो गए। हाथ मूंछों से नीचे आ गया और गहरी सांस लेकर कह उठा।

“केसरिया... !”

“हाँ सरदार... !”

“ये चम्बल की बुरी आदतें छोड़ दे। तू मुझे सरदार कहता है तो मैं नानू बन जाता हूँ नानकचंद से। मत भूल ये शहर है और यहाँ गाय-भेड़-बकरी-शेर वगैरह सब एक ही घाट से पानी पीते हैं। यहाँ मूंछों को ताव देना मना है। खैर कोई बात नहीं। धीरे-धीरे तेरी आदतों में सुधार हो जाएगा।”

“पौने छः बज रहे हैं। बाहर दिन निकल आया है।” सोहनलाल ने कहा।

“हाँ..।” देवराज चौहान ने कलाई पर बंधी घड़ी में नज़र मारी – “लेकिन काम पूरा करके ही बाहर निकलेंगे। हमारे पास काफी वक़्त है। सवा-नौ और साढ़े नौ के बीच केटली एंड केटली के कर्मचारी आने शुरू होते हैं। शोरूम खुलता है। और कोई जरूरी नहीं कि शोरूम खोलते ही वो लोग बेसमेंट में पहुंचे। जैसा कि मैं पहले भी बता चूका हूँ कि बेसमेंट में ख़ास स्थिति में ही केटली ब्रदर्स आते हैं। बहरहाल हमारा काम एक घंटे से ज्यादा का नहीं है। आओ।”

उसके बाद सबसे पहले देवराज चौहान पेट के बल लेटकर, सरक कर, उस रास्ते से बेसमेंट में पहुंचा। सारे कपडे मिट्टी से सने हुए थे। लेकिन इस तरफ होश किसे था।

“ओ केसरिया !”

“हाँ सरदार...।”

“छैनी-हथौड़ा ले ले।” नानकचंद अपनी मूंछों को मोड़ते हुए बोला।

“अभी लेता हूँ सरदार...।”

एक-एक करके वो पांचो केटली एंड केटली के बेसमेंट में पहुँच चुके थे। जहां तीव्र प्रकाश फैला हुआ था। करीब मिनट भर तो उस रोशनी में उनकी नज़रें उस रोशनी में कहीं टिक नहीं पाई। कुछ पलों के बाद आँखें, उस रोशनी में देखने की अभ्यस्त हो गयीं।

☐☐☐

बेसमेंट में खुबसूरत लाल रंग का मखमली कालीन बिछा हुआ था। वो जगह करीब चालीस फीट लम्बी और सत्रह-अट्ठारह फीट चौड़ी थी। वहाँ चार तिजोरियां और छः अलमारियाँ रखी नज़र आ रही थीं। जो कि दीवार के साथ कतार में थी।

दूसरी तरफ स्टील का चमकता हुआ, डिब्बे की तरह केबिन नज़र आ रहा था जो कि मात्र छः फीट ऊँचा था। बेसमेंट की छत नौ फीट ऊँची थी। इसके अलावा वहाँ कुछ भी नहीं था। एक तरफ ऊपर जाने के लिए सीढियाँ नज़र आ रही थीं। देवराज चौहान ने इशारे से सबको वहीँ ठहरने को कहा और खुद सीढियों की तरफ बढ़ गया।

केसरिया ने नानकचंद को छैनी-हथौड़ा थमा दिया।

दो मिनट बाद ही देवराज चौहान लौटा।

“यहाँ हमें ज्यादा शोर नहीं करना है। ऊपर शोरूम में एक गनमैन मौजूद है।” देवराज चौहान ने कहा।

“सुसरे की गर्दन पकड़ लेते हैं।” नानकचंद बोला।

“दरवाजा शोरूम की तरफ से बंद है और वैसे भी उस गनमैन को छेड़ने की जरुरत नहीं। हमें अपना काम करके उसी रास्ते से खामोशी से निकल जाना है, जहाँ से आये हैं।” देवराज चौहान ने कहा।

“हीरे कहाँ हैं ?”

“वहाँ उस स्टील के छोटे-से केबिन में।”

“उस सुसरे को तो मैं अभी काट देता हूँ।” कहने के साथ ही नानकचंद छैनी और हथौड़ा थामे उधर बढ़ा।

“रुक जाओ।” देवराज चौहान का स्वर कठोर था।

नानकचंद ने ठिठक कर देवराज चौहान को देखा।

“मुझे पूछे बिना तुम कोई भी हरकत नहीं करोगे नानकचंद...।”

“क्या मतलब... ?” नानकचंद की आँखें सिकुड़ी – “ये तो हम में पहले से ही तय हो गया कि छैनी से मैं इस केबिन के ताले को काटकर अलग करूँगा और आधे माल का हिस्सेदार...।”

“मैनें अपना प्रोग्राम बदल दिया है।” कहने के साथ ही देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगाई।

नानकचंद के चेहरे पर खतरनाक भाव नाच उठे। वो देवराज चौहान को देख रहा था।

“ओ केसरिया.. !”

“हाँ सरदार..।”

“देवराज चौहान की भाषा, अपनी खोपड़ी में न पडो हो।” नानकचंद का स्वर सख्त हो गया था।

“पूछ तो लो सरदार ! बात क्या है ? हो सकता है ये भी कोई शहरी तोड़-फोड़ का मामला हो।”

नानकचंद ने प्रश्नभरी निगाहों से देवराज चौहान को देखा।

“का बात है देवराज चौहान...।”

“हथौड़े की चोटों की आवाजें आसानी से ऊपर शोरूम में मौजूद गनमैन तक पहुँच जायेंगी और उसके बाद हमारे सामने कैसी मुसीबत होगी तुम समझ सकते हो।” देवराज चौहान का स्वर शांत था।

“सरदार ! बात तो ठीक है।”

नानकचंद ने होंठ सिकुड़े।

“और अभी केबिन के ताले को हाथ नहीं लगाना है। उस लॉक के साथ छेड़-छाड़ करते ही अलार्म बज उठेंगे। पहले उस लॉक से अलार्म कनेक्शन हटाना है।”

नानकचंद ने गहरी सांस ली।

“ओ केसरिया !”

“हाँ सरदार...।”

“सीख ले, शहरी तोड़-फोड़। शहर में पाँव जमाने के लिए, ये बातें काम आवे हैं।”

“सीख रहा हूँ सरदार...।”

“ये चम्बल की मुसीबत कहाँ गले पड़ गयी...।” भटनागर बडबडाकर रह गया।

तभी सोहनलाल बोला।

“अलार्म की तारों के कनेक्शन कहाँ से गए हो सकते हैं ?”

“ढूंढना पड़ेगा।” कहकर देवराज चौहान आगे बढ़ा। स्टील के डिब्बे की तरह बने केबिन को चारों तरफ से देखा। वो केबिन दीवार के साथ न सटकर दीवार से चार फीट दूर खुले में था।

सोहनलाल भी पास आ पहुंचा।

पांच मिनट में ही उन्होंने अलार्म से वास्ता रखने वाली तारों को ढूंढ निकाला।

वो तारें फर्श पर बिछे कालीन के नीचे से गुजर कर, दीवार में फिट कर रखी पाइप से होती हुई, ऊपर की तरफ जा रही थीं। सोहनलाल ने अपनी कमीज उतारी तो एक कमर पर बंधी हुई और दूसरी पेट पर बंधी बेल्ट नज़र आई। जिसमें कई तरह के औजार फंसे हुए थे।

“देख रहा है केसरिया... ?”

“सब देख रहा हूँ सरदार... ! मेरे ख्याल में ये आदमी ताले खोलने वाला है।” केसरिया ने कहा।

“ठीक बोला तू...।”

सोहनलाल ने कटर निकाला और कालीन के नीचे से गुजरती तार को काट दिया। अब अलार्म बजने का खतरा समाप्त हो गया था।

उसके बाद सोहनलाल स्टील के केबिन के पास, उसके दरवाजे की लॉक वाली जगह पर पहुंचा और घुटनों के बल नीचे बैठते हुए बेल्ट में फंसी पेंसिल टॉर्च निकाली और ‘की’ होल चेक करने लगा।

उसके बाद बेल्ट खोलकर पास ही रखी और लॉक खोलने में व्यस्त हो गया।

भटनागर पास पहुंचा।

“कितनी देर लगेगी लॉक खुलने में ?” भटनागर ने पूछा।

“यकीन के साथ कुछ नहीं कह सकता...।”

“क्यों ?”

सोहनलाल ने औजार नीचे रखे और गोली वाली सिगरेट सुलगा ली।

“ये कुछ अजीब तरह का लॉक है।” सोहनलाल ने होंठ को दांतों में दबाकर सोच भरे स्वर में कहा।

“वो कैसे ?”

“मेरे ख्याल में, इस स्टील के केबिन के दरवाजे के लॉक को खोलने के लिए तीन तरह की चाबियाँ इस्तेमाल होती है।”

“तीन तरह की चाबियाँ ?”

“हाँ। पहले लगने वाली चाबी को ‘की’ होल में डालकर, दाई तरफ, मालूम नहीं कितनी बार घुमाया जाता है। उसके लीवर चेक करने से पता चलेगा। फिर दूसरी और तीसरी चाबी, बारी-बारी डालकर, उन्हें भी घुमाया जाता है। दायें या बायें, इस बारे में अभी कुछ नहीं कह सकता।” सोहनलाल गंभीर था।

भटनागर का दिल धडका।

“खोल भी लोगे या नहीं ?” भटनागर ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी।

“शायद खोल लूं...।” सोहनलाल के होंठों पर हल्की-सी मुस्कान उभरी।

देवराज चौहान ने कलाई पर बंधी घडी में वक़्त देखा, फिर कह उठा, “हमारे पास ज्यादा वक़्त नहीं है ? सुबह के सात बज रहे हैं।”

सोहनलाल ने देवराज चौहान को देखा फिर अपने काम में व्यस्त हो गया।

नानकचंद ने केसरिया के कान में कहा।

“ओ केसरिया.. !”

“हाँ सरदार... !”

“यो ताले खोलने वाला तो मुझे गुणी व्यक्ति लगता है।”

“मुझे भी ऐसा ही लग रहा है। गुणी न होता तो देवराज चौहान इसे अपने साथ न लाता सरदार।”

“ये ज़माना छैनी-हथौड़े का नहीं है। गुणी व्यक्ति का है। केसरिया, मेरी मान तो, तेरी किस्मत चमक जायेगी।”

“क्या सरदार... ?”

“इससे ताले खोलना सीख ले। पांच-दस हज़ार जो भी कहेगा, दे देंगे। सीखेगा तो, बाद में ताले खोलने का काम, इसकी तरह तू कर लिया करना। इस गुण से सारी ज़िन्दगी हमें फायदा होगा।”

“ठीक है सरदार। लेकिन ये गुण तुम क्यों नहीं सीख लेते...।”

“बेवकूफ, तेरे को इतनी भी समझ नहीं कि मैं सरदार हूँ। अगर ये सब काम मैं करने लगा तो फिर मुझे सरदार कौन कहेगा। सरदार तो आखिर सरदार ही होता है।”

“ये बात तो सोलह आने सच बोली सरदार...।”

☐☐☐

बीतते वक़्त के साथ-साथ वहाँ के माहौल में तनाव बढ़ता जा रहा था।

भटनागर की व्याकुलता चरम सीमा को छू रही थी।

नानकचंद बार-बार मूंछों को ताव देने लगता और केसरिया की नज़रें कभी सोहनलाल की तरफ उठतीं तो कभी नानकचंद की तरफ।

देवराज चौहान सिगरेट के कश ले रहा था। चेहरा सपाट था।

“सरदार... !” केसरिया धीमे स्वर में कह उठा – “मुझे ये ताले खोलने वाला गुणी व्यक्ति नहीं लगता।”

“देवराज चौहान इसे साथ लाया है तो पक्का ये गुणी ही होगा।” नानकचंद कह उठा।

“गुणी होता तो अब तक ताला खोल चूका होता।” केसरिया उखड़े स्वर में कह उठा।

“शुद्ध गारंटी वाला ताला होगा। तभी खोलने में देर लग रही है।”

“तुम देर की बात कर रहे हो सरदार ! वक़्त देखा है।” केसरिया ने कड़वे स्वर में कहा।

नानकचंद ने वक़्त देखा तो हडबडा-सा उठा।

“नौ बज गए केसरिया...।” उसके होंठो से निकला।

“वही तो मैं कह रहा हूँ सरदार और देवराज चौहान ने बोला था सवा नौ – साढ़े नौ बजे शोरूम खुल जाता है। काम करने वाले कर्मचारी आ जाते हैं।” केसरिया की आवाज़ में बेचैनी आ गयी।

“इस हिसाब से तो चम्बल बढ़िया होय। रात को घोड़ों पर निकले और दो-चार ठूँ-ठां करके, माल लेकर अड्डे पर पहुंचे और दारु पी कर सो गए। शहरी डाकू बनने में तो ख़तरा बहुत होये...।”

“चिंता नहीं सरदार। धीरे-धीरे आदत पड़ जायेगी, परन्तु अब क्या करें ?”

नानकचंद ने देवराज चौहान को देखा, जो सोहनलाल को काम करते देख रहा था।

“देवराज चौहान !” नानकचंद बोला – “नौ बज गए हैं। शोरूम खुलने वाला है। पानी सिर से ऊपर को टापता लगे। कहो तो छैनी-हथौड़ा पकड़ लूं। सुसरा अभी टूट-फूट कर खुल जायेगा।”

“ये स्टील की ऐसी चादरें हैं, जो न तो कट सकती हैं और न ही टूट सकती हैं।” देवराज चौहान ने गंभीर भाव में कश लिया – “ऐसे वक़्त में सिर्फ अपने पर काबू रखने की जरुरत होती है।”

“कब तक काबू रखा जाए।” भटनागर फटने वाले ढंग से कहा उठा – “शोरूम खुलने वाला है।”

देवराज चौहान ने सख्त निगाहों से भटनागर को देखा।

“डर लग रहा है ?”

“डरने की बात नहीं है। आखिर हर चीज का वक़्त होता है। काम वहीँ का वहीँ है और शोरूम...।”

“इन कामों में वक़्त की उंच-नीच अक्सर हो ही जाती है।” देवराज चौहान ने एक-एक शब्द चबाकर कठोर लहजे में कहा – “साढ़े चार अरब के हीरे जहां भी रखे जायेंगे। वो जगह बेहद सुरक्षित होगी। वहाँ के ताले मामूली नहीं होंगे। जाहिर है, खोलने में अड़चन आयेगी ही। वक़्त लग ही जाता है।”

“लेकिन शोरूम खुलने पर...।”

“मैंने पहले ही कहा था कि कोई जरुरी नहीं शोरूम खुलने पर कोई बेसमेंट में आ जाए। यहाँ केटली एंड केटली वाले कीमती सामान रखते हैं, जिसकी जरुरत किसी ख़ास मौके पर ही पड़ती है। कई बार तो दो-दो दिन बेसमेंट में कोई नहीं आता। वैसे भी मेरे ख्याल के मुताबिक़, शोरूम खुलते ही, कोई बेसमेंट में आने से रहा। यहाँ मौजूद किसी चीज की जरुरत, शोरूम में होती तो शोरूम खुलने पर, पहले तो स्टाफ, एक-दो घंटे शोरूम में ही व्यस्त रहेगा। उसके बाद ही बेसमेंट में वे आयेंगे। ऐसे में भी, हमें ग्यारह-बारह बजे तक का वक़्त मिल जाएगा।”

भटनागर होंठ भींचकर रह गया।

“बात तो तुम्हारी ठीक है।” नानकचंद बोला – “फिर भी हर काम का वक़्त होता है। हम ग्यारह-बारह बजने का इन्तजार क्यों करें। काम को वक़्त पर हो जाना चाहिए।”

“सोहनलाल अपना काम कर रहा...।” देवराज चौहान ने कहना चाहा।

“वो क्या अपना काम कर रहा है। सिगरेट पर सिगरेट फूंके जा रहा है।” नानकचंद का स्वर सख्त हो गया – “और तुमने इसे एक बार भी नहीं कहा कि जल्दी करो।”

“सोहनलाल अपने काम को समझता है। बीच में बोलने की मैं जरुरत नहीं समझता।” कहते हुए देवराज चौहान की तीखी निगाह नानकचंद के चेहरे पर जा टिकीं।

सोहनलाल इन सब बातों से दूर अपने काम में व्यस्त था।

“सरदार।” केसरिया धीमे स्वर में कान में बोला – “तुम चुप रहो। जो होता है होने दो। देवराज चौहान बच्चा तो नहीं है। हम फसेंगे तो ये भी फंसेगा। ये तो इसे भी पता होगा।”

“लेकिन केसरिया, ये तो खामख्वाह का ख़तरा मोल लेने वाली बात हो गयी...।” नानकचंद ने होंठ भींचकर कहा।

“हम अकेले तो है नहीं। सब एक-साथ खतरे में हैं।” केसरिया ने कहा – “चम्बल में हमने कितनी बार बड़े-बड़े खतरे मोल लिए। कभी हमारा कुछ बिगड़ा ? कभी भी नहीं।”

“वो अलग बात है। चम्बल में घोड़े तैयार रहते थे भागने के लिए। साथ में तीस साथी होते थे। लेकिन यहाँ तो कुछ भी नहीं है। भागने का रास्ता भी नहीं हैं।”

केसरिया गहरी सांस ले कर कह उठा।

“तो चम्बल वापस चलें सरदार...।”

“कभी नहीं। वहाँ पुलिस हमें नहीं छोड़ेगी। भूल जा चम्बल को। शहर में पाँव जमाने की सोच।”

“तो सरदार ! शहर में ऐसे ही पाँव चलते हैं। बिना घोड़ों के इस तरह खतरा मोल लेकर। हिम्मत से काम लो।” केसरिया ने गहरी सांस ली।

“या के आगे बोल केसरिया। चुप क्यों हो गया ?”

“या जो इनके साथ होगा, वही हमारे साथ होगा।” केसरिया गंभीर था।

तभी नानकचंद आगे बढ़ा और सोहनलाल के पास पहुंचकर बोला।

“क्या इरादा है तेरा। इसे खोलेगा या नहीं ?”

तभी देवराज चौहान पास पहुंचा और नानकचंद की कमीज का कॉलर पकड़ कर पीछे खींच लिया।

नानकचंद के होंठों से गुर्राहट निकली और गुस्से से कमीज का कालर छुडाया।

दोनों की निगाहें मिलीं।

देवराज चौहान की आँखों में गुस्सा था तो नानकचंद की आँखों में खूंखारता।

“तूने मेरे गिरेबान पर हाथ डाला देवराज चौहान। मैं अपने गिरोह का सरदार...।”

तभी देवराज चौहान का हाथ उठा और घूँसा नानकचंद के गाल से जा टकराया। नानकचंद लड़खड़ाकर दो कदम पीछे हटा। चेहरा और भी खतरनाक हो उठा। अगले ही पल उसका हाथ जेब में गया और हाथ में रिवाल्वर दबी नज़र आने लगी। बेसमेंट का नज़ारा खतरनाक हो उठा।

“तेरी ये हिम्मत कि तू नानू पर हाथ उठाये। मैं तेरे को...।”

“ओये।” तभी भटनागर का भींचा स्वर वहाँ गूंजा – “नानू के नान। बर्फ में लग जा। वरना तेरे चिथड़े-चिथड़े कर दूंगा। साले रिवाल्वर निकालता है।”

नानकचंद की आँखों में सुर्खी उभरने लगी।

सोहनलाल अपने काम में लगा हुआ था।

“तू नानू को गोली मारने की धमकी देता है।” नानकचंद गुर्राया – “पूरे चम्बल में...।”

“तो चम्बल जा। वहाँ से लोटा उठाये यहाँ क्यों आ गया।” भटनागर ने दरिंदगी भरे स्वर में कहा – “नीचे कर ले रिवाल्वर। वरना मैं अभी गोली चला दूंगा।”

नानकचंद खा जाने वाली निगाहों से भटनागर को देखता रहा कभी देवराज चौहान को। फिर नानकचंद की सुर्ख आँखें देवराज चौहान पर जा टिकी।

“जवाब दे। हाथ क्यों उठाया ?” नानकचंद खतरनाक लहजे में कह उठा।

देवराज चौहान ने हाथ बढ़ाया और उसकी रिवाल्वर थाम ली।

“रिवाल्वर मुझे दे दे...।” देवराज चौहान की आवाज़ में दृढ़ता और खतरनाक भाव थे।

“नहीं देता।” नानकचंद गुर्राया – “रिवाल्वर से हाथ हटा, वरना गोली...।”

“सरदार ! दे दो रिवाल्वर। हम और खरीद लेंगे। चिंता क्यों करते हो।” केसरिया जल्दी से बोला।

“लेकिन ये...।”

“सरदार ये शहरी तोड़-फोड़ है। शहर के रस्मो-रिवाज मालूम होने के बाद ही तो हम शहर में पाँव जमा सकेंगे। दे दो रिवाल्वर, हम और खरीद लेंगे।” केसरिया समझाने वाले ढंग से कह उठा।

नानकचंद ने अनमने मन से रिवाल्वर छोड़ दी। होंठ भींचे हुए थे। देवराज चौहान ने रिवाल्वर लेकर, अपनी जेब में डाली और कठोर स्वर में कह उठा।

“नानकचंद। सोहनलाल अपना काम कर रहा है और तुमने उसे डिस्टर्ब किया, जबकि उसका एक-एक पल इस वक़्त कीमती है।”

“इसलिए तुमने मुझ पर हाथ उठाया।”

“हाँ। सोहनलाल के वक़्त से कीमती, इस वक़्त और कुछ नहीं। अगर तुम्हे कोई परेशानी या तकलीफ हो रही है तो यहाँ से जा सकते हो।” देवराज चौहान ने उसकी सुर्ख आँखों में झांकते हुए सख्त स्वर में कहा – “रिवाल्वर कोई खिलौना नहीं है कि बात-बात पर निकाल लिया जाए। रिवाल्वर निकालने का ख़ास वक़्त होता है।”

नानकचंद देवराज चौहान को घूरता रहा।

“सरदार ! चम्बल की बात और थी कि हाथ में हथियार लेकर बात करना। ये शहर है। यहाँ हथियार को नीचे दबाकर बात की जाती है। और आखिर मौके पर तब निकाला जाता है, जब सामने वाले को ख़त्म करने का पक्का इरादा बना चूका हो। देवराज चौहान की बात से तो मैं यही समझ हूँ...।”

“तुम्हारा मतलब कि मैनें रिवाल्वर निकालने की जल्दी की।” नानकचंद ने एकाएक गहरी सांस ली।

“हाँ सरदार। और जब कोई काम कर रहा हो तो, उसे बातों में नहीं लगाना चाहिए। इससे काम खराब होता है। वक़्त बर्बाद होता है। शहरी रस्मो-रिवाज में गोली और गाली सिर्फ मौके पर ही चलती है। बात-बात पर नहीं चलती। यानि के एक ही बार चलती है सरदार...।”

“समझा केसरिया।” नानकचंद एकाएक सामान्य नज़र आने लगा था – “अब की बार ध्यान रखूँगा।”

उन दोनों को घूरते भटनागर ने रिवाल्वर जेब में डाल ली।

देवराज चौहान ने घडी में वक़्त देखा। पौने दस बज रहे थे। अब ऊपर से छत की तरफ से मध्यम-सी आवाजें भी उनके कानों में पड़ने लगी थीं। देवराज चौहान पलटा और सोहनलाल पर नज़रें टिका दी, जो पसीने से भीगा, अपने काम में जुटा हुआ था।

सोहनलाल की हरकतों की मध्यम-सी आवाज़ ही वहाँ गूंज रही थी।

“सोहनलाल !” देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा – “अगर कुछ ज्यादा ही परेशानी आ रही...।”

“बहुत तगड़ा लॉक-सिस्टम यहाँ दिया हुआ है।” अपने काम में व्यस्त सोहनलाल कह उठा – “दो तरह के लॉक सिस्टम को तो बेकार कर चूका हूँ। तीसरा और आखिरी लॉक परेशानी खड़ी कर रहा है।”

“दस बज रहे हैं।” देवराज चौहान की नज़रें सोहनलाल पर थीं।

“मैं समझता हूँ।” सोहनलाल के स्वर में कुछ बेचैनी-सी थी।

देवराज चौहान उसके पास से हट गया।

☐☐☐

तब साढ़े दस बज रहे थे।

नानकचंद, केसरिया और भटनागर का तनाव चरम सीमा पर पहुँच चूका था; परन्तु जाने कैसे हालात से वे समझौता किये, खामोश थे। सोहनलाल के चेहरे पर से भी तनाव और थकान स्पष्ट झलक रही थी। स्टील के दरवाजे के लॉक से साथ उलझें उसे घंटों हो चुके थे। और उस वक़्त उन तीनों को सोहनलाल के शब्दों पर विश्वास नहीं आया, जब उसने कहा केबिन डोर के सार लॉक्स खुल गए हैं।

देवराज चौहान का चेहरा गंभीर और कठोर हुआ पड़ा था। ऊपर होने वाली हलचल की आवाजें, रह-रहकर, स्पष्ट तौर पर उनके कानों में पड़ रही थीं।

“सरदार... !” सोहनलाल के शब्द सुनते ही केसरिया सकपका कर बोला – “खुल गया।”

“सुना तो मैंने भी है केसरिया। कुछ खुल गया है।” नानकचंद के स्वर में अविश्वास के भाव थे – “क्या खुला ?”

“वो ताला सरदार, जो हमारे लिए मुसीबत बना हुआ था।”

“ओ केसरिया... !”

“हाँ सरदार !”

“ताला खोलने वाला गुणी आदमी है। पतलून पकड़ ले। छोड़ना मत। सारे गुण सीख ले।”

“ठीक है सरदार। वक़्त मिलने पर इससे बात करूँगा।”

सोहनलाल थका-टूटा वहाँ से दो कदम हटकर केबिन के दीवार से ही टेक लगाकर बैठ गया  और गोली वाली सिगरेट सुलगाकर कश लेने लगा। उसके औजार बिखरे पड़े थे।

भटनागर सोहनलाल के शब्द सुनते ही ख़ुशी से उछला और आगे बढ़ा।

“ठहरो।” देवराज चौहान का स्वर तेज था।

भटनागर ठिठका। उसकी निगाह देवराज चौहान की तरफ गयी।

“अभी दरवाजा मत खोलना।” कहने के साथ ही देवराज चौहान की निगाह दरवाजे की तरफ गयी – “ये भी हो सकता है कि दरवाजा खोलने पर अलार्म बजे। वो तार काटने से अलार्म सिस्टम पूरा न कटा हो।”

नानकचंद और केसरिया भी पास आ गए।

पल भर के लिए वहाँ खामोशी छा गयी।

सोहनलाल ऑंखें बंद किये कश ले रहा था।

“अगर अलार्म बजा तो ?” नानकचंद ने आँखें सिकोड़ कर कहा।

“तो कुछ भी हो सकता है, अलार्म बजते ही, शोरूम का दरवाजा खोलकर, शोरूम के बाहर ड्यूटी देने वाले गनमैन फ़ौरन आ पहुंचे। साथ केटली ब्रदर्स भी हो। यक़ीनन उनके पास रिवाल्वरें होंगी। उनसे टक्कर लेने के अपेक्षा हमारा यहाँ से निकल जाना ही बेहतर होगा।”

“खाली हाथ...।” नानकचंद के माथे पर बल पड़े।

“ऐसे मौके पर हम निकल जायेंगे।” देवराज चौहान ने उसे घूरा – “तुम उनसे मुकाबला करके, हीरे लेते आना। तब साढ़े चार अरब की हीरे तुम्हारे होंगे। उनमें हमारा कोई हिस्सा नहीं होगा।”

“सरदार... !” केसरिया फ़ौरन कह उठा।

“बोल केसरिया !”

“जब भागने का मौका आये तो फ़ौरन सबसे पहले भागना। हीरों के फेर में रहे तो..।”

“समझा केसरिया। समझा...।”

देवराज चौहान ने सोहनलाल को देखा।

“तुम कैसे हो ?”

बुरे हाल हूँ...।” सोहनलाल के चेहरे पर थकी मुस्कान उभरी।

“यहाँ से फ़ौरन भागना पड़ सकता है।” देवराज चौहान पुनः बोला।

“फ़िक्र मत करो।” सोहनलाल पुनः मुस्कुराया – “मौत के सिर पर आ पहुंचे तो फ्री कोई बैठा नहीं रहता।”

देवराज चौहान पर हल्की-सी मुस्कान और हट गयी। उसने सब को देखा।

“मैं दरवाजा खोलने जा रहा हूँ। अब जैसे हालात उभरें, उसी के मुताबिक़ अपनी समझ से काम करना।”

“संभल जा केसरिया।”

“संभल गया सरदार...।”

देवराज चौहान आगे बढ़ा। दरवाजे की लॉक पर हाथ रखा और उसे घुमाते हुए दरवाजे को धकेला तो वो खुलता चला गया। कोई आवाज नहीं हुई। कोई अलार्म नहीं बजा।

सब ठीक रहा।

केबिन के भीतर तीव्र रौशनी हो रही थी।

सब कुछ ठीक-ठाक देखकर सबने चैन की सांस ली। सोहनलाल के चेहरे पर मुस्कान फ़ैल गयी। नानकचंद, केसरिया और भटनागर के दिल धड़क उठे कि वे साढ़े चार अरब की कीमत के हीरों के करीब हैं। उनके चेहरे चमक रहे थे। नज़रें केबिन के भीतर झाँकने की चेष्टा कर रही थीं।

देवराज चौहान की निगाहें केबिन के भीतर देख रही थीं। भीतर छोटी-सी तिजोरी पड़ी थी और उसके पास ही फर्श पर बिछे कालीन पर, दीवार के सहारे पांच लेदर (चमड़े) के सामान्य साइज़ के थैले पड़े थे। ब्राउन से रंग के वे थैले बहुत अच्छे लग रहे थे। उनके मुंह जिप से बंद थे और कोने में नंबरों वाले किस्म का ताला लगा हुआ था। केटली एंड केटली के अकाउंटेंट के मुताबिक़ इन्हीं थैलों में हीरे थे।

देवराज चौहान तुरंत पलटा और सोहनलाल के बिखरे पड़े सामान में से कटर उठाया और भीतर पहुंचकर, लिफ़ाफ़े के साइज़ के लेदर के थैले को थामा और कटर से उसका जिप वाला हिस्सा काटकर, भीतर झाँका तो भीतर मौजूद छोटे-बड़े हीरे चमक उठे।

दरवाजे पर नानकचंद, केसरिया और भटनागर धड़कते दिल के साथ खड़े देख रहे थे।

“इन्हीं लेदर के थैलों में हीरे हैं।” भटनागर ने सूखे होंठों पर जीभ फेर कर पूछा।

“हाँ।” देवराज चौहान थैलों को संभालता हुआ बोला – “सोहनलाल से कहो चलें। उसका सामान समेटो। जल्दी, अब यहाँ एक पल भी रुकना खतरे से खाली नहीं। ये काम घंटो पहले हो जाना चाहिए था।”

“जगमोहन अपनी जगह पर अब तक होगा ?” एकाएक भटनागर का ध्यान जगमोहन की तरफ गया।

“जब तक हम बाहर नहीं निकलेंगे या हमारी कोई ख़ास खबर मिलने पर ही, वो अपनी जगह छोड़ेगा। वरना वो अपनी जगह से हिलेगा नहीं।” देवराज चौहान थैलों को उठाये केबिन से बाहर आ गया।

सोहनलाल उठा चूका था। भटनागर उसके औजार संभालने में सहायता करना लगा।

“ओ केसरिया... !” नानकचंद का स्वर ख़ुशी से कांप रहा था।

“हाँ सरदार... !”

“काम बन गया रे। डेढ़ अरब के हम मालिक बन गए...।”

“सही कहा सरदार। आराम से बैठकर खायेंगे। तब भी ख़त्म नहीं होगा।”

नानकचंद, देवराज चौहान के पास पहुंचा।

“देवराज चौहान ! एक बार नज़र तो लगवाई दे, हीरों पर हमारी।”

“यहाँ से निकलने के बाद हीरों को जितना मर्जी देख लेना...।”

“जैसा तुम चाहो। हम तो अब तुम्हारे भरोसे हैं। क्यों केसरिया... ?”

“बिलकुल सरदार...।”

सोहनलाल के सारे औजार समेटे जा चुके थे। अब वे सब चलने की आखिरी तैयारी में थे। पाँचों थैले देवराज चौहान के हाथ में थे, जो उसने दूसरों को थमा दिए थे। कटा हुआ थैला भटनागर को थमा कर कहा कि इसमें से हीरे गिरें नहीं। तीन थैले नानकचंद और केसरिया के हाथ में थे। पांचवां उसके अपने पास।

ठीक तभी कुछ आवाज़-सी हुई।

सबकी निगाह तुरंत सीढियों की तरफ उठी। जिधर से आवाज़ आ रही थी।

तभी देवराज चौहान होंठ भींचे कह उठा।

“कोई शोरूम से बेसमेंट में आ रहा है।”

“आने वाले ससुरे को अभी मरना था क्या।” नानकचंद गुर्रा उठा – “पांच-सात मिनट और मिल जाते हमें तो खून बहाने से बच जाना पड़ता। मेरी रिवाल्वर देना देवराज चौहान।

“कोई जरुरत नहीं। खामोश रहो तुम। हमने यहाँ किसी की जान नहीं लेनी है।” देवराज चौहान ने सख्त स्वर में कहा – “सब केबिन की ओट में हो जाओ। आने वाले एकाएक हमें न देख सकें।”

तुरंत ही सब केबिन की ओट में हो गए।

“आने वालों की जान नहीं लेंगे तो हम यहाँ से निकलेंगे कैसे... ?” नानकचंद दाँत भींचकर कह उठा।

“चम्बल की हवा खामोश हो जा।” सोहनलाल ने कडवे स्वर में कहा।

नानकचंद ने खा जाने वाली निगाहों से सोहनलाल को देखा।

पैना सन्नाटा वहां छा चूका था।

☐☐☐

वो चौबीस-पच्चीस बरस की इन्तेहाई खुबसूरत युवती थी। चुम्बक की तरह ऐसा चेहरा कि जो देखे, देखता ही रह जाए। ऐसी थी वो। टाइट जीन्स की पैंट और टॉप भी टाइट ही पहन रखा था। उन टाइट कपड़ों में पारखी निगाहें, आसानी से उसके जिस्म की नाप बयान कर दें। कद सामान्य युवतियों से कुछ लंबा ही था। संवरे बाल, लहराते हुए, पीठ तक जा रहे थे।

वो आई थी, बेसमेंट में, शोरूम से।

दरवाजा खोलकर वो भीतर आई और तुरंत ही पलट कर, दरवाजा, बेसमेंट की तरफ से बंद कर लिया था कि शोरूम से कोई बेसमेंट में ना आ सके। फिर सीढियाँ उतरने लगी। उसके अंदाज में चंचलता थी। हाथ में चाबियों का गुच्छा था।

सीढियाँ उतरते ही वो ठिठकी। चेहरे पर अजीब-से भाव उभरे। सिगरेट की स्मेल साँसों से टकराई थी। उसने बेसमेंट में निगाह मारी। केबिन का दरवाजा वहाँ से नज़र नहीं आता था। इसलिए उसे खुला हुआ नज़र नहीं आया। लेकिन जिस दीवार में से वो रास्ता बनाकर भीतर आये थे, उस पर नज़रें जा टिकीं।

दूसरे ही पल वह चिहुंक उठी।

“ओह गॉड... !” उसके होंठों से हक्का-बक्का-सा स्वर निकला। साथ ही वो जल्दी से आगे बढ़ी। उस टूटी दीवार को देखने के लिए ठिठक गयी। नज़रें केबिन की तरफ घूमीं। जिसका दरवाजा खुला हुआ था। उसकी आँखें फैलती चली गयी। एक पल के सौवें हिस्से में ही समझ गयी कि बेसमेंट में रास्ता बनाकर डकैती की गयी हैं। चेहरे पर अविश्वास के भाव लिए, ठगी सी बुत की तरह खड़ी रह गयी वो।

तभी उसे होश आया। जिस्म जोरों से कांप रहा था। वो पलटने को हुई वापस जाने के लिए। शोरूम में खबर देने के लिए, कि कदम जड़ हो गए। चेहरे के भावों में तीव्रता से हलचल पैदा हुई। फिर चेहरे पर व्याकुलता और तनाव के भाव आ ठहरे। उसकी बे-खौफ निगाहें सामने खड़े देवराज चौहान पर जा टिकीं जिसके हाथ में दबी रिवाल्वर का रुख उसकी तरफ था।

“क... कौन हो तुम ?” लिपिस्टिक से चमक रहे उसके होंठ हिले।

“तुम बाखूबी समझ रही हो कि हम कौन हैं।” देवराज चौहान का स्वर शांत था।

तभी युवती की निगाह दूसरों पर पड़ी, जो केबिन की ओट से निकल आये थे। उनके हाथ में पकडे लेदर के लिफ़ाफ़े जैसे थैलों को भी देखा।

“केटली एंड केटली में ऐसी खुबसूरत सेल्सगर्ल होने की मैनें आशा भी नहीं की थी।” भटनागर एकाएक मुस्कुराया।

“ओ केसरिया... !” नानकचंद का हाथ मूंछों पर जा पहुंचा।

“हाँ सरदार... !”

“ऐसी अप्सरा तो पूरे चम्बल में नहीं है।”

“ठीक कहा सरदार....।”

उसकी निगाह बारी-बारी सब पर जा रही थी।

“तुम लोग यहाँ डकैती कर रहे हो...।” युवती ने हिम्मत करके कहा। वो सिर से पाँव तक व्याकुल थी।

“तुम सिर्फ पांच मिनट बाद में आती तो हमारा टकराव नहीं होता।” देवराज चौहान ने शब्दों को चबाते हुए शांत स्वर में कहा – “सिर्फ पांच मिनट पहले आ गयीं तुम...।”

युवती ने पुनः सब पर निगाह मारी फिर देवराज चौहान को देखने लगी।

“इसे बेहोश करो।” सोहनलाल बोला – “हम आसानी से निकल जायेंगे।”

“ऐसा ही करना पड़ेगा।”

“हमारे चम्बल में तो आँखों देखे गवाह को गोलियों से भून देते थे। क्यों केसरिया...?”

“इसने हम सब को देख लिया है।” भटनागर ने बेचैनी से कहा – “इसे जिंदा छोड़ना खतरनाक होगा। ये पुलिस को हमारे हुलिये बता सकती है। देव-सवेर में हम पुलिस के कब्जे में होंगे।”

“ये भटनागर ठीक कहता है।” केसरिया ने होंठ भींचकर कहा।

“मैं किसी को कुछ नहीं बताउंगी।” युवती जल्दी से कह उठी – “मैं...।”

“छोरी, तू चुप कर जा।” नानकचंद ने कठोर स्वर में कहा फिर देवराज चौहान को देखा – “इसे जिंदा छोड़ने का मतलब है, अपने लिए फांसी का फंदा तैयार करना। और...।”

“तुम्हारा मतलब कि इसे ख़त्म कर दिया जाए ?” सोहनलाल ने माथे पर बल डालकर नानकचंद को देखा।

“हाँ।” जवाब दिया भटनागर ने – “इसे ज़िंदा छोड़कर, हम अपने लिए मुसीबत खड़ी नहीं करना चाहते। गोली चलाने से शोर होगा। गला दबाकर इसे ख़त्म कर दो।”

युवती की आँखों में भय उभरा।

“मुझे मत मारना। मैं किसी को कुछ नहीं बताउंगी।” युवती ने जल्दी से कहना चाहा।

“छोरी, तू अपनी जुबान बंद कर ले।” नानकचंद गुर्रा उठा।

युवती के सुर्ख होंठों में कम्पन उभरा, परन्तु वो कहीं से भी डरी नजर नहीं आई।

“पागलों की तरह बातें कर रहे हो। किसी की जान लेना हंसी-खेल नहीं है।” युवती एकाएक गुस्से कह उठी – “डकैती करना इतना संगीन जुर्म नहीं है, जितना कि साथ में ह्त्या होना संगीन जुर्म है। मुझे मार कर तुम लोग बच नहीं सकोगे। इस वक़्त तुम लोगों के यहाँ से जाने के पंद्रह-बीस मिनट तक मैं खामोश रहूंगी और ये भी कहती हूँ कि किसी को तुम लोगों के हुलिये नहीं बताउंगी। मेरी जान लेने की कोशिश मत करो।”

“केसरिया। टंटा ख़त्म कर ससुरी का। गला दबा दे।” नानकचंद ने दरिंदगी से कहा।

“अभी लो सरदार...।” केसरिया हाव-भाव में मौत के भाव समेटे आगे बढ़ा।

सोहनलाल हडबडाकर केसरिया के आगे आ गया।

“नहीं। किसी की जान नहीं ली जायेगी।”

“तो फांसी का फंदा गले में डालेगा इसे जिंदा छोड़कर...?” केसरिया ने दाँत भींचकर कहा।

“सिर्फ डकैती करने से फांसी नहीं हो जाती। साथ में खून कर दोगे तो पुलिस रगड़ कर रख देगी। और फिर तुम कौन-से दूध के धुले हो।” सोहनलाल ने खा जाने वाले स्वर में कहा।

“ओ सूखे। पीछे हट जा।” नानकचंद गुर्राया – “इस मामले में शहरी नहीं, चम्बल वाला क़ानून चलेगा। हम लोग एक साथ तो निकले नहीं थे डकैती करने। यहाँ मुलाक़ात हो गयी। बाहर निकलेंगे तो नमस्ते-नमस्ते हो जायेगी।” नानकचंद ने सख्त स्वर में कहा – “इसे छोड़ने से पुलिस जान जायेगी कि चम्बल का नानू मुम्बई में है। फिर मुझे मुम्बई से भी भागना पड़ेगा। दबा ससुरी का गला केसरिया...।”

“नहीं...।” सोहनलाल ने कहना चाहा।

तभी भटनागर आगे बढ़ा और सोहनलाल को बांह पकड़कर एक तरफ खींच लिया।

“बीच में मत आ।” भटनागर दाँत भींचकर कह उठा – “इसे जिंदा छोड़कर मैं भी किसी मुसीबत में नहीं पड़ना चाहता। सारी उम्र बीत गयी। आज तक पुलिस मेरी पहचान नहीं कर पाई। अगर इसे जिंदा छोड़ दिया गया तो, पुलिस को मेरा हुलिया बताकर, आसानी से मेरी शिनाख्त कर देगी। ख़त्म कर इसे केसरिया।”

देवराज चौहान भींचे होंठों से खड़ा सब-कुछ देख-सुन रहा था। साथ ही साथ इस बात को भी महसूस कर रहा था कि अगर समझदारी से सब कुछ नहीं सम्भाला गया, तो हालात और भी बिगड़ सकते हैं। नानकचंद और केसरिया से एक बारगी निपट लेगा, परन्तु भटनागर भी उनकी बात से सहमत था। ऐसे में अब बहुत सोच-समझकर कदम उठाना था। और उनकी बात गलत भी नहीं थी कि युवती को जिंदा छोड़कर अपने लिए मुसीबत खड़ी कर लेंगे और सिर्फ इसी वजह से किसी की जान ली जाए। देवराज चौहान इस बात के हक़ में कभी नहीं रहा।

केसरिया आगे बढ़ा तो देवराज चौहान ने शांत स्वर में टोका।

“केसरिया... !”

केसरिया ठिठका। उसने देवराज चौहान को देखा। माथे पर बल पड़े हुए थे।

युवती के चेहरे पर अब कुछ घबराहट नज़र आने लगी थी।

“देवराज चौहान !” भटनागर दाँत भींचकर कह उठा – “हम जो कर रहे हैं, ठीक कर रहे हैं। तुम बीच में...।”

“ठीक कह रहे हो या गलत, इसका फैसला बाद में भी हो सकता है।” देवराज चौहान ने पूर्ववतः स्वर में कहा।

“क्या मतलब ?”

लड़की को साथ ले चलो। जल्दी ही इस बात का फैसला हो जाएगा कि इसे ख़त्म करना है या छोड़ना है।”

“लेकिन...।”

“मैनें तुम लोगों की बात मना नहीं की।” देवराज चौहान का स्वर कुछ और सख्त हो गया – “लड़की हमारे साथ रहेगी। भागने की कोशिश करेगी तो बेशक ख़त्म कर देना। इस बीच फैसला भी हो जाएगा इसकी ज़िन्दगी-मौत का।”

भटनागर के होंठ भींच गए।

केसरिया ने नानकचंद को देखा।

“सरदार ! क्या करूँ... ?” केसरिया बोला।

“छोरी तो अपने साथ ही रहेगी। अब गला दबाया या बाद में, कोई फर्क नहीं पड़ता।” नानकचंद सख्त स्वर में कह उठा।

देवराज चौहान ने युवती को देखा।

“तुम मरना चाहती हो या खामोशी से, बिना कोई चालाकी दिखाए हमारे साथ चलोगी?” देवराज चौहान ने पूछा।

“साथ चलूंगी...।” युवती के होंठों से निकला।

“जहां भी तुमने चालाकी या किसी भी तरह की धोखे वाली बात की तो ये लोग तुम्हे ख़त्म कर देंगे।”

“मैं... मैं ऐसा कुछ नहीं करुँगी।”

☐☐☐

दिन की रौशनी बढ़ने के साथ-साथ जगमोहन की व्याकुलता बढती जा रही थी। तय बात के मुताबिक़ सबको दिन की रौशनी निकलने से पहले, साढ़े चार अरब के हीरों के साथ बाहर आ जाना चाहिए था परन्तु अब तो सूर्य की रौशनी भी फैल चुकी थी। साढ़े सात बज रहे थे और उनमें से कोई भी बाहर नहीं निकला था। भीतर जाने के बाद उनके साथ क्या बीती, क्या हुआ, हर बात से अनजान था वो। ऐसे में उसका परेशान होना लाजिमी था। और फिर वक़्त पर बाहर न आना।

जगमोहन के सामने दिक्कत तो यह आ रही थी कि वो मेनहोल के भीतर जाकर भी नहीं देख सकता था कि नीचे मामला क्या है ? इस वजह से कि उसके भीतर जाने से भीतर का मामला कहीं और न बिगड़ जाए। क्योंकि वो नीचे के हालातों से वाकिफ नहीं था। दिन भी निकल चूका था। ऐसे में उसे भीतर जाते कोई भी देख सकता था।

अब तो पुलिस स्टेशन में चहल-पहल भी बहुत बढ़ गयी थी और वो महज सौ गज की दूरी पर था, पुलिस स्टेशन के प्रवेश द्वार से। ऐसे में कुछ भी करना मुसीबत मोल लेना था।

क्या हो रहा था भीतर ?

वो सब वक़्त पर आये क्यों नहीं ?

कहीं उनके साथ कोई हादसा तो पेश नहीं आ गया।

ऐसी सोचें उसकी परेशानी को बढ़ा रही थीं।

टेम्पो अभी भी मेनहोल पर खड़ा था। धुप निकलने की वजह से जगमोहन नीचे बिछा कपडा उठा कर दूसरी तरफ टेम्पो की छाया में लेट गया था। चोर निगाहों से बार-बार टेम्पो के नीचे जमीन पर मौजूद मेनहोल को देख लेता। अगर नीचे सब ठीक है तो वो कभी भी बाहर आ सकते थे।

धीरे-धीरे नौ बज गए।

जगमोहन की व्याकुलता सिर चढ़कर बोलने लगी।

वो जानता था कि केटली एंड केटली का शोरूम साढ़े नौ तक खुलना शुरू हो जाता है। ऐसे में तो उन्हें हर हाल में आ जाना चाहिए था। बेशक काम बना हो या न बना हो।

ये वक़्त वहीँ रुके रहने का तो था नहीं।

फिर उनके न आने का क्या कारण है ?”

उसे कुछ करना पड़ेगा। यक़ीनन उनके साथ कोई बुरा हादसा पेश आया है, जो कि वो वक़्त पर बाहर नहीं आ सके। ये बात तो वो भी जानते होंगे कि शोरूम खुलने का वक़्त हो चुका है।

अब एक ही रास्ता था। हर किसी की नज़रों से बचकर मेनहोल में उतरना और मालूम करना कि असल बात क्या है। नीचे क्या है, जो...।

जगमोहन की सोचें रुकीं।

नीचे लेटे-लेटे, टेम्पो के नीचे से उसने किसी पुलिस वाले को इस तरफ आते देखा। आधी से ज्यादा टाँगे नज़र आ रही थी। जगमोहन के होंठों से गहरी सांस निकली। उसे लगा जैसे नयी मुसीबत पास आ गयी हो। जबकि इस वक़्त यहाँ उसके अलावा किसी को नहीं होना चाहिए। क्योंकि, अगर नीचे सब ठीक है तो, वे लोग कभी भी, बाहर निकलने के लिए मेनहोल का ढक्कन, नीचे से सरका सकते हैं।

जगमोहन ने आँखें बंद कर लीं। मैले से कपडे पर वैसे ही लेटा रहा। बदन पर तो मैला-सा कमीज-पायजामा था और चेहरा भी इस तरह बिगाड़ रखा था जैसे ज़िन्दगी भर वक़्त की बुरी मार खाता रहा हो।

पुलिस वाला पास आया और टेम्पो से टेक लगाकर, होंठ सिकोड़ कर जगमोहन को देखा। उसने बगल में डंडा दबा रखा था और बाईं हथेली पर रखे तम्बाकू को दायें हाथ के अंगूठे से मसल रहा था।

“बहुत हिम्मत है तेरी...।” कांस्टेबल ने कहा और तम्बाकू मुंह में डाल दिया।

जगमोहन ने आँखे खोलीं। कांस्टेबल को देखा फिर घबराहट दिखाते हुए खडा हुआ।

“सलाम इंस्पेक्टर साहब....।”

“ठीक है। ठीक है।” कांस्टेबल ने डंडा हाथ में पकड़कर उसे घूरा – “बहुत हिम्मत है तेरी...।”

“किस बात की सरकार... ?” जगमोहन ने ऐसा दिखावा किया जैसे उसकी वर्दी देखकर घबरा गया हो और मन ही मन वो बल खा रहा था कि ये कांस्टेबल जल्दी से, यहाँ से चला जाए।

“तूने तो पुलिस स्टेशन के बाहर ही पार्किंग की जगह बना ली। बंद करूँ टेम्पो को...।”

“नेई बाप...।” जगमोहन हाथ जोड़कर कह उठा – “आप तो मालिक है। मैं तो नौकर हूँ। ये टेम्पो खराब हो गया है। देखिये, इसका बोनट भी उठा रखा है। रात को यहाँ से निकल रहे थे कि इंजन ने कम करना बंद कर दिया। मैकेनिक को दिखाया तो उसने चार हज़ार का खर्चा बता दिया। पैसे तो पास में थे नहीं, इसलिए वो गाँव गया है पैसे लेने के लिए। दोपहर तक लौट आएगा। मैं तो खुद रात से परेशान हुआ पडा हूँ, यहाँ पे रहकर। न पीने को पानी। न खाने को कुछ। सोने के लिए चारपाई होना तो, सपना लेने जैसा है।”

“हूँ।” कांस्टेबल ने डंडे से टेम्पो की बॉडी ठकठकाई – “किसका टेम्पो है ये ?”

“मालिक का। मुझे तो हज़ार रुपया महिना देता है। पूरा ही नहीं पड़ता।” जगमोहन ने गहरी सांस ली।

कांस्टेबल ने जगमोहन को घूरा।

“तेरे को पता है, यहाँ कोई भी गाडी खड़ा करना मना है।”

“मैंने टेम्पो यहाँ खड़ा नहीं किया। मालिक ने किया है।” जगमोहन दयनीय स्वर में कह उठा।

“देख लूँगा तेरे मालिक को। जब वो आये तो मेरे आस भेजना थाने में।” उसने हवा में डंडा घुमाया – “नाम पढ़ ले मेरा। ये देख, नाम की पट्टी लगी है।”

“मैं पढना क्या जानूं साहब जी...।”

“रामसिंह नाम है मेरा...।”

“जी। कह दूंगा उसे, जब वो आएगा।”

“पैसे लेने गया है गाँव ?”

“जी। टेम्पो ठीक कराना है।”

“जब वो पैसा लेकर आये तो याद से, मेरे पास भेज देना। नहीं तो तेरे को बंद कर दूंगा जेल में...।”

“माई-बाप ! मैं उसकी बांह पकड़कर आपके पास लाऊंगा।” जगमोहन ने जल्दी से कहा।

“ठीक है। ठीक है। जेब में क्या है तेरी ?” कांस्टेबल डंडा घुमाते हुए कह उठा।

“गरीब बंदा हूँ। हज़ार रुपये तनख्वाह पाने वाले की जेब में क्या होगा साब जी।” जगमोहन ने हाथ जोड़कर कहा।

“ज्यादा जबान मत चला।” कांस्टेबल धौंस देने वाले स्वर में कह उठा – “सीधे-सीधे जवाब दे।”

“पचास रुपये।”

“ठीक है। खैर मना कि यहाँ टेम्पो खड़ा करने के जुर्म में तेरे को बंद नहीं कर रहा।” कांस्टेबल ने पहले वाले स्वर में कहा – “वो देख, सामने सड़क पार। पान का खोखा नज़र आ रहा है ?”

जगमोहन ने उधर देखा।

“हाँ, साब जी ! नज़र आ रहा है।”

“वहाँ जा। मैनें उसके तीस रुपये देने हैं। अपने पचास के नोट में से तीस रुपये कटा देना। मेरा नाम बता देना और बाकी के बचे बीस रुपये का कोई बढ़िया सिगरेट का पैकेट ले आना। जल्दी जा।”

साब जी, फिर तो पूरे पचास ख़त्म हो जायेंगे। मैं खाली जेब हो जाऊँगा।”

“बंद करूँ तेरे को। चल थाने।”

“नहीं-नहीं। ऐसा मत करना।” जगमोहन ने हाथ जोड़कर कहा – “आप पचास रुपये लेकर पान वाले से हिसाब कर लीजिये। मैं वहाँ गया और पीछे से मालिक आ गया तो गुस्सा करेगा कि मैं टेम्पो छोड़कर क्यों गया।”

“ऐसी-तैसी तेरे मालिक की। उसको तो टेम्पो यहाँ खड़ा करने के जुर्म में बंद करूँगा। तू जा, जो तेरे को कहा है वही कर। मैं यहाँ खड़ा हूँ।” कांस्टेबल ने डंडा हवा में घुमाया।

जगमोहन ने मन ही मन गहरी सांस ली। पुलिस वालों का टेम्पो के पास खड़ा होना खतरनाक था। अगर इसी वक़्त में वो नीचे से निकले तो हंगामा खड़ा हो चलेगा। फिर जो होगा, वही कम होगा, परन्तु ये कांस्टेबल सूखा-सूखा टलने वाला भी नहीं। जगमोहन इस बात को जान चूका था।

“सोचता क्या है।” कांस्टेबल तीखे स्वर में कह उठा।

“जा रहा हूँ.. साब जी। अभी गया।”

मजबूरन जगमोहन को टेम्पो के पास से हटकर, सड़क पार, पाने वाले खोखे पर जाना पड़ा। कांस्टेबल ने डंडा घुमाते हुए, वक़्त बिताने वाले अंदाज में टेम्पो के भीतर आगे और पीछे देखते हुए टेम्पो का फेरा लगाया फिर खुले बोनट को देखा।

जगमोहन को लौटने में दस मिनट लगे। और मन ही मन वो यही प्रार्थना कर रहा था कि मेनहोल से कोई बाहर न निकले। बेशक एक घंटा और देर से बाहर निकले।

वापस आकर पैकेट कांस्टेबल को दिया।

“मेरा नाम बता कर तीस रुपये कटवा दिए थे।” पैकेट जेब में डालता कांस्टेबल कह उठा।

“जी माई-बाप। आप बेशक पूछ लीजिये।”

“ठीक है, ठीक है। याद है ना, तेरा मालिक जब आये तो उसे लेकर मेरे पास आना है तेरे को।”

“आपका हुक्म कैसे भूल सकता हूँ माई बाप...।”

कांस्टेबल ने आदत के मुताबिक डंडा बगल में दबाकर, सिर पर पड़ी कैप दोनों हाथों से ठीक की और फिर डंडा हाथ में पकड़ कर पुलिस स्टेशन के गेट की तरफ चल पड़ा।

जगमोहन ने मील भर लम्बी चैन की सांस ली कि कोई गड़बड़ नहीं हुई। वो फिर टेम्पो की छाया में रखी चादर पर लेट गया। नज़रें मेनहोल के ढक्कन पर गयी। चिंता और व्याकुलता से वो पुनः परेशान हो उठा कि वे लोग वापस क्यों नहीं आये। दिन के दस बज रहे थे। सूर्य सिर पर चढ़ता आ रहा था। और वो समझ नहीं पा रहा था कि क्या करे। मेनहोल में उतरे या यहाँ इन्तजार करता रहे।

इसी कशमकश में ग्यारह बजे तो मेनहोल का ढक्कन हिलने का एहसास हुआ। जगमोहन का दिल जोरों से धड़का। वो सतर्क नज़र आने लगा। उसने फ़ौरन लेटे ही लेटे ही टेम्पो के नीचे से पुलिस स्टेशन के प्रवेश द्वार पर नज़र मारी। लोग और पुलिस वाले आ-जा रहे थे। और वहाँ से इधर आसानी से देखा जा सकता था कि मेनहोल से कोई निकल रहा है। ऐसे में मुसीबत खड़ी हो सकती है।

जगमोहन जल्दी से खड़ा हुआ। नीचे बिछा रखा कपडा उठाया और टेम्पो के गिर्द चक्कर लगाकर दूसरी तरफ वो कपडा टेम्पो के साथ इस तरह लटका दिया कि पुलिस स्टेशन के प्रवेश द्वार से, टेम्पो के नीचे होने वाली हरकतों को न देखा जा सके।

वैसे सड़क की तरफ से उन लोगों की हरकतों पर नज़र पडना मामूली बात थी, परन्तु वहाँ से गुजरने वाले वाहनों में मौजूद लोग, ये सब नोट कर सकें इसका चांस कम ही था। फिर वो दूसरी तरफ आ गया।

☐☐☐

मेनहोल का ढक्कन जब ऊपर उठा तो, जगमोहन का दिल और भी जोरों से धड़क उठा। उसने जल्दी से सड़क की तरफ देखा। अभी सब ठीक था। किसी का ध्यान या नज़र इधर नहीं था।

जगमोहन अपनी जगह पर लापरवाही दर्शाता खड़ा रहा।

मेनहोल का ढक्कन हटाने में उसने कोई सहायता नहीं की। ऐसा करने पर, कोई उसे दूर से देखे तो शक खा सकता था। उसकी निगाहें इधर-उधर सतर्कता से फिर रही थीं। इधर-उधर देखते हुए उसकी निगाह टेम्पो के नीचे मेनहोल पर भी थी।

सबसे पहले देवराज चौहान मेनहोल से बाहर निकला। चूँकि ऊपर टेम्पो खड़ा था। इसलिए पूरी तरह बाहर निकलने में उसे कुछ परेशानी हुई, फिर वो टेम्पो से सरक कर बाहर आ खड़ा हुआ। उसके कपडे मिटटी से सने हुए थे। ऑक्सीजन सिलिंडर वो नाले में ही छोड़ आये थे। देवराज चौहान और जगमोहन की नज़रें मिलीं। उनमें डेढ़ कदम की दूरी थी, परन्तु कोई बात नहीं हुई।

फिर भटनागर निकला, परन्तु टेम्पो के नीचे से बाहर आने की अपेक्षा, नीचे ही मेनहोल के पास लेटा रहा। फिर जगमोहन ने खुबसूरत युवती को मेनहोल से निकलते देखा तो, चेहरे पर अजीब-से भाव आ गए। उसने देवराज चौहान को देखा, जिसकी निगाहें मेनहोल की ही तरफ थीं।

“झुककर निकलो।” भटनागर ने सख्त स्वर में युवती से कहा – “और याद रखना, तुमने जहां भी चालाकी की, फ़ौरन तुम्हे खतम कर दिया जाएगा। हमारा जो होता है, होता रहे।”

“मैं...।” युवती ने लिपस्टिक से रंगे होंठों पर जीभ फेरी – “वही करुँगी, जो तुम लोग कहोगे।”

वो मेनहोल से बाहर निकल आई। उसके कपडे मिट्टी से सन गए थे। एक तरफ के गाल पर भी मिट्टी लगी नज़र आ रही थी। वो और भटनागर टेम्पो के नीचे से निकले और देवराज चौहान के पास पहुंचकर खड़े हो गए। युवती और जगमोहन की नज़रें मिलीं।

“भटनागर... !” देवराज चौहान ने भींचे स्वर में कहा – “इसे लेकर, कार की तरफ चलो।”

भटनागर बिना कुछ कहे, युवती को साथ लिए आगे बढ़ता चला गया।

फिर केसरिया और सोहनलाल बाहर निकले। उसके बाद नानकचंद।

जगमोहन इस नए चेहरों को देखकर भारी तौर पर उलझन में था।

वो पास पहुंचे तो देवराज चौहान कह उठा।

“यहाँ से बिखर जाओ। सोहनलाल, तुम नानकचंद को लेकर भटनागर के यहाँ पहुँचो। केसरिया मेरे साथ चलेगा।”

नानकचंद ने जगमोहन को घूरा।

“तो तू है जगमोहन। जिसके बारे में देवराज चौहान ने बताया था।”

जगमोहन ने अजीब सी निगाहों से देवराज चौहान को देखा।

“ओ केसरिया !”

“हाँ सरदार... !”

“देख ले, जगमोहन का चेहरा। भगवान् न करे, कभी जरुरत पड़े हो।”

“देख लिया सरदार...।”

“इधर चल। मेरे साथ...।” सोहनलाल ने कहा और नानकचंद के साथ, एक तरफ बढ़ता चला गया।

जगमोहन ने उन पर से नज़रें हटाकर, पुनः देवराज चौहान को देखा।

“ये सब क्या हो रहा है, ये लोग ?” जगमोहन के होंठों से निकला।

“यहाँ रुकना खतरे से खाली नहीं।” देवराज चौहान ने कहा – “बातें फिर भी हो जायेंगी। टेम्पो के नीचे देखो।”

जगमोहन ने उधर निगाह मारी तो दिल धाड़-धाड़ बजने लगा। वहाँ लेदर के छोटे-छोटे लिफाफों जैसे बैग पड़े नज़र आ रहे थे।

“हीरे ?” जगमोहन के होंठों से सुखा-सा स्वर निकला।

“हाँ। साढ़े चार अरब के हीरे हैं। सावधानी के नाते हम साथ नहीं ले जा रहे। तुम इन्हें लेकर वहीँ पहुँचो। जहां से हम निकले थे। टेम्पो को कहीं भी छोड़ देना।” कहने के साथ ही देवराज चौहान, केसरिया के साथ आगे बढ़ गया।

जगमोहन का दिल जोरों से बज रहा था। उसने ज़रा भी वक़्त नहीं गंवाया। टेम्पो के आगे का दरवाजा खोला और फिर टेम्पो के नीचे पड़े लेदर के थैलों को उठाकर भीतर रखा। एक थैला उसे खुला नज़र आया तो उसके भीतर झाँका। हीरे चमकते नज़र आये। वो समझ गया कि काम हो चूका है। साढ़े चार अरब के हीरे उसके पास हैं। लेदर के थैले भीतर रखने के बाद, उसने टेम्पो की साइड में लटकाया कपड़ा उतार कर बीच में डाला फिर उसे बोनट के बीच हाथ डालकर किसी चीज से छेड़छाड़ करने लगा। आधे मिनट में ही पीछे हटा। बोनट गिराया। उसके बाद ड्राइविंग सीट पर बैठा और टेम्पो स्टार्ट करते हुए एक निगाह पुलिस स्टेशन के गेट पर मारी। उसके बाद टेम्पो को आगे बढाता हुआ सड़क पर लेता चला गया।

टेम्पो के उस जगह से हटते ही नीचे मेनहोल खुला नज़र आने लगा था।

☐☐☐

“ओमवीर !” हवलदार सुच्चा राम कह उठा – “भाभी, वो हरे रंग की साडी कहाँ से लाई है।”

कांस्टेबल ओमवीर ने गहरी निगाहों से सुच्चा राम को देखा।

“मेरी बीवी की साड़ियों के रंग भी तुम्हे याद होने लगे।” ओमवीर ने उखड़े स्वर में कहा – “ये ठीक है कि हम दोस्त हैं। ये भी ठीक है कि हमारे पुलिस के क्वार्टर साथ-साथ हैं। इसमें भी कोई हर्ज़ नहीं कि हमारी ड्यूटी भी चार दिन से एक साथ है। लेकिन मेरी बीवी की साडी...।”

“गलत मत बोल। बात को समझा कर। मैनें तो डेढ़ महीने से भाभी को भी नहीं देखा। मैं तेरे को ऐसा लगता हूँ भाभी के बारे में कुछ गलत सोचूंगा।” सुच्चा राम तीखे स्वर में कह उठा।

“डेढ़ महीने से तूने मेरी बीवी को नहीं देखा तो उसकी साडी का रंग...।”

“बात को सुना कर ओमवीर।” सुच्चा राम ने कहा – “मेरी पत्नी बता रही कि तुम्हारी पत्नी आजकल हरे रंग की नयी साडी लायी है। साडी बहुत अच्छी है। कहती थी महँगी भी है और मेरे को झाड पिला रही थी कि ओमवीर भाई साहब कांस्टेबल होकर भी अपनी बीवी को कितने बढ़िया और महंगे कपडे लाकर देते हैं, और मैं हवलदार होकर भी कुछ नहीं कर पाता।”

ओमवीर ने मुंह घुमा लिया। कहा कुछ नहीं।

इस वक़्त इन दोनों के साथ चार सिपाही भी थे, और सड़क पर रोक लगाकर सामने से गुजरते धीमे वाहनों पर नज़र मार रहे थे। दो कुर्सियां फुटपाथ पर रखी थी बैठने के लिए और चंद क़दमों के फासले पर पीले रंग की पुलिस मोटर साइकिल खड़ी थी।

“तूने जवाब नहीं दिया ओमवीर...।” सुच्चा राम ने कहा।

“क्या जवाब दूं...।” ओमवीर उखडा-सा नज़र आने लगा था।

“नाराज़ क्यों होता है। प्यार से बात कर।” सुच्चा राम मुस्कुराया – “मैं तो कह रहा था कि तेरी तनख्वाह भी मेरे से कम है। इस पर भी तू बढ़िया तरीके से रहता है, और अपनी बीवी को बढ़िया कपडे।”

“मेरा बाप मेरे को पैसे देता है।” ओमवीर ने कुढ़ कर कहा।

“तेरा बाप। उसे मरे तो पांच साल हो गए।”

“वो पैसे छोड़ गया था।”

“अच्छा...।” सुच्चा राम की आवाज़ में तीखापन-सा आया – “मैनें तो सुना है, तेरे बाप के पास पैसा ही नहीं था। और उसके मरने की वजह भी, भूखे रहना था। फिर वो पैसे कैसे छोड़ गया।”

“तू मेरे बाप को जानता था।” ओमवीर ने कड़वे स्वर में कहा।

“नहीं।” सुच्चा राम ने शराफत से सिर हिलाया।

“तो फिर मैं जो कहता हूँ मान ले। सुनी-सुनाई बातों पर मत जा।” ओमवीर ने सुलगे, किन्तु धीमे स्वर में कहा और उसके पास से हट गया।

सुच्चा राम ने ओमवीर को घूरा फिर कड़वे स्वर में बड़बड़ा उठा।

“मैं सब समझता हूँ बेटे। रिश्वत लेता है। जब पकड़ा जाएगा तो पता चलेगा। सब साड़ियों की गिनती होगी।” इसके साथ ही उसने पीछे हटते हुए फुटपाथ पर पड़ी कुर्सी पर बैठते हुए जेब से कागज़ निकाला, और उसे खोलकर देखने लगा। कागज़ पर उन वाहनों के नंबरों की लिस्ट थी जो पिछले चौबीस घंटों में चोरी हुए थे। नंबरों की लिस्ट पर सुच्चाराम की नज़रें दौड़ने लगी। उसमें टेम्पो का भी नम्बर था, 2000।

☐☐☐

“आजकल शहरों में गाड़ियाँ बहुत चोरी हो रही है।” सुच्चा राम कागज़ की तह लगाकर, उसे जेब में वापस रखते हुए बड़बड़ा उठा। फिर नज़रें सड़क पर लगा रखी रोक पर गयी कि जिसकी वजह से सड़क पर गुजरता ट्रैफिक बेहद धीमा होकर, रोक में से गुजरता, उसके बाद रफ़्तार पकड़ता।

कुर्सी पर बैठे हवलदार सुच्चा राम की नज़रें रोक पर से गुजरते वाहनों की नम्बर प्लेटों पर जाने लगी। अगले ही पल चिहुंक कर कुर्सी से खड़ा हो गया।

रोक पर से गुजर रही, कारों के पीछे टेम्पो के नम्बर पर निगाह पड़ी तो वो चौंका था। 2000 नम्बर तो अभी-अभी उसने कागज़ की लिस्ट में पढ़ा था। यही चोरी का टेम्पो था या नहीं। वो तो पूछताछ से मालूम हो जायेगा। पहले इसे रोकना जरुरी था।

हवलदार सुच्चा राम ऊँचे स्वर में बोला।

“उस टेम्पो को रोको। 2000 नम्बर वाले टेम्पो को, जल्दी।”

उसके शब्द दो सिपाहियों और कांस्टेबल ओमवीर ने सुने तो, वो जल्दी से रोक के पास पहुँच गए। सुच्चा राम का हाथ, कमर में मौजूद होल्स्टर पर पहुँच गया था।

☐☐☐

जगमोहन ने एकाएक टेम्पो की तरफ बढ़ते पुलिस वालों को देखा तो मन ही मन चौंका। वो समझ नहीं पाया कि क्या करे। इस वक़्त उसके पास साढ़े चार अरब के हीरे थे। जिन्हें हर हाल में बचाना जरुरी था। पुलिस वाले उससे क्या चाहते हैं ?

अगर आगे-पीछे रास्ता होता तो जगमोहन टेम्पो को दौड़ा ले जाता था। लेकिन पुलिस द्वारा लगाईं गयी रोक से निकलती आगे दो कारें थी और पीछे भी कई वाहन थे। यानि कि टेम्पो भगा ले जाने की कोई गुंजाइश नहीं थी।

तभी दूसरी तरफ का दरवाजा खोलकर ओमवीर टेम्पो में आ गया।

“टेम्पो साइड में लगा...।” ओमवीर ने रूखे स्वर में कहा।

“लेकिन साब जी...।” जगमोहन ने कहना चाहा।

“सुना नहीं तूने। बातें बाद में कर लेना।” ओमवीर पहले वाले स्वर में कह उठा।

जगमोहन ने सिर हिलाया। धीरे-धीरे टेम्पो आगे बढ़ा रहा था, वाहनों की भीड़ में। दिल जोरो से धड़क रहा था कि उसे क्यों रोका जा रहा है।

ओमवीर की निगाह पैरों के पास पड़े लेदर के थैलों पर पड़ी।

“हूँ। क्या हैं इन थैलों में।” ओमवीर ने जगमोहन को देखा।

“कुछ नहीं साब जी। टेम्पो रुकने दो। देख लेना।” जगमोहन ने लापरवाही से कहा। जबकि उसका दिल जोरों से धड़क रहा था कि अगर अभी इसने लेदर के थैले को चेक करना शुरू कर दिया और जिप के पास से कटे थैले में से हीरे नज़र  आ गए तो सारी मेहनत पर पानी फिर जाएगा।

ओमवीर को कोई हरकत न करते पाकर, जगमोहन को कुछ पल के लिए चैन आया। लेकिन वो जानता था कि अब आने वाला वक़्त मुसीबत वाला है।

टेम्पो ने रोक पार की तो ओमवीर उसी लहजे में कह उठा।

“साइड में लगा टेम्पो। मोटर साइकिल के पास लगा ले... ?”

“अभी लो साहब जी...।” जगमोहन ने शराफत से कहा। जबकि उसका दीमाग तेजी से दौड़ रहा था। इस वक़्त उसे हर हाल में पुलिस से बचना था। क्योंकि पास में मौजूद साढ़े चार अरब के हीरों को बचाने की जिम्मेदारी उसकी थी। जगमोहन ये बात कभी भी बर्दाश्त नहीं कर सकता था कि वजह से साढ़े चार अरब के हीरों का नुकसान हो।

टेम्पो सड़क के किनारे, साइड में लगाकर जगमोहन ने ओमवीर को देखा।

“मुझसे क्या गलती हुई साहब जी...।” जगमोहन ने पास बैठे ओमवीर को देखा।

ओमवीर कुछ कहने लगा तो हवलदार सुच्चा राम पास आया।

“ये टेम्पो चोरी का है।” सुच्चा राम के हाथ में लिस्ट वाला कागज़ था। इस दौरान वो पूरा नम्बर चेक कर चूका था – “ये टेम्पो कल चोरी हुआ था। गर्दन से पकड़ साले को। मैं दूसरी गाड़ियां चेक करता हूँ।” कहने के साथ ही हवलदार सुच्चा राम, रोक की तरफ बढ़ गया।

एक सिपाही टेम्पो के पास आ पहुंचा था।

जगमोहन मन ही मन चौंका। सोहनलाल ये टेम्पो चोरी करके लाया था। ओह तो रोके जाने की ये वजह है। यानि कि दे दिलाकर, इन पुलिस वालों से छूटकारा पाया जा सकता है।

ओमवीर ने आँखें सिकोड़ कर, जगमोहन को घूरा।

“क्यों बे टेम्पो चोरी करता है।” ओमवीर ने पुलिसिया स्वर में कहा।

“साब जी, वो...।” जगमोहन हडबडाया।

“तेरा साब जी मैं निकालूँगा, तू...।” ओमवीर ने दाँत भींचकर कहना चाहा।

“कौन कहता है टेम्पो चोरी का है।” जगमोहन खुद को संभालते हुए कह उठा – “ये मेरे साले का टेम्पो का है। कल ही मैंने उससे चार दिन के लिए लिया है। आप कहते हैं कि ये चोरी का है।”

ओमवीर ने खा जाने वाली नज़रों से जगमोहन को घूरा।

“वो हवलदार पागल है, जिसके हाथ में लिस्ट है और उसमें इस टेम्पो का नम्बर...।”

“मैं नहीं जानता, क्या मामला है ? लेकिन ये टेम्पो चोरी का नहीं है।”

“कागज़ दिखा।”

“क्या ?” जगमोहन सकपकाया।

“बेटे...।” ओमवीर जहरीले स्वर में कह उठा – “टेम्पो चोरी का नहीं है तो इसके कागज़ तेरे पास जरुर होंगे। तेरे पास लाइसेंस भी होगा। ज़रा उसके दर्शन करा दे...।”

जगमोहन समझ गया कि पास बैठा कांस्टेबल घिसा हुआ बंदा है। संभालना पड़ेगा।

“ठीक है भाई। मेरे पास कुछ नहीं है।” जगमोहन ने धीमे स्वर में कहा – “बोल, मुझे रास्ता देने का क्या लेगा ?”

“रिश्वत देता है मुझे... ?” ओमवीर के दाँत भींच गए।

“रिश्वत नहीं दे रहा। लेन-देन कर रहा हूँ। सिर्फ दस सेकंड का वक़्त दे दे मुझे...।”

“दस सेकंड... ?”

“हाँ...।”

“दस सेकंड में तू क्या कर लेगा ?”

“भाग जाऊँगा।”

“मोटर साइकिल तैयार है। और वो हवलदार अपनी धुन के पक्का है। तेरे को छोड़ेगा नहीं...।”

“देख लूँगा। तू सिर्फ दस सेकंड का मौका मुझे दे दे।” कहने के साथ ही जगमोहन ने जेब से पचास के नोटों की पांच हज़ार वाली गड्डी निकाली।

ओमवीर ने गड्डी को देखा फिर बाहर खड़े सिपाही को, जिसे ये नज़र नहीं आ रहा कि टेम्पो के भीतर उनके बीच क्या हो रहा है।

“वो हवलदार रिश्वत नहीं लेता। सख्त है।”

“उसे मत देना। सारे तू रख ले।”

“वो तेरे को पकड़ने के लिए पक्का तेरे पीछे भागेगा। तू पकड़ा गया और तूने कह दिया कि मेरे को पांच हज़ार दिए थे भगाने के लिए तो मेरी नौकरी खतरे में पड़ जायेगी।” ओमवीर धीमे स्वर में बोला।

“तुम्हारा कोई धर्म है या नहीं। मैं नहीं जानता। लेकिन मेरा धर्म है जो मेरे काम आया, उसके खिलाफ कभी भी मुंह नहीं खोलता। विश्वास कर मेरे पे। तेरी नौकरी को कुछ नहीं होगा।” जगमोहन ने विश्वास दिलाने वाले स्वर में कहा।

ओमवीर ने पांच हज़ार की गड्डी ली और अपने कपड़ों में छिपा ली।

“इन चमड़े के थैलों में क्या है ?” एकाएक ओमवीर ने पूछा।

“तेरा काम का कुछ नहीं है।” जगमोहन से कहा – “नीचे उतर और दस सेकंड मुझे दे...।”

ओमवीर ने सिर हिलाया और टेम्पो का दरवाजा खोल कर नीचे उतरा।

“टेम्पो पर नज़र रखना।” ओमवीर ने पास खड़े सिपाही से कहा – “मैं हवलदार साहब से...।”

तभी टेम्पो तीव्र झटके के साथ गोली की तरह भाग निकला। उसकी साइड मोटरसाइकिल से लगी तो वो नीचे गिर गयी।

पीछे से ओमवीर और सिपाही के चीखने की आवाज़ आई – ‘पकड़ो – पकड़ो।”

लेकिन अब जगमोहन ने कहाँ रुकना था।

☐☐☐

सिपाही ने जल्दी से मोटरसाइकिल सीधी की।

तब तक हवलदार सुच्चा राम भागकर वहाँ आ पहुंचा था।

“तुमसे एक टेम्पो नहीं संभाला गया।” सुच्चा राम ने गुस्से से कहा – “जबकि वो चोर अकेला था...।”

“ये बातें बाद में भी हो जायेंगी।” ओमवीर जल्दी से कह उठा – “उसे पकड़ो...।”

तब तक सिपाही मोटरसाइकिल स्टार्ट कर चूका था। सुच्चा राम ने जल्दी से मोटरसाइकिल संभाली, ओमवीर पीछे बैठा और मोटरसाइकिल तेजी से आगे बढ़ गयी।

काफी दूर सड़क पर जाता वो टेम्पो नज़र आ रहा था।

☐☐☐

जगमोहन के दाँत भींचे हुए थे।

बीस मिनट हो गए थे, पुलिस मोटरसाइकिल को पीछे लगे, परन्तु लाख कोशिश के बाद भी वो, पुलिस वालों से पीछा नहीं छुड़ा पाया था।

टेम्पो शहरी इलाके से निकाल कर, शहर के बाहरी ग्रामीण इलाके में ले आया था। हालांकि मोटरसाइकिल काफी पीछे थी, कभी-कभार वो निगाहों से ओझल भी हो जाती थी, लेकिन वो बराबर पीछे थी।

जगमोहन समझ नहीं पा रहा था कि क्या करे ?

जगमोहन ने टेम्पो के साइड मिरर में पीछे देखा। कच्ची सड़क के गिर्द पेड़ लगे हुए थे। कहीं-कहीं कच्चे-पक्के मकान बने नज़र आ रहे थे। शीशे में पीछे आती पुलिस वालों की मोटरसाइकिल कहीं भी नज़र नहीं आई। सामने ही गाय-भैसों का तबेला नज़र आया। काफी खुली जगह में, ईंटों की चारदीवारी कर रखी थी और गेट वाली जगह पर, लकड़ी का कच्चा गेट लगा रखा था, जो कि इस वक़त खुला हुआ था। कोई और रास्ता न देखकर जगमोहन टेम्पो को खुले रास्ते से, तबेले के भीतर ले जाता चला गया। गोबर की स्मेल वहाँ फैली हुई थी। टिन की चादर की छतों के नीचे दांये-बांये गाय-भैंस बंधी हुई थी। बीच में रास्ता खाली था। जगमोहन टेम्पो को आगे बढाता लेता चला गया।

तभी एक जगह उसने देखा कि वहाँ गाय-भैंस नहीं बंधी हैं। खाली जगह है। बिना देरी के उसने टेम्पो को जल्दी से मोड़ा और गाय-भैंसों की खाली जगह पर खड़ा कर दिया। ऊपर टिन की चादर की छत थी, जो कि बल्लियों के सहारे टिका रखी थी।

जगमोहन ने इंजन बंद किया और जल्दी से नीचे उतर गया। कपड़ों में छिपा रखा रिवाल्वर निकालकर हाथ में ले लिया। पुलिस वालों के लिए नहीं बल्कि तबेले में मौजूद व्यक्तियों के लिए कि टेम्पो की वजह से तबेले वाला इधर आये तो उसे काबू में ले सके कि शोर न करें।

परन्तु कोई व्यक्ति नहीं दिखा।

जगमोहन रिवाल्वर थामे टेम्पो के पास ही खड़ा इधर-उधर देखता रहा। तभी उसके कानों में मोटरसाइकिल की आवाज़ पड़ी, जो कि तबेले के बाहर आकर रुक गयी थी।

जगमोहन के होंठ भींच गए।

मोटरसाइकिल की आवाज़ बराबर उसके कानों में पड़ रही थी।

तो क्या पुलिस वालों ने टेम्पो को तबेले में प्रवेश करते देख लिया है। जगमोहन दाँत पर दाँत जमाये, रिवाल्वर थामे वैसे ही खड़ा रहा। साढ़े चार अरब के हीरे, उसे खतरे में लग रहे थे। चूँकि वो और टेम्पो गाय-भैसों की लाइन में, आड़ में थे। इसलिए बाहर से देखे जाना संभव नहीं था।

मिनट भर बाद ही, मोटरसाइकिल की आवाज़ से एहसास हुआ कि वो आगे बढ़ गयी है।

जगमोहन ने चैन की सांस ली। वो जानता था कि पुलिस वाले फिर लौट सकते हैं, जब उन्हें आगे कहीं भी टेम्पो नहीं मिलेगा। इतना कुछ होने के बाद भी तबेले से कोई नहीं निकला था।

यानि कि इस वक़्त इत्तफ़ाक से यहाँ कोई भी मौजूद नहीं था।

अब क्या करे ? निकल चले यहाँ से ? नहीं। बाहर पुलिस वाले उसे और टेम्पो को तलाश कर रहें हैं। कठिनता से पीछा छुड़ाया है। फिर पीछे पड़ गए तो मुसीबत खड़ी हो जायेगी। जगमोहन को इस वक़्त अपनी चिंता न होकर, साढ़े चार अरब के हीरों की चिंता थी, जो कि ज़रा-सी गलती की वजह से उसके हाथ से निकल सकते थे, जिन्हें पाने के लिए सबने मेहनत की है।

तो क्या करें ?

जगमोहन की सोचने तेजी से दौड़ रही थीं।

फ़ौरन ही वो इस नतीजे पर पहुंचा कि सबसे पहले हीरों को कहीं छिपा देना चाहिए कि अगर पुलिस के सामने पड़ भी गया तो वे हीरे सुरक्षित रह सकें। हीरों की वजह से, मज़बूरी में पुलिस के सामने रिवाल्वर से बराबरी न करनी पड़े। पुलिस से झगडा लेने से वो बचना चाहता था।

कहाँ लगाए हीरों को ठिकाने ?

रिवाल्वर हाथ में थामे जगमोहन, तबेले में कोई ऐसी जगह तलाश करने लगा कि जहां हीरों को छिपाया जा सके, परन्तु पूरा तबेला चेक करने के बाद भी, उसे ऐसी कोई सुरक्षित जगह नज़र नहीं आई कि जहां हीरे छिपा सके। जहां भी हीरे छिपाने की सोचता तो महसूस हो जाता कि तबेले में काम करने वाले के हाथ वहां से हीरे लग जायेंगे।

वक़्त नहीं था। जो भी करना था, फ़ौरन ही करना था। पुलिस वालें आसपास ही थे। तभी उसके कानों में मोटरसाइकिल की हलचल सी आवाज पड़ी, फिर वो आवाज़ आनी बंद हो गयी। जाहिर था कि वे दोनों पुलिस वाले उसे आसपास की जगहों पर तलाश कर रहे थे। वे यहाँ भी आ सकते थे।

तबेले का फेरा लगाकर, जगमोहन टेम्पो के पास पहुंचा कि ठिठक गया। उसकी नज़रें टेम्पो के पीछे, जहां स्टेपनी रखते हैं, वहां फंसी पड़ी स्टेपनी पर जा टिकीं। दूसरे ही पल आँखें सिकुड़ने लगीं। बिखरी सोचें, एक ही जगह पर इकट्ठी होने लगी। हीरों को सुरक्षित रखने के लिए, स्टेपनी से बढ़िया सुरक्षित जगह इस वक़्त और कोई नहीं थी।

स्टेपनी की हवा निकाल कर ट्यूब निकालकर, खाली जगह में हीरे रखे जा सकते थे। यही रास्ता जगमोहन को इस वक़्त सुझा। रिवाल्वर जेब में रखकर वो जल्दी से आगे बढ़ा और स्टेपनी को चेक किया। नट-बोल्ट लगाकर उसे फिक्स कर रखा था। जगमोहन ने टेम्पो की साइड के छोटे से बॉक्स में टूल बॉक्स लिखा देखा, जिस पर छोटा-सा ताला लगा हुआ था।

उसने फ़ौरन वो ताला खोला और टूल बॉक्स से कुछ औजार निकाले और पीछे आकर, स्टेपनी के नट-बोल्ट खोलने लगा।

चौथे मिनट ही स्टेपनी को बाहर निकाल लिया। तब उसे पता चला कि स्टेपनी पहले से ही पंचर है। जगमोहन ने औजारों का इस्तेमाल करते हुए, एक तरफ से टायर को रिम से अलग किया और ट्यूब खींचकर बाहर निकाल ली। भीतर अब जगह ही जगह थी। जगमोहन ने टेम्पो के भीतर पड़े हीरों से भरे लेदर के, लिफ़ाफ़े जैसे पाँचों बैग उठाये और ट्यूब की की जगह टायर में रखने लगा। थोड़ी सी दिक्कत तो आई, परन्तु वो पाँचों ट्यूब की जगह टायर में आ गए। जगमोहन ने जल्दी से टायर को वापस रिम में फिट किया। फिर उसे दबा कर देखा। टायर टाइट-सा महसूस हुआ। यानि कि अब कोई सोच भी नहीं सकता था कि वहाँ, स्टेपनी में, ट्यूब की जगह साढ़े चार अरब के हीरे मौजूद हैं।

जगमोहन ने जल्दी से वापस स्टेपनी को, उसकी जगह पर, टेम्पो के पिछले हिस्से में रखकर पहले की तरह फिट किया। उसके बाद औजार टूल बॉक्स में रखे और टूल बॉक्स को छोटा-सा दरवाजा बंद कर दिया। ये सब करने के बाद जगमोहन के चेहरे पर चैन के भाव थे कि वक्ती तौर पर उसने हीरों को सही जगह ठिकाने लगाया है। फिर टायर से निकाली ट्यूब उठाकर, दूर भूसे में छिपाई और एक तरफ मौजूद टोंटी से हाथों को साफ़ किया।

अभी इस काम से फारिग ही हुआ था कि बाहर मोटरसाइकिल रुकने की आवाज़ आई यानि कि पुलिस वाले आसपास का फेरा लगा आये हैं और अब इस तबेले को भीतर से देखना चाहते होंगे। जगमोहन के होंठ भींच गए।

रिवाल्वर पास होने पर भी, पुलिस वालों से मुकाबला करने का उसका कोई इरादा नहीं था। क्योंकि साढ़े चार अरब रुपयों की कीमत के हीरों को, वो ठीक जगह छिपा चूका था।

जगमोहन ने रिवाल्वर जेब से निकाली और दूर फेंक दी।

☐☐☐

हवलदार सुच्चा राम को पुनः तबेले के सामने मोटरसाइकिल रोकते पाकर, ओमवीर मन ही मन झल्ला उठा। वो जानता था कि टेम्पो इसी तबेले में गया है। उसने तब टेम्पो की झलक देखी थी, जब वो तबेले में प्रवेश कर रहा था। और ओमवीर चाहता था कि टेम्पो वाला न पकड़ा जाए। वो पकड़ा गया तो पांच हज़ार वाली बात खोल देगा। लेकिन सुच्चा राम तो जिद्द पर अड़ा था कि वो टेम्पो को ढूंढ कर ही रहेगा। उसे पूरा विश्वास था कि टेम्पो यहीं कहीं निगाहों से ओझल होकर छिप गया है।

सुच्चा राम ने मोटरसाइकिल का इंजन बंद किया। फिर भी ओमवीर पीछे बैठा रहा। नीचे उतरने की उसने ज़रा भी चेष्टा नहीं की तो, सुच्चा राम उखड़े स्वर में कह उठा।

“नीचे उतर...।”

“क्यों ?”

“इस तबेले को चेक करना है। बाकी सब जगह तो देख ली। टेम्पो आस-पास ही कहीं...।”

“तेरा दीमाग ख़राब हो गया है सुच्चा राम। मैनें पहले भी तेरे को बोला है, टेम्पो इस तबेले में तो क्या, इस इलाके में भी नहीं है। वो कहीं दूर निकल गया है।” ओमवीर ने मुंह बनाकर कहा – “चल यहाँ से।”

“चलते हैं। ये तबेला चेक कर लें। उतर...।”

ओमवीर समझ गया कि सुच्चा राम नहीं मानेगा। वो मोटरसाइकिल से उतरा। सुच्चा राम भी उतरा और मोटरसाइकिल को स्टैंड पर लगाकर, रिवाल्वर निकाल ली।

ओमवीर ने अपनी व्याकुलता छिपाते हुए बीड़ी सुलगाई।

“बीड़ी बाद में सुलगा लेना। पहले तबेला देख लेते हैं।” सुच्चा राम आगे बढ़ा।

“बीड़ी सुलगाने के बाद क्या तबेला नहीं देखा जाएगा।” तीखे स्वर में कहते हुए ओमवीर उसके साथ हो गया।

दोनों ने भीतर प्रवेश किया। गाय-भैंस की लम्बी लाइनों पर नज़रें पड़ीं।

“यहाँ टेम्पो होता तो नज़र नहीं आ जाता।” ओमवीर कह उठा।

सुच्चा राम ने होंठ सिकोड़े हर तरफ देख रहा था।

“कोई है ?” सुच्चा राम ऊँचे स्वर में बोला।

सुच्चा राम के दुबारा पुकारने पर भी कोई जवाब नहीं मिला।

“कोई नहीं है।” ओमवीर कह उठा – “तबेला भी साफ़ नज़र आ रहा है कि यहाँ कोई टेम्पो नहीं...।”

“ओमवीर !” सुच्चा राम रिवाल्वर थामे, सोच भरे स्वर में कह उठा – “तू यह क्यों नहीं सोचता कि जिसके पास चोरी का टेम्पो है, उसके पास कोई हथियार भी हो सकता है, जिसके दम पर उसने तबेले वालों को चुप रहने पर मजबूर कर रखा हो। इतने बड़े तबेले में कोई तो होना चाहिए।”

“ये भी तो हो सकता है कि तबेले का रखवाला कुछ देर के लिए इधर-उधर गया हो।”

“आ। तबेले के भीतर नज़र मार लें।” सुच्चा राम रिवाल्वर थामे आगे बढ़ गया।

“नहीं मानेगा ये...।” ओमवीर बेचैन-सा बडबडाया और उसके पीछे चल पड़ा।

तबेले के बीच के रास्ते के दोनों तरफ गाय-भैंस बंधी थीं जो कि अपना खाना-पानी लेने या आराम करने में व्यस्त थीं।

“यहाँ तो कोई भी नज़र नहीं आ रहा।” ओमवीर ने कहा – “टेम्पो क्या खिलौना है जो... ?”

“वो देख...।” सुच्चा राम सतर्क स्वर में कह उठा।

ओमवीर ने उधर देखा।

गाय-भैंसों की एक लाइन में दूर, आखिर में टेम्पो की बॉडी स्पष्ट नज़र आ रही थी। उधर निगाह पड़ते ही ओमवीर के जबड़े भींच गए। जो नहीं चाहता था, वो हो गया था।

“वो रहा टेम्पो।” सुच्चा राम दाँत भींचकर बोला और रिवाल्वर ठीक तरह संभाल ली – “यही है वो टेम्पो।” मैं उसका रंग अच्छी तरह पहचान रहा हूँ। सूना ओमवीर ?”

“हाँ...।” ओमवीर जानता था कि अब पुलिस वालों की तरह उसका फुर्ती दिखाना जरुरी था। नहीं तो सुच्चा राम आसानी से उस पर शक कर सकता था कि उसने ही टेम्पो वाले को भागने का मौका दिया – “सुच्चा राम। सावधानी से। वो यहीं छिपा हो सकता है। हो सकता है, उसके पास हथियार भी हो।”

“उसने कोई गड़बड़ की तो मैं उसे भून कर रख दूंगा।” सुच्चा राम दाँत भींचकर बोला – “तू ओट ले और सावधानी से टेम्पो की तरफ बढ़। बाकी मैं देखता हूँ।” कहने के साथ ही वो सामने वाली गाय-भैंस की लाइन में जा छिपा और धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगा।

ओमवीर दूसरी वाली लाइन में, गाय-भैंसों की आड़ लेता आगे बढ़ा। वो खाली हाथ था। यहाँ तक कि इस वक़्त उसके पास डंडा भी नहीं था।

☐☐☐

जगमोहन ओट में छिपा सब देख रहा था। कभी-कभार उनकी बातों के शब्द भी उसके कानों में पड़ जाते। वो समझ चूका था कि भागना बेकार है। हवलदार के पास रिवाल्वर है। वैसे भी वो टेम्पो के पास ही रहना चाहता था कि टेम्पो कहाँ ले जाया जा रहा है, उसे खबर रहे। टेम्पो में इस वक़्त उसकी जान के रूप में साढ़े चार अरब की कीमत के हीरे थे। तभी उनके कानों में सुच्चा राम की आवाज़ पड़ी।

“मैंने तुम्हे देख लिया है। तुम टेम्पो की ओट में हो और इस वक़्त मेरी रिवाल्वर के निशाने पर हो। एक बार तुम हमारे हाथों से निकल कर भागने की कोशिश कर चुके हो। लेकिन दूसरी बार ऐसा मौका नहीं दूंगा। हाथ ऊपर करके बाहर आ जाओ। वरना मैं गोली चलाने जा रहा हूँ। ये मेरी पहली और आखिरी वार्निंग है।”

जगमोहन ने कोई एतराज नहीं उठाया और हाथ ऊपर उठाये सामने आ गया।

“ओमवीर...।” सुच्चा राम की आवाज वहां गूंजी।

“हाँ...।”

“इसके दोनों हाथ पीछे करके हथकड़ी लगा दे। कुछ करेगा, तो मरेगा। मैंने इसे निशाने पर रखा हुआ है।”

ओमवीर फ़ौरन जगमोहन के पास पहुंचा। बेल्ट में फंसी हथकड़ी उसने हाथ में ली ली थी।

“दोनों हाथों को पीठ पीछे करो।” ओमवीर ने सख्त स्वर में कहा।

जगमोहन ने दोनों हाथों को पीठ की तरफ किया।

“तुमने उसे इधर क्यों आने दिया।” जगमोहन शांत स्वर में बोला।

“वो मेरी सुनता ही कब है। अब ध्यान रखना। पांच हज़ार वाली बात, किसी से कह मत देना।” ओमवीर बुदबुदाया।

“फ़िक्र मत कर। मैं भूल चूका हूँ पांच हज़ार वाली बात को...।”

तब तक हवालदार सुच्चा राम रिवाल्वर थामे पास आ पहुंचा था।

☐☐☐