मंगलवार : चौबीस दिसम्बर (जारी)
“वही है ।” - ढक्कन बोला ।
सबने दूर से चले आ रहे ओवरकोट वाले की ओर देखा ।
वो चार आदमी थे जो ढक्कन के साथ एक काली एम्बैसेडर कार में सवार थे और विमल के पीछे लगे-लगे वहां पहुंचे थे ।
मोनिका की सलाह पर ढक्कन अमल तो कर रहा था लेकिन एक संशोधन के साथ विमल को मार देने से पहले उसने उसका अगुवा कर उससे ये कुबुलवाने का फैसला किया था कि वो सुन्दरलाल का कातिल था । अगर वो ऐसा कुबूल करता तो फिर उसका कत्ल करने के बाद वो गुरबख्शलाल की अतिरिक्त वाहवाही हासिल कर सकता था कि उसने ऐन उसके कहे पर अमल किया था और उस बाबू के सुन्दरलाल का कातिल होने की तसदीक करके उसका कत्ल किया था । एक बार उसको काबू कर लेने के बाद वो उससे ये भी कुबुलवा सकता था कि उसकी सफेदपोशी का क्या राज था !
और रात के उस वक्त उस अकेले चले आ रहे आदमी को काबू में कर लेना क्या बड़ी बात थी !
उसने अपने साथियों को इशारा किया ।
चारों चुपचाप कार से बाहर निकले और लापरवाही से चलते हुए विमल की ओर बढे ।
वो करीब पहुंचा तो चारों सामूहिक रूप से उस पर झपटे ।
अगले ही क्षण विमल आठ हाथों की पकड़ में जकड़ा हुआ छटपटा रहा था ।
फिर जब वो उसे परे खड़ी कार की ओर घसीटने की कोशिश करने लगे तो वो समझ गया कि फिलहाल उनका इरादा उसको लूटने का नहीं था ।
विमल ने अपने हाथ-पांव ढीले छोड़ दिये और उनकी पकड़ में यूं चलने लगा जैसे स्वेच्छा से आगे बढ रहा हो ।
उसी बात से वे चारों धोखा खा गये और लापरवाह हो गये ।
वो कार के करीब पहुंचे तो विमल के दोनों पांव एकाएक जमीन से उठे, उसने पांव कार की बाडी के साथ जमाये और पूरी शक्ति से अपने जिस्म को पीछे को हूला ।
चारों उससे छिटककर दांयें-बायें गिरे ।
विमल कार से परे को भागा ।
वो उसके पीछे भागे ।
फिर एक चाकू सनसनाता हुआ उसके कान के करीब से गुजरा और करीब के एक पेड़ में धंस गया ।
विमल ठिठका । उसने झुंककर जमीन पर पड़ी एक ईंट उठाई और उसे बिना पीछे देखे पूरी शक्ति से अपने पीछे फेंककर मारा । पीछे से एक चीख की आवाज आयी । फिर उसके पीछे भागते कदम ठिठके । विमल ने पेड़ में से चाकू खींच लिया और पीछे घूमा ।
उसने पाया कि तीन आदमी अपने पैरों पर खड़े थे और एक सड़क पर लेटा तड़प रहा था । ईंट उसके थोबड़े से टकराई थी और उस घड़ी उसका पूरा चेहरा लहूलुहान दिखाई दे रहा था ।
विमल उनके करीब आने की प्रतीक्षा करने के स्थान पर बिजली की फुर्ती से चाकू ताने उन पर झपटा । उसके इस एक्शन ने उन तीनों को बौखला दिया । फिर इससे पहले कि वो सम्भल पाते विमल का चाकू एक के गले में घुप गया ।
तभी एक दूसरे बदमाश ने लोहे की छड़ से उस पर वार किया । विकल ने झुकाई देकर वार बचाया और उसके पेट में चाकू घोंपा ।
तीसरे के हाथ में देसी कट्टा प्रकट हुआ ।
प्रत्यक्षत: जब उसकी जान पर आ बनी थी तो तभी उसने गोली चलाने का इरादा किया था ।
विमल ने चाकू खींचकर मारा तो वो उसकी छाती में धंस गया । कट्टा उसके हाथ से निकलकर हवा में उछला तो विमल ने उसे लपक लिया और अन्धाधुन्ध गोलियां चलाने लगा ।
कट्टा खाली हो गया ।
तभी जो सबसे पहले घायल हुआ था, वो उठ खड़ हुआ । उसके हाथ में एक बोतल थी जो उसने वहीं कहीं से गिरी पड़ी उठा ली थी । उसने बोतल को बड़े तजुर्बेकार ढंग से सड़क पर मारकर आधा तोड़ा और फिर टूटी बोतल अपने सामने ताने और खून-अलूदा चेहरा लिये वो विमल पर झपटा ।
वो करीब आया तो विमल ने खाली कट्टा खींचकर उसे मारा लेकिन वो उसके सिर के ऊपर से गुजर गया ।
उसका बोतल वाला हाथ चला ।
विमल ने महसूस किया जैसे उसके गाल पर डंक-सा लगा हो ।
उसने दोबारा बोतल चलाई तो विमल ने झपटकर उसकी कलाई थाम ली । फिर उसने फुर्ती से उसकी कलाई को दोहरा किया और उसके हाथ में थमी बोतल उसी के पेट में घोंप दी ।
बोतल पर से उस आदमी की पकड़ छूट गयी और वो पेट में धंसी बोतल को लिये-लिये सड़क पर ढेर हो गया ।
विमल ने हांफते हुए चारों तरफ निगाह दौड़ाई ।
चारों सड़क पर ढेर पड़े थे और किसी के भी शरीर में कोई हरकत नहीं थी ।
तभी करीब की एक इमारत के बरामदे की बत्ती जली और उसमें एक बूढा आदमी प्रकट हुआ ।
विमल ने तत्काल उसकी ओर से पीठ फेरी तो तभी वो देख पाया कि वहां काली एम्बैसेडर कार, जिसमें वो चारों जने उसे जबरदस्ती लादने की कोशिश कर रहे थे, उसको अपनी चपेट में लेने की नीयत से उसकी तरफ दौड़ी चली आ रही थी ।
विमल ने तत्काल सड़क से परे डाईव लगाई ।
कार की चपेट में आने से वो बाल-बाल बचा ।
तभी दूर कहीं फ्लाइंग स्कवायड के सायरन की आवाज गूंजी ।
ढक्कन, जो कार को घुमाकर फिर उसकी तरफ दौड़ने पर आमादा था, ठिठका । वो एक क्षण हिचकिचाया और फिर उसे वहां से खिसक जाने में ही अपना कल्याण दिखाई दिया ।
उसने कार को विमल से विपरीत दिशा में दौड़ा दिया । पलक झपकते ही कार विमल की निगाहों से ओझल हो गयी ।
फ्लाइंग स्कवायड के सायरन की आवाज अब करीब होती जा रही थी ।
जिस इमारत के बरामदे की बत्ती जली थी, उसके पहलू में एक संकरी गली थी । विमल तत्काल उसकी तरफ लपका ।
तभी बूढा बरामदे से निकलकर सड़क पर आ गया और गली के दहाने पर आन खड़ा हुआ ।
विमल ने अपनी रफ्तार कम कर दी, वो जबरन मुस्कराया ।
“क्या हुआ ?” - बूढा बोला ।
जरूर उसे रात को ठीक से दिखाई नहीं देता था जो वो उससे पूछ रहा था कि क्या हुआ था ।
“कुछ नहीं, जनाब ।” - विमल बोला ।
“तुम्हारे गाल से खून बह रहा है, बेटा ।”
“वो... वो क्या है कि... अन्धेरे में एक बिल्ली मेरे पर झपट पड़ी थी, उसी ने पंजा मारा है ।”
“तुम्हें डाक्टर के पास जाना चाहिए बेटा, जख्म गहरा हो सकता है ।”
“जी नहीं, मामूली है ।”
“फिर भी डाक्टर को तो दिखाना ही चाहिये ।”
“मैं अभी जाता हूं डाक्टर के पास ।”
“तुम पांच नम्बर वाले बतरा साहब के लड़के हो ?”
“जी नहीं ! मैं नो नम्बर वाले भटनागर साहब का भाई हूं ।”
“ओह ! मुझे रतौंधी की शिकायत है । ‘बस’ रात को ही बीनाई तंग करती है ।”
“ठंड बहुत है, जनाब, भीतर चले जाइये वर्ना ठंड पकड़ लेगी ।”
“ओह ! ओह, हां । हां । मैं तो खटपट सुनकर यूं ही बाहर निकल आया था ।”
वो वापिस अपने घर में घुस गया । बरामदे की बत्ती बन्द हो गयी ।
विमल ने गहरी सांस ली और अन्धेरी संकरी गली में आगे बढा ।
***
विमल घर पहुंचा ।
“हाय मैं मर जावां !” - उसकी सूरत पर निगाह पड़ते ही नीलम बोली - “तुम्हारे चेहरे को क्या हुआ ?”
“कुछ नहीं ।” - विमल सहज भाव से बोला ।
“क्या कुछ नहीं ! लहूलुहान तो लग रहा है चेहरा और कहते हो कुछ नहीं ।”
विमल कोई जवाब दिये बिना बाथरूम में पहुंचा ।
व्याकुल नीलम उसके पीछे-पीछे वहां चली आयी ।
बाथरूम की बत्ती जलाकर विमल ने वहां के शीशे में अपने चेहरे का मुआयना किया ।
“अरे बताते क्यों नहीं हो ?” - नीलम बोली - “क्या हुआ ?”
“कुछ नहीं हुआ ।” - विमल बोला - “बिल्ली झपट पड़ी । पंजा मार दिया ।”
“बिल्ली कहां मिल गयी ?”
“रास्ते में । एक पेड़ पर चढी बैठी थी, मैं नीचे से गुजरा तो मेरे पर झपट पड़ी ।”
“खामख्वाह ?”
“हां ।”
“सरदारजी, झूठ बोल रहे हो ।”
विमल खामोश रहा । फिर उसने शीशे के पीछे बनी कैबिनेट में से रूई और डिटौल की शीशी निकाली ।
नीलम ने दोनों चीजें उससे छीन ली और उसका मुंह जबरन अपनी तरफ घुमाया ।
“नीलम...”
“चुपचाप खड़े रहो ।” - नीलम ने झिड़की दी । वो रूई को डिटौल में डुबोकर जख्म पर फेरने लगी और साथ-साथ मुंह से उसके गाल पर फूंकें मारने लगी ।
“ये जरा-सी चोट है ?” - वो भुनभुनाई - “इतना खप्पा करा लाये गाल में और कहते हो जरा-सी चोट है ।”
विमल खामोश रहा ।
नीलम ने जख्म साफ करके उस पर बैंड एड लगाई ।
“तुम्हें डाक्टर के पास जाना चाहिये था ।” - वह बोली ।
“सुबह जाऊंगा ।”
“सुबह तक कुछ हो गया तो ?”
“कुछ नहीं होगा । तेरे होते कुछ नहीं हो सकता मुझे ।”
“अब ये बताओ कि असल में क्या हुआ ?”
“वही जो बताया । बिल्ली ने पंजा मार दिया ।”
“झूठ !”
“आ चल यहां से । मुझे नींद आ रही है ।”
“लेकिन...”
विमल ने जबरन उसे अपनी आगोश में ले लिया और बड़े अनुरागपूर्ण ढंग से उसकी आंखों में झांकता हुआ बोला - “मैं पापी तू बख्शनहार ।”
नीलम खामोश हो गयी ।
***
अपनी स्पेशल इन्वैस्टिगेटिंग आफिसर की हैसियत में सब-इंस्पेक्टर लूथरा पंडारा रोड मौकायेवारदात पर पहुंचा ।
वहां चारों आदमी मरे पड़े थे और हालात साफ बता रहे थे कि उन्होंने किसी पर हमला किया था जिसमें उनकी खुद की जान चली गयी थीं ।
जो पुलसिये वहां मौजूद थे, वो तिलक मार्ग पुलिस स्टेशन से सम्बद्ध थे और उनका इंचार्ज दीवानसिंह नाम का एक युवा गढवाली सब-इंस्पेक्टर था ।
“दो की तो शिनाख्त हो भी गयी है ।” - वो बोला - “दोनों नोन क्रिमिनल हैं । बाकी दो भी वैसे ही होंगे ।”
“हूं ।”
“केस वैसा ही है । खबरदार शहरी की किस्म वाला । एक ही जना चारों की ऐसी-तैसी फेर गया ।”
“कैसे मालूम है कि वो एक ही जना था ?”
“एक चश्मदीद गवाह है । वो सामने इमारत में पुजारी नाम के एक बुजुर्गवार रहते हैं । उनको रतौंधी की शिकायत है इसलिये वो साफ-साफ सब कुछ तो नहीं देख पाये लेकिन उनका ख्याल है कि जो कुछ किया है, एक ही आदमी ने किया है । वो कहते हैं कि पहले उन्हें तमाम नजारा समझ में नहीं आया था लेकिन बाद में उन्हें सूझा था कि यहां का सब किया-धरा उसी एक नौजवान का था जो कि बड़े इत्मीनान से उनसे बातचीत तक करके गया था । वो अपने आपको नौ नम्बर वाले भटनागर साहब का भाई बता कर गया था लेकिन बुजुर्गवार को बाद में सूझा था कि नौ नम्बर में कोई भटनागर साहब नहीं रहते थे, उस इमारत में तो कोई मर्द ही नहीं रहता था । वहां तो मुक्ता माथुर नाम की एक औरत रहती है जो कि फाइनांस मिनिस्ट्री में अन्डर सैक्रेटी है और उसके साथ उसकी दो बिनब्याही बेटियां हैं ।”
“इस पुजारी साहब ने उस आदमी का कोई हुलिया बयान किया ?”
“टूटा-फूटा । मैंने बोला न कि उसे रात को ठीक से दिखाई नहीं देता । वो कहता है कि वो छरहरे बदन का, औसत कद का नौजवान आदमी था जो एक लम्बी ओवरकोट पहने था और उसका चेहरा घायल था ।”
“चेहरा घायल था ?”
“उसके बायें गाल पर ताजे बने जख्म का लम्बा निशान था जिसमें से तब भी खून टपक रहा था । जख्म की बाबत पूछे जाने पर वो युवक पुजारी को बता के गया कि अन्धेरे में उस पर एक बिलली झपट पड़ी थी ।”
“जरा बुलाओ तो पुजारी साहब को ।”
दीवानसिंह पुजारी को बुलाकर लाया ।
“उस नौजवान को” - लूथरा ने पूछा - “आप दोबारा देखें तो पहचान लेंगे, जनाब ?”
“वो नौजवान था” - पुजारी अनिश्चित भाव से बोला - “और उसके बायें गाल पर जख्म लगा था ।”
“बस, यही जरिया है आपके पास उसकी पहचान का ?”
“वो ओवरकोट पहने था ।”
“ओवरकोट उतारा जा सकता है ।” - लूथरा बेसब्रेपन से बोला - “मेरा सवाल ये है कि क्या आप उसके नयन-नक्श बयान कर सकते हैं ?”
“मुझे रतौंधी की शिकायत है । रात को मुझे ठीक से नहीं दिखाई देता इसलिये...”
“यानी कि नहीं कर सकते !”
उसने उत्तर न दिया लेकिन उसके चेहर पर अनिश्चय के भाव और गहरे हो गये ।
“आपको उस नौजवान की तस्वीर दिखाई जाये तो आप उसे पहचान लेंगे ?”
“शायद पहचान लूं ।”
“ठीक है । कल सवेरे ग्यारह बजे मन्दिर मार्ग पुलिस स्टेशन तशरीफ लाइयेगा । आ सकेंगे ?”
“हां । जरूर । पुलिस की मदद करना मेरा फर्ज है ।”
“शुक्रिया । दिन में तो आपको ठीक से दिखाई देता है न ?”
“जी हां । दिन में तो मुझे चश्मे के बिना भी ठीक से दिखाई देता है ।”
“पढने के लिये तो चश्मा इस्तेमाल करते होंगे आप या वो भी नहीं ?”
“रीडिंग ग्लासिज तो इस्तेमाल करता हूं मैं ।”
“तो फिर साथ लाइयेगा कल आप अपना नजदीक की निगाह वाला चश्मा ।”
“ठीक है ।”
“शुकिया । अब आप जा सकते हैं ।”
बुधवार : पच्चीस दिसम्बर
अखबार पढकर ही विमल को मालूम हुआ कि पिछली रात जो चार जने पंडारा रोड पर उस पर झपटे थे, वो चारों मारे जा चुके थे । पुलिस ने उस वारदात को भी खबरदार शहरी का कारनामा बताया था । ये बात केवल वो जानता था कि उन लोगों की मंशा उसे लूटने की नहीं, उसे अगुवा करने की थी और उनका एक और साथी भी था जो कि एक काली एम्बैसेडर पर सवार था, जिसने पहले उसे कार से कुचलने की कोशिश की थी लेकिन जो पुलिस के सायरन की आवाज सुनकर वहां से भाग खड़ा हुआ था ।
कौन थे वो लोग ? और क्यों करना चाहते थे वो उसका अगुवा ?
अगुवा और फिरौती की वारदातें बढती जा रही थीं । क्या कोई बदमाश उसका अगुवा करके, उसकी रिहाई की कीमत के तौर पर फिरौती वसूल करना चाहते थे ?
विमल को वो बात न जंची ।
यूं अगुवा तो कारखानेदारों का या अन्य साहूकार लोगों का होता था जो कि दो-चार लाख की फिरौती देना अफोर्ड कर सकते थे ।
वो कहां का साहूकार था ।
उस रोज के अखबार में दो और भी खबरें थीं जो कि दिलचस्पी से खाली नहीं थीं ।
पिछले रोज जनपथ पर एक बदमाश ने एक औरत की चेन झपटी थी तो उसने न केवल उसके पीछे दौड़कर उसे पकड़ लिया था बल्कि अपने हैण्डबैग में से एक लोहे का डण्डा निकालकर उसका सिर फोड़ दिया था । पकड़े जाने का अन्देशा होते ही वो बदमाश चेन को निगल गया था जो कि बाद में हस्पताल में उसका एक्सरे किया गया तो उसके पेट में पड़ी दिखाई दी थी ।
उस औरत ने पुलिस को दिये अपने बयान में कहा था कि कोई छ: इंच लम्बा और कोई एक इंच व्यास का वो लोहे का डंडा उसने चन्द दिन पहले से ही अपने हैण्डबैग में रखना आरम्भ किया था ।
पिछले रोज ही दो हथियारबन्द बदमाशों ने फतेहपुरी के एक दुकानदार का गल्ला लूटने की कोशिश की थी लेकिन दुकानदार ने गल्ले में से ही एक रिवाल्वर निकालकर उन दोनों को शूट कर दिया था । नतीजतन एक की तत्काल मौत हो गयी थी और दूसरा अपना बयान देने के बाद हस्पताल की राह पर मरा था । मरने से पहले उसने साफ-साफ शब्दों में कुबूल किया था कि उस दुकानदार पर उनकी कई दिनों से निगाह थी और वो उसका गल्ला लूटने की ही नीयत से उसकी दुकान में घुसे थे ।
दुकानदार से उसकी रिवाल्वर की बाबत पूछा गया था तो पता लगा था कि उसके पास लाइसेंस नहीं था ।
“क्यों नहीं था ?” - दुकानदार से पूछा गया ।
“क्योंकि लाइसेंस मिलता नहीं । सौ बखेड़े हैं, हजार अड़चनें हैं फायर आर्म्स का लाइसेंस हासिल होने में । कैसा शहर है यह जहां गुण्डे-बदमाश तो हथियारबन्द हैं लेकिन एक नेक शहरी की उन गुण्डे-बदमाशों से अपनी हिफाजत करने के लिये हथियार रखने की इजाजत नहीं ! जहां पुलिस आपकी हिफाजत तो नहीं कर सकती लेकिन अगर कोई अपनी हिफाजत खुद करने का सामान करे तो पुलिस उसे गैरकानूनी तरीके से हथियार रखने वाला मुजरिम ठहराती है । मैं इस शहर के लॉ एण्ड आर्डर के मुहाफिजों से सवाल करता हूं कि अगर वो रिवाल्वर मेरे पास न होती तो मेरी और मेरे कारोबार की क्या गत बनती ?”
उन घटनाओं को पढकर विमल ये सोचे बिना न रह सका कि अनजाने में ही कहीं शिवनारायण की पिछली शाम की खबरदार शहरी वाली थ्योरी जोर तो नहीं पकड़ती जा रही थी !
फिर उसकी निगाह एडोटोरियल पेज पर पड़ी ।
उसने देखा कि उस रोज का सम्पादकीय जगतनारायण की बाईलाइन के साथ छपा था और उसका शीर्ष था ‘खबरदार शहरी । सच या परिकल्पना’ ।
उसने जल्दी-जल्दी सम्पादकीय पढा तो पाया कि पिछली रात शुक्ला की पार्टी में चान्दवानी, आप्टे, शिवनारायण और उसके बीच जो वार्तालाप खबरदार शहरी और ओवरकोट ब्रिगेड की बाबत हुआ था, उसका अधिकतर भाग जगतनारायण ने अपने सम्पादकीय में अक्षरश: उतार दिया था ।
बाकी दो खबरों के सन्दर्भ में वो सम्पादकीय उसे आग की हवा देता लगा ।
***
डाक्टर विमल के गाल का मुआयना कर रहा था ।
वो वही डाक्टर था जिसका गोल मार्केट चौक में क्लीनिक था, जिसका नाम मजूमदार था और जिसके पास जाने की राय विमल ने रावत को दी थी ।
“तो खोखा” - डाक्टर गम्भीरता से बोला - “ये बिल्ली ने पंजा मारा है ?”
“जी हां ।”
“शीशे के पंजे वाली बिल्ली ने ?”
“जी !”
“हाथ आगे करो ।”
विमल ने अपना हाथ आगे बढाया तो डाक्टर ने जख्म में से चिमटी से पकड़कर कुछ निकाला और उसे विमल की हथेली पर रख दिया ।
विमल ने देखा कि वो कृत्रिम प्रकाश में चमकता कांच का एक नन्हा-सा टुकड़ा था ।
“एक और भी है ।” - डाक्टर बोला ।
उसने वैसा ही कांच का एक और टुकड़ा विमल की हथेली पर रखा ।
“खोखा” - वो बोला - “बिलली के पंजे से बने जख्म में कांच किधर से आया ?”
“मालूम नहीं ।”
“अजीब बात नहीं ये ?”
“है तो सही ।”
“बिल्ली के पंजे के लिहाज से जख्म गहरा भी है !”
“उसके नाखून बड़े-बड़े होंगे ।”
“स्टिच डालने पड़ेंगे ।”
“ठीक है ।”
डाक्टर ने जख्म को तीन टांकों से सीया, उसकी ड्रैसिंग की और उसे एन्टी टिटनेस इन्जेक्शन लगाया ।
“शादीशुदा हो ?”
“हां ।” - विमल बोला ।
“बीवी मान गयी कि ये बिल्ली की करतूत है ?”
“बीवियां बहुत नेक होती हैं, खाविन्द जो कहें मान जाती हैं ।”
“यानी कि डाक्टर इतने नेक नहीं होते ?”
“मेरा ये मतलब नहीं था, जनाब ।” - विमल तनिक हड़बड़ाकर बोला ।
“ड्रैसिंग रोज कराने आना ।”
“जी हां । जरूर ।”
“फिफ्टी रुपीज प्लीज ।”
विमल ने डाक्टर को पचास का नोट दिया, उसका धन्यवाद किया और वहां से रुख्सत हुआ ।
वो अपनी इमारत के सामने पहुंचा तो उसे वहां पुलिस की एक जीप खड़ी दिखाई दी । वो करीब पहुंचा तो पाया कि जीप में एक ही जना था जो कि जीप की ड्राइविंग सीट पर बैठा था ।
वो सब-इंस्पेक्टर लूथरा था ।
विमल ठिठका । लूथरा ने भी उसे देखा, उसने अपनी एक उंगली अपने माथे से लगायी । विमल उसके करीब पहुंचा ।
“गुड मार्निंग, सर ।” - लूथरा साफ-साफ बनावटी स्वर में बोला ।
“गुड मार्निंग ।” - विमल सशंक भाव से बोला - “आज सवेरे-सवेरे इधर...”
“आप ही के दर्शनों के लिए आया था । यहां ये सोच के बैठा था कि घर में तो आप घुसने देंगे नहीं, मेरी शक्ल देखते ही गैट आउट कह देंगे ।”
विमल खामोश रहा ।
“मैं तो आपके भीतर से बाहर निकलने की उम्मीद कर रहा था, आप तो बाहर से भीतर जा रहे हैं ।”
“अब कैसे आये ?”
“अभी बताया तो ! आपके दर्शनों के लिये ।”
“जो कि सवेरे-सवरे हान जरूरी थे ?”
“जी हां ।”
“हो गये दर्शन ?”
“जी हां । गाल को क्या हुआ ?”
“बिल्ली ने पंजा मार दिया ।”
“कैसी थी बिल्ली ? दो टांग वाली या चार टांग वाली ?”
“चार टांग वाली ।”
“कल शाम आप घर पर थे ?”
“नहीं ।”
“कहां थे ?”
“अपने बॉस के घर । वहां क्रिसमिस ईव की पार्टी थी ।”
“अब ये न कहियेगा कि आपके बॉस का घर पंडारा रोड पर है ?”
“क्यों ? ऐसा कहने से कानून की कोई धारा भंग होती है ?”
“यानी कि वहीं है आपके बॉस का घर ?”
“हां ।”
“लौटे कब ?”
“ग्यारह बजे ।”
“या शायद दस बजे ?”
“ग्यारह बजे ।”
“ड्रिंक्स की पार्टी थी ?”
“हां ।”
“नशे में आदमी को वक्त का अन्दाजा नहीं रहता ।”
“मैं इतनी नहीं पीता ।”
“आपने आज का अखबार पढा ?”
“पढा ।”
“फिर तो आपको खबर होगी कि कल रात दस बजे पंडारा रोड पर एक वारदात हुई थी जिसमें एक निहत्थे आदमी ने चार आदमियों को मार गिराया था ?”
“मैंने पढी है अखबार में ये खबर ।”
“कौल साहब, एक बात ऐसी है जो अखबार में नहीं छपी । उस सारी वारदात का एक चश्मदीद गवाह उपलब्ध है जो कहता है कि वारदात के बाद जिस आदमी को उसने वहां से फरार होते देखा था, उसके बायें गाल पर ताजा बना जख्म था जिसमें से उस घड़ी भी खून टपक रहा था ।”
“तो ?”
“कौल साहब, क्या है महज इत्तफाक है कि आपके बायें गाल पर भी ताजा बना जख्म है जिसकी कि आप अभी-अभी ड्रैसिंग कराके आये मालूम होते हैं ?”
“हां । इत्तफाक की बात है ।”
“आप कहते हैं कि आप पर बिल्ली झपटी ! कल रात वो आदमी भी यही कह रहा था कि उस पर बिल्ली झपटी थी ।”
“इत्तफाक की बात है ।”
“आपको एक राज की बात बताऊं ?”
“बताओ ।”
“मेरे पास सरकमस्टांशल एवीडेंस बहुत हैं आपके खिलाफ लेकिन ठोस सबूत कोई नहीं । फिर भी मैं हाथ में गंगाजल उठा के कह सकता हूं कि सब किया धरा आपका है । बावजूद इसके आज सुबह-सवेरे मैं ये तय करके यहां आया था कि अगर मुझ आपके बायें गाल पर जख्म लगा न दिखाई दिया तो मैं यकीनी तौर पर आपको बेगुनाह मान लूंगा । लेकिन ऐसा तो नहीं हुआ ।”
“मेरी बद्किस्मती ।”
“बद्किस्मती आदमी को पस्ती के आलम में पहुंचा देती है और पस्ती के आलम में पहुंचे आदमी को मौत में ही पनाह सूझती है ।”
“क्या मतलब ?”
“मैं आपको उस चिट्ठी की याद दिला रहा हूं जो कि खुदकुशी करने से पहले अपनी जेब में रख लेने का वादा आपने मेरे साथ किया है ।”
“तुम्हारी चिट्ठी वाली बात तो मुझे याद है लेकिन मेरी बात तुम भूल गये मालूम होते हो ?”
“आपकी कौन-सी बात ?”
“यही कि गोली पुलिस मैं और मुजरिम में फर्क नहीं पहचानती ।”
“वैसे रास्ता ये ही एक रह गया है आपके पास ।”
“कौन-सा ?”
“गोली वाला । मैं खतम । किस्सा खतम ।”
“अच्छा !”
“और क्या ? मालूम तो है ही आपको कि आपके पीछे सिर्फ मैं पड़ा हुआ हूं, मेरा महकमा नहीं ।”
“पहले नहीं मालूम था, अब मालूम हो गया ।”
“तो आप जल्दी ही कोई कदम उठायेंगे मेरे से निजात पाने के लिये ?”
“अरे, क्यों अपना वक्त बरबाद करते हो ? जाओ, जा के ड्यूटी करो अपनी । जा के वोई वारदात होने से रोको जिसकी कि तुम्हें तनख्वाह मिलती है । कहीं कत्ल हो रहा होगा, कहीं डकैती पड़ रही होगी, कहीं जबरजिना की वारदात...”
“कहीं कुछ नहीं हो रहा होगा, कौल साहब ।” - लूथरा ने मुस्कराते हुए उसकी बात काटी - “जब आप यहां मेरे सामने खड़े हैं तो ऐसी वारदात भला हो सकती हैं कहीं ।”
“तौबा !”
“आज तो छुट्टी होगी ऑफिस की ?”
“हां ।”
“दूसरे कारोबार की भी छुट्टी मनायेंगे या उसके लिये निकलेंगे गश्त पर ?”
विमल ने असहाय भाव से कन्धे झटकाये और गहरी सांस ली ।
“लूथरा साहब” - वो बोला - “मैंने तुम्हारे जैसा चूहे बिल्ली के खेल का शौकीन पुलसिया नहीं देखा ।”
लूथरा हंसा ।
एकाएक उसने जीप स्टार्ट कर दी और वहां से भगा दिया ।
पीछे विमल ठगा-सा खड़ा रहा ।
***
ग्यारह बजे विमल के फ्लैट में फोन की घन्टी बजी ।
फोन मुबारक अली का निकला ।
“अपुन नीचे टैक्सी में बैठेला है, बाप ।” - उसने इतना ही कहा और फोन काट दिया ।
विमल नीचे पहुंचा ।
सड़क से पार मुबारक अली अपनी टैक्सी में बैठा सिगरेट के कश लगा रहा था । विमल को देखकर उसने सिगरेट फेंक दिया और टैक्सी का पिछला दरवाजा खोल दिया । विमल टैक्सी में बैठ गया तो उसने हौले से टैक्सी आगे बढाई ।
मुबारक अली ने रियर व्यू मिरर में से विमल के चेहरे का मुआयना किया और फिर बोला - “थोबड़े को क्या हुआ, बाप ?”
“कुछ नहीं ।” - विमल बोला - “यूं ही जरा, चोट लग गयी ।”
“कैसे लग गयी ?”
“बिल्ली ने पंजा मार दिया ।”
“च-च ! आजकल बिल्लियां तो बहुत ही खतरनाक...”
“कैसे आया ?”
“हुसैन साहब के पास गया था आज सुबह अपने जात भाई के साथ ।”
“फिर ?” - विमल उतावले स्वर में बोला - “कोई बात बनी ? मालूम हुआ पिपलोनिया का पता ?”
“मालूम हुआ । वही बताने तो अपुन इदर आयेला है ।”
“क्या पता है ?”
“अपुन इदर कागज पर लिखकर रखा है ।” - मुबारक अली ने बिना पीछे देखे अपने कन्धे पर से एक कागज उसकी तरफ बढाया ।
विमल ने कागज थाम लिया ।
उस पर माडल टाउन का पता लिखा था ।
“ये पता” - विमल बोला - “फर्जी भी तो हो सकता है ।”
“नहीं हो सकता ।” - मुबारक अली बड़े इत्मीनान से बोला ।
“क्यों नहीं हो सकता ?”
“हुसैन साहब उसका ड्राइविंग लाइसेंस देखेला था । लाइसेंस पर उसके थोबड़े की फोटू और नाम के साथ ये ही पता दर्ज था ।”
“जब तू हुसैन साहब के पास गया था तो तनवीर अहमद की बाबत बताने से पहले उन्होंने तेरा भी ड्राइविंग लाइसेंस देखा था ?”
“नक्को ।”
“क्यों ?”
“क्या मालूम ? अपना मुसलमान भाई जान के एतबार किया होयेंगा । मेरा जो जातभाई मेरे साथ था वो हुसैन साहब का ज्यादा जिगरी होयेंगा ।”
“हूं । लाइसेंस पर तो लासेंसधारी का पूरा नाम लिखा होता है ।”
“मैं बोला हुसैन साहब से इस बाबत । वो बोले लाइसेंस पर पिपलोनिया से पहले ए बी सी डी करके कुछ था तो सही लेकिन जो उन्हें याद नहीं रहा था ।”
“कोई बात नहीं । अगर ये पता ठीक है तो इससे भी काम चलेगा ।”
“पता ठीक है ।”
“अब तेरा क्या प्रोग्राम है ?”
“अपुन का तो वही कल वाला पिरोगराम है । उस लालपीले साहब की आंख में डंडा देना मांगता है अपुन । जैसा तू बोला । क्या ?”
विमल खामोश रहा ।
तभी टैक्सी उसके फ्लैट वाली इमारत के सामने वापिस आ खड़ी हुई ।
***
पूर्वनिर्धारित समय पर पिछले रोज की ही तरह मुबारक अली के पांव देवनगर में स्टार चिटफंड कम्पनी के ऑफिस में पड़े ।
मुबारक अली ने देखा कि उस रोज सजावटी रिसैप्शन पर सजावटी लड़की मौजूद नहीं थी । उसकी जगह रिसैप्शन के सामने पड़े सोफों पर चार हट्टे-कट्टे दादा बैठे फिल्मी पत्रिकाओं के पन्ने पलट रहे थे । उन्होंने मुबारक अली को उसके दो कड़ियल नौजवान साथियों के साथ वहां दाखिल होते देखा तो वो पत्रिकायें फेंककर उछल के खड़े हो गये ।
उनमें से एक ने पिछले दरवाजे की ओर देखा ।
दरवाजे में एक छोटी-सी झिरी प्रकट हुई और उसमें से मन्नालाल की सशंक सूरत झलकी । मन्नालाल ने एक निगाह मुबारक अली और उसके साथियों पर डाली और फिर हौले से सहमति में सिर हिलाया ।
मन्नालाल की हामी होते ही चारों दादाओं ने एक भी क्षण नष्ट नहीं किया । चारों बाज की तरह आगन्तुकों पर झपटे ।
पूरी खामोशी के साथ चार के खिलाफ तीन की घमासान लड़ाई शुरू हुई । उस लड़ाई के दौरान मुबारक अली के बाकी दर्जन-भर ‘धोबी’ एक-एक करके दरवाजे पर जमा होने लगे लेकिन किसी ने भी भीतर दाखिल होने की या लड़ाई में किसी और तरह का दखल देने की कोशिश न की । वो दरवाजे पर ही ठिठके खड़े एक-दूसरे के कन्धों से उचकते हुए अपलक भीतर का नजारा करते रहे ।
लड़ाई इतनी तूफानी थी कि कमरे का फर्श थरथरा गया, दीवारें हिल गयीं ।
पांच मिनट में फैसला हो गया ।
मन्नालाल के चारों हिमायती अचेत होकर फर्श पर और सोफों पर ढेर हो गये ।
दरवाजे पर खड़े मुबारक अली के आदमी जैसे खामोशी से वहां प्रकट हुए थे वैसे ही खामोशी से वहां से विदा हो गये ।
आतकित मन्नालाल ने अपने आफिस का दरवाजा भीतर से बन्द कर लिया ।
मुबारक अली दरवाजे के सामने पहुंचा । उसने एक ही घूंसा दरवाजे पर जमाया तो उसका हाथ कोहनी तक यूं दरवाजे के पार निकल गया जैसे दरवाजा गत्ते का बना हुआ हो । दरवाजे में यूं बने छेद में हाथ डालकर उसने भीतर से लगी चिटकनी गिराई और दरवाजा खोला ।
खौफ से थर-थर कांपता हुआ मन्नालाल मेज के पीछे अपनी कुर्सी पर बैठा हुआ था ।
“तू बच गया, सेठ ।” - मुबारक अली सहज भाव से बोला ।
“क-क्या ?”
“चार बदमाश लोग तेरी धुनाई करके तेरा आफिस लूटने आये थे ।”
“ब... बद... बदमाश ?”
“जो अब बाहर बेहोश पड़े हैं । अपुन ऐन वक्त पर न पहुंच गया होता तो आज तेरी खैर नहीं थी ।”
वो खामोश रहा ।
“अब इस खिदमत का हमेरे कू कोई इनाम मिलना चाहिये मिलना चाहिये न सेठ ?”
वो खामोश बैठा चश्मे में से बितर-बितर मुबारक अली को देखता रहा ।
मुबारक अली मेज का घेरा काट के उसके करीब पहुंचा ।
मन्नालाल अपने आप में सिकुड़कर रह गया ।
मुबारक अली ने उसके कोट की भीतरी जेब से उसका पर्स निकाला और उसमें मौजूद सारे नोट निकालकर पर्स मेज पर फेंक दिया । फिर उसने मेज के तीनों दराजों का मुआयना किया । ऊपरले दराज में नोटों की एक गड्डी पड़ी थी । उसने वो भी अपने काबू में कर ली ।
“धुलाई की फीस ।” - वो बोला ।
मन्नालाल के मुंह से बोल न फूटा ।
“अब असल बात ।” - मुबारक अली बोला - “तो क्या फैसला है तेरा ?”
उसने जवाब दिया ।
मुबारक अली ने अपने दोनों साथियों को इशारा किया । दोनों जुड़वा भाइयों ने करीब आकर अपने मजबूत हाथों में मन्नालाल को यूं दबोचा कि उसका कुर्सी पर से हिल पाना भी असम्भव हो गया ।
मुबारक अली ने उसकी टाई थामी और उसकी गोल लपेटकर उसके मुंह में ठूंस दिया । फिर उसने उसकी बाईं टांग उठाकर मेज के ऊपर यूं रख दी कि टांग कुर्सी और मेज के बीच सीधी तन गयी ।
मेज पर पीतल का एक सजावटी फूलदान पड़ा था । मुबारक अली ने उसके फूल नोचकर परे फेंक और भारी फूलदान उसकी गर्दन से थामकर उठा लिया ।
“दफ्तर में ध्यान से चला कर, बाप ।” - फिर वो शान्त स्वर में बोला - “फिसल के टांग तोड़ ली ।”
मुबारक अली ने पूरी शक्ति से फूलदान उसके घुटने पर मारा । एक चटाक की आवाज के साथ घुटना टूटा और लुंज-पुंज टांग खुद ही मेज से नीचे लटक गयी ।
बेहोश होने से पहले मन्नालाल को मुबारक अली की आवाज यूं सुनाई दी जैसी कहीं बहुत दूर से आ रही हो ।
“नशे का धन्धा नहीं । गुरबख्शलाल की हिफाजत नहीं । दादा लोगों की यारी नहीं । वर्ना कल दूसरी टांग नहीं । फिर तू नहीं । क्या ?”
***
लूथरा पहाड़गंज योगकुमार के पास पहुंचा ।
कलाकार ने उसका काम तैयार करके रखा हुआ था ।
उसकी बनाई पगड़ी, फिफ्टी, दाढी, नीली पुतलियों और चश्मे से लैस चौथी तसवीर देखकर लूथरा की तबीयत प्रसन्न हो गयी ।
वो तसवीर अखबार में छपी और फोटोग्राफर मोहन वाफना द्वारा ऐन वारदात के वक्त खींची गयी सिख की तस्वीर ही लगती थी ।
वो अपने थाने पहुंचा ।
वहां जैसा कि उससे अपेक्षित था, पिछली रात की पंडारा रोड वाली वारदात का कथित चश्मदीद गवाह पुजारी वहां उसकी प्रतीक्षा कर रहा था ।
लूथरा ने उसे विमल की राशन कार्ड वाली तसवीर दिखाई ।
पुजारी ने चश्मा लगाकर तसवीर को गौर से देखा ।
“मिलती है ?” - लूथरा आशापूर्ण स्वर में बोला ।
पुजारी ने उत्तर न दिया, चेहरे पर उत्कण्ठा के भाव लिये वो पूर्ववत् तसवीर को देखता रहा ।
“यही है वो कल रात वाला नौजवान जिसके चेहरे पर आपने ताजा लगे जख्म का निशान देखा था ?”
“जनाब” - पुजारी कठिन स्वर में बोला - “हो भी सकता और नहीं भी हो सकता ।”
“ये क्या जवाब हुआ ?”
“मैंने कहा न मुझे रतौंधी की शिकायत है ?”
“वो तो रात को होती है न ।” - लूथरा ने झुझलाये स्वर में बोला - “दिन में तो ठीक दिखाई देता है आपको ! तसवीर तो आप ठीक से देख रहे हैं न ?”
“हां । लेकिन उस आदमी को तो मैंने रात में देखा था ।”
“तो ये वो आदमी नहीं ?”
“ये वैसा लगता तो है लेकिन मैं दावे के साथ नहीं कह सकता कि ये वही आदमी है ।”
“फिर क्या बात बनी ?”
पुजारी खामोश रहा ।
“ये हो तो सकता है न वो आदमी ?”
“हां ।” - पुजारी बोला - “हो तो सकता है ।”
“तसवीर से कभी-कभी ठीक से शिनाख्त नहीं हो पाती । इस तसवीर वाले शख्स को अगर आप रूबरू देखें तो तब क्या आप दावे के साथ कुछ कह पायेंगे इस बाबत ?”
“उम्मीद तो है तस्वीर में तो मुझे सिर्फ एक चेहरा दिखाई दे रहा है । रूबरू होने पर तो मैं कद-काठ, चलने का अन्दाज वगैरह भी देख पाऊंगा और आवाज भी सुन पाऊंगा ।”
“आवाज !”
“मैंने उससे बातें भी तो की थीं ।”
“हां । हां । मैं भूल गया था आपने तो उससे बातें भी की थीं । यानी कि आप उसे आवाज से भी पहचान सकते हैं ?”
“हां ।”
“और कद-काठ और चलने के अन्दाज से भी ?”
“हां ।”
“ठीक है । मैं आपकी उससे रूबरू मुलाकात की कोई सूरत पैदा करूंगा ।”
“अब मैं जाऊं ?”
“हां । मैं आपको फिर खबर करूंगा । मैं खुद खबर करूंगा आपको । बहरहाल आमद का शुक्रिया, पुजारी साहब ।”
पुजारी थाने से विदा हो गया ।
***
मुबारक अली निजामुद्दीन मरकरी टूअर्स एण्ड ट्रैवल्स के आफिस में पहुंचा ।
वहां भी उसने मन्नालाल के आफिस जैसा ही नजारा पाया । फर्क सिर्फ इतना था कि दादाओं की वहां मौजूद रिसैप्शन कमेटी में चार की जगह छ: आदमी थे और वो लोहे की छड़ों, साइकल चैनों और चाकुओं से लैस थे ।
वहां मुबारक अली के दो खास जवानों, जुड़वा भाइयों के अलावा तीन और धोबियों को भी लंगोट घुमाना पड़ा ।
पहले की तरह ही पूरी खामोशी के साथ वहां भी घमासान लड़ाई हुई जिसका नतीजा भी पहले वाला ही निकला ।
सिवाय इसके कि इस बार एक ‘धोबी’ भी घायल हुआ जिसको कि उसके दो साथी वहां से उठा के ले गये ।
रिसैप्शन कमेटी के छ: मेम्बरान रिसैप्शन पर बेहोश पड़े रहे ।
तब जुड़वा भाइयों के साथ मुबारक अली ने जगतारसिंह के केबिन में कदम रखा ।
जगतारसिंह भीगी बिल्ली बना अपनी कुर्सी पर बैठा हुआ था ।
मुबारक अली एक कुर्सी पर बैठ गया । उसने जेब से सिगरेट का पैकेट निकालकर उसमें से एक सिगरेट निकाला और उसे अपने होठों से लगाया ।
एक नौजवान ने तत्काल लाइटर निकालकर उसका सिगरेट सुलगाया ।
मुबारक अली ने सिगरेट का एक गहरा कश लगाया और ढेर सारा धुआं मेज पर रखी लकड़ी की उस तिकोनी प्लेट की तरफ उगला जिस पर ‘नो स्मोकिंग प्लीज’ लिखा था ।
“क्या ?” - फिर मुबारक अली बोला ।
“क-क्या ?” - जगतारसिंह बोला ।
“क्या जवाब है तेरा ?”
जगतारसिंह के मुंह से बोल न फूटा ।
मुबारक अली ने जेब से एक उपकरण निकालकर अपने सामने मेज पर रखा ।
“ये... ये क्या है ?” - जगतारसिंह घबराकर बोला ।
“विलायती खिलौना है ये एक ।” - मुबारक अली बोला - “अबे दायें-बायें वालो, क्या कहते हैं इसे अंग्रेजी में ?”
“रिमोट कन्ट्रोल ।” - दोनों नौजवान समवेत स्वर में बोले ।
“कहते हैं ये दूर से ही अपना काम कर देता है ।” - मुबारक अली बोला - “मुझे तो एतबार आता नहीं । आज पता लगेगा कि इस बाबत जो दावा है विलायती लोगों का वो सच है या झूठ ।”
“क-क्या मतलब ?”
“अहाते में छ: टैक्सी खड़ी हैं न तेरी ? चार डी एल वाई । दो डी एल जैड !”
“हां । क-क्यों ?”
“सबमें बम लगा है । इस पुर्जे पर... क्या नाम बोला बे इसका ?”
“रिमोट कन्ट्रोल ।” - दोनों नौजवान पूर्ववत् समवेत स्वर में बोले ।
“इस... इसी पर जो ये लाल बटन है” - मुबारक अली बोला - “मुझे तो यकीन नहीं आता लेकिन दायें-बायें वाले कहते हैं कि इसकी यहीं बैठे-बैठे दबाने से बाहर छ: के छ: बम फूट जायेंगे । देखें ?”
“नहीं ।” - जगतारसिंह ने आर्तनाद किया ।
“नहीं !” - मुबारक अली हैरानी से बोला ।
“नहीं ।”
“बिरादर, तेरी सारी फिलीट के बारे में कल तेरे को बोला तो था ।”
“मैं बेगुनाह मारा जाऊंगा, भाइयो । गुरबख्शलाल मेरी लाश का पता नहीं लगने देगा ।”
“हम इतने बेरहम नहीं । तेरी लाश का पता तो हम जरूर लगने देंगे । बल्कि धो के कलफ भी लगा देंगे ताकि तू अकड़ा हुआ ऊपर अपने बनाने वाले के हुजूर में पहुंचे ।”
“मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है ?”
“उन सैकड़ों, हजारों लोगों ने तेरा क्या बिगाड़ा है जिनको चरसी, गंजेड़ी और स्मैकिया बनाने का तू सामान करता है ?”
“मैं मजबूर हूं ।”
“मैं भी मजबूर हूं ।” - मुबारक अली ने फिर लाल बटन पर उंगली रखी ।
“नहीं । प्लीज !”
“दायें-बायें वालो ! पीलीज बोलता है ये ।”
दोनों नौजवानों ने बड़ी संजीदगी से सिर हिलाया ।
“मुझे... मुझे लाल साहब को फोन करने का मौका दो ।”
“यानी कि धन्धा छोड़ने के लिए भी गुरबख्शलाल की इजाजत लेगा ?”
“वो बात नहीं ।”
“तो और क्या बात है ? उसे ये बतायेगा कि उसके भेजे दादा लोग यहां अपने ही ठीये की, वो क्या कहते हैं... प्रोटेक्शन नहीं कर सके ?”
“भाई लोगो ।” - जगतारसिंह गिड़गिड़ाया - “मैंने पहले ही कहा था कि मैं यहां का मालिक नहीं, मैनेजर हूं ।”
“कहा था । मैंने कल ही यकीन कर लिया था तेरी बात पर ।”
“मैं ये मुलाजमत छोड़ूंगा तो मेरी जगह लेने के लिए कोई दूसरा आ जायेगा ।”
“कोई नहीं आयेगा । अब जगह ही नहीं रहेगी तो जगह लेने वाला किदर से आ जायेगा ।”
“मैं... मैं छोड़ता हूं ये धन्धा ।”
“बढिया ।”
“तुम ये ठीया उजाड़ के जाओगे ?”
“ये भी कोई पूछने की बात है ?”
“मेरे पर एक मेहरबानी करो ।”
“क्या ?”
“मुझे इतना वक्त दो कि मैं अपना बोरिया-बिस्तर लपेट कर अपने बीवी-बच्चों के साथ किसी गुमनाम जगह के लिये कूच कर सकूं ।”
“मंजूर ।”
“शुक्रिया ।”
“अब बोल, माल कहां है ?”
“माल !”
“चरस, गांजा, अफीम, स्मैक, जो कुछ भी यहां रखता है । अगर ये ठीया गुरबख्शलाल का अपना है तो यहां माल भी जरूर होगा ।”
जगतारसिंह के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं ।
“होगा न, बिरादर ?” - मुबारक अली बोला, उसकी निगाहें शोले बरसा रही थी लेकिन जुबान से फूल झर रहे थे ।
जगतारसिंह तत्काल जल्दी-जल्दी सहमति में सिर हिलाने लगा ।
***
लूथरा आराम बाग पहुंचा ।
उसने सहजपाल के घर के दरवाजे पर दस्तक दी ।
“कौन है ?” - उसे भीतर से आती सहजपाल की आवाज सुनाई दी ।
“मैं ।” - लूथरा उतावले स्वर में बोला - “लूथरा दरवाजा खोल ।”
दरवाजा खुला । चौखट पर सहजपाल प्रकट हुआ । लूथरा को देखकर वो जबरन मुस्कराया ।
“जयपुर हो आया ?” - लूथरा बोला ।
“हां ।” - सहजपाल बोला - “अभी बस लौटा ही हूं ।”
“शादी की दावत बढिया रही ?”
“हां ।”
“नशा-वशा उतर गया या अभी खुमारी बाकी है ?”
“क्या मतलब ?”
“ये मतलब !”
लूथरा ने अपने दायें हाथ का एक भरपूर घूंसा उसके चेहरे पर जमाया । उस अप्रत्याशित प्रहार से हकबकाया सहजपाल लड़खड़ाकर दो कदम पीछे हटा । लूथरा ने चौखट से भीतर कदम रखा और अपने पांव की एक ठोकर उसकी छाती पर जमायी । सहजपाल भरभराकर पीछे पड़ी एक सोफाचेयर पर जाकर गिरा ।
तभी पिछले दरवाजे का पर्दा हटाकर सहजपाल की बीवी वहां पहुंची । उसने वहां का नजारा देखा तो मुंह से एक आतंकभरी चीख निकल गयी ।
“खबरदार !” - अपने पीछे दरवाजा बन्द करता लूथरा बड़े क्रूर भाव से गुर्राया ।
“मैं पुलिस को फोन करती हूं ।” - वो बोली और कोने में एक तिपाई पर पड़े टेलीफोन की ओर झपटी ।
“अरी मूढ औरत !” - लूथरा बोला - “हम ही पुलिस हैं ।”
“लेकिन...”
“जा, जरा घूम-फिर के आ ।”
“तमीज से बात करो तुम ।”
“सहजपाल” - लूथरा सहजपाल की ओर घूमा - “अपनी बीवी को तमीज से कह कि जरा घूम-फिर के आये ।”
“ब-बात क्या है ?” - सहजपाल बोला ।
“अभी पता चल जायेगा ।”
सहजपाल सोफा चेयर पर सम्भलकर बैठा । उसने एक हाथ से अपने चेहरे को वहां से सहलाया जहां लूथरा का घूंसा पड़ा था और फिर अपनी बीवी से सम्बोन्धित हुआ - “विद्या, जा जरा घूम-फिर के आ ।”
“लेकिन” - वो बोली - “बात क्या है ? कुछ पता तो लगे ?”
“मुझे पता लगेगा तो तुझे भी बता दूंगा । अभी पड़ोस में कहीं जा के मर ।”
“मुझे डर लग रहा है । ये... ये आदमी...”
“मेरा आला अफसर है । मेरा साहब है । तू जा ।”
“लेकिन...”
“अब जा भी चुक ।” - सहजपाल कलपकर बोला ।
घबराई, हकबकाई वो वहां से बाहर निकल गई ।
सहजपाल उठकर खड़ा हुआ, वो लूथरा के करीब पहुंचा ।
“क्या बात है ?” - वो गुस्से से बोला - “हाथ क्यों उठाया मुझ पर ?”
“थाने में मेरा दराज क्यों खोला ?” - लूथरा बोला ।
“किसने खोला ?”
“तूने खोला । जबरन । क्यों खोला ?”
“मेरे पल्ले नहीं पड़ रहा तू क्या कह रहा है ! मैं तो...”
गुस्साये हुए लूथरा ने फिर घूंसा चलाया लेकिन सहजपाल वार बचा गया ।
“मैं भी लूला-लंगड़ा नहीं हूं ।” - सहजपाल दांत पीसता हुआ बोला - “धुन के रख दूंगा । घर आये का लिहाज...”
लूथरा ने फिर वार किया लेकिन सहजपाल फिर झुकाई देकर वार बचा गया । उसने झुके झुके घूंसा चलाया तो वो लूथरा की ठोड़ी पर पड़ा । लूथरा पीछे को लड़खड़ाया तो सहजपाल फिर उस पर झपटा । लूथरा ने बायें हाथ से उसे रास्ते में ही थाम लिया और दायें हाथ का एक वजनी घूंसा उसकी कनपटी पर रसीद किया । सहजपाल फिर सोफाचेयर पर जाकर गिरा । लूथरा उस पर सवार हो गया, अपने घुटनों से उसने उसका जिस्म दबोच लिया और दोनों हाथों से उसका गला दबोच लिया ।
“भौंकना शुरू कर ।” - वो दांत पीसता हुआ बोला ।
“छोड़ !” - सहजपाल उसकी पकड़ में छटपटाया ।
“जान से मार दूंगा !”
“मैंने कुछ नहीं किया ।”
“तूने मेरी गैरहाजिरी में जबरन मेरा दराज खोला और उसमें से कौल वाली फाइल निकाली ।”
“नहीं !”
“हरामजादे ! उस पर तेरी उंगलियों के निशान हैं । मैं झण्डेवालान से चैक करवा के आया हूं ।”
तब सहजपाल का रंग बदरंग हुआ ।
“अब फौरन बोल क्या किस्सा है” - लूथरा बोला - “वर्ना गला घोंट दूंगा ।”
“मैं... मैं...”
“जल्दी ।”
“बोलता हूं । गला तो छोड़ ।”
लूथरा ने अपनी पकड़ जरा ढीली की ।
“मैं” - सहजपाल हांफता-सा बोला - “ये मालूम करना चाहता था कि सुन्दरलाल स्मैकिये के कत्ल का तुझे किस पर शक था !”
“क्यों ?” - लूथरा ने उसका गिरहबान झिंझोड़ा - “क्यों मालूम करना चाहता था ?”
“कोई और जानना चाहता था !”
“कौन कोई और ? नाम बोल !”
“नहीं ।”
“नाम बोल !”
“वो मुझे जान से मार डालेगा ।”
“नाम नहीं बोलेगा तो मैं तुझे जान से मार डालूंगा ।”
“लूथरा ! मेरे भाई ! प्लीज !”
“क्या प्लीज ?”
“प्लीज !”
“नाम मैं बोलूं तो तू हां या न कुछ करेगा ?”
“नाम तू बोले ?”
“गुरबख्शलाल ।”
सहजपाल के चेहरे पर हैरानी के भाव आये ।
“गुरबख्शलाल है वो शख्स जो ये जानना चाहता था कि उसके भांजे के कत्ल का मुझे किस पर शक था ! ठीक ?”
सहजपाल कुछ न बोला ।
लूथरा ने जोर से उसे गिरहबान पकड़कर झिंझोड़ा ।
“ठीक ?”
सहजपाल ने बड़ी कठिनाई से सहमति में सिर हिलाया ।
“तूने उसे अरविन्द कौल का नाम बताया ?”
“हां ।”
“अब गुरबख्शलाल क्या करेगा ?”
“ये... ये भी कोई पूछने की बात है ?”
“वो उसका कत्ल करवा देगा ?”
“हां । वो ढक्कन नाम के अपने एक आदमी को इस काम पर लगा भी चुका है ।”
लूथरा ने उसका गिरहबान छोड़ दिया और उसके ऊपर से उठ खड़ा हुआ ।
“सहजपाल !” - वो असहाय भाव से गर्दन हिलाता हुआ बोला - “लानत है तेरी जात पर !”
“ऐसी क्या तबाही ला दी मैंने ?” - सहजपाल आजाद हो गया तो दिलेरी से बोला ।
“बहुत ही कमीना आदमी है तू ।”
“क्यों ? क्या किया है मैंने ?”
“साले ! कुत्ते ! गुरबख्शलाल की फेंकी हड्डी चबाता है और पूछता है क्या किया है तूने ?”
“हां । पूछता हूं । जब इस महकमे में नीचे से ऊपर तक हर कोई किसी-न-किसी की फेंकी हुई हड्डी चबाता है तो मेरे ही क्यों गले पड़ रहा है तू ?”
“हर कोई नहीं, कमीने ।”
“न सही हर कोई । लेकिन तकरीबन हर कोई । तू कौन-सा दूध का धुला है !”
लूथरा हड़बड़ाया ।
“मैं” - फिर वो सख्ती से बोला - “गुंडे-बदमाशों की सोहबत नहीं करता । मवालियों के सामने कुत्ते की तरह दुम नहीं हिलाता ।”
“तो शरीफों के सामने दुम हिलाता होगा । उन शरीफों के सामने दुम हिलाता होगा जो होते गुण्डे-बदमाश ही हैं लेकिन लगते शरीफ हैं । दुम दिखाई दे जाती है इसलिए दुम पर काबू रखता होगा और धीरे-धीरे चाऊं-चाऊं करके दिखाता होगा !”
लूथरा के मुंह से बोल न फूटा ।
“लूथरा” - सहजपाल बोला - “तू मुझे नापसन्द करता है इसलिये मेरे गले पड़ रहा है । वर्ना सोच मैंने किया क्या है ? मैंने एक दादा को एक कातिल का नाम बताया है । ये दोनों आपस लड़-भिड़ के मर जायें तो हमारा क्या जाता है ! कौल खुद कातिल है । उसने सुन्दरलाल का कत्ल किया है । अब गुरबख्शलाल कौल का कत्ल करा दे तो कौन-सी तबाही आ जायेगी ! ये तो एक तरह से इंसाफ होगा कि कातिल को कत्ल की सजा मिल गयी ।”
“इंसाफ करना मवालियों का काम नहीं । सजा देना गुरबख्शलाल का काम नहीं ।”
“ये सब किताबी बातें हैं । देख, गुरबख्शलाल से मिली रकम में अगर तू मेरे से कोई हिस्सा चाहता है तो साफ बोल...”
“शटअप !”
“ठीक है । शटअप तो शटअप ।”
“तू अहमक है । तू नहीं समझता ।”
“क्या नहीं समझता मैं ?”
“मुझे कौल पर सिर्फ शक है और मेरा शक बेबुनियाद भी हो सकता है । चार पैसों की खातिर तूने उसे पहले ही सुन्दरलाल का कातिल करार दे दिया और उसका नाम गुरबख्शलाल को बता दिया । सहजपाल, यूं तूने एक बेगुनाह की मौत का सामान किया है ।”
“जिस शख्स की तू इतनी मोटी फाइल खोले बैठा है, वो बेगुनाह नहीं हो सकता ।”
“हो सकता है ।”
“नहीं हो सकता ।”
“फिर भी सजा देना उस साले गुरबख्शलाल का काम नहीं ।”
“फिर वही बात ! अरे, मरने दे सालों को आपस में लड़-भिड़कर ।”
लूथरा ने असहाय भाव से गर्दन हिलाई ।
“एक बात बता !” - सहजपाल धीरे से बोला ।
लूथरा ने प्रश्नसूचक नेत्रों से उसकी तरफ देखा ।
“तू कौल की फाइल दबाये क्यों बैठा है ?”
“क्या मतलब ?” - लूथरा चौंककर बोला ।
“पहले तो कभी तूने किसी सस्पैक्ट की फाइल की ऐसी हिफाजत नहीं की कि उसे ताले में बन्द करके रखे ! पहले तो ऐसा कभी नहीं हुआ कि तू किसी सस्पैक्ट के बारे में किसी को कुछ न बताये । अपने एस एच ओ को भी नहीं ?”
“तू पागल है !”
“पागल ही सही मैं । लेकिन जो मैंने पूछा है, उसका क्या जवाब है तेरे पास ?”
“मुझे जरूरत नहीं तेरी वाहियात बातों का जवाब देने की !”
सहजपाल हंसा ।
“वो आदमी बेगुनाह हो सकता है । जब तक कुछ साबित न हो जाये, तब तक...”
सहजपाल बड़े विद्रोहपूर्ण भाव से फिर हंसा ।
“सहजपाल !” - लूथरा ने उसे घूरा - “तू किस फिराक में है ?”
“तू बता तू किस फिराक में है ?” - सहजपाल बोला - “यार आ के मुझे पीट दिया...”
“तू इसकी रिपोर्ट करेगा ?”
“कर सकता हूं ।”
“कुछ साबित नहीं कर पायेगा । कोई गवाह नहीं तेरे पास ।”
“मेरी बीवी गवाह है ।”
“उसने कुछ नहीं देखा । फिर भी जो तेरे जी में आये कर ।”
“मैंने कुछ नहीं करना । मेरे जी में कुछ नहीं है ।”
“दोबारा मेरे दराज को टटोलना तो होगा तेरे जी में ?”
सहजपाल ने इनकार में सिर हिलाया ।
“एक बात कान खोलकर सुन ले ।” - लूथरा एक-एक शब्द पर जोर देता हुआ बोला - “ऐसी कोई हरकत दोबारा की तो हाथ तोड़ के रख दूंगा । वो भी गवाहों के सामने । समझ गया ?”
सहजपाल ने सहमति में सिर हिलाया ।
लूथरा घूमा और बाहर की ओर बढा ।
“बैठ, कोई चाय-वाय पी ले ।” - पीछे से सहजपाल बोला ।
लूथरा न रुका । वो वहां से बाहर निकलकर गली में पहुंचा तो उसने सहजपाल की बीवी को अपलक अपनी ओर देखते पाया । वो बिना उसकी ओर दोबारा निगाह डाले अपनी मोटर साइकिल की ओर बढ गया ।
***
मुबारक अली अपने दल-बल के साथ कमलानगर पहुंचा ।
दिल्ली शहर में बुरी खबर कितनी तेजी से फैलती थी, इसका सबूत उसे वहां पहुंचते ही मिला ।
रेस्टोरेन्ट के दरवाजे पर चार हट्टे-कट्टे वेटर खड़े थे लेकिन मुबारक अली पर निगाह पड़ते ही वो बड़े अदब के साथ दरवाजे पर से दायें-बायें हट गये ।
उनकी उस प्रतिक्रिया से ही साफ जाहिर हो रहा था कि देवनगर और निजामुद्दीन की खबर वहां पहुंच चुकी थी ।
अपने दोनों खास सहयोगियों के साथ मुबारक अली भीतर दाखिल हुआ ।
जो रेस्टोरेन्ट कल खचाखच भरा हुआ था, आज उसकी तीन-चौथाई सीटें खाली थीं ।
वो ऊपर बाल्कनी में पहुंचे ।
ऊपर वीडियो पार्लर उन्हें बिल्कुल खाली मिला ।
उन्होंने वीरेन्द्र दुआ उछलकर खड़ा हो गया और बड़े व्याकुल भाव से जल्दी-जल्दी बोलने लगा - “नशे के धन्धे से मेरे बाप की तौबा ! गुरबख्शलाल से मेरा कुछ लेना-देना नहीं ।”
“बाद में हो जायेगा ?” - मुबारक अली उसे घूरता हुआ बोला ।
“कभी नहीं होगा । अब मैं नशे के धन्धे के पास नहीं फटकूंगा, भले ही वो मुझे जान से मार डाले ।”
“तू नशे के धन्धे के पास नहीं फटकेगा तो वो तेरे पास नहीं फटकेगा । हमारा जिम्मा ।”
दुआ खामोश रहा । उसने आतंकित भाव से मुबारक अली के दोनों साथियों में से एक के हाथ में थमे एक झोले की तरफ देखा ।
“अब” - मुबारकत अली बोला - “धोबियों की फीस !”
दुआ ने चैन की सांस ली, उसने खुशी-खुशी सौ-सौ के नोटों की एक गड्डी मेज के दराज में से निकाली और उसे मुबारक अली के सामने रख दिया ।
मुबारक अली ने गड्डी उठा ली और प्रतीक्षा करने लगा ।
दुआ ने हौले से एक आह भरी और दराज में से वैसी ही एक गड्डी और निकाली ।
मुबारक अली ने वो गड्डी भी कब्जा ली और प्रतीक्षा करने लगा ।
दुआ ने वैसी गड्डियों से भरा हुआ दराज मेज से बाहर निकाला और उसे मुबारक अली के सामने मेज पर उलट दिया ।
मुबारक अली ने केवल एक गड्डी और उठाई और बोला - “दो फेरों के । फी फेरा पन्दरह हजार ।”
दुआ ने सहमति में सिर हिलाया ।
“और फेरे की नौबत न आई तो फायदे में रहेगा ।”
“अगर” - दुआ बोला - “गुरबख्शलाल ने मेरे ऊपर दबाव डाला तो...”
“तो उसकी खबर तेरे बताये बिना भी हमें हो जायेगी । गुरबख्शलाल का जो भी आदमी यहां तेरे ठीये पर कदम रखेगा । वो चार भाईयों के कन्धों पर यहां से वापिस जायेगा । क्या ?”
दुआ खामोश रहा ।
“अपना माल चौकस कर ।”
दुआ ने नोटों की गड्डियां मेज पर से उठाकर दराज में रखी और दराज को मेज पर यथास्थान पहुंचाया ।
“अब” - मुबारक अली बोला - “जाती बार का एक तोहफा ।”
“तोहफा !” - दुआ सकपकाया ।
“हमें उम्मीद जो नहीं थी कि तेरे को आज ही अक्ल आ जायेगी ।”
मुबारक अली ने झोले वाले नौजवान को इशारा किया ।
नौजवान ने झोले को मेज पर तिरछा लिटाकर उसका बन्द मुंह थोड़ा-सा खोला और झोले के मध्य भाग को एक थपकी दी ।
एक सूरत से ही निहायत खतरनाक लगने वाला बिच्छु झोले के मुंह से निकलकर मेज पर रेंग गया ।
आतंक से दुआ की आंखें फट पड़ीं ।
नौजवान ने झोले का मुंह बन्द कर दिया ।
“खुदा हाफिज, बाप” - मुबारक अली बोला - “तेरे को बड़ा दिन मुबारक हो ।”
***
विमल माडल टाउन पहुंचा ।
पिपलोनिया का पता एक छोटी-सी एकमंजिली कोठी निकली जिसकी चारदीवारों में लोहे का बड़ा-सा फाटक था, आगे बहुत दुर्दशा में पहुंचा हुआ छोटा-सा लान था, लान से आगे एक बरामदा था और बरामदे के पहलू में कार खड़ी करने की जगह थी जहां कि उस घड़ी कोई कार खड़ी दिखाई नहीं दे रही थी । वहां रख-रखाव में लापरवाही का ऐसा बोलबाला दिखाई दे रहा था कि लगता था जैसे वो कोठी आबाद ही न हो ।
उसने फाटक के पहलू में लगी कालबैल बजाई और फिर वहां से हटकर जल्दी से सड़क पार करके फुटपाथ पर उगे एक पेड़ की ओट में हो गया ।
पिपलोनिया से दो-चार होने से पहले वो उसकी सूरत देखकर ये जायजा लेना चाहता था कि वो कैसा आदमी हो सकता था ।
घन्टी की कोई प्रतिक्रिया सामने न आयी ।
विमल ने कुछ क्षण और प्रतीक्षा की और फिर वापिस फाटक के सामने पहुंचा । इस बार उसने पहले से ज्यादा देर तक घन्टी बजायी और वहीं खड़ा रहा ।
कोई जवाब न मिला ।
जाहिर था कि घर पर कोई नहीं था ।
छुट्टी का दिन होने की वजह से जरूर घर वाले तफरीहन कहीं चले गये थे ।
विमल ने फाटक के जंगले से भीतर झांका ।
कार खड़ी करने वाली जगह पर कार के टायरों के ताजा बने निशान दिखाई दे रहे थे । यानी कि कोठी में कार खड़ी करने की जगह ही नहीं थी, कार भी थी कोठी के मालिक के पास ।
वो सोचने लगा, क्या किसी पड़ोसी की घन्टी बजाकर वो उससे पिपलोनिया की बाबत सवाल करे ।
फिलहाल उसे वो बात न जंची ।
उसने आसपास के इलाके का चक्कर लगाने का फैसला किया ।
उसे करीब ही एक मोटर गैराज दिखाई दिया ।
वो ठिठका ।
जो शख्स कार रखता था, उसे छोटी-मोटी मरम्मत की भी जरूरत पड़ सकती थी ।
वो फिर गैराज की ओर आकर्षित हुआ । उसने देखा वहां केवल दो ही आदमी थे जिनमें से एक एक खटारा-सी कार की बाडी घिस रहा था और दूसरा ऐ एम्बैसेडर का बोनट खोल भीतर झांक रहा था ।
उसे दूसरे में ज्यादा सम्भावनाएं दिखाई दीं ।
“जरा सुनो भाई ।” - वो बोला ।
एम्बैसेडर पर काम करते आदमी ने सिर उठाया ।
विमल ने उसे इशारे से करीब बुलाया ।
“पुराने काम करने वाले हो यहां के ?” - उसने पूछा ।
“हां ।” - वो बोला - “क्यों ?”
“क्या नाम है तुम्हारा ?”
“विलियम । क्यों ?”
“क्रिसमिस के दिन भी काम कर रहे हो ?”
“मजबूरी है ।”
“मैरी क्रिसमिस !”
“थैंक्यू । सेम टु यू ।”
“विलियम, मैं पायनियर मोटर फाइनान्स कम्पनी से हूं । यहां के एक आदमी ने हमारे यहां कार के फाइनान्स के लिये अप्लाई किया है । उसी के बारे में जरा पूछताछ करने आया था ।”
“क्या पूछताछ ?”
“फाइनान्स के धन्धे में बहुत रिस्क हो गया है आजकल । कर्जें की किस्त भरने की लोगों की औकात नहीं होती लेकिन कर्जा ले लेते हैं । कार हाथ में आते ही उसे बेच देते हैं और खुद खिसक जाते हैं । इसलिये आजकल क्लायन्ट की बाबत जरा सावधान रहना पड़ता है । नौ नम्बर वाले पिपलोनिया साहब को जानते हो ?”
“पिपलोनिया साहब ?”
“जिनकी इसी सड़क पर आगे जाकर कोठी है । सफेद रंग की । काले फाटक वाली । नौ नम्बर ?”
“कोठी तो मैं समझ गया लेकिन ये जो नाम आप ले रहे हैं वो मेंने पहले कभी नहीं सुना ।”
“वो औसत कद-काठ के पचास के ऊपर उम्र के आदमी हैं । दाढी-मूंछ नहीं रखते और चश्मा नहीं लगाते । तुम उनको किसी और नाम से जानते हो सकते हो । पिपलोनिया सरनेम है । कई लोग सरनेम नहीं इस्तेमाल करते ।”
आगे से कोई उत्तर न मिला ।
“मैं बात को और तरीके से पूछता हूं । नौ नम्बर में जो साहब रहते हैं, तुम उन्हें जानते हो ?”
“जानता तो हूं । उनकी गाड़ी छोटे-मोटे काम के लिये यही आती है । अलबत्ता सर्विस के लिये वो उसे किंग्सवे कैम्प में कहीं दे के आते हैं । खुद बता रहे थे । लेकिन” - वो तनिक ठिठककर बोला - “उनकी गाड़ी तो अच्छी-भली है ।”
“नयी चीज का शौक होता ही है ।”
“अब कहां उम्र है उनकी शौक करने की !”
“शौक की भी कोई उम्र होती है ?”
“वो तो ठीक है लेकिन... वो...”
वो चुप हो गया ।
“कौन-सी गाड़ी है उनके पास ?”
“फियेट । छियासी माडल ।”
“वो मारुति लेना चाहते हैं । मारुति की, तुम जानते ही हो आजकल कितनी क्रेज है !”
“हूं ।”
“तुम उन्हें किस नाम से जानते हो ?”
“नाम तो मुझे मालूम नहीं लेकिन यहां इलाके में हर कोई उन्हें प्रोफेसर साहब कह के पुकारता है ।”
“प्रोफेसर साहब ? पढाते हैं ?”
“पहले पढाते थे । अब रिटायर हैं ।”
“जल्दी रिटायर हो गये होंगे ?”
“खुद छोड़ दी नौकरी ।”
“अच्छा ! वजह ?”
“बस, ऐसी ही बुरी हुई बेचारों के साथ । एक साल में सारी फैमिली तबाह हो गयी ।”
“अच्छा ! वो कैसे ?”
“बीवी को कैंसर थी, पहले वो मर गई । लड़का कुछ पहले से बिगड़ा हुआ था, कुछ मां का साया सिर से उठ जाने से और बिगड़ गया । हेरोइन का नशा करने लगा । उसी नशे ने भरी नौजवानी में जान ले ली । एक लड़की थी जो पढती थी । उसकी मां बनकर उसको पाल सकें इसलियें बेचारे ने नौकरी तक छोड़ दी लेकिन लड़की के साथ और बड़ी ट्रेजेडी हुई ।”
“क्या हुआ ?”
“यूनीवर्सिटी में फर्स्ट इयर में पढती थी । एक रोज कालेज से वापिस न लौटी । हफ्ते बाद उसकी लाश विजयनगर के नाले में उसे बरामद हुई । कहते हैं उसे कुछ गुण्डे जबरन उठाकर ले गये थे जिन्होंने कई दिन उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया और फिर उसे मारकर लाश को नाले में फेंक दिया ।”
“तौबा ! उन गुण्डों का कुछ पता नहीं लगा ?”
“न ।”
“कब की बात है ये ?”
“मुश्किल से महीना हुआ होगा ।”
“तो अब प्रोफेसर साहब अकेले रहते हैं ?”
“हां । जैसी आजकल उनकी जिन्दगी है, उसमें ये बड़ी हैरानी की बात है कि वो नई कार खरीदने की सोच रहे हैं ।”
“अब तो मुझे भी हैरानी हो रही है । बल्कि शक हो रहा है कि कोई उनका पता वगैरह बताकर फाइनान्स कम्पनी को थूक लगाने की कोशिश तो नहीं कर रहा ?”
“ऐसा ही कुछ होगा, जनाब ।”
“अच्छा हुआ न मैं पूछताछ करने आ गया !”
“वो तो है ।”
“ये प्रोफेसर साहब अमूमन घर में ही होते हैं ?”
“इतना तो मुझे मालूम नहीं ।”
“जब रिटायर आदमी हैं तो...”
“मुझे नहीं मालूम ।”
“ओ के, विलियम । थैंक्यू । थैंक्यू वैरी मच । मैरी क्रिसमिस ।”
“मैरी क्रिसमिस ।”
विमल इलाके की राशन शाप पर पहुंचा ।
वहां से मालूम हुआ कि नौ नम्बर कोठी वालों का राशन कार्ड ही नहीं था ।
दो-चार और जगह पूछताछ करने पर इतना ही मालूम हुआ कि वहां कोई प्रोफेसर साहब रहते थे और कोठी में अमूमन ताला ही रहता था ।
वो वापिस कोठी के सामने पहुंचा ।
इस बार उसे टेलीफोन की तार कोठी में दाखिल होती दिखाई दी ।
यानी कि वहां फोन था ।
वो एक पब्लिक काल आफिस में पहुंचा और वहां से डायरेक्ट्री लेकर उसने उसमें पिपलोनिया की ऐन्ट्री तलाश करने की कोशिश की । उसने पाया कि उस नाम से एक भी ऐन्ट्री डायरेक्ट्री में नहीं थी । लेकिन उससे कुछ साबित नहीं होता था । घर के मालिक के नाम की डायरेक्ट्री में ऐन्ट्री उसके फर्स्ट नेम से हो सकती थी ।
उसने पब्लिक फोन से ‘3329195’ पर फोन किया । डारेक्ट्री के मुताबिक ये वो नम्बर था जिस पर से इमारत का पता लगाकर उसमें लगे फोन नम्बर के मालिक की बाबत पूछा जा सकता था । आगे डी-9 माडल टाउन के फोन नम्बर की बाबत सवाल किया ।
मालूम हुआ कि वो फोन नम्बर ‘7217119’ था और वो दुर्गावती के नाम था ।
विमल ने फिर डायरेक्ट्री निकाली ।
डायरेक्ट्री में दुर्गावती का नाम था, आगे डी-9 माडल टाउन भी लिखा था और वही टेलीफोन नम्बर भी लिखा था ।
विमल ने उस नम्बर पर फोन किया ।
निरन्तर घन्टी बजती रही लेकिन किसी ने फोन न उठाया ।
विमल ने आखिरकार सम्बन्ध-विच्छेद कर दिया ।
***
लूथरा पंचकुइयां रोड के कनाट प्लेस वाले सिरे पर पहुंच गया तो उसको ध्यान आया कि वो नाहक कौल के आफिस का रुख कर रहा था, उस रोज तो क्रिसमिस की छुट्टी थी ।
इसी से सिद्ध होता था कि उसके दिमाग पर कितना बोझ था । अब वो महसूस कर रहा था कि सहजपाल पर हाथ उठाकर उसने अच्छा नहीं किया था और कौल की फाइल की बाबत जैसी रहस्मयी बातें वो कर रहा था, वो भी लूथेरा के लिये चिन्ता का विषय थीं ।
आज ही फाइल घर ले जाऊंगा - वो मन-ही-मन बोला ।
उसने मोटर साइकल घुमाई और गोल मार्केट पहुंचा ।
उसने कौल के फ्लैट की कालबैल बजाई ।
विमल ने, जो कि उसी घड़ी माडल टाउन से वापिस लौटा था, दरवाजा खोला । लूथरा पर निगाह पड़ते ही उसके चेहरे पर वितृष्णा के भाव आये ।
“तुम फिर आ गये ?” - वो बोला ।
“आपको कुछ दिखाने आया था ।” - लूथरा बोला ।
“क्या ?”
“इतमीनान से देखने की चीज है ।”
“आओ ।”
विमल ने उसे ड्राइंगरूम में लाकर बिठाया ।
“मिसेज नहीं दिखाई दे रहीं !” - लूथरा बोला ।
“बीमार है ।” - विमल बोला - “सो रही है ।”
“और आपकी वो ‘वो’ ? पति-पत्नी और वो वाली ‘वो’ ?”
“मतलब की बात करो !” - विमल शुष्क स्वर में बोला ।
“खबर तो खूब ली होगी आपकी मिसेज ने सुमन की वजह से आपकी ?”
“मैंने कहा न मतलब की बात करो ।”
“बीवियां में भी कितनी सहनशक्ति होती है ! सौ खून माफ कर देती हैं खाविन्द के । लेकिन कहते हैं कि सौत बर्दाश्त नहीं होती बीवियों को । आपकी बीवी तो जरूर इस मामले में भी अपवाद है जो...”
विमल पाइप सुलगाने में मशगूल हो गया ।
“आप सुन नहीं रहे मेरी बात ?” - लूथरा बोला ।
“भई, कुछ कहोगे तो सुनूंगा न ? अभी तो सिर्फ बोल रहे हो ।”
“ठीक है । कहता हूं । कौल साहब, अब मैं बार-बार एक ही बात नहीं कहूंगा कि आप ही कथित खबरदार शहरी हैं और आपका लेटेस्ट कारनामा वो चार खून हैं जो कल रात आपने पंडारा रोड पर किये हैं । आपके कल के कारनामे का सबसे बड़ा सबूत आपके गाल पर अंकित है । मैं जानता हूं आप खबरदार शहरी हैं बल्कि अब तो यूं कहिये कि खतरनाक शहरी हैं । लेकिन आप जानते हैं कि फिलहाल सरकमस्टांशल एवीडेन्सिज के अलावा मेरे पास आपके खिलाफ कुछ नहीं है ।”
“ये बात अभी और कितनी बार कहोगे ?”
“जब तक ऐसे सबूतों में इजाफा होता रहेगा, कहता रहूंगा ।”
“अब क्या इजाफा हुआ ?”
“देखिये ।” - लथूरा ने एक तसवीर उसके सामने रखी - “ये आपकी तसवीर है । कबूल ?”
विमल ने एक सरसरी निगाह उस तसवीर पर डाली और फिर बोला - “कहां से मिली ?”
“राशनिंग आफिस से ।” - लथूरा बोला - “घर के कर्ता की जो तसवीर राशन कार्ड पर होती है, वो ही तसवीर राशन दफ्तर के रिकार्ड में भी होती है । मैंने वहां से तसवीर हासिल करके फोटोग्राफर से ये ब्लोअप बनवाया है ।”
“हासिल ?”
“अभी सामने आता है । अब ये तसवीर देखिये । ये आपकी इसी तसवीर की कापी है लेकिन आर्टिस्ट ने आपके सिर पर पगड़ी और फिफ्टी बना दी है । इस तीसरी तसवीर में पगड़ी और फिफ्टी के साथ-साथ दाढी भी है और इस चौथी और आखिरी तसवीर में पगड़ी, फिफ्टी और दाढी के अलावा चश्मा भी है और आंखों की पुतलियों की रंगत नीली है । अब इस चौथी तसवीर की बगल में रखता हूं में ये अखबार में छपी उस सिख की तसवीर जिसने कि पहाड़गंज में सुन्दरलाल को शूट किया था । इंसाफ कीजिये कौल साहब, इन दोनों तसवीरों में कोई फर्क है ?”
अपने हुलिये में हुई उस सीढी-दर-सीढी तब्दीली को देखकर विमल सन्न रह गया ।
“आर्टिस्ट का कमाल है ।” - प्रत्यक्षत: वो लापरवाही से बोला ।
“कोई फर्क है ?” - लूथरा जिदभरे स्वर में बोला ।
“आर्टिस्ट का कमाल है ।” - विमल ने अपना जवाब दोहराया - “तुमने उसे मेरी तसवीर देकर कहा कि इसे अखबार में छपी सिख की तस्वीर जैसा बना दो, उसने बना दिया । तुम उसे अपनी तसवीर देकर ये ही हिदायत देते तो भी उसके आर्ट का ये ही नतीजा निकलता !”
“यानी कि आप इसे कोई खास सबूत नहीं मानते अपने खिलाफ ?”
“तुम्हीं बताओ । है ये खास सबूत ?”
“मेरी निगाह में तो है । देख लीजिये, कैसे आपकी तस्वीर स्टैप वाइज ट्रांसफार्मेशन से उस सिख हत्यारे की तस्वीर बन पायी है ।”
“बन नहीं गयी है बना दी गयी है, जो कि आर्टिस्ट का कमाल है ।”
“हकीकतन आपने ऐसा सिख बहुरूप कभी धारण नहीं किया ?”
“सवाल ही नहीं पैदा होता ।”
“पिछले रविवार की रात को जब मैं आपके यहां आया था तो आपको याद होगा कि...”
“तुम्हें” - विमल उसकी बात काटकर उपहासपूर्ण स्वर में बोला - “मेरी आंखों की पुलतियां नीली लगी थीं ?”
“मैं कुछ और कहने लगा था ।”
“और क्या ?”
“तब मैंने आपके बायें कान के नीचे काला-सा कुछ लगा हुआ देखा था जिसे कि आपने कान पर से उतारकर गोली-सी बनकार ऐश-ट्रे में डाल दिया था । राइट ?”
“तो ?”
“कौल साहब, तब मुझे नहीं पता था कि वो क्या था लेकिन आज मैं बता सकता हूं कि वो क्या था !”
“अच्छा ?”
“जी हां । वो काली रंगी हुई रुई थी ।”
“यानी कि मैंने रुई की दाढी लगाई हुई थी ?”
“मुकम्मल नहीं । सिर्फ कनपटियों के पास के थोड़े से हिस्से में ।”
“ऐसा क्यों ?”
“वजह मेरी समझ से बाहर है ।”
“शुक्र है कोई तो बात है जो तुम्हारी समझ से बाहर है ।”
“ये आतशी शीशा है” - विमल को एक उपकरण थमाते हुए लूथरा बोला - “जिसे अंग्रेजी में मैग्नीफाइंग ग्लास कहते हैं । ये एक निहायत उम्दा किस्म का खास मैग्नीफाइंग ग्लास है जो इसमें से जिस चीज को देखा जाये, उसे बीस गुणा बड़ा करके, मैग्नीफाई करके, दिखा सकता है । मेरी आपसे दरख्वास्त है कि आप अखबार में छपी सिख की तसवीर की कनपटियों का इस आतशी शीशे के जरिये मुआयना करें ।”
“तो क्या होगा ?”
“तो आपको साफ दिखाई देगा कि सिख की पगड़ी के ऐन नीचे कनपटियों के पास की दाढी बाकी दाढी की तरह बालों की नहीं है । आप और गौर से देखेंगे तो वो आपको साफ-साफ काली रंगी हुई रुई लगेगी । मुलाहजा फरमाइये जरा ।”
विमल ने वैसा किया तो उसे कबूल करना पड़ा कि लूथरा सच कह रहा था ।
उसने मैग्नीफाइंग ग्लास लूथरा के सामने रख दिया और एक नकली जमहाई ली ।
“मेरी इतनी आला खोज को” - लूथरा आहत भाव से बोला - “किसी खातिर में लाते नहीं मालूम हो रहे आप !”
विमल ने फिर जमहाई ली ।
“रात को ठीक से सोये नहीं मालूम होते जो बार-बार जमहाइयां ले रहे हैं । जरूर गाल का जख्म ज्यादा गहरा होगा ।”
“अब शायद मुझे ड्रैसिंग उतारकर जख्म का मुआयना कराने का हुक्म होगा ?”
“जी नहीं । उसकी जरूरत नहीं ।”
“तो...”
“तो ये कि आप मेरे खाते में अपने खिलाफ ये एक और सरकस्टांशल एवीडेंस जमा कर लीजिये ।”
विमल हंसा ।
“अब मैं उस बात पर आता हूं जिसकी वजह से मैं यहां आया हूं ।”
“यानी कि” - विमल सकपकाया - “वो बात अभी जुदा है ?”
“जी हां ।”
“क्या है वो बात ?”
“मैं आपको ये बताने आया हूं कि आइन्दा दिनों में आपका अगला पता निगमबोध घाट हो सकता है ।”
“क्या !”
“कौल साहब, आपकी जान को खतरा है । आपका कत्ल हो सकता है ।”
“अच्छा !”
“पहाड़गंज में सुन्दरलाल नाम के जिस नौजवान का आपने कत्ल किया था, उसका मामा इस शहर के अन्डरवर्ल्ड का बहुत पावरफुल बॉस है । उसका बहुत शिद्दत से अपने भांजे के कातिल की तलाश है और उसकी ये तलाश पूरी हो चुकी है । उसे मालूम हो चुका है कि उसके भांजे का कातिल अरविन्द कौल नाम का शख्स है ।”
“कैसे” - विमल के मुंह से स्वयंमेव ही निकल गया - “कैसे मालूम हो चुका है ?”
“ये एक लम्बी कहानी है । लेकिन ये हकीकत है कौल साहब कि आज की तारीख में वो आपके खून का प्यासा है ।”
“देखो, अगर तुम समझते हो कि मुझे यूं खौफजदा करके तुम मेरे से कोई इकबालिया बयान हासिल कर सकते हो तो ये तुम्हारी गलतफहमी है ।”
“मेरी ऐसी कोई मंशा नहीं ।”
“तो फिर तुम मुझे क्यों चेता रहे हो ? तुम्हें मेरे - जिसे कि तुम एक खतरनाक कातिल साबित करने पर तुले हुए हो - मरने-जीने से क्या फर्क पड़ता है ?”
“मैं नहीं चाहता कि आप जैसा बहादुर आदमी कुत्ते की मौत मारा जाये ।”
“बहादुर कभी कुत्ते की मौत नहीं मरता । बहादुर बहादुर की मौत मरता है और जो बहादुर की मौत मरता है, वह कभी नहीं मरता ।”
“यानी कि आप सावधान रहेंगे ?”
“तुम मुझे जुबान देने की कोशिश कर रहे हो । तुम इस बहाने प्रत्यक्ष या परोक्ष में मेरे से ये कुबुलवाने की कोशिश कर रहे हो कि उस गैंगस्टर के भांजे का कातिल मैं हूं । लेकिन ऐसा नहीं है । मेरा किसी कत्ल से कुछ लेना-देना नहीं ।”
“गुरबख्शलाल को आपकी बात से इत्तफाक नहीं होने वाला । मुझे मालूम हुआ है कि वो तो आपके कत्ल का हक्म दे भी चुका है ।”
विमल खामोश हो गया । पिछली रात का पंडारा रोड का नजारा उसकी आंखों के सामने घूम गया । अब पिछली रात अपने पर हुए उस आक्रमण का मतलब उसकी समझ में आने लगा था । जरूर वो लोग उसे जबरन काबू में करके अपने बॉस गुरबख्शलाल के हुजूर में पेश करने के तमन्नाई थे ताकि अपने भांजे के कत्ल के इलजाम में गुरबख्शलाल खुद उसे सजाये मौत दे पाता या अपनी देखरेख में दिलवा पाता ।
“ये गरीबमार होगी ।” - प्रत्यक्षत: वो बोला ।
“अब गुरबख्शलाल ऐसा समझे तो बात है न ? उसे कौन समझायेगा ?”
“तुम्हारी राय में मुझे क्या करना चाहिये ? जाकर गुरबख्शलाल के सामने गिड़गिड़ाना चाहिये और उसे यकीन दिलाने की कोशिश करनी चाहिये कि मैं उसके भांजे का कातिल नहीं ?”
“ख्याल बुरा तो नहीं ।”
“या ये शहर छोड़कर भाग जाऊं ?”
“ये और भी अच्छा रहेगा ।”
“अभी तो तुम मुझे बहादुर का दर्जा दे रहे थे । ये बहादुरों के काम होते हैं ?”
लूथरा हंसा ।
“क्या नाम बताया था तुमने उस गैंगस्टर का ?” - विमल बोला ।
“गुरबख्शलाल ।”
“कहां पाया जाता है ?”
“तौबा ! अब कहीं आपकी मर्जी उसके भी पीछे पड़ने की तो नहीं है ?”
“भी’ का क्या मतलब ? और किसके पीछे पड़ा हूं मैं ?”
“छोड़िये । ये बहस का मुद्दा है । फिलहाल इतना जान लीजिये कि गुरबख्शलाल के पीछे पड़ना किसी एक अकेले आदमी के बस का काम नहीं । बहुत लोग ऐसी कोशिश कर चुके हैं । सबके सब निगमबोध घाट ही पहुंचे थे ।”
“पाया कहां जाता है ये ?”
“कई ठिकाने हैं उसके । मसलन अशोक विहार में शहनशाह नाम का एक कैब्रे जायन्ट है । कनाट प्लेस में लोटस क्लब नाम को एक क्लब है । साउथ एक्सटेंशन में डलहौजी बार नाम का एक बार है । ये सब ठिकाने है गुरबख्शलाल के जिनमें से किसी पर भी वो कभी भी हो सकता है । लेकिन मजेदार बात ये है कि आप कहीं भी जाके गुरबख्शलाल के बारे में सवाल करेंगे तो आपको ये ही जवाब मिलेगा कि किसी ने वो नाम तक कभी नहीं सुना ।”
“हूं ।”
लूथरा मेज पर से अपने कागजात बटोरने लगा ।
“सो” - अन्त में वो उठता हुआ बोला - “यू विल बी केयरफुल, मिस्टर कौल ?”
“मैं अभी भी हैरान हूं ।” - विमल बोला ।
“किस बात से ?”
“कि तुम मुझे चेता रहे हो । खास चलके चेताने आये हो ।”
“एक वजह हो सकती है ।” - लथूरा विनोदपूर्ण स्वर में बोला ।
“क्या ?”
“आप मेरे शिकार हैं । शायद ये मुझे ये गवारा नहीं कि मेरे शिकार का शिकार कोई और करे ।”
“क्या ?”
“मैंने आप पर इतनी मेहनत की है । अभी भी कर रहा हूं । आप परलोक सिधार गये तो मेरी तो सारी मेहनत पर पानी फिर गया न !”
“नानसेंस ।”
“अलबत्ता खुदकुशी कर लेने के लिये आप पूरी तरह से आजाद हैं, बशर्ते कि ऐसा करने से पहले जेब में वो चिट्ठी रख लेना न भूल जायें जिसका कि मैंने आपसे जिक्र किया था ।”
“नानसेंस !”
लूथरा हंसा ।
***
कुशवाहा ने झिझकते हुए गुरबख्शलाल को धोबियों के कारनामों की रिपोर्ट पेश की ।
“पहले से भी बुरी हुई ।” - वो बोला - “देवनगर और निजामुद्दीन में हमारे आदमी बुरी तरह से पिटे । कमलानगर में तो नौबत ही न आयी मुकाबले की ।”
“क्यों ?” - गुरबख्शलाल लाल-लाल आंखों से उसे घूरता हुआ बोला ।
“वेटरों की सूरत में हमारे जो चार आदमी वहां तैनात थे, धोबियों के वहां पहुंचने से पहले ही देवनगर और निजामुद्दीन की खबर वहां उन तक पहुंच चुकी थी । उन्होंने तो हमलावरों के खिलाफ उंगली तक उठाने की कोशिश न की । यूं ही मैदान छोड़ दिया ।”
“पूछा नहीं हरामजादों ने कि उन्होंने ऐसा क्यों किया ?”
“पूछा । चारों ने एक ही बात कही ।”
“क्या ?”
“कि उनके पिट जाने की, बल्कि मारे जाने की, गारन्टी थी ।”
“तेरी भी गलती थी । तूने कैसे सोच लिया कि सिर्फ चार आदमी काफी थे ?”
“लाल साहब, वक्त बहुत कम था । इतने थोड़े वक्त में मैं इससे ज्यादा आदमी जमा नहीं कर सकता था । ऊपर से जब से चार्ली के पीजा पार्लर वाली वारदात हुई है, तब से हमारे आदमियों में भारी दहशत बरपा गयी है । रही-सही कसर आज की देवनगर और निजामुद्दीन वाली वारदातों ने पूरी कर दी है । हमारे आदमियों को पहली बार अहसास हुआ है कि कोई लाल साहब के आदमियों के साथ भी यूं पेश आ सकता है, वो मारने की जगह मार खा भी सकते हैं । लाल साहब, हमारे आदमियों का मनोबल बुरी तरह से टूट रहा है जो कि भारी फिक्र की की बात है ।”
“वो फिक्र हम इत्मीनान से कर लेंगे । तू ये बता कि अब पोजीशन क्या है ?”
“पोजीशन खराब है ।”
“क्या खराब है ? कुछ बोलेगा भी या पहेलियां ही बुझायेगा ?”
“मन्नालाल टूटी टांग के साथ हस्पताल में है । अपने पैरों पर खड़े हो पाने में उसे हफ्तों लग जायेंगे । तब भी वो हमारे किसी काम आ सकेगा, इस बात की कोई उम्मीद नहीं ।”
“और ?”
“निजामुद्दीन वाला ठीया पूरी तरह से तबाह हो गया है । ठीये की तबाही से भी ज्यादा बुरी खबर ये है कि अपने तमाम तामझाम और बीवी-बच्चों के साथ जगतार सिंह फरार हो गया है ।”
“अब कमलानगर की भी बोल ।”
“वहां की क्या बोलूं ? वहां की कहानी तो तभी खत्म हो गयी थी जब हमारे आदमियों ने हाथ खड़े कर दिये थे । जिस ठीये को हम प्रोटेक्शन नहीं दे सके, वो क्या हमारे काबू में रहेगा ? दुआ ने साफ कह दिया है कि अब वो हमारे धन्धे को चलाये नहीं रख सकता । लाल साहब, वो अपने हमलावरों से उतना खौफजदा नहीं हुआ जितना कि एक बिच्छू से ।”
“बिच्छू से ?”
“जी हां । और अभी सांपों की तो बारी ही नहीं आयी थी । लाल साहब, दुआ को अब किसी कीमत पर भी इस धन्धे में बने रहने के लिये तैयार नहीं किया जा सकता ।”
“मैं बोटियां उड़ा दूंगा मादर... की ।”
“उसे वो भी मंजूर होगा ।”
गुरबख्शलाल तिलमिलाया, तड़पा लेकिन फिर उसने किसी प्रकार अपने आप पर जब्त किया ।
“चार्ली !” - वो बोला - “चार्ली बाकी रह गया । अब उसकी भी बुरी खबर सुना दे ।”
“मैं खुद उससे मिला था । मैंने उसे कहा था कि लाल साहब बुला रहे थे । बोला, वो कभी फुरसत में आकर मिल लेगा ।”
“फुरसत में आ के मिलेगा !” - गुरबख्शलाल यूं बोला जैसे उसे अपने कानों पर विश्वास न हुआ हो ।
“जी हां ।”
“तुने सुन लिया ये जवाब ? वहीं उसकी लाश नहीं गिरा दी ?”
“तब वैसा माहौल नहीं था ।”
“उसे यहीं पकड़ के लाना था ।”
“वैसा भी माहौल नहीं था । त्योहार के दिन हैं । वहां बहुत भीड़ होती है ।”
“घर तो जाता होगा ?”
“आज ही तो उसका ये खतरनाक जवाब मिला है । रात को देखेंगे । घर जायेगा तो उठवा लेंगे ।”
“कुशवाहा, उसका काबू में आना बहुत जरूरी है । धोबियों की इस नयी पलटन के बारे में अगर हमें कोई कुछ बता सकता है तो चार्ली ही बता सकता है ।”
“मैं समझता हूं लाल साहब । आज रात मैं उसे काबू में करूंगा ।”
“ठीक ।”
“मैं आपके यहां होते-होते ही आपको कोई गुड न्यूज दूंगा ।”
“शाबास ।”
***
रात आठ बजे के करीब विमल फिर माडल टाउन में कोठी नम्बर डी-9 के सामने था । इस बार मुबारक अली उसके साथ था और विमल उसी की टैक्सी में सवार था ।
रात की उस घड़ी भी कोठी दिन की तरह सुनसान पड़ी थीं ।
विमल अपना कोई अगला कदम निर्धारित करने की बाबत सोच ही रहा था कि नीले रंग की एक फियेट कार सड़क पर प्रकट हुई और ऐन कोठी के फाटक के सामने आकर यूं खड़ी हुई कि उसका अगला बम्फर फाटक की सलाखों को छूने लगा ।
विमल सावधान होकर बैठ गया । फियेट की तेज लाइट की रोशनी में उसने देखा कि उसका नम्बर डी आई डी-2248 था ।
कार का ड्राइविंग सीट की ओर का दरवाजा खुला और एक आदमी बाहर निकला । उसने आगे बढकर कोठी का फाटक खोला और वापिस कार की ड्राइविंग सीट पर जा बैठा । कार की हैडलाइट्स क्योंकि उसने आफ नहीं की थी इसलिये कार से निकलते और वापिस सवार होते वक्त विमल की प्रकाशित पृष्ठ भूमि में खड़ी केवल एक काली परछाई ही दिखाई दी ।
कार आगे बढी और भीतर कार पार्किंग के लिये बनी जगह में जा खड़ी हुई । कार की सारी बत्तियां बुझीं और भीतर कम्पाउन्ड में पूर्ववत् अन्धकार छा गया । फिर ड्राइवर कार से बाहर निकला और दो सीढियां चढकर बरामदे में पहुंचा । उसने ताले में चाबी फिराकर मुख्य द्वार खोला और भीतर दाखिल होकर द्वार अपने पीछे बन्द कर लिया । कुछ क्षण बाद भीतर की रोशनी जली और बरामदे में पड़ने वाली शीशे के पल्लों वाली विशाल खिड़की रौशन हो उठी ।
“बाप, उसने फाटक बन्द नेईं किया ।” - मुबारक अली बोला ।
“मैं भी यही देख रहा हूं ।” - विमल बोला - “इसका एक ही मतलब हो सकता है कि ये बहुत जल्द यहां से फिर रुख्सत होने वाला है ।”
“तो अपुन को क्या करने का है ?”
“हम इसका पीछा करेंगे । अगर ये ही शख्स पिपलोनिया है तो फिर अब ये कोई वारदात करने के लिये ही घर से बाहर निकलेगा । इस बार हम इसकी वारदात के चश्मदीद गवाह बनने की कोशिश करेंगे ।”
“फायदा ?”
“ये हमें यकीन हो जायेगा कि पिपलोनिया ही मेरा डुप्लीकेट खबरदार शहरी है ।”
“फिर तू उसे समझायेगा कि वो ये खतरनाक खेल छोड़ दे ?”
“हां ।”
“तू समझायेगा, वो समझ जायेगा ?”
“देखेंगे । पहले इस बात की तसदीक तो हो कि वो ही वो शख्स है ।”
“इस तसदीक के लिये तू उसे और खून करने देगा ?”
“मियां, ये कौन-सी जुबान बोल रहा है ?”
“बाप, मेरी राय में तो वो, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, जिस राह चल रहा है, उसे चलने दे । अगर वो गलत चल रहा है तो खता खायेगा, ठीक चल रहा है तो एक से दो भले ।”
“मुबारक अली, मैं ये नहीं चाहता कि वो इसलिये खता खाये क्योंकि उसने मुझे अपनी मिसाल बनाया । अपनी नातजुर्बेकारी में एक गलत राह पकड़कर वो एक कुत्ते की मौत मारा जा सकता है ।”
“वो नेक काम कर रहा है । वो वैसा ही नेक काम कर रहा है जैसा तू कर रहा है ।”
“फिर भी उसे समझाना जरूरी है । उसे समझाना जरूरी है ।”
मुबारक अली खामोश हो गया । प्रत्यक्षत: विमल से वो सहमत नहीं था ।
“तू ये बातें छोड़” - विमल बोला - “और ये बता तेरे धोबियों का क्या हाल है ?”
“बढिया ।”
“मिजाज ?”
“और भी बढिया । उन्हें अपुन ने ये कहकर अपना साथ देने को तैयार किया था कि वो एक सबाब का काम था जो उन्होंने बिना किसी मुआवजे या इनाम इकराम के लालच के करना था । बाप, तू उन्हें चार्ली से दो-दो हजार रुपया क्या दिलाया उनके मुंह को लहू लग गया । आज तो बहुत ही तगड़ा रोकड़ा हाथ लगा । तीन ठीयों से कोई पौने दो लाख रुपया ।”
“सब बांट दिया ?”
“हां । अब तो अल्लामारे उछल-उछल के पूछते हैं कि आगे क्या करना है, कब करना है ।”
विमल हंसा ।
“बाप” - एकाएक मुबारक अली बोला - “दरवाजा खुल रहा है ।”
विमल ने तत्काल कोठी की दिशा में निगाह दौड़ाई ।
वो कोठी के मुख्य द्वार से बाहर कदम रख रहा था । इस बार भी क्योंकि प्रकाश का साधन उसके पीछे था इसलिये विमल को उसकी परछाई-सी ही दिखाई दी ।
उसने भीतर की बत्ती बुझाई और मुख्य द्वारा को ताला लगाया । फिर वो कार में सवार हुआ और उसे बैक करता हुआ कोठी से बाहर लाया । फिर कार से उतरकर उसने फाटक बन्द किया और वापिस कार में सवार होकर कार आगे बढाई ।
मुबारक अली ने अपनी टैक्सी कार के पीछे डाल दी ।
नगर की विभिन्न सड़कों से गुजरती कार कनाट प्लेस पहुंची जहां कि वो पालिका बाजार के पहलू में बनी अन्डरग्राउन्ड पार्किंग में दाखिल हो गई ।
“अब ?” - मुबारक अली बोला ।
“पीछे जाना बेकार है ।” - विमल बोला - “तू मुझे यहीं उतार दे और खुद टैक्सी लेकर परली तरफ पार्किग के निकास द्वार पर पहुंच जा । यहां से पांव-पांव बाहर निकलने के दो ही रास्ते हैं । एक इधर और दूसरा उधर जिधर तू अभी पहुंच जायेगा । ये कार पार्क करने गया है । बाहर या इधर से निकलेगा या उधर से । इधर से निकला तो मैं इसे सम्भाल लूंगा, उधर से निकलेगा तो टैक्सी का हार्न बजा देना । मैं उधर पहुंच जाऊंगा । इस काम में मुझे कोई खास वक्त नहीं लगेगा । इधर से उधर पैदल पहुंचने के लिये बीच में से ही रास्ता है जबकि वाहन पर सड़क के रास्ते लम्बा घेरा काटकर ही परली तरफ पहुंचा जा सकता है ।”
“मेरे कू मालूम ।”
“वो कार को बेसमैंट में उतार रहा है ।” - विमल टैक्सी से बाहर निकलता हुआ बोला - “तू जा अब ।”
तत्काल मुबारक अली ने बड़ी दक्षता से टैक्सी बैक की ।
विमल ने अपना पाइप निकाल लिया । उसने उसमें तम्बाकू भरकर उसे सुलगाया और प्रतीक्षा करने लगा ।
दस मिनट गुजर गये ।
वो चिन्तित हो उठा ।
पन्दरह मिनट गुजर गये ।
वो और भी चिन्तित हो उठा ।
पांच मिनट और गुजरे तो वो लम्बे डग भरता हुआ पार्किंग की इमारत में दाखिल हुआ और उसके लम्बे गलियारे को पार करके निकास द्वारा पर पहुंचा ।
वहां मुबारक अली अपनी टैक्सी में बैठा सिगरेट फूंक रहा था ।
विमल उसके करीब पहुंचा ।
“बाप” - मुबारक अली बोला - “वो तो निकला ही नेईं बाहर ।”
“उधर से भी नहीं निकला ।” - विमल चिन्तित भाव से बोला - “और तो कोई रास्ता है नहीं यहां से बाहर निकलने का ।”
“किदर गायब हो गया ?”
“कहीं कार पर ही तो वापिस नहीं निकल गया ?”
“नक्को ! कारों के बाहर निकलने का ये एक ही रास्ता है जिसके सामने अपुन बैठेला है । बाप, अपुन की गारन्टी, उसकी डी आई डी-2248 नम्बर की नीली फियेट इधर से बाहर नेईं निकली ।”
विमल खामोश रहा ।
“भीतर जाके देखें ?” - मुबारक अली बोला ।
“किसे ?” - विमल तनिक उखड़े स्वर में बोला - “उसे या कार को ?”
“दोनों को ।”
“कोई फायदा नहीं होगा । वो भीतर बैठा नहीं हो सकता । इतनी दूर से वो यहां अन्डरग्राउन्ड पार्किंग में छुप बैठने के लिये आया हो, ये कोई यकीन में आने वाली बात है ! उसकी कार सैकड़ों कारों के बीच कहीं हमें खड़ी मिल भी गई तो किस काम की ?”
“पण वो गायब किदर हो गया होयेंगा ?”
“एक बात मेरी समझ में आती है ।”
“क्या ?”
“उसने अपनी कार नीचे पार्क करके बाहर जाती किसी कार से लिफ्ट ले ली होगी । वो किसी और कार में किसी और के साथ बैठकर यहां से निकल गया होगा तो तुझे क्या खबर लगी होगी ?”
“ऐसा हो तो सकता है, बाप ! अपुन की निगाह तो खाली नीली फियेट पर थी ।”
विमल खामोश रहा ।
“बाप, उसे खबर होगी हमारे उसके पीछू लगा होने की ?”
“मुझे उम्मीद नहीं !”
“अब क्या करें ?”
“वापिस चल । अब यहां ठहर के रात खोटी करने का कुछ फायदा नहीं ।”
“बरोबर बोला, बाप ।”
विमल टैक्सी में सवार हो गया ।
***
रात साढे दस बजे चार्ली ने अपने आफिस से बाहर कदम रखा ।
बाहर का हाल क्रिसमिस के लिए विशेषरूप से सजाया गया था और उसे देखकर हरगिज भी नहीं कहा जा सकता था कि अभी परसों वहां भारी तोड़-फोड़ होकर हटी थी । हाल उस घड़ी पूरी तरह से भरा हुआ था और लगता नहीं था कि अभी और दो घन्टे वहां का रश खत्म हो पाया ।
चार्ली ने अपने स्टीवर्ट माइकल को करीब बुलाया, उसे पीछे सब सम्भल लेने की बाबत हिदायत दी और फिर स्वयं वहां से विदा हो गया ।
उस रोज खूब बिक्री हुई थी और उसकी जेबें नोटों से भरी हुई थीं । अब वो महसूस कर रहा था कि स्मैक का धन्धा छोड़कर उसने खास कुछ नहीं खोया था । गुरबख्शलाल से वो अभी भी खौफजदा था लेकिन वो गुरबख्शलाल को कैसे समझाता कि उससे कहीं ज्यादा खौफजदा वो सोहल से था ।
वो बाहर आकर अपनी फियेट कार में सवार हुआ ।
उसकी नई मारुति-1000 वर्कशाप के हवाले थी और अभी पन्दरह दिन और उसके वहां से लौटने की उम्मीद नहीं थी । चार्ली ने उसकी टूट-फूट का बीमा कम्पनी में कोई क्लेम करने की कोशिश नहीं की थी ।
वो वसन्त बिहार की ओर रवाना हुआ ।
बुद्ध जयन्ती पार्क और धौलाकुआं चौक होता हुआ वो वसन्त विहार पहुंचा ।
उसने अपनी कोठी के सामने ले जाकर कार खड़ी की और हौले से हार्न बजाया । घर में एक नौकर था जो उसकी गैरहाजिरी में कोठी की रखवाली करता था और घर के और छोटे-मोटे काम करता था । रोज हार्न की आवाज सुनते ही वो मालिक के लिये कोठी का फाटक खोलता था लेकिन उस रोज हार्न की कोई प्रतिक्रिया सामने न आई ।
उसने एक बार फिर हार्न बजाया ।
जवाब नदारद ।
सो गया होगा साला - चार्ली ने भुनभुनाते हुए सोचा और कार से बाहर निकला !
सड़क पार उसकी कार से थोड़ा आगे एक ओमनी खड़ी थी जिसकी कोई बत्ती नहीं जल रही थी और जिसके सारे शीशे काले थे ।
चार्ली ने एक उड़ती-सी निगाह ओमनी की ओर डाली और फिर अपनी कोठी के फाटक पर पहुंचा ।
“जानी !” - चार्ली ने नौकर को नाम लेकर पुकारा ।
तभी ओमनी के चारों दरवाजे निशब्द एक साथ खुले और चार आदमी उसमें से बाहर निकले । जब तक वो चारों उसके सिर पर न पहुंच गये, चार्ली को अपने पीछे सड़क पर उनकी उपस्थिति का आभास तक न मिला ।
“जानी आज जरा ज्यादा गहरी नींद सो गया है, चार्ली ।” - कोई उसके कान में धीरे से बोला - “आवाज देने से नहीं उठने वाला ।”
चार्ली वापिस घूमा ।
“क्या है ?” - फिर वो हिम्मत करके बोला ।
“लाल साहब बुलाता है ।” - जवाब मिला ।
“मालूम है ।”
“मालूम है तो चल ।”
“कल आऊंगा ।”
“लाल साहब अभी बुलाता है ।”
“बोला न कल आऊंगा ।”
“वो जिसको अभी बुलाता है वो अभी आता है ।”
“देखो, तुम लोग...”
“चार्ली ! सीधे-सीधे चल वर्ना वन पीस नहीं पहुंचेगा ।”
“अरे, ये कोई टाइम है ?”
“है ।”
“मैं शोर मचा दूंगा ।”
“कोशिश करके देख । एक आवाज निकाल के देख ।”
“तुम पछताओगे ।”
कोई हौले से हंसा ।
“अब हिल !” - कोई और बोला ।
चार्ली हिला । वो चारों चार्ली के साथ सड़क की ओर घूमे तो जैसे उन्हें सांप सूंघ गया ।
पीछे हाकियों और लोहे की छड़ों से लैस चार आदमी खड़े थे जो अपलक उन्हें देख रहे थे । उनमें से जो दो जने सबसे ज्यादा खूंखार लग रहे थे, वो मुबारक अली के खास सहयोगी अली मोहम्मद और अली मोहम्मद नाम के जुड़वें भाई थे ।
गुरबख्शलाल के आदमियों की आपस में निगाहें मिलीं ।
“हम जा रहे हैं ।” - फिर एक जना धीरे से बोला ।
“ऐसे कैसे चले जाओगे !” - जवाब मिला - “हमारी लान्ड्री पर जो कपड़ा आता है, वो धुल के जाता है, कलफ लग के प्रैस हो के जाता है । सालो मैले कपड़ो, धुलाई के लिए तैयार हो जाओ ।”
फिर चार जनों ने अपने से ज्यादा मजबूत और चाक-चौबन्द दिखते चार जनों को धुन के रख दिया । आखिर में उन्होंने उन्हें वापिस उनकी ओमनी में लाद दिया ।
एक जने ने किसी तरह कांपते-कराहते वैन को स्टार्ट किया और उसे वहां से दौड़ाया ।
वे वापिस चार्ली के पास लौटै ।
“शुक्रिया ।” - चार्ली धीरे से बोला - “सुबह अपने ड्राईक्लीनर साहब को मेरे पास भेज देना । जो हुक्म होगा, खिदमत कर दूंगा ।”
“रात को रुकें ?” - पूछा गया ।
“जरूरत नहीं । बस मैं जरा अपने नौकर जानी का पता कर लूं । तब तक रुको ।”
फाटक खोलकर चार्ली भीतर दाखिल हुआ ।
जानी उसे बरामदे में पास के एक गमले के पीछे पड़ा मिला । उसके हाथ-पांव बंधे हुए थे और मुंह में कपड़ा हुआ था ।
चार्ली ने उसे बन्धनमुक्त किया ।
“बॉस, वो” - मुंह खुलते ही जानी उत्तेजित भाव से बोलने लगा - “वो...”
“हौसला रख ।” - चार्ली बोला - “वो तेरे बॉस को भी नुकसान पहुंचाना चाहते थे लेकिन अब वो गये । अब कोई खतरा नहीं । उठ के खड़ा हो और गाड़ी भीतर रख ।”
जानी लड़खड़ाता-सा उठा ।
धोबियों को रुख्सत करने की नीयत से चार्ली वापिस सड़क पर पहुंचा ।
“अब तुम लोगों की यहां जरूरत नहीं ।” - वो बोला - “बहुत-बहुत शुक्रिया । धुलाई के बिल के साथ कल हैड क्लीनर साहब को भेजना । गुड नाइट । मैरी क्रिसमिस ।”
विमल की नींद खुली । लूथरा की चेतावनी की वजह से ही वो ऐसी कच्ची नींद सोया हुआ था कि हल्की-सी खट्ट की आवाज से भी उसकी नींद खुल गयी थी ।
उसने साइड टेबल पर पड़ी रेडियम डायल वाली घड़ी पर निगाह डाली ।
बारह बजने को थे ।
उसने नीलम पर निगाह डाली ।
वो दीन-दुनिया से बेखबर सोई पड़ी थी । तबीयत उसकी वाकई खराब थी इसलिये गोली की जगह डाक्टर को बुलवाकर उसे सिडेटिव का इंजेक्शन दिलाना पड़ा था ।
विमल तकिये के सहारे उचककर बैठा और कान लगाकर सुनने लगा ।
खट्ट की आवाज फिर हुई ।
कहां ?
बाहर बाल्कनी पर कहीं ।
वो पलंग से उतरा । वो दबे पांव वार्डरोब तक पहुंचा जहां से कि उसने अपना लाल चमड़े से मंढा ब्रीफकेस निकाला और अन्धेरे में टटोल-टटोलकर उसमें से रिवाल्वर बरामद की ।
वो वापिस पलंग के करीब पहुंचा । नीलम के पहलू से जहां से वो उठा था, वहां उसने लम्बे रुख दो तकिये रखे और उनको रजाई ओढा दी । फिर उसने परे हटकर पलंग का नजारा किया ।
फासले से बिल्कुल ऐसा लगता था जैसे उसकी जगह भी कोई रजाई ओढे सोया पड़ा था ।
वो बैडरूम के दरवाजे पर पहुंचा । सूत-सूत सरकाकर उसने बैडरूम के दरवाजे को कोई एक इंच के करीब खोला और फिर यूं पैदा हुई झिर्री में आंख लगाकर बाहर बाल्कनी की दिशा में झांका । पहले तो उसे अन्धेरे के सिवाय कुछ भी न दिखाई दिया लेकिन फिर जब उसकी आंखे अन्धेरे की अभ्यस्त हो गयीं तो उसे बाल्कनी में एक साया दिखाई दिया । उसने बाल्कनी के दरवाजे का शीशा हीरे की कलम फिराकर काट लिया था और अब यूं कटे गोल दायरे पर एक रबड़ की टूटी-सी लगाकर उसके पीछे लगे गुब्बारे को फुलाकर यूं वैक्यूम बना रहा था कि गोल टूटी शीशे के कटे हुए हिस्से के साथ चिपक गयी थी । कुछ क्षण बाद जब उसने टूटी को वापिस खींचा तो शीशे का एक गोल टुकड़ा पल्ले में से निकलकर टूटी के साथ चिपका चला गया । साया यूं पैदा हुए गोल छेद में हाथ डालकर भीतर से लगी दरवाजे की चिटकनी खोलने का उपक्रम लगा ।
चिटकनी कहीं अटकी तो फिर एक हल्की-सी खट्ट की आवाज हुई ।
विमल स्तब्ध खड़ा सब नजारा देखता रहा ।
साये ने बड़े सब्र के साथ एक-एक इंच करके बाल्कनी का दरवाजा खोला और फिर भीतर ड्राइंगरूम में कदम रखा । अन्धेरे में दबे पांव चलता हुआ वो बैडरूम के दरवाजे की ओर बढा । उसका एक हाथ अपने सामने फैला हुआ था जिसमें जरूर कोई हथियार था ।
विमल दरवाजे से परे हट गया और दीवार के साथ चिपककर खड़ा हो गया ।
कुछ क्षण बाद दरवाजा बाहर की ओर से धकियाया जाने लगा और वो भीतर की तरफ हौले-हौले खुलने लगा । जब वो एक आदमी के गुजर सकने लायक खुल गया तो वो खुलना बन्द हो गया ।
साये ने बैडरूम में कदम डाला । वो एक क्षण चौखट पर ठिठका और फिर दबे पांव आगे पलंग की ओर बढा ।
विमल ने रिवाल्वर को नाल की ओर से थाम लिया और उसका भरपूर वार उसकी कनपटी पर किया ।
साये के मुंह से कराह भी न निकली । उसकी आंखे उलट गयीं और उसके घुटने मुड़ने लगे । विमल ने उसके धराशायी हो पाने से पहले ही उसे थाम लिया और उसे घसीटकर बाहर ड्राइंगरूम में ले आया । उसने उसे ड्राइंगरूम के फर्श पर डाला और फिर उस हथियार का तलाश शुरू की जो उस अतातायी के हाथ में होना चाहिए था लेकिन नहीं था ।
साइलेंसर लगी एक नन्ही-सी रिवाल्वर उसे बैडरूम के भीतर पड़ी मिली । विमल ने उसे उठाया और फिर ड्राइंगरूम में आ गया । उसने बीच का दरवाजा बन्द किया और ड्राइंगरूम की बत्ती जलाई ।
रोशनी में उसने अतातायी के हथियार को पहचाना । वो एक बाईस कैलीबर की खिलौना-सी रिवाल्वर थी जिसकी गोली तभी घातक सिद्ध हो सकती थी जबकि वो बहुत ही करीब से दिल या दिमाग पर चलायी जाती ।
वो अतातायी की तरफ आकर्षित हुआ ।
वो कोई पच्चीस साल का दुबला-सा नौजवान था जो कि स्याह काली पोशाक पहने था ।
उसने उसकी जेबें टटोलीं ।
कोई भी ऐसी चीज बरामद न हुई जो कि उसकी शिनाख्त का जरिया बन पाती ।
वो बाल्कनी में पहुंचा ।
वहां एक झोला पड़ा था जिसमें रबड़ का भौंपे की सूरत का सेक्शन बल्ब और हीरे की कलम थी ।
फिर विमल को वो उपकरण दिखाई दिया जिसकी सहायता से वो सातवीं मंजिल की बाल्कनी तक पहुंचा था । छत की रेलिंग के सहारे उसकी बाल्कनी तक एक ऐसी रस्सी लटकी हुई थी जिस पर फुट-फुट के फासले पर गांठे बंधी हुई थीं ।
जरूर उस शख्स को कमन्द डालने में महारत हासिल थी ।
विमल ने वापिस ड्राइंगरूम में कदम रखा और बाल्कनी की ओर के पर्दों को व्यवस्थित किया । फिर वो काली पोशाक वाले के करीब पहुंचा । उसने अपने पांव की ठोकर से उसके शरीर को सीधा किया और फिर उसके नाक और मुंह पर अपना नंगा पांव रख दिया । सांस लेने में यूं व्यवधान आते ही वो जोर से तड़पा । उसकी आंखे खुलीं । फिर जब उसके हाथ विमल के पांव से लिपटने को उठे तो विमल ने पांव हटा लिया ।
अब वो होश में आ चुका था और बितर-बितर विमल को देख रहा था ।
“उठ के खड़े हो जा ।” - विमल कर्कश स्वर में बोला ।
वो उठ के खड़ा तो न हो सका अलबत्ता घबराया, बौखलाया बैठ जरूर गया । उसने दोनों हाथों से अपना माथा थाम लिया और उसके चेहरे पर ऐसे भाव आये जैसे वो अपने सिर को चक्कर खाने से रोक रहा हो ।
“नखरे बन्द कर और मेरी तरफ देख ।”
उसने सिर उठाया । उसने विमल को देखने की जगह उसके हाथ में थमी भारी रिवाल्वर को देखा जिसकी नाल उसकी तरफ तनी हुई थी । तत्काल उसके चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं ।
“पहचान लिया मुझे ? मेरा कत्ल करने आया था ?”
वो खामोश रहा । उसने बड़े यत्न से अपने सूखे होठों पर जुबान फेरी ।
“जवाब दे हरामजादे, वरना गोली मार दूंगा ।”
उत्तर में उसने बड़ी अजीब हरकत की । वो उछलकर खड़ा हुआ और अपने कपड़े उतारने लगा ।
“ये क्या कर रहा है ?”
उसने उत्तर न दिया । पलक झपकते वो केवल अन्डरवियर में विमल के सामने खड़ा था ।
“मैं एक मामूली चोर हूं ।” - फिर वो बड़ी दिलेरी से बोला - “मै चोरी करने को नीयत से यहां घुसा था । मैं निहत्था हूं और जैसी पोशाक में हूं उसमे कोई हथियार मेरे पास हो भी नहीं सकता । तुम्हें मेरे से कोई खतरा नहीं क्योंकि तुम हथियारबन्द हो और मैं मजबूर तुम्हारे सामने खड़ा हूं । ऐसे में तुम मुझे गोली मारोगे तो वो आत्मरक्षा की नीयत से नहीं, कत्ल की नीयत से चलायी गई गोली होगी ।”
“बहुत चालाक है ?”
वो खामोश रहा ।
“मैं तुझे पुलिस के हवाले कर दूगा ।”
“मैंने कुछ चुराया नहीं है, सिर्फ घर में घुसा हूं । जो छोटी-मोटी सजा मुझे होगी, वो मैं भुगत लूंगा ।”
“साइलेंसर लगी रिवाल्वर का क्या जवाब देगा ?”
“कैसी रिवाल्वर ! कौन-सी रिवाल्वर ? किसकी रिवाल्वर ?”
“इस पर तेरी उंगलियों के निशान होंगे !”
वो मुस्कराया । फिर वो अपने दायें हाथ पर से महीन लेटेक्स रबड़ का बना हुआ ऐन चमड़ी के रंग का दस्ताना उतारने लगा ।
“बहुत चालाक है । बहुत तैयारी के साथ आया है ! सब कुछ सोच-विचार के !”
“बॉस, मुझे छोड़ देने के अलावा तुम्हारे पास कोई चारा नहीं । मुझे पुलिस में दोगे तो तुम्हारी भी दस तरह की पोल खुलेगी । इस रिवाल्वर का ही शायद कोई जवाब न हो तुम्हारे पास जो कि इस वक्त तुम मेरी तरफ ताने हुए हो ।”
“साले ! उलटा मुझे धमका रहा है ?”
वो खामोश रहा ।
“है कौन तू ?”
“चोर हूं ।”
“मेरा कत्ल करने आया था ?”
“ये भी कोई पूछने की बात है । मिजाजपुर्सी के लिए तो कोई यूं आता नहीं ?”
“क्यों कत्ल करना चाहता था मेरा ?”
“क्योंकि ये मेरा कारोबार है ।”
“कत्ल करना ?”
“हां ।”
“पेशेवर कातिल है ? फीस लेकर कत्ल करता है ?”
“हां ।” - वो पूरी निडरता से बोला ।
“पहले भी कभी कत्ल किया है ?”
“कई बार लेकिन फेल पहली बार हुआ । फीस मारी गयी । एक तो ऐसा काम नहीं मिलता आजकल ऊपर से फेल हो गया । फीस मारी गयी ।”
“बक मत ।”
वो खामोश रहा ।
“तो तू चाहता है मैं तुझे छोड़ दूं ?”
“और कोई चारा नहीं तुम्हारे पास । मुझे शूट करोगे तो कातिल ठहराये जाओगे । बुरी तरह से फंसोगे ।”
“आया किधर से था ?”
उसने बाल्कनी की दिशा में देखा ।
“उधर से तो आया लेकिन वहां तक कैसे पहुंचा ?”
“छत की रेलिंग से कमन्द डालकर ।”
“जायेगा किधर से ?”
“अब तो दरवाजे भी जा सकता हूं ।”
“बाल्कनी में तेरा झोला पड़ा है । ऊपर कमन्द लगी हुई है ।”
“तुम्हारी सहूलियत के लिये मैं अपना सामान बटोरता हुआ बाल्कनी से भी जा सकता हूं ।”
“मेरी सहूलियत के लिये ?”
“हां ।”
“बड़ा ख्याल है तुझे मेरा ।”
वो खामोश रहा ।
“ठीक है । कपड़े पहन और जा ।”
“मैं यहां कपड़े नहीं पहन सकता ।”
“बाहर ठण्ड में कुल्फी जम जाएगी ।”
“मैं छत पर जाकर पहनूंगा ।”
“ठीक है । बटोर तो सही अपने कपड़े ।”
उसने कपड़े बटोरे ।
“चल !”
दोनों बाल्कनी में पहुंचे । वहां उसने अपने कपड़े अपने झोले भर लिये और झोला अपने गले में लटका लिया ।
“फूट !”
रेलिंग पर चढकर उसने रस्सी थामी । उसने सशंक भाव से विमल की ओर देखा ।
विमल तटस्थ खड़ा रहा ।
उसने रेलिंग पर से अपने पांव हटा लिये और रस्सी पकड़कर ऊपर चढने लगा ।
विमल बाल्कनी से हटा, वो फ्लैट से बाहर निकला और लपकता हुआ सीढियों के रास्ते ऊपर छत पर पहुंचा । रेलिंग के करीब पहुंचकर उसने नीचे झांका ।
रस्सी पकड़कर ऊपर को चढा आ रहा युवक अभी रेलिंग से पांच-छ: फुट दूर था । विमल ने रस्सी को झटका देकर उसका ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया ।
विमल पर निगाह पड़ते ही उसके छक्के छूट गये ।
“मैं तेरी कमन्द का हुक हटा रहा हूं ।” - विमल धीरे से बोला ।
“नहीं !” - वो आतंकित भाव से बोला ।
“लाश बरामद होगी तो पुलिस यही कहेगी कि बेचारे कमन्दबाज की कमन्द पर से पकड़ छूट गयी और वो आठ मंजिल नीचे र गिरा ।”
“ऐसा न करना ।”
“क्या मुश्किल काम है ?”
“ऐसा न करना ?”
“मैंने क्या करना है ? जो होना है, वो अपने आप ही हो जायेगा !”
विमल ने रस्सी को हुक के करीब से पकड़कर ऊपर को उमेठा ताकि हुक रेलिंग से ढीला पड़ पाता ।
“नहीं !” - उसने आर्तनाद किया ।
“हुक हटाना एक सैकेण्ड का काम है । इतने में न तू ऊपर छत पर आ सकता है और न नीचे बाल्कनी में जा सकता है ।”
“हे भगवान ! हे भगवान !”
“अभी मुलाकात होती है तेरी उससे ।”
“मैं बेमौत मारा जाऊंगा !”
“मुझे भी तो बेमौत मारने आया था ।”
“खता हुई । माफ कर दो ।”
“किसने भेजा तुझे मेरे पीछे ?”
“ऊपर आने दो । बताता हूं ।”
“वहीं से बात । मुझे सुनाई दे रहा है । बोल, कौन मेरा कत्ल कराना चाहता है ?”
“मुझे नहीं मालूम ।”
विमल के दान्त भिंचे, उसने रस्सी को अपनी तरफ उमेठा ।
“भगवान कसम, मुझे नहीं मालूम ।”
“तू किसके भेजे यहां आया ?”
“उस आदमी के भेजे जो कि ऐसे कामों का ठेका लेता है ।”
“यानी कि कत्ल करवाने वाला कोई और है और उसको करने का हुक्म देने वाला कोई और है ?”
“हां ।”
“ठेकेदार ?”
“यही तो कह रहा हूं ।”
“ठेकेदार ने तेरी फीस मुकर्रर की, तुझे मेरा पता बताया और तू मेरा कत्ल करने इधर चला आया ?”
“हां ।”
“मुझे पहचानता था ?”
“नहीं ।”
“तो फिर ?”
“मुझे हुक्म था कि फ्लैट में जो कोई भी हो, मैं उसका कत्ल कर दूं ।”
“मेरे अलावा कोई और हो तो उसका भी ?”
“हां ।”
“क्यों ?”
“ताकि कोई गवाह न बचे ।”
“कैसे करता कत्ल ?”
“तुम जाग न गये होते तो मैं अपनी वो साइलेंसर लगी रिवाल्वर सोते में तुम्हारी कनपटी से लगा देता और गोली चला देता ।”
“अपना नाम बोल ।”
“वीर बहादुर ।”
“वीर भी और बहादुर भी ! अपने ठेकेदार का नाम बोल ।”
“बजरंगलाल । मेरे हाथ छूट रहे हैं ।”
“शटअप ।”
“मैं और ज्यादा देर लटका नहीं रह सकता ।”
“क्या करता है बजरंगलाल ? मेरा मतलब है कत्ल की ठेकेदारी के अलावा ।”
“पान की दुकान करता है ।”
“कहां ?”
“बाराटूटी चौक में ।”
“खुद बैठता है ?”
“कभी-कभी ।”
“ऐसे आदमी के लिये तो पान की दुकान किसी और धन्धे की ओट होगी । और क्या करता है ?”
“जुए की फड़ लगवाता है ।”
“कहां ?”
“वहीं दुकान के पीछे । जिस मकान में दुकान है, वो उसका अपना है ।”
“दुकान पर कोई नाम लिखा है ?”
“बजरंग पान भण्डार ।”
“कब तक खुलती है ?”
“जब तक वैस्टएंड सिनेमा में नाइट शो खत्म न हो जाये ।”
“यानी कि अभी खुली होगी ?”
“हो सकता है ।”
“फड़ कब तक चलती है ?”
“चले तो सारी रात ।”
“आज चल रही है ?”
“हां ।”
“मेरा कत्ल कर चुकने के बाद अपनी कामयाबी की कोई खबर भी तो तूने उसे करनी होगी ?”
“हां ।”
“कहां ?”
“वहीं ।”
“यानी कि वो तेरी फोन काल की इन्तजार में बैठा होगा ?”
“हां ।”
“फड़ में वो खुद भी शामिल होता है या सिर्फ खिलवाता है जुआ ?”
“खुद भी शामिल होता है ।”
“अमूमन कितने आदमी होते हैं फड़ में ?”
“कितने भी हो सकते हैं ।”
“आज कितने थे ?”
“पांच-छ: ।”
“फड़ तक कोई भी पहुंच सकता है ?”
“नहीं ।”
“कौन पहुंच सकता है ?”
बाहर दुकान पर बैठे आदमी को जिसका नाम बोल के रखा गया हो ।”
“सिर्फ नाम ?”
“साथ में एक नम्बर भी । जो बजरंगलाल बताता है । जो इस शख्स के लिये हर फेरे पर जुदा होता है ।”
“तुझे वहां कौन पहचानता है ?”
“बजरंगलाल ।”
“उसके अलावा ?”
“कोई नहीं ।”
“क्यों ? फड़ में नहीं बैठता ?”
“नहीं ।”
“फिर वहां कैसे पहुंचा ? कैसे मालूम है कि आज फड़ में पांच-छ: आदमी थे ?”
“काम देने के लिए बजरंगलाल ने वहीं बुलाया था ।”
“लेकिन तू ये नहीं जानता कि बजरंगलाल को किसने मेरे कत्ल का काम सौंपा था !”
“नहीं जानता ।”
“वीर बहादुर, खुदा का खौफ खा । ये सोच के जवाब दे कि तेरी जिन्दगी और मौत में सिर्फ बाल बराबर फासला है ।”
“भगवान कसम, उस शख्स के बारे में मुझे कुछ नहीं पता ।”
“वो शख्स गुरबख्शलाल है ?”
“मुझे नहीं पता ।”
“तू जानता तो है न कि गुरबख्शलाल कौन है ?”
“नाम से वाकिफ हूं ।”
“उसने बजरंगलाल को मेरे कत्ल का ठेका दिया हो सकता है ?”
“नहीं ।”
“क्यों ?”
“वो बड़ा दादा बताया जाता है । उसके पास मेरे जैसे कई होंगे किसी का कत्ल करवाने के लिए वो किसी ठेकेदार के साथ क्यों जायेगा ?”
“तू ठीक कह रहा है । बजरंगलाल का टेलीफोन नम्बर बोल । वो टेलीफोन नम्बर बोल जो तू अपनी कामयाबी की खबर उसे देने के लिए बजाता !”
“775636”
“ये बाराटूटी का है ?”
“हां । बॉस, मेरे हाथ बुरी तरह से दुख...”
“अभी तेरे सारे दुख दूर होते हैं मेरे भाई ।”
विमल ने रेलिंग पर से हुक हटा लिया ।
विमल ने अपनी बाल्कनी में खड़े-खड़े दस मिनट इन्तजार किया ।
वीर बहादुर के आठ मंजिल से नीचे गिरने से काफी जोर की आवाज हुई थी लेकिन उस आवाज की कोई प्रतिक्रिया सामने नहीं आई थी । सर्दियों की रात में गहरी नींद सोये पड़े लोगों में से किसी के कान पर जूं भी नहीं रेंगी थी । किसी को वो आवाज फिर भी सुनाई दी थी तो उसका साधन उसकी समझ में नहीं आया था क्योंकि न तो आवाज के बाद कहीं कोई बत्ती जली थी और न उधर कम्पाउन्ड में कोई पहुंचा था ।
वो बैडरूम में पहुंचा । उसने टेलीफोन का प्लग उसकी साकेट से निकाला और उसे बाहर ड्राइंगरूम में ले आया जहां कि टेलीफोन की वैसी ही साकेट उपलब्ध थी । उसने उस साकेट में प्लग डाला और रिसीवर उठाकर कान से लगाया ।
डायल टोन आ रही थी ।
उसने ‘775636’ डायल किया । तत्काल उत्तर मिला ।
उसने माउथपीस पर रूमाल डाला और फिर जानबूझकर आवाज दबाकर बोला - “बजरंगलाल को दे ।”
“कौन ?” - पूछा गया ।
“वीर बाहादुर ।”
“होल्ड कर ।”
विमल रिसीवर थामे रहा । कुछ क्षण बाद एक नयी आवाज उसके कान में पड़ी - “हां भई, वीर बहादुर ! क्या खबर है ?”
“काम हो गया ।” - विमल बोला ।
“आराम से ?”
“हां ।”
“मर गया वो ?”
“हां ।”
“घर में और कौन था ?”
“कोई नहीं ।”
“शाबास ! बोल कहां से रहा है ?”
“वहीं से ।”
“बेवकूफ । जल्दी फूट वहां से ।”
“अच्छा ।”
“कल आके अपना नावां ले जाना ।”
“अभी ।”
“ठीक है अभी तो अभी ।”
“शुक्रिया ।”
“तेरी आवाज को क्या हुआ है ? और इक्के-दुक्के लफ्ज क्यों बोल रहा है ?”
“पाइप बहुत ठण्डा था । ठण्ड लग गयी । गला बैठ गया ।”
“ओह ! ठीक है, तेरा नम्बर छप्पन ।”
“आता हूं ।”
विमल ने रिसीवर रख दिया ।
***
बाराटूटी चौक पर बजरंग पान भंडार के सामने उस घड़ी सी दो ग्राहक पड़े थे । चौक में भी अभी छोटी-मोटी आवाजाही थी । ग्राहक की उम्मीद में तांगे और रिक्शा वहां मौजूद थे ।
लगता था नजदीकी सिनेमा वैस्टएण्ड का नाइट शो अभी खत्म नहीं हुआ था ।
विमल दुकान पर से ग्राहकों के हटने की प्रतीक्षा करता रहा । कुछ क्षण बाद पान खाते हुए वो हटे तो विमल दुकान पर बैठे आदमी के करीब पहुंचा और धीरे से बोला - “वीर बहादुर । छप्पन ।”
“पीछे गली में ।” - वो आदमी तत्काल बोला - “लाल दरवाजा । खुला मिलेगा ।”
विमल ने सहमति में सिर हिलाया और वहां से हट गया । वो पीछे गली में पहुंचा । वहां नीमअन्धरे में भी उसे लाल दरवाजा तलाश करने में कोई दिक्कत न हुई ।उसने एक बार अपने ओवरकोट की दायीं जेब में रखी रिवाल्वर को चौकस किया और फिर तनिक झिझकते हुए दरवाजे को धक्का दिया ।
दरवाजा निशब्द खुल गया ।
उसने भीतर कदम रखा तो स्वयं को एक डयोढी में पाया ।
उससे आगे एक और दरवाजा था । विमल ने उसे भी धक्का देने केलिए हाथ बढाया तो वो पहले ही खुल गया और उसे अपने सामने वो आदमी दिखाई दिया जो उसे दुकान पर बैठा मिला था । उसने विमल के पीछे दरवाजा बन्द किया और बोला - “पहली बार आये हो ?”
“हां ।” - विमल बोला ।
“सीढियां चढ जाओ । आगे दहाने पर एक ही दरवाजा है ।”
विमल ने सहमति में सिर हिलाया और सीढियां चढने लगा । आधे रास्ते पहुंचकर उसने घूमकर देखा तो उस आदमी को पीछे से गायब पाया । शायद वो उसके लिये दरवाजा ही खोलने आया था और अब वापिस दुकान पर जा बैठा था ।
विमल ने बाकी की सीढियां तय कीं और उसके सिरे पर मौजूद इकलौते दरवाजे के सामने पहुंचा । उसने हौले से दरवाजा ट्राई किया तो पाया कि वो खुला था । यूं पैदा हुई झिरी में आंख लगाकर उसने भीतर झांका । भीतर एक गोल मेज के गिर्द बैठे छ: आदमी फ्लश खेल रहे थे, सबके सामने नोटों के ढेर दिखाई दे रहे थे । जाहिर था कि वहां तगड़ा जुआ चल रहा था ।
विमल ने रिवाल्वर निकालकर हाथ में ले ली और दरवाजा खोलकर भीतर कदम रखा ।
“खबरदार !” - वो रिवाल्वर सामने तानता हुआ बोला ।
मेज पर झुके छ: सिर एक साथ उठे । सबको रिवाल्वर के दर्शन हुए । सबके चेहरों पर सख्त हैरानी के भाव आये । फिर कई चेहरों पर हवाइयां उड़ने लगीं ।
पत्ते क्योंकि अभी सबके हाथ में थे इससे लगता था कि वो उसी घड़ी बंटे थे ।
“पत्ते हाथ में ही रहें ।” - विमल बोला ।
कोई कुछ न बोला ।
“निगाह पत्तों पर ।”
सबकी निगाहें हाथ में थमे पत्तों की ओर मुड़ गयीं ।
“सारे नोट बटोर बजरंगलाल !”
केवल एक आदमी ने झटके से सिर उठाया । वो कोई पैंतालीस साल का बड़ी-बड़ी मूंछों वाला और मोटी तोंद वाला आदमी था ।
तो वो था बजरंगलाल ।
“ये तुझे कैसे जानता है ?” - एक खिलाड़ी बोला ।
“यहां कैसे पहुंच गया ?” - दूसरा बोला ।
“है कौन ये ?” - तीसरा बोला ।
“अब क्या होगा ?” - चौथा बोला ।
“बजरंगलाल ?” - पांचवां बोला - “तू तो कहता था ये बहुत सेफ ठीया है ?”
“कौन है भाई तू ?” - बजरंगलाल परेशानहाल स्वर में बोला - “मुझे कैसे जानता है ? यहां कैसे पहुंच गया ?”
“मेज के सारे नोट बटोर और अपने कोट की जेबों में भर ।” - विमल कर्कश स्वर में बोला ।
मरता क्या न करता के भाव से बजरंगलाल ने आदेश का पालन किया । उसके कोट की दोनों बाहरी जेबें पूरी तरह से ठुंस गयी । बाकी के बचे नोट उठाकर उसने हाथ कोट की भीतरी जेब की तरफ बढाया ।
“खबरदार ।” - विमल क्रूर स्वर में बोला ।
बजरंगलाल का हाथ ठिकका ।
“बाहरली जेबों में जगह नहीं है ।” - वो बड़े दयनीय भाव से बोला ।
“बना ।”
उसने कुछ जगह बनाई ।
“बाकी ऊपर की जेब में ।”
उसने बाकी नोट कोट की ऊपरली जेब में ठूंसे ।
“उठ के खड़ा हो । और कोई अपनी जगह से न हिले । पत्तों से जिस किसी का एक भी हाथ हटा, उसको गोली ।”
बजरंगलाल उठ के खड़ा हुआ ।
“मेज से परे हट ।”
वो हटा ।
“कोट उतार ।”
उसने उतारा ।
“मेरे को दे ।”
कोट को एक हाथ में कालर से थामे वो आगे बढा । उसने विमल के समीप पहुंचकर कोट उसकी तरफ बढाया लेकिन विमल का आगे बढता हाथ कोट तक पहुंचने से पहले ही उसने कोट को हाथ से निकल जाने दिया ।
विमल ने फर्श की तरफ निगाह न उठाई जहां कि कोट गिरा था । रिवाल्वर ताने वो अपलक बजरंगलाल को देखता रहा ।
बजरंगलाल विचलित दिखाई देने लगा और बेचैनी से पहलू बदलने लगा ।
“हरामजादे !” - विमल कहरभरे स्वर में बोला - “जिस स्कूल से तू ये ट्रिक सीखा है, उसका मैं हैडमास्टर रह चुका हूं ।”
बजरंग के जिस्म में साफ-साफ सिर से पांव तक सिहरन दौड़ गयी ।
“कोट उठा ।”
उसने कोट उठाया और बिना विमल के कहे डरते हुए कोट उसे थमाया ।
“साहबान” - विमल बोला - “आपका दोस्त मेरे साथ जा रहा है । जिसको अपने दोस्त की जान प्यारी न हो, वो मेरे पीछे आये । जिसको खुद अपनी जान प्यारी न हो, वो मेरे पीछे आये ।”
कोई कुछ न बोला ।
“बजरंगलाल, तू भी समझा । शायद ये तेरी जुबान बेहतर समझते हों ।”
“कोई मेरे पीछे न आये ।” - बजरंगलाल जल्दी से बोला - “मैं अभी लौट के आता हूं ।”
दूसरा फिकरा कहते समय बजरंगलाल ने आशापूर्ण नेत्रों से विमल की ओर देखा ।
विेमल ने सहमति में सिर हिलाया ।
बजरंगलाल ने एक गहरी सांस ली ।
विमल बजरंगलाल को अपने आप चलाता हुआ दरवाजे से बाहर निकला ।
“दरवाजा खुला है ।” - वो दरवाजे के पास ठिठककर बोला - “कोई साहब पीछे आना चाहें तो मेरी तरफ से पूरी इजाजत है ।”
सब खामोश, स्थिर बैठे रहे ।
बजरंगलाल और विमल आगे-पीछे चलते हुए नीचे पहुंचे वहां सबसे पहले विमल ने भीतर का वो दरवाजा बाहर से बन्द किया जिसमें से होकर दुकान पर बैठा आदमी वहां प्रकट हुआ था फिर उसने कोट की जेब में से सारे नोट निकालकर अपने ओवर कोट की जेबों में भरे और कोट एक तरफ फेंक दिया ।
“तू कौन है भाई ?” - बजरंगलाल बड़े भयभीत स्वर में बोला ।
जवाब देने की जगह विमल ने जेब से वीर बहादुर की बाईस कैलीबर की साइलेंसर लगी रिवाल्वर निकाली ।
उस रिवाल्वर पर निगाह पड़ते ही बजरंगलाल के नेत्र फैले ।
“ये” - उसके मुंह से निकला - “ये रिवाल्वर...”
“पहचानता मालूम होता है ।” - विमल बोला ।
“वीर बहादुर ! वीर बहादुर ! वो... वो जिन्दा नहीं हो सकता ।”
“दुरूस्त ।”
“तू... तू वो आदमी तो नहीं...”
“जिसका कत्ल करने के लिये तूने वीर बहादुर को भेजा था ? ये रिवाल्वर देकर ? तूने ही दी होगी । तभी तू इसे पहचानता है । ठीक ?”
उसके मुंह से बोल न फूटा ।
“अबे, ठेकेदार के बच्चे, ये बता कि किसने दिया तुझे मेरे कत्ल का ठेका ?”
उसने जोर से थूक निगली ।
विमल ने रिवाल्वर को नाल से उसकी नाक ठकठकाई । वो पीड़ा से बिलबिलाया ।
“चुप रह सकता है ?” - विमल बोला - “मैं वीर बहादुर से तेरा नाम कुबुलवा सकता था तो तेरे से उस आदमी का नाम नहीं कुबुलवा सकता जिसने तुझे मेरा कत्ल करवाने का ठेका दिया ।”
“ठेका नहीं ।”
“तू ठेके पर कत्ल नहीं कराता ?”
“कराता हूं लेकिन ये ठेका नहीं था ये... ये काम मैंने दोस्ती में किया ।”
“किसकी दोस्ती में किया ? दोस्त का नाम बोल !”
“वो बगलें झांकने लगा ।”
“गुरबख्शलाल ?”
“नहीं, नहीं ।” - तत्काल वो बोला - “मेरा उससे कोई वास्ता नहीं ।”
“तो और कौन ?”
“वो मेरा दोस्त है ।”
“नाम बोल ।”
“मैं नहीं बोल सकता ।”
“क्यों ?”
“ये यारमारी होगी ।”
“मैं ऐसे जज्बात की कद्र करता हूं । फिर कलपता क्यों है ? खुशी-खुशी मर ।”
“मैं... मैं मरना नहीं चाहता ।”
“कौन मरना चाहता है ? मैं मरना चाहता हूं ? मैं नहीं मरना चाहता, इसीलिए तो जिन्दा हूं । मैंने अपनी जिन्दगी के लिये जुगाड़ किया । तू अपनी जिन्दगी के लिये जुगाड़ कर ।”
“क्या ?”
“गुरबख्शलाल के आदमी का, अपने यार का, नाम बोल ।”
“तू नहीं मानेगा ?”
“मैं तो माना ही पड़ा हूं । तेरे हलक में हाथ देकर तो मैं वो नाम निकलवा नहीं सकता । बड़ी हद तुझे शूट ही तो कर दूंगा । और उसकी तुझे क्या परवाह है ! यार के लिये जान दे देना तो बड़े सबाब का काम है । सीधा जन्नतनशीन होगा ।”
“यानी कि नहीं मानेगा ?”
“बच्चे न पढा । नाम बोल ।”
“ढक्कन ।”
“क्या बकता है ?”
“अनमोल कुमार । हर कोई उसे ढक्कन कहता है ।”
“वो क्यों मेरे खून का प्यासा है ?”
उसे फिर सांप सूंघ गया ।
“यहां साइलेंसर लगी रिवाल्वर की आवाज किसी को सुनाई नहीं देने वाली ।”
“बताता हूं । बताता हूं ।”
“मैं सुन रहा हूं ।”
“वो गुरबख्शलाल का आदमी है । गुरबख्शलाल ने खास उसी की फरमायश पर तेरे कत्ल का काम उसके सुपुर्द किया था लेकिन उसकी पेश नहीं चल सकी । कल रात पंडारा रोड पर तूने खाली हाथ उसके चार आदमी मार गिराये । इस बात से वो बहुत खौफजदा है । वो तुझे खत्म न कर पाया तो वो गुरबख्शलाल की नजरों से गिर जायेगा । मदद के लिये वो मेरे पास आया । वीर बहादुर पेशेवर कातिल है । मैंने उसे ये काम दिया लेकिन...”
“क्या लेकिन ?”
“वो... वो मर गया ?”
“खुद सोच ।”
“वो जिन्दा नहीं हो सकता । मैं पहले ही बोला ।”
“पता बोल ढक्कन का ।”
बजरंगलाल ने बोला ।
उसकी जुबान से निकले वो आखिरी शब्द थे ।
अनमोल कुमार उर्फ ढक्कन उसी रात जन्नतनशीन होने से सिर्फ इसलिये बच गया क्योंकि उस रात वो संतनगर में स्थित अपने घर पर नहीं था ।
मोनिका ने उस पर तरस खाकर उस रात उसे अपने साथ सुलाना मंजूर कर लिया था ।
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