पोर्टर मिडज वाले बंगले के एक भीतरी कमरे में प्रोफेसर जगत नारायण भटनागर को बड़ी सावधानी से लिटा दिया गया था । प्रोफेसर अभी तक अचेत थे ।
“जगतार ।” - सुनील ने पूछा - “तुम किसी ऐसे डाक्टर को जानते हो जिसका ऐसी स्थिति में भरोसा किया जा सके ?”
“मैं बुलाकर लाता हूं ।” - वह बोला और लम्बे डग भरता हुआ इमारत से बाहर निकल गया ।
सुनील ने दरवाजा बन्द कर लिया और वापिस प्रोफेसर के पास लौट आया । वह एक कुर्सी प्रोफेसर के पलंग के समीप घसीटकर उस पर बैठ गया और जगतार सिंह के लौटने की प्रतीक्षा करने लगा ।
पन्द्रह मिनट गुजर गये ।
एकाएक प्रोफेसर के मुंह से एक बड़ी कष्टदायक कराह निकली ।
सुनील फौरन कुर्सी से उठ खड़ा हुआ । वह प्रोफेसर के ऊपर झुक गया ।
प्रोफेसर के चेहरे पर भारी कष्ट के भाव उभर आये थे । उनके आंखें फड़फड़ा रही थीं और होंठ एकदम सूखे हुए थे ।
“पा... पानी ।” - प्रोफेसर के मुंह से क्षीणा सी आवाज निकली ।
सुनील लपककर पानी ले आया । एक चम्मच की सहायता से उसने प्रोफेसर के मुंह में पानी डालना आरम्भ कर दिया ।
थोड़ी देर पानी पीते रहने के बाद प्रोफेसर ने होंठ बन्द कर लिये । फिर बड़ी मेहनत से उन्होंने अपने नेत्र खोले और सुनील की ओर देखा । कुछ क्षण वे यूंही खाली-खाली आंखों से सुनील की दिशा में देखते रहे । फिर उन्होंने सुनील को और समीप आने का संकेत किया ।
सुनील उनके ऊपर झुक गया ।
“तुम तो हिन्दोस्तानी हो ।” - प्रोफेसर के होंठ हिले और बड़ी ही धीमी आवाज उनके होंठों से निकली ।
सुनील ने स्वीकृति सूचक ढंग से सिर हिलाया ।
“मैं कहां हूं ?”
“प्रोफेसर साहब अब आप चीनियों के चंगुल में नहीं हैं । अब आप मित्रों में हैं ।”
“तुम कौन हो ?”
“मेरा नाम सुनील है । मैं भारतीय सीक्रेट सर्विस की ब्रांच स्पैशल इन्टैलीजेंस का एजेन्ट हूं । आप ही की तलाश में यहां तक आया हूं ।”
प्रोफेसर की आंखों में सन्देह की छायी सी तैर गई ।
सुनील ने अपनी जेब से अपना पासपोर्ट और पिक्चर पोस्ट कार्ड निकाला और बोला - “आपका अपने ही नाम नैशनल रिसर्च लैबोरेट्री राजनगर में भेजा हुआ पिक्चर पोस्ट कार्ड मेरे पास है, यह देखिये । यह मेरा पासपोर्ट है.. इस पिक्चर पोस्ट कार्ड की वजह से ही मैं कल रायल न्यूक्लियर रिसर्च सैन्टर में गया था जहां मेरी मिस ओब्रायन से मुलाकात हुई थी । मिस ओब्रायन मुझे रात को आठ बजे फिर मिली थीं लेकिन मेरे से गलती हो गई थी । मैं उतना सावधान नहीं था जितना मुझे होना चाहिए था । शत्रु मेरे पीछे लगे रहे थे । उन्होंने मुझ पर आक्रमण कर दिया था । मैं बेहोश हो गया था और मिस ओब्रायन मुझे अपर बर्कले मिडज की छत्तीस नम्बर इमारत के बारे में बता चुकी थी जिसमें आप छुपे हुए थे । वही पता शत्रुओं ने मिस ओब्रायन को यातनायें देकर उससे जान लिया था । फिर उन्होंने मिस ओब्रायन की हत्या कर दी थी और आपको उस इमारत में से ले उड़े थे । फिर संयोगवश ही उनके एक आदमी का पीछा करने का अवसर मुझे मिल गया था और मैं न्यू गेट स्ट्रीट की बाइस नम्बर इमारत के बारे में जान गया था जहां मुझे बाद में मालूम हुआ था कि उन्होंने आपको छुपाया हुआ था । मैं अपने एक साथी की सहायता से वहीं से आपको निकालकर सीधा यहां ले आया हूं । अब आप एकदम सुरक्षित हैं । मैं भारतीय हाई कमीशन में जाकर हाई कमीशनर से बात करूंगा । वे लोग हमें भारत पहुंचाने का इन्तजाम कर देंगे ।”
प्रोफेसर के नेत्रों से सन्देह के भाव मिट गये ।
“तुम्हारा साथी कहां है ?” - उन्होंने पूछा ।
“वह डाक्टर को बुलाने गया है ।”
“डाक्टर ।” - प्रोफेसर बड़बड़ाये - “अब डाक्टर मेरा कोई भला नहीं कर सकेगा और न ही मैं अपनी मातृभूमि के दुबारा दर्शन करने के लिये जीवित रह सकूंगा ।”
“ऐसा मत कहिये प्रोफेसर साहब ।” - सुनील भारी स्वर में बोला - “आप ठीक हो जायेंगे ।”
“मैं वैज्ञानिक हूं, मैंने कभी ख्वाब नहीं देखे । मैं ठीक नहीं हो सकता । मैं केवल कुछ क्षणों का मेहमान हूं । इसलिए जो मैं कहता हूं, उसे गौर से सुनो । अपना कान मेरे मुंह के पास ले आओ ।”
सुनील ने बिना विरोध किये तत्काल आज्ञा का पालन किया ।
प्रोफेसर कुछ क्षण चुप रहे और जैसे वे अपनी बची खुची शक्तियों का संचय कर रहे हों और फिर पहले से भी अधिक क्षीण स्वर में बोला - “हाइड पार्क के बीच में एक बहुत बड़ा बरगद का पेड़ है । वह हाइड पार्क का सबसे पुराना पेड़ है । उससे अधिक पुराना बरगद का पेड़ दूसरा नहीं है वहां । यही उस पेड़ की पहचान है । उस पेड़ का तना भीतर से खोखला हो चुका है । उसके विशाल तने में कई बड़े गहरे-गहरे छेद हो गये हैं । उन्हीं । छेदों में से एक में एक हरे रंग की रेक्सीन में मजबूती से लिपटा हुआ पाकेट बुक के आकार का एक छोटा सा पैकेट है । उस पैकेट में पनडुब्बी के अविष्कार के नोट्स और एक सबसे महत्वपूर्ण ब्लू प्रिंट मौजूद हैं । बाकी के कागजात मैंने नष्ट कर दिये हैं क्योंकि मैं उन्हें सम्भाल पाने की स्थिति में नहीं था । तुम जैसे भी हो सके उस हरे पैकेट को वापिस भारत ले जाओ । उस पैकेट में मौजूद सामग्री में से कोई ऐसी बात रह नहीं गई है जिसके लिये मेरे नैशनल रिसर्च लैबोरेट्री के सहयोगियों को मेरे मार्ग निर्देशन की जरूरत पड़े । कर सकोगे यह काम ?”
“करना ही पड़ेगा । सकने का तो सवाल ही नहीं है ।” - सुनील बोला - “लेकिन प्रोफेसर साहब आप अविष्कार के कागजों सहित भारत से एकाएक गायब कैसे हो गये और क्यों हो गये ?”
“बेटा ।” - वृद्ध का खेदपूर्ण स्वर सुनील के कानों में पड़ा - “मेरा स्वार्थ प्रबल हो उठा था । मैं भावुकता में बह गया था । थोड़ी देर के लिये मैं यह भूल गया था कि अपने देश के हित के मुकाबले में मुझे अपनी बेटी के हित को महत्व नहीं देना चाहिये था ।”
“आपकी बेटी प्रीति ! वह तो आजकल स्विट्जरलैंड में है न ?”
“मेरी बेटी भगवान के घर पहुंच चुकी है बेटे । अपनी जान पर खेलकर उसने मुझे सबक दिया था कि उसके हित की खातिर मुझे अपने राष्ट्र से गद्दारी नहीं करनी चाहिये थी ।”
प्रोफेसर चुप हो गये ।
सुनील उनके दुबारा बोलने की प्रतीक्षा करने लगा ।
“बेटा ।” - प्रोफेसर कुछ क्षण बाद बोले - “शत्रुओं ने प्रीति को अपने अधिकार में कर लिया था । फिर उन्होंने मुझे कहा था कि अगर मैं पनडुब्बी के अविष्कार के सारे कागजातों सहित उनके एक प्रतिनिधि के साथ इंगलैंड नहीं चला आऊंगा तो वे प्रीति के साथ ऐसा अमानुषिक व्यवहार करेंगे कि उसकी और मेरी आत्मा त्राहि-त्राहि कर उठेगी । वे क्या कर सकते हैं, उसके प्रमाणस्वरूप उन्होंने मुझे एक तस्वीर दिखाई जिस में दो चीनी प्रीति को मजबूती से पकड़े हुए थे । प्रीति एकदम निर्वस्त्र थी और एक तीसरा चीनी प्रीति की छाती पर जलता हुआ सिगरेट लगा रहा था । बेटा, वह दृश्य मुझसे देखा नहीं गया । वह तो केवल एक नमूना था । प्रीति पर इस से अधिक भी पता नहीं क्या कुछ गुजर सकती थी । अपनी बेटी के हित की भावना मेरे हृदय में इतनी अधिक प्रबल हो उठी कि मैं चीनियों के प्रतिनिधि की बात मानने के लिये फौरन तैयार हो गया । मैंने पनडुब्बी के अविष्कार के सारे कागजात समेटे और स्वयं को उस चीनी के हवाले कर दिया । चीनी अन्धेरी रात में एक मोटरबोट की सहायता से मुझे समुद्र में बहुत दूर भारतीय सीमा से बाहर ले गये । वहां से हमें एक हैलीकाप्टर द्वारा पिक कर लिया गया । हैलीकाप्टर हमें एक ऐसे स्थान पर ले गया जहां से हम एक हवाई जहाज पर सवार हुए और लन्दन पहुंच गये ।”
“लेकिन आपका पासपोर्ट वगैरह...”
“उन्होंने सब इन्तजाम किया हुआ था । उन्होंने मुझे एक जाली पासपोर्ट दिया था जिस पर लन्दन एयरपोर्ट पर किसी ने सन्देह नहीं किया था ।”
“फिर ?”
“फिर वे मुझे एक बड़े सम्पन्न से लगने वाले चीनी के पास ले आया । वह चीनी मुझसे बड़े प्यार से मिला था । उसने मुझे अपना नाम वान-सी-वान बताया था और कहा था कि अगर मैं उन्हें सहयोग दूंगा तो वे न केवल मेरी बेटी को स्वतंत्र कर देंगे बल्कि वे हम दोनों के लिये संसार भर की सुख सुविधायें उपलब्ध कर देंगे । उसने मुझे आश्वासन दिया कि भारत सरकार के मुकाबले में मैं चीन सरकार से हर हाल में संतुष्ट रहूंगा । उत्तर में मैंने कहा कि मुझे चीन सरकार के लिये काम करना स्वीकार है लेकिन सबसे पहले मुझे मेरी बेटी से मिलने दिया जाये । चीनी उस समय तो मेरे कदमों पर बिछे जा रहे थे । वे मेरे लिये कुछ भी करने के लिये तैयार थे । मेरी वह मांग तो बेहद मामूली थी । उन्होंने फौरन प्रीति को मेरे सामने बुलाया । मैंने एकान्त की मांग की तो फौरन सब लोग कमरे से बाहर निकल गये । उस कमरे में मैं और मेरी बेटी अकेले रह गये ।”
प्रोफेसर एक क्षण रुके और फिर गहरी सांस लेकर बोले - “बेटा, मेरे जीवन की वह सबसे कठिन घड़ी थी । यह देखकर मेरा दिल डूबने लगा कि मेरी बेटी के चेहरे पर स्वतंत्रता हासिल हो जाने से कोई खुशी उत्पन्न नहीं हुई थी । उसके नेत्रों में मेरे प्रति एक भारी शिकायत का भाव था । उसके बिना बोले ही मुझे यूं लग रहा था जैसे वह मुझ से कह रही हो कि उसे मुझ से ऐसी उम्मीद नहीं थी । बेटा, मैं बयान नहीं कर सकता कि उस समय मैं अपनी बेटी के सामने कितनी भारी शर्मिन्दगी का सामना कर रहा था । तब मुझे पहली बार इस बात का पश्चाताप हुआ कि भावनाओं में बहकर मैं देश के साथ कितना बड़ा विश्वासघात करने जा रहा था ।”
सुनील मन्त्र मुग्ध-सा वृद्ध की बातें सुनता रहा ।
“फिर प्रीति बोली और शर्म से मेरा सिर झुक गया । उसने कहा कि उसे ऐसी आशा नहीं थी कि मैं अपनी बेटी की जिन्दगी को देश के हित से अधिक महत्व दूंगा । उसने कहा कि उसने कभी सोचा भी नहीं था कि उसके जीवन के बदले में शत्रु मुझे ब्लैकमेल करने में सफल हो जायेंगे । उसने कहा कि क्योंकि एक बेटी की मुहब्बत उसके बाप को गुमराह कर रही है इसलिये वह बेटी न रहे तो अच्छा है ताकि बाप भावनाओं के बन्धन से मुक्त होकर वह कर सके जो उसे बहुत पहले करना चाहिये था और फिर बेटे, उसने वह काम किया जिसके बारे में सोचते ही मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं । इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाता प्रीति ने उस कमरे की खिड़की से बाहर छलांग लगा दी । वह कमरा आठवीं मंजिल पर था । प्रीति मर गई, बेटा, और वह सदा-सदा के लिये भावना के वे बन्धन काट गई जिनकी वजह से मैं अपने देश के साथ गद्दारी करने के लिये तैयार हो गया था ।”
वृद्ध के राख जैसे सफेद गालों पर आंसुओं की दो बून्दें ढुलक गई ।
“बेटा ।” - वृद्ध फिर बोला - “उसी क्षण मैंने कसम खाई कि अगर चीनी मेरी बोटी-बोटी भी अलग कर दें तो मैं उनके लिये काम नहीं करूंगा । मैं अपने जीते जी पनडुब्बी का अविष्कार उनके हाथ में नहीं लगने दूंगा । पनडुब्बी के अविष्कार के कागजात उस समय भी मेरे पास मेरे ब्रीफकेस में थे । उसी क्षण मैंने अपनी बेटी की मौत को भुला दिया और अपने जीवन के सबसे अधिक महत्वपूर्ण काम में जुट गया । मैंने अविष्कार के सबसे अधिक महत्वपूर्ण कागजात अलग कर लिये और बाकियों को आग लगा दी । उसी कमरे में एक हरे रंग की रेक्सीन में लिपटा हुआ छोटा सा पैकेट पड़ा था । मैंने उस पैकेट को खोल लिया और उसके भीतर मौजूद किताब को रद्दी की टोकरी में फेंक दिया । फिर उस पैकेट में मैंने पनडुब्बी के अविष्कार के महत्वपूर्ण नोट्स और एक सबसे महत्वपूर्ण ब्लू प्रिंट बन्द कर दिया । पैकेट को मैंने मजबूती से फिर बन्द किया और उसे अपने कोट की भातरी जेब में रख लिया । उसके बाद मैंने जोर-जोर से रोते चिल्लाते दरवाजा पीटना आरम्भ कर दिया कि मेरी बेटी खिड़की से बाहर गिर गई है ।”
“फिर ?” - सुनील ने पूछा ।
“वान-सी-वान अपने साथियों के साथ कमरे में प्रविष्ट हुआ । उसने मुझसे यह नहीं पूछा कि प्रीति खिड़की से बाहर कैसे गिर गई लेकिन वह इतना मूर्ख नहीं था कि वह यह न समझ सकता कि कुछ देर पहले के प्रोफेसर भटनागर में और अब के प्रोफेसर भटनागर में कोई अन्तर आ गया था । वैसे भी प्रीति की मौत से उनका मुझ पर होल्ड तो समाप्त हो गया था । कहां तो पहले वान-सी-वान मक्खन की तरह पिघला जा रहा था और कहां, अब वह एकदम कठोर हो गया था । बिना एक शब्द भी बोले वह फौरन मेरे और अपने साथियों के साथ वहां से कूच कर गया क्योंकि वहां किसी भी क्षण पुलिस पहुंच सकती थी ।”
प्रोफेसर भटनागर चुप हो गये । थोड़ी देर बाद वे फिर बोले - “वान-सी-वान यह तो जानता था कि मैं पूरी तरह उसके अधिकार में हूं लेकिन उसने यह नहीं सोचा था कि मैं भी अपनी बेटी की तरह अपनी जान पर खेल सकता था । पहले मेरे दिमाग में यह बात आई थी कि मैं पनडुब्बी के अविष्कार के सारे कागजात नष्ट कर दूं और अपनी बेटी की तरह मैं भी आत्महत्या करके शत्रुओं के पंजे से निकल जाऊं । लेकिन उस समय तो मुझ पर जनून सवार था । मुझे अपनी जान की प्रवाह नहीं थी लेकिन मैं चाहता था कि किसी प्रकार मैं पनडब्बी के अविष्कार के कागजात वापिस अपने देश पहुंचाने में सफल हो जाऊं । मेरी निगाहों में वही मेरा प्रायश्चित था और वही मेरी बेटी की मौत का बदला । वान-सी-वान के चंगुल से मैं इसीलिये निकल पाया था क्योंकि उसकी निगाहों में मैं एक बेहद डरपोक वृद्ध था और अपनी जिन्दगी से भारी लगाव रखता था ।”
“आप कैसे बच निकले ?”
“मैं वान-सी-वान के साथ कार में सफर कर रहा था । गाड़ी शोफर चला रहा था । वान-सी-वान के हाथ में एक रिवाल्वर थी जो उसने मेरी पसलियों में सटाई हुई थी । तेज रफ्तार से भागती हुई गाड़ी से मैं बचकर तो भाग नहीं सकता था इसलिये वह मेरे प्रति उतना सावधान नहीं था जितना उसे होना चाहिये था । प्रत्यक्ष में लापरवाही दिखाता हुआ मैं चुपचाप बैठा हुआ था और किसी मुनासिब मौके की तलाश कर रहा था । फिर शीघ्र ही वैसा मौका मेरे हाथ लग गया । ...पानी ।”
सुनील ने जल्दी से पानी का गिलास उठाया और फिर चम्मच की सहायता से प्रोफेसर के मुंह में पानी टपकाने लगा ।
कुछ घूंट पानी हलक से उतर चुकने के बाद प्रोफेसर फिर बोले - “हाइड पार्क के समीप एक मोड़ पर कार एकाएक काफी धीमी हो गई । एक क्षण भी नष्ट किये बिना मैंने एक झटके से कार का दरवाजा खोला अपने और अपने शरीर को कार से बाहर सड़क पर फेंक दिया । वान-सी-वान की रिवाल्वर ने फायर किया लेकिन सौभाग्यवश गोली मुझे नहीं लगी । पीछे क्या हो गया है यह बात कार के ड्राइवर की जानकारी में तत्काल नहीं आ सकी इसीलिये गाड़ी थोड़ी आगे जाकर रुकी । तब तक मैं जमीन से उठ चुका था । मैं जान छोड़कर हाइड पार्क के भीतर की ओर भागा । वान-सी-वान, कार का ड्राइवर और ड्राइवर की बगल में बैठा हुआ एक अन्य चीनी मेरे पीछे भागे । हाइड पार्क के बरगद के उस पुराने पेड़ के समीप से गुजरते समय - जिसका मैंने अभी तुम से जिक्र किया है - मेरे मन में ख्याल आया कि क्यों न मैं हरे रग का पैकेट उस पेड़ के खोखले तने में छुपा दूं । इससे अगर मैं पकड़ा भी गया तो शत्रुओं के हाथ कुछ नहीं लग पायेगा और अगर मैं बच गया हो पैकेट वहां से निकाल ही लूंगा । पैकेट मैंने उस बरगद के पेड़ के खोखले तने में डाल दिया ।”
प्रोफेसर फिर चुप हो गया ।
सुनील सोच रहा था । जगतार सिंह डाक्टर के साथ अभी तक नहीं लोटा था ।
“मैं भागता रहा ।” - प्रोफेसर फिर बोले - “वे लोग मेरे पीछे लगे रहे । जान-बूझ कर मैं ऐसे रास्तों पर भाग रहा था जिन पर मोटर नहीं चल सकती थी । उस समय पता नहीं कौन सी अज्ञात शक्ति मेरी सहायता कर रही थी, कि अपने पीछे से चलाई जाने वाली कोई गोली मुझे नहीं लग पाई और मेरे पैरों में पता नहीं कहां से इतनी शक्ति आ गई थी कि मैं बिना थके शैतान की तरह सरपट भागा जा रहा था । और फिर एकाएक जैसे तकदीर ने थोड़ी देर के लिये मेरा साथ छोड़ दिया । वान-सी-वान की एक गोली मुझे लगी । गोली मेरी दाईं पसलियों में से गुजरती हुई शरीर के बाहर निकल गई । मैं मुंह के बल जमीन पर गिरा लेकिन फौरन ही उठकर भागा । उस इलाके में अपेक्षाकृत अन्धेरा था और मुझे भी लग रहा था कि मैं और अधिक नहीं भाग पाऊंगा । गोली के जख्म से खून बह रह था और मुझ पर बेहोशी सी छाये जा रही थी । मैं एक स्थान पर रुका । वहीं मुझे इमारत की पहली मंजिल की खिड़की खुली दिखाई दी और उस खिड़की की बगल में से एक पाइप गुजर रहा था । मैं किसी प्रकार हिम्मत करके उस पाइप के सहारे उस खिड़की तक पहुंचा और फिर खिड़की के रास्ते ही भीतर घुस गया । ऊपर पहुंचने तक मेरी शक्ति का तिल-तिल खर्च हो चुका था । कमरे में फर्स से कदम लगते ही मैं बेहोश हो कर धड़ाम से फर्श पर गिर गया ।”
प्रोफेसर एक क्षण रुका और फिर बोला - “वह घर मिस्टर केनिथ ओब्रायन का था । बेटे, अगर केनिथ ओब्रायन की बेटी केली का दिल मेरी दशा देखकर पसीजा न होता तो मैं तुम्हें अपनी दास्तान सुनाने के लिये जिन्दा मौजूद न होता । अगली रात केली मुझे अपने घर से निकालकर अपर बर्कले मिडज की छत्तीस नम्बर इमारत में ले गई । उस इमारत में मैं शत्रुओं से पूर्णतया सुरक्षित था लेकिन तुम्हारे से सम्पर्क स्थापित करने के चक्कर में वह बेचारी शत्रुओं की नृषंसता का सामना कहां कर सकती थी । उसे मेरा पता बताना ही पड़ा जिसका नतीजा यह निकला कि उसकी जान चली गई और मैं दुबारा वान-सी-वान और उसके दुर्दान्त साथियों के चंगुल में फंस गया । और फिर, बेटे, पूरी रात वे मुझे टार्चर करते रहे और मेरी जुबान खुलवाने की कोशिश करते रहे । जलती सिगरेटों से वे मेरे शरीर के एक एक इंच भाग को दागते रहे और पूछते रहे कि पनडुब्बी के अविष्कार के कागजों वाला हरे रंग की रेक्सीन में लिपटा हुआ वह पैकेट मैंने कहां छुपाया है लेकिन बेटा, मैंने भी अपनी बेटी की कसम खाई थी कि चाहे वे मुझे कयामत के दिन तक यातनायें क्यों न पहुंचाते रहें, मैं उन्हें नहीं बताऊंगा कि पनडुब्बी के अविष्कार के कागजात मैंने कहां छुपाये हैं । और मैंने नहीं बताया ।”
“उन्हें यह मालूम है कि पनडुब्बी के अविष्कार के कागजात हरे रंग की रेक्सीन में लिपटे हुए पैकेट में हैं ?” - सुनील ने तनिक आश्चर्यपूर्ण स्वर से पूछा ।
“उनके पूछने के ढंग से तो ऐसा ही मालूम होता था । हरे रंग की रेक्सीन वाले पैकेट में जो पहले किताब बन्द थी वह मैंने वहीं उस कमरे में रद्दी की टोकरी में फेंक दी थी । पनडुब्बी के अविष्कार के कागजात उन्हें मेरे ब्रीफकेस में नहीं मिले थे । और न ही उस कमरे में मिले थे । उन्होंने रेक्सीन के पैकेट वाली किताब को रद्दी की टोकरी में पड़ा देखा होगा और पैकेट गायब देखा होगा और फिर वे तत्काल समझ गये होंगे कि पनडुब्बी के अविष्कार के महत्वपूर्ण कागज उस पैकेट में बन्द कर लिये हैं और फिर पैकेट को कहीं छुपा दिया है या किसी को सौंप दिया है ।”
उसी क्षण काल बैल बज उठी ।
“डाक्टर, डाक्टर आया है ।” - सुनील बोला और उठ खड़ा हुआ ।
प्रोफेसर ने जवाब में बिना कुछ बोले नेत्र बन्द कर लिये ।
सुनील बाहर की र बढा ।
मुख्य द्वार के समीप आकर वह एक क्षण के लिये ठिठका ।
“कौन है ?” - उसने ऊंचे स्वर से हिन्दुस्तानी में पूछा ।
“भापे मैं हूं, सरदार जगतार सिंह अम्बरसरिया ।” - उत्तर में जगतार सिंह की आवाज सुनाई दी “जल्दी दरवाजा खोल । डाक्टर साहब आया ई ।”
सुनील ने फौरन दरवाजा खोल दिया ।
जगतार सिंह भीतर घुस आया । उसके साथ में एक लम्बा चौड़ा नीग्रो युवक था जिसके हाथ में डाक्टरों द्वारा प्रयुक्त होने वाला विजिटिंग बैग था ।
“डाक्टर फ्लेचर । मिस्टर चक्रवर्ती ।” - जगतार सिंह ने परिचय करवाया ।
डाक्टर ने बड़ी गम्भीरता से सुनील से हाथ मिलाया ।
सुनील ने दरवाजा भीतर से बन्द कर दिया । तीनों उस बैडरूम में पहुंचे जिसमें प्रोफेसर भटनागर पड़े थे ।
जगतार सिंह ने नीग्रो डाक्टर की ओर देखा और फिर पलंग पर पड़े प्रोफेसर भटनागर की ओर संकेत कर दिया ।
डाक्टर फौरन अपने काम में जुट गया । उसने बैग में से स्टेथस्कोप निकाला और प्रोफेसर का मुआयना करने लगा ।
प्रोफेसर ने न नेत्र खोले और न ही उनके शरीर में हल्की सी हरकत हुई ।
डाक्टर ने मशीन की सी तेजी से प्रोफेसर को एक इंजेक्शन दिया और फिर जगतार सिंह की ओर देखता हुआ गम्भीर स्वर में बोला - “इन्हें फौरन हस्पताल में ले जाना पड़ेगा ।”
“लेकिन डाक्टर ।” - सुनील ने प्रतिवाद करना चाहा - “हालत...”
“देखिये साहब ।” - डाक्टर सुनील की बात काट कर निर्णयात्मक स्वर में बोला - “अगर आप मरीज की जिन्दगी चाहते हैं तो बिना एक भी क्षण नष्ट किये तत्काल इन्हें हस्पताल पहुंचाने का इन्तजाम कीजिये । अगर इन्हें फौरन हस्पताल में ले जाकर आक्सीजन के टैंट में बन्द न किया गया तो ये आधे घन्टे से अधिक नहीं जी सकेंगे ।”
सुनील सोचने लगा ।
“और भगवान के लिये जल्दी निर्णय कीजिये । एक क्षण की भी देर मरीज के लिये घातक सिद्ध हो सकती है ।”
“जगतार सिंह ।” - सुनील बोला - “तुम मरीज को ले जाओ ।”
“और तुम ?” - जगतार सिंह बोला ।
“मैं भी थोड़ी देर में तुम्हारे पीछे आता हूं ।”
“लेकिन तुम साथ क्यों नहीं चलते ?”
“मुझे फौरन एक बहुत जरूरी काम करने जाना है ।”
“वह काम इस बूढे आदमी की जिन्दगी से ज्यादा जरूरी है ?”
“हां ।” - सुनील कठोर स्वर में बोला ।
जगतार सिंह फिर नहीं बोला । उसने प्रोफेसर को फिर चादर में लपेटा और उसे सावधानी से अपनी मजबूत बांहों में उठा लिया । फिर उसने डाक्टर को संकेत किया । दोनों बाहर की ओर चल दिये ।
“तुम इन्हें कौन से हस्पताल में ले जाओगे ?” - सुनील ने पूछा ।
उत्तर डाक्टर ने दिया - “बांड स्ट्रीट में मेरा अपना नर्सिंग होम है ।”
सुनील चुप रहा ।
तीनों बाहर निकल आये ।
जगतार सिंह ने प्रोफेसर को फोर्ड की पिछली सीट पर डाक्टर के संरक्षण में लिटा दिया और स्वयं आगे ड्राइविंग सीट पर जा बैठा ।
अगले ही क्षण गाड़ी कोलतार की चिकनी सड़क पर दौड़ गई और फिर मोड़ काट का दृष्टि से ओझल हो गई ।
सुनील वापिस बंगले में लौटा ।
उसने बंगले के मुख्य द्वार को ताला लगाया, चाबी जेब के हवाले की और फिर सड़क पर आ गया ।
तत्काल ही उसे एक टैक्सी मिल गई ।
“हाइड पार्क ।” - उसने टैक्सी वाले को बताया ।
टैक्सी भागे बढ गई ।
सुनील के नेत्रों के सामने हरे रंग की रेक्सीन में लिपटा हुआ वह पैकेट घूम रहा था जिसमें पनडुब्बी के अविष्कार के कागजात बन्द थे और जो प्रोफेसर भटनागर के कथनानुसार हाइड पार्क के सबसे पुराने बरगद के पेड़ के खोखले तने में उपेक्षित-सा पड़ा था ।
हाइड पार्क के सामने वह टैक्सी से उतरा । टैक्सी का बिल चुकाकर वह पार्क में प्रविष्ट हो गया और बरगद के सबसे पुराने पेड़ की तलाश करने लगा ।
लगभग दस मिनट बाद उसे एक विशाल बरगद का पेड़ दिखाई दिया । सुनील को उस पेड़ के प्रोफेसर भटनागर द्वारा बताया पेड़ होने की सम्भावना दिखाई दी । उस पेड़ की वृद्ध की दाढी जैसी सूखी डालियां जमीन तक लटक रही थीं । पेड़ का तना बेहद विशाल था और उसमें पेड़ के खोखले भाग तक पहुंचे हुए कई छेद दिखाई दे रहे थे ।
पेड़ के सामने एक चबूतरा था जिस पर एक बूढा अंग्रेज खड़ा था और पूरी शान्ति से अपने हाथ झटकता हुआ बड़े आवेशपूर्ण स्वर में भाषण दे रहा था । उसके चारों ओर गम्भीरता से भाषण सुनने वालों की और केवल मनोरंजन के लिये खड़े तमाशाइयों की भीड़ लगी हुई थी ।
सुनील भीड़ में से रास्ता बनाता हुआ पेड़ के तने तक पहुंचा । तने में कुछ छेद इतने बड़े थे कि उनमें बड़ी आसानी से भीतर तक झांका जा सकता था । सुनील ने बारी-बारी उन छेदों में झांकना आरम्भ कर दिया ।
किसी में कुछ नहीं था ।
कुछ छेद में उसने भीतर हाथ डाल-डाल कर देखे ।
किसी में कुछ नहीं था ।
कहीं वह किसी गलत बरगद के पेड़ में तो हरे रंग का पैकेट तलाश नहीं कर रहा था ।
सुनील ने सावधानी से दुबारा तने के पूरे दायरे का मुआयना करना आरम्भ कर दिया ।
एक ओर सुनील को तने से लगभग छः फुट ऊंचा एक और छेद दिखाई दिखाई दिया । उस छेद में जमीन पर खड़े-खड़े झांक पाना सम्भव नहीं था । तने के पास ही एक बड़ा सा पत्थर पड़ा था । सुनील उसे लुढका कर पेड़ के उस छेद के नीचे ले आया । फिर वह पत्थर के ऊपर चढ गया । छेद के भीतर तो वह अब भी नहीं झांक पाया लेकिन अब वह अपनी बांह को काफी आगे तक छेद में घुमाने में सफल हो गया ।
छेद के भीतर सुनील का हाथ किसी चीज से टकराया । सुनील ने उसे उंगलियों से टटोला और फिर उसका दिल तेजी से धड़कने लगा ।
उसने चुपचाप छेद में से अपना खाली हाथ बाहर खींच लिया और सावधानी से अपने चारों ओर झांका ।
बूढे अंग्रेज का भाषण सुनने के लिये जमा भीड़ में से किसी का भी ध्यान सुनील की ओर नहीं था ।
सुनील ने चुपचाप फिर अपनी बांह पेड़ के तने में डाल दी । इस बार उसने छेद में मौजूद चीज को अपनी उंगलियों में थाम लिया और फिर सावधानी से अपना हाथ बाहर खींच लिया ।
वह निश्चय ही हरे रंग की रेक्सीन में मजबूती से लिपटा हुआ वही छोटा सा पैकेट था जिसका जिक्र प्रोफेसर भटनागर ने किया था ।
सुनील का दिल एक अज्ञात प्रसन्नता से भर उठा ।
फिर एकाएक उसकी दृष्टि भाषण करते हुए वृद्ध अंग्रेज के सामने फैली भीड़ के पीछे सिरे पर पड़ी और उसे यूं लगा जैसे उसके दिल का धड़कन बन्द हो जाने वाली हो ।
लोगों की भीड़ के आखिरी सिरे पर उसे सिल्क के सफेद हैट वाले चैंग का क्रूर चेहरा दिखाई दिया ।
केवल एक क्षण के लिये दोनों की निगाहों एक दूसरे से टकराई । सुनील को लगा जैसे चैंग की दृष्टि उसके चेहरे से फिसलकर उसके हाथ में थमें हरे रंग के पैकेट पर पड़ी हो । सुनील ने जल्दी से पैकेट अपने कोट की भीतरी जेब में रख लिया । उसने अपने स्थान से हटने का उपक्रम नहीं किया । वह सतर्क नेत्रों से चैंग की दिशा में देखता रहा ।
एक बार फिर चैंग की निगाहों सुनील की निगाहों से टकराई और फिर चैंग जबरदस्ती भीड़ में से रास्ता बनाता हुआ सुनील की ओर बढने लगा ।
उसी क्षण भाषण करता हुआ वृद्ध अंग्रेज एकाएक चुप हो गया और फिर फौरन प्लेटफार्म से नीचे उतर आया । उसका यह ऐक्शन शायद उसके भाषण की समाप्ति का द्योतक था । उसके आस-पास जमा भीड़ भी वहां से हटने लगी ।
सुनील भी जल्दी से भीड़ में शामिल हो गया और फिर चैंग से विपरीत दिशा में भीड़ के साथ-साथ चलने लगा ।
चैंग भीड़ में से रास्ता बनाने का भरसक प्रयास करता हुआ उसके समीप पहुंचने का प्रयत्न कर रहा था लेकिन भीड़ इतनी ज्यादा थी और रास्ता इतना तंग था कि वह अपने प्रयत्नों में सफल नहीं हो पा रहा था ।
सुनील इस विषय में पूरी तरह सतर्क था कि लोगों की भीड़ में से रास्ता बनाकर चैंग उस तक न पहुंच पाये आगे बढ रहा था ।
भीड़ में से कई लोग दायें बायें अन्य रास्तों पर मुड़ते जा रहे थे जिसकी वजह से भीड़ घटती जा रही थी ।
चैंग सुनील के समीप होता जा रहा था ।
सुनील ने एक बार घूम कर अपनी ओर बढते हुए चैंग की ओर देखा और फिर एकाएक वह भीड़ में अपने से आगे मौजूद लोगों को जबरदस्ती धकेलता हुआ भीड़ से बाहर निकल आया और पूरी शक्ति से पार्क से बाहर की ओर ले जाने वाले गेट की ओर भागा ।
चैंग ने भी उसके इस ऐक्शन का अनुसरण किया ।
जब तक सुनील गेट के समीप पहुंचा तब तक चैंग भी भीड़ से बाहर निकल आया था और जान छोड़कर सुनील के पीछे भाग रहा था ।
सुनील पार्क से बाहर निकल आया ।
सामने ही बस स्टैन्ड था जहां पर उस समय एक बस चलने के लिये तैयार खड़ी थी । सुनील ने लपक कर सड़क पार की और उस बस में सवार हो गया ।
उसने घूम पर पार्क के गेट की ओर देखा ।
चैंग पार्क में से बाहर निकल आया था और उसने सुनील को बस में सवार होते देख लिया था ।
बस चल पड़ी ।
चैंग अन्धाधुन्ध बस की ओर भागा । बीच सड़क पर एक ओर से तेजी से आती हुई कार के ड्राइवर ने पूरी शक्ति से कार को ब्रेक लगाई । ब्रेकों की चरचराहटों से वातावरण गूंज उठा । चैंग कार के नीचे आता-आता बचा । लेकिन उसने एक बार भी घूमकर पीछे नहीं देखा । वह स्पीड़ पकड़ चुकी बस के पीछे भागा और फिर भगवान जाने कैसे उस पर सवार होने में सफल हो गया ।
तब तक सुनील एकदम बस के अगले द्वार तक पहुंच चुका था । चैंग बस के पिछले द्वार पर खड़ा अपनी उखड़ी हुई सासों को व्यवस्थित करने का प्रयत्न कर रहा था । बस की सीटों के बीच के गलियारे में दोनों के बीच पन्द्रह बीस आदमी खड़े थे । फिर चैंग लोगों की भीड़ में से रास्ता बनाता हुआ उसकी ओर बढा ।
सुनील उसके प्रति पूर्णतया सतर्क था ।
एक बार दोनों की निगाहें मिली । सुनील उसकी ओर देख कर शरारत भरे ढंग से मुस्कराया और फिर उसने अपनी बाईं आंख दबा दी ।
चैंग के चेहरे पर क्रोध के भाव परिलक्षित हो उठे । वह और तेजी से उसके समीप आने का प्रयत्न करने लगा ।
उसी क्षण बस एक चौराहे की रैड लाइट पर आकर रुक गई ।
सुनील बिना चैंग की ओर देखे बस से नीचे उतर गया ।
उसी क्षण चौराहे पर ट्रेफिक लाइट हरी हो गई ।
चैंग चलती बस में से कूदा और एक बार फिर एक कार से टकराता-टकराता बचा ।
चैंग के कार से नीचे उतरते ही सुनील झपटकर बस के पिछले दरवाजे से फिर बस में चढ गया । तब तक इस आशा में कि सुनील भी वहीं आयेगा, चैंग सड़क से हट कर फुटपाथ पर पहुंच चुका था । सुनील को दुबारा बस में चढता देखकर चैंग बुरी तरह बौखला गया लेकिन अब दुबारा उस बस में चढ पाना असम्भव था ।
सुनील ने छुटकारे की गहरी सांस ली ।
लेकिन शायद भाग्य चैंग का ही साथ दे रहा था । चौराहे पर ही उसे एक खाली टैक्सी मिल गई । वह झपटकर टैक्सी में सवार हो गया । टैक्सी चौराहे की बत्ती दुबारा लाल होने से पहले ही चौराहा पार कर गई ।
चैंग टैक्सी में बस का पीछा करने लगा ।
बड़े-बड़े शीशों की खिड़कियों वाली बस में से उसे सुनील साफ दिखाई दे रहा था ।
“टिकट ।” - कन्डक्टर सुनील के समीप आकर बोला ।
“यह बस पोर्टर मिडज के आस-पास कहीं जायेगी ?” - सुनील ने पूछा ।
“पोर्टर मिडज ही जायेगी ।” - कन्डक्टर ने उत्तर दिया ।
सुनील ने पोर्टर मिडज का टिकट ले लिया ।
टैक्सी में बैठा चैंग पूर्ववत् उस पर अपनी दृष्टि जमाये हुए था ।
पोर्टर मिडज पर सुनील जल्दी से बस में से उतरा और पूरी शक्ति से जगतार सिंह के बंगले की ओर भागा ।
सुनील यह देखकर हैरान हो गया कि चैंग की टैक्सी मुख्य सड़क पर ही रुक गई । टैक्सी उस गली में नहीं घूमी जिसमें जगतार सिंह का बंगला था ।
बंगले के समीप पहुंचकर सुनील ठिठका । उसने घूमकर मुख्य सड़क की दिशा में देखा ।
चैंग की टैक्सी रवाना हो चुकी थी और चैंग गली के मुंह पर खड़ा कमर पर हाथ रखे उसकी दिशा में देख रहा था । उसने सुनील के पीछे आने का उपक्रम नहीं किया था ।
मन ही मन हैरान होता हुआ सुनील मुख्य द्वार खोल कर भीतर प्रविष्ट हो गया ।
हाल में वह एकाएक ठिठका ।
सामने के छोटे कमरे के बन्द दरवाजे के नीचे उसे रोशनी की एक लकीर सी दिखाई दी जबकि सुनील को पूरी तरह याद था कि जाती बार वह रोशनी बन्द करके गया था ।
चैंग का यूं उसका पीछा छोड़ देना उसे अभी तक खड़क रहा था ।
एकाएक किसी अज्ञात भावना से प्रेरित होकर उसने अपनी जेब से हरे रंग का पैकेट निकाला, और उसे हाल के एक कोने में लकड़ी के लगभग पांच फुट ऊंचे स्टैन्ड पर रखे पीतल के चौड़े मुंह के फूलदान में डाल दिया ।
अभी वह फूलदान के पास से हटा ही था कि उस छोटे कमरे का द्वार खुला और उसे चपटी नाक वाले के दर्शन हुए । उसके हाथ में एक साइलेन्सर लगी रिवाल्वर थी जिसका रुख सुनील की ओर था ।
सुनील ठिठक गया ।
चपटी नाक वाले के होठों पर एक क्रूर मुस्कराहट फैली हुई थी । उसने रिवाल्वर की नाल को झटका देकर सुनील को समीप आने का संकेत किया ।
सुनील ने अपने हाथ अपने सिर से ऊपर उठा लिये और उसकी ओर बढा ।
***
भीतर के कमरे में बढी शान से एक कुर्सी पर काले रंग का सूट पहने हुए लगभग पचास वर्ष का एक चीनी बैठा हुआ था ।
उसके पीछे भद्दे चेहरे वाला वह पतला सा आदमी खड़ा था जिसे न्यू गेट स्ट्रीट की बाइस नम्बर इमारत में चपटी नाक वाले ने ली के नाम से पुकारा था । ली के हाथ में भी रिवाल्वर थी जिसका रुख सुनील की ओर था ।
काले सूट वाला कुछ क्षण स्थिर नेत्रों से सुनील को देखता रहा, फिर उसके होठों पर एक रहस्यपूर्ण मुस्कराहट फैली और फिर वह मीठे स्वर में अंग्रेजी में बोला - “तशरीफ रखिये ।”
सुनील उसके सामने एक कुर्सी पर बैठ गया । चपटी नाक वाला रिवाल्वर लिये सुनील के सिर पर खड़ा रहा ।
“मेरा नाम वान-सी-वान है ।” - काले सूट वाला बोला ।
“बन्दे को सुनील कहते हैं ।” - सुनील सहज स्वर में बोला ।
“मुझे मालूम है ।”
“आपको कैसे मालूम है ?”
“आपके पासपोर्ट पर आपका यही नाम लिखा था । हवाई अड्डे पर जिस कस्टम आफिसर ने आपका पासपोर्ट चैक किया था, संयोगवश वह मेरा ही आदमी था ।”
“लेकिन आप लोग मुझे पहले से कैसे जानते हैं ?”
“हम आपको पहले से नहीं जानते ?”
“तो फिर मेरे हवाई अड्डे पर उतरते ही मेरा पीछा कैसे किया जाने लगा था ।”
“ओह ! वह ! दरअसल मिस्टर सुनील जब से प्रोफेसर भटनागर हमारे हाथों से निकल भागे हैं, तभी से हम लन्दन में प्रविष्ट होने वाले हर भारतीय पर नजर रखते रहे हैं । विशेष रूप से उन पर जो सीधे भारत से लन्दन आये हों । क्योंकि हमें इस बात की काफी सम्भावना दिखाई दे रही थी कि प्रोफेसर भटनागर हमारी तमाम सावधानियों के बावजूद किसी प्रकार भारत से सम्पर्क स्थापित करने में सफल हो जायेंगे और फिर भारत से कोई न कोई आदमी उनकी सहायता के लिये जरूर आयेगा । इसलिये हम लन्दन में प्रविष्ट होने वाले हर भारतीय को चैक करवा रहे थे ।”
“बड़ा तगड़ा इन्तजाम है ।”
“जी हां ।”
“लेकिन ऐसे इन्तजाम के लिये तो बहुत आदियों की जरूरत पड़ती है ।”
“मेरे पास बहुत आदमी हैं । लन्दन के कोने-कोने में मेरे आदमी छाये हुए हैं । यहां कोई सरकारी या गैर सरकारी महकमा ऐसा नहीं है जहां मेरे लिये काम करने वाले आदमी मौजूद हैं ।”
“कमाल है । इतनी बड़ी आर्गेनाइजेशन...”
“मिस्टर सुनील ।” - वान-सी-वान उसकी बात काट कर बोला - “मुझे डर है कि हम अपने मुख्य विषय से भटके जा रहे हैं । मैं यहां पर आपको अपनी आर्गेनाइजेशन की शक्ति का अन्दाजा देने नहीं आया हूं ।”
“तो फिर किसलिये आये हैं ?”
“आपके पास हरे रंग की रेक्सीन में लिपटा हुआ एक छोटा सा पैकेट है जो आप अभी इसी समय मुझे देंगे ।”
“पैकेट !” - सुनील आश्चर्य प्रकट करता हुआ बोला - “कैसा पैकेट ! मेरे पास कोई हरे रंग का पैकेट नहीं है ।”
“अनजान बनने की कोशिश मत कीजिये, मिस्टर सुनील ।” - वान-सी-वान पूर्ववत मधुर स्वर में बोला “प्रोफेसर भटनागर के पास एक हरे रंग का पैकेट था जो उसने कहीं छुपा दिया था । प्रोफेसर ने आपको जरूर बताया है कि उसने वह पैकेट कहां छुपाया हुआ था ।”
“प्रोफेसर ने मुझे कुछ नहीं बताया ।”
“झूठ मत बोलिये । अगर प्रोफेसर ने आपको पैकेट के बारे में न बताया होता तो आप भी प्रोफेसर के साथ ही हस्पताल गये होते । इसकी विपरीत आपने प्रोफेसर को अपने सिख मित्र को उसके साथ भेज दिया । प्रोफेसर जैसे महत्वपूर्ण आदमी को आपने अपनी दृष्टि से ओझल होने दिया, इसका एक ही मतलब हो सकता है कि प्रोफेसर ने आपको बताया था कि उसने हरे रंग का पैकेट कहां छुपाया हुआ है । इसीलिये आप प्रोफेसर को छोड़कर फौरन पैकेट लेने रवाना हो गये थे ।”
सुनील चुप रहा । वान-सी-वान समझदार आदमी था ।
“आप पैकेट देते हैं ?” - वान-सी-वान बोला ।
“मेरे पास कोई पैकेट नहीं है ।”
“मिस्टर सुनील, मेरे ख्याल से आप अपनी स्थिति को ठीक से समझ नहीं रहे हैं । आदमी का साहसी होना एक अच्छी बात है लेकिन साहस के प्रदर्शन का भी एक उचित समय होता है । वर्तमान स्थिति में आप एकदम बेबस हैं । जो चीज मैं आपसे इतनी शराफत से मांग रहा हूं, वह आपसे मैं जबरदस्ती भी जान सकता हूं ।”
“तो फिर जबरदस्ती कर देखिये ।” - सुनील लापरवाही से बोला ।
“आप मुझे मजबूर कर रहे हैं ।” - वान-सी-वान पूर्ववत मीठे स्वर में बोला - “मैं नहीं चाहता कि आप जैसे शरीफ आदमी के साथ मुझे तीसरे दर्जे के लोगों की तरह पेश आना पड़े ।”
“लेकिन भाई साहब, मेरे पास कोई हरा पैकेट नहीं है और मैं सच कह रहा हूं ।”
“आपने उसे कहीं छुपाया है ?”
“नहीं ।”
“प्रोफेसर ने वह पैकेट कहां छुपाया हुआ था ?”
“प्रोफेसर ने मुझे ऐसी कोई बात नहीं बताई और मुझे किसी पैकेट की जानकारी नहीं है ।”
वान-सी-वान कुछ क्षण उसे घूरता रहा और फिर धीरे से बोला - “क्या आप यह पसन्द करेंगे कि आपकी जुबान आपको यातनायें देकर खुलवाई जाये ।”
सुनील के होठों पर मुस्कराहट दौड़ गई, वह बोला - “जब आप प्रोफेसर जैसे बूढे और कमजोर आदमी की जुबान यातनायें देकर नहीं खुलवा सके तो इस तरीके से मेरी जुबान तो आप क्या खुलवा पायेंगे ।”
“प्रोफेसर को अपनी जुबान खोलनी पड़ती । वहां तो केवल वक्त की बात थी । और फिर प्रोफेसर बूढा और कमजोर था इसलिये यातना के मामले में भी हमें उसके साथ नर्मी से पेश आना पड़ा था, ताकि वह मर न जाये । लेकिन आपके मामले में हमें इस प्रकार का कोई तकल्लुफ नहीं बरतना पड़ेगा । वैसे भी प्रोफेसर के मुकाबले में आप पर यातनाओं के भीषण तरीके प्रयुक्त किये जायेंगे ।”
सुनील चुप रहा ।”
“यह आपका आखिरी फैसला है कि आप सीधे से पैकेट नहीं देंगे ?”
“मेरे पास कोई पैकेट नहीं है ।”
“आल राइट ।” - वान-सी-वान निर्णयात्मक स्वर में बोला - “अब मैं...”
उसी क्षण कमरे का द्वार खोलकर चैंग भीतर प्रविष्ट हुआ । वह सुनील की ओर देखकर क्रूरता से मुस्कराया और फिर वान-सी-वान के समीप जाकर खड़ा हो गया ।
वान-सी-वान ने प्रश्नसूचक नेत्रों से उसकी ओर देखा ।
“यहां से यह सीधे हाइड पार्क गया था ।” - चैंग बोला - “वहां एक बरगद के पेड़ के खोखले तने में से इसने एक हरे रंग का पैकेट निकालकर अपने कोट की भीतरी जेब में रखा था ।”
वान-सी-वान के नेत्र चमक उठे ।
सुनील दूसरी ओर देखने लगा ।
“उस क्षण से तुमने बराबर इसका पीछा किया था ?” - वान-सी-वान बोला ।
“जी हां ।” - चैंग बोला ।
“और यहां पहुंचने तक कभी भी यह तुम्हारी दृष्टि से ओझल नहीं हुआ था ?”
“एक क्षण के लिये भी नहीं ।” - चैंग विश्वासपूर्ण स्वर में बोला ।
वान-सी-वान सुनील की ओर घूमा और बोला - “पैकेट निकालिये ।”
“मेरे पास नहीं है ।” - सुनील स्थिर स्वर में बोला ।
“साहब की तलाशी लो ।” - वान-सी-वान ने आदेश दिया ।
चपटी नाक वाले ने तत्काल रिवाल्वर सुनील की कनपटी से सटा दी । चैंग आगे बढ़ा । उसने बड़ी बारीकी से सुनील के कपड़ों और शरीर का एक-एक भाग टटोलना आरम्भ कर दिया ।
पांच मिनट के बाद वह सुनील से अलग हो गया और बोला - “इसके पास पैकेट नहीं है ।”
एकाएक वान-सी-वान क्रोधित हो उठा । वह अपने स्थान से उठा और सुनील के सामने आ खड़ा हुआ ।
“बहुत मजाक हो चुका मिस्टर ।” - वान-सी-वान कठोर स्वर में बोला - “तुम्हारी जानकारी के लिये प्रोफेसर भटनागर मर चुका है और तुम्हारा वह सिख दोस्त और नीग्रो डाक्टर दोनों इस समय मेरी कैद में हैं । मेरे आदमियों ने उन्हें हस्पताल के रास्ते में ही रोक लिया था । दुर्भाग्यवश प्रोफेसर भटनागर की कार में ही मृत्यु हो गई थी । मिस्टर, तुम्हारी जिद की वजह से दो निर्दोष आदमिओं की जान चली जायेगी । मैं तुम्हें एक मिनट का समय देता हूं । वह पैकेट मुझे दे दो और मैं उन दोनों को छोड़ दूंगा और अगर तुमने इस बार इनकार किया तो मैं दोनों को गोली से उड़वा दूंगा । जल्दी फैसला करो ।”
सुनील सोचने लगा ।
वान-सी-वान ने कलाई पर बन्धी घड़ी पर दृष्टि जमा ली और सुनील के बोलने की प्रतीक्षा करने लगा ।
“इस बात का क्या सबूत है कि प्रोफेसर भटनागर सचमुच मर गये हैं और मेरे सिख दोस्त और नीग्रो डाक्टर को तुमने पहले ही नहीं मार डाला है ?”
वान-सी-वान के चेहरे पर एक विषैली मुस्कराहट दौड़ गई ।
“मतलब यह ।” - वह बोला “कि तुम स्वीकार करते हो कि पैकेट तुम्हारे पास है ?”
सुनील चुप रहा ।
“मैं तुम्हें तुम्हारे मित्रों के पास ले चलता हूं ।” - वान-सी-वान बोला - “वहां तुम खुद उनसे पूछ लेना कि प्रोफेसर मर गया है या नहीं । ओके ?”
सुनील ने स्वीकृतिसूचक ढंग से सिर हिलाया ।
“चलो ।” - वान-सी-वान ने आदेश दिया ।
सुनील उठ खड़ा हुआ । चपटी नाक वाले ने रिवाल्वर उसकी पीठ से सटा दी । सब कमरे से बाहर निकलकर हाल में आ गये ।
एकाएक मुख्य द्वार की ओर बढता हुआ वान-सी-वान हाल के बीच में ठिठक गया ।
सुनील का दिल बड़ी जोर से धड़कने लगा ।
“चैंग ।” - वान-सी-वान बोला - “याद करके बताओ । हाइड पार्क में पैकेट जेब में रखने के बाद क्या एक क्षण के लिये भी सुनील तुम्हारी दृष्टि से ओझल नहीं हुआ था ?”
“नहीं ।” - चैंग दृढ स्वर में बोला ।
“तो फिर पैकेट इस हाल में कहीं होना चाहिये ।” - वान-सी-वान निर्णायात्मक स्वर में बोला - “हम लोग भीतर के कमरे में थे । बंगले में प्रविष्ट होने के बाद सुनील लगभग एक मिनट इस हाल में अकेला रहा था । इसने जरूर पैकेट को इस हाल में कहीं छुपाया है ।”
सुनील का दिल डूबने लगा ।
“दरअसल ।” - सुनील प्रत्यक्षतः लापरवाही का प्रदर्शन करता हुआ बोला - “हाइड पार्क से मैं जिस बस में सवार हुआ था उसमें मुझे अपना एक पुराना मित्र मिल गया था । वह पैकेट मैंने अपने उस मित्र को सौंप दिया था ।”
वान-सी-वान की तीव्र दृष्टि चैंग पर पड़ी ।
“क्या यह सम्भव है ?” - उसने पूछा ।
चैंग एक क्षण हिचकिचाया और फिर स्वीकारात्मक ढंग से सिर हिलाता हुआ बोला - “सम्भव है । मैं एक टैक्सी से सुनील की बस का पीछा कर रहा था । टैक्सी में से मुझे बस में खड़े सुनील के शरीर का कन्धों से ऊपर का भाग ही दिखाई दे रहा था । मैं उसके हाथ नहीं देख सकता था । सम्भव है उसने वह पैकेट किसी को दे दिया हो ।”
वान-सी-वान सोचने लगा ।
“मुझे विश्वास नहीं होता ।” - अन्त में वह सन्दिग्ध स्वर में बोला - “कि इतना महत्वपूर्ण पैकेट इस आदमी ने बस में यूं ही किसी दूसर आदमी को सौंप दिया हो । पैकेट के हाल में होने की मुझे ज्यादा सम्भावना दिखाई देती है । तुम लोग तलाशी लो ।”
सुनील निराश हो उठा ।
पैकेट का वान-सी-वान के हाथ में जाना निश्चित हो गया था ।
चपटी नाक वाला रिवाल्वर लिये सुनील के सिर पर खड़ा रहा । ली और चैंग बड़ी बेरहमी से हाल की तलाशी लेने लगे ।
चैंग वड़ी तरतीब से हल चीज की तलाशी लेता हुआ उस कोने की ओर बढ रहा था जिसमें लकड़ी के स्टैन्ड पर पीतल का फूलदान रखा था ।
वान-सी-वान की बैचेन निगाहें हाल में तालाशी लेते हुए अपने आदमियों का अनुसरण कर रही थीं ।
सुनील ने एक गुप्त दृष्टि चपटी नाक वाले पर डाली चपटी नाक वाले ने तत्काल रिवाल्वर की नाल से उसकी गरदन को टहोका । वह बेहद सावधान था ।
सुनील ने गहरी सांस ली और अपने हाथ पांव ढीले छोड़ दिये ।
पैकेट का वान-सी-वान के हाथ में पड़ जाना अब किसी सूरत में नहीं टल सकता था ।
उसी क्षण चैंग फूलदान के पास पहुंचा ।
सुनील को यूं लगने लगा जैसे उसका दिल अपने स्थान से उछलकर उसके मुंह में आ जायेगा । दिल की धड़कन की आवाज उसके कानों में नगाड़े की चोटों की तरह पड़ रही थी ।
चैंग ने फूलदान में से प्लास्टिक के नकली फूल निकालकर फर्श पर फेंक दिये और स्टेण्ड पर से फूलदान उठा लिया । फिर उसने फूलदान को अपने हाथों में उलटा कर दिया ।
भीतर से कुछ भी नहीं गिरा ।
फुलदान खाली था ।
पैकेट कहां गया ?
उसने अपने चेहरे पर किसी प्रकार की उत्कंठा का भाव प्रकट नहीं होने दिया लेकिन मन ही मन हैरान हो रहा था ।
पैकेट कहां गया ?
एक मिनट पहले वह इस बात से भयभीत था कि पैकेट पीतल के फूलदान में से बरामद हो जायेगा और अब वह इस बात से हैरान था कि पैकेट गया तो कहां गया !
पन्द्रह मिनट की निरन्तर तलाश के बाद चैंग ने घोषित कर दिया कि पैकेट हाल में नहीं था ।
“इसका मतलब यह हुआ मिस्टर सुनील ।” - वान-सी-वान बोला - “कि तुम सच बोल रहे हो । पैकेट जरूर तुमने बस में अपने किसी मित्र को ही सौंप दिया है ।”
सुनील प्रत्युत्तर में कुछ नहीं बोला । उसने अपने सूखे होठों पर जुबान फेरी । वान-सी-वान को पैकेट बस में अपने किसी मित्र को सौंप देने वाली कहानी सुनाकर सुनील फंस गया था । पैकेट फूलदान में से पता नहीं कहां गायब हो गया था । वान-सी-वान को अधिक देर तक टाल पाना असम्भव था । अगर सुनील जल्दी ही उसे पैकेट न सौंप पाया तो वह जरूर जगतार सिंह और नीग्रो डाक्टर को मरवा देगा और फिर बाद में स्वयं उसका भी यही हाल होगा ।
लेकिन पैकेट था कहां ?
पैकेट फूलदान में से गायब कैसे हो गया ?
फिर एकाएक उसे चैंग पर सन्देह होने लगा ।
चैंग उसके बंगले में प्रविष्ट हो जाने के कुछ मिनट बाद भीतर आया था । कितनी ही देर वह हाल में अकेला रहा था । कहीं पैकेट उसने तो नहीं हथिया लिया । चैंग पैकेट का महत्व जरूर जानता होगा । शायद वह पैकेट को अपने कब्जे में करके उस पैकेट के बदले में वान-सी-वान से या किसी अन्य राष्ट्र से ढेर सारा धन हथियाने के ख्वाब देख रहा हो ।
सुनील का चैंग पर सन्देह बढने लगा ।
चैंग जरूर वान-सी-वान को डबल क्रास करने की कोशिश कर रहा था ।
“आओ चलें ।” - वान-सी-वान उतावले स्वर में बोला ।
“एक मिनट ठहरो ।” - सुनील गम्भीर स्वर में बोला ।
वान-सी-वान उसका मुंह देखने लगा ।
सुनील सोच रहा था । अगर पैकेट चैंग के पास था तो उसका अभी वसूल होना जरूरी था । एक बार चैंग को उस इमारत से बाहर निकलने का अवसर मिल गया तो वह पैकेट को कहीं भी छुपा देगा । और फिर यह सिद्ध करना असम्भव हो जायेगा कि पैकेट चैंग ने चुराया था । वर्तमान स्थिति में चैंग को फौरन चैक करवाना सुनील को जरूरी दिखाई देने लगा ।
“क्या बात है ? चलते क्यों नहीं हो ?” - वान-सी-वान व्यग्र स्वर में बोला ।
“मैंने झूठ बोला था कि मैंने पैकेट बस में अपने किसी मित्र को सौंप दिया था ।” - सुनील बोला - “तुम्हारा पहला अनुमान ठीक था । पैकेट मैंने हाल में ही छुपाया था ।”
“फिर कोई कहानी ?” - वान-सी-वान कठोर स्वर में बोला ।
“यह कहानी नहीं है । मैं हकीकत बयान कर रहा हूं । बंगले में प्रविष्ट होते ही मैंने पैकेट को कोने में स्टैन्ड पर खड़े उस फूलदान में डाल दिया था ।”
वान-सी-वान की नजर अपने आप फूलदान की ओर उठ गई । फूलदान स्टैन्ड पर से उठाकर वान-सी-वान के सामने ले आया और सहज स्वर में बोला - “फूलदान खाली है ।”
वान-सी-वान ने फूलदान पर दृष्टिपात किया और फिर सुनील से बोला - “अगर तुमने फूलदान में पैकेट रखा था तो फिर इसमें से पैकेट कहां गया ?”
“यही तो मुझे हैरानी हो रही है । मिस्टर वान-सी-वान मैं सच कहता हूं । मैंने इस फूलदान में पैकेट रखा था । जब मैं तुम लोगों के साथ पिछले कमरे में था, उस समय किसी ने फूलदान में से पैकेट निकाल लिया होगा । इस प्रकार का मौका सिर्फ एक ही आदमी को हासिल था । और वह है चैंग । यह मेरे बाद में बंगले में प्रविष्ट हुआ था और उस समय हाल में कोई नहीं था ।”
वान-सी-वान के चेहरे पर कठोरता छा गई । उसके होंठ भींच गये और वह क्रोधित स्वर में बोला “अगर तुम मेरे ही आदमियों में फूट पड़वाकर बच निकलने के ख्वाब देख रहे हो तो यह ख्याल छोड़ दो ।”
“मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं है । मैं तुम्हारे सामने हकीकत बयान कर रहा हूं । वान-सी-वान पैकेट चैंग के पास होना ही चाहिये । अगर अभी इसी समय इसकी तलाशी लिये बिना इसे यहां से बाहर निकल जाने दिया तो पैकेट इसे छुपाने का अवसर मिल जायेगा और फिर जिन्दगी भर तुम्हें उस पैकेट के दर्शन नहीं होंगे । इसलिये मेरी बात मानों और अभी इसी समय चैंग की तलाशी लो । पैकेट इसके पास जरूर निकलेगा ।”
वान-सी-वान हिचकिचाया ।
चैंग ने वान-सी-वान के चेहरे के भाव देखे और फिर वह क्रोध से बिफर पड़ा । वह सुनील को गालियां देते हुए मुट्ठियां भींचे सुनील की ओर बढा और इससे पहले कि कोई उसे रोक पाता उसने अपने दायें हाथ का एक भरपूर घूंसा सुनील के चेहरे पर जड़ दिया ।
“हरामजादे !” - वह गर्जा - “मुझ पर चोरी का इलजाम लगाता है ।”
और साथ ही एक और घूंसा सुनील के चेहरे पर पड़ा ।
सुनील लड़खड़ाकर पीछे हटा और अपने पीछे खड़े चपटी नाक वाले से जा टकराया । चपटी नाक वाले ने चेतावनी के रूप में रिवाल्वर की नाल उसकी पीठ से सटा दी ।
सब कुछ पलक झपकते ही हो गया ।
“चैंग ।” - फिर वान-सी-वान की दहाड़ से हाल गूंज उठा - “पीछे हटो ।”
चैंग का प्रहार के लिये हवा में उठा हुआ हाथ रुक गया । उसने अनिश्चयपूर्ण ढंग से पहले वान-सी-वान की ओर और फिर सुनील की ओर देखा और फिर अपना हाथ नीचे गिरा लिया । क्रोध से उसके नथुने फूल रहे थे और वह अभी भी खा जाने वाली निगाहों से सुनील को घूर रहा था ।
सुनील ने अपने दायें के पृष्ठ भाग से अपने होठों की कोर से बह आये रक्त को पोंछा और शान्त स्वर में बोला - “चैंग यह सारी हरकतें इसलिये कर रहा है ताकि तुम्हें इसकी इमानदारी पर विश्वास हो जाये और फिर इसकी तलाशी लेने की नौबत न आये ।”
चैंग फिर क्रोध से बिफरता हुआ सुनील की ओर झपटा ।
“चैंग !” वान-सी-वान दहाड़ा ।
चैंग रुक गया ।
“मेरी ओर देखो ।” - वान-सी-वान अधिकारपूर्ण स्वर में बोला ।
चैंग वान-सी-वान की ओर देखने लगा ।
“तुम ने फूलदान में से पैकेट निकाला है ?” वान-सी-वान ने पूछा ।
“नहीं ।” - चैंग गला फाड़ कर चिल्लाया - “और इस हरामजादे के कहने पर मुझ पर सन्देह करके आप मेरी तौहीन कर रहे हैं । मेरे पास पैकेट नहीं है । आप खुद मेरी तलाशी ले लीजिये ।”
वान-सी-वान हिचकिचाया ।
लेकिन चैंग तो अपनी ईमानदारी सिद्ध करने पर तुला हुआ था । उसने अपने कपड़ों की जेबों का सामान निकाल-निकालकर हाल में पड़ी एक मेज पर रखना आरम्भ कर दिया । फिर उसने अपनी जेबें बाहर की ओर उलट दीं और फिर उसने बारी-बारी अपने शरीर से सारे कपड़े उतारकर वान-सी-वान के सामने फेंकने आरम्भ कर दिये ।
कुछ ही क्षणों बाद वह हाल के बीच में एकदम नंगा खड़ा था । वह इतना क्रोधित था कि ठीक से सांस नहीं ले पा रहा था ।
“अब सन्तुष्ट हो ?” - वान-सी-वान सुनील की ओर देखता हुआ बोला ।
“कपड़ों को अच्छी तरह झटककर देख लो ।” - सुनील बोला ।
“तुम खुद देख लो ।”
सुनील आगे बढा । उसने फर्श पर पड़े एक-एक कपड़े का अच्छी तरह निरीक्षण किया और फिर कपड़ों से अलग हट गया ।
“क्यों ?” वान-सी-वान फुंकारा ।
“हाल के अधिकतर स्थानों की तलाशी चैंग ने ली थी ।” - सुनील शान्ति से बोला - “शायद इसने पैकेट को हाल में किसी दूसरी जगह छुपा दिया हो ।”
चैंग ने कहर भरी निगाहों से सुनील की ओर देखा और खून का घूंट पीकर रह गया । अगर केवल निगाहों से किसी का कत्ल करना सम्भव होता तो सुनील कब का खतम हो चुका होता । या अगर वान-सी-वान वहां मौजूद न होता तो चैंग ने अभी तक उसके चिथड़े उड़ा दिये होते ।
“ली ।” - वान-सी-वान ने आदेश दिया “तुम हाल की फिर से तलाशी लो ।”
ली हाल की तलाशी लेने लगा ।
हाल के बीच में अपना सफेद हैट पहने नंग धड़ंग खड़ा चैंग बड़ा हास्यास्पद लग रहा था ।
“अपना हैट भी तो उतार कर दिखाओ ।” - एकाएक सुनील बोला ।
चैंग को भी शायद तभी पहली बार हैट का ख्याल आया । उसने सिर से हैट उतार कर सुनील के मुंह पर दे मारा ।
“चैंग ।” - वान-सी-वान बोला - “कपड़े पहन लो ।”
चैंग ने चुपचाप कपड़े पहन लिये ।
अगले पन्द्रह मिनट तक ली हाल का एक-एक कोना टटोलता रहा ।
“पैकेट यहां कहीं नहीं है ।” - अन्त में वह बोला ।
“अब ?” - वान-सी-वान प्रश्न सूचक नेत्रों से सुनील की ओर देखता हुआ बोला ।
“इसने जरूर पैकेट कहीं और छुपा दिया है ।” - सुनील मरे स्वर से बोला ।
“अब तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम अपना यह राग अलापना बन्द कर दो । मुझे अफसोस है कि तुम्हारी बातों में आकर मैंने चैंग जैसे विश्वस्त आदमी पर सन्देह किया । चैंग पर बेइमानी का इलजाम लगाकर तुमने उसे अपना निजी शत्रु बना लिया है । मैं तुम्हें चैंग को सौंप रहा हूं । मुझे विश्वास है कि चैंग वह पैकेट तुमसे जरूर वसूल कर लेगा । चैंग को खुशी होगी कि तुम उसके हवाले कर दिये गये हो । इसलिये मैं तुम्हें राय देता हूं कि अपने व्यवहार से या आदतन झूठ बोलकर कोई ऐसी स्थिति पैदा मत कर देना जिससे चैंग का क्रोध भड़क उठे । चैंग तुम्हारी ऐसी दुर्गति कर देगा कि तुम मरने की कामना करोगे लेकिन वह तुम्हें मरने नहीं देगा ।”
“और चैंग ।” - वान-सी-वान बोला - “मुझे विश्वास है कि सुनील से पैकेट वसूल करने में तुम दो घन्टे से अधिक समय नहीं लगाओगे ।”
चैंग ने सुनील की ओर देखा । उसके पिटे हुए चेहरे पर एक क्रूर मुस्कराहट दौड़ गई ।
“मैं अपने होटल पर तुम्हारी प्रतीक्षा करूंगा ।” - वान-सी-वान बोला और द्वार की ओर बढा ।
“क्या अब इसे इसके साथियों के पास ले जाने की जरूरत है ?” चैंग ने पूछा ।
“ले जाना ।” - वान-सी-वान उदार स्वर में बोला - “मैंने एक बार इसे इसके साथियों से मिलवा देने का वादा किया है और अगर सुनील चुपचाप पैकेट तुम्हें सौंप दे तो मेरे अनुरोध पर इसे और इसके साथियों को जिन्दा छोड़ देना ।”
चैंग चुप रहा ।
“दो घन्टे में मुझे पैकेट मिल जायेगा न ?” - वान-सी-वान बोला ।
“दो घन्टे में आपको पैकेट मिल जायेगा ।” - चैंग बोला उसके स्वर में भारी विश्वास का पुट था ।
वान-सी-वान बिना दूसरी बार सुनील की ओर दृष्टिपात किये बंगले से बाहर निकल गया ।
सुनील को यूं लगा जैसे वह जल्लादों को सौंप दिया गया हो । वह परेशान था । अगर वह पैकेट उन लोगों को देना भी चाहे तो कैसे दे सकता था । उसे तो मालूम ही नहीं था कि पैकेट फूलदान में से कहां गायब हो गया था ।
अगले दो घन्टों में उसकी बहुत दुर्गति होने वाली थी ।
***
कार एक अन्धेरे से रास्ते पर आकर रुकी ।
“नीचे उतरो ।” - सुनील की बगल में बैठे हुए उस चपटी नाक वाले ने उसको आदेश दिया ।
सुनील कार से बाहर निकल आया ।
चपटी नाक वाला भी रिवाल्वर सुनील की पीठ से सटाये कार से बाहर निकल आया ।
अगली सीट से ली और चैंग भी निकले ।
चारों एक ओर चल दिये । वे सुनील के प्रति पूर्णतया सावधान थे । सुनील का उन्हें धोखा देकर बच निकलना असम्भव था । वैसे भी उसका निकल भागने का कोई इरादा नहीं था । खुद भागकर वह जगतार सिंह नीग्रो डाक्टर की जान को खतरे में नहीं डालना चाहता था ।
वे लोग एक अन्धेरी गली में चलते हुए एक गन्दे से मकान के सामने आकर रुके ।
चैंग आगे बढा । उसने चाबी लगाकर मकान का मुख्यद्वार खोला और फिर द्वार को भीतर की ओर धक्का दिया ।
दरवाजा चरचराहट के साथ खुल गया ।
चपटी नाक वाले ने सुनील की पीठ को रिवाल्वर से टहोक कर उसे आगे बढने का संकेत किया ।
मकान के भीतर एकदम अन्धकार था ।
चैंग ने अपनी जेब से एक सिगरेट लाइटर निकाला और उसके प्रकाश में वे आगे बढने लगे ।
ली ने उनके पीछे मुख्यद्वार को भीतर से बन्द कर लिया ।
लाइटर के प्रकाश में अन्धेरी सीढियों में होते हुए वे भीतर तहखाने में उतर गये ।
चैंग ने दीवार पर लगा बिजली का एक स्विच आन कर दिया ।
तहखाने में पीला सा प्रकाश फैल गया ।
तहखाने के एक कोने में सीलन भरे फर्श पर जगतार सिंह और नीग्रो डाक्टर बैठे थे । उनके हाथ और पांव मजबूती से बन्धे हुए थे ।
जगतार सिंह की पगड़ी उसके सिर से झूलकर उसके गले में लटक रही थी ।
सुनील को देखकर जगतार सिंह के होंठों पर एक फीकी मुस्कराहट फैल गई ।
“आओ प्यारओ ।” - वह बोला ।
सुनील चुप रहा ।
चपटी नाक वाले की रिवाल्वर पूर्ववत उसकी पसलियों से सटी हुई थी ।
“तुमने देख लिया है, तुम्हारे साथी जिन्दा हैं ?” - चैंग कड़े स्वर से बोला ।
सुनील ने स्वीकृति सूचक ढंग से सिर हिला दिया ।
“लेकिन मैं किसी का साथी नहीं हूं ।” - नीग्रो डाक्टर बोला - “मैं तो केवल एक डाक्टर हूं और मरीज देखने आया था । आप लोग मुझे क्यों...”
“शटअप ।” - ली बोला । और अपने भारी बूट वाले पांव की एक भरपूर ठोकर नीग्रो डाक्टर की पसलियों में जमा दी ।
जूते की ठोकर से डाक्टर एक ओर लुढक गया ।
“जगतारे ।” - सुनील बोला “प्रोफेसर भटनागर वाकई मर गये हैं ?”
“आहो ।” - जगतार सिंह बोला - “बूढे का तो हस्पताल के रास्ते में कार में ही बोलो राम हो गया था । लेकिन यार, यह बखेड़ा क्या है ?”
सुनील ने उत्तर नहीं दिया ।
“अब तुम हमें अपने उस दोस्त के पास ले चलोगे ।” - चैंग बोला - “जिसको तुमने बस में सफर करते समय हरे रंग का पैकेट सोंपा था ।”
सुनील चुप रहा ।
चैंग ने खुले हाथ का एक भरपूर झापड़ सुनील के चेहरे पर जमाया ।
“मैंने तुमसे एक सवाल पूछा है ।” - चैंग बोला - “और अपने सवाल का जवाब मैं फौरन चाहता हूं ।”
“चलो ।” - सुनील दबे स्वर में बोला ।
उन लोगों को अब बताने से कोई लाभ नहीं था कि पैकेट उसने बस में किसी को नहीं दिया था । वे लोग कभी विश्वास नहीं करने वाले थे कि सुनील को खुद मालूम नहीं था कि पैकेट वास्तव में कहां गायब हो गया था । उसके ऐसा कहने पर वे यही समझते कि सुनील क्योंकि अपने मित्र का पता नहीं बताना चाहता इसलिये झूठ बोल रहा है और फिर वे उसकी बड़ी दुर्गति करते । अतः सुनील को यही श्रेयस्कर लगा कि जब तक वह उन्हें टाल सकता है, तक तब टालता रहे । शायद कोई रास्ता निकल आये । वर्ना सुनील के साथ-साथ जगतार सिंह और नीग्रो डाक्टर की मौत तो निश्चित हो ही गई थी । सुनील चाह कर भी उन्हें पैकेट नहीं दे सकता था ।
“कहां ?”
“मेरे साथ ।” - सुनील बोला ।
“तुम्हारे साथ कहां ?”
“मेरे दोस्त के पास जिसे मैंने वह पैकेट दिया है ।”
“ईडियट ।” - चैंग जोर से उसका गिरबान झिंझोड़ता हुआ बोला - “मैंने यह पूछा है कि तुम्हारा दोस्त रहता कहां है ?”
“रायल होटल में ।” - सुनील के मुंह से निकला ।
“नाम बताओ ।”
“जान स्मिथ ।”
“यह तो किसी अंग्रेज का मालूम होता है ।”
“मैंने कब कहा है कि यह किसी चीनी का नाम है ।”
“ज्यादा बकवास मत करो । केवल मतलब की बात जबान से निकालो ।”
“अच्छा ।” - सुनील बड़ी शराफत से बोला ।
चैंग ली की ओर घूमा ।
“ली ।” - वह बोला - “रायल होटल में फोन करके मालूम करो कि क्या वहां कोई जान स्मिथ नाम का आदमी ठहरा हुआ है ।”
“अच्छा ।” - ली बोला और तहखाने से बाहर निकल गया ।
जान स्मिथ नाम के एक अंग्रेज ने सुनील के साथ हांगकांग से लन्दन तक का सफर किया था । हवाई जहाज से लन्दन हवाई अड्डे पर उतरने के बाद उसने सुनील को बताया था कि वह लन्दन में रायल होटल में ठहरेगा । उसी का नाम और पता सुनील ने उन लोगों को बता दिया था और अब सुनील मन ही मन सोच रहा था कि पता नहीं वास्तव में जान स्मिथ रायल होटल में ठहरा है या नहीं ।
थोड़ी देर बाद ली वापिस लौटा ।
“जान स्मिथ नाम का आदमी रायल होटल में ठहरा हुआ है ।” - उसने बताया - “और इस समय अपने होटल के कमरे में मौजूद है ।”
“वैरी गुड ।” - चैंग बोला - “चलो ।”
वे लोग तहखाने से बाहर की ओर चल दिये ।
सुनील ने एक बार असहाय भाव से जगतार सिंह और निग्रो डाक्टर की ओर देखा और फिर ऊपर की ओर ले जाने वाली सीढियां चढने लगा ।
चैंग ने तहखाने की बत्ती बुझा दी ।
कैदियों को सीलन भरे गलियारे में छोड़कर वे लोग ऊपर आ गये ।
सुनील को अब जान स्मिथ की भी चिन्ता होने लगी थी । उस बेचारे पर खामखाह मुसीबत आने वाली थी । जान स्मिथ कहेगा कि पैकेट उसके पास नहीं है और ये बदमाश समझेंगे कि वह झूठ बोल रहा है और फिर उसका भी सुनील जैसा हाल होगा ।
अपने जीवन में इससे ज्यादा भयंकर स्थिति में सुनील पहले कभी नहीं फंसा था ।
बाहर आकर एकाएक चैंग बोला - “मैं यहीं कैदियों के पास ठहरता हूं । तुम लोग सुनील के साथ रायल होटल जाओ । और मिस्टर” - वह सुनील की ओर घूमा - “अगर तुम जान स्मिथ से पैकेट लेकर फौरन वापिस यहां नहीं लौटे तो मैं खुद तुम्हारे दोनों साथियों को गोली से उड़ा दूंगा । और बाई गाड मैं ज्यादा इन्तजार नहीं करूंगा ।”
सुनील ने स्वीकृति सूचक ढंग से सिर हिला दिया ।
चैंग तो खून का प्यासा हो रहा था । उसके व्यवहार से तो यूं लगता था जैसे वह खून बहाने का बहाना तलाश कर रहा हो ।
“चलो ।” - चपटी नाक वाले ने उसे टहोका ।
सुनील चल पड़ा ।
सुनील चपटी नाक वाला और ली उस गन्दे मकान में से निकलकर फिर बाहर की अन्धेरी और सुनसान गली में आ गये ।
चपटी नाक वाले ने उसकी बांह में बांह डाल दी । रिवाल्वर सुनील की पसलियों से आ सटी । ली उसकी दूसरी ओर चल रहा था ।
गली से बाहर निकलकर वे सड़क पर आये और कार की ओर बढे ।
एकाएक चपटी नाक वाले के मुंह से एक घुटी हुई चीख निकली । उसकी बांह सुनील की बांह में से फिसलकर बाहर निकल आई । रिवाल्वर उसकी उंगलियों में से निकल कर टन्न से जमीन पर आकर गिरी और फिर वह धड़ाम से जमीन पर जा गिरा ।
ली एकदम चौंका और इससे पहले कि वह जेब से रिवाल्वर निकाल पाता कार के पीछे से एक साया कूद कर उसके सामने आ खड़ा हुआ ।
“हिलना मत ।” - साये ने चेतावनी दी ।
ली एकदम जड़-सा खड़ा हो गया ।
एक क्षण तो सुनील की समझ में कुछ भी नहीं आया । यह करिश्मा कैसे हो गया ! यह खुदाई मददगार कौन आ गया ।
फिर रामाराव का स्वर उसके कानों में पड़ा - “क्या गधे की माफिक खड़ा है । इसको सम्भालता क्यों नहीं है ?”
प्रसन्नता के आवेग में सुनील का दिल बल्लियों उछलने लगा । वह कोई सपना नहीं था । सामने हाथ में रिवाल्वर लिये खड़ा साया निश्चय ही रामाराव था । रामाराव, जो उस संकट की स्थिति में एकाएक पता नहीं कहां से टपक पड़ा था ।
सुनील ने झपटकर ली की जेब में से रिवाल्वर निकाल ली । उसने ली की जेबें थपथपाकर विश्वास कर लिया कि उसके पास कोई और हथियार नहीं था ।
फिर वह चपटी नाक वाले के जमीन पर गिरे शरीर पर झुक गया ।
“यह तो मर गया ।” - सुनील उठता हुआ बोला - “गोली तो एकदम दिल से गुजर कर गई है ।”
“इसमें हम साला क्या कर सकता है ।” - रामाराव सफाई पेश करता हुआ बोला - “हम कभी रिवाल्वर चलाया नहीं । हमने तो रिवाल्वर उस आदमी की ओर किया और फायर कर दिया ।”
“फिर तो हो सकता था कि गोली मेरी ही छाती में आ लगती ?”
“एकदम हो सकता था ।” - रामाराव ने बड़ी शराफत से स्वीकार किया ।
“फिर तो शुक्र है खुदा का । मैं बेमौत मारा जाने से बच गया ।”
“अब इसका क्या करें ?” - रामाराव ली की ओर संकेत करता हुआ बोला ।
“इसका इन्तजाम मैं करता हूं ।” - सुनील बोला । फिर उसने रिवाल्वर को नाल की ओर से पकड़ा और उसका भरपूर वार ली की खोपड़ी पर किया ।
ली मुंह से बिना एक शब्द भी निकाले धड़ाम से सुनील के कदमों में गिर गया ।
उसकी चेतना लुप्त हो चुकी थी ।
सुनील ने पहले चपटी नाक वाले का फर्श पर गिरा हुआ रिवाल्वर उठाया और फिर उसने ली के शरीर को उठाकर अपने कन्धे पर लाध लिया ।
“इसे कहां ले जाओगे ?” - रामाराव बोला ।
“तुम मेरे साथ आओ ।” - सुनील बोला और वापिस उस अंधेरी गली में घुस गया जिसके एक मकान में जगतार सिंह और नीग्रो डाक्टर कैद थे ।
रामाराव बिना कुछ बोले उसके साथ हो लिया ।
सुनील उस गन्दे से मकान के पास आकर ठिठक गया ।
उसने ली के अचेत शरीर को मकाम की सीढियों पर डाल दिया और धीरे से मुख्य द्वार को भीतर की ओर धकेला ।
द्वार बन्द नहीं था ।
सुनील ने इस बात का पूरा ध्यान रखते हुए कि द्वार में चरचराहट की आवाज न निकले द्वार का एक पल्ला खोल दिया ।
फिर उसने रामाराव को वहीं ठहरने का संकेत किया और स्वयं भीतर प्रविष्ट हो गया ।
सुनील दबे पांव तहखाने कि सीढियों की ओर बढा ।
नीचे तहखाने से रोशनी दिखाई दे रही थी ।
निशब्द सीढियां उतरता हुआ सुनील तहखाने के द्वार पर पहुंच गया ।
जगतार सिंह और नीग्रो डाक्टर पूर्ववत फर्श पर बन्धे हुए पड़े थे । चैंग द्वार की ओर पीठ किये एक कुर्सी पर बैठा हुआ था । उसने अपने पांव सामने पड़े स्टूल पर फैलाये हुए थे और उसकी गोद में उसकी रिवाल्वर पड़ी थी ।
“चैंग बेटे ।” सुनील ने उसे बड़े प्यार भरे स्वर में पुकारा ।
चैंग चहुका । उसने इतनी तेजी से अपने पैर स्टूल से हटाये की स्टूल पलटकर एक ओर जा गिरा । उसका हाथ अपनी गोद में पड़ी रिवाल्वर पर पड़ा और वह स्प्रिंग लगे खिलौने की तरह उछल कर अपने पैरों पर खड़ा हो गया ।
लेकिन उसे फायर करने का अवसर नहीं मिला ।
सुनील की रिवाल्वर ने आग उगली ।
चैंग के मुंह से एक चीख निकल गई । रिवाल्वर उसके हाथ से छूट कर नीचे जा गिरी और चैंग ने अपने बाये हाथ से अपना दायां हाथ पकड़ लिया । उसके दायें हाथ मे से खून बह रहा था ।
“पीछे हटो ।” - सुनील ने आदेश दिया ।
चैंग ने तत्काल आदेश का पालन किया । उसका चेहरा पीड़ा क्रोध और बेबसी के मिले-जुले भावों से तमतमा रहा था ।
जगतार सिंह जो अभी तक विस्फारित नेत्रों से स्थिति को पलट खाते देख रहा था, एकाएक उत्साहपूर्ण स्वर से चिल्ला पड़ा - “बल्ले शेरा ।”
सुनील उसकी ओर देखकर मुस्कराया ।
सुनील ने एक आश्वासनपूर्ण मुस्कराहट नीग्रो डाक्टर पर डाली और फिर चैंग की ओर देखकर अधिकारपूर्ण स्वर में बोला - “चैंग, इनके बंधन खोलो ।”
“लेकिन मेरा हाथ घायल है ।” - चैंग विरोधपूर्ण स्वर में बोला ।
“जो मैं कहता हूं, करो । वर्ना अभी खोपड़ी भी घायल हो जायेगी ।”
चैंग चेहरे पर तीव्र अनिच्छा का भाव लिये जगतार सिंह की ओर बढा ।
बड़ी कठिनाई से अपार कष्ट का सामना कर चुकने के बाद पूरे दस मिनट बाद कहीं वह जगतार सिंह के हाथों के बन्धन खोलने में सफल हुआ ।
हाथ खुलते ही जगतार सिंह ने उसे परे धकेल दिया और अपने पैरों के बन्धन स्वंय खोल लिये । कुछ देर वह अपने हाथ पैरों को मसलता रहा ताकि शरीर मे रक्त का प्रवाह व्यवस्थित हो जाये । फिर उसने नीग्रो डाक्टर को भी बन्धन से मुक्त कर दिया ।
डाक्टर भी अपने हाथ पैरों को मसलने लगा ।
सुनील ने चैंग की रिवाल्वर जगतार सिंह को ओर उछाल दी ।
जगतार सिंह ने रिवाल्वर लेकर अपनी पतलून की बैल्ट में खोंस ली । उसने अपने सिर पर उल्टी सीधी पगड़ी बांधी और फिर चैंग के सामने जाकर खड़ा हो गया ।
चैंग ने एक बार उसकी ओर देखा और फिर दृष्टि झुका ली । उसके नेत्रों से व्याकुलता टपक रही थी ।
जगतार सिंह ने अपना मजबूत बायां हाथ बढाकर चैंग का बांया हाथ पकड़ लिया और फिर चैंग के जख्मी हाथ को अपने दायें हाथ की भारी पकड़ में दबोच लिया और फिर धीरे-धीरे अपने हाथ का दबाव बढाने लगा ।
तीव्र पीड़ा की अनूभूति से चैंग के नेत्र उबल पड़े । जगतार सिंह की मजबूत पकड़ में वह बुरी तरह छटपटाने लगा ।
फिर उसके नेत्र मुंदने लगे और शरीर ढीला पड़ने लगा । अन्त में उसका निश्चेष्ठ शरीर जगतार सिंह की पकड़ में झूल गया ।
जगतार सिंह ने उसके दोनों हाथ छोड़ दिये ।
चैंग का निश्चेष्ट शरीर तहखाने के फर्श पर लोट गया ।
“यह क्या हरकत हुई ?” - सुनील बोला ।
“माईयवे ने मैंने थप्पड़ मारा था ।” - जगतार सिंह ने बड़ी सादगी से जवाब दिया ।
सुनील कुछ क्षण विचित्र नेत्रों से उसे घूरता रहा और फिर बोला - “बाहर इसी का एक साथी और बेहोश पड़ा है । उसे भी उठाकर यहां ले आओ ।”
“अच्छा ।” - जगतार सिंह बोला और तहखाने से बाहर निकल गया ।
नीग्रो डाक्टर अभी भी अपनी कलाइयां मसल रहा था ।
“आई एम सारी डाक्टर ।” - सुनील खेदपूर्ण स्वर में बोला - “हमारी वजह से तुम्हें खामखाह इस मुसीबत का सामना करना पड़ा ।”
उत्तर में नीग्रो डाक्टर केवल मुस्कराया ।
जगतार सिंह ली के अचेत शरीर को अपने कन्धे पर लादे । लौट आया । उसने उसे भी चैंग की बगल में फर्श पर पटक दिया ओर बोला - “ये मद्रासी कहां से टपक पड़ा ?”
“इसी बात से तो मैं हैरान हूं ।” - सुनील बोला - “जगतार सिंह वह जहां से भी टपका, जैसे भी टपका लेकिन बड़े मौके पर टपका । आज इसी की वजह से हम लोगों की जान बच गई ।”
“तुमने उससे कुछ पूछा नहीं ?”
“अब पूछेंगे । आओ ।”
“इनका क्या होगा ?”
“इन्हें यहां बन्द कर जायेंगे ।”
सब बाहर निकल आये ।
सुनील ने तहखाने की सीढियों का दरवाजा बाहर से बन्द कर दिया । बाहर गली में आकर उसने इमारत का मुख्य द्वार भी बाहर से बन्द कर दिया ।
जगतार सिंह डाक्टर के साथ चल रहा था ।
मुख्य सड़क पर पहुंचकर जगतार सिंह ने एक गुजरती हुई टैक्सी को रोका । नीग्रो डाक्टर ने जगतार सिंह से हाथ मिलाया और बिना सुनील या रामाराव की ओर देखे टैक्सी में सवार हो गया ।
टैक्सी चल पड़ी ।
जगतार सिंह, सुनील और रामाराव चीनियों की कार जा बैठे । जगतार सिंह स्टेयरिंग पर बैठा और सुनील और रामाराव पिछली सीट पर ।
“अब तुम सुनाओ मद्रासी बेटे ।” - सुनील रामाराव की ओर मुड़ा - “तुम खुदाई मददगार की तरह एकाएक कहां से टपक पड़े । तुम्हारा तो मुझे ख्याल तक नहीं रहा था ।”
“पेरिस से लौटने के बाद मैं सीधा बंगले पर आया था ।” - रामाराव ने कहना आरम्भ किया - “मैं बाहर के द्वार को चाबी से खोल कर भीतर घुसा था । लेकिन फिर भी बंगला खाली नहीं था । मैंने यही समझा बंगले में चोर घुस आये हैं । वे लोग पिछले कमरे में थे । मैं चुपचाप हाल की साइड में बने आफिस में प्रविष्ट हो गया । वहां टैलीफोन था और मैं पुलिस को फोन करने का विचार कर रहा था । उसी क्षण द्वार फिर खुला और मैंने तुम्हें भीतर प्रविष्ट होते देखा । मैंने टैलीफोन रख दिया और तुम्हें बंगले में गैर लोगों की मौजूदगी की चेतावनी देने के लिये आगे बढा । उसी क्षण मैंने तुम्हें पीतल के फूलदान में कुछ डालते देखा । फिर इससे पहले कि मैं तुम्हारा ध्यान अपनी ओर अकर्षित कर पाता पिछले कमरे का द्वार खुला और उसमें से हाल में रिवाल्वर लिये एक चपटी नाक वाला आदमी बाहर निकला जो तुम्हें अपने साथ वापिस उस कमरे में ले गया । फिर...”
“रामाराव ।” - सुनील व्यग्रता से उसकी बात काटकर बोला - “फूलदान में से हरे रंग की रेक्सीन में लिपटा हुआ पैकेट तुमने निकाला था । वह पैकेट तुम्हारे पास है ।”
“हां ।” - रामाराव बोला - “यह रहा ।”
और उसने अपने कोट की भीतरी जेब से पैकेट निकालकर सुनील की ओर बढा दिया ।
सुनील ने पैकेट पर यूं झपट्टा मारा जैसे अगर उसने पैकेट को अपने अधिकार मे करने में एक क्षण की भी देर लगाई तो पैकेट हवा में लुप्त हो जायेगा । उसने पैकेट का सावधानी से अपने कोट की भीतरी जेब में रखकर ऊपर से बटन बन्द कर लिये । फिर उसके मुंह से शान्ति की एक गहन निःश्वास निकली और वह रामाराव से बोला - “फिर ?”
रामाराव कुछ क्षण हैरानी से उसका मुंह देखता रहा और फिर बोला - “यह पैकेट बहुत कीमती है ?”
“हां ।”
“इसमें क्या है ?”
“छोड़ो । तुम अपनी बात करो ।”
“मोये दस्स न कंजर दया ।” - जगतार सिंह ड्राईविंग सीट से चिल्लाया - “साले तेरी खातिर हमने जान का खतरा मोल ले लिया और हमें इतनी सी बात नहीं बताना चाहता ।”
सुनील एक क्षण हिचकिचाया और फिर बोला - “इसमें कागज हैं ।”
“क्यों मूर्ख बना रहे हो !” - रामाराव बोला - “क्या इतनी मार-काट केवल इन कागजों को हासिल करने के लिये हो रही थी ।”
“इसमें जरूर हीरे जवाहरात हैं ।” - जगतार सिंह बोला ।
“या फिर हीरे जवाहरातों जैसी ही कोई कीमती चीज ।” - रामाराव बोला ।
“इनसे कीमती चीज भी कोई होती है ?”
“क्यों नहीं ? जैसे हेरोइन ।”
“भाइयो ।” - सुनील एकदम बीच में बोल पड़ा - “इसमें वाकई कागजों के अतिरिक्त कुछ नहीं है । इन कागजातों में भारत सरकार के कुछ गुप्त रहस्य निहित हैं जो शत्रुओं ने चुरा लिये थे । इन्हीं कागजों की वजह से प्रोफेसर भटनागर की जान गई है ।”
“कौन प्रोफेसर भटनागर ?” - रामाराव ने पूछा ।
“बतायेंगे ।” - जगतार सिंह बोला - “अभी चुप रहो ।”
“और जब तक ये कागजात हमारे अधिकार में हैं, हम खतरे से बाहर नहीं हैं । मुझे किसी भी प्रकार इन कागजों को लेकर सुरक्षित भारत वापिस लौटना है ।”
“तुम्हारा इस तमाम बखेड़े से क्या वास्ता है ?” - जगतार सिंह सन्दिग्ध स्वर में बोला - “तुम ‘ब्लास्ट’ के रिपोर्टर हो या जेम्स बांड जैसे कोई सरकारी जासूस ।”
“मैं ‘ब्लास्ट’ का रिपोर्टर ही हूं । संयोगवश ही मैं इस बखेड़े में फंस गया हूं । सवाल भारत के हित का है इसलिये एकाएक पल्ला झाड़कर इससे अलग नहीं हो सकता ।”
“मैं पहले ही कह रहा था” - जगतार सिंह बोला - “कि यह आदमी सैर करने के लिये लन्दन नहीं आया ।”
“भाइयो ।” - सुनील विनीत स्वर में बोला - “मैं सैर करने ही लन्दन आया था । संयोगवश ही मेरा टकराव प्रोफेसर भटनागर से हो गया था । उन्होंने एक भारतीय होने के नाते मुझसे सहायता की मांग की थी । मामला केवल निजी नहीं था । वह पूरे भारत के हित का सवाल था, इसलिये मैं इन्कार नहीं कर सका ।”
सुनील इसीलिये उन लोगों के सामने झूठ बोल रहा था क्योंकि वह उन्हें अपनी वास्तविकता नहीं बताना चाहता था । स्पैशल इन्टैलीजेन्स के डायरेक्टर कर्नल मुखर्जी का यह स्पष्ट आदेश था कि स्पैशल इन्टैलीजेन्स के किसी भी सदस्य की वास्तविकता किसी पर प्रकट नहीं होनी चाहिये, वर्ना वह एजेन्ट नहीं रह पायेगा ।
जगतार सिंह कुछ क्षण चुप रहा और फिर बोला - “तुम अपनी कहानी सुनाओ रामाराव ।”
“फिर मैंने द्वार के बाहर छुप कर थोड़ी देर सुनील और चीनियों को वार्तालाप सुना । उस वार्तालाप से मुझे ऐसा महसूस हुआ कि जो चीज सुनील ने फूलदान में छुपाई है, वह महत्वपूर्ण है और उसे हासिल करने की खातिर चीनी खून करने में भी हिचकने वाले नहीं थे । मैंने फूलदान में से फौरन वह चीज निकाली जो वास्तव में यही हरे रंग का पैकेट था । फिर मैंने आफिस की मेज के दराज में से रिवाल्वर निकाली और चुपचाप बंगले से बाहर निकल आया । बाहर एक ओर छुप कर मैं प्रतीक्षा करने लगा । फिर जब चीनी बदमाशों के साथ सुनील बाहर निकला तो मैंने उनका पीछा किया । पीछा करता हुआ मैं उस अन्धेरी गली के उस गन्दे मकान तक पहुंच गया जहां से हम अभी आये हैं । फिर पहला मौका हासिल होते ही मैंने शत्रुओं पर आकमण कर दिया ।”
“तुमने कमाल कर दिया, रामाराव ।” - सुनील प्रशंसात्मक स्वर में बोला - “तुम्हें तो फौरन कोई सरकारी उपाधि मिल जानी चाहिये ।”
रामाराव शरमाया ।
“अब सवाल यह है ।” - सुनील गम्भीर स्वर में बोला - “कि पैकेट को सुरक्षित लेकर वापिस भारत कैसे पहुंचा जाये ?”
“क्या मुश्क्लि है !” - जगतार सिंह बोला - “हवाई जहाज का टिकट कटाओ और भारत पहुंच जाओ ।”
“यह इतना आसान काम नहीं है ।” - सुनील बोला - “वान-सी-वान का स्पाई चक्र सारे लन्दन में फैला हुआ है । कुछ ही मिनटों में उसे मालूम हो जायेगा कि उसले आदमी चोट खा गये हैं और मैं निकल भागा हूं । उसके बाद सारे लन्दन मे मेरी तलाश शुरू हो जायेगी । एयरपोर्ट पर तो वान-सी-वान के आदमी विशेष रूप से तैनात हैं और वे मुझे अच्छी तरह पहचानते हैं ।”
“वान-सी-वान इन चीनी बदमाशों के उस्ताद का नाम है ?” - जगतार सिंह बोला ।
“हां ।”
“कुछ ही मिनटों में उसे कैसे मालूम हो जायेगा कि हम भाग निकले हैं । उसे यह सूचना देने कौन जायेगा ! जो आदमी उसे सूचना दे सकते हैं वे तो उस पुराने मकान के तहखाने में बन्द हैं और वहां से वे कई घन्टे नहीं निकल सकते ।”
“उसने अपने आदमियों को दो घन्टे का समय दिया था । अगर इतनी देर में उसे रिपोर्ट नहीं मिली तो वह फौरन तफ्शीश आरम्भ कर देगा और फिर सबसे पहले वह उस पुराने मकान पर ही पहुंचेगा क्योंकि वहां तुम और नीग्रो डाक्टर कैद थे ।”
“फिर तो हमें उन दोनों चीनियों को जान से मार डालना चाहिये था ।”
“उससे क्या फायदा होता ? तुम्हारी उस मकान के तहखाने में गैरमौजूदगी ही उसे यह बताने के लिये काफी है कि हम लोग भाग निकले है ।”
“फिर क्या करोगे ?”
“एक तरकीब मैं बताऊं ?” - एकाएक रामाराव बोला ।
“बताओ ।” - सुनील बोला ।
“मैं एक मोटरबोट का इन्तजाम कर सकता हूं । रात के अन्धकार में इंगलिश चैनल को पार करके तुम चुपचाप पेरिस पहुंच जाओ । वहां से तुम प्लेन पर भारत रवाना हो जाना । वान-सी-वान तो तुम्हारी तलाश लन्दन में ही करवाता रह जायेगा ।”
सुनील सोचने लगा तरकीब बुरी नहीं थी ।
“तुम्हें मोटरबोट हासिल करने में कितनी देर लगेगी ?” - सुनील ने पूछा ।
“एक घन्टा ।” - रामाराव बोला ।
“ओके ।” - सुनील बोला ।
***
लगभग डेढ घन्टे बाद एक सुनसान समुद्री तट से सुनील जगतार सिंह और रामाराव मोटरबोट में सवार हो गये । मोटरबोट रामाराव चला रहा था ।
मोटरबोट इंगलिश चैनल के पानी को चीरती हुई रात के अन्धकार में चुपचाप आगे बढने लगी ।
रामाराव की तरकीब सुनील को बड़ी कारआमद दिखाई देने लगी थी ।
अभी वे मुश्किल से समुद्र में दस मील आगे निकलकर आये थे कि एकाएक सुनील के कानों में एक हैलीकाप्टर की आवाज पड़ी ।
वह सिर उठकर ऊपर देखने लगा ।
पहले तो उसे कुछ भी दिखाई नहीं दिया । फिर उसे लन्दन की दिशा से एक विशाल हैलीकाप्टर आता दिखाई दिया ।
शीघ्र ही हैलीकाप्टर उनके सिर पर मंडराने लगा ।
सुनील ने रिवाल्वर निकाल ली ।
“यह क्या मुसीबत आई है भापे !” - जगतार सिंह चिन्तित स्वर में बोला ।
सुनील ने उत्तर नहीं दिया । उसका चेहरा बेहद गम्भीर हो उठा था ।
एकाएक हैलीकाप्टर ने एकदम नीचे को झोल खाई, फिर सर्च लाइट का तीव्र प्रकाश उन लोगों की मोटर बोट पर पड़ा और फिर हैलीकाप्टर फौरन ऊपर उठने लगा ।
सुनील ने लगतार दो फायर किये ।
हैलीकाप्टर गोलियों की रेंज से काफी ऊंचा उठ चुका था ।
रामाराव मोटरबोट को पूरी गति से बढ़ा रहा था ।
“अब बचना मुश्किल है ।” - जगतार सिंह बोला - “हैलीकाप्टर वाले तो बड़ी आसानी से हमारी कब्र बना सकते हैं ।”
“मुझे उम्मीद नहीं, वे ऐसा करेंगे ।” - सुनील बोला - “क्योंकि अगर समुद्र में हमारी कब्र बन गई तो हमारे साथ ही उस हरे रंग के पैकेट की भी बन जायेगी जो मेरी जेब में है और वान-सी-वान ऐसा कभी नहीं चाहेगा ।”
सुनील ने सिर उठाकर आसमान की ओर देखा । हैलीकाप्टर अब कहीं दिखाई नहीं दे रहा था ।
“वान-सी-वान कोई मूर्ख आदमी नहीं है ।” - सुनील बोला - “उसने भी हमारे मोटरबोट द्वारा चुपचाप फ्रांस भाग निकलने के बारे में सोचा होगा और उसी का जवाब यह हैलीकाप्टर है । हमारे पर प्रकाश केवल हमारी शिनाख्त करने के लिये फेंका गया था । स्पष्ट है कि उनका हमें समुद्र में मार देने का कोई इरादा नहीं है । वे किनारे पर पहुंचने तक केवल हमारी निगरानी करेंगे ।”
“मतलब यह कि चुपचाप पेरिस पहुंच जाने वाली स्कीम तो भक्क से उड़ गई है ।”
“जाहिर है ।”
“वापिस लन्दन चलें ?”
“क्या फायदा होगा ? हम हैलीकाप्टर वालों की निगाहों से तो छुप नहीं सकते । लन्दन मे तो हमारे स्वागत का और भी तगड़ा इन्तजाम होगा ।”
रामाराव फिर नहीं बोला । वह चुपचाप मोटरबोट ड्राइव करता रहा । हैलीकाप्टर उन्हें दुबारा नहीं दिखाई दिया था लेकिन सुनील को विश्वास था कि हैलीकाप्टर उनके आसपास ही कहीं होगा और हैलीकाप्टर वाले पेरिस भी यह सूचना भिजवा चुके होंगे कि उन्हें तलाश कर लिया गया है ।
कहीं न कहीं तो किनारे लगना ही था । उसके अतिरिक्त कोई चारा नहीं था ।
सुनील आसमान की ओर टकटकी लगाई मौन बैठा रहा ।
“किनारा समीप आ रहा है ।” - थोड़ी देर बाद रामाराव बोला ।
उसी क्षण हैलीकाप्टर फिर उनके सिर पर मंडराता दिखाई देने लगा था ।
“तुम कहीं कोई ऐसा किनारा जानते हो जहां किनारे पर काफी पेड़ उगे हुए हों ?” - सुनील ने रामाराव से पूछा ।
रामाराव ने सहमतिसूचक ढग से सिर हिला दिया ।
“तेजी से उधर ही चलो ।” - सुनील बोला ।
रामाराव ने मोटर बोट का रुख मोड़ दिया ।
“मैं तुम लोगों को और मुसीबत में नहीं डालना चाहता ।” - सुनील बोला - “तुम लोग मुझे किनारे पर उतारकर तत्काल वापिस लौट जाना ।”
“बकवास मत करो ।” - जगतार सिंह जोश भरे स्वर में बोला - “हम दोनों तुम्हारे साथ रहेंगे । क्यों रामाराव ?”
“राइट ।” - रामाराव बोला ।
“लेकिन...” - सुनील ने प्रतिवाद करना चाहा ।
“तैयार हो जाओ ।” - एकाएक रामाराव बोला ।
सुनील ने देखा मोटरबोट तेजी से किनारे की ओर पहुंच रही थी ।
हैलीकाप्टर एकाएक काफी नीचे उतर आया था ।
सुनील ने बड़ी सावधानी से निशाना लगाकर फायर किया । गोली हैलीकाप्टर की साइड के शीशे से टकराई और फिर हैलीकाप्टर तत्काल ऊंचा उठ गया ।
“कूदो ।” - उसी क्षण रामाराव चिल्लाया ।
सुनील और जगतार सिंह तत्काल मोटरबोट से कूद गये । पानी उनके घुटनों तक था । पानी में होते हुए वे किनारे की ओर भागे ।
रामाराव ने मोटरबोट का इंजन बन्द किया और पानी में कूदकर उनके पीछे भागा ।
ऊपर हैलीकाप्टर में से मशीनगन की गालियां बरसने लगीं । सौभाग्यवश कोई भी गोली उन्हें नहीं लगी और वे किनारे पर थोड़ी दूर उगे पेड़ों के सुरक्षित साये में पहुंच गये ।
हैलीकाप्टर में से कोई चीज गिरी । उनके कानों में हल्की सी सूं सूं की आवाज पड़ी, फिर एक जोर का धमाका हुआ और फिर उनसे थोड़ी दूर के एक पेड़ के परखचे उड़ गये । लकड़ी के टुकड़े उनके शरीर से भी आकर टकराये ।
“भीतर की ओर भागो ।” - सुनील बोला - “वे लोग हैंड ग्रैनेड फेंक रहे हैं ।”
वे लोग तत्काल तट से विपरीत दिशा की ओर भागे ।
एक हैंड ग्रेनेड एकदम उनके सामने आकर गिरा । तीनों छलांग लगाकर पेड़ों की ओट में हो गये ।
हैंड ग्रेनेड फटा । तट की ढेर सारी रेत आसमान की ओर उछली और फिर थोड़ी देर के लिये शान्ति छा गई ।
इस बार वे थोड़ा सा रास्ता बदलकर साइड में भागे ।
“सुनील, वो देखो ।” - एकाएक रामाराव बोला ।
सुनील ने रामाराव के संकेत का अनुसरण किया । थोड़ी-थोड़ी दूर पेड़ों के झुरमुट में एक छोटा सा काटेज दिखाई दे रहा था जिसके सामने एक पीले रंग की स्टेशन वैगन खड़ी थी ।
सुनील के नेत्र चमक उठे ।
“तुम यहीं ठहरो, मैं अभी आया ।” - रामाराव बोला और तेजी से काटेज की ओर बढा ।
हैलीकाप्टर पेड़ों के ऊपर मंडरा रहा था ।
एकाएक हैलीकाप्टर में फिर सर्चलाइट जल उठी और उसका तीव्र प्रकाश पेड़ों के ऊपर पड़ने लगा ।
“सावधान ।” - सुनील जगतार सिंह से बोला । वह जानता था कि अगर सर्चलाइट ने उन्हें तलाश कर लिया तो हैंडग्रेनेड या मशीनगन की गोलियां उनके परखचे उड़ा देंगी ।
सुनील रिवाल्वर सम्भाले उचित अवसर की प्रतीक्षा करने लगा ।
सर्चलाइट का प्रकाश धीरे-धीरे उनकी ओर सरक रहा था ।
“जगतारे ।” - सुनील बोला - “तू भी सर्चलाइट का निशाना लगा ले । मेरे फायर करते ही फायर झोंक देना ।”
जगतार सिंह ने सहमतिसूचक ढंग से सिर हिला दिया ।
“फायर ।” - एकाएक सुनील बोला और साथ ही उसने रिवाल्वर का ट्रीगर दबाया ।
जगतार सिंह की रिवाल्वर ने भी आग उगली ।
सर्चलाइट के परखचे उड़ गये ।
साथ ही वातावरण में से किसी की हृदय विदारक चीख गूंजी, फिर एक आदमी का भारी शरीर पेड़ों से उलझता हुआ धम्म से उनके सामने आकर गिरा । शायद दो में से एक गोली हैलीकाप्टर में मौजूद उस आदमी को जा लगी थी और वह हैलीकाप्टर से बाहर आ गिरा था ।
उसी क्षण काटेज के सामने खड़ी स्टेशन वैगन के स्टार्ट होने की आवाज उनके कानों में पड़ी ।
वे तत्काल स्टेशन वैगन की ओर भागे ।
तभी एक हैंडग्रेनेड ठीक उस स्थान पर आकर गिरा जहां वे थोड़ी देर पहले खड़े थे ।
हैलीकाप्टर से नीचे गिरे आदमी का शरीर हैंडग्रेनेड का चपेट में आ गया और फिर उसके शरीर के चीथड़े उड़ गये ।
रामाराव स्टेशन वैगन की ड्राइविंग सीट पर बैठा था । स्टेशन वैगन ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर डगमगाती हुई उनकी ओर बढी ।
वे दोनों स्टेशन वैगन में सवार हो गये ।
रामाराव ने तेजी से स्टेशन वैगन को मोड़ा । स्टेशन वैगन पेड़ों से बाहर मुख्य सड़क की ओर दौड़ गई ।
तत्काल ही स्टेशन वैगन पर गोलियां बरसने लगीं लेकिन अधिकतर गोलियां पेड़ों से ही टकरा रही थीं ।
रामाराव स्टेशन वैगन पेड़ों से ढकी सड़क पर ले आया और तूफान की तेजी से उसे आबादी की ओर ड्राइव करने लगा ।
कुछ गोलियां स्टेशन वैगन की बाडी से टकराई लेकिन स्टेशन वैगन को या उन्हें किसी प्रकार की क्षति नहीं पहुंची ।
“हैलीकाप्टर से बचने का यही तरीका है कि हम आबादी में पहुंच जायें ।” - रामाराव बोला ।
“स्टेशन वैगन तुम्हारे हाथ कैसे आ गई ?” - जगतार सिंह बोला - “इसे ताला नहीं लगा हुआ था ?”
“लगा हुआ था ।” - रामाराव तनिक मुस्कराकर बोला - “साइड का ताला मैंने गोली मारकर खोल लिया था और इग्नीशन को शार्ट सर्कट करके गाड़ी स्टार्ट करने का तरीका मुझे आता है ।”
“पहले क्या कारें चुराया करते थे ?”
“रामाराव ।” - एकाएक सुनील बोला - “हमारा पीछा हो रहा है ।”
रामाराव ने घूरकर पीछे देखा ।
एक काले रंग की ब्यूक उनके पीछे आ रही थी ।
रामाराव के दांत भिंच गये । स्टियरिंग पर उसकी पकड़ और मजबूत हो गई ।
फिर काली ब्यूक में से दो हाथ बाहर निकले और सुनील को उन हाथों में एक लम्बी मार करने वाली शक्तिशाली रायफल दिखाई दी ।
“रामाराव ।” - सुनील चेतावनी भरे स्वर में बोला ।
“चिल्लाओ नहीं ।” - रामाराव फुंफकारा - “मैं अन्धा नहीं हूं । मैं भी देख रहा हूं ।”
फिर रामाराव स्टेशन वैगन को गहरी झोल देकर चलाने लगा । स्टेशन वैगन एक सीध में चलने के स्थान पर सड़क पर दायें-बायें मंडराती हुई दौड़ने लगी ।
रायफल के फायर की गगन भेदी आवाज उनके कानों में पड़ी ।
गोली स्टेशन वैगन से नहीं टकराई ।
सुनील ने खिड़की से हाथ निकालकर काली ब्यूक की दिशा में फायर किया ।
निशान चूक गया ।
स्टेशन वैगन आबादी के समीप आने लगी थी ।
काली ब्यूक से बदस्तूर रह रहकर फायर हो रहे थे ।
सुनील अपनी रिवाल्वर में दुबारा गोलियां भरने लगा ।
काली ब्यूक उनके समीप आती जा रही थी ।
एकाएक रामाराव ने स्टेशन वैगन को बाईं ओर की एक सड़क पर इतनी तेजी से मोड़ा कि सुनील उलटकर जगतार सिंह के ऊपर आ गिरा ।
“सम्भल के बैठ भापे ।” - जगतार सिंह बोला ।
काली ब्यूक ने भी उतनी ही तेजी से मोड़ काटा ।
“रामाराव ।” - सुनील बोला ।
“हां ।” - रामाराव एक क्षण के लिये भी सामने आपा छुड़ाकर भागती हुई सड़क से दृष्टि हटाये बिना बोला ।
“तुम्हें मालूम है, पेरिस में भारतीय दूतावास कहां है ?”
“मालूम है ।”
“वहां चलो ।”
“अच्छा ।” - रामाराव ने कहा । उसने वजह नहीं पूछी ।
स्टेशन वैगन नगर की विभिन्न सड़कों पर भागती रही । उसका पीछा करती हुई ब्यूक से रह रहकर फायर होते रहे ।
“भापे ।” - एकाएक जगतार सिंह जमहाई लेता हुआ बोला - “मैंनूं तो नींद आ रही है ।”
सुनील ने घूरकर उसकी ओर देखा ।
“और दर्शन कौर की बड़ी याद आ रही है ।”
“लानत है ।” सुनील झल्लाये स्वर में बोला ।
“हम दूतावास के समीप पहुंच रहे हैं ।” - रामाराव बोला ।
सुनील सम्भलकर बैठ गया ।
रामाराव ने तेजी से कार को दाईं ओर की सड़क पर मोड़ दिया ।
बाईं ओर की इमारतों की कतार में दूर एक इमारत पर सुनील को भारत का तिरंगा झंडा लहराता हुआ दिखाई दिया ।
उसी क्षण पिछली ब्यूक से लगातार दो फायर हुए ।
स्टेशन वैगन किसी शराबी की तरह सड़क पर लहराई ।
“टायर गया ।” - रामाराव ब्रेक पर पैर दबाता हुआ और पूरी शक्ति से स्टियरिंग को सीधा रखने का प्रयत्न करता हुआ बोला ।
स्टेशन वैगन एकदम तेजी से बाईं ओर घूमी और सीधी टैलीफोन के एक खम्बे से जा टकराई । लेकिन तब तक उसकी गति इतनी कम हो चुकी थी कि उन लोगों को केवल एक झटका ही लगा ।
“भागो ।” - रामाराव स्टेशन वैगन का अपनी ओर का द्वार खोलकर बाहर सड़क पर छलांग लगाता हुआ बोला ।
सौभाग्यवश स्टेशन वैगन के पास ही सड़क पर पहले से एक गाड़ी खड़ी थी और स्टेशन वैगन इतनी तिरछी हो गई थी कि रास्ता ब्लाक हो गया था । काली ब्यूक अब आगे नहीं निकल सकती थी ।
सुनील और जगतार सिंह भी स्टेशन वैगन से बाहर कूद गये और रामाराव के साथ दूतावास की इमारत की ओर भागे ।
“भापे ।” - जगतार सिंह उसके साथ दौड़ता हुआ बोला - “तैनूं टूटी कहां कमन्द वाला शेर आता है न ? नहीं आता तो पढ तू । मौका तो है ।”
“जुबान मत चला, मेरे बाप, टांगें चला ।” - सुनील बोला ।
“घबरा नहीं । मैं मिलखा सिंह का रिश्तेदार हूं ।”
“क्या रिश्ता है ?”
“वो भी सरदार है । मैं भी सरदार हूं ।”
उसी क्षण सुनील ने रामाराव को एकदम सड़क पर लेटते देखा । साथ ही कई गोलियां सनसनाती हुई सुनील के कान के पास से गुजर गई ।
“रामाराव !” - सुनील तीव्र स्वर में बोला ।
“डाउन ।” - रामाराव चिल्लाया - “मुझे कुछ नहीं हुआ है । सामने भी दुश्मन है ।”
सुनील और जगतार ने तत्काल स्वयं को सड़क पर गिरा दिया ।
दोनों ओर से उन पर फायर हो रहे थे और वे बीच में फंस गये थे ।
शायद शत्रुओं को पहले से ही इस बात की आशा थी कि वे भारतीय दूतावास का रुख करेंगे इसीलिये उन्होंने पहले ही वहां अपने आदमी तैनात किये हुये थे ।
वे सड़क पर करवट लेकर लुढकते हुए सड़क के किनारे पहुंच गये और वहां खड़ी एक कार की ओट में हो गये । अब वे दोनों एक इमारत की दीवार और कार के बीच में छिपे हुए थे ।
शत्रु दोनों ओर से गोलियां बरसा रहे थे और कवर में सावधानी से उनकी ओर बढ रहे थे ।
“तुम दूतावास की ओर के लोगों को सम्भालो ।” - सुनील जगतार सिंह से बोला - “मैं ब्यूक वालों को सम्भालता हूं ।”
“लोगों को रामाराव सम्भालता है ।” - जगतार सिंह बोला - “मैं तो वाह गुरु से प्रार्थना का काम सम्भालता हूं कि गोलियों की आवाज सुनकर इस गली में रहने वाला कोई पुलिस को फोन कर दे ।”
सुनील हैरान था । उस भयंकर स्थिति में भी जगतार सिंह तनिक भी तो भयभीत नहीं थी, तनिक भी तो गम्भीर नहीं था ।
जगतार सिंह ने निशाना साध कर दूतावास की ओर एक खम्बे के पीछे छुपे एक आदमी पर फायर किया ।
एक चीख की आवाज गली में गूंजी । वह आदमी लड़खड़ाता हुआ खम्बे के पीछे से निकला और फिर मुंह के बल सड़क पर ढेर हो गया ।
“वाह गुरु दा खालसा ! वाह गुरु दी फतेह ।” - जगतार सिंह खुश होकर बोला ।
सुनील भी ब्यूक की दिशा में फायर कर रहा था । लेकिन वे लोग सावधान थे । गोलियां बेकार जा रही थीं ।
रामाराव उस कार के दरवाजे से उलझा हुआ था जिसके पीछे वे छुपे खड़े थे ।
फायर हो रहे थे ।
एकाएक रामाराव ने रिवाल्वर को नाल की ओर से पकड़ लिया और जोर-जोर से रिवाल्वर का प्रहार कार की अपनी ओर की खिड़की के शीशे पर करने लगा ।
“क्या कर रहे हो?” - जगतार सिंह बोला ।
“पता नहीं कैसा ताला है ।” - रामाराव बोला - “साला गोली से तो खुलता ही नहीं । इसीलिये खिड़की तोड़ रहा हूं ।”
वैसे भी केवल उसी ओर की खिड़कियों के शीशे सलामत थे । शत्रुओं की गोलियों से सामने और पीछे की खिड़कियों के परखचे उड़ चुके थे । रामाराव मन ही मन भगवान से प्रार्थना कर रहा था कि कहीं अभी कार का कोई पहिया न बैठ जाये या इंजन को कोई नुकसान न पहुंचे ।
सुनील और जगतार सिंह सड़क की दोनों दिशाओं में ताक-ताक कर फायर कर रहे थे ।
खिड़की के रास्ते रामाराव कार के अन्दर घुस गया और इंजन स्टार्ट करने का प्रयत्न करने लगा ।
“गोलियां खतम हो रही हैं ।” - एकाएक जगतार सिंह बोला ।
“यहां भी यही हाल है ।” - सुनील बोला ।
उसी क्षण रामाराव ने इंजन स्टार्ट कर लिया ।
“कार में घुसो ।” - वह दबे स्वर में चिल्लाया और उसने हाथ बढाकर उनकी ओर का पीछे का दरवाजा खोल दिया ।
सुनील और जगतार सिंह फौरन कार में प्रविष्ट हो गये और पिछली सीट के आगे के खाली स्थान में झुककर बैठ गये । रामाराव ने एक भी क्षण नष्ट किये बिना कार को गियर में डाला और उसे तूफान की गति से दूतावास की ओर भगा दिया ।
पीछे से गोलियों की बाढ़ सी आई । कई गोलियां कार से टकराई । कुछ गोलियां कार की पिछली टूटी हुई खिड़की से होती हुई उनके सिरों को बाल-बाल छूती हुई गुजर गई ।
एकाएक सामने सड़क पर एक चीनी प्रकट हुआ और अपनी ओर बढती हुई कार में बैठे रामाराव को निशाना बनाकर अंधाधुन्ध फायर करने लगा ।
रामाराव ने पूरी शक्ति से ऐक्सीलेटर पर पांव दबाया ।
चीनी मौत की तरह अपनी ओर बढती कार को देखकर एकाएक भयभीत हो उठा । उसने छलांग लगाकर कार के रास्ते से एक ओर हट जाने का प्रयत्न किया लेकिन सफल नहीं हो सका ।
कार उसे रौंदती हुई गुजर गई ।
फिर रामाराव ने इतनी तेजी से कार को दूतावास के फाटक में मोड़ा कि कार के एक ओर के पहिये उठ गये । कार दूतावास के अधखुले फाटक से जाकर भड़ाक से टकराई ।
सुनील के यूं लगा जैसे कार के साथ कोई पहाड़ आ टकराया हो । जगतार सिंह उलटकर उसके ऊपर आ गिरा ।
लेकिन कार अभी भी रामाराव के कंट्रोल में थी । कार एक बार लहराई और बाईं ओर की दीवार की ओर बढी । रामाराव ने जोर से ब्रेक दबाई और तेजी से स्टियरिंग को विपरीत दिशा में घुमाना आरम्भ कर दिया ।
कार का बायां भाग दीवार से रगड़ खाता हुआ हट गया । कार फूलों की क्यारियों को रौंदती हुई एक अर्धवृताकर मोड़ काटकर फिर ड्राइव वे पर आ गई ।
दूतावास की इमारत के सामने की ढकी हुई पोर्टिको में कार को लाकर रामाराव ने पूरी शक्ति से अपना पांव ब्रेक पर दबाया । एक भयंकर चरचराहट की आवाज वातावरण में गूंजी, कार थोड़ी डगमगाई और स्थिर हो गई ।
तीनों झपटकर कार से बाहर निकले । सुनील दौड़ता हुआ इमारत की सीढियां चढकर बरामदे में पहुंच गया ।
रामाराव और जगतार सिंह ने पोर्टिको के खम्बों के पीछे पोजीशन ले ली ।
तीन चार आदमी दौड़ते हुए इमारत के कम्पाउन्ड में प्रविष्ट हुये ।
रामाराव और जगतार सिंह दोनों ने फायर किये ।
वातावरण में एक दर्दनाक चीख गूंजी । एक आदमी धड़ाम से फर्श पर गिरा । बाकी आदमी फौरन फाटक के बगल की दीवार की ओट में कूद गये ।
सुनील ने अपने एक हाथ की उंगली कालबैल के बटन पर रखी हुई और दूसरे हाथ से वह अन्धाधुन्ध दरवाजा पीट रहा था ।
“गोलियां खतम ।” - रामाराव बोला ।
जगतार सिंह ने दीवार की ओट में से निकलते हुए एक रिवाल्वर वाले हाथ का निशाना बनाकर फायर किया ।
निशाना चूक गया ।
सुनील बदस्तूर दरवाजा पीट रहा था और चिल्ला रहा था ।
“अगर दूतावास का दरवाजा नहीं खुला तो मारे जायेंगे गोलियां मेरी रिवाल्वर में भी खतम हो रही हैं ।”
उसी क्षण एक आदमी दूतावास की दीवार के ऊपर दिखाई दिया ।
उस आदमी ने हाथ घुमाकर कोई चीज पोर्टिको की ओर फेंकी ।
सूं सूं करता हुआ एक हैंड ग्रेनेड टन्न की आवाज से उन लोगों के समीप गिरा । जगतार सिंह आतंकित-सा हैंड ग्रेनेड की ओर झपटा । उसने बिजली की फुर्ती से फटने को तैयार हैंड ग्रेनेड उठाया और उसे सामने की दीवार की ओर फेंक दिया ।
हैंड ग्रेनेड दीवार तक पहुंचने से पहले हवा में ही फट गया । जगतार सिंह बाल-बाल बचा था । अगर उसने हैंड ग्रेनेड फेंकने में आधे क्षण की भी देर लगाई होती तो हैंड ग्रेनेड हाथ में ही फट जाता और फिर जगतार सिंह के चीथड़े उड़ जाते ।
दूतावास का द्वार अभी भी नहीं खुला था ।
एक आदमी फिर दीवार पर दिखाई दिया ।
जगतार सिंह ने रिवाल्वर का घोड़ा दबाया ।
चैम्बर घूमने की हल्की सी आवाज आई लेकिन रिवाल्वर में से गोली नहीं निकली ।
“मारे गये ।” - जगतार सिंह बड़बड़ाया ।
दीवार पर चढे आदमी ने फिर हैंड ग्रेनेड फेंका । हैंड ग्रेनेड आकर पोर्टिको में गिरने के स्थान पर पोर्टिको के एक खम्बे से टकराया और बाहर लान में लुढक गया ।
“दरवाजा खोलो ! दरवाजा खोलो !” - सुनील गला फाड़कर हिन्दोस्तानी में चिल्ला रहा था ।
लेकिन दरवाजा नहीं खुला ।
रामाराव और जगतार सिंह ने स्वयं को पोर्टिको के फर्श पर मुंह के बल गिरा दिया ।
हैंड ग्रेनेड फटा । बाहर लान में से ढेर सारे कंकड़ पत्थर उछलकर उनके ऊपर आकर गिरे ।
गोलियां बरसाते तीन चार चीनी फाटक के रास्ते फिर कम्पाउन्ड में प्रविष्ट हुए ।
जगतारसिंह और रामाराव उठकर अपने पैरों पर खड़े हो गये । जगतार सिंह ने अपनी रिवाल्वर अपनी ओर बढते हुए आदमियों पर खींच मारी ।
रिवाल्वर सबसे आगे वाले आदमी के चेहरे से टकराई और वह अपना मुंह पकड़कर वहीं बैठ गया । उसके साथियों ने उसे एक ओर धकेला और पोर्टिको की ओर लपके ।
उसी क्षण वातावरण में पुलिस की गश्ती गाड़ी के सायरन की तीव्र आवाज गूंज गई ।
पोर्टिको की ओर भागते हुए चीनी ठिठक गये । फिर वह एक भी क्षण नष्ट किये बिना उल्टे पांव बाहर की ओर भागे । आनन-फानन में वे बाहर खड़ी एक कार में सवार हुए और फिर कार सायरन की आवाज की दिशा से विपरीत दिशा में भाग निकले ।
“बच गये, मद्रासी ।” - जगतार सिंह उल्लासपूर्ण स्वर में बोला ।
उसी क्षण पुलिस की दो गश्ती गाड़ियां दूतावास के एकदम सामने आकर रुकी । सायरन बजना बन्द हो गया लेकिन गाड़ियों की छत पर लगी लाल बत्ती बदस्तूर जलती बुझती रही ।
फ्रेंच पुलिस के कई सशस्त्र सिपाही गाड़ियों में से बाहर कूद पड़े ।
यह पुलिस के सायरन का ही प्रभाव था कि अब तक सुनसान पड़ी हुई गली के खिड़कियां दरवाजे फटाफट खुलने लगे । लोग इमारतों में से बाहर निकलकर सड़क पर आ गये । स्त्रियां और बच्चे खिड़कियों में से झांकने लगे ।
कुछ सिपाही दूतावास से बाहर ही खड़े रहे । बाकी दूतावास के कम्पाउन्ड में घुस गये ।
फिर किसी ने रामाराव और सुनील के हाथ में रिवाल्वर देखी और वह जोर से अंग्रेजी में चिल्लाया “हथियार फेंक दो ।”
रामाराव ने तत्काल रिवाल्वर पुलिस वालों के कदमों की ओर उछाल दी । सुनील ने भी उसका अनुसरण किया । फिर रामाराव, सुनील और जगतार सिंह तीनों ने समर्पण की मुद्रा में अपने हाथ अपने सिरों से ऊपर उठा दिये । उन्हें भय था कि दूतावास के अर्ध-प्रकाशित वातावरण में कहीं वे ही बदमाश न समझ लिये जायें और खामखाह पुलिस की गोलियों के शिकार हो जायें ।
सिपाहियों के पीछे से एक सार्जेन्ट आगे आया और उन लोगों के समीप आ खड़ा हुआ ।
“क्या मामला है ?” - उसने टूटी-फूटी अंग्रेजी में पूछा ।
“हम भारतीय हैं ।” - सुनील बोला - “कुछ चीनी हत्यारे हमें मार डालना चाहते थे । हम दूतावास के सुरक्षित वातावरण की शरण लेने के लिये यहां घुसे थे । अगर आप यहां थोड़ी सी देर बाद पहुंचे होते तो यहां पर आपको हमारी लाशें मिलती ।”
“वे लोग तुम्हें क्यों मार डालना चाहते थे ?” - सार्जेन्ट ने पूछा ।
“मालूम नहीं ।” - सुनील ने बड़ी मासूमियत से उत्तर दिया - “शायद वे हमें लूटना चाहते हों ।”
उसी क्षण दूतावास का द्वार खुला और तीन भारतीय बाहर निकले । एक आदमी आगे बढा और सार्जेन्ट के सामने आ खड़ा हुआ ।
“मैं ।” - वह अधिकारपूर्ण स्वर में बोला - “फर्स्ट सैक्रेट्री हूं । पुलिस को फोन मैंने किया था ।”
सार्जेन्ट ने तत्काल उसे सैल्यूट किया ।
फर्स्ट सैक्रेट्री सुनील वगैरह की ओर घूमा । कुछ क्षण वह सिर से पांव तक उनको घूरता रहा और फिर बोला - “तुम लोग कौन हो ?”
“मेरा नाम सुनील है ।” - सुनील एक कदम आगे बढकर बोला - “यह रामाराव है । यह जगतार सिंह है । हम भारत से निकलने वाले समाचार पत्र ब्लास्ट के कारस्पान्डेन्ट हैं ।”
फर्स्ट सैक्रेट्री संदिग्ध नेत्रों से उनकी ओर देखने लगा ।
“आप जरा इधर आकर एक मिनट मेरी बात सुनिये ।” - सुनील बोला । फिर उसने पूर्ण आत्मविश्वास के साथ फर्स्ट सैक्रेट्री की बांह पकड़ी और उसे भीड़ से अलग एक ओर ले गया ।
पहले फर्स्ट सैक्रेट्री ने विरोध करना चाहा लेकिन फिर वह सुनील के साथ खिंचता चला गया ।
“मैं सैन्ट्रल इन्टैलीजेंस ब्यूरो की शाखा स्पैशल इन्टैलीजेंस का सदस्य हूं । मेरे पास कुछ महत्त्वपूर्ण कागजात हैं जिनका फौरन सुरक्षित भारत पहुंचना बहुत जरूरी है । उन कागजों की वजह से चीनी जासूस हमारे पीछे पड़े हुए थे । हमारी हत्या करके चीनी वे कागजात हमसे जबरदस्ती हथिया लेना चाहते थे । उन कागजों की हिफाजत के लिए ही हम लोग यहां दूतावास में घुसे थे । आप पुलिस को यहां से फौरन चलता कीजिये और मुझे राजदूत साहब से मिलवाइये ।”
फर्स्ट सैक्रेट्री हिचकिचाया ।
“अगर आप को मेरी किसी बात पर सन्देह है तो आप लन्दन स्थित भारतीय उच्चायुक्त से सम्पर्क स्थापित करके मेरे बारे में पूछ लीजिए । उन्हें मेरे बारे में निर्देश प्राप्त हो चुके हैं । अवसर पड़ने पर उन्हें मेरी हर प्रकार की सहायता करने के निर्देश थे । संयोगवश मैं लन्दन हाई कमीशन में पहुंचने के स्थान पर यहां पहुंच गया हूं ।”
“तुम सहायता के लिये लन्दन हाई कमीशन में क्यों नहीं गये ?” - फर्स्ट सैक्रेट्री ने प्रश्न किया ।
“क्योंकि लन्दन हाई कमीशन में सुरक्षित पहुंच पाना असम्भव था । लन्दन में शत्रुओं का बहुत बड़ा जाल फैला हुआ है । वे लोग कभी मुझे हाई कमीशन तक जीवित नहीं पहुंचने देते ।”
“मुझे तुम्हारी बातें बड़ी विचित्र और अविश्वसनीय लग रही हैं ।”
“सैक्रेट्री साहब यह समय आश्चर्य और अविश्वास प्रकट करने का नहीं है । आप फौरन कुछ कीजिये । जो कागजात इस समय मेरे पास हैं उन्हें प्राप्त करने के लिये वे कुछ भी कर डालने से नहीं हिचकेंगे । सम्भव तो यह भी है कि शायद वे भारी दल-बल के साथ दूतावास पर ही हमला बोल दें ।”
“ऐसा भी हो सकता ?” - फर्स्ट सैक्रेट्री नेत्र फैलाकर बोला ।
“बिल्कुल हो सकता है ।”
“मुझे तुम्हारे बारे में लन्दन हाई कमीशन से इन्क्वायरी करनी पड़ेगी ।”
“जरूर कीजिये । लेकिन भगवान के लिये जो करना है, जल्दी कीजिये ।”
“आओ ।”
सुनील फर्स्ट सैक्रेट्री के साथ वापिस पोर्टिको में पहुंच गया ।
पुलिस सार्जेन्ट ने प्रश्नसूचक नेत्रों से फर्स्ट सैक्रेट्री की ओर देखा ।
फर्स्ट सैक्रेट्री कुछ क्षण फ्रेंच में सार्जेन्ट से बातें करता रहा । फिर सार्जेन्ट ने सहमति सूचक ढंग में सिर हिलाया, फर्स्ट सैक्रेट्री को सैल्यूट मारा और सैनिकों को कुछ आदेश दिये और कम्पाउन्ड से बाहर निकल गया ।
सशस्त्र सैनिक वहीं खड़े रहे ।
“आओ ।” - फर्स्ट सैक्रेट्री सुनील से बोला ।
“ये सैनिक...” - सुनील ने कहना चाहा ।
“यहीं रहेंगे ।” - फर्स्ट सैक्रेट्री बोला - “तुम्हीं ने तो कहा था कि शत्रु दूतावास पर भी आक्रमण कर सकते हैं ।”
“ओह ।” - सुनील बोला । उसने रामाराव और जगतार सिंह को संकेत किया और फर्स्ट सैक्रेट्री के साथ हो लिया ।
“फौरन लन्दन हाई कमीशन सम्पर्क स्थापित करो ।” - फर्स्ट सैक्रेट्री ने अपने एक सहयोगी को आदेश दिया ।
सहयोगी लम्बे डग भरता हुआ उन लोगों से पहले दूतावास की इमारत में प्रविष्ट हो गया ।
***
राजदूत ने पूरा सहयोग दिया ।
पनडुब्बी के अविष्कार के कागजों का हरे रंग का पैकेट डिप्लोमैटिक बैग में भारत भेज दिया गया । अगले दिन सुनील को एयर इण्डिया के एक प्लेन पर बुक कर दिया गया । सुनील ने दूतावास में ही रामाराव और जगतार सिंह से विदा ली । फ्रेंच पुलिस की सुरक्षा में उसे पेरिस के ओरली एयरपोर्ट पर पहुंचा दिया गया । सुनील की सुरक्षा के लिये पुलिस तब तक एयरपोर्ट तक तैनात रही, जब तक एयर इण्डिया का भारत जाने वाला वह प्लेन, जिस पर सुनील सवार था, टेक आफ नहीं कर गया ।
एयरपोर्ट की भीड़ में सुनील को वान-सी-वान की एक झलक मिली थी लेकिन अब वह उससे भयभीत नहीं था । हरे रंग का पैकेट अब वान-सी-वान के हाथ में आ पाना असम्भव था और वान-सी-वान के बदमाश भी ढेर सारी सशस्त्र पुलिस की मौजूदगी में कुछ कर पाने में असमर्थ थे ।
सारे रास्ते पुलिस रामाराव और जगतार सिंह को याद करता रहा । अगर उन्होंने अपनी जान की बाजी लगाकर सुनील की सहायता न की होती तो सुनील उस अभियान में कभी सफल नहीं हो पाता । उसे अफसोस था तो केवल एक बात का कि वह प्रोफेसर भटनागर को जीवित वापिस लेकर नहीं आ सका था ।
फिर उसे प्रीति की याद आई ।
बाप - बेटी का बड़ा भयंकर अन्त हुआ था ।
एयर इण्डिया का विशाल बोईंग प्लेन निर्विघ्न अपनी यात्रा समाप्त करके राजनगर पहुंच गया ।
सुनील सुरक्षित राजनगर पहुंच गया ।
एयरपोर्ट से सुनील सीधा कर्नल मुखर्जी की वाल्टन रोड स्थित कोठी पर पहुंचा ।
हरे रंग का पैकेट पहले ही सुरक्षित भारत पहुंच चुका था और प्रतिरक्षा मन्त्रालय को सौंपा जा चुका था ।
हमेशा की तरह उस विकट अभियान की सफलता के बाद सुनील केवल कर्नल मुखर्जी की ही तारीफी निगाहों का हकदार था ।
समाप्त
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