मंगलवार : नौ मई : मुम्बई करनाल दिल्ली
सुबह सवेरे विमल ने काठमाण्डू में ज्यूरिच ट्रेड बैंक के प्रेसीडेंट मारुति देवाल को उसके प्राइवेट नम्बर पर टेलीफोन किया।
तत्काल उत्तर मिला।
“गुड मार्निंग, सर।” — विमल बोला — “मैं कौल बोल रहा हूं।”
“वैरी गुड मार्निंग, मिस्टर कौल।” — देवाल का उत्तर मिला।
“ओरियन्टल से कोई टेलीफोन काल आयी, सर?”
“हां। कल ही आ गयी थी। काल करने वाला कोई महेश दाण्डेकर था जो कि अपने आपको ओरियन्टल का मैनेजिंग डायरेक्टर बताता था। मैंने उसे वो जवाब दे दिया था जो कि तुम चाहते थे कि उसे मिले।”
“सन्तुष्ट हो गया था वो?”
“सन्तुष्ट तो लगता था वो आवाज से लेकिन सन्तुष्ट से ज्यादा हैरान लगता था।”
“उम्मीद जो नहीं थी उसे करैक्ट जवाब मिलने की!”
“हां।”
“बहरहाल अपनी नामुराद जिन्दगी में जितना हैरान उसने होना था, वो हो चुका।”
“क्या मतलब?”
“मुम्बई का कोई आज का अखबार देखियेगा। समझ जायेंगे।”
“आई सी।”
“देवाल साहब, आप ने मेरी खातिर अपने बैंकिंग सिस्टम की गोपनीयता का नियम तोड़ा, इसके लिये मैं आपका तहेदिल से शुक्रगुजार हूं।”
“दैट इज नॉट नैसेसरी। जिस शख्स ने मेरी जान बचाई हो, जिसने वक्त रहते मुझे अपना बैंक बचा लेने का मौका दिया हो, उसके लिये ये एक मामूली काम था जो मैंने किया। सो रैस्ट अश्योर्ड, यू ओ मी नथिंग।”
“थैंक्यू, सर।”
ऐसा था विमल के व्यक्तित्व का जादू कि मारुति देवाल जैसा शख्स, जिसने अपने बैंकिंग सिस्टम की जगतप्रसिद्ध गोपनीयता बनाये रखने की खातिर अपनी दुल्हन बनी नौजवान बेटी की बलि देना कुबूल कर लिया था, जिसने खुद बेशुमार ताड़नायें सहकर अपनी जुबान खोलना कुबूल नहीं किया था, जुबान न खोलने की जिद की वजह से जिसकी मौत निश्चित थी, वो स्वेच्छा से विमल की खातिर झूठ बोलने को तैयार हो गया था। ये विमल की वो ताकत थी जिससे कोई पार नहीं पा सकता था। दीन के हित में लड़ने वाले को हासिल ये वो खुदाई मदद थी जो पता नहीं कितने बिगड़े काम संवार देने की कूवत रखती थी।
दाता! मैं निरगुणिआरे को गुणु नाहीं, आपे तरसु पइयोई।
उसने टेलीफोन डायरेक्ट्री में राजेश जठार का नम्बर तलाश करके उसके घर पर काल लगाई।
जठार से उसका सम्पर्क हुआ।
“लोहिया साहब के यहां से विमल बोल रहा हूं, सर।” — विमल बोला — “गुड मार्निंग।”
“गुड मार्निंग।” — जठार की आवाज आयी — “मैं तुम्हें ही याद कर रहा था।”
“अच्छा!”
“अभी अभी मैंने टाइम्स ऑफ इन्डिया में दाण्डेकर के साथ हुए हादसे की खबर पढ़ी।”
“मैंने भी पढ़ी। मुझे आपके एम.डी. साहब की बेवक्त की मौत का अफसोस है।”
“तुम्हारे लिये तो वो बड़े मौके की मौत साबित हुई!”
“मेरे लिये!”
“कौल के लिये। राजा साहब के लिये।”
“जठार साहब, लगता है आप मुझे कोई गलत शख्स समझ रहे हैं। मैंने अर्ज किया था कि मैं विमल बोल रहा हूं। विमल! लोहिया साहब का फ्रेंड, जो कि कल आपसे लोहिया साहब की कोठी पर मिला था।”
“कोई भी बोलो, भाई, लेकिन एक काम न करो।”
“कौन सा काम?”
“दाई से पेट छुपाने की कोशिश न करो।”
विमल के मुंह से बोल न फूटा।
“पेट ताड़ लिया आपने?” — फिर वो बोला।
“ताड़ भी लिया और टटोल भी लिया।”
“अच्छा!”
“लोहिया मेरा जिगरी दोस्त है। उसने मुझे सब बता दिया है।”
“सब?”
“हां, सब। लेकिन खातिर जमा रखो, दाई भी अपनी है और पेट भी अपना है।”
“मतलब?”
“मैं लोहिया की ही कल की बात दोहराता हूं। तुम्हारी जुबान से निकली हर बात मेरे पास भी उतनी ही महफूज होगी जितनी कि लोहिया के पास। जैसे ये लोहिया की गारन्टी थी, वैसे ही इसे मेरी भी गारन्टी जानो।”
“वो तो आपकी मेहरबानी है लेकिन मैं पसन्द करता अगर लोहिया साहब इस बाबत अपना मुंह न फाड़ते।”
“अमूमन नहीं फाड़ते। लेकिन गिलास हाथ में हो तो गैर-जिम्मेदार हो जाते हैं, खासतौर से अपनों के सामने।”
“और गैरों के सामने?”
“गैरों की बात गैर जानें।”
“आई सी।”
“बहरहाल, मैं कह रहा था कि तुम्हारे लिये तो दाण्डेकर की मौत बड़ी मौके की मौत साबित हुई!”
“हो जाता है कभी-कभार ऐसा। ऐसे नफे नुकसान चलते ही रहते हैं इस फानी दुनिया में।”
“कुछ चलते रहते हैं, कुछ चलाये जाते हैं।”
“जी, क्या फरमाया?”
“कुछ नहीं। यूं ही जरा लाउड थिंकिंग कर रहा था। फोन कैसे किया?”
“ये जानने के लिये किया कि शायद आपको खबर हो कि आपके एम.डी. साहब की मौत की रू में क्या आज की बोर्ड मीटिंग होगी?”
“अभी अभी चेयरमैन रणदीवे साहब को फोन करके यही सवाल मैंने उनसे किया था। उनका कहना था कि मीटिंग होगी और जरूर होगी।”
“गुड।”
“ही सेज दि शो मस्ट गो ऑन।”
“वैरी गुड। तो अब मीटिंग में आप से मुलाकात होगी।”
“एक बात और?”
“फरमाइये!”
“मोहसिन खान से कैसे वाकिफ हो?”
“वो जो डायरेक्टर्स में से एक थे?”
“वही।”
“किस ने कहा मैं उनसे वाकिफ हूं?”
“उसकी वोट देने की मर्जी नहीं थी। तुमने उसके कान में कोई खास फूंक मारी थी तो तभी उसने अपना हाथ उठाया था और खास उसी की वोट से दाण्डेकर का खेल बिगड़ा था। ऐसी मेहरबानी कोई किसी नावाकिफकार के लिये तो नहीं करता!”
“करता है, जनाब। क्यों नहीं करता? मिसाल कल आपने खुद अपनी आंखों से देखी थी।”
“फिर भी...”
“जठार साहब, मोहसिन खान साहब आपके बिरादरीभाई हैं, आपके फैलो-डायरेक्टर हैं, आप उन्हीं से क्यों नहीं पूछते कि उन्होंने ऐसा क्यों किया था?”
“मैंने पूछा था।”
“क्या जवाब मिला था?”
“कोई जवाब नहीं मिला था। ही वाज नाट विलिंग टु टाक ऑन दिस सब्जेक्ट।”
“दैट्स टू बैड।”
“लोहिया से कब से यारी है?”
“क्यों पूछ रहे हैं?”
“कल वो तुम्हें अपना खास दोस्त बता रहा था। लोहिया से मेरा बड़ा पुराना परिचय है। मैं उसके तमाम खास दोस्तों को जानता हूं लेकिन तुम्हें नहीं जानता था। ऐसा क्यों?”
“इत्तफाक की बात है।”
“फिर भी?”
“आप कहते हैं कि लोहिया साहब ने मेरे बारे में आपको सब बता दिया। क्या सब में ये बात शामिल नहीं है कि मेरी उनसे कब से यारी है?”
“नहीं शामिल है। तभी तो तुम से सवाल कर रहा हूं।”
“सर, मे आई आफर ए वर्ड टु दि वाईज?”
“यस।”
“समटाइम्स इग्नोरेंस इज ब्लिस। कई बार अज्ञान ही वरदान होता है।”
जठार खामोश रहा।
“कल लोहिया साहब ने मुझे अपना दोस्त नहीं, अजीज भी कहा था। अब जब तक वो अपने इस अजीज से आजिज नहीं आ जाते, तब तक तो आप इस नाचीज की तरफ नजरेइनायत ही रखें, मेहरबानी होगी।”
“मिस्टर कौल! आई मीन विमल!”
“सर!”
“यू आर ए वैरी मिस्टीरियस पर्सन।”
“नथिंग लाइक दैट, सर।”
“बहुत गहरी शख्सियत पायी है तुमने। तुम्हारी शख्सियत के जिस पहलू पर भी मैं नजर डालता हूं, मुझे पर्दे ही पर्दे दिखाई देते हैं।”
“दो चार मुलाकात और होने दीजिये, जनाब, तमाम पर्दे उड़ जायेंगे।”
“देखेंगे।”
सम्बन्ध विच्छेद हो गया।
विमल ने भी रिसीवर वापिस क्रेडल पर रखा।
“तो” — नीलम बोली — “मीटिंग होगी?”
“हां।” — विमल बोला — “बड़ा थियेट्रिकल मिजाज पाया जान पड़ता है चेयरमैन साहब ने। कहते हैं शो मस्ट गो ऑन।”
“हिन्दोस्तानी में इसका क्या मतलब हुआ?”
“वही जो बोला। मीटिंग होगी।”
“हम सीधे वहीं पहुंचेंगे या कहीं और का भी प्रोग्राम है?”
“और कोई प्रोग्राम नहीं। और सीधे हम नहीं पहुंचेंगे, मैं पहुंचूंगा।”
“क्या मतलब?”
“आज तू मेरे साथ नहीं जायेगी। आज मैं अकेला जाऊंगा।”
“ये नहीं हो सकता।”
“हो सकता है। होगा। होना जरूरी है।”
“क्यों जरूरी है?”
“तुझे नहीं पता क्यों जरूरी है? कल वो पुलिस वाले मेरिन ड्राइव पर हमारी तलाशी लेने का खयाल न छोड़ देते तो जानती है न कि क्या होता?”
“क्या होता?”
“उन्हें पता चल जाता कि तू मर्द नहीं, औरत है।”
“चला तो नहीं?”
“अब ये ढीठों जैसी बातें तो तू मेरे से कर नहीं।”
“सरदार जी, जिन्नू रब रक्खे, ओनू कौन चक्खे!”
“बातें न बना और बात का मर्म समझ। बिना इन बातों का हवाला दिये बात का मतलब समझ कि क्लब-29 तू मेरे साथ गयी थी, उस मवाली घोरपड़े की फिराक में कमाठीपुरे मेरे साथ गयी थी, ज्ञानप्रकाश डोगरा का बोलो राम करने के अभियान में तू मेरे साथ थी, वगैरह। नीलम, उन दिनों तेरा साथ मेरे लिये इसलिये जरूरी था क्योंकि तब तेरे सिवाय मेरा कोई साथी नहीं था, कोई मददगार नहीं था। तब मैं एक तनहा आदमी था जिसकी निगाह में तेरी कैसी भी मदद की कोई अहमियत थी। वाहेगुरु की किरपा से आज हालात वैसे नहीं हैं। आज न मैं तनहा हूं और न बेयारोमददगार हूं। इसलिये पहले की तरह तेरा मेरे साथ कन्धे से कन्धा मिला कर काम करना अब कतई जरूरी नहीं।”
“अरे, सरदार जी, एक से दो सदा भले होते हैं।”
“होते हैं लेकिन जब दूसरा मर्द बनी जनानी हो तो भले नहीं होते। तो मुसीबत का बायस होते हैं। तो आ बैल मुझे मार जैसी हालत पैदा करते हैं।”
“तुम खामखाह बात का बतंगड़ बना रहे हो।”
“नहीं। मैं एक सही और जायज बात कह रहा हूं।”
“मैं अब तुम्हारी परछाई हूं। मैं नहीं टलने वाली।”
“अरी, खरदिमाग, तेरा क्या काम है? मेरी दुश्वारियां कम करना या उन्हें बढ़ाना?”
“कम करना। बल्कि खत्म करना।”
“तो करती क्यों नहीं?”
“कर तो रही हूं!”
“नहीं कर रही। सदा मेरे साथ चिपके रहने की अपनी जिद छोड़ेगी तो करेगी।”
“सरदार जी, मैं नहीं।”
“अच्छा चल ऐसा करते हैं। जहां तेरे लिये बहूरूप की जरूरत नहीं होगी, जहां तुझे गूंगी करार देना जरूरी नहीं होगा, जहां तू मेरे साथ जैसी है, वैसी जा सकेगी, वहां मैं तुझे साथ लेकर जाऊंगा।”
“आज के बाद ऐसे ही सही।”
“आज के बाद क्यों? आज क्यों नहीं?”
“अब मुझे कुछ सोचने का, फैसला करने का, मौका भी दोगे या नहीं? उन रुड़जाने बोर्ड वालों को चौबीस घन्टों की मियाद मिल सकती है कोई फैसला करने के लिये, मुझे नहीं मिल सकती?”
“यानी कि आज तो तू मेरे साथ चले ही चले।”
“हां। कल की तरह ही सूट पहन के और दाढ़ी मूंछ लगा के। याद है कल वो पुलिस वाला हमें देख के क्या कह रहा था?”
“क्या कह रहा था?”
“कह रहा था हम सगे भाई लगते थे। मील से देखने पर भी।”
“तू मेरा भाई बनना चाहती है?”
“क्या हर्ज है?”
“मर्द तो तू है नहीं! तू तो औरत है! यानी कि तू बहन और मैं बहन...”
“दुर फिटे मूं।” — नीलम उसकी पीठ पर एक धौल जमाती बोली।
विमल हंसा।
“अब दिल्ली फोन करो ताकि मुझे अपने सूरज की कोई खबर मिल सके।”
सहमति में सिर हिलाता विमल वो पी.पी. नम्बर डायल करने लगा जो कि उसे एयरपोर्ट पर फोन करके सुमन ने दिया था।
चारों बिरादरीभाई एक उजाड़ फार्म के उससे भी उजाड़ फार्म हाउस में जमा थे। वहीं वो आदमी भी जमा थे जिन्होंने कि पिछली रात मायाराम को पुलिस के चंगुल से छुड़ाया था। वो फार्म जी.टी. रोड से कई मील हट के था और जो करीबी, कदरन बसी हुई जगह थी, वो कुंजपुरा नाम का मुट्ठीभर लोगों का गांव था।
मायाराम की हथकड़ियां बेड़ियां खोली जा चुकी थीं, उसे काफी आराम का मौका दिया जा चुका था और वो नाश्ते पानी से भी नवाजा जा चुका था जबकि एक एयरकंडीशंड फोर्ड एस्कार्ट पर सवार होकर बिरादरीभाई वहां पहुंचे थे।
पिछली रात की अफरातफरी में उसकी बैसाखियां पीछे छूट गयी थीं लेकिन उसके मुक्तिदाता ने उसे आश्वासन दिया था कि बहुत जल्द उसके लिये नयी बैसाखियों का इन्तजाम कर दिया जायेगा।
मुक्तिदाता से — कथित ‘नये कैदी से’, जिसने अपना नाम टोकस बताया था — मायाराम कई बार सवाल कर चुका था कि वो कौन था और क्यों उसने उसे पुलिस कस्टडी से रिहा कराने का इतना जोखमभरा काम किया था। हर बार उसे एक ही जवाब मिला था :
साहब लोग आकर बतायेंगे।
बहरहाल साहब लोग जो कोई भी थे, उसके लिये वो संकटमोचन थे, मुश्किलकुशा थे।
आखिरकार साहब लोग वहां पहुंचे थे।
उनको देखते ही मायाराम पर उनका रौब गालिब हो गया था। उनके सम्मान में उसने उठ के खड़ा होने की कोशिश की थी लेकिन सफेद दाढ़ी वाले सरदार जी ने उसे वापिस उसकी चारपाई पर बिठा दिया था।
“खेचल नहीं, मायारामां, खेचल नहीं।” — पवित्तर सिंह आश्वासनपूर्ण स्वर में बोला — “अब हम सब एक हैं।”
“हम सब?”
“हां। मैं पवित्तर सिंह, ये झामनानी, ये भोगीलाल और ये ब्रजवासी।”
“वडी, अब तू ये समझ” — झामनानी बोला — “कि हम पांच पांच उंगलियां हैं जो कि इकट्ठी हो के घूंसा बनेंगी तो सोहल की खोपड़ी से उसका मगज निकाल देंगी।”
“सोहल!” — मायाराम सकपकाया — “आप लोग सोहल को जानते हैं?”
“वडी, सोहल को तो जानते ही हैं, उसको भी जानते हैं जिसको तू सोहल बोला।”
“कौल।” — ब्रजवासी बोला — “कौल की बात कर रहा है सिन्धी भाई।”
“ओह!” — मायाराम के मुंह से निकला।
“मायारामां” — पवित्तर सिंह बोला — “आज की तारीख में तू सोल का सताया हुआ है। ठीक?”
“बहुत ठीक, सरदार जी। सताया क्या हुआ हूं, उसका मारा हुआ हूं। सीधा फांसी के फन्दे का रुख था जबकि आप लोगों ने मुझे छुड़ाया। मैं किन अल्फाज में आपका शुक्रिया अदा करूं?”
“शुक्रिया कादा, कमलया! ओये, हम तेरे काम आये हैं, तू हमारे काम आयेगा, हिसाब बराबर हो जायेगा।”
“एक हाथ दूसरे हाथ को धोवे है, जी।” — भोगीलाल बोला।
“देखा!” — ब्रजवासी बोला — “कितनी अक्ल की बात की अपने लाला ने?”
“मैं आप लोगों के किस काम आ सकता हूं?” — मायाराम बोला।
“बता, भई, सिन्धी भाई।”
“वडी, साईं, वो कर्मांमारा सोहल तेरा दुश्मन है न?” — झामनानी बोला।
“बिल्कुल है, जी।” — मायाराम बोला — “जो उसने हाल ही में मेरे साथ किया है, उसके बाद तो घोर शत्रु है मेरा वो माईंयवा सोहल।”
“साढा वी।” — पवित्तर सिंह बोला।
“वडी, तू जानता है न, नी, कि एक ही जने के दो दुश्मन दोस्त होते हैं?”
“वो तो है।”
“वडी, तो हम दोस्त हुए न, नी?”
“यूं तो हुए, मालको।”
“तेरा साईं जीवे। अब तेरी एक खास खूबी ये सुनने में आयी है कि तू सोहल की नस नस से वाकिफ है। वडी, सुना है कि पूरे दस महीने उसके पीछे लगे रह कर तूने सोहल की मुकम्मल क्रिमिनल लाइफ को सीन टु सीन रीकंस्ट्रक्ट किया था। वडी, ये बात सच है, नी?”
“है तो सही! मालको, दस महीने की अनथक मेहनत से मैंने सोहल के कारनामों का मनका मनका चुन कर उन्हें एक धागे में पिरोया था।”
“वडी, दोहरा तो सही कि क्या चुना और क्या पिरोया?”
“सुनिये। इतना तो उससे अमृतसर में हुई मुलाकात से पहले ही मुझे मालूम था कि पहले वो इलाहाबाद में एरिक जानसन नाम की एक फर्म में एकाउन्टेंट की नौकरी करता था जहां कि गबन के इलजाम में उसे दो साल की सजा हुई थी लेकिन वो जेल तोड़ के भाग गया था। फिर दाढ़ी मूंछ और केश कटा के मुम्बई पहुंच गया था जहां कि उसने विमल कुमार खन्ना बन कर सर गोकुलदास के यहां नौकरी की थी, जहां उसने लेडी शान्ता गोकुलदास का कत्ल किया था और उसका कीमती मोतियों का हार लेकर फरार हो गया था। मुम्बई से भाग कर वो मद्रास पहुंचा जहां गिरीश माथुर बन कर और कुछ लोकल बदमाशों के साथ मिल कर उसने अन्ना स्टेडियम से सत्तर लाख रुपये की रकम लूटी। मद्रास से दिल्ली पहुंचा जहां बनवारी लाल बन के तांगा चलाने लगा और एक बैंक वैन रॉबरी में शामिल हुआ, अपने साथियों की दगाबाजी से गिरफ्तार हुआ लेकिन पता नहीं कैसे तिहाड़ जेल से निकलने में कामयाब हो गया? अमृतसर पहुंचा तो इत्तफाक से मेरे से टकरा गया और मैंने उसे पहचान लिया कि वो सोहल था। वहां भारत बैंक की पैंसठ लाख की डकैती में मेरा साथी बना, मुझे अधमरा करके अपनी तरफ से मुझे पुलिस के रहमोकरम पर छोड़ कर खुद भाग के गोवा पहुंच गया जहां पणजी में कैलाश मल्होत्रा बन कर लोकल गैंगस्टर्स में खिचड़ी में घी की तरह जा मिला और मुम्बई के मशहूर स्मगलर बिशम्भरदास नारंग, उसके सहायक रणजीत चौगुले और वहां के सोनवलकर नाम के एक पुलिस इन्स्पेक्टर का कत्ल किया। वहां से भाग कर जयपुर पहुंचा जहां बसन्तकुमार मोटर मैकेनिक बन कर बीकानेर बैंक की वैन लूटी। जयपुर से आगरा पहुंचा जहां रत्नाकर स्टील मिल की पे रोल वाली बख्तरबन्द गाड़ी लूटी। आगरे से भागा तो राजनगर पहुंच गया जहां नितिन मेहता बन कर सिडनी फोस्टर नाम के अमरीकी डिप्लोमैट का फिरौती की रकम के लिये अपहरण किया। उसके बाद वापिस मुम्बई पहुंचा और एक लम्बे अरसे तक वहीं डेरा जमाये रहा। मुम्बई में तब राजबहादुर बखिया नाम के सुपर अन्डरवर्ल्ड बॉस का बोलबाला था जिसकी क्रिमिनल आर्गेनाइजेशन ‘कम्पनी’ के नाम से जानी जाती थी और मुम्बई का होटल सी-व्यू जिसका हैडक्वार्टर था। वहां पता नहीं किस बात पर उसकी बखिया से ठन गयी, नतीजतन उसने बखिया के जॉन रोडरीगुएज, ज्ञान प्रकाश डोगरा, शिवाजीराव, पालकीवाला, कान्ति देसाई, मोटलानी, दण्डवते, मुहम्मद सुलेमान, शान्तिलाल और जोजो जैसे बड़े ओहदेदार मार गिराये और रतनलाल जोशी, अमीरजादा आफताब खान और मैक्सवैल परेरा नाम के तीन और बड़े ओहदेदारों की मौत की वजह बना। इसके अलावा ‘कम्पनी’ के और भी कई आदमी मार गिराये और कई ठिकानों पर हमला किया। उसने बखिया की कायनात तो उजाड़ी ही, आखिर में बखिया का भी काम तमाम कर दिया।”
“वडी, अकेले ने किया, नी?”
“तब कुछ लोकल स्मगलर और गैंगस्टर्स उसका रौब खाकर उसके हिमायती बन गये थे लेकिन मोटे तौर पर उसने जो कुछ किया था, अकेले ही किया था।”
“झूलेलाल!”
“फिर उसने मुम्बई में ही आलमगीर म्यूजियम से बेशकीमती फ्रांसीसी पेंटिंगें चुराईं। जौहरी बाजार में प्रीमियर वाल्ट सर्विस का अभेद्य वाल्ट खोल तो लिया लेकिन किसी वजह से लूट न सका। उसकी जगह वहीं बनी सुनारों की मार्केट लूट ली। तब तक ‘कम्पनी’ की गद्दी पर बखिया का एक लेफ्टीनेंट इकबाल सिंह काबिज हो चुका था। उसने इकबाल सिंह के खिलाफ ‘कम्पनी’ के दुश्मन इब्राहीम कालिया से जुगलबन्दी की और स्वैन नैक प्वायन्ट के नाम से जाने जाने वाले जजीरे पर आबाद ‘कम्पनी’ के बराबर के पार्टनर बादशाह अब्दुल मजीद दलवई का कैसीनो लूटा। उस दौरान उसने जो बड़ा करतब किया था, वो ये था कि उसने अपने चेहरे पर प्लास्टिक सर्जरी करा ली थी जिससे कि उसकी सूरत ही नहीं, आवाज भी बदल गयी थी।”
“वडी, आवाज भी बोला, नी?”
“हां।”
“वडी, कमाल है, नी! उसके बाद?”
“उसके बाद कुछ अरसे के लिये वो मुम्बई से गायब हो गया। फिर जैसे एकाएक गायब हुआ, वैसे ही एकाएक वापिस मुम्बई पहुंच गया। उसी दौरान ‘कम्पनी’ के सुपर बॉस और बखिया का वारिस बना इकबाल सिंह भी अपनी बीवी लवलीन समेत कहीं गायब हो गया था और उसकी जगह ‘कम्पनी’ का तब का दूसरे नम्बर का ओहदेदार व्यास शंकर गजरे ‘कम्पनी’ की गद्दी पर काबिज हो गया था। गजरे के निजाम में सोहल ने ‘कम्पनी’ का समूल नाश कर देने का ऐलान किया और अपना अगला वार मुम्बई से तीन सौ किलोमीटर दूर स्थित गजविलास फोर्ट पर किया जहां कि डिस्टिलरी की ओट में ‘कम्पनी’ की हेरोइन बनाने की फैक्ट्री चलती थी। डिस्टिलरी के एकाउन्टेंट सुबीर बापट और एक भूतपूर्व कर्मचारी विनोद शिन्दे के साथ मिलकर वहां से बीस करोड़ रुपया लूटा और ‘कम्पनी’ के तब के सुपर बॉस को उसके रूबरू होकर अल्टीमेटम दिया कि वो उसके समेत ‘कम्पनी’ के तमाम ओहदेदारों को खत्म कर देगा। अपने अल्टीमेटम पर उसने खरा उतर कर दिखाया और यूं ‘कम्पनी’ के जिन टॉप के ओहदेदारों का खात्मा किया, वो थे दशरथ किलेकर, भाई सावन्त, रशीद पावले, कावस बिलीमोरिया, किशोर पिंगले और आखिर में खुद व्यास शंकर गजरे। आज की तारीख में ‘कम्पनी’ का मुकम्मल सर्वनाश हो चुका है।”
“वडी, अकेले सोहल के किये, नी?”
“मोटे तौर पर जो किया, उसी ने किया अलबत्ता कोई छोटी मोटी मदद उसे हर जगह हमेशा हासिल होती थी।”
“जैसे” — ब्रजवासी बोला — “दिल्ली में धोबियों की पलटन की!”
झामनानी ने सहमति में सिर हिलाया और फिर बोला — “और?”
“और वो जो उसने पिछले दिनों मेरे साथ किया। मैंने अपनी पुरानी संगिनी नीलम से चार पैसे झटकने की कोशिश की तो माईंयवा प्रेत की तरह दिल्ली पहुंच गया और मुझे अपने ही जोड़ीदार हरिदत्त पंत के कत्ल के झूठे केस में फंसा दिया। मैं गिरफ्तार हो गया तो मेरे पास पहाड़गंज थाने के लाॅकअप में पहुंचा और मुझे रिहा करा देने का झांसा देकर मेरे से वो तमाम सबूत निकलवा कर नष्ट कर दिये जो कि नीलम को मेरी बीवी और कौल को सोहल साबित करते थे। मैंने चिल्ला चिल्ला कर वहां कहा कि वो सोहल था लेकिन किसी ने एक न सुनी। उल्टे फिंगरप्रिंट्स की कोई जादूगरी दिखा के खुद थाने के एस.एच.ओ. ने ही कौल के हिमायतियों के सामने साबित करके दिखा दिया कि कौल सोहल नहीं हो सकता था।”
“हिमायती कौन, नी?”
“एक तो गैलेक्सी ट्रेडिंग कम्पनी, जहां कि कौल कहता था कि वो नौकरी करता था, का मालिक शिवशंकर शुक्ला ही था, दूसरा योगेश पाण्डेय था जो कि सी.बी.आई. का कोई बड़ा साहब बताया जाता था।”
“क्या!” — ब्रजवासी हैरानी से बोला — “यानी कि एक सरकारी आदमी भी सोहल का हिमायती था?”
“आम आदमी नहीं। बड़ा साहब?”
“रहवे कित से?” — भोगीलाल बोला।
“ई -13, कालिंदी।”
“और ये शिवशंकर शुक्ला?”
“कोठी नम्बर चौबीस, पंडारा रोड। आफिस कर्जन रोड की एक मल्टीस्टोरी बिल्डिंग की पांचवी मंजिल पर।”
“तुम्हारे से निकलवा कर” — ब्रजवासी बोला — “जो सबूत उसने नष्ट किये थे, वो क्या थे?”
“वो मेरी और नीलम की शादी की तसवीरों के नैगेटिव और शादी कराने वाले पंडित का जारी किया एक सर्टिफिकेट था। इन सब चीजों को उसने लाॅकअप में मेरे सामने लाइटर से जलाकर राख कर दिया था।”
“वडी, वो हमारे मतलब का सामान नहीं, नी। उसकी बीवी उसकी बीवी थी, तेरी बीवी थी या काले चोर की बीवी थी, ये बात हमारे लिये अहम नहीं। तू हमें ये बता कि हमारे मतलब का क्या था तेरे पास?”
“सोहल की तसवीरें थीं?”
“वडी, कैसी तसवीरें, नी?”
“उसकी नयी पुरानी सूरतों की तसवीरें। मसलन उसकी सिख वाली असली सूरत की तसवीर, उसकी तब की सूरत की तसवीर जब वो अपना हुलिया छुपाने के लिये दाढ़ी मूंछ और केश मुंडा कर मोना बाऊ बन गया था, उसकी फ्रेंच कट दाढ़ी मूंछ वाली वो तसवीर जबकि वो बड़ोदा का पेस्टनजी नौशेरवानजी घड़ीवाला बना हुआ था और उसके प्लास्टिक सर्जरी के बाद के नये चेहरे की तसवीर।”
“झूलेलाल! जो सामान हमारे काम आने वाला है, उसका जिक्र आखिर में किया। वडी, ये तसवीरें भी जलाने के लिये सोहल को सौंप दी थीं?”
“नहीं।”
“तो और क्या किया था, नी?”
“पहाड़गंज थाने के सब-इन्स्पेक्टर जनकराज को सौंपी थीं।”
“क्यों?”
“ये साबित करने के लिये कि कौल सोहल था।”
“वडी, कर तो न सका, नी!”
“मैं तो कर सका लेकिन मेरी किसी ने सुनी नहीं। जरूर वो सारे ही मेरे खिलाफ थे और एक दूसरे से मिले हुए थे।”
“हूं। और?”
“और कुछ नहीं। ये ही है सोहल की मुकम्मल लाइफ स्टोरी।”
“मुकम्मल तां नहीं, वीर मेरे।” — पवित्तर सिंह बोला — “बीच में से इक हिस्सा गायब है।”
“हां।” — ब्रजवासी ने भी अनुमोदन किया — “तू नहीं जानता कि वो बीच में कुछ अरसे के लिये मुम्बई से कहां गायब हो गया था?”
“वडी, वो हम जानते हैं, नी।” — झामनानी बोला — “तब वो दिल्ली में था और गुरबख्श लाल की आंख में डण्डा किये था।”
“गुरबख्श लाल कौन था और उसने उसके साथ क्या किया था” — मायाराम बोला — “ये मैं नहीं जानता लेकिन इतना तो अपने आप जाहिर है कि तब वो दिल्ली में था, तभी उसने नीलम से शादी की थी, औलाद पैदा की थी और अरविन्द कौल बन कर गैलेक्सी में नौकरी शुरू की थी।”
“अब बीवी कहां है? बच्चा कहां है?”
“माडल टाउन की कोठी नम्बर डी-9 में, जहां कि सुमन वर्मा नाम की एक लड़की भी उसके साथ रहती है।”
“अब नहीं रहती।” — ब्रजवासी बोला — “अब उस कोठी में कोई नहीं रहता। वो कोठी बिक गयी है और वो सब लोग गायब हो गये हैं।”
“कोई वड्डी बात नहीं” — पवित्तर सिंह बोला — “कि तेरी सोल दी बाबत हालदुहाई से घबराकर ही उसने वो कदम उठाया हो।”
“हो सकता है।” — मायाराम बोला — “लेकिन वो लड़की! सुमन वर्मा! वो तो यहां दिल्ली में महानगर टेलीफोन निगम की नौकरी करती थी! क्या वो भी अपनी नौकरी छोड़छाड़ के उन लोगों के साथ चल दी होगी?”
चारों बिरादरीभाई सोचने लगे।
“ये लड़की” — फिर ब्रजवासी बोला — “हमेशा से ही तो कौल के साथ नहीं रहती होगी?”
“हमेशा से तो नहीं रहती होगी!”
“तब से या तब के बाद कभी से ही तो रहती होगी जब कि सोहल ने दिल्ली में डेरा डाला था?”
“आहो, जी।”
“तो पहले कहां रहती थी?”
“ये तो मुझे मालूम नहीं!”
“फिर क्या बात बनी?”
“लेकिन ये मुझे पक्का मालूम है कि वो महानगर टेलीफोन निगम की मुलाजिम है और किदवई भवन में ट्रंक ऑपरेटर की ड्यूटी भुगताती है। मालको, वहां से उसके अपने घर का पता जाना जा सकता है।”
“और वा को” — भोगीलाल आशापूर्ण स्वर में बोला — “मालूम हो सकता है कि सोहल दिल्ली छोड़ के कित गया था!”
झामनानी ने सहमति में सिर हिलाया।
“दिल्ली में” — फिर वो बोला — “और कौन हैं हिमायती उसके?”
“और पक्का तो मुझे मालूम नहीं” — मायाराम बोला — “लेकिन जिस जिस ने मुझे फंसाने के लिये मेरे खिलाफ गवाही दी थी, वो सब यकीनन इधर सोहल के हिमायती होंगे।”
“मसलन कौन?”
“मसलन वो कालगर्ल सीमा सिकन्द...”
“पता? पता बोल।”
मायाराम ने निजामुद्दीन का एक पता बोला।
“और?”
“मुबारक अली।”
“वो कौन हुआ, नी?”
“वो टैक्सी ड्राइवर है। उसने खुद मुझे बताया था कि सुजान सिंह पार्क में एम्बैसेडर होटल के बराबर में जो टैक्सी स्टैण्ड था, वो उसका पक्का अड्डा था।”
“और?”
मायाराम कुछ क्षण सोचता रहा, फिर उसने इनकार में सिर हिलाया।
“अब मुम्बई की बोल, नी।”
“उधर की क्या बोलूं?”
“उधर कौन हैं उसके हिमायती जो कि तेरी जानकारी में हैं?”
“उधर उसका सबसे बड़ा हिमायती तो तुकाराम ही था!”
“वो कौन हुआ, नी?”
“वो उधर का एक पुराना गैंगस्टर है जिसने कभी अपने चार भाइयों की ऐंठ में आकर बखिया से टक्कर लेने की कोशिश की थी। बखिया ने सबसे बड़े भाई शान्ताराम का कत्ल करवा दिया था तो सब को अक्ल आ गयी थी और सब पेशाब की झाग की तरह बैठ गये थे।”
“अब तुकाराम और उसके बाकी के तीन भाई मुम्बई में सोहल के सबसे बड़े हिमायती हैं?”
“सब नहीं, सिर्फ तुकाराम। तीन भाई बालेराम, जीवाराम और देवाराम तो सोहल की बखिया के खिलाफ छेड़ी जंग में शहीद हो गये थे।”
“जंग सोहल की? शहीद वो हुए?”
“तभी तो तुकाराम को सबसे बड़ा हिमायती बोला।”
“यानी कि तुकाराम अकेला सोहल का साथ देता है?”
“अकेला नहीं। उसका एक रामभक्त हनुमान जैसा साथी वागले है जो कि परछाईं की तरह हमेशा तुकाराम के साथ रहता है।”
“और तुकाराम सोहल के साथ रहता है?”
“रहता था। लेकिन अब नहीं रहता। अब तो वो मुम्बई में ही नहीं है। तुकाराम को कोई गम्भीर बीमारी थी जिसका इलाज कराने वो इंगलैंड गया हुआ है। उसकी परछाईं, उसका भक्त वागले उसके साथ गया है।”
“इंगलैंड में कहां?”
“ये तो मालूम नहीं।”
“वडी, फिर क्या फायदा हुआ, नी?”
“लेकिन मालूम किया जा सकता है।”
“कैसे? कैसे मालूम किया जा सकता है, नी?”
“तुकाराम की बीमारी का देशमुख नाम का मुम्बई का एक स्पैशलिस्ट तुकाराम का इलाज करवाने उसके साथ इंगलैंड गया हुआ है। इस डाक्टर देशमुख का कोलाबा में अपना प्राइवेट नर्सिंग होम है। वहां से पता चल सकता है कि डाक्टर देशमुख इंगलैंड के कौन से शहर में कहां गया है!”
“तेरा मतलब है जहां डाक्टर देशमुख होगा, वहीं उसका मरीज तुकाराम होगा?”
“हां।”
“ये तो पते की बात कही, नी, तूने! वडी, शाबाशी है, नी, तेरे को।”
मायाराम खुश हुआ।
“इस तुकाराम का मुम्बई का पता बोल।”
मायाराम ने चैम्बूर का एक पता बोला।
“और वागले का?”
“वागले का भी यही पता है। वो तुकाराम के साथ ही रहता था।”
“हमेशा?”
“हां। लौटेगा भी तो तुकाराम के साथ ही लौटेगा।”
“हूं। तो सबसे बड़ा सोहल का हिमायती ये तुकाराम है उधर मुम्बई में! बड़े से छोटा हिमायती कौन है, नी?”
“सलाउद्दीन।”
“वो कौन हुआ, नी? कोई बड़ा मवाली है उधर का?”
“मवाली नहीं है। होटल चलाता है उधर कोलीवाड़े में। मराठा नाम है होटल का। मालको, सलाउद्दीन सोहल का एक ऐसा खास हिमायती है जिसकी कि कभी ‘कम्पनी’ को भी खबर नहीं लगी।”
“लेकिन तेरे को लगी?”
“हां। मैंने वक्त भी तो देखो कितना लगाया सोहल की टोह में? दस महीने। पूरे दस महीने। मेरे से भला कहां छुपता कुछ?”
“खुशफहमी छोड़।” — पवित्तर सिंह बोला — “आगे बढ़।”
“हां।” — झामनानी बोला — “वडी, अगला नाम बोल, नी मुम्बई में सोहल के हिमायतियों की लिस्ट का।”
“फिरोजा घड़ीवाला।”
“वो कौन हुई?”
“वो चर्च गेट के बापू बालघर नाम के एक यतीमखाने की इंचार्ज है जहां कि गजरे ने अपनी मौत से पहले हल्ला बोला था और फिरोजा के पति नौशेरवानजी को सोहल समझ कर मार गिराया था। वो लोग पहले भी सोहल की कई तरह से मदद कर चुके थे। फिरोजा तो सोहल को अपने खसम पेस्टनजी नौशेरवानजी घड़ीवाला का दर्जा देकर यासमीन और आदिल नाम के अपने दो बच्चों को उसके बच्चे बता कर होटल सी-व्यू तक में तब ठहर चुकी थी जबकि सोहल की तलाश में सारी मुम्बई में कुंओं में जाल डलवाये जा रहे थे।”
“ये तो वही मसल हुई, जी” — भोगीलाल बोला — “कि चिराग तले अन्धेरा।”
“या” — पवित्तर सिंह बोला — “कुच्छड़ कुड़ी ते शहर ढिंढोरा।”
“बिल्कुल! फिरोजा पर पता नहीं विमल ने क्या जादू किया हुआ था कि वो कई बार उस यतीमखाने में पनाह पा चुका था। हद तो तब हो गयी थी जबकि उसे मालूम था कि यतीमखाने के अहाते में गजरे के सामने पेश हुआ शख्स सोहल नहीं, सोहल के भेष में उसका पति था लेकिन फिर भी उसने उसे अपनी आंखों के सामने हलाक हो जाने दिया था और मुंह से उफ नहीं निकाली थी।”
“तारीफ छोड़” — ब्रजवासी बोला — “औरतें होती हैं ऐसी ही अक्ल की अन्धी, और आगे बढ़।”
“वडी, अगला नाम बोल, नी।” — झामनानी बोला।
“अकरम लाटरीवाला।” — मायाराम बोला।
“वो कौन हुआ?”
“दिखाने को लाटरी का धन्धा करता है, असल में घड़ियों का स्मगलर है। दिखाने को ही भिंडी बाजार की झौंपड़पट्टी में एक खोली में रहता है।”
“असल में कहां रहता है?”
“जोगेश्वरी में।”
“पता बोल।”
मायाराम ने बोला।
“और?”
“और शेषनारायण लोहिया। बड़ा सेठ है। कई कारखानों का मालिक है। नेपियन हिल पर आलीशान कोठी में रहता है। नम्बर है चौदह। ‘कम्पनी’ का आखिरी सुलतान व्यास शंकर गजरे उसका पड़ोसी हुआ करता था।”
“इतना बड़ा आदमी भी सोहल का दोस्त है?”
“वो इब्राहीम कालिया का दोस्त था। कालिया बड़ा मवाली था जो कि ‘कम्पनी’ को टक्कर देने के लिये सोहल से मिल गया था। पहले सोहल ने ही उसे गिरफ्तार कराया था लेकिन फिर अपने स्वार्थ की खातिर खुद ही उसे पूना की सैन्ट्रल जेल से रिहा कराया था। कालिया ने सोहल की दोस्ती लोहिया से करवाई थी। कालिया तो नेपाल में ‘कम्पनी’ के आदमियों के हाथों मारा गया था लेकिन लोहिया की सोहल से दोस्ती आज भी बरकरार है।”
“बल्ले भई!” — पवित्तर सिंह बोला — “किद्दां बना लेता है वो इतने बड़े और रसूख वाले आदमियों को अपना दोस्त?”
“हैरानी की बात है।” — ब्रजवासी बोला — “जो लोग किसी गुंडे बदमाश को, मवाली को करीब न खड़े होने दें, वो सोहल को गले लगाते हैं।”
“बहुत मायावी आदमी है ये सोहल का बच्चा।” — मायाराम नफरतभरे स्वर में बोला — “दोस्ती गांठनी हो तो मिश्री की तरह घुलता जाता है।”
“वडी, हम भी मिश्री की तरह ही घोलेंगे कर्मांमारे को।” — झामनानी बोला — “और घोल के गटर में बहायेंगे। अब तू ये बोल, उसने ‘कम्पनी’ के इतने ओहदेदारों को मारा कैसे?”
“मारा कैसे?”
“कैसे उनमें से हर एक तक पहुंच बनायी और क्या तरीका इस्तेमाल किया कत्ल का?”
“क्यों जानना चाहते हो, मालको?”
झामनानी ने पवित्तर सिंह की तरफ देखा।
“ओ माईंयवा” — पवित्तर सिंह बोला — “हम चार जनों के सिर पर भी ये धमकी टांग गया हुआ है के वो हम सब को मार डालेगा।”
“क्यों?” — मायाराम बोला।
“है कोई वजह। वजह का तू क्या लेगा?”
“फिर भी?”
“ओये मां सदके, हड़काया हुआ कुत्ता जब काटता है तो क्या बताता है क्यों काटा?”
“हमें मालूम है कि वो काटेगा।” — ब्रजवासी बोला — “जिनको काट चुका है, उनकी बाबत जानने से हमारे लिये ये समझना आसान होगा कि वो काटने के लिये कैसे घात लगाता है!”
“यूं हम तैयारी कर सकते हैं।” — भोगीलाल बोला — “जब काटने आयेगा तो लाठी खाकर जायेगा।”
“गोली।”
“वही। वही। तब देखने वाले भी कहेंगे कि जो तीर चला रिया है उसी पै वार हो रिया है, मजा आ रिया है कि शिकारी शिकार हो रिया है।”
“वडी, हमलावर के हमला करने के स्टाइल की खबर हो” — झामनानी बोला — “तो डिफेंस आसान होता है, नी।”
“हुन समझया एं?” — पवित्तर सिंह बोला।
“आहो, मालको।” — मायाराम बोला।
“तेरा साईं जीवे।” — झामनानी बोला — “वडी, अब बोल नी, किस को कैसे मारा उसने?”
“बोलता हूं, मालको। सुनो। इस कत्लेआम की शुरुआत ज्ञानप्रकाश डोगरा से हुई थी जो कि ‘कम्पनी’ का ओहदेदार था और कहते हैं कि उसी की वजह से सोहल को इलाहाबाद में जेल की सजा हुई थी। डोगरा इलाहाबाद से मुम्बई बुला लिया गया था और होटल सी-व्यू के ही एक कमरे में रहने लगा था। सोहल उसके पीछे पीछे मुम्बई पहुंचा था, उसने पहले तो डोगरा को उधर ही खत्म करने की कोशिश की थी लेकिन कामयाब नहीं हो सका था। डोगरा उसके नाकाम हमलों से डर कर मेरिन ड्राइव के एक होटल में जा छुपा था लेकिन सोहल किसी तरह से उसकी वहां मौजूदगी की बाबत जान गया था। उसने उस होटल में पहुंच कर डोगरा के कमरे की बगल वाला कमरा खुद किराये पर लिया था और रात को अपने कमरे की खिड़की से निकल कर उसके कमरे की खिड़की में घुस गया था और डोगरा के सिर पर जा खड़ा हुआ था। फिर उसने उसे वहीं शूट कर दिया था।”
“फिर?”
“फिर अगला नम्बर ‘कम्पनी’ के एक और ओहदेदार शिवाजीराव का लगा था। शिवाजीराव वो शख्स था जिसने तुकाराम और उसके भाइयों को ‘कम्पनी’ की मुखालफत से बाज आने की वार्निंग के तौर पर सबसे बड़े भाई शान्ताराम का कत्ल किया था, बद्किस्मती से गिरफ्तार हो गया था लेकिन अदालत से सन्देहलाभ पाकर छूट गया था। जिस रोज वो छूटा था, उसी रोज सोहल ने ट्रैफिक पुलिस का सब-इन्स्पेक्टर बन के होटल सी-व्यू के रास्ते में चालान करने के बहाने उसकी कार रुकवाई थी और उसे कार में ही शूट कर दिया था।”
“ट्रैफिक पुलिस का सब-इन्पेक्टर बन के! वडी, सरदार जी, नोट करो, नी।”
“वीर भ्रावो” — पवित्तर सिंह बोला — “आने वाले दिनां विच पुलिस दा कोई बावर्दी मामा चालान के बहाने गाड़ी रोके तो पैल्ले उसकी शकल पछाननी है कि कहीं वो माईंयवा सोल ते नहीं।”
ब्रजवासी और भोगीलाल के सिर सहमति में हिले।
“अब आगे बढ़, नी?” — झामनानी बोला।
“फिर उसने हर्नबी रोड के पॉश इलाके में स्थित ‘कम्पनी’ के कैसीनो ‘क्लब-29’ को हिट किया लेकिन वहां के एक एकाउन्टेंट की होशियारी से वाल्ट लुटने से और क्लब का इंचार्ज और ‘कम्पनी’ का ओहदेदार शान्तिलाल जान से जाने से बच गया। बाद में उसी शान्तिलाल को सोहल ने विले पार्ले के लक्ष्मी नारायण मन्दिर में मारा।”
“कैसे?”
“मन्दिर का पुजारी बन के। शान्तिलाल शाम की आरती के वक्त रोज उस मन्दिर में जाता था। वो मन्दिर ही एक जगह थी जहां कि शान्तिलाल के बाडीगार्ड उसके साथ नहीं जाते थे। शान्तिलाल की ये भी ट्रेजेडी थी कि सोहल के खौफ से थर्राया हुआ अपनी स्थापित रूटीन के खिलाफ अपनी जिन्दगी के उस आखिरी दिन वो अपने बाडीगार्डों को मन्दिर के भीतर लेकर गया था लेकिन फिर भी उसकी जान नहीं बची थी।”
“क्या हुआ था?”
“वहां सोहल मन्दिर के पुजारी को गिरफ्तार करके उसकी जगह खुद पुजारी बन गया, आरती की थाली में उसने एक रिवॉल्वर छुपा कर रख ली, अन्य भक्तजनों के साथ शान्तिलाल को तिलक लगाने और प्रसाद देने के लिये उसके सामने पहुंचा और आरती की थाली में से रिवॉल्वर निकाल कर भक्तों से भरे हुए मन्दिर में उसे प्वायन्ट ब्लैंक शूट कर दिया।”
“झूलेलाल! इतनी दीदादिलेरी!”
“उसके सारे ही कारनामे दीदादिलेरी वाले थे, मालको। सायन में मिसेज पिंटो के बंगले पर तो उसने बहुत ही उत्पात मचाया था।”
“मिसेज पिंटो कौन?”
“वो सायन के एक बंगले में चलने वाले उस वेश्यालय की इंचार्ज थी जो कि ‘कम्पनी’ के टॉप के ओहदेदारों को लड़कियां सप्लाई करता था। ‘कम्पनी’ के प्रास्टीच्यूशन ट्रेड का इंचार्ज पालकीवाला था जिसे वहां पहुंचने के लिये मजबूर करने के लिये सोहल कुकिंग गैस का डिलीवरी मैन बन कर उस बंगले में घुसा और उसने बंगले को आग लगा दी। खबर पालकीवाला तक पहुंची जो, जैसा कि उससे अपेक्षित था, गोली की तरह वहां पहुंचा। तब विमल फायर फाइटरों वाली वर्दी और टोप पहन कर आग बुझाने के लिये वहां पहुंचे फायर फाइटरों में मिल गया और वहां मची अफरातफरी में उसने पालकीवाला को शूट कर दिया।”
“साईं लोगो, गौर करो। गौर करो और नोट करो, नी। वो कुकिंग गैस डिलीवर करने आपके घर आ सकता है। वो आपके घर को आग लगा कर खुद फायर ब्रिगेड का इंजन लेकर वहां पहुंच सकता है।”
बिरादरीभाइयों के सिर सहमति में हिले!
“आगे बढ़, भैया।” — फिर भोगीलाल बोला।
“जेकब सर्कल की चम्पक भाई मेंशन नाम की एक इमारत में ‘कम्पनी’ का वो दफ्तर था जहां से मटका नाम का जुआ कन्ट्रोल होता था” — मायाराम बोला — “और जिसका इंचार्ज शान्ति देसाई नाम का ‘कम्पनी’ का एक ओहदेदार था। विमल वहां डाकिये के बहुरूप में पहुंचा, उसने पहले वहां का कैश लूटा और फिर सारा दफ्तर ही फूंक दिया जिसके साथ कि शान्ति देसाई भी स्वाहा हो गया।”
“बल्ले!” — पवित्तर सिंह बोला — “पहले पुलसिया, फिर मन्दिर का पुजारी, फिर फायर फाइटर ते हुन डाकिया।”
“सोहल का अगला निशाना ‘कम्पनी’ का कफ परेड पर स्थित सुवेगा इन्टरनेशनल नाम का आफिस था जहां से कि ड्रग्स के ट्रेड को कन्ट्रोल किया जाता था। वहां वो जेकब सर्कल आफिस से आया ‘कम्पनी’ का आदमी कालीचरण बनकर पहुंचा और ‘कम्पनी’ के एक बड़े ओहदेदार मोटलानी को शूट कर दिया। उसी आफिस में मोटलानी के बराबर के रुतबे का ओहदेदार और ‘कम्पनी’ के नॉरकॉटिक्स ट्रेड का इंचार्ज रतनलाल जोशी भी बैठता था। जोशी को सोहल ने खुद अपने हाथों तो न मारा लेकिन ऐसे हालात उसी माईंयवे ने पैदा किये कि जोशी बेचारा खुदकुशी करके मर गया।”
“क्या थे वो हालात?” — ब्रजवासी बोला।
“कम्पनी’ के कफ परेड वाले आफिस में एक वाल्ट था जिसका कोड सिर्फ जोशी को मालूम होता था और वो कोड रोज तब्दील होता था। उस वाल्ट में जो सबसे कीमती चीज थी वो बखिया की एक डायरी थी जो कि लिटल ब्लैक बुक के नाम से जानी जाती थी। वो डायरी किस्से कहानियों के एक ऐसे तोते की तरह थी जिसमें किसी जिन्न की जान थी। यानी कि तोता खत्म तो जिन्न खत्म। डायरी खत्म तो बखिया खत्म।”
“क्या खूबी थी उस डायरी में?”
“मुझे मुकम्मल तौर से नहीं मालूम। तब मैं इतना ही मालूम कर सका था कि उस डायरी के बिना बखिया का नाॅरकाॅटिक्टस का धन्धा नहीं चल सकता था। वो डायरी गलत हाथों में पहुंच कर बखिया के धन्धे का पूरे तौर से नाश कर सकती थी। कहते हैं कि बखिया की सारे एशिया में फैली बादशाहत को एक ही झटके में धराशायी करने के लिये वो इकलौती डायरी ही काफी थी।”
“ओह!”
“वो डायरी जिस वाल्ट में बन्द थी, पहले तो उसको खोलने वाला नम्बर जान लेना ही नामुमकिन था, ऊपर से उस वाल्ट में साउन्ड कन्ट्रोल भी था जिसकी खबर किसी को नहीं थी। वो साउन्ड कन्ट्रोल ‘खुल जा सिमसिम बन्द हो जा सिमसिम’ जैसा था। जोशी अगर आवाज लगा देता था कि वाल्ट को खोलने में काम आने वाला उसका कम्प्यूटर सिस्टम न चले तो वो नहीं चलता था। वो आवाज लगाता था कि कम्प्यूटर सिस्टम चल पड़े तो वो चल पड़ता था।”
“बढ़िया।”
“साउन्ड कन्ट्रोल की तरह उस वाल्ट में हीट कन्ट्रोल भी था। वाल्ट का टैम्परेचर अगर कभी एक पहले से तयशुदा टैम्परेचर से ऊपर उठ जाता था तो वाल्ट के भीतर मौजूद सारे सामान को अपने आप आग लग जाने का इन्तजाम था। यूं अगर कोई वाल्ट को गला कर उसे खोलने की कोशिश करता तो वो कामयाब हो भी जाता तो भीतर उसे नॉरकॉटिक्स के स्टाक या बखिया की लिटल ब्लैक बुक की जगह राख का ढेर ही मिलता।”
“वडी, साईं” — झामनानी बोला — “तू ये तो नहीं कहना चाहता कि उस नसीबमारे सोहल ने वो वाल्ट भी खोल लिया?”
“मैं यही कहना चाहता हूं।”
“झूलेलाल! वो आदमी है कि जादूगर!”
“कैसे खोल लिया?” — ब्रजवासी बोला।
“वो एक लम्बी कहानी है, मालको” — मायाराम बोला — “जिसका लुबोलुआब ये है कि सोहल वहां टेलीफोन कम्पनी का लंगड़ा लाइनमैन बन के घुसा और उसने वाल्ट खोल लिया। जोशी ने वाल्ट की हिफाजत की अपनी जिम्मेदारी को ठीक से अंजाम न दे पाने की शर्म में खुदकुशी कर ली।”
“भई, वाह!” — भोगीलाल बोला — “इसे कहते हैं स्वामिभक्ति!”
“‘कम्पनी’ की एक बाई संध्या सोहल की हमदर्द बन गयी थी।” — मायाराम आगे बढ़ा — “उसने अपनी मर्जी से सोहल को ‘कम्पनी’ और उसके ओहदेदारों की बाबत भरपूर जानकारी दी थी। उसकी मैडम मिसेज पिंटो को उस पर शक हो गया था जो कि उसने आगे ‘कम्पनी’ के सिपहसालार दण्डवते को पास आन कर दिया था। दण्डवते ने संध्या को उसके दादर वाले फ्लैट से अपने काबू में कर लिया था और वो उसे सजा देने की नीयत से ‘कम्पनी’ के हैडक्वार्टर होटल सी-व्यू की बदनाम बेसमेंट में ले जा रहा था कि सोहल ने रास्ते में ही उसे शूट कर दिया था और संध्या को छुड़वा लिया था। बखिया के खिलाफ छेड़ी अपनी जंग के आखिर में जब सोहल बखिया की गिरफ्त में आ गया था तो इसी लड़की ने सोहल को होटल सी-व्यू से रिहा कराया था और वो बखिया को खत्म करने में कामयाब हुआ था।”
“अगला नम्बर किस का लगा?” — ब्रजवासी बोला।
“बहुत बड़े ओहदेदार का। बखिया के दायें हाथ का। जान रोडरीगुएज का। जिसे कि सोहल और तुकाराम के सबसे छोटे भाई देवाराम ने रात को उसके बंगले में घुस कर मारा।” — मायाराम एक क्षण ठिठका और फिर बोला — “उसके बाद सोहल ने कल्याण में बखिया को मारने की कोशिश की लेकिन बखिया तो बच गया, उसकी जगह सोहल के साथ वहां गया तुकाराम का एक भाई बालेराम मारा गया। बखिया के कत्ल की उस कोशिश में खुद उसका एक बड़ा ओहदेदार अमीरजादा आफताब खान मोहरा बना था।”
“वडी, कैसे, नी?” — झामनानी बोला — “क्या किया था उसने?”
“बखिया जब कल्याण जाने वाला था, तो उसने उसकी कार बिगाड़ दी थी और ऐन वक्त पर बखिया को अपनी मर्सिडीज कार सौंप दी थी जिसके शीशे बुलेटप्रूफ होते थे लेकिन जिसकी पिछली सीट की दोनों साइडों के बुलेटप्रूफ शीशे निकलवा कर आफताब खान ने उनकी जगह आम किस्म के शीशे लगवा दिये थे ताकि उनके रास्ते भीतर बैठे बखिया को गोली मार दी जाती। बखिया किसी तरह से बच गया इसलिये आफताब खान की दगाबाजी की पोल खुल गयी वरना उसकी करतूत की पोल कभी न खुलती।”
“ओये, खुल भी जाती” — पवित्तर सिंह बोला — “तो जब बखिया ही मर गया होता तो कोई उसका क्या कर लेता?”
“बिल्कुल!”
“वडी, मरा कैसे वो कर्मांमारा आफताब खान?” — झामनानी बोला।
“बखिया ने ही मारा।” — मायाराम बोला — “कहते हैं उसे साथ बिठा कर ब्रेकफास्ट कराया और जानलेवा जहर मिली कॉफी पिला दी।”
“यानी कि उसे सोहल ने न मारा?”
“हां, जोशी की तरह उसे भी सोहल ने नहीं मारा था लेकिन वजह तो सोहल ही बना था अन्त पन्त उनकी मौत का। सोहल न होता तो...”
“अब बच्चे न पढ़ा, साईं, और आगे बढ़।”
“आगे बारी आयी मुहम्मद सुलेमान की। बखिया उससे इतना खफा था कि उसने उसे होटल सी-व्यू से अपना बिस्तर गोल कर लेने का हुक्म सुना दिया था। तब मुहम्मद सुलेमान भायखला के इलाके में स्थित हेनस रोड की एक इमारत की चौथी मंजिल के एक फ्लैट में रहने लगा था जहां कि उसके दो बाडीगार्डों पर काबू पा लेने के बाद सोहल उसके सिर पर पहुंच गया। सुलेमान उससे इतना खौफ खा गया कि वो सोहल से दोस्ती करने को तैयार हो गया। सोहल ने उस नयी दोस्ती को मोहरबन्द करने के लिये उसे शराब पीने पर मजबूर किया। शराब को हराम शै मानने वाले सुलेमान ने शराब पी और नशे में झूमते हुए सोहल को उसके मतलब की कई जानकारियां दीं। फिर अपना मतलब हल होते ही सोहल ने उसे शूट कर दिया।”
“चोखो।” — भोगीलाल बोला — “गोया वो ईमान से भी गया और जान से भी गया।”
“ये लोक भी बिगाड़ा” — ब्रजवासी बोला — “परलोक भी बिगाड़ा।”
“फिर ‘कम्पनी’ का नया सिपहसालार” — मायाराम बोला — “और ओहदेदार मैक्सवैल परेरा मरा।”
“वडी, कैसे नी?” — झामनानी ने पूछा।
“वो आगरा रोड नीलम को अपने साथ लेकर गया था जहां कि एक पहले से तयशुदा जगह पर बखिया और सोहल के बीच पहले से तयशुदा तरीके से सोहल ने परेरा को बखिया की डायरी लिटल ब्लैक बुक सौंपनी थी और बदले में परेरा ने नीलम को सोहल के हवाले करना था लेकिन एक तीसरी पार्टी के एकाएक दखलअन्दाज हो जाने की वजह से ऐसा नहीं हो सका था। उस तीसरी पार्टी ने परेरा को घायल कर दिया था और डायरी लेकर भाग गयी थी लेकिन, जैसा कि बाद में पता चला, वो डायरी नकली थी। परेरा जब नीलम के साथ आगरा रोड से वापिस होटल सी-व्यू लौट रहा था तो तुकाराम के सबसे छोटे भाई देवाराम ने उसे रास्ते में घेर लिया था और गम्भीर गोलीबारी के बाद नीलम को छुड़ा लिया था। उसी गोलीबारी में परेरा मारा गया था और देवाराम बाद में, नीलम को सोहल के हवाले करने के बाद, मर गया था।”
“यानी कि उस तुकाराम के सब भाई मर गये, नी?”
“हां।”
“अब अकेला है वो कर्मामारा?”
“अकेला कहां है! भाइयों से भी बढ़ कर वागले है न उसके साथ!”
“और सबसे बढ़कर” — ब्रजवासी बोला — “वो कम्बख्त सोहल है।”
“वडी, ठीक बोला, नी।”
“अब नम्बर आता है ‘कम्पनी’ के जल्लाद जोजो का। ये जोजो ‘कम्पनी’ के बड़े ओहदेदार इकबाल सिंह की पारसी बीवी लवलीन का यार था और जरूर मुहम्मद सुलेमान के बताये सोहल को इस बात की खबर थी। जोजो और लवलीन मेरिन ड्राइव के एक फ्लैट में छुप छुप के मिलते थे। वहां सोहल ने लवलीन के सामने जोजो को शूट कर दिया था।”
“वडी, अब कौन बचा, नी? खुद बखिया या अभी और भी कोई?”
“वो भी कहां बचा! मालको, मैंने पहले बताया था कि सोहल ‘कम्पनी’ की एक बाई संध्या की मदद से बखिया की कैद से छूटा था और छूटते ही उसका काल बन गया था।”
“वडी, तूने एक और ओहदेदार इकबाल सिंह का नाम लिया था!”
“इकबाल सिंह को सोहल ने उससे ये वादा लेकर छोड़ दिया था कि वो बखिया की मौत के बाद खाली पड़ी उसकी गद्दी पर काबिज होकर खुद बखिया बनने की कोशिश नहीं करेगा।”
“वो बाज आया, नी?”
“नहीं, मालको। ऐसे कोई बाज आता है! वो सिर्फ कुछ दिन खामोश रहा लेकिन जब उसने देखा कि ‘कम्पनी’ का सिंहासन वो नहीं तो कोई और हथिया लेगा तो उसने उस पर अपना दावा ठोक दिया और बखिया की जगह ‘कम्पनी’ का टॉप बॉस बन गया। बाद में सोहल से उसने ये कह कर अपनी जानबख्शी करवाई थी कि वो उसे नीलम से मिलवा सकता था। सोहल, जो कि नीलम को मरा समझ रहा था, उस सौदे को न ठुकरा सका। लिहाजा सोहल को नीलम मिल गयी और इकबाल सिंह को उसकी जिन्दगी। वो ‘कम्पनी’ का ढेरों माल लेकर अपनी बीवी लवलीन के साथ नेपाल भाग गया जहां कि बाद में ‘कम्पनी’ के प्यादों ने उसे ढूंढ ही निकाला और पोखरा में उसकी बीवी समेत उसका काम तमाम कर दिया। उस दौरान ‘कम्पनी’ के तख्त पर जो शख्स टॉप बॉस बन कर बैठा था, उसका नाम व्यास शंकर गजरे था और ‘कम्पनी’ के तब के निजाम पर जो और उस जैसे मवाली काबिज थे वो थे कावस बिलीमोरिया, रशीद पावले, भाई सावन्त, किशोर पिंगले और दशरथ किलेकर। श्याम डोंगरे ‘कम्पनी’ का सिपहसालार था। तब सोहल ने गजरे को बाकायदा ये अल्टीमेटम जारी किया था कि अगर वो ‘कम्पनी’ की महन्ती नहीं छोड़ेगा और आर्गेनाइज्ड क्राइम को तरह देना बन्द नहीं करेगा तो सोहल बारी बारी उन सब को खत्म कर देगा।”
“वडी, कर दिया, नी?”
“बिल्कुल कर दिया, मालको। ऐसा कर दिया कि उनके साथ ‘कम्पनी’ ही खत्म हो गयी।”
“कैसे किया, नी? पहला नम्बर किस का लगा?”
“रशीद पावले का।”
“कैसे लगा, नी?”
“बताता हूं, मालको। उधर माटुंगा में एडवर्ड फिलिपो करके एक गैंगस्टर था जो कि वैसे ही ‘कम्पनी’ की मुखालफत में अपना धन्धा खड़ा करने के सपने देखने लगा था जैसे कि कभी तुकाराम और उसके चार भाइयों ने देखे थे। गजरे ने उसे नोटिस जारी किया कि वो दो दिन में सीधा हो जाये। ठीक दो दिन बाद फिलिपो मनोरी बीच पर पुलिस मुठभेड़ में मारा गया। सोहल ने उसकी बीवी जेन और साले रोजर की मदद से ये स्थापित किया कि फिलिपो असल में जिन्दा था और जो शख्स पुलिस मुठभेड़ में मारा गया था, वो फिलिपो नहीं, कोई और ही था। तब गजरे ने रशीद पावले नाम के अपने ओहदेदार को ये देखने के लिये माटुंगा भेजा कि वहां दफनाई जाने के लिये तैयार जो लाश ताबूत में पड़ी थी, वो एडवर्ड फिलिपो की थी या किसी और की थी। पावले वहां पहुंचा, उसने लाश की शिनाख्त के लिये ताबूत का ढक्कन उठाया तो भीतर लाश की जगह लेटे सोहल ने उसे शूट कर दिया और उसी ताबूत में उसे बन्द करके ‘कम्पनी’ के हैडक्वार्टर होटल सी-व्यू भिजवा दिया।”
“हनेर साईं दा।” — पवित्तर सिंह आंखे फैलाता बोला — “तबूत विच लेटया होया सी माईंयवा?”
“मैं तो अब” — ब्रजवासी बोला — “आइन्दा दिनों में किसी करीबी के जनाजे के करीब भी नहीं फटकने वाला।”
“सही बोल रिया है।” — भोगीलाल बोला — “चार भाइयों के कन्धों पर सवार मुर्दा ही उठ के गोलियां दागने लगा तो कोई पनाह तो मतियो मिली।”
“आगे बढ़ नी, आगे बढ़।” — झामनानी उतावले स्वर में बोला।
“गजरे के अगले ओहदेदार को” — मायाराम बोला — “उसने सेंध लगा कर मारा।”
“वडी, सेंध बोला, नी?”
“हां।”
“मुम्बई जैसे शहर में? आज के जमाने में?”
“हां।”
“क्या किया? किस के घर सेंध लगायी?”
“भाई सावन्त के, जो कि ‘कम्पनी’ का लोन शार्किग का इंचार्ज था। वो मेरिन ड्राइव पर वहां की एक इमारत की तीसरी मंजिल के एक फ्लैट में रहता था। उस इमारत की बगल की इमारत की तीसरी मंजिल पर वीनस ट्रैवल्स नाम की एक ट्रैवल एजेन्सी थी। सोहल अपने कुछ साथियों के साथ रात को आफिस बन्द होने के बाद उस आफिस में घुस गया और रातोंरात उस आफिस के और भाई सावन्त के फ्लैट के बीच की जो सांझी दीवार थी, वो खोल दी। उस सेंध के रास्ते उसने भाई सावन्त के बेडरूम तक पहुंच बना ली और फिर भाई सावन्त जब अगले रोज दोपहर के करीब घर पहुंचा तो सोहल ने उसे उसके बेडरूम में तब शूट कर दिया जबकि उस बिग बॉस की हिफाजत के लिये वहां ‘कम्पनी’ के आधा दर्जन प्यादे मौजूद थे।”
“आगे?”
“कावस बिलीमोरिया को अपना शिकार बनाने के लिये सोहल ने उसकी सुजाता नायक नाम की एक रखैल को — जो कि फैशन माडल थी — फैशन फोटोग्राफर बन के शीशे में उतारा। सुजाता नायक से उसे बिलीमोरिया के रेस का और रेस के घोड़ों का शौकीन होने की बाबत पता चला और उसके ब्लैक ब्यूटी नाम के एक कीमती घोड़े के बारे में पता चला जो कि जोगेश्वरी में चन्दन जाधव नाम के एक हार्स ट्रेनर के स्टड फार्म में रखा जाता था। एक रात को सोहल अपने हिमायतियों के साथ उस स्टड फार्म में पहुंचा जहां कि ‘ब्लैकब्यूटी’ को कोई ऐसा इन्जेक्शन दिया गया कि वो फर्श पर गिर कर तड़पने लगा। फौरन उस बेशकीमती घोड़े की हालात की खबर चन्दन जाधव के जरिये बिलीमोरिया को पहुंचाई गयी जो कि आधी रात को अपने प्यादों के साथ उड़ता हुआ वहां पहुंचा। वहां बिलीमोरिया अस्तबल में घोड़ों की टापों से कुचला जाकर मरा। हर किसी ने उसे हादसा करार दिया लेकिन मेरे को मालूम है कि वो सोहल का कारनामा था जिसने कि बिलीमोरिया की अस्तबल में मौजूदगी के दौरान घोड़ों को भड़काने का सामान किया था।”
“कैसे?”
“अस्तबल में पटाखों की लड़ियां लटका कर उनमें आग लगा दी गयी थी और दरवाजा बाहर से बन्द कर दिया गया था ताकि घोड़े भड़कते पाकर बिलीमोरिया वहां से बाहर न निकल पाता।”
“ओह!”
“कहते हैं भुर्ता बन गया था उस बड़े साहब का। कोई अंग साबुत नहीं बचा था।”
“झूलेलाल!”
“दशरथ किलेकर नेपाल में मरा। कैसे मरा, ये मुझे नहीं मालूम।”
“वडी शुक्र है, नी, कि कोई तो बात है जो तुझे नहीं मालूम!”
“लेकिन इतना मुझे मालूम है कि वो भी सोहल का ही कारनामा था।”
“कैसे? कैसे मालूम है?”
“और किसका होता! वो ही तो ‘कम्पनी’ के ओहदेदारों को एक एक करके खत्म कर देने का अहद लिये था!”
“हूं।”
“चल्लो, ओ वी खतम।” — पवित्तर सिंह बोला — “हुन बाकी किन्ने बचे?”
“बाकी बचे दो।” — मायाराम बोला — “एक किशोर पिंगले और एक खुद गजरे। किशोर पिंगले को सोहल ने जेकब सर्कल पर स्थित चम्पक भाई मेंशन नाम की इमारत में मारा जहां कि ‘कम्पनी’ का एक दफ्तर था। किशोर पिंगले का रोज शाम को चार से छः बजे तक वहां हाजिरी भरना निश्चित होता था। वहां ‘कम्पनी’ का दफ्तर इमारत की पांचवी मंजिल पर था और एक लिफ्ट ऐसी थी उस इमारत में जो कि ग्राउन्ड फ्लोर से चल कर सीधी पांचवी मंजिल पर ही रुकती थी। वो न ऊपर टॉप तक जाती थी — जबकि इमारत में ऊपर अभी तीन मंजिल और थीं — और न बीच में कहीं रुकती थी। एक रोज जब किशोर पिंगले अपने दो बाडीगार्डों के साथ ऊपर आफिस में जाने के लिये उस लिफ्ट में सवार हुआ तो लिफ्ट रास्ते में ही रुक गयी। लिफ्ट के ऊपर जो एक झरोखा-सा होता है जिसे कि ट्रैप डोर कहते हैं, उसमें से सोहल भीतर दाखिल हुआ और उसने दोनों बाडीगार्डों समेत किशोर पिंगले को शूट कर दिया।”
“तौबा!” — ब्रजवासी के मुंह से निकला।
“अब बचा गजरे। गजरे की मौत का सामान सोहल ने कोलाबा प्वायन्ट पर स्थित सी-राॅक एस्टेट में किया जो कि उसके एक बिरादरीभाई लेकिन बाद में नेता बन गये बहरामजी कान्ट्रेक्टर की प्रापर्टी थी और जहां सत्तरह मार्च की शाम को उसके नवासे के जन्म दिन की ढाई तीन हज़ार लोगों की ग्रैंड पार्टी होने वाली थी जिसमें कि गजरे भी गया था। सोहल ने पता नहीं कैसे उस पार्टी का एक निमन्त्रण पत्र हासिल कर लिया था। उसने पार्टी के केटरिंग कान्टैक्टर्स ‘जार्ज एण्ड ड्रैगन’ पर दबाव डाल कर केटरिंग स्टाफ के तौर पर अपने कुछ हिमायती भी उस पार्टी में घुसा लिये थे। उसका इरादा पार्टी में ही गजरे को शूट कर देने का था लेकिन वहां ऐन वक्त पर कोई ऐसा पंगा पड़ गया था कि सोहल गजरे को तो मार नहीं सका था, वहां खुद उसको जान बचाने के लाले पड़ गये थे। बड़ी मुश्किल से वो मेजबान के नवासे को ढाल बना कर वहां से भाग निकलने में कामयाब हुआ था।”
“वडी, गजरे तो न मरा, नी!”
“वो बाद में मरा। कहते हैं कि सोहल ने उसे इतना शर्मसाज कर दिया था कि उसने खुद अपने आपको गोली मार ली थी।”
“ओह!”
“गजरे बद्किस्मत था जो सोहल को काबू में कर चुका होने पर भी उसे खत्म न कर सका और खुद खत्म हो गया।”
“वडी, क्या बोला नी? वो सोहल को काबू में कर चुका था?”
“हां। महालक्ष्मी के बापू बालघर नाम के एक यतीमखाने में सोहल छुपा हुआ था जहां कि अपने दल बल के साथ गजरे पहुंच गया था। वो सोहल को शूट करने ही वाला था कि पता नहीं कैसे और कहां से गजरे के दल बल से भी ज्यादा बड़ी अपने हिमायतियों की फौज बना कर नीलम वहां पहुंच गयी थी और उसने सोहल को निश्चित मौत से बचा लिया था।”
“नीलम! नीलम! वो औरत जो पीछे दिल्ली में थी और अपने आपको किसी कौल की बीवी कहती थी?”
“वही।”
“वो मुम्बई कैसे पहुंच गयी?”
“पता नहीं, मालको। वो तो न सिर्फ पहुंच गयी, ऐन मौके पर पहुंच गयी और गजरे को ताकत दिखा दी। गजरे दुम दबा कर वहां से भागा बताया जाता है लेकिन सोहल उसके पीछे होटल सी-व्यू पहुंच गया जहां कि उसने गजरे को खुदकुशी पर मजबूर कर दिया।”
“वडी, साईं लोगो, सुनो नी ये क्या कहता है नीलम के बारे में!”
“अगर” — पवित्तर सिंह बोला — “वो जनानी ऐसा करतब कर सकती थी तो ओ केड़ी घट होई किसी गुण्डे बदमाश से, किसी मवाली से, किसी गैंगस्टर से!”
“कमाल है!” — ब्रजवासी बोला — “ऐसी दिलेर औरत को ये चूहा सा लंगड़ा ब्लैकमेल कर सका!”
“कर ही सका था, मालको” — मायाराम बोला — “और कामयाबी से कर सका था। नीलम का ब्लैकमेल की पहली किश्त चुका देना ही मेरी कामयाबी का भरपूर सबूत था, मैं तो आगे भी रकमें ऐंठता ही रहा था उससे कि...”
“क्या?” — झामनानी बोला — “वडी, बोल, नी। अटक क्यों गया?”
“सोहल दिल्ली पहुंच गया।”
“कैसे पहुंच गया?”
“मैं खुद हैरान हूं। मैंने इस बाबत नीलम को ऐसा धमकाया हुआ था कि...”
“वो किस्सा अब खत्म है।” — ब्रजवासी बोला — “उस पर सिर धुनना अब बेकार है।”
“वडी, ठीक बोला, नी।” — झामनानी बोला — “वो कैसे भी पहुंचा, पहुंचा और तेरी आंख में डण्डा कर गया।”
“सही कहा जी, मालको।” — मायाराम बोला।
“और?” — भोगीलाल बोला — “और कोई बात जिसका तन्ने बेरा हो पर तू बताना भूल गया हो?”
“और तो... और तो कोई बात नहीं!”
“ठीक है।” — झामनानी बोला — “तो साईं लोगों, अब हम को मालूम है कि कैसे कैसे सोहल हम तक अपनी पहुंच बना सकता है। वो बावर्दी ट्रैफिक पुलिसिया बन कर हमारे सिर पर आन खड़ा हो सकता है, वो धोती खड़ाऊं वाला मन्दिर का पुजारी बन कर हमारी आंख में डण्डा कर सकता है, वो गैस का डिलीवरी मैन बन कर या पोस्टमैन बन कर या टेलीफोन वाला लाइनमैन बन कर हमारे घरों में या दफ्तरों में घुसा चला आ सकता है, वो खुद आग लगा कर और फिर फायर फाइटर बन कर हमारी दुकान फाड़ सकता है। ऐसे और भी कई बहुरूप मुमकिन हैं जिन्हें वो बहुरूपिया धारण करके हमारे तक पहुंचने की कोशिश कर सकता है। वडी, साईं लोगो, अब क्या बताने की जरूरत है कि आइन्दा दिनों में आप ने किन बातों से खबरदार रहना है?”
सब के सिर इनकार में हिले।
“सोहल के ग्यारह हिमायतियों का इस शख्स ने हमें भेद दिया है, जिनमें दो — तुकाराम और वागले — इंगलैंड में कहीं हैं, चार — सलाउद्दीन, शेषनारायण लोहिया, फिरोजा घड़ीवाला और अकरम लाटरी वाला — मुम्बई में हैं और बाकी के पांच — शिव शंकर शुक्ला, योगेश पाण्डेय, सीमा सिकन्द, मुबारक अली और सुमन वर्मा — दिल्ली में हैं। दिल्ली क्योंकि हमारा शहर है इसलिये हम पहले दिल्ली वालों की ही खबर लेंगे और उनमें से भी सबसे पहले उस लड़की सुमन वर्मा को अपना निशाना बनायेंगे जिसका मौजूदा पता, ये मायाराम साईं कहता है कि, किदवई भवन से चल सकता है। मुम्बई में हम उस डाक्टर देशमुख से तुकाराम और वागले का मौजूदा पता ठिकाना निकलवाने को तरजीह देंगे। मुम्बई में आजकल हमारे आदमी हैं। जो लोग उधर से हमारी हेरोइन की खेप इधर लाने का इन्तजाम करेंगे, वो ही ये काम भी कर लेंगे।”
“या” — ब्रजवासी बोला — “हम चारों में से कोई चुपचाप मुम्बई चला जायेगा।”
“ऐ ठीक होवेगा?” — पवित्तर सिंह बोला।
“क्यों नहीं ठीक होगा, सरदार जी? अभी सोहल हमारी फिराक में नहीं है। अभी उसे नहीं खबर कि हम हेरोइन के उसी धन्धे में हाथ डाल भी चुके हैं जिसकी बाबत कि वो हमें चेता के गया था। वो खबर अभी उसे होते होते होगी। तब तक तो उसका हमारे पीछे पड़ने का कोई मतलब ही नहीं है!”
“अपने विभीषण” — भोगीलाल बोला — “कुशवाहा के अंजाम की खबर उसे झट लग सके है, जी।”
“वडी, तू ठीक बोला, नी” — झामनानी बोला — “लेकिन उसे ये खबर नहीं लग सकती कि वो कर्मामारा कुशवाहा अपने बुरे अंजाम तक हमारी वजह से पहुंचा था। लग भी जायेगी तो लगते लगते लगेगी। तब तक तो वो हेरोइन के व्यापार की वजह से भी हमारे पीछे पड़ चुका होगा। फिर क्या फर्क पड़ेगा कि वो एक वजह से हमारे पीछे पड़ा, दो वजह से हमारे पीछे पड़ा या सौ वजह से हमारे पीछे पड़ा?”
“ठीक।” — ब्रजवासी बोला — “तब उसने हमारा जो उखाड़ना होगा, उखाड़ ले साला।”
“चोखो।” — भोगीलाल बोला।
“वदिया।” — पवित्तर सिंह बोला — “बैजा बैजा।”
“साईं लोगो” — झामनानी बोला — “सोहल के हमले के खिलाफ एक जो खास सावधानी हमने बरतनी है, वो ये है कि आइन्दा दिनों में, मेरा मतलब है जब तक कि हम सोहल पर से ऊपर वाले की मेहर की छतरी हटाने में कामयाब नहीं हो जाते, तब तक हमने अपनी किसी फिक्स्ड, पक्की, आदत जैसी रूटीन से किनारा करके रखना है।”
“मतलब की होया?”
“मतलब ये हुआ, सरदार साईं, कि हमने कहीं आने जाने के लिये हमेशा वाला एक ही रास्ता नहीं पकड़ना, किसी एक ही बार या रेस्टोरेंट में एक ही पक्के वक्त पर नहीं जाना और जाकर एक ही पक्की जगह पर नहीं बैठना। किसी एक ही औरत को हमेशा गले नहीं लगाना, लगाना भी पड़ जाये तो मुलाकात के ठीये बदलते रहना है और उस औरत के ठीये पर तो हरगिज नहीं जाना। गुरुद्वारे मत्था टेकना हो या मंदिर में घन्टी बजानी हो तो शान्तिलाल की तरह किसी एक ही पक्के वक्त पर किसी एक ही मंदिर गुरुद्वारे नहीं जाना। किसी नये आदमी को अपने पास नहीं फटकने देना और कोशिश करनी है कि कोई अकेला कहीं न जाये। साईं लोगो, सोहल के खौफ से हम लोग छुप के नहीं बैठ सकते लेकिन अगर ये सावधानियां बरतेंगे तो छुप के बैठना जरूरी नहीं होगा।”
सबने सहमति में सिर हिलाया।
“हमारे पीछे लगने को वो कर्मामारा दिल्ली आया — कुशवाहा कहता था कि जरूर आयेगा — तो हमारा ही काम आसान करेगा। हम उसे बिरादरी की भरपूर ताकत दिखायेंगे और भरपूर कोशिश करेंगे कि वो यहां से बच के न जाने पाये।”
“वो तो पता नहीं कब आयेगा” — ब्रजवासी बोला — “उसके इन्तजार में हम क्या करेंगे?”
“वडी, लक्ख रुपये का सवाल किया, नी। जवाब ये है साईं, कि उस दौरान हम उसकी तलाश जारी रखेंगे जिसमें कि हम कामयाब हो गये तो उधर मुम्बई में ही उसकी लाश गिरा देंगे नहीं तो हम एक एक करके उसके तमाम हिमायतियों को खत्म करने की कोशिश करेंगे ताकि हम अपनी असल स्कीम के मुताबिक उसे नंगा और बेयारोमददगार करके मार सकें। साईं लोगो, मैं पहले ही कह चुका हूं कि हम उसी की स्ट्रेटेजी उस के खिलाफ इस्तेमाल करेंगे। हम उसकी बैसाखियां हटायेंगे ताकि वो मुंह के बल गिरे और फिर कभी न उठ सके। अब हम जानते हैं कि उसने बखिया तक पहुंचने से पहले उसके सारे ओहदेदार मार गिराये थे। ऐसा ही उसने गजरे के साथ किया था। हमारे साथ ये नौबत तो नहीं आयी थी लेकिन उसने बिरादरी को तो गुरबख्श लाल के खिलाफ कर ही दिया था। हमारी जानबख्शी की जो शर्त उसने हमारे सामने रखी थी, अगर हम उसे न कुबूल करते तो हम जानते हैं कि हम सब भी गुरबख्श लाल की फरीदाबाद वाली कोठी में उसके साथ ही मरे पड़े होते। बहरहाल साईं लोगो, जो सोहल ने औरों के साथ किया वही हम उसके साथ करेंगे। वडी, हम उसका कोई संगी साथी, कोई जोड़ीदार जिन्दा नहीं छोड़ेंगे। सोहल रावण मारता है लेकिन अब वो खुद रावण है। वो रावण के सिर काटता है नी, हम उसके हाथ पांव भी नहीं छोड़ेंगे। वडी, फिर देखेंगे नी, कि कैसे लूला लंगड़ा सोहल हमारे खिलाफ ताकत दिखाता है! उसको लूला लंगड़ा करने की शुरुआत, मैं पहले ही बोला, साईं लोगो, हम उस लड़की सुमन वर्मा से करेंगे। वो तड़प कर यहां पहुंचेगा, सुमन वर्मा के बुरे अंजाम का बदला लेने के लिये और हमें हमारी वादाखिलाफी की सजा देने के लिये, तो हम उधर मुम्बई में उसके सगे वालों पर ऐसा कहर बरपायेंगे कि वो समझ नहीं पायेगा कि वो लौट कर मुम्बई जाये या हमारी मुखालफत करता यहीं रहे। साईं लोगो, वो बहुत रावण मार चुका, अब हम रावण मार के दिखायेंगे।”
“आमीन।” — बिरादरीभाई मुसाहबी लहजे में बोले।
“वदिया।” — मायाराम भी जैसे सुर में सुर मिलाने की गरज से बोला।
झामनानी ने सकपकाकर उसकी तरफ देखा।
“वडी तू” — वो बोला — “अभी यहीं है, नी?”
“मैंने कहां जाना है, मालको!” — मायाराम खींसे निपोरता बोला — “मेरा स्थान तो अब आप लोगों के कदमों में ही है!”
“वडी, चड़या हो गया है, नी?”
मायाराम ने हकबका कर झामनानी की तरफ देखा।
“वडी, तेरा तो फौरन किसी सेफ जगह पहुंचना निहायत जरूरी है, नी!”
“सेफ जगह!”
“जहां पुलिस तेरी परछाईं भी न छू सके, नी? जहां तुझे ऐसा चैन और सकून मिले कि आज तक के सारे दुख दर्द तुझे भूल जायें। जहां न सोहल प्रेत बन कर तेरी रातों की नींद उड़ा सके और न फांसी का फंदा तुझे हर घड़ी अपनी आंखों के सामने झूलता दिखाई दे। जहां न तुझे तेरा लंगड़ापन सताये और न बुढापा हलकान करे।”
“ऐसी कौन सी जगह है?”
“वो हम बता देंगे, साईं, लेकिन पहले तू ये बोल कि तू जाना तो चाहता है न ऐसी जगह?”
“वो तो ठीक है मालको, लेकिन मैं जाऊंगा कैसे?”
“हम भेजेंगे।”
“कब? कैसे?”
“अभी। ऐसे।”
झामनानी के हाथ में एक रिवॉल्वर प्रकट हुई।
तत्काल मायाराम के नेत्र आतंक से फट पड़े। वो उछल कर अपने पैरों पर खड़ा हुआ।
“वडी, क्या फायदा नी, खामखाह काया को कष्ट देने का आखिरी वक्त? तू बैसाखियों का मोहताज है, नी। उनके बिना आठ दस कदम उठा भी लेगा तो क्या फायदा होगा? वडी एक ही तो बात है नी, कि चारपाई पर मरा या दस कदम दूर मरा।”
“मालको” — मायाराम गिड़गिड़ाता सा बोला — “क्यों मारना चाहते हो मुझे? मैं तो तुम्हारी गाय हूं जो...”
“लाला! वडी, गाय पालेगा, नी?”
“राम भजो, सिन्धी भाई।” — भोगीलाल बोला — “मुझे तो दूध, घी, दही वैसे ही मना है।”
“भैय्यन! वडी, डेयरी खोलेगा, नी?”
ब्रजवासी यूं हंसा जैसे उसे कोई चुटकुला सुनाया गया हो।
पवित्तर सिंह ने हंसी में उसका साथ दिया।
“सुन लिया, साईं?” — झामनानी बोला।
“मालको!” — दोनों हाथ जोड़ता मायाराम बड़ी कठिनाई से बोल पाया — “रहम करो।”
“वडी, रहम ही कर रहे हैं, नी।” — झामनानी सहज भाव से बोला — “तेरे पर भी और अपने पर भी। वडी, तू पकड़ा गया तो तू जहां भी बन्द होगा, तेरी अगल बगल की कोठड़ियों में ही हम सब होंगे। इसलिये ऐसी दुश्वारी से तू खुद निजात पा और हमें निजात पाने दे।”
“मालको, मैं नहीं पकड़ा जाऊंगा।”
“वडी, क्या करेगा, नी? अमरीका भाग जायेगा?”
“मालको, मैं इतना काम आया आप लोगों के! फिर भी आप...”
“वडी, हम भी तो तेरे काम ही आ रहे हैं, नी? तिल तिल करके मरने की जगह तुझे बादशाही मौत मरने का मौका दे रहे हैं।”
“मालको, रहम! गुरमुखो, रहम! भ्रावो, रहम!”
“अभी करते हैं साईं, अभी करते हैं। पहले तू...”
“सिन्धी भाई” — पवित्तर सिंह धीरे से बोला — “क्यों खिजा रहा है बेचारे को?”
“अब भेज भी चुको।” — ब्रजवासी बोला।
“जो जा रिया है” — भोगीलाल बोला — “उसके साथ चूहे बिल्ली का खेल क्यों खेल रिया है?”
“वडी, ठीक बोला, नी।” — झामनानी बोला — “मायाराम साईं, मैं लेट सर्विस के लिये माफी मांगता हूं, नी।”
उसकी रिवॉल्वर ने दो बार आग उगली।
मायाराम पछाड़ खाकर पीछे चारपायी पर गिरा।
सबने उसकी आंखों से जीवन ज्योति बुझती साफ देखी।
“परे एक कुंआ है, नी” — झामनानी धीरे से बोला — “जिसमें कभी रहट चलता था। अब रहट का टीन कनस्तर सब कुयें में ही जा गिरा हुआ है और नीचे पानी की सतह पर ये... मोटी काई की परत जमी हुई है। वैसे तो इसकी लाश यहीं पड़ी रहे तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता, कुयें में तो उसकी सात जन्म किसी को खबर नहीं लगेगी। भैय्यन, टोकस को बुला नी, और उसको बोल कि वो लाश को और इसके लोहे के जेवरों को वहां ठिकाने लगाये।”
सहमति में सिर हिलाता ब्रजवासी बाहर को लपका।
“नहीं मिल रहा।” — विमल फोन वापिस क्रेडल पर रखता बोला।
सुबह से विमल वो पी.पी. नम्बर ट्राई कर रहा था जो कि सुमन ने उसे दिल्ली एयरपोर्ट पर फोन पर हुए वार्तालाप के दौरान दिया था लेकिन वो तब दोपहरबाद तक भी उसे नहीं मिला था।
“क्यों नहीं मिल रहा?” — नीलम व्यग्र भाव से बोली।
“घन्टी बजने का सिग्नल तो आता है लेकिन जवाब नहीं मिलता।”
“अरे, क्यों?”
“क्यों क्या! या तो जिनका फोन है, वो घर पर नहीं होंगे या फिर फोन खराब होगा!”
“ये तो कोई बात न हुई!”
“हौसला रख। शाम को फिर ट्राई करेंगे। तब तक फोन खराब भी होगा तो ठीक हो गया होगा। और अगर घर बन्द होगा तो घर वाले लौट आये होंगे।”
“सरदार जी, मेरा मन बेचैन है।”
“तू तो ऐसे बात कर रही है जैसे काल लग जायेगी तो खुद सूरज ही तेरे से बात करेगा।”
“सुमन तो बात करेगी? उसकी खोज खबर तो देगी?”
“क्या खोज खबर देगी? यही न कि सो रहा है या रो रहा है?”
“कुछ भी।”
“शाम तक चैन दे अपने मन को। तब भी बात न हुई तो कुछ करेंगे।”
“क्या?”
“अरे, इतने वाकिफकार हैं दिल्ली में। किसी को भी कहेंगे कि गोल मार्केट जाये और सुमन को ये नम्बर बता कर उसे यहां बात करने को कहे।”
“किसे कहोगे?”
“किसी को भी कह सकते हैं लेकिन मुबारक अली को कहूंगा। तू फिलहाल हौसला रख और शाम होने दे। ओके?”
“होके।”
“होके नहीं, ओके।”
“होके।”
“अच्छा, भई। होके तो होके सही।”
तभी दरवाजे पर दस्तक हुई।
“खुला है।” — विमल उच्च स्वर में बोला।
दरवाजा खुला और इरफान ने भीतर कदम रखा।
“तुका के पते पर कूरियर से तेरी एक चिट्ठी आयी है।” — इरफान एक बन्द लिफाफा उसकी तरफ बढ़ाता हुआ बोला — “चौकीदार ने रिसीव की। तभी मैं इत्तफाक से वहां गया था। मैं चिट्ठी इधर ले के आया।”
“किस की है?” — विमल उत्सुक भाव से बोला।
“खुद देख। दिल्ली से है।”
विमल ने सहमति में सिर हिलाते हुए लिफाफा खोल कर उसमें से चिट्ठी बरामद की।
चिट्ठी योगेश पाण्डेय की थी। लिखा था :
माई डियर कौल,
तुम्हारी दिल्ली से गैरहाजिरी में यहां कुछ ऐसी घटनायें घटित हो गयी हैं, जिनकी खबर तुम्हें लगना जरूरी था। इधर पहाड़गंज थाने वालों ने बहुत मुस्तैदी दिखाई है और वो फिंगरप्रिंट्स के मायाजाल से उबर कर असलियत भांपने में कामयाब हो गये हैं। वो ये भी जान गये हैं कि दिल्ली पुलिस हैडक्वार्टर में मौजूद तेरे फिंगरप्रिंट्स के साथ छेड़ाखानी की गयी थी और वो असली नहीं थे। उनके प्राण सक्सेना नाम के ए.सी.पी. ने मेरे पर साफ इल्जाम लगाया था कि मैं तुम्हारा मददगार था और मैंने बाकायदा षड्यन्त्र करके तुम्हें पहाड़गंज थाने से छुड़वाने में और फरार हो जाने में तुम्हारी मदद की थी। ये बात खुल जाने पर मेरी बहुत छीछालेदारी हो सकती थी लेकिन मैंने अपने बॉस जगदीप कनौजिया की मदद से मामला न सिर्फ सम्भाल लिया है बल्कि रफा दफा भी करवा दिया है। जिस एक बात पर मेरी पेश न चली और जिसकी वजह से मैं इस चिट्ठी के माध्यम से तुम्हारे साथ सम्पर्क साध रहा हूं, वो ये है कि तुम्हारे असली फिंगरप्रिंट्स — रिपीट, असली फिंगरप्रिंट्स — वापिस दिल्ली पुलिस के रिकार्ड में पहुंच गये हैं। और बाम्बे पुलिस हैडक्वार्टर के रिकार्ड में मौजूद तुम्हारे फिंगरप्रिंट्स के नकली होने की पोल खुल जाने की भी पूरी पूरी सम्भावना बन गयी है। अगर ऐसा हो गया तो ये उधर के फिंगरप्रिंट्स डिपार्टमेंट के हवलदार केशवराव भौंसले पर गरीबमार होगी जिसने कि उधर तुम्हारे फिंगरप्रिंट्स तब्दील किये थे। मैंने बहुत खुफिया तरीके से मालूम किया है कि पहाड़गंज थाने वालों ने हर राज्य से — जहां कि तुम घोषित इश्तिहारी मुजरिम हो और जहां कि तुम्हारे फिंगरप्रिंट्स उपलब्ध हैं — उनकी प्रतिलिपियां तलब की हैं। गोवा, मुम्बई और मद्रास से ऐसी प्रतिलिपियां उन्हें हासिल होना अभी बाकी है। तुम्हारे लिये मेरी राय है कि तुम फौरन केशवराव भौंसले से मिलो और मालूम करो कि क्या उधर से वैसी वांछित प्रतिलिपि दिल्ली भेजी जा चुकी है! अगर वो नहीं भेजी जा चुकी तो ऐसा इन्तजाम करो कि जो प्रतिलिपि भेजी जाये, वो तुम्हारे असली फिंगरप्रिंट्स की हो। अगर वो भेजी जा चुकी है तो रिकार्ड में मौजूद अपने नकली फिंगरप्रिंट्स निकलवा कर — जो कि भगवान न करे कि अभी भी केशवराव भौंसले के खुद के हों — उनकी जगह असली प्रिंट्स रखवाने का प्रबन्ध करो ताकि उस बाबत बाद में कोई इन्क्वायरी हो तो वो डिस्पैच क्लर्क की कोई गलती मानी जाये, न कि हवलदार भौंसले की तुम्हारे से मिलीभगत का नतीजा। चिट्ठी लिखने के पीछे अहम वजह ये ही है कि कहीं वो बेचारा भौंसले खामखाह शहीद न हो जाये जिसने कि तुम्हारे अहसानों के तले दबा होने की वजह से तुम्हारी खातिर सरकारी रिकार्ड में हेराफेरी की थी।
सम्पर्क के लिये चिट्ठी का सहारा इसलिये लेना पड़ा क्योंकि जो दो टेलीफोन नम्बर तुमने मुझे बताये थे, उनमें से किसी पर से भी जवाब नहीं मिल रहा था। चिट्ठी की पावती देने की कोशिश न करना क्योंकि कल सुबह ही मैं सपरिवार बैंगलोर के लिये रवाना हो रहा हूं वहां पहुंच कर मैं चिट्ठी के जरिये फिर सम्पर्क करूंगा तो चिट्ठी में मेरा बैंगलोर का फोन नम्बर भी होगा। एकाएक सपरिवार बैंगलोर रवाना होने के पीछे वजह ये है कि तुम्हारे वाले वाकये के जेरेसाया मेरे बॉस कनौजिया का मुझे हुक्म हुआ है कि मैं लम्बी छुट्टी अप्लाई करूं और दिल्ली से दूर कहीं निकल जाऊं ताकि किसी एक्सप्लेनेशन के लिये — पुलिस को या प्रैस को — मैं किसी को उपलब्ध न रह सकूं। ऐसे जबरन थोपी जाने वाली लम्बी छुट्टी का अमूमन मतलब फोर्स्ड रिटायरमेंट ही होता है। प्रभू की कृपा से ऐसा न हुआ, नौकरी बच भी गयी तो किसी दूरदराज जगह पर मेरी ट्रांसफर तो यकीनन होगी। आइन्दा सम्पर्क होने तक
तुम्हारा दोस्त
योगेश पाण्डेय
पुनश्च :
चिट्ठी पास न रखना। पढ़ते ही नष्ट कर देना।
विमल ने ऐन वही किया, उसने लाइटर निकाल कर चिट्ठी और लिफाफे को नष्ट कर दिया।
“किस की चिट्ठी थी?” — नीलम उत्सुक भाव से बोली।
विमल ने बताया।
जो कि इरफान ने भी सुना।
“और क्या खबर है?” — फिर विमल इरफान से बोला।
“और खबर छोटा अंजुम की है” — इरफान बोला — “और नौरोजी रोड वाले ठीये की है।”
“पहले छोटा अंजुम की बोल।”
“भिंडी बाजार की उस ट्रैवल एजेन्सी में उसकी हाजिरी पक्की है। कहीं जाता है तो उधर ही लौट के आता है। वहां एजेन्सी वाली इमारत के टॉप फ्लोर पर एक फलैट भी है जो कि आजकल उसके कब्जे में है।”
“रात को उधर ही सोता है?”
“मैं आगे बोलेगा न, बाप!”
“सॉरी।”
“वो सारी इमारत ही मवालियों का अड्डा जान पड़ती है। उधर से छोटा अंजुम जब भी, जिधर भी मूव करता है, तीन चार हथियारबन्द आदमी उसके साथ होते हैं...”
“बाडीगार्ड?”
“...सिवाय एक जगह के” — सहमति में सिर हिलाता इरफान बोला — “जहां कि वो एक ही गार्ड के साथ जाता है जो कि उसके ड्राइवर की भी ड्यूटी भुगताता है।”
“वो एक जगह कौन सी हुई?”
“सोच, बाप।”
“वो नौरोजी रोड वाला ठीया?”
“हां। लगता है उसके उधर पहुंचने का ग्यारह बजे का टाइम फिक्स्ड है। वो उधर जाता है तो ग्यारह बजे के करीब ही जाता है और रात को उधर ही रहता है। उधर न जा पाये तो भिंडी बाजार वाले फ्लैट में सोता है।”
“और क्या जाना उस ठीये की बाबत?”
“और ये जाना, बाप, कि वो ‘कम्पनी’ के ही सुनहरे दिनों की यादगार है जबकि ‘कम्पनी’ का प्रास्टीच्यूशन ट्रेड में पूरा पूरा दखल था और उसके संरक्षण में चलने वाले मुम्बई में ऐसे ठीये दर्जन से ऊपर थे।”
“जैसे कि सायन वाला वो ठीया जिसे कि मिसेज पिन्टो चलाती थी?”
“हां। बाप, ठीया तूने फूंक दिया था और बाद में मिसेज पिंटो कैंसर से मर गयी थी।”
“मौजूदा ठीया कौन चलाता हैं?”
“औरत ही है कोई। गोवानी। मिसेज सीक्वेरा। बहुत ठस्सेदार। बहुत पहुंच वाली। कमिश्नर की खास। सीधे उसके सिर पर जा के खड़ी होती है। इसीलिये पुलिस उसके ठीये की तरफ आंख भी नहीं उठाती। बड़े, रसूख वाले, लोग उसके क्लायन्ट बताये जाते हैं जिनमें एक दो मन्त्री भी हैं।”
“और?”
“बाप, और कुछ जानने के लिये भीतर दाखिला जरूरी। जो मेरे जैसे टपोरी के लिये मुमकिन नहीं। इस काम के लिये कोई खास आदमी चाहिये जिसका कोई रोब हो, कोई हैसियत हो।”
“जैसे कि राजा गजेन्द्र सिंह एन.आर.आई. फ्रॉम नैरोबी!”
इरफान हंसा।
“या बड़ा कारखानेदार और औरतों का रसिया शेषनारायण लोहिया!”
“बरोबर बोला, बाप।”
“आज रात लोहिया साहब राजा साहब को उस ठीये की सैर करायेंगे।”
“बढ़िया।”
“अब तू हैडक्वार्टर पहुंच और वहां हवलदार केशवराव भौंसले को पकड़। उसे अपने साथ लेकर तूने उलटे पांव यहां आना है। पूछे तो बोलना गम्भीर इमरजेंसी है। उसे कहना कि वो फिंगरप्रिंट्स का रिकार्ड रखने में काम आने वाला एक कोरा चार्ट अपने साथ लेकर आये। समझ गया?”
इरफान ने सहमति में सिर हिलाया और फिर वहां से रुखसत हो गया।
“मैं साथ चलूंगी।” — तत्काल नीलम बोली।
“वो तो तू चलेगी ही!” — विमल बोला — “मेरे गूंगे असिस्टेंट के बिना तो हो सकता है कि ओरयन्टल वाले मुझे ही खातिर में न लायें।”
“मैं वहां की बात नहीं कर रही।”
“तो और कहां की बात कर रही है?”
“मैं उस जगह की बात कर रही हूं जिसे तुमने ठीया कहा और जहां तुम रात को जाने वाले हो।”
“मैं नहीं, राजा गजेन्द्र सिंह।”
“एक ही बात है।”
“तू वहां नहीं जा सकती।”
“क्यों?”
“क्योंकि वो ऐसी वैसी जगह है।”
“फिर तो मैं जरूर ही जाऊंगी।”
“पागल हुई है? अरे, कोई डिनर करने निकले तो क्या खाना घर से बान्ध के ले के जाता है?”
“अच्छा! तो अब मैं घर का खाना हूं?”
“तू तो छप्पन व्यंजनों की थाली है लेकिन वहां नहीं जा सकती। वहां मैंने लोहिया के साथ जाना है। वहां तू नहीं खप सकती। गैर को हर भेद नहीं देते। मैं नहीं चाहता कि लोहिया को मालूम हो कि तू मर्द बन कर मेरे साथ विचरती है।”
“हम दोनों चलते हैं। उनका साथ जाना क्यों जरूरी है?”
“क्योंकि वो ही मेरे वहां दाखिले का इन्तजाम करेगा।”
“ओह!” — नीलम कुछ क्षण सोचती रही और फिर बोली — “सच में ही वहां डिनर करने न बैठ जाना!”
“अरे, लोहिया साथ होगा।”
“उसी की वजह से मुझे अन्देशा है। सोहबत ही तो बिगाड़ती है, सरदार जी।”
“मैं नहीं बिगड़ने वाला।”
“पक्की बात?”
“हां।”
“खाओ मेरी कसम।”
“तेरी कसम।”
“ठीक है फिर।”
दोपहरबाद टोकस झामनानी के करोल बाग स्थित आफिस में पहुंचा जहां कि वो उस घड़ी अकेला मौजूद था।
“किदवई भवन में” — वो अदब से बोला — “सुमन वर्मा नाम की उस ट्रंक आपरेटर का पता बड़ी आसानी से मालूम हो गया था। वो गोल मार्केट के इलाके में बने कोविल मल्टीस्टोरी हाउसिंग कम्पलैक्स की आठवीं मंजिल के एक फ्लैट में अकेली रहती है। वहां से ये भी मालूम हुआ कि आजकल वो लम्बी छुट्टी पर है जो कि कल से ही शुरू हुई है।”
“उधर पहुंचा?” — झामनानी ने पूछा — “उधर गोल मार्केट? उस हाउसिंग कम्पलैक्स में? पक्की हुआ कि वो उधर ही रहती है?”
“हां, जी। हुआ। वो उधर ही रहती है। वो फ्लैट किराये का नहीं, उसका अपना है।”
“घर में और कितने मेम्बर हैं?”
“और कोई नहीं है। अकेली रहती है वो वहां। पहले मां और एक छोटी बहन साथ रहती थीं लेकिन वो दोनों मर चुकी हैं।”
“वडी, खसम भी नहीं है, नी?”
“नहीं है। अभी उसकी शादी नहीं हुई। लेकिन...”
“वडी, क्या है लेकिन, नी?”
“बच्चा है।”
“क्या!”
“गोदी का। दुधमुंहा। देखने में चार पांच महीने का जान पड़ता था।”
“कुआंरी लड़की के बच्चा! चड़या हुआ है?”
“बॉस, वो बच्चा कौल का हो सकता है।”
“वडी, कौल के एक पिल्ला तो है, नी, लेकिन जब वो घर बार बेच गया, शहर छोड़ गया, बीवी साथ ले गया तो पिल्ला कैसे पीछे छोड़ गया?”
“कोई तो वजह होगी!”
“ये पक्की है, नी, कि वो बच्चा सोहल का है?”
“पक्की नहीं है बॉस, लेकिन वो और किस का हो सकता है? वो लड़की पहले माडल टाउन वाली कोठी में उन लोगों के साथ रहती थी, अब उधर गोल मार्केट पहुंच गयी जहां उसके साथ वो बच्चा दिखाई देने लगा जिसकी देखभाल के लिए ही जरूर वो छुट्टी लेकर घर बैठी हुई है। बॉस, वो बच्चा जरूर कौल का है।”
“हूं।”
“बॉस, बच्चे में कोई भेद है, इसका एक और सबूत मिला है वहां से।”
“वडी, और क्या सबूत मिला है, नी?”
“वहां सुमन के फ्लैट की निगरानी पर पुलिस तैनात है।”
“वडी, पुलिस बोला, नी?”
“हां। दो पुलिसिये सादे कपड़ों में उधर मौजूद थे। एक को मैं पहचानता न होता तो कभी न जान पाता कि वो पुलिस वाले थे। शीशपाल नाम है मेरी पहचान वाले हवलदार का। पहले वो मन्दिर मार्ग थाने में था लेकिन अब का पता नहीं कौन से थाने में हाजिरी भरता है!”
“वडी, कहीं भरता हो, नी। मतलब की बात ये है कि वो उधर उस पुटड़ी सुमन वर्मा की निगरानी कर रहा है।”
“खामोशी से। जैसे किसी का इन्तजार हो। जैसे किसी के वहां पहुंचने की उन्हें खास उम्मीद हो।”
“वडी, मालूम है, नी, मेरे को कि उनकी क्या उम्मीदें हैं, किधर से उम्मीदें हैं। जो चोखी खबर तू लाया है, वो ये है, नी, कि उस पुटड़ी के हवाले कोई बच्चा है जो कि कोई बच्चा नहीं, एक खास बच्चा है। अब वो पुटड़ी अपनी जुबान नहीं भी खोलेगी तो वो बेजुबान बच्चा उस कर्मांमारे सोहल तक हमारी पहुंच बनायेगा। वडी, समझा, नी, कुछ?”
टोकस ने झिझकते हुए सहमति में सिर हिलाया।
“वो बच्चा तो डोर साबित होगा, नी, जिसके साथ पतंग कि तरह बन्धा वो कर्मांमारा सोहल पता नहीं कहां डोल रहा है! वडी, हम डोर खींचेगे तो पतंग अपने आप खिंचती चली आयेगी। पुटड़े, ये तो तू बहुत चोखी खबर लाया, नी। वडी, शाबाशी है, नी, तेरे को।”
टोकस प्रसन्न हो गया।
“अब जा के उस लड़की को और उस बच्चे को थाम और उन्हें लेकर छतरपुर वाले फार्म हाउस में पहुंच, तब तक मैं बिरादरीभाइयों को उधर बुलाता हूं।”
सहमति में सिर हिलाता टोकस रुखसत हो गया।
कनाट प्लेस थाने का एस.एच.ओ. देवीलाल झामनानी के आफिस में पहुंचा।
वो उस वक्त वर्दी में नहीं था।
उसने झामनानी का अभिवादन किया।
“बैठ, साईं।” — झामनानी बोला — “शुक्र है तेरे को फुरसत लगी इधर आने की। मैं तो नाउम्मीद हो गया था!”
“आजकल थाने में बहुत काम है।” — एस.एच.ओ. एक कुर्सी पर ढेर होता बोला — “क्राइम बहुत बढ़ता जा रहा है दिल्ली में। उठना नहीं हो पाता। बड़ी मुश्किल से टाइम निकाल पाया।”
“फिर भी टाइम पर आ गया, नी। मैं तो बस जा रहा था।”
“कैसे याद किया?”
“वडी, बोलता हूं, नी। पहले तू बोल। कल वाला मामला काबू में है न?”
“काबू में है। डबल मर्डर का केस था, डी.सी.पी. तक बात पहुंची लेकिन फिर भी काबू में है। असल बात यही काम आयी कि कुशवाहा जरायमपेशा आदमी था, गुरबख्श लाल जैसे नोन गैंगस्टर का सहायक रह चुका था, इसलिये वैसे खूनखराबे पर किसी ने हैरानी न जाहिर की। पेपर वालों ने जरा गहरा कुरेदने की कोशिश की थी लेकिन मैंने उनकी तसल्ली करा दी थी।”
“पैसा पूरा पहुंच गया, नी?”
“हां, लेकिन कम पहुंचा।”
“वडी, क्या बोलता है, नी? तीस मांगे, पैंतीस करा लिये फिर भी कम...”
“बड़ा केस था। चालीस होने चाहियें थे।”
“वडी, जो हो गया, उस पर खाक डाल, नी। आगे की सोच।”
“बोलिये आगे की। मैं तो हाजिर हूं।”
“एक काम है, जो हम भी करा सकते हैं, लेकिन, साईं, तू आसानी से करा सकता है।”
“कैसा काम?”
“पहाड़गंज थाने में जनकराज करके एक सब-इन्स्पेक्टर है। काम असल में उससे है।”
“मैं जानता हूं उसे। क्या काम है?”
“उसने मायाराम करके एक आदमी को गिरफ्तार किया था और उसके पास से कुछ तसवीरें बरामद की थीं। वो तसवीरें या उनकी कापियां हमें चाहियें, नी, क्योंकि वो एक खास आदमी की हैं।”
“कौन खास आदमी?”
“अरविन्द कौल नाम है, नी। के.जी. मार्ग पर गैलेक्सी ट्रेडिंग करके एक कम्पनी है जहां कि नौकरी करता बताता है वो अपने आपको।”
“उसे भी जानता हूं मैं?”
“वडी, उसे भी जानता है, नी?”
“एक बार थाने आया था। गैलेक्सी का सात लाख रुपये के नोटों से भरा एक ब्रीफकेस थाने पहुंच गया था। उसी को क्लेम करने आया था। अपनी बहन के साथ। शायद सुमन वर्मा नाम था।”
“साईं, तू तो बहुत कुछ जानता है!”
“उस आदमी की तसवारें जनकराज ने किसी मायाराम से बरामद की हैं?”
“हां।”
“किस्सा क्या है?”
“वडी, क्या करेगा जान के, नी! मतलब की बात ये है कि उस जनकराज एस. आई. के पास कुछ तसवीरें हैं जो कि उस अरविन्द कौल की हो भी सकती हैं और नहीं भी हो सकतीं। वो हों या न हों, हमें दोनों तरह के कुबूल हैं और इतने से काम की जो फीस तेरे को मुनासिब लगे...”
“मेरे को नहीं, एस.आई. जनकराज को, जिसके पास कि तसवीरें हैं।”
“एक ही बात है। जो फीस मुनासिब लगे, बोलना, भर देंगे।”
“उसने मुनासिब बात न की? ज्यादा पैसे मांगे...”
“वडी, साईं, ये तू कह रहा है?”
“आजकल लिहाज का जमाना नहीं रहा। हर कोई अपनी ही रोटियां सेंकने की ताक में रहता है।”
“तो सेंक लेने दे, नी। आखिर पैसा ही मांगेगा न? वडी, मोहरें तो नहीं मांगेगा, नी? अशर्फियां तो नहीं मांगेगा, नी?”
“मैं समझ गया आपकी बात। मैं करता हूं बात जनकराज से।”
“तेरा साईं जीवे।”
“चलता हूं। शाम तक खबर करूंगा।”
“वडी, जीता रह, नी।”
एक एम्बैसेडर कार गोल मार्केट में कोविल मल्टीस्टोरी हाउसिंग कम्पलैक्स के आयरन गेट पर आकर रुकी।
कार में ड्राइवर के अलावा तीन जने और मौजूद थे जिनमें एक टोकस था, एक जुगनू नाम का उसका उसी जैसा जोड़ीदार था और एक शैलजा नाम की सुन्दर युवती थी।
ड्राइवर ने कार का हॉर्न बजाया।
चौकीदार रामसेवक गेट पर पहुंचा।
“अरे, गेट खोल।” — ड्राइवर बोला।
“कहां जाना है?” — रामसेवक ने पूछा।
“क्यों पूछता है?”
“रजिस्टर में भरना होगा, दस्तखत करने होंगे।”
“हमने सब जगह जाना है।”
“क्या मतलब?”
“राशनिंग दफ्तर से आये हैं। मैडम राशनिंग अफसर हैं, दोनों जने मैडम के असिस्टेंट हैं, मैं ड्राइवर हूं।”
“सारी फैमिलीज के राशन कार्ड चैक करने हैं।” — शैलजा मधुर स्वर में बोली — “आजकल जाली राशन कार्ड बहुत बनने लगे हैं।”
“इधर तो सब इज्जतदार लोग रहते हैं।” — रामसेवक बोला — “इधर जाली राशन कारड कौन रखेगा, बीबी जी? इधर तो सब कारड असली...”
“असली कार्ड वालों ने भी छ: छ: नाम फालतू लिखवाये होते हैं। सब चैक करना होगा।”
“सरकारी हुक्म है।” — टोकस बोला।
“इतना काम है।” — जुगनू बोला।
“और ये” — ड्राइवर भुनभुनाया — “शाम तक हमें इधर ही खड़ा करके रखेगा।”
“नहीं, नहीं।” — तत्काल रामसेवक बोला — “मैं अभी खोलता हूं। मैं भला कैसे अड़ंगा लगा सकता हूं सरकारी काम में!”
“अब बोला सुर में।”
रामसेवक ने गेट खोल दिया। कार भीतर दाखिल हो गयी तो उसने गेट वापिस बन्द कर दिया।
गेट के साथ बने चौकीदार के केबिन में एक व्यक्ति और बैठा था, उसने वो तमाम डायलाॅग सुना था और फिर मुतमईन होकर बीड़ी के कश लगाने लगा था।
कार मंथर गति से आगे बढ़ी।
“दूसरा पुलिसिया” — टोकस धीरे से बोला — “लिफ्ट के पास होगा। मैं उसे पहचानता हूं इसलिये हो सकता है वो भी मुझे पहचानता हो।”
“तो?” — शौलजा बोली।
“लिफ्ट में सवार होने से पहले उससे कोई भी उलटा सीधा सवाल कर देना लेकिन बात उससे यूं करना कि उसकी पीठ मेरी तरफ हो। तब मैं चुपचाप सीढियां चढ़ जाऊंगा और पहली मंजिल से लिफ्ट पर सवार हो जाऊंगा।”
“ठीक।”
“वो” — जुगनू बोला — “हम से तो नहीं पूछेगा कि हम कहां जा रहे थे?”
“नहीं पूछेगा। पूछताछ करना उसका काम नहीं। और फिर जो पूछताछ होनी थी, वो गेट पर हो चुकी।”
“फिर भी?”
“फिर भी पूछे तो जवाब वही, जो गेट पर दिया।”
“ठीक।”
“अब तुमने टोक ही दिया है तो एक सावधानी बरतना।”
“क्या?”
“लिफ्ट पर से सातवीं मंजिल पर उतर जाना। बाकी की एक मंजिल पैदल चढ़ जाना। समझ गये?”
“हां।”
तभी कार मल्टीस्टोरी बिल्डिंग के पहलू में रुकी।
सुमन बैठक में टी.वी. के सामने बैठी थी और अचार डालने की नीयत से गाजर, गोभी और शलगम काट रही थी। उसके हाथ में थमी छुरी इतनी तीखी थी कि दो बार उसकी उंगली कटते कटते बची थी।
कालबैल बजी।
सुमन ने रिमोट से टी.वी. बन्द किया और प्रवेश द्वार पर पहुंची। वहां लगे लैंस में आंख लगाकर उसने बाहर झांका तो उसे एक नौजवान लड़की का खूबसूरत चेहरा अपनी तरफ झांकता दिखाई दिया। उसने दरवाजे को सेफ्टी चेन पर लगाकर खोला तो वो इतना ही खुला कि आर पार वार्तालाप हो सकता।
जब से उसकी मां स्वर्णलता और छोटी बहन राधा उसी फ्लैट में दिनदहाड़े बलात्कार और कत्ल की जघन्य वारदात का शिकार हुई थीं, तभी से लैंस और सेफ्टी चेन वाली वो एहतियात वहां फिट कराई गयी थी।
“फरमाइये?” — वो बोली।
“मैं राशनिंग आफिस से आयी हूं।” — शैलजा मधुर स्वर में बोली — “आप राशन कार्ड होल्डर हैं?”
“हां।”
“चैक करना होगा। दिल्ली स्टेट के राशन कार्ड होल्डर्स का जनरल सर्वे चल रहा है। और भी कुछ बातें पूछनी होंगी। पांच मिनट लगेंगे।”
सुमन ने देखा कि लड़की के एक हाथ में एक मोटा रजिस्टर था, दूसरे में एक बाल प्वायन्ट पैन था और गले में एक जंजीर के सहारे एक आई. कार्ड लटक रहा था।
उसने उसके पीछे निगाह दौड़ाई तो लिफ्ट और सीढियों के दहाने तक कारीडोर को खाली पाया।
सहमति में सिर हिलाते उसने सेफ्टी चेन हटा कर दरवाजा खोला, लड़की ने जिसमें भीतर कदम डाला तो उसने उसके पीछे दरवाजा बन्द करके उसकी चिटखनी चढ़ा दी।
“बैठिये।” — सुमन बोली।
“थैंक्यू।” — शैलजा बड़े ही मधुर भाव से मुस्कराती एक कुर्सी पर ढेर हुई। उसने एक गुप्त निगाह सारे फ्लैट में दौड़ाई और फिर बोली — “सब्जी काट रही थीं!”
“अचार के लिये।” — सुमन उसके सामने बैठती हुई बोली।
“मैंने डिस्टर्ब किया!”
“कोई बात नहीं।”
“मजबूरी है। एक दिन में सौ घर कवर करने होते हैं इसलिये वक्त बेवक्त भी जाना पड़ता है।”
“बोला न, कोई बात नहीं। पूछिये, क्या पूछना है?”
“फैमिली हैड कौन है? मेरा मतलब है, राशन कार्ड किस के नाम है?”
“श्रीमती स्वर्णलता वर्मा के नाम।”
“यहीं रहती हैं?”
“रहती थीं लेकिन अब वो इस दुनिया में नहीं हैं।”
“ओह! आपने उनका नाम राशन कार्ड से कटवाया?”
“अभी नहीं।”
“ये तो जरूरी था। किसी गुजर चुके शख्स का राशन लेना...”
“नहीं लिया। कभी नहीं लिया।”
“फिर तो खैरियत है। उनके बाद घर का कर्ता कौन है?”
“मैं।”
“आप और और कौन?”
“सिर्फ मैं।”
तभी बेडरूम से सूरज के कुनमुनाने की आवाज आयी।
शैलजा की भवें उठीं।
“मेरी बहन का बच्चा है।” — सुमन जल्दी से बोली — “अभी सिर्फ चार महीने का है।”
“बहन साथ रहती हैं?”
“नहीं।”
“फिर तो उनका राशन कार्ड अलग होगा।”
“हां।”
“आपको राशन कार्ड अपने नाम ट्रांसफर कराना चाहिये।”
“करा लूंगी।”
“अब जरा राशन कार्ड दिखाइये। चैक करना होगा कि आपने वाकई श्रीमती स्वर्णलता का राशन ड्रा नहीं किया है।”
“मैं लाती हूं।”
राशन कार्ड की सूरत देखे उसे मुद्दत हो गयी थी, पता नहीं किचन में वो कहां पड़ा था।
वो उठ कर किचन में गयी और राशन कार्ड तलाश करने लगी।
आखिरकार वो उसे मिला।
राशन कार्ड के साथ वो वापिस बैठक में लौटी तो उसका दिल धक्क से रह गया।
जिस मधुरभाषी लड़की को वो पीछे अकेला छोड़ के गयी थी, वो अब वहां अकेली नहीं थी। वो अब बैठी भी नहीं हुई थी। वो दरवाजे के करीब खड़ी थी और उसके आजू बाजू सूरत से ही क्रूर लगने वाले दो व्यक्ति खड़े थे। उन दोनों के हाथ मे रिवॉल्वरें थीं जिनका रुख सुमन की ओर था।
“ये... ये...” — सुमन हकलाई — “क... क्या... क्या...”
“भीतर जो बच्चा है” — टोकस कर्कश स्वर में बोला — “वो सोहल का है?”
सोहल का नाम सुनते ही उसके रहे सहे होश भी उड़ गये।
“क... कौन?” — वो हिम्मत करके बोली — “कौन सोहल?”
“तुझे पता है कौन सोहल!”
“मैं किसी सोहल को नहीं जानती।”
“कौल को तो जानती है?”
“क... कौल?”
“अरविन्द कौल। जिसके साथ माडल टाउन में कोठी नम्बर डी-9 में रहती थी! माडल टाउन से तू तो यहां आ गयी, वो कहां गया? उसकी बीवी कहां गयी?”
“त.. तुम लोग... क... कौन हो?”
“बकवास न कर। जो पूछा जाये, उसका जवाब दे।”
“तुम जरूर कोई गुण्डे बदमाश हो।”
“डाकू लुटेरे भी। अब बक के दे।”
“ये... ये भी तुम्हारे साथ हैं?”
“हां। मैं सुलताना डाकू हूं। ये पुतलीबाई है। ये बहराम डाकू है।”
“तुम लोग लूटने आये हो तो यहां कुछ नहीं रखा।”
“बातें न बना। जो पूछा है, उसका जवाब दे।”
“मैं... मैं शोर मचा दूंगी।”
“आवाज हलक से निकली भी नहीं होगी कि मरी पड़ी होगी, कम्बख्त।”
“तुम लोग क्या चाहते हो?”
“बोल तो दिया! कौल कहां है?”
“मुझे नहीं मालूम।”
“उसका पता बोल देगी तो सस्ते में छूट जायेगी वरना हमें तेरे को अपने साथ ले जाना होगा।”
“कहां?”
“मालूम पड़ जायेगा।”
“तुम लोग दिन दहाड़े जबरन मुझे यहां से नहीं ले जा सकते।”
“जबरन कौन बोला? मुनिया, तू राजी से हमारे साथ चलेगी।”
“रा... राजी से?”
“बच्चे की खैर चाहेगी तो राजी से ही चलेगी।”
“बच्चे की? बच्चे को क्या कहोगे तुम?”
“हल्ला करने की धमकियां देना बन्द नहीं करेगी तो सबसे पहले हम बच्चे की ही खबर लेंगे।”
“उसे कुछ न कहना। वो मेरे पास किसी की अमानत है। उसे कुछ हो गया तो...”
“कुछ नहीं होगा उसे। तुझे भी कुछ नहीं होगा। देख, मैंने मान लिया कि तुझे कौल का पता नहीं मालूम। अब मेरे साथ चल और मेरे बॉस को भी इस बात का विश्वास दिला।”
“कहां चलना होगा?”
“जहां हम ले जायें।”
“बच्चे का क्या होगा?”
“उसे ये सम्भाल लेगी।” — टोकस ने शैलजा की तरफ इशारा किया — “तुझे बस आना और जाना करना होगा। तेरे लौट आने तक ये बच्चे का पूरा खयाल रखेगी।”
“ये... ये यहां रहेगी?”
“तू घर में इसे अकेला नहीं छोड़ना चाहती तो बच्चे को भी साथ ले के चल।”
“मैं... मैं कपड़े बदल लूं।”
“जरूरत नहीं। जो पहने हैं, वो ही ठीक हैं। कार पर जाना है, कार पर आना है। नुमायश नहीं होनी तेरी।”
“ल... लेकिन...”
“अब बस कर। बहुत जुबान चल चुकी। बच्चे को ले के आ और चल।”
“अच्छा।”
मन मन के कदम उठाती सुमन बेडरूम में पहुंची।
बीच के खुले दरवाजे की ओर पीठ करके उसने पलंग पर से बच्चे को उठाया। उस क्रिया में उसका एक हाथ हौले से तकिये के नीचे सरक गया जहां कि रिवॉल्वर पड़ी थी। वो रिवॉल्वर नोटों से भरे उस ब्रीफकेस में से निकली थी जो दिल्ली से रवानगी के वक्त विमल ने उसे दिया था। उसे नहीं मालूम था कि रिवॉल्वर इत्तफाक से रह गयी थी या वो छोड़ी ही उसके लिये गयी थी। उसे सपने में भी कभी खयाल नहीं आया था कि वो कभी उसके किसी काम आयेगी।
कितना गलत खयाल था उसका!
उसने करीब पड़ा डायफर उठाया, डायफर के नीचे अपना रिवॉल्वर वाला हाथ छुपाया और रिवॉल्वर वाला हाथ सूरज के नीचे छुपाये वो बाहर पहुंची।
“शाबाश!” — टोकस बोला।
उसने कातर भाव से टोकस की तरफ देखा।
“खामखाह हलकान होती है। बोला न, तुझे कुछ नहीं होगा। लेकिन” — एकाएक टोकस का स्वर हिंसक हो उठा — “अगर चिल्लाने की, रास्ते में किसी को खबरदार करने की या कैसी भी कोई होशियारी दिखाने की कोशिश की तो खोपड़ी में से भेजा बाहर छितरा पड़ा होगा। समझी?”
सुमन ने भयभीत भाव से सहमति में सिर हिलाया।
“चल अब।”
“इसका डायफर चेंज करना है?”
टोकस ने शैलजा की तरफ देखा।
“पोतड़ा बदलने को कह रही है।” — शैलजा बोली।
“ओह! कर, जल्दी कर।”
सुमन सोफे पर बैठ गयी। उसने एक हाथ से सामने मेज पर पड़ी सब्जियों को यूं एक तरफ सरकाना आरम्भ किया जैसे वो सूरज को वहीं लिटा कर डायफर बदलने का इरादा रखती हो।
उसने सूरज को मेज पर लिटाया। उसके नीचे से हाथ निकालते वक्त एकाएक उसने खाली हाथ से मेज पर पड़ी तीखी छुरी उठा ली। पलक झपकते दायें हाथ में थमी छुरी की नोक उसने सूरज की छाती पर रखी और बायें हाथ मे थमी रिवॉल्वर की नाल अपनी कनपटी से लगा ली।
आतताइयों ने वो नजारा देखा तो वो हक्के-बक्के रह गये।
“ठहर जा, साली।” — फिर टोकस कर्कश स्वर में बोला।
“खबरदार, कमीनों कुत्तो।” — सुमन चंडिका की तरह गर्जी — “किसी ने मेरी तरफ कदम भी बढ़ाया तो मैं बच्चे के दिल में छुरी उतार दूंगी और खुद को गोली मार लूंगी।”
“क... क्या बकती है?” — टोकस हकबकाया सा बोला।
“वही जो तू सुनता है, कुत्ते।”
“तू खूद को गोली नहीं मार सकती।”
“एक कदम आगे बढ़ा के देख क्या होता है?”
“तू खुद बोली ये बच्चा तेरे पास किसी की अमानत है। तू इसकी जान नहीं ले सकती।”
“ले सकती हूं। जो जान जान का जंजाल बनी जा रही हो, वो ले सकती हूं। लूंगी।”
“तू पराये बच्चे पर ऐसा जुल्म नहीं ढा सकती।”
“जो बच्चा मां बाप के पांव की बेड़ियां बन जाये, उसका न होना ही अच्छा है।”
“सोहल तुझे कभी माफ नहीं करेगा।”
“जिन्दा रहूंगी तो माफी की तलबगार बनूंगी न!”
“यानी कि तू कुबूल करती है कि ये सोहल का बच्चा है?”
“बातें न बना, कमीने। यहां से दफा हो जाओ वरना...”
“तू गोली नहीं चला सकती। तू छुरी नहीं चला सकती।”
“अरे, अक्ल के अन्धे, मेरा ऐसा इरादा न होता तो मैं रिवॉल्वर हाथ में आते ही तुम लोगों को शूट करती।”
तीनों हड़बड़ाये।
“तुम्हें खयाल भी नहीं आ सकता था मेरे पास रिवॉल्वर होने का। जब तक खयाल आता, तीनों मरे पड़े होते।”
“क... क्यों नहीं किया ऐसा?” — टोकस बोला।
“मैं अपने हाथ तुम्हारे नापाक खून से नहीं रंगना चाहती।”
“हमारा कत्ल कुबूल नहीं, बच्चे का कत्ल कुबूल है?”
“मुझे बातों में उलझाने का कोई फायदा नहीं होगा। दो सैकेंड में यहां से दफा हो जाओ वरना...”
“ठीक है। ठीक है। लेकिन एक बात हमारी भी याद रखना।”
“बक।”
“आज होशियारी दिखा ली। आइन्दा ऐसी होशियारी नहीं चलेगी। अगली बार मैं तेरी वो गत बनाऊंगा कि तू...”
“अगली बार की अगली बार देखेंगे। अब यहां से हिलता है या नहीं?”
तीनों घूमे और भारी कदमों से बाहर को बढ़े।
“एक बात और सुनते जाओ।” — पीछे से सुमन बोली — “ये न समझना कि तुम यहां से निकल कर बाहर घात लगा बैठने में कामयाब हो जाओगे। यहां की खिड़की से सोसायटी का आयरन गेट दिखाई देता है। पांच मिनट में तुम मुझे वहां से बाहर जाते न दिखाई दिये तो मैं समझ जांऊगी कि तुम यहां से टले ही नहीं हो। समझ गये?”
कोई कुछ न बोला।
वे बाहर निकल गये।
सुमन ने दरवाजे के पास जाने का उपक्रम न किया। अपनी जगह से बिना हिले वो उचक कर उस खिड़की से बाहर झांकने लगी, जिसमें से आयरन गेट सच में ही दिखाई देता था।
उसका दिल धाड़ धाड़ उसकी पसलियों के साथ बज रहा था। चाह कर भी वो अपने आप को यकीन नहीं दिला पा रही थी कि संकट टल गया था।
वो प्रतीक्षा करने लगी।
निर्धारित समय पर पिछले रोज वाले ही काले सूटों में सुसज्जित और वैसा ही हुलिया बनाये विमल और नीलम तारदेव में ओरियन्टल होटल्स एण्ड रिजार्ट्स लिमिटिड के बोर्डरूम में मौजूद थे।
उस रोज वहां मैनेजिंग डायरेक्टर की कुर्सी खाली थी और दिवंगज आत्मा के सम्मान में चेयरमैन समेत तमाम डायरेक्टर अपनी अपनी दायीं बांह पर काला रिबन बांधे थे।
विमल ने यह देखकर बड़ा इत्मीनान महसूस किया कि — माइनस एम.डी. महेश दाण्डेकर — हाजिरी कल जैसी ही थी। यानी कम्पनी के जो चार डायरेक्टर कल गैरहाजिर थे, वो आज भी गैरहाजिर थे।
“हमने आज के अखबार में आपके एम.डी. साहब की बाबत पढ़ा है।” — विमल गम्भीरता से बोला — “हमें उनकी मौत का दिली अफसोस है। राजा साहब ने विशेष रूप से कहलावाया है कि इस दुख की घड़ी में आप उन्हें अपने साथ जानें।”
“मिस्टर कौल” — चेयरमैन रणदीवे बोला — “अगर हमें गारन्टी न होती कि मिस्टर दाण्डेकर की मौत एक हादसा थी — वो अपनी ही लापरवाही से खिड़की से नीचे जा गिरे थे — तो हम यकीनन इस वारदात में आपका कोई हाथ समझते।”
“मेरा?” — विमल ने हड़बड़ाने का अभिनय किया।
“या आपके राजा साहब का।”
“राजा साहब वायलेंट आदमी नहीं हैं। उनका आदर्श गान्धी जी हैं इसलिये वो अहिंसा के उपासक हैं।”
“जानकर खुशी हुई। बहरहाल इतना मैं फिर भी कहूंगा कि आपके लिये तो बहुत छांट कर मौका निकाला ऊपर वाले ने मिस्टर दाण्डेकर को अपने घर बुलाने का।”
“मैं समझा नहीं, जनाब।”
“मिस्टर कौल, कल वोटिंग में जो डैडलॉक पैदा हो गया था, वो मिस्टर दाण्डेकर की मौत से अपने आप खत्म हो गया है।”
“इसका क्या मतलब हुआ? क्या अब वोटिंग दोबारा होने की जरूरत नहीं रही?”
“अगर हाजिर डायरेक्टर साहबान अपनी कल की वोट पर बरकरार रहेंगे तो दोबारा वोटिंग की जरूरत नहीं होगी। मैं डायरेक्टर साहबान से सवाल करता हूं। क्या सब लोग अपनी कल की वोट पर बरकरार हैं?”
“हां।” — सब सम्वेत स्वर में बोले।
“कोई साहब हक में या मुखालफत में अपनी वोट पलटना चाहते हों तो वो बरायमेहरबानी हाथ खड़ा करें।”
कोई हाथ खड़ा न हुआ।
“सो दि मैटर इज सैटल्ड। बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स छ: महीने के लिये होटल सी-व्यू राजा साहब को सौंप देने का प्रस्ताव पास करता है।”
सब ने सहमति जताई।
“मिस्टर कौल, अब आप अपने राजा साहब के पास ये गुड न्यूज ले जा सकते हैं।”
“और शेयर ट्रांसफर?” — विमल बोला।
“शेयर ट्रांसफर हो चुके हैं। कम्पनी के रजिस्ट्रार का आफिस इसी बिल्डिंग में है। आप जाती बार वहां से राजा गजेन्द्र सिंह के नाम जारी किया गया नया शेयर सर्टीफिकेट कलैक्ट कर सकते हैं।”
“थैंक्यू, सर। तो राजा साहब कब होटल को टेकओवर कर सकते हैं?”
“तहरीरी करार पर साइन कर चुकने के बाद कभी भी।”
“मैं राजा साहब के प्रतिनिधि की हैसियत से...”
“नो। दैट विल नाट डू। युअर बॉस मस्ट साइन दि एग्रीमेंट हिमसैल्फ।”
“तहरीरी करार नुमायन्दे के जरिये नहीं चलेगा।” — मोहसिन खान ने जैसे चेयरमैन की बात का अनुवाद किया — “उसके लिये तुम्हारे राजा साहब को खुद यहां आना होगा।”
“नो प्राब्लम।” — विमल बोला — “राजा साहब जरूर आयेंगे। उन्हें खुशी होगी आप लोगों से मिल कर।”
“हमें भी।”
“तो कब हाजिर हों राजा साहब?”
“कल सुबह साढ़े ग्यारह बजे आ जायें।” — चेयरमैन बोला — “हम यहां एग्रीमेंट तैयार रखेंगे।”
“ठीक है।”
“उसके बाद उनके सामने ही सिक्योरिटी स्टाफ को हिदायत जारी कर दी जायेगी कि होटल की लाॅक आउट की स्थिति खत्म कर दी जाये, तमाम ताले खोल दिये जायें और होटल राजा साहब के हवाले कर दिया जाये।”
“गुड। तो फिर मैं इजाजत चाहता हूं।”
“रजिस्ट्रार के आफिस से शेयर सर्टिफिकेट क्लैक्ट करना न भूलियेगा।”
“जी नहीं। नहीं भूलूंगा।”
“चलिये” — एकाएक मोहसिन खान बोला — “मैं आपको रजिस्ट्रार के आफिस तक ले चलता हूं।”
“थैंक्यू। नाओ आई विश यू आल ए वैरी गुड नाइट, जन्टलमैन।”
नीलम के साथ वो वहां से रुखसत हुआ तो मोहसिन खान उनके साथ हो लिया।
“आफिस दो मंजिल नीचे है।” — मोहसिन खान बोला — “आइये, सीढ़ियों के रास्ते चलते हैं।”
विमल ने सहमति में सिर हिलाया।
“कल रात मैंने अपने वालिद साहब से बात की थी।” — मोहसिन खान धीरे से बोला — “वो तो किसी अरविन्द कौल को नहीं जानते!”
“नाम भूल गये होंगे।” — विमल सहज भाव से बोला — “सूरत देखेंगे तो जान जायेंगे।”
“उनकी याददाश्त बहुत तीखी है। सिर्फ एक मर्तबा भी किसी से मिले हों तो न नाम भूलते हैं, न सूरत।”
“फिर तो मैं इसे अपनी बद्किस्मती ही कहूंगा कि वो मेरा नाम भूल गये!”
“कहां मिले थे आप मेरे वालिद से? कैसे वाकफियत हुई?”
“क्यों जानना चाहते हैं?”
“आपको बताने से कोई एतराज है?”
“एतराज तो नहीं है लेकिन...”
“क्या लेकिन?”
“मैं बात को दूसरे तरीके से कहता हूं।”
“कहिये।”
“जनाब, जैसे बुरे काम हमेशा इरादतन ही नहीं किये जाते, वो अनजाने में भी हो जाते हैं, वैसे ही कभी कभार कुछ अच्छे काम भी अनजाने में हो जाते हैं। बरायमेहरबानी आप इस बात को ये जान के यहीं खत्म कर दीजिये कि कल की बोर्ड मीटिंग में जब आपने मेरे कहने पर वोट के लिये हाथ उठाया तो आपने अनजाने में एक अच्छा काम किया। समझ लीजिये कि जैसे भले लोग गुड डीड ऑफ दि डे करते हैं, वैसे कल आपने गुड डीड ऑफ दि लाइफ किया जिसका सिला आपको अल्लाह देगा। जो सबाब जियारत से हासिल होता है, वो कल आपने मेरे कहने पर हाथ उठा कर कमाया।”
मोहसिन खान भौंचक्का सा उसका मुंह देखने लगा। फिर उसका सिर अपने आप ही सहमति में हिलने लगा।
बात सच में ही वहीं खत्म हो गयी।
सुमन ने खिड़की में से उन बदमाशों को एक एम्बैसेडर कार में सवार होकर वहां से रवाना होते देखा तो उसकी जान में जान आयी।
लेकिन वो अहसास क्षणभंगुर था।
वो जानती थी कि जो चले गये थे, वो फिर लौट सकते थे। वो उस पर तब तक घात लगाये रह सकते थे जब तक कि वो उनकी तरफ से असावधान न हो जाती।
पुलिस के पास जाने का तो वो खयाल भी नहीं कर सकती थी। तब बच्चे के बारे में सौ सवाल होते। सवाल होते तो उसे कुबूल करना पड़ता कि बच्चा कौल साहब का था। तब क्या पुलिस को वो यकीन दिला पाती कि उसे नहीं मालूम था कि बच्चे के मां बाप कहां चले गये थे! कोई यकीन न करता। सब यही कहते कि वो झूठ बोल रही थी कि उसे कौल साहब का मौजूदा पता नहीं मालूम था।
तो फिर?
क्या करे वो?
उस फ्लैट में बने रहने का तो अब मतलब ही नहीं रहा था, कोई और पनाहगाह तो उसने तलाश करनी ही थी, इसलिये उसने अपनी और बच्चे की जरूरत के कुछ कपड़े और सामान लम्बी डोरी वाले एक एयरबैग के हवाले किया, उसी में रिवॉल्वर डाली, घर में मौजूद वो नकद रुपया डाला जो कि लॉकर में नहीं समा पाया था और फ्लैट को ताले लगाने लगी।
उस घड़ी सबसे ज्यादा वो अपने ब्वाय फ्रेंड प्रदीप बाहरी को मिस कर रही थी जो कि उन दिनों एक मैडीकल सेमीनार के सिलसिले में कलकत्ता गया हुआ था और अभी और तीन दिन तक वापिस नहीं लौटने वाला था। वो दिल्ली में होता तो उसकी भीषण संकट की उस घड़ी में वो हज़ार तरीकों से उसका मददगार बन सकता था।
तो फिर?
उसे योगेश पाण्डेय का खयाल आया।
बिल्कुल ठीक — तत्काल उसके दिल ने गवाही दी — पाण्डेय साहब ही वो शख्स थे जो बड़ी आसानी से उसे उसकी मौजूदा दुश्वारी से निजात दिला सकते थे।
वो सावधानी से फ्लैट से बाहर निकली। उसने फ्लैट को ताला लगाया और फिर बगल के फ्लैट के दरवाजे पर पहुंच कर उसकी घन्टी बजायी।
दरवाजा एक अधेड़ महिला ने खोला।
“नमस्ते, प्रेरणा आन्टी।” — सुमन बोली — “जरा फोन करना था।”
“फोन तो आज सुबह से खराब पड़ा है!”
“ओह!”
“कोई खास फोन करना है?”
“बहुत खास तो नहीं लेकिन...”
“मेरा भाई आया हुआ है। उसके पास सेलुलर है। मैं अभी ले के आती हूं।”
सेलुलर से सुमन ने टैक्सी स्टैण्ड पर फोन किया और एक टैक्सी वहां बुलायी। जब तक टैक्सी सोसायटी के कम्पाउन्ड में न पहुंच गयी, वो वहीं प्रेरणा आंटी के पास बनी रही जो कि बहुत भली औरत थी, उनकी पुरानी पड़ोसन थी और उसकी पर्सनल ट्रेजेडी से वाकिफ थी। उसी का पी.पी. फोन नम्बर सुमन ने विमल को दिया था। वो हैरान थी कि तब तक एक बार भी उस फोन पर उसके लिये मुम्बई से काल नहीं आयी थी लेकिन अब काल न आने की वजह उसकी समझ में आ चुकी थी। फोन तो खराब था।
लिफ्ट में सवार होने की जगह सीढ़ियों के रास्ते वो नीचे पहुंची और जाकर प्रतीक्षारत टैक्सी में सवार हुई।
हवलदार शीशपाल ने वो नजारा देखा। उस एयरबैग पर उसकी निगाह खासतौर से फिरी जो कि सूरत से तो नहीं लेकिन उसे सुमन के सम्भालने के ढंग से ऐसा लगता था कि वो भारी था क्योंकि उसकी वजह से साफ जान पड़ता था कि उसे बच्चे को सम्भालने में दिक्कत महसूस हो रही थी।
टैक्सी वहां से रवाना हुई तो वो सहज भाव से बाहर दीवार के साथ लगी खड़ी एक मोटरसाइकल पर सवार हुआ और उसे स्टार्ट करके आयरन गेट की ओर ले चला। वहां चौकीदार के केबिन के करीब उसने क्षण भर को उसे रोका तो उसके पीछे उसका जोड़ीदार सिपाही भूरेलाल सवार हो गया।
“कहां चलूं?” — टैक्सी आयरन गेट से बाहर निकल आयी तो ड्राइवर बोला।
“लोधी।” — सुमन बोली — “आफिस कम्पलैक्स। जवाहरलाल स्टेडियम के पास।”
ड्राइवर ने सहमति में सिर हिलाया।
टैक्सी उसकी मंजिल की ओर बढ़ चली।
सुमन व्याकुल भाव से रह रहकर दायें, बायें, पीछे देख रही थी और हर उस वाहन को परख रही थी जिसमें कि वो बदमाश सवार हो सकते थे। टैक्सी के पीछे लगे शीशपाल और भूरेलाल पर उसकी निगाह हरगिज न पड़ती अगरचे कि वो पहले से सावधान न होती कि कोई उसके पीछे लग सकता था। उनकी मोटरसाइकल मुतवातर उसे टैक्सी के पीछे दिखाई देती रही तो वो घबराने लगी। उसे इस बात में भी तसल्ली महसूस न हुई कि मोटरसाइकल सवारों में से किसी की सूरत उन बदमाशों से नहीं मिलती थी।
लोधी निर्विघ्न पहुंच जाऊं — उसने अपने आपको तसल्ली दी — फिर पाण्डेय साहब सब सम्भाल लेंगे। आखिर सी.बी.आई. के महकमे के इतने बड़े अफसर थे।
टैक्सी निर्विघ्न लोधी पहुंची।
वहां योगेश पाण्डेय के आफिस से उनकी बाबत जो जवाब उसे मिला, वो काफी हलकान करने वाला था। पता लगा कि मिस्टर पाण्डेय न सिर्फ उस रोज नहीं आये थे, वो आइन्दा कई दिनों तक नहीं आने वाले थे क्योंकि वो लम्बी छुट्टी पर थे।
वजह?
नहीं मालूम थी।
लेकिन कहने का ढंग ऐसा था जैसे कि बताई नहीं जा सकती थी।
क्या घर पर होंगे?
क्या कहा जा सकता था?
संयोगवश वही टैक्सी वाला अभी बाहर सड़क पर मौजूद था। वो वापिस उस टैक्सी में जा सवार हुई।
“तू यहीं उतर जा” — शीशपाल बोला — “और मालूम कर कि ये औरत यहां सी.बी.आई. में क्यों आयी? मैं टैक्सी के पीछे लगता हूं।”
“ठीक है।” — भूरेलाल बोला — “बाद में मैं कहां पहुंचूं?”
“वापिस गोल मार्केट। वहीं मुलाकात होगी।”
फिर वो अकेला सुमन की टैक्सी के पीछे लग गया।
टैक्सी कालिन्दी पहुंची।
सुमन का दिल ये देखकर धक से रह गया कि पाण्डेय साहब की कोठी को ताला लगा हुआ था। उनकी कार तिरपाल से ढंकी भीतर कम्पाउन्ड में खड़ी थी। वो नीलम के साथ इतने दिन उस कोठी में रह चुकी थी, उसने कार को कभी तिरपाल से ढंके जाते नहीं देखा था।
और न ही कोठी को मुकम्मल तौर से ताला लगा देखा था।
तभी उसे वो वाचमैन दिखाई दिया जो कि कोठी के पिछवाड़े में बने एक छोटे से कमरे में स्थायी रूप से रहता था। सुमन ने उसे आवाज लगायी।
तत्काल वो टैक्सी के करीब पहुंचा। सुमन को पहचान कर उसने उसे सलाम किया।
“साहब कहां गये?” — सुमन बोली।
“वो तो बैंगलोर चले गये आज सुबह के जहाज से।” — जवाब मिला।
“कब लौटेंगे?”
“पता नहीं, लेकिन लम्बा प्रोग्राम बनाकर गये हैं।”
“बीवी बच्चे साथ गये हैं?”
“हां, जी।”
“ओह!”
“कोई सेवा हो तो बताइये।”
“सेवा! नहीं, कोई नहीं।”
उसने टैक्सी ड्राइवर को इशारा किया।
तत्काल टैक्सी आगे बढ़ चली।
अब?
उसे कोई नयी पनाहगाह न सूझी।
सबसे ज्यादा हलकान उसे वो मोटरसाइकल वाला कर रहा था जो कि पहले जोड़ीदार के साथ था और अब अकेला उसके पीछे दिखाई दे रहा था।
उसे शिवशंकर शुक्ला का खयाल आया।
उसने कलाई घड़ी पर निगाह डाली।
छ: बजने को थे।
गैलेक्सी का आफिस तो अब बन्द हो चुका होगा और शुक्ला साहब के घर का पता उसे मालूम नहीं था।
लेकिन — उसे याद आया — कौल साहब ने कहा था कि गैलेक्सी का दफ्तर देर रात तक खुलता था।
“अब कहां चलूं?” — ड्राइवर बोला।
“कनाट प्लेस।” — वो बोली — “के.जी. मार्ग।”
टैक्सी आगे बढ़ी।
रास्ते में सुमन ने जब भी अपने पीछे निगाह दौड़ाई, उसे वो मोटरसाइकल अपने पीछे दिखाई दी।
क्या वो टैक्सी ड्राइवर से कहे कि वो ही किसी तरीके से उस मोटरसाइकल से पीछा छुड़ाये?
उसके दिल ने गवाही न दी।
वो शाम के हैवी ट्रै्फिक का वक्त था जिसमें वो टैक्सी वाला भी क्या कर सकता था! मोटरसाइकल की जगह उसके पीछे कोई कार लगी होती तो कोई बात भी थी!
टैक्सी एक स्थान पर रुकी।
उसने उचक कर देखा तो पाया कि आगे चौराहा था जहां कि उधर की ट्रैफिक लाइट लाल होने की वजह से वाहन रुके हुए थे। खुद उसकी टैक्सी रुके हुए वाहनों में इतनी पीछे थी कि बत्ती हरी हो जाने पर भी चौराहा पार करने की टैक्सी की बारी आने की उम्मीद नहीं दिखाई दे रही थी।
वैसा ही हाल सड़क से पार विपरीत दिशा के ट्रैफिक का भी दिखाई दे रहा था।
उसने फिर एक सावधान निगाह पीछे डाली तो मोटरसाइकल बदस्तूर उसे अपने पीछे दिखाई दी। इस बार मोटरसाइकल उसके इतने करीब थी कि उसे अन्देशा सताने लगा कि कहीं मोटरसाइकल वाला आकर उसकी बगल में न बैठ जाये।
मोटरसाइकल छोड़ कर?
बीच सड़क में मोटरसाइकल कैसे छोड़ सकता था वो?
यूं कौन छोड़ने देता मोटरसाइकल उसे?
नहीं छोड़ सकता था।
पटड़ी से पार परली सड़क पर आगे रास्ता न होने की वजह से डी.टी.सी. की एक बस स्थिर खड़ी थी।
तत्काल उसने अपना अगला कदम निर्धारित किया।
उसने उचक कर मीटर देखा तो उस पर एक सौ बत्तीस रुपये बने पाये। उसने पचास पचास के तीन नोट टैक्सी की अगली, पैसेंजर सीट पर डाले और बोली — “मैं यहीं उतर रही हूं।”
ड्राइवर सकपकाया और फिर बोला — “आगे बत्ती हरी हो तो गयी है!”
“मैं फिर भी यहीं उतर रही हूं। मेहरबानी।”
“मर्जी आपकी।”
एयरबैग और सूरज को सम्भाले वो टैक्सी से बाहर निकली और ऊंची पटड़ी पर चढ़ गयी। आगे सड़क पर उतर कर, बस के पृष्ठ भाग का घेरा काट कर वो उसके प्रवेश द्वार पर पहुंची और उसमें सवार हो गयी।
तभी बस चल पड़ी।
परली तरफ बौखलाया खड़ा मोटरसाइकल सवार उसे दिखाई दिया लेकिन वो जानती थी कि वो अब कुछ नहीं कर सकता था। न वो मोटरसाइकल को बीच सड़क में छोड़ सकता था और न उसे ऊंची पटड़ी पर चढ़ा सकता था। बड़ी हद वो आगे चौराहे से यू टर्न काट कर बस वाली सड़क पर आ सकता था लेकिन जब तक वो ऐसा कर पाता, बस कहीं की कहीं निकल गयी होती।
फिर भी ये देखने के लिये कि मोटरसाइकल वाला पीछे आता था या नहीं, वो प्रवेश द्वार के करीब ही खड़ी रही।
मोटरसाइकल दोबारा उसे पीछे दिखाई न दी।
आगे एक चौराहा आया जिस पर से बस दायें बायें या सामने तीन रास्तों पर जा सकती थी। बस दायें वाले रास्ते पर मुड़ी जिस पर कि कदरन कम ट्रैफिक था।
मोटरसाइकल पीछे न आयी।
वो पीछे आती भी — उसने अपने आपको तसल्ली दी — तो सीधी जा सकती थी, बायें मुड़ सकती थी।
शुक्र है भगवान का।
बस रास्ते में दो तीन जगह रुकी। हर जगह उसमें से कई सवारियां उतरीं लेकिन चढ़ने वाला कोई इक्का दुक्का ही निकला।
आखिरकार जब बस एक स्थान पर रुकी तो ड्राइवर ने उसका इंजन बन्द कर दिया।
तमाम सवारियां उतरने लगीं।
“आपने कहां जाना है?”
उसने सकपकाकर पीछे सड़क पर से निगाह हटा कर आवाज की दिशा में देखा तो पाया कि बस ख्राली हो चुकी थी और बस कन्डक्टर उससे सम्बोधित था।
“कहां जाना है!” — उसके मुंह से निकला।
“मैं आप से पूछ रहा हूं। ये आखिरी स्टाप है इस बस का। ये यहां से आगे नहीं जाती। अब जब चलेगी तो वापिस जायेगी।”
“ये... ये कौन सी जगह है?”
“निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन। टिकट ले लिया आपने?”
“नहीं।”
“लेना चाहिये था? कहां से बैठीं?”
“ध्यान नहीं।”
“पांच रुपये दीजिये।”
सुमन ने उसे एक पांच का सिक्का सौंपा और बस से नीचे उतरी।
सामने ही स्टेशन का प्रवेश द्वार था जिससे आगे प्लेटफार्म पर एक गाड़ी खड़ी दिखाई दे रही थी।
तभी एक मोटरसाइकल के इंजन की गर्जन उसके कानों में पड़ी।
वो घबरा कर स्टेशन में दाखिल हो गयी।
सामने ट्रेन सरकने लगी।
वो झपट कर चैकिंग गेट से पार हुई और प्लेटफार्म पर पहुंच गयी। उसने एक बार घूम कर पीछे देखा तो उसे अपनी पहचानी हुई मोटरसाइकल और पहचाना हुआ उसका सवार बस के पहलू में दिखाई दिये। सवार बस कन्डक्टर से कुछ पूछ रहा था और उचक उचक कर आजू बाजू देख रहा था।
तभी उसने कन्डक्टर का एक हाथ स्टेशन की तरफ उठता देखा। साथ ही सवार मोटरसाइकल स्टैण्ड पर लगा कर स्टेशन की तरफ बढ़ा।
सुमन चलती गाड़ी की तरफ लपकी। एक डिब्बे का दरवाजा उसके सामने आया तो उसने अपना एयरबैग उसके भीतर फेंका और बच्चा सम्भाले खुद भी दरवाजे से भीतर छलांग लगा दी।
तब उसे अहसास हुआ कि गाड़ी तब तक काफी तेज रफ्तार पकड़ चुकी थी।
“बहुत जोखिम का काम किया, बहनजी।” — कोई उसके करीब से बोला — “अपना नहीं तो बच्चे का तो खयाल किया होता!”
“स... सा... सॉरी।” — वो हांफती हुई बोली।
“अब शुक्र मनाइये भगवान का कि कोई हादसा न हुआ।”
“जी हां। जी हां। ये गाड़ी कहां जा रही है?”
“आपने कहां जाना है?”
“मैंने तो... मैंने तो अगले स्टेशन तक ही...”
“अब ये फरीदाबाद रुकेगी।”
फरीदाबाद! जो कि ज्यादा दूर नहीं था। वो वहां से कोई बस या टैक्सी पकड़ कर वापिस दिल्ली लौट सकती थी।
बहरहाल वो खुश थी कि उसका अपना पीछा करने वालों से पीछा छूट गया था।
“...वैसे ये मुम्बई जा रही है।”
“जी!” — वो बोली।
“मैंने कहा, वैसे ये गाड़ी मुम्बई जा रही है।”
मुम्बई!
क्या हर्ज था!
वहां वो नीलम की अमानत उसे सौंप सकती थी और उस गम्भीर जिम्मेदारी से मुक्ति पा सकती थी।
लेकिन टिकट! टिकट कहां था उसके पास?
बन जायेगा। ट्रेन में बन जायेगा। जुर्माना ही तो लग जायेगा!
बहुत पैसा था उसके पास।
“तो आप फरीदाबाद....”
“नहीं।” — वो निस्संकोच बोली — “मुम्बई।”
मुबारक अली अपने टैक्सी स्टैण्ड पर तख्तपोश पर बैठा पत्ते पीट रहा था।
“मियां, फोन है तेरा।”
मुबारक अली ने उस खोखे की तरफ देखा जिसमें फोन था और जहां से उसका एक टैक्सी ड्राइवर भाई रिसीवर दिखा कर उसे पुकार रहा था।
“कौन है?” — वो उच्च स्वर में बोला।
“मालूम नहीं। कोई मुम्बई से बोलता है।”
मुम्बई का नाम सुनते ही अन्य खिलाड़ियों के तीव्र विरोध के बावजूद मुबारक अली ने पत्तें फेंक दिये और लपक कर खोखे पर पहुंचा।
“बाजू हट।” — वो रिसीवर थामता बोला — “पिराइवेट फोन है। सुनने का नहीं है।”
“मुम्बई से तुझे प्राइवेट फोन कौन करेगा, मुबारक अली?”
“माधुरी दीक्षित। मैं इधर आ गया पण पीछा नहीं छोड़ती। कहीं भी फोन लगा देती है। तू परे हट। सुनने का नहीं है। अपनी माधुरी नाराज हो जायेगी।”
वो परे जा खड़ा हुआ तो मुबारक अली सावधानी से माउथपीस में बोला — “हल्लो! मुबारक अली बोलता है।”
“सलामालेकम।” — उसे विमल की आवाज आयी।
“वालेकम सलाम, बाप।” — मुबारक अली बोला — “कैसा है उधर? वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, खैरियत से तो है न?”
“हां। अभी तक तो मेहर है बाबे की।”
“आगे भी रहेगी। हमेशा रहेगी। तू मुझे अपना फोन नम्बर बता।”
“क्यों? कोई खास बात है?”
“हां। तेरा फोन आया नहीं, मेरे कू तेरा नम्बर नहीं मालूम। कैसे पहुंचाता मैं वो खास बात तेरे तक?”
विमल ने उसे लोहिया का नम्बर नोट कराया और फिर बोला — “क्या खास बात है? सुमन तो खैरियत से है?”
“हां, वो खैरियत से है अल्लाह के फजल से। तेरा साहबजादा भी। वो पुलिस वाला भी जो परसों सुबह तेरे को पूछता उधर पहुंचा था, वापिस लौट कर नहीं आया था। कल शाम मैं वली को भेजा था उधर। सुमन बीबी, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, एकदम ठैक्यू ठीक है।”
“खास बात क्या है?”
“बाप, कुशवाहा खल्लास।”
“अरे! कब? कैसे?”
“कल का वाकया है, बाप। इधर छापे में छपा है। पुलिस बोलता है कि कोई मवाली उधर घुस आया और दिन दहाड़े कुशवाहा के आफिस में उसको और उसके द्विवेदी करके एक जोड़ीदार को शूट कर दिया। दोनों, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, उधरीच खल्लास।”
“मवाली पकड़ा गया?”
“कैसे पकड़ा जायेंगा? उसकी तो न किसी को आते की खबर लगी, न जाते की खबर लगी।”
“ऐसा कैसे हुआ? आफिस तक तो हाल में से गुजर कर जाना पड़ता है?”
“अब नहीं जाना पड़ता। मेरे कू भी अभी मालूम हुआ कि गुरबख्श लाल के बाद जब कुशवाहा उधर लोटस क्लब पर, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, काबिज हुआ था तो उसने आफिस में पहुंचने का एक नवां रास्ता खुलवाया था जो कि बाजू की एक गली से है। उधर एक दरवाजा उसने नवां खुलवाया था जिसके आगे एक ड्योढी थी और ड्योढी से आगे वो दफ्तर था जिसमें नसीबमारों का, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, कत्ल होयेला है।”
“यानी कि कोई उधर से आया और कुशवाहा और उसके जोड़ीदार को शूट करके उधर से ही चलता बना?”
“ऐसीच है।”
“उन्होंने आत्मरक्षा की कोई कोशिश न की?”
“कौन सी रिक्शा की, बाप?”
“रक्षा। आत्मरक्षा। अपने को बचाने की, हमलावर पर हमला करने की कोई कोशिश न की?”
“मैं समझ गया, बाप। वो द्विवेदी करके भीड़ू कियेला था अपनी और कुशवाहा की आतम की रिक्शा की कोशिश। एक गोली चला भी पाया था हमलावर पर। पण वो उसको लगी नहीं।”
“वारदात की खबर कैसे आम हुई?”
“उधर थाने का कोई सब-इन्स्पेक्टर आयेला था।”
“खामखाह!”
“खामखाह नहीं, बाप। वो कुशवाहा उधर ऐसा इन्तजाम करके रखे था कि, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, खतरे की एक घन्टी नजदीकी थाने में उस सब-इन्स्पेक्टर के दफ्तर में बजती थी। पण वो टेम पर लोटस क्लब न पहुंच सका। जब तक पहुंचा तब तक, वो क्या कहते है अंग्रेजी में, सब फिनिश था।”
“पुलिस ने किसी पर वारदात का शक जाहिर किया है?”
“नक्को।”
“क्लब के स्टाफ में से किसी ने कोई निशानदेयी की है?”
“नक्को।”
“तुम्हें कैसे खबर लगी?”
“छापे में देखा।”
“इधर के अखबारों में नहीं छपी ये खबर।”
“अभी कल का तो वाकया है! अभी खबर उधर नहीं पहुंचेला होयेंगा।”
“या मेरी निगाह नहीं पड़ी होगी। मुबारक अली, मैंने तुझे एक काम के लिये फोन किया था। अब तेरे लिये दो काम हैं।”
“बीस बोल, बाप। मैं तेरा खिदमतगार।”
“एक तो गोल मार्केट खुद जा और सुमन की खैरियत का पता कर। परसों उसने मुझे अपने पड़ोस का एक फोन नम्बर दिया था जिसे कि मैं सुबह से ट्राई कर रहा हूं। मुबारक अली, सुबह से शाम हो गयी है लेकिन वो नम्बर नहीं मिल रहा।”
“खराब होयेंगा।”
“शायद। जो नम्बर मैंने तुझे दिया है, एक तो अपने सामने उस पर सुमन से मेरी बात कराना। मेरी नहीं तो नीलम की बात कराना। वो बेचारी सूरज के लिये फिक्रमन्द है।”
“माओं का काम ही होता है औलाद के लिये फिक्रमन्द होना। मैं अभी आधे घन्टे में सुमन से फोन लगवाता हूं, तू दूसरा काम बोल।”
“मियां, कुशवाहा का कत्ल मुझे फिक्र में डाल रहा है। मुझे ये अन्देशा सताने लगा है कि अब तक चुप बैठे गुरबख्श लाल मरहूम के बिरादरीभाई अब सिर उठाने लगे हैं। कुशवाहा का कत्ल मेरी मुखालफत के उनके नये प्रोग्राम का पहला कदम हो सकता है। तू अपने कुछ काबिल धोबियों को अन्डरवर्ल्ड में फिरा जो कि ये भांपने की कोशिश करें कि ये बिरादरीभाई किस फिराक में हैं!”
“होंगे सही किसी फिराक में?”
“हो सकते हैं। नहीं भी हो सकते है। होंगे तो सबसे पहले हेरोइन के धन्धे का ही दामन थामेंगे। कुशवाहा जिन्दा होता तो चुटकियों में उनकी ऐसी किसी मंशा की खबर पा लेता लेकिन अब...”
“बाप मैं भी कुछ करेंगा। तू फिक्र नक्को कर। अपना हाशमी बहुत होशियार। अली वली भी कम नहीं। कोई खबर निकलेंगे, बाप।”
“बढ़िया।”
“और?”
“फिलहाल बस।”
“उधर सब तेरे काबू में है?”
“फिलहाल है।”
“न हो तो बोल, मैं धोबियों की पलटन के साथ उधर उड़के आता है।”
“अभी नहीं। जब जरूरत होगी, तब खबर करूंगा।”
“ठीक।”
पिटा सा मुंह लिये टोकस झामनानी के सामने पेश हुआ और उसने अपनी हार और नाकामी की दास्तान उसे सुनायी।
“लक्ख दी लानत हई।” — झामनानी भड़का — “चार जने उसके पीछे लगे, एक पुटड़ी काबू में न कर पाये। सवा लक्ख दी लानत हई।”
“सब रिवॉल्वर की वजह से हुआ, बॉस।” — टोकस धीरे से बोला — “कौन सोच सकता था कि उस मामूली, घरेलू, क्लर्कपेशा लड़की के पास रिवॉल्वर होगी!”
“रिवॉल्वर थी तो भी क्या हुआ! वडी, वो खुद को गोली नहीं मार सकती थी, वो बच्चे को नहीं मार सकती थी। उसने तुम लोगों के साथ ब्लफ खेला और तुम ब्लफ में मात खा गये।”
“बॉस, वो ब्लफ नहीं था। लड़की के खतरनाक इरादे उसकी सूरत से साफ झलक रहे थे। हम उसकी बात न मानते तो वो यकीनन बच्चे के कलेजे में छुरी उतार देती और खुद को शूट कर लेती।”
“उसने कुत्ते की तरह दुरदुरा के भगाया तो भाग क्यों खड़ा हुआ, नी? उसके पीछे लगता।”
“मैं लगा था। मैं बराबर लगा था, वो जहां जहां गयी थी, मैं उसके पीछे था, लेकिन उस पर कहीं हाथ डालने का हाल नहीं था।”
“वडी, क्यों नहीं था, नी?”
“क्योंकि जो पुलिसिये गोल मार्केट में उसकी निगरानी कर रहे थे, वो उसके पीछे लगे हुए थे। उनकी मौजूदगी में मैं लड़की पर हाथ डालता तो कोहराम मच जाता। लड़की तो हाथ फिर भी न आती, मैं जरूर गिरफ्तार हो जाता।”
“हूं।”
“लड़की कुछ ज्यादा ही चालाक निकली, बॉस।”
“उस कर्मामारे सोहल की शगिर्दी में जो थी!”
“वो तो पीछे लगे पुलिसियों को भी डाज दे गयी!”
“अब गयी कहां वो कम्बख्तमारी?”
“मैंने उसे निजामुद्दीन स्टेशन से एक चलती गाड़ी में चढ़ते देखा था।”
“गाड़ी के पीछे जाता।”
झामनानी की उस नाजायज बात पर टोकस तनिक हड़बड़ाया और फिर बोला — “वो सुपर एक्सप्रैस ट्रेन थी, बॉस। शाम की ट्रैफिक की भीड़ में उससे पहले किसी अगले स्टेशन पर पहुंच पाना नामुमकिन था।”
“वो गाड़ी में क्यों चढ़ी, नी?”
“जाहिर है पुलिसियों से पीछा छुड़ाने के लिये क्योंकि मेरी तो उसे खबर नहीं जान पड़ती थी।”
“यानी कि सफर पर नहीं निकली थी। गाड़ी सामने देखकर खामखाह चढ़ गयी थी?”
“ऐसा ही जान पड़ता है।”
“वडी, फिर तो वो अगले किसी स्टेशन पर उतर कर वापिस दिल्ली आ जायेगी!”
“मैं भी यही उम्मीद कर रहा हूं। मैं जुगनू को उधर गोल मार्केट में बिठा के आया हूं। वो वहां लौटेगी तो फौरन मुझे खबर लग जायेगी। फिर इस बार नहीं छोड़ने वाला मैं उसे।”
“वडी, न लौटी तो?”
उस ‘तो’ कर टोकस के पास कोई जवाब नहीं था। जवाब देने की जगह उसने बेचैनी से पहलू बदला।
“गाड़ी कहां की थी? वडी, पता किया, नी?”
“किया। मुम्बई की थी।”
“जहां कि सोहल है।”
“आपका मतलब है वो मुम्बई चल दी होगी?”
“वडी, क्या मुश्किल काम है, नी? उधर जाने का क्या कोई पासपोर्ट लगता है?”
टोकस ने इनकार में सिर हिलाया।
“वो गाड़ी कल दस ग्यारह बजे से पहले मुम्बई नहीं पहुंचने वाली। ब्रजवासी कल सुबह सवेरे की फ्लाइट से मुम्बई जा रहा है। तू ब्रजवासी के साथ मुम्बई जा और गाड़ी उधर पहुंचने पर उस लड़की को थाम। थाम न सके तो उसके पीछे लगना। उसके पास सोहल का बच्चा है। मुम्बई उतरते ही वो नाक की सीध में सोहल के पास पहुंचेगी कि नहीं पहुंचेगी?”
टोकस चुप रहा।
“वडी, लकवा मार गया, नी, जुबान को? जवाब क्यों नहीं देता?”
वो क्या जवाब देता? बॉस उसे एक ऐसा कठिन काम बता रहा था जिसमें नाकामी गले पड़ना मामूली बात थी क्योंकि इस बात की कोई गारन्टी नहीं थी कि वो मुम्बई जाने के लिये ट्रेन में सवार थी।
“बॉस” — वो कठिन स्वर में बोला — “उसके घर लौटने की सम्भावना ज्यादा है।”
“वडी, क्यों ज्यादा है, नी?”
“क्योंकि सोहल अपने बच्चे को इधर उसके पास छोड़ के गया है। ऐसा करने की जरूर कोई वजह होगी। मसलन यही वजह हो सकती है कि फिलहाल बच्चे को पास रख पाने के हालात उसके नहीं होंगे। ये बात सुमन वर्मा को भी मालूम होगी, तभी तो बच्चा उसके पास है और वो उसको सम्भालने के लिये अपनी नौकरी से छुट्टी लेकर घर बैठी हुई है! इन बातों से तो ऐसा नहीं लगता कि वो बच्चे को लेकर सोहल के सिर पर जा खड़ी होगी!”
“तू चड़या हो गया है जो इतनी सी बात नहीं समझता कि वो घर नहीं लौटने वाली। वो इतनी मूर्ख नहीं होगी कि समझ बैठेगी कि तेरे से इधर उसको जो खतरा था, वो टल गया था। तू लिख ले, वो मुम्बई भले ही न पहुंचे, वो घर नहीं लौटने वाली।”
“यानी कि जुगनू को मैंने गोल मार्केट बेकार बिठाया हुआ है?”
“वो उधर बैठा है तो बैठा रहे। पुटड़ी की मत्त ही मारी जाये और वो वापस लौट आये तो उसका वहां होना काम आयेगा।”
“ठीक।”
“तू ब्रजवासी के साथ मुम्बई जाने की तैयारी कर। झूलेलाल की किरपा हमारे पर हुई तो वो लड़की मुम्बई ही पहुंचेगी और तेरे को दिखाई भी देगी। वडी, क्या पता उधर सोहल को मार गिराने का कारनामा तेरी और ब्रजवासी की किस्मत में ही लिखा हो। नहीं?”
“हां।” — टोकस कठिन स्वर में बोला।
ऐन उसी वक्त पहाड़गंज थाने में एस.एच.ओ. नसीब सिंह के सामने खड़ा हवलदार शीशपाल अपनी नाकामी की कहानी बयान कर रहा था।
उस घड़ी सिपाही भूरेलाल भी वहां मौजूद था और वो अलग से अपनी कहानी सुना चुका था।
एस.एच.ओ. के अलावा उन दोनों के बयान का एक श्रोता सब-इन्स्पेक्टर जनकराज भी था जो कि एस.एच.ओ. के सामने एक कुर्सी पर बैठा हुआ था।
“कमाल है!” — नसीब सिंह बोला — “ऐसा करतब दिखाया उस सीधी साधी लड़की ने! न सिर्फ ये जान गयी कि तुम उसके पीछे लगे हुए थे, इतनी आसानी से तुम्हारे से पीछा छुड़ाने में भी कामयाब हो गयी!”
“जी हां।” — शीशपाल मातमी अंदाज में बोला।
“एकाएक ऐसा क्यों किया उसने?”
“मेरी समझ से बाहर है, साहब।”
“तुम्हारा जोड़ीदार कहता है” — एस.एच.ओ. ने भूरेलाल की तरफ देखा — “कि वो लोधी, सी.बी.आई. की बिल्डिंग में योगेश पाण्डेय से मिलने गयी थी!”
“और फिर कालिन्दी में उसकी कोठी पर पहुंची थी। साहब, उसकी सूरत बता रही थी कि पाण्डेय साहब को वहां भी न पाकर वो बहुत मायूस हुई थी।”
“सर” — जनकराज बोला — “इस लड़की की मूवमेंट्स ने तो और भी साबित कर दिया कि हमारे ये पाण्डेय साहब हाथ में दस्ताने की तरह सोहल के साथ हैं और सोहल का कोई भी करीबी कैसी भी मदद के लिये उनके पास पहुंच सकता है।”
एस.एच.ओ. ने बड़ी संजीदगी से सहमति में सिर हिलाया और फिर शीशपाल से सम्बोधित हुआ — “अब पोजीशन क्या है? वो लड़की जो तुम्हारे से पीछा छुड़ाने के लिये निजामुद्दीन स्टेशन से ट्रेन में चढ़ गयी, क्या वापिस लौटेगी?”
“वापिस नहीं लौटगी” — शीशपाल बोला — “तो और कहां जायेगी, साहब, एक गोदी के बच्चे के साथ?”
“पता नहीं पाण्डेय जैसे इस शहर में उसके कितने और हिमायती हैं!”
“एक तो” — जनकराज बोला — “गैलेक्सी वाले शुक्ला साहब ही हो सकते हैं।”
“मुझे वो टैक्सी पर कनाट प्लेस की तरफ ही जाती लगी थी, साहब” — शीशपाल बोला — “जबकि वो रास्ते में मुझे गच्चा दे गयी थी।”
“हम अब क्या कर सकते हैं?” — एस.एच.ओ. बोला — “मेरे खयाल से तो सिर्फ उसके गोल मार्केट लौटने का इन्तजार कर सकते हैं।”
“न लौटी तो?” — जनकराज बोला।
“तो खेल खत्म पैसा हज्म। सोहल को काबू में करने की दिशा में की गयी हमारी सारी मेहनत जाया।”
“ओह!”
“शीशपाल!”
“जी, साहब?”
“वापिस गोल मार्केट जा। भूरेलाल को भी ले के जा। वो लड़की वहां लौट आये तो फौरन उसे हिरासत में ले लेना और यहां ले आना। ए.सी.पी. साहब के मुताबिक इस मामले में हमें कल सुबह तक इन्तजार करना चाहिये लेकिन मौजूदा हालात में इन्तजार करना नादानी होगी।”
जनकराज ने सहमति में सिर हिलाया।
“और अपने इष्ट देव से दुआ करते जाना कि वो लड़की वापिस लौट आये वरना जो तुम लोगों ने किया, जो हमने किया, समझना, सब जाया गया।”
सहमति में सिर हिलाता शीशपाल भूरेलाल के साथ वहां से विदा हुआ।
“अब तुम बोलो” — एस.एच.ओ. जनकराज से सम्बोधित हुआ — “तुम कैसे आये?”
“बड़ी सनसनीखेज खबर है।” — जनकराज बोला — “हैडक्वार्टर में पहुंची थी। वहां मेरे बैच का एक सब-इन्सपेक्टर कम्यूनिकेशन में है। यारी दोस्ती में उसी ने फोन करके वो खबर मुझे बतायी वरना अभी....”
“भूमिका छोड़, यार” — एस.एच.ओ. उकताये स्वर में बोला — “और वो खबर सुना जो कि तू कहता है कि सनसनीखेज है।”
“कल रात पंजाब पुलिस की जो जेल वैन मायाराम को लेकर यहां से गयी थी, वो जी.टी. रोड पर करनाल के पास लावारिस खड़ी पायी गयी थी। उसमें टीम का इंचार्ज सब-इन्स्पेक्टर दिलीप सिंह गोली खा के मरा पड़ा था और बाकी के तीनों पुलिस वाले वैन में ही बेहोश पड़े मिले थे।”
“और मायाराम?”
“गायब है।”
“कैसे हुआ ये सब?”
“जाहिर है कि उसके किन्हीं हिमायतियों ने जेल वैन पर हल्ला बोल कर उसे छुड़ा लिया।”
“कैसे? कैसे छुड़ा लिया?”
“डिटेल्स अभी मालूम नहीं। आज के अखबारों में भी ये खबर नहीं है। कल ये खबर छपेगी तो काफी सनसनी फैलायेगी।”
“जाहिर है। बड़ी वारदात है ये। पुलिस पार्टी पर सशस्त्र हमला करके कैदी छुड़ा ले जाना हौसले का और जोखम का काम है। हैरानी है कि उस लंगड़े के ऐसे हिमायती निेकल आये।”
“हमारे लिये तो अच्छा ही हुआ, सर, जो वक्त रहते हमारा मायाराम से पीछा छूट गया। जो हुआ, तब हुआ जबकि वो पंजाब पुलिस की कस्टडी में था।”
“वो तो ठीक हैं लेकिन हुआ ये कमाल ही। इतने साल हो गये थानेदारी करते और पुलिस की नौकरी करते। विलायती फिल्मों जैसी ऐसी बातें पहले तो कभी नहीं हुई थीं! मुझे तो हर ऐसी हालिया वारदात का धुरा सोहल जान पड़ता है। पता नहीं क्या बला है ये शख्स!”
“सोहल ने भला क्यों छुड़ाया होगा मायाराम को?”
“एक ही वजह सामने है। उसका मुंह बन्द करने के लिये। उसकी ये रट खत्म करने के लिये कि कौल सोहल था।”
“अब उसका क्या फायदा! अब तो हमें वैसे ही मालूम है कि कौल सोहल था।”
“हमें मालूम है। सोहल को तो नहीं मालूम कि हमें क्या मालूम है! मायाराम को तो नहीं मालूम कि अब हम उसकी तोतारटन्त के बिना भी जानते हैं कि कौल सोहल था।”
“हूं। सर, अगर आपकी बात सच मानी जाये तो अब मायाराम तो क्या मिलेगा! अब जब भी मिलेगी उसकी लाश ही मिलेगी।”
“जाहिर है।”
“लेकिन कौल तो मुम्बई चला गया था!”
“लौट आया होगा।”
“ये काम करने के लिये इधर लौटना था तो गया ही क्यों?”
“होगी कोई वजह।”
“उसे खबर कैसे लगी होगी कि मायाराम को पंजाब पुलिस को सौंपा जा रहा था और वो लोग उसे जेल वैन में बन्द करके रातोंरात यहां से अमृतसर पहुंचाने वाले थे?”
“क्या कहना चाहते हो?”
“सर, गुस्ताखी माफ, मुझे ये बात हज्म नहीं हो रही कि ये काम सोहल ने किया होगा। अगर वो ऐसा करने में सक्षम था तो उसे खड़े पैर दिल्ली से खिसक जाने की क्या जरूरत थी?”
“न खिसकता तो हम पकड़ लेते।”
“सर, उसे तो नहीं मालूम था कि हम सिद्ध कर सकते थे कि कौल सोहल था!”
“भई, जब उसके योगेश पाण्डेय जैसे हिमायती दिल्ली में बैठे हैं तो मालूम हो जाना क्या बड़ी बात है!”
जनकराज खामोश रहा लेकिन उसके चेहरे पर आश्वासन के भाव न आये।
एस.एच.ओ. कुछ क्षण अपलक उसे देखता रहा और फिर बोला — “भई, ये वारदात अगर सोहल ने नहीं की तो सोहल की वजह से तो ये यकीनन हुई है वरना मायाराम से किसी ने क्या लेना देना था!”
“शायद आप ठीक कह रहे हैं। हत्प्राण सब-इन्स्पेक्टर के संगी साथी होश में आ चुके होंगे तो उनके बयानात से ही कोई रोशनी पड़ी होगी इस वारदात पर।”
“मालूम पड़ जायेगा। कल के अखबार से ही सब मालूम पड़ जायेगा।”
“ठीक।”
“और?”
“मद्रास और पणजी से सोहल की उंगलियों के निशानों की कापी यहां पहुंच गयी हैं। वो कापियां भी हमारे पास उपलब्ध निशानों से मिलती हैं। ”
“यानी कि अब जहां की भी पुलिस के पास सोहल की उंगलियों के निशान हैं, वो असली हैं!”
“मुम्बई की बाबत अभी ये नहीं कहा जा सकता क्योंकि वहां से अभी कोई जवाब नहीं आया है।”
“ऐसा क्यों?”
“क्या पता!”
“लापरवाही ही वजह होगी!”
“हो सकता है।”
“मैं ए.सी.पी. साहब से बात करता हूं और उनसे कहता हूं कि वे मुम्बई पुलिस के किसी आला अफसर से इस बाबत ट्रंक काल पर बात करें।”
“ये ठीक रहेगा।”
विमल होटल ताज इन्टरकांटीनेंटनल में उसके जनरल मैनेजर कपिल उदैनिया के आफिस में उसके सामने बैठा था। नीलम तब भी उसके साथ थी।
विमल राजा गजेन्द्र सिंह एन.आर.आई. के प्रतिनिधि के तौर पर उसे अपना परिचय दे चुका था।
“हमारी एक प्राब्लम है, मिस्टर उदैनिया” — विमल गम्भीरता से बोला — “आज की तारीख में जिसका हल आपके और सिर्फ आपके पास है।”
“अच्छा!”
“जी हां।” — विमल एक क्षण ठिठका और फिर बोला — “जनाब, मेरे सिर पर टोपी होती तो मैं उसे आप के कदमों में रख कर आप से दरख्वास्त करता कि आप हमारी लाज रखें। हमारी मदद करें।”
“अरे! ऐसी क्या समस्या है आपकी?”
“बताता हूं। बताने ही आया हूं। जनाब, हमें मालूम हुआ है कि होटल मैनेजमैंट के कारोबार में आप से ज्यादा काबिल आदमी आज की तारीख में मुम्बई में तो क्या, सारे हिन्दोस्तान में नहीं है।”
“काफी पड़ताल करके” — उदैनिया विनोदपूर्ण स्वर में बोला — “आये मालूम होते हैं आप मेरी बाबत!”
“पड़ताल नहीं, मिस्टर उदैनिया, अलबत्ता हमने ये सीखने की कोशिश जरूर की कि जब सूरज और चिराग दोनों का ही काम रोशनी देना होता है तो क्यों हम सूरज के सामने अदब से झुकते हैं, चिराग के सामने नहीं।”
“मिस्टर कौल, आप मेरी तुलना चिराग से कर रहे हैं या सूरज से?”
“सूरज को तो ये सवाल नहीं पूछना चाहिये!”
“बहुत ऊंचा दर्जा दे रहे हैं आप मुझे सूरज बना कर।”
“होटल मैनेजमैंट के धन्धे में तो आप का दर्जा सूरज का ही है।”
“चलिये ऐसा ही सही। आगे?”
“आपको यहां की अपनी एम्पलायमेंट में होटल में फ्री रेजीडेंस, कार वगैरह जैसे पर्क्स के अलावा पांच लाख रुपये माहाना तनखाह मिलती है। मैं आपके लिये सात़ लाख रुपये माहाना की तनखाह की पेशकश लेकर आया हूं, तनखाह के अलावा, यूजुअल पर्क्स के अलावा, जो भी सुविधा आप चाहते हैं, उसे आप खुद मुकर्रर कर सकते हैं। मिस्टर उदैनिया, यू नेम इट, यू हैव इट।”
उदैनिया सकपकाया, वो कुछ क्षण गौर से विमल को देखता रहा और फिर बोला — “इज दैट ए सीरियस ऑफर?”
“इट मोस्ट सर्टनली इज, सर। ऐसी बातें कहीं हंसी मजाक में की जाती हैं, फर्जी की जाती हैं! ये पेशकश कितनी संजीदा है, उसका अन्दाजा आप इस बयालीस लाख रुपये के चैक से लगा सकते हैं जो कि मैं छः महीने की एडवांस तनखाह के तौर पर आपके लिये लाया हूं।”
विमल ने उसके सामने चैक रखा।
उदैनिया ने चैक उठा कर गौर से उसका मुआयना किया।
“कमाल है!” — फिर वो बोला — “आपने पहले मेरे से तसदीक करना भी जरूरी न समझा कि मुझे आप लोगों की आफर कुबूल भी होगी या नहीं!”
“हमारा दिल गवाही देता था, जनाब, कि ऑफर आपको जरूर कुबूल होगी। इसलिये नहीं कि ये आर्थिक रूप से आकर्षक है बल्कि इसलिये कि आप ये ऑफर कुबूल करके पुण्य का काम करेंगे।”
“वो कैसे?”
“वो तो आने वाला वक्त बतायेगा। अभी मुंह जुबानी तो इतना ही कहा जा सकता है कि आप अपनी नयी असाइनमेंट में महज नौकरी नहीं करेंगे, एक ऐसे अनुष्ठान में राजा साहब के सहयोगी होंगे जिससे कि प्राणीमात्र का भला होगा।”
“बड़ी राजभरी बातें करते हैं आप, मिस्टर कौल!”
विमल खामोश रहा।
“ये चैक तो” — उदैनिया बोला — “किसी फॉरेन बैंक का मालूम होता है!”
“जी हां। ज्यूरिच ट्रेड बैंक, काठमाण्डू का।”
“इसकी पेमेंट यहां कैसे होगी?”
“बड़ी आसानी से होगी। योरोपियन ट्रेड सेंटर से होगी कि जो ग्रांट रोड पर है। इंस्टेंट पेमेंट होगी।”
“आई सी।”
“आप नकद रकम चाहें तो...”
“मैं पूरा टैक्स भरता हूं।”
“मुझे मालूम है। इसीलिये नकद रकम लाना ठीक न लगा।”
“हूं।”
“अगर आपको ये तनखाह कम लगती है तो ये आपकी इच्छा के मुताबिक बढ़ाई जा सकती है।”
“किस हद तक?”
“किसी भी हद तक। आई आलरेडी सैड, सर। यू नेम इट, यू हैव इट।”
“शायद आपके राजा साहब को मेरी इच्छा कुबूल न हो!”
“ऐसा नहीं होगा। आपकी हर मांग कुबूल करने के लिये मुझे राजा साहब की तरफ से फ्री हैंड मिला हुआ है। सर, राजा साहब इस बात को बाखूबी समझते हैं कि बढ़िया माल की बढ़िया कीमत ही अदा करनी पड़ती है।”
“आप लोग मेरी काबलियत को बढ़ा चढ़ा के आंक रहे हैं।”
“नो, सर। बल्कि ऐसा कह कर आप अपनी काबलियत को कम करके आंक रहे हैं।”
“राजा साहब का प्रोजेक्ट क्या है जिसको कि मेरी सेवाओं की जरूरत है?”
“प्रोजेक्ट का नाम होटल सी-व्यू है।”
“सी-व्यू। वो तो गैंगस्टर्स का हैडक्वार्टर है...”
“था।”
“...जहां कि कोई इज्जतदार आदमी कदम रखना पसन्द नहीं करता।”
“होटल सी-व्यू के माथे पर जो ये बद््नुमा दाग लगा हुआ है, मिस्टर उदैनिया, उसे भी आप ही ने धोकर दिखाना है और मेरा दिल पुकार पुकार कर कह रहा है कि आप और सिर्फ आप ऐसा करके दिखा सकते हैं।”
“मैं न कर पाया तो?”
“अव्वल तो हमें यकीन है कि ऐसा होगा नहीं, हुआ तो हमें फिर भी आपसे कोई शिकायत नहीं होगी। आपकी छ: महीने की तनखाह आपके सामने है, आप एक महीने में भी हाथ खड़े कर देंगे तो ये रकम आपकी होगी।”
“मैं नाकाम हुआ तो आप किसी और को ट्राई करेंगे?”
“नहीं। क्योंकि ट्राई करने लायक आपके अलावा कोई और हमें दिखाई दे रहा होता तो हम यहां न होते।”
“तो क्या करेंगे आप?”
“आपके साथ या आपके बिना होटल को उसकी खोई हुई प्रतिष्ठा वापिस दिलाने की छ: महीने तक कोशिश करेंगे, हमें नाकामी का मुंह देखना पड़ा तो हम ये प्रोजेक्ट ही ड्रॉप कर देंगे।”
“तब मेरा क्या होगा?”
“मैं आपका इशारा समझ रहा हूं। उदैनिया साहब, होटल ट्रेड में आपका बहुत नाम है। यू आर वन ऑफ द काइन्ड इन दिस बिजनेस। जैसी नौकरी आप इस वक्त कर रहे हैं, वैसी आप जब चाहेंगे, एक इशारे में हासिल कर लेंगे। सो यू हैव नथिंग टु लूज। लेकिन अगर आपके जहूरे से प्रोजेक्ट कामयाब हो गया तो.. दैन यू हैव एवरीथिंग टु गेन।”
“ये तो चैलेंज हो गया!”
“जी हां। बिल्कुल ठीक पहचाना आपने। लेकिन आप क्या ऐसे किसी चैलेंज से डरते हैं?”
“हरगिज नहीं। जो शख्स किसी मुकाम पर पहुंचना चाहता हो, उसके सामने तो ताजिन्दगी चैलेंज ही चैलेंज होते हैं।”
“ऐन मेरे मन की बात कही। तो फिर...”
“मैंने सुना है इस वक्त होटल लॉक आउट की स्थिति में है।”
“लॉक आउट कल दोपहर तक उठ जायेगा। शाम तक होटल आपके हवाले होगा।”
“आप परसों सुबह साढ़े ग्यारह बजे लॉबी में होटल के सारे स्टाफ को जमा करके रखियेगा।”
“उसके बाद?”
“उसके बाद वही होगा जो आप चाहते हैं।”
“गॉड ब्लैस यू, सर।”
विमल ने उठ कर बड़ी गर्मजोशी से उदैनिया से हाथ मिलाया। विमल ने उसका हाथ छोड़ा तो उदैनिया ने बड़े सहज भाव से हाथ नीलम की तरफ बढ़ा दिया।
नीलम ने झिझकते हुए हाथ मिलाया।
दोनों वहां से रुखसत हुए।
“नहीं चलेगा।” — लॉबी में पहुंच कर विमल भुनभुनाया।
“क्या नहीं चलेगा?” — नीलम बोली।
“तुझे मालूम है क्या नहीं चलेगा। उसने तेरे से हाथ मिलाया था तो छोड़ ही नहीं रहा था हाथ को।”
“क्यों भला?”
“क्यों भला बाद में। पहले बोल ऐसा था या नहीं?”
“था तो सही कुछ कुछ!”
“कुछ कुछ?”
“काफी कुछ। खसमांखाना हाथ मिला नहीं रहा था, हाथ पर कब्जा कर रहा था।”
“क्यों?”
“तुम बताओ।”
“क्योंकि खूबसूरत औरत का खूबसूरत हाथ हाथ में आने पर उसे अन्धा भी पहचान जाता है।”
“उसकी तो दोनों आंखें बल्बों की तरह चमक रही थीं!”
“बात का मतलब समझ, कम्बख्त।”
“और खूबसूरत औरत कौन?”
“तू और कौन?”
“दाढ़ी मूंछ वाली खूबसूरत औरत।” — वो मुदित मन से बोली — “कोई हाथ का भी मेकअप सोचो न, सरदार जी! किसी तरीके से इसे ऐसा मर्दाना बना दो कि जिसको एक पड़ जाये, वो दूसरा खाने के काबिल न रहे।”
“सपने देखती रह।”
“ऐसा नहीं हो सकता?” — वो बड़ी मासूमियत से बोली।
“नहीं हो सकता।”
“ठीक है। आइन्दा मैं किसी से हाथ नहीं मिलाऊंगी। हाथ मिलाने की नौबत आने पर मैं फासले से नमस्ते करूंगी। ऐसे।”
नीलम ने ऐसी अदा से दोनों हाथ जोड़े कि विमल की हंसी छूट गयी।
“मुझे क्यों कर रही है?” — वो बोला।
“क्या?”
“नमस्ते?”
“ओह! सॉरी। गलती हो गयी। मैं अभी सुधारती हूं।”
“कैसे?”
“ऐसे। सरदार जी, सत श्री अकाल, जी! की तुहाडा हाल, जी?”
विमल की हंसी छूटी। उसने जोर से नीलम की पीठ पर एक धौल जमायी।
“सत्यनाश!” — नीलम बोली।
“क्या हुआ?”
“मूंछ गिर गयी।”
“क्या!”
“दाढ़ी गिर सकती थी। बाल बाल बची।”
“अरे, सलामत तो है मूंछ अपनी जगह पर।”
“फिर तो शुक्र है। अब आइन्दा खयाल रखना। मेरी पीठ पर इतना करारा हाथ कभी न जमाना।”
“अच्छा। अच्छा।”
तब तक वो होटल से बाहर निकल आये थे।
विक्टर की टैक्सी उन्हें कहीं दिखाई न दी।
“कहां गयी?” — नीलम बोली।
“क्या?”
“अरे, हमारी टैक्सी! और क्या!”
“बड़ा होटल है। डोरमैन ने टैक्सी को मारकी में नहीं टिकने दिया होगा। उधर टैक्सी स्टैण्ड पर देखते हैं।”
टैक्सी स्टैण्ड होटल से, उसकी कार पार्किंग से काफी परे एक कदरन अन्धेरे मैदान में था। उस घड़ी दो तीन टैक्सियां तो वहां खड़ी थीं लेकिन किसी में ड्राइवर नहीं दिखाई दे रहा था।
“यहां तो नहीं है!” — विमल बोला — “कहां चला गया विक्टर?”
“शायद सड़क पर हो!” — नीलम बोली।
“हां। वापिस चलते हैं।”
विमल वापिसी के लिये घूमा तो एकाएक थमक कर खड़ा हो गया।
सामने पांच जने मौजूद थे। नीमअन्धेरे में प्रेतों की तरह पता नहीं कहां से वो वहां पहुंचे थे। पांच में से तीन के हाथों में हाकी, लोहे का डण्डा, साइकल की चेन जैसे हथियार थे और पांचों ने सिर पर सामने शीशे वाली हैल्मेट पहनी हुई थीं। वो धीरे धीरे यूं आगे बढ़ने लगे जैसे उन दोनों को घेरने की कोशिश कर रहे हों।
जो दो जने खाली हाथ थे, उन्होंने अपनी अपनी पीठ पीछे हाथ डाल कर हाथ वापिस खींचा तो दोनों के हाथों में नंगी तलवारें चमकीं।
विमल ने नीलम की बांह थाम कर उसे जबरन अपने पीछे कर लिया और सावधानी की प्रतिमूर्ति बना चौकन्नी आंखों से उन्हें देखने लगा।
एक ने विमल की खोपड़ी का निशाना बना कर हाकी चलाई।
विमल ने नीचे झुक कर वार बचाया और अपने दांये हाथ का घूंसा उसके पेट में जड़ा, वो दोहरा हुआ तो उसने टांग चलाई।
तभी साइकल चेन हवा में घूमी।
नीलम ने झपटकर हवा में चेन थाम कर उसे अपनी तरफ जोर का झटका दिया तो चेन वाला उसके कदमों में आकर गिरा।
कोई विमल पर झपटा।
विमल उससे गुत्थमगुत्था हुआ जमीन पर गिरा।
नीलम ने उस पर सवार आदमी पर पांव की ठोकर जमाई, तभी एक तलवार हवा में घूमी, नीलम ने झुकाई दी तो तलवार जाकर उस आदमी की खोपड़ी से टकराई जो कि अभी कुछ क्षण पहले विमल पर सवार था। वार के जोर से उसकी हैल्मेट उसके सिर पर से उतर कर परे जा गिरी और उसने अपना सिर थाम लिया।
तलवारों वाले एक साथ विमल की ओर बढ़े। करीब आकर दोनों के हाथ हवा में उठे।
तभी एक कार की हैडलाइट्स उधर चमकीं।
कोई जोर से चिल्लाया।
“ठहर जाओ, कमीनो!” — कोई गर्जा।
विमल ने इरफान की आवाज साफ पहचानी।
विक्टर ने टैक्सी तलवार वालों की तरफ दौड़ाई। जब तक दोनों वापिस घूमे, तब तक टैक्सी उनके सिर पर सवार थी। फिर एक तो किसी प्रकार टैक्सी की चपेट में आने से बाल बाल बच गया, दूसरा धड़ाम की आवाज के साथ टैक्सी से टकराया, उसके हाथ से तलवार निकल गयी, वो पहले से ज्यादा तीखी धड़ाम की आवाज के साथ टैक्सी के हुड पर आकर गिरा और फिर उस पर से लुढक कर एक तरफ उलट गया।
विक्टर ने टैक्सी को रिवर्स गियर में डाल कर गोल घुमाया।
फिर कोई टैक्सी के पृष्ठ भाग से टकराया।
फिर भगदड़ मच गयी।
विमल ने झपट कर सामने हाथ चलाये तो एक भागते आदमी की बांह उसके हाथ में आ गयी। उसने उसे अपनी तरफ घसीटा और फिर ताबड़तोड़ कई घूंसे उसके मुंह, गर्दन और छाती पर जमाये।
बाकी चारों भाग निकलने में कामयाब हो गये।
टैक्सी रुकी। इरफान और विक्टर झपट कर उसमें से बाहर निकले और विमल के करीब पहुंचे।
विक्टर के हाथ में टैक्सी का पहिया खोलने वाला पाना था। इरफान खाली हाथ था।
“भाग गये साले।” — इरफान बोला।
“सब नहीं।” — विमल बोला — “रसीद छोड़ गये।”
तब इरफान की निगाह विमल की पकड़ में छटपटाते व्यक्ति पर पड़ी।
“ओह!” — उसके मुंह से निकला — “बढ़िया।”
उसने उस आदमी को गिरहबान से थामा और उसे जोर से झिझोड़ता हुआ बोला — “सीधा खड़ा हो और हाथ पांव झटकना बन्द कर।”
उसके हाथ पांव शिथिल पड़े।
इरफान ने उसके सिर पर से हैल्मेट नोच कर उतारी और फिर जबरन उसका मुंह टैक्सी की जलती हैडलाइट्स की तरफ घुमाया।
कोई पहचानी सूरत सामने न आयी।
“कौन है बे तू?” — वो डपट कर बोला।
“मैं” — हैल्मेट वाला हकलाया — “मैं कोई नहीं हूं।”
इरफान ने एक झांपड़ उसके चेहरे पर रसीद किया।
“गणपति कसम, मैं कोई नहीं हूं।” — वो घिघियाता सा बोला — “मेरे को तो वो लोग ट्रांजिट कैम्प में अजमेर सिंह के ढाबे पर मिले थे। बोले, किसी को ठोकना था। तीन हज़ार रुपये मिलेंगे। मैं चला आया।”
“जो भाग गये” — इरफान बोला — “उनमें से तू किसी को नहीं जानता?”
“नहीं, बाप।”
“झूठ बोलेगा तो इधरीच मरा पड़ा होगा।”
“मैं झूठ नहीं बोलता, बाप।” — वो गिड़गिड़ाने लगा — “मैं तो ये भी नहीं जानता कि ये साहब लोग कौन हैं!”
“तीन हज़ार रुपये में खून करने को तैयार हो गया?”
“खून करने को कोई नहीं बोला, बाप। बस, जरा हाथ पांव सेंकने का था।”
“क्यों?”
“मालूम नहीं।”
“ये झूठ बोलता है।” — विमल बोला — “ये उन्हीं लोगों का साथी है जिन्होंने कल भी गोली चला कर मेरी जान लेने की कोशिश की थी। यहां उन्होंने गोली चलाने से इसलिये परहेज किया क्योंकि ये भरा पूरा होटल है, गोली चला कर भाग निकलना उनके लिये आसान न होता। इसलिये तलवारें, डण्डे, हाकी, चेन जैसे खामोश हथियारों से काम लिया।”
“मेरे को नहीं मालूम था, बाप। मेरे को तो ठोकने का बोला। बस।”
“ठोकना तलवारों से होता है?” — इरफान बोला।
“तलवार किधर से आयेंगा, बाप?”
इरफान ने जमीन पर गिरी पड़ी तलवार उठाई और उसकी तरफ तानी।
“ये क्या है?” — वो बोला — “जो तेरे जोड़ीदार भीड़ू इधर छोड़ के गये?”
“बाप, कसम गणपति की, मेरे को नहीं मालूम था। मैं तो तलवार अब्बी का अब्बी देखा। तलवार मालूम होता तो मैं कब्बी उनका साथ न देता।”
“साले। बंडल मारेगा तो जान से जायेगा।”
“मैं बंडल नहीं मार रयेला है, बाप।”
इरफान ने विमल की तरफ देखा।
“नाम क्या है तेरा?”— विमल बोला।
“पंड्या।” — जवाब मिला।
“तीन हज़ार रुपये मिल गये या अभी मिलने हैं?”
“मिलने हैं।”
“कहां?”
“वहीं।”
“वही कहां?”
“अजमेर सिंह के ढाबे पर। जो कि ट्रांजिट कैम्प में है। ट्रांजिट कैम्प उधर धारावी में...”
“कब मिलेंगे?”
“दस बजे।”
“कौन देगा?”
“वो ही भीड़ू, जो मेरे को उधर मिला था और इधर साथ लेकर आया था।”
“जिसका तू नाम नहीं जानता?”
“हां।”
“लेकिन शक्ल पहचानता है?”
“हां।”
“पहले से?”
“नहीं, बाप। आज ही पहली बार देखा।”
“बाकी तीन को भी पहली बार देखा था?”
“हां।”
“वो भी तेरी तरह तीन तीन हज़ार रुपये में ठीक किये गये भाड़े के टट्टू थे।”
“मेरे को नहीं मालूम।”
“काम क्या करता है?”
“कुछ नहीं, बाप। खाली हूं। तभी तो तीन हज़ार रुपये में...”
“अभी पल्ले चार पैसे हैं?”
“क्या बोला, बाप?”
“टूटी टांग पर पलस्तर चढ़वाने के लिये? पलस्तर वाले डाक्टर की फीस भर पायेगा तो सुख पायेगा वरना सरकारी हस्पताल के धक्के खाने पड़ेंगे।”
“टांग! टूटी! किसकी?”
“तेरी।”
“मेरी। पण मेरी टांग तो...”
“अभी सलामत है। यही रवैया अख्तियार किये रहेगा तो हाथ पांव तो तेरे तोड़ने ही पड़ेंगे!”
“क्या जरूरत है?” — इरफान ने हाथ में थमी तलवार चमकाई — “मैं इसका फुल काम कर देता हूं।”
“मारना नहीं, बाप।” — पंड्या गिड़गिड़ाया — “मारना नहीं।”
“तो जो बाप पूछा, उसका जवाब दे।”
“बाप, मैं गरीब आदमी हूं। मेरे पल्ले कुछ नहीं है। मैं तो...”
“इसकी तलाशी लो।” — विमल बोला।
इरफान ने उसे दबोचा। विक्टर ने उसकी जेबें टटोलीं उसकी जेब में से नाइयों वाला उस्तुरा और कोई सवा नौ हज़ार रुपये बरामद हुए।
“तू तो” — विमल उसे घूरता हुआ बोला — “अपने आपको तीन हज़ार रुपये का मोहताज बताता था!”
“और बोलता था” — इरफान आंखें निकालता बोला — “कि तेरे पल्ले कुछ नहीं है।”
“ये... ये रोकड़ा बाद में हाथ लगा।” — पंड्या बोला।
“कैसे?” — विमल बोला — “कहां से?”
“पाकेट मारी, बाप।”
“फिर भी तीन हज़ार रुपये का लालच न छूटा! कमाने चला आया!”
“वो... वो... बहुत महंगाई है न, बाप!”
“हम ट्रांजिट कैम्प तेरे साथ चलेंगे और देखेंगे कि कौन वहां तुझे तीन हज़ार रुपये अदा करता है। कोई एतराज?”
वो निगाहें चुराने लगा।
विमल ने उसके चेहरे पर एक चपत जमायी और बोला — “कोई एतराज?”
“मैं साथ नहीं ले जा सकता।”
“क्यों?”
“वो मुझे मार डालेंगे।”
“मार डालने के लिये भी तो किसी को उधर आना पड़ेगा! जब वो नौबत आयेगी तो तुझे हम बचा लेंगे।”
“नहीं।”
“क्या नहीं।”
“ऐसे वहां कोई नहीं आयेगा। उधर मेरा अकेला होना जरूरी।”
“उन्हें नहीं पता लगेगा कि तू अकेला नहीं है।”
“लग जायेगा।”
“कैसे लग जायेगा? तू ही उन्हें कोई इशारा कर देगा?”
“बाप, वो क्या है कि...”
“जरूर यही बात है।”
वो खामोश रहा।
“ये ऐसे नहीं मानने का।” — इरफान बोला — “इसकी ढोलक बजानी पड़ेगी।”
“ये वैसे भी नहीं मानेगा। ये ‘कम्पनी’ का प्यादा जान पड़ता है। इसे ट्रेनिंग है अपने साथियों के बारे में जुबान न खोलने की।”
“क्यों, बे?” — इरफान घुड़क कर बोला —“ ‘कम्पनी’ से है?”
उसने इनकार में सिर हिलाया।
“मुंह से बोल।”
“नहीं।”
“जानता है ‘कम्पनी’ क्या है?”
“हां।”
“कैसे जानता है?”
“मुम्बई में हर कोई जानता है।”
“जो तेरे साथी यहां से भाग गये, उनका अता पता बोल, मैं तेरे को एक की जगह पांच दूंगा।”
“वो मेरे साथी नहीं थे। मैं बोला न...”
“बेकार की सिर खपाई है।” — विमल धीरे से बोला — “जाने दे इसे।”
“जाने तो मैं, तू बोलता है तो, इसे देता हूं। पण खाली हाथ नहीं। हाथ में ये कुछ ले के जायेगा।” — वो पंड्या की तरफ घूमा — “क्या!”
“क्या?” — पंड्या थूक निगलता हुआ बोला।
“अपनी टूटी टांग।”
इरफान ने तलवार फेंक कर जमीन पर पड़ी हाकी उठाई और उसका ऐसा भरपूर वार उसके घुटने के नीचे टांग पर किया कि हड्डी चटखने की आवाज साफ सुनायी दी। वो पीड़ा से बिलबिला उठा। उसने चीखने के लिये मुंह खोला तो इरफान ने उसके मुंह में हाकी का हैंडल ठूंस दिया।
उसे जमीन पर तड़पता पड़ा छोड़ कर वो टैक्सी पर सवार हुए। विक्टर ने दक्षता से टैक्सी को यू टर्न देकर आगे बढ़ाया।
“कहां चले गये थे टैक्सी के साथ?” — विमल बोला।
“होटल के सामने ही थे, बाप।” — इरफान बोला — “वो होटल के भीतर से एक वर्दीवाला बैलब्वाय आया और बोला साहब टैक्सी को पिछवाड़े में बुलाता था। हम उधर पहुंच गये। वहां तू न पहुंचा तो हमें शक हुआ। वापिस आकर इधर उधर देखा तो टैक्सी स्टैण्ड के मैदान का वो नजारा देखा। प्राण कांप गये, बाप। थोड़ी देर और पीछे अटके रहते तो तू तो खल्लास था।”
“वो बैलब्वाय भी इन्हीं का आदमी होगा!”
“इनका नहीं तो इनका सिखाया पढ़ाया होगा। पण ये थे कौन?”
“ ‘कम्पनी’ के आदमी थे।”
“यकीन से बोलता है, बाप!”
“हां। उनमें से जिस एक की हैल्मेट उतर गयी थी, उसकी सूरत मैंने साफ पहचानी थी।”
“ऐसा, बाप!”
“नीलम की फिराक में गजरे के भेजे जो चार प्यादे दिल्ली पहुंचे हुए थे, ये उनमें से एक था। माडल टाउन वाली कोठी में मैंने अपनी आंखों से इसके साथियों के साथ इसे उधर देखा था।”
“नाम? नाम?”
“नाम नहीं मालूम।”
“प्यादे तेरे पीछे पड़े हैं, बाप। यकीन नहीं आता।”
“ ‘कम्पनी’ के प्यादे ही हैं जो मेरा ये फ्रेंचकट दाढ़ी मूंछ वाला मौजूदा हुलिया बाखूबी पहचानते हैं। गजरे ने उनमें इश्तिहार की तरह मेरी इस सूरत की तसवीरें बंटवाई थीं।”
“पण प्यादे! अपनी मर्जी से तेरे पीछे! क्योंकि उनको हुक्म देने वाला तो कोई बचा नहीं!”
“मुझे खुद हैरानी है। गजरे की मौत के बाद श्याम डोंगरे ने गारन्टी की थी कि कोई भी प्यादा मेरी मुखालफत करने का तमन्नाई नहीं था।”
“फिर भी हैं कोई कमीने जो तेरे खून के प्यासे हैं!”
“हां।”
“बाप, हमें ट्रांजिट कैम्प के इस ढाबे में जाना चाहिये जिसका नाम वो भीड़ू लिया।”
“किसलिये?”
“हो सकता है जिस प्यादे की सूरत तूने पहचानी, वो दस बजे उधर आये!”
“मुझे उम्मीद नहीं। पंड्या ने उस बाबत जो कहा था, झूठ कहा था। अजमेर सिंह के ढाबे में दस बजे कोई नहीं आने वाला।”
“तो फिर?”
“फिर परसों तक इन्तजार।”
“किस बात का?”
“होटल खुलने का। कल लॉक आउट हट जायेगा और होटल हमारे हवाले होगा। कल से ही होटल का निजाम एक नये जनरल मैनेजर के हवाले होगा जिसका नाम कपिल उदैनिया है। नये जी.एम. का हुक्म है कि परसों सुबह साढ़े ग्यारह बजे होटल का सारा स्टाफ लॉबी में जमा हो। फिर देखेंगे कि हमारी पहचानी सूरत परसों सुबह हमें लॉबी में दिखाई देती है या नहीं।”
“ओह! ”
“कल हमने होटल के स्टाफ के इंचार्ज का पता करना है और उसकी मार्फत ये काम कराना है।”
“ठीक।”
एस.एच.ओ. देवीलाल सादे कपड़ों में सब-इन्स्पेक्टर जनकराज के घर पहुंचा।
जनकराज थाने के परिसर में ही बने स्टाफ क्वार्टरों में से एक में रहता था।
उस घड़ी रात के दस बजे थे।
जनकराज उसे देखकर सकपकाया, फिर उसने उसे बैठक में बिठाया।
“तेरे से काम था।” — देवीलाल बोला — “थाने जाना मुनासिब न लगा। तेरा एस.एच.ओ. उलटा सीधा सोचता। तुझे अपने थाने बुलाता तो तुझे हत्तक लगती।”
“ऐसी कोई बात नहीं।” — जनकराज अनमने स्वर में बोला — “साहब लोगों का हुक्म बजा लाना तो मातहतों का फर्ज होता है!”
“अरे, कैसे साहब लोग? कैसा मातहत? कैसा फर्ज? भाई मेरे, तेरा दोस्त तेरे घर आया है। मेहमान बन कर।”
“मेहमान सिर माथे। अब बोलिये, क्या खिदमत करूं?”
“घूंट लगा चुका?”
“हां। खाना भी खा चुका। अब तो बस सोने की तैयारी कर रहा था।”
“मैं तेरा इशारा समझ गया। मैं तेरा ज्यादा वक्त नहीं लूंगा।”
“मेरा वो मतलब नहीं था, देवीलाल जी। आप जितना मर्जी वक्त लो और हुक्म करो क्या काम है? बल्कि पहले घूंट की बाबत हुक्म करो। पैग पेश करूं?”
“नहीं, आज नहीं। फिर कभी। आज तो बस मतलब की बात हो जाये, यही काफी है।”
“बोलो, साहब। हुक्म करो।”
“जनकराज” — देवीलाल तनिक आगे को झुक कर राजदराना लहजे में बोला — “हाल ही में तुम लोगों ने मायाराम नाम के एक आदमी को गिरफ्तार किया था...”
“जी हां।” — जनकराज बोला — “लेकिन उसे तो पंजाब पुलिस को सौंपा जा चुका है और उधर से खबर आयी है कि...”
“मायाराम का किस्सा छोड़। जिस काम के वास्ते मैं आया हूं, उसका मायाराम से कुछ लेना देना नहीं।”
“अच्छा!”
“हां।”
“तो फिर मायाराम का जिक्र किस लिये?”
“तूने मायाराम से कुछ तसवीरें बरामद की थीं!”
“ओह! तो काम मायाराम से नहीं, उन तसवीरों से ताल्लुक रखता है?”
“हां। अब समझा तू। जनकराज, किसी को उन तसवीरों की कापियां चाहियें।”
“किस को?”
“उसको जो तुझे उन कापियों की भरपूर कीमत अदा करेगा।”
“कौन?”
“नाम से क्या लेगा? समझ ले कि मैं।”
“क्यों चाहियें किसी को उन तसवीरों की कापियां?”
“उससे भी तुझे क्या लेना देना! तू वो रकम बोल जो तू इस छोटे से काम की एवज में चाहता है, मैं अभी भरता हूं।”
“आप भरते हैं?”
“मेरा मतलब है कि वो शख्स अभी भरता है जिसे कि वो तसवीरें चाहियें।”
“हूं। कितनी कीमत मुनासिब होगी इस खिदमत की?”
“तू बोल, भई।”
“मेरा मतलब है मेरी जगह अगर आप होते तो इस खिदमत को कितनी कीमत के काबिल समझते?”
“दो हज़ार।” — देवीलाल हिचकिचाता हुआ बोला — “बड़ी हद पच्चीस सौ। तीन हज़ार।”
“हूं।”
“लेकिन अगर तू ओरीजिनल ही सौंपना कुबूल करे तो दस हज़ार।”
“ओरीजिनल तो नहीं सौंपी जा सकतीं। एस.एच.ओ. को उनकी खबर है। ए.सी.पी. को भी खबर है।”
“तो कापियां ही सही। अभी उनकी जेरोक्स कापियां निकलवा ले, मैं ही तुझे तीन हज़ार रुपये दे दूंगा।”
“आप दे देंगे?”
“मैं आगे से वसूल कर लूंगा न!”
“कितने?”
“भई, जितने तुझे दूंगा। तीन हज़ार।”
“क्या वाकेई?”
देवीलाल ने घूर कर उसे देखा।
जनकराज ने निडर भाव से उससे निगाह मिलाई।
मन ही मन तिलमिलाता, जनकराज को कोसता देवीलाल प्रत्यक्षत: ठठाकर हंसा।
“हां, भई, वाकेई।” — वो बोला — “मामूली काम है ये। इसमें अपनी भांजी मारने की मेरी कोई मंशा नहीं है। कैसे होगी? कोई गिरहकट किसी दूसरे गिरहकट की गिरह काटता है कभी?”
जनकराज जबरन हंसा।
“तो फिर” — देवीलाल बोला — “मैं यहीं बैठता हूं, तू कापियां बनवा ला।”
“ये काम आज तो नहीं हो सकता, देवीलाल जी।”
“क्यों भला?”
“वो तसवीरें तो ए.सी.पी. साहब के पास हैं।”
“खामखाह!”
“खामखाह नहीं। देवीलाल जी, उस शख्स मायाराम के सन्दर्भ में कल रात एक बड़ी वारदात हो गयी है।”
“बड़ी वारदात?”
“हां। मैं उस बाबत आपको बताने लगा था तो आपे मुझे टोक दिया था।”
“क्या हो गया है?”
“मायाराम का अगवा हो गया है।”
“क्या!”
“पंजाब से जो पुलिस पार्टी पिछली रात को उसे यहां से लेकर चली थी, उस पर करनाल के पास किन्हीं लोगों ने घात लगा दी थी। नतीजतन उस पार्टी का इंचार्ज सब-इन्स्पेक्टर मारा गया है, बाकी के तीन पुलिस वाले भी बुरे हाल में बताये जाते हैं और मायाराम गायब है।”
“तौबा! किन्होंने किया ऐसा?”
“क्या पता किन्होंने किया! बहरहाल उस वारदात की खबर हैडक्वार्टर पहुंचते ही ए.सी.पी. साहब ने मायाराम की फाइल अपने पास मंगवा ली थी। वो तसवीरें भी उस फाइल में ही हैं।”
“अरे, फाइल होगी तो दफ्तर में ही! पांच मिनट का तो ये काम है! पांच मिनट में या बड़ी हद दस मिनट में वो फाइल वहां से निकला के, तसवीरों की जेरोक्स करा के तू उसे वापिस भी रख आया होगा।”
“फंसने वाला काम है, देवीलाल जी। रात के इस वक्त किसी ने ए.सी.पी. के दफ्तर में मुझे देख लिया तो...”
“जनकराज, ये सब तू भाव बढ़ाने के लिये तो नहीं कह रहा?”
“भाव?”
“अगर तीन हज़ार रुपये तुझे कम लगते हैं तो साफ बोल।”
“पैसे की बात नहीं है, साहब, लेकिन ये रात को होने वाला काम नहीं।”
“कल आफिस खुलने पर करेगा?”
जनकराज सोचने लगा।
“दिन में तो तू फाइल वैसे ही, अपनी जरूरत जता कर मांग सकता है!”
“वो तो है!”
“तो फिर?”
“दस हज़ार।”
“क्या?”
“आपने अपने पल्ले से थोड़े ही देने हैं!”
“वो तो ठीक है लेकिन...”
“जमा एक शर्त।”
“अभी शर्त भी?”
“हां।”
“वो भी बोल।”
“तसवीरों के तलबगार का नाम बताइये।”
“क्या करेगा जान कर?”
जनकराज ने एक नकली जमहाई ली।
“ठीक है।” — देवीलाल कठिन स्वर में बोला — “बताता हूं। लेकिन एक वादा तुझे भी करना होगा।”
“क्या?”
“नाम की बाबत जानकारी का तू कोई बेजा इस्तेमाल नहीं करेगा।”
“क्या बेजा इस्तेमाल?”
“मसलन तू उस शख्स के पास नहीं पहुंच जायेगा।”
“वो किस लिये?”
“डायरेक्ट सौदा करने के लिये। और बड़ी रकम की उम्मीद में। या ये अन्देशा दूर करने के लिये कि बीच में देवीलाल तो कोई...”
“तौबा! कैसी बातें करते हो, देवीलाल जी? मैं और आप पर शक करूंगा?”
“वैसे भी दस हज़ार इस मामूली काम की बहुत बड़ी उजरत है।”
“बिल्कुल है। मुझे दस हज़ार की उजरत सधन्यवाद कुबूल है।”
“ठीक है फिर। कल मेरे थाने में तसवीरों की कापियां ले आना और दस हज़ार रुपये ले जाना।”
“बेहतर। अब नाम बोलिये खरीदार का।”
हिचकिचाते हुए देवीलाल ने बोला।
आधी रात के बाद विमल और लोहिया मालाबार हिल वापिस लौटे।
विमल को इस बात से कोई हैरानी न हुई कि लोहिया नौरोजी रोड वाले उस ठीये से पहले से वाकिफ था। लिहाजा उसने वहां की मदाम मिसेज सीक्वेरा से राजा गजेन्द्र सिंह का ऐसा परिचय करा दिया था कि अब राजा साहब कभी भी, किसी को भी, अपने साथ लेकर वहां जा सकते थे।
लोहिया को गुडनाइट बोल कर वो कोठी की पहली मंजिल पर पहुंचा।
नीलम को उसने टी.वी. देखते पाया।
विमल पर निगाह पड़ते ही उसने रिमोट से टी.वी. बन्द कर दिया।
“तू जाग रही है अभी तक?” — वो सकपकाया सा बोला।
“मुबारक अली का फोन आया था।” — वो बोली — “दो बार। शायद अभी फिर आये।”
“अब क्या आयेगा!” — विमल घड़ी देखता हुआ बोला — “क्या कहता था वो? कोई खास बात थी?”
“खास ही होगी!”
“पूछा होता!”
“पूछा था। मुझे नहीं बताया कुछ भी। टाल दिया। सरदार जी, मुझे सूरज की फिक्र लग रही है। कहीं उसी की बाबत कुछ...”
“खामखाह! अरे, ऐसी कोई बात होती तो वो तुझे जरूर बताता। हम क्या कोई दो हैं?”
नीलम खामोश रही।
“खाना खा लिया?” — विमल ने खामखाह पूछा।
“हां।” — वो बोली — “कब का!”
“तो सोती क्यों नहीं?”
उसने सहमति में सिर हिलाया और फिर पलंग पर ढेर हो गयी।
विमल ने राजा गजेन्द्र सिंह वाला मेकअप त्यागा, कपड़े तब्दील किये, बत्ती बुझायी और नीलम के पहलू में पलंग पर पहुंच गया।
पता नहीं कब उसे नींद आयी।
फोन की घन्टी बजी।
विमल ने हड़बड़ा कर आंखें खोलीं और जल्दी से फोन उठाया। उसने एक निगाह पहलू में सोई पड़ी नीलम पर डाली जो कि घन्टी की आवाज होते ही कसमसाई थी लेकिन घन्टी के तत्काल खामोश हो जाने पर फिर नींद के हवाले हो गयी थी।
“हल्लो!” — विमल माउथपीस के साथ होंठ सटा कर दबे स्वर में बोला।
“मैं मुबारक अली।” — आवाज आयी — “खुदई सुन रहा है न?”
“हां। क्या खबर है?”
“बाप, खबर खराब।”
“अरे! सब खैरियत तो है न उधर?”
“ये भी तो मालूम नहीं कि सब, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, खैरियत है या नहीं!”
“क्या किस्सा है, मियां?”
“सुमन गायब है।”
“क्या!”
“अभी रात का डेढ़ बजने को है फिर भी उसके फिलेट के दरवाजे पर बदस्तूर ताला है।”
“कहां गयी?”
“अपना हाशमी अड़ोस पड़ोस से पूछेला था। सुमन के फिलेट के बाजू में पिरेनना करके एक औरत रहती हैं...”
“क्या करके?”
“पिरेरना।”
“ओह। प्रेरणा।”
“वही। सुमन बीबी दोपहरबाद उधर से, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, जेबी फोन से फोन करके, क्योंकि दूसरा फोन खराब पड़ेला है, टैक्सी स्टैंड से टैक्सी मंगायेला था। मैं अपने डिरेवर भाईयों से पूछताछ करके उस डिरेवर का पता लगाया। वो बोलता है सुमन बीबी पहले लोधी गयी फिर कालिन्दी गयी फिर कनाट प्लेस के लिये रवाना हुई पण रास्ते में ही टैक्सी से उतरकर एक बस में सवार हो गयी और फिर पता नहीं कहां गयी!”
“अकेली?”
“नहीं, बाप। तेरा साहबजादा साथ। एक, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, हवा वाला बैग साथ।”
“एयरबैग?”
“वही।”
“और?”
“बाप, मालूम पड़ा है उधर कोई भीड़ू लोग सुमन बीबी के फिलेट को वाच करता था।”
“कौन लोग?”
“हाशमी उधर के चौकीदार रामसेवक से खामोशी से दरयाफ्त किया। बाप, दो ठो तो कोई पुलिस वाला था जो कि परसों से ही उधर बैठेला है।”
“ओह! यानी कि उस सब-इन्स्पेक्टर ने, जो मेरी बाबत पूछताछ करता सुमन के पास पहुंचा था, सुमन का पीछा छोड़ा नहीं था।”
“एसीच जान पड़ता है।”
“और?”
“वो चौकीदार बोलता है कि सुमन बीबी के फिलेट से जाने से पहले उधर एक बाई और तीन भीड़ू लोग आये थे जो कि अपने आपको राशन के दफ्तर से आया बताते थे और बोलते थे कि अक्खी सोसेटी के फिलेटों के राशन कारड चैक करने का था।”
“तो क्या हुआ? ऐसी चैकिंग आम बात है।”
“पण हुई तो नहीं!”
“क्या मतलब?”
“हाशमी मालूम किया। वो एक भी फिलेट में राशन कारड पूछने नहीं गये थे। बाप, समझा कुछ?”
“नहीं।”
“जब सब फिलेटों पर पूछ कर, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, तसदीक किया कि वो किधर भी नहीं गये थे तो उधरीच गये होंगे जिधर से पूछताछ, तसदीक मुमकिन न हो सकी क्योंकि उधर ताला पड़ेला है।”
“तुम्हारा मतलब है वो लोग सुमन की फिराक में वहां पहुंचे थे?”
“मेरा यहीच मतलब है। पण चौकीदार रामसेवक बोलता है कि जब वो अपनी एम्बैसेडर में उधर से गये थे तो उसमें वो चारों ही थे। सुमन बीबी उनके बाद में टैक्सी बुला कर अकेली उधर से गयेली थी।”
“वो सुमन के पीछ लगे होंगे।”
“उसकी टैक्सी का डिरेवर नक्को बोला।”
“क्या माजरा है, मियां?”
“माजरा, मैं पहले ही बोला कि, खराब है।”
“है या जान पड़ता है?”
“है।”
“कैसे जाना?”
“उधर एक भीड़ू मिला था जो सुमन बीबी के फिलेट की, वो क्या कहते हैं, अंग्रेजी में, ताक में था। जुगनू नाम बोला अपना।”
“नाम कैसे जाना?”
“पकड़ के थोड़ी धुलाई की, थोड़ा कलफ लगाया तो खुद बोला। और बोला कि वो झामनानी साहब के कहने पर उधर सुमन बीबी के फिलेट को वाच करता था। बाप, मैं झामनानी बोला। तू समझा कुछ?”
“कुछ क्या, बहुत कछ समझा। यानी कि वो झामनानी तगड़ा हो रहा है और समझता है कि वो सुमन के जरिये मेरे तक पहुंच बना सकता है।”
“सुमन से ज्यादा तेरे साहबजादे के जरिये। वो उसको काबू में कर ले तो ऐसीच होगा जैसे उसने तेरी जान मुट्ठी में जकड़ ली हो।”
“ठीक। लेकिन जिसको तू जुगनू बोला, अगर वो अभी भी उधर फ्लैट की निगरानी ही कर रहा था तो इसका मतलब है कि अभी तक ऐसा नहीं हो पाया है वरना वो वहां न होता।”
“बरोबर बोला, बाप।”
“मियां ये मेरी नादानी थी जो मैंने उधर के हालात को बहुत कम करके आंका। पुलिस के थोड़ा बहुत पीछे पड़ने से सुमन निपट सकती थी लेकिन झामनानी का या गुरबख्श लाल के किसी और बिरादरीभाई का तो मुझे सपने में भी खयाल नहीं आया था। बावजूद इसके नहीं आया था कि कुशवाहा ने मुझे झामनानी की बाबत वार्न किया था। अब अगर सुमन की ताक में लगा आदमी झामनानी का निकला है तो फिर कुशवाहा की मौत में भी यकीनन कोई भेद है।”
“बाप, वो जुदा मसला है। जो मसला इस वक्त सामने है, उसकी बाबत बोल।”
“क्या बोलूं उसकी बाबत? पहले मुझे ये फिक्र सता रही थी कि सुमन कहां चली गयी? अब ये फिक्र सता रही है कि जहां वो गयी थी, वो वहां से लौट न आये।”
“उसकी फिक्र तो तू नक्को कर। मैं अब्बी का अब्बी उधर ऐसा इन्तजाम करता है कि लौट आने पर सुमन बीबी का बाल भी बांका न हो।”
“हां। और जब वो लौट आये तो उसे अपने किसी भरोसे के आदमी के साथ पहली फ्लाइट से मुम्बई रवाना कर। उसकी फ्लाइट की मुझे फोन कर खबर कर देना ताकि मैं इधर एयरपोर्ट पर उसे रिसीव करने का इन्तजाम कर सकूं।”
“ऐसीच होगा, बाप।”
“शुक्रिया। कल फिर फोन करना। मैं तुम्हारी काल का इन्तजार करूंगा।”
“ठीक।”
उसने रिसीवर वापिस क्रेडल पर रख दिया।
नीलम ने करवट बदली, मिचमिचाकर आंखें खोलीं और उनींदे स्वर में बोली — “मुबारक अली का फोन था?”
“नहीं।” — विमल अनमने भाव से बोला।
“तो?”
“रांग नम्बर था।”
“रांग नम्बर पर इतनी देर बात...”
“वहम है तेरा। मैंने तो जरा सी बात की थी।”
“लेकिन...”
“अब सो जा चुपचाप।”
नीलम ने अपलक उसकी तरफ देखा तो विमल ने उसकी तरफ से पीठ फेर ली।
अब खुद उसकी आंखों से नींद कोसों दूर थी।
उसका दिल गवाही दे रहा था कि झामनानी सिर उठा रहा था, उसकी वार्निंग को नजरअन्दाज करके सिर उठा रहा था।
उसके बाकी के तीन बिरादरीभाई भी उस दीदादिलेरी में उससे पीछे नहीं हो सकते थे।
कुशवाहा के बताये उसे झामनानी के घर को फोन नम्बर मालूम था। उसका जी चाहा कि वो उसी घड़ी उसे फोन लगाये लेकिन उसने दो वजह से ऐसा न किया। एक तो फोन पर जो वो कहता, उसे नीलम भी सुनती और फिर और फिक्र करती। दूसरे, गुस्से में भड़क कर कोई कदम उठाना नादानी था। गुस्सा विवेक पर पर्दा डालता था और विवेक का दामन छोड़ कर कोई बात मुंह से निकालना नादानी होता।
जो कर तुम दीना प्रभ धीर, ताके निकट न आवे पीर।
उसने सुबह तक इन्तजार करने का फैसला किया।
***
0 Comments