रविवार : सात मई : दिल्ली मुम्बई
पहाड़गंज थाने के एस.एच.ओ. नसीब सिंह ने अपने आफिस में कदम रखा तो उसके पीछे पीछे ही उसका मातहत सब-इन्स्पेक्टर जनकराज वहां पहुंच गया।
एस.एच.ओ. ने प्रश्नसूचक नेत्रों से उसकी तरफ देखा।
“हमने पंजाब पुलिस को मायाराम बावा की केस हिस्ट्री और उसके उंगलियों के निशानों की कापी भेजने के लिए लिखा था।” — जनकराज बोला — “वो कागजात आ गये हैं?”
“सुबह सवेरे?” — एस.एच.ओ. बोला — “इतवार के दिन?”
“कुरियर से आये।”
“हूं। तो?”
“मायाराम की उंगलियों के निशान रिकार्ड में उपलब्ध उसके निशानों से हूबहू मिलते पाये गये हैं।”
“क्या बड़ी बात है! जब वो खुद अपनी जुबानी ही कुबूल कर चुका है कि वो वही मायाराम बावा है जिसे इश्तिहारी मुजरिम करार देकर पंजाब पुलिस ने जिसकी गिरफ्तारी पर पच्चीस हज़ार रुपये के इनाम का ऐलान किया हुआ है। उसने खुद कुबूल किया था कि उसने सोहल और कुछ और साथियों के साथ अमृतसर में भारत बैंक का वाल्ट लूटा था और लूट का सारा माल खुद हड़प जाने की नीयत से लाभसिंह और कर्मचन्द नाम के दो साथियों को एक वैन की चपेट में लेकर मार डाला था, वो सोहल को भी मारना चाहता था लेकिन वो किसी तरीके बच निकला था।”
“जी हां। मैं ये कहना चाहता था कि अब हम मायाराम को पंजाब पुलिस के हवाले करके उससे पल्ला झाड़ सकते हैं।”
“क्यों भला? यहां भी तो उस पर अपने पार्टनर और जोड़ीदार हरिदत्त पंत के कत्ल का इल्जाम है!”
“सर, वो केस मुझे मायाराम के खिलाफ ठहरता नहीं मालूम होता।”
“खामखाह!”
“खामखाह नहीं, सर। अब तो अखबार वाले भी उससे हमदर्दी दिखाने लगे हैं और इस बात को हवा देने लगे हैं कि उसे कत्ल में खामखाह फंसाया गया है।”
“किसने फंसाया?” — एस.एच.ओ. व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला — “सोहल ने?”
“सोहल ने या काले चोर ने, इस वक्त ये बात अहम नहीं। अहम बात ये है कि उसके खिलाफ जो सबूत हैं वो वैसे हैं जिन्हें सर्कमस्टांशल एवीडेंस या परिस्थितिजन्य सबूत कहा जाता है। कोई पुख्ता सबूत उसके खिलाफ नहीं है।”
“आलायकत्ल पर उसकी उंगलियों के निशान भी पुख्ता सबूत नहीं है?”
“अगर उसके कहने पर एतबार लायें तो नहीं है। जैसे वो कहता है कि रिवॉल्वर पर उसकी उंगलियों के निशान बने, वैसे बनाये तो जा ही सकते हैं। उसके खिलाफ जो गवाह हैं, उनके बयान भी गोल मोल तरीकों से ही उसके अपराधी होने की तरफ इशारा करते हैं, कोई चश्मदीद गवाह उसके खिलाफ हमारे पास नहीं है। सर, कोई काबिल वकील उसने अपनी हिमायत में खड़ा कर लिया तो वो अदालत में उसके खिलाफ हमारे केस की धज्जियां उड़ा देगा।”
“तो क्या करें? छोड़ दें उसे?”
“छोड़ नहीं दें, सर, उसे पंजाब पुलिस को सौंप दें जिनके पास कि उसके खिलाफ डबल मर्डर और सशस्त्र डकैती का ओपन एण्ड शट केस है। यूं उसके केस पर हम मगजपच्ची करते रहने से बच जायेंगे। सजा तो उसको हो के रहनी है। लिहाजा हम अभी उसे पंजाब पुलिस के हवाले करके अपना काम आसान कर सकते हैं।”
“हूं।”
“यहां वो हमारे वाले केस में जमानत पा गया या बरी हो गया तो वो फिर फरार हो जायेगा और किसी को ढूंढे नहीं मिलेगा।”
“बात तो तुम्हारी ठीक है।”
“पंजाब पुलिस वाले केस में उसकी जमानत हो पाना नामुमकिन है क्योंकि वहां उसके खिलाफ बड़ा मजबूत केस है और ऊपर से उसकी बाबत वो हमें अपना इकबालिया बयान दे चुका है। पंजाब पुलिस उसे फांसी पर चढ़वा कर ही मानेगी। तब हम समझ लेंगे कि पंत का कत्ल अगर उसने किया था तो वो भी उसी सजा में शामिल हो गया था।”
“हूं।”
“तो मैं पंजाब पुलिस से सम्पर्क करूं कि उनका इश्तिहारी मुजरिम हमारे पास है, वो उसे आ कर ले जायें!”
“वो तो तुम कर लेना लेकिन एक बात बताओ।”
“पूछिये?”
“अगर ये शख्स पंत के कत्ल की बाबत सच बोलता हो सकता है तो बाकी बातों की बाबत भी तो सच बोलता हो सकता है!”
“बाकी बातें?”
“यही कि अरविन्द कौल नाम का बाबू असल में सोहल है!”
“मुझे तो वो सच बोलता ही लगा था लेकिन दिल्ली पुलिस के रिकार्ड में मौजूद उसके उंगलियों के निशानों ने उस सच को झुठला दिया था। आपने खुद कौल के फिंगरप्रिंट्स का नमूना लेकर उन्हें सोहल के फिंगरप्रिंट्स से मिला कर देखा था, दोनों नमूने मिलते नहीं पाये गये थे।”
“अगर हम मायाराम की बात पर विश्वास करें तो हो सकता है कि हमारे रिकार्ड में मौजूद फिंगरप्रिंट्स में कोई भेद हो!”
“सर, ऐन यही बात मैंने सोची थी इसलिये मैंने आपको बताये बिना एक गुस्ताखी की थी।”
“क्या?”
“सोहल सात राज्यों में घोषित इश्तिहारी मुजरिम है और सब के पास उसके फिंगरप्रिंट्स का रिकार्ड है। जब मैंने पंजाब पुलिस को मायाराम का रिकार्ड भेजने के लिए कहा था तो मैंने उनसे उनके पास उपलब्ध सोहल के फिंगरप्रिंट्स की कापी भी मंगवा ली थी।”
“ऐसा?” — एस.एच.ओ. सकपकाया सा बोला।
“जी हां। गुस्ताखी की माफी के साथ जी हां।”
“उन्होंने भेजे सोहल की उंगलियों के निशान?”
“जी हां। भेजे।”
“तो?”
“परसों आपने सी.बी.आई. के ऐंटीटैरेरिस्ट स्कवायड के डिप्टी डायरेक्टर योगेश पाण्डेय और कौल के एम्पलायर और गैलेक्सी के मालिक मिस्टर शुक्ला के सामने कौल के फिंगरप्रिंट्स लिये जो कि आपने हमारे रिकार्ड के सोहल के फिंगरप्रिंट्स से मिलते नहीं पाये थे। आप जरा कौल के फिंगरप्रिंट्स निकालिये, हम उसे पंजाब पुलिस से हासिल हुए सोहल के फिंगरप्रिंट्स से मिला कर देखते हैं कि क्या नतीजा निकलता है!”
“कौल के वो प्रिंट्स तो तभी मैंने रद्दी की टोकरी में डाल दिये थे जबकि वो मिलते नहीं पाये गये थे।”
“ये तो बहुत बुरा हुआ! मैं तो उनके अभी भी आपके पास होने की उम्मीद कर रहा था।”
“फिंगरप्रिंट्स फिर हासिल किये जा सकते हैं। अगर कौल में कोई भेद नहीं है तो वो भला क्यों एतराज करेगा फिंगरप्रिंट्स दोबारा देने में!”
“ये भी ठीक है।”
“तुम उसके घर या आफिस में उससे सम्पर्क करो और इस बार ये भी तसदीक करना कि उसकी छाती में सुये के जख्म का वैसा निशान है या नहीं जैसा कि मायाराम ने कहा था कि होना चाहिये था।”
“वो तो जरूर होगा। उसकी सफाई तो परसों मिस्टर शुक्ला ही दे गये थे कि कौल की छाती पर कभी स्टिलेटो (STILETTO) का वार हुआ था। तब तो आपने ही कौल को अभयदान दे दिया था कि उसका अपनी छाती उघाड़ना जरूरी नहीं था।”
“मुझे लगता है कि हम कौल के दोस्त उस सी.बी.आई. के उच्चाधिकरी का और उसके एम्पलायर शुक्ला का उस रोज कुछ ज्यादा ही रोब खा गये थे। तुम कौल से सम्पर्क करो, उसकी उंगलियों के निशान फिर से हासिल करो और फिर देखते हैं क्या होता है?”
“राइट, सर।”
मुबारक अली की टैक्सी पर सवार विमल और नीलम पालम एयरपोर्ट पहुंचे
सुमन उन्हें सी ऑफ करने उनके साथ आना चाहती थी लेकिन नीलम ने उसे इसलिये नहीं आने दिया था कि कहीं ऐन वक्त पर नन्हा सूरज रोने और नीलम की गोद में ही बने रहने की जिद न करने लगे।
मुबारक अली ने टैक्सी मारकी में ला कर खड़ी की तो तीनों उसमें से बाहर निकले।
विमल मुबारक अली से गले लग कर मिला — बिना इस बात की परवाह किये कि लोगबाग ये देख कर हैरान हो सकते थे कि टैक्सी का पैसेंजर उसके ड्राइवर से गले लग के मिल रहा था।
“शुक्रिया, मियां।” — विमल बोला — “दिल्ली में तुमने मेरी बहुत मदद की।”
“खिदमत की।” — मुबारक अली बोला — “बाप, मैं तेरी परजा है, तू राजा है। मेरा तो काम ही खिदमत करना है।”
“अब सुमन बीबी पीछे अकेली है। सूरज उसके पास है। उनकी गाहेबगाहे खोज खबर लेते रहना।”
“ऐसीच होगा, बाप। मैं खोज की खबर लेता रहेगा।”
“वहां फोन नहीं है और अपने आफिस से वो लम्बी छुट्टी लेने का इरादा रखती है इसलिये आइन्दा दिनों में मुझे भी उन लोगों की खबर तुम्हारे जरिये ही लग पायेगी।”
“कोई वान्दा नहीं। खबर, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, बरोबर लगती रहेगी।”
“गुड।”
विमल टैक्सी से परे हटने ही लगा था कि एकाएक वातावरण में मोटरसाइकल के शक्तिशाली इंजन की आवाज गूंजी। उसकी निगाह स्वयंमेव ही आवाज की दिशा में उठ गयी।
एक मोटरसाइकल जिस पर दो जने सवार थे, तूफानी रफ्तार से उधर ही बढ़ी चली आ रही थी।
“अरे!” — एकाएक मुबारक अली के मुहं से निकला — “ये तो अली वली हैं।”
अली वली जुड़वां भाई थे और मुबारक अली के सगे भांजे थे।
मोटरसाइकल ऐन उनकी टैक्सी के करीब आकर रुकी। उस पर बैठे दोनों युवक उस पर से उतरे, अगले ने मोटरसाइकल को स्टैण्ड पर लगाया और फिर दोनों ने अपनी हैल्मटें उतार कर मोटरसाइकल के हैंडल पर टांग दीं।
विमल ने देखा वो अली वली ही थे।
दोनों ने विमल का अभिवादन किया।
“तूफानी रफ्तार से आ रहे हैं।” — अली बोला — “अल्लाह का फजल हुआ कि मुलाकात हो गयी।”
“क्या माजरा है, कम्बख्तमारो।” — मुबारक अली बोला — “क्यों तूफानी रफ्तार से आ रहे हो?”
“इनके लिए चिट्ठी है, मामू।” — वली बोला — “तुम्हारे पीछे कूरियर से आयी।”
“किससे आयी?”
“कूरियर से। खास हरकारे के जरिये।”
“किसकी चिट्ठी है?”
“मालूम नहीं। हमने खोली नहीं।”
“कैसे खोल सकते थे?” — अली बोला।
“भेजने वाले का नाम नहीं है ” — वली बोला — “लेकिन पाने वाले की जगह इनका नाम लिखा है।”
“अरे, अल्लामारो!” — मुबारक अली बोला — “अब अभी लिफाफे के कागज की किस्म और स्याही की रंगत भी बताओगे या चिट्ठी, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, जिसकी है उसके सुपुर्द करोगे।”
तत्काल वली ने एक बन्द लिफाफा विमल को सौंपा।
विमल ने सशंक भाव से लिफाफा फाड़कर चिट्ठी निकाली और फिर सबसे पहले उस पर से चिट्ठी लिखने वाले का नाम पढ़ा।
चिट्ठी का लेखक इरफान था।
इरफान तुकाराम का खास भरोसे का आदमी था और जब से तुकाराम और वागले तुकाराम के इलाज के लिए विलायत गये थे, तब से विमल के साथ काम कर रहा था।
उसने चिट्ठी पढ़ी। लिखा था :
भाई जान,
आपके मॉडल टाउन वाले टेलीफोन नम्बर पर आपसे बात करने की कोशिश की लेकिन वहां से कोई जवाब न मिला। आप दिल्ली में मुबारक अली का एक पी.पी. नम्बर बता कर गये थे लेकिन उस पर से भी कोई जवाब न मिला तो मुबारक अली की मार्फत आपको ये चिट्ठी कूरियर से भेजनी पड़ी। यहां मुम्बई में हाल ही में कुछ ऐसी बातें वाकया हुई हैं जिनकी खबर आपके मुम्बई लौटने से पहले आपको लगना मुझे जरूरी लगा इसलिये चिट्ठी का सहारा लेना पड़ा। आप से खास दरख्वास्त है कि मुम्बई पहुंचने पर आप होटल सी-व्यू का रुख न करें। होटल सी-व्यू को बन्द करके सील कर दिया गया हुआ है और उसके आयरन गेट पर तख्ती टांग दी गयी हुई है जिस पर ये नोटिस दर्ज है कि होटल सी-व्यू चलाने वाली कम्पनी के बोर्ड आफ डायरेक्टर्स ने उसे अपने कब्जे में ले कर सील किया है और अब किसी भी व्यक्ति को मैंनेजिंग डायरेक्टर महेश दाण्डेकर के लिखित आदेश के बिना उसके भीतर कदम रखने की इजाजत नहीं होगी। फिर भी ऐसी कोई कोशिश करने वाले को पुलिस के हवाले किया जा सकता है, शूट तक किया जा सकता है।
‘कम्पनी’ के भूतपूर्व सिपहसालार और वर्तमान सिक्योरिटी आफिसर श्याम डोंगरे का कत्ल हो गया है। उसकी गोली खाई लाश माहिम क्रीक के करीब समुद्र में तैरती पायी गयी थी। एक ही गोली ऐन उसकी अच्छी आंख पर लगी थी जो कि उसका भेजा फाड़ती खोपड़ी से पार निकल गयी थी। उसके कत्ल का वो स्टाइल साफ साफ गैंग किलिंग की तरफ इशारा करता है। आप जानते ही हैं कि श्याम डोंगरे की एक आंख शीशे की थी। उसकी अच्छी आंख को निशाना बनाकर उसकी जान लेने के पीछे जरूर हमलावर की ये स्थापित करने की मंशा थी कि डोंगरे नाहक नहीं मारा गया था, उसे मौत की सजा दी गयी थी।
भाई जान, डोंगरे की मौत इस बात की तरफ इशारा हो सकती है कि ‘कम्पनी’ आपके ऐलान कर देने भर से ही खत्म नहीं हो चुकी। अगर कोई ‘कम्पनी’ के मुर्दे में जान फूंकने की कोशिश में है तो ये आपकी मुखालफत की तरफ इशारा भी है इसलिये आप से दरख्वास्त है कि लौटते वक्त मुम्बई में सावधानी से कदम रखें। कोई आपकी ताक में हो सकता है। ऐसे किसी शख्स के चेहरे पर से नकाब उठाने की हमारी पूरी कोशिश होगी लेकिन हम अपनी कोशिश में नाकाम हो सकते हैं इसलिये हम चूकें तो चूकें बरायमेहरबानी आप न चूकियेगा। अगर एकाध दिन में ही मुम्बई लौटने की मर्जी हो तो हमारी राय है हवाई जहाज से न लौटें क्योंकि सहर एयरपोर्ट जरूर दुश्मनों की निगाहों में होगा। अभी इस बात की कोई गारन्टी नहीं है कि कोई नये दुश्मन पैदा हो गये हैं लेकिन क्योंकि श्याम डोंगरे की मौत हमें शक में डाल रही है इसलिये खबरदार रहने में कोई हर्ज नहीं हैं। बाकी आप खुद समझदार हैं।
आपका खादिम
इरफान
“कैसी चिट्ठी है?” — मुबारक अली बोला — “कोई बुरी खबर तो नहीं, बाप!”
विमल ने जवाब देने के लिए मुंह खोला ही था कि लाउडस्पीकर पर एनाउन्समेंट होने लगी।
“हल्लो! हल्लो! पेजिंग फार मिस्टर अरविन्द कौल। पेजिंग फार मिस्टर अरविन्द कौल। मिस्टर अरविन्द कौल नामक मुम्बई के पैसेंजर अगर एयरपोर्ट पर कहीं हों तो फौरन इण्डियन एयरलाइन्स के चैक-इन काउन्टर पर पहुंचें जहां कि एक अर्जेंट टेलीफोन काल उनका इन्तजार कर रही है।”
“नीलम” — विमल चिट्ठी उसे थमाता हुआ बोला — “तू मुबारक अली को चिट्ठी पढ़ के सुना, मैं काल सुन के आता हूं।”
फिर वो चैक-इन काउन्टर की तरफ लपका।
सब-इन्स्पेक्टर जनकराज मॉडल टाउन पहुंचा।
पिपलोनिया की कोठी को उसने ताला लगा पाया। भीतर कम्पाउन्ड में कोई कार भी नहीं खड़ी थी इसलिये उसने ये ही समझा कि वो लोग सुबह सवेरे कहीं निकल गये थे।
फिर भी उसने बगल की कोठी की कालबैल बजाई।
तम्बू जैसा कफ्तान पहने एक थुलथुल औरत ने दरवाजा खोला। सामने वर्दीधारी पुलिस अधिकारी को खड़ा देखकर वो सकपकाई।
“मैं आपके पड़ोस में आया था।” — जनकराज बोला — “लेकिन कोठी को ताला लगा हुआ है। सोचा शायद आपको मालूम हो कि वो लोग कहां गये थे!”
“कौन सी कोठी को ताला हुआ है?” — औरत बोली — “आजू वाली को या बाजू वाली को?”
“बाजू वाली को। नौ नम्बर वाली को।”
“पिपलोनिया साहब वाली?”
“वही। जिसमें कि आजकल अपने बच्चे के साथ नीलम कौल और सुमन वर्मा रहती हैं।”
“वो तो बिक गयी।”
“जी!”
“कल कौल साहब आये। आनन फानन सौदा किया और फर्नीचर वगैरह समेत खड़े पैर कोठी बेच दी। दोनों गाड़ियां भी बेच दीं। सामान के नाम पर बस दो सूटकेस वो अपने साथ लेकर गये थे।”
“यूं आनन फानन कोठी खरीदी किसने? ऐसे तो इतनी प्राइम प्रापर्टी का ग्राहक नहीं मिलता।”
“प्रापर्टी डीलर ने खरीदी।”
“ओह! प्रापर्टी डीलर ने खरीदी। आप जानती हैं उसे?”
“नाम से नहीं जानती।”
“जैसे जानती हैं, वैसे ही बताइये।”
“संगम प्रापर्टी डीलर्स के नाम से जाना जाता है वो। मेन मार्केट में दुकान है। बोर्ड लगा हुआ है।”
जनकराज मेन मार्केट में पहंुचा।
वहां संगम प्रापर्टी डीलर्स को तलाश करने में उसे कोई दिक्कत न हुई। मार्केट में सबसे बड़ा बोर्ड वही था जो कि फासले से ही दिखाई दे जाता था। दुकान में उस घड़ी एक पहलवान जैसा व्यक्ति मौजूद था।
“मालिक को बुलाओ!” — जनकराज कर्कश स्वर में बोला।
“क्या बात है?” — पहलवान सन्दिग्ध भाव से बोला।
“सुना नहीं?”
“मैं ही मालिक हूं।”
“कल तुमने अरविन्द कौल नाम के एक व्यक्ति से डी-9 नम्बर की कोठी खरीदी है?”
“हां।”
“खरीद इतनी आनन फानन क्योंकर हुई?”
“मैं खुद हैरान हूं। उन साहब ने तो यूं आनन फानन प्रापर्टी का सौदा किया जैसे प्रापर्टी नहीं, अंगारा हाथ में थामे हों।”
“वजह क्या बताई?”
“कोई खास वजह नहीं बताई। बस यही कहा कि वो ये शहर छोड़ के जा रहे थे।”
“सेल चौकस थी?”
“बिल्कुल चौकस थी, जी। हम बहुत पुराने हैं प्रापर्टी के धन्धे में। धोखा नहीं खाने वाले। हमें तो ये तक मालूम है कि उस कोठी के असली मालिक शिवनारायण पिपलोनिया नाम के एक प्रोफेसर थे जिनकी फैमिली के साथ बहुत बड़ी ट्रेजेडी हो गयी थी। बीवी बेचारी कैंसर से मर गयी थी, नौजवान लड़के को हेरोइन का नशा हज्म कर गया था और नौजवान लड़की बेचारी जबरजिना का शिकार होकर मरी थी। फिर पिपलोनिया साहब भी शूट कर दिये गये थे लेकिन मरने से पहले वो अपनी कोठी को बाकायदा वसीयत उस बाबू अरविन्द कौल के नाम कर गये थे। एकदम चौकस डील थी, जी।”
“कितने में खरीदी?”
“छब्बीस लाख में। आनन फानन इतनी बड़ी रकम का नकद इन्तजाम करने में बड़ी तकलीफ हुई लेकिन किया इन्तजाम। सौदा ही ऐसा था। हाथों से नहीं निकलने दिया जा सकता था।”
“क्या खूबी थी सौदे में?”
“जनाब, चालीस से ऊपर तो उसकी मार्केट वैल्यू ही थी। फिर फर्नीचर भी शामिल। बर्तन भांडे, टी.वी., फ्रिज, टेलीफोन वगैरह भी सब शामिल।”
“दो कारें भी थीं?”
“वो अगल से बिकीं। मैंने ही बिकवाई। एक लाख में।”
“कौल ने अपना कोई मौजूदा पता लिखवाया?”
“हां।”
“क्या लिखवाया?”
“मार्फत शिवशंकर शुक्ला, कोठी नम्बर चौबीस, पंडारा रोड।”
“और?”
“और आप हुक्म बोलो, मालको।”
हुक्म बोलने की जगह जनकराज वहां से रुखसत हुआ और मोटरसाइकल दौड़ाता सीधा कनाट प्लेस के करीब स्थित के.जी. मार्ग पहुंचा जहां की एक मल्टीस्टोरी बिल्डिंग की पांचवी मंजिल पर गैलेक्सी ट्रेडिंग कारपोरेशन का आफिस था।
“अरविन्द कौल साहब से मिलना है।” — वो रिसैप्शनिस्ट से बोला।
“कौल साहब तो रिजाइन कर गये।” — जवाब मिला।
“अच्छा! कब?”
“कल ही।”
“हूं। तो बरायमेहरबानी शुक्ला साहब से मिलवाइये।”
“शिवशंकर शुक्ला साहब? जो कि प्रोप्राइटर हैं?”
“वही।”
रिसैप्शनिस्ट ने एक क्षण फोन पर बात की, फिर एक चपरासी को बुलाकर उसे जनकराज को बड़े साहब के पास लिवा ले जाने का आदेश दिया।
“आइये।” — शुक्ला उसे देखते ही बोला — “आइये, जनाब। बिराजिये। कैसे आना हुआ?”
“कौल साहब से मिलने आया था।” — जनकराज बोला।
“वो तो यहां की नौकरी छोड़ गये।”
“रिसैप्शन से मालूम हुआ। एकाएक क्योंकर हुआ ऐसा?”
“एकाएक हुआ तो नहीं कहा जा सकता। मन तो काफी अरसे से बना रहा था कौल वापिस कश्मीर लौट जाने का। मैंने परसों आपके थाने में भी इस बात का जिक्र किया था कि वो कश्मीरी ब्राह्मण था और सोपोर से विस्थापित होकर दिल्ली आया था। सोपोर में उसका टिम्बर का कारोबार था जिसे कि दहशतगर्दों ने जला कर खाक कर दिया था, घर बार जला दिया था और परिवार के तमाम मेम्बरान को मार डाला था। खुद भी बुरी तरह से जख्मी हुआ था लेकिन फिर भी जान बचा कर भाग निकलने में कामयाब हो गया था।”
“जहां कौल साहब के साथ ऐसी बुरी बीती, वहां उन्हें लौट जाना कुबूल हो गया?”
“तुम शायद अखबार नहीं पढ़ते हो इसलिये नहीं जानते हो कि जब से उधर नेशनल कांग्रेस की नयी सरकार बनी है, उधर के हालत तेजी से सुधरने लगे हैं और कश्मीरी विस्थापित तेजी से घर लौटने लगे हैं। ऐसे में कौल ने भी वापिस लौट जाने का फैसला कर लिया तो क्या बड़ी बात है?”
“लेकिन यूं आनन फानन?”
“बड़े फैसले आनन फानन ही होते हैं वरना कई मर्तबा होते ही नहीं।”
“शायद आप ठीक कह रहे हैं।”
“वैसे भी दिल्ली का रहन सहन कौल को कभी रास नहीं आया था। ऊपर से उसके अक्सर टूर पर रहने की वजह से उसकी बीवी परेशान रहती थी। दिल्ली शहर में तो, तुम जानते ही हो कि, अकेली जान को नित नयी परेशानियां हैं। इन बातों ने भी कौल को सोपोर लौट जाने का एकाएक फैसला कर लेने के लिए उकसाया था।”
“सिर्फ इन बातों ने? इस बात ने नहीं कि परसों मायाराम बावा चिल्ला चिल्ला कर दावा कर रहा था कि वो सोहल था?”
“उस बात को क्यों उछाल रहें हो, भई? वो तो परसों ही खत्म हो गयी थी! परसों तुम्हारे एस.एच.ओ. के सामने निर्विवाद रूप से साबित किया जा चुका था कि कौल न सोहल था, न सोहल हो सकता था।”
“निर्विवाद रूप से नहीं।”
“क्या कमी रह गयी थी?”
“वो मैं आपको नहीं बता सकता।”
“क्यों भला?”
“क्योंकि आप उसके एम्पलायर ही नहीं, दोस्त और हिमायती भी हैं। आप उसे आगे खबरदार कर देंगे।”
“अब कैसे कर दूंगा? वो तो गया!”
“शायद न गये हों। जैसे एकाएक नौकरी छोड़ी और मॉडल टाउन वाली कोठी बेची वैसे ही एकाएक शायद कौल साहब शहर से अपनी रवानगी का इन्तजाम न कर सके हों! अब मेरा आप से सवाल ये है कि कौल साहब इत्तफाक से अगर अभी भी दिल्ली में ही होंगे तो कहा होंगे?”
“फिर तो वो अपने दोस्त योगेश पाण्डेय के यहां ही होंगे।”
“आपके यहां नहीं?”
“क्या मतलब?”
“कोठी बेचते वक्त उन्होंने अपना जो लोकल पता लिखवाया था वो आपकी मार्फत आपकी पंडारा रोड वाली कोठी का था।”
शुक्ला सकपकाया, उसने कुछ क्षण घूर कर जनकराज को देखा और फिर उठता हुआ बोला — “आओ।”
“कहां?” — जनकराज सकपकाया — “कहां आऊं?”
“मेरे साथ आओ। मैं खुद तुम्हें पंडारा रोड अपनी कोठी पर लेकर चलता हूं ताकि तुम ये इलजाम न लगा सको कि तुम्हारे पीठ फेरते ही मैंने अपनी कोठी पर फोन करके उसे खबरदार कर दिया।”
“आप खुद मुझे पंडारा रोड ले जाने को तैयार हैं तो फिर वहां जाने की जरूरत नहीं। मुझे आप पर एतबार है कि कौल साहब आपकी कोठी पर नहीं हैं।”
“ओह! तुम यादव साहब के यहां पता करो।”
“कौल साहब वहां भी नहीं होंगे। होंगे तो अब नहीं होंगे।”
“मतलब?”
“समझिये।”
शुक्ला खामोश रहा।
“बहुत खुशकिस्मत हैं कौल साहब” — जनकराज उठता हुआ बोला — “जिनके इतने रसूख वाले, इतने दिलदार दोस्त हैं। मैं इजाजत चाहता हूं। मेरे साथ वक्त जाया करने का शुक्रिया।”
जनकराज वहां से रुखसत हुआ।
अब उसका अगला पड़ाव गोल मार्केट स्थित कोविल मल्टीस्टोरी हाउसिंग कम्पलैक्स था।
“माई नेम इज अरविन्द कौल।” — चैक-इन काउन्टर पर पहुंच कर विमल बोला — “दैट टेलीफोन काल...”
“यस, सर।” — काउन्टर पर मौजूद क्लर्क एक रिसीवर उठा कर उसे थमाता हुआ बोला — “हेयर यू आर।”
विमल ने रिसीवर थाम लिया और काउन्टर की तरफ पीठ फेर कर उसे कान से लगाया।
“हल्लो!” — वो दबे स्वर में बोला — “कौन?”
“मैं सुमन।” — उसे सुमन का व्याकुल स्वर सुनायी दिया — “पड़ोसी के फोन से बोल रही हूं। शुक्र है आप से बात हो गयी।”
“बात क्या है? तुम इतनी घबरायी हुई क्यों हो?”
“यहां पुलिस पहुंची हुई है।”
“पुलिस?”
“जी हां। पहाड़गंज थाने का वही सब-इन्स्पेक्टर जनकराज यहां पहुंचा है जो कि पहले मुझे और दीदी को हलकान करने मॉडल टाउन भी आता रहा था। आपको पूछ रहा है। कहता है आप से कुछ जरूरी बातें दरयाफ्त करनी हैं।”
“तुमने क्या कहा?”
“मैंने कहा मुझे नहीं मालूम था आप कहां थे। मैंने कहा आप यहां आये ही नहीं थे।”
“सूरज के बारे में क्या जवाब दिया?”
“दीदी आयी थी। बच्चे को यहां छोड़ गयी। दिन में किसी वक्त आयेंगी तो ले जायेंगी।”
“और?”
“मुझे पुलिस के इरादे नेक नहीं लगते। उस सब-इन्स्पेक्टर ने जुबानी ऐसा कुछ नहीं कहा था लेकिन साफ लगता है कि वो आपको गिरफ्तार करने आया है। इसीलिये मैंने आपको खबरदार करने की कोशिश की। ये लोग आपको एयरपोर्ट पर रोकने का भी इन्तजाम कर सकते हैं।”
“अभी तो यहां ऐसा कुछ नहीं मालूम होता। होता तो चैक इन काउन्टर पर ही, जहां से कि मैं फोन सुन रहा हूं, पुलिस मौजूद होती।”
“फिर तो आपको ऐसी कोई नौबत आने से पहले ही दिल्ली से निकल जाना चाहिये।”
“मैं जो मुनासिब समझूंगा, करूंगा। तुम अपनी बोलो। पीछे सब सम्भाल लोगी?”
“हां।” — वो दृढ़ स्वर में बोली — “वो जितना मर्जी जोर लगा ले, मेरे से कुछ नहीं जान पायेंगे।”
“वो कोई जोर जबरदस्ती करें या थर्ड डिग्री का इस्तेमाल करने की कोशिश करें तो फौरन योगेश पाण्डेय साहब से सम्पर्क करना।”
“ठीक है।”
“मै फोन रख रहा हूं।”
“भाई साहब, मैं आपकी तरफ से निश्चिन्त हो जाऊं? आप पर या दीदी पर कोई विपत्ति तो नहीं आन पड़ेगी?”
“ऐसा कुछ नहीं होगा। तुम बिल्कुल फिक्र न करो। ओके?”
“ओके।”
“अपने पड़ोसी का फोन नम्बर बोलो। मैं मुम्बई पहुंच कर तुम्हें फोन करूंगा।”
जवाब में उसने एक फोन नम्बर लिखा और फिर लाइन काट दी।
दाता! तेरी कुदरति तू है जाणहि, अऊर न दूजा जाणै।
कैसी विडम्बना थी! फोन पर उसे राय मिली थी कि वो जल्द-अज-जल्द दिल्ली से बाहर निकल जाये और चिट्ठी का मशवरा था कि वो सहर एयरपोर्ट पर कदम रखने से गुरेज करता तो अच्छा होता।
अपनी मुम्बई की फ्लाइट वो नहीं छोड़ सकता था क्योंकि फौरन दिल्ली से दूर कहीं कूच कर जाने का तो वो ही जरिया था।
वो वापिस लौटा।
“क्या बात थी?” — नीलम बोली।
“किस का फोन था?” — मुबारक अली बोला।
विमल ने बताया।
तत्काल दोनों के — बल्कि चारों के — चेहरों पर चिन्ता के भाव परिलक्षित हुए।
“अभी कुछ नहीं हुआ।” — विमल बोला — “अभी हालात काबू में हैं।”
“कहां काबू में हैं!” — मुबारक अली बोला — “तू जहाज पर चढ़ने जा रहा है जबकि चिट्ठी में वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में तुझे हिदायत दी गयी है कि तू जहाज से मुम्बई लौटने का इरादा नक्की करे।”
“वो अब नहीं हो सकता, सुमन की टेलीफोन काल के बाद नहीं हो सकता। मेरा पीछे दिल्ली में ठहरना सहर एयरपोर्ट पर उतरने से ज्यादा खतरनाक साबित हो सकता है।”
“लेकिन...”
“वहां मैं अपने दुश्मनों को छका सकता हूं, यहां पुलिस को शायद न छका पाऊं।”
“वहां कैसे छकायेगा?”
“वैसे ही जैसे आज तक छकाता आया हूं। दुश्मनों की निगाहबीनी के जेरेसाया वहां क्या मैं पहली बार कदम रखूंगा!”
“लेकिन फिर भी...”
“नो लेकिन। नो फिर भी। मैं अपनी, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, फिलाइट जरूर पकड़ूंगा।”
जैसी कि विमल को अपेक्षा थी, उसको अपने लहजे की नकल उतारते पाकर मुबारक अली के चेहरे पर विनोद के भाव न आये।
“नाहक हलकान होने की जरूरत नहीं, मियां।” — विमल संजीदगी से बोला — “वो कहते नहीं हैं कि जिसको अल्लाह रक्खे, उसको कौन चक्खे! ऊपर वाले ने मुझे रखना है तो कोई मेरा क्या बिगाड़ सकता है! नहीं रखना तो अभी यहीं मेरे पर ऐसी गाज गिर सकती है जो मेरी हस्ती, मेरा नामोनिशान मिटा सकती है।”
“फिर भी तू खबरदार तो रहेगा न?”
“ये भी कोई कहने की बात है!”
“अगर हम सब तेरे साथ चलें तो?”
“काश ऐसा मुमकिन होता। हवाई जहाज पर ट्रेन की तरह सवार हुआ जा सकता होता तो मैं जरूर तीन अतिरिक्त सवारियां साथ लेकर चलता।”
“ओह!”
“नीलम के लिए टिकट का ही इतनी मुश्किल से इन्तजाम हो पाया था। ये किसी और के टिकट पर किसी और नाम से सफर कर रही है। ये इन्तजाम भी ट्रैवल एजेन्ट भारी फीस लेने के बावजूद बड़ी मुश्किल से कर पाया था।”
“तुझे कैसे मिल गयी टिकट?”
“मैं तो रिटर्न टिकट लेकर आया था। वापिसी का ओपन टिकट था मेरे पास। ऐसे टिकट होल्डर को तरजीह दी जाती है इसलिये मेरी सीट कनफर्म हो गयी। नीलम के साथ ऐसा न हो सका। इसके पास किसी और महिला की टिकट है जिसे कि ट्रैवल एजेन्ट ने किसी और फ्लाइट से किसी और दिन मुम्बई जाने के लिए पटा लिया था।”
“ओह!” — मुबारक अली एक क्षण ठिठका और फिर बोला — “हम तेरे पीछू तो आ सकते हैं?”
“जरूर। लेकिन तब जब मैं खबर करूं।”
“खबर करेगा?”
“ये भी कोई कहने की बात है!”
“तेरी, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, सलामती की खबर आने तक हर घड़ी मेरी तवज्जो तेरी तरफ ही रहेगी। तेरी तरफ और तेरी बेगम की तरफ।”
“मैं खबर करूंगा। कोताही नहीं होगी। वादा।”
मुबारक अली चुप हो गया।
“मियां” — विमल हमशक्ल जुड़वां भाईयों में से एक से सम्बोधित हुआ — “तुम अली हो या वली?”
“वली।” — जवाब मिला।
“तुम्हारी शेरवानी और पायजामा बहुत बढ़िया है। जूती भी कम नहीं। मुझे चाहिये। टैक्सी में बैठ कर इन्हें उतारो और इनका बंडल बना कर मुझे दो।”
“जरूर। अभी।”
“और तुम” — वो दूसरे भाई से बोला — “आन्धी तूफान की तरह कहीं से एक बुरके का इन्तजाम करो।”
अली ने मोटरसाइकल को किक मारी और सच में ही आंधी तूफान की तरह वहां से रुखसत हुआ।
तब पहली बार मुबारक अली के चेहरे पर छाये चिन्ता के बादल छंटे।
“मैं समझ गया, बाप।” — वो बोला।
“गुड। आई एम ग्लैड।”
जनकराज थाने पहुंचा।
उसने अपने एस.एच.ओ. को अपनी दौड़-धूप की दास्तान सुनायी।
“कमाल है।” — एस.एच.ओ. नसीब सिंह मन्त्रमुग्ध स्वर में बोला — “गोया ये कौल साहब यूं दिल्ली से पल्ला झाड़ गया जैसे कि यहां एकाएक प्लेग फैल गयी हो।”
“गया कहां होगा?” — जनकराज बोला।
“क्या पता कहां गया होगा! इतना बड़ा हिन्दोस्तान है, इतनी बड़ी दुनिया है।”
“सोपोर तो नहीं गया होगा!”
एस.एच.ओ. की भवें उठीं।
“सर, अब मुझे मायाराम की बातों पर और भी यकीन आने लगा है। वो शख्स सोहल हो या न हो लेकिन वो कश्मीरी विस्थापित कौल भी नहीं है। अब जब वो कौल नहीं है तो सोपोर क्या भाड़ झोंकने जायेगा!”
“काश उसके फिंगरप्रिंट्स मैंने रद्दी की टोकरी के हवाले न किये होते। वो फिंगरप्रिंट्स ही निर्विवाद रूप से ये साबित कर सकते थे कि वो सोहल था या नहीं था। सोहल की गिरफ्तारी पर तीन लाख रुपये का इनाम है जो कि हम हासिल कर सकते थे। चूक हो गयी। हम उन बड़े लोगों की बातों में आ गये। मायाराम की सुनी होती तो आज खुद कमिश्नर थाने आकर हमारी पीठ ठोक रहा होता।”
“सर, अभी भी हालात पूरी तरह से हमारे काबू से बाहर नहीं पहुंच गये हैं।”
“मतलब?”
“सोहल का दुधमुंहा बच्चा यहां है। उस कोविल हाउसिंग कम्पलैक्स वाली लड़की सुमन वर्मा की कस्टडी में। जब इतना छोटा बच्चा यहां है तो बच्चे की मां भी उससे ज्यादा दूर नहीं हो सकती। मां बच्चे के पास जरूर लौटेगी।”
“हम मां को... क्या नाम था उसका?”
“नीलम।”
“हम नीलम को गिरफ्तार कर सकते हैं?”
“क्यों नहीं कर सकते?”
“कैसे कर सकते हैं? ये स्थापित होना अभी बाकी है कि उसका पति राजधानी का कोई मामूली वाइट कॉलर एम्पलाई अरविन्द कौल नहीं, मशहूर इश्तिहारी मुजरिम सरदार सुरेन्द्र सिंह सोहल है।”
“उसके बिना भी हम नीलम को गिरफ्तार कर सकते हैं। और कुछ नहीं तो हरिदत्त पंत के कत्ल की तफ्तीश के लिए उसे हिरासत में तो ले ही सकते हैं! अब जबकि हम मायाराम की कुछ बातों पर यकीन कर रहे हैं तो हमें ये मान के चलना होगा कि उसकी बाकी बातों में भी दम है। और बाकी बातों में अहमतरीन बात ये है कि पंत का कत्ल सोहल उर्फ अरविन्द कौल ने किया था। मायाराम कहता है कि उसने उसके सामने अपनी जुबानी ये बात कुबूल की थी कि कातिल वो था। फिर क्यों हम कातिल की बीवी को हिरासत में लेकर उससे कातिल का पता जानने की कोशिश नहीं कर सकते?”
“वो लौटेगी?”
“कोई मां बहुत देर तक इतने छोटे बच्चे से दूर नहीं रह सकती। या तो वो बच्चे के पास लौटेगी या फिर वो लड़की सुमन वर्मा बच्चे को मां के पास पहुंचाने की कोशिश करेगी। अगर हम सुमन वर्मा पर निगाह रखेंगे तो देख लीजियेगा, बहुत जल्द उसके जरिये हमारी नीलम तक पहुंच बनेगी। नीलम को हिरासत में लेने की हमारे पास जायज वजह है। एक बार बच्चा और बच्चे की मां हमारे काबू में आ गयी तो देख लीजियेगा बाप ममता के कच्चे धागे में बन्धा चला आयेगा।”
“फिर तो हमें सुमन वर्मा की दिन रात निगरानी का इन्तजाम करना चाहिये!”
“मैं ऐसा इन्तजाम कर चुका हूं।”
“वैरी गुड।”
“और मेरी दरख्वास्त है कि आइन्दा कुछ दिनों तक मुझे इसी केस पर काम करने का मौका दिया जाये।”
“दरख्वास्त मंजूर।”
“थैंक्यू, सर।”
इण्डियन एयरलाइन्स का वो प्लेन, जिस पर विमल और नीलम सवार थे, सहर एयरपोर्ट पर उतरा।
वाहेगुरु सच्चे पातशाह — विमल मन ही मन बोला — तू मेरा राखा सबनी थांहीं।
वो दोनों अराइवल लाउन्ज में पहुंचे जहां कि अपने पास मौजूद हैण्डबैग के साथ वो जेन्ट्स टायलेट में दाखिल हो गया। संयोगवश टायलेट में उस घड़ी कोई भी नहीं था। विमल एक लैवेटरी में दाखिल हुआ जहां कि अपना सूट और जूते उतारकर उसने वली मुहम्मद से हासिल हुई पोशाक शेरवानी पायजामा और जूती पहन ली। अपने चेहरे पर उसने वो फ्रेंचकट दाढ़ी मूंछ चिपकाईं जो कि उसके पेस्टनजी नौशेरवानजी घड़ीवाला वाले बहुरूप का हिस्सा थीं और फिर बैग सम्भाले वहां से बाहर निकल आया।
बाहर उस घड़ी वाश बेसिन की कतारों के सामने एक बुजुर्गवार मौजूद थे जिनकी दाढ़ी और सफाचट मूंछ और बेशुमार सिजदों से जिनकी पेशानी पर बना दाग उनके मुसलमान होने की चुगली कर रहा था। उनकी काले फुंदने वाली लाल तुर्की टोपी वाश बेसिन के पहलू में पड़ी थी और वो अपना मुंह माथा धोने में मशगूल थे।
विमल उनके पहलू में पहुंचा और शीशे में देखकर इस बात की तसदीक करने लगा कि नकली दाढ़ी मूंछ चेहरे पर सुव्यवस्थित थीं। फिर उसने बड़े इत्मीनान से हाथ बढ़ाकर तुर्की टोपी उठाई और उसे अपने सिर पर पहनने लगा।
बुजुर्गवार का हाथ रुक गया, वो अपलक उसे देखने लगे।
“कोई गुस्ताखी हुई, जनाब?” — विमल सहज भाव से बोला।
“हुई तो सही!” — बुजुर्गवार बोले — “लेकिन पशोपेश में हैं कि उसका जिक्र करें या न करें।”
“जरूर कीजिये, जनाब, वरना मुझे खबर कैसे लगेगी कि मेरे से क्या गुस्ताखी हुई?”
“जो टोपी आप पहन रहे हैं, वो हमारी है।”
“अरे! लाहौल विला कूवत, ये तो वाकेई बहुत बड़ी गुस्ताखी हुई मेरे से। खता माफ फरमाइये, आलाहजरत। वो क्या है कि मैं इसे अपनी टोपी समझा था।”
और विमल ने उसे सिर से उतारने का उपक्रम किया।
“नहीं, नहीं।” — तत्काल बुजुर्गवार ने विरोध किया — “उतारो नहीं, साहबजादे, उतारो नहीं। टोपी एक बार सिर पर मुकाम बना ले तो वो इज्जत बन जाती है।”
“वो तो ठीक है लेकिन...”
“पहने रहो, मियां, हमारे पास चार और हैं।”
“फिर भी...”
“अरे, मामूली चीज है, बेटा।”
“मैं हैरान हूं कि मेरी टोपी कहां गयी? मैंने यहीं तो रखी थी! रख कर जरा टायलेट में गया था बस।”
“कोई उठा के ले गया होगा! हिन्दोस्तानी हवाई अड्डों पर ऐसी टुच्ची चोरियां बहुत होती हैं।”
“मैं आपको इसकी कीमत...”
“अरे, नहीं। तोहफा समझकर कुबूल करो।”
“शुक्रिया, जनाब।”
“किधर से आना हुआ?”
“दिल्ली से।”
“रहने वाले कहां के हो? दिल्ली के या मुम्बई के?”
“दोनों जगह का ही नहीं। अलबत्ता कुछ अरसे से इधर मुम्बई में ही डेरा जमाये हूं। आगे का खुदा जाने।”
“हम शरजाह से हैं। उधर के ही हैं लेकिन हमारा बड़ा लड़का कारोबार के सिलसिले में इधर मुम्बई में रहता है। उसी से मिलने आये हैं।”
“ओह!”
“अच्छी हैसियत बनायी हुई है उसने इधर। कोलाबा में रहता है।”
“तो अब आप कोलाबा तशरीफ ले जायेंगे?”
“हां।”
“कैसे जायेंगे? टैक्सी पकड़ेंगे?”
“नहीं, भई। साहबजादे को हमारी आमद की खबर है। वो बहुत मसरूफ न होगा तो हमें लेने खुद आया होगा नहीं तो गाड़ी भेजी होगी।”
“जनाब, आप बहुत मेहरबान और अल्लावाले फर्द मालूम होते हैं। खता माफ फरमायें तो एक गुजारिश करूं?”
“बेखौफ बोलो, भाई।”
“आप हमें कोलाबा के रास्ते में कहीं तक लिफ्ट दे सकते हैं?”
“हमें! तुम्हारे साथ कोई और भी है?”
“मेरी शरीकेहयात है।”
“ठीक है। तुम बाखुशी हमारे साथ चल सकते हो।”
“शुक्रिया, जनाब। आपने अभी अपना लगेज काबू में करना होगा!”
“करना तो है!”
“तो चलिये, एक साथ ही चलते हैं।”
“हां, हां। जरूर। मैं जरा...”
उन्होंने अपना मुंह सिर पोंछा और फिर नीचे पैरों के करीब पड़ा एक हैंडबैग उठा कर ऊपर रखा। हैंडबैग खोल कर उन्होंने उसमें से वैसी ही एक टोपी बरामद की और पहन ली।
अब उनकी और विमल की सूरतें ऐसी मैचिंग लगने लगीं जैसे वो पिता पुत्र हों।
“नाम नहीं बताया तुमने अपना।” — एकाएक वो बोले।
“जी, मेरा नाम... परवेज है।” — विमल बोला।
“हमें अताउल्लाह खान कहते हैं।”
“आप से मिलकर बहुत खुशी हुई, जनाब।”
“हमें भी। आओ चलें।”
दोनों इकट्ठे टायलेट से बाहर निकले।
नीलम उसे वहीं खड़ी दिखाई दी जहां कि वो उसे छोड़कर गया था। लेकिन अब वो टखनों तक आने वाला बुरका ओढ़े थी जिसकी नकाब उसने विमल को अपनी सूरत पहचनवाने के लिए ही उठा रखी मालूम होती थी, क्योंकि विमल से निगाह मिलते ही उसने नकाब को चेहरे पर गिरा लिया।
“खान साहब” — विमल बोला — “ये मेरी बीवी रेशमा है।”
नीलम ने बड़ी अदा से सिर नवा कर आदाब किया।
बुजुर्गवार ने आशीशें देते हुए आदाब कुबूल किया।
“ये अताउल्लाह खान साहब हैं।” — विमल बोला — “सखी हातिम जैसा मिजाज पाया है इन्होंने। हमें अपनी गाड़ी में लिफ्ट दे रहे हैं।”
“शुक्रिया, जनाब।” — नीलम बोली।
“आइये, सामान का पता करें।” — विमल जल्दी से बोला।
वो दोनों कनवेयर बैल्ट पर पहुंचे जहां कि विमल ने अपने दो सूटकेस और बुजुर्गवार के इशारे पर उनका एक सूटकेस बरामद किया। उसने वो तीनों सूटकेस एक ट्राली पर रख लिये और उन्हें बाहर की ओर धकेलने लगा।
वहां जो गाड़ी बुजुर्गवार को लेने आयी हुई थी, वो एक चमचम करती मर्सिडीज थी। उसकी ड्राइविंग सीट पर एक कोई पैंतीस साल का क्लीनशेव्ड, सूटबूटधारी खूबसूरत व्यक्ति मौजूद था जो उन्हें देखते ही कार से बाहर निकला और उसने बुजुर्गवार के करीब जाकर उन्हें झुक कर आदाब किया। जवाब में बुजुर्गवार ने उसे बगलगीर किया और उसकी पीठ थपथपाई।
“परवेज मियां” — फिर वो विमल से सम्बोधित हुआ — “ये हमारे बड़े साहबजादे मोहसिन खान हैं।”
विमल ने बहुत गर्मजोशी से उससे हाथ मिलाया।
“और बेटा” — बुजुर्गवार बोला — “ये परवेज मियां हैं और ये इनकी बेगम रेशमा हैं।”
नीलम ने मोहसिन खान को भी आदाब से नवाजा।
“यहां से ये हमारे साथ चल रहे हैं।” — बुजुर्गवार बोला।
युवक ने कोई सवाल न किया, वो मीठे स्वर में बोला — “वैलकम।”
फिर उसने कार की डिकी खोली और दोनों ने मिलकर ट्राली में लदे सूटकेस डिकी में हस्तांतरित किये।
विमल ने सावधानी से दायें बायें निगाह दौड़ाई तो उसे ऐसा न लगा जैसे वो किसी की निगाहों में हो। अलबत्ता एक टेलीफोन बूथ के करीब खड़ा इरफान उसे जरूर दिखाई दिया। विमल मुंह के पास हाथ ले जाकर हौले से खांसा तो इरफान की निगाह उसकी तरफ उठी। विमल ने एक क्षण को अपनी एक आंख दबाई और तत्काल उसकी तरफ से मुंह फेर लिया।
इरफान अपने स्थान से हट कर लम्बे डग भरता एक तरफ बढ़ा।
बुजुर्गवार ने बड़े इसरार से विमल और नीलम को कार की पिछली सीट पर सवार कराया और स्वयं अपने साहबजादे के साथ आगे बैठ गये।
साहबजादे ने तत्काल कार आगे बढ़ायी।
कार एयरपोर्ट से निकल कर हाइवे पर पहुंच गयी तो बुजुर्गवार बोले — “अब बोलो, बेटा, कहां जाना चाहते हो?”
“जनाब” — विमल अदब से बोला — “माहिम काजवे पार करके आप हमें कहीं भी उतार देंगे तो चलेगा।”
“फिर भी मंजिल कहां है तुम्हारी?”
“जी, जाना तो हमने शिवाजी पार्क है...”
“क्या मुजायका है! वो भी हमारे रास्ते में है।”
“लेकिन जनाब...”
“मोहसिन बेटा, शिवाजी पार्क हो के चलना। ये लोग वहां उतरेंगे।”
“जी, अब्बा जानी।” — युवक बोला।
“जहमत का शुक्रिया, जनाब।” — विमल बोला।
“कोई जहमत नहीं।” — खान साहब बोले — “आदमी का आदमी के काम आना जहमत क्योंकर हो गया?”
“बजा फरमाया, जनाब।”
सफर खामोशी से कटने लगा।
एक बार गर्दन घुमा कर विमल ने पीछे सड़क पर झांका तो उसे अपने पीछे आती एक टैक्सी दिखाई दी। टैक्सी को विक्टर चला रहा था और उसके पहलू में इरफान मौजूद था।
मुम्बई में विमल को हर तरह की मदद हासिल थी लेकिन फिर भी उस घड़ी उसे तुकाराम और वागले की बहुत याद आ रही थी। इरफान कितना भी फर्माबरदार बनके दिखाता, वागले की जगह नहीं ले सकता था और तुका की जगह तो कोई भी नहीं ले सकता था।
मर्सिडीज शिवाजी पार्क पहुंची।
विमल के इशारे पर युवक ने उसे एक बहुखंडीय इमारत के सामने रोका।
विमल और नीलम खान साहब के शुक्रगुजार होते हुए कार से बाहर निकले।
युवक ने डिकी से उनके सूटकेस निकालकर उनके हवाले किये।
फिर मर्सिडीज वहां से रुखसत हो गयी।
विमल आश्वस्त था कि कोई दुश्मन एयरपोर्ट से उसके पीछे नहीं लगा था।
मर्सिडीज के दृष्टि से ओझल होते ही विक्टर की टैक्सी निशब्द उनके पहलू में आन खड़ी हुई। विक्टर और इरफान दोनों टैक्सी से बाहर निकले। विक्टर ने उसका खामोश अभिवादन किया और फिर बिना बोले उनका सामान टैक्सी की डिकी में रखने लगा।
“मैं जरूर पहचान जाता” — इरफान धीरे से बोला — “पण जो साथ के बुजुर्गवार थे, उनकी वजह से धोखा खा गया। बुरके वाली इन मोहतरमा की वजह से धोखा खा गया। बाप, तेरी बांकी तुर्की टोपी से धोखा खा गया।”
“ये नीलम है” — विमल बोला — “मेरी बीवी। सूरत भले ही न देखी हो लेकिन नाम से, मैं जानता हूं, तुम वाकिफ हो।”
“सूरत से भी वाकिफ हूं, बाप।” — इरफान बोला — “महालक्ष्मी के यतीमखाने वाला मंजर क्या मैं भूल गया हूं!”
“ओह! मैं ही भूल गया था उस बाबत।”
“आदाब, भाभी जान।”
जवाब में नीलम ने मुस्कराते हुए हाथ जोड़ दिये।
फिर वे सब टैक्सी में सवार हो गये — नीलम और विमल पीछे और विक्टर और इरफान बदस्तूर आगे।
टैक्सी के अपने स्थान से हिलने से पहले नीलम ने अपने बुरके को और विमल ने अपने मुस्लिम बहुरूप को तिलांजलि दी।
“कहां चलें?” — इरफान बोला।
“अभी कहीं नहीं।” — विमल बोला — “पहले ये बताओ कि क्या एयरपोर्ट पर कोई लोग वाकेई मेरी ताक में थे?”
“थे तो सही।” — इरफान संजीदगी से बोला।
“कौन थे वो लोग?”
“मालूम नहीं। पहचानी हुई कोई सूरत नहीं थी लेकिन होंगे जरूर वो ‘कम्पनी’ के ही आदमी।”
“अभी कोई दावेदार सामने नहीं आया बखिया की गद्दी का?”
“अभी नहीं आया। ऐसा कोई दावेदार सामने आयेगा, ये हमारा वहम भी हो सकता है लेकिन खबरदार रहने में तो कोई हर्ज नहीं न!”
“ठीक।”
“अलबत्ता होटल पर उसके मालिकान काबिज हो चुके हैं।”
“मालिकान?”
“बाप, हमें भी अभी मालूम हुआ है कि होटल सी-व्यू बखिया या ‘कम्पनी’ की मिल्कियत नहीं था। बन्द होटल के बाहर उसके बन्द आयरन गेट पर लगा दी गयी तख्ती से अब मालूम पड़ा है कि होटल सी-व्यू तो असल में ओरियन्टल होटल्स एण्ड रिजार्ट्स नाम की एक कम्पनी की मिल्कियत है।”
“उस कम्पनी की बाबत कोई जानकारी हासिल की?”
“सिर्फ ये कि तारदेव में उस कम्पनी का दफ्तर है और उसके मौजूदा मैंनेजिंग डायरेक्टर का नाम महेश दाण्डेकर है।”
“और जानकारी कहां से हासिल हो सकती है?”
“लोहिया की बाबत क्या खयाल है?”
“लोहिया?”
“शेष नारायण। जो कि बड़ा कारखानेदार है। जो कि इब्राहीम कालिया की जिन्दगी में उसका दोस्त था। जो कि कालिया की वजह से अब तेरा भी दोस्त है।”
“लोहिया इस कम्पनी की बाबत कुछ जानता हो सकता है?”
“हो सकता है। आखिर वो बड़ा कारखानेदार है और रसूखवाला आदमी है। ऊपर से अपनी जिन्दगी में गजरे उसका पड़ोसी था। लोहिया बहुत कुछ जानता हो सकता है। नहीं जानता होगा तो इस बाबत कुछ जान जाना उसके लिए मामूली काम होगा।”
“हूं।”
“फिलहाल वैसा और कोई शख्स हमारी निगाह में है भी तो नहीं।”
“तुम ठीक कह रहे हो। नेपियन हिल चलो।”
तत्काल टैक्सी आगे बढ़ी।
“डोंगरे कैसे मारा गया?” — विमल बोला।
“वो साफ साफ गैंग किलिंग है” — इरफान बोला — “जिनका होटल वालों से कोई रिश्ता नहीं हो सकता।”
“क्यों?”
“क्योंकि होटल पर उन लोगों का कानूनी अधिकार बनता मालूम होता है। ‘कम्पनी’ क्योंकर उस होटल पर काबिज थी और उसे अपना हैडक्वार्टर बनाये हुए थी, ये तफ्तीश का मुद्दा है। ‘कम्पनी’ उजड़ते ही उनका होटल का दावेदार बन जाना इस बात का सबूत है कि हैं ही वो लोग होटल के मालिकान।”
“‘कम्पनी’ उजड़ते ही तो वो दावेदार नहीं बन गये थे!”
“वजह तेरे को मालूम, बाप। उन लोगों ने समझा होगा कि जैसे बखिया गया तो इकबाल सिंह आ गया, इकबाल सिंह गया तो गजरे आ गया, वैसे ही गजरे गया तो सोहल आ गया था ‘कम्पनी’ और उसके निजाम पर काबिज होने।”
“मेरी ऐसी कोई मंशा नहीं थी। मैंने पहले दिन ही कहा था कि मेरी ऐसी कोई मंशा नहीं थी। गजरे के मरते ही मैंने कहा था कि रावण मार कर रावण बनने का तमन्नाई मैं नहीं था इसलिये ‘कम्पनी’ के वजूद को हमेशा के लिए खत्म समझा जाये।”
“बाप, लगता है तेरे इसी ऐलान को उन लोगों ने कैश किया। एकाएक दिल्ली रवाना हो जाने पर तेरे वहां से पीठ फेरते ही उन्होंने होटल को अपने कब्जे में कर लिया।”
“श्याम डोंगरे अगर जिन्दा होता?”
“तो वो क्या कर लेता? वो लोग उसे दूध में से मक्खी की तरह निकाल बाहर करते। ज्यादा चीं चपड़ करता तो गिरफ्तार करा देते।”
“हूं। पहले कौन सा काम हुआ था? होटल पर कब्जा पहले हुआ था या डोंगरे का कत्ल पहले हुआ था?”
“कहना मुहाल है। क्योंकि डोंगरे की लाश उसके कत्ल के काफी अरसे बाद समुद्र से निकाली गयी थी। पता नहीं वो कब मरा था और कब लाश बरामद हुई थी।”
“कोई खुसर पुसर तो हो रही होगी अन्डरवर्ल्ड में कि डोंगरे का कत्ल कैसे हुआ?”
“है तो सही खुसर पुसर!”
“क्या?”
“विक्टर, तू बता।”
“बाप” — विक्टर बोला — “लोगबाग बोलता है कि डोंगरे का कत्ल ‘भाई’ ने करवाया है।”
“क्यों?”
“क्योंकि वो तुम्हेरे साथ मिल कर ‘कम्पनी’ से गद्दारी किया। गद्दार को गद्दारी का सजा मिला। देर से मिला पण मिला।”
“‘भाई’ क्या बखिया बनने की फिराक में है? क्या ‘भाई’ वो शख्स है जो ‘कम्पनी’ के मुर्दे में जान फूंकने की कोशिश कर रहा है?”
“ऐसा तो कोई नहीं बोला, बाप!”
“‘भाई’ ‘कम्पनी’ का बड़ा बाप नहीं बन सकता।” — इरफान बोला — “क्योंकि ‘कम्पनी’ का निजाम दुबई में बैठ के नहीं चलाया जा सकता। पण वो किसी को शह दे सकता है, किसी की पीठ पर हाथ रख सकता है, किसी को उकसा सकता है ‘कम्पनी’ की खाली गद्दी पर काबिज होने के लिए।”
“ऐसे किसी शख्स को पहले सोहल से टक्कर लेनी होगी। मौजूदा हालात में क्या कोई ऐसी जुर्रत करेगा?”
“मेरे को उम्मीद नहीं। सी-व्यू होटल का हाथ से निकल जाना भी इस बात का सबूत है। आज की तारीख में ‘कम्पनी’ की गद्दी पर काबिज होने का हौसला कर सकने लायक कोई बड़ा बाप मुम्बई शहर में होता तो महेश दाण्डेकर और उसके लोगों की होटल सी-व्यू पर काबिज हो जाने की मजाल न होती। पण...”
“क्या पण?”
“बाप, मुम्बई में ‘कम्पनी’ की गद्दी पर काबिज होने के तमन्नाई दादा लोगों का कोई तोड़ा नहीं। इस काम से एक ही दहशत उन्हें रोके हुए है और उस दहशत का नाम है सोहल। लेकिन बाप, खुदा न करे, अगर सोहल न रहे तो?”
“ओह! लिहाजा आज की तारीख में सारे अन्डरवर्ल्ड का वन प्वाइंट प्रोग्राम मेरी लाश गिराना है?”
जवाब देने से पहले इरफान ने एक सशंक निगाह नीलम पर डाली और फिर दबे स्वर में बोला — “ऐसीच जान पड़ता है, बाप।”
“कोई कामयाब हो जायेगा?” — विमल बोला।
“हो सकता है। बाप, अब तक दुश्मनों के खिलाफ जो जंग तूने लड़ी और जीती है, उनमें दुश्मन तेरे पहचाने हुए थे। तेरे को इमकान होता था कि वार किधर से होने वाला था। अब शायद ऐसा न हो पाये। बाप, तेरे को मालूम कि छुप के वार करने वाले दुश्मन हमेशा ही ज्यादा खतरनाक साबित होते हैं।”
“ऐसे दुश्मनों की क्या शिनाख्त नहीं हो सकती?”
“हो सकती है। कोशिश पहले से जारी है। लेकिन काम पेचीदा है इसलिये सौ फीसदी कामयाबी की कोई गारन्टी नहीं।”
“हूं। ये महेश दाण्डेकर कैसा आदमी है?”
“कैसा आदमी है क्या मतलब?”
“वो एक बड़ी कम्पनी का एम.डी. है, इस लिहाज से कोई टॉप कारपोरेट बॉस होगा!”
“वैसा तो नहीं है!” — इरफान धीरे से बोला।
“तो कैसा है?”
“हल्का। मवालियों जैसा। भाई लोगों जैसा। बस, कपड़े बढ़िया पहनता है और ठस्से से रहता है। आम पोशाक में राह चलता मिले तो कोई टैक्सी डिरेवर या भेलपूरी बेचने वाला लगे।”
“ऐसा?”
“हां।”
“पैसा कहां से आ गया?”
“मेरे खयाल से तो वहीं से आया होगा जहां से कि बखिया और उसके जोड़ीदारों के पास आया। इब्राहीम कालिया के पास आया।”
“दो नम्बर के धन्धों से?”
“लगता तो ऐसा ही है!”
“कहीं वो ही तो वो शख्स नहीं जो ‘कम्पनी’ के मुर्दा जिस्म में जान फूंकने की कोशिश कर रहा है और गजरे की जगह लेने के ख्वाब देख रहा है?”
इरफान कुछ क्षण सोचता रहा और फिर बोला — “कहना मुहाल है, बाप। पण इतना मैं फिर भी पक्की करता हूं कि वो कोई खानदानी आदमी नहीं है। वो हल्का आदमी है जो पता नहीं कैसे तरक्की किया और ऊंचा ओहदा कब्जाया।”
“अगर सच में ही वो कोई ढंका छुपा मवाली है तो श्याम डोंगरे के कत्ल में उसी का हाथ हो सकता है।”
“उसी का या ‘भाई’ की शह पर उसका।”
“हूं।”
“बाप, उसकी बाबत एक बात और है जो काबिलेगौर है।”
“वो क्या?”
“हर जगह दो हथियारबन्द बाडीगार्डों के साथ जाता है।”
“एक कार्पोरेट एग्जीक्यूटिव का बाडीगार्डों से क्या लेना देना? उसे किससे खतरा हो सकता है?”
“बाप, जो वो अपने आपको जाहिर करता है, उसे खतरा नहीं हो सकता, पण जो वो शायद असल में है, उसे खतरा हो सकता है।”
“असल में क्या?”
“मवाली।”
“ओह!”
“तभी तो दो बाडीगार्ड हमेशा साये की तरह उसके साथ रहते हैं!”
“उसके घर पर भी?”
“मैं हमेशा बोला न, बाप!”
“मालाबार हिल तो पहुंच गये!” — एकाएक विक्टर बोला — “आगे किधर चलूं, बाप?”
“कोठी नम्बर चौदह।” — विमल बोला।
लोहिया से विमल की मुलाकात कोठी के उसी वातानुकूलित आफिसनुमा कमरे में हुई जिसमें वो पहले भी दो बार उससे मिल चुका था।
लोहिया कोई पचपन साल का उम्र के लिहाज से काफी चुस्त आदमी था, शराब और शबाब का रसिया था जिसका सबूत उसकी आंखों में स्थायी रूप से तैरते वासना के डोरे थे और उम्दा स्काच विस्की की बू थी जो इतर की तरह उसके व्यक्तित्व में रची बसी रहती थी।
आज की तारीख में वो भी विमल का इरफान और विक्टर जैसा ही मुरीद था।
विमल अकेला उसके आफिस में पहुंचा था जहां कि लोहिया उससे बगलगीर होकर मिला। दोनों आमने सामने बैठ गये तो वो बोला — “अब जब मैं जानता हूं कि तुम सोहल हो तो अब तो मैं तुम्हें सोहल के नाम से ही पुकार सकता हूं?”
“नहीं।” — विमल बोला — “प्लीज। आप मुझे कौल के नाम से ही पुकारिये और उसी तौर पर याद रखिये।”
“ठीक है। कोई ठण्डा गर्म...”
“अभी नहीं। शायद बाद में। लेकिन अभी नहीं।”
“मर्जी तुम्हारी। कैसे आये?”
“कई समस्यायें हैं मेरे सामने जिनमें से कुछ का हल मुझे लगता है कि आपके पास हो सकता है।”
“मसलन सुनें ऐसी कोई समस्या!”
विमल ने उसके सामने ओरियन्टल होटल्स एण्ड रिजार्ट्स लिमिटेड की बाबत इरफान से जानी बातों का जिक्र किया।
“आप खुद एक बड़े उद्योगपति हैं।” — आखिर वो बोला — “होटल्स भी आजकल एक बड़ा उद्योग है। कोई छोटी मोटी कम्पनी तो सी-व्यू जैसे अट्ठारह मंजिले आलीशान, फाइव स्टार डीलक्स होटल की मालिक हो नहीं सकती! इस लिहाज से कोई बड़ी बात नहीं कि आप ओरियन्टल होटल्स एण्ड रिजार्ट्स की बाबत पहले से ही काफी कुछ जानते हों!”
“तुम्हारा खयाल ठीक है।” — लोहिया गम्भीरता से बोला — “जानता था मैं पहले से काफी कुछ लेकिन कुछ खास बातें मैंने हाल ही में उत्सुकतावश तब जानी जबकि मुझे मालूम हुआ कि इस कम्पनी ने होटल सी-व्यू के तमाम कर्मचारियों को और गैर लोगों को, जो कि वहां डेरा जमाये थे, निकाल बाहर किया था और होटल को पूरी तरह से सील करके उस पर अपनी मिल्कियत का बोर्ड टांग दिया था।”
“आई सी।”
“सच पूछो तो मुझे तो मालूम ही तब हुआ था कि वो होटल कभी भी बखिया की बपौती या ‘कम्पनी’ की मिल्कियत नहीं रहा था।”
“फिर भी ‘कम्पनी’ उस पर काबिज थी, अपनी जिन्दगी में बखिया उस पर काबिज था, फिर इकबाल सिंह उस पर काबिज था और अब अभी कल तक गजरे उस पर काबिज था। क्या वो सब टोटल दादागिरी और धौंसपट्टी का नतीजा था?”
“टोटल तो नहीं।”
“तो?”
“मुझे मालूम हुआ है कि ‘कम्पनी’ के पास शुरू से ही ओरियन्टल होटल्स एण्ड रिजार्ट्स लिमिटेड के लगभग बीस प्रतिशत शेयर थे।”
“शुरू से थे तो इसका मतलब है कि बखिया के नाम थे?”
“नहीं। सुवेगा इन्टरनेशनल के नाम थे जो कि इन दादा लोगों ने ओट के लिए कम्पनी बनायी हुई थी, कफ परेड पर जिसका दफ्तर था और जेकब सर्कल पर जिसकी एक ब्रांच थी। वो दोनों दफ्तर तो बखिया से छिड़ी जंग में सोहल ने” — लोहिया ने एक क्षण ठिठक कर तारीफी निगाहों से विमल की तरफ देखा — “फूंक फांक दिये थे लेकिन बाई नेम, बाई टाइटल, कम्पनी, यानी कि सुवेगा इन्टरनेशनल, फिर भी सलामत रही थी।”
“सुवेगा के कागजात में बखिया का क्या दर्जा था? क्या वो उसका मालिक बताया जाता था?”
“नहीं। मैनेजिंग पार्टनर। उसके साथ जो दो और पार्टनर दर्ज होते थे, वो थे जान रोडरीगुएज और इकबाल सिंह। बखिया की सोहल के हाथों मौत के बाद जब इकबाल सिंह ‘कम्पनी’ पर काबिज हुआ था तो शेयर ट्रांसफर की प्रक्रिया के दौरान वो सुवेगा का मैनेजिंग पार्टनर बन गया था और व्यास शंकर गजरे और गोविन्द दत्तानी उसके दूसरे पार्टनर बन गये थे। इकबाल सिंह के बाद ‘कम्पनी’ की गद्दी पर गजरे काबिज हुआ तो वो मैनेजिंग पार्टनर बन गया और गोविन्द दत्तानी मरहूम की जगह कावस बिलीमोरिया और खुद गजरे की जगह रशीद पावले पार्टनर बन गये।”
“अब जबकि ये तीनों ही इस दुनिया में नहीं हैं तो सुवेगा का मालिक, उसके ओरियन्टल होटल्स एण्ड रिजार्ट्स में बीस प्रतिशत शेयरों का मालिक कौन हुआ?”
“जो कोई भी दावा पेश कर दे।”
“अभी तक किया नहीं किसी ने?”
“पता नहीं। मालूम करना पड़ेगा।”
“करेगा तो कौन करेगा? ‘कम्पनी’ के तमाम ओहदेदार तो मारे गये। प्यादे बिखर गये। एक श्याम डोंगरे, जो कि ‘कम्पनी’ का सिपहसालार था, बाकी बचा था, वो अब मारा गया। दावा पेश करने को बाकी कौन बचा?”
“खुद अपने बारे में क्या खयाल है?”
“मेरा दावा कैसे चलेगा?”
“वैसे ही जैसे कभी बखिया का चला था, इकबाल सिंह का चला था और अभी हाल ही में गजरे का चला था। ये तो जिसकी लाठी उसकी भैंस वाला कारोबार है, भैया, और इस बात को तुम से ज्यादा कौन समझता है?”
विमल खामोश रहा।
“तुम्हारी बातों से लगता है कि तुम होटल पर अपना कब्जा चाहते हो!”
“है तो ऐसा ही!” — विमल संजीदगी से बोला — “लेकिन मैं ‘कम्पनी’ का निजाम कब्जा कर होटल पर कब्जा नहीं चाहता। मैं अपने हमदर्दों, अपने मेरहबानों, अपने मोहसिनों को कोई गलत सिग्नल नहीं देना चाहता। मैं अपने दुश्मनों को भी ये गलत सिग्नल नहीं देना चाहता कि मैंने गजरे की जगह ले ली। ‘कम्पनी’ खत्म है और मेरे जीते जी खत्म ही रहेगी लेकिन ‘कम्पनी’ के साथ साथ होटल सी-व्यू भी खत्म हो जाये, ये मैं नहीं चाहता।”
“क्यों?”
“लोहिया साहब, ‘कम्पनी’ के कई कारोबारों में से एक कारोबार लोन शार्किंग भी था। आप उस कारोबार से जाती तौर से वाकिफ हैं क्योंकि मेरी और कालिया की दरख्वास्त पर हमारे लिये आपने ‘कम्पनी’ से पैंतीस करोड़ रुपये का कर्जा उठाया था। वो रुपया एक और बड़ी रकम के साथ आपके पास नेपाल से वापिस लौटा था लेकिन मैंने आपको तरह दी थी कि ‘कम्पनी’ से लिया गया कर्जा लौटाने की आपको जरूरत नहीं थी क्योंकि ‘कम्पनी’ का सर्वनाश होने वाला था और फिर आपसे मूल रकम या उसका सूद क्लेम करने वाला कोई बाकी नहीं बचने वाला था। आपने देखा था कि ऐसा ही हुआ था।”
“हां। एक करिश्मे की तरह तुम्हारे किये हुआ था।”
“लोहिया साहब ‘कम्पनी’ के तो आप जैसे कई कर्जाई थे। लिहाजा ‘कम्पनी’ डूबी तो ‘कम्पनी’ की कर्जे की बड़ी बड़ी रकमें भी डूब गयीं। मैं वो रकमें नहीं डूबने देना चाहता। मैं वो रकमें वसूल करना चाहता हूं ताकि बूंद बूंद से भरने वाले गरीबों की इमदाद के घड़े में और चन्द बून्दों का इजाफा हो सके। इस काम को अंजाम देने के लिए होटल सी-व्यू पर मेरा कब्जा बना रहना जरूरी है।”
“यूं लोग ये नहीं समझेंगे कि होटल की तरह तुम ‘कम्पनी’ की गद्दी पर भी काबिज हो?”
“नहीं समझेंगे। समझेंगे भी तो जल्दी ही समझ जायेंगे कि जो उन्होंने समझा था, वो गलत था। लेकिन तब तक मेरा काम बन चुका होगा। मैं उन लोगों से कर्जे की रकमें वसूल कर चुका होऊंगा जो कि उन्हें डकार जाने पर आमादा होंगे।”
“बस, यही इकलौती वजह है होटल सी-व्यू में तुम्हारी दिलचस्पी की?”
“एक वजह और भी है जो कि मैं इस वक्त आपको नहीं समझा सकता।”
“ऐसी क्या वजह है?”
“बोला न, इस वक्त आपको नहीं समझा सकता।”
“अरे, कुछ तो बोलो! कोई हिन्ट तो दो! इस बात का तो खयाल करो कि पूछने वाला कौन है! कुछ तो कहो!”
“ठीक है,। सुनिये। लोहिया साहब, मैं बहुत धक्के खा चुका हूं। मैं अपनी कुत्ते जैसी दुर दुर करती जिन्दगी से आजिज आ चुका हूं। मैं जहां भी कोई पनाहगाह तलाश करता हूं, हालात की आंधी मुझे वहां से उखाड़ फेंकती है। सबसे सेफ और कम्फर्टेबल मैंने दिल्ली में महसूस किया था जहां कि मैं पक्का गृहस्थ बन गया था और सीधी साधी नौकरी भी करने लगा था। लेकिन बद्किस्मती ने मुझे वहां सबसे ज्यादा झकझोरा। अभी भी ये समझिये कि दुम दबा के वहां से भागा हूं। बीवी तो जिद करके साथ चली आयी लेकिन बच्चा पीछे छोड़ना पड़ा।”
“बच्चा! बीवी! तुम शादीशुदा हो?”
“जी हां। मेरी बीवी, मेरा बच्चा मेरी जिन्दगी का बहुत बड़ा हासिल हैं। लेकिन वही आज की तारीख में मेरे पैरों की बेड़ी भी हैं। पहले मैं अकेला कहीं पनाह तलाशता था, अब मेरे साथ बन्धे वो दो भी उस पनाह के तमन्नाई हैं। लोहिया साहब, होटल सी-व्यू मेरी पनाहगाह बन सकता है।”
“सोहल की?”
“नहीं।”
“तो?”
“एक नयी ही शख्सियत खड़ी करनी होगी जो कि होटल सी-व्यू के सदके बाखूबी हो सकती है।”
“अच्छा!” — लोहिया उलझनपूर्ण स्वर में बोला — “ऐसा?”
“जी हां।”
“लेकिन कैसे तुम...”
“जनाब, आपने हिंट मांगा, मैंने दे दिया। बाकी वक्त आने पर। वक्त आने पर तो, सच पूछिये तो, मुझे कुछ समझाना ही नहीं पड़ेगा। आप खुद ही सब समझ जायेंगे।”
“हूं।” — लोहिया कुछ क्षण खामोश रहा और फिर बोला — “अब प्राब्लम क्या है तुम्हारी? सुवेगा के बीस पर्सेंट शेयर तुम लाठी से अपने नाम ट्रांसफर नहीं करा सकते हो तो उनकी कीमत अदा कर दो। पैसे की क्या तुम्हारे पास कमी है? बहुत पैसा है तुम्हारे पास।”
“जो पैसा आपको लगता है कि मेरे पास है वो मेरे जाती इस्तेमाल के लिए नहीं है। वो पैसा मेरा नहीं है। मैं तो सिर्फ कस्टोडियन हूं उस पैसे का। वो पैसा जरूरतमन्दों के लिए है और उन्हीं पर सर्फ होगा। वो पैसा गरीब गुरबा की वो भूख मिटाने के लिए है जो कि पांच हज़ार साल पुरानी है। मेरा काम, मेरा मिशन उस रकम में मुतवातर इजाफा करना है, न कि उसमें सेंध लगाना है। मैं कितनी भी दौलत जमा कर लूं वो घड़े में बूंद जैसी ही रहेगी लेकिन बूंद बूंद से ही घड़ा भरता है और खाली घड़े से तो वो घड़ा भी भला जिसमें कि एक ही बूंद हो।”
“फिर कैसे बीतेगी?”
“बीतेगी। जैसे आज तक बीती है, वैसे ही आगे भी बीतेगी। जिस वाहेगुरु ने आज तक रास्ता दिखाया है, वो आगे भी दिखायेगा। दीन दयाल दयानिध दोखन, देखत हैं पर देत न हारै। दाता की देत का घड़ा भला कैसे रीत सकता है? कोई सूरत जरूर सामने आयेगी, जनाब।”
“अपने आप?”
“‘वो’ चाहेगा तो अपने आप भी आ सकती है। ‘वो’ रास्ता सुझा सकता है, दिखा सकता है, पार करा सकता है।”
लोहिया खामोश रहा।
“इजाजत हो तो अब मैं अपनी अगली समस्या पर आऊं?”
“हां, हां। जरूर। बेखौफ बोलो, भाई।”
“लोहिया साहब, मेरी बीवी मेरे साथ है...”
“वो तो तुमने कहा लेकिन समस्या क्या है?”
“मुम्बई में मेरा कोई ठिकाना नहीं लेकिन फिर भी कई ठिकाने हैं। उन कई ठिकानों में ऐसा ठिकाना कोई नहीं जो मुझे अपनी बीवी के लिए सेफ दिखाई देता हो। नीलम नाम है मेरी बीवी का। उसे यहां मेरे साथ नहीं आना चाहिये था लेकिन उसकी साथ आने की जिद के आगे मेरी पेश न चल पायी। पीछे दिल्ली में हालात कुछ ऐसे बन गये थे कि नीलम को वहां नहीं छोड़ा जा सकता था। बच्चे को किसी तरह पीछे छोड़ा क्योंकि बच्चे को भी साथ लाना भारी दुश्वारियों का बायस बन सकता था।”
“अरे, भई, साफ बोलो न कि तुम्हें अपनी बीवी के रहने के लिए कोई जगह चाहिये।”
“बहुत थोड़े अरसे के लिए। बाद में मैं उसका कोई मुनासिब इन्तजाम कर लूंगा।”
“करना या न करना, वो तुम्हारी मर्जी पर मुनहसर है लेकिन मेरा ये घर आज भी तुम्हारा और कल भी तुम्हारा है। इस कोठी की पहली मंजिल पर चार बैडरूम हैं और चारों के चारों खाली हैं। समझ लो कि पहली मंजिल तमाम की तमाम तुम्हारे हवाले है।”
“नीलम को सिर्फ एक कमरा चाहिये होगा और वो भी बहुत थोड़े अरसे के लिए।”
“और तुम? तुम कहां रहोगे?”
“इस बाबत अभी मैंने कोई फैसला नहीं किया।”
“तुम्हारी बीवी तुम्हें अपने से अलग रहने देगी?”
“यही तो अन्देशा है, यही तो मुसीबत है कि नहीं रहने देगी।”
“फिर तो भैया, चाहो या न चाहो, तुम यहीं रहोगे।”
“देखेंगे।”
“और बोलो।”
“और मैं ओरियन्टल होटल्स एण्ड रिजार्ट्स लिमिटिड की मैनेजमैंट के बारे में कुछ जानकारी चाहता हूं। फिलहाल मुझे इतना मालूम है कि महेश दाण्डेकर नाम के कोई साहब इस घड़ी उस कम्पनी के मैनेजिंग डायरेक्टर हैं जो कि कोई सम्भ्रान्त और खानदानी आदमी नहीं हैं।”
“यानी कि हल्के आदमी हैं?”
“और भी बुरे। मवाली। गैंगस्टर।”
“कमाल है! एक बड़ी कम्पनी का एम.डी. और एक मवाली!”
“आजकल के जमाने में कोई कमाल नहीं। आजकल तो ये समझिये कि चोर उचक्का चौधरी और गुण्डी रन्न प्रधान।”
“क्या खूब बात कही?”
“मैं आपके जरिये ये जानना चाहता हूं कि उस कम्पनी के बोर्ड आफ डायरेक्टर्स पर बाकी लोग कौन हैं, कितने हैं और कैसे हैं। क्या ओरियन्टल होटल्स भी ‘कम्पनी’ जैसी मवालियों की ही एक जमात है या उसमें कोई दाण्डेकर जैसी एकाध ही काली भेड़ है!”
“मालूम पड़ जायेगा। और?”
“और फिलहाल बस।”
“बीवी को कब लेकर आओगे?”
“वो मेरे साथ ही आयी है।”
“साथ ही आयी है! कहां है?”
“बाहर टैक्सी में बैठी है।”
“तौबा! कैसे आदमी हो तुम? अरे भई, फौरन उसे भीतर लेकर आओ। बल्कि मैं साथ चलता हूं।”
“नहीं, नहीं।” — विमल तत्काल उठता हुआ बोला — “आप बैठिये मैं लेकर आता हूं।”
“ओके।”
बदरपुर महरौली रोड पर तुगलकाबाद के खंडहरों के करीब वो एक खंडहरों जैसी ही पुरानी और उजाड़ इमारत थी जिसके आसपास के ऊबड़ खाबड़ पथरीले इलाके में दूसरी कोई इमारत नहीं थी। शाम के झुटपुटे में उस इमारत के सामने आगे पीछे चार कारें पहुंचीं। चारों कारों में से तीन के मालिकान ही उनके ड्राइवर थे जबकि चौथी — चमचम करती शेवरलेट — कार को एक ड्राइवर चला रहा था और मालिक पीछे बैठा हुआ था।
शेवरलेट के मालिक का नाम लेखूमल झामनानी था।
झामनानी गुरबख्शलाल के बाद दिल्ली अन्डरवर्ल्ड का सबसे कड़क दादा था। गुरबख्शलाल की जिन्दगी में वो उसे अपने रास्ते का कांटा मानता था लेकिन, कर्टसी सोहल, वो कान्टा निकल जाने के बावजूद वो अपने कारोबार में वहीं का वहीं था। कारण सोहल ही था जो कि नये साल की रात को गुरबख्शलाल के कत्ल के बाद उसी की फरीदाबाद स्थित कोठी में तमाम बिरादरी को धमका गया था कि जिस किसी ने भी गुरबख्शलाल के पीछे छूटे हेरोइन के धन्धे में हाथ डालने की कोशिश की, वो उसे जान से मार डालेगा। लिहाजा आज भी वो अपने जुए, कालगर्ल सप्लाई और स्काच विस्की की स्मगलिंग के पुराने धन्धों में ही मशगूल था।
बाकी के तीन शख्सों में एक मारुति एस्टीम ड्राइव करता वहां पहुंचा शख्स पवित्तर सिंह था। वो खुली सफेद दाढ़ी वाला, सूरत से देवतास्वरूप लगने वाला व्यक्ति था जो कि असल में आजादपुर के इलाके का खतरनाक दादा था। वो नेता लोगों से सांठगांठ रखता था और खुद भी मैट्रोपालिटन काउन्सलर रह चुका था। वो आर्म्स स्मगलर था और उग्रवादियों को असलाह सप्लाई करता था। उसके अलावा उसके दूसरे धन्धे थे सोने की स्मगलिंग और लोगों को बिना पासपोर्ट बार्डर क्रास कराना।
दूसरा, होंडा अकार्ड पर वहां पहुंचा, शख्स भोगीलाल था जो कि दिल्ली में झुग्गी झोंपड़ी का बेताज बादशाह कहलाता था। वो झोंपड़पट्टे की ओट से नकली शराब का धन्धा करता था। वहां की वोटों पर उसकी मजबूत पकड़ थी जिसकी वजह से हर राजनैतिक पार्टी के नेता लोगों में लोकप्रिय था। कत्ल, अगवा और फिरौती वसूली भी उसके पसन्दीदा धन्धे थे।
नेताओं की तरह डीजल की सफेद एम्बैसेडर पर वहां पहुंचा आखिरी शख्स माताप्रसाद ब्रजवासी था। ब्रजवासी लैंडग्रैब और इल्लीगल कंस्ट्रक्शन करने वालों का मसीहा था, बाम्बे स्टाइल में मकान, दुकान जबरिया खाली करवाने में माहिर था और उसी लाइन पर व्यापारियों कारखानेदारों से हफ्तावसूली भी उसका खास धन्धा था।
कभी वो तमाम लोग गुरबख्शलाल के, जिसका कि उसकी जिन्दगी में नॉरकॉटिक्स के धन्धे पर एकाधिकार था, बिरादरीभाई माने जाते थे। उस बिरादरी में सलीम खान नाम का एक भाई और शामिल था लेकिन पिछले दिनों बड़े रहस्यपूर्ण हालात में वो इस जहान से रुखसत हो गया था। अपनी जिन्दगी में वो जामा मस्जिद के इलाके का टॉप का दादा था जिसका मेन धन्धा जाली पासपोर्टों का और अरब देशों के बूढ़े शेखों को नौजवान लड़कियां सप्लाई करने का था। बहरहाल दिल्ली के अन्डरवर्ल्ड की वो फेमस बिरादरी अब केवल उन चार लोगों में सिमट कर रह गयी थी, जो कि उस घड़ी वहां मौजूद थे और लेखूमल झामनानी की दरख्वास्त पर वहां इकट्ठे हुए थे।
वे सब इमारत के भीतर दाखिल हुए और एक धूल भरे जर्जर हाल कमरे में पहुंचे। उसकी छत में जगह जगह छेद थे जिनमें से ढलते दिन की बची खुची रोशनी भीतर आ रही थी।
“तौबा!” — भोगीलाल बोला — “ये तो भूतों का डेरा दीख रिया है!”
“रात वेले” — पवित्तर सिंह बोला — “बन्दा कल्ला इधर आये तो प्राण कम्ब जान उस दे।”
“अकेले के तो दिन में भी कांप जायें, सरदार जी।” — ब्रजवासी बोला।
“भई, सिन्धी भाई” — भोगीलाल बोला — “कोई और जगह न दीखी तन्ने मीटिंग के लिए?”
“साईं” — झामनानी बोला — “फिट जगह यही है।”
“क्या फिट है इसमें?”
“वडी, चार बिरादरीभाई हम इधर पहुंचे हैं, नी। मीटिंग का जो मकसद है, वो अगर पूरा न हुआ तो तीन इधर ही रह जायेंगे।”
“क्या?” — ब्रजवासी भौंचक्का सा बोला।
“एक ही जना इधर से वापिस जायेगा।”
“वो कौन हुआ?” — भोगीलाल बोला।
“वडी, मैं हुआ नी, और कौन हुआ!”
“बल्ले!” — पवित्तर सिंह बोला — “वीर मेरे, बाकी तिन्न इधर ही क्यों रह जायेंगे?”
“खालसा साईं, जिसके सिर से झूलेलाल की मेहर की छतरी हट जाये, उसका डेरा टीन टप्पर तम्बू तो इस फानी दुनिया से उखड़ के ही रहता है न, नी!”
तीनों श्रोताओं को जैसे सांप सूंघ गया।
“सिन्धी भाई” — भोगीलाल बोला — “मैं वही समझ रिया हूं न जो तू कह रिया है?”
“हां।”
“तो ये इरादे हैं तेरे? गोया वफाओं के बदले जफा कर रिया है? अबे, हम क्या कर रिये हैं और तू क्या कर रिया है?”
“तो?” — ब्रजवासी भड़का — “तुमने हमे धोखे से हमारी लाशें गिराने के लिए यहां बुलाया है?”
“कैसा बिरादरीभाई है तू!” — पवित्तर सिंह भी भड़का — “सानूं मार के खुद बच जायेगा?”
“साईं लोगो” — झामनानी शान्ति से बोला — “वडी, ऐसे भड़कोगे तो न कुछ जान पाओगे, न समझ पाओगे।”
“क्या नहीं जान पायेंगे?” — ब्रजवासी बोला — “क्या नहीं समझ पायेंगे? सब जान समझ तो रहे हैं। तुम हमें धमकी दे रहे हो कि...”
“वडी साईं, धमकी नहीं दे रहा, चेतावनी दे रहा हूं, खबरदार कर रहा हूं अपने बिरादरीभाईयों को उस आने वाले खतरे से जो कि उनके सिर पर मंडरा रहा है।”
“तुम्हारे सिर पर नहीं मंडरा रहा?”
“नहीं मंडरा रहा। क्योंकि मैंने खतरे को टालने वाला कदम उठाया है। तुम लोग भी मेरे जैसा ही कदम उठाओगे तो तुम्हारे सिर पर भी कोई खतरा नहीं मंडरा रहा होगा झूलेलाल की मेहर से।”
“पहेलियां पुच्छे है, सिन्धी भाई।” — भोगीलाल बोला।
“क्या माजरा है, भैया?” — ब्रजवासी बोला — “बात का खुलासा करो।”
“करता हूं, साईं” — इस बार झामनानी निहायत संजीदगी से बोला — “करता हूं। खुलासा ये है, साईं, कि मेरे पर ऊपर से दबाव पड़ रहा है कि गुरबख्शलाल की मौत के बाद से नॉरकॉटिक्स का जो धन्धा इधर एक तरीके से ठप्प पड़ा है, मैं उसमें जान फूंकूं। मैं इधर की अन्डरवर्ल्ड बिरादरी को भी धन्धा मजबूत करने में मददगार बनाऊं और जो इस धन्धे की मुखालफत करे, या इसमें शामिल होने से इनकार करे, उसको नीली छतरी वाले के घर रुखसत करने का सामान करूं।”
“उप्पर से!” — पवित्तर सिंह बोला — “उप्पर से कहां से दबाव पड़ रहा है?”
“कैसे पड़ रहा है?” — ब्रजवासी बोला।
“कौन बोला ऐसे खतरनाक बोल?” — भोगीलाल बोला।
“‘भाई’। वडी ‘भाई’ बोला, नी। दुबई से फोन करके बोला। अब ये भी बताऊं कि कौन भाई?”
कोई कुछ न बोला।
“‘भाई’ को रीकियो फिगुएरा करके एक माफिया डान बोला जो कि पूरे एशिया के नॉरकॉटिक्स ट्रेड का कन्ट्रोलर बताया जाता है। मेरे को इन बड़े साईयों का हुक्म हुआ है कि मैं — झामनानी — इधर नॉरकॉटिक्स ट्रेड को कन्ट्रोल करूं।”
“तुम्हें ही क्यों कहा?” — ब्रजवासी बोला।
“वडी, मेरे को नहीं मालूम, नी।”
“क्या इसलिये” — भोगीलाल बोला — “क्योंकि तू शुरू से ही इस धन्धे में दान्त गड़ाने की फिराक में है? गुरबख्शलाल पर थारी पेश न चली थी, वरना तू तो तभी उसकी लाश गिरा कर धन्धा अपने कब्जे में करने को तैयार था!”
“बिल्कुल ठीक।” — झामनानी ने अप्रत्याशित जवाब दिया — “एकदम दुरुस्त। गुरबख्शलाल के आगे मेरी पेश नहीं चलती थी। तुम्हारी भी नहीं चलती थी, साईं लोगो, वरना तुम भी उसी फिराक में होते जिसमें मैं था। इस मामले में हम सब एक किश्ती पर सवार हैं इसलिये मैंने ऐसी कोई जिम्मेदारी अकेले अपने सिर पर लेने की जगह तुम लोगों को यहां बुलाया।”
“वीर मेरे” — पवित्तर सिंह बोला — “वो सब ठीक है। तेरी मेहरबानी है कि तू बिरादरीभाईयों को एक किश्ती में सवार समझता है। लेकिन तैन्नू वो वजह तो आगे बतानी चाहिये थी कि क्यों हम हेरोइन के ट्रेड को हत्थ नहीं लगा सकते।”
“वडी, मैं नहीं बता सका। क्योंकि बड़े साईं लोग कोई वजह सुनने को तैयार नहीं। उनका एक ही हुक्म है। धन्धा फिर से खड़ा करो। उसे परवान चढ़ाओ। उसके रास्ते में जो रुकावट आये उसे खत्म कर दो। मैं बड़े साईं लोगो को सोहल की धमकी की बाबत बताता तो जरूर यही जवाब मिलता कि वो हमारी खुद की प्राब्लम थी।”
“इसका तो ये मतलब हुआ” — ब्रजवासी बोला — “कि हमें उस काम में हाथ डालने के लिए मजबूर किया जा रहा है जिसमें कि हमारी जान को खतरा है।”
“वडी, इससे भी बुरा मतलब हुआ, नी। हाथ न डालने से भी जान को खतरा है। साईं लोगो अब हमारे सामने एक तरफ कुआं है तो दूसरी तरफ खाई है। अब हमने मिल कर ये फैसला करना है कि हमें कम खतरा और ज्यादा मुनाफा कुयें की तरफ कदम बढ़ाने में है या खाई का रुख करने में है।”
कोई कुछ न बोला।
“इस सिलसिले में मैं तुम लोगों को अपने मरहूम बिरादरीभाई सलीम खान की याद दिलाना चाहता हूं। सोहल की धमकी की तलवार हम लोगों की तरह उसके सिर पर भी लटक रही थी। साईं लोगो, आज सलीम खान जिन्दा नहीं है लेकिन वो सोहल के मारे नहीं मरा था, बावजूद इसके कि उसने पूरी कामयाबी से दिल्ली शहर में हेरोइन का व्यापार फिर से खड़ा करके दिखाया था। अगर एक अकेला सलीम खान ड्रग्स के मामले में सोहल की मुखालफत कर सकता था, उसकी धमकी को नजरअंदाज कर सकता था तो हम चार जने क्यों नहीं कर सकते? जो रास्ता हमें सलीम खान दिखा गया, हम उस पर क्यों नहीं चल सकते? वो एक है, हम चार हैं।”
“ओये, कमलया” — पवित्तर सिंह बोला — “बखिया और उसके जोड़ीदार चौदह थे। सब एक से एक कड़क दादे थे। अकेले सोल ने उनका भी तो सफाया किया था!”
“गजरे और उसके जोड़ीदार भी” — ब्रजवासी बोला — “कम से कम छ: तो थे ही!”
“वडी, ठीक बोला, नी।” — झामनानी बोला — “लेकिन क्या सोहल ने सब को इकट्ठे मार गिराया था?”
“नहीं” — पवित्तर सिंह बोला — “कट्ठे तो नहीं मार गिराया सी!”
“वो ऐसी कोशिश करता तो झूलेलाल की मेहर की छतरी कब की उसके सिर पर से उठ गयी होती और वो कब का ऊपर जहन्नुम में शैतान के साथ पापड़ खा रहा होता। साईं लोगो, इस सोहल की स्ट्रेटेजी ये जान पड़ती है कि वो अपने दुश्मन को नंगा करके मारता है। तभी तो उसने बखिया तक पहुंचने से पहले एक एक करके उसके सारे ओहदेदार मार गिराये थे! ऐन ऐसा ही उसने गजरे के साथ किया था। यहां दिल्ली में उसने हम लोगों की जानबख्शी की थी लेकिन उसने हमें गुरबख्शलाल के खिलाफ कर दिया था। हम गुरबख्शलाल की मुखालफत के लिए तैयार न होते, हम हेरोइन के धन्धे में हाथ न डालने का वादा सोहल से न करते तो यकीनन हमारा भी वही हश्र होता जो कि ‘कम्पनी’ के बेशुमार ओहदेदारों का हुआ था। साईं लोगो, सोहल के साथ मुकाबिल होने का यही तरीका है कि हम उसी की स्ट्रेटेजी उसी के खिलाफ इस्तेमाल करें। जैसे सोहल ‘कम्पनी’ के आकाओं के साथ पेश आया, वैसे हम उसके साथ पेश आयें। हम भी उसे नंगा कर दे, बेयारोमददगार बना दें।”
“कहना आसान है।” — ब्रजवासी बोला।
“वडी, क्या बोला, नी?”
“सोहल को अपने दुश्मन के सहयोगियों की, हिमायतियों की शिनाख्त थी, हमें ऐसी शिनाख्त कहां है?”
“वो शिनाख्त हमें बनानी होगी। कैसे भी बनानी होगी वरना हममें से एक नहीं बचेगा। कोई सोहल से बच जायेगा तो ‘भाई’ के उस सिंगापुर वाले बिग बॉस रीकियो फिगुएरा के कहर का शिकार हो जायेगा। फिरंगियों की जुबान में इसे कहते हैं सरवाइवल आफ दि फिटेस्ट। हम अपने आपको फिट करेंगे तो सरवाइव करेंगे वरना हमारा सितारा गुरुब है। वरना हमें सांप नहीं तो छछूंदर अपना निवाला बना लेगा। वडी, मैं ठीक बोला, नी? तुम लोगों को मेरी बात में कोई दम लगा, नी?”
तीनों के सिर एक साथ सहमति में हिले।
“कोई गुणी ज्ञानी ऐसे ही नहीं बोला साईं लोगो, कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। कोई दादा अपना कद कितना ही बड़ा क्यों न कर ले, चमचों का मोहताज जरूर रहता है। चमचे उसकी बैसाखियां बन जाते हैं। अब जब किसी की बैसाखियां हटा दी जायें तो उनके मोहताज का क्या होगा?”
“मुंह के बल गिरेगा, जी।” — भोगीलाल बोला।
“तेरा साईं जीवे। वडी देखना, ऐन ऐसा ही सोहल के साथ होगा।”
“कैसे होगा, भ्रा जी।” — पवित्तर सिंह बोला — “हम तो सोल की किसी बैसाखी को पहचानते नहीं!”
“वो पहचान बनानी होगी।”
“ये कहना गलत है” — ब्रजवासी बोला — “कि हम सोहल की किसी बैसाखी को नहीं पहचानते। वो कुशवाहा भी तो आज की तारीख में सोहल की बैसाखी ही बना हुआ है!”
“झूलेलाल! वडी, शुक्र है नी, कि किसी को उस गद्दार की याद आयी। उस कर्मांमारे को उसकी गद्दारी की सजा मिलना भी तो अभी बाकी है जो कि उसने सोहल का चमचा बनना कुबूल करके की थी!”
उस घड़ी वहां झामनानी का मुंह पकड़ने वाला कोई नहीं था, उसे ये बताने वाला कोई नहीं था कि कुशवाहा ने तो जो किया था गुरबख्शलाल की मौत के बाद किया था, खुद झामनानी ने तो गुरबख्शलाल की जिन्दगी में सोहल से मिल कर गुरबख्शलाल के सर्वनाश का सामान किया था, उसने सोहल को खुली पेशकश की थी कि अगर वो गुरबख्शलाल का पत्ता साफ कर दे तो वो सोहल के कहे मुताबिक ड्रग्स का धन्धा तो बन्द कर ही देगा, वो सोहल को इक्कीस तोपों की सलामी दिलवायेगा और खुद अपने हाथों से उसकी आरती उतारेगा। आज वही झामनानी दुबई और सिंगापुर से मिली शह के दम पर उछल रहा था और उसी धन्धे पर काबिज होने की तैयारी कर रहा था जिसके करीब भी न फटकने का उसने सोहल से वादा किया था। कल जो सोहल का जोड़ीदार बन के दिखा रहा था आज वो ही उसको नंगा और बेयारोमददगार बना कर खत्म करने का तमन्नाई था।
“साईं लोगो” — झामनानी फिर बोला — “वैसे भी कुशवाहा हमारे और सोहल के बीच की कड़ी है। हमें वो कड़ी तोड़नी होगी। दिल्ली के अन्डरवर्ल्ड में क्या हो रहा है, उसकी खबर सोहल को पहुंचाने वाला शख्स वो कर्मांमारा कुशवाहा है। हमें इस खबरची को खत्म करना होगा।”
“इतने से के होगा, जी?” — भोगीलाल बोला — “उस एक बैसाखी के हट जाने से तो इत्ता बड़ा रावण मुंह के बल मतियो गिरा!”
“साईं, हम उसकी और बैसाखियों की भी शिनाख्त करेंगे। और वो शिनाख्त कराने वाला एक साईं इत्तफाक से मेरी निगाह में आ गया है।”
“कौन?”
“उसका नाम मायाराम बावा है जो कि इस वक्त दिल्ली पुलिस की हिरासत में है। आज के इन्डियन एक्सप्रेस में उनके रवि खोसला नाम के रिपोर्टर की बाईलाइन के साथ एक खबर छपी है जो साईं लोगो में से किसी ने भी पढ़ी नहीं मालूम होती।”
“के कैवे है वो खबर?” — भोगीलाल बोला।
“साईं लोगो, उस खबर की सबसे ज्यादा चौंका देने वाली बात ये है कि पिछले दिनों सोहल दिल्ली में था। हो सकता है वो अभी भी दिल्ली में हो।”
“बस?” — ब्रजवासी बोला — “यही कहती है वो खबर?”
“वो खबर बहुत कुछ कहती है। और जो कुछ कहती है उसकी बुनियाद है मायाराम बावा नाम का वो शख्स जो कभी सोहल की गुजश्ता जिन्दगी में उसका जोड़ीदार था और जो सोहल की नस नस से वाकिफ होने का दावा करता है।”
“कैत्ता क्या है ओ बन्दा?” — पवित्तर सिंह बोला।
जवाब में झामनानी ने बड़े सब्र से दास्तान-ए-मायाराम बयान की।
“बल्ले!” — सुन कर पवित्तर सिंह बोला — “यानी कि सोल एक मामूली फर्म में मामूली नौकरी करने वाला मामूली एकाउन्टेंट अरविन्द कौल है! कई डकैतियों में करोड़ों रुपया लूट चुकने वाला सोल अब रिजक कमाने के लिए नौकरी का मोहताज बन गया है!”
“सरदार साईं” — झामनानी बोला — “वो मायाराम बोलता है कि वो सब सोहल की माया है, उसका स्टण्ट है। हम सोहल को उतना नहीं जानते जितना कि मायाराम सोहल को जानता है। कोई भी सोहल को उतना नहीं जानता, यहां तक कि पुलिस भी नहीं, जितना कि मायाराम सोहल को जानता है। मायाराम बोलता है कि उसने सोहल के पीछे पड़ के कम से कम नहीं तो दस महीने सोहल की फिराक में गुजार कर उसकी क्रिमिनल लाइफ को सीन टु सीन रीकंस्ट्रक्ट किया था। उसने तिनका तिनका जोड़ कर सोहल तक पहुंचने की सीढ़ी बनायी थी।”
“क्यों?”
“क्योंकि उसे सोहल से जाती अदावत थी, क्योंकि वो सोहल से बदला लेना चाहता था। सरदार साईं, इस वक्त अहम बात ये नहीं है, नी, कि उस मायाराम ने ऐसा क्यों किया? अहम बात ये है कि वो शख्स सोहल की बाबत जानकारी की खान बन गया है। अब अगर हम ने दिल से सोहल से लोहा लेना है, इससे पहले कि वो हम सब की हस्ती मिटा दे, अगर हमने उसकी हस्ती मिटा देनी है, तो ये आदमी हमारे काबू में होना चाहिये। ये आदमी हमें सोहल के ऐसे राज बता सकता है जिन्हें कोई नहीं जानता। ये हमें पूरी तफसील से बता सकता है कि सोहल कैसे ‘कम्पनी’ के डेढ़ दर्जन बड़े ओहदेदारों को मार गिराने में कामयाब हुआ!”
“उससे हमें के फायदा होगा?” — भोगीलाल बोला।
“अरे, साईं! वडी, जरा अक्कल से काम लो, नी। वडी, अगर तेरे को मालूम हो कि कोई कहां मार करेगा, कैसे मार करेगा तो तू बेहतर बचाव कर सकता है या तब जबकि तेरे को खबर ही नहीं होगी कि हमला कब होगा, कैसे होगा, किधर से होगा?”
“सिन्धी भाई ठीक कह रहा है।” — ब्रजवासी बोला — “खबरदार होना भी हथियारबन्द होने जैसा ही होता है।”
“तेरा साईं जीवे।” — झामनानी बोला।
“वो शख्स सोहल की नस नस से वाकिफ होने का दावा करता है तो यकीनन हमारे काम आ सकता है।”
“बहुत काम आ सकता है, नी। खासतौर से तब जबकि उसे सोहल से हम से भी ज्यादा रंजिश है। वो जेल में ही सोहल की वजह से है और उसका फांसी के फन्दे तक पहुंचना महज वक्त की बात है। किसी का ऐसा घोर शत्रु किसी दूसरे घोर शत्रु का परम मित्र होता है, साईं लोगो।”
“दूसरे घोर शत्रु?” — पवित्तर सिंह बोला — “यानी कि हम?”
“बिल्कुल।”
“तुम” — ब्रजवासी बोला — “मायाराम से मिले हो?”
“नहीं।”
“तो इतनी बातें कैसे जानीं?”
“वडी, अखबार से जानी, नी। बोला तो! बोला तो मैंने कि उस पर अपने एक जोड़ीदार हरिदत्त पंत के कत्ल का इलजाम है लेकिन वो कहता है कि वो कत्ल उसने नहीं, सोहल ने किया था जो कि आजकल गैलेक्सी ट्रेडिंग कारपोरेशन के नाम से जानी जाने वाली एक कम्पनी में अरविन्द कौल नाम का इज्जतदार एकाउन्ट्स आफिसर बना बैठा है।”
“उसके बयान की बिना पर पुलिस ने अरविन्द कौल की खबर न ली?”
“ली। लेकिन साबित कुछ न हुआ। अरविन्द कौल के उंगलियों के निशान तक दिल्ली पुलिस के रिकार्ड में मौजूद सोहल की उंगलियों के निशानों से न मिल पाये जो कि वो कौल सोहल होता तो जरूर मिलते।”
“ऐसे कैसे हो गया!”
“क्या पता कैसे हो गया!”
“अब बात क्या बनी?”
“बात ये बनी कि इन्डियन एक्सप्रेस के उस रवि खोसला नाम के रिपोर्टर ने अपने पर्चे में जो कुछ लिखा है उसमें जोर इस बात पर है कि मायाराम की बात सच हो सकती है।”
“हो सकती है? है नहीं?”
“वो ‘सच है’ नहीं कह सकता नी, क्योंकि ऐसा कहना पुलिस पर साफ इलजाम लगाना होगा कि वो लोग रिश्वत खाकर या किसी और लालच में आकर सोहल की तरफ हो गये। वो अपने अखबारी अंदाज में यही कह सकता है कि ऐसा हो सकता है कि मायाराम सच बोल रहा हो। हमें भी मायाराम का कोई फायदा तभी है जबकि हम ये मान के चलें कि वो सच बोल रहा है कि वो सोहल की नस नस से वाकिफ है और उसकी वाकफियत ये कहती है कि वो एकाउन्टेंट बाबू अरविन्द कौल ही सोहल है।”
“उस बाउ की हम खबर ले सकते हैं।” — पवित्तर सिंह बोला।
“वडी, अब नहीं ले सकते, नी।”
“क्यों?”
“क्योंकि वो गायब हो गया है।”
“गायब हो गया है! किद्दां गायब हो गया है?”
“जैसे हुआ जाता है। उसने नौकरी छोड़ दी है, घरबार बेच दिया है और किसी नामालूम जगह के लिए रुखसत हो गया है या कहीं जा छुपा है।”
“फेर तां ओ बाउ माईंयवा जरूर सोहल है वरना गायब क्यों हो गया?”
“बिल्कुल। अब अगर वो कौल सोहल है तो मायाराम की बात सच हुई न?”
“फेर तां होई।”
“और वो हमारे काम का आदमी हुआ न?”
“होया।”
“लेकिन सिन्धी भाई” — ब्रजवासी बोला — “तुम कहते हो वो गिरफ्तार है।”
“हम जमानत करा सकते हैं सुसरे की।” — भोगीलाल बोला।
“नहीं करा सकते।”
“अरे, क्यों नहीं करा सकते? मैजिस्ट्रेट को चान्दी का जूता मारो, पुलिस वालों को चान्दी का जूता मारो तो जमानत तो होवे ही होवे।”
“तुम्हारी बात ठीक है साईं, लेकिन वो स्टेज अब गुजर चुकी है।”
“इब के होया?”
“दिल्ली पुलिस मायाराम को पंजाब पुलिस के हवाले कर रही है जिसके पास कि मायाराम के खिलाफ डबल मर्डर और डकैती का केस पैंडिंग है। एक बार वो पंजाब पुलिस के हवाले हो गया तो न सिर्फ वो हमारी पहुंच से बाहर हो जायेगा, उसकी जमानत भी मुमकिन नहीं होगी क्योंकि पंजाब पुलिस के पास उसके खिलाफ बड़ा पुख्ता केस है। उसके खिलाफ दिल्ली वाला केस इतना मजबूत नहीं है, यहां उसकी जमानत हम करा सकते थे लेकिन वो स्टेज अब गुजर गयी।”
“तो?”
“तो ये कि हमें उसको जबरन रिहा कराना होगा।”
“के कह रिया है, भाई? जेल तोड़ने की बात कर रिया है या थाने पर हल्ला बोलने की सलाह दे रिया है?”
“वडी, साईं, मैं ऐसा कुछ नहीं बोला। ये दोनों ही काम हमारे बस के किधर हैं!”
“तो फिर?”
“फिर ये कि मैंने पता लगाया है कि कल दोपहरबाद पंजाब पुलिस की एक टीम दिल्ली पहुंच रही है, दिल्ली पुलिस मायाराम को उस टीम के सुपुर्द कर देगी जो कि रात को ही उसे लेकर अमृतसर के लिए रवाना हो जायेगी।”
“अमृतसर क्यों?”
“क्योंकि जिस डबल मर्डर और डकैती का इलजाम मायाराम पर है वो अमृतसर में ही हुई थी। वहां परसों सुबह दस बजे उसे मैजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जायेगा और उसका गुनाह उसकी जुबानी कुबूलवाने के लिए उसका लम्बा रिमांड लिया जायेगा।”
“कैदी को” — ब्रजवासी ने पूछा — “दिल्ली से साढ़े चार सौ किलोमीटर दूर ले जाया कैसे जायेगा? रेल से या बस से?”
“जेल वैन से।”
“जेल वैन?”
“ओ के होवे है?” — भोगीलाल बोला।
“वो एक मिनी वैन होती है जिसके तीन चौथाई हिस्से में लाकअप बना होता है। और बाकी के एक चौथाई हिस्से में पुलिस वालों के बैठने की जगह होती है। वो कैदियों को ढोने वाली बस का ही मिनी एडीशन होता है और जरूर वो वैन इसीलिये इस्तेमाल में लायी जाने वाली है क्योंकि एक ही कैदी ढोया जाना है। वैन के साथ सिर्फ चार पुलिस वाले होंगे जिनमें से एक ड्राइवर, एक हवलदार, एक सिपाही और एक सब-इन्स्पेक्टर होगा। हथियारबन्द सिर्फ सब-इन्स्पेक्टर और हवलदार होंगे।”
“इतनी बातें कैसे जान पाये, सिन्धी भाई?”
“वडी, पहाड़गंज थाने के एक हवलदार को सांठ कर जानी, नी। और क्या मेरे को झूलेलाल ने सपना दिखाया था उस कर्मांमारे के आइन्दा प्रोग्राम का?”
“जिसे तुमने जेल वैन कहा, उसका रात को लौटना क्यों जरूरी है?”
“क्योंकि मायाराम को दिल्ली में अभी तक किसी मैजिस्ट्रेट के सामने पेश नहीं किया गया। इस जिम्मेदारी से दिल्ली पुलिस ये कह के बचने जा रही है कि परसों सुबह हर हालत में उसे अमृतसर के किसी कोर्ट में पेश कर दिया जायेगा।”
“ओह!”
“वीर मेरे” — पवित्तर सिंह बोला — “तू कहीं ये तो नहीं कहना चात्ता कि तू उस बन्दे को, उस मायाराम को, जेल वैन से निकाल लेगा?”
“वडी, मैं नहीं, सरदार साईं, मैं नहीं। हम सब। हम सब कोई स्कीम सोचेंगे जिस पर हमारे आदमी अमल करेंगे।”
“सोच नहीं ली हुई कोई स्कीम पैल्ले से?”
“सच पूछो तो सोच ली हुई है।”
“क्या है स्कीम?”
“साईं लोगो, उस स्कीम का तब तक जिक्र बेकार है जब तक किे मुझे ये हामी न सुनायी दे जाये कि तुम सब साईं लोग मेरे साथ हो।”
“साथ न होने के अलावा हमारे पास क्या चारा है! हमने इनकार किया तो तू कैत्ता है कि तू हमारी लाशें गिरा कर यहां से अकेला चल देगा।”
“वडी, कहता तो यही हूं, साईं। मर्जी से नहीं कहता, कहना पड़ रहा है, कहलाया जा रहा है इसलिये कहता हूं, नी।”
“सिन्धी भाई” — ब्रजवासी व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला — “कैसे गिरायेगा हमारी लाशें? फूंक मार के चित्त कर देगा?”
झामनानी मुस्कराया।
“जब से लाल साहब की मौत हुई है” — भोगीलाल एकाएक अपना एक हाथ अपनी पतलून की जेब में सरकाता हुआ बोला — “मैंने खबरदार रहना शुरू कर दिया है।”
“वडी, साईं” — झामनानी पूर्ववत मुस्कराता हुआ बोला — “मैं समझा तेरी बात।”
“क्या समझा?”
“हथियारबन्द हो के आया है?”
“घनी तीखी अकल राखे है भेजे में, सिन्धी भाई।”
“वडी, मेरे को राई बराबर भी हैरानी नहीं होगी ये जान के कि अपना ब्रजवासी और सरदारजी भी हथियारबन्द हैं।”
“जैसे तुम नहीं हो!” — ब्रजवासी बोला।
“वडी, नहीं हूं, नी।” — झामनानी ने अपने दोनों हाथ कन्धों के ऊपर तक खड़े कर दिये — “तुम में से जो चाहे, आगे बढ़े और मेरी जामातलाशी ले ले।”
तीनों सकपकाये।
“फिर तो” — भोगीलाल बोला — “तू जरूर कोई मन्तर ही फेरेगा हमारे ऊपर अपने झूलेलाल का नाम लेकर।”
“बड़े साईं की मेहर की छतरी सिर पर हो” — झामनानी मुस्कराता हुआ बोला — “तो मन्तर भी चल सकता है।”
“हमें तो” — ब्रजवासी बोला — “कोई छतरी नहीं दिखाई दे रही!”
“छतरी तो सिर पर होती है। सिर उठाओ और मेरी छतरी देखने की जगह पहले अपनी अपनी छतरी चैक करो, साईं लोगो।”
तब झामनानी के स्वर में ऐसा अधिकार का पुट था कि तीनों के सिर अपने आप ही ऊपर को उठ गये। उनकी निगाहें छत पर पड़ीं तो जैसे उन्हें सांप सूंघ गया।
पूरी छत में जितने झरोखे थे, सब में से रायफल की एक एक नाल नीचे झांक रही थी और तमाम रायफलों का रुख उन तीनों की तरफ था।
“ओह!” — पवित्तर सिंह के मुंह से निकला — “तो इसलिये इतने दावे से कह रहा था कि अगर मीटिंग दा मकसद पूरा न होया तो हम में से तिन्न इधर ही रह जायेंगे!”
“इसीलिये” — ब्रजवासी बोला — “मीटिंग के लिए ऐसी जगह चुनी जहां कि हफ्तों हमारी लाशों का पता न चले!”
“कितना अच्छा बिरादरी भाई है हमारा झामनानी!” — भोगीलाल बोला।
“मैं अच्छा बिरादरी भाई ही हूं, भोगीलाल साईं, जो तुम लोगों को अपने में शामिल कर रहा हूं। मैं गुरबख्शलाल जैसी नीयत पकड़ता तो बिना ऊपर के हुक्म के तुम लोगों का पत्ता साफ करता और हेरोइन के व्यापार पर अकेला अपना दावा लगाता।”
“ओये, कमलया” — पवित्तर सिंह बोला — “हम कोई तेरे से बाहर हैं?”
“या हो सकते हैं?” — ब्रजवासी बोला।
“हम का बावले हैं?” — भोगीलाल बोला।
“हम तो, जी” — पवित्तर सिंह बोला — “वन फार आल एण्ड आल फार वन हैं।”
“झूलेलाल!” — झामनानी बनावटी चैन की सांस लेता हुआ बोला — “जान में जान आ गयी। मुझे बहुत बड़े पाप का भागी होने से बचा लिया तुम लोगों ने। ऊपर वालों के हुक्म की वजह से मुझे तुम्हारी लाशें गिरानी पड़ जातीं तो मैं ताजिन्दगी अपने आप से शर्मिन्दा रहता।”
“हम एक हैं।” — ब्रजवासी जोश से बोला।
“शुक्रिया, साईं, शुक्रिया। तो अब मैं हाथ नीचे गिरा लूं?”
“अरे! शर्मिन्दा कर रहे हो, सिन्धी भाई!”
झामनानी ने बड़ी अदा से हाथ नीचे किये और फिर बोला — “वडी, अब मैं बोलता हूं कि हमारा आगे का प्रोग्राम क्या होगा!”
“हम सुन रहे हैं।”
“नम्बर एक, हेरोइन का कारोबार आज से ही शुरू समझ लो, साईं लोगो, जिसमें हम चारों बराबर की पूंजी लगायेंगे और बराबर का मुनाफा कमायेंगे जो कि गुरबख्शलाल की ऐसी कमाई से कहीं ज्यादा होगा।”
“वो कैसे?”
“गुरबख्शलाल को इधर हेरोइन का धन्धा चालू रखने के लिए ‘कम्पनी’ को टोटल कमाई का बीस फीसदी का हिस्सा देना पड़ता था। वो हिस्सा हमें नहीं देना पड़ेगा तो हमारी कमाई गुरबख्शलाल से ज्यादा होगी या नहीं होगी?”
“क्यों नहीं देना पड़ेगा?”
“क्योंकि हिस्सा लेने वाला कोई है ही नहीं। ‘कम्पनी’ तो खत्म है। उस कर्मांमारे सोहल की वजह से खत्म है। दूसरे, हमें ‘भाई’ की शह है, माफिया डॉन रीकियो फिगुएरा की शह है। इसलिये बिना किसी की दखलअन्दाजी से इधर फिलहाल हमें अपने ढंग से ड्रग्स का कारोबार चलाने की पूरी इजाजत है।”
“बढ़िया।”
“चोखो।” — भोगीलाल बोला।
“तबित्तां ग्लैड।” — पवित्तर सिंह बोला।
“आगे के प्रोग्राम की दूसरी आइटम है मायाराम की पुलिस के चंगुल से रिहाई। उसकी एक स्कीम मैंने बनायी है। वो स्कीम क्या है, मैं बाद में कह सुनाऊंगा। स्कीम की कुछ तैयारियां भी करनी होंगी, उनकी बाबत भी मैं काफी वक्त रहते सब को बता दूंगा ताकि कोई साईं स्कीम में कोई सुधार करना चाहता हो या उसमें कोई नुक्स निकालना चाहता हो, तो वो उसका जिक्र कर सके। वडी, मैं ठीक बोला, नी?”
सब के सिर एक साथ सहमति में हिले।
“हमारे प्रोग्राम की तीसरी और अहम आइटम है सोहल का सफाया। इस बाबत ये कहना बहुत जरूरी है कि हम इस वहम से मुब्तला नहीं रह सकते कि हमारे हेरोइन के व्यापार में हाथ डालते ही वो हमारे पीछे नहीं पड़ जायेगा क्योंकि मैंने सुना है कि वो ऐसा आदमी है कि अव्वल तो वो धमकी देता नहीं, देता है तो हर हालत में उस पर खरा उतर कर जरूर दिखाता है। यानी कि खबर तो हमारी जरूर लेगा वो।”
“सलीम खान की तो न ली!” — ब्रजवासी बोला।
“वडी, मैं खुद हैरान हूं, नी, कि क्यों न ली! उसकी जो एक वजह मुझे दिखाई देती है वो ये है कि हमारे उस मरहूम जोड़ीदार ने इस मामले में कोई ऐसी चालाकी पकड़ी थी जिसकी वजह से उसका नाम हेरोइन के धन्धे से नहीं जोड़ा जा सका था। इसीलिये उसकी मौत तक, और मौत के बाद उसके धन्धे का पर्दाफाश होने तक, खुद हमें ही सलीम खान के इतने दिलेरीभरे कारनामे की खबर नहीं लगी थी। जरूर इसीलिये कुशवाहा को भी खबर नहीं लगी थी, नतीजतन वो आगे सोहल को कोई खबर नहीं कर सका था।”
“ऐसे तो हो सकता है कि हमारी भी खबर सोहल को न हो पाये!”
“शुरुआती दौर में कोशिश तो हमारी यही होगी लेकिन ऐसा हो पाना मुमकिन नहीं है। हमने ये धन्धा बहुत बड़े स्केल पर करना है इसलिये प्रचार होकर रहेगा। कुशवाहा नाम का हमारा दगाबाज कुत्ता वैसे ही इस सिलसिले में हमारी सूंघ में रहता है।”
“तुमने बोला तो था कि क्योंकि कुशवाहा हमारे और सोहल के बीच की कड़ी बना हुआ है इसलिये उसे तोड़ना होगा।”
“वडी, जरूर जरूर और जरूर तोड़ना होगा, नी। हमारे प्रोग्राम की वो भी एक अहम आइटम है।”
“बढ़िया।”
“साईं लोगो, इस मीटिंग के आखिर में मैं सोहल से मुकाबले वाली बात फिर दोहराना चाहता हूं। ये तो निश्चित है कि दिल्ली में हेरोइन का धन्धा फिर से खड़ा हो जाने की खबर सुनते ही वो बहुत तड़पेगा और नये साल की रात को हमें दी अपनी धमकी पर खरा उतर कर दिखाने के लिए वो हम पर चढ़ दौड़ेगा। मौजूदा हालात में हो सकता है कि ऐसा फौरन न हो पाये।”
“क्यों?”
“क्योंकि मायाराम की हालदुहाई की वजह से वो एकाएक दिल्ली से खिसक गया मालूम होता है।”
“बशर्ते कि” — पवित्तर सिंह बोला — “उस मायाराम दी बड़क सच होवे कि ओ अरविन्द कौल ही असल में सोल है।”
“मुझे मायाराम की बात पर यकीन है। इसीलिये अरविन्द कौल गायब है वरना उसके गायब होने का कोई मतलब ही नहीं था।”
“शायद वो” — ब्रजवासी बोला — “दिल्ली न लौटे! शायद वो हमारे पीछे अपने कोई चमचे लगा दे!”
“ये बात भी हमें मायाराम समझायेगा कि वो ऐसा कर सकता है या नहीं। वैसे मेरी जानकारी ये कहती है कि वो ऐसा नहीं करेगा। ऐसे कामों को वो हमेशा खुद अंजाम देता है। हाल में जब मुम्बई में गजरे और उसके ओहदेदारों को उसने अपना अल्टीमेटम जारी किया था तो एक एक की मौत का सामान उसने खुद किया था। बखिया को उसने खुद शूट किया था। उसके दस ओहदेदार उसने खुद मारे थे और तीन और की मौत की वजह वो खुद बना था। साईं लोगो, मेरी अक्कल यह कहती है कि वो जो कुछ करेगा, खुद करेगा। खुद करेगा तो दिल्ली भी लौटेगा। लिहाजा हम को उसकी ताक में तो रहना ही होगा, कोई ऐसी जुगत भी भिड़ानी होगी कि इससे पहले कि वो हम तक पहुंचे, हम उस तक पहुंच जायें और उसका सफाया कर दें। हम ऐसा कर पाये तो बड़े बॉस लोगों से जो शाबाशी और वाहवाही हमें हासिल होगी, वो बेमिसाल होगी।”
“लेकिन” — भोगीलाल बोला — “उस मायाराम का गूढ़ ज्ञान हमारे काम न आया तो?”
“तो क्या? तो हम उसके पेंदे पर एक लात जमायेंगे और उसे चलता करेंगे।”
“हूं।”
“साईं लोगो, उसके मामले में हमारा रिस्क सिर्फ उसे छुड़ाने का है। बस।”
“अगर” — ब्रजवासी बोला — “वो पसरने लग गया, बराबरी करने पर आमादा हो गया तो?”
“तो कल मरता आज मर जायेगा।”
“बिल्कुल ठीक कया, जी।” — पवित्तर सिंह बोला।
“वडी, अगर वो इनसान का बच्चा होगा तो इसी बात पर ताजिन्दगी हमारे पांव धो धो के पियेगा कि हमने उसे निश्चित मौत से बचाया। उसकी जिन्दगी उसका सबसे बड़ा इनाम होगा। मुझे उम्मीद नहीं कि वो किसी और इनाम का भी अभिलाषी होगा। ऊपर से ये न भूलो कि वो भी सोहल का उतना ही बड़ा दुश्मन है जितने बड़े कि हम हैं। बल्कि वो हमारे से भी बड़ा दुश्मन है। हमारी जिन्दगियां तो सोहल अभी बरबाद करेगा, उसकी तो वो कर भी चुका। साईं लोगो, मेरे को पक्की कि वो आदमी हमसे बाहर नहीं जायेगा और उसके जरिये सोहल के किसी कमजोर पहलू की, उसकी किसी दुखती रग की खबर हमें जरूर मिलेगी। अब इसी उम्मीद के साथ हम ये मीटिंग खत्म करते हैं कि झूलेलाल की किरपा से इससे पहले कि वो हम तक पहुंचेगा, हम उस तक पहुंच जायेंगे। उसका वार होने से पहले हम उस पर वार करने की जुगत करेंगे। बोलो आमीन।”
“आमीन।” — तीनों सम्वेत् स्वर में बोले।
सब-इन्स्पेक्टर जनकराज अपने एस.एच.ओ. नसीब सिंह के पास पहुंचा।
“सर” — वो बोला — “कौल ने कश्मीर का रुख नहीं किया।”
“कैसे जाना?” — एस.एच.ओ. उत्सुक भाव से बोला।
“एयरपोर्ट पर आउटगोईंग डोमेस्टिक फ्लाइट्स की पड़ताल से जाना। अरविन्द कौल का नाम और मार्फत गैलेक्सी ट्रेडिंग कारपोरेशन उसका पता इन्डियन एयरलाइन्स की मुम्बई की मार्निंग फ्लाइट की पैसेंजर लिस्ट में दर्ज है।”
“यानी कि वो मुम्बई गया है?”
“जी हां। और मुम्बई वो शहर है जहां कि सोहल ने अपने ज्यादातर कारनामों को अंजाम दिया था।”
“लिहाजा ये भी अपने आप में एक सबूत हुआ कि वो अरविन्द कौल असल में सोहल है!”
“एक तरह से हुआ तो सही!”
“और उसके एम्पलयार ने झूठ बोल दिया कि वो नौकरी छोड़कर हमेशा के लिए सोपोर चला गया था जो कि उसका होमटाउन था!”
“बच्चे को पीछे छोड़ कर! बीवी को पीछे छोड़ कर!”
“नीलम के बारे में ऐसा कैसे कह सकते हो? क्या पता वो कौल के साथ मुम्बई गयी हो!”
“नहीं हो सकता। ऐसा होता तो पैसेंजर लिस्ट में अरविन्द कौल के साथ नीलम कौल का नाम भी दर्ज होता।”
“हूं।”
“वो जरूर दिल्ली में ही है। दुधमुंहे बच्चे की मां का बच्चे के पास होना ही युक्तिसंगत लगता है।”
“मुझे तुम्हारी बात से इत्तफाक है।”
“थैंक्यू, सर।”
“अभी गोल मार्केट से हमारा वो आदमी नहीं बोला जो कि सुमन वर्मा के फ्लैट की निगरानी पर तैनात है?”
“अभी तो नहीं बोला!”
“यानी कि नीलम अभी तक वापिस वहां नहीं लौटी?”
“जाहिर है।”
“अब आगे क्या इरादा है?”
“मेरा इरादा तो नीलम के प्रकट होने का इन्तजार करने का ही है। आप कोई राय दें तो बात दूसरी है।”
“हमें कौल के एम्पलायर से एक बार फिर मिलना चाहिये।”
“हमें?”
“हां। इस बार मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूं। देखते हैं कौल के सोपोर की जगह मुम्बई का रुख करने की बाबत वो क्या कहता है!”
“आज छुट्टी का दिन है।”
“तो क्या हुआ? घर पर तो होगा?”
“क्या पता!”
“डायरेक्ट्री में उसके घर का टेलीफोन नम्बर होगा। मालूम करो।”
जनकराज ने किया।
मालूम हुआ कि वो अपने आफिस में ही था और शाम तक वहीं रहने वाला था।
शुक्ला ने बहुत संजीदगी से एस.एच.ओ. नसीब सिंह की बात सुनी।
“अब आप क्या कहते हैं?” — एस.एच.ओ. बोला।
“मैंने क्या कहना है?” — शुक्ला हाथ फैला कर बोला — “मैं तो वही कह सकता हूं जो प्रत्यक्ष है। मेरा कोई मुलाजिम अपने किन्हीं आइन्दा इरादों की बाबत मेरे से गलतबयानी करता है तो मेरा उस पर क्या अख्तियार है? वो कहता है वो उत्तर को जा रहा है लेकिन दक्षिण को चल देता है, पूर्व को चल देता है, पश्चिम को चल देता है तो मैं क्या कर सकता हूं? खासतौर से तब जबकि अब वो मेरा मुलाजिम भी नहीं। लेकिन” — शुक्ला एक क्षण ठिठक कर बोला — “इससे फर्क क्या पड़ता है कि वो सोपोर गया या मुम्बई गया? उसे मुम्बई में कोई काम होगा! उसे करके वो सोपोर का रुख कर लेगा!”
“शुक्ला साहब” — एस.एच.ओ. तनिक सख्ती से बोला — “हमें सोपोर वाली कहानी पर विश्वास नहीं।”
“क्यों?”
“इसलिये विश्वास नहीं क्योंकि आपका मुलाजिम अरविन्द कौल कोई कश्मीरी विस्थापित ब्राह्मण नहीं था, मशहूर इश्तिहारी मुजरिम सरदार सुरेन्द्र सिंह सोहल था।”
“फिर पहुंच गये उसी जगह पर!”
“हम शुरू से ही उसी जगह पर हैं, जनाब। वक्ती तौर पर आपने और आपके दोस्त योगेश पाण्डेय ने हमें गुमराह कर दिया था, हम आप लोगों के ऊंचे रुतबे और बड़ी हैसियत का रोब खा गये थे वरना हमने इतनी आसानी से उस शख्स को थाने से रुखसत न कर दिया होता जो अपने आपको आपका मुलाजिम कौल बताता था।”
“खामखाह रुखसत नहीं कर दिया था, ये साबित हो जाने के बाद रुखसत किया था कि वो सोहल नहीं था और वो लंगड़ा उसकी बाबत खामखाह झूठ बोल रहा था।”
“खामखाह कोई काम नहीं होता, जनाब। हर बात की कोई वजह होती है। आपने जो कौल की इतने जोरों से हिमायत की, जरूर उसकी भी कोई वजह थी।”
“क्या वजह थी?”
“आप बताइये।”
“तो मेरा कहना ये है कि कोई वजह नहीं थी। मैंने वो ही किया था जो मुनासिब था और जो एक एम्पलायर के तौर पर मुझे अपने एम्पलाई के लिए करना चाहिये था।”
“लिहाजा कौल की जगह आपका कोई और मुलाजिम होता तो भी आप ऐसे ही थाने दौड़े चले आते?”
“हां। और मैं आपको पुरजोर लफ्जों में बता देना चाहता हूं कि गैलेक्सी ट्रेडिंग कारपोरेशन गैंगस्टर्स और डकैतों की पनाहगाह नहीं है।”
“हो सकता है आपने इरादतन ऐसा न किया हो, आपने बेध्यानी में ऐसा किया हो।”
“क्या मतलब?”
“वो शख्स सोहल था लेकिन हो सकता है कि आपको इस हकीकत की खबर न हो। जवाब एकाएक न दीजियेगा, जरा सोच के दीजियेगा क्योंकि इस वक्त मैं आपके हक की बात कर रहा हूं।”
शुक्ला सकपकाया।
साफ जाहिर था कि एस.एच.ओ. अपने मातहत सब-इन्स्पेक्टर जनकराज के मुकाबले में, जो अब तक एक शब्द भी नहीं बोला था, कहीं ज्यादा काईंया और कहीं ज्यादा तजुर्बेकार आदमी था। ये भी साफ जाहिर हो रहा था कि उसके शुक्ला को ये जुबान देने में भी कोई भेद था कि उसने सोहल को अनजाने में अपनी मुलाजमत में रख लिया था।
“भई” — शुक्ला कठिन स्वर में बोला — “हो तो सकता है?”
“ये कि” — एस.एच.ओ. अपलक उसे देखता हुआ बोला — “अगर वो शख्स अरविन्द कौल होने की जगह कोई और था तो आपको इस बात की खबर नहीं थी?”
“हां।”
“ऐसा शख्स आपके ताल्लुक में कैसे आया?”
“क्या मतलब?”
“आपने किसी राह चलते को तो अपनी मुलाजमत आफर कर नहीं दी होगी?”
“ऐसा कहीं होता है!”
“तो?”
“मुझे एक काबिल एकाउन्टेंट की जरूरत थी, किसी ने कौल को रिकमैंड किया, मैंने उसे रख लिया।”
“किसने रिकमैंड किया?”
“भई, एक वाकिफकार ने, जो कि कौल का भी वाकिफ था और जानता था कि मुझे एकाउन्टेंट की जरूरत थी और कौल को नौकरी की जरूरत थी।”
“कौन हुआ वो शख्स?”
शुक्ला हिचकिचाया।
“नाम लीजिये उसका।”
“योगेश पाण्डेय।”
“यानी कि आपने मिस्टर योगेश पाण्डेय से जाना कि कौल एक कश्मीरी पंडित था जो कि विस्थापित होकर सोपोर से आया था?”
“हां। मुझे उसकी पर्सनल ट्रेजेडी की वजह से ही उससे बहुत हमदर्दी हो गयी थी, ऊपर से वो निहायत काबिल एकाउन्टेंट निकला था।”
“मिस्टर पाण्डेय कौल को कैसे जानते थे?”
“मुझे नहीं मालूम।”
“आपने कभी पूछा नहीं?”
“नहीं।”
“खुद मिस्टर पाण्डेय ने भी इस बाबत कभी कुछ नहीं बताया?”
“मेरे खयाल से तो नहीं बताया था। कभी बताया था तो मुझे ध्यान नहीं।”
“हूं। आपको कौल का सोपोर का पता मालूम है?”
“नहीं।”
“शायद उसने नौकरी की दरख्वास्त पर लिखा हो?”
“उस पर उसने लोकल पता लिखा था।”
“वो कौन सा हुआ?”
“केयर आफ योगेश पाण्डेय।”
“चलिये, पाण्डेय साहब का ही पता बता दीजिये।”
शुक्ला ने हिचकते हुए बताया।
“सर” — वे बाहर आकर जीप में सवार हुए तो जनकराज बोला — “आपने शुक्ला के सामने नीलम का जिक्र नहीं किया। उसे ये नहीं बताया कि वो सोहल के साथ मुम्बई नहीं गयी थी, दिल्ली में पता नहीं कहां थी और उसका बच्चा किसी और के हवाले था?”
“मैंने जानबूझ कर ऐसा नहीं किया था।” — एस.एच.ओ. बोला।
“क्यों?”
“क्योंकि शुक्ला और कौल उर्फ सोहल मुझे एक ही थैली के चट्टे बट्टे जान पड़ते हैं। मुझे अन्देशा था कि मैं वो जिक्र करता तो नीलम तो गोल मार्केट कभी वापिस लौटती ही नहीं, वो लड़की सुमन वर्मा भी उसके बच्चे के साथ ऐसी गायब होती कि हमें ढूंढे न मिलती।”
“ओह!”
“हमारी ट्रेजेडी ये है कि इन लोगों से सोहल के खिलाफ कुछ कबुलवा लेना बड़ी टेढ़ी खीर बन गया है और इस बात का कोई पुख्ता सबूत हमारे पास है नहीं कि वो कौल ही सोहल था। काश कौल के फिंगरप्रिंट्स मैंने रद्दी की टोकरी में न फेंक दिये होते।”
“उस वक्त क्या पता था कि उनकी फिर जरूरत पड़ जाने वाली थी!”
“वही तो!”
“अब आप योगेश पाण्डेय से जवाबतलबी करेंगे?”
“मेरी मजाल नहीं हो सकती। वो सी.बी.आई. के एक महकमे में डिप्टी डायरेक्टर है। मैंने शुक्ला की तरह उसके जबरदस्ती गले पड़ने की कोशिश की तो वो मेरी ऐसी क्लास लेगा कि मुझे दिन में सितारे नजर आने लगेंगे।”
“फिर क्या बात बनी?”
“अभी नहीं बनी लेकिन बनेगी।”
“कैसे?”
“हम अपने ए.सी.पी. से बात करेंगे। अगर वो भी योगेश पाण्डेय का खौफ खायेगा तो इस बाबत वो खुद आगे डी.सी.पी. से या जायन्ट कमिश्नर से बात करेगा। हमारा कोई तो उच्चाधिकारी ऐसा निकलेगा जिसे योगेश पाण्डेय से जवाबतलबी से गुरेज नहीं होगा!”
“बशर्ते कि हमारे उस उच्चाधिकारी को विश्वास आ जाये कि कौल ही सोहल था।”
“दिलायेंगे विश्वास किसी तरीके से।”
“है कोई तरीका आपकी निगाह में?”
“फिट तरीका तो यही है कि सोहल के फिंगरप्रिंट्स वाला वो कागज मिल जाये जो मैंने रद्दी की टोकरी में फेंक दिया था।”
“आपको उम्मीद है उसके मिलने की?”
“उम्मीद के खिलाफ उम्मीद है। तुम जानते ही हो कि सुबह जब जमादार सफाई के लिए आता है तो वो सारी रद्दी की टोकरियां बाकी कचरे के साथ अपने हथठेले में खाली कर लेता है और फिर वो सारा कचरा दूर कहीं कमेटी के खत्ते पर फेंक कर आता है। हम अभी थाने चल कर उस जमादार को तलब करते हैं और फिर उसे एक सिपाही के साथ खत्ते पर भेजते हैं जहां कि उसने एक एक कागज बीन कर उसका मुआयना करना होगा और फिेंगरप्रिंट्स वाला कागज तलाश करना होगा।”
“कोई नतीजा निकलेगा?” — जनकराज संदिग्ध भाव से बोला।
“कोई बड़ी उम्मीद तो नहीं है — क्योंकि खत्तों पर ऐसे कचरों को आग भी लगा दी जाती है और खत्तों को कमेटी का बड़ा ट्रक आकर खाली भी कर जाता है — लेकिन फिर भी कोशिश कर देखने में क्या हर्ज है?”
“सर, एक बात मुझे भी सूझ रही है।”
“क्या?”
“आपने आज का इन्डियन एक्सप्रेस देखा?”
“हां। उसमें छपी मायाराम की बाबत रवि खोसला की रिपोर्ट की वजह से पूछ रहे हो?”
“जी हां। अपनी रिपोर्ट में उसने इस बात पर बहुत जोर दिया है कि सोहल की बाबत मायाराम सच बोलता हो सकता है। हम उस रवि खोसला को और शह दे सकते हैं और उसे अपने अखबार में मायाराम के हक में और ज्यादा लिखने के लिए उकसा सकते हैं। यूं ये बात अपने आप ही हमारे उच्चाधिकारियों के नोटिस में आ जायेगी। नतीजतन योगेश पाण्डेय से जो जवाबतलबी इस घड़ी हमें बहुत मुश्किल लग रही है, वो तब इतनी मुश्किल नहीं रहेगी। योगेश पाण्डेय अपने रुतबे की ओट लेकर हमारे से टालमटोल का रवैया अख्तियार कर सकता है या बिल्कुल ही हमें डांट कर भगा सकता है लेकिन वो हमारे उच्चाधिकारियों से यूं नहीं पेश आ सकेगा। वो हमारे से बड़ा अफसर है, हमारे कमिश्नर से बड़ा अफसर नहीं है।”
“बात तो तुम ठीक कह रहे हो!”
“ये सारा सिलसिला उच्चाधिकारियों की निगाह में आ जाने पर इस बात की भी इन्क्वायरी हो सकती है कि क्यों हैडक्वार्टर में उपलब्ध सोहल की उंगलियों के निशान सोहल उर्फ अरविन्द कौल की उंगलियों के निशानों से नहीं मिलते पाये गये थे।”
“वो नौबत आने पर इसका यही जवाब हम पर ठोक दिया जायेगा कि कौल क्योंकि सोहल नहीं था इसलिये उसकी उंगलियों के निशान रिकार्ड में मौजूद सोहल की उंगलियों के निशानों से नहीं मिलते थे।”
“फिर तो कोई बात न बनी। लेकिन...”
एकाएक जनकराज ने जोर से चुटकी बजाई।
“क्या हुआ?” — एस.एच.ओ. बोला।
“सर, मुझे अभी सूझा है कि अब हमारे पास दो साधनों से दो सैट उपलब्ध हैं सोहल की उंगलियों के निशानों के। एक सैट वो जो हमें पंजाब पुलिस ने भेजा और दूसरा वो जो हमारे हैडक्वार्टर में महफूज है। जाहिर है कि फिंगरप्रिेंट्स के वो दोनों सैट आपस में मिलते होने चाहिये क्योंकि वो एक ही शख्स के फिंगरप्रिंट्स की प्रतिलिपियां हैं।”
“ठीक।”
“न मिलते हुए तो?”
“ऐसा कैसे हो सकता है?”
“मैंने एक सवाल किया है।”
“तो इसका साफ मतलब ये होगा कि या हमारे रिकार्ड के फिंगरप्रिंट्स गलत हैं या पंजाब पुलिस के रिकार्ड के फिंगरप्रिंट्स गलत हैं।”
“दुरुस्त। अब, सर ऐसी गलती एक जगह हो सकती है, सब जगह तो नहीं हो सकती।”
“मतलब?”
“सर, सोहल सात राज्यों का घोषित इश्तिहारी मुजरिम है। दिल्ली और पंजाब के अलावा महाराष्ट्र, राजस्थान, गोवा, तमिलनाडु और यू.पी. की पुलिस के पास भी उसके फिंगरप्रिंट्स हैं। यू.पी. की पुलिस के पास तो उसके सबसे प्रमाणित फिंगरप्रिंट्स हैं क्योंकि वो न सिर्फ वहां गिरफ्तार हुआ था बल्कि उसने इलाहाबाद जेल में सजा भी काटी थी। हम इन सब राज्यों की पुलिस को, खासतौर से इलाहाबाद सैंट्रल जेल के सुपरिटेंडेंट को, फैक्स भेजते हैं कि वो हमें अपने पास उपलब्ध सोहल के फिंगरप्रिंट्स की प्रतिलिपि भेजें। फिर देखेंगे कि फिंगरप्रिंट्स के मामले में क्या होता है और क्या नहीं होता!”
“वो काम तो होते होते होगा लेकिन एक काम तो तुम अभी कर सकते हो।”
“कौन सा?”
“हैडक्वार्टर पहुंचो और पंजाब पुलिस से हासिल हुए सोहल के फिंगरप्रिंट्स का रिकार्ड में उपलब्ध फिंगरप्रिंट्स से मिलान करके देखो। अगर वो प्रिंट्स मिलते पाये गये तो समझना कि इस सारी ड्रिल से कुछ हाथ नहीं आने वाला, तो समझना कि मायाराम की हालदुहाई में कोई दम नहीं कि कौल ही सोहल था लेकिन अगर वो न मिलते पाये गये तो हमारी जानकारी में आयी ये एक बड़ी बात होगी। बाकी स्टेट्स से आये फिंगरप्रिंट्स भी अगर हमारे रिकार्ड के फिंगरप्रिंट्स से ने मिलते पाये गये लेकिन आपस में मिलते पाये गये तो ये अपने आप में सबूत होगा कि हमारे रिकार्ड में उपलब्ध सोहल के फिंगरप्रिंट्स से छेड़खानी की गयी थी, वो सोहल के जेनुइन फिंगरप्रिंट्स नहीं थे। एक बार ये सिद्ध हो जाने पर ये बात अपने आप ही साफ हो जायेगी कि क्यों कौल अगर सोहल था तो उसके मेरे सामने लिये फिंगरप्रिंट्स हमारे रिकार्ड के फिंगरप्रिंट्स से नहीं मिलते पाये गये थे। जनकराज, बहुत उम्दा बात सोची तुमने। अब मेरी रद्दी की टोकरी वाले फिंगरप्रिंट्स न मिलने पर भी हमारे पास जरिया है ये साबित करने का कि कौल ही सोहल था। तुम यहां से कोई और सवारी करके हैडक्वार्टर पहुंचो, मैं थाने जाकर सब जगह फैक्स लगवाता हूं।”
“यस, सर।” — जनकराज जोश से बोला।
“मैं होटल सी-व्यू जाना चाहता हूं।” — विमल बोला।
“क्या फायदा, बाप?” — इरफान बोला — “वो तो ऐसा बन्द है कि...”
“वो होटल उसके मालिकान के कब्जे में आज आया है लेकिन बखिया की बादशाहत, उसका हैडक्वार्टर वो शुरू से रहा है। होटल में दाखिले के लिए बेसमेंट से जो सुरंग वाला रास्ता है, उसकी हो सकता है कि नये मालिकान को खबर न हो। हाल में चुपचाप गजरे के सिर पर जा खड़े होने के लिए भी हमने वही रास्ता इस्तेमाल किया था।”
“क्या पता वो रास्ता अब खुफिया न रहा हो, नये मालिकान को उसकी खबर हो!”
“ऐसा होगा तो होटल की मेन ऐन्ट्रेंस की तरह वो भी सील हो चुका होगा। ऐसा हुआ तो भीतर दाखिले की हम कोई और तरकीब सोचेंगे वरना उसी रास्ते को इस्तेमाल करेंगे।”
“बाप, तू होटल में दाखिल क्यों होना मांगता है?”
“वजह बाद में बताऊंगा। पहले मालूम कर कि सुरंग वाले रास्ते का राज खुल चुका है या वो राज अभी महफूज है।”
“ठीक।”
“आकरे का क्या हाल है?”
“चोखा हाल है। क्यों पूछा?”
“मुम्बई में ही है?”
“हां। और किधर जायेगा?”
“मेल मुलाकात भी है?”
“है।”
“अगर खुफिया सुरंग वाले रास्ते से दाखिला मुमकिन हुआ तो पिछली बार की तरह उधर के ताले-वाले खोलने के लिए हमें आकरे की जरूरत पड़ेगी।”
“मैं समझ गया, बाप। मैं जुहू जाता हूं, वहां अगर माहौल तेरे मतलब का हुआ तो मैं आकरे को साथ लेकर ही लौटूंगा।”
“बढ़िया।”
इरफान वहां से विदा हो गया।
“मैं साथ जाऊंगी।” — नीलम बोली।
“कहां? कहां साथ जायेगी?”
“जहां भी तुम जाओगे।”
“पागल हुई है क्या?”
“इसमें पागल होने वाली क्या बात है? और मैं तुम्हारे साथ आयी किस लिये हूं?”
“नीलम, नीलम हर जगह तेरा साथ मेरे लिये प्राब्लम बन सकता है।”
“वो क्यों नहीं बन सकता जिससे एक और एक ग्यारह होते हैं?”
“लेकिन...”
“मैं कुछ नहीं जानती। मुझे साथ लेकर जाना होगा।”
“लेकिन तू औरत...”
“सरदार जी, तब भी मैं औरत थी जब तुम मुझे क्लब-29 लूटने के लिए साथ लेकर गये थे।”
“तब तो तू छोकरा बनी हुई थी।”
“औरत का साथ गवारा नहीं तो वैसा छोकरा मुझे फिर बनाओ।”
“उसके लिए बहुत तैयारी करनी होगी।”
“करो।”
“फिर भी किसी ने तुझे पहचान लिया तो?”
“तो वही जो किसी ने तुम्हें पहचान लिया तो।”
“अजीब मुसीबत है।”
“मैं नहीं टलने वाली।”
“दिखाई दे रहा है मुझे।”
“वैरी गुड।”
“आई बड़ी वैरी गुड की सगी। अब खामोश बैठ और मुझे सोचने दे।”
नीलम खामोश हो गयी।
“इस्साभाई विगवाला को तलाश करना होगा।” — थोड़ी देर बाद विमल बोला।
“वो कौन है?” — नीलम बोली।
“तू नहीं समझेगी।”
“समझाओगे तो समझ जाऊंगी।”
“वो इधर का टॉप का विग मास्टर है। हालीवुड से ट्रेनिंग लेकर आया है। तेरा हुलिया मर्दाना बनाने के लिए उसकी मदद लेनी होगी।”
“वो तो तुम लेना लेकिन एक बात तो बताओ!”
“पूछो।”
“विग क्या होता है?”
“दुर फिटे मूं। कर दी न मिडल फेल वाली बात।”
“वो ही सही लेकिन...”
“विग सामने आयेगा तो जान जायेगी क्या होता है! अब जरा चुप करके बैठ। उसकी तलाश में मुझे एक दो जगह फोन करना होगा।”
फिर विमल टेलीफोन से उलझ गया।
रात के आठ बजे, जबकि खूब अन्धेरा छा चुका था, विक्टर की टैक्सी पर सवार विमल, इरफान और आकरे के साथ जुहू पहुंचा।
आकरे एक उस्ताद तालातोड़ था जो कि विमल के साथ पहले भी काम कर चुका था।
शाम को ही इरफान इस गुड न्यूज के साथ लौट आया था कि होटल में दाखिले का सुरंग वाला रास्ता उसे पहले जैसा ही मिला था।
यानी कि ‘कम्पनी’ के नये मालिकान को फिलहाल उसकी खबर नहीं थी।
होटल सी-व्यू के करीब एक किसी ट्रांसपोर्ट कम्पनी की गोदाम जैसी एक इमारत थी जो अमूमन बन्द रहती थी। उसके भीतर से एक सुरंग थी जो कि होटल के भीतर ऐसी जाकर फूटती थी कि जब होटल आबाद था तब भी सुरंग के रास्ते वहां पहुंचने वाले का होटल के सिक्योरिटी स्टाफ से आमना सामना नहीं होता था और वो साइड की लिफ्टों के जरिये सीधा होटल की उन चार मंजिलों में से किसी पर भी पहुंच सकता था, जो कि होटल में ‘कम्पनी’ के हैडक्वार्टर का काम करती थीं और जिन तक लॉबी की मेन लिफ्टों द्वारा नहीं पहुंचा जा सकता था।
गजरे के इन्तकाल के वक्त से वो सब उस सुरंग वाले रास्ते से खूब वाकिफ हो चुके थे।
विक्टर ने टैक्सी गोदामनुमा इमारत के सामने ले जाकर रोकी जो कि तब अन्धेरे में डूबी हुई थी। इमारत का लाल शटर नीचे गिरा हुआ था और मजबूती से बन्द था। उस शटर के पहलू में एक और बन्द दरवाजा था जो कि गोदाम के आफिसनुमा कमरे का था। उस दरवाजे का ताला आकरे ने चुटकियों में खोल दिया क्योंकि वो उसका जाना पहचाना था और वो उसे हाल ही में विमल के ही निर्देश पर पहले भी खोल चुका था।
विक्टर को टैक्सी में छोड़कर तीनों ने उस दरवाजे के भीतर कदम डाला।
पीछे विक्टर का काम था कोई खतरा जानकर टैक्सी का हार्न बजाकर उन्हें खबरदार करना। रात के सन्नाटे में, विमल को यकीन था कि, टैक्सी के हार्न की आवाज होटल की इमारत में कहीं भी सुनी जा सकती थी। और नहीं तो पांच मंजिल तक तो सुनी जा ही सकती थी जिनसे ऊपर उन लोगों ने नहीं जाना था।
इस्साभाई विगवाला से विमल का सम्पर्क हो गया था और मरहूम शमशेर भट्टी का हवाला देने पर वो उसे पहचान भी गया था। उसने कल सुबह तक विमल की जरूरत का सामान बना देने का उससे वादा किया था।
नीलम को विमल ये समझा कर पीछे छोड़ कर आया था कि जब तक इस्साभाई विगवाला उसके मेकअप का सामान नहीं बना देता था, तब तक नीलम का उसके साथ किसी अभियान पर निकलना ठीक नहीं था। बड़ी मुश्किल से नीलम ने कम से कम उस बार पीछे रुकना कुबूल किया था।
गोदाम का विशाल हाल पार करके वे सुरंग के दहाने पर पहुंचे और फिर टार्च की रोशनी उसके फर्श पर डालते हुए उसमें आगे बढ़े।
आगे जहां सुरंग खत्म होती थी, वहां एक बन्द दरवाजा था जिसका बिल्ट-इन लॉक भी आकरे ने बड़ी आसानी से खोल लिया।
उस दरवाजे को पार करते ही वे होटल में थे।
दबे पांव वे सीढियां चढने लगे।
“बाप” — रास्ते में इरफान दबे स्वर में बोला — “अब तो बोल हम यहां क्यों आये हैं?”
“हमें यहां कुछ कागजात तलाश करने हैं।” — विमल भी वैसे ही दबे स्वर में बोला।
“कैसे कागजात?”
“मसलन कोई ऐसी दस्तावेज जिस पर गजरे के दस्तखत हों...”
“वो मेंढक सा टरटराने वाला, सूरत से ही अनपढ़ दिखने वाला आदमी दस्तखत करता होगा!”
“आजकल इतना अनपढ़ कोई नहीं होता कि दस्तखत भी न कर सके।”
“खैर। और?”
“और हमने एक शेयर सर्टिफिकेट तलाश करना है।”
“कैसा शेयर सर्टिफिकेट?”
“सुनो। तुमने खुद मुझे बताया था कि होटल सी-व्यू बखिया या ‘कम्पनी’ की मिल्कियत नहीं था। इसकी मालिक ओरियन्टल होटल्स एण्ड रिजार्ट्स नाम की एक लिमिटेड कम्पनी है जिसमें, लोहिया ने मुझे बताया है कि, ‘कम्पनी’ के तकरीबन बीस फीसदी शेयर हैं। वो शेयर ‘कम्पनी’ की मिल्कियत सुवेगा इन्टरनेशनल के नाम हैं और बतौर मैंनेजिंग पार्टनर पहले बखिया के पास थे। बखिया मर गया था तो वो इकबाल सिंह के पास ट्रांसफर हो गये थे। फिर इकबाल सिंह भी मर गया था तो वो गजरे के पास ट्रांसफर हो गये थे।”
“अब तो गजरे भी मर गया। अब वो किस के पास ट्रांसफर हुए होंगे?”
“पहले हमने वो शेयर सर्टिफिकेट तलाश करना है, तभी मालूम होगा कि उनकी क्या पोजीशन है।”
“वो सर्टिफिकेट यहां होगा?”
“उम्मीद तो है।”
“कैसे उम्मीद है?”
“भई, मुझे जाती तौर से मालूम है कि अपनी जिन्दगी में बखिया होटल में ही इसकी चौथी मंजिल के एक सुइट में रहता था। इकबाल सिंह के पास खार में बंगला था लेकिन उसका तकरीबन वक्त होटल में ही गुजरता था। वो खार तभी जाता था जब उसे अपनी खूबसूरत पारसी बीवी लवलीन की याद सताती थी। यही हाल गजरे का था। उसकी मालाबार हिल पर ऐन लोहिया की कोठी की बगल में कोठी थी लेकिन वो भी होटल में ही डेरा जमाये रहना पसन्द करता था जहां कि अपनी सैक्रेट्री दिव्या के साथ उसकी बद्कारियां निर्विरोध चल सकती थीं। ‘कम्पनी’ के उन तीनों बड़े महन्तों के लाइफ स्टाइल से मुझे यही अन्दाजा होता है कि शेयर सर्टिफिकेट या उसकी किस्म के और जरूरी कागजात यहीं होंगे।”
“न हुए तो?”
“तो समझेंगे कि मेहनत जाया गयी। बन्द होटल में घुसने का खतरा नाहक मोल लिया। हर कोई हर बार तो कामयाब नहीं हो सकता न, वीर मेरे!”
“चौथी मंजिल आ गयी।”
चौथी मंजिल पर सबसे पहले टार्च के सीमित प्रकाश में विमल ने गजरे के आफिसनुमा कमरे में कदम रखा जहां अपनी एग्जीक्यूटिव चेयर पर बैठे बैठे उसने विमल के सामने अपनी कनपटी से पिस्तौल सटा कर खुद अपना भेजा उड़ा दिया था।
वहां विमल को नाकामी का मुंह न देखना पड़ा।
जिन दो चीजों की विमल को तलाश थी उनमें से एक — गजरे का पासपोर्ट जिस पर कि उसके दस्तखत थे — उसकी टेबल के एक दराज में से मिली और दूसरी — शेयर सर्टिफिकेट — आफिस सेफ से बरामद हुई जिसका ताला भी आकरे ने जैसे तैसे, कदरन ज्यादा वक्त लगा कर, खोल ही लिया था।
“धन्न करतार!” — विमल के मुंह से निकला।
“अब?” — इरफान बोला।
“अब हर खोला गया ताला बन्द करते हुए हम वापिस।” — विमल बोला।
“वापिस कहां?”
“नागपाड़ा। जहां कि फोर्जरी का उस्ताद दरबारी लाल पाया जाता है।”
दरबारी लाल की बाबत विमल को सलाउद्दीन से मालूम हुआ था। वो नागपाड़ा के इलाके में अलेग्जेन्ड्रा सिनेमा के करीब की एक चाल में पाया जाता था। विमल पहली बार उससे तब मिला था जबकि उसने उसका पी. एन. घड़ीवाला के नाम वाला बड़ोदा से जारी हुआ नकली ड्राइविंग लाइसेंस बनाया था। उससे उसकी दूसरी मुलाकात असगांव में हुई थी जहां कि वो विमल का रतन रंगीला के नाम का नकली ड्राइविंग लाइसेंस बनाने और गजविलास फोर्ट वाली डिस्टिलरी के जनरल मैनेजर रविकांत रायचा के एक चिट्ठी पर नकली दस्तखत बनाने पहुंचा था। वो एक चुसके हुए आम जैसी सूरत और फूंक से उड़ जाने वाली किस्म के जिस्म वाला बूढ़ा आदमी था जो पहली बार विमल से ऐसे पेश आया था जैसे दस हज़ार रुपये लेकर उसका काम करके वो धन्धा नहीं कर रहा था, उसे कोई खैरात दे रहा था लेकिन असगांव में दूसरी मुलाकात पर वो साफ साफ विमल से भयभीत दिखाई दिया था।
विमल को देखकर दरबारी लाल सकपकाया। बाईफोकल्स में से झांकती उसकी आंखों से साफ मालूम होता था कि विमल की आमद से वो विचलित हुआ था।
“नमस्ते।” — विमल मुस्कराता हुआ बोला।
जवाब में दरबारी लाल का सिर सहमति में हिला।
“मुझे पहचाना?”
उसका सिर फिर सहमति में हिला।
“यानी कि ये हवाला देने की जरूरत नहीं कि मुझे भिंडी बाजार के मुसाफिरखाने वाले हाजी अलताफ ने भेजा है?”
उसने इनकार में सिर हिलाया।
“आप खैरियत से हैं बुजुर्गवार? तबीयत ठीक है आपकी?”
“हां। काम बोलो।”
“काम वही है जो...”
“बोलो।”
“ये एक शेयर सर्टिफिकेट है।” — विमल ने होटल सी-व्यू से बरामद किया सर्टिफिकेट उसके सामने रखा — “इसमें शेयर होल्डर की जगह सुवेगा इन्टरनेशनल का नाम दर्ज है और इन शेयरों को बेचने का अख्तियार सुवेगा के मैंनेजिंग पार्टनर को है जो कि व्यास शंकर गजरे है। ये” — विमल ने गजरे का पासपोर्ट पेश किया — “गजरे का पासपोर्ट है जिस पर उसके दस्तखतों का नमूना है। तुमने गजरे के दस्तखत फोर्ज करके इन शेयरों की सेल राजा गजेन्द्र सिंह नाम के एक एन.आर.आई. के नाम दिखानी है जो कि नैरोबी से यहां आया है। एक नकली रसीद भी बनानी होगी जिससे ये जाहिर हो कि गजरे ने इन शेयरों की कीमत डॉलर में काठमाण्डू में हासिल की थी। काठमाण्डू में गजरे सोल्टी ओबराय में ठहरा था। वो वहां कब ठहरा था, कितने दिन ठहरा था, कौन से कमरे में ठहरा था, ये सब विवरण इस कागज पर” — विमल ने एक चिट सी शेयर सर्टिफिकेट और पासपोर्ट के पहलू में रखी — “दर्ज है।”
“और?”
“हो जायेगा ये काम?”
“और?”
दाता!
“बेजार हो मेरी आमद से?” — प्रत्यक्षत: वो बोला।
दरबारी लाल खामोश रहा।
“पहली बार जब मैं यहां आया था तो तुम मेरे से ऐसा कड़क पेश आये थे कि...”
“तब मैं तुम्हारी असलियत से वाकिफ नहीं था।”
“अब वाकिफ हो?”
“हां। तभी तो तुम्हारे बुलावे पर असगांव गया था। अपना ठीया छोड़ कर। सब काम छोड़ कर। खड़े पैर।”
“मनमानी उजरत एडवांस में लेकर।”
“मुझे उजरत नहीं चाहिये।”
“क्या! उजरत नहीं चाहिये?”
“तुम्हारी उजरत नहीं चाहिये।”
“तो क्या सरकारी उजरत चाहिये?”
“सरकारी उजरत?”
“जो कि मेरी उजरत से कहीं ज्यादा होगी! तीन लाख रुपये होगी सरकारी उजरत। मुझे गिरफ्तार करा के मेरे सिर पर लगा इनाम हासिल करने का तो इरादा नहीं है?”
“नहीं है। होता तो पहले ही न करता ये काम?”
“तुमने खुद कहा कि पहले तुम्हें मेरी असलियत नहीं मालूम थी।”
“बेटा, जो तुम कह रहे हो, उसका खयाल करने की भी मेरी मजाल नहीं हो सकती।”
“तो फिर उजरत क्यों नहीं चाहिये?”
“क्योंकि मेरे लिये यही बहुत बड़ी उजरत होगी कि मैं तुम्हारे किसी काम आया।”
“कमाल है!”
“तुम खुदा के बन्दे हो, सखी हातिम हो, राबिनहुड हो, मैं तुम्हारी लम्बी उम्र की दुआ करूंगा। और काम बोलो।”
“राजा गजेन्द्र सिंह का पासपोर्ट बनाना है। और कुछ ऐसे कागजात बनाने हैं जिससे ये स्थापित हो कि मूल रूप से पटियाला के रहने वाले राजा साहब अब नैरोबी में रहने वाले एन.आर.आई. (अनिवासी भारतीय) हैं जो कि हाल ही में यहीं सैटल होने के लिए वापिस इन्डिया लौटे हैं।”
उसने खामोशी से सहमति में सिर हिलाया।
“पासपोर्ट पर केनिया की और योरोप के कुछ देशों की वीसा एन्डोर्समेंट होनी चाहियें और ये एन्डोर्समेंट होनी चाहिये कि राजा साहब अफ्रीकन और योरोपियन देशों में आते जाते रहते हैं।”
उसका सिर फिर सहमति में हिला।
“और एक इन्टरनेशनल ड्राइविंग लाइसेंस भी राजा साहब के पास होना चाहिये।”
“राजा साहब के दस्तखतों का नमूना...”
“हाजिर है।”
विमल ने उसी से एक कागज लेकर उस पर सात आठ दस्तखत बनाये और कागज उसे सौंपा।
“पासपोर्ट के लिए तसवीर...”
“अभी तुम ही खींचोगे।”
दरबारी लाल की भवें उठीं।
“बाथरूम किधर है?”
दरबारी लाल ने एक बन्द दरवाजे की तरफ इशारा किया।
जो हैण्डबैग विमल अपने साथ लाया था, उसे उठाये वो बाथरूम की तरफ चल दिया।
दस मिनट वो बाथरूम में बन्द रहा।
जब वो बाहर निकला तो वो एक बेहद रोबीला सिख लग रहा था। उसके चेहरे पर ईस्साभाई विगवाला का ही कमाल फुल दाढ़ी मूंछ थीं, आंखों पर प्लेन शीशों वाला स्टाइलिश चश्मा था जिसके लैंस धूप में अपने आप काले हो जाते थे, सिर पर काली फिफ्टी के साथ लाल पगड़ी थी, जिस्म पर सूट वही था जिसे कि वो वहां पहन कर आया था लेकिन अब कमीज सफेद थी और उस पर हीरे के क्लिप के साथ लाल टाई लगी हुई थी।
उस बहुरूप में इजाफा पांच हीरे जड़ी अंगूठियां और एक सोने का भारी कड़ा भी करता था लेकिन महज पासपोर्ट के लिए तसवीर खिंचवाने के लिए उस घड़ी उन चीजों की जरूरत नहीं थी।
दरबारी लाल ने बड़ी दक्षता से अपनी जरूरत के मुताबिक उसकी तसवीरें खींचीं।
“कितना टाइम लगेगा?” — वो उससे फारिग हुआ तो विमल बोला।
“पासपोर्ट और उससे ताल्लुक रखते कागजात तैयार करने में तो तीन चार दिन लगेंगे अलबत्ता शेयर सर्टिफिकेट और रसीद वगैरह तो तुम कल सुबह ही ले जा सकते हो।”
“ठीक है। ये...”
विमल ने उसकी तरफ रबड़ बैंड में बन्धे पांच पांच सौ के नोटों का एक पुलन्दा बढ़ाया।
तत्काल दरबारी लाल जोरों से इनकार में सिर हिलाने लगा।
“तुम्हारा खर्चा भी तो होगा!” — विमल आग्रहपूर्ण स्वर में बोला — “कम से कम वो ही...”
“जब पासपोर्ट लेने आओगे तो ले लूंगा।”
“मर्जी तुम्हारी।”
उसने एक आह सी भरते हुए हाथ वापिस खींच लिया।
“बाप” — इरफान ने विमल को बताया — “कोई अन्डरवर्ल्ड में फैला रहा है कि ‘भाई’ तेरे से मिलना मांगता है।”
“कैसे मिलना मांगता है?” — विमल हड़बड़ाया — “वो अब इधर पाया जाने लगा है या मेरे को दुबई जाना होगा?”
“दोनों ही बातें हो सकती हैं?”
“मैं दुबई कैसे जा सकता हूं? दुबई जाने के लिए पासपोर्ट की जरूरत होती है। मेरे को कौन देगा पासपोर्ट?”
“जाली?”
“मुहैया हो सकता है। लेकिन मैं क्यों रिस्क लूं पकड़े जाने का जाली पासपोर्ट पर सफर करके? मेरे को ‘भाई’ से क्या लेना देना है?”
“उसे होगा।”
“तो वो रिस्क ले मुम्बई में कदम रखने का।”
“क्या पता उसका ऐसा ही इरादा हो! क्या पता वो अपने इस इरादे पर अमल कर भी चुका हो!”
“यानी कि वो मुम्बई पहुंचा हुआ होगा?”
“उसको कोई वान्दा नहीं। मुम्बई के अक्खे अन्डरवर्ल्ड में मशहूर है कि वो ऐसे इधर आता जाता रहता है।”
“कैसे आता जाता रहता है? प्लेन से सफर करने की तो उसकी मजाल होती नहीं होगी!”
“और भी तरीके हैं दुबई से इधर पहुंचने के। बाप, क्या भूल गया कि बादशाह अब्दुल मजीद दलवई के स्वैन नैक प्वाइंट वाले कैसीनो पर किधर किधर से लोग आते थे?”
“यानी कि वो चोरी-छुपे समुद्री रास्ते से इन्डिया में कदम रखता होगा?”
“जरूरत पड़ने पर ऐसीच करता होगा, बाप। अव्वल तो समुद्री रास्ते से उसकी आमद की किसी को खबर नहीं लगती होगी, लगती होगी तो जरूर कोस्टल गार्ड लोग उसकी तरफ से पीठ फेर कर खड़े हो जाते होंगे।”
“ऐसा?”
“बरोबर, बाप। ऐसीच तो वो आज तक सलामत नहीं है!”
“क्यों मिलना मांगता होगा वो मेरे जैसे मामूली आदमी से?”
“मिलेगा तो बोलेगा।”
“कैसे मिलेगा? कोई इशारा छोड़ के रखा है उसने?”
“रखा है। जो मुलाकात की बाबत अन्डरवर्ल्ड में फैला रहा है, वो ये भी बोल के रखा है कि आगे की बातचीत उस शख्स से होगी जो रात नौ बजे पास्कल के बार में अपनी कमीज या कोट के काज में सफेद गुलाब लगा के बैठा मिलेगा। पास्कल का बार मालूम किधर है?”
“मालूम। रात नौ बजे कौन से दिन?”
“किसी भी दिन।”
“क्या मतलब?”
“बाप, लगता है कोई रोज उधर ड्यूटी भरता होगा ये देखने के वास्ते कि नौ बजे सफेद गुलाब वाला कोई भीड़ू उधर पहुंचा या नहीं!”
“कमाल है!”
“तू जायेगा उधर?”
“इतना बड़ा बाप बुलाता है तो वजह तो मालूम होनी चाहिये!”
“‘भाई’ थोड़े ही उधर मौजूद होगा?”
“कोई तो होगा जो बोलेगा कि ‘भाई’ किधर था और क्या मांगता था!”
“यानी कि जायेगा?”
“क्या हर्ज है?”
“बाप, ये तेरे खिलाफ कोई साजिश भी हो सकती है।”
“कैसी साजिश?”
“तेरी लाश गिराने की साजिश।”
“जो शख्स मेरे से मिलना मांगता है, वो मेरी लाश क्यों गिराना चाहेगा?”
“ये अफवाह भी हो सकती है बाप।”
“क्या अफवाह हो सकती है?”
“यही कि ‘भाई’ तेरे से मिलना मांगता है।”
“यानी कि कोई मुझे उधर बुलाने के लिए, बुला कर मेरी लाश गिराने के लिए ‘भाई’ का नाम इस्तेमाल कर रहा होगा?”
“क्या नहीं हो सकता?”
“हो तो सकता है!” — विमल कुछ क्षण सोचता रहा और फिर बोला — “हमें सावधानी बरतनी होगी।”
“कैसे?”
“पास्कल के बार को वाच करके रखना होगा और ये जाहिर करना होगा कि उधर सोहल ने खुद आने की जगह अपना आदमी भेजा था।”
“आदमी कौन?”
“मैं।”
पास्कल का बार धारावी के एक्रेजी के नाम से जाने जाने वाले इलाके में स्थित था।
ठीक नौ बजे अपने फ्रेंचकट दाढ़ी मूंछ वाले मेकअप में और नयी पोशाक — शेरवानी, पायजामा, तुर्की टोपी — में विमल बार में बार काउन्टर के करीब एक टेबल पर मौजूद था। उस घड़ी उसकी शेरवानी के एक काज में एक सफेद गुलाब लगा हुआ था। उसके सामने बियर की बोतल रखी थी जिसमें दो तिहाई बियर अभी बाकी थी। बाकी की एक तिहाई उस गिलास में थी जिसे विमल मेज पर से उठा कर कभी कभी होंठों से लगा लेता था और थोड़ी बहुत बियर चुसक लेता था।
हाल में उससे परे लेकिन उसी पर निगाह जमाये अलग अलग स्थानों पर इरफान, विक्टर और आकरे मौजूद थे। वे तीनों हथियारबन्द थे और कैसी भी इमरजेन्सी के लिए तैयार थे।
विमल प्रत्यक्षत: वहां लापरवाही की प्रतिमूर्ति बना बैठा था लेकिन वास्तव में उसकी निगाह पैन होती हुई कई बार सारे बार में घूम चुकी थी और उसे किसी ऐसी सूरत के लिए खंगाल चुकी थी जिसकी कि कोई अतिरिक्त दिलचस्पी उसमें होती।
फिलहाल ऐसी कोई सूरत उसे वहां नहीं दिखाई दी थी।
अलबत्ता वो दो नौजवान लड़कियों की निगाहों में जरूर था जो कि रह रहकर छुपी निगाहों से उसकी तरफ देख रही थीं और आपस में खुसर पुसर कर रही थीं। उनमें से एक कसी हुई जीन और स्कीवी पहने थी और दूसरी एक कालर वाली मर्दाना स्टाइल की कमीज के साथ एक घुटनों से काफी ऊंची स्कर्ट पहने थी।
तब बार में अभी वैसी भीड़ नहीं थी जैसी कि रात की उस घड़ी वैसी जगहों पर अपेक्षित होती थी।
एकाएक स्कर्ट वाली लड़की अपनी सहेली से अलग हुई और लापरवाही से चलती हुई विमल के करीब पहुंची।
“हल्लो।” — वो उसके सामने बैठती और बड़े चित्ताकर्षक ढंग से मुस्कराती बोली।
“हल्लो!” — विमल भावहीन स्वर में बोला।
“मैं तानिया।”
विमल ने अपना कोई परिचय देने की कोशिश न की।
“इधर अकेला बैठा है, मैन।” — वो चहकी — “सोचा कम्पनी मांगता होंयेगा।”
“नहीं मांगता।” — विमल शुष्क स्वर में बोला।
वो हड़बड़ाई, फिर बोली — “बट, मैन...”
“नो बट। नो मैन। उठ के खड़ी हो। कौन बोला तेरे को इधर आ के बैठने को?”
वो उछलकर खड़ी हुई।
“गो पैडल युअर फैट आस एल्सवेयर।”
उसका चेहरा अपमान से जल उठा। पांव पटकती वो वहां से रुखसत हुई।
पीछे विमल ने यूं बियर की एक चुस्की मारी जैसे कुछ हुआ ही न हो।
बार के परले कोने के करीब दो आदमी खड़े थे जिन्होंने बड़े गौर से वो नजारा देखा था। उनमें से एक लम्बा और कदरन अच्छी सूरत वाला था। दूसरा ठिगना और मोटा था और साफ साफ हल्का आदमी लगता था।
“वैसे तो झोलझाल लगता है” — लम्बा दबे स्वर में बोला — “पण बोलता कड़क है।”
“छोकरी नहीं मांगता।” — ठिगना भी वैसे ही दबे स्वर में बोला।
“नौ बजे नहीं मांगता। जब पोशाक में सफेद गुलाब लगाये हो तब नहीं मांगता।”
“यानी कि ये हमारा आदमी हो सकता है?”
“सफेद गुलाब हर किसी की पसन्द तो नहीं होता! फिर भी इत्तफाक हो ही जाते हैं। मालूम करना पड़ेगा।”
“कैसे?”
“अभी पता चलता है।”
लम्बा तत्काल आगे बढ़ा।
उसका जोड़ीदार उसके साथ हो लिया।
दोनों बार के विमल वाले कोने पर पहुंचे। लम्बे ने एक उड़ती निगाह विमल पर डाली और फिर बारमैन से बोला — “बियर दे।”
बारमैन ने सहमति में सिर हिलाया लेकिन वो अभी घूमा भी नहीं था कि लम्बा बोला — “जाने दे। इधर है।”
और उसने हाथ बढ़ा कर विमल की मेज पर रखी बियर की बोतल उठा ली। उसने विमल की तरफ देखा तो उसके चेहरे पर एक शैतानी मुस्कराहट आयी और वो बोला — “तेरा मेरा जो कहे वो है छोटे दिल का। मालूम?”
“मालूम।” — विमल सहज भाव से बोला — “बोतल नीचे रख।”
वो हंसा, फिर उसका बोतल वाला हाथ उसके मुंह की तरफ उठा।
विमल ने बैठे बैठे ही अपने पांव की एक प्रचंड ठोकर उसके घुटने पर जमायी। तत्काल लम्बे के मुंह से ऐसी आवाज निकली जैसे कि टायर में से हवा निकली हो। बोतल उसके हाथ से छूट गयी, बियर उसके मुंह से फुहार की तरह निकली और वो पीड़ा से कहराता हुआ दोहरा हुआ।
ठिगना छलांग मार कर आगे आया। अब उसके हाथ में एक तीखा चाकू दिखाई दे रहा था।
विमल ने बड़े निर्विकार भाव से वो रिवॉल्वर निकाल कर उसे दिखाई जो अब तक उसकी जांघ के नीचे दबी हुई थी और बोला — “क्या!”
ठिगने ने जोर से थूक निगली और चाकू को बन्द करके चुपचाप अपनी जेब में रख लिया।
“इसके घुटने की कटोरी चटक गयी मालूम होती है” — विमल एक सरसरी निगाह दोहरे हुए लम्बे पर डालता हुआ बोला — “इसे हस्पताल ले के जा। मर जाये तो ये फूल” — उसने शेरवानी से सफेद गुलाब निकालकर ठिगने की तरफ उछाल दिया — “इसकी कब्र पर चढ़ा देना।”
ठिगने ने जवाब न दिया, उसने फूल भी न उठाया, उसने अपने साथी को सहारा दिया और उसकी एक टांग पर उसे चलाता हुआ बाहर को चल दिया।
बियर की नयी बोतल जैसे जादू के जोर से विमल की टेबल पर प्रकट हुई।
विमल की निगाह बाहर जाते उन दोनों का अनुसरण कर रही थी। वे दिखाई देने बन्द हो गये तो उसने वेटर को बिल लाने का इशारा किया। फिर उसने बिल चुकाया, एक फरमायशी जमहाई ली और फिर सहज भाव से बाहर की तरफ बढ़ा।
उसके आसपास का वातावरण, जो थोड़ी देर के लिए स्तब्ध हो गया था, फिर नार्मल हो गया और शोरशराबे में तब्दील हो गया।
ठिगने ने अपने जोड़ीदार को बाहर खड़ी एक टैक्सी की पिछली सीट पर डाला और दरवाजा बन्द करके एक तरफ बढ़ा।
“किधर जाता है?” — लम्बा तत्काल बोला।
“हौसला रख।” — ठिगना बोला — “फोन करके आता हूं।”
“मेरा घुटना...”
“अभी ठीक हो जायेगा। अभी खामोश बैठ।”
“वो सोहल था।”
“बोला न, अभी खामोश बैठ।”
ठिगना फुटपाथ पर आगे उस तरफ बढ़ा जिधर कि एक टेलीफोन बूथ था। बूथ का दरवाजा टूटा हुआ था और वो बन्द होने की जगह एक तरफ झूल रहा था। उसने भीतर कदम रखा और फिर सड़क की ओर पीठ फेरकर एक नम्बर डायल किया। दूसरी तरफ से आवाज आयी तो उसने कायन बाक्स में एक सिक्का डाला। फिर उसने बोलने के लिए मुंह खोला ही था कि एक हल्की सी क्लिक की आवाज उसे सुनाई दी और फिर उसके बायें कान में जैसे लोहे की सलाख दाखिल हुई।
“नाम बोल।” — उसके कान से रिवॉल्वर की नाल सटाये विमल क्रूर स्वर में बोला।
“है... है... हैदर।” — ठिगना हकलाया।
“है है हैदर। अगर अभी था था हैदर नहीं बनना चाहता तो एक सैकेंड में बोल क्या मांगता है?”
“तू... तू... सोहल है?”
“ये मेरे सवाल का जवाब नहीं है।”
“अगर तू सोहल है तो...”
“लगता है तेरा फातिहा यहीं पढ़ना होगा।”
“ठहर। ठहर। मुझे फोन... लाइन कट जायेगी।”
विमल ने सहमति में सिर हिलाया।
हैदर फोन काल की तरफ आकर्षित हुआ तो विमल ने उसके हाथ में थमे रिसीवर को थोड़ा यूं घुमा दिया कि उसे भी दूसरी तरफ से आती आवाज सुनाई देने लगी।
“हल्लो।” — कोई दूसरी तरफ से बोला — “कौन?”
“बाप, मैं हैदर।”
“हैदर! कोई आया?”
“आया, बाप। तभी तो फोन लगाया!”
“कौन! कौन है वो?”
“पता नहीं। पण मेरे को तो सोहल ही जान पड़ता है। और कौन ऐसी दीदादिलेरी से...”
“स्टोरी नहीं मांगता। किधर है वो?”
“मेरे पास खड़ेला है।”
“क्या!”
“और उसने अपनी रिवॉल्वर की नाल मेरे कान में घुसेड़ी हुई है।”
तत्काल दूसरी तरफ खामोशी छा गयी।
“हल्लो!” — हैदर व्यग्र भाव से बोला — “लाइन पर है, बाप?”
“फोन उसे दे।” — जवाब मिला।
“क्या?”
“फोन उसे दे, अहमक।”
विमल ने खुद ही रिसीवर उसके हाथ से ले लिया।
“हल्लो।” — वो ठिगने को परे धकेलता माउथपीस में बोला — “जो कोई भी लाइन पर है, उसे मेरा सलाम पहुंचे।”
“सोहल?” — दूसरी ओर से पूछा गया।
“कौन पूछता है?”
“अगर तुम सोहल हो तो ‘भाई’ तुम से बात करना मांगता है।”
“यानी कि तुम ‘भाई’ नहीं हो?”
“नहीं। मैं ‘भाई’ का खास आदमी हूं।”
“खास आदमी क्या मांगता है?”
“‘भाई’ से तुम्हारी बात कराना मांगता है।”
“क्या बात कराना मांगता है?”
“जब बात होगी तो ‘भाई’ खुद बतायेगा।”
“तुम क्यों नहीं बताते?”
“दो बड़े आदमियों की बात आपस में ही हो तो अच्छा लगता है।”
“कौन बड़े आदमी?”
“‘भाई’। तुम।”
“अपना नाम बोलो।”
“मुझे छोटा अंजुम कहते हैं।”
“अहमक मेरे पीछे क्यों लगाये?”
“मुझे मालूम नहीं हैदर और सोमण ने क्या किया है? अगर उनसे तुम्हारी शान में कोई गुस्ताखी हुई है तो उन्हें उसकी सजा मिलेगी।”
“जरूरत नहीं। सजा मैंने दे दी है।”
“उनकी तरफ से मैं माफी मांगता हूं।”
“इधर मुम्बई में ही है?”
“तेरे को मालूम, बाप। लोकल काल दुबई तो लगती नहीं!”
“मैं है है हैदर से तुम्हारा पता कुबुलवा सकता हूं लेकिन क्या फायदा! तुम तो ‘भाई नहीं हो!”
“लेकिन” — व्यग्र आवाज आयी — “तुम्हारी ‘भाई’ से बात सिर्फ मैं करा सकता हूं इसलिये मेरी और तुम्हारी मुलाकात अगर...”
“मैं बीस मिनट और पास्कल के बार में हूं।”
“बढ़िया। मैं अभी...”
“और इस बार पोशाक में सफेद गुलाब टांक के तुम आना।”
“जरूर। मैं अभी...”
विमल ने रिसीवर वापिस हुक पर टांग दिया और हैदर की तरफ घूसा।
“फ्रैश लंगड़े का नाम सोमण है?” — वो उसे घूरता हुआ बोला।
“हां, बाप।”
“उसे हस्पताल लेकर जा। दोबारा तेरी इधर शक्ल न दिखाई दे। फूट।”
हैदर सरपट वहां से भागा।
छोटा अंजुम ने पास्कल के बार में कदम रखा।
उसकी निगाह पैन होती हुई सारे बार में फिरी।
कोई शख्स उसे सोहल जैसा न लगा।
बार के एक कोने में उसे एक खाली मेज दिखाई दी। सन्तुलित कदमों से चलता हुआ वो उस तक पहुंचा। मेज के गिर्द लगी चार कुर्सियों में से उसने अपने लिये वो कुर्सी चुनी जिसका रुख बार के भीतर की ओर था।
छोटा अंजुम चालीस के पेटे में पहुंचता आदमी था जो कि बालिग होने से भी पहले से जुर्म की दुनिया के हवाले था। एक मामूली जेबकतरे से प्रोमोट होकर वो सुपारी किलर और ‘भाई’ का खास बना था। ‘भाई’ की तरह वो अभी तक वान्टेड क्रिमिनल नहीं बना था इसलिये बेरोकटोक दुबई और मुम्बई के बीच विचरता था। वो एक तरह से ‘भाई’ की बांहें था जो कि दुबई से मुम्बई के अन्डरवर्ल्ड तक पहुंचती थीं। वो भारी ऐय्याश था और औरत का तो खासतौर से रसिया था। किसी काम पर वो बिना सोचे विचारे अन्धाधुन्ध पैसा खर्च कर सकता था तो वो औरतखोरी ही था जिसकी दुबई से कहीं ज्यादा सम्भावनायें वो मुम्बई में पाता था।
उस घड़ी वो एक खुले कालर वाली कमीज के साथ गहरे ब्राउन रंग का सूट पहने था। सूट के कालर में लगे सफेद गुलाब को अनजाने में टटोलता वो कुछ होने का इन्तजार कर रहा था।
एक वेटर उसके करीब पहुंचा।
“आर्डर!” — वेटर भावहीन स्वर में बोला।
छोटा अंजुम ने अपने पर्स में से एक पचास का नोट निकालकर मेज पर डाल दिया।
“ये तुम्हारी टिप।” — वो बोला।
वेटर की बांछें खिल गयीं।
“अभी कुछ नहीं मांगता। थोड़ी देर में आना। बल्कि जब बुलाऊं तब आना। क्या?”
“बरोबर, बाप।”
वेटर रुखसत होने के लिए मुड़ा तो छोटा अंजुम ने कुछ सोचकर एकाएक उसे रोका — “सुनो।”
वेटर ठिठका, घूमा।
“अभी थोड़ी देर पहले इधर कोई पंगा हुआ था?”
“हुआ तो था!” — वेटर धीरे से बोला।
“क्या हुआ था?”
“एक गिराहक बार के पास उधर अकेला बैठेला था। दो मवाली का माफिक भीड़ू आये और खामखाह उसके साथ पंगा करने लगे। एक उठाकर उसकी बियर पीने लगा। दूसरा उसे कांटी दिखाने लगा। गिराहक ने ऐन अमिताभ बच्चन का माफिक एक का घुटना फोड़ दिया और दूसरे को गन दिखाया। तब वो दोनों भीड़ू इधर से खिसक गया।”
“और वो ग्राहक? ग्राहक कहां गया!”
“मालूम नहीं कहां गया!”
“इस वक्त इधर नहीं है वो?”
“नहीं।”
“देखने में कैसा लगता था?”
“नौजवान था। शेरवानी पहने था। उसमें आपका माफिक सफेद फूल टांके था। दाढ़ी मूंछ रखे था। सिर पर लाल रंग की फुंदने वाली टोपी थी। मुसलमान जान पड़ता था।”
“अब वो इधर नहीं है?”
“नहीं है।”
“ठीक है। जाओ।”
वेटर के जाते ही पाइप के कश लगाता एक व्यक्ति वहां पहुंचा। छोटा अंजुम ने उस पर निगाह डाली तो पाया कि उसके चेहरे पर बड़ी नफासत से कटी फ्रेंच कट दाढ़ी मूंछ थीं, आंखें नीली थीं जिन पर वो सुनहरे फ्रेम वाला चश्मा लगाये था। वो सूट बूट डाटे था और निरा विलायती साहब लग रहा था।
“हल्लो!” — वो मुस्कराया — “क्या मैं यहां बैठ सकता हूं?”
“टेबल खाली नहीं है, जनाब।” — छोटा अंजुम शुष्क स्वर में बोला — “कहीं और जा के बैठिये।”
“मैं ऐसा ही करता” — वो एक क्षण ठिठका और फिर बोला — “अगरचे कि मैं सफेद गुलाब का शैदाई न होता।”
छोटा अंजुम सकपकाया और फिर बदले स्वर में बोला — “बैठो।”
“शुक्रिया।”
“सोहल की एक खासियत ये भी मशहूर है कि वो बहूरूप धरने में माहिर है।”
“सोहल!”
“खुशामदीद, बिरादर। मैं तो नाउम्मीद हो चला था।”
विमल केवल मुस्कराया।
“सोहल ही हो न?”
“भगवान श्रीकृष्ण की तरह मेरे भी कई नाम हैं। तुम्हें सोहल पसन्द है तो सोहल सही।”
“मैं छोटा अंजुम। फोन पर बोला था।”
“एक अंजुम खान बादशाह अब्दुल मजीद दलवई के स्वैन नैक प्वाइंट वाले कैसीनो का सिक्योरिटी चीफ होता था।”
“मेरा बड़ा भाई था। बड़ा अंजुम था। सोहल की वजह से कैसीनो तबाह हुआ तो उसी के साथ फौत हो गया।”
“मुझे अफसोस है। ऊपर वाले ने जरूर उसे जन्नतनशीन किया होगा।”
“कुछ पियोगे?”
विमल ने इनकार में सिर हिलाया।
“क्यों?” — छोटा अंजुम बोला — “पीते नहीं हो?”
“दोस्तों के साथ। तुम दोस्त हो या दुश्मन, ये फैसला होना अभी बाकी है।”
“मैं दोस्त हूं।”
“फिर भी अभी नहीं। बाद में देखेंगे।”
“मैं ‘भाई’ के खास नुमाइन्दे के तौर पर तुम्हारी तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाने आया हूं।”
“वैरी गुड। जिसे दुनिया में सब बैरी ही दिखाई देते हों उसके लिए तो ये बहुत बड़ी पेशकश है।”
“लिहाजा तुम्हें पेशकश कुबूल है?”
“अभी से क्या कहा जा सकता है! पहले दोस्ती वाला हाथ तो दिखाई दे! ये तो दिखाई दे कि उसके साथ पुछल्ले कितने लगे हुए हैं!”
“कोई पुछल्ला नहीं लगा हुआ।”
“तुम्हारा मतलब है कि दिखाई नहीं देगा।”
“लगा ही नहीं होगा।”
“इस मतलबी दुनिया में कोई काम बेवजह नहीं होता। गैरमुल्की जमीं पर बैठे तुम्हारे बॉस को एकाएक मेरी याद आयी तो इसकी वजह ये तो होगी नहीं कि उसे आज ही मालूम हुआ है कि मैं उसका मेले में बिछुड़ा मांजाया भाई हूं?”
“ताकतवर से दोस्ती हर कोई चाहता है।”
“ताकतवर! यानी कि मैं?”
“हां। खूब गुजरेगी जो मिल बैठेंगे सुपरबॉस दो।”
“ये लिफाफेबाजी छोड़ो और मतलब की बात करो।”
“मतलब की बात यही है कि ‘भाई’ तुम्हारी तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाना चाहता है।”
“वो मैंने सुन लिया। वजह बोलो। लपेट कर नहीं, शीरे में डुबो कर नहीं, साफ और समझ में आने वाली वजह बोलो।”
“बड़े खुश्क आदमी हो, यार!”
जवाब में विमल ने लापरवाही से पाइप का कश लगाया।
छोटा अंजुम ने एक आह भरी और फिर धीरे से बोला — “‘भाई’ तुम्हें मुम्बई के अन्डरवर्ल्ड की एक बड़ी ताकत और अपने हमदम, हमकदम, हमराज, हमसाज की तरह देखना चाहता है।”
“ऐसा क्योंकर होगा?”
“बड़ी आसानी से होगा। ‘कम्पनी’ की गद्दी खाली है, गद्दीनशीन हो जाओ।”
“ताकि बखिया का चलाया, इकबाल सिंह और गजरे का परवान चढ़ाया मवालियों का मुगलिया खानदान आगे बढ़ सके?”
छोटा अंजुम हड़बड़ाया, फिर दिलेरी से बोला — “यही समझ लो।”
“इस काम के लिए मैं तुम्हारे ‘भाई’ का मोहताज हूं?”
“क्या मतलब?”
“जिस गद्दी पर काबिज होने का इतना दयानतदारीभरा दावतनामा मुझे दे रहे हो, उसे खाली किसने किया? जो शख्स ‘कम्पनी’ की बादशाहत को उजड़ा चमन बना सकता है, अगर वो उसको आबाद करने का, उस पर काबिज होने का ख्वाहिशमन्द होता तो क्या उसे इस काम को अंजाम देने के लिए ‘भाई’ को इजाजत की अर्जी लगानी पड़ती?”
“तुम... तुम बात को समझ नहीं रहे हो!”
“क्या नहीं समझ रहा मैं?”
“तुम नहीं समझ रहे हो कि इतने ताकत वाले निजाम का तख्त खाली नहीं रह सकता। उस पर तुम काबिज नहीं होगे तो कोई और जायेगा।”
“जैसे कि तुम्हारा ‘भाई’?”
“कोई भी।”
“होकर दिखाये। उसकी लाश भी छत्तीस टुकड़ों में बंटी ‘कम्पनी’ के हैडक्वार्टर के कम्पाउन्ड में बिखरी पड़ी होगी।”
छोटा अंजुम के मुंह से बोल न फूटा। वो परेशान था कि वार्तालाप का सूत्र उसकी पकड़ में नहीं आ रहा था। वो उसका रुख उधर मोड़ने में कामयाब नहीं हो पा रहा था जिधर मोड़ने के मकसद से वो वहां आया था।
“‘कम्पनी’ खत्म है। ‘कम्पनी’ का मुर्दा इतना गहरा दफनाया जा चुका है कि कयामत के दिन भी वो वहां से उठकर खड़ा नहीं हो सकेगा। जो चीज है ही नहीं, उस पर भला कोई कैसे काबिज हो सकता है?”
“‘कम्पनी’ न खत्म हुई है और न हो सकती है। बड़ी हद तुम ये कह सकते हो कि वो एक गर्दिश के दौर से गुजर रही है।”
“चलो, ऐसे ही सही लेकिन अब कोई माई का लाल उबार नहीं सकता उसे उसके गर्दिश के दौर से।”
“एक माई का लाल तो मेरे सामने ही बैठा है जो इस काम को अंजाम दे सकता है।”
“मेरे अलावा कोई और नाम लो।”
“क्या जरूरत है? हाथी के पांव के नीचे ही सब का पांव होता है। जब तुम ही...”
“वो किस्सा छोड़ो। जो मुमकिन नहीं उस पर बहस करने का कोई फायदा नहीं। कोई और बात करो। कोई और बात नहीं है तो शब्बाखैर कुबूल करो।”
“और कोई बात नहीं है।”
“तो फिर...”
“तो फिर ये” — इस बार छोटा अंजुम के स्वर में सख्ती का पुट आया — “कि या तो ‘कम्पनी’ पर काबिज होना कुबूल करो या उस पर जो कोई भी आइन्दा दिनों में काबिज हो, उसकी मुखालफत करने का खयाल छोड़ो।”
“दोनों ही काम नहीं हो सकते। मैं रावण मार कर खुद रावण नहीं बन सकता। आर्गेनाइज्ड क्राइम की झंडाबरदारी में जो भी सिर उठेगा, वो कट कर सोहल के कदमों में लुढ़केगा।”
“अब तक तकदीर ने तुम्हारा साथ दिया। अपनी ढिठाई नहीं छोड़ोगे तो इस बार जो सिर लुढ़केगा वो खुद तुम्हारा होगा, सरदार।”
“तुमने मुझे सरदार कहा तो सरदार की सरदारी भी सुनो। भै काहू को देत नहि। नहि भै मानत आनि। खालसा न किसी को डराता है और न किसी से डरता है। समझे?”
छोटा अंजुम के मुंह से बोल न फूटा।
“और सिर लुढ़कने की किसे परवाह है? वीर मेरे, सिर दीने सिर रहत है, सिर राखे सिर जाये। सोहल का सिर लुढ़काने के कई तमन्नाई आये और चले गये, सोहल का सिर अभी भी अपनी जगह बरकरार है। अब ऐसा तमन्नाई अगर तुम्हारा ‘भाई’ बन के दिखाने का ख्वाहिशमन्द है तो बहुत जल्द वो भी जहन्नुम में ‘कम्पनी’ के बखिया गजरे जैसे बड़े महन्तों के साथ हाथ मिला रहा होगा।”
“बहुत बड़ा बोल बोल रहे हो!”
“कहां पाया जाता है तुम्हारा ये ‘भाई’ दुबई में?”
“पूछ तो यूं रहे हो जैसे उसके सिर पर भी पहुंच जाओगे।”
“दुश्मन कोई हो, कहीं हो उससे वाहेगुरु का खालसा नहीं डरता। न डरौ अरिसौ जब जाइ लरौ निसचै करि अपनी जीत करो। जब आउ की अउध निदान बनै अथि ही रण में तब जूझ मरौ।”
“यार” — छोटा अंजुम के स्वर में अब खुशामद का पुट आया — “तुम क्यों दुश्मन समझते हो हमें अपना? तुम क्यों नहीं समझते हो कि ‘भाई’ बड़ी संजीदगी से तुम्हारी तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ा रहा है?”
“‘कम्पनी’ के किसी तरफदार से मेरी दोस्ती नहीं हो सकती।”
“‘भाई’ बहुत दाना आदमी है। तुम भी कुछ कम नहीं हो। तुम ‘भाई’ से बात करोगे तो ‘कम्पनी’ को बरतरफ करके भी दोस्ती की कोई सूरत निकल आयेगी।”
“मेरे से दोस्ती चाहता क्यों है तुम्हारा बॉस?”
“वजह तुम उसी की जुबानी सुनते तो अच्छा होता।”
“मालूम है तुम्हें वजह?”
“हां।”
“फिर क्या वान्दा है?”
“मैं सुनाता हूं लेकिन वादा करो कि बाद में तुम ‘भाई’ से भी बात करोगे।”
“कैसे करूंगा? वो यहां नहीं आ सकता, मैं दुबई नहीं जा सकता तो...”
“वो यहां आ सकता है। तुम भी दुबई जा सकते हो लेकिन बात ऐसी जगह पर भी हो सकती है जहां कि बेखटके तुम दोनों जा सकते हो।”
“कहां?”
“नेपाल। जहां जाने के लिए हिन्दोस्तानी को पासपोर्ट की जरूरत नहीं होती।”
“ओह!”
“लेकिन फिलहाल बात फोन पर भी हो सकती है।”
“देखेंगे। पहले तुम दोस्ती का मकसद बयान करो।”
“पहला मकसद तो जगजाना है।”
“क्या?”
“जब दुश्मन की ताकत बढ़ जाये तो दुश्मनी भुला कर उसे दोस्त बना लेना चाहिये।”
“मेरी ‘भाई’ से कोई दुश्मनी नहीं। मेरा उससे कोई टकराव नहीं।”
“है। अब है। है नहीं तो हो जायेगा।”
“कैसे?”
“‘भाई’ पर ऊपर से दबाव है कि ‘कम्पनी’ को खत्म न होने दिया जाये। न सिर्फ खत्म न होने दिया जाये, उसे फिर से ताकतवर बनाया जाये। इस काम में जो फच्चर फंसा हुआ है, उसका नाम सोहल है। ‘भाई’ को ऊपर से हुक्म हुआ है कि या तो सोहल से दोस्ती करके उसे अपनी तरफ किया जाये या उसे खत्म कर दिया जाये।”
“कौन सा काम आसान लगता है तुम्हारे ‘भाई’ को?”
“आसान तो पहला ही काम है लेकिन तुम्हें तो ‘कम्पनी’ की मुखालफत की अपनी जिद छोड़ना कुबूल नहीं।”
“ऊपर से दबाव डालने वाला कौन है?”
“उसका नाम रीकियो फिगुएरा है और वह माफिया के एशियन सैक्टर का कमांडर है।”
“क्या कमांड करने के लिए कमांडर है?”
छोटा अंजुम हिचकिचाया।
“ओह, कम ऑन!”
“वो एशिया में फैले हेरोइन के व्यापार को और आर्म्स स्मगलिंग को कमांड करता है।”
“यानी कि मौत का सौदागर है?”
“वो बहुत ताकतवर है। कितना ताकतवर है, इसका अन्दाजा तुम इसी से लगा सकते हो कि ‘भाई’ भी उसका खौफ खाता है।”
“कहां पाया जाता है?”
“अल्लाह! तुम तो यूं कह रहे हो जैसे कि तुम उसका भी सिर लुढ़का सकते हो।”
“अमृत तो किसी ने नहीं पिया हुआ!”
“ये बात तुम्हारे पर भी तो लागू होती है!”
“बराबर होती है। लेकिन जाहिर है कि अभी मेरा वक्त नहीं आया। जब अायेगा तो चल चल हो जायेगी। जिस तिसु भावे तिवें चलावे, जिव होवै फरमानु।”
“बात कुछ और हो रही थी।”
“हां, बात कुछ और हो रही थी। देखो, मेरे भाई, मैं तुम्हारी और तुम्हारे ‘भाई’ की मंशा पूरी तरह से समझ गया हूं। तुम्हारा ‘भाई’ किसी बाहरी दबाव में आकर मौत की सौदागरी कर सकता है तो करे, मैं नहीं कर सकता। वो मौत का सौदागर है, वो मेरे मुल्क का, मेरे मुल्क के बाशिन्दों का, मेरे मुल्क की नौजवान नसल का दुश्मन है। मैं मौत के सौदागरों से हाथ नहीं मिला सकता, भले ही वो परदेस में बैठा तुम्हारा ‘भाई’ हो या कहीं और बैठा उसका बड़ा बाप फिगुएरा हो। मैं गुरु का खालसा हूं जो अपने वाहेगुरु से यही वरदान मांगता है कि वो जब करे, बिना विचलित हुए बिना संकोच किये शुभ कर्म करे। देह शिवा वर मोहि इहै शुभ करमन ते कबहूं न टरौं। हेरोइन का व्यापार शुभ कर्म है तो बोलो। आर्म्स स्मगलिंग शुभ कर्म है तो बोलो।”
“ये सब जज्बाती बातें हैं।”
“मैं हूं जज्बाती आदमी। जज्बाती आदमी जज्बाती बातें करता ही है।”
“बहरहाल तमाम बातों का लब्बोलुआब ये हुआ कि तुम्हें ‘भाई’ की दोस्ती से इनकार है।”
“मुझे किसी की दोस्ती से इनकार नहीं। सच्ची दोस्ती बड़ी दुर्लभ चीज है और सच्चा दोस्त बड़ी मुश्किल से मिलता है। लेकिन दोस्ती का जो हाथ मेरी तरफ बढ़ाया जाये उस पर पहले ही फरेब, खुदगर्जी और मतलबपरस्ती की कालिख लगी हो तो उस हाथ को मैं थामूंगा तो अपना हाथ भी काला करूंगा। ‘भाई’ मेरा दोस्त बने लेकिन यूं ‘कम्पनी’ की मेरी मुखालफत खत्म करने के लिए नहीं, हेरोइन के कारोबार का तरफदार बनने के लिए नहीं, आर्म्स स्मगलिंग में मददगार बनने के लिए नहीं।”
“तो और किस लिये?” — छोटा अंजुम तब यूं बोला जैसे अब और जब्त कर पाना उसके लिए मुमकिन न रहा हो — “तेरे साथ गुरुद्वारे चल के माथा टेकने के लिए?”
“क्यों नहीं? शुभ कारज कभी भी कहीं भी किया जा सकता है। खुदा की इबादत से किसी की नाक नीची होती तो नहीं सुनी मैंने! चल, मैं तेरे साथ चल के मस्जिद में नमाज पढ़ के आता हूं।”
“तू बौरा गया है, सरदार। तू मगरूर हो गया है। ‘कम्पनी’ की नाक क्या नीची कर ली, अपने आपको खुदा से भी दस इंच ऊंचा समझने लगा है।”
“ऐसी कोई बात नहीं।”
“तुझे ‘भाई’ की ताकत का कोई अन्दाजा नहीं। तू नहीं जानता कि ‘भाई’ से तो खुद बखिया भी खौफ खाता था और अभी ‘भाई’ से ऊपर रीकियो फिगुएरा है और उससे भी ऊपर आल पावरफुल माफिया है। इन सब के सामने तेरी हैसियत तो एक मुहावरे से ही बयान की जा सकती है।”
“सुना मुहावरा। मुहावरे सीखने सुनने का मुझे काफी शौक है।”
“क्या पिद्दी और क्या पिद्दी का शोरबा!”
“पिद्दी। यानी कि मैं?”
“हां। अब मुझे ये मिसाल न देना कि यही पिद्दी कैसे कैसे कारनामों को अंजाम दे चुका है। छोटी मोटी लड़ाइयां पिद्दी भी जीत सकता है लेकिन सूरमाई का असल इम्तहान होता है जंग जीतने में। छोटी मोटी लड़ाई तो इत्तफाक से भी जीती जा सकती है, खुशकिस्मती से भी जीती जा सकती है। लेकिन जंग जीतने के लिए जिस ताकत और जौहर की जरूरत होती है वो तेरे पास कहां!”
“यही जुबान कभी मेरे साथ गजरे भी बोला था। जिसकी मौत करीब हो, लगता है वो यूं ही बढ़ बढ़ के बोलता है।”
“तेरी मौत करीब है। तू ही बढ़ बढ़ के बोल रहा है।”
“अगर मेरी मौत करीब है तो वो तेरे ‘भाई’ से मेरी सुलह से भी नहीं टल सकती। जिस बात पर किसी आदम जात का अख्तियार ही नहीं, तू उससे मुझे क्यों डराता है? मैं तो सामान बान्ध कर हमेशा तैयार रहता हूं आखिरी सफर के लिए। जब बुलावा आयेगा तो चल दूंगा, अपने बनाने वाले की देहरी पर माथा रखूंगा और बोलूंगा ठाकुर तुम सरणाई आया।”
“तू... तू पागल है। तू नहीं जानता तेरे सिर पर कितना बड़ा खतरा मंडरा रहा है।”
“मियां, वो पेड़ परवान नहीं चढ़ सकता जिसे हर वक्त अपने पर बिजली गिरने का अन्देशा सताता हो।”
“ये ज्ञान ध्यान की बातें छोड़ और मुझे अपना आखिरी जवाब दे।”
“मेरा आखिरी जवाब भी वही है जो पहला था। ड्रग्स का धन्धा नहीं, आर्म्स स्मगलिंग नहीं, ‘कम्पनी’ की सरदारी नहीं।”
“तू अहमक है।”
“तू इस वक्त किसी का हरकारा है इसलिये तुझे सौ खून माफ हैं। पागल, अहमक और पिद्दी के अलावा भी तू मुझे जो चाहे, कह सकता है।”
“मेरी एक आखिरी बात और सुन ले।”
“वो भी बोल।”
“उस माफिया डॉन रीकियो फिगुएरा ने ‘भाई’ को एक महीने का वक्त दिया है कि एक महीने के अन्दर अन्दर उसे ये गुड न्यूज मिल जाये कि ‘कम्पनी’ का सरगना या सोहल बन गया है या सोहल की हस्ती मिटा दी गयी है।”
“ये मेरी प्रब्लम नहीं। ये तेरे ‘भाई’ की प्राब्लम है।”
“तौबा! तौबा! इतनी कमअक्ली...”
“मुझे हमदर्दी है कि ऐसे सर्वशक्तिमान ‘भाई’ के सिर पर भी आजकल मौत का साया मंडरा रहा है।”
“अरे, ‘भाई’ की नहीं, अपनी बात कर।”
“अपनी क्या बात करूं?”
“अरे नामाकूल, मौत का साया तेरे सिर पर मंडरा रहा है।”
“और ये बात मुझे इतना बड़ा नजूमी बता रहा है जिसका नाम कि छोटा अंजुम है?”
“यही समझ ले।”
“समझ लिया। अब बड़ा नजूमी मुझे ये बताये” — विमल मेज पर पड़ी भारी ऐश ट्रे उठा कर उसके सिर पर तानता हुआ बोला — “कि खुद उसका सिर कब फूटेगा?”
“क्या मतलब?” — वो अचकचा कर बोला।
“मतलब ये कि अगर तू कहे कि ठहर के फूटेगा तो में अभी फोड़ के दिखाता हूं और तू कहे कि अभी फूटेगा तो मैं ठहर के फोड़ता हूं।”
“लाहौल! लाहौल विला कूवत! यार, तू कौन सी मिट्टी का बना है?”
विमल हंसा, उसने ऐश ट्रे वापिस मेज पर रख दी और खामोशी से पाइप के कश लगाने लगा।
बेचैनी से बार बार पहलू बदलता, बार बार थूक निगलता छोटा अंजुम भी खामोश बैठा रहा।
“तो मैं” — आखिरकार विमल बोला — “शब-ब-खैर बोलूं?”
“ठहर।” — तत्काल छोटा अंजुम बोला — “रुक। एक मिनट। प्लीज। अभी यहीं रुकना। मैं गया और आया।”
फिर वो एकाएक उठा और लपकता हुआ वहां से रुखसत हुआ।
विमल ने परे बैठे इरफान को इशारा किया।
इरफान का सिर मामूली सा सहमति में हिला और वो उठकर छोटा अंजुम के पीछे हो लिया।
दो मिनट बाद वह फिर हाल में प्रकट हुआ और लापरवाही से चलता हुआ विमल के पास पहुंचा।
“पीछे आफिस है।” — वो दबे स्वर में बोला — “वहां से कहीं फोन कर रहा है।”
विमल ने सहमति में सिर हिलाया।
इरफान तत्काल परे हट गया।
विमल पाइप के कश लगाता प्रतीक्षा करता रहा।
छोटा अंजुम लौटा, वो आकर धम्म से अपनी कुर्सी पर बैठा और परेशानहाल लहजे में बोला — “तेरा कोई फोन नम्बर है जिस पर ‘भाई’ तेरे से बात कर सकता हो?”
“नहीं।” — विमल बोला — “नहीं है।”
“अरे, जहां रहता है वहां...”
“झौंपड़पट्टे में रहता हूं। वहां फोन क्या, बिजली भी नहीं है।”
“तौबा! तौबा!”
फिर उसने मेज पर पड़ा एक पेपर नैपकिन उठाया, जेब से बालपैन निकालकर उस पर कुछ अंक घसीटे और नैपकिन विमल के सामने डालता हुआ बोला — “ये ‘भाई’ के मोबाइल का नम्बर है। पहली फुरसत में इस पर बात करना। मेहरबानी होगी।”
“ठीक है।”
“करेगा न?” — वो व्याकुल भाव से बोला।
“हां।”
“शुक्रिया। नीचे जो दूसरा नम्बर है, वो लोकल है। ‘भाई’ से जो बात हो, उसकी खबर मुझे इस नम्बर पर करना।”
“‘भाई’ से जो बात हो, वो ‘भाई’ से पूछना।”
“अच्छा, मेरे बाप। मैं अब चलता हूं। खुदा के वास्ते मेरे जाने के पांच मिनट बाद यहां से उठना।”
“ठीक है।”
बहुत आन्दोलित सूरत लिये छोटा अंजुम वहां से रुखसत हुआ।
तत्कास इरफान उसके करीब पहुंचा।
“क्या हुआ?” — वो व्यग्र भाव से बोला।
“बताऊंगा।” — विमल जल्दी से बोला — “पहले उसे सम्भाल जो खिसका जा रहा है।”
“मैं समझ गया।”
तत्काल इरफान बाहर को लपका।
दो मिनट बाद वो वापिस लौटा।
“विक्टर।” — वो बोला — “उसके पीछे।”
“बढ़िया।” — विमल बोला।
“अब बोल, बाप। क्या हुआ?”
“अभी कुछ नहीं हुआ। जो होना होगा, आज के बाद होगा।”
“क्या मतलब?”
“‘भाई’ का भाई बनने की उसकी पेशकश मैंने नाकबूल कर दी है।”
“ओह!”
“मेरा इनकार सुन कर ये लोग चुप तो बैठ नहीं जायेंगे! इसीलिये बोला कि जो होगा आज के बाद होगा।”
“ठीक बोला।”
“ये दो नम्बर दे गया है वो मुझे।” — विमल उसे नैपकिन दिखाता हुआ बोला — “इनमें से ये नीचे वाला वो अपना लोकल नम्बर बता रहा था। तू इसे नोट कर ले। कल मालूम करने की कोशिश करना कि ये कहां लगा हुआ है!”
“कैसे? कैसे मालूम होगा?”
“एक्सचेंज में एक ऐसी सर्विस का नम्बर दर्ज होता है जहां से टेलीफोन नम्बर बता कर उसका पता जाना जा सकता है। ऐसे पता चल गया तो काम मामूली होगा वरना एक्सचेंज में जाना और वहां किसी को चार पैसे देकर अपना काम निकालना।”
“सीधे इस नम्बर पर फोन करके पूछूं कि वो कहां चल रहा था तो?”
“कौन बतायेगा? वैसे मुझे एतराज नहीं। कोशिश कर देखना।”
“पता मालूम पड़ जाये तो?”
“तो मालूम करना कि ये छोटा अंजुम उस पते पर पाया जाता है या नहीं। ये वहां रहता नहीं होगा तो वहां आता जाता जरूर रहता होगा। उस पते की ताक में रह कर हमने छोटा अंजुम के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानकारी हासिल करनी है।”
“फायदा?”
“फौरी फायदा तो कोई नहीं दिखाई देता लेकिन देर सबेर हो सकता है।”
“क्या?”
“छोटा अंजुम के जरिये हम ‘भाई’ तक पहुंच सकते हैं।”
“लेकिन वो तो दुबई में...”
“मुझे यकीन नहीं। इब्राहीम कालिया भी अपने आपको दुबई का वासी ही बताता था लेकिन पाया हमेशा ग्रांट रोड पर जाता था। वैसा ही चक्कर भाई का भी हो सकता है।”
“नहीं भी हो सकता।”
“जो होगा सामने आ जायेगा। बहरहाल इस छोटा अंजुम को ताड़ कर रखने में हमें कोई फायदा नहीं होगा तो नुकसान भी नहीं होगा।”
“ठीक बोला, बाप। मैं करूंगा सब इन्तजाम।”
“बढ़िया।”
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