पांचो बच्चे सो चुके थे। रात के गयारह बज रहे थे । बच्चे सलीम के बारे में पूछ रहे थे कि वो कहां चला गया । रुकीना ने दिल पर पत्थर रखे बच्चों से कहा कि मौसी सलीम को स्कूल से अपने घर ले गई है और कल सलीम आ जाएगा। परंतु मन में ढेर सारी चिंता थी कि क्या कल सलीम उसे देखने को मिलेगा ?
रूकीना दूसरे कमरे में पहुंची तो ठिठक गई। चेहरे पर व्याकुलता नाच उठी । आमिर रजा खान परछत्ती से लोहे का पुराना संदूक नीचे उतारे, उसे खोले बैठा था । उसमें कई तरह के चाकू, खंजर, दो रिवॉल्वरें और गोलियां रखी थी ।आमिर रजा खान एक रिवॉल्वर में गोलियां भर रहा था। वो इस वक्त पठानी सूट जूतों में था। सिर पर टोपी पहन रखी थी ।
रुकीना तुरंत पास पहुंच कर बैठती हुई धीमें स्वर में बोली ।
"ये तुम क्या कर रहे हो ?"
"पूछो मत । सुबह तुम्हें सलीम मिल जाएगा ।"
"तुम-तुम सलाम अहमद को मारने जा रहे हो ?" रुकीना की आवाज कांपी।
"नहीं ।" आमिर रजा खान मुस्कुराया ।
"तो ये सब क्यों...।"
"तेरे को सलीम चाहिए न ?"
"हां। म...मुझे मेरा बेटा चाहिए ।"
"फिर सवाल मत पूछ । अल्लाह की कसम सुबह सलीम तेरे पास होगा ।"
रुकीना पत्थर के बुत की तरह बैठी आमिर रजा खान का चेहरा देखने लगी ।
"मैं कहीं तुम्हें ना खो दूं ।"
"भरोसा कर । ऐसा कुछ नहीं होने वाला ।"
"ये-ये सामान तुम कहां से लाए ?" रुकीना की आवाज में कंपन था--- "ये संदूक तो ऊपर परछत्ती पर रखा था ।"
"उसी में पहले से ही ।"
"पहले से ही नहीं था कुछ । ये खाली था। दो साल पहले मैंने देखा था । तुम जब डेढ़ साल बाद के लौटे तो उसके बाद ही ये सब चीजें चुपके से लाकर रखी होंगी। तुम बताते क्यों नहीं कि डेढ़ साल तुम क्या करते रहे थे ?"
आमिर रजा खान ने रिवॉल्वर कमीज के भीतर सलवार में फंसाई और संदूक में पड़े चाकू छांटने लगा। दो तरह के चाकू उसने छांटकर अपने कपड़ों में रखे और संदूक को बेड के नीचे सरका कर खड़ा हो गया।
रुकीना भी उठ खड़ी हुई । उसका चेहरा फक्त था। वो उसे देख रही थी ।
"अल्लाह के लिए, ये सब मत करो ।" रुकीना कांपती आवाज में कह उठी--- "दुकान खाली कर दो । हम कहीं और...।"
"सब ठीक है ।" आमिर रजा ने रूकीना का गाल प्यार से थपथपाया--- "दरवाजा बंद कर और सो जा । सुबह आऊंगा । सलीम को लेकर आऊंगा ।" कहने के साथ ही वो घर से बाहर निकल आया था।
■■■
आधी रात का एक बज रहा था ।
आमिर रजा उस इलाके की तीन मंजिला मकान के सामने पिछले एक घंटे से मंडरा रहा था । वहां स्ट्रीट लाइट कुछ दूर थी। कभी वो गहरे अंधेरे में खड़ा होकर देखने लगता। उस मकान का एक भू-तल था । दूसरी मंजिल थी और उसके ऊपर तीसरी मंजिल थी । नीचे वाली मंजिल की सारी रोशनी बुझ चुकी थी। पहली मंजिल पर एक कमरे में रोशनी हो रही थी। दूसरी मंजिल पर कोई रोशनी नहीं हो रही थी।
इस वक्त आमिर रजा खान उस मकान के ठीक सामने सड़क पर फुटपाथ पर बैठा हुआ था। सड़क पर पूरी तरह सुनसानी छाई हुई थी बीते आधे घंटे से कोई भी वहां से नही निकल था। आसपास के घरों की भी लाइट बंद थी । इक्का-दुक्का ही कोई घर होगा जहां रोशनी होती रही थी।
आमिर रजा खान ने सलवार में फंसी रिवाल्वर को टटोला फिर दोनों चाकुओं की मौजूदगी का एहसास हो पाने के बाद उठ खड़ा हुआ। उसकी खूंखारता भरी पैनी निगाह हर तरफ जा रही थी । सब ठीक था । वो टहलता हुआ आगे बढ़ा और कुछ सेकंडो में सड़क पार करके उस मकान के गेट पर जा पहुंचा। गेट में भीतर से ताला लगा हुआ था। उसने सावधानी से एक बार फिर नजरें हर तरफ मारी और छः फुट की दीवार फांद कर आहिस्ता से भीतर की तरफ उतर गया। इसके बाद करीब मिनट तक ठिठका रहा कि सब ठीक है कि नहीं ? हर तरफ खामोशी पाकर वो आगे बढ़ा और बाहर की तरफ खुलने वाली खिड़की के पास जा पहुंचा। इस मकान का भूगोल वो अच्छी तरह जानता था। ये बक्शीश आलम का घर था और हर महीने दुकान का किराया देने आता था । उसे पता था कि बख्शीश आलम अपनी बीवी के साथ मकान के पीछे के बेडरूम में सोता था और उसका बेटा बहू मकान की पहली मंजिल पर सोया करते हैं । बक्शीश आलम ने कई जगह प्रॉपर्टी लेकर किराए पर चढ़ा रखी थी और हर महीने बढ़िया किराया उसे आता था। वो जानता था कि जिस दुकान पर उसने दर्जी की दुकान खोली हुई है, वो अगर खाली करता है तो बख्शीश आलम को दुकान का चौगुना किराया मिलेगा, साथ में एकमुश्त रकम अलग । यही वजह थी कि उसने दुकान खाली कराने के लिए सलाम अहमद पर दो लाख खर्च कर दिया था।
आमिर रजा खान ने खिड़की के पल्लों को खोलने की चेष्ठा की।
वो बंद थी । उसने जेब से तीखी नोक वाला चाकू निकाला और उसके सहारे कब्जे उखाड़ने में जुट गया। ये काम शांति से, चैन से, सब्र से कर रहा था । धीरे-धीरे बे-आवाज कर रहा था । एक घंटे की लंबी मेहनत से उसने खिड़की के एक पल्ले के दोनों कब्जे निकाल लिए। अब आगे का काम ज्यादा कठिन नहीं था। उसने साइड से भीतर हाथ डालकर खिड़की की सिटकनियां खोली और पल्ले को संभाल कर नीचे, दीवार के साथ खड़ा कर दिया। फिर दूसरे पल्ले की सिटकनी खोली और उसे पूरा खोल दिया । अब लोहे की ग्रिल लगी थी। चाकू की नोक से वो ग्रिल में लगे पेंचों को खोलने लगा। एक तरफ के सारे पेंच उसने खोले और ग्रिल को दोनों हाथों से थाम कर बाहर की तरफ सावधानी से झटके देने लगा ।
दस मिनट में उसने ग्रिल उखाड़ ली। उसे नीचे फर्श पर रख दिया। अब खिड़की से भीतर जाने का रास्ता साफ था । आमिर रजा खान खिड़की से भीतर प्रवेश कर गया । भीतर घुप्प अंधेरा था। वो कुछ-कुछ जानता था कि कहां सामान रखा है और कहां नहीं, परंतु ऐसे नाजुक मौके पर वो किसी तरह का कोई खतरा नहीं लेना चाहता था। इसलिए पांच-सात मिनट अंधेरे में खड़ा रहा । धीरे-धीरे उसकी आंखें अंधेरे की अभ्यस्त हो गई और अंधेरे में वहां पड़े सामान आकार-प्रकार का साया-सा दिखने लगा तो संभले अंदाज में आगे बढ़ने लगा । बहुत धीमे-धीमे कोई जल्दी नहीं ।
ये ड्राइंग रूम था जिसे वो पार करके लोम्बी में पहुंचा। वहां कम रोशनी का बल्ब जल रहा था। आमिर रजा खान ठिठका और हाथ में दबे चाकू को बंद करके वापस उसे कपड़ों में फंसाया और दूसरा चाकू निकाल लिया। उसे खोला। इस चाकू का फल सांप की शक्ल का था और दोधारी था । वो आगे बड़ा और लोम्बी पार करके एक बंद दरवाजे के सामने ठिठका। बक्शीश आलम का ये ही बेडरूम था। उसने हैंडल दबाया और आहिस्ता से दरवाजे को भीतर धकेला तो वो खुलता चला गया। कमरे में मध्यम वर्ग का प्रकाश फैला था। सामने बैड पर एक मर्द और एक औरत सोई नजर आ रही थी । आमिर रजा खान के चेहरे पर दरिंदगी नजर आ रही थी । आंखें वहशी भाव लिए चमक रही थी। हाथ में चाकू थामे पहले वो बेड के उस हिस्से की तरह पहुंचा जहां औरत सो रही थी । बिना वक्त जाया किए उसने चाकू वाला हाथ औरत की गर्दन पर एक झटके में घुसा दिया। औरत के होंठों से फटी-फटी आवाज निकली और वो बुरी तरह तड़प उठी।
तभी साथ में सोए मर्द की आंख खुल गई । परंतु आमिर रजा खान ने उसे समझने का जरा भी मौका नहीं दिया था। अगला वार उसने मर्द पर किया और चाकू से उसके दिल वाले हिस्से में धंसता चला गया। उसने चीखने के लिए मुंह खोला कि आमिर रजा का हाथ उसके होंठों पर जा टिका। साथ ही उसने चाकू तीव्रता से बाहर खींचा और उसका गला काट दिया। सिर्फ दो मिनट में उसने ये सब कर दिया था। उसके बाद उसने इस बात की तसल्ली की कि दोनों मर गए हैं। उसके बाद वो कमरे से बाहर निकला और उस तरफ बढ़ गया जिधर ऊपर जाने की सीढ़ियां बनी हुई थी। आमिर रजा खान ऊपरी मंजिल पर पहुंचा। चार कमरे थे । चारों कमरों को चैक किया और एक कमरे में बख्शीश आलम का बेटा और बहू नींद में थे और एक-दूसरे से लिपटे हुए थे। वो रुका नहीं, सोचा नहीं, तेजी से आगे बढ़ा और पागलों की तरह उन पर वार करने लगा। छाती पर । गले पर । पेट पर। सिर पर । मिनट भर तक उन दोनों पर चाकू इस तरह चलाता रहा कि चीखने का भी मौका न मिल पाए । फिर जब रुका तो उनकी सांसे टूट चुकी थी। आमिर रजा खान के चेहरे पर पागलपन के भाव नाच रहे थे। कोई इस वक्त उसे देखता तो यकीनन कांप कर सहम जाता । उसके बाद बाथरूम तलाश करके खून से सना चाकू धोया। चेहरे पर पड़े खून को साफ किया । कपड़ों पर भी दो-तीन जगह खून लगा था, वो साफ किया उसके बाद हर उस जगह से उसने उंगलियों के निशान साफ किए, जहां-जहां उसके हाथ लगे थे फिर खामोशी से, मकान से बाहर आ गया।
■■■
उस वक्त सुबह के पौने पांच हो रहे थे जब आमिर रजा खान एक पुरानी इमारत पर पहुंचा जो कि उसके इलाके के नामी बदमाश सलाम अहमद का ठिकाना था। बाहर एक आदमी चारपाई डालकर सोया हुआ था। उसे नींद से उठाया ।
"क्या है ?" आंखें खोलते ही वो बोला--- "कौन है तू ?"
"सलाम अहमद से मिलना है ।" आमिर रजा खान ने कहा ।
"पागल है क्या ?" रात के इस वक्त...।"
"सुबह के पांच बज रहे हैं ।"
"उस्ताद अभी नहीं मिलेगा । दो घंटे पहले तो सोया है । दिन में आना ।"
"सलाम अहमद को मेरे आने की खबर है। उसे उठा और मेरा नाम बता दे। आमिर रजा खान ।"
"तू है कौन ?"
"सलाम अहमद से पूछना । खड़ा हो जा ।" आमिर रजा खान के नए आदेश के भाव थे ।
"इस वक्त उठाया तो उस्ताद मुझे छोड़ेगा नहीं ।"
"खड़ा हो ।" एकाएक आमिर रजा खान गुर्रा उठा
वो फौरन खड़ा हो गया ।
"चल, मुझे सलाम अहमद के पास ले चल ।"
"यहीं रुक । मैं भीतर होकर आता हूं ।" कहते हुए उसने जेब से चाबी निकाली और दरवाजा खोलकर भीतर चला गया ।
पांच मिनट में ही वो वापस लौटा।
"चल । उस्ताद को उठा दिया है ।" उसने कहा।
आमिर रजा खान उसके साथ भीतर, सलाम अहमद के पास पहुंचा। उसकी आंखें लाल थी। नींद के दबाव से बंद हो रही थी। आमिर रजा खान को देखते ही कह उठा ।
"बे-वक्त क्यों आया ?"
"बोला था कि सुबह आऊंगा ।" आमिर रजा खान मुस्कुराया ।
"तो ?"
"अब बख्शीश आलम तेरे को कोई काम नहीं बोलेगा। दिया हुआ दो लाख भी वापस नहीं लेगा । न ही उसका बेटा तेरे पास दोबारा दो लाख लेकर आएगा कि आमिर रजा खान की दुकान खाली करा दे । उस खानदान के मर्द तो दूर, अब कोई औरत भी जिंदा नहीं है । तेरे-मेरे में यही तय हुआ था कि बख्शीश आलम नहीं रहेगा तो तू ये काम छोड़ देगा ।"
सलाम अहमद की आंखें पूरी खुल गई । वो हैरानी से आमिर रजा खान को देखने लगा ।
"तूने उसके पूरे खानदान को खत्म कर दिया ?"
"मेरा बेटा सलीम, वादे के मुताबिक मुझे वापस दे दे ।" आमिर रजा खान बोला ।
"तू दर्जी है या तोप है । क्या है तू जो इतना बड़ा कारनामा कर दिया ।" सलाम अहमद सच में परेशान हो गया था ।
"मैं दर्जी भी हूं, तोप भी हूं । मेरा बेटा सलीम मुझे दे और अब दुकान खाली करने को मत कहना ।" आमिर रजा खान के स्वर में किसी तरह का भाव नहीं था ।
सलाम अहमद हंसकर पास खड़े आदमी से कह उठा ।
"वो छोटा-सा छोटा इसे दे दे । ये अब्बा है उसका । इसके हवाले कर दे वो छोकरा। इसने तो मुझे हैरान कर दिया ।"
■■■
रुकीना के चेहरे पर राहत के भाव थे । सलीम को आमिर रजा खान घर ले आया था सुबह ही । सलीम के मिल जाने और शौहर के ठीक-ठाक वापस घर आ जाने की वजह से रुकीना के चेहरे पर खुशी के भाव थे। आमिर रजा खान से ज्यादा बात नहीं हो सकी थी। तब वो सलीम को पाने की खुशी में डूब गई थी । आमिर रजा खान तब नींद में जा डूबा था। कुछ देर बाद सलीम भी सो गया था । रूकीना ने बाकी चारों बच्चों को तैयार करके स्कूल भेजा और खुद भी झपकी लेने के लिए लेट गई । चिंता के कारण रात-भर सो नहीं सकी थी । वो जानने को उत्सुक थी कि सलीम को कैसे बचाया गया । आमिर रजा खान के सो कर उठने के बाद ही बात हो सकेगी । एक डेढ़ घंटे आराम करने के बाद वो उठी और हाथ-मुंह धोकर दुकान की चाबियां लेकर नीचे पहुंची कि दुकान खोल सके । कारीगरों के आने का वक्त हो गया था । कासिम हलवाई के कारीगर से दुकान खुलवाई । वो कारीगर ने बताया उसे कि पता चला है कि रात को बख्शीश आलम, उसकी पत्नी, बेटे-बहू को किसी ने मार दिया है।
रूकीना सुनते ही सन्न रह गई। मस्तिष्क में धमाके फूटने लगे । सहारा लेने के लिए उसने दुकान में रखे काउंटर को थाम लिया। मिनट-भर बाद खुद को संभाला । चेहरे पर गंभीरता और बेचैनी दिखने लगी । बख्शीश आलम की इस मार्केट में दस-बारह दुकानें थी, जो कि किराए पर चढ़ी हुई थी । कुछ ही देर बाद कारीगर आ गए। रुकीना को देखते ही कारीगर ने पूछा ।
"मास्टर जी कहां है ?"
"घर पर ही है । पेट खराब है । आराम कर रहे हैं। कुछ देर बाद आएंगे ।" रुकीना ने कहा और वापस घर पहुंची। बेड पर सोए आमिर रजा खान को देखा फिर चिंता से भरी पास ही कुर्सी पर बैठ गई।
कुछ देर बाद आमिर रजा खान ने करवट ली तो रुकीना को पास ही बैठे पाकर आंखें खोल दी ।
"सब ठीक तो है बेगम ?" उसने पूछा ।
"दुकान खोलने गई तो पता चला रात किसी ने बख्शीश अलाम के परिवार को खत्म कर दिया है ।" रुकीना गंभीर स्वर में बोली।
"अच्छा ।" आमिर रजा खान उठ बैठा ।
"तुमने किया ये ।" रुकीना की आवाज कांपी।
"पागल हो । मैं ऐसा क्यों करूंगा ?"
"तुमने ही किया है, तभी तो सलीम को ला पाए । उस लड़के के साथ भी तुमने कुछ बुरा किया था। जिसके बारे में तुम्हें बताया था कि वो मुझ पर नजर रखता है । क्योंकि उसके बाद वो मुझे कभी नहीं दिखा। तुम...।"
"बेगम ।" आमिर रजा खान शांत स्वर में बोला--- "तुम्हारा-हमारा परिवार खुशी में रह रहा है । हमें सिर्फ ये देखना है । किसी के घर में या बाहर क्या हो रहा है वो नहीं देखना हमें । तुम इन बेकार की बातों...।"
"ये दाग कैसे ?" रूकीना उसकी कमीज को थामते कह उठी--- "ये-ये तो खून है। तुम ही बक्शीश आलम के परिवार को...।
"ये बात अपने होंठों पर भी मत लाओ बेगम ।"
"ये तुम्हें क्या हो गया है । तुम तो ऐसे नहीं थे । जब से तुम डेढ़ साल घर से बाहर बिताकर आए हो तब से ही तुम जैसे बहुत बड़े बहादुर बन...।"
"बहादुर तो मैं पहले भी था ।" आमिर रजा खान ने हंसकर कहा--- "तुम जाने क्यों उलटा-पुलटा सोच रही...।"
तभी सीढ़ियों पर से कारीगर की आवाज आई ।
"मास्टर जी । आपसे कोई जनाब मिलने आए हैं ।"
"मैं देखती हूं ।" कहकर रुकीना उठने को हुई।
"तुम चाय बनाओ मेरे लिए। इतने में मैं दुकान का चक्कर लगा आता हूं ।" आमिर रजा खान उठा और बाहर निकल गया।
आमिर रजा खान दुकान पर पहुंचा कि आए बंदे को देखकर ठिठक गया ।
वो मुनीम खान था ।
आमिर रजा खान चंद पल तो ठिठका-सा रह गया, उसे सामने देखकर ।
मुनीम खान मुस्कुराया ।
"आप ।" आमिर रजा खान के होंठों से निकला--- "आप यहां...आइए ऊपर बैठते हैं चाय बन रही है ।"
दोनों दुकान से बाहर निकले । आमिर रजा खान सीढ़ियों की तरफ बड़ा कि मुनीम खान बोला ।
"खान ।"
आमिर रजा खान ने पलटकर मुनीम खान को देखा ।
"मुझे जाना है । रुकूंगा नहीं। हामिद अली का बुलावा है तेरे लिए । काम के लिए तैयार है ?" मुनीम खान बोला ।
"बिल्कुल तैयार हूं ।" आमिर रजा खान मुस्कुराकर दृढ़ स्वर में कह उठा ।
"काम खतरनाक है । परिवार वालों से अच्छी तरह मिल आना। वापसी हो भी सकती है और नहीं भी ।"
"समझ गया । ऐसे में घर वालों के पास कुछ पैसा छोड़ना होगा।"
पांच लाख कल तेरे को कोई दे जाएगा । उसके बाद भी तेरे परिवार को पैसा मिलता रहेगा। काम से तू वापस लौट आया तो पचास लाख तुझे मिलेगा ।"
"समझ गया ।" आमिर रजा खान ने पुनः अपना सिर हिलाया--- "मुझे पहुंचना कहां है ?"
"दाऊद खेल । हामिद अली के ठिकाने पर। आज से चौथे दिन।"
■■■
पाकिस्तान का शहर-बहावल नगर ।
चालीस वर्षीय मोहम्मद डार।
मोहम्मद का जन्म तो इलाहाबाद में हुआ था, परंतु तब वो छोटा ही था जब पूरा परिवार बहावलपुर मैं आ गया था। अब्बा- अम्मी बूढ़े थे। दो बड़ी बहने थी। अब्बा का कोई खास काम नहीं था । कभी कोई काम तो कभी कोई काम करके उन्होंने घर का खर्चा चलाया और किसी तरह बड़ी बहन का निकाह कर दिया और उसके बाद दुनिया से चले गए। तब घर का सारा बोझ और दूसरी बहन का निकाह करने की जिम्मेवारी उस पर आ गई । तब अठारह वर्ष का था और पढ़ाई पूरी नहीं कर सका था। घर चलाने के लिए काम करने लगा। किसी तरह पढ़ाई भी जारी रखी और पच्चीस की उम्र में उसने एक दवा बनाने वाली कम्पनी में नौकरी कर ली। तभी मां भी दुनिया से चली गई। जवान बहन थी घर में । उसका निकाह करने के लिए घर बेच दिया।
बहन का निकाह हो गया। वो दवा कम्पनी में नौकरी करता रहा। अपने निकाह के बारे में तो उसने कभी सोचा भी नहीं था। एकाएक उसने दवा कम्पनी में नौकरी छोड़ दी और डेढ़ साल के लिए बिना किसी को बताए कहीं चला गया । तब वो अड़तीस वर्ष का था । इस बीच दो-चार बार बड़ी बहनों को फोन अवश्य किया। फिर डेढ़ साल बाद वापस आया । तब वो आत्मविश्वास से भरा दिखा। उसने उसी दवा कम्पनी में फिर से नौकरी कर ली। किराए पर कमरा ले रखा था । सुबह काम पर जाता और रात को वापस लौटता। जिंदगी चल रही थी परंतु उसे सुकून नहीं था । वो कोई बड़ा काम करना चाहता था और पीछे डेढ़ साल के लिए वो पाक कब्जे वाले कश्मीर में गया था। वहां पर उसने मिलिट्री की जबरदस्त ट्रेनिंग हासिल की थी और ऐसी कई मशहूर लोगों से मिला था जो आतंकवाद की दुनिया में छाए हुए थे । उन्हें देखकर उसे समझ आ गई थी कि उसे कोई ऐसा काम करना चाहिए, जिससे कि उसका नाम हो । परंतु उसे पर्याप्त ट्रेनिंग देने के बाद वापस भेज दिया गया था कि उसके मुताबिक कोई काम होगा तो उसे बुलाया जाएगा । वैसे वहां पर छः महीने की ट्रेनिंग दी जाती थी । परंतु चयनकर्ता को अगर कोई ज्यादा जंचे तो उसे डेढ़ साल की खास मिलिट्री की ट्रेनिंग दी जाती थी, इसके लिए बीच-बीच में मिलिट्री के बड़े लोगों भी उन्हें समझाने आते थे ।
मोहम्मद डार दवा कम्पनी में काम तो करता रहा था, परंतु असल में उसका मन बंदूकों, गनों, बारूद-गोलों पर ही था । गन चलाना, अब उसे अच्छा लगने लगा था । वो जानता था कि इस तरह अपनी जिंदगी बिता कर वक्त खराब कर रहा है, वो दवाइयां बेचने के लिए पैदा नहीं हुआ । छः महीने बीत गए थे उसे ट्रेनिंग से लौटे और हर रोज वहां से बुलावे का इंतजार करता।
इस वक्त दोपहर के दो बजे मोहम्मद डार बहावलपुर के भीड़-भाड़ वाले इलाके में मौजूद था। उसने मोटर साइकिल को स्टैंड पर लगाया और लेदर का दवाइयों वाला बैग। कंधे पर लटकाए आगे बढ़ गया। फुटपाथ पर लोग आ-जा रहे थे। कंधे से कंधा टकरा रहा था । कुछ आगे जाने पर वो एक बड़ी-सी दवाइयों की दुकान में प्रवेश कर गया । इस वक्त दुकान खाली थी । कस्टमर तो क्या, सैल्समैन भी नहीं दिखे। कैश काउंटर के पीछे तीस वर्ष का युवक बैठा नोटों को गिनने में व्यस्त था ।
"सलाम वालेकुम ।" मोहम्मद डार ने मुस्कुरा कर कहा ।
"वालेकुम सलाम ।" वो युवक बोला और नोट गिनने में व्यस्त रहा ।
मोहम्मद डार बैग उतार कर काउंटर पर रखता कह उठा ।
"दुकान खाली है । कहां चले गए सब ?"
"लंच पर गए हैं । तुम आर्डर वाली दवा लाए क्या ?"
"ले के आया हूं ।" मोहम्मद डार ने बैग खोला और बांधा हुआ दवा का लिफाफा निकालता कह उठा--- "ये दवा बननी बंद हो गई। स्टॉक खत्म हो चुका है। ये मैं नहीं जानता हूं कि कैसे इंतजाम करके आपके लिए लाया हूं ।"
"ग्राहक का आर्डर है । उसे ये ही दवा चाहिए थी ।" नोट गिनता वो बोला--- "आर्डर पूरा है न ?"
"हां ।"
उसने नोटों पर रबड़ लगाई और उन्हें ड्रॉज में रखकर उसे बंद किया फिर दबाकर बड़ा-सा लिफाफा उठाकर नीचे रखा और मोहम्मद डार को देखा । मोहम्मद डार ने बैग से बिल बुक निकाली और पहले से तैयार कर रखा बिल निकाल कर उसे दिया।
"येआज की दवा का बिल है ।"
उसने बिल लेकर ड्रॉज में रख लिया ।
"पिछली पेमेंट का सत्तर हजार देने का आज आपने वादा किया था ।" मोहम्मद डार बोला ।
"कहा तो था, लेकिन डार साहब आज पेमेंट नहीं हो पाएगी ।" उसने कहा ।
"ये आप क्या कह...।"
"अगले हफ्ते शायद हो जाए ।"
"जनाब । कंपनी वालों ने मेरी तनख्वाह रोक ली है कि फतह कैमिस्ट से सत्तर हजार की पेमेंट लाने पर ही मेरी तनख्वाह...।"
"अगले हफ्ते ही...।"
"तब तक तो मैं लूट जाऊंगा। मेरी तनख्वाह नहीं मिलेगी तो मोटर साइकिल में पेट्रोल कहां से डालूंगा ।"
"पांच सौ रुपया मुझसे ले जाओ ।"
"पेट्रोल डलवाने के लिए ।"
"आप मजाक कर रहे हैं, लेकिन मैं गंभीर हूं । कम्पनी वाले मुझसे सत्तर हजार की पेमेंट मांग रहे हैं, जबकि आपने आज पैसे देने का वादा किया और मैंने भी कम्पनी से वादा किया है कि आज पेमेंट उन्हें दे दूंगा।"
"एक हफ्ता तो कुछ नहीं हो सकता ।"
मोहम्मद डार के चेहरे पर तीखे भाव उभरे ।
"आप हफ्ते की बात कर रहे हैं, लेकिन मेरे पास एक दिन का भी वक्त नहीं...।"
"इस तरह बोलने का कोई फायदा नहीं। अगले हफ्ते ही पेमेंट दे पाऊंगा ।"
"ये तो नाइंसाफी हुई ।"
"हाथ तंग चल रहा है । मकान बनवा रहा हूं । वहां काफी पैसा लग रहा...।"
"जनाब, कम्पनी ये पैसा मेरे खाते में डाल देती है। मेरी तनख्वाह बंद कर कर दी कि मैंने उनसे काफी दवाइयां ले ली। आप मेरी मजबूरी ।"
"अगले हफ्ते भी बीस हजार ही दे पाऊंगा ।"
"बीस हजार ? सिर्फ बीस हजार । पेमेंट तो सत्तर हजार की है ।"
"बोला तो मकान बनवा रहा हूं। हाथ तंग चल रहा है । बीस हजार का भी मुझे इंतजाम करना पड़ेगा ।"
"अब तो आपने पूरी बात ही गलत कर दी ।" मोहम्मद डार ने कहा ।
"मैं क्या करूं, मैं मजबूर...।"
"ठीक है । आप मेरी दवाएं वापस कर दें। मैं कम्पनी को...।"
"वो तो बिक गई।"
"बिक गई। फिर तो आपको अब तक पेमेंट दे देनी चाहिए थी ।" मोहम्मद डार ने कठोर स्वर में कहा ।
"मेरा दिमाग मत खाओ । अगले हफ्ते आकर बीस हजार ले जाना ।" उस युवक ने कहा--- "मैंने अब वैसी दवा दूसरी कम्पनी से लेनी शुरू कर दी है। वो कहते हैं डेढ़ महीने बाद पेमेंट लिया करेंगे। तुम तो हफ्ते का वक्त देते हो ।"
"दवाओं में हफ्ते का ही वक्त दिया जाता है। मेरी कम्पनी की दवा फौरन बिक जाती है ।" मोहम्मद डार ने नाराजगी-भरे स्वर में कहा--- "मेरी पेमेंट नहीं दे रहे और कह रहे हो कि दूसरी कम्पनी से दवा लेनी शुरू कर दी है।"
"मैं जिससे भी दवा लूं । तुम्हें क्या ?"
"सही कहा । परंतु मेरा पैसा तो मुझे चाहिए ।"
"अगले हफ्ते बीस हजार ले जाना । अब जाओ, मुझे और भी काम करने हैं ।"
"तुम मुझे अभी पैसे दो ।" मोहम्मद डार कह उठा ।
काउंटर के पीछे बैठा युवक मुस्कुरा कर बोला ।
"मेरा जो मकान बन रहा है वहां जाओ और वहां से ईंट उठा लो। ये ही रास्ता है तुम्हारे पास ।"
मोहम्मद डार के चेहरे पर कठोरता उभरी ।
"तीन हफ्तों से तुम मुझे इसी तरह लटका रहे हो। कम्पनी वाले मेरी तनख्वाह भी मुझे नहीं दे रहे । मैंने तुम पर भरोसा करके...।"
"जाओ भी अब । मुझे लंच करना है।" युवक कह उठा ।
मोहम्मद डार की आंखों में खतरनाक भाव उभरे ।
"जाऊं ।"
"फौरन चले जाओ ।"
"मोहम्मद डार तुरंत पलटा और बाहर की तरफ बढ़ा ।
"अपना बैग तो ले जाओ ।"
तभी मोहम्मद डार ने ऊपर कर रखा दुकान का शटर पकड़ा और एक ही झटके में नीचे कर दिया। शटर आधे से ज्यादा बंद हो गया । मोहम्मद डार पलटा तो वहशी भाव थे चेहरे पर ।
"ये तुम क्या कर रहे हो ।" युवक हड़बड़ाकर बोला--- "तुम-तुम...मैं पुलिस को बुला लूंगा ।"
"मैं जा रहा हूं जनाब ।" मोहम्मद डार काउंटर की तरफ आता बोला--- "आपने लंच करना है, इसलिए शटर नीचे...।"
"तुम-तुम फौरन निकल जाओ यहां से...।"
इसी पल मोहम्मद डार ने छोटी-सी छलांग लगाई और काउंटर के उस पार, युवक के पास पहुंचा ।
"मैं पुलिस को बुला लूंगा । तुम क्या मुझे लूटने वाले...।"
"शोर क्यों कर रहे हो ।" मोहम्मद डार काउंटर के नीचे से पन्नी वाला लिफाफा निकालता बोला--- "ये देखो, सिर्फ एक लिफाफा तो ले रहा हूं । तुम इस तरह हल्ला कर रहे हो जैसे तुम्हारा गला दबा रहा होऊं।"
"लिफाफा तो तुम यूं भी मुझसे मांग कर ले सकते...।"
मोहम्मद डार ने लिफाफे में हाथ डाला और पलक-झपकते ही लिफाफे वाला हाथ उसकी गर्दन पर टिका दिया और उसकी उंगलियां युवक के गले के गिर्द कसने लगी।
युवक छटपटाया ।
"मत करो ।" युवक घुटे स्वर में बोला--- "मैं-मैं तुम्हें पैसा देता हूं। पूरा सत्तर हजार देता हूं ।"
"है तुम्हारे पास ?" मोहम्मद डार गुर्राया ।
"ह...हां ।" वो फंसे स्वर में कह उठा।
"कहां है ?"
"नीचे ड्रॉज में ।"
"वो अब मैं खुद ले लूंगा ।" मोहम्मद डार की उंगलियों का दबाव उसके गले पर बढ़ गया ।
युवक तेजी से छटपटा उठा । अपने दोनों हाथों से, गले पर पड़ा मोहम्मद डार का हाथ छुड़ाने की चेष्टा की। परंतु नाकाम रहा। कुछ कहना चाहा, लेकिन आवाज नहीं निकली । उसका चेहरा लाल होने लगा था ।
वो बुरी तरह तड़पा । टांगे छटपटा उठी ।
परंतु मोहम्मद डार का हाथ जैसे लोहे का शिकंजा बनकर, उसके गले पर टिक चुका था । दांत भिंचे हुए थे मोहम्मद डार के । गालों की हड्डियां दोनों तरफ से उभर कर, बाहर को झलकने में लगी थी। वो दरिंदा लगने लगा था । युवक तेजी से छटपटा रहा था । काउंटर के पीछे जगह भी कम थी कि हाथ पैर मार कर खुद को बचा सके ।
युवक का चेहरा पूरी तरह सुर्ख पड़ गया था । आंखें जैसे उबल कर बाहर आने को तैयार थी। वो बुरी तरह तड़पने की असफल चेष्टा कर रहा था। मोहम्मद डार ने अपनी पूरी ताकत हाथ में लेकर, उसका गला दबा रखा था ।
एकाएक युवक की छटपटाहट कम होने लगी ।
फिर थम गई उसकी छटपटाहट । उसकी आंखें बाहर आ चुकी थी। मुंह खुला और जीभ बाहर निकली पड़ी थी। उसके मृत चेहरे पर पीड़ा के भाव छपे दिखाई दे रहे थे। हाथ-पांव ऐंठे पड़े थे। मोहम्मद डार ने उसकी गर्दन से हाथ हटाया तो वो कुर्सी पर ही एक तरफ लुढ़क गया । वहशी भाव आंखों में समेटे मोहम्मद डार कुछ पल उसे देखता रहा फिर बड़बड़ाया
"ट्रेनिंग में दम है।"
उसके बाद मोहम्मद डार ने नीचे का ड्रॉज खोला। वहां नोटों की कई गड्डियां पड़ी थी।
"कमीना। हरामजादा। मेरे सत्तर हजार नहीं दे रहा था और नीचे नोट रखे बैठा है।" उसने नोटों की सारी गड्डियां निकालकर अपने बैग में रखी । बैग की जिप बंद की और काउंटर के इस पार आकर हाथ से चढ़ा रखा पन्नी वाला लिफाफा फेंका और रुमाल निकाल कर काउंटर पर से अपनी उंगलियों के निशान साफ करने के बाद दुकान का शटर उठाया और बाहर निकल आया ।
■■■
रात दस बजे मोहम्मद डार अपने घर पहुंचा। मोटर साइकिल खड़ी की। काला बैग उसने कंधों पर ही फंसा रखा था। चालीस वर्ष का होने के बावजूद भी उसमें युवकों जैसी फुर्ती थी। इस बात का श्रेय वो अपनी शादी न करने को देता था । आज उस युवक की जान लेने के बाद खुद को बहुत हल्का महसूस कर रहा था । अपने विश्वास को और भी बढ़ा हुआ महसूस कर रहा था । सत्तर हजार रुपया उसने कम्पनी को दे दिया था। चालीस हजार ऊपर था । वो उसने खुद रख लिया था। मोटरसाइकिल से वो दो कदम ही आगे बढ़ा था कि उसने किसी को पुकारते सुना ।
"डार।"
मोहम्मद डार ठिठकर फौरन पलटा ।
पांच कदमों के फासले पर किसी को खड़े देखा। रोशनी ज्यादा न होने की वजह से, उसका चेहरा ना देख पाया ।
"क्या है ?" मोहम्मद डार ने आंखें सिकोड़कर पूछा ।
"मुझे पहचाना नहीं । मेरी आवाज को भी नहीं पहचाना डार ।" अंधेरे में खड़ा व्यक्ति बोला । मोहम्मद डार ने फौरन अपने दिमाग पर जोर दिया । अगले ही पल चौंका । वो उस आवाज को पहचान गया था वो मुनीम खान था । तेजी से उसकी तरफ बढ़ते मोहम्मद डार कह उठा ।
"मुनीम खान, तुम ।"
"धीरे बोलो ।" मुनीम खान हौले से हंसा--- "दुनिया को सुनाएगा क्या ?"
मोहम्मद डार उसके गले लगा ।
"खुश हो ?" मुनीम खान ने पूछा ।
"नहीं ।"
"क्यों ?"
"मुझसे कोई काम क्यों नहीं लिया जा रहा ? इसलिए नाराज हूं।" मोहम्मद डार ने कहा ।
"तुम्हारी नाराजगी दूर करने तो आया हूं । तेरे लिए हामिद अली ने बुलावा भेजा है ।"
"हामिद अली ने ?"
"हां।"
"यकीन नहीं आ रहा कि मुझे हामिद अली ने बुलाया है । सच कह रहे हो ?"
"बिल्कुल सच ।"
"ओह । खुश कर दिया तुमने मुझे । मुनीम खान, इस बुलावे को सुनकर मैं बहुत खुश हो गया ।"
"आज से चौथे दिन तुम ने दाऊद खेल में, हामिद अली के ठिकाने पर पहुंचना है ।"
"पहुंच जाऊंगा ।"
"तुमसे बहुत खास काम लिया जाना है । हामिद अली तुम पर बहुत भरोसा कर रहा है ।"
"मैं ही हूं भरोसे के काबिल ।"
"काम खतरनाक है। जैसा कि तुम चाहते थे ।"
"कुछ तो बताओ कि क्या काम है ?" मोहम्मद डार ने उत्सुक स्वर में पूछा ।
"पाकिस्तान का काम है। देश की लड़ाई का गोश्त तुम्हारे कंधे पर रखा जाएगा। तैयार हो ?"
"पूरी तरह ।"
"जान भी जा सकती है ।"
"ऐसा कह कर तूम मुझे डराने की कोशिश कर रहे हो, लेकिन मैं डरने वाला नहीं।" मोहम्मद डार हंसा ।
"वापसी का चांस आधा-आधा है । सोच लो ।" मुनीम खान ने कहा ।
"देश के लिए तो मैं कुछ भी कर सकता हूं। ऐसे ही किसी मौके की तलाश में था मैं। कहां करना है काम ?"
"हिन्दुस्तान ।"
"ओह, इस साले हिन्दुस्तान को तो मैं तबाह कर दूंगा । ये मुझे कभी भी अच्छा नहीं लगा ।"
"मौका मिल रहा है हिन्दुस्तान को तबाह करने का। प्लान हम देंगे। साधन हम देंगे। काम तुम करोगे ।"
"मैं अकेला ?"
"नहीं । ऐसे काम अकेले नहीं होते। पूरे सात लोग होगे तुम लोग । जो पाकिस्तान से हिन्दुस्तान पहुंचेंगे । वहां तुम लोगों को और लोग भी मिलेंगे। वो लोग जो हिन्दुस्तान में रहकर हमारे लिए, अपने देश पाकिस्तान के लिए काम कर रहे हैं।"
"समझ गया ।
"चौथे दिन दाऊद खेला आ जाना । हामिद अली को तुम्हारा इंतजार रहेगा ।"
■■■
पाकिस्तान का शहर-डेरा इस्माइल खान ।
सफेद पैजामा-कुर्ता और वैसी ही टोपी पहने युवक का नाम गुलाम कादिर भट्ट था । उम्र बीस वर्ष थी । अब्बा की कपड़े की दुकान थी। भाई भी अब्बा के साथ दुकान पर बैठा था परंतु गुलाम का कादिर कभी भी दुकान पर बैठने की कोशिश नहीं की थी। घर में खाने पीने की कोई कमी नहीं थी । बारह क्लासें वो पढ़ा था फिर पढ़ाई छोड़ दी और कहने लगा फौज में जाऊंगा। परंतु फौज में चुना नहीं गया तो एक दिन घर से भाग गया। कहां गया, कोई खबर नहीं । घरवालों ने ढूंढा-तलाश किया फिर थक कर बैठ गए ।
डेढ़ साल बाद जब उन्नीस का हुआ तो उस दिन घर लौट आया। घर वाले बहुत खुश हुए कि गुलाम कादिर लौट आया है। पहले से उसकी सेहत अच्छी हो गई थी। चेहरे पर निखार आ गया था। घर वालों ने बहुत पूछा कि डेढ़ साल का तक कहां रहा, परंतु उसने इस बात का जवाब कभी नहीं दिया । एक दिन वो भी आया जब घर वालों ने पूछना छोड़ दिया ।
साल-भर से गुलाम कादिर यूं ही इधर-उधर घूमता रहता है। अब्बा भाई ने कई बार उसे दुकान पर बैठने को कहा, परंतु उसने स्पष्ट कह दिया कि दुकान पर नहीं जाएगा । अब मन-ही-मन घरवालों को उसकी फिक्र थी कि वो कोई काम कर ले, वरना जिंदगी का खर्चा कैसे उठा पाएगा ।
गुलाम कादिर ने तो जैसे अपनी जिंदगी की दिशा चुन रखी हो, इस तरह वो निश्चिंत था । हर शाम घर के पास बने बड़े पार्क में बिताता था । वहां पन्द्रह-बीस लड़के आ जाते थे जिनके साथ वो खेलता और बातें करता था। उन्हें तो उसने भी कह रखा था कि उसने फौज की ट्रेनिंग ले रखी है और एक दिन हिन्दुस्तान से लड़ाई करेगा । इस वक्त भी उसी पार्क में था, जहां वे बच्चों के साथ फुटबॉल खेल रहा था । जब सब थक गए तो एक घेरे में आ बैठे । एकाएक गुलाम कादिर कह उठा ।
"राशिद नहीं आया ?"
"वो लाहोर गया है । वहां बम फटा है और उसके चाचा जान मारे गए ।" एक बच्चे ने बताया ।
"हिन्दुस्तान ने तबाह कर रखा है पाकिस्तान को।"
"हमारे देश को हिन्दुस्तान तबाह कर रहा है ?" दूसरे बच्चे ने कहा ।
"तो तुम लोग क्या समझते हो, ये जो हर रोक धमाके हो रहे हैं, बम फट रहे हैं। गोलियां चलाकर, लोगों को मारा जा रहा है। लोगों का अपहरण करके उन्हें मार दिया जाता है, ये सब कौन कर रहा है ?" गुलाम कादिर गुस्से में दिखा।
सबकी निगाहें गुलाम कादिर पर जा टिकी।
"ये सब हिन्दुस्तान के इशारे पर हो रहा है। हिन्दुस्तान हमारे शांत देश को देखकर सहन नहीं करता कि हमारे यहां इतनी शांति क्यों है। क्यों चैन-अमन है। वो सीमा पार करा कर अपने लोगों को पाकिस्तान भेजता है कि यहां पर दंगे करो। बम फेंको। गोलियां चलाओ और विदेशी लोगों की जान लो कि पाकिस्तान बदनाम हो ।" गुलाम कादिर का चेहरा गुस्से से लाल हो उठा था--- "हिन्दुस्तान हमारे देश के गद्दारों को पैसा देकर अपने साथ मिला लेता है। ये सब कुछ हिन्दुस्तान कर आ रहा है और बदनाम होता है पाकिस्तान। हमारी पुलिस भी किसी-न-किसी को पकड़ती हैं जो हिन्दुस्तानी एजेंट होता है। हिन्दुस्तान के इशारे पर हमारे देश में कई तरह के संगठन खड़े हैं जो हर वक्त किसी न किसी बहाने आशांति फैलाते रहते हैं । कभी लाहौर में विस्फोट होता है तो कभी इलाहाबाद में । पांच दिन पहले कराची में विस्फोट हुआ और पचास से ज्यादा लोग मारे गए। एक बार हिन्दुस्तान जाने का मौका मिल जाए, फिर देखना, मैं क्या करता हूं।"
"तब तो हमारे देश को हिन्दुस्तान पर हमला कर देना चाहिए ।"
"हमला होगा और जरूर होगा ।" गुलाम कादिर गुर्राया--- "और उस हमले में मैं सबसे आगे रहूंगा। गुलाम कादिर हिन्दुस्तान को पूरी तरह बर्बाद कर देगा और वहां की खाली जमीन को पाकिस्तान का नाम देकर फिर से आबाद किया जाएगा ।"
"ऐसा हो जाएगा क्या ?"
"क्यों नहीं होगा मैं करूंगा । मिलिट्री की ट्रेनिंग मैंने इसी वास्ते तो ली है ।"
"तो तुम मिलिट्री की वर्दी क्यों नहीं पहनते ?"
गुलाम कादिर ने पूछने वाली लड़की को देखा फिर कह उठा ।
"मैं वर्दी वाला फौजी नहीं हूं । बिना वर्दी वाला फौजी हूं । वर्दी वालों से कहीं बेहतर काम कर सकता हूं । जो काम वो नहीं कर सकते, मैं वो काम भी कर सकता हूं । एक बार मौका मिल जाए कुछ कर जाने का, फिर देखना ये गुलाम कादिर क्या करता है । एक-एक हिन्दुस्तानी को कुत्ते की मौत मारूंगा । कहर बरपा दूंगा, हर तरफ...।"
"फिर तो तुम्हें अभी हिन्दुस्तान चले जाना चाहिए ।" एक बच्चा कह उठा ।
"जरूर जाऊंगा । जब सही वक्त आएगा। तब जाऊंगा। गिन-गिन कर बदले लूंगा हिन्दुस्तान से, जो-जो उसने पाकिस्तान में किया है । कल के अखबार में पढ़ा कि दो हिन्दुस्तान जासूस पकड़े गए हैं । हमारे देश की मिलिट्री के खुफिया दस्तावेज उनके पास से मिले। हर तरफ से हमारे देश पाकिस्तान को कमजोर करना चाहता है हिन्दुस्तान । लेकिन मैं सब ठीक कर...।"
"तुम देर करोगे तो हमारा पूरा देश बर्बाद हो जाएगा। जल्दी कुछ करो ।" एक बच्चे ने चिंता भरे स्वर में कहा ।
"करूंगा, जल्दी करूंगा । ये बड़ा काम है । सोच-समझकर करना होगा । मैं हिन्दुस्तान को सबक..।"
"मेरे अब्बा भी कह रहे थे कि हिन्दुस्तान की वजह से हमारे देश को बहुत नुकसान होता है ।" एक अन्य बच्चा बोला--- "हिन्दुस्तान की वजह से अमेरिका ने पाकिस्तान को बड़ी मदद देने से मना कर दिया।"
"अमेरिका भी हिन्दुस्तान से मिला हुआ है । हमारा सच्चा साथी सिर्फ चीन है। चीन हिन्दुस्तान से सीधे मुंह बात नहीं करता और हमें वो पूरी इज्जत देता है । चीन हमारे देश को हर तरह सहायता देता है ।" गुलाम कादिर ने कहा--- "सच बात तो ये कि चीन हिन्दुस्तान को पसंद नहीं करता। वो सिर्फ पाकिस्तान से दोस्ती रखता है जबकि अमेरिका हिन्दुस्तान को भी अपना दोस्त कहता है। मैं हिन्दुस्तान को खत्म कर दूंगा । तो अमेरिका भी सुधर जाएगा ।" गुलाम कादिर पूरी तरह गुस्से में भर चुका था।
■■■
रात खाना खाने के बाद गुलाम कादिर टी. वी. पर अमिताभ बच्चन की फिल्म देख रहा था कि अब्बा और भाई दुकान बंद करके घर पहुंचे थे । कुछ देर बाद उसके कानों तक बातों की आवाज में पहुंची। दुकान का कोई मसला था, उस पर बात हो रही थी। थोड़ी देर बाद अम्मी कमरे में आई गुलाम कादिर ने उससे पूछा ।
"अब्बा दुकान की क्या बात कर रहे हैं अम्मी।
"दुकान के सामने एक चाय वाला बैठता है, उसकी बात हो रही है । उसकी वजह से दुकान दब जाती है। बहुत देर से उसे वहां से उठ जाने को कह रहे हैं, पर वो मानता नहीं । आज तो उसे, उठ जाने का दस हजार रुपया देने को भी कह दिया ।" अम्मी बोली ।
"फिर तो मान गया होगा ?"
"नहीं मानता । कहता है पचास हजार रुपया दो, तब भी ये जगह नहीं छोडूंगा ।" कहकर अम्मी निकल गई ।
गुलाम कादिर टी.वी. पर फिल्म देखता रहा ।
■■■
अगले दिन सुबह गुलाम कादिर जब घर से निकला तो दिन के साढ़े ग्यारह बज रहे थे । आज उसने पैंट-कमीज पहनी थी। जूते पहने थे। बस द्वारा सफर करके वो दुकान पर पहुंचा । उसे आया पाकर अब्बा और भाई बहुत खुश हुए अब्बा ने उसे मन से चाय-पानी पिलाया । इस दौरान गुलाम कादिर ने दुकान के सामने बैठे चाय वाले को अच्छी तरह देखा । वो पुराना-सा काउंटर रखें, उस पर ही चाय की दुकान खोले बैठा था । आस-पास गंदगी फैली थी। लोग वहां चाय आकर पीते थे और चाय वाला दुकानों पर भी चाय सप्लाई करता था । गुलाम कादिर ने सोचा कि अगर वो चाय वाला दुकान के सामने से हट जाता है तो वास्तव में दुकान बेहतर दिखेगी और ग्राहक ज्यादा आएंगे । तभी उसके अब्बा ने पूछा ।
"दुकान पर बैठने का मन बना लिया क्या ?"
"नहीं अब्बा । मैं तो इधर से निकल रहा था तो सोचा यहां चक्कर लगा लूं ।" गुलाम कादिर ने कहा।
"बिना काम के ऐसे कब तक घूमता रहेगा । कोई दूसरा काम पसंद हो तो वो कर ले ।"
"बताऊंगा अब्बा ।" गुलाम कादिर उठ खड़ा हुआ ।
"आज आया है तो दुकान पर ही रह। देख तो कैसे काम होता है। शायद तुझे पसंद आ जाए ।"
"फिर आऊंगा अब्बा ।" कहकर गुलाम कादिर दुकान से निकला और आगे बढ़ गया ।
कुछ आगे जाकर वो ठिठका और एक तरफ खड़ा होकर चाय वाले को देखने लगा । चाय वाले ने एक लड़का भी लगा रखा हुआ था जो गिलास छोड़ने और चाय सप्लाई का काम करता था । घंटा-भर गुलाम कादिर वहां खड़ा। चाय वाले को देखता रहा। फिर उसने चाय वाले को इसी तरफ आते देखा। वो गुलाम कादिर के पास से निकला । तीस वर्ष का पतला-सा युवक था वो । चेहरे पर दाढ़ी थी । गुलाम कादिर उसके पीछे चल पड़ा। कुछ आगे जाकर चाय वाला मुड़ गया। गुलाम कादिर उस पर नजर रखे चलता रहा । ये भीड़-भरा बाजार था और उसके निगाहों से ओझल हो जाने का खतरा था । फिर उसने चाय वाले को सड़क किनारे पेशाब घर में घुसते देखा ।
गुलाम कादिर पास ही फुटपाथ पर खड़ा हो गया ।
करीब से लोग निकल रहे थे। चाय वाला जब पेशाब होने से निकलकर वापस जाने लगा तो गुलाम कादिर ने कहा ।
"जनाब एक मिनट ।"
"क्या है ?" वो रुका । उसे देखा ।
"तुम वहां चाय की दुकान चलाते हो न ?" गुलाम कादिर ने मुस्कुरा कर कहा।
"हां। तो ?"
"नाराज क्यों होते हो जनाब। मैं चाय कम्पनी में काम करता हूं और तुम्हें मुफ्त के भाव चाय दे सकता हूं ।"
"मुफ्त के भाव-क्या भाव ?"
"पचास रुपए किलो ।"
"चायपत्ती और पचास रुपए किलो ।" उसने अजीब से स्वर में कहा--- "तुम मजाक कर रहे हो ।"
"सच कह रहा हूं। दस किलो तो अभी ले लो । उधर पार्किंग में मेरी गाड़ी खड़ी है । उसमें रखी है।"
उसने शक भरी निगाहों से गुलाम कादिर को देखकर कहा।
"तुम मुझे बेवकूफ बना रहे हो। इतनी सस्ती चाय पत्ती नहीं मिलती तीस रुपए की ढाई सौ ग्राम तो मैं लेता हूं ।"
"और मैं तुम्हें पचास रुपए किलो दे रहा हूं । वो भी बढ़िया कम्पनी की ।" गुलाम कादिर मुस्कुराया ।
"इतनी सस्ती कहां से लाए ?"
गुलाम कादिर ने आस-पास देखा फिर धीमे स्वर में बोला ।
"मैं चाय कम्पनी में काम करता हूं, वहां से माल खिसकाया है ।"
"तो ये बात है ।" चाय वाले ने सिर हिलाया--- "कौन कम्पनी में काम करते...।"
"गुलाब चाय...।"
"ये तो मंहगी चाय है ।"
"तुम्हें लेनी हो तो बोलो, नहीं तो मैं किसी और को...।"
"मुझे दे दो । दस किलो पूरी है न ?"
"चलकर खुद ही देख लो । वो वाली पार्किग में खड़ी मेरी कार में है, चाय पत्ती के डिब्बे ।"
दोनों सामने दिखाई दे रही पार्किग की तरफ बढ़ गए ।
"पैसे नकद दोगे किश्तों में ?" गुलाम कादिर ने पूछा ।
"तीन सौ अभी ले लेना। सौ कल और सौ परसों दूंगा ।"
"ठीक है ।"
"आज ही चाय पत्ती दोगे या आगे भी देते रहोगे ?" चाय वाले ने पूछा ।
"मैं तुम्हें अपना फोन नम्बर दूंगा । जब जरूरत हो फोन कर देना ।"
वे दोनों पार्किग में पहुंचे । वहां हर तरफ कारों की कतारें नजर आ रही थी। वो काफी बड़ी पार्किंग थी । प्रवेश गेट के पास एक कमरा बना हुआ था, जहां पर्किंग वाले दिन-रात रहते थे। गुलाम कादिर कुछ दूर, पीछे खड़ी कारों की तरफ चाय वाले को ले जाने लगा । आगे सुनसानी थी । कुछ आगे खामोशी से चलने के बाद चाय वाला बोला ।
"बहुत दूर कार खड़ी की है ।"
"जहां जगह मिली, वहीं खड़ी करूंगा ।" गुलाम कादिर की निगाह हर तरफ घूम रही थी ।
"कार ढूंढ रहे हो ?" चाय वाले ने पूछा ।
"ज्यादा पूछताछ मत कर । गुलाब चाय पत्ती ले और निकल जा । आजकल पुलिस बहुत तेज हो गई है ।"
"क्यों मजाक करते हो ।" चाय वाले ने दांत फाड़े--- "पुलिस भला चायपत्ती की परवाह क्यों करेंगी ?"
"चोरी की है न ।" गुलाम कादिर ठिठकते हुए कहा।
चाय वाला भी रुका । बोला ।
"कौन-सी कार है ?"
"ये वाली।" गुलाम कादिर कतार में खड़ी दो कारों की भी जा खड़ा हुआ । जेब में हाथ डाला, जैसे चाबी निकाल रहा हो।
चाय वाला पास आ गया । गुलाम कादिर ने खाली हाथ ही बाहर निकाल लिया। चेहरे पर खतरनाक मुस्कान नाच उठी।
चाय वाला उसके चेहरे के भाव देखकर हैरान-सा हुआ ।
"क्या हुआ ?" उसने पूछा ।
"तेरे से बात करनी है इसलिए, तेरे को मैं यहां लाया । गुलाब चाय पत्ती पाने की औकात नहीं है तेरी ?" स्वर कड़वा हो गया।
"क्या मतलब ?" चाय वाला कुछ नहीं समझ सका ।
"जिस दुकान के सामने तू चाय की दुकान लगाता है, वो मेरे अब्बा की है ।" गुलाब कादिर ने कहते हुए उसके सिर के बाल मुट्ठी में पकड़ लिए । आंखों में वहशी चमक आ ठहरी--- "मेरे अब्बा नहीं चाहते कि तू उनकी दुकान के सामने चाय की दुकान लगाए । तेरे को दस हजार देने को कहा पर तू नहीं माना । क्या समझता है अपने को ।" कहने के साथ ही गुलाम कादिर ने सिर के बालों को झटका दिया ।
'धाम' उसका सिर जोरों से कार से जा टकराया ।
चाय वाले के होठों से घुटी-घुटी चीख निकली।
दरिंदा लग रहा था गुलाम कादिर । उसके बाद तो उसने बस नहीं की । एक के बाद एक बार-बार उसका सिर कार से टकराता रहा। सिर के बालमुट्ठी में जकड़ रखे थी । पीड़ा के मारे वो ठीक से चीख भी नहीं पा रहा था।
ये सब तब तक चलता रहा, जब तक कि उसका सिर चीथड़ों में न बदल गया।
■■■
गुलाम कादिर पार्किंग में से बाहर निकला और सामान्य चाल से आगे बढ़ गया। हाथ पर थोड़ा सा खून लगा हुआ था, इसलिए दाएं हाथ को जेब में डाल रखा था और उसकी निगाह पानी की तलाश कर रही थी कि हाथ धो सके। अब उसने दुकान की तरफ का रास्ता नहीं पकड़ा था। बल्कि उल्टी दिशा की तरफ जा रहा था। कुछ आगे जाने पर उसे सड़क किनारे लगा हैंडपम्प दिखा दो वहां से पानी चला कर उसने दोनों हाथ धोए। कपड़ों पर भी अच्छे से नजर मारी कि कहीं खून लगा तो नहीं । सब ठीक पाकर वो आगे चल पड़ा और जेब से रुमाल निकाल कर गीले हाथों को साफ किया । एकाएक ही गुलाम कादिर के होंठों पर मुस्कान थिरक उठी । डेढ़ साल की जो ट्रेनिंग ली थी, उसे आज पहली बार आजमाया था। ट्रेनिंग में उसे बताया गया कि पास में हथियार न हो तो, किसी भी चीज को हथियार बना लो। हमारे आस-पास हर वक्त हथियार मौजूद रहते हैं। सिर्फ देखने का नजरिया होना चाहिए ।
आज उसने ये ही चैक किया था । कार को हथियार बना लिया था और एक मिनट से भी कम में उसे खत्म कर दिया था। इस वक्त गुलाम कादिर अपने में अजीब-सी ताकत का एहसास पा रहा था कि उसके सामने हर इंसान कमजोर है। कुछ देर चलते रहने के बाद गुलाम कादिर एक नान की दुकान पर रुक गया । वो भूख-सी महसूस कर रहा था। वैसे भी दोपहर के ढाई बज रहे थे। दुकान के भीतर दो टेबल लगे थे । तीन लोग टेबलों पर खा भी रहे थे । उसने भीतर प्रवेश किया और एक टेबल पर जगह बना कर बैठ गया । बिल्कुल शांत दिख रहा था वो।
दुकान वाले का छोकरा ऑर्डर ले गया । फिर आराम से उसने नान खाए । आधे घंटे बाद जब दुकान से बाहर निकला तो ठिठक गया । चार कदमों के फासले पर मुनीम खान खड़ा, उसे देखता मुस्कुरा रहा था ।
अविश्वास-भरी नजरों से वो मुनीम खान को देखता रहा ।
मुनीम खान उसी मुस्कान के साथ उसके पास आया और कंधे पर हाथ रखकर बोला
"कैसे हो गुलाम कादिर ?"
"मुझे विश्वास नहीं आ रहा कि ये तुम हो। मैं तुमसे बातें कर रहा हूं ।" गुलाम कादिर के होंठों से निकला ।
"ये मैं ही हूं । तुम्हारा मुनीम खान ।"
"वे दोनों फुटपाथ पर चलने लगे थे। मुनीम खान का हाथ उसके कंधे पर था।
"मैं तो तुम्हें भूल ही बैठा था। तुमने कहा था कि मुझे जल्दी बुलाओगे, परंतु एक साल बीत गया । बुलावा नहीं आया ।
"हीरे की कद्र जौहरी ही जानता है।" मुनीम खान ने प्यार-भरे स्वर में कहा ।
"क्या मतलब ?"
"हीरा एक ऐसी चीज है, जिसे हर जेवरात से नहीं टांका जा सकता। ऐसा करने से हीरे की सही कद्र नहीं होती । साल-भर में हामिद अली ने जो भी जेवरात बनाए उनमें गुलाम कादिर नाम का हीरा लगाने की जगह नहीं थी। हामिद अली जानता है कि कीमती हीरे को किस जेवरात में लगाना है और किस में नहीं ।" मुनीम खान हौले-से हंसा ।
"मेरा दिल नहीं लग रहा मुनीम खान ।
"क्यों ?"
"कुछ करने का मन करता है। डेढ़ साल मैंने ट्रेनिंग ली और इस तरह खाली बैठा हूं ।"
दोनों धीमी गति से फुटपाथ पर चलते जा रहे थे ।
"तुम क्या समझते हो कि मुनीम खान तुम्हें भूल गया ?"
"यही लगा था मुझे ।"
"बेवकूफ, तुम्हें जो ट्रेनिंग मिली है, उस पर हमारा लाखों रुपया और कई लोगों की मेहनतें लगी है । ऐसी ट्रेनिंग हम भूलने के लिए नहीं देते। मैं तो सोच रहा था कि कहीं तुम ही हमें न भूले बैठे हो ।"
"मैं तो हर दिन तुम्हें याद करता हूं । लेकिन आज तुम्हें मेरी याद कैसे आ गई ?"
मुनीम खान हौले से हंसा फिर बोला ।
"हामिद अली का बुलावा लेकर आया हूं ।"
"क्या ?" गुलाम कादिर हैरानी से ठिठक गया ।
"यकीन नहीं आया ?"
"न-नहीं । हामिद अली का बुलावा । कानों पर भरोसा नहीं हो रहा कि मैंने सही सुना है या गलत ?"
"सही सुना है ।" मुनीम खान ने गुलाम कादिर का कंधा थपथपाया--- "हामिद अली ने ऐसा जेवरात तैयार किया है जिसमें तुझ जैसा हीरा लगने की कमी बाकी है । ये हीरा लगते ही वो जेवरात शानदार हो जाएगा ।"
"सच कह रहे हो ?"
"अल्लाह कसम ।" अपने बंदों से मुनीम खान कभी भी झूठ नहीं बोलता। तुम्हें दाऊद खेल तीन दिन में पहुंचना है। हामिद अली के ठिकाने पर । हामिद अली ने ऐसा काम तैयार किया है जिसमें तुम्हारी बहुत जरूरत है ।"
"मैं आऊंगा मुनीम खान ।"
"हिन्दुस्तान जाना है । वहीं पर काम करना है ।"
"इस दिन का तो मुझे कब से इंतजार था मुनीम खान । हिन्दुस्तान को बर्बाद करने की तमन्ना लेकर तो मैं तुम लोगों के पास पहुंचा था ।"
"तो तुम्हारी तमन्ना पूरी होने का वक्त आ गया है गुलाम कादिर। तीन दिन बाद दाऊद खेल, हामिद अली के ठिकाने पर पहुंच जाना। हामिद अली को तुम्हारे आने का बेसब्री से इंतजार रहेगा।"
■■■
पाकिस्तान का शहर-बन्नू।
तारिक मोहम्मद की उम्र पैंतालीस वर्ष थी । लंबे कद, सेहतमंद शरीर और आकर्षक चेहरे का मालिक तारिक मोहम्मद, ड्राई फूट का कारोबार करता था। बादाम, किशमिश, काजू, अंजीर हर तरह के ड्राई फ्रूट। कारोबार को चार चांद लगे हुए थे कि चार साल पहले उसके घर में डकैती पड़ी। उसके परिवार के सारे सदस्यों को मार कर घर से सब कुछ लूट कर ले गए। एक दिन पहले ही वो साठ लाख रुपया घर लाया था कि दो दिन बाद अफगानी व्यापारी को देना है। उस साठ लाख के आठ घर में पड़ा पच्चीस लाख का सोना भी ले गए। उस डकैती में तारिक मोहम्मद पूरी तरह बर्बाद हो गया था । परिवार के जाने का गम । कंगाल हो जाने का गम । लोगों को पैसा देना है उसका गम । बिजनेस ठप पड़ गया उसका गम ।
लेनदार लिए बिना रुकते कहां है ।
उसने अपना मकान बेचा । दुकान बेची । जो पैसा जमा कर रखा था, वो सारा मिलाकर लेनदारों के सामने रख दिया कि ले लो । खुद खाली हाथ सड़क पर आ गया । सारी उम्र ड्राई फ्रूट का ही काम किया था। ये ही काम वो जानता था । परंतु ड्राई फ्रूट का नामी व्यापारी होने की वजह से, कहीं नौकरी भी नहीं कर सकता था । ऐसे में ड्राई फ्रूट की दलाली का काम शुरू कर दिया। ज्यादा तो नहीं परंतु पेट भरने लायक कमा लेता था एक कमरा किराए पर ले रखा था । लेकिन उसका मन कहीं भी नहीं लग रहा था। परिवार की याद अक्सर आती रहती थी। पत्नी, दो बेटियां और एक बेटा मारे गए थे तब । दो साल बीतने पर भी पुलिस डकैतों को नहीं पकड़ पाई थी। ऐसे में उसका मन विद्रोह से भर गया। जिसे भी देखता उसका मन करता कि उसका सिर फोड़ डाले। उसकी जान ले ले । परंतु उसके विचार, विचार ही रहते हैं। ऐसे में हर रोज किसी को काट खाने को दौड़ता। मन बहुत खराब हो गया था दुनिया से । ड्राई फ्रूट की दलाली भी ठीक से न कर पा रहा था ।
ऐसे में उसे एक आदमी मिला। बात हुई और उसे अपने साथ ले गया ।
पूरे डेढ़ साल तक तारिक मोहम्मद को किसी ने नहीं देखा ।
डेढ़ साल बाद तारिक मोहम्मद जब लौटा तो पूरी तरह बदल चुका था वो अब शांत स्वभाव का था । चेहरे पर छोटी-सी मुस्कान दिखती रहती । उसकी आंखें किसी शिकारी आंखों की भांति कुछ खोजतीं रहती । वो पुनः ड्राई फ्रूट की दलाली के काम पर लग गया। अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच के चक्कर लगते रहते । बहुत अच्छे ढंग से उसने काम को संभाल लिया था। पहले के तारिक मोहम्मद और अब के तारिक मोहम्मद में बहुत फर्क आ गया था। वो कम बोलता अपने काम की तरफ ध्यान रखता । ज्यादा लोगों से बात नहीं करता था। तारिक मोहम्मद को लौटे छः महीने हो गए थे एक दिन ब्रीफकेस थामे वो एक बाजार से निकल रहा था । शरीर पर कीमती कमीज-पैंट थी। आंखों पर चश्मा लगा रखा था कि तभी एक चौराहे पर उसे दो पुलिस वालों ने रोक लिया । फिर उन्होंने जो कहा, उसकी तो उसने कल्पना भी नहीं की थी ।
"ये ही है, जिसे हम ढूंढ रहे थे, इसी ने उस लड़की से बलात्कार किया था।" एक ने दूसरे से कहा ।
दूसरे पुलिस वाले ने फौरन उसकी बांह पकड़ ली ।
"चल थाने ।"
"क्या कर रहे हो । आप लोगों को कोई गलतफहमी हुई है। मैं ड्राई फ्रूट का काम करता...।"
"थाने चल, सब बोलेगा तू।"
तारिक मोहम्मद ने उन्हें बहुत समझाने की चेष्टा की परंतु वो उसे थाने ले गए ।
थाने में इंस्पेक्टर के सामने उसे पेश किया गया ।
"जनाब । ये खुद को ड्राई फ्रूट का काम करता बताता है परंतु वो ही है ये, जिसने उस लड़की से बलात्कार...।"
"जनाब, इन्हें गलतफहमी हुई है ।" तारिक मोहम्मद ने कहा--- "मैं शरीफ आदमी हूं और...।"
"तुम्हें पूरा यकीन है कि ये वो ही है ।" इंस्पेक्टर उसकी बात पर ध्यान न देकर, उन दोनों से बोला ।
"पक्का जनाब । हमें पूरा यकीन है तभी तो इसे देखते ही पकड़ लिया ।"
"बंद कर दो इसे । फुर्सत मिलने पर इससे बात करता हूं ।"
"आप लोगों को गलतफहमी हो रही है ।" तारिक मोहम्मद परेशान हो गया था--- "मैं शरीफ आदमी हूं और ऐसा काम नहीं कर...।"
"शरीफ आदमी ही ऐसा काम करते हैं ।" इंस्पेक्टर ने कठोर स्वर में कहा ।
"लेकिन मैं...।"
"उस लड़की को अभी थाने बुलाता हूं । वो ही बताएगी कि क्या तुमने उससे बलात्कार किया है ।" इंस्पेक्टर ने उसे घूर कर बोला ।
"ये ठीक रहेगा ।" तारिक मोहम्मद ने चैन की सांस ली।
तारिक मोहम्मद को लॉकअप में बंद कर दिया गया ।
■■■
दो घंटे बाद तारिक मोहम्मद का लॉकअप खोला गया ।
"चल ।" सिपाही बोला--- "तेरी शिनाख्त होनी है।"
"हां- हां चलो ।" ब्रीफकेस थामे उठता हुआ तारिक मोहम्मद बोला--- "वो लड़की आ गई ।"
"ज्यादा सवाल मत पूछा । चल । वो जनाब के पास बैठी है ।"
सिपाही के साथ तारिक मोहम्मद, इंस्पेक्टर के पास पहुंचा। पच्चीस वर्ष की एक लड़की कुर्सी पर बैठी थी। तारिक मोहम्मद को देखते ही कह उठी ।
"भाई जान । ये ही है, जिस ने मेरे साथ जबरदस्ती की । मुझे बर्बाद कर दिया । गिरफ्तार कर लो इसे । फांसी पर चढ़ा दो ।"
तारिक मोहम्मद की हालत अजीब-सी हो गई ये सुनकर।
"मेरी बहन, तुम्हें गलतफहमी हो रही है। ध्यान से देखो मुझे, मैं वो नहीं हूं ।"
"तुम वो ही हो । उस दिन तुमने ये ही मेरे कपड़े पहन रखे थे । भाई जान इसे फांसी पर चढ़ा दीजिए ।" वो इस्पेक्टर से बोली।
इंस्पेक्टर ने कठोर निगाहों से उसे घुरा ।
"इसे गलतफहमी हो रही है। मैं वो नहीं हूं । ऐसा बुरा काम में नहीं कर...।"
"चुप हो जाओ। तुमने इसके साथ बलात्कार किया है । इसमें तुम्हें पहचान लिया है।" इंस्पेक्टर ने गुस्से से कहा ।
"नहीं जनाब, मैं...।"
"तुमसे अभी बात करता हूं ।" फिर वो लड़की से बोला--- "तुम जाओ । तुम्हारा काम खत्म हुआ ।"
"इसे फांसी पर...।"
"चिंता मत करो। इसे फांसी पर चढ़ाया जाएगा । तुम्हें अदालत में गवाही देने के लिए बुलाया जाएगा ।"
इंस्पेक्टर ने लड़की को वहां से भेज दिया ।
सिपाही खड़ा रहा। तारिक मोहम्मद ब्रीफकेस थामे ठगा-सा वहां खड़ा रहा। वो समझ नहीं पा रहा था कि क्या सोचे ?
"इस ब्रीफकेस में क्या है ?" इंस्पेक्टर ने सख्त स्वर में पूछा ।
"मेरे काम-धंधे के कागजात हैं। बिल बुक हैं, ऐसा ही कुछ सामान है ।" तारिक मोहम्मद ने कहा ।
"ब्रीफकेस चैक करो ।" इंस्पेक्टर ने सिपाही से कहा ।
सिपाही तुरंत उसके हाथ से ब्रिफकेस लेकर एक तरफ चला गया ।
"जनाब उस लड़की को गलतफहमी हुई है। मैं शरीफ इंसान हूं। ऐसा बुरा काम मैं नहीं...।"
"उस लड़की ने बेहिचक तुम्हें पहचाना...।"
"पहचानने में उसे धोखा हुआ है ।" तारिक मोहम्मद ने झुंझलाए स्वर में कहा ।
"इसका फैसला तो अदालत ही करेगी । हमारा काम तो केस तैयार करके, अदालत में पेश करना होता है ।"
"ऐसा मत कीजिए साहब । मैं शरीफ आदमी हूं । अल्लाह कसम ऐसा घिनौना काम मैं नहीं कर सकता ।
इंस्पेक्टर ने उसे कुछ पल घूरते रहने के बाद कहा ।
"लगते तो तुम शरीफ हो ।"
"मैं सच में शरीफ इंसान हूं ।"
"बैठ जाओ ।"
"तारिक मोहम्मद तुरंत कुर्सी पर बैठ गया ।
"तुम्हारे परिवार में कौन-कौन है ?"
"कोई नहीं । मैं अकेला ही हूं ।"
"तो ये बात है " इंस्पेक्टर के होंठ सिकुड़े ।"
"क्या मतलब ?"
"तुम्हारी पत्नी नहीं है ?"
"नहीं ।"
"तभी तुमने बलात्कार...।"
"ये आप क्या कह रहे हैं जनाब, पत्नी न होने का मतलब ये नहीं कि वो इंसान बलात्कारी हो गया ।"
"जरूरत तो तुम्हें भी पड़ती होगी औरत की और तुमने उस लड़की से...।"
"ये गलत है ।" तारिक मोहम्मद तेज स्वर में बोला ।
"धीरे बोलो । ये थाना है, तुम्हारा घर नहीं ।" इंस्पेक्टर ने कठोर स्वर में कहा ।
तारिक मोहम्मद कसमसा कर रह गया ।
"अब ये मामला साफ है कि तुम्हारी बेगम नहीं है। तुम अकेले हो। ऐसे में तुमने लड़की के साथ बलात्कार किया । लड़की ने तुम्हें देखते ही फौरन पहचान लिया कि तुमने ही उसकी जिंदगी बर्बाद की है। मुझे तुम्हारा केस तैयार करके अदालत में पेश करना होगा। दो-चार गवाह भी मिल जाएंगे, जिन्होंने तुम्हें बलात्कार करते देखा होगा। गवाह मैं तलाश लूंगा। मैं जितना कानून जानता हूं उसके मुताबिक कह सकता हूं कि तुम बच नहीं सकते । अदालत तुम्हें शायद फांसी की सजा दे दे ।" फिर उसने जोर से आवाज लगाई--- "जुम्मन...।"
तुरंत एक सिपाही वहां पहुंचा ।
"जी जनाब ।"
"साहब के खिलाफ केस तैयार करो । पीड़िता ने इसे पहचान लिया है और गवाह भी मिल गए...।"
"गवाह मिल गए ?" तारिक मोहम्मद के होंठो से निकला--- "कैसे गवाह, कहां हैं वो जो...।"
"मुझे पता है वो कहां है ।" इंस्पेक्टर ने कठोर स्वर में कहा--- "तुम कानून के काम में दखल मत दो ।"
"कानून का काम, ये कानून है जो मैं होता देख रहा...।"
"जनाब के सामने आवाज नीचे रख...।" सिपाही गुस्से से बोला।
"कोई बात नहीं जुम्मन । अब पकड़े जाने के डर से घबरा रहा है। बलात्कार करते वक्त तो मजा आ रहा होगा और कानून की याद भी नहीं होगी तब इसे । अम्मी तो इसे अब याद आ रही होगी ।" इंस्पेक्टर ने व्यंग्य भरे स्वर में कहा। तारिक मोहम्मद मूर्खों की तरह बैठा बारी-बारी दोनों को देख रहा था। उसके दिमाग ने ठीक से सोचना बंद कर दिया था। वो समझ ही नहीं पा रहा था कि क्या सोचे। ये किस चक्कर में फंस गया वो । सोचों में, वकील, अदालत, कानून और फांसी का फंदा आने लगा। जो काम उसने नहीं किया, उसमें खींचा जा रहा है उसे और उसकी बात सुनने वाला कोई नहीं है ।
"जनाब मैं केस तैयार करता हूं । कब पेश करना है इसे अदालत में ?"
"कल कर देंगे, परसों कर देंगे । जल्दी क्या है। बंद कर इसे लॉकअप में ।" इंस्पेक्टर ने सख्त स्वर में कहा--- "कानून का मजाक बना रखा है इन लोगों ने और परेशान हम पुलिस वाले होते हैं । न दिन में चैन, न रात में ।"
"उठ ।" जुम्मन, तारिक मोहम्मद की बांह पकड़ कर उठा ।
"क्यों ?" परेशान से तारिक मोहम्मद ने उसे देखा ।
"क्यों क्या, लॉकअप में बंद करके, तेरा केस तैयार करूंगा । बलात्कार किया है तूने ।"
"मैंने नहीं किया ।" इस बार तारिक मोहम्मद की आवाज धीमी थी।
"लड़की ने तुम्हें पहचान लिया है। गवाह भी मिल गए हैं ।" जुम्मन ने कहा--- "खड़ा हो ।"
"गवाह ?" तारीक मोहम्मद ने इंस्पेक्टर को देखा--- "जनाब मैं आपसे बात करना चाहता हूं ।"
इंस्पेक्टर खामोश रहा।
"जनाब ।" जुम्मन ने जैसे याद दिलाना चाहा--- "ये बलात्कारी आपसे बात करना चाहता है ।"
"मुझे बलात्कारी मत कहो । मैं ऐसा नहीं हूं ।" तारिक मोहम्मद ने प्रतिशोध किया ।
"तेरा नाम क्या है ?"
"तारिक मोहम्मद ।"
"हूं, जनाब तारिक मोहम्मद आपसे बात करना चाहता है ।" जुम्मन ने शांत स्वर में कहा ।
"तुम केस तैयार करो। लड़की के बयान उसके घर जाकर ले लेना ।" इंस्पेक्टर ने कहा तो जुम्मन सिर हिलाकर वहां से चला गया ।
तारिक मोहम्मद ने इंस्पेक्टर से कहा ।
"जनाब, मैं खुद शरीफ इंसान...?"
"ये बातें अब अदालत में कहना । फैसला करना पुलिस वालों के हाथ में नहीं है । हम तो सिर्फ अपराधी को पकड़ते हैं । लेकिन तेरे केस में इतना तो तय है कि सोचे बिना जज ने पहली पेशी में ही तुझे फांसी की सजा दे देनी है । उस लड़की ने भी तुझे पहचान लिया है और गवाह भी...।"
"कौन से गवाह ?" तारिक मोहम्मद ने पूछा ।
"वो गवाह, जिन्होंने तुम्हें बलात्कार करते देखा और...।"
"जनाब आपको बैठे-बैठे गवाह कहां से मिल गए । कुछ देर पहले तो गवाह ढूंढने की बात कर रहे...।"
"अब ढूंढने की जरूरत नहीं । मुझे याद आ गया कि बलात्कार करते हुए तुम्हें किस-किस ने देखा होगा ।"
"किसने ?"
"हैं वो, तुम उन्हें नहीं जानते ।"
"ऐसा है तो उन्होंने मुझे रंगे हाथ क्यों नहीं पकड़...।"
"तब तुम लड़की के साथ कमरे में थे । दरवाजा भीतर से बंद था। वो खिड़की से तुम्हें बलात्कार करते देख रहे थे और उन्होंने तुम्हें ऐसा करने से बहुत मना किया, परंतु तुम पर तो उस समय भूत सवार था । उनकी बात की जरा भी परवाह नहीं की और बलात्कार कर दिया ।"
तारिक मोहम्मद इंस्पेक्टर को देखने लगा ।
"उसके बाद तुमने दरवाजा खोला और भाग निकले। गवाह कोशिश करके भी तुम्हें पकड़ न सके ।"
"आप तो ये सब बातें ऐसे कह रहे हैं जैसे आपने सब कुछ अपनी आंखों से देखा हो ।"
"गवाहों ने मुझे बताया था सब कुछ ।"
"ओह ।" तारिक मोहम्मद के होंठ सिकुड़े--- "गवाहों से आपकी बात भी हो गई ?"
"हां। तुम्हारे सामने ही तो अभी फोन पर गवाहों से बात की है मैंने ।" इंस्पेक्टर ने कहा--- "लगता है तुम्हारा ध्यान काबू में नहीं है।"
तारिक मोहम्मद ने एकाएक बेहद संयत अंदाज में सिर हिलाया।
"समझ गया ।" अभी तक तारिक मोहम्मद सिर हिला रहा था-"पूरी तरह समझ गया ।"
"समझ गए ?" इंस्पेक्टर मुस्कुराया ।
"हां ।" तारिक मोहम्मद ने इंस्पेक्टर की आंखों में देखा--- "कितना पैसा चाहिए तुम्हें ?"
"ड्राई फ्रूट की दलाली करते हो । पांच लाख से कम में क्या बात बनेगी ।" इंस्पेक्टर ने धीमे स्वर में कहा ।
"पांच लाख ?" तारीक मोहम्मद ने उसे तीखी नजरों से देखा--- "इतना बड़ा भी दलाल नहीं हूं कि तुम्हें लाख दे सकूं ।"
"पौने पांच हैं ?"
"मेरे पास सिर्फ डेढ़ लाख रुपया है ।"
"इतने से तो बात नहीं बनेगी ।"
"फिर तो मुझे लॉकअप में बंद कर दो । केस तैयार करके अदालत में भेजो मुझे, क्योंकि मेरे पास पांच लाख नहीं है ।"
इंस्पेक्टर उसे घूरने लगा । फिर बोला ।
"लगता है तुम्हें कल अदालत में पेश करना ही पड़ेगा ।"
"कर दो ।" तारिक मोहम्मद ने शांत स्वर में कहा ।
"तुम्हारे पास तीन लाख रुपया भी नहीं है ?" इंस्पेक्टर ने पूछा ।
"डेढ़ लाख हैं । वो भी बैंक में है । अब बैंक बंद हो चुके है । कल सुबह ही पैसा मिलेगा अगर चाहो तो...।"
"ठीक है, रात-भर तुम लॉकअप में रहोगे । कल सुबह पैसा...।"
"मैं लॉकअप में नहीं रहूंगा । यहां से जाऊंगा मैं । कल पैसा लेकर आ जाऊंगा ।"
"मैं तुम्हें अकेला नहीं छोड़ सकता । तुम भाग गए तो मैं कहां ढूंढूंगा तुम्हें ।"
"मैं लॉकअप में नहीं रहूंगा । यकीन करो मैं भागूंगा नहीं। कल पैसा लेकर आऊंगा ।"
"मैं तुम्हारा यकीन नहीं कर...।"
"अगर तुमने मुझे बंद किया तो मैं एक पैसा भी तुम्हें नहीं देने वाला । बेशक तुम मुझे बलात्कारी बना कर अदालत में पेश कर दो। वो लड़की यहां आकर तो कह गई कि मैंने उससे बलात्कार किया है। अदालत में कैसे कह पाएगी। वहां वकील उसके मुंह से निकलवा लेंगे कि वो झूठी है, तुम्हारे गवाहों को भी देख लूंगा । मुझे तो लगता है कि तुम भी इस मामले में रगड़े जाओगे।"
इंस्पेक्टर ने कठोर निगाहों से उसे घूरा ।
तारिक मोहम्मद ढीठ-सा देखता रहा ।
"लॉकअप में तुम्हें चिकन बिरयानी खिलाऊंगा । पव्वा भी दूंगा। बिस्तर भी लगवा दूंगा ।" इंस्पेक्टर ने शांत स्वर में कहा ।
"नहीं ।" तारिक मोहम्मद में सिर हिलाया--- "अगर मुझसे डेढ़ लाख पाना चाहते हो तो मैं जाऊंगा ।
कुछ चुप रहकर इंस्पेक्टर बोला ।
"ठीक है। जुम्मन नाम का सिपाही सुबह तक, पैसे देने तक तुम्हारे साथ रहेगा। नहीं मंजूर तो मुझे तुम्हारे खिलाफ केस तैयार करना पड़ेगा ।"
"बेशक तुम सिपाही मेरे साथ भेज सकते हो । लेकिन मैं उसे खाने-पीने को कुछ नहीं दूंगा । इसलिए उसे पैसे देकर भेजना।" तारिक मोहम्मद ने तीखे स्वर में कहा--- "ये साइड बिजनेस कब से कर रहे हो ?"
इंस्पेक्टर हौले-से हंसा फिर बोला ।
"दो-चार दिन में तुम जैसा कोई और मुर्गा फंसा ही लेते हैं । थाने के बहुत खर्चे हैं। वो भी तो पूरे करने...।"
"मुर्गा ।" तुम मुझे मुर्गा समझ रहे हो ।" तारिक मोहम्मद मीठी अंदाज में मुस्कुरा पड़ा ।
इंस्पेक्टर ने आवाज लगाकर जुम्मन को बुलाया और कहा ।
"तुम इन साहब के साथ जाओगे । कल तक इसके साथ रहोगे। सुबह बैंक खुलने पर तुम्हें डेढ़ लाख देंगे ।"
"बस डेढ़ लाख ।"
इंस्पेक्टर ने उसे घूरा।
"समझ गया जनाब कि ये सिर्फ डेढ़ लाख देंगे और मैं वो लेकर आपके पास आ जाऊंगा ।"
■■■
तारिक मोहम्मद, जुम्मन को अपने एक कमरे वाले घर में ले गया था। आते वक्त जुम्मन अपना खाना बाजार से पैक करा कर लेता आया था और तारिक मोहम्मद ने अपना खाना घर पर ही बनाया। रात को सोते समय जुम्मन ने कमरे का दरवाजा भीतर से बंद करके, ताला लगा दिया था कि तारिक मोहम्मद कहीं रात में खिसक न जाए । अगले दिन तारिक मोहम्मद सुबह छः बजे सो कर उठा तो जुम्मन को दरवाजे के पास चारपाई पर गहरी नींद में पाया। तारिक मोहम्मद के चेहरे पर मुस्कान नाच उठी। कमरे के कोने को उसने किचन का रूप दे रखा था । वहां उसने चाय बनाई और आराम से कुर्सी पर बैठकर पी। फिर अपनी चारपाई के नीचे से लोहे का पुराना संदूक निकाला और उसे खोला । ऊपर कपड़े रखे हुए थे । जब कपड़े हटाए तो भीतर रिवॉल्वर और तीन-चार तरह के चाकू रखे थे ।
तारिक मोहम्मद ने रिवॉल्वर निकाली और संदूक वापस धकेल दिया।
फिर उसने सोए जुम्मन की कनपटी दोनों हाथों से दबा दी ।
जुम्मन जोरों से तड़पा फिर शांत पड़ गया। वो बेहोश हो गया था ।
तारिक मोहम्मद ने अपने पायजामे से नाड़ा निकाला और उसके हाथ-पांव बांध दिए। उसके बाद वो नहाने-धोने में लग गया। नाश्ता बना रहा था तो जुम्मन को होश आ गया । खुद को बंधा पाकर वो तड़पा ।
"ये तुमने मेरे साथ क्या किया ?" जुम्मन गुस्से से कह उठा ।
"तुम पुलिस वालों ने मेरे साथ जो किया है, उससे बुरा तो नहीं किया मैंने ।"
"तुम बचोगे नहीं ।"
तारिक मोहम्मद मुस्कुराया । नाश्ता बनाता रहा ।
"मुझे खोलो ।" जुम्मन तड़पा ।
"ऐसे ही बंधे रहो ।"
"इंस्पेक्टर साहब तुम्हें फांसी पर चढ़ा देंगे ।"
"अच्छा " तारिक मोहम्मद पुनः मुस्कुराया ।
"खोलो मुझे । हाथ-पांवों में बहुत दर्द हो रहा...।"
"जब तुम लोग निर्दोष लोगों को तकलीफ देते हो तो उन्हें भी ऐसे ही दर्द होता है ।"
जुम्मन दांत किटकिटा उठा ।
तारिक मोहम्मद ने दो अंडों का आमलेट तैयार किया। ब्रेड ली । चाय बनाई और कुर्सी पर बैठकर खाने लगा ।
"अभी भी वक्त है मुझे खोल दो । माफी मांग लो मुझसे । वरना तुम्हारा बुरा हाल होगा ।"
"खाने दो। बोलो मत ।"
"अगर तुमने मुझे नहीं खोला तो मैं चीखने लगूंगा । यहां लोग आ जाएंगे ।" जुम्म्मन ने दांत किटकिटाए ।
तारिक मोहम्मद ने कुर्सी पर बैठे-बैठे हाथ बढ़ाया और चारपाई पर रखी रिवॉल्वर उठाकर उसे दिखाई ।
रिवॉल्वर देखकर जुम्म्मन हैरान हो उठा ।
वो रिवॉल्वर वापस रखकर खाते हुए उठा।
"अगर तुम जरा भी ऊंची आवाज में बोले तो मैं तुम्हें गोली मार दूंगा ।"
"तुम रिवॉल्वर रखते हो ?" वो हैरान था ।
"चला भी बढ़िया लेता हूं ।"
"इसका लाइसेंस है तुम्हारे पास ?"
"नहीं ।"
"फिर तो तुम पर संगीन दफा लगेगी । तुम सारी उम्र के लिए जेल में सड़ोगे। मैंने तो तुम्हें शरीफ आदमी समझा था ।
"शरीफ ही हूं ।"
"शरीफ लोग हथियार नहीं रखते ।"
"तुम पुलिस वालों से तो शरीफ ही हूं ।"
"कौन हो तुम ?"
"तारिक मोहम्मद । ड्राई फ्रूट्स की दलाली करने वाला ।" खाते-खाते तारिक मोहम्मद बोला।
"मुझे तो अब तुम कोई बदमाश लगने लगे हो।"
"तुमसे बहुत शरीफ हूं मैं। तो तुम पुलिस वाले इस तरह मुर्गे फंसाते हो । शरीफ बंदे को बलात्कारी बना कर पकड़ लिया। वो लड़की भी पेश कर दी कि इसके साथ बलात्कार किया है। लड़की ने बलात्कार करने वाले को पहचान लिया और आंखों देखे गवाहों का भी इंतजाम कर लिया।"
"तुम बचोगे नहीं ।"
तारीक मोहम्मद ने नाश्ता खत्म किया । सुबह के नौ बज रहे थे।
"तुम मेरे साथ क्या करने वाले हो ?" जुम्मन अब कुछ गंभीर दिखा ।
"मुझे तुम पर भरोसा नहीं है कि तुम्हें डेढ़ लाख दे दूं। मुझे लगता है मुझसे पैसे लेकर तुम हजम कर जाओगे और इंस्पेक्टर साहब से कहोगे कि मैंने नहीं दिए । मुसीबत फिर मेरे सिर पर होगी ।" तारिक मोहम्मद ने शांत स्वर में कहा ।
"ऐसा नहीं होता । मैं ऐसा करने की हिम्मत भी नहीं कर सकता।" जुम्म्मन बोला।
"पर मुझे तुम पर भरोसा नहीं । भरोसा दिलाओ मुझे ।"
"मेरा कहना ही भरोसे वाली बात है कि...।"
"मुझे तुम्हारी बात का विश्वास नहीं ।"
"अजीब पागल हो तुम ।"
"मैं पैसा इंस्पेक्टर साहब के हाथों में ही दूंगा । तारिक मोहम्मद ने शांत स्वर में कहा--- "तुम मुझे इंस्पेक्टर का मोबाइल नम्बर बताओगे। मैं नम्बर मिलाकर तुम्हारे कान से फोन लगा दूंगा तो तुम उन्हें बताओगे कि मैं तुम्हें पैसा देने से इंकार कर रहा हूं और इंस्पेक्टर साहब को पैसा देने को कह रहा हूं । ऐसे में तुम उन्हें मुल्तान चौक पर पहुंचने को कहोगे ।"
"तुम्हारा बैंक मुल्तान चौक पर है ?"
"हां । जितना मैं तुमसे कह रहा हूं उतना ही तुम इंस्पेक्टर से कहोगे। वरना गोली मार दूंगा । मैं मुल्तान चौक पर जाकर इंस्पेक्टर साहब को डेढ़ लाख रुपया दे दूंगा । तब तक तुम यहीं पर बंधे रहोगे। तुम्हारे मुंह में कपड़ा बांध दूंगा कि बेकार तुम चिल्लाओ नहीं। वापस आकर तुम्हें भी जाने दूंगा ।" तारिक मोहम्मद मुस्कुराया ।
"मुझे यहां क्यों बांधे रखते हो। मैं तुम्हारे साथ ही...।"
"मैंने जैसा कहा है, वैसा ही होगा। तभी तुम लोगों को डेढ़ लाख रुपया मिलेगा । कहो तो मैं तुम्हें भी अभी आजाद कर देता हूं । यहां से चले जाना । उस सूरत में तुम्हें डेढ़ लाख रुपया नहीं दूंगा और बड़े ऑफिसरों से शिकायत भी कर दूंगा कि तुम मुझे...।"
"ठीक है, ठीक है । बांध देना मुझे, पर तुम वापस कब लौटोगे ?"
"डेढ़ घंटा लगेगा ।"
"मुल्तान चौक तो पास में ही है। आधे घंटे में तुम्हें वापस आ जाना चाहिए ।"
"मुझे डेढ़ घंटा लगेगा। मंजूर हो तो बोलो ।
"मंजूर है ।" जुम्म्मन ने गहरी सांस ली--- "कहीं तुम शाम तक लौटे तो मेरा दम घुट जाएगा ।"
"मैं डेढ़ घंटे में लौट आऊंगा ।" तारीक मोहम्मद ने बेहद शांत स्वर में कहा ।
■■■
मुल्तान चौक पर ऊंची-ऊंची इमारतें बनी हुई थी। उन इमारतों में बैंक भी थे। बड़ी-बड़ी कंपनियों के ऑफिस भी थे । काफी बड़ा चौराहा था। ट्रैफिक वहां से व्यवस्थित तरीके से निकल रहा था। लाल बत्ती भी वहां थी और ट्रैफिक पुलिस के सिपाही थे । आने-जाने वालों की भीड़ भी थी। हर कोई जल्दी में अपने काम में व्यस्त-सा दिख रहा था ।
पन्द्रह मिनट से तारिक मोहम्मद वहां खड़ा था। तब उसे पुलिस इंस्पेक्टर दिखा। जो कि सादे कपड़ों में वहां आया था। तारिक मोहम्मद ने हाथ हिलाकर उसे पास आने का इशारा किया । वो पास पहुंचते ही बोला ।
"जुम्म्मन कहां है ?"
"मेरे घर पर है। पानी की टोंटी बह रही थी। वो टोंटी थामे खड़ा है। मैं वापस जाऊंगा तो, टोंटी थामकर उसे छुट्टी दूंगा ।"
"वो टोंटी को थामे खड़ा है ?" इंस्पेक्टर ने अजीब-सी निगाहों से उसे देखा ।
"ये मेरी शर्त थी डेढ़ लाख रुपया देने की कि वो पानी नही बहने देगा तो मैं डेढ़ लाख दूंगा ।"
"अजीब सनकी हो तुम। पैसा कहां है ?"
"आओ । बैंक से निकालना है ।" तारिक मोहम्मद एक इमारत की तरफ बढ़ा जो कि पन्द्रह मंजिला थी।
"अभी तक निकला नहीं ?" उसके साथ चलता इंस्पेक्टर उखड़े स्वर में कह उठा ।
"आपके आने का इंतजार कर रहा था । पहले निकाल लेता और कोई मेरे से छीन कर भाग जाता तो ?"
"कभी-कभी तुम मुझे पागल लगते हो। कभी बहती टोंटी तो कभी चोर-लुटेरों का डर...।"
"क्या करूं, जमाना बहुत खराब है ।"
वो दोनों उस इमारत में प्रवेश करके, वहां पहुंचे जहां दो लिफटें लगी थी ।
"कौन-सी मंजिल पर तुम्हारा बैंक है ?"
"दसवीं ।"
"दसवीं पर तो इस इमारत में कोई भी बैंक नहीं है ।"
"है । सप्ताह पहले ही खुला है । दूसरी मंजिल पर जो बैंक था, वो ही ट्रांसफर होकर दसवीं मंजिल पर गया है ।"
तभी एक लिफ्ट आकर खुली। चार लोग बाहर निकले।
तारिक मोहम्मद, इंस्पेक्टर के साथ भीतर प्रवेश हुआ। दो और लोग भीतर आने लगे तो तारिक मोहम्मद ने उन्हें रोका ।
"ये लिफ्ट खराब है । दो से ज्यादा लोगों का बोझ नहीं कर सकती । मैं लिफ्ट का मकैनिक हूं। इसे ही ठीक करने आया हूं।"
वे दोनों बाहर ही रुक गए। तारिक मोहम्मद ने दसवें माले का बटन दबाया । दरवाजे बंद हुए। लिफ्ट चल पड़ी।
इंस्पेक्टर अजीब-सी निगाहों से उसे देखता कह उठा ।
"तुमने उनसे ऐसा क्यों कहा ?"
"क्योंकि यहां जो होने वाला है, वो उनके देखने की बात नहीं थी।" तारिक मोहम्मद ने कहा, और जेब से रिवॉल्वर निकाल ली।
इंस्पेक्टर उसके पास रिवॉल्वर देखकर बुरी तरह चौंका ।
"ये क्या ?" उसके होंठों से पूरे शब्द भी नहीं निकले कि तारिक मोहम्मद ने ट्रिगर दबा दिया ।
लिफ्ट में कानों को फाड़ देने वाला धमाका हुआ ।
गोली उसके पेट में लगी। वो दोनों हाथों से पेट थामे नीचे झुक गया ।
तारिक मोहम्मद के दांत भिंच चुके थे । चेहरे पर दरिंदगी नाच रही थी। उसके नीचे झुकते ही, सिर तारिक मोहम्मद के सामने आया तो उसने सिर के साथ नाल सटाई और पुनः ट्रेगर दबा दिया ।
एक बार फिर धमाका हुआ ।
इंस्पेक्टर नीचे जा गिरा। शांत पड़ गया था वो।
तारिक मोहम्मद ने रिवॉल्वर जेब में डाले । गर्म नाल का एहसास हुआ। लिफ्ट अभी सातवीं मंजिल पर पहुंची थी कि उसने आठवें माले पर रुकने के लिए बटन दबा दिया । आठवें माले पर पहुंचकर लिफ्ट रुकी, दरवाजे खुल गए । बाहर कोई भी नहीं खड़ा था। बाहर निकलते वक्त उसने दसवें माले का बटन दबा दिया। लिफ्ट के दरवाजे बंद हुए और ऊपर की तरफ बढ़ गई। तारिक मोहम्मद नीचे जाने के लिए सीढ़ियों की तरफ बढ़ गया। अब चेहरा शांत था उसका ।
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