रेलवे क्रासिंग की बगल में एक छोटा सा खोखा था ।
सुनील ने मोटर साइकल उस खोखे की बगल में लाकर खड़ी कर दी । उसने इंजन बन्द न किया ।
“क्या चाहिये, बाबू ?” - खोखे वाले ने पूछा ।
“लकी स्ट्राइल है ?” - सुनील ने पूछा ।
“वह क्या होता है ?” - खोखे वाला हैरानी से बोला ।
“तुम्हें नहीं मालूम ?”
“नहीं ।”
“कैसे दुकानदार हो तुम ?”
“होगी कोई बड़े लोगों की विलायती चीज । मैं तो पान बीड़ी सिगरेट बेचने वाला आदमी हूं ।”
“प्यारे लाल, यह सिगरेट का ही नाम है ।”
“क्या ?”
“लक्‍की स्ट्राइक ।”
“अपने पास नहीं है, बाबू ! यहां तो बीड़ी, चार मीनार, लैम्प, कवेन्डर या पनामा की बात करो ।”
सुनील निराश हो उठा । विशालगढ़ से चले उसे चार घन्टे हो चुके थे । चलते समय उसके पास केवल पांच सिगरेट थे । जिन्हें वह अभी तक बड़ी कंजूसी से इस्तेमाल करता रहा था । विशालगढ़ से चलते समय वह सिगरेट खरीदना भूल गया था । लगभग बीस मिनट पहले उसका आखिरी सिगरेट भी खत्म हो गया था ।
“अच्छा, पनामा दे दो ।” - वह मरे स्वर में बोला ।
पान वाले ने पनामा का एक पैकेट उसकी ओर बढ़ा दिया सुनील ने पैसे दिये और पैकेट ले लिया ।
उसने पैकेट का कवर फाड़कर एक सिगरेट निकाला और बड़ी अरुचि से उसे होंठों से लगा लिया । उसने सिगरेट सूलगाया, उसका एक गहरा कश लिया और फिर बुरा सा मुंह बनाकर धुआं उगल दिया ।
उसने मोटर साइकल को गियर में डाला और एक्सीलेटर घुमा दिया ।
मोटर साइकल अपने स्थान से सरकी ही थी कि क्रासिंग का बेरियर गिरने लगा ।
“धत तेरी की ।” - सुनील बड़बड़ाया और उसने इग्‍नीशन आफ कर दिया ।
उसी समय मानो तूफान आ गया ।
एक कार तूफान की गति से दूसरी ओर से निकली, इधर के बैरियर से टकरा कर उलटती-उलटती बची और फिर एक क्षण सड़क पर लहराते रहने के बाद शायद फिर ड्राइवर के कन्ट्रोल में आ गई और फिर उसी भयानक गति से सर्र से सड़क पर दौड़ गई ।
क्रासिंग बन्द हो चुका था । क्रासिंग के दूसरी ओर उसी गति से भागती हुई एक और कार आई और ब्रेकों की चरचराहट के साथ रुक गई ।
कार में से तीन आदमी निकले । उनके चेहरे क्रोध से विकृत उठे थे । तीनों ही बेहद असहाय भाव से हाथ पांव झटक रहे थे ।
सब कुछ कुछ ही क्षणों में हो गया ।
सुनील के दिमाग में कीड़ा सा कुलबुलाने लगा ।
आखिर यह क्या गड़बड़ है ?
उसके एडवेन्चर-प्रिय दिल में गुब्बार सा उठने लगा ।
फिर एक भी क्षण बरबाद किये बिना उसने मोटर साइकल को किक मारी, उसके स्टार्ट होते ही उसने उसे गहरा यू-टर्न दिया और फिर पूरी गति से मोटर साइकल उस दिशा में भगाने लगा जिधर पहली गाड़ी गई थी ।
थोड़ी ही देर बाद उसे दूसरी गाड़ी दिखाई देने लगी ।
वह गाड़ी अब भी बेहद तेज रफ्तार से जा रही थी ।
“मरेगा साला ।” - सुनील बड़बड़ाया । क्योंकि अब चढ़ाई आरम्भ हो गई थी और कई ब्लान्ड कारनर आने लगे थे जहां सावधानी से गाड़ी न चलने पर कभी भी दुर्घटना हो सकती थी ।
सड़क के एक ओर चट्टानें थीं और दूसरी ओर खड्‍ड । खड्‍ड वाली साइड में कहीं ड्रम गड़े हुये थे तो कहीं बेरियर के रुप में रेलिंग लगे हुये थे । कई बार अगली गाड़ी कभी ड्रमों से तो कभी चट्टानों से टकराती-टकराती बची थी ।
फिर वही हुआ जिसकी सुनील को आशंका थी ।
एक ब्लाइन्ड कारनर पर गाड़ी ड्राइवर के कन्ट्रोल से निकल गई । दूसरी ओर से एक ट्रक आ रहा था । उससे बचने के लिये ड्रायवर ने पूरी शक्‍ति से उसे बाईं ओर मोड़ा । ब्रेकें चरचराईं लेकिन शायद उससे स्पीड कम नहीं हुई और गाड़ी बेरियर को तोड़ती हुई सड़क से बाहर निकल गई । क्षण भर गाड़ी हवा में उड़ती दिखाई दी और फिर धड़ाम की आवाज से पचास साठ फुट गहरी खड्‍ड में जा गिरी ।
तब तक ट्रक विपरीत दिशा में काफी दूर निकल चुका था ।
सुनील ने अपनी मोटर साइकल टूटे हुये बैरियर के समीप खड़ी की और उस से उतर आया ।
उसने नीचे खड्‍ड में झांकना आरम्भ किया लेकिन गहन अन्धकार के अतिरिक्‍त वहां कुछ भी दिखाई नहीं दिया ।
उसी क्षण उसे पहले हल्का सा प्रकाश दिखाई दिया जैसे कुछ सुलग रहा हो और फिर एकदम लपटें भड़क उठीं ।
गाड़ी में आग लग गई थी ।
“बेचारा !” - सुनील बड़बड़ाया ।
उसी समय आग की लपटों द्वारा उत्पन्न प्रकाश में उसे एक और चीज दिखाई दी । जलती हुई कार से लगभग पन्द्रह फुट दूर एक मानवी शरीर पड़ा था ।
शायद गाड़ी के खड्‍ड में गिरने के बाद किसी प्रकार गाड़ी का द्वार खुल गया था और ड्राइवर उसमें से छिटक कर दूर जा गिरा था ।
सुनील को ड्राइवर के शरीर में जरा सी हरकत दिखाई दी ।
अभी जान बाकी है - सुनील ने सोचा - शायद बच जाये ।
सुनील खड्‍ड में उतरने लगा ।
जलती हुई कार के प्रकाश में पत्थरों पर पाव टिकाता हुआ सुनील उस आदमी तक जा पहुंचा ।
आग की गर्मी वहां तक भी पहुंच रही थी ।
सुनील घुटनों के बल उसकी बगल में बैठ गया और फिर उसके दिल पर हाथ रख दिया ।
उसके दिल पर हाथ रख दिया ।
उसके दिल में हल्की-हल्की धड़कन थी ।
सुनील ने उसकी बगलों में हाथ डाल दिये और उसे आग से दूर ले जाने का उपक्रम करने लगा ।
“रुको !” - उसी समय उसे उस आदमी का क्षीण सा स्वर सुनाई दिया
सुनील रुक गया ।
उसके होंठ कुछ कहने के लिये फड़फड़ाये लेकिन मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला । फिर उसने सुनील को और समीप जाने के लिये संकेत किया ।
सुनील उसके ऊपर झुक गया ।
“मैं....मैं... मर रहा हूं !” - वह क्षीण स्वर में बोला ।
“तुम ठीक हो जाओगे ।” - सुनील ने उसे झूठा आश्‍वासन दिया - “लेकिन तुम्हें इतनी जल्दी क्या थी ? तुम कार चला रहे थे या हवाई जहाज उड़ा रहे थे ?”
“सवाल मत करो ।......मैं.....मैं कुछ कहना चाहता हूं.......उ......उसे सुनो ।”
“क्या ?”
“मेरा नाम चौधरी है । मेरी पत्‍नि हर्नबी रोड पर डेक्स्टर हाऊस के एक फ्लैट में रहती है ।...... उसका नाम सुधा है । तुम उस तक मेरा एक संदेश पहुंचा दोगे ?”
“जरुर पहुंचा दूंगा ।”
“मैं सुधा के लिये बीस लाख रुपये का माल छोड़कर मर रहा हूं । इससे मेरे बिना भी उसके भविष्य की पर्याप्‍त गारन्टी रहेगी ।.... हत्यारे मेरे पीछे पड़े हुए थे । यह बात उन्हें नहीं मालूम होनी चाहिये ।”
“तुम्हारी पत्‍नि को मालूम है, वह माल कहां रखा है ?”
“नहीं । इसीलिये तो यह सूचना उस तक पहुंचना आवश्‍यक हो गया है ।”
“फिर ?”
“धर्मपुर में अट्ठारह नम्बर खोली में हरीचन्द नाम का एक आदमी रहता है ।” - चौधरी हांफने लगा ।
“उसका बीस लाख के माल से क्या सम्बन्ध है ?”
“सम्बन्ध नहीं है.....लेकिन....वह.....वह......उसको .....उसने ही.......हक्‍क वह .... हक्‍क ।”
उसके मुंह से खून की पतली सी लकीर निकली और उसके हाथ-पाव ढीले पड़ गये । सुनील ने झपट कर उसके दिल पर हाथ रखा । धड़कन गायब थी ।
वह मर चुका था ।
सुनील खड़ा हो गया ।
उसी समय सड़क पर टूटे हुये बैरियर के पास एक कार आकर रुकी । कार में से तीन आदमी निकले और फिर तेजी से ढलान उतरने लगे ।
कुछ ही क्षणों में वे सुनील के सामने आ खड़े हुये ।
सुनील ने देखा वे यही आदमी थे जो थोड़ी देर पहले रेलवे क्रासिंग के दूसरी ओर बिफरें हुये खड़े थे ।
“मर गया यह ?” - उनमें से गन्जे आदमी ने पूछा ।
“हां ।” - सुनील बोल ।
“तिवारी, जरा देखना ।” - गन्जा अपने अक साथी से बोला ।
“तिवारी चौधरी की लाश पर झुक गया ।
कई क्षण लाश की नाड़ी और दिल पर हाथ फेरते रहने के बाद बोला - “मरने से पहले इसने कुछ कहा था ।”
“सवाल ही नहीं पैदा होता ।” - सुनील लापरवाही से बोला - “मेरे यहां पहुंचने से पहले ही यह दम तोड़ चुका था ।”
“एक शब्द भी नहीं बोल पाया वह ?” - उसने व्यग्रता से पूछा ।
“आप लोगों को इसके क्या बोलने की आशा थी ?” - सुनील ने पूछा ।
गन्जा कुछ नहीं बोला ।
“आप लोग जानते हैं इसे ?” - सुनील ने फिर पूछा ।
गन्जा फिर भी कुछ नहीं बोला । उसने सरसरी दृष्टि अपने साथियों पर डाली और फिर एकदम बदले स्वर में बोला - “तुम कौन हो ?”
“यह क्या सवालं हुआ ?” - सुनील उखड़कर बोला - “मेरे से क्या वास्ता है तुम्हारा ?”
“मैंने जो पुछा है, जवाब दो ।”
“मैं खलीफा हारु-अल-रशीद हूं ।”
“मजाक मत करो, मिस्टर ।”
“वाह ! तुमसे भला मैं मजाक क्यों करूंगा ? तुमसे मेरा मजाक का कौन सा रिश्‍ता है ?”
“जीवन ।” - तिवारी गन्जे से बोला - “भेजो इसे ।”
“फूटो यहां से ।”- गन्जा सुनील से बोला ।
“आप लोग लाश के पास अकेले क्यों रहना चाहते हैं ?”
गन्जे ने रिवाल्वर निकाल लिया ।
“यह देख रहे हो ।” - वह कठोर स्वर में बोला ।
“हां ।”
“अब भी यहां से दफा होने से इन्कार करते हो ?”
“नहीं ।” - सुनील बोला और एकदम पीठ फेरकर चढ़ाई की ओर चढ़ने लगा । आधा रास्ता चल चुकने के बाद उसने घूमकर देखा । तीनों चौधरी की जेबें टटाल रहे थे ।
सुनील फिर चढ़ाई चढ़ने लगा ।
सड़क पर आकर वह ठिठक गया ।
जीवन वगैरह की कार के पीछे एक और एम्बेसडर गाड़ी न जाने कब आ खड़ी हुई थी । उस कार की बाडी के साथ पीठ टिकाकर एक आदमी खड़ा था । उसके सिर पर फैल्ट हैट था जिसका कोना सामने से इतना झुका हुआ था कि उसका चेहरा दिखाई नहीं दे रहा था । सड़क पर वैसे भी अन्धकार था ।
“कोई एक्सीडेन्ट हो गया है ?” - उस आदमी ने सुनील को देखकर पूछा ।
“हूं ।” - सुनील बोला ।
“कितने आदमी थे ?”
“एक ही था ।”
“मर गया ?”
“हां ।”
“हुआ क्या था ?”
“वह एकदम तूफान की गति से गाड़ी चलाता आ रहा था । मोड़ पर स्टियरिंग कन्ट्रोल नहीं हुआ । गाड़ी बैरियर ताड़ती हुई नीचे खड्‍ड में जा गिरी ।”
“ब.......ब बेचारा ।”
सुनील कुछ नहीं बोला । उसने मोटर साइकल स्टार्ट की और सीट पर बैठ गया ।
“ये बाकी लोग नीचे क्या कर रहे हैं ?” - फैल्ट हैट वाले ने पूछा ।
“मृत की जेबें टटोल रहे हैं ।”
“क्या !” - फैल्ट हैट वाला हैरानी से बोला ।
“जी हां ।”
“आपने टोका नहीं उन्हें ?”
“टोका था ।”
“तो फिर ?”
“जवाब में उन्होंने मुझे मौत का परवाना दिखा दिया ।”
“और आप डर कर भाग आये !”
“और क्या करता ? शहीद हो जाता ? अगर आपको मेरे व्यवहर पर कोई ऐतराज है तो आप ऐसा कीजिये, आप तशरीफ ले जाइये नीचे और रोक लीजिये उन्हें ।”
“आपको पुलिस में रिपोर्ट करनी चाहिये ।” - फैल्ट हैट वाला बात बदलता हुआ बोला ।
“वही तो करने जा रहा हूं । आपने खामखाह बातों में अटका लिया ।” - सुनील ने गाड़ी को गियर में डाला और एक्सीलेटर घुमा दिया ।
“सुनिये ।” - फैल्ट हैट वाला व्यग्रतापूर्ण स्वर में बोला ।
सुनील ने ब्रेक पर पाव रख दिया ।
“फरमाइये ।” - वह बोला ।
“चौधरी ने मरने से पहले कुछ कहा था ?”
सुनील चौंक पड़ा ।
“यही सवाल नीचे चौधरी की लाश के पास खड़े उन लोगों ने भी पूछा था मुझसे ।” - वह संदिग्ध स्वर में बोला ।
फैल्ट हैट वाला चुप रहा ।
“और फिर आप यह कैसे जानते हैं कि मरने वाले का नाम चौधरी था ?”
फैल्ट हैट वाला कुछ क्षण चुप रहा, फिर उसने जेब से एक विजिटिंग कार्ड निकाल कर सुनील की ओर बढ़ा दिया ।
सुनील ने विजिटिंग कार्ड को मोटर साइकिल की हैडलाइट के सामने ले जाकर पढ़ा लिखा था :
कर्नल टी आर पिंगले
डिप्टी डायरेक्टर
सेन्ट्रल ब्यूरो ऑफ इन्वैस्टिगेशन (गृह मन्त्रालय)
सुनील के व्यवहार में से उपेक्षा एकदम उड़ गई ।
“अब भी मेरे प्रश्‍न का उत्तर देने के इन्कार करते हो ?” - फैल्ट हैट वाला बोला ।
“चौधरी ने केवल यह कहा था कि मैं अपनी पत्‍नि सुधा के लिये बीस लाख का माल छोड़कर मर रहा हूं ।”
“कहां ?”
“यही तो वह बता नहीं पाया । वह यह बताने ही वाला था कि उसके प्राण निकल गये ।”
“और कुछ नहीं कहा उसने ?”
“कोई महत्वपूर्ण बात नहीं कही ।”
“तुम चौधरी की कही महत्वहीन बातें भी बताओ मुझे ।”
“और उसने हरीचन्द नाम के किसी आदमी का जिक्र किया था जो धर्मपुरे की अट्‍ठारह नम्बर खोली में रहता है ।”
“किस सिलसिले में ? कहीं माल उसके पास तो नहीं रखा है चौधरी ने ?”
“मैंने पूछा था लेकिन चौधरी ने कहा था कि उसका माल से कोई सम्बन्ध नहीं था ।”
“श्योर ?”
“वैरी श्योर ।”
“अब अपने विषय में कुछ बताओ ।” - फैल्ट हैट वाला कुछ क्षण रुककर बोला ।
“मेरा नाम सुनील है । सुनील कुमार चक्रवर्ती । मै ब्लास्ट से सम्बन्धित हूं ।”
“रिपोर्टर हो ?”
“जी हां ।”
“इस एक्सीडेन्ट का विवरण तुम्हारे अखबार में छपेगा ?”
“हां ।”
“उसमें मेरा भी जिक्र करोगे ?”
“जी हां ।”
“मत करना ।”
“क्यों ?” - सुनील ने हैरानीभरे स्वर में पूछा ।
“यह पुलिस केस है । हत्यारों की इस पार्टी में, जिनका एक सदस्य चौधरी अभी मारा गया है, किन्हीं विशिष्ट कारणों से सी बी आई के लोग भी दिलचस्पी ले रहे हैं, लेकिन हम अपनी कार्यवाही हर किसी से, हर तरह से गुप्‍त रखना चाहते हैं । अगर पुलिस की जानकारी में यह बात आ गई कि हम भी इसी लाइन पर काम कर रहे हैं तो पुलिस के अफसर हमें कुरेदना आरम्भ कर देंगे कि हम लोग क्या जानते हैं और किस हद तक जानते हैं ? इसलिये अच्छा यही है कि हमारी सरगर्मियां बैकग्राउन्ड में ही रहें ।”
“ओ के कर्नल साहब, मैं आपका जिक्र नहीं करुंगा । लेकिन एक प्रार्थना मेरी भी है ।”
“क्या ?”
“जब आपका केस समाप्‍त हो जाये, तब उसका प्रामाणिक विवरण सबसे पहले ब्लास्ट को दीजियेगा ।”
“इतनी तरफदारी तो मैं नहीं कर पाऊंगा लेकिन मैं चेष्टा करुंगा कि और अखबारों के विषय में तुम्हारे अखबार को अधिक अच्छा मैटीरियल मिले ।”
“थैक्यू सर ।”
“और तुम इन लोगों के पीछे पड़ने की चेष्टा मत करना ।” - फैल्ट हैट वाला नीचे खड्‍डे की ओर संकेत करता हुआ बोला - “ये लोग बड़े दुर्दान्त हत्यारे हैं । हत्या करने से कभी नहीं हिचकते । मैं इन सबकी लाइफ हिस्ट्री जानता हूं । ये हमसे बच नहीं सकते हैं । किसी विशेष कारणवश हम आजकल इन्हें छूट दे रहे हैं । जैसे क्षण भर के लिए बिल्ली चूहे को छोड़ देती हैं । इन लोगों के ऊपर आने से पहले ही तुम यहां से चले जाओ और रास्ते में कहीं से पुलिस को फोन करके इस दुर्घटना की सूचना दे देना 
“वैरी वैल, सर ।” - सुनील शिष्ट स्वर में बोला ।
“गुड ब्वाय ।” - फैल्ट हैट वाला बोला और अपनी एम्बसेडर का द्वार खोलकर भीतर ड्राइविंग सीट पर जा बैठा । उसने इंजन स्टार्ट किया और बड़ी सफाई से गाड़ी को यू टर्न देने के बाद राजनगर की ओर चल दिया ।
एक सवाल हथौड़े की तरह सुनील मस्तिष्क में बज रहा था ।
कर्नल पिंगले को यह कैसे पता लगा था कि चौधरी एक कार दुर्घटना का शिकार हो गया था ?
गाड़ी दूर होती जा रही थी ।
एकाएक सुनील ने जेब से कागज का छोटा सा टुकड़ा और पैंसिल निकाली और कर्नल पिंगले की कार का नम्‍बर नोट करने लगा ।
अभी उसने नम्‍बर लिखा ही था कि पिंगले की गाड़ी रूकी । फिर वह बड़ी तेजी से बैक गियर में चलती हुई सुनील के पास आकर रूक गई ।
“मेरी गाड़ी का नंबर नोट करने का कोई लाभ नहीं होगा, बरखुरदार ।” - फैल्ट हैट वाला खिड़की में से सिर निकाल कर सुनील से बोला - “यह सी बी आई की गाड़ी है और इसका नंबर दिन में चार बार बदलता है ।”
अगले ही क्षण गाड़ी फिर स्‍टार्ट हो गई और काली और अंधेरी सड़क पर फर्राटे भरने लगी ।
सुनील खिसयाया सा हाथ में कागज का टुकड़ा लिये खड़ा रहा । फिर उसने उस कागज के टुकडे की गोली सी बनाई और उसे सड़क पर फेंक दिया ।
सुनील गन्जे और उसके साथी की कार के पास आया और भीतर झांकने लगा । भीतर कुछ भी नहीं था । फिर उसने भीतर हाथ डाल कर डैश बोर्ड में बने खाने को खोला ।
भीतर एक रिवाल्‍वर और विस्की की बोतल रखी थी । सुनील ने खाना बन्द कर दिया ।
फिर सुनील ने गाड़ी का नम्‍बर देखा । उसने सड़क पर से वह कागज की गोली उठाई जिस पर उसने कर्नल की कार का नम्‍बर लिखा था । उसने मुड़े-तुड़े कागज को दुबारा खोला और उसी की दूसरी ओर कार का नंबर भी लिख लिया । उसने कागज़ जेब में रख लिया ।
उसने मोटर साइकल स्टार्ट की और वापस राजनगर की ओर उड़ चला ।
रास्ते में एक पैट्रोल पम्प पर उसे पब्लिक टेलीफोन बूथ दिखाई दिया ।
सुनील की मोटर साइकल बूथ के समीप पहुंची ।
बूथ से उसने पुलिस के नंबर डायल किये । दूसरी ओर से आवाज आते ही उसने उसने सिक्के डाल दिए और बोला - “हल्लो, हल्लो ।”
“यस !” - दूसरी ओर से आवाज आई ।
“आई वांट टू रिपोर्ट एन एक्सीडेंट ।” - सुनील बोला ।
“फरमाइए ।” - दूसरी ओर से तनिक सतर्क स्वर सुनाई दिया ।
“मैं अभी विशालगढ की ओर से आ रहा था । राजनगर के बाहर रेलवे क्रासिंग से लगभग तीन मील इधर जो ब्लाइंड कार्नर है उसके पास खड्ड में एक कार गिर गई है । कार में आग लग गई है । कार में केवल एक आदमी था, वह मर चुका है ।”
“आपको कैसे मालूम ?”
“मैंने नीचे जाकर देखा था ।”
“और ?”
“और यह कि इस समय तीन आदमी लाश की तलाशी ले रहे हैं ।”
“आप कौन बोल रहे हैं ?”
“रुडोल्फ ।”
“रुडोल्फ ?”
“रुडोल्फ हिटलर ।” - और सुनील ने फोन बंद कर दिया ।
वह वापस मोटरसाइकल पर आ बैठा ।
वह जानता था कि अगर उसने पुलिस को अपना नाम वगैरह बता दिया होता तो आज की साड़ी रात पुलिस की तफ्तीश और क्रॉस एग्जामिनेशन में ही गुजर जाती ।
***
डैक्स्टर हाउस एक छ मंजिली आलीशान ईमारत थी ।
सारी ईमारत में केवल रेजिडेंशल फ्लैट्स ही थे । ईमारत का आर्किटेक्चर विदेशी अपार्टमेन्ट हाउसों जैसा था ।
सुनील ने मोटर साइकल पार्किंग खड़ी की और ईमारत के कम्पाउंड में घुस गया ।
“मिस्टर चौधरी का फ्लैट कौन सा है ?” - उसने ईमारत से बाहर निकलते एक आदमी को रोककर पूछा ।
“कौन चौधरी ?”
“जिनकी पत्नी का नाम सुधा है ।” - सुनील उलझनभरे स्वर से बोला । चौधरी का पूरा नाम तो उसे मालूम ही नहीं था ।
वह आदमी कुछ क्षण संदिग्ध नेत्रों से सुनील को घूरता रहा और फिर रूखे स्वर में बोला - “दूसरी मंजिल पर दायीं ओर ।”
सुनील इमारत में घुस गया । आटोमैटिक लिफ्ट द्वारा वह दूसरी मंजिल पर पहुंचा । गलियारे के दायीं ओर एक द्वार था जिस पर लिखा था - यू के चौधरी । सुनील ने कालबैल के पुश पर उंगली रख दी ।
भीतर कहीं घंटी बजने का मद्धम स्वर सुनाई दिया लेकिन द्वार नहीं खुला । लगभग दो मिनट बाद सुनील ने कालबेल फिर बजा दी ।
द्वार फिर भी न खुला । इस बार भीतर किसी की उपस्थिति का स्पष्ट आभास मिला । दूसरी ओर से वस्त्रों की सरसराहट और सांस लेने का स्वर स्पष्ट सुनाई दे रहा था ।
सुनील ने इस बार कालबैल के पुश पर उंगली रखी और फिर हटाई ही नहीं । भीतर लगातार घन्टी बजती रही ।
उसी क्षण एक झटके से द्वार खुला ।
सुनील ने घंटी बजानी बन्द कर दी ।
एक आदमी तेजी से बाहर निकला और लम्बे डग भरता हुआ गलियारे में आगे बढ गया ।
अगले ही क्षण वह दृष्टि से ओझल हो गया ।
सुनील ने उसके चेहरे की एक ही झलक देखी थी लेकिन इतने में वह उसे पहचान गया था । वह वही गोरा-चिट्टा आदमी था जिसे पिछली रात चौधरी की लाश के पास गंजे ने तिवारी के नाम से सम्बोधित किया था ।
सुनील की दृष्टि वापस द्वार की ओर घूम गई । द्वार पर केवल एक हाउसकोट पहने एक अनिद्य सुन्दरी खड़ी थी ।
उसका चेहरा राख की तरह सफेद दिखाई दे रहा था और आंखों में भय की स्पष्ट झलक थी ।
“यस ?” - वह अस्थिर स्वर में बोली ।
“मैं यहां मिसेज चौधरी से मिलने आया था ।” - सुनील उसके कांपते हाथ पैरों को लक्ष्य करता हुआ बोला ।
“फरमाइये....मैं..मैं ही मि...मिसेज चौधरी हूं ।”
“आप इतनी घबराई हुई क्यों हैं ?” - सुनील ने पूछा ।
उसकी विचलित दृष्टि द्वार के बाहर गलियारे में घूम गई जैसे उसे अब भी भय था कि कहीं वह आदमी वापस न आ जाये ।
“यह आदमी कौन था ?”
“उसे छोड़िये ।” - लापरवाही दिखाने का असफल प्रयत्न करती हुई बोली - “आप बताइये, आप कौन हैं ?”
“यहीं द्वार पर खड़े-खड़े ?”
“प्लीज कम इन ।” - वह रास्ता छोड़ कर एक और हटती हुई बोली ।
सुनील भीतर घुस गया ।
उसने द्वार बन्द कर दिया ।
“तशरीफ रखिये ।” - वह एक सोफे की ओर संकेत करती हुई बोली ।
“थैंक्यू ।” - सुनील सोफे पर ढेर होता हुआ बोला ।
“फरमाइये ।” - वह भी उसके सामने एक कुर्सी पर बैठ गई ।
उसके हाउसकोट के नीचे का भाग सामने से वी की शक्ल में खुल गया था और उसमें से उसकी सुडौल टांगें दिखाईं दे रही थी । सुनील की दृष्टि वहीं टिकी देखकर वह नर्वस हो उठी और उसने हाउसकोट का पल्ला टांगों पर फैला दिया ।
“प्लीज डोंट माइंड माई अंपीयरेन्स ।” - वह बोली मैं दरअसल दस बजे के बाद सोकर उठने की आदी हूं ।”
“आज अभी आठ ही बजे हैं ।”
“और आपकी नींद में खलल उस आदमी ने डाला था जो अभी-अभी यहां से गया है ?”
“उसे गोली मारिये ।” - वह खोखले स्‍वर में बोली । वह तिवारी के आगमन को एकदम महत्‍वहीन जताना चाहती थी, लेकिन उसके चेहरे के भाव उसका साथ नहीं दे रहे थे । तिवारी की याद आते ही उसके शरीर में झुरझुरी सी दौड़ जाती थी ।
“उसे गोली मारिये ।” - वह फिर बोली - “आप अपने आने का कारण बताईये ।”
“मेरा नाम सुनील है ।” - सुनील बड़ी सावधानी से एक-एक शब्‍द का चयन करता हुआ बोला ।
“मेरे पति के कोई मित्र ?”
“नहीं ।” - वह कठिन स्‍वर में बोला ।
“तो फिर ?”
“मैं आपके पति से केवल एक ही बार मिला हूं और वह भी एक बेहद गलत मौके पर और नितान्त अजनबी के रूप में । उस छोटी सी मुलाकात में ही आपके पति मुझ पर बहुत बड़ी जिम्‍मेदारी डाल गये हैं ।”
“मैं आपका मतलब नहीं समझी ।”
“सुधा जी, वो क्या है कि....”
“आप मेरा नाम भी जानते हैं ? वह आश्‍चर्यभरे स्‍वर में बोली ।
“हां । मुझे चौधरी ने बताया था ।”
“खैर, आप कहना क्‍या चाहते हैं ?”
“मैं आपके लिये बहुत दुःखपूर्ण समाचार लाया हूं ।”
“ओह ! तो आप भी यही कहने आये हैं !”
“क्‍या मतलब ?” - सुनील हैरान होकर बोला ।
“आप मेरे लिये यही दुःखपूर्ण समाचार लाये हैं न कि कल रात मेरे पति एक कार एक्‍सीडेंट में मारे गये ?”
“आप पहले से ही जानती हैं ।” - सुनील और भी हैरान हो उठा ।
“हां । और सुनील साहब, यह न तो मेरे लिये समाचार है और न दुःखपूर्ण है । समाचार यह इसलिये नहीं है क्‍योंकि पिछली रात को बारह बजे मुझे पुलिस ने लाश की शिनाख्त के लिये मोर्ग में बुलाया था । मेरे पति की जेब में मिले कुछ कागजों के कारण ही पुलिस मुझ तक पहुंच पाई थी । मुझे मोर्ग से ढ़ाई बजे घर आने दिया गया था ।”
“पुलिस ने आपसे क्‍या पूछा था ?”
“जमाने भर की बकवास । वहां कोई प्रभुदयाल नाम का सिर फिरा इन्स्‍पेक्‍टर था, जो एक-एक सवाल कम से कम दस-दस बार पूछता था मुझसे । मेरे पति की जेब में तेरह तारीख का अर्थात कल का डा शर्माज नर्सिंग होम का बिल निकला था जिसके बारे में मुझसे इतने सवाल किये थे कि मेरा जी चाहता था कि उसका मुंह नोंच लूं ।”
“उस बिल के बारे में क्‍या पूछा था, इन्स्‍पेक्‍टर ने ?”
“यही कि वह किस सिलसिले में था, मेरे पति का उस नर्सिंग होम से क्‍या सम्‍बन्ध था ! उन्हें क्‍या बीमारी थी !”
“ये बातें तो वो बड़ी आसानी से नर्सिंग होम से पूछ सकता था ।”
“मैंने कहा था उससे लेकिन वह कहता था कि नर्सिंग होम से तो वह पूछेगा ही साथ ही वह मुझसे भी पूछना चाहता था ।”
“खैर, अपने पति की मृत्‍यु का समाचार आपके लिये दुःखपूर्ण क्‍यों नहीं है ?”
“क्‍योंकि जिस ढंग की जिन्दगी मेरे पति गुजार रहे थे, उसमें उनका जीवित रह पाना एक अजूबा था, मर जाना नहीं । अगर वे कार एक्‍सीडेन्ट में न मरते तो पुलिस की गोली खाकर मरते । पुलिस की गोली से बच जाते तो फांसी के फन्दे की भेंट चढ़ते मौत तो उनकी निश्‍चित थी ही ।”
“आप उनके अपराधपूर्ण जीवन के विषय में जानती थीं फिर भी आपने उन्हें कभी टोका नहीं ?”
“बहुत टोका, बहुत मनाया लेकिन मेरी सुनता कौन था !”
सुधा अब तक स्‍वयं को काफी व्यवस्‍थित कर चुकी थी । अब उसके चेहरे पर भय के लक्षण नहीं थे और न ही उसका शरीर कांप रहा था । अब उसके व्यवहार में एक वास्‍तविक लापरवाही झलकने लगी थी ।
“जो आदमी अभी कुछ देर पहले आपके फ्लैट में से निकल कर गया था, आप उसे जानती हैं ?”
“मैं उसे जानती नहीं हूं ।” - सुधा बोली । तिवारी का जिक्र दुबारा आते हो उसके शरीर में झुरझुरी सी दौड़ गई ।
“तो फिर ?”
“वह भी मेरे पास मेरे पति की मृत्‍यु का समाचार लेकर ही आया था । वह कहता था कि वह मेरे पति का बिजनेस एसोसियेट था । उसके कथनानुसार मेरे पति मरने से पहले उसे बता गये थे कि वे मेरे पास बीस लाख रूपये छोड़े जा रहे थे जिसमें दस लाख रूपये मेरे लिये हैं और दस लाख उस आदमी के लिये जबकि हकीकत यह है कि मुझे अपने पति की सूरत देखे हुये एक सप्ताह से अधिक हो चुका था ।”
“फिर ?”
“जब मैंने इस बात से इन्कार किया कि मेरे पति मेरे पास पिछले दिनों कोई बीस लाख रूपये छोड़कर गये थे तो वह मेरे साथ बड़ी बुरी तरह पेश आने लगा । वह बोला कि मैं झूठ बोल रही थी और अब जबकि चौधरी मर चुका था, मैं सारा माल खुद पचा जाना चाहती थी । फिर उसने प्लैट की एक-एक चीज की तलाशी ली लेकिन उसे कुछ भी नहीं मिला । वह और भी भड़क उठा । उसने रिवाल्‍वर निकाल लिया और मुझे धमकाने लगा कि अगर मैं नहीं बताऊंगी कि माल कहां रखा था तो वह मुझे जान से मार डालेगा । उसी समय आपने कालबैल बजा दी और मेरी जान बच गई वरना पता नहीं वह मुझे कितनी बुरी तरह टार्चर करता ।”
“देखो सुधा ।” - सुनील गम्‍भीर किन्तु अपनत्‍वभरे स्‍वर में बोला - “उस आदमी का नाम तिवारी था । वह, जीवन नाम का एक गन्जा आदमी और एक अन्य चपटी नाक वाला आदमी, ये तीनों शायद तुम्‍हारे पति के अपराधी जीवन के साथी थे । यही तीनों आदमी कल रात चौधरी का पीछा कर रहे थे । चौधरी उनसे जान छुड़ा कर भाग रहा था और इसी चक्‍कर से वह कार दुर्घटना का शिकार हो गया था । मै उस समय वहीं था । मरने से पहले चौधरी ने किन्हीं बीस लाख रूपयों का जिक्र मुझसे भी किया था । उसने कहा था कि वह तुम्‍हारे लिये बीस लाख रूपये छोड़ कर मर रहा था, लेकिन तुम्‍हें मालूम नहीं था रुपया कहां था । इससे पहले कि धन छुपाने का स्‍थान वह मुझे बता पाता, उसके प्राण निकल गये थे । उसके थोड़ी देर बाद ही ये तीनों आदमी वहां पहुंचे थे । मैंने उन्हें यह नहीं बताया था कि चौधरी ने मुझसे बीस लाख के माल का जिक्र किया था । बाद में उन्होंने मुझे वहां से भगा दिया था और स्‍वयं चौधरी की जेबें टटोलने लगे थे । लेकिन शायद उन्हें वहां से कोई सुराग नहीं मिला था इसलिये वे तुम पर चढ़ दौड़े थे । तिवारी का यहां आने का तात्‍पर्य ही यह था कि वह किसी प्रकार डरा धमका कर या तुम्‍हें आधे धन का लालच देकर तुमसे जान लेता कि माल कहां था ।”
“लेकिन उन लोगों का माल से क्‍या वास्‍ता है ?”
“इतनी सी बात नहीं समझती तुम ? इन चारों ने मिलकर शायद कहीं इकठ्ठा हाथ मारा होगा जिसमें बीस लाख का माल इनके हाथ लगा होगा । आपके पतिदेव ने माल अकेले हड़प करने की कोशिश की होगी, लेकिन उनका घिस्‍सा चला नहीं होगा । चौधरी माल के साथ भागना चाहता होगा लेकिन ये लोग चौधरी के दुश्मन हो गये होंगे । इसी चक्‍कर में चौधरी मारा गया और माल किसी के हाथ भी नहीं लगा ।”
“लेकिन माल गया कहां ?”
“दैट्स दि प्वायन्ट । दैट्स दि होल प्वायन्ट । माल कहां है ?” - सुनील हाथ फैलाकर बोला ।
“लेकिन, सुनील ।” - सुधा ऐसे स्‍वर में बोली जैसे सुनील को वर्षों से जानती हो - “वह तो चोरी का माल है । मान लो कि वह मुझे इस फ्लैट में या जहां भी वह मेरे पति ने रखा है, मिल भी जाता है तो वह मेरा थोड़े ही हो जायेगा !”
“एक तरीके से वह तुम्‍हारा हो सकता है ।”
“कौन सा तरीका ?”
“तुम्‍हारे पति ने तुम्‍हारे लिये बीस लाख का माल छोड़ा है, मैं इसका गवाह हूं । अगर वह माल तुम्‍हें मिल जाता है और कोई यह दावा नहीं करता और साथ ही सिद्ध नहीं कर पाता कि वह चोरी का माल है और उसका वास्‍तविक अधिकारी कोई और है तो चौधरी की उत्तराधिकारिणी के रूप में तुम उस धन की स्‍वामिनी होगी । अगर तुम्‍हें कोई ऐसा धन मिल जाता है तो तुम उसका ढिंढोरा तो पीटोगी नहीं । फिर किसी को मालूम कैसे होगा कि तुम किस असाधारण रकम की स्‍वामिनी बन गई हो ?”
“मतलब यह हुआ कि अगर वाकई मेरे पति ने ऐसी कोई रकम छोड़ी है और मैं उसे खोज भी निकालती हूं तो मैं उसकी स्‍वामिनी हो सकती हूं ।”
“हां ।”
सुधा का चेहरा चमक उठा ।
“बशर्ते कि चौधरी के बाकी साथी तुम्‍हें इतनी आसानी से छोड़ दें ।”
सुधा चिन्तित हो उठी ।
“क्‍या इन लोगों से बचने का कोई तरीका नहीं हो सकता ?”
फिर वह बोली ।
“स्‍थायी तरीका तो यही हो सकता है कि इन लोगों को विश्‍वास हो जाये कि धन के विषय में वाकई तुम कुछ नहीं जानती जो वे कभी मांगेंगे नहीं । दूसरा तरीका यह है कि कुछ दिनों के लिये तुम यह फ्लैट छोड़ दो और किसी ऐसी भीड़ भरी जगह पर जाकर रहो जहां पर तुम कभी किसी को अकेली न मिल पाओ ।”
“जैसे ?”
“जैसे कोई बड़ा होटल । जिस सहूलियत से तिवारी यहां तुम्‍हारे फ्लैट की घन्टी बजाकर भीतर घुस आया था, वह उसे वहां प्राप्त नहीं हो पायेगी । यहां तो अगर वह तुम्‍हारा कत्‍ल भी कर जाता तो किसी को पता नहीं लगता ।”
“कौन से होटल में जाना चाहिये मुझे ?”
“स्‍विस में चली जाओ । वह वैसो भी घनी आबादी में है ।”
“ओ के ।”
“तुम्‍हारी आर्थिक स्‍थिति कैसी है ?”
“क्‍या मतलब ?”
“मतलब यह है कि स्‍विस बहुत महंगा होटल है और शायद वहां तुम्‍हें काफी दिन रहना पड़े । वहां का खर्चा उठा सकोगी तुम ?”
“मिस्‍टर सुनील, मेरा पति अपराधी जरूर था लेकिन मूर्ख नहीं था । उसे मालूम था कि उसके अपने भविष्‍य की कोई गारन्टी नहीं है लेकिन उसकी पत्‍नी के भविष्‍य की गारन्टी होनी चाहिये थी । बैंक में मेरे नाम एक लाख रूपया जमा है और इस फ्लैट की स्‍वामिनी भी मैं हूं ।”
“फिर ठीक है ।” - सुनील सन्तुष्‍ट स्‍वर में बोला ।
“वैसे सुनील साहब, आपके ख्याल से मेरे पति ने धन कहां छुपाया होगा ?”
“इससे पहले मेरे एक सवाल का जवाब दो ।”
“क्‍या ?”
“तुमने अभी कहा था कि चौधरी को इस फ्लैट में आये एक सप्ताह से अधिक हो चुका था ।”
“मैने यह कब कहा था ?”
“क्‍या ?” - सुनील हैरानी से बोला - “अभी तो कहा था तुमने ।”
“मैने कहा था कि मुझे अपने पति की सूरत देखे एक सप्ताह हो चुका है ।”
“क्‍या मतलब ?”
“मतलब यह है कि मैं सारा दिन फ्लैट में ही थोड़े ही बैठी रहती हूं । मेरी भी सोशल लाइफ है । मेरा अपना सोशल सर्कल है । अगर मेरी अनुपस्‍थित में मेरे पति यहां आये भी होंगे तो मुझे क्‍या पता लगेगा !”
“चौधरी के पास भी इस फ्लैट की चाबी थी ?”
“हां ।”
“और तुम्‍हारे पास यह जानने का कोई तरीका नहीं होता कि तुम्‍हारी अनुपस्‍थिति में चौधरी यहां आया था ?”
“केवल अनुमान ही लगाया जा सकता था । फ्लैट में उत्‍पन्न किसी अव्यवस्‍था को देकर ।”
“कल दिन में तुम कहीं गई थीं ?”
“कल मैं ‘बेकेट’ का नून शो देखने गई थी और लगभग पांच बजे वापस लौटी थी ।”
“फिर तो सम्‍भव है चौधरी तुम्‍हारी अनुपस्‍थिति में फ्लैट में आया हो ?”
“सम्‍भव है ।” - सुधा ने अनुमोदन किया ।
“तुम्‍हें फ्लैट की हालत में ऐसा लगा था जैसे चौधरी आया हो ?”
“हां । किचन में परकोलेटर अपने स्‍थान पर नहीं था और सिंक में एक जूठा कप रखा था ।”
“फिर तो इस बात की पूरी सम्‍भावना है कि माल इसी फ्लैट में है ।”
“लेकिन वह आदमी, जिसका नाम तुमने तिवारी बताया है, यहां का कोना-कोना छान गया है । अगर कुछ होता तो उसे जरूर दिखाई दे जाता ।”
“वह नया आदमी था । तुम अरसे से इस घर में रह रही हो । ऐसे बहुत से स्‍थान होंगे जहां उसकी नजर नहीं पड़ पाई होगी लेकिन तुम्‍हारी पड़ सकती है । तुम पूरे फ्लैट को यूं टटोल डलो जैसे कोई सुई तलाश कर रही हो ।”
“अच्छा ।”
“दूसरी सम्‍भावना यह भी है कि शायद चौधरी ने माल किसी बैंक के लाकर में रख दिया हो । ऐसी सूरत में सम्‍भव है, तुम्‍हें लाकर चाबी या इस तथ्‍य की ओर संकेत करने वाला कोई सूत्र प्राप्त हो जाये ।”
“मै देखूंगी ।”
“लेकिन आज अन्धेरा होने से पहले तुम यह फ्लैट छोड़ देना ।”
“अच्छा ।”
“और अब जितनी देर यहां रहो किसी अजनबी आदमी को द्वार मत खोलना ।”
“अच्छा ।”
“मैं शाम को तुम्‍हें होटल में मिलूंगा ।”
“ओ के ।”
सुनील की दृष्‍टि फिर सुधा की नग्‍न टांगों पर पड़ने लगी ।
सुधा ने उसकी दृष्‍टि का रुख देखा तो एकदम नर्वस होकर उठ खड़ी हुई ।
“मैं कपड़े बदल कर आती हूं ।” - वह हाउस कोट को अपने शरीर के आस-पास मजबूती लपेटती हुई बोली ।
“कोई जरूरत नहीं है ।” - सुनील उठता हुआ बोला - “मैं जा रहा हूं ।”
उसी समय फोन की घन्टी बज उठी ।
सुधा ने आगे बढ़कर फोन उठा लिया ।
“हल्‍लो ।” - वह बोली - “यस, स्‍पीकिंग....लेकिन आप है कौन ?.....कर्नल पिंगले, डिप्टी डायरैक्‍टर, सैन्ट्रल ब्‍यूरो ऑफ इन्वैस्‍टिगेशन ? लेकिन आप मेरे से क्‍या पूछना चाहते है ?....फोन पर कुछ नहीं बता सकते ? लेकिन आपका आफिस कहां है ? “मुझे कहां आना होगा ? बहुत अच्छा मै आ जाऊंगी । साढ़े बारह बजे गाड़ी भेज दीजियेगा । ओ के ।”
सुधा ने रिसीवर रख रिया ।
“कौन था ?” - सुनील ने पूछा ।
“कोई कर्नल पिंगले थे, सी बी आई डिप्टी डायरैक्‍टर । मेरे से कुछ बातें करना चाहते हैं ।”
“किस विषय में ?”
“यह तो उन्होंने बताया नहीं ।”
“कल रात मैं भी कर्नल पिंगले से मिला था । सी बी आई के आदमी भी चौधरी और उसके साथियों के विषय में तफ्तीश करवा रहे हैं । शायद कर्नल साहब तुमसे चौधरी के विषय में ही कुछ पूछेंगे । मिल आओ, कोई हर्ज नहीं है ।”
“अच्छा ।”
“जाना कहां है ?”
“वह तो उन्होंने बताया नहीं । उन्होंने कहा है कि साढ़े बारह बजे उनके डिपार्टमेंट की गाड़ी मुझे लेने आ जायेगी ।”
सुनील चुप रहा । फिर वह उठ खड़ा हुआ ।
“मैं जाता हूं ।” - वह बोला ।
“ओ. के. ।” - सुधा भी उठती हुई बोली - “थैंक्‍यू फार टेकिंग इन्टरैस्‍ट इन माई अफेयर्स ।”
“डोंट मैशन दैट ।”
वह फ्लैट से बाहर निकल आया ।
***
सुनील ने एक पब्‍लिक टेलीफोन बूथ से यूथ क्‍लब में फोन किया ।
दूसरी ओर लगातार कितनी ही देर तक घन्टी बजती रही लेकिन किसी ने फोन नहीं उठाया ।
सुनील जानता था कि सुबह के समय यूथ क्‍लब में पी. बी. एक्‍स. बोर्ड आपरेटर नहीं होती थी लेकिन रात को जाने से पहले वह बोर्ड से रमाकान्त की लाइन डायरेक्‍टर कर जाती थी और रमाकान्त रात को देर तक जागते रहेने के कारण दिन के बारह बजे तक सोता था । अन्त में दूसरी ओर से रिसीवर को क्रेडल से उठाये जाने का स्‍वर सुनाई दिया और फिर रमाकान्त ने अलसाये स्‍वर में उत्तर दिया - “हल्‍लो ।”
“रमाकान्त ।” - सुनील शहद जैसे मीठे स्‍वर में बोला - “मैं सुनील बोल रहा हूं ।”
“सुनील !” - रमाकान्त सचेत स्‍वर में बोला - “कहां से बोल रहे हो ।”
“हर्नबी रोड से ।”
“मतलब यह कि राजनगर में ही हो ?”
“हां ।”
“लेकिन तुम कहां मर गये थे ?”
“मैं विशालगढ़ गया था ।”
“क्‍यों ?”
“एक केस के सिलसिले में मलिक साहब ने भेजा था ।”
“कैसा केस था ?”
“वह अखबार से सम्‍बन्धित मामला था । तुम्‍हारी समझ में नहीं आयेगा ।”
“लेकिन तुम किसी को बता कर क्‍यों नहीं जाते हो कि तुम कहा जा रहे हो ?”
“मामला ही ऐसा था कि बताने का मौका नहीं मिला था ।”
“मैंने प्रमिला से पूछा था । वह बोली उसे नहीं मालूम था कि तुम कहां थे ! तुम्‍हारे दफ्तर वालों ने कुछ नहीं बताया । यहां तक कि इस बार तो पुलिस सुपरिन्टेडेन्ट रामसिंह से पूछा कि शायद इस बार भी तुम पिछली बार की तरह हांगकांग या कहीं और न पलायन कर गये होवो । रोज प्रमिला को फोन करता था मैं ।”
“कल रात किया था ?”
“बस कल ही नहीं किया ।”
“क्‍योंकि कल मैं आ जो गया था ।”
“सुनील, आजकल क्‍लब में बड़े मास्‍टरपीस प्रोग्रामों की सीरीज चल रही है । तफरीह का सिलसिला रात के कम से कम दो बजे तक चलता है । राजनगर की ए क्‍लास चीजें आजकल यूथ क्‍लब में आ रही हैं । बाई गाड, तुम्‍हारा अभाव बेहद खलता है ।”
“अच्छा !”
“हां । यार लोग बहुत याद करते हैं तुम्‍हें । आज रात उस सीरीज का आखिरी प्रोग्राम है । जरूर आना । यूथ क्‍लब के हुलिये बदले दिखाई देंगे तुम्‍हें ।”
“मैं जाऊंगा ।”
“जरूर आना ।” - और दूसरी ओर से रिसीवर क्रेडल पर पटके जाने का स्‍वर सुनाई दिया ।
“हल्‍लो..... हल्‍लो..... हल्‍लो ।” - सुनील जोर से चिल्‍लाया - “हल्‍लो रमाकान्त !”
लेकिन कौन सुनता था ! दूसरी ओर से रमाकान्त ने लाइन काट दी थी ।
सुनील ने यूथ क्‍लब का नम्‍बर दोबारा डायल किया ।
पहली बार की तरह ही कितनी देर घन्टी बजते रहने के बाद रमाकान्त ने फोन उठाया ।
“हल्‍लो ।” - उसका स्‍वर सुनाई दिया ।
“रमाकान्त ।” - सुनील झल्‍लाया - “तुम्‍हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया है ?”
“क्‍या हो गया ?”
“तुमने लाइन क्‍यों काट दी थी ?”
“मैने लाइन काट दी थी ?” - उसका हैरानीभरा स्‍वर सुनाई दिया ।
“और क्‍या मैंने लाइन काट दी थी ? साला पहले तो अपना ढोल बजाते रहे और जब मेरे बोलने की बारी आई तो रिसीवर रख दिया ।”
“अच्छा !”
“तुम होश में तो हो ?”
“होश में ही तो नहीं हूं, प्यारयो । रात बहुत पी गया था । अभी तक खुमार बाकी है । मैंने तो....मैने तो यह सोचकर रिसीवर रख दिया था कि मैंने तुम्‍हें फोन किया था और जो कुछ मैंने कहना था, कह चुका था ।”
“खैर, अब तुम यह बोलो कि कोई गम्‍भीर बात सुनने का लायक हो या नहीं ? होश में हो या नहीं ?”
“मैं पूरे होश में हूं, तुम कहो ।”
“एक केस है ।”
“केस तो खैर होगा ही । केस न होता तो तुम फोन थोड़े ही करते । इस बार किसका कल्‍याण कर रहे हो ?”
“किसी का नहीं । इस बार तो अपना और अपने अखबार का ही कल्‍याण कर रहा हूं ।”
“क्‍या मतलब ?”
“मतलब यह कि विशालगढ़ से आते समय कल रात मैं एक बखेड़े में फंस गया था । मामला मुझे कुछ दिलचस्‍प लगा था, इसलिये उत्‍सुकतावश ही उस पर काम करने लगा हूं । अखबार के लिये एक सैन्सेशनल चीज मिलने की आशा में ।”
“किस्‍सा क्‍या है ?”
“संक्षेप में फोन पर ही सुन लो, डिटेल में फिर सुनाऊंगा ।”
“कहो ।”
सुनील ने सारा किस्‍सा कह सुनाया ।
“यह तो ढेर सारे माल का मामला है ।” - सारी बात सुन चुकने के बाद रमाकांत का स्‍वर सुनाई दिया ।
“हां ।”
“तुम्‍हारे ख्याल से मरने वाला माल कहां रख गया होगा ?”
“मुझे कुछ पता नहीं चल रहा है ।”
“जिस हरीचन्द का जिक्र चौधरी ने किया था, कहीं चौधरी माल उसके पास तो नहीं छोड़ गया है ?”
“यह भी एक बात है जिसकी तफ्तीश तुमने करवानी है ।”
“अच्छा ।”
“हरीचन्द धर्मपुरे में अट्‌ठारह नम्‍बर खोली में रहता है । तुम उससे यह पता लगाने की चेष्‍टा करो कि चौधरी से उसका क्या सम्‍बन्ध था और वह चौधरी को कैसे जानता था ?”
“हो जायेगा ।”
“दूसरी बात यह है कि डाक्‍टर शर्मा के नर्सिंग होम का एक बिल चौधरी की जेब में मिला था । उस पर कल की, तेरह तारीख थी । तुम यह पता लगवाओ कि चौधरी वहां कब और किस सिलसिले में गया था और उसने वह बिल किन डाक्‍टरी सेवाओं के अन्तर्गत अदा किया था ?”
“हो जायेगा ।”
“शायद यह काम इतनी आसानी से न हो पाये ।”
“क्‍यों ?”
“इस ऐंगल पर पुलिस भी काम कर रही है । शायद उन्होंने नर्सिंग होम के स्‍टाफ को यह चेतावनी दे दी हो कि वे इस मामले में किसी के सामने जुबान न खोलें ।”
“चिन्ता मत करो” - रमाकांत का गर्व और आत्मविश्‍वास भरा स्‍वर सुनाई दिया - “रमाकांत के हथकन्डों के आगे गूंगे भी जबान खोल देते हैं ।”
“तीसरी बात यह है की चौधरी की पत्‍नि सुधा हर्नबी रोड पर स्‍थित डेक्‍स्‍टर हाउस के एक फ्लैट में रहती है । जिस कर्नल पिंगले से मैंने अपनी मुलाकात का जिक्र किया है उसने सुधा को बातचीत के लिये कहीं बुलाया है । लेकिन उसने सुधा को यह नहीं बताया है कि उसे कहां जाना है ! अभी साढ़े बारह बजे एक कार सुधा को लेने के लिये आने वाली है । मुझे सन्देह है कि कहीं यह सुधा को फांसने की चौधरी के साथियों की चाल न हो ।”
“तुम्‍हारा मतलब है कि कर्नल पिंगले कें नाम से यह टेलीफोन कहीं चौधरी के साथियों ने न किया हो ?”
“हां ।”
“लेकिन उन्हें क्‍या पता कि कर्नल पिंगले कौन है ? और विशेषरूप से इतना बड़ा संयोग कैसे हो सकता है कि उन्होंने भी उसी आदमी का नाम चुना जो कुछ देर पहले स्‍वयं तुमसे मिल चुका हो ?”
“मैने भी यह बात सोची थी और सच पूछो तो इसी धारणा के अन्तर्गत मैंने सुधा को कर्नल से मिल आने की राय भी दे दी थी । लेकिन फिर भी मैं उसकी सुरक्षा का पूरा इन्तजाम चाहता हूं ।”
“इन्तजाम तो हो जायेगा लेकिन तुम्‍हारी उसमें क्‍या दिलचस्‍पी है जो तुम उसके लिये इतना कुछ कर रहे हो ?”
“मैं अपनी आदतों से मजबूर हूं प्यारे लाल । आई कांट सी ए डैमसेल इन डिस्‍ट्रेस ।”
“एक दिन ऐसी ही किसी डैमसेल इन डिस्‍ट्रेस के चक्‍कर में जान से हाथ धो बैठोगे ।”
“उससे अधिक हसीन मौत क्‍या हो सकती है ? एक दिन मरना तो है ही ।”
“फिलासफी छोड़ो । काम की बात करो ।”
“सुधा के पीछे अपने कम से कम दो आदमी लगा दो । साढ़े बारह बजे जो कार उसे लेने आये, उन्हें उसका पीछा करना है । जिस स्‍थान पर सुधा को ले जाया जाये अगर वहां उसे असाधारण देर लगती दिखाई दे या किसी गड़बड़ का आभास मिले तो वे स्‍वयं किसी बखेड़े में फंसने के स्‍थान पर फौरन पुलिस को फोन कर दें । रमाकांत, यह बात मार्क कर लो, उन्हें फिल्‍मी हीरो की तरह सुधा को शत्रुओं के पंजे से छुड़ाने का उपक्रम करने की आवश्यकता नहीं है ।”
“मैं दिनकर और जौहरी को सुधा के पीछे भेजने वाला हूं और तुम जानते हो वे बेवकूफ नहीं हैं ।”
“ठीक है ।”
“और कुछ ?”
“और एक कार का नम्‍बर नोट कर लो । तुम्‍हें पता लगाना है कि वह कार किसके नाम रजिस्‍टर है ?”
“बोलो ।”
“आर. एल. आर. 943 ।”
“यह कौन सी कार है ?”
“यह वह कार है जिस पर चौधरी के साथी सवार थे ।”
“और कुछ ?”
“बस ।”
“सुनील ।” - कुछ क्षण खामोशी के बाद रमाकांत का स्‍वर सुनार्द दिया - “कल के अखबार में, तुम्‍हें याद है, सेठ गूजरमल की हत्‍या का वर्णन था ।”
“हां, याद है ।”
“सेठ विशालगढ़ सक्‍सप्रेस के फर्स्ट क्‍लास के कम्‍पार्टमेंट में मरा पाया गया था । उसके सीने में दो गोलियां लगी थीं । उसके सामान में से, सुना है, एक नीले रंग की अटैची गायब थी । सेठ के एक नौकर का कथन है कि सेठ उस रात कम से कम बीस लाख रूपये माल लेकर सफर कर रहा था और वह माल सम्‍भवतः उस अटैची में था क्‍योंकि सेठ उस अटैची को किसी को हाथ नहीं लगाने देता था ।”
“तुम यही कहना चाह रहे हो न कि कहीं सेठ का बीस लाख का माल चौधरी और उसके साथियों में फसाद की जड़ नहीं बना हुआ था ?”
“क्‍या यह सम्‍भव नहीं है ?”
“बहुत सम्‍भव है । मैं भी यह बात पहले सोच चुका हूं । और चौधरी और उसके साथियों की यह सरगर्मी आरम्‍भ भी सेठ की हत्‍या के बाद हुई थी ।”
रमाकांत चुप रहा ।
“ओ. के. दैन ।” - सुनील बोला - “मैं आज शाम को फोन करूंगा ।”
“फोन नहीं, खुद आना ।”
“अच्छा ।”
एकाएक सुनील को एक ख्याल आया ।
“रमाकांत........रमाकांत........हल्‍लो !” - वह उत्तेजित स्‍वर में बोला ।
“क्‍या हो गया ? क्‍या टेलीफोन बूथ में आग लग गई है ?”
“रमाकांत, एक और कार का नम्‍बर नोट कर लो ।”
“बोलो ।”
“आर. एल. आर. 2124 । यह कर्नल पिंगले की कार का नम्‍बर है । कर्नल कहता था कि सी.बी. आई. कारों के नम्‍बर दिन में चार बाद बदलते हैं । अर्थात्‌ यह नम्‍बर वास्‍तव में कर्नल की कार का नहीं है । अगर सी. बी. आई. की गाड़ियों पर दिन में चार बार गलत नम्‍बर प्लेट लगाई जाती है तो कभी तो ऐसा संयोग होता ही होगा कि उनका नकली नम्‍बर किसी दूसरे की कार के नम्‍बर से मिल जाता हो । जरा पता लगाओ कि यह किसकी कार का नम्‍बर है । मजाक रहेगा ।”
“मजाक तो तब रहता अगर यह नम्‍बर मेरी कार के नम्‍बर से मिल जाता ।”
“अब भी कोई बात हो सकती है । तुम पता तो लगाना ।”
“ओ. के. ।”
सुनील ने रिसीवर हुक पर लटका दिया और बाहर निकल आया ।
अगले ही क्षण वह “ब्‍लास्‍ट” के दफ्तर की ओर उड़ा जा रहा था ।
***
शाम के लगभग साढ़े छः बजे थे ।
स्‍विस होटल की आठवीं मन्जिल पर बने ओपन टेरेस रेस्‍टोरेन्ट में एक कोने की मेज पर सुनील सुधा के साथ बैठा हुआ था ।
वेटर काफी ले आया ।
सुनील ने लक्‍की स्‍ट्राइक का एक सिगरेट सुलगा लिया ।
उसने सिगरेट का एक गहरा कश लिया और फिर अपार तृप्ति का प्रदर्शन करता हुआ बोला - “कर्नल पिंगले से मिली तुम ?”
“हां ।”
“क्‍या कहा उन्होंने ?”
“उन्होंने भी उस बीस लाख रूपयों के विषय में ही पूछा ।”
“अच्छा !” - सुनील तनिक आश्‍चर्य का प्रदर्शन करता हुआ बोला ।
“हां, लेकिन उनका प्रश्‍न जरा भिन्‍न था ।”
“कैसे ?”
“उन्होंने कहा कि वह बीस लाख रूपया जो अपनी मृत्‍यु के पहले मेरे पति के अधिकार में था, उस करोड़ों की सम्‍पत्ति का एक भाग था जो पिछले दिनों बड़े रहस्‍यपूर्ण ढंग से गायब हो गई थी ।”
“कहां से ?”
“यह नहीं बताया उन्होंने । उन्होंने कहा था कि जनसाधारण को तो क्‍या, पुलिस तक का उस करोड़ों रूपये की चोरी की जानकारी नहीं थी । वह केस केवल सी बी आई के टाप आफिसरों की जानकारी में था और उसे जनसाधारण की जानकारी से बचाये रखने के लिये बेहद सावधानी बरती जा रही थी । अगर वह बात जनता पर प्रकट हो गई तो तहलका मच जायेगा और वह फसाद की जड़ बीस लाख रूपया जो चौधरी साहब अपनी आखिरी करामात के रूप में कहीं छुपा गये थे, बाकी के करोड़ों रूपयों का सुराग पाने के लिये बेहद सहायक सिध्द हो सकता था ।”
“फिर ?”
“फिर उन्होंने मुझसे पूछा कि मैं उस बीस लाख के माल के विषय में क्‍या जानती थी ?”
“तुमने क्‍या उत्तर दिया ?”
“वही जो सच था । मैंने कहा कि न तो मेरे पति ने मुझे इस विषय में कुछ बताया था और न ही स्‍वयं अपने प्रयत्नों से जान पाई थी कि माल कहां था ?”
“आज सुबह मेरे जाने के बाद तुमने फ्‍लैट मे तलाश किया था ?”
“हां । और,सुनील साहब, आप यूं समझिये कि मैंने फ्‍लैट की एक-एक चीज उधेड़कर रख दी थी । अगर फ्‍लैट में कहीं एक सुई भी होती तो वह मुझे दिखाई दे जाती । इस समय तो मैं चैलेंज के साथ कह सकती हूं कि मेरे फ्‍लैट में न तो माल है और नहीं उसके अस्‍तित्‍व की ओर संकेत करने वाली कोई अन्य वस्‍तु है ।”
“श्योर ?”
“डैड श्योर ।”
“तुमने यह बात कर्नल साहब को बताई थी ?”
“हां ।”
“कया बोले वह ?”
“उन्होने कहा कि मुझसे गलती हो सकती थी । मैं पूरी सावधानी से अपनी तलाशी जारी रखूं । चौधरी अगर किसी के लिये माल छोड़ सकता था तो वह मैं थी । अन्त में माल या माल का सुराग मेरे ही सामान से निकलेगा ।”
“तुम्हारा क्या ख्याल है ?”
“मेरा तो ख्याल वही है जो मैं तुम्हें बता चुकी हूं । माल न मेरे फ्लैट में है और न मेरे सामान में । आखिर बीस लाख रुपये आकार में कोई ऐसी छोटी सी थोड़े ही होती है जो कहीं भी छुपायी जा सकती हो !”
“देखो सुधा, पहले तो यह ही जरूरी नहीं है कि माल नोटों की सूरत में हो । अभी तक किसी बात से भी ऐसा आभास नहीं मिला है कि वह नकद रुपया होगा । सम्भव है माल सोने की सूरत में हो या हीरे या जेवरात या काई भी अन्तर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त कीमती चीज हो । दूसरी बात मैं तुम्हें पहले भी कह चुका हूं कि अधिक सम्भावना इस बात की है कि माल किसी बैंक के लाकर में या ऐसी ही किसी सुरक्षित जगह पर है । तुम्हें किसी बैंक के लाकर की चाबी या किसी क्लाक रूम की रसीद तलाश करनी चाहिये । तुम्हारे फ्लैट में रखी किताबों में या किन्हीं पुरानी पत्रिकाओं और अखबारों में अगर कहीं कोई रसीद छुपी हुई हो तो क्या सम्भव नहीं है कि वह तुम्हारी नजर में न आई हो ?”
“सम्भव है ।” - सुधा ने स्वीकार किया ।
“तुमने फ्लैट की तलाशी ली होगी, बीस लाख के माल के एक निश्‍चित आकार को दिमाग में रखकर । उस सूरत में तुम अनजाने में कहीं प्रत्यक्ष में महत्वहीन लगने वाली जगह देखनी भूल गई होगी लेकन दावा यही करोगी कि तुमने फ्लैट का चप्पा-चप्पा छान मारा था ।”
“तो क्या मैं दुबारा जाऊं फ्लैट में ?” - सुधा विचारपूर्ण स्वर से बोली ।
“नहीं, तुम्हारा जाना ठीक नहीं होगा ।”
“तो फिर ?”
“तुम फ्लैट की चाबी मुझे दे दो । मैं देख आऊंगा ।”
सुधा हिचकिचाई ।
“तुम्हें सन्देह है मुझ पर ?” - सुनील हैरानी का प्रदर्शन करता हुआ बोला ।
“सुनील ।” - वह हिचकिचाहटभरे स्वरे में बोली - “सुनील मैं.... मैं....देखो बुरा मत मानना । मैं तुम्हारे नाम के अतिरिक्त तुम्हारे विषय में और जानती ही क्या हूं ?”
“तुम सोचती हो कि अगर तुमने चाबी दे दी और माल तुम्हारे फ्लैट में हुआ तो मैं उसे ले भागूंगा ?” - सुनील शिकायतभरे स्वर में बोला ।
सुधा चुप रही ।
“देवी जी, अगर मेरी ऐसी ही नीयत होती तो मैं आकर तुम्हें चौधरी का सन्देशा नहीं देता कि वह तुम्हारे लिये बीस लाख रूपये छोड़ गया था । मैं माल को चुपचाप अकेला तलाश करता और अकेला ही हजम कर जाता । और अब जबकि कर्नल पिंगले उस माल को किसी बड़ी चोरी का एक भाग बता रहे हैं तो अगर माल मिल भी गया तो तुम्हें तो उसमें से एक धेला नहीं मिल सकता ।”
“लेकिन माल मुझे मिल गया तो मैं कर्नल को बताऊंगी ही क्यों ?”
सुनील हैरानी से उसका मुंह देखता रहा ।
सुधा कई क्षण विचारपूर्ण मुद्रा में काफी के प्याले में से उठती हुई भाप को घूरती और फिर बोली - “मुझे एक सिगरेट दो ।”
“क्या ?” ­- सुनील हैरानी से बोला - “तुम सिगरेट पीती हो ?”
“क्या तुम खाते हो सिगरेट को ?”
सुनील ने सिगरेट का पैकेट उसकी और बढ़ा दिया । सुधा ने एक सिगरेट निकाल कर होंठों से लगा ली ।
सुनील ने उसकी सिगरेट सुलगा दी ।
सुधा ने सिगरेट को अपनी लम्बी और पतली उंगलियों में नचाते हुये सिगरेट के कई छोटे-छोटे कश ले डाले ।
सिगरेट अभी एक चौथाई ही समाप्त हुई थी कि उसने उसे ऐशट्रे में डाल दिया ।
फिर उसने अपने पर्स में से चाबियों का एक गुच्छा निकाला और उसमें से एक चाबी निकाल कर सुनील की और बढ़ा दी ।
“लो ।” - वह बोली ।
“तुमने मेरे माल लेकर भाग जाने की सम्भावना पर विचार कर लिया है न ?”
“हां ।” - वह निश्‍चयपूर्ण स्वर में बोली ।
सुनील ने चाबी ले ली ।
“मैं अपने व्यवहार के लिये माफी मांगती हूं ।” - वह धीरे से बोली - “सुनील, मैं औरत हूं न ! बिना सोचे समझे मुंह फाड़ देने की आदत तो मुझमें भी है ।”
और उसने सुनील का हाथ अपने हाथों में थामा और धीरे से दबा दिया ।
सुनील के शरीर में झुरझुरी से दौड़ गई ।
सुनील ने धीरे से अपना हाथ खींच लिया और विषय बदलता हुआ बोला - “तुमने कर्नल पिंगले को मेरे विषय में बताया था ?”
“हां ।”
“उन्होंने कहा कुछ ?”
“वह कह रहे थे कि वे तुम्हारे बारे में तफ्तीश करवायेंगे ।”
“कैसी तफ्तीश ?”
“यही कि तुम कौन हो ?”
“और तिवारी वगैरह के विषय में ?”
“सुबह की सारी घटना उन्हें बता दी थी मैंने । वे कर रहे थे कि तिवारी, गन्जा जीवन और वह तीसरा आदमी मोहन लाल उनकी जानकारी में थे और वे मेरी सुरक्षा का प्रबन्ध भी करवा देंगे । फिलहाल मैं तुम्हारी सलाह मान कर होटल में ही रहूं तो अच्छा था ।”
“अच्छा, एक बात और । कर्नल पिंगले तुम्हें कहां मिले थे ?”
“मुझे तो पता नहीं लग पाया । जो गाड़ी मुझे लेने आई थी, वह न जाने किन रास्तों से गुजरती हुई एक इमारत के सामने जा खड़ी हुई थी । उसी इमारत के किसी कमरे में कर्नल साहब मुझे मिले थे ।”
“मतलब यह कि तुम उस इमारत तक दोबारा नहीं पहुंच सकतीं ?”
“नहीं ।”
“अगर तुम्हें माल मिल जाता है तो तुम कर्नल साहब को सूचना कैसे भिजवाओगी ?”
“उन्होंने मुझे एक टेलीफोन नम्बर बताया है । उसके कथनानुसार उस नम्बर पर दिया कोई भी सन्देश फौरन उन तक पहुंच जायेगा ।”
“क्या नम्बर है ?”
सुधा चुप रही ।
“कोई हर्ज है नम्बर बताने में ?”
“कर्नल साहब ने कहा था कि वह गुप्त नम्बर है जो टेलीफोन डायरैक्टरी में भी अनुसूचित नहीं है और मुझे वह नम्बर किसी को कभी नहीं बताना चाहिए ।”
“मुझे भी नहीं ?” ­- सुनिल उसके नेत्रों में झांकता हुआ बोला ।
“सुनील ।” - सुधा भावुक स्वर में बोली - “तुमसे मिले मुझे अभी चौबीस घन्टे भी नहीं हुये हैं लेकिन पता नहीं क्यों इतने थोड़े समय में ही मैं स्वयं पर तुम्हारे व्यक्‍तित्व का बेहद गहरा प्रभाव अनुभव कर रही हूं । तुम्हारे सामने हर मामले में मेरा प्रोटेस्ट कमजोर पड़ जाता है ।”
“मैं समझ गया ।” - सुनील उसकी बात काट कर बोला - “सुधा, मात्र मेरे व्यक्‍तित्व से प्रभावित होकर तुम्हें ऐसा कोई काम करने की आवश्यकता नहीं है जिसमें तुम कोई नैतिक या बौद्धिक बन्धन का अनुभव करती हो । अगर कर्नल साहब ने तुम्हें वह नम्बर गुप्त रखने के लिये कहा है तो उसे गुप्त ही रखो ।”
“मैं बताती हूं ।”
“न । मुझे वह नम्बर जानने की आवश्यकता नहीं है । मैंने कोई सहायता तो मांगनी नहीं है कर्नल साहब से । मैंने यूं ही पूछ लिया था ।”
“यू डिड नाट माइन्ड इट, सुनील ?”
“डैफिनेटली नाट ।” - सुनील बोला । उसने सुधा की एक विचित्र आदत मार्क की थी । वह वार्तालाप के बीच में कहीं भी खामखाह एक आध वाक्य अंग्रेजी का जड़ देती थी । शायद वह यह जताना चाहती थी कि वह पढ़ी-लिखी है ।
“तुम सावधानी से रहना ।” - सुनील उठने का उपक्रम करता हुआ बोला - “मैं चलता हूं ।”
“कहां ?”
“मेरे एक मित्र ने आज रात के प्रोग्राम के लिये मुझे यूथ क्लब में आमन्त्रित किया हुआ है ।”
“आज कोई विशेष बात है वहां ?”
“हां । वह कहता है कि बहुत तगड़ा प्रोग्राम है ।”
“क्या मैं भी तुम्हारे साथ चल सकती हूं ?” - सुधा आशापूर्ण स्वर में बोली ।
सुनील क्षण भर हिचकिचाया और फिर बोला - “चलो ।”
“मैं जरा एक बार अपने कमरे में हो आऊं ।” - वह उत्साहित होकर बोली ।
“क्यों ?”
“कपड़े बदल आऊं ।”
“जो कपड़े पहने हुये हो, उनमें क्या खराबी है ? अच्छी खासी हर जगह से ढकी हुई तो हो ।”
“बस यही तो खराबी है ।”
“क्या ?”
“कि मैं अच्छी खासी हर जगह से ढकी हुई हूं ।”
“तो......तो क्या......तो क्या......?”
“यस । यस, मिस्टर सुनील दिस वर्ल्ड इज मूविंग वैरी फास्ट इन फैशन ऐज फार ऐज वुमैन आर कन्सर्नड ।”
“आल राइट ।” - सुनील बोला - “मैं यहीं बैठा हूं । तुम चेंज कर आओ ।”
सुधा उठ खड़ी हुई ।
“तुम्हारा कमरा कौन सा है ?”
“चार सौ बाइस ।”
“दो ज्यादा है ।”
“हां ।” - वह होंठ दबाकर हंसती हुई बोली और फिर अपने शरीर के एक-एक कटाव को गहरे बल देती हुई लिफ्ट की ओर बढ़ गई ।
सुनील उसे जाता देखता रहा । तब एक ही विचार उसके मस्तिष्क में घूम रहा था । इस औरत को देखकर क्या कोई कह सकता था इसके पति को मरे हुये अभी चौबीस घन्टे भी नहीं हुये थे !
सुनील ने नया सिगरेट सुलगा लिया ।
लगभग आधा घन्टा गुजर गया लेकिन सुधा लौट कर नहीं आई ।
लेडीज एण्ड देयर मेकअप । - वह बड़बड़ाया - ओ हैल !
आखिर औरतें यह क्यो नहीं समझती कि जिस मेकअप को करने में वे दो-दो घन्टे लगाती हैं, बैडरूम में उसी मेकअप को बिगाड़ने में आदमी दो मिनट लगाता है ।
बोर होकर सुनील उठ खड़ा हुआ ।
लिफ्ट द्वारा वो चौथी मंजिल पर पहुंचा ।
चार सौ बाइस नम्बर कमरा लिफ्ट के सामने वाली लाइन में तीन, चार कमरे परे था ।
उसने चार बाइस के सामने पहुंच कर दरवाजे पर धीरे से दस्तक दी और बोला - “सुधा !”
उसके आवाज देने के एक ही क्षण बाद भीतर कमरे की बत्ती बुझ गई और द्वार के नीचे से प्रकाश की पीली सी बाहर को फूटती हुई लकीर गायब हो गई ।
सुनील संदिग्ध हो उठा । उसका दिल गवाही दे रहा था कि भीतर कोई गड़बड़ थी ।
दोबारा आवाज देने के स्थान पर उसने द्वार के की-होल पर आंख लगा दी ।
खिड़की में से बाहर का हल्का सा प्रकाश कमरे में आ रहा था । उस प्रकाश में उसे दो साये दिखाई दिये । एक साया पुरूष का था । उसने एक स्त्री को दबोच रखा था जो शायद सुधा थी ।
पुरूष ने बड़ी फुर्ती से सुधा के मुंह में एक रुमाल ठूंसा और उसके ऊपर से उस पर एक पट्टी बांध दी । फिर वह उसे बाथरूम की ओर घसीटने लगा ।
सुनील पीछे हटा और उसने पूरी शक्ति से अपना कन्धा द्वार के साथ टकरा दिया ।
द्वार चरचरा गया ।
सुनील ने फिर दुगने जोर से एक और धक्‍का दिया ।
तीसरे धक्‍के पर द्वार चौखट से अलग हो गया ।
सुनील झपटकर भीतर घुसा ।
आदमी भीतर नहीं था ।
सुनील जल्दी से खिड़की के पास पहुंचा और उसने बाहर झाका ।
वह आदमी उसे बगल के कमरे की खिड़की के प्रोजैक्शन पर दिखाई दिया । सुनील के देखते ही देखते वह अगली खिड़की के प्रोजैक्शन पर कूद गया । उसके हाथ में एक छोटा सा हैन्डबैग था ।
सुनील सांस रोके उसे देखता रहा ।
छलांग मे जरा सी चूक हो जाने पर भी वह चार मंजिली से नीचे पक्‍की सड़क पर जा गिरता और उसका कचूमर निकल जाता ।
दो और प्रोजेक्शन फांदने के बाद वह एक खुली खिड़की से भीतर घुस गया ।
सुनील ने गिना वह सुधा के कमरे से पांचवां कमरा था ।
सुनील खिड़की से हट गया ।
उसने स्विच ढूंढ़कर कमरे की बत्ती जलाई और बाथरूम का द्वार खोला ।
सुधा के हाथ पीठ पर बंधे हुये थे और वह बाथरूम के फर्श पर पड़ी थी ।
सुनील ने जल्दी से उसके मुंह से कपड़ा हटाया और फिर हाथ के बन्धन खोल दिये ।
सुधा के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं । वह सुनील के शरीर का सहारा लिये लम्बी सांसें भरती रही ।
सुनील उसे सहारा दिये बाहर कमरे में ले आया और उसे बिस्तर पर बिठा दिया ।
“क्या हुआ था ?” - सुनील ने पूछा ।
सुधा एकदम रो पड़ी और सुनील के साथ लिपट गई ।
“क्या हुआ था ?” - सुनील ने उसकी पीठ थपथपाते हुये अपना प्रश्‍न दोहराया ।
“वह......वह......” - सुधा सुबकती हुई बोली - “वह पहले से ही कमरे में था ।”
“वह था कौन ?”
“वही आदमी जो सुबह - सुबह मेरे फ्लैट पर भी आया था ।”
“तिवारी ?”
“हां ।”
“फिर ?”
“मेरे भीतर घुसते ही उसने मुझे दबोच लिया और मेरे से पूछने लगा कि मैं फ्लैट छोड़कर इस होटल में क्यों आ गई थी । मेरे उत्तर देने से पहले ही वह बोल पड़ा कि जरूर मुझे माल मिल गया है और मैं उन लोगों से बचने के लिये यहां होटल में आ गई थी । मैंने इन्कार किया तो.....तो.....”
और वह फफकर कर रो पड़ी ।
सुनील उलझनपूर्ण मुद्रा बनाये उसके दोबारा बोलने की प्रतीक्षा करता रहा ।
सुधा कुछ क्षण सुनील के साथ लगी सिसकती रही और फिर चुप हो गई ।
“फिर ?”
“फिर पहले तो उसने मेरे सामान की तलाशी ली, मेरे कपड़ों की और सूटकेसों की धज्जियां उड़ा दीं और जब उसे उनमें से कुछ नहीं मिला तो उसने मुझे मारा , मेरे बाल नोच डाले और......और......”
सुधा के चेहरे पर गहन आतंक के भाव छा गये ।
“यह देखो ।” - वह बोली उसने अपने कन्धों के आस-पास लिपटे साड़ी के पल्ले को सरका दिया ।
सुनील ने देखा उसका ब्लाउज यूं फटा हुआ था जैसे गिरहबान में हाथ डालकर खींच दिया गया हो । उसके अनावृत वक्ष दो स्थानों पर चमड़ी बुरी तरह झुलसी हुई थी ।
“यह.......यह क्या हुआ है ?” - सुनील ने विचलित स्वर में पूछा ।
“उसने यहां जलती हुई सिगरेट लगा दी थी ।”
सुनील एकदम उठ खड़ा हुआ ।
“शैतान ?” - उसके मुंह से निकला ।
सुधा ने साड़ी का पल्ला फिर अपने आस-पास लपेट लिया ।
“उसके हाथ में एक हैण्डबैग था ।” - सुनील बोला - “वह तुम्हारा था ?”
“हां । हैण्डबग पर उसकी नजर बाद में पड़ी थी । उस समय शायद तुम आ गये थे और वह हैण्डबैग को साथ ही ले गया है । लेकिन वह भागा किधर से ?”
“खिड़की के रास्ते । सुधा, तुम पुलिस को फोन करके सारी घटना की सूचना दे दो और साथ ही मैनेजर को भी बता दो ।”
“नहीं ।” - सुधा धीरे से बोली ।
“क्या ?” - सुनील हैरान हो उठा ।
“मैं पुलिस को रिपोर्ट नहीं करूंगी ।”
“क्यों ?”
“वह कहता था कि अगर मैंने इस विषय में अपनी जुबान खोली तो वह मुझे गोली से उड़ा देगा ।”
“क्या बच्‍चों जैसी बातें कर रही हो ?”
“सुनील, वह कभी भी, कहीं भी मुझ तक पहुंच जाता है । अगर मैंने उसकी चेतावनी नहीं मानी तो वह सच में ही मुझे जान से मार डालेगा ।”
“वह इस बुरी तरह तुम्हें टार्चर करता रहे ।” - सुनील उसके वक्ष की ओर संकेत करता हुआ बोला - “यह पसन्द है तुम्हें ?”
सुधा चुप रही ।
“इस टूटे हुये द्वार के विषय में क्या सफाई दोगी ?”
“मैं मैनेजर से कह दूंगी कि कोई मेरी अनुपस्थिति में द्वार तोड़कर भीतर घुस आया था ।”
“और मैनेजर यह सफाई स्वीकार कर लेगा ?”
“सुनील ।” - वह बेबसीभरे स्वर में बोली - “तुम मेरी मदद क्यों नहीं करते हो ?”
“मैं क्या मदद करूं तुम्हारी ?
“मुझे इन हत्यारों से बचाओ ।”
“कत्ल कर दूं उन्हें ?”
सुधा चुप हो गई ।
“मै अभी थोड़ी देर में लौट कर आता हूं । पुलिस को नहीं तो कम से कम कर्नल पिंगले को तो इसकी सूचना दे दो । शायद वह तुम्हारी कुछ सहायता कर सके ।”
“तुम जा कहां रहे हो ?”
“लौट कर बताऊंगा ।”
सुनील बाहर निकल आया ।
वह लम्बे डग भरता हुआ चार सौ सत्ताइस नम्बर कमरे के सामने पहुंचा और उसका द्वार खटखटा दिया ।
चार सौ सत्ताइस नम्बर कमरा सुधा के कमरे से पांचवां था ।
“कम इन ।” - भीतर से आवाज आई ।
सुनील द्वार खोल कर भीतर घुस गया ।
भीतर गन्जा जीवन, तिवारी और वह तीसरा आदमी जिसका नाम सुधा ने मोहनलाल बताया था - तीनों ही मौजूद थे ।
“गुड इवनिंग जन्टल मैन ।” - सुनील बोला ।
उसने लापरवाही से द्वार बन्द किया और फिर लम्बे डग भरता हुआ उनके सामने पड़ी एक कुर्सी पर बैठ गया ।
“यह क्या हरकत हुई ?” - जीवन विचित्र स्वर में बोला ।
उत्तर देने के स्थान पर सुनील ने जेब से एक सिगरेट निकाला, उसे सुलगाया, एक गहरा कश लिया और फिर हवा में धुएं के गोले उगलता हुआ बोला - “मुझे पहचाना नहीं, गन्जे भाई !”
जीवन का चेहरा क्रोध से लाल हो उठा ।
“अभी यही सुधा के कमरे में आया था ।” - तिवारी पहले ही बोल उठा - “और सुबह भी सुधा के फ्लैट में मैंने इसे ही घुसते देखा था ।”
“कौन हो तुम ?” - जीवन ने तीव्र स्वर में पूछा ।
“इतनी जल्दी भूल गये ? शायद तुम जिसे रिवाल्वर दिखाते हो, उसकी सूरत याद नहीं रखते ।”
“ओह ?” ­­­­­­­- जीवन को एकदम याद आ गया - “कल रात चौधरी की लाश के पास तुम थे ।”
“यह गुस्ताखी मुझसे ही हुई थी ।”
“तुम यहां क्या करने आये हो ?”
“तुम लोगों के सुन्दर मुखड़े देखने के लिये ।”
“लेकिन तुम्हें पता कैसे चला कि हम यहां हैं ?”
“तुम तो, प्यारे लाल” - सुनील तिवारी की ओर मुड़ कर बोला - “शायद पिछले जन्म में लंगूर थे । क्या सफाई से खिड़कियों के प्रोजैक्शन फांदे थे ?”
तिवारी एकदम उछल कर खड़ा हो गया । उसने जेब में से रिवाल्वर निकाल लिया ।
“जान से मार दूंगा ।” - वह दांत पीसकर बोला ।
“तिवारी ठीक कह रहा है ।” - जीवन बोला ।
“अगर इसने मुझे मार डाला तो तुम्हें यह कौन बतायेगा कि तिवारी ने माल कहां रखा है ?”
जीवन और मोहनलाल एकदम चौंक पड़े । उनकी संदिग्ध दृष्टियां तिवारी की ओर घूम गईं ।
“बकता है, हरामजादा ।” - तिवारी मुंह बिगाड़ कर बोला ।
“तिवारी, रिवाल्वर जेब में रख लो ।” - जीवन बोला - “यह होटल है, जंगल नहीं है ।”
तिवारी ने अनमने मन से रिवाल्वर जेब में रख लिया ।
“तुम किस माल का जिक्र कर रहे थे ।” - जीवन ने सुनील से पुछा ।
“यह भी मुझे ही बताना पड़ेगा ?”
“बता दो । क्या हर्ज है ?”
“वही बीस लाख का माल जो चौधरी ले उड़ा था और जिसकी खातिर तुम सुधा के पीछे पड़े हुए हो ।”
“तुम इस मामले में क्या जानते हो ?”
“वही जो तुम जानते हो ।”
जीवन चुप हो गया । तिवारी अपार विरक्ति का भाव प्रकट करता हुआ मुंह फेरे बैठा था । मोहनलाल अभी तक एक शब्द भी नहीं बोला था ।
“तुम हो कौन ?” - जीवन फिर बोला ।
“अब्दुल रहमान ।”
“बकवास मत करो ।” - जीवन फिर बोला - “और मतलब की बात करो वरना गला दबा दूंगा ।”
“देखो, गंजे भाई ।” - सुनील गम्भीर स्वर में बोला - “कल तुम ने मुझे रिवाल्वर से धमका कर भगा दिया था इसका मतलब यह हरगिज भी नहीं है कि मैं तुम लोगों से डर गया हूं ! तुम्हें यह जानने की जरूरत नहीं है कि मैं कौन हूं ! सिर्फ इतना जान लो कि मैं भी उसी राह का राही हूं जिसके तुम लोग हो । अंतर केवल इतना है कि माल की तलाश का जो ढंग तुम लोग अपना रहे हो, उसके कारण न तो मैं सफल हो पाऊंगा और न ही तुम्हारे हाथ कुछ लगेगा ।”
“क्या खराबी है हमारे ढंग में ?” - तिवारी तीव्र स्वर में बोला ।
सुनील ने तिवारी के प्रश्‍न को अनसुना कर दिया ।
“तुमने तिवारी को अपना सरगना क्यों बनाया हुआ है ?” - उसने जीवन से पूछा ।
“यह तिवारी की राय थी ।”
“जीवन ।” - तिवारी फिर बोला - “आखिर तुम एक अनजाने आदमी को इतनी सफाइयां क्यों दे रहे हो ? मैं कहता हूं या तो तुम इससे मुझे निपटने दो, या फिर इसे हाथ मार कर बाहर निकालो यहां से ।
“तुम थोड़ी देर अपनी चोंच बन्द रखो, तिवारी ।” - जीवन क्रुध स्वर से बोला ।
तिवारी बल खाकर चुप हो गया ।
“यह तिवारी की ही राय थी कि हम तीनों आदमी इकट्ठे सुधा पर टूट पड़ें ।” - जीवन बोला - “सबसे अच्छा यह है कि एक आदमी काम करें और दो उसे सपोर्ट दें ।”
“और वह काम करने वाला एक आदमी तिवारी चुना गया ?”
“हां ।”
“ताकि अगर माल इसके हाथ में आ जाये और यह उसे अकेला ही हजम कर जाये तो किसी के कान पर जूं भी न रेंगे ।”
तिवारी एकदम सुनील पर झपटा लेकिन मोहनलाल ने उसे रास्ते में ही पकड़ लिया ।
“तिवारी !” - जीवन गर्जा - “चुपचाप बैठो ।”
“यह तुम बार-बार मुझ पर गर्ज क्यों रहे हो ?” - तिवारी चिल्लाया - “मैं इस आदमी की बकवास नहीं सुनना चाहता हूं ।”
“लेकिन मैं सुनना चाहता हूं ।”
“तो तुम सुनो, मैं चला ।” - तिवारी द्वार की ओर बढ़ता हुआ बोला ।
“तुम इस कमरे से बाहर कदम नहीं रखोगे ।” - जीवन कठोर स्वर में बोला ।
“कौन रोकेगा मुझे ?”
“मैं रोकूंगा ।” - जीवन उठकर उसकी ओर बढ़ा - “तुम्हारी जेब में रिवाल्वर है तिवारी और मेरे हाथ खाली है, अगर हौसला हो तो मुझ पर गोली चलाकर दिखाओ ।”
तिवारी नर्वस हो उठा । उसका हाथ जेब में रखी रिवाल्वर की मूठ पर जा कर पड़ा लेकिन हाथ बाहर नहीं निकला ।
“यह सब बखेड़ा तुम उस आदमी की खातिर खड़ा कर रहे हो, जिसका तुम नाम तक नहीं जानते ?” ­- तिवारी उखड़े स्वर में बोला ।
“मुझे नहीं मालूम, मैं यह सब क्यों कर रहा हूं ? लेकिन माल छुपा कर जो चोट वह चौधरी का बच्‍चा हमें दे गया है, उसके कारण मेरी मानसिक स्थिति ऐसी नहीं है कि मैं किसी का विरोध सहन कर सकूं । और मुझे यह आशा भी नहीं थी कि तुम मेरे साथ ऐसा व्यवहार करोगे ।”
“जीवन !” ­- तिवारी धीरे से बोला - “यह सब इस आदमी के कारण हुआ । इसकी बातों से मुझे जोश आ गया ।”
“तुम इसकी परवाह मत करो । इसे मैं समझ लूंगा ।”
तिवारी चुपचाप वापस आकर बैठ गया ।
सुनील मन ही मन प्रसन्‍न हो रहा था । तीनों में एक दूसरे के प्रति सन्देह का बीजारोपण तो उसने कर ही दिया था ।
“तुम क्या कह रहे थे तिवारी के बारे में ?”
“अभी जब तिवारी खिड़की के रास्ते सुधा के कमरे से निकला था तो उसके हाथ में एक हैंडबैग था । वह कहां गया ?”
जीवन की प्रश्‍नसूचक दृष्टि तिवारी की ओर उठ गई ।
तिवारी नर्वस हो उठा ।
“तुम सुधा के कमरे से कोई बैग लाये थे ?” - जीवन ने तिवारी से पूछा ।
“ह.......हां ।” - तिवारी नर्वस स्वर में बोला ।
“कहां है वह ?”
“वह खिड़की से कूदते समय मेरे हाथ से छूट कर नीचे जा गिरा था ।”
“तुम उसे उठाने क्यों नहीं गये ?”
“मैंने उसे महत्व नहीं दिया था ।”
“तिवारी !” - जीवन बोला - “तुम जानते हो इस समय तुम कितनी लचर बात कह रहे हो । अगर वह बैग महत्त्वहीन था तो तुम उसे सुधा के कमरे में से उठाकर लाये ही क्यों थे ?”
“उसके सामान में से वही एक चीज बाकी रह गई थी जिसकी मैं तलाशी नहीं ले सका था, क्योंकि तभी यह आदमी आ गया था, इसलिये वह बैग मैं साथ उठा लाया था ।”
“और फिर जब वह तुम्हारे हाथ से छूटकर गिर गया तो तुमने उसे महत्वहीन समझकर छोड़ दिया ?”
“हां ।”
“क्या मैं इसे सच मान लूं ?”
“भाड़ में जाओ ।” - तिवारी एकदम उबल पड़ा - “सच मानो या न मानो लेकिन जो मैंने कहा है, वही सच है ।”
“तुम अकेले माल नहीं पचा सकते, तिवारी ।” - मोहनलाल शायद पहली बार बोला ।
“अकेले माल पचाने की मेरी न इच्छा है, न नीयत ।” - तिवारी बोला - “लेकिन अगर तुम मुझे इसी तरह धमकियां देते रहे तो मैं तुम्हें वह माल अकेले पचाकर भी दिखा दूंगा ।”
वाक्य समाप्त होते ही तिवारी उठा और भड़ाक से द्वार खोलकर बगोले की तरह कमरे से बाहर निकल गया ।
कई क्षण कमरे में सन्‍नाटा छाया रहा ।
फिर मोहनलाल ने उठकर द्वार बन्द कर लिया ।
“तुम्हारा नाम क्या है ?” - जीवन ने चुप्पी तोड़ी ।
“सुनील ।” - सुनील गंभीर स्वर में बोला ।
“सुधा से तुम्हारे सम्बन्ध कैसे हैं ।”
“बहुत अच्छे ।”
“रोमांटिक ?”
“हो सकते हैं ।”
“वह तुम पर भरोसा करती है ?”
“बहुत ।”
“माल के बारे में तुम्हारा क्या ख्याल है ? क्या सुधा जानती है, वह कहां है ?”
“देखो जीवन, मेरा ख्याल है कि सुधा नहीं जानती कि माल कहां है हालांकि उसने तलाश में कोई कसर न छोड़ी है, लेकिन जहां तक सुधा के चरित्र को मैं समझ पाया हूं वह बेहद चालाक औरत है । अगर उसे माल मिल भी गया होगा तो वह किसी के कान में भनक भी नहीं पड़ने देगी । उसे टार्चर करके हां कहलवाने का जो तरीका तिवारी ने चुना था, तुम उसका परिणाम देख ही चुके हो । वह मर जायेगी लेकिन वह असलियत बक कर नहीं देगी !”
“क्या यह सम्भव है कि माल उसे मिल चुका हो और वह सबको बेवकूफ बनाने के लिये ही चुप्पी साधे बैठी हो ?”
“बहुत सम्भव है ।”
“तुम भी उसी माल के पीछे लगे हुये हो ?”
“अभी भी यह कहने की जरूरत है ?”
“और तुम्हें उम्मीद है कि तुम माल हासिल कर लोगे ?”
“अगर तुम लोगों की दखलअन्दाजी चलती रही तो शायद मैं कभी भी सफल न हो सकूं । तुम्हारे और मेरे काम करने के तरीके में दरअसल फर्क बहुत है । तुम उसे धमका कर, उसे टार्चर करके काम निकालना चाहते हो जबकि मैं उसका विश्‍वास जीत कर अपना मतलब हल करना चाहता हूं ।”
“लेकिन हमारी दखलअन्दाजी से तुम्हें क्या फर्क पड़ता है ?”
“बहुत फर्क पड़ता है । आप लोगों का एक-एक एक्शन उसके मन में ऐसी दहशत पैदा कर देता है कि कई दिन वह और कुछ सोच ही नहीं पाती । मैं वह रोमान्टिक पृष्ठभूमि तैयार नहीं कर पाता जिससे औरत मर्द के आगे अपना दिल निकालकर रख देती है ।”
“देखो सुनील, वास्तव में वह माल तो हमारा ही है जो सुधा के पति की हमारे साथ दगाबाजी के कारण हमारे हाथ से निकल गया है । प्रत्यक्ष है उसके लिये हम अपने प्रयत्‍न तो छोडेंगे नहीं और उस सिलसिले में तुम्हारा भी अहित हो सकता है । बहुत सम्भव है तुम जान से हाथ धो बैठो । लेकिन अगर तुम हमारे साथ मिलकर काम करना स्वीकार करो तो हम तुम्हें बराबर का हिस्सा दे सकते हैं ।”
“कितना ?”
“एक तिहाई ।”
“तिवारी का क्या होगा ?”
“उसकी चिन्ता छोड़ो । उससे मैं आप निपट लूंगा ।”
“मुझे मन्जूर है ।”
“कोई धोखेबाजी नहीं होगी ?”
“नहीं ।”
“तो फिर मिलाओ हाथ ।”
सुनील ने हाथ बढ़ा दिया । जीवन और मोहनलाल दोनों ने एक साथ उसका हाथ पकड़ लिया ।
“अब हम बैक ग्राउन्ड में ही रहेंगे । काम तुम करोगे ।”
“ओ. के. ।”
सुनील उठ खड़ा हुआ । वह लापरवाही से खिड़की के पास पहुंचा और बाहर झांकने लगा ।
सुधा के कमरे की बत्ती जल रही थी ।
वह खिड़की से हटने ही वाला था कि एक और चीज पर उसकी नजर पड़ी ।
सुधा के कमरे और उस कमरे के बीच के कमरे के प्रोजेक्शन की बगल में एक पानी का पाइप लगा हुआ था । उस पाइप के साथ लगे एक छोटे से कील पर हैंडबैग टंगा हुआ था ।
वह खिड़की से हट गया ।
“क्या बात थी ?” - जीवन ने पूछा ।
“कुछ नहीं । जरा देख रहा था कि सुधा के कमरे की बत्ती जल रही थी या नहीं ।”
“ओह !”
सुनील कुछ न बोला ।
“क्या सुधा के फ्लैट की तलाशी दुबारा लेने की जरूरत है ?” - मोहनलाल शायद दूसरी बार बोला ।
“फ्लैट की तलाशी तिवारी ने भी ली थी और मेरे कहने पर सुधा ने भी ली थी लेकिन फिर भी मैं अपने ढंग से दुबारा तलाशी लेना चाहता हूं ।”
“अगर ताला तोड़ना हो तो मैं साथ दूं ?”
“नहीं । मेरे पास चाबी है ।” - सुनील जेब से चाबी निकाल कर दिखाता हुआ बोला ।
“कहां से आई ?”
“सुधा ने दी है ।”
जीवन और मोहनलाल दोनों प्रभावित दिखाई देने लगे
सुनील लापरवाही से चलता हुआ द्वार के पास पहुंचा और उसने द्वार खोल दिया ।
बाहर की ओर द्वार के साथ कान सटाये सुधा खड़ी थी ।
द्वार खुलते ही वह हड़बड़ा गई और फिर एकदम वहां से अपने कमरे की ओर भागी ।
सुनील ने द्वार बन्द कर दिया ।
मोहनलाल या जीवन की नजर सुधा पर नहीं पड़ी थी ।
“मैं चलता हूं ।” - सुनील बोला ।
“ओ. के. ।”
सुनील ने दोबारा द्वार खोला और बाहर निकल आया ।
उसने अपने पीछे द्वार बन्द कर दिया ।
वह लम्बे डग भरता हुआ सुधा के कमरे की ओर बढ़ा ।
सुधा के कमरे का द्वार अभी बन्द किया जा रहा था ।
वह भीतर घुस गया ।
“तुम वहां क्या कर रही थी ?” - सुनील ने तीव्र स्वर में पूछा ।
“तुम लोगों की बातें सुन रही थी ।”
“क्या सुना तुमने ?”
“बहुत कुछ ।”
“कुछ समझ में आया ?”
“बहुत कुछ ।”
“क्या ?”
“यह कि तुम और वे लोग एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हो । वे लोग मुझे धमका कर काम निकालना चाहते हैं और तुम रोमांटिक अप्रोच ले रहे हो ।”
“पागल मत बनो ।” - सुनील बोला - “जो कुछ मैंने उनसे कहा है वह केवल इसलिये था कि वे तुम्हारा पीछे छोड़ दें वरना वे तुम्हें टार्चर करके मार देते ।”
“अच्छा ।” - सुधा व्यंगपूर्ण स्वर में बोली ।
“तुम्हें शक है मुझ पर ?” - सुनील जल कर बोला ।
“नहीं तो ।”
“तो फिर ?”
“फिर क्या ? कुछ भी नहीं । मैं तो मजाक कर रही थी, सुनील डियर ।” - और वह सुनील की ओर देखकर बड़े उत्तेजक ढंग से मुस्करा दी ।
लेकिन उसकी मुस्कराहट उसकी आंखों में दिखाई देने वाले भय का पर्दा न डाल सकी ।
“जब तिवारी कमरे से बाहर निकला था, उस समय तुम कहां थी ?” - सुनील ने क्षण भर रुककर पूछा ।
“उस समय भी मैं वहीं द्वार के पास खड़ी तुम्हारी बातें सुन रही । लेकिन उसके बाहर निकलने से पहले ही मुझे आभास हो गया था कि वह द्वार की ओर बढ़ रहा था । इसलिये उस समय मैं अलग हट गयी थी । वह भी क्रोध से बिफरा हुआ बिना मुझ पर नजर डाले मेरी बगल में से गुजर गया था ।”
सुनील बिना उसकी ओर दुबारा देखे बाहर निकल आया ।
वह नीचे रिसैप्शन काउन्टर पर पहुंचा ।
“मुझे एक कमरा चाहिये ।” - वह क्लर्क से बोला ।
“जरूर लीजिये । आपका सामान कहां है ?”
“क्लाक रूम में । अभी ले आऊंगा ।”
“बेहतर । मैं आपको चार सौ इक्‍कीस नम्बर दे रहा हूं ।”
सुनील ने एक झूठा पता लिखवाया, एडवांस पेमेंट की और कमरे की चाबी लेकर होटल से बाहर निकल आया ।
वह घूमकर उस कमरे के नीचे पहुंचा जिसके पाइप के साथ उसने हैंडबैग टंगा देखा था ।
हैंडबैग गायब था ।
वह वापस होटल में घुस गया ।
“मैं टेलीफोन करना चाहता हूं ।” - वह रिसैप्शन काउन्टर पर आकर बोला ।
“शौक से कीजिये ।” - क्लर्क उसकी ओर फोन सरकाता हुआ बोला ।
सुनील ने रिसीवर उठा लिया । दूसरी ओर से आपरेटर की आवाज सुनते ही वह बोला - “रूम फोर टवन्टी टू, प्लीज ।”
“जस्ट होल्ड आन ।” - आपरेटर मधुर स्वर में बोली ।
सुनील रिसीवर कान से लगाये खड़ा रहा ।
“प्लीज स्पीक आन ।” - कुछ क्षण बाद आपरेटर का स्वर सुनाई दिया ।
“हल्लो ।” - वह माउथपीस में बोला ।
“यस ?” - दूसरी ओर से सुधा का स्वर सुनाई दिया ।
“सुधा, मैं सुनील बोल रहा हूं । मैं नीचे लाबी में खड़ा हूं, तुम फौरन नीचे आ जाओ ।”
“लेकिन क्यों ?” - सुधा का आश्‍चर्य भरा स्वर सुनाई दिया ।
“यूथ क्लब के प्रोग्राम वाली बात भूल गई क्या ?”
“ओह, वह ! सुनील, अब मूड नहीं है ।”
“अरे, आ भी जाओ न ।” - सुनील अनुनयपूर्ण स्वर में बोला ।
“सुनील, प्लीज ।”
“देखो, अगर तुम यूं ही बहाने बनाती रहोगी तो मैं ऊपर लेने आ रहा हूं ।”
“सु......नील !”
“नथिंग डुईंग । तुम चलो तो सही । मैं कहता हूं तुम्हारा मूड भी ठीक हो जायेगा ।”
“अच्छा ।” - वह अनमने स्वर से बोली - “आ रही हूं ।”
“गुड गर्ल ।” - सुनील जोश भरे स्वर में बोला - “जल्दी ही आ जाओ ? ज्यादा इन्तजार मत करवाना ।”
“ओ के ।”
सुनील ने रिसीवर रख दिया ।
***
यूथ क्लब दुल्हन की तरह सजा हुआ था ।
विशेषरूप से उस रात के लिये आमन्त्रित रूबी जोन का बारह पीस वाला आर्केस्ट्रा वातावरण में ओरियन्टल संगीत की स्वर लहरियां प्रवाहित कर रहा था ।
मेन हाल में नए साल की रात जैसा हंगामा था ।
एक कोने में एक मेज पर एक बर्फ से भरा टब रखा जिसमें शैम्पेन की कई बोतलें दबी हुई थीं ।
वेटर शैम्पेन सर्व कर रहे थे ।
भीड़-भाड़ में सुनील को रमाकांत कहीं दिखाई नहीं दे रहा था ।
सुधा बेहद गहरे मेकअप में थी । उसका परिधान पहनने का ढंग इतना उत्तेजक था कि लोगों की नजर अनायास ही उस ओर उठ जाती थी । उसने बेहद लो कट का ब्लाउज पहना हुआ था । जिसमें से उसके वक्ष का आधे से अधिक भाग दिखाई दे रहा था । सिगरेट के जले के निशानों को उसने बड़ी होशियारी से पाउडर की परतों के नीचे ढक लिया था । उसने साड़ी अपने शरीर के चारों ओर इतनी कस कर लपेटी थी कि उसके शरीर का एक-एक कटाव विद्रोह सा कर रहा था । कमर पर साड़ी बांधने का ढंग ऐसा था कि नाभि के आस-पास का बहुत बड़ा भाग दिखाई दे रहा था ।
कृत्रिम प्रकाश में वह फिल्म अभिनेत्रियों की तरह चमकदार लग रही थी ।
“हे भगवान, यहां प्रमिला न हो । हे भगवान, यहां प्रमिला न हो ।” - सुनील एक ही वाक्य मन ही मन गरदान की तरह दोहराये जा रहा था ।
उसी क्षण एक युवक सुधा के समीप आया ।
“मे आई !” - वह सिर को तनिक झुका कर उसे डांस के लिये आमन्त्रित करता हुआ बोला ।
“नॉट यैट, एक्सक्यूज मी ।” - सुधा मुस्कराकर उसका आमन्त्रण अस्वीकार करती हुई बोली ।
“नैवर माइन्ड ।” - वह युवक खिसिया कर बोला और वहा से हट गया ।
वहां भी सुनील को रमाकांत दिखाई नहीं दिया ।
कई जोड़े डांस फ्लोर पर बांहों में बांहें फंसाये थिरक रहे थे ।
सुनील फ्लोर के आस-पास घूमने लगा । उसका हाथ सुधा की अनावृत कमर से लिपटा हुआ था और वह सुधा के शरीर का काफी भार अपने बायें कन्धे पर महसूस कर रहा था ।
सुधा के शरीर से निकलती हुई सौन्दर्य प्रसाधनों की भीनी-भीनी खुश्बू उसकी चेतना पर छाये जा रही थी ।
“ओह, लवली शी इज ।” - डांस फ्लोर के आस-पास बिखरी मेजों पर बैठे लोगों में से एक आदमी सुधा को लक्ष्य करके बोला ।
“डोंट बी पार्शल । एक तरफा बात मत करो ।” - उस आदमी के साथ बैठी महिला बोली....नॉट शी अलोन । ही टू ।”
सुनील सुधा के साथ जल्‍दी से आगे बढ़ गया ।
उसी समय आकेस्‍ट्रा बन्द हो गया ।
औपचारिकता के रूप में तालियां बजी और नृत्‍य करने वाले वापस अपनी मेजों पर लौटने लगे ।
उसी समय आकेस्‍ट्रा वाले प्लेटफार्म पर हाथ में पोर्टेबल माइक किये सुनील को रमाकांत दिखाई दिया ।
“लेडीज एन्ड जन्टलमैन ।” - रमाकांत कह रहा था - “नाउ आई प्रेजेन्ट बिफोर यू दि फिफ्थ फाइनल राउन्ड आफ टूनाइटस टि्‌वस्‍ट कम्‍पीटीशन । दी नेम्‍ज आफ दी फाइनलिस्‍ट्‌स आर.....”
और रमाकांत ने नामों की एक लिस्‍ट पढ़ दी ।
अगले ही क्षण साज फिर बज उठे । पाश्‍चात्‍य संगीत की स्‍वर लहरियां फूट पड़ीं ।
चार जोड़े फ्लोर पर थिरकने लगे ।
बाकी लोग एक भारी भीड़ की सूरत में उन्हें घेरे हुये थे ।
सुनील सुधा को साथ लिये धीरे-धीरे भीड़ में से रास्‍ता बनाता हुआ प्लेटफार्म की ओर बढ़ने लगा जहां अब भी रमाकांत खड़ा था ।
नृत्‍य की गति साजों की धुनों के साथ तीव्र होती जा रही थी ।
प्लेटफार्म के नीचे पहुंच कर सुनील ने रमाकांत का ध्यान अपनी और आकृष्‍ट करने की चेष्‍टा की लेकिन रमाकांत को तो जैसे होश ही नहीं था ।
हताश होकर सुनील ने प्रयन्त करना छोड़ दिया और नृत्‍य समाप्त होने की प्रतीक्षा करने लगा ।
कुछ देर बाद आर्केस्‍ट्रा की स्‍वर लहरियां अपनी चरम सीमा पर पहुंचकर एकदम बन्द हो गयीं ।
हाल फिर तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा ।
रमाकांत प्लेटफार्म से नीचे उतर आया ।
“रमाकांत !” - सुनील ने उसे आवाज दी ।
“अरे, सुनील ।” - वह उसे देखकर बोला - “प्लीज, यहीं ठहरना । अभी आता हूं ।”
और उससे पहले की सुनील दोबारा बोलता, वह भीड़ में विलीन हो गया ।
अगले ही क्षण वह एक युवक और एक युवती हाथ पकड़े भीड़ में से निकला और प्लेटफार्म की ओर बढ़ गया ।
“लेडीज एन्ड जन्टलमैन । दि विनर्स आफ टूनाइट्‌स टि्‌वस्‍ट कम्‍पटीशन आर मिस्‍टर खन्ना एन्ड मिस बारबरा ।”
तालियां फिर गूंज उठीं ।
युवक और युवती ने झुककर सबका अभिवादन किया ।
“पुरस्‍कार के रूप में इन्हें पन्द्रह दिन का श्रीनगर का फ्री ट्रिप आफर किया गया है । मै यूथ क्‍लब की ओर से इन्हें बधाई देता हूं ।”
रमाकांत ने बारी-बारी से दोनों से हाथ मिलाया और फिर मुस्‍कराता हुआ स्‍टेज से नीचे उतर गया ।
“तुम कब आये ?” - वह सुनील के समीप आकर बोला ।
“पहले इनसे मिलो ।” - सुनील सुधा की ओर संकेत करता हुआ बोला - “यह सुधा है और सुधा, यह रमाकांत है, मेरा मित्र ।”
“प्लीज्‍ड टू मीट यू ।” - सुधा रमाकांत की ओर हाथ बढ़ाती हुई बोली ।
“दि प्लेजर इस ऐन्टायर्ली माइन मैडम ।” - रमाकांत झुकाकर उसका हाथ थामता हुआ बोला - “सुनील के मित्र मेरे मित्र हैं ।”
रमाकांत ने मुस्‍कराकर उसका हाथ छोड़ दिया ।
“तशरीफ लाइये ।” - रमाकांत उसका मार्ग निर्देशन करता हुआ बोला ।
तीनों एक खाली मेज पर जा बैठे । फौरन ही एक वेटर शैम्‍पेन के तीन गिलास टेबल पर रख गया ।
“चियर्स ।” - रमाकांत अपना गिलास उठाकर बोला । उसने एक ही घूंट गिलास एक तिहाई पैग खाली कर दिया ।
सुधा ने केवल एक हल्‍की सी चुस्‍की ली ।
“रमाकांत ।” - सुनील बोला - “तुम भी तो टि्‌वस्‍ट के मास्‍टर हो, तुमने कम्‍पीटीशन में भाग क्‍यों नहीं लिया ?”
“इस कम्‍पीटीशन का आयोजन यूथ क्‍लब की ओर से किया गया है ।” - रमाकांन्‍त बोला - “मान लो अगर मैं ही जीत जाता तो क्‍या यह अच्छा लगता कि मैं अपना घोषित किया हुआ पुरस्‍कार अपने ही पास रख लेता ?”
सुधा हंस पड़ी ।
“अच्छा !” - सुनील एक क्षण रूक कर बोला - “वह मेरा पार्सल आ गया है ?”
“पार्सल !” - रमाकांन्‍त हैरान हो उठा - “पार्सल कौन सा......”
उसी समय मेज के नीचे सुनील के पांव की एक ठोकर रमाकान्त के घुटने पर पड़ी ।
“अच्छा, वह पार्सल !” - रमाकान्त बोला - “वह जो बंगलौर से आने वाला था ?”
“हां ।”
“वह तो आया रखा है ।”
“अभी दे दो मुझे ।”
“चलो ।” - रमाकान्त उठता हुआ बोला ।
“एक्‍सक्‍यूज मी, सुधा ।” - सुनील उठता हुआ बोला - “मैं अभी आया ।”
“ओ के बाई मी ।” - सुधा शैम्‍पेन की एक और चुस्‍की लेती हुई बोली ।
सुनील और रमाकान्त डांस फ्लोर की ओर चल दिये ।
“कहां ?” - रमाकान्त ने पूछा ।
“अपने आफिस में या अपने कमरे में चलो ।”
“आफिस में ही चलो ।”
“वैसे रमाकान्त, हो तुम अक्‍ल के दुश्मन ही ।” - सुनील रमाकान्त के आफिस की ओर बढ़ता हुआ बोला ।
“यार, मेरा दिमाग टि्‌वस्‍ट की ओर लगा हुआ था इसलिये तुम्‍हारा इशारा समझ नहीं पाया ।”
“खैर ।”
दोनों रमाकान्त के आफिस में आ गये ।
रमाकान्त ने द्वार भीतर से बन्द कर लिया । उसने जेब से चार मीनार का एक सिगरेट निकाला, सुनील ने भी अपना लक्‍की स्‍ट्राइक का सिगरेट निकाल लिया । दोनों ने एक ही माचिस से सिगरेट सुलगाये ।
“शाम से सिगरेट नहीं पिया ।” - रमाकान्त बोला - “यह सुधा कौन है ?”
“यह मृत चौधरी की पत्‍नी है ।”
“बड़ी हसीन है ।”
“मुझे भी दिखाई देती है ।”
“इसे साथ-साथ क्‍यों लिये फिर रहे हो ?”
“यार, मुझे यूं लग रहा है कि वह बीस लाख का माल इसके हाथ लग चुका है और वह मुझे और चौधरी के बाकी साथियों को बेवकूफ बना रही है । मेरे पास इसके फ्लैट की चाबी है । मैं इसके फ्लैट की और इसके होटल के कमरे की अपने ढंग से तलाशी लेना चाहता हूं । कुछ घन्टे पहले चौधरी का एक साथी इसके कमरे में से एक बैग ले उड़ा था । अगर माल उसमें नहीं था तो शायद मेरी ली हुई तलाशी से कोई नतीजा निकल आये । बहरहाल माल मिले न मिले जब तक मेरी तसल्‍ली न हो जाये मैं इसे दृष्‍टि से ओझल नहीं होने देना चाहता ।”
“तुम्‍हारी माल से क्‍या दिलचस्‍पी है ?”
“दिलचस्‍पी नहीं, केवल उत्‍सुकता है । मैं केवल यह देखना चाहता हूं कि माल छुपाने के मामले में चौधरी ने कितनी अकलमन्दी का परिचय दिया है ।”
“फुलिश ।” - “रमाकान्त मुंह बिगाड़ कर बोला ।
“फुलिश ही सही लेकिन कल सुबह से तुम एक आदमी स्‍थायी रुप से सुधा के पीछे लगा दो । आदमी को सुधा की शक्‍ल अभी दिखा दो । वैसे वह स्‍विस होटल के चार बाइस नम्‍बर कमरे में रह रही है ।”
“मै जौहरी से कह दूंगा । लेकिन आज रात इसकी निगरानी कौन करेगा ?”
“मैं ! मैंने होटल में उसकी बगल का कमरा किराये पर लिया है । मेरा कमरा चार सौ इक्‍कीस नम्‍बर है । तुम वहां मेरे नाम पर थोड़ा बहुत सामान भिजवा दो वरना होटल वाले सन्देह करेंगे ।”
“अच्छा ।”
“और रिपोर्ट क्‍या है ?”
“पहले हरीचन्द की बात सुनो । हरीचन्द एक मामूली आदमी है, एक कारखाने में काम करता है और तेरह तारीख से पहले उसने चौधरी की सूरत भी नहीं देखी थी ।”
“तो फिर वह चौधरी के सम्‍पर्क में कैसे आया ?”
“बता रहा हूं । तुम बीच में मत टोको ।”
“अच्छा ।”
“तेरह तारीख की सुबह हरीचन्द का चौधरी की कार से एक्‍सीडेंट हो गया था । गलती दोनों की ही थी । चौधरी बहुत तेजी से गाड़ी चला रहा था और हरीचन्द पिछली रात का जागा होने के कारण बेहद लापरवाही से सड़क पार कर रहा था । हरीचन्द की टांग की हड्‌डी टूट गई थी और कुछ मामूली चोटें आई थीं । चौधरी उसे उठा कर डाक्‍टर शर्मा के नर्सिग होम में ले आया था और उसकी टांग पर प्लास्‍टर चढ़वा दिया था और उसके जख्मों वगैरह की ड्रेसिंग करवा दी थी । हमने नर्सिग होम से पता कर लिया है । चौधरी की जेब से निकला मैडिकल बिल हरीचन्द के इलाज का ही था । बाद में चौधरी उसे उसकी खोली में छोड़ आया था ।”
“बस ?”
“और चौधरी ने हरीचन्द से कहा था कि वह प्लास्‍टर खुलने की तारीख को फिर आयेगा और हरीचन्द को फिर डाक्‍टर के पास ले जायेगा । यह बात उसने विशेष रुप से कही थी कि हरीचन्द को हरगिज भी प्लास्‍टर खुलवाने नहीं जाना था, क्‍योंकि अगर प्लास्‍टर किसी अनाड़ी आदमी ने खोला या जरा सी भी असावधानी हो गई तो वह टांग से हाथ धो बैठेगा ।”
“उसके बाद चौधरी हरीचन्द से नहीं मिला ?”
“नहीं । उसे मौका ही कहां मिला ? शाम को तो चौधरी खुद मारा गया ।”
“मतलब यह है कि इस बात की कोई सम्‍भावना नहीं है कि चौधरी बीस लाख का माल हरीचन्द के पास छोड गया हो ।”
“सवाल ही नहीं पैदा होता । एक नितान्त अपरिचित के पास इतना माल छोड़ने से तो अच्छा था कि वह अपने साथियों के साथ बंटवारा ही कर लेता ।”
“लेकिन रमाकांत, एक बात समझ में नहीं आती ।”
“क्‍या ?”
“चौधरी एक दुर्दांत अपराधी था और उससे भी ज्‍यादा भयानक उसके साथी थे । ऐसा आदमी इतना दयावान कैसे हो सकता है कि एक आदमी को कार के नीचे दे देने के बाद वहां से भाग खड़ा होने के स्‍थान पर उसे उठाकर डाक्‍टर शर्मा के नर्सिंग होम जैसे महंगे स्‍थान पर ले लाये और उसके इलाज के बाद उसे घर भी छोड़ कर आये ?”
“बात तो कुछ अटपटी सी लगती है लेकिन तुम जानते हो इन्सान कई बार किन्ही अज्ञात भावनाओं से प्रेरित होकर अपने स्‍वभाव के एकदम विपरीत बड़े विलक्षण कार्य कर देता है ।”
“यह सब फिलासफी है । सीधी बात तो यह है कि चौधरी के उस एक्‍शन में जरूर उसका कोई स्‍वार्थ था ।”
“सारी घटना तुम्‍हारे सामने है । इसमें तुम्‍हें क्‍या स्‍वार्थ दिखाई देता है उसका ?”
“कुछ भी नहीं ।” - सुनील ने स्‍वीकार किया ।
“खैर, तुम आगे सुनो ।”
“हां ।”
“जौहरी और दिनकर ने सुधा का पीछा किया था । सुधा लिटन रोड की आठ नम्‍बर इमारत में गई थी । वह लगभग आधा घण्टा भीतर रही थी और फिर वापस अपने फ्लैट पर आ गई थी । वापस भी उसे वही कार छोड़ने आई थी जो उसे लेकर गई थी ।”
“और ?”
“और यह कि आर एम आर 9431 नम्‍बर की किसी कार का रजिस्‍ट्रेशन अभी तक नहीं हुआ है ।”
“क्‍या मतलब ?”
“मतलब यह कि चौधरी के साथियों ने अपनी कार पर जाली नम्‍बर की प्लेट लगा रखी थी और नम्‍बर भी ऐसा चुना था जो अभी तक किसी भी कार को नहीं मिला है ।”
“खैर, अब उसकी जरूरत भी नहीं रही थी ।”
“क्‍यो ?”
“क्‍योंकि इस नम्‍बर के सहारे मैं जिन लोगों तक पहुंचना चाहता था, वे मुझे वैसे ही मिल गये हैं ।”
“कहां ?”
“स्‍विस होटल में । और, प्यारेलाल, अब मैं एक तिहाई की साझेदारी मैं उसके साथ काम कर रहा हूं ।”
“सुनील, तुम किसी दिन जेल में जाओगे ।” - रमाकांत असहाय स्‍वर में बोला ।
“तो फिर क्‍या हुआ द्य जाऊंगा । मुझे कौन-सा कोई रोने वाला बैठा है ? जेल तो क्‍या मैं अगर फांसी भी चढ़ जाऊं तो भी किसी की सेहत पर कोई असर होने वाला नहीं है ।”
“शटअप अप यू स्‍वाइन ।” - रमाकांत भावुक स्‍वर में बोला ।
“आल राइट । और हमारे मजाक का क्‍या हुआ ?”
“कौन सा मजाक ?”
“कर्नल पिंगले की गाड़ी के नकली नम्‍बर वाला । आर एल ओ 2124 किसी फिल्‍म अभिनेता या केबिनेट मिनिस्‍टर की गाड़ी का नम्‍बर तो नहीं निकल आया ? या अभी तक यह नम्‍बर भी किसी गाड़ी को नहीं मिला है ?”
“आर एल ओ 2124 किसी मिनिस्‍टर या एक्‍टर का नहीं, कर्मचन्द के नाम के एक बेहद बदनाम आदमी की गाड़ी का नम्‍बर है ।”
“कर्मचन्द कौन है ?”
“कभी गुलनार का नाम सुना है ?”
“नाम तो सुना है लेकिन इस समय याद नहीं आ रहा है कि यह नाम मैंने कहां और किस सिलसिले में सुना है !”
“गुलनार एक द्वितीय श्रेणी के होटल कम क्‍लब का नाम है जोकि गैरकानूनी कामों के लिये एक बेहद बदनाम जगह है । जुएबाजी और शराबखोरी का अड्डा है वह और बाजारू औरतों के जमघट लगे रहते हैं वहां । उसके अतिरिक्‍त वह कानून से भागे हुये लोगों के लिये शरणस्‍थल है । स्‍मगलिंग के माल और स्‍मगलरों का अड्डा है लेकिन फिर भी हर काम इतने सलीके से होता है कि आज तक पुलिस उस पर हाथ नहीं डाल सकी है । और सबसे मजेदार बात यह है कि गुलनार मे ऊंचे तबके के लोग भी आते हैं । ऊंची क्‍लबों के बेहद औपचारिक और आडम्‍बरपूर्ण वातावरण से तंग आये लोगों को गुलनार से भारी सुख और स्‍वतन्त्रता की अनुभूति होती है । जो मनोरंजन उन्हें गुलनार की चरित्रहीन औरतों से प्राप्त होता है, वह उन्हे ऊंची क्‍लबों की शराफत और सभ्‍यता की नकाब चढ़ाये रखने वाली हाई सोसायटी की चरित्रहीन औरतों से प्राप्त नहीं होता । गुलनार में.....”
“यह सब तो हुआ लेकिन कर्मचन्द का इससे क्‍या सम्‍बन्ध है ?”
“कर्मचन्द गुलनार का मालिक और संचालक है ।”
सुनील चुप रहा ।
रमाकांत कुछ क्षण बाद सुनील बोला - “यह हरीचन्द मेरे दिमाग में हथौड़े की तरह बज रहा है । अगर चौधरी का उससे केवल इतना ही वास्‍ता था कि उसने मानवता के नाते हरीचन्द का उपचार करवा दिया था कि और हरीचन्द से उसका कोई व्यक्‍तिगत स्‍वार्थ सिध्द नहीं होता था तो मरने से पहले उसने मुझसे हरीचन्द का जिक्र क्‍यों किया ? पहले उसने मुझे यह बताया कि वह सुधा के लिये बीस लाख का माल छोड़कर मर रहा था फिर उसने हरीचन्द का नाम लिया । इससे तो यूं लगता था कि बीस लाख का माल हरीचन्द के पास था या वह उसके विषय में जानता था । लेकिन वास्‍तविकता यह है कि हरीचन्द इस विषय में पूर्ण अनभिज्ञता प्रकट कर रहा है । आखिर चौधरी किस सिलसिले में हरीचन्द का जिक्र करना चाहता था ?”
“सम्‍भव है वह चाहता हो कि उसके मरने के बाद हरीचन्द को भी हर्जाने के तौर पर कुछ और धन मिल जाये । शायद उसने सोचा हो कि वह मरने से पहले एक तो भला काम कर जाये । और फिर उसने हरीचन्द को यह कहा था कि प्लास्‍टर खुलने की तारीख को वह फिर आयेगा और उसके बिना हरीचन्द को प्लास्‍टर खुलवाने नहीं जाना है । शायद वह हरीचन्द तक यह सूचना भिजवाना चाहता हो कि वह मर गया था और जाहिर है कि प्लास्‍टर खुलने के डेट को उसका आगमन असम्‍भव है ।”
“यह कोई ठोस दलील नहीं है ।”
“लेकिन तर्कपूर्ण है ।”
“पर अकाट्‌य नहीं ।”
रमाकांत चुप रहा । उसने सिगरेट के बचे हुये अंश से ही और सिगरेट सुलगा लिया ।
“तुम एक काम और करो, रमाकांत ।” - कई क्षण चुप रहने के बाद सुनील बोला ।
“क्‍या ?”
“तुम यह पता लगाने की चेष्‍टा करो कि सेठ गूजरमल की नीली अटैची में बीस लाख का माल किस रुप में था ?”
“क्‍या मतलब ?”
“मतलब यह कि बीस लाख का मा नोटों की सूरत में था, या सोना था, या जेवरात थे, या कोई अन्तर्राष्‍टीय स्‍तर पर दुर्लभ और अमूल्‍य मानी जाने वाली वस्‍तु थी ।”
“यह कैसे पता लगेगा ?”
“सेठ के जिस नौकर ने यह बताया था कि सेठ अपने साथ बीस लाख का माल लेकर विशालगढ़ जा रहा था, शायद वह कुछ बता सके या यह पता लगाने की कोशिश करो कि सेठ विशालगढ़ कहां और किन लोगों से मिलने जा रहा था ! कोई न कोई जरूर ही जानता होगा कि सेठ के बीस लाख के मूल्‍य का क्‍या था ! एक बार माल का आकार-प्रकार मालूम हो जाने के बाद उसे खोज निकालना ज्‍यादा आसान हो जायेगा ।”
“मैं कोशिश करूंगा ।”
“अब चलो ।”
रमाकांत ने जल्‍दी-जल्‍दी सिगरेट के पांच छः लम्‍बे-लम्‍बे कश लगाये और फिर सिगरेट को ऐशट्रे में डाल दिया ।
वह सुनील के साथ बाहर निकल आया ।
वे हाल में उस मेज कि ओर बढ़े जहां सुधा को बैठी छोड़ गये थे ।
सुधा वहां नहीं थी ।
“सुधा कहां गई ?” - सुनील हैरानी से बोला ।
रमाकांत ने असमंजसपूर्ण ढंग से कन्धे हिला दिये ।
सुनील की तीव्र नजर हाल में चारों ओर घूमने लगी ।
सुधा कहीं दिखाई नहीं दी ।
सुनील चिंतित हो उठा ।
उसी समय हाल के द्वार पर उसे सुधा दिखाई दी ।
वह सतर्क नजर से आस-पास देखती हुई उसी ओर बढ़ रही थी ।
सुनील पर नजर पड़ते ही वह क्षण भर के लिये ठिठकी और फिर अपार लापरवाही का प्रदर्शन करती हुई समीप आ गई ।
“तुम बड़ी जल्‍दी लौट आये ।” - वह समीप आकर बोली ।
“तुम कहां गई थीं ।” - सुनील ने संदिग्‍ध स्‍वर में पूछा ।
“यूं ही बाहर लान में चली गई थी । यहां दम घुट रहा था ।”
“मैने समझा कि तुम काफी देर से लौटोगे ।”
जितना सुधा अपने स्‍वर में स्‍वाभाविकता उत्‍पन्‍न करने की चेष्‍टा कर रही थी, उतना ही अधिक यह प्रकट हो रहा था कि वह झूठ बोल रही है ।
“अब क्‍या प्रोग्राम है ?” - सुनील ने रमाकांत से पूछा ।
“आज रात डिनर का लम्‍बा चौड़ा इन्तजाम है ।” - रमाकांत बोला - “लगभग एक घन्टे की देर है । आप तब तक डांस वगैरह में रुचि लीजिये । मैं अभी हाजिर होता हूं ।”
रमाकांत वहां से हट गया ।
“डांस !” - सुनील ने सुधा से पूछा ।
“वाई नाट !” - सुधा मादक स्‍वर में बोली ।
अगले ही क्षण दोनों डांस फ्लोर पर नाचते हुये जोड़ों के बीच एक दूसरे की बांहों में बाहें फंसाये थिरक रहे थे ।
लगभग पन्द्रह मिनट बाद जब रमाकांत वापस वहां लौटा उस समय सुनील हाथ मे सिगरेट लिये और शेम्‍पेन का एक गिलास सामने रखे मेज पर अकेला बैठा था ।
“वह कहां गयी ?” - रमाकान्त ने उसके समीप बैठते हुये पूछा ।
“किसी और के साथ डान्स कर रही है ।” - सुनील ने उत्तर दिया ।
सुनील ।” - रमाकान्त धीमे स्‍वर में बोला - “मैं वास्‍तव में यह पता लगाने के लिये गया था कि सुधा कहां गई थी ।”
“पता लगा ?”
“हां । बाहर लान में नहीं गई थी । बाहर क्‍लब में मेन गेट पर बैठे दरबान से उसने पूछा था कि आस-पास कहीं पब्‍लिक टेलीफोन बूथ था । दरबान ने कहा था कि फोन तो भीतर क्‍लब में भी था । लेकिन वह पब्‍लिक टेलीफोन के विषय में ही पूछती रही । पब्‍लिक टेलीफोन बगल के पैट्रोल पंम्‍प पर है, दरबान ने सुधा को उसका पता बता दिया । सुधा ने वहां से किसी को फोन किया था ।”
“लेकिन उसने क्‍लब का फोन क्‍यों नहीं इस्‍तेमाल कियां ?”
“शायद वह प्राइवेसी चाहती हो । क्‍लब के फोन की काल तो पी बी एक्‍स बोर्ड से होकर जाती है और उसे आपरेटर भी सुन सकती है ।”
“हूं ।”
“सुनील, इतने चोरी छिपे किसे फोन किया होगा उसने ?”
“क्‍या पता ?” - सुनील बोला ।
उसी समय ऑर्केस्ट्रा बजना बन्द हो गया ।
रमाकांत जल्‍दी से वहां से उठ गया ।
सुनील विचारपूर्ण मुद्रा बनाये सिग्रेट के कश लेता रहा ।
“आखिर सुधा उस पर भरोसा क्‍यों नहीं करती ?” - वह सोच रहा था ।
जिस समय सुनील सुधा के साथ वापस होटल में लौटा, उस समय बारह बजने को थे ।
“मेरा सामान आ गया है ।” - सुनील ने काउन्टर पर पूछा ।
“यस सर ।” - क्‍लर्क बोला ।
“फाइन ।”
वह सुधा के साथ लिफ्ट में घुस गया । उसने चौथी मंजिल का बटन दबा दिया ।
“सामान की क्‍या बात कर रहे थे तुम ?” - सुधा ने पूछा ।
“तुम्‍हारी बगल बाला कमरा मैंने ले लिया है । सह तुम्‍हारी सुरक्षा के लिये अधिक उपयुक्त समझा मैंने ।”
“तुम मेरी सुरक्षा के लिये इतने चिंतित क्‍यों हो ?”
“अगर मैं तुम्‍हारी सुरक्षा के लिये इतना चिंतित हूं तो इसमें कोई ऐतराज है तुम्हें ?”
“ऐतराज तो नहीं है लेकिन फिर भी !”
“फिर भी क्‍या ?”
सुधा चुप रही ।
लिफ्ट चौथी मन्जिल पर रूक गई।
सुनील बाहर निकल आया ।
वे चार सौ बाइस के सामने जा पहुंचे ।
द्वार फिट हो चुका था ।
सुधा ने द्वार को चाबी लगाकर खोला और भीतर घुस गई, सुनील बाहर कारीडोर में ही खड़ा रहा ।
“भीतर नहीं आओगे ?” - सुधा ने धीमे स्‍वर में कहा ।
“नहीं ।” - सुनील अनिश्‍चित स्‍वर में बोला - “जाता हूं । काफी रात हो चुकी है । गुडनाइट ।”
सुधा ने एक नजर घड़ी पर डाली फिर बोली - “बारह बजने में कुछ ही सेकन्ड बाकी है । कुछ क्षण और ठहर जाओ फिर गुडमार्निंग की विश करके जाना ।”
“आल राइट ।” - सुनील ने मुस्‍कराकर कहा ।
सुधा भी मुस्‍करा दी ।
“अगला दिन शुरू होने से पहले तुम्‍हें एक बात कहूं ?”
“कहो ।”
“मुझ पर भरोसा रखो ।........गुडमार्निंग ।”
और सुनील ने उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना अपने कमरे की ओर बढ़ गया ।
उसने द्वार खोला ।
भीतर घुसने से पहले उसने सुधा के कमरे की ओर झांका ।
सुधा अब भी खड़ी थी ।
सुनील भीतर घुस गया और फिर उसने जानबूझ कर भड़ाक की आवाज के साथ द्वार बन्द कर दिया ।
लगभग दस मिनट के बादद उसे सुधा का द्वार बन्द होने की आवाज आई ।
सुनील कई क्षण द्वार के पास ही खड़ा रहा ।
फिर उसने धीरे से द्वार खोला और बाहर निकल आया ।
सुधा का द्वार बन्द था लेकिन बत्ती जल रही थी ।
सुनील वही खड़ा रहा ।
लगभग दस मिनट बाद सुधा के कमरे की बत्ती बुझ गई ।
सुनील दबे पांव चार सौ सत्ताइस नम्‍बर कमरे के सामने आ पहुंचा ।
कमरे की बत्ती बुझी हुई थी ।
उसने धीरे से द्वार खटखटाया और प्रत्‍युत्तर की प्रतीक्षा करने लगा ।
भीतर से कोई उत्तर नहीं मिला ।
“जीवन !” - वह बोला ।
“फिर भी उत्तर न मिलने पर सुनील ने द्वार की नॉब पकड कर घुमाई और द्वार को भीतर की ओर धकेला ।
द्वार खुलगया ।
“तिवारी ! मोहनलाल !” - सुनील ने फिर आवाज दी।
कोई उत्तर नहीं मिला ।
सुनील क्षण भर हिचकिचाया और फिर कमरे में घुस गया ।
उसने बत्ती जलाई ।
कमरा खाली था ।
उसने देखा, बाथरूम की बत्ती पहले से ही जल रही थी और द्वार आधा खुला था ।
वह लम्‍बे डग भरता हुआ बाथरूम के सामने पहुंचा और फिर द्वार को धकेल कर पूरा खोल दिया ।
लाश बाथ टब में पीठ के बल पड़ी हुई थी । उसकी छाती में बायीं ओर दिल के पास मूठ तक एक छुरा घुसा हुआ था । रक्‍त लाश के चारों ओर बाथ टब में कालापन लिये हुये लाल रंग की सूरत में भरा हुआ था । लगता था जैसे उसे मरे हुये काफी देर हो चुकी थी ।
उसकी छाती पर सुधा का वह हैन्डबैग पड़ा था जिसे कुछ घन्टे पहले सुनील ने बाहर दीवार पर लगे पाइप के साथ लटका देखा था ।
लाश तिवारी की थी ।
सुनील ने जेब से रूमाल निकाला और द्वार पर उस स्‍थान पर फेर दिया जहां उसने हाथ लगया था और द्वार को फिर पहले की तरह भिड़का दिया ।
फिर उसने उन सब स्‍थानों पर रूमाल फेरना आरम्‍भ कर दिया जहां-जहां उसकी अंगुलियों के निशान रह जाने की सम्‍भावना थी ।
उसने सावधानी से कमरे के बाहर झांका । बाहर कोई नहीं था । वह चुपचाप बाहर निकल आया । उसने द्वार बन्द किया और फिर नॉब पर भी रूमाल फेर दिया ।
वह लम्‍बे डग भरता हुआ अपने कमरे की ओर चल दिया ।
सुधा के कमरे के समीप पहुंच कर वह क्षण भर को रूक गया । उसने द्वार को धीर से धक्‍का दिया ।
द्वार भीतर से बन्द था ।
उसने अपने गले में बंधी रेशमी धागे की बनी हुई काली टाई का नीचे का कोना दांतो से दबाकर काट जिया । आगे का सिरा दिखाई देते ही उसने उसे खींचना आरम्‍भ कर दिया । टाई उधड़ने लगी । कई गज धागा उधेड़ चुकने के बाद उसने धागे का एक सिरा सुधा के द्वार की नॉब के साथ बांध दिया और फिर धागे को वह अपने कमरे में ले आया । दूसरे सिरे को उसने अपने कमरे में पलंग की बगल में रखी मेज पर पड़े एक कप के हैंडिल पर बांध दिया ।
अब धागा सुधा के द्वार की नॉब और सुनील के कमरे में रखे कप के बीच तना हुआ था ।
फिर सुनील ने कपड़े बदले और बिस्‍तर में घुस गया ।
वह अपने इन्तजाम से सन्तुष्‍ट था । वह इन्तजाम उसने इसलिये किया था कि अगर रात में सुधा अपने कमरे से बाहर निकलने की चेष्‍टा करती तो उसे पता लग जाता । सुधा के द्वार खोलने का उपक्रम करते धागा खिंचता और धागे के दूसरे सिरे पर बन्धा कप फर्श पर गिरकर टूटने का धमाका सुनील की नींद खोल देने के लिये पर्याप्त होता ।
***
सुधा ने कमरे की बत्ती बुझा दी थी और वह द्वार के दूसरी ओर सट कर खड़ी थी । उसकी आंख द्वार के पल्‍लों के बीच उत्‍पन्‍न पतली सी झिरी पर लगी हुई थी ।
कुछ ही देर बाद उसने सुनील द्वार के सामने से गुजरता दिखाई दिया ।
सुधा सांस रोके चुपचाप खड़ी रही ।
लगभग पांच मिनट बाद उसे गलियारे में फिर कदमों की आवाज सुनाई दी ।
सुधा सतर्क हो गई ।
उसने झिरी में से देखा । सुनील उसके द्वार के सामने आकर खड़ा हो गया ।
सुनील ने धीरे से द्वार को दूसरी ओर से धकेला ।
सुधा और सतर्क हो गई ।
फिर सुनील ने एक धागा द्वार की नॉब के साथ बांधा और उसके बाद वह सुधा को दिखाई देना बन्द हो गया ।
सुधा कुछ क्षण यूं ही खड़ी रही और फिर वहां से हट गई ।
पहले उसने कमरे में रखे फोन की ओर हाथ बढ़ाया लेकिन फिर उसने इरादा बदल दिया । कर्नल पिंगले ने उसे विशेष रूप से कहा था कि उसने कर्नल को कभी भी किसी ऐसे टेलीफोन से काल नहीं करना चाहिये जिसक काल बोर्ड से होकर जाती हो ।
सुधा एक कुर्सी पर बैठ गई ।
आधे घन्टे के बाद वह उठी और द्वार के पास जा पहुंची ।
फिर उसने झटके से द्वार खोल दिया और एकदम लिफ्ट की ओर भागी ।
लिफ्‍ट के घुसने पहले उसने घूम कर देखा, सुनील के कमरे की बत्ती जल गई थी ।
वह झपट कर लिफ्ट में घुस गई और उसने ग्राउन्ड फ्लोर के बटन पर उंगली रख दी ।
लिफ्ट के मोशन में आते ही उसे भड़ाक से एक द्वार खुलने और फिर किसी के गलियारे में भागने की आवाज आई ।
लिफ्ट रूकते ही वह झपट कर बाहर निकली और मुख्य द्वार की ओर भागी ।
कोई तेजी से सीढियां उतर रहा था ।
बाहर एक के पीछे एक तीन चार टैक्‍सियां खड़ी थीं ।
सबसे पहली टैक्‍सी की सीट पर ड्राइवर बैठा था ।             
सुधा ने तेजी से अपने पर्स में से एक नोट निकाला और उसे टैक्‍सी ड्राइवर के हाथ में ठूंसती हुई तेजी से बोली - “गाड़ी चलाओ, जल्‍दी ! जल्‍दी !”
“आप बैठिये तो सही ।” - ड्राइवर हड़बड़ा कर बोला ।
“मैने नहीं जाना है । तुम जल्‍दी भागो ! जल्‍दी करो !”
हड़बड़ाहट में बिना कुछ समझे बूझे ड्राइवर ने गाड़ी स्‍टार्ट कर दी और उसे ड्राइव करता हुआ मेन रोड की ओर चल दिया ।
सुधा झपट कर टैक्‍सियों के पीछे छुप कर बैठ गई ।
उसी समय उसे होटल के मुख्य द्वार में से भाग कर निकलता हुआ सुनील दिखाई दिया ।
उसने एक टैक्‍सी को तेजी से कम्‍पाउन्ड में से बाहर निकलता देखा, तो वह झपट कर सामने खड़ी टैक्‍सी के पास पहुंचा ।
फुटपाथ पर बैठा ड्राइवर उसकी ओर बढ़ा ।
“जल्‍दी करो, महाराज ।” - सुनील झपट कर पिछली सीट का द्वार खोलकर भीतर बैठता हुआ बोला - “उस टैक्‍सी का पीछा करो ।”
ड्राइवर फुर्ती से टैक्सी में बैठा और अगले ही क्षण वह टैक्‍सी भी पहली टैक्‍सी के पीछे कम्‍पाउन्ड से बाहर निकल गई ।
सुधा की जान में जान आई।
उसने एक छुटकारे के पीछे निश्वास ली और खम्‍भे के पीछे से बाहर निकल आई ।
वह पैदल ही चलती हुई कम्‍पाउन्ड से बाहर निकली और मेन रोड पर एक ओर बढ़ी ।
एक स्‍थान पर उसे एक पब्‍लिक टेलीफोन बूथ दिखाई दिया ।
वह बूथ में घुस गई ।
उसने अपने पर्स में से सिक्‍के निकाल कर हाथ में थामे और फिर रिसीवर को हुक से उठाकर एक नम्‍बर डायल किया ।
दूसरी ओर कितनी ही देर घन्टी बजती रही ।
कितनी ही देर बाद किसी ने दूसरी ओर से रिसीवर उठाया और फिर एक नींद में डूबा हुआ स्‍वर सुनाई दिया - “हैलो ।”
सुधा ने जल्‍दी से सिक्‍के डाले और हड़बड़ा कर बोली - “हल्‍लो, हल्‍लो ।”
“यस !” - दूसरी ओर से कोई कड़वे स्‍वर में बोला ।
“मैं कर्नल पिंगले से बात करना चाहती हूं ।” - वह बोली ।
“आप कौन बोल रही हैं ?” - दूसरी ओर से आने वाली आवाज में एकदम सतर्कता आ गई ।
“मै सुधा हूं ।”
“ओह ! सुधा ! मिसेज चौधरी ? मैं पिंगले ही बोल रहा हूं । नींद में एकदम जागने के कारण आवाज नहीं पहचान सका था मैं ।”
“मैंने आपको पहले भी फोन किया था ?”
“अच्छा !”
“जी हां । लेकिन हर बार लाइन बिजी मिली थी ।”
“बात क्‍या हो गई है क्‍या तुम्‍हें माल का पता लग गया है ?
“जी नहीं लेकिन.....”
“ओह ।” - दूसरी ओर से आने वाले स्‍वर से निराशा झलक उठी ।
“लेकिन यहां इस होटल में मैं स्‍वयं को बेहद असुरक्षित महसूस कर रही हूं ।”
कई क्षण दूसरी ओर से कोई उत्तर नहीं मिला ।
“इस समय तुम कहां हो ?” - फिर दूसरी ओर से आवाज आई ।
“स्‍विस होटल के पास ।”
“तुम ऐसा करो, सुधा । तुम एक टैक्‍सी लो और रेलवे स्‍टेशन पर पहुंच जाओ । मैं भी वहां पहुंचता हूं । वहां फर्स्ट क्‍लास के वेटिंग रूम में मेरी प्रतीक्षा करना ।”
“लेकिन रेलवे स्‍टेशन तो यहां से कम से कम दस मील दूर है, कर्नल साहब ।”
“दूर तो है लेकिन इतनी रात के बाद वही एक जगह है जहां इन्सान घूमता हुआ सन्दिग्‍ध नहीं लगता ।”
“क्‍या कोई रेस्‍टोरेन्ट क्‍लब नहीं है जो रात भर खुला रहता हो ?”
“है ।” - दूसरी ओर से आवाज आई - “अच्छा है तुमने याद दिला दिया । तुम्‍हारे होटल से थोड़ी ही दूर एक बी क्‍लास क्‍लब है गुलनार । वह रात को तीन साढ़े तीन बजे तक खुला रहता है । तुम वहां निधड़क भीतर चली जाना । इतनी रात गये गुलनार में महिलाओं का जाना हैरानी की नजर से नहीं देखा जाता ।”
“ओ के ।”
सुधा ने रिसीवर रख दिया ।
उसने एक टैक्‍सी ली और गुलनार पहुंच गई ।
कर्नल गेट पर ही खड़ा था ।
सुधा ने टैक्‍सी के पैसे चुकाये और कर्नल के पास आ खड़ी हुई ।
“भीतर चलो ।” - कर्नल बोला ।
सुधा उनके साथ भीतर चल दी ।
वे सीढ़ियां चढ़कर पहली मन्जिल पर पहुंचे वहां गैलरी के साथ-साथ कई केबिन बने हुये थे ।
वे एक केबिन में घुस गये ।
“बैठो ।” - कर्नल ने जमहाई लेते हुये एक कुर्सी की ओर संकेत कर दिया ।
सुधा चुपचाप बैठ गई ।
“अब बताओ, तुम क्‍यों असुरक्षित महसूस कर रही हो स्‍वयं को ?” - कर्नल ने खड़े-खड़े ही पूछा ।
“कर्नल साहब मुझे........अपने पति के साथियों से भी अधिक डर सुनील से लगने लगा है ।”
“क्‍यों ?”
“मैंने उसे जीवन वगैरह से बातें करते सुना था । सुनील भी उस धन के कारण ही मेरे पीछे पड़ा हुआ है । अब उसने जीवन वगैरह से यह समझौता कर लिया है कि वे उस धन की प्राप्ति के लिये संयुक्‍त प्रयत्‍न करेंगे और धन की प्राप्ति हो जाने के बाद उसे तीन बराबर भागों में बांट लेंगे ।”
“तीन क्‍यों ?” - पिंगले हैरानी से बोला - “सुनील को मिलाकर तो वे चार हो जायेंगे !”
“जीवन वगैरह तिवारी के विरुद्ध हो गये हैं और अब वे उसे धक्‍का देने के फिराक में हैं ?”
“और ?”
“और यह कर्नल साहब, कि सुनील साये की तरह मेरे पीछे लगा हुआ है । वह एक क्षण के लिये भी मुझे अकेला नहीं छोड़ता । अब भी मैं बड़ी मुश्किल से उसे धोखा देकर उससे पीछा छुड़ा पाई हूं ।
“उसे पता है इतनी रात गये तुम होटल से बाहर निकली हो ?”
“हां ।”
पिंगले चिन्तित दिखाई देने लगा ।
“कर्नल साहब ।” - सुधा भयपूर्ण स्‍वर में बोली - “अभी तक तो वह मुझसे बड़ी ईमानदारी से पेश आता रहा है । लेकिन अब मुझे सबसे अधिक डर उसी से लगने लगा है ।”
कर्नल ने अपनी जेब से एक छोटी सी रिवाल्‍वर निकाली और उसे सुधा की ओर बढ़ता हुआ बोला - “इसे रख लो ।”
“रिवाल्‍वर !”
“हां । अगर सुनील चौधरी का कोई साथी तुम्‍हें टार्चर करने की चेष्‍टा करे तो बेहिचक शूट कर देना उसे । आत्‍मरक्षा के लिये किसी की हत्‍या कर देना अपराध नहीं होता है ।”
सुधा ने कांपते हाथों से रिवाल्‍वर लेकर पर्स में रख ली ।
“मै भी अधिक से अधिक छत्‍तीस घन्टे और प्रतीक्षा करूंगा । उसके बाद माल मिले या न मिले, हम सारे अपराधियों को गिरफ्तार कर लेंगे ।”
“अगर मैंने फिर आपसे मिलना हो तो कहां आऊं ?” - सुधा ने पूछा ।
“तुम फोन पर ही सम्‍बन्ध स्‍थापित करना । बाद में मैं स्‍वयं ही तुम्‍हें मिलने का स्‍थान बता दूंगा ?”
“लेकिन यह नम्‍बर जो आपने मुझे दिया है, कहां है ?”
“यह मै कैसे बता सकता हूं ? यह सीक्रेट नम्‍बर है और टेलीफोन डायरेक्‍टरी में भी नहीं है ।”
सुधा चुप रही ।
“चलें !” - कर्नल बोला ।
“कर्नल साहब, मेरे से एक गलती हो गई है ।”
“क्‍या ?”
“मैने अपने फ्लैट की चाबी सुनील को दे दी है ।”
कर्नल एकदम चौंक पड़ा - “क्‍यों.....क्‍यों दी तुमने ?”
“मै........मैं ।” - सुधा सहम कर बोली - “उस समय मुझे उसकी असलियत मालूम नहीं थी । उस समय मैं समझ रही थी कि वह केवल मेरे आकर्षण से प्रभावित होकर मेरी सहायता कर रहा था ।”
“बहुत बुरा किया तुमने ।” - कर्नल बड़बड़ाया ।
सुधा सिर झुकाये बैठी रही ।
“चलो ।” - कुछ देर बाद कर्नल बोला ।
सुधा उठ खड़ी हुई ।
वे क्‍लब से बाहर निकल आये ।
कर्नल ने एक टैक्‍सी को संकेत किया ।
टैक्‍सी उनकी बगल में आ खड़ी हुई ।
कर्नल सुधा के लिये टैक्‍सी का पिछला दरवाजा खोलता हुआ बोला - “जो हो चुका है उसे गोली मारो । आगे के लिये सतर्क रहो और जो इस समय तुम्‍हारे पर्स में है उसे इस्‍तेमाल करने में हिचकिचाना नहीं ।”
सुधा ने स्‍वीकृतिसूचक ढंग से सिर हिला दिया और टैक्‍सी में बैठ गई ।
टैक्‍सी चल पड़ी ।
“स्‍विस होटल ।” - टैक्‍सी के मेन रोड पर आते ही सुधा बोली और उसने अपना सिर सीट के साथ टिकाकर आंखे मूंद लीं ।
टैक्‍सी एक झटके के साथ रुकी तो उसने आंखे खोलीं । टैक्‍सी होटल की लाबी में खड़ी थी ।
सुधा टैक्‍सी से बाहर निकल आई । उसने ड्राइवर को पैसे दिये और सीढ़ियो की तरफ घूम पड़ी
फिर वह एकदम ठिठक गई ।
सामने सुनील खड़ा था ।
वह बड़ी लापरवाही से पर्स झुलाती हुई सुनील के पास आ खड़ी हुई ।
“यहा खड़े क्‍या कर रहे हो ?” - उसने मधुर स्‍वर में पूछा ।
उत्‍तर के स्‍थान पर सुनील ने हौले से उसकी पीठ पर हाथ रखा और उसे लिफ्‍ट की ओर ले चला ।
चौथी मंजिल पर सुनील लिफ्ट से बाहर निकल आया और फिर सुधा के साथ गलियारे में से होता हुआ उसके कमरे के सामने आ खड़ा हुआ ।
“जिस होशियारी से तुमने मुझे खाली टैक्‍सी के पीछे भगा दिय था, उसके लिये बधाई देता हूं तुम्‍हें ।” - सुनील बोला और फिर उसे वही खड़ी छोड़कर अपने कमरे की ओर बढ़ गया ।
सुधा सुनील को जाता देखती रही । सुनील के भड़ाक से द्वार बन्द कर लेने जके बाद भी वह वहीं खड़ी रही ।
उसका मस्तिष्क कई बहाने सोच चुका था लेकिन सुनील ने उससे पूछा ही नहीं था कि वह रात को सुनील से पीछा छुड़ा कर कहां गई थी ?
सुधा भारी मन से अपने कमरे का दरवाजा खोलकर भीतर घुस गई ।