घुड़सवार शैतान
बात उस समय की है, जब शहर से दूर, गाँव में मनोरंजन के साधन ज्यादा नहीं हुआ करते थे। तब गाँव में हर किसी के यहाँ टेलीविजन या कंप्यूटर जैसे आधुनिक उपकरण नहीं होते थे। आँख-मिचौली, गिल्ली-डंडा, छिपम-छिपाई, कंचे , कबड्डी, खौ-खौ, छुआ-छूत इत्यादि खेलों का वर्चस्व हुआ करता था। ग्रामीण लोगों को उस वक़्त रेडियो पर क्रिकेट मैच का ज्यादा लुत्फ आता था। तब लोगों के पास एक दूसरे से बात करने के लिए वक़्त भी होता था और हर जरूरतमंद लोगों की मदद के लिए दिल में ज़रूरी भाव भी होता था। उस वक़्त दूर-दूर तक लोग अधिकतर बैलगाड़ियों से ही सफलतापूर्वक यात्राएँ कर लेते थे।
मेरा नाम हृदान भगत है। तब मेरी उम्र महज़ 17 वर्ष थी और मेरे गाँव का नाम कालिकापुर था, जो कि बंगाल में सिल्लीगुड़ी से 67 कि.मी. की दूरी पर था। सिल्लीगुड़ी में ही हमारा एक और घर था, जहाँ मेरे चाचा ‘चतुर्भुज भगत’, अपने छोटे से परिवार के साथ रहते थे। उनका एक बेटा भी था, जिसका नाम हर्षित था। हालाँकि हर्षित मुझ से एक वर्ष छोटा था, लेकिन वह ‘रोज माउंट वैली स्कूल’ में मेरे साथ ही कक्षा 11 में पढ़ता था।
मेरा गाँव, शहर से इतनी दूर होने के कारण, वहाँ की चकाचौंध दुनिया से अलग थी। उन दिनों गाँव में हर किस्म के पेड़ पाए जाते थे और सड़क के दोनों तरफ शीशम के पेड़ कदम से कदम मिला कर सड़क के साथ प्रहरी की भांति खड़े रहते थे।
उस समय असम और बंगाल, अपने काले जादू के लिए मशहूर हुआ करते थे। लगभग हर गाँव में भूत, प्रेत, जिन्न और चुड़ैलों के किस्से प्रचलित रहते थे।
स्थानीय ओझा भी मुर्गे या बकरी की बलि देकर या लोगों को झांसे में डालकर, मोटी कमाई वसूल करने में पीछे नहीं रहते थे। मेरा गाँव कालिकापुर बंगाल के ही सिल्लीगुड़ी जिले के ही अंतर्गत आता था।
हमारे विद्यालय में गर्मियों का लगभग एक महीने का अवकाश हुआ। मेरे चाचा हम सभी को लेकर अपने पुश्तैनी गाँव कालिकापुर आ गए। इस वक्त आम की ऋतु चल रही था। हम लोग पके हुए आमों का मजा ले रहे थे।
मैंने आम खाते हुए कहा, “आम बहुत ही स्वादिष्ट हैं। मजा आ गया खा कर। ऐसे आम शहर में क्यों नहीं मिलते, चाचा?”
“बेटे, ये स्वादिष्ट इसलिए हैं क्योंकि ये पेड़ के पके हुए हैं। शहर के लोग बेहद कम मूल्यों में गाँव से कच्चे आम ले जाकर, इनमें रासायनिक पदार्थों को साथ मिला कर, इन्हें पकने के लिए छोड़ देते हैं। फिर इन्हें ऊंचे मूल्यों में बेचकर, अच्छा मुनाफा पा लेते हैं।”, चाचा ने सहज भाव से मेरे प्रश्न का उत्तर दिया था।
“क्या कहा आपने? रासायनिक पदार्थों का उपयोग करते हैं? फिर तो इससे उस फल को खाने वाले का नुकसान भी होता होगा?”, मैंने उनके जवाब देते ही दूसरा प्रश्न कर दिया था।
“बिल्कुल सही, उन रासायनिक पदार्थों के प्रयोग से पकाए हुए फल खाने से हमारे शरीर पर इसका बड़ा ही प्रतिकूल असर पड़ता है।”, चाचा ने इसी तरह मेरे उत्सुकता से पूछे गए सारे प्रश्नों का सही जवाब दिया।
शाम को छः बजे का वक़्त हो रहा था। मैं हर्षित के साथ सड़क की तरफ चला गया। वहाँ जाने का मुख्य कारण समोसे का लालच था।
पड़ोस के गाँव घरवासडीह से एक समोसे बनाने वाला, अपना ठेला लेकर आता था। वह एक-एक दिन के अंतराल पर आता था। उसके समोसे बेहद ही लजीज होते थे। वह समोसे की चटनी में पुदीना और धनिया के साथ कुछ जादू सा घोल कर बनाता था, जिससे समोसे के साथ खाने से समोसे के जायके को बढ़ा देता था। सबसे बड़ी बात कि एक तो उसके समोसे लजीज होते थे और दूसरी यह कि वह पैसे भी कम ही लेता था।
₹1 में एक समोसा देता था। सिल्लीगुड़ी में तो एक समोसा ₹5 के मिलते थे और ऊपर से चटनी भी तभी मिलती थी, जब समोसे एक से अधिक लें।
मुझे और हर्षित को दादा जी से एक-एक रुपए मिले थे। हम दोनों समोसे का आनन्द ले रहे थे, तभी आदित्य भी वहाँ आ गया। आदित्य हमारे गाँव के मुखिया ‘विमल किशोर जी’ का बेटा है, जो की हमारे गाँव से 5 कि.मी. की दूरी पर नासरीगंज में एक स्कूल में पढ़ता था। वह कक्षा 10 में था। मैं और हर्षित, हर साल गर्मियों की छुट्टियों में अपने गाँव आते और हम तीनों मिलकर पूरे गाँव में धमाचौकड़ी मचाते थे।
बात जब दोस्ती तक हो, तब तो सही है लेकिन मेरे और हर्षित के दिमाग में यह चल रहा था कि अपने समोसे की बलिदानी कौन दे, क्योंकि हम घर से बस ₹2 ही ले कर आये थे, जिससे केवल दो समोसे ही मिले थे। शायद आदित्य मेरे मन में चल रहे समोसे के बंटवारे की बात को समझ गया।
वह समोसे वाले भइया से बोला, “भैया, मुझे भी एक समोसे देना।”
उसकी इस बात को सुनकर हम तीनों एक साथ हँस पड़े। हमलोगों ने समोसे का आनंद लिया और घर की तरफ जाने लगे।
अभी कुछ दूर चले ही थे कि हर्षित बोला, “अरे! मैं तो पूछना ही भूल गया। आज रामलीला देखने चलोगे न?”
“इस वर्ष गाँव में रामलीला नहीं हो रही है।”, आदित्य ने उदास होकर कहा।
मैं बोला, “क्या बात कर रहे हो? प्रत्येक वर्ष तो इसका आयोजन होता था। भला ऐसी क्या बात हो गई जो....”
मेरी बातों को बीच में काटते हुए आदित्य बोला, “हमारे गाँव में कुछ दिन पहले ही दो गुटों में झगड़ा हो गया था। बात इतनी बढ़ी की गोलियां चल गई। गोली चलने से जो व्यक्ति बीच बचाव करने आये थे, उनकी दाहिनी भुजा में लग गई। जिनकी भुजा में गोली लगी, वे ही प्रत्येक वर्ष हमारे गाँव में रामलीला आयोजन करते थे।”
आदित्य की बात सुनकर हम लोग उदास हो गए।
तभी आदित्य की आँखों में चमक उभरी और बोला, “क्यों न हम पड़ोस के गाँव घरवासडीह में जाकर रामलीला देखें?”
आदित्य की बातें सुनकर हर्षित बोला, “वह तो दूर है। वहाँ उतनी दूर...”
हर्षित की बात पूरी करने से पहले ही, आदित्य फिर बीच में बोल पड़ा, “क्या बात करते हो? हमारे गाँव से मात्र ढाई किलोमीटर की दूरी पर ही तो है और हम अब बच्चे नहीं रह गए हैं।”
उसकी इस बात ने हम लोगों में जोश भर दिया और हम तीनों ने रात को खाना खाने के बाद 8 बजे घरवासडीह जाने की योजना बनाई।
हम तीनों खाना खाने के बाद घर में बता कर घरवासडीह रामलीला देखने निकल पड़े। हम लोगों को रात को बाहर जाता देखकर, हमारे साथ हमारा कुत्ता जैकी भी चल दिया।
आज चांदनी रात में गाँव बड़ा ही प्यारा लग रहा था। हवाओं के चलने से पेड़ से पत्तों की आवाज रोमांचित कर रही थी। हम तीनों एक साथ कदम से कदम मिला कर, आँखों में रामलीला देखने की ललक लिए चल रहे थे। थोड़ी देर बाद, रात करीब पौने नौ बजे तक हम लोग घरवासडीह पहुँच गए।
“ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम अनुकूल,
तत्व प्रभांव बड़वानलहिं जारि सकल खलु तूल।”
तत्व प्रभांव बड़वानलहिं जारि सकल खलु तूल।”
‘हे प्रभु! आप जिस पर प्रसन्न हों, उसके लिए कुछ भी कठिन नहीं है। आप के प्रभाव से रुई(जो स्वयं बहुत जल्दी जल जाने वाली वस्तु है) बड़वान वाले को निश्चित ही जला सकती है।(अर्थात असंभव को भी सम्भव कर सकता है)॥’
मंच पर यह कथा संवाद चल रहा था। हम लोग भी शान्ति से बैठ कर रामलीला का आनन्द लेने लगे। करीब डेढ़ घंटे देखने के बाद पाँचवें दिन का अध्याय समाप्त हुआ।
जैसे ही आज का अध्याय समाप्त हुआ, मैंने कहा, “वाह! मजा आ गया। अभी तो नौ दिन का और अध्याय बाकी है। अब हम लोग प्रतिदिन आएंगे।”
मेरे ऐसा कहने पर सभी ने हामी भर दी। हम लोग फिर 11 बजे के करीब घर आकर सो गए।
अगले दिन मैंने घरवालों को कल के भाग के बारे में बताया कि कितना मजा आया और शाम होने का इंतजार करने लगा।
शाम होते ही मैंने और हर्षित ने खाना जल्दी निपटाया। हमारे खाना खाते ही आदित्य भी पहुँच चुका था और वह मेरे कुत्ते जैकी के साथ रामलीला देखने जाने का इंतजार कर रहा था।
हम तीनों अपनी मंजिल की तरफ निकल पड़ें। हमारे साथ जैकी भी हमारे साथ चलते-चलते कभी आगे तो कभी पीछे होता हुआ चल रहा था।
उस रोज़ अमावस की काली रात थी। चाँद आसमान से नदारद था। वातावरण में नीरवता और अँधेरे का आधिपत्य था। ज्येष्ठ महीना होने के कारण हवाएं सर्द थीं, जिनका वेग तो उग्र नहीं था किन्तु उग्रता की सीमा से अधिक परे भी नहीं था। चारों तरफ गहन अँधेरा छाया हुआ था, इसी वजह से सड़क पर चलने में दिक्कत हो रही थी।
वह तो शुक्र था कि आदित्य अपने साथ टॉर्च लेकर आया था। हम लोग एक साथ हाथ पकड़ कर चल रहे थे। पश्चिम दिशा में दृष्टि के आखिरी छोर पर कुछ हल्की सी रोशनी का आभास हो रहा था।
आदित्य टॉर्च को अपनी मुट्ठियों में जकड़े हुए सबसे आगे चल था। मैं और हर्षित उसके ठीक पीछे-पीछे चल रहे थे। इस सुनसान सड़क पर आसानी से हमारे पदचापों को सुना जा सकता था। काफी देर तक हमारे बीच किसी भी किस्म की बातें नहीं हुई। केवल हमारे पदचापों की ध्वनि ही थी, जो अभी तक हमारे साथ चल रही थी। अन्यथा आज रात तो झींगुर या जंगली पशु भी मातमी अँधेरे से खौफ खाकर खामोश थे।
हम तीनों लोग बेखौफ आगे बढ़ रहे थे कि तभी अचानक हर्षित बोला, “यार! हमें आज नहीं आना चाहिए था। आज मुझे कुछ अजीब सा लग रहा है।”
उसकी बातों को सुनकर आदित्य बोला, “सच कहूँ तो मेरा भी मन नहीं था। एक तो अमावस की काली रात है और ऊपर से इतना घना सन्नाटा।”
मैं काफी देर से उन दोनों की बातें सुन रहा था। जब मुझ से न रह गया तो बोला, “कैसी बच्चों जैसी बातें कर रहे हो? भूत-प्रेत कुछ नहीं होता। ये सब मन का वहम होता है।”
अभी मैं यह सब कह ही रहा था कि मुझे कुछ दूर पर कोई इंसान दिखा, जो कि कुछ दूरी पर रास्ते के किनारे खड़ा था। उसे देखकर लग रहा था, जैसे हमलोगों का ही इंतजार कर रहा हो। मैंने जैसे ही हर्षित के कंधे पर हाथ रख कर, उस तरफ इशारा किया तो वे दोनों अपनी ही जगह पर खड़े हो गए। हम तीनों में से कोई कुछ नहीं बोल पा रहा था। हमारा कुत्ता जैकी, जो काफी देर से हमलोगों के साथ चल रहा था, अब वह कहीं भी नहीं दिख रहा था।
जैकी के आसपास न दिखने से हम लोग और भी सहम गए। किसी तरह हम लोग हिम्मत जुटाकर कर एक साथ आगे बढ़ने लगे। उस व्यक्ति के नजदीक पहुँचे ही थे कि वह शख्स बिल्कुल हमारे सामने खड़ा हो गया।
उस शख्स ने सफेद साड़ी पहनी हुई थी और उसने अपना चेहरा लंबे-लंबे बालों से ढक रखा था। उसके जिस्म से मनमोहक खुशबू आ रही थी। उस खुशबू के सामने सोचने समझने की शक्ति बेकाबू हो रही थी। उसके व्यक्तित्व को देखकर यह तो पता लग गया था कि जिसे हम अंजान शख्स समझ रहे थे, वह कोई रहस्यमयी औरत है।
उसे अचानक सामने खड़े होते देख, आदित्य पूछ पड़ा, “आप इतनी रात यहाँ सुनसान जगह अकेले क्या कर रही हो?”
“यह सवाल तो मैं भी तुम लोगों से कर सकती हूँ?”, उस रहस्यमयी औरत ने सपाट स्वर में कहा।
आदित्य उसके लिए तैयार नहीं था और सकपका कर रह गया।
“नहीं... नहीं! आपको परेशान करने का मेरा कोई मतलब नहीं था। वह तो मैं यहाँ...”, आदित्य ने घबराते हुए कहा।
“चले जाओ यहाँ से.... तुम जिस काम के लिए जा रहे हो, उसका अंजाम सही नहीं होगा।”, इस बार उस रहस्यमयी औरत ने ऊँचे आवाज में कहा था।
“ले...लेकिन हम लोग तो रामलीला देखने जा रहे हैं। भला उससे किसी को क्या तकलीफ हो सकती है।”, इस बार मैंने हिम्मत जुटा कर उस रहस्यमयी औरत से सवाल किया था।
“क्या तुम्हें यह काली अमावस की रात नजर नहीं आ रही? मत मानो मेरी बात। मेरा काम समझाना था, बाकी अंजाम के लिए तैयार रहना, जिसके सिर्फ तुम लोग ही जिम्मेदार होंगे।”, यह कहते ही वह औरत जोर-जोर से हँसने लगी।
तभी हर्षित बोला, “हम रामलीला देख कर ही रहेंगे। तुम चाहे कुछ भी कह लो, हम तुम्हारी बात नहीं मानेंगे।”
चटाक...
थप्पड़ की आवाज से वहाँ आस-पास का वातावरण गूँज उठा। वह थप्पड़ उस औरत ने हर्षित के गाल पर लगाया था। उसके गाल पर पाँचों उँगलियों के लाल निशान उभर आए थे।
अचानक उसके ऐसे बर्ताव को देखकर, हम तीनों ही घबरा गए और वहाँ से पड़ोस के गाँव की तरफ भाग खड़े हुए। मुश्किल से उस जगह से लगभग 20-30 कदम ही भागे थे कि हमें हमारा कुत्ता जैकी भी मिल गया। जैकी के मिलते ही जैसे ही मैंने टॉर्च का प्रकाश उस दिशा की तरफ किया, जहाँ हमें वह रहस्यमयी औरत मिली थी, हमारी आँखें फटी की फटी रह गई। वहाँ कोई भी शख्स नहीं दिख रहा था।
अब हम लोगों ने आव देखा न ताव, सिर पर पैर रख कर भागे। पाँच मिनट में ही हम लोग रामलीला वाले स्थल पर पहुँच गए।
“सबहि राम प्रिय जेहि विधि मोहि। प्रभु असीस जनु तनु धरि सोहि।।
बिप्र सहित परिवार गोसाईं। करहिं छोहु सब रौरिहि नाईं ।।”
बिप्र सहित परिवार गोसाईं। करहिं छोहु सब रौरिहि नाईं ।।”
‘सभी को श्री रामचंद्र वैसे ही प्रिय हैं, जैसे वह मुझको हैं (उनके रूप में) । आपका आशीर्वाद ही मानो आपका शरीर धारण करके शोभित हो रहा है। हे स्वामी! सारे ब्राह्मण, परिवार सहित आपके ही समान, उन पर स्नेह करते हैं।।’
रामलीला स्थल पर आते ही हमलोगों के जेहन से सारे डर और खौफ काफूर हो गए। हम तीनों ने सारा ध्यान मंच पर केंद्रित कर दिया। हम तीनों एक साथ ही बैठे थे। बाहर से तो बिल्कुल ऐसे दिख रहे थे, मानो जैसे कुछ हुआ ही ना हो। लेकिन रह-रह कर हमलोगों का ध्यान उस घटना पर जा रहा था।
वह औरत उतनी सुनसान जगह पर, इतनी रात को क्या कर रही थी? आखिर वह औरत ऐसा क्यों कह रही थी? वह हमलोगों को वापिस जाने के लिए क्यों मजबूर कर रही थी? वह किस अंजाम को भुगतने के लिए कह रही थी? आखिर ऐसी क्या बात थी, जो हर्षित के गाल पर तमाचा रसीद करना पड़ गया?
इस तरह के सवालों ने मेरे जेहन में उठा पटक कर रखा था। हम सभी की आँखें तो मंच पर थी लेकिन दिमाग अभी भी वहीं सड़क के किनारे सफेद साड़ी वाली उस रहस्यमयी औरत पर ही थी।
“उठो... उठो, हृदान उठो!”, ये आवाज जानी पहचानी सी लगी। फिर थोड़ी देर में आवाज आई।
“अरे! उठेगा भी या हम लोग जाएं।”, ये आवाज आदित्य की थी और मुझे पूरी ताकत से हिलाते हुए बोल रहा था।
जब मैंने आँखें खोली तो चारों तरफ घनघोर अंधेरा था। हम तीनों के अलावा वहाँ कोई भी मौजूद नहीं था। हर्षित अपनी आँखों को मल रहा था और जम्हाई ले रहा था।
मैं एक झटके से उठ गया। मैंने कहा, “ये क्या हुआ? यहाँ के सभी लोग किधर गए?”
आदित्य ने अपनी हाथ की घड़ी की तरफ इशारा करते हुए बताया, “भाई, इस वक़्त रात के 12:30 बज रहे हैं और रामलीला का आज का अंक खत्म हुए लगभग दो घंटे हो चले हैं। हम तीनों सो गए थे। वो तो भला मानो कि मेरी आँख अभी खुल गई।”
इतना सुनते ही हर्षित की नींद पूरी तरह छू मंतर हो गई।
उसने भी अपनी आँखों की पुतलियां चारों तरफ घुमाई और बोला, “क्या कहा!? हम लोगों को सोते हुए दो घण्टे से भी अधिक समय हो गया, तो फिर यहाँ के लोगों ने हमें उठाया क्यों नहीं?”
उसकी बातें सुनकर मैं बोला, “भाई, हम लोग रामलीला अपने गाँव में नहीं देख रहे। पता है ना, हम लोग दूसरे गाँव आए हैं? यहाँ के गाँव वाले हमें नहीं पहचानते।
उन्होंने देखा भी होगा तो इसी गाँव के है, जब उठेंगे तब चले जायेंगे, ऐसा सोच कर हमें छोड़ दिया होगा।”
दोनों मेरी इस बात से सहमत हो गए। उनके चेहरे पर अब घबराहट के बादल दिख रहे थे।
मैं बोला, “इससे पहले कि हमारे घरवाले, हमलोगों को ढूंढते-ढूंढते यहाँ आ जाएं, हमें यहाँ से निकल जाना चाहिए।”
यह सुनकर दोनों ने अपनी-अपनी मुंडी हिला हिलाकर हामी भरी। मेरा कुत्ता जैकी भी वहीं बैठा, हमलोगों के घर वापिस जाने का कब से इंतजार कर रहा था।
हम तीनों एक झटके से बढ़ चले। सभी के दिल में घबराहट और बेचैनी थी। जैकी इस बार आगे-आगे चल रहा था, जैसे उसे घर पहुँचने की जल्दी हमलोगों से ज्यादा हो।
अभी कुछ देर चले ही थे कि मेरे दिमाग में एक योजना कौंधी। मैं बोला, “अरे सुनो! क्यों न हम खेत से होते हुए चलें। वहाँ से हम मात्र 10-15 मिनट में ही पहुँच जाएंगे। बस रास्ते में एक फुलवारी(बगीचा) को पार करना होगा।”
“हम्म! ये सही रहेगा। कुछ भी करो, बस मुझे घर जल्दी पहुँचना है अब।”, हर्षित चिंता के स्वर में बोला।
“ले...लेकिन मैंने सुना है कि वहाँ एक... बिना खोपड़ी का शैतान रहता है, जो किसी को रात के वक़्त उधर से निकलने नहीं देता।”, आदित्य ने चेतावनी देते हुए कहा था।
“क्या बेकार की बातें करते हो। भला इतनी रात को कोई वहाँ क्या करेगा। रात को तो फुलवारी का चौकीदार भी नहीं रुकता वहाँ। मैं तो कहता हूँ, कुछ आम-वाम खाते चल लेंगे।”, मैंने बुलंद आवाज में कहा।
“हाँ! ये सही रहेगा, हृदान। उधर से जल्दी पहुँच जाएंगे। आम के आम और गुठलियों के दाम।”, हर्षित के इतना कहते ही सभी एक साथ हँस पड़े और खेत की पगडंडियों से होते हुए आगे बढ़ चले।
पाँच मिनट चलते ही हम फुलवारी के पिछले वाले हिस्से पर जा पहुँचे। फुलवारी एक फुटबॉल के मैदान के जितनी बड़ी थी। फुलवारी के चारों तरफ विशालकाय पेड़ था और चारों तरफ ऊंची-ऊंची कटीली झाड़ियों से घिरा हुआ था। हमें अंदर घुसने का रास्ता नहीं मिल रहा था। हम सभी के चेहरे उतर गए थे।
थोड़ी देर तक, और मशक्कत करने के बाद अन्दर जाने के लिए एक रास्ता दिखा। उस रास्ते को देख कर लगा कि जंगली जानवर अंदर घुसने के लिए इसका प्रयोग करते होंगे और उनके अक्सर आने जाने से एक छोटा सा रास्ता बन गया था, जिसे बैठ कर आसानी से घुसा जा सकता था।
आदित्य टॉर्च से प्रकाश दिखा रहा था। सबसे पहले मैं घुसा। मेरे घुसते ही जैकी भी घुस गया। फिर बारी-बारी से हर्षित और आदित्य भी घुस गया।
हम लोग अब फुलवारी के अंदर थे। अब हमलोगों के चेहरे पर कुछ सुकून था। अंदर चारों तरफ अंधेरा था। कुछ भी साफ-साफ नहीं दिख रहा था। चारों तरफ ऊंचे-ऊंचे पेड़ थे। लगभग हर तरह के फलों और विविध पुष्पों की खुशबू हवा के संग-संग बह रही थी।
कहीं आसपास से ही हरश्रृंगार पेड़ की मनमोहक खुशबू आ रही थी, जिसे सूंघने पर ऐसा लग रहा था कि कुछ देर रुक कर उसका आनंद लें। हवा भी तेज चल रही, जिससे पेड़ की पत्तियों से भी अजीब-अजीब तरह की आवाजें आ रही थी। आदित्य फुलवारी के दूसरी तरफ जाने के लिए टॉर्च से रास्ता तलाश करते हुए आगे बढ़ा। हम दोनों भी उसके साथ हो चले।
चलते-चलते हम लोग एक कुएँ के पास पहुँचे। वह कुआं फुलवारी के ठीक बीचों-बीच था। कुएँ के पास पहुँचते ही अचानक हमें तापमान में गिरावट महसूस हुई। अब पहले के मुकाबले ठंड का ज्यादा एहसास हो रहा था।
तभी अचानक जैकी कुएँ की तरफ मुँह करके जोर-जोर से भौंकने लगा। अचानक उसके इस बर्ताव ने हम सभी को अचंभे में डाल दिया।
इससे पहले की मैं कुछ बोलता आदित्य बोल पड़ा, “वो...वो रहा बाहर निकलने का रास्ता। इसे पार करते ही केवल दो मिनट में हम अपने गाँव में होंगे।”
अभी हमलोगों ने कुछ कदम आगे बढ़ाए ही थे कि पूरा फुलवारी ठहाकों से गूंज उठा। ये आवाज इतनी कर्कश थी कि हम तीनों ने एक दूसरे को बिल्कुल जोर से पकड़ लिया। जैकी भी बहुत जोर-जोर से भौंक रहा था। आदित्य ने जैसे ही टॉर्च की रोशनी उस भयावह हँसी की तरफ की, सभी के सभी डर कर कांपने लगे।
सामने एक शैतान, घोड़े पर सवार था, जिसके हाथ में तलवार जैसा कोई औजार था। सबसे अजीब बात तो यह थी कि उसका सिर तो था ही नहीं। उसका केवल धड़ था, सिर का नामों-निशान नहीं था।
हम तीनों एक दूसरे के चेहरे को देखने लगे। अब ऐसा प्रतीत हो रहा था, जैसे हम तीनों ने अपनी सोचने समझने की क्षमता ही खो बैठी हो। भला कोई बिना सिर के कैसे हो सकता है। सामने का भयावह दृश्य देखकर हमारे हाथ पाँव कांपने लगे थे।
समझ में नहीं आ रहा था कि अब क्या करें? हम लोग बुरी तरह फंस चुके थे। बाहर निकलने का एक मात्र रास्ता था, जहाँ वह शैतान घोड़े के ऊपर कोई तलवारनुमा औज़ार ले कर बैठा था और जोर-जोर से दहाड़ मार के हँस रहा था।
तभी आदित्य ने कहा, “देखा! मैंने तुम लोगों को यहाँ घुसने से पहले ही आगाह कर दिया था। लेकिन तुम लोगों ने मेरी बात को मजाक में ले लिया था। मुझे इतनी जल्दी नहीं मरना। तुम लोग अंजाम भुगतने को तैयार रहो।”
ऐसा कहकर उसने अपना हाथ छुड़ाया और बाहर जाने वाली द्वार की तरफ भाग चला। अचानक उसकी इस हरकत ने हमें और भी संशय में डाल दिया।
अब मुझे लगने लगा था कि इन सभी की मौत का जिम्मेदार मैं होऊंगा। मुझे जल्द ही कोई तरकीब निकाल कर इन सभी को सही सलामत बाहर निकालना होगा। मैं इसी उधेड़बुन में लगा था कि क्या किया जाए?
तभी हर्षित बोला, “वह रहस्यमयी औरत याद है ना? उसने हमें पहले ही चेतावनी दी थी कि वापिस चले जाओ, नहीं तो अंजाम भुगतने के लिए तैयार रहना।”, इतना कहते ही वह फफक-फफक कर रो पड़ा।
मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं आदित्य को समझाने के लिए जाऊं या हर्षित को चुप कराऊँ।
चूंकि हर्षित मेरे पास में ही था इसलिए मैंने हर्षित के काँधे पर हाथ रखा और उसको समझाते हुए बोला, “देखो, यह समय रोने-धोने का नहीं है। इस वक़्त हमें समझदारी से काम लेना होगा। मेरा यकीन करो, मैं तुम सभी को यहाँ से सुरक्षित बाहर निकालूंगा।”
मेरे इस दिलासे का उस पर कोई असर नहीं हुआ। मैंने अपने इष्ट देव भैरो बाबा को मन ही मन याद किया और उनसे मदद मांगी।
उधर आदित्य फुलवारी से बाहर जाने वाले द्वार से बस कुछ कदम के फासले पर ही था कि अचानक वह बिना सिर वाला शैतान, उसके सामने प्रकट हो गया।
वह बिना सिर वाला शैतान बिल्कुल हमलोगों के सामने अपने घोड़े के ऊपर कोई तलवारनुमा औजार ले कर बैठा था। उस औजार से कुछ रक्त की बूंदें टपक रही थी। उस औजार को उठाकर, जैसे ही उसने आदित्य के ऊपर प्रहार करने के लिए अपना हाथ घुमाया ही था, तभी अचानक जैकी उस पर उछल पड़ा।
जैकी के उस शैतान पर उछलते ही वह अदृश्य हो गया। हमलोगों को यह देख कर बड़ी खुशी हुई। लेकिन हमारी ये खुशी ज्यादा देर तक न टिक सकी।
मैंने जल्दी से ही हर्षित का हाथ पकड़ा और उसको लेकर आदित्य की तरफ पहुँच गया। फिर मैंने आदित्य का हाथ भी पकड़ा और उनको लेकर फुलवारी से बाहर निकलने वाले द्वार की तरफ चल पड़ा।
तभी वह शैतान अचानक एक बार फिर से हमलोगों के सामने खड़ा था। उस शैतान ने अपने उस औजार को उठाया और जैसे ही फिर से प्रहार करने को तैयार था कि तभी अचानक फिर जैकी कहीं से आ आया और उस पर झपट पड़ा।
जैकी के झपटते ही वह शैतान एक बार फिर से अदृश्य हो गया। मैं इतना देखते ही सब समझ गया कि मुझे अब आगे क्या करना है। मैंने हर्षित और आदित्य से कहा कि कोई भी किसी का हाथ न छोड़े और हमें जैकी के पीछे रहते हुए आगे बढ़ते जाना है।
हम तीनों ने ऐसा ही किया और एक-दूसरे का हाथ इतनी मजबूती से पकड़ लिया, जैसे फेविकोल का जोड़ हो। हम जैसे-जैसे आगे बढ़ते, वह शैतान प्रकट हो जाता। जैकी भी हार मानने वालों में से नहीं था, वह भी बार-बार उस शैतान पर उछल पड़ता। काफी मशक्कत करने के बाद हम लोग फुलवारी से बाहर निकलने वाले द्वार से, सड़क पर आ चुके थे।
हमारे बाहर निकलते ही वह घटना भी बंद हो गई। मैंने मन ही मन अपने इष्ट देव को हाथ जोड़कर, उनका तहेदिल से शुक्रिया अदा किया। हम तीनों जैकी पर अचानक झपट पड़े और उस पर बेशुमार दुलार लुटाने लगे। हम तीनों को आज उस पर बहुत प्यार आ रहा था।
थोड़ी देर दुलार करने के बाद हम लोग घर पहुँच गए थे। आदित्य उस रात हमलोगों के साथ मेरे घर पर ही रुक गया था।
अगली शाम आदित्य हमारे घर आया और उसने कहा कि उसे कुछ ज़रूरी बात करनी है। ऐसा कह कर वह हम दोनों को समोसे खिलाने की बात घर पर बोलकर सड़क की तरफ ले गया।
वहाँ पहुँच कर जब फुलवारी की तरफ नजर गई, तब दिन में भी फुलवारी बहुत ही डरावनी लग रही थी। वह इतनी ज्यादा घनी थी कि सूरज का प्रकाश भी अंदर जाने में सक्षम नहीं था।
समोसे की ठेली पर जाते ही आदित्य ने बताया, “जानते हो, जो कल रात बिना खोपड़ी वाला शैतान मिला था, कौन था वो?”
मैंने कहा, “नहीं तो लेकिन तुझे कैसे पता कि कौन था वो?”
आदित्य बोला, “यह बात लगभग 150 वर्ष पहले की है, तब राजा देवेन्द्र प्रताप का बोल बाला था। वह बहुत ही बड़े और प्रतापी राजा थे। इस गाँव को मिलाकर पूरे 125 गाँव उनके आधीन थे।”
“जिस फुलवारी में हम लोग कल गए थे, एक जमाने में वह बहुत बड़ी और घनी हुई करती थी। उसकी रक्षा राजा का एक खास सेवक करता था, जिसका नाम ‘जंग बहादुर सिंह’ था, जो कि बहुत ही बलशाली और पराक्रमी हुआ करता था। दूर-दूर तक उसकी ख्याति फैली हुई थी। उसने पूरी ज़िंदगी इस फुलवारी की रक्षा करने का प्रण लिया था। वह राजा के सभी कामों को अपना दायित्व मानकर करता था।”
“परंतु एक रात उनकी किसी ने धोखे से, पीछे से आकर उसके सिर को धड़ से अलग कर दिया। जंग बहादुर सिंह अचानक हुए उस हमले के लिए तैयार नहीं था। कहते हैं कि सिर तो वहीं धरती पर गिर गया लेकिन सिर धड़ से अलग होने के बावजूद, उसने उस व्यक्ति को मार गिराया था, जिसने जंग बहादुर पर पीछे से हमला किया था। लड़ते-लड़ते वह इसी फुलवारी के उसी कुएँ में गिर पड़ा था। कहते हैं, वह आज भी इस फुलवारी की रक्षा करना अपना दायित्व मानता है।”
“इसलिए रात के दूसरे प्रहर में वह इस गाँव के काफी लोगों को दिखा है। उसके बारे में यहाँ गाँव में लगभग हर किसी को पता है, बल्कि गाँव में तो साफ-साफ हिदायत दी हुई है कि रात के 8 बजे के बाद उस तरफ जाना सख्त मना है। यहाँ तक कि वहाँ के चौकीदार ‘शिवमंगल लाल’ भी वहाँ रात के 8 बजे के बाद नहीं रुकता। वहाँ कई अप्रिय घटनाएं हो चुकी हैं। कहते हैं कि वह फुलवारी आज भी शापित है।”
मैं बोला, “वह सब तो ठीक है, लेकिन वह औरत कौन थी, जो कल हमें रामलीला देखने जाने से रोक रही थी। इन सब घटनाओं के होने के बाद तो ऐसा लग रहा है, जैसे वास्तव में उसे होने वाले घटनाओं का पूर्वानुमान था।”
आदित्य बोला, “बिल्कुल सही कहा तुमने। वह औरत सच में हमारा भला करना चाहती थी। वह इस गाँव की कुलदेवी है, जो हमारे गाँव के लोगों की वर्षों से रक्षा करती आ रही है। बहुत से लोग उसे वनदेवी के नाम से भी बुलाते हैं।”
हर्षित बोला, “लेकिन तुम्हें तो कल तक कुछ भी पता नहीं था, आज अचानक कहाँ से सब याद आ गया?”
आदित्य बोला, “मैंने कल रात वाली घटना, मेरे यहाँ काम करने वाले माली रामू काका को बतायी, तब उन्होंने मुझे सारी बात विस्तार से समझायी। इतना ही नहीं, वह चौकीदार शिवमंगल माली काका का ही बेटा है। माली काका ने मेरी मुलाकात उस चौकीदार शिवमंगल से करवाई और उन्होंने ही यह बताया कि रात 8 बजे के बाद वहाँ अनहोनी घटनाएं होती रहती हैं। तरह-तरह की आवाजें आती रहती हैं इसलिए कोई भी 8 बजे के बाद न तो फुलवारी में जाता है, न ही कोई उसकी देखभाल के लिए रुकता है।”
आदित्य के बताते ही हम लोगों की आँखों से वह धुंध हट गई थी, जो कल रात से हमलोगों के लिए पहेली बनी हुई थी। कल जो बिना सिर वाला शैतान हमें मारने के लिए पीछे पड़ा था, आज उस जंग बहादुर सिंह के लिए मेरे मन में श्रद्धा उमड़ रही थी।
उस रात की खौफ हर किसी के जेहन में आज भी ताजा है। इतिहास अपने गर्त में ना जाने कितनी ही पहेलियाँ और रहस्यों को समेटे हुए हैं। आज भी जब हम तीनों गाँव जाते हैं तो उस घटना का जिक्र करते हैं, तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं। दिन में भी कभी उस फुलवारी की तरफ रुख नहीं करते हैं।
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