उन्तीस अगस्त की रात !


यह वह रात थी जहां से उनकी दुश्वारियां शुरू हुई ।


दुश्वारियां भी ऐसी जैसी उनसे पहले किसी ने नहीं झेली होंगी। रात के करीब बारह बजे तक वे सोच भी नहीं सकते वे हालात इस कदर पलटा खाने वाले हैं । वह रात भी उनकी अन्य रातों की तरह रंगीनियों से ही शुरू हुई थी।


कमरा दिव्या का बैडरूम था ।


कम्बल के नीचे दोनों प्राकृतिक अवस्था में थे। एक बार सहवास के दौर से भी गुजर चुके थे। संतुष्टि होने के बाद अगल-बगल लेटे दोनों ने एक-एक सिगरेट सुलगा ली थी। दो-तीन कश लगाने के बाद दिव्या ने कहा था --- " अब केवल चौबीस घण्टे बचे हैं देव । अगर वह कल इस वक्त तक नहीं मरा तो...


“मरने के लिए एक क्षण चाहिए । सिर्फ एक क्षण ।” देवांश ने उसकी बात काटकर कहा--- " और अभी पूरे चौबीस घण्टे बाकी हैं। मुझे पूरा विश्वास है वह समय रहते खुद को खत्म कर लेगा । वैसे भी, उसकी हर गतिविधि से जाहिर है ---जीने का कोई इरादा नहीं है उसका ।”


"मैं “ मैं कुछ और ही सोच रही थी।"


"क्या?”


“कितनी मुश्किल में होगा वह ?... खुद को खत्म कर लेना इतना आसान नहीं होता।”


“वात तो एकदम दुरुस्त है।"


“अगर कोशिश के बावजूद वह खुद को नहीं मार सका तो?”


“इस 'तो' से आगे की बात हम पहले ही सोच चुके हैं। हमें उठानी होगी वह जहमत । काम जरा भी मुश्किल नहीं है । सुसाइड नोट हमारे पास है। बस उसके रिवाल्वर से, उसकी कनपटी पर गोली मारनी होगी। रिवॉल्वर उसके हाथ में पकड़ा दिया जायेगा ।” कहने के बाद थोड़ा रुका देवांश | एक कश लेने के बाद पूछा --- “तुम्हें पता है न उसने रिवाल्वर कहां रखा है ?”


“ऐसा कभी हुआ है तुमने कुछ पता करने के लिए कहा हो, मैंने न किया हो ?”


“कहां है?”


“सोफे की पुश्त और गद्दी के बीच जो गैप है, रिवाल्वर उसने वहीं रख रखा है। अपनी समझ में उसने उसे वहां इसलिए रखा है ताकि मैं न ढूंढ सकूं, जबकि मैंने उसे वहां रखते हुए ही देख लिया था । मैं तो यह भी देख चुकी हूं - - - छ: की छः गोलियां हैं उसमें । ”


“ उस बेचारे के लिए तो आधी ही काफी होगी।” कहकर हंसा था देवांश ।


दिव्या ने पूछा--- "तुमने बेवजह रिवाल्वर का जिक्र क्यों किया था उससे?”


“वह जिक्र बेवजह नहीं था डार्लिंग ।”


"क्या मतलब ?”


“मैं उसे याद दिला रहा था, आत्महत्या करने का एक तरीका वह भी है । ऐसा तरीका जो खुद को फांसी लगा लेने के मुकाबले बहुत कम कष्टप्रद है। फांसी लगाने वाले शख्स को उस समय तक असहनीय पीड़ा से गुजरना होता है जब तक फंदा, ईहलीला समाप्त नहीं कर देता जबकि रिवाल्वर से कनपटी में गोली मारने का मतलब है गोली अंदर, दम बाहर। तड़पन की गुंजाइश ही नहीं कोई। जरूरत ही नहीं छटपटाने की मगर, लगता है यह इस बात को पहले ही समझ चुका था ।” 


“वह कैसे ?”


“उसके लॉकर से निकाल लाने से ही जाहिर है । देख लेना रिवाल्वर से ही मरेगा वह ।"


दिव्या के कुछ कहने से पहले ही इन्टरकॉम की घण्टी घनघना उठी ।


दोनों चौंके ।


एक-दूसरे की तरफ देखा ।


देवांश ने दिव्या को रिसीवर उठाने का इशारा किया । दिव्या ने रिसीवर उठाकर कान से लगाया। दूसरी तरफ से राजदान पूछा --- “सो रही थीं?” ने


“हां ।” दिव्या ने अलसाये स्वर में कहा --- “कहिए, क्या बात है?"


“मुझे तुम्हारी जरूरत है ।”


“इस वक्त ?”


" हां ! इसी वक्त ।”


“लगता है नींद की गोलियों ने असर करना बंद कर दिया है।"


“ आ रही हो न ?”


“आती हूं।” कहने के बाद वह रिसीवर कान से हटाकर वापस क्रेडिल पर रखने ही वाली थी कि राजदान की आवाज पुनः कान में पड़ी --- “छोटे को भी ले जाना।”


कांप सी उठी दिव्या ।


क्या उसे मालूम है देवांश यहीं है?


मुंह से केवल इतना ही निकल सका --- “द - देवांश को ?”


“हां । तुमसे पहले उससे ही सम्पर्क स्थापित करने की कोशिश कर रहा था। उसके कमरे में लगातार बैल जा रही है । पर उठा नहीं रहा । बहुत ही पक्की नींद में सोया लगता है पट्ठा ।”


“म - मगर ।” उसने देवांश की तरफ देखते हुए पूछा था--- "ऐसा क्या काम है जिसके लिए रात के इस वक्त हम दोनों की जरूरत है ?”


"बस यूं समझो ।” इतना कहने के बाद उसने थोड़ा विराम

दिया, फिर बोला --- “अंतिम बार जरूरत है तुम दोनों की। आज रात के बाद फिर कभी परेशान नहीं करूंगा ।”


मन ही मन बल्लियों उछलती दिव्या ने अपने लहजे में शिकायत भरते हुए कहा---' -“कैसी बातें कर रहे हैं आप? कितनी बार कहा है --- ऐसी बातें मत किया कीजिए ।”


“छोटे को लेकर आ रही हो न?”


" पांच मिनट में हाजिर होती हूं ।” कहने के बाद रिसीवर हूं लगभग पटक दिया उसने । बड़बड़ाई - - - 'पता नहीं मरने से पहले कितने ड्रामे करेगा कम्बख्त ?”


“क्या हुआ?” देवांश ने पूछा ।


“कपड़े पहनो । वह बुला रहा है ।” कहने के बाद वह अपने नंगे जिस्म की परवाह किये बगैर कम्बल से निकली और बैड के चारों तरफ फर्श पर छितराये पड़े कपड़े उठा-उठाकर पहनने लगी ।


कपड़े पहनने के दरम्यान उसने राजदान से हुई बातें विस्तार से बता दीं । अण्डरवियर और बनियान के ऊपर नाइट गाऊन डालते देवांश ने कहा --- “ बातों से लगता है वह घड़ी आ पहुंची है, जिसका हमें इंतजार था मगर, यह बात समझ में नहीं आई, हमें क्यों बुला रहा है वह ?”


“कहा तो है।” नाइटी पहनती दिव्या के चेहरे पर झुंझलाहट के भाव थे --- “चुपचाप मर भी नहीं सकता कम्बख्त । देख लेना,


जरूर कोई नाटक करेगा।”


“मतलब तो यही है दोनों को बुलाने का ।” देवांश ने नाइट


गाऊन की डोरी बांध ली ।


दिव्या ने कहा --- "चलो।”


“यूं!” देवांश उसकी तरफ देखकर मुस्कराया था ---"यूं चलोगी तुम ?”


दिव्या ने अपने लिबास पर ध्यान दिया । हल्के आसमानी कलर की, बगैर बाजू वाली नाइटी इतनी झीनी थी कि वक्षस्थल पर कसी ब्रा और गुप्तांग को ढके पेन्टी साफ नजर आ रही थी। उसके जिस्म का रसास्वादन करते देवांश ने कहा---“अगर उसने देख लिया तुम इस लिबास में मुझे जगाने गई थीं तो जल-भुनकर राख हो जायेगा बेचारा । अंतिम समय पर उसे यह 'शॉक' देना किसी भी तरह जायज नहीं ठहराया जा सकता।”


दिव्या ने बगैर कुछ कहे कवर्ड से निकालकर रेशमी कपड़े का ऐसा गाऊन पहन लिया जिसने उसकी सारी नग्नता ढांप ली। गाऊन फुल बाजू का था । गिरेहबान के बटन बंद करती दरवाजे की तरफ बढ़ गई । यह सवाल दोनों को मंथ रहा था---उसने उन्हें बुलाया क्यों है।


मरना भी चाहता है तो क्या उनके सामने ?


आखिर क्या है उसके मन में ?


***


राजदान के कमरे का दरवाजा उन्होंने कुछ ऐसी हड़बड़ाहट का प्रदर्शन करते हुए खोला जैसे उसके बुलावे पर लपक-झपककर आये हों परन्तु... दरवाजा खोलते ही चौंक जाना पड़ा।


——— कमरा सिगार के धुएं से भरा पड़ा था। सारी लाइटें ऑन थीं। इतना ज्यादा प्रकाश था वहां कि कालीन पर पड़ी सुई को भी दूर से देखा जा सकता था। सोफे पर बैठा था वह । जिस्म पर था --- काली- सफेद पट्टियों वाला उसका पसंदीदा गाऊन । तरोताजा था वह । देखने ही से लगता था - - - कुछ ही देर पहले नहाया है। शेव भी बनाई थी उसने | सिगार के धुएं की बदबू के बीच आफ्टर शेव लोशन की भीनी-भीनी खुश्बू फैली हुई थी । अंगुलियों के बीच फंसा अभी-भी एक सिगार सुलग रहा था । चेहरे पर वेदना सी थी --- चौंकाने वाली बात थी उसके सामने पड़ी सेन्टर टेबल पर व्हिस्की की बोतल, सोडे की बोतलें, आईस बैंकिट, काजू और बादाम की प्लेटें तथा एक ऐसा गिलास जिसमें आधा पैग अभी-भी था | कांच के बाकी दो गिलास खाली थे, वे उल्टे रखे हुए थें ।


उस दृश्य को देखकर दिव्या और देवांश ऐसे हकबकाये कि काफी देर तक मुंह से आवाज न निकल सकी। राजदान ने ही पूछा उनसे --- “पियोगे?”


“अ - आप !” देवांश के मुंह से निकला --- “भैया, आप व्हिस्की पी रहे हैं?”


“बुराई है कुछ ?” उसने हल्के सुरूर में झूमते हुए कहा था।


“ह - हम पहली बार देख रहे हैं।” दिव्या ने खुद को संयत रखने की भरपूर चेष्टा की थी ।


राजदान ने कहा --- “ आखिरी बार भी।”


“क्या मतलब ?”


“बेकार के शब्द मत बोलो। मतलब अच्छी तरह समझ में आ रहा है। ‘मरने' की बात कर रहा हूं मैं । पहली और आखिरी बार पी रहा हूं यह लाजवाब चीज । यह सोचकर कि जब ऊपर पहुंचूं और इन्द्रदेव पूछें --- 'मेरी प्रिय चीज कभी पी या नहीं?’ तो शर्म से आंखें न झुक सकें मेरी ।”


" बड़ी अजीब-अजीब बातें कर रहे हैं आप?”


“हां । कर तो रहा हूं | महसूस तो मुझे भी हो रहा है कुछ अजीब बातें कर रहा हूं। अब इसी को लो न--- जब कोई कमरे में आता है तो मेजबान उससे बैठने के लिए कहता है। मगर मैंने नहीं कहा | सीधे-सीधे यही पूछ लिया---‘पियोगे?’... वाकई अजीब बात हुई ।” कहने के बाद


विचित्र ढंग से ठहाका लगाकर हंसने लगा वह । ठहाके के

साथ कुछ ऐसी आज निकल रही थी मुंह से कि दिव्या और देवांश ने अपने जिस्मों में थरथराहट सी महसूस की। ने कोशिश के बावजूद वो कुछ बोल नहीं सके। हंसने के बाद राजदान ने कहा --- “खैर ! जवाब नहीं दिया तुमने।...पियोगे?”


देवांश ने थोड़े नाराजगी भरे स्वर में कहा --- “आप मुझे नशे में लगते हैं।”


“यानी कामयाब हो गया पीना ? आदमी इसे पिये और नशे में न लगे । ये भी कोई बात हुई ?”


“मगर क्यों?” देवांश गुर्राया--- "क्यों पी रहे हैं आप ?”


“पीनी पड़ी छोटे | क्या करता? जो कुछ करने वाला हूं, कई रातों से करने की कोशिश कर रहा था मगर हौसला नहीं जुटा सका । किसी से सुना था --- हौसला -- हौसला जुटाने की यह सबसे उत्तम दवा है। और सच पाया --- देख ! मैं पूरा हौसला महसूस कर रहा हूं खुद में विश्वास है मेरे अंदर, वो कर सकूंगा जो करना चाहता हूं।" ।


“क्या करना चाहते हैं आप ?”


“ ध्यान से देख मुझे । अभी-अभी नहाया हूं । शेव बनाई है। वे कपड़े पहने हैं जो मुझे सबसे ज्यादा पसंद हैं। क्या मुझे देखकर तुझे उस बकरे की याद नहीं आ रही जिसे ईद के दिन हलाल किया जाता है ? इसी तरह नहलाया-धुलाया जाता है उसे ।.. और उस बकरे को ही क्यों ? हमारे धर्म में तो अंतिम संस्कार से पहले आदमी को भी नहलाया जाता है । इसीलिए नहाया हूं। ताकि तुम्हें बाद में जहमत न उठानी पड़े । उस रात भी इसीलिए नहा रहा था लेकिन तुम टपक पड़े । आज मैंने खुद बुलाया है। जानते हो क्यों? क्योंकि मैं जानता हूं --- कोशिश के बावजूद आज तुम मुझे बचा नहीं सकते । आज तो मरकर ही रहूंगा मैं खुद करूंगा अपना कत्ल ।”


“क्या आपने हमें यही बकवास सुनाने के लिए बुलाया था ?”


“बकवास !” एक - एक शब्द चबाया राजदान ने --- "वाह छोटे ! वाह! बगैर पिये बड़ा हौसला पैदा हो गया यार तुझमें तो ! मेरी बात को --- अपने बड़े भाई की बात तो बकवास कहने लगा?”


“आप जो कर रहे हैं, वह बकवास नहीं तो और क्या है ?”


“जब तू कह रहा है तो ठीक ही कह रहा होगा । गलत तो तू कभी कह ही नहीं सकता । मान लेता हूं--- यकीनन बकवास ही कर रहा होऊंगा मैं ।”


“प- प्लीज ! समझने की कोशिश कीजिए ।” दिव्या ने बात को संभालने की गर्ज से कहा--- "इस वक्त आप जो कुछ बोल रहे हैं, आप नहीं शराब बोल रही है । "


“करेक्ट!... बिल्कुल करेक्ट !... और इसीलिए वह बकवास है। क्यों छोटे?”


देवांश ने नाराजगी के उसी आलम में कहा --- “मैं केवल यह जानना चाहता हूं, आपने हमें बुलाया क्यों है ?”


“बहुत याद आ रही थी तेरी । बल्कि तुम दोनों की ।” भावुक स्वर में कहने के बाद उसने गिलास उठाया और पक्के शराबी की तरह एक ही झटके में पीने के बाद वापस मेज पर पटक दिया । सिगार में जोरदार कश लगाया । उस वक्त उसके मुंह से निकला गाढ़ा धुवां छोटे-मोटे बादल की तरह नशे के कारण तमतमा रहे चेहरे को ढके हुए था जब उसने कहना शुरू किया --- “तुम्हें याद है दिव्या, कितना प्यार किया है मैंने तुम्हें ? अनाथ आश्रम में पली-बढ़ी थीं तुम । उन अभागे बच्चों में से एक थीं जिनके मां-बाप का पता नहीं होता । उस वक्त 'राजदान एसोसियेट्स' अपने शबाब पर थी । एक से एक बड़ा सेठ अपनी लड़की का रिश्ता करने को तैयार था मुझसे । परन्तु मैंने सोचा --- मेरे लिए वह लड़की ठीक रहेगी जिसने बचपन से अभाव देखे हों। अपनों का प्यार न पा सकी हो । बहरहाल, मैं खुद भी तो ऐसा ही था । सो, इस बहाने एक और जिन्दगी को संवारने का ख्वाब देखा था मैंने। फिर उसे पूरा भी किया । अनाथ आश्रम की एक लड़की को इस महल की रानी बना दिया। गहनों से लाद दिया। जिन्दगी का कोई सुख-चैन ऐसा नहीं था जो पैसे से खरीदा जा सकता था और तुम्हें हासिल नहीं था । परन्तु इस वक्त मैं उस सुख की नहीं बल्कि उस सबसे बड़े, उस सुख की बात कर रहा हूं जो मैंने तुम्हें अपने दिल की पटरानी बनाकर दिया था । बोलो... यह सुख मैंने तुम्हें दिया या नहीं?”


“मेरी समझ में नहीं आ रहा, आप कहना क्या चाहते हैं?”


“जवाब तो दो, मैंने तुम्हें अपने दिल की पटरानी बनाकर रखा या नहीं?”


“इससे कब इंकार किया मैंने?”


“क्या इससे ज्यादा भी एक लड़की को कुछ चाहिए?”


“नहीं।”


“कितना प्यार किया मैंने तुम्हें ?”


दिव्या चुप रही।


“जवाब दो मेरी देवी ।”


“बेइन्तिहा ।”


“इतना ज्यादा... इतना कि कनाडा से लौटते ही मैंने तुम्हें अपने एड्स के बारे में बता दिया । केवल इसीलिए क्योंकि ये जानलेवा बीमारी मैं तुममें प्रविष्ट करनी नहीं चाहता था । चाहता तो तुम्हें भी उसी नर्क में घसीट सकता था जिसमें खुद गिर चुका था मगर नहीं - -- मैंने ऐसा नहीं किया । यह थी मेरे प्यार की पराकाष्ठा । मैं तुम्हें दुनिया के हर पति से ज्यादा प्यार करने का दावा तो नहीं करता मगर यह दावा जरूर कर सकता हूं कि तुम्हें मैंने अपने जिस्म की आत्मा बना लिया था। वह, जो अगर जिस्म से जुदा हो जाये तो जिस्म निर्जीव हो जाता है, सड़ने लगता है। किसी काम का नहीं रहता ।” .


“समझ में नहीं आ रहा भैया, ये बातें क्यों छेड़ रहे हैं आप?”


“ नहीं आयेगा छोटे । फिलहाल तेरी समझ में इन बातों का मतलब इसलिए नहीं आयेगा क्योंकि तू मौत की दहलीज पर नहीं खड़ा है। मरते हुए आदमी को वह सब याद आता ही है जो उसने किसी के लिए किया हो या किसी ने उसके लिए किया हो ।” लम्बी सांस लेने के बाद वह कहता चला गया "अब खुद ही को ले। मां बाप नहीं रहे तो में तेरी मां भी बना, बाप भी बना । मैंने जो भी किया, वो सब मेरा एहसान नहीं है तुझं पर । वो सब तो तेरे प्रति अपने प्यार की खातिर किया मैंने और... एक पराकाष्ठा इस प्यार की भी थी । गवाह दिव्या खुद है। तेरी खातिर कभी बाप नहीं बना । मैं। मां नहीं बनने दिया दिव्या को । अपने प्यार का इससे । बड़ा सुबूत एक बड़ा भाई छोटे भाई को और क्या दे सकता है?"


“सुबूत की जरूरत उसे होती है भैया जो मान न रहा हो । मैंने तो हमेशा दिल से माना है-- दुनिया का कोई बड़ा भाई छोटे भाई को उतना प्यार नहीं दे सकता जितना आपने मुझे दिया है।”


दांत भींचे राजदान ने झटके से एक सोडा खोला ।


रात के सन्नाटे में वह आवाज ऐसी गूंजी जैसे गोली चली हो ।


बोतल से थोड़ी व्हिस्की गिलास में डाली । सोडा मिलाया । बर्फ डाली और एक घूंट पीने के बाद कड़वा सा मुंह बनाया । बोला---“यानी तुम दोनों मानते हो --मैंने जो कहा, सच कहा! कहीं कोई झूठ नहीं है उसमें?”


“पता नहीं आप यह सब हमारे मुंह से कुबूल कराकर क्या कहना चाहते हैं?”


“मैंने किया है और तुम्हें कुबूल करते भी कष्ट हो रहा है। हां तो कह मेरे बच्चे । हां तो कह । सुकून मिलेगा मुझे । ”


“ह- हां।”


“तो फिर वो !” कहते वक्त राजदान की आंखों के सामने वह दृश्य चकरा उठा जिसे उसने केवल एक पल के लिए देखा था---“वो पत्थर के पीछे वाला दृश्य क्यों दिखाया तुमने मुझे?"


पलक झपकते ही मानो बिजली गिर गई दोनों के दिलो-दिमाग पर ।


सिरहन सी दौड़ गई थी जिस्मों में ।


हक्के-बक्के से खड़े राजदान को देखते रह गये वे ।


ठीक से समझ नहीं पा रहे थे क्या राजदान वही कहना चाहता है जो वे समझ रहे थे? दिव्या से पहले देवांश ने अपने होशो-हवास समेटे । बोला --- “बात समझ में नहीं आई । कौन से दृश्य की...


"प-प्लीज!... प्लीज छोटे ।” राजदान दांत भींचकर उसकी बान काट उठा। साफ नजर आ रहा था वह जबरदस्ती खुद को रोने से रोकने की कोशिश कर रहा है ---"झूठ बोलने की कोशिश करके जख्मों पर नमक मत छिड़क मेरे । किचन लॉन में मैंने तुम्हें एक-दूसरे से जाम टकराते देखा है। एक भी कपड़ा नहीं था तुममें से किसी के जिस्म पर। ऐसा दृश्य था वह जिसे देखने से बेहतर मेरे जैसे शख्स को अपनी आंखें फोड़ लेनी चाहिए ।.... पता नहीं ये कान आज भी बाहरी आवाजों को सुनने की क्षमता कैसे रखते हैं जिन्होंने तुम्हें मेरी हत्या का प्लान बनाते सुना है । "


राजदान के उपरोक्त शब्दों के बाद जैसे किस्सा ही खत्म हो गया। कम से कम दिव्या और देवांश के पास तो कहने के लिए कुछ रह नहीं गया था । दिव्या यूं कांप रही थी जैसे इस वक्त भी राजदान के सामने नंगी खड़ी हो । कपड़े का एक रेशा भी न हो जिस्म पर ।


राजदान ने एक बार फिर गिलास उठाकर खाली किया। मेज पर पटका और जुनूनी अंदाज में उसी मेज पर जोर-जोर से मुक्के मारता हुआ कहता चला गया --- “क्यूं किया ? क्यूं किया? क्यूं किया ऐसा? अरे ऐसा ही करना था तो मेरी मौत के बाद कर लेते । चैन से मर तो जाने देते मुझें । कम से कम मेरी आंखों को तो न दिखाते वह मंजर ?” कहने के बाद वह सचमुच फूट-फूटकर रोने लगा था । सोफे पर बैठे ही वैठे झुककर उसने अपना चेहरा सेन्टर टेबल के टॉप में छुपा लिया था ।


जड़वत् से खड़े रह गये दिव्या और देवांश ।


न कुछ बोलते बन पड़ रहा था, न करते ।


हद तो ये है कि दूसरे की तरफ देखने तक का मनोबल भी नहीं रह गया था उनमें ।


आंखें केवल जार-जार रो रहे राजदान पर केन्द्रित थीं ।


जी भरकर रोने के बाद उसने चेहरा ऊपर उठाया। आंसुओं से तर था वह । जर्रे - जर्रे पर केवल वेदना ही वेदना लिए उसने अपनी लाल आंखें दिव्या पर टिका दीं । बोला --- " मैंने इतना बड़ा महल बनवाया --- सिर्फ तुम्हारे लिए | परिस्तान बनवाया - - - सिर्फ तुम्हारे लिए । इस कल्पना के साथ कि मैं तुम्हारे साथ वहां सैर किया करूंगा| क्या तुम सोच सकती हो --- करोड़ों रुपये खर्च करके बनवाये गये उस झरने के नीचे तुम्हें किसी और के नीचे पड़ी सिसकारियां लेती देखकर मेरे दिल पर क्या गुजरी होगी ?”


पत्थर की मूर्ति की मानिन्द खड़ी थी दिव्या ।


“दिव्या!” बड़े ही मार्मिक स्वर में पूछा था राजदान ने --- “उन लम्हों के बीच क्या तुम्हें एक लम्हें के लिए भी यह ख्याल नहीं आया कि ऐशो-आराम का हर वह सामान जिसके बीच पड़ी तुम अपना शरीर किसी और को सौंप रही हो, उस पर उस आदमी का हक है जिसने वह सब करोड़ों रुपये खर्च करके तुम्हें मुहैया कराया है ?”


“बस भैया । बस ।” देवांश कह उठा--- "बहुत हो चुका । अब आप और ज्यादा जलील नहीं करेंगे भाभी को।” ...


“भ-भाभी?” कहकर बड़े ही वेदनायुक्त अंदाज में हंसा राजदान। जैसे पागल हंसा हो । बोला --- “भाभी क्यों कहता है गधे? डार्लिंग कह।... जानेमन बोल इसे । जब सारे पर्दे सरक ही गये हैं तो अब काहे की शर्म रह गयी?.... आ!” कहने के साथ उसने उल्टे रखे कांच के गिलास सीधे किये। उनमें व्हिस्की डालता हुआ बोला- - - “इसीलिए तो बुलाया था तुम्हें । पहले ही से गिलास मंगाकर रखे हैं। वैसे भी, पीने का मजा अकेले कहां है? तुम दोनों के साथ 'चियर्स' करूंगा मैं ।”


“बस मिस्टर राजदान ।... बस! बहुत जलील कर चुके हमें ।” एकाएक दिव्या जहरीली नागिन सी नजर आने लगी---“अब अगर एक लफ्ज भी मुंह से निकला तो अच्छा नहीं होगा।”


“क्या अच्छा नहीं होगा?... जितना दिखा चुकी हो, उससे ज्यादा और क्या दिखा. सकती हो मुझे ? ”