“तुम बेकार की बातें सोचकर अपना दिमाग खराब कर रही हो दिव्या ।” देवांश ने उसके नग्न जिस्म को बांहों में भरकर खुद से सटाते हुए कहा --- “साथ ही मेरा भी मूड चौपट किये दे रही हो। आखिर डाऊट क्या है तुम्हें, क्यों परेशान हो ?”


“अचानक इतना सक्रिय क्यों हो उठा वह ?” देवांश की बांहों में होने के बावजूद वह अपने जिस्म में कोई उत्तेजना महसूस नहीं कर रही थी --- “वकीलचंद को भी मैंने समरपाल की तरह लॉबी में रोका था । जानने की कोशिश की उनके बीच क्या बातें हुईं ? मेरे हर सवाल के जवाब में एक ही बात कहता रहा वह। यह कि - - - बहुत भावुक हो रहा था राजदान | अपनी जिन्दगी के प्रति निराश नजर आ रहा था । कह रहा था - - - बहुत याद आ रही थी तेरी, अखिलेश और अवतार की । हो सके तो पता लगा वे कहां हैं । मैसेज दे उन्हें, मरने से पहले एक बार उनसे मिलना चाहता हूं।”


“इसमें क्या अस्वाभाविक लग रहा है तुम्हें ? जो शख्स मौत के इतने करीब हो, उसके जहन में पुरानी यादें कौंधती ही हैं । इन बातों से तो एक बार फिर यही साबित होता है कि आत्महत्या का उसका इरादा पक्का है । "


“मुझे लगता है - - - वकीलचंद ने मुझे अंदर हुईं असली बातें नहीं बताईं।”


“शक क्या है तुम्हें ?”


“कहीं वह सबकुछ बबलू के नाम तो नहीं करने वाला है ?”


“क्यों करेगा ऐसा ?”


दिव्या को जवाब नहीं सूझा ।


“जवाब दो दिव्या! तुम्हारे ख्याल से वह ऐसा क्यों करेगा? ऐसी कौन सी नई बात हो गयी है जो उसे उसके लेटर में लिखी गई बातों से हटा सके ?”


“कोई तर्कसंगत जवाब नहीं है मेरे पास । जाने क्यों, बस डर लग रहा है।”


“बेवजह परेशान मत हो । वह वैसा कुछ नहीं करने वाला। और अब.... मैं तुम्हारे मुंह से इस बारे में एक भी लफ्ज सुनने के मूड में नहीं हूं।” कहने के साथ उसने अपने होंठ दिव्या के होंठों पर रख दिए थे । 


***


अगले दिन, सुबह के ग्यारह बजे राजदान के कमरे में दाखिल होते ही वह चौंक पड़ी ।


वह कहीं बाहर जाने के लिए तैयार हो रहा था । मुंह से निकला --- “आप कहीं जा रहे हैं?”


"हां!"


“कहां?”


“एक घण्टे में लौट आऊंगा ।”


“ मैंने पूछा - - - आप जा कहां रहे हैं?”


“सॉरी दिव्या । नहीं बता सकता।”


“मगर क्यों?” दिव्या फट पड़ी --- “आखिर हो क्या गया आपको? क्यों आजकल इतनी बातें छुपा रहे हैं मुझसे ? कोई आता है तो उसी के सामने अपमानित कर डालते हैं।”


“अ - अपमानित ?” राजदान उसकी तरफ पलटा --- “मैं अपमानित करता हूं तुम्हें ?"


“बाहरी लोगों के सामने मुझे कमरे से बाहर जाने के लिए कहना क्या अपमानित करना नहीं है? पहले ऐसा केवल

बबलू के सामने करते थे। अब तो सबके सामने करने लगे हैं।"


“प्लीज ! ... प्लीज दिव्या ।” बहुत ही शांत और वेदनायुक्त स्वर में कहा था राजदान ने --- “इतनी नफरत से और... इतने ऊंचे स्वर में बात मत करो मुझसे । ज्यादा दिन नहीं हूं मैं तुम्हारी जिन्दगी में । जहां तक तुम्हारे अपमान की बात है, इस दिशा में तो मैं सोच तक नहीं सकता। समरपाल से बिजनेस की बातें करनी थीं और वकीलचंद के साथ बचपन की यादों में खो जाना चाहता था कुछ देर । और अब... जहां जा रहा हूं, तुम्हीं लोगों के फायदे के लिए जा रहा हूं।"


“हमें नहीं कराना अपना कोई फायदा । आप कहीं नहीं जायेंगे।”


मगर, लाख कोशिशों के बावजूद वह राजदान को रोक न सकी। जब उसने कहा---'कल से पहले तक आप खुद नहीं चाहते थे किसी को आपकी हालत के बारे में पता लगे लेकिन आज बाहर जा रहे हैं। जो लोग आपको देखेंगे, क्या चौंकेंगे नहीं? क्या अब आपको डर नहीं है कि मार्केट में बीमारी की खबर फैली तो फाइनेंसर्स देवांश के पीछे पड़ जायेंगे?’


राजदान ने इस बार भी बहुत ही शांत स्वर में जवाब दिया था--- फिक्र मत करो, ऐसा कोई आदमी मुझे नहीं देख सकेगा जो मार्केट में खबर फैला सके ।'


जब किसी भी प्रयास से वह रुकने के लिए तैयार नहीं हुआ तो दिव्या ने कहा - - -“ठीक है, मैं भी साथ चलूंगी।"


राजदान ने उसकी यह बात भी नहीं मानी।


वह सिर पटककर रह गई, मगर राजदान अकेला ही गया।


हां, ड्राइवर के रूप में बन्दूकवाला जरूर साथ था।


सचमुच एक घण्टे के अंदर लौट आया था वह । मगर एक घण्टा दिव्या पर पूरे युग के समान गुजरा था । जाने क्या-क्या शंकाएं दिमाग को कचोटती रही थीं । वह वापस आया तो चुपचाप अपने कमरे में चला गया । इच्छा तो दिव्या की जाने क्या-क्या पूछने की थी मगर साहस न जुटा सकी । शायद इसलिए क्योंकि जानती थी --- वह उसके किसी सवाल का जवाब नहीं देगा | बन्दूकवाला ही एकमात्र सहारा नजर आया उसे। उसे लॉबी में बुलाया| पूछा---'कहां ले गया था साहव को?' बन्दूकवाला ने कहा--- ने कहा---'मुझे तो वे चौपाटी तक ले गये थे। वहां पहुंचकर गाड़ी रोकने के लिए कहा, मैंने रोक दी। वे उतरे । एक टैक्सी में बैठे और मुझे वहीं रुकने के लिए कहकर कहीं चले गये । करीब आधे घण्टे बाद उसी टैक्सी में वापस आये। टैक्सी वाले का पेमेण्ट किया और गाड़ी में बैठते हुए बोले- -'विला चलो। बस मैं वापस ले आया ।' ———


बन्दूकवाला का बयान सुनकर तो मारे सस्पैंस के दिव्या का और बुरा हाल हो गया।


साफ जाहिर था --- बन्दूकवाला से भी पर्दा रखा था उसने।


क्यों?


वह पहले ही समझ गया होगा मैं बन्दूकवाला से जरूर पूछताछ करूंगी।


इतनी सतर्कता ! इतना छुपाव!


आखिर किसलिए?


क्या है उसकी गतिविधियों का रहस्य ?


सैकड़ों सवाल दिव्या के मस्तिष्क में 'मंथते' रहे और शाम के सात बजे जब देवांश आया तो वे सभी सवाल उस पर उड़ेल दिए। कहा---“कुछ भी कहो देव, मुझे कुछ गड़बड़ लग रही है। आखिर इतनी पर्देदारी रखकर कहां गया था वह ?”


सबकुछ सुनकर देवांश चिंतित हो उठा। बोला ---“लगता है, बात करनी ही पड़ेगी उससे । पता तो लगना ही चाहिए वह किस चक्कर में है? वैसे भी अट्ठाइस तारीख गुजर रही है । केवल कल और परसों का दिन बाकी बचा है । इरादे तो पता लगें उसके ।”


“यही चाहती हूं मैं, उससे बातें करो । ”


तभी, कमरे के ढुके हुए दरवाजे पर दस्तक हुई। कमरा देवांश का था। उसने ऊंची आवाज में कहा --- "कौन है ?” बाहर से आफताब की आवाज आई। देवांश ने 'कम इन' कहा तो आफताब दरवाजे को थोड़ा खोलते हुए बोला---“बड़े मालिक आपको बुला रहे हैं ।”


पांच मिनट बाद देवांश और दिव्या राजदान के कमरे में दाखिल हुए। उस वक्त वह एक सोफा चेयर पर बैठा सिगार फूंक रहा था। बोला-~-“अच्छा हुआ दिव्या तुम भी आ गईं । मैं तुम दोनों से बात करनी चाहता था - - - बैठो!” 


दोनों खामोशी के साथ उसके सामने वाले सोफे पर बैठ गये।


दिव्या चाहती थी देवांश जल्दी से जल्दी बात छेड़े ताकि उन सवालों के जवाब मिलें जो ग्यारह बजे से दिमाग में घुमड़ रहे थे। जबकि देवांश चाहता था पहले राजदान बात छेड़े ताकि पता लग सके उसने क्यों बुलाया है ? लम्बी खामोशी के बाद राजदान ने अपने जिस्म पर मौजूद गाऊन की जेब में हाथ डाला और एक लिफाफा निकालकर सेन्टर टेबल पर डालता बोला--- "इसे खोल।”


“क्या है इसमें?” देवांश ने पूछा ।


“खोल तो सही । ”


देवांश ने लिफाफा उठाया । खोला । उसमें प्रसिद्ध कम्पनियों के कुछ शेयर्स थे । देवांश अभी उन्हें देख ही रहा था कि राजदान ने कहा---“विभिन्न कम्पनियों के मिलाकर कुल पचास लाख के शेयर्स हैं। सब मेरे नाम थे। मैंने सेल लेटर्स पर साइन कर दिए हैं। कल ब्रोकर यहां चले जाना, वह पचास लाख दे देगा ।”


रोमांचित हो उठे दिव्या और देवांश ।


वे क्या सोच रहे थे, भेद क्या खुला ।


पूरे पचास लाख पड़े मिल रहे थे उन्हें । एक बार दोनों की नजरें मिलीं, फिर देवांश ने राजदान से पूछा--- “अचानक ये कहां से आ गये भैया ?”


“मेरे बैंक लॉकर में पड़े थे । वहीं से लाया हूं।” राजदान कहता चला गया---“तू तो आजकल कुछ बताता नहीं । कल समरपाल को बुलाया था, उसी ने बताया--- रामभाई शाह ने बहुत परेशान कर रखा है तुझे । उसके हाथ मैंने एक लेटर भी भिजवाया है शाह को । उसमें यही लिखा है कि बहुत जल्द ही देवांश तुम्हें पचास लाख पहुंचायेगा। कल तू यह काम कर देगा। ब्रोकर से रुपये लेकर सीधे उसे पहुंचाने हैं।"


हैरान दिव्या ने कहा --- “तो क्या आज दिन में आप बैंक ही गये थे?”


“हां ।” संक्षिप्त सा उत्तर देकर उसने सिगार में कश लगाया ।


देवांश का जी चाहा, दिव्या से कहे--- 'देखा, मैं न कहता था इसके दिमाग में हमारे खिलाफ कोई बात हो ही नहीं सकती। यह जब भी, जो भी सोचेगा --- हमारे फेवर में होगा। मगर कम से कम इस वक्त वह यह सब नहीं कह सकता था ---उधर, दिव्या भी तनावमुक्त नजर आने लगी। सभी शंकाएं धराशाही हो गई थीं ।


राजदान ने कहा---“दिव्या ने तुझे बताया होगा छोटे। काफी रोकने की कोशिश की थी इसने मुझे । कहने लगी मैं बाहर जाऊंगा, किसी ने देख लिया तो मार्केट में बीमारी की खबर फैलेगी। बात हालांकि इसकी भी ठीक थी परन्तु मेरा ही जाना मजबूरी थी। बहरहाल, किसी का लॉकर कोई और तो खोल नहीं सकता न, जाना तो मुझे ही पड़ता।”


“मैंने तो साथ चलने के लिए भी कहा था | "


“तब तक मुझे ऐसा लगने लगा था जैसे तुम मेरे साथ सुरक्षा हेतु नहीं बल्कि मुझे वॉच करने के लिए जाना चाहती हो ।” राजदान सपाट लहजे में कहता चला गया--- "जैसे कुछ शक कर रही हो मुझ पर | "


“क- क्या बात कर रहे हैं आप?” दिव्या हकला गई --- “भला आप पर क्या शक करूंगी मैं?”


“ये तो मैं भी नहीं जानता, मगर ये तय है दिव्या, तुम मेरी जासूसी करा रही थीं ।”


“अ - आप बेबुनियाद आरोप लगा रहे हैं मुझ पर ।”


“आरोप झूठा हो सकता है, बेबुनियाद नहीं ।”


"क्या मतलब ?”


“आफताब जैसे नौकरों से आजकल तुम जासूसी का काम ले रही हो ।”


दिव्या के मुंह से बोल न फूट सका । जुबान मानो तालू से जा चिपकी थी ।


“शायद पहले भी कई बार कहा है मैंने । समरपाल मेरे प्रति बेहद ईमानदार है। कल ऑफिस पहुंचते ही उसने वापस फोन किया। उस सबके बारे में बताया जो पूछताछ तुमने लॉबी में उससे की थी | तुम्हें पता था मैंने उसे कुछ लिखकर दिया है। जाहिर है---यह तुमने आफताब से जाना होगा । उसके बाद आज सुबह --- मुझे तैयार होता देखते ही मानो तुम पर बिजली सी गिर पड़ी। हालांकि मुझे बाहर जाता देखकर तुम्हारा चौंकना, रोकने की कोशिश करना, मेरे न मानने पर साथ चलने की जिद करना, आदि सब स्वाभाविक था परन्तु जाने क्यों, तुम्हारे अंदाज और लहजे से लगा --- तुम वह सब जाने किस शक के दायरे में फंसी कर रही हो? ऐसा महसूस न करता तो सीधे स्वभाव बताने वाला था कि लॉकर ऑपरेट करने जा रहा हूं, लेकिन जब 'वैसा' महसूस किया तो सोचा क्यों न तुम्हें थोड़ा छकाया ही जाये । इसलिए तुम्हें बगैर बताये गया । अकेला गया और उसके बाद - - - बन्दूकवाला तक को भनक नहीं लगने दी मैं कहां गया हूं। जानता था समरपाल की तरह तुम उससे भी पूछताछ करोगी । वही हुआ जो मेरा उद्देश्य था --- -- तुम सारे दिन इस सस्पैंस में फंसी रहीं कि मैं आखिर गया कहां तुम था?”


“अगर मैं कहूं, यह सब करके आपने मुझ पर ज्यादती की है ?"


“वह कैसे?”


“मैंने आफताब या समरपाल से पूछताछ की हो अथवा आपके बाहर जाने पर एतराज किया हो, मकसद एक ही था --- आपकी सुरक्षा | आपको हर टैशन से मुक्त  रखना। पता नहीं आपको ऐसा कैसे लगा कि मैं शक कर रही हूँ। भला क्यों शक करूंगी मैं आप पर?”


“यानी जो मुझे लगा, गलत लगा?”


पूरी दृढ़ता के साथ कहा दिव्या ने-“हन्दुरेड परमेन्ट गलत लगा।”


“ऐसा है तो जो मैंने किया उसके लिए माफी चाहता हूं।" कहते वक्त राजदान के होठों पर शरारत से परिपूर्ण मुस्कान थी --- “वाकई ज्यादती हो गयी तुम्हारे साथ | "


“सचमुच भैया।" देवांश ने कहा --- “भाभी आपके व्यवहार को लेकर काफी टेंशन में थीं ।”


“चलो ।” शरारत मानो राजदान के सूखे होठों से चिपककर रह गई थी --- “जिन्दगी के इस आखिरी मोड़ पर पत्नी के...


“अगर मैं कहूं, यह सब करके आपने मुझ पर ज्यादती की है ?"


"वह कैसे?”


“मैंने आफताब या समरपाल से पूछताछ की हो अथवा आपके बाहर जाने पर एतराज किया हो, मकसद एक ही था --- आपकी सुरक्षा | आपको हर टेंशन से मुक्त रखना। पता नहीं आपको ऐसा कैसे लगा कि मैं शक कर रही हूं। भला क्या शक करूंगी मैं आप पर ?”


“ यानी जो मुझे लगा, गलत लगा ?”


पूरी दृढ़ता के साथ कहा दिव्या ने --- "हन्डरेड परसेन्ट गलत लगा।”


“ऐसा है तो जो मैंने किया उसके लिए माफी चाहता हूं ।” कहते वक्त राजदान के होठों पर शरारत से परिपूर्ण मुस्कान थी --- “वाकई ज्यादती हो गयी तुम्हारे साथ | "


“सचमुच भैया ।” देवांश ने कहा --- “भाभी आपके व्यवहार को लेकर काफी टेंशन में थीं ।”


“चलो ।” शरारत मानो राजदान के सूखे होठों से चिपककर रह गई थी - - - “जिन्दगी के इस आखिरी मोड़ पर पत्नी के साथ थोड़ी चुहल ही सही ।"


“आपकी चुहल हो गई, यहां सारे दिन मेरी जान निकली रही।”


“ये शेयर्स बीमा पॉलिसी की तरह मेरी आखिरी पूंजी थी । ” दिव्या के सेन्टेंस पर कोई ध्यान न देकर राजदान कहता चला गया - - - “सोचा था, मेरी मौत के बाद जब लाकर ——— खुलेगा तो तुम्हें मिल जायेंगे | कुछ और बल मिलेगा तुम्हें मगर, समरपाल की बातें सुनकर लगा--- तुम्हें फौरन इनकी जरूरत है। इसलिए जाना पड़ा । "


एकाएक देवांश ने कहा --- “आपके पास एक रिवाल्वर भी तो था भैया?”


“रिवाल्वर?”


“लाइसेंस भी है उसका।”


“हां | है तो सही । मगर तुझे अचानक उसकी याद कैसे आ गई?”


" है कहां वह ?”


“पूछने का कारण बता ।”


“वह मुझे चाहिए।"


“ रिवॉल्वर ?... तुझे? तुझे क्यों चाहिए वह ? किसी का कत्ल करने के चक्कर में है क्या?”


सकपका सा गया देवांश । संभलकर बोला --- “आजकल अखबार नहीं पढ़ रहे न आप | पिछले हफ्ते तीन व्यापारी फिरौती के लिए किडनैप हो चुके हैं। हड़कम्प सा मचा हुआ है शहर में। व्यापारियों में कुछ ज्यादा ही खलबली है। सोच रहा हूं, उसे साथ लेकर घर से निकलना सुरक्षित होगा ।”


“फिक्र मत कर। फिलहाल तुझे कोई किडनैप नहीं करेगा।”


“भला यह बात इतने विश्वास के साथ कैसे कही जा सकती है?"


- “फिरौती के लिए किडनैप करने वालों का नेटवर्क मेरे तेरे नेटवर्क से बहुत ज्यादा आगे होता है । किडनैप करने से पहले वे अच्छी तरह पता लगा लेते हैं, किसकी क्या हैसियत है और फिरौती में क्या मिल सकता है ? जब वे तेरे बारे में पता लगाने निकलेंगे तो पता लगेगा --- तू खुद ही कर्जे में डूबा पड़ा है अतः ऐसे


लोगों से दूर-दूर तक खतरा नहीं है तुझे । ”


“फिर भी, रिवाल्वर है कहां?”


“ये रहा । ” कहने के साथ राजदान ने अपनी जेब से रिवाल्वर निकाल लिया । वह 'स्मिथ एण्ड वेसन' कम्पनी का एक भारी रिवाल्वर था ।


उसे देखते ही दिव्या के संपूर्ण जिस्म में झुरझुरी सी दौड़ गई।


देवांश को ऐसा लगा जैसे उसकी रीढ़ की हड्डी पर पसीना बह रहा है। बहुत ही मुश्किल से अपने लहजे को संयत रखे बोला---“आप इसे जेब में रखे घूम रहे हैं?”


“लॉकर में था यह भी । शेयर्स के साथ ही निकाल लाया । अभी कहीं रखने का मौका ही नहीं था ।” कहने के बाद उसने रिवाल्वर वापस जेब में रख लिया था ।


“दिखाइए तो सही ।” देवांश ने कहा ।


“कहा न, तुझे इसकी जरूरत नहीं है।” कहने के साथ राजदान ने टॉपिक चेंज कर दिया ---"एक और बात है जो मैं तुमसे करना चाहता हूं।"


“बोलिए।”


“बहुत पहले से महसूस कर रहा हूं मैं | तुम दोनों बबलू का मेरे पास आना-जाना पसंद नहीं करते । शायद तुम्हें डाऊट है मैं वसीयत के जरिए उसे कुछ देने वाला हूं । ”


“भैया!” अंदर ही अंदर कांपकर देवांश चीख पड़ा --- “ये क्या कह रहे हैं आप ?”


राजदान ने शांत स्वर में कहा- “पूरी बात सुन लो मेरी।” 


“हरगिज-हरगिज नहीं।” देवांश ने पुरजोर विरोध किया --- “आखिर आपने हमें समझ क्या रखा है? क्या हम इस अंदाज में सोचेंगे आपके बारे में? पहली बात - - - -- हमें ऐसा कोई डाऊट नहीं है । दूसरी बात --- अगर आप किसी को कुछ देते भी हैं तो इसका पूरा राइट है आपका । बहरहाल, जो कुछ देते भी हैं तो इसका पूरा राइट है आपको । बहरहाल, जो कुछ है, सब आप ही ने कमाया है। और फिर, क्या हमें नहीं मालूम ? आज की तारीख में है ही क्या? ये शेयर्स आपने मुझे दे ही दिए । बाकी बची बीमा पॉलिसी । हालांकि हम कभी नहीं चाहेंगे वे पांच करोड़ हमें मिलें। मगर, उनके बारे में भी आपके लेटर में जो लिखा था उससे स्पष्ट है आप क्या चाहते थे ? बचा ही क्या जिसे आप किसी और के नाम करेंगे ?”


“मुझे लगता है छोटे, जिस अंदाज में तू सोच रहा है, दिव्या उस अंदाज में नहीं सोच रही ।”


“क- क्या मतलब ?” दिव्या हकला उठी।


“तुमने वकीलचंद से जो पूछताछ की, उसका एक ही मतलब था - - - यह जानना, कहीं मैं उससे कोई वसीयत तो तैयार नहीं करा रहा हूं।” दिव्या की आंखों में आंखें डाले राजदान कहता चला गया---“बस एक ही बात कहनी चाहता हूं दिव्या, बबलू से मेरा जो रिश्ता है उसकी पवित्रता को मैं उसके नाम एक पाई भी करके खंडित नहीं कर सकता। पैसे से बहुत ऊपर है वह रिश्ता ।”


“पता क्यों नहीं आपको मेरी हर बात में 'पेंच' नजर आ रहा है।” दिव्या वेदनायुक्त स्वर में बोली --- "इस बात का अफसोस मुझे हमेशा रहेगा कि आपके अंतिम क्षणों में मैं आपका विश्वास खो बैठी ।... यह बात ठीक है मैंने वकीलचंद से यह जानना चाहा कि आप कोई वसीयत नहीं करा रहे हैं? मंशा केवल यह जानने की थी इन दिनों आप किस टेंशन से गुजर रहे हैं? इनमें यह बात कहां से आ गयी कि मुझे वसीयत में बबलू के नाम कुछ होने का शक है?” ?"


“ऐसा मुझे इसलिए लगा क्योंकि तुम लोगों ने हमेशा बबलू को पैसों का लालची समझा । यदि ऐसा नहीं है तो एक बार फिर माफी चाहता हूं।"


दिव्या के चेहरे पर ऐसे भाव उभरे जैसे अभी रो पड़ेगी । वह बगैर कुछ कहे उठी और भागती हुई कमरे से बाहर चली गई । कुछ देर खामोशी छाई रही, फिर देवांश ने कहा---“आप भाभी का दिल दुखाकर अच्छा नहीं कर रहे भैया ।”


राजदान के होठों पर जहरीली मुस्कान उभरकर विलुप्त हो गयी ।