एकान्त में दिव्या ने देवांश से कहा --- “देव, मुझे बहुत डर लग रहा है।”
“डर?” देवांश खुलकर हंसा था - - - “अब भला डर की क्या बात रह गयी ?”
“पता नहीं ।”
“ अब तो न डर की कोई बात है दिव्या, न उलझन की ।” मदमस्त हुआ देवांश कहता चला जा रहा था --- “सुसाइड नोट उसकी सोचों का आइना है। जब हम जान ही चुके हैं, वह यह सब सोच रहा है तो मैं दावे से कह सकता हूं--- हमें अपने हाथ उसके खून से रंगने की जरूरत नहीं पड़ेगी। भले ही हमने चाहे जितनी कसमें दे दी हों मगर तीस अगस्त से पहले वह हंडरेड परसेन्ट खुद को खत्म कर लेगा।”
" यानी हमारा रास्ता खुद-ब-खुद साफ कर रहा है वह ?”
“ यकीनन --- और हम बेवजह उसका मर्डर करने के प्लान में सिर खपा रहे थे ।”
“काश... हम सही समय पर उसके सामने न पड़ जाते । ”
“वाकई ।” देवांश कह उठा --- -
“पिछली रात किस्मत ने हमारा पूरा साथ नहीं दिया । वक्त से पहले उसकी लाश की तलाश में बाथरूम का दरवाजा खोल बैठे। तब भी वक्त था | सही वक्त पर अगर हम चुपचाप सरक आते तो वह अपने इरादे में कामयाब हो चुका होता । इस वक्त विला में उसके अंतिम संस्कार की तैयारियां चल रही होतीं। लोगों को हमारे चेहरों पर भले ही मातम नजर आ रहा होता लेकिन दिल जश्न मना रहे होते ।”
“ मैं तो हक्की-बक्की रह गई थी उसे देखकर ।”
“सच ! शुरू में तो मेरे भी छक्के छूट गये थे मगर होश संभालने के बाद दिमाग में एक विचार कौंधा था । यह कि --- क्यों न मैं ही आगे बढ़कर अपने हाथों से उसकी गर्दन दबा दूं? सुसाइड नोट मौजूद था ही । लाश आराम से उसके द्वारा तैयार किये गये फंदे में लटकाई जा सकती थी।"
“वाह ! ... ये तो वाकई ठीक रहता, किया क्यों नहीं?”
“सोचा --- क्यों अपने हाथ खून से रंगू ?”
“मतलब?”
"यह बात मैं उसी क्षण समझ गया था, इस वक्त भले ही वह हमारे सामने पड़ जाने के कारण नाकाम हो गया, मगर तीस अगस्त से पहले पुनः कोशिश करेगा । अतः मुझे उसकी गर्दन दबाने की जहमत उठाने की जरूरत नहीं है।"
“अगर उसने ऐसा नहीं किया तो ?”
“तो ये सुसाइड नोट है ही ।" वह राजदान के लिखे कागज को हवा में लहराता बोला --- “जो पिछली रात करने से चूक गये हैं, वह किसी भी रात किया जा सकता है। मगर मुझे पूरा विश्वास है, हमें यह जहमत उठाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। यकीनन सुसाइड करेगा वह और इस बार हम उसके प्राण निकलने से पहले सामने नहीं आयेंगे। एक-दूसरे की बांहों में समाये मौत का मंजर देखेंगे उसकी। जरूरत पड़ी तो वह सामान भी मुहैया करा देंगे जिसके इस्तेमाल से अपने नेक इरादे में कामयाब हो सके।”
दिव्या चुप रह गई ।
रुटीन को सामान्य बनाये रखने की खातिर देवांश ऑफिस चला गया ।
***
दिन के करीब बारह बजे राजदान ने दिव्या से कहा--- "कुछ देर बाद समरपाल आयेगा । उसे मेरे कमरे में भेज देना ।”
चौंकी थी दिव्या--"क-क्यों?”
“क्यों से मतलब ?”
“आपने खुद ही तो कहा था, आप किसी बाहरी व्यक्ति से नहीं मिलेंगे।” बात को संभालने की कोशिश करती दिव्या बोली --- “आपकी हालत देखकर चौंक पड़ेगा वह । समझ जायेगा आप किसी सीरियस बीमारी की चपेट में हैं... यह खबर मार्केट में फैल गई तो फाईनेंसर्स में खलबली मच जायेगी। जो लोग घुमा-फिराकर अपनी रकम मांग रहे हैं, वे अधीर होकर सीधे-सीधे देवांश पर झपट पड़ेंगे ।”
“ ऐसा कुछ नहीं होगा, समरपाल विश्वास का आदमी है ।”
दिव्या चुप रह गई । ज्यादा तर्क-वितर्क करना उसे हित में नहीं लगा था। हां, बेचैन जरूर हो उठी थी वह । 'आखिर क्यों राजदान समरपाल से मिलना चाहता है? क्या बातें करना चाहता है उससे ?'
अपने किसी सवाल का जवाब नहीं मिल सका उसे ।
समरपाल साहब करीब साढ़े बारह बजे आया । उसने
बताया ---राजदान ने फोन किया था । दिव्या की इच्छा उसे राजदान के सामने ले जाने की बिल्कुल नहीं थी परन्तु ऐसा करना पड़ा । वही हुआ जो होना था, अर्थात् राजदान पर निगाह पड़ते ही समरपाल चौंक पड़ा--- "अरे, यह आपकी क्या हालत हो गयी सर ?”
बैड पर लेटे राजदान ने मुस्कराने की चेष्टा करते हुए कहा था --- “घबराने की जरूरत नहीं है समरपाल! आराम से बैठो। मैं तुमसे कुछ बातें करनी चाहता हूं।”
सहमा सा समरपाल सोफा चेयर पर बैठ गया |
राजदान ने दिव्या से समरपाल के लिए चाय-पानी का इन्तजाम करने के लिए कहा । दिव्या को लगा वह उसे हटाना चाहता है। वह चाहती थी - - - जो बातें हों, उसके सामने हों, अतः इन्टरकॉम उठाकर नौकरों से चाय-पानी भेजने के लिए कह दिया ।
'तब' साफ ही कहा राजदान ने--- "दिव्या, मैं समरपाल से एकान्त में बातें करनी चाहता हूं।”
दिव्या बोली --- " ऐसी क्या बातें हैं जो मेरे सामने नहीं हो सकतीं?”
“बातें बिजनेस से कनेक्टिड हैं और तुम जानती हो जानती हो ---- ऐसी बातें मैंने कभी तुम्हारे सामने नहीं कीं।”
“आपको मालूम है, मैं और देवांश नहीं चाहते आप इस हालत में बिजनेस की बातों में सिर खपायें। सब कुछ संभाल तो लिया है देवांश ने, आप बेवजह...
“प्लीज दिव्या !” उसके लहजे में अजीब सी कठोरता थी - -- “बाहर जाओ!”
उसके बाद ---एक भी लफ्ज कहने का साहस न जुटा सकी वह । कमरे से बाहर जाना ही पड़ा । राजदान के व्यवहार ने उसे 'एलर्ट' सा कर दिया था । शायद इसीलिए उनके बीच होने वाली बातें सुनना चाहती थी ।
वह कमरे में बाहर निकली। कारीडोर से गुजरी परन्तु लॉबी की तरफ नहीं गई । उस गोल पिलर के पीछे जाकर खड़ी हो गई जहां से कमरे के दरवाजे पर नजर रख सकती थी । उसने दरवाजा बंद होता देखा । अन्दर से चढ़ाई गई चटकनी की आवाज तक कानों में पहुंची। इस दृश्य ने तो उसे बातें सुनने के लिए कुछ ज्यादा ही बेचैन कर डाला ।
दबे पांव कारीडोर में बढ़ी।
कमरे के बंद दरवाजे के नजदीक पहुंची ।
कान लगाकर आवाजें सुनने की कोशिश की। यहां तक कि ‘की-होल' से आंख सटाकर अन्दर का दृश्य तक देखना चाहा परन्तु पर्दे के कारण सफल नहीं हो सकी। आवाजें तो कमरे के अंदर से आ ही नहीं रही थीं। उस वक्त तो हालत देखने लायक हो गयी जब उसने अपना कान बंद दरवाजे की दरार पर रख रखा था और पीछे से आवाज उभरी --- “क्या आप एक मिनट के लिए हटेंगी मालकिन ?”
हड़बड़ाकर सीधी हो गयी दिव्या ।
सामने आफताब खड़ा था | सामने क्या ---अपनी छाती पर खड़ा सा लगा वह उसे ।
हाथों में ट्रे थी। ट्रे में टी-पॉट, कप-प्लेट, शुगर क्यूब और थोड़े से बिस्कुट |
दिव्या के चेहरे पर वैसे भाव थे जैसे रंगे हाथों पकड़े गये चोर के चेहरे पर होते हैं । आफताब के सपाट चेहरे को देखकर वह उसके मनोभावों को न पढ़ सकी । भले ही वह उसके बारे में कुछ निगेटिव न सोच रहा हो लेकिन चोर आखिर चोर होता है, अतः दिव्या ने अपने होठों पर अंगुली रखकर उसे चुप रहने का इशारा किया । बांह पकड़ी उसकी । दरवाजे से थोड़ा दूर घसीटा और फुसफुसाकर बोलीबोली---“पता नहीं वे उससे क्या बातें कर रहे हैं?”
कोई जवाब नहीं दिया आफताब ने ! यूं खड़ा रहा जैसे मोम का पुतला हो ।
चेहरा पूरी तरह सपाट !
“असल में मैं और तुम्हारे छोटे मालिक नहीं चाहते वे बीमारी की इस हालत में बिजनेस की टेंशन पालें मगर, पता नहीं उन्होंने उसे क्या बातें करने के लिए बुला लिया है।”
आफताब का चेहरा अब भी कोरी स्लेट सा बना रहा ।
प्रतिक्रियाविहीन चेहरे ने दिव्या को बुरी तरह झुंझला दिया। दांत भींचकर पूछा उसने--- “तुम कुछ बोलते क्यों नहीं?”
“जिस दिन छोटे मालिक ने नौकरी से निकाला था, उस रात मालिक ने वापस नौकरी पर रखते वक्त एक मंत्र दिया था मुझे!” आवाज ऐसी थी जैसे कम्प्यूटर से निकल रही हो ।”
“म - मंत्र ?” दिव्या चौंकी --- “कैसा मंत्र ?”
“ नौकरी करनी है तो अंधे बन जाओ । गूंगे और बहरे बन जाओ। कभी देखने-सुनने की कोशिश मत करो कि मालिक लोग क्या कर रहे हैं? कभी एक की बात दूसरे से मत कहो!”
“यानी मैं जो कर रही थी तुम अंदर नहीं कहोगे ?”
“मैंने कुछ देखा ही नहीं! अंधा हूं न!”
“गुड ! .... अब तुम जाओ !” कहने के साथ दिव्या ने उसे छोड़ दिया ।
ट्रे संभाले वह पुनः इस तरह दरवाजे की तरफ बढ़ गया जैसे स्विच से हरकत में आने वाला बेजान खिलौना हो । दिव्या पुनः पिलर की बैक में जा खड़ी हुई। वहीं से उसने आफताब को बंद दरवाजे पर दस्तक देते और फिर दरवाजा खुलते देखा।
अगले पल आफताब कमरे के अंदर चला गया ।
मुश्किल से एक मिनट बाद बाहर निकला । दरवाजा पुनः बंद हो गया था । अंदर से चटकनी चढ़ाई जाने की आवाज एक बाद फिर दिव्या के कानों तक आई । रोबोट की तरह चलता आफताब पिलर के नजदीक पहुंचा। दिव्या अचानक उसके सामने आ गई।
वह ठिठक गया, भावहीन आंखों से उसकी तरफ देखता रहा।
दिव्या ने पूछा--- "क्या हो रहा है वहां ?”
“पता नहीं।” उसने संक्षिप्त जवाब दिया ।
“क्यों नहीं पता ?”
“ बताया तो था मालकिन । अंधा ठहरा । "
“बको मत!” दिव्या के होठों से गुर्राहट निकली, फिर अपने लहजे की कठोरता को कुछ कम करती बोली --- “समझने की कोशिश करो आफताब । हम सबको 'उनकी चिंता है। नहीं चाहते वे बिजनेस की टेंशन में पड़ें। मुझे बताओ क्या बातें कर रहे थे वे?”
“सच्ची बात ये है--- उन्होंने मेरे सामने कोई बात नहीं की।”
“ दोनों में से किसी ने भी, कुछ तो कहा होगा?”
“जब मैं ट्रे सेन्टर टेबल पर रख चुका तो मालिक ने बस इतना कहा --- 'समरपाल के लिए चाय बनाओ आफताब और जाओ।' मैंने चुपचाप चाय बनाई और वापस आ गया।"
“तुम्हारे चाय बनाने के दरम्यान उनमें से किसी ने कुछ नहीं कहा ?”
“नहीं।”
“दरवाजा किसने खोला था ?"
“समरपाल साहब ने ।”
“तुम्हारे पीछे-पीछे आकर बंद भी उन्होंने ही किया?”
“जी।"
"बड़े मालिक क्या कर रहे थे ?”
“लिख रहे थे कुछ ।”
दिव्या चौंकी --- “लिख रहे थे? बैड पर बैठे-बैठे ?”
“लिखने वाली कुर्सी पर बैठे थे वे | टेबल लैम्प जला रखा था।”
दिव्या के दिमाग में अनेक सवाल कुछ इस तरह उछल-कूद मचाने लगे जैसे छोटे से तालाब में मेंढक अठखेलियां कर रहे हों । आफताब से और भी कई सवाल किये उसने परन्तु कोई बात पता नहीं लगी, जिससे किसी नतीजे पर पहुंच पाती । अंत में जब उसने आफताब से जाने के लिए कहा तो वह हाथ जोड़कर बोला--- "मालकिन, मालिक को पता न लगे मैंने अंदर की बात बाहर की है। नौकरी चली गई तो.... वैसे भी, मेरा कुसूर नहीं है। कुसूर तो तब होता जब जो आपने पूछा है, वह नहीं बताता । बहरहाल मालिक लोगों का हुक्म टालना भी तो अपनी नौकरी पर लात मारने जैसा है।"
दिव्या ने उसे आश्वस्त किया --- मगर, खुद उसे कौन आश्वस्त करता?
'समरपाल को कमरे में बैठाकर आखिर क्या लिख रहा है राजदान ?' यह सवाल बराबर उसके जहन में कौंधता रहा। पिलर के पीछे खड़े रहने या बंद दरवाजे के आसपास मंडराते रहने का कोई फायदा नजर नहीं आया। अतः लॉबी में पहुंच गई। बेचैनी पीछा छोड़ने को तैयार नहीं थी। उस वक्त ठीक दो बजे थे जब समरपाल कारीडोर पार करके लॉबी में आया । वह इस उलझन में फंसी रही, उससे कुछ पूछे या नहीं? समरपाल लॉबी से बाहर निकलने के लिए दरवाजे पर पहुंच गया था । अंततः उसके मुंह से निकल ही गया --- “मिस्टर समरपाल !”
वह पलटा ।
“एक मिनट बैठिए ।” उसने अपनी आवाज में मालिकाना भरने की कोशिश की थी । पुट
समरपाल वापस लौट आया । सोफा चेयर पर बैठता बोला---“कहिए।"
“पहली बात ।” वह खुद को अंदर हुई बातें उगलवाने के लिए तैयारी करती बोली --- “मैं बिल्कुल नहीं चाहूंगी उनकी हालत के बारे में बाहर किसी को कुछ पता लगे ।”
“यह बात वे खुद ही मुझसे सख्ती के साथ कह चुके हैं और आप विश्वास रखिए, न मैंने पहले कभी उनके हुक्म के खिलाफ कोई काम किया है, न आगे कर सकता हूं।"
“दूसरी बात --- मैं और देवांश चाहते हैं, वे बिजनेस के पचड़ों से दूर रहें ।”
“ठीक ही चाहते हैं आप | मैंने भी उनसे यही कहा। कम से कम तब तक वे बिजनेस की कोई टेंशन दिमाग में न लायें जब तक बैड पर हैं। वैसे भी, देवांश साहब ने काफी कुछ संभाल लिया है ।”
अब सीधा सवाल किया दिव्या ने--- “क्या कह रहे थे ?”
“हिसाब-किताब पूछ रहे थे । ”
“तुमने क्या कहा ?”
“ उनकी हालत देखते हुए जी तो नहीं चाह रहा था कुछ
बताऊं परन्तु सिरे से झूट भी नहीं बोल सकता था। वहरहाल, वे मालिक हैं फर्म के बगैर बताये भी बहुत कुछ समझते हैं। फिर भी उन्हें तसल्ली देने हेतु थोड़ा-थोड़ा झुठ वोल आया हूं। अव उस झूठ को आपको और देवांश बाबू को संभालना है।”
"कैसा झूठ ?"
“मैंने कह दिया ---नई कॉलोनी में निर्माण कार्य शुरू हो गया है और इससे मार्केट में अच्छा मैसेज गया है। फाईनेंस भी थोड़े शांत हुए हैं, आम पब्लिक का रुझान बुकिंग में बढ़ा है। जैसी कि उम्मीद थी---यह सव सुनकर उनके चेहरे पर थोड़ी रौनक आई । ठीक किया न मैंने ?”
“हां। ठीक किया।"
“अब मैं देवांश साहव से कहूंगा ---इस झूठ को बरकरार रखें।”
“मैं भी कहूंगी।" कहने के वाद दिव्या ने पृष्ठा--- "और कोई वात?”
“नहीं... और तो कोई खास वात नहीं।”
दिव्या ने बहुत ध्यान से देखा उसे । इस उम्मीद के साथ कि शायद वह खुद ही आगे कुछ बोले लेकिन जब नहीं बोला तो खुद ही पूछा उसने ---" उन्होंने कुछ लिखकर भी दिया है तुम्हें?”
“ल-लिखकर?” यह शब्द कहते वक्त उसके चेहरे पर चौंकने के जो भाव उभरे थे, वे दिव्या की नजर से छुप न सके । हालांकि अगले ही पल समरपाल ने खुद को सामान्य दर्शाते ने हुए कहा था--- “हां, दिया तो है एक लेटर! आपको कैसे पता?”
दिव्या ने उसके सवाल को टालते हुए पूछा--- "लेटर किसके लिए है?”
“रामभाई शाह के लिए । शायद आप जानती होंगी, वह हमारे फाइनेंसर्स में से एक है।"
“क्या लिखा है उसमें?”
“यह तो मुझे भी नहीं मालूम ।”
“क्या मैं उसे देख सकती हूं?”
एकदम कुछ नहीं कहा समरपाल ने। थोड़ा ठहरकर हिचकता सा बोला--- "माफ करें मैडम | ऐसा मैं नहीं कर सकता । ये ‘आफिशियल' लेटर है और... राजदान साहब को मैंने खुद कहते सुना है, वे बिजनेस की बातों में आपको इन्वॉल्व नहीं करते। इतनी बातें भी कर लीं तो सिर्फ इसलिए क्योंकि वे बीमार हैं और मुझे नहीं लगता अब कभी विस्तर से उठ सकेंगे । मगर जब तक हैं, वहीं मेरे मालिक हैं, उनकी इच्छा के बगैर मैं कुछ नहीं कर सकता ।”
“समझने की कोशिश करो समरपाल । हम नहीं चाहते...
“बार - बार एक ही बात कहते चले जाने से कोई फायदा नहीं।” उसकी बात काटकर समरपाल उठ खड़ा हुआ था---“आप एक से ज्यादा बार कह चुकी हैं और मैं अच्छी तरह समझ चुका हूं। उन्हें टेंशन से दूर रखना हम सबका फर्ज है। फिर भी इतना जरूर कहूंगा --- बिजनेस की समझ आज भी उनमें मुझसे, आपसे और देवांश साहब से ज्यादा है। साख भी उन्हीं की काम कर रही है। रामभाई शाह जैसे फाइनेंसर्स अभी तक चुप हैं तो केवल उन्हीं के कारण। आपके और देवांश साहव के लिए वे जरूरत से ज्यादा चिंतित हैं। मेरा अनुमान है--- इस लेटर में उन्होंने शाह को यही लिखा होगा कि ज्यादा 'तकादे' करके देवांश को परेशान न करे।”
इतनी बातों के बाद दिव्या पर कुछ कहते नहीं बन पड़ा ।
लंगड़ाता हुआ समरपाल दरवाजे की तरफ बढ़ा। उसके बीचो-बीच पहुंचकर जाने क्या सोचकर ठिठका | पलटा और दिव्या की आंखों में आंखें डालकर बोला--- "बुरा न मानें तो एक बात कहूं?”
दिव्या ने धड़कते दिल से पूछा--- "क्या कहना चाहते हो ?”
“ उस घर के नौकर मालिकों की इज्जत करना छोड़ देते हैं। जिस घर में नौकरों को जासूस की तरह इस्तेमाल किया जाने लगता है।” कहने के बाद वह एक पल के लिए भी ठहरा नहीं था वहां । पलटा और तेज कदमों के साथ बाहर निकल गया था।
दिव्या को लगा --- “वह उसके दिलो-दिमाग पर जोरदार चांटा रसीद कर गया है।
ऐसा चांटा जिसके असर से बहुत देर तक उसके दिमाग की नसें झनझनाती रहीं।
जहां खड़ी थी, वहीं एक सोफे पर बैठ गई । जहन अभी समरपाल के तमाचे से ही नहीं 'उबर' पाया था कि एक और झटका लगा | वह झटका था एक अजीब सी शक्ल के व्यक्ति का आगमन ।
बड़े-बड़े कानों और तोते जैसी नाक वाला पीले रंग का
शख्स था वह। पतला-दुबला | मुश्किल से पांच फुटा। उसके सिर के पिछले हिस्से में केवल इतने बाल थे जिन्हें आसानी से गिना जा सकता था ।
उसके जिस्म पर वकीलों वाला लिबास था।
सफेद पैंट | सफेद कमीज । टाई और काला कोट ।
“कहिए!” सोफे से उठती दिव्या ने पूछा था ---“कौन हैं आप?”
“ आप शायद भाभी जी हैं।” उसने जवाब देने की जगह संभावना व्यक्त की।
दिव्या को न उसका तरीका अच्छा लगा, न ही पतले होटों पर उभरी मुस्कान। जब वह मुस्कराया था तो होटों के दोनों सिरे कानों तक फैल गये थे । थोड़े रूखे स्वर में कहा उसने---“मैंने पूछा---आप कौन हैं और अंदर कैसे घुसे चले आये? चौकीदार ने रोका नहीं आपको?”
“रोका था ।” वह बराबर मुस्करा रहा था ।
“फिर?”
“फिर क्या---मैंने कहा, राजदान से पूछ भैया । उसी ने फोन करके बुलाया है मुझे। चौकीदार ने इन्टरकॉम पर राजदान से बात की, तब कहीं जाकर बैरियर पार हो सका।”
चौंक पड़ी दिव्या --- “फोन करके उन्होंने ' बुलाया है आपको?”
“जी । 'उन्होंने' ही बुलाया है।”
“ अपना नाम नहीं बताया आपने !”
“बंदे को वकीलचंद कहते हैं।” दिव्या के सम्मान में थोड़ा झुककर बोला वह - - - “ मां-बाप ने शायद पैदा होने से पहले ही वकील बनाने का सपना देख लिया था इसलिए नाम भी वकीलचंद रख दिया । लायक बेटा था मां-बाप का इसलिए सपना पूरा कर दिया। पेशे से भी वकील बनकर ही माना । वर्दी तो देख ही रही हैं आप मेरी ।”
एक बार फिर दिव्या के दिमाग में उमड़-घुमड़ होने लगी थी। यह बात समझ में नहीं आकर दे रही थी कि वकील को क्यों बुलाया है राजदान ने? क्या करना चाहता है वह? कहीं उसके दिमाग में सचमुच ही कोई वसीयत लिखवाने की बात तो नहीं आ गई है?
एकाएक वकीलचंद की आवाज उसके कानों में पड़ी - - - “इतना डरावना तो नहीं है मेरा इन्ट्रोडक्शन । ”
ऐसा “ज - जी!” दिव्या की तंद्रा भंग हुई ।
“ लगता है - - - किसी दूसरे ही लोक में पहुंच गईं आप |”
“न- नहीं तो ।” दिव्या ने खुद को संभाला--- "बस यह सोचने लगी थी, अचानक उन्हें वकील की क्या जरूरत पड़ गई?”
“मेरे ख्याल से उसने मुझे वकील की हैसियत से कम, यारी की हैसियत से ज्यादा बुलाया है । "
“यारी की हैसियत से ?”
“बचपन का यार है वो अपना | मैं, राजदान, भट्टाचार्य और दो और लड़के होते थे हमारे गुट में जो अपनी शैतानियों से पूरे इलाके की नाक में दम किये रखते थे। भट्टाचार्य को आप इसीलिए जानती होंगी क्योंकि वह इसी शहर में रहता है । आता-जाता रहता है यहां । मैं पूना में हूं। बचपन के दोस्त जब बड़े होकर अपने-अपने धंधों में लग जाते हैं तो सालों-साल एक-दूसरे का होश नहीं आता। अब अखिलेश और अवतार को ही लो --- आज की तारीख में मुझे यह भी नहीं पता कि वे कहां, किस रूप में सैटिल हुए हैं।"
“अखिलेश और अवतार?”
“टुकड़ी के बाकी दो शैतान ।"
“ओह! मगर... इस बारे में कभी जिक्र नहीं किया उन्होंने।”
“कान खींचूंगा साले के। इस कदर भूल गया अपने बचपन को? मैंने तो अपनी बीवी को सबकुछ बता रखा है। है कहां? देखूं तो सही, कैसा नजर आता है वर्षों बाद ?”
दिव्या ने उसे सीधे कमरे में ले जाना उचित नहीं समझा। इन्टरकॉम के जरिए राजदान को उसके आगमन की सूचना दी । जब राजदान ने कहा --- “हां, वकीलचंद को मैंने ही फोन करके बुलाया है। उसे भेज दो ।” .... तो वह खुद वकीलचद को लेकर कमरे में पहुंची।
वकीलचंद राजदान की हालत देखकर चौंका । दुखी भी हुआ । तरह-तरह के सवाल करने लगा । औपचारिक बातों के बाद एक बार फिर वही हुआ जो समरपाल के आगमन पर हुआ था। अर्थात् राजदान ने वकीलचंद से एकान्त में बात करने की इच्छा जाहिर की। दिव्या को कमरे से बाहर आना पड़ा । वह वापस लॉबी में आई और सोफे पर गिर सी पड़ी । दिमाग बार-बार एक ही बात सोच रहा था --- इतने दिन से निष्क्रिय पड़ा राजदान अचानक सक्रिय क्यों हो गया है ?
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