आधे घंटे बाद जगमोहन और सोहनलाल वापस आए।
"आज सुबह ही हमारे बगल वाले सुइट में, आठ नम्बर में कोई बाटलीवाला आया है। साथ में उसकी औरत भी है।" जगमोहन ने कहा।
"मियां-बीवी हैं। होटल के रजिस्टर में यही लिखा है।" सोहनलाल बोला--- "सुइट की बुकिंग सुबह चार बजे फोन द्वारा की गई थी। यानी कि हमारे यहां पहुंचने के घंटे भर बाद।"
देवराज चौहान के होंठ सिकुड़े।
"मियां-बीवी हैं?"
"उन्हें देखने की कोशिश की ?" देवराज चौहान के चेहरे पर सोच के भाव थे।
"सुइट का दरवाजा बंद है।"
"वो दिखें तो उन पर नजर रखना। वे लोग जॉर्ज लूथरा के आदमी हो सकते हैं।" देवराज चौहान ने दोनों को देखा--- "उनके अलावा होटल में अवश्य लूथरा के आदमी हमारे लिए मौजूद होंगे।"
"मेरे ख्याल में वो होटल में हम पर हमला करने की गलती नहीं करेंगे।" जगमोहन ने कहा।
"बहुत बड़ा होटल है ये। यहां पर कई ऐसी जगहें हैं, जहां आसानी से किसी को मारा जा सकता है। होटल का नक्शा मेरे सामने पड़ा है। इसके आसपास की खुली जगह को जंगल जैसा समझो।" देवराज चौहान बोला--- "रिवॉल्वर पर साईलेंसर लगा हो तो वैसे भी आवाज नहीं आती।"
जगमोहन और सोहनलाल की नजरें, देवराज चौहान पर थी।
"हमें सावधान रहने की जरूरत है।"
तब दोपहर के तीन बज रहे थे, जब देवराज चौहान अपने काम से फारिग हुआ।
सोहनलाल एक कुर्सी पर पसरा कश ले रहा था।
जगमोहन कमरे में टहल रहा था। कभी-कभार खिड़की पर खड़ा होकर बाहर देखने लगता। बाहर इस वक्त धूप थी। रेगिस्तानी इलाका होने की वजह से गर्म हवाएं सी चलती महसूस हो रही थी।
"हुआ कुछ?" सोहनलाल ने पूछा।
जगमोहन भी पास आ बैठा।
"बहुत कुछ हुआ।"
"क्या ?" जगमोहन उत्सुकता से बोला--- "खजाने के रास्ते का पता चला कि वो कहां...!" "चल गया पता कि रास्ता कहां है।" देवराज चौहान बराबर मुस्करा रहा था। उसने सिगरेट सुलगाई--- "इस समय तो और भी सुरक्षित ढंग से खजाने के उस रास्ते पर पहरा है।"
"क्या मतलब?"
देवराज चौहान ने टेबल पर बिखरे कागजों पर निगाह मारकर उन्हें देखा।
"मुसीबर खान ने अपने नक्शे में खजाने तक जाने का जो रास्ता बताया है, उस जगह को मैंने इस वक्त के होटल के नक्शे से मिलाया तो जानते हो वो जगह कहां पर है?"
"कहां पर ?"
"वो रास्ता स्वीमिंग पूल के नीचे है।"
"स्वीमिंग पूल के नीचे ?" जगमोहन ठगा सा रह गया।
सोहनलाल ने गहरी सांस लेकर मुंह फेर लिया।
"हां, खजाने तक जाने के रास्ते का दरवाजा जहां हैं, उस पर स्वीमिंग पूल बनाया जा चुका है। होटल का नक्शा उस जगह को स्वीमिंग पूल दर्शा रहा है।" देवराज चौहान के होंठों पर गहरी मुस्कान आ ठहरी।
दोनों देवराज चौहान को देखते रहे।
कई मिनटों की खामोशी रही वहां।
"वो रास्ता कैसा था?" सोहनलाल ने पूछा।
"ईंटों का कुआं था। ढाई सौ फीट नीचे तक जाता वो कुआं था। लेकिन दो सौ फीट पर एक खास जगह की इंटे दबाने पर खिड़की जैसा छोटा सा रास्ता खुल जाता। उस रास्ते में रेंगकर भीतर जाना था और कुछ आगे जाने पर वो रास्ता इतना चौड़ा हो जाता कि सीधा खड़े होकर उसमें कोई भी चल सकता है।"
"मतलब कि वो रास्ता सीधा खजाने तक जाता?" जगमोहन ने पूछा !
"वो तो शुरुआती रास्ता था। आगे बढ़ने पर रास्तों की भूल भुलैया जैसी कई परेशानियां थीं। नक्शे में स्पष्ट तौर पर बताया गया है कि कहां पर पहुंचकर, किस-किस दिशा की तरफ बढ़ना है। उस सारे रास्ते पर ऑक्सीजन का---हवा का जाने कैसा इंतजाम है कि नक्शे वाली किताब में लिखा है, सांस लेने में कोई परेशानी नहीं आएगी। करीब डेढ़-पौने दो सौ साल पहले वो खजाना वहां दबाया गया था। इतना वक्त बीतने के बाद, क्या मालूम उन रास्तों का क्या हाल होगा। कई नई परेशानियां अवश्य सामने आएंगी।"
"खजाने तक जाने के रास्ते पर स्वीमिंग पूल बन चुका है।" जगमोहन ने अजीब से स्वर में कहा--- "हमारे लिए ये मजाक नहीं तो और क्या है ? वैसे वो खजाना रखा कैसे गया है?"
"तांबे के घड़ों में। सोने के कलशों में। सोने की गिन्नियां । हीरे-पन्ने। ऐसे बेशकीमती कि, जिनका आज देखा जाना भी संभव नहीं। नक्शे वाली किताब में लिखा है कि खजाने के हीरे पन्ने उस जमाने में भी अमूल्य थे। ऐसी-ऐसी चीजें थीं कि देखने को नहीं मिलती थी।" देवराज चौहान ने कहा।
कई पलों तक उनके बीच चुप्पी रही।
"अब क्या करना है ?" जगमोहन ने पूछा।
सोहनलाल ने जगमोहन को देखा।
"तुम्हें क्यों फिक्र हो रही है। तुम तो खजाने को लेने को इन्कार कर चुके हो।" सोहनलाल बोला।
"मैंने कब कहा कि लेने से इन्कार नहीं किया। लेकिन खजाना देखने से तो इन्कार नहीं किया। इतना बड़ा खजाना देखना भी किस्मत वालों को नसीब होता है।" जगमोहन ने कहा।
"कम से कम जैसलमेर का खजाना तो देख नहीं सकोगे। ये सरकारी होटल है। खजाने तक जाने का रास्ता जहां से शुरू होता है, ठीक उसके ऊपर स्वीमिंग पूल है। पूल में कोई गड़बड़ की तो सबको पता चल जाएगा। सरकार फौरन खजाने के बारे में जानकर ये जगह घेर लेगी।"
जगमोहन सोहनलाल को देखने लगा।
"उस रास्ते का प्रवेश द्वार स्वीमिंग पूल बनने से बंद हो गया है तो कई फर्क नहीं पड़ता।" जगमोहन ने सिर हिलाकर दृढ़ता भरे स्वर में कहा--- "देवराज चौहान कोई दूसरा रास्ता निकालेगा।"
सोहनलाल ने देवराज चौहान को देखा। फिर जगमोहन को।
"जब तुमने खजाना लेना नहीं है तो फिर इतना कष्ट करने की क्या जरूरत है।" सोहनलाल बोला।
"देखना तो है।"
"उससे क्या होगा?"
"जो भी हो, मैं देखूंगा जरूर खजाने को।" कहते हुए जगमोहन ने देवराज चौहान को देखा--- "तुम्हारा क्या ख्याल है। रास्ता निकल सकता है उस खजाने तक जाने का?"
"कठिन लग रहा है।" देवराज चौहान ने सोच भरे स्वर में कहा--- "ये सरकारी होटल है। प्राइवेट होटल होता तो तब कोई रास्ता बनाया जा सकता था। खजाने की तरफ जाने के लिए जिस कुएं में से रास्ता है। उस पर स्वीमिंग पूल बनाते समय उसे अच्छी तरह भर दिया होगा। ऐसे में उधर का रास्ता बंद हो गया। हम बीच में से अपना रास्ता बनाकर उसे उस रास्ते से मिला सकते हैं, लेकिन इसके लिए हमें खुली जगह और काम करने की स्वतंत्रता चाहिए। सरकारी जुगह पर ये सब नहीं किया जा सकता।"
"कहना क्या चाहते ?"
देवराज चौहान ने जगमोहन को देखा फिर बोला।
"मैं वो स्वीमिंग पूल देखूंगा। फिर बात करेंगे।"
"अभी दोपहर का वक्त हैं। तीन-साढ़े तीन बजे हैं। ऐसे में उधर गए तो जॉर्ज लूथरा के आदमी समझ जाएंगे कि हम स्वीमिंग पूल को खासतौर से देखने गए हैं। वो शक करेंगे कि...!"
"उन्हें शक करने दो सोहनलाल।" देवराज चौहान मुस्करा पड़ा--- "अब तक मैं इतना समझ चुका हूं कि वहां तक पहुंचना आसान नहीं है। मेरे ख्याल में असंभव ही है। सामने वाले के हाथ कितने ही लम्बे हों, उस खजाने तक नहीं पहुंच सकते जो कभी मुसीबर खान ने छिपाया था।"
दोनों देवराज चौहान को देख रहे थे।
"कोई तो रास्ता होगा।" जगमोहन ने जोर देने वाले स्वर में कहा।
"स्वीमिंग पूल पर चलकर देखते हैं।" देवराज चौहान ने कश लिया।
तीनों चलने को तैयार हो गए।
"जॉर्ज लूथरा के आदमियों से सावधान रहना है हमें।" देवराज चौहान गंभीर स्वर में बोला।
"अगर वो हम पर गोली चलाने की चेष्टा करें तो?" जगमोहन कह उठा।
"सरेआम वो हम पर गोली नहीं चलाएंगे।"
"क्यों ?"
"क्योंकि उनका इरादा हमसे खजाने के नक्शे और किताब हथियाने का भी है, जिसमें सारे खजाने के बारे में पूरा ब्यौरा लिखा हुआ है।" देवराज चौहान बोला--- "शोर-शराबा पैदा करके वो कुछ भी हासिल नहीं कर सकते। इसलिए हम पर वो तभी हाथ डालेंगे, जबकि किसी के द्वारा देखे जाने का खतरा न हो। जबकि हम कभी भी उन्हें गोलियों से भून सकते हैं। क्योंकि उनके पास ऐसी कोई चीज नहीं, जिसकी हमें जरूरत हो।"
"वो हमसे नक्शा चाहते हैं, जबकि हमारे पास कुछ नहीं है।" जगमोहन बोला--- "अपने साथ तो हम लाए ही नहीं।"
"इस सारे मामले में यही बात सबसे बढ़िया रही।" सोहनलाल ने होंठ सिकोड़कर कहा।
"चलें?" जगमोहन ने रिवॉल्वर निकालकर चैक की।
देवराज चौहान ने सिर हिलाया।
तीनों बाहर निकल गए। दरवाजा बंद करके चाबी घुमा दी।
देवराज चौहान, जगमोहन और सोहनलाल के साथ रिसेप्शन के सामने से निकल रहा था कि एकाएक उसे जैसे किसी की निगाह अपने शरीर पर चुभती सी महसूस हुई। मन में बेचैनी की लहर उठी। लगा जैसे उसे कोई रोक रहा हो। कदम भारी से लगे।
देवराज चौहान ठिठका। इसके साथ ही उसकी गर्दन घूमी और रिसेप्शन के पीछे दीवार पर लगी बड़ी सी नूरा खान की तस्वीर पर नजर जा टिकी। तस्वीर की आंखों से आंखें मिलीं। पल भर के लिए देवराज चौहान को ऐसा लगा जैसे वो जिन्दा आंखें हों। कुछ कह रही हों।
"क्या हुआ?"
सोहनलाल की आवाज ने उसकी सोचों को तोड़ा।
"कुछ नहीं।" देवराज चौहान ने सिर को झटका दिया और आगे बढ़ गया। मस्तिष्क में नूरा खान का चेहरा और उसकी आंखें, घूमती रही। जैसे वो आंखें कुछ कहना चाह रही हो।
हवेली नुमा होटल के भीतरी कई रास्तों को पार करते हुए करीब दस मिनट बाद वो ऐसी खुली जगह पहुंचे, जहां हर तरफ होटल की ऊंची इमारत थी और बीच में वो नीले पानी से भरा पूल चमक रहा था। आधे पूल पर धूप पड़ रही थी। छाया वाले हिस्से में दो लोग पानी में मजा ले रहे थे।
तीनों सतर्क थे और उनकी निगाह हर तरफ का जायजा ले रही थी।
देवराज चौहान की नजरों से सूरी छिपा न रहा, जो उन पर नजर रखते उनके पीछे आया था, परंतु देवराज चौहान ने ये बात जाहिर नहीं होने दी कि वो उसकी नजरों में आ गया है। सोहनलाल ने एक अन्य आदमी को पहचाना। पचपन बरस का था वो। सफ़ेद कमीज पहनी हुई थी। हाथ में कोल्ड ड्रिंक का गिलास था और ऐसा दिखावा कर रहा था कि जैसे घूंट भरते हुए वक्त बिता रहा हो।
जबकि इस वक्त जगमोहन का ध्यान पूरी तरह स्वीमिंग पूल पर था।
पूल छः सौ फीट लम्बा और एक सौ बीस फीट चौड़ा था।
"वो कुआं...!" जगमोहन ने देवराज चौहान को देखा--- "इस पूल के नीचे कहां पर हो सकता है?"
"मैं नहीं जानता कि पूल के नीचे वो कुआं कहां पर स्थित होगा।" देवराज चौहान ने पूल पर नजरें दौड़ाते हुए कहा--- "लेकिन है वो पूल के नीचे ही। इसी पूल के नीचे।"
जगमोहन देवराज चौहान को ही देख रहा था।
"सोचा होगा कि हम कैसे खजाने तक...!"
"मैंने कुछ नहीं सोचा !" एकाएक देवराज चौहान के चेहरे पर परेशानी उभरी।
"तो सोचो। इस तरह खड़े-खड़े क्या देख रहे हो?" जगमोहन ने उतावलेपन से कहा।
देवराज चौहान ने जगमोहन को देखा, परंतु कहा कुछ नहीं।
"मैं अभी आता हूं। पूल का चक्कर लगाकर देखता हूं।" कहकर जगमोहन पूल के किनारे-किनारे आगे बढ़ गया। वो हर तरफ ऐसे देख रहा था, जैसे अभी खजाने का ढेर नजर आ जाएगा।
देवराज चौहान लापरवाही से इधर-उधर देखता हुआ कह उठा।
"सोहनलाल।"
"हां।"
"एक मुझे नजर आया है, जो हम पर नजर रख रहा है।"
सोहनलाल ने सतर्क सी निगाहों से उसे देखा।
"तुम यहीं ठहरो। मैं उसे एक तरफ करके आता हूं। इस वक्त कोई नहीं है। कुछ देर बाद शाम हो जाएगी तो पूल पर काफी लोग होंगे। और भी जगहों पर होंगे। तब काम करना कठिन होगा।"
"तुम सफेद कमीज वाले की बात कर रहे हो?" सोहनलाल यूं ही इधर-उधर देखता बोला।
"नहीं, वो उधर खड़ा है। पीली कमीज और काले चश्मे में...।" देवराज चौहान ने कहा।
"सफेद कमीज वाला भी नोट कर लो। वो दाईं तरफ गोल पिलर के साथ टेक लगाए खड़ा है।"
देवराज चौहान ने छिपी निगाहों से उसे देखा। वो नजर आ गया था।
"मैं उधर जाऊंगा तो सफेद कमीज वाला समझ जाएगा कि मैं क्या करने गया हूं।" देवराज चौहान ने सर्द स्वर में कहा।
"तो!"
"तुम सफेद कमीज वाले को संभालो।"
"मेरे पास रिवॉल्वर है। साईलेंसर भी नहीं लगा। गोली चली तो शोर होगा।" सोहनलाल ने कहा।
"तो रिवॉल्वर के दम पर उसे रोककर रखो। मैं कुछ देर बाद वहीं आऊंगा।"
"समझा।" सोहनलाल ने कहा और जेबों में हाथ डाले लापरवाही से दूर खड़े सफेद कमीज वाले की तरफ बढ़ गया।
देवराज चौहान कुछ देर वहीं खड़ा रहा, फिर पलटा और ढाई-तीन सौ फीट दूर खड़े काला चश्मा पहने सूरी की तरफ बढ़ गया। उसे इधर आते देखकर सूरी सिगरेट निकालकर सुलगाने में लग गया था।
फौरन ही देवराज चौहान उसके पास जा पहुंचा।
तब तक सूरी ने सिगरेट सुलगाकर पहला कश ही लिया था।
"कैसे हो?" देवराज चौहान के स्वर में सर्द भाव थे। सूरी हड़बड़ाया।
"क्या नाम है तुम्हारा ?"
"स...सूरी!"
"रात छः मारे थे। सुनकर तुझे डर नहीं लगा मेरे से।" देवराज चौहान का स्वर क्रूर हो गया।
"क्या?"
"नहीं समझा मेरी बात ?" देवराज चौहान उसी पल नीचे झुका और जूते में फंसा छोटा-सा चाकू निकाल लिया।
चाकू देखते ही सूरी की आंखें फैली। उसने जल्दी से रिवॉल्वर निकालनी चाही।
देवराज चौहान ने हाथ में दबे चाकू की नोक उसके पेट में लगा दी।
"चाकू छोटा जरूर है लेकिन मेरे हाथ में आकर काम बड़ों की तरह करता है।" देवराज चौहान मौत भरे स्वर में बोला।
जेब में पहुंचे उसके हाथ ठिठक गए।
"हाथ बाहर।"
सूरी ने सूखे होंठों पर जीभ फेरते हुए हाथ बाहर निकाले।
"जानते हो मेरे को ?"
सूरी ने पुनः सूखे होंठों पर जीभ फेरी।
"एक ही सवाल दोबारा पूछने की मेरी आदत...!"
"देवराज चौहान !"
"हां, ऐसे ही जवाब देते रहो।" देवराज चौहान के चेहरे पर दरिन्दगी की छाप थी--- "तेरे बड़े लोग इस होटल में कहां हैं?"
"आठ नम्बर सुइट में।"
स्वीमिंग पूल में मौजूद दोनों व्यक्ति यहां से नजर नहीं आ रहे थे। ये भी इत्तफाक ही था कि अभी तक उस तरफ कोई नजर नहीं आया था।
"क्या कहा उन्होंने तेरे को मेरे बारे में?"
"तुम पर नजर रखने को और...!"
"और क्या ?"
"मौका लगे तो खत्म करने को भी!"
उसी पल देवराज चौहान का चाकू वाला हाथ उसके पेट से हटकर ऊपर गया और गले के आगे के हिस्से को काटता चला गया। उसके शरीर को जोरदार झटका लगा और नीचे गिरने से पहले ही उसकी आंखें पलट गई थी। वो मर चुका था। देवराज चौहान उसी पल वहां से हटता चला गया।
दोपहर के वक्त स्वीमिंग पूल पर शांति थी। चार बज रहे थे।
चाकू हथेली में छिपाए देवराज चौहान लम्बा चक्कर काटकर वहां पहुंचा, जहां सफेद कमीज वाला खड़ा था। इस वक्त सोहनलाल उससे सटा हुआ था। सफेद कमीज वाले का चेहरा फक्क था।
देवराज चौहान उसके पास पहुंचकर ठिठका।
उसे करीब पाकर सफेद कमीज वाले की आंखें भय से फैल गई।
"इसका मतलब पहचानता है तू मुझे ?"
"न...हीं।"
"फिर मुझे देखकर डरा क्यों ?"
"सूरी ने कहा था कि तुम बहुत खतरनाक हो!"
देवराज चौहान ने सोहनलाल को देखा।
"तू जा।"
उसकी कमर से सटा रखी रिवॉल्वर को सोहनलाल ने जेब में डाला और तेज-तेज कदमों से वहां से दूर होता चला गया। देवराज चौहान ने उसकी आंखों में झांका।
"किसके लिए काम करता है?"
"सूरी के लिए!"
"सूरी किसके लिए काम करता है?"
"म... मालूम नहीं। मुझे तो सूरी नोट देता है।"
"सूरी तो गया, अब वो नोट नहीं देगा।" देवराज चौहान वहशी स्वर में बोला।
"क...कहां गया?"
"तेरे को भी उधर ही भेज रहा हूं। बात करके सब कुछ उससे पूछ लेना।" देवराज चौहान ने दरिन्दगी से कहा और चाकू वाला हाथ हवा में लहराता गया। उसकी गर्दन का आगे वाला हिस्सा उसी पल कट गया। उसका हाल देखने के लिए देवराज चौहान रुका नहीं। चाकू को हथेली में छिपाते हुए पलटा और पूल की तरफ बढ़ गया।
पूल के पास पहुंचकर नीचे झुका। चाकू और हाथ को पानी में धोया और चाकू जूतों में छिपाकर खड़ा हुआ और कमीज से गीले हाथ साफ करके सिग्रेट निकालने लगा।
तब तक जगमोहन पूल का चक्कर लगाकर पास आ पहुंचा था।
"ये बहुत सोचने वाली बात है कि पूल के नीचे कुएं तक कैसे पहुंचा जाए ?" जगमोहन ने देवराज चौहान को देखा।
सोहनलाल भी करीब आ पहुंचा था।
"अब तक तुमने कुछ तो सोचा होगा।" जगमोहन ने पुनः कहा।
"उन दोनों के अलावा और कोई नहीं हैं यहां अभी?" सोहनलाल ने कहा--- "मैंने अच्छी तरह देख लिया है।"
"किनकी बात कर रहे हो?"
"दो आदमी थे, जो हम पर नजर रख रहे थे।" सोहनलाल ने कहा।
"ओह!" जगमोहन के होंठ भिंच गाए--- "अब कहां हैं?"
"ऊपर।"
जगमोहन दो पलों तक तो सोहनलाल को देखता रहा।
"यहां उनकी लाशें पड़ी हैं, कभी भी शोर हो सकता है। देवराज चौहान बोला--- "यहां से हमें चल देना वाहिए।"
वो तीनों सामान्य ढंग से वापस चल पड़े।
देवराज चौहान बोला ।
"आठ नम्बर सुइट में उनके बड़े मौजूद हैं। मेरे पूछने पर एक ने बताया। खुद को वो सूरी कह रहा था।"
"मतलब कि हमारे साथ वाले सुइट में ?" जगमोहन की आंखें सिकुड़ीं--- "जिसमें आज सुबह ही एक पति-पत्नी आकर ठहरे हैं, जिन पर हमें पहले से ही शक था।"
"हां, वो दोनों जॉर्ज लूथरा के भेजे हुए हैं।" देवराज चौहान की आवाज में हल्की सी सख्ती थी।
पूल में वो दो लोग अभी भी पानी के मजे ले रहे थे।
"देख लेते हैं उन्हें।" जगमोहन की आंखों में खतरनाक भाव आ गए थे।
पूल वाली खुली जगह को पीछे छोड़कर वे होटल की गैलरी में आ गए थे।
"ये मामला अब खतरनाक होना शुरू हो गया है।" सोहनलाल ने कहा--- "हमने उनके दो लोगों को इस तरह मारा है। ऐसे में वे खुलकर हमारे सामने आ सकते हैं। किसी की परवाह न करके हमें शूट करने...!"
"अभी वो ऐसा नहीं करेंगे।" देवराज चौहान ने कहा--- "क्योंकि उन्हें नक्शों की जरूरत है। जॉर्ज लूथरा ये सोच रहा है कि हम नक्शों के साथ यहां तक आ पहुंचे हैं खजाने पाने के लिए। ऐसे में वे अपनी सोच के मुताबिक हम पर ऐसी जगह पर हाथ डालेंगे कि हमें खत्म भी कर सकें और नक्शे भी ले सकें।"
"मतलब कि हम खतरे में हैं।" जगमोहन बोला।
"हां।" देवराज चौहान ने चलते-चलते सिर हिलाया--- "मेरे ख्याल में जब तक हम इस होटल में हैं, सुरक्षित हैं। यहां से बाहर निकलते ही वे हम पर भेड़ियों की तरह टूट पड़ेंगे।"
किसी ने इस बात का जवाब नहीं दिया।
जब वे रिसेप्शन के सामने से गुजर रहे थे कि तभी देवराज चौहान को पुनः वही एहसास हुआ जैसा कि पहले हुआ था कि कोई उसे घूर रहा है। उसे रुकने पर मजबूर कर रहा है।
न चाहते हुए भी देवराज चौहान के कदम रुकते चले गए।
निगाह उसी पल रिसेप्शन के पीछे दीवार पर बड़ी सी नूरा खान की तस्वीर पर जा लगी। देवराज चौहान को लगा जैसे उसकी आंखें नजरों के जरिए उतरकर उसके दिल तक जा रही हो और वो कह रही हो कि तुम इस खजाने को नहीं पा सकते। ये मेरा है, कोई भी इस तक नहीं पहुंच सकता। तुम्हारी हर कोशिश बेकार रहेगी। इस रास्ते से हट जाओ। वापस चले जाओ।
तस्वीर को देखते हुए देवराज चौहान को हर पल इसी बात का एहसास होता रहा।
"क्या हुआ?" जगमोहन की आवाज कानों में पड़ी--- "तुम रुक क्यों गए?"
देवराज चौहान के मस्तिष्क को हल्का सा झटका लगा। उसे लगा जैसे कुछ पलों के लिए किसी दूसरी दुनिया में चला गया हो। दोनों हथेलियां अपने गालों पर रगड़ीं।
"क्या हुआ?" जगमोहन ने देवराज चौहान को गहरी निगाहों से देखा।
"कुछ नहीं।" देवराज चौहान ने गहरी सांस ली।
"फिर तुम रुके क्यों? जाते वक्त भी यहीं रुके थे। नूरा खान की तस्वीर को देख रहे थे। अब भी...।"
देवराज चौहान ने कुछ नहीं कहा और पुनः आगे बढ़ने लगा।
जगमोहन और सोहनलाल भी चल पड़े।
"मैं दिल्ली जाकर उसे तलाश करने की पूरी कोशिश करूँगा, जो हू-ब-हू नूरा खान की तस्वीर जैसी है।"
"जगमोहन !" सोहनलाल ने धीमे स्वर में कहा--- "देवराज चौहान का नूरा खान की तस्वीर को देखना...कोई खास बात ही है।"
"मुझे भी यही लगता...!" जगमोहन गंभीर था।
"मैं पूछूंगा कि बात क्या है?"
जगमोहन ने कुछ नहीं कहा।
सुइट का दरवाजा खोलकर भीतर प्रवेश किया कि तीनों ही ठिठक गए।
पहला कमरा ड्राइंगरूम जैसा था लेकिन वहां की हालत इस वक्त ऐसी थी, जैसे तूफान वहां से गुजर कर गया हो। वहां का सारा सामान उलट-पुलट हुआ पड़ा था। सोफे तक उल्टे करके उधेड़ रखे थे। जो भी भीतर आए, यकीनन उन्हें खजाने के नक्शे और मुसीबर खान की लिखी किताब की जरूरत होगी। जॉर्ज लूथरा के आदमी हर हाल में वो सब कुछ पा लेना चाहते होंगे।
ये तीन-चार आदमियों का काम था।
जगमोहन दोनों बेडरूम का फेरा लगा आया था।
वहां की हालत भी इसी तरह बुरी थी।
तलाशी लेने वालों ने कोई कसर न छोड़ी थी।
देवराज चौहान ने सोचों में डूबे सिगरेट सुलगाई।
"हम एक घंटे में वापस आ गए।" सोहनलाल ने कहा--- "इतने कम वक्त में इतनी बुरी तरह तलाशी!"
"वे लोग संख्या में ज्यादा होंगे।" देवराज चौहान ने कहा।
"हां, चार-पांच तो रहे ही होंगे।" जगमोहन ने सिर हिलाया।
"अच्छा हुआ कि हम नक्शों को साथ नहीं लाए। सोहनलाल बोला--- "वरना ऐसी तलाशी में कोई चीज छिपी नहीं रहती।"
"नक्शे और किताब उनके हाथ अवश्य लग जाती।"
तभी जगमोहन पुनः बेडरूम की तरफ बढ़ता हुआ बोला।
"साले वहां भी हाथ फेर गए होंगे।"
देवराज चौहान ने कश लेकर सोहनलाल को देखा।
"जॉर्ज लूथरा के आदमी वक्त जरा भी खराब नहीं कर रहे। एक घंटा मिला तो उस वक्त को भी तलाशी में इस्तेमाल कर लिया।"
"खजाने के नक्शों की उन्हें जरूरत है। जॉर्ज लूथरा के लिए वो नक्शों को हर हाल में पा लेना चाहते हैं।"
तभी जगमोहन वापस आया ।
"क्या हुआ?" सोहनलाल ने पूछा।
"वार्डरोब में कपड़ों के नीचे छ: लाख रुपया रखा था।" जगमोहन ने गहरी सांस लेकर कहा--- "वो जो भी लोग थे, उनकी नियत भरी हुई थी। तलाशी तो तबीयत से ली, लेकिन उस छः लाख को साथ नहीं ले गए।"
सोहनलाल ने देवराज चौहान को देखा।
"इस फ्लोर के कोने में सिक्योरिटी रूम है। क्या उन लोगों को बुलाएं कि यहां...!"
"क्या जरूरत है।" देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा--- "हमने यहां ज्यादा देर तो नहीं रहना।"
"रहना भी पड़ सकता है।" जगमोहन बोला--- "पूल के नीचे खजाने तक जाने वाला जो रास्ता...!"
"चुप हो जाओ।" देवराज चौहान ने इस तरह धीमे स्वर में कहा कि जगमोहन चुप होकर उसे देखने लगा।
सोहनलाल आगे बढ़कर सोफे सीधे करने लगा कि कम से कम वे बैठ तो सकें।
कुछ देर बाद वे बैठे।
देवराज चौहान कुछ उलझन में लग रहा था।
जगमोहन और सोहनलाल उसकी बदली हालत को महसूस कर रहे थे।
"बात क्या है?" सोहनलाल ने गंभीर निगाहों से उसे देखा।
देवराज चौहान ने नजरें उठाकर बारी-बारी से दोनों को देखा।
"तुम पूछ रहे थे कि मैं रिसेप्शन के पास आते-जाते क्यों रुका?" देवराज चौहान बोला।
"हां।"
"मैं वहां रुका नहीं, बल्कि रिसेप्शन के पीछे दीवार पर लगी नूरा खान की उस तस्वीर ने मुझे रोका।"
"तस्वीर ने रोका ?" जगमोहन के होंठों से अजीब सा स्वर निकला।
"हां।"
"ये कैसे हो सकता है कि...!"
"जो मैं कह रहा हूं वो ही सही है। मैं नहीं जानता कि ये कैसे हुआ?" देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा--- "मैंने जब भी उस तस्वीर को देखा तो वो आंखें मुझे कहती लग रही थी कि मैं इस काम से पीछे हट जाऊं। ये खजाना, सारी दौलत उसकी है इसे कोई दूसरा छू भी नहीं सकता। वो किसी को अपनी मर्जी के बिना अपनी दौलत तक नहीं पहुंचने देगी।"
जगमोहन ने आंखें सिकोड़कर सोहनलाल को देखा।
सोहनलाल के चेहरे पर गंभीरता के भाव नजर आ रहे थे।
"तुम्हारी बात पर कौन विश्वास करेगा।" जगमोहन कह उठा।
देवराज चौहान ने छोटी सी मुस्कान के साथ उसकी आंखों में झांका।
"तुमने कहा कि तुमने नूरा खान को, नूरा खान जैसी युवती को दिल्ली में देखा। उसके बच्चे भी साथ थे। लड़की बड़ी, लड़का छोटा। तुमने उससे बात की। उसकी ही तस्वीर रिसेप्शन के पीछे लगी है, जिसे यहां के लोग नूरा खान कह रहे हैं। जो कि सौ-डेढ़ सौ बरस से पहले इस दुनिया से जा चुकी होगी। यानी कि तुम्हारी इस बात पर कौन यकीन करेगा?"
जगमोहन देवराज चौहान को देखता रहा। बोला कुछ नहीं।
देवराज चौहान के चेहरे पर पुनः गंभीरता आ गई।
"ये दुनिया करिश्मों से भरी पड़ी है जगमोहन।" देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा--- "जहां तक हम इस दुनिया को देखते हैं, वो शायद दुनिया की शुरुआत भी नहीं है। जैसे जमीन के नीचे या आसमान के पार क्या है, हम नहीं जान पा रहे हैं, उसी तरह इन्सानी जीवन के पीछे क्या-क्या रहस्य है, कोई नहीं जान पाता। कुछ लोगों को पता चल जाता है तो वो ये सोचकर किसी से बात नहीं करते कि सुनने वाले उसे पागल कहेंगे, बेवकूफ कहेंगे। ऐसे में वो खामोश रहना ही बेहतर समझता है।"
जगमोहन, देवराज चौहान को देखे जा रहा था।
सोहनलाल चुप था।
"मैंने कहा कि वो तस्वीर यानी कि नूरा खान की आंखें स्पष्ट तौर पर मुझे कह रही थी कि मैं यहां से चला जाऊं और उसकी दौलत की तरफ दोबारा कभी मुड़कर भी न देखूं। मैं उस तस्वीर को देख रहा था और ये सब बातें मेरे मस्तिष्क से टकरा रही थी। जैसे कोई अज्ञात शक्ति मेरे दिमाग को संदेश भेज रही हो। स्पष्ट तौर पर मेरे मस्तिष्क में ये संदेश आया। अभी भी वो संदेश मेरे मस्तिष्क में मौजूद है। किसी अनजानी शक्ति ने मुझे वहां रुकने और नूरा खान की तस्वीर की तरफ देखने पर विवश किया। इस बात को मैं कैसे झुठला सकता हूं।"
जगमोहन देवराज चौहान को देखता रहा।
कुछ देर की खामोशी के बाद देवराज चौहान कह उठा।
"जब से तुम्हें इस खजाने के बारे में पता चला है, क्या तब से तुम्हारे मन में इस खजाने को पाने की इच्छा थी?"
"नहीं!" जगमोहन के होंठों से निकला।
"क्यों?" देवराज चौहान की आवाज धीमी थी--- "जबकि रुपए-पैसे का जिक्र आते ही तुम्हारे कान खड़े हो जाते हैं लेकिन मुसीबर खान की इस दौलत को पाने के लिए तुम्हारे मन में इच्छा नहीं उठी।"
"मैं इस बात का क्या जवाब दे सकता हूं?"
"लेकिन इस बात के जवाब में मैं इतना ही कहूंगा कि बीच की न मालूम कोई बात तो है ही जो हमें इस दौलत की तरफ बढ़ने से रोक रही है।"
जगमोहन का सिर हौले से हिला।
"मेरा दिल कहता है कि अगर जॉर्ज लूथरा को भी मुसीबर खान के खजाने के नक्शे मिल जाएं तो वो भी खजाने की दौलत तक नहीं पहुंच सकेगा। उसे देख भी नहीं सकेगा।" देवराज चौहान बोला।
"लेकिन उसे नक्शे देने की क्या जरूरत है?" सोहनलाल कह उठा।
"मैं दे नहीं रहा। बात कर रहा हूं।"
जगमोहन ने बेचैनी से उधड़े सोफे पर बैठे पहलू बदला।
"तुम क्या चाहते हो?" सोहनलाल ने गंभीर नजरों से जगमोहन को देखा--- "देवराज चौहान ने जो महसूस किया वो बता दिया। देवराज चौहान की इच्छा नहीं है उन खजानों तक पहुंचने---उन्हें पाने की। तुम...!"
"इन खजानों को पाने की इच्छा तो पहले ही मेरे मन नहीं उठी।" जगमोहन भी गंभीर था--- "मैं तो सिर्फ खजानों को देखने की इच्छा मन में लेकर यहां तक आया था।"
"मेरे ख्याल में देखने की इच्छा भी छोड़ दो तो बेहतर रहेगा।" सोहनलाल ने कहा।
जगमोहन ने देवराज चौहान को देखा।
"हम इन खजानों को देखने का भी ख्याल छोड़ देते हैं।" जगमोहन का स्वर फैसले से भरा था।
"ऐसा करना ही उचित होगा।" देवराज चौहान अजीब से ढंग से मुस्कराया।
"तो इन नक्शों और मुसीबर खान की, खजाने के बारे में लिखी किताब का क्या होगा?" जगमोहन ने पूछा।
"इन चीजों को मैं संभाल कर रखूंगा।"
"क्यों?"
"ताकि कभी नूरा खान मिल जाए तो उसकी अमानत उसे दे सकूं।" देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में सिर हिलाते हुए कहा--- "मुझे पूरा विश्वास है कि तुमने दिल्ली में जिसे देखा, जिससे रास्ता पूछा---वो नूरा खान का अगला जन्म है। वो आज भी इस दुनिया में है। शायद अपनी इसी दौलत को पाने के लिए वो जन्म ले रही है या फिर उसकी कोई इच्छा है, उसे पूरा करने के लिए जन्म ले रही है।"
इसके बाद करीब मिनट भर चुप्पी रही।
इस खामोशी को सोहनलाल ने ही तोड़ा।
"इन सब बातों के पश्चात, जैसलमेर में हमारा कोई काम नहीं।"
"खजाने को लेकर अब कोई काम नहीं रहा।" देवराज चौहान बोला--- "लेकिन यहां पर हमारे पर नजर रखते हुए जॉर्ज लूथरा के आदमी फैले हैं। उनसे बचकर निकलना भी आसान नहीं।"
"तो फिर क्या किया जाए?" जगमोहन बोला।
तीनों की नजरें बारी-बारी मिली।
"इन लोगों को कंट्रोल करने वाला हमारे बगल के सुइट में मौजूद है।" देवराज चौहान की आवाज में सख्ती भर आई थी--- "उससे ही सब को इस वक्त ऑर्डर मिल रहे होंगे। अगर हम उस पर हाथ डालें तो दूसरे लोग खुद ही कमजोर हो जाएंगे।"
"शोर हो सकता है।" सोहनलाल बोला--- "गैलरी के केबिन में सिक्योरिटी वालों का केबिन...!"
"इतना रिस्क तो लेना ही होगा।" देवराज चौहान ने सोच भरे स्वर में कहा--- "जॉर्ज लूथरा के आदमी की कड़ी तोड़ने का एकमात्र यही रास्ता है। दोबारा जब इनकी कड़ी जुड़ेगी। हम जैसलमेर से निकल चुके होंगे।"
तीनों के चेहरों पर सहमति के भाव थे।
सोहनलाल ने गोली वाली सिगरेट सुलगाई और टूटे पड़े सोफे पर बैठे टांगे फैला ली।
"काम कब शुरू करना है ?" वो बोला ।
"अभी।"
सोहनलाल और जगमोहन की निगाह देवराज चौहान पर जा टिकीं।
"अभी ?"
"हां।" देवराज चौहान ने दोनों को देखा--- "अभी हमारे पास वक्त है। कुछ कर सकते हैं। उन दोनों की लाशों के बारे में बात नहीं फैली होगी। बात फैलते ही जॉर्ज लूथरा के आदमियों की तरफ से हम पर सख्ती भरी नजर टिक जाएगी। ऐसे में हम जो करेंगे, वो उनकी निगाहों से छिप नहीं सकेगा।"
"बात तो ठीक है।"
"हमें इसी वक्त हरकत में आना है। आठ नम्बर सुइट में जॉर्ज लूथरा के जो आदमी हैं, उन्हें शूट करके होटल से निकल चलना है।" देवराज चौहान के स्वर में क्रूरता भर आई थी--- "आस-पास और रास्तों में मौजूद जॉर्ज लूथरा के आदमी हमारा रास्ता न रोकें, इससे बचने के लिए हम उस सुइट में मौजूद किसी को अपने साथ रख लेंगे, ताकि वे लोग हम पर फायरिंग न कर सकें।"
"ये भी ठीक है।" जगमोहन का चेहरा सख्त हो उठा था।
देवराज चौहान ने दोनों को देखा, फिर उठ खड़ा हुआ।
सोहनलाल और जगमोहन भी खड़े हो गए।
"सोहनलाल।" देवराज चौहान बोला--- "तुम यहीं रहोगे, लेकिन बगल वाले सुइट पर नजर रखोगे। वहां मैं और जगमोहन जा रहे हैं। वहां शोर-शराबा हो, तब जरूरत के मुताबिक तुम बीच में आ सकते हो।"
सोहनलाल ने सिर हिला दिया।
■■■
"हैलो!" फोन की बेल बजने पर मीनाक्षी ने फौरन पास रखा मोबाइल फोन ऑन करके कान से लगाया।
"मीनाक्षी!" हर्षा यादव की उखड़ी आवाज कानों में पड़ी--- "गड़बड़ हो गई है!"
"क्या हुआ?"
"सूरी अपने एक साथी के साथ होटल के भीतर मौजूद था देवराज चौहान पर निगाह रखने के लिए। दो घंटे पहले देवराज चौहान, जगमोहन और सोहनलाल अपने सुइट से निकलकर स्वीमिंग पूल तक गए तो सूरी और वो आदमी भी उनके पीछे थे। परंतु उन लोगों को पता चल गया तो उन्होंने खामोशी से सूरी और उसके साथी की गला काटकर हत्या कर दी।"
"ओह!" मीनाक्षी के दांत भिंच गए।
"देवराज चौहान को इस तरह छूट दी गई तो वो ऐसी हरकतें करता रहेगा। जब से उसने जैसलमेर में पांव रखा है, हमारे आठ आदमियों को मार चुका है।" हर्षा यादव का खतरनाक स्वर कानों में पड़ा--- "मैं ये सब बर्दाश्त नहीं कर सकता। जॉर्ज लूथरा से बात करके तुम्हें फोन करता हूं।"
"मेरे ख्याल में जॉर्ज लूथरा से बात करना ठीक नहीं। जरा-जरा सी बात के लिए उससे क्या बात करनी ? उसने ये मामला हमारे हवाले कर दिया है। हम सब कुछ अपनी मर्जी से कर सकते हैं।" मीनाक्षी दांत भींचे कह उठी--- "बेहतर होगा कि देवराज चौहान को घेरकर अपने कब्जे में करें। उसकी टांगें तोड़कर उससे नक्शे हासिल करके गोलियों से भून दें। जॉर्ज लूथरा भला इसमें क्या करेगा ?"
कुछ क्षणों के लिए हर्षा यादव की तरफ से कोई आवाज नहीं आई।
"हर्षा।"
"हां।" हर्षा यादव का सोच भरा कठोर स्वर कानों में पड़ा--- "तुम ठीक कह रही हो। तुम्हारी बात मुझे अच्छी लगी।"
"तो देवराज चौहान को घेरकर पकड़ने का इंतजाम करो। ये काम उसके सुइट में ही बढ़िया ढंग से हो सकता है। वो लोग जब सुइट से बाहर गए थे तो पीछे से मैंने उनके सुइट की तलाशी करवा दी कि शायद नक्शे हाथ लग जाएं।"
"मतलब कि हाथ नहीं लगे?"
"नहीं।" मीनाक्षी ने तीखे स्वर में कहा--- "नक्शे उसने अपने पास कपड़ों में छिपा रखे होंगे।"
"ऐसा ही होगा।" हर्षा यादव का स्वर कठोर ही था--- "मैं अभी बाहर जाकर अपने आदमियों से बात करता हूं। देवराज चौहान पर हाथ डालने की योजना तैयार करता हूं। सूरी का खास साथी राजा मेरे साथ है और सूरी की मौत पर उसका दिमाग खराब हुआ पड़ा है। वो देवराज चौहान को खत्म कर देना चाहता है।"
"ऐसे आदमी ही हमारे काम के हैं हर्षा। देवराज चौहान के प्रति उसे आग लगाए रखो। तभी वो देवराज चौहान को साफ करेगा।"
"हां।" हर्षा यादव की आवाज कानों में पड़ी--- "देवराज चौहान का इंतजाम करके सुइट में आता हूं।"
"कब तक पहुंचोगे ?"
"घंटे तक।" इतना कहने के बाद हर्षा यादव ने दूसरी तरफ से फोन बंद कर दिया था।
मीनाक्षी ने भी फोन बंद करके रिसीवर रखा। चेहरे पर उखड़ेपन के गंभीर भाव थे।
तभी डोर बेल बजी।
मीनाक्षी ने फौरन दरवाजे की तरफ देखा। पल भर के लिए आंखें सिकुड़ीं। फिर वो उठी और बंद दरवाजे के पास पहुंचकर बाहर आहट ली। आहट नहीं मिली।
"कौन है ?" मीनाक्षी ने शांत स्वर में पूछा।
"वेटर मैडम। मैसेज है आपका-लिफाफा ।"
मीनाक्षी के होंठ सिकुड़े।
"मेरा कोई मैसेज नहीं आना था। चले जाओ।" सतर्कता के नाते मीनाक्षी दरवाजा खोलने को तैयार नहीं थी।
"यस मैडम। किसी ने लिफाफा मुझे दिया। वो साहब खुद को जॉर्ज लूथरा कह रहे थे। ओ.के. मैडम।"
"जॉर्ज लूथरा ?" मीनाक्षी बडबड़ाई।
बाहर कदमों की आहट मिली। जैसे वेटर जा रहा हो।
मीनाक्षी ने फुर्ती से दरवाजा खोलते हुए कहा।
"सुनो---वो लिफाफा...!" कहते हुए वो ठीक से बाहर देख भी नहीं पाई कि---
उसी पल उसके चेहरे पर हथेली पड़ी और बाकी के शब्द उसके मुंह में रह गए। वो पीछे की तरफ लड़खड़ाती चली गई। खुले दरवाजे से देवराज चौहान ने भीतर प्रवेश किया और उसी पल ही जेब से रिवॉल्वर निकालकर उसकी तरफ कर दी। चेहरा कठोर हुआ पड़ा था।
जगमोहन ने भी भीतर प्रवेश किया और दरवाजा बंद करके सिटकनी चढ़ा दी।
मीनाक्षी ठिठकी, संभली। गहरी-गहरी सांसें लेते उसने देवराज चौहान को देखा।
देवराज चौहान के मेकअप में होने की वजह से उसे पहचानने में कुछ वक्त लगा फिर उसकी आंखें फैलती चली गई।
देवराज चौहान ने तो उसे देखते ही पहचान लिया था।
"द... देवराज चौहान !" मीनाक्षी के होंठों से निकला।
"ये तो मीनाक्षी है।" जगमोहन के होंठों से चौंका हुआ सख्त स्वर निकला--- "वो ही जो हर्षा यादव के साथ थी।"
"इसके साथ जो आदमी है, वो यकीनन हर्षा यादव हो होगा ।"
"इसने मेकअप कर रखा है कि हम इसे पहचान न सकें ।" जगमोहन पूर्ववतः स्वर में कह उठा।
"साथ कौन है तुम्हारे ?" देवराज चौहान दांत भींचकर गुर्राया।
वो खा जाने वाली नजरों से देवराज चौहान को देखती रही। बोली नहीं।
देवराज चौहान ने आगे बढ़कर रिवॉल्वर उसके पेट से लगा दी।
"ह-र्षा!" मीनाक्षी के होंठ फौरन खुले।
रिवॉल्वर की नाल के दम पर देवराज चौहान ने उसे पीछे धकेल दिया।
वो दो-ढाई कदम पीछे हो गई।
"बहुत चालाक बने थे तुम और हर्षा।" देवराज चौहान ने सर्द स्वर में कहा--- "वाल्ट के स्ट्रांगरूम तक पहुंचने का रास्ता मालूम करके खिसक गए। सब कुछ इतने बढ़िया ढंग से किया कि हमें जरा भी शक न हुआ कि तुम लोगों के मन में खोट है। जो बात तारीफ के लायक हो, उसकी तारीफ अवश्य करनी चाहिए।"
मीनाक्षी ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी। वो गुस्से में देवराज चौहान को देख रही थी।
"कच्चा खाएगी क्या?" जगमोहन उसकी नजरों को पहचानकर कड़वे स्वर में कह उठा।
मीनाक्षी ने जगमोहन को भी घूरा।
"देख ले---देख ले।" जगमोहन ने खा जाने वाले ढंग में कहा।
देवराज चौहान ने रिवॉल्वर जेब में डाली और सिगरेट सुलगाई। जगमोहन ने उसी पल रिवॉल्वर निकाल ली कि मीनाक्षी कोई शरारत न कर सके।
इस वक्त मीनाक्षी ने टाईट स्कीवी और घुटनों को पार करती लम्बी खुली स्कर्ट पहन रखी थी।
देवराज चौहान ने कश लेकर कहा।
"तुमने तो सोचा भी नहीं होगा कि इस तरह हमारी इतनी जल्दी फिर मुलाकात हो जाएगी।"
"नहीं सोचा था।" वो शब्द को चबाकर बोली--- "लेकिन तुमने हमें करारी हार दी देवराज चौहान।"
"कैसे?"
"तिजोरी ले उड़े।"
"मेरी योजना पर तुम लोग डकैती करो तो तिजोरी ले जाने का मेरा पूरा हक बनता है।" देवराज चौहान ने सपाट स्वर में कहा--- "जॉर्ज लूथरा कहां है इस वक्त?"
"मालूम नहीं।" मीनाक्षी ने इन्कार में सिर हिलाया--- "उसके बारे में कोई नहीं जानता कि वो कब कहां होता है। इसलिए ये सवाल जिससे भी पूछोगे, वो जवाब नहीं दे सकेगा।"
"यहां पर हम लोगों की जान लेने आए हो?"
"जान से पहले खजानों का नक्शा।" मीनाक्षी ने उसकी आंखों में झांका।
"तभी हमारे सुइट की तलाशी ली।"
"हां, लेकिन मुझे नहीं पता था कि तुम नक्शे हर वक्त अपने साथ रखते हो।"
"अब तुम हमारे कब्जे में हो। तुमने ऐसा कोई काम नहीं किया कि तुम्हें जिंदा छोड़ा जा सके।" देवराज चौहान सर्द स्वर में बोला।
मीनाक्षी के दांत भिंच गए। आंखों में डर की लहर उछली फिर शांत हो गई।
"लेकिन मैं तुम्हें एक मौका दे रहा हूं कि तुम ऐसा काम करो कि जिन्दा रहने की हकदार बन सको।"
"क्या?" मीनाक्षी के होंठ फौरन खुले।
"यहां तुम लोगों के आदमी फैले हैं। जहां भी जाएंगे गोलियां चलेंगी।" देवराज चौहान ने ठण्डे शब्दों में अपनी आवाज पर जोर देकर कहा--- "हम इस वक्त झगड़ा नहीं करना चाहते। झगड़ा दो-चार से होता है। किसी की फौज से नहीं। जैसलमेर में जॉर्ज लूथरा की फौज इकट्ठी होती चली जाएगी। उसका क्या, वो तो अपने आदमियों का यहां ढेर लगा देगा। मुझे आदमियों के ढेर से जीतना नहीं है। ये मेरा काम नहीं है और इस वक्त मजबूरी भी नहीं है।"
मीनाक्षी की आंखें सिकुड़ीं।
"जैसलमेर से निकल जाना चाहते हो?"
"ठीक समझी।"
"और खजाना---जो तुम लोग लेने आए थे?"
"हम यहां कुछ भी लेंने नहीं आए थे।" देवराज चौहान ने उसकी आंखों में झांकते हुए कठोर स्वर में कहा--- "लेकिन मेरी इस बात पर तुम लोगों को यकीन नहीं आएगा और मुझे यकीन दिलाना भी नहीं है। हर्षा यादव कहां है?"
"उसके बारे में मुझे स्पष्ट तौर पर नहीं मालूम।" मीनाक्षी समझने की चेष्टा कर रही थी कि देवराज चौहान के दिमाग में क्या है--- "कुछ देर पहले बात हुई थी। तब वो होटल में ही था। उसने मुझे इस बात की खबर दी कि तुमने सूरी और उसके साथी को मार दिया है। गला काटा उनका क्या?"
"बेहतर होगा कि इस वक्त तुम अपने गले की फिक्र करो।" जगमोहन ने कड़वे स्वर में कहा।
मीनाक्षी ने जगमोहन पर नजर मारी।
"हर्षा यादव को फोन पर बता दो कि तुम मेरे कब्जे में हो और हमें होटल से बाहर लेकर जा रही हो। दो घंटों तक तुम हमारे कब्जे में रहोगी। इस बीच अगर उसका कोई भी आदमी हमें पीछे आता लगा तो हम उसी वक्त तुम्हें गोली मार देंगे। यानी कि तुम्हें जिन्दा देखना चाहता है तो हम पर नजर न रखी जाए।"
मीनाक्षी खामोशी से उन्हें देखती रही।
"जल्दी करो।" जगमोहन गुर्राया--- "हमारी बात माने बिना तुम्हारी जान नहीं बचेगी। हमारे पास इतना वक्त भी नहीं है कि तेरे नखरे उठाते फिरें। हर्षा यादव को अभी करो फोन।"
मीनाक्षी ने बेड की तरफ देखा।
"फोन वहां पड़ा है मेरा।"
देवराज चौहान आगे बढ़ा और बेड से फोन उठाकर मीनाक्षी को थमा दिया। मीनाक्षी ने दांत भींचकर दोनों को बारी-बारी देखा फिर उसकी उंगलियां फोन के बटनों से खेलने लगीं। नम्बर मिलाकर जब उसने फोन कान से लगाया तो देवराज चौहान ने उसके हाथ से फोन लेकर अपने कान से लगा लिया।
"कहो मीनाक्षी।" दूसरे ही पल हर्षा यादव की आवाज देवराज चौहान के कानों में पड़ी।
देवराज चौहान ने फोन मीनाक्षी को थमा दिया।
"हर्षा!" मीनाक्षी कान से फोन लगाकर बोली।
"कहो?"
"देवराज चौहान और जगमोहन इस वक्त मेरे सामने हैं।"
"क्या?" हर्षा यादव का चौंका हुआ स्वर कानों में पड़ा--- "देवराज चौहान और जगमोहन तुम्हारे पास?"
"मुझे इन्होंने बंदी बना लिया है। ये मुझे अपने साथ ले जा रहे हैं। इनका कहना है कि अगर रास्ते में कोई आदमी पीछा करता लगा तो ये मुझे गोली मार देंगे।" मीनाक्षी एक-एक शब्द चबाकर कठोर स्वर में कह रही थी--- "अब ये फैसला तुम्हारे हाथ में है कि कोई मेरा पीछा करेगा या नहीं।"
"नहीं करेगा, तुम फिक्र मत करो।" हर्षा यादव का बेचैन स्वर कानों में पड़ा--- "मैं...!"
"फोन बंद कर रही हूं हर्षा। आशा है जल्दी ही मिलेंगे।" मीनाक्षी ने कहा और फोन बंद करके बेड की तरफ उछाल दिया। चेहरा सख्त हुआ पड़ा था।
"अब तुमने हमारे साथ चलना है।" जगमोहन खतरनाक स्वर में बोला--- "तुम्हारा ध्यान तो खासतौर से मैं रखूंगा। कहीं भी तुमने गड़बड़ करने की कोशिश की तो...।" जगमोहन ने शब्द अधूरे छोड़ दिए।
मीनाक्षी ने वहशी निगाहों से उसे देखा। कहा कुछ नहीं।
■■■
"जॉर्ज लूथरा से बचकर तुम लोग नहीं रह पाओगे।" मीनाक्षी ने तीखे स्वर में कहा।
"क्या कर लेगा वो हमारा।" बगल में बैठे जगमोहन ने कहा। उसने रिवॉल्वर मीनाक्षी की कमर से लगा रखी थी। इस बात के प्रति वो सतर्क था कि मीनाक्षी कोई गड़बड़ न कर सके।
सोहनलाल कार ड्राइव कर रहा था। देवराज चौहान बगल में बैठा था। दोनों हर तरफ पूरी तरह नजर रख रहे थे कि कोई पीछा न कर रहा हो या चालाकी से हर्षा यादव ने पीछा करने का कोई इंतजाम न कर दिया हो। उन्हें चले पन्द्रह मिनट हो चुके थे लेकिन अभी तक ऐसा कुछ न लगा था कि उन पर नजर रखी जा रही हो।
मीनाक्षी पुनः गंभीर स्वर में कह उठी।
"तुम लोगों के पास खजाने के नक्शे हैं। उन नक्शों की जॉर्ज लूथरा को सख्त जरूरत है। हमें मालूम है कि वो नक्शे बहुत बड़े खजाने के हैं। जॉर्ज लूथरा उन नक्शों को भूलेगा नहीं। नक्शे वो लेकर रहेगा। तुम लोग नक्शे दोगे नहीं, ऐसे में वो पहले तुम लोगों की जान लेगा। लेनी ही पड़ेगी उसे।"
"कोई बात नहीं।" जगमोहन ने दांत भींचकर कहा--- “वो हम देख लेंगे, निपट लेंगे उससे।" इसके साथ ही जगमोहन ने देवराज चौहान और सोहनलाल से कहा--- "ये बातों में लगा रही है। इससे मैं बात कर रहा हूं। तुम लोग इस बात का ध्यान रखो कि कोई पीछे न आ रहा हो।"
कार तेजी से दौड़ी जा रही थी।
कुछ ही देर में उन्होंने जैसलमेर से बाहर निकल जाना था।
"निश्चिंत रहो। हर्षा यादव किसी को पीछे नहीं आने देगा। मुझे इस तरह नहीं मरने देगा वो।"
"पता चल जाएगा।" जगमोहन ने उसे सख्त लहजे में कहा।
"मेरी सलाह मानो तो जॉर्ज लूथरा से बात कर लो।" मीनाक्षी शांत-गंभीर स्वर में कह उठी--- "जान भी बच जाएगी तुम सबकी। उसे नक्शे मिल जाएंगे। बदले में वो तुम लोगों को मोटी दौलत दे देगा। हो सकता है तुम लोगों को बढ़िया काम भी दे दे। सारी जिन्दगी मजे से बीत जाएगी।"
"खूब ! " जगमोहन मुस्करा पड़ा--- "हमारी नौकरी पक्की कर रही हो।"
"सरकारी नौकरी से भी पक्का होता है उसका काम।"
"फुर्सत में अवश्य तुम्हारी बात पर गौर करेंगे।" चुभते स्वर में जगमोहन कह उठा।
मीनाक्षी ने उसे घूरा। कहा कुछ नहीं।
कार तेजी से दौड़ रही थी।
"मेरे ख्याल में कोई पीछे नहीं आ रहा।" सोहनलाल बोला--- "कोई हम पर नजर नहीं रख रहा।"
"हर्षा यादव शराफत से काम ले रहा है।" जगमोहन कह उठा।
"मैंने तो पहले ही कहा था कि...!"
"तुम्हें बीच में बोलने को किसने कहा था।" जगमोहन ने तीखे स्वर में कहा।
मीनाक्षी दांत भींचकर रह गई।
अगले पन्द्रह मिनट में वे जैसलमेर से बाहर आ चुके थे। शाम के साढ़े छः बज रहे थे। सूर्य पश्चिम की तरफ झुक रहा था। वो अपनी अंतिम सुर्ख जैसी रोशनी छोड़ रहा था। दिन भर की तपिश अभी भी महसूस हो रही थी।
"सब ठीक है?" कुछ देर बाद जगमोहन ने पूछा।
"हां।"
"तो इस भूतनी को ढोने की क्या जरूरत है। उतारो इसे।" जगमोहन ने जहरीले स्वर में कहा।
"मेरे ख्याल में तो गोली मार कर फेंक देते हैं।" सोहनलाल कह उठा।
मीनाक्षी का चेहरा फक्क पड़ा।
"क्या जरूरत है।" जगमोहन ने मुंह बिगाड़ा--- "जो काम ये करती है। ऐसे में तो इसे कभी कोई भी गोली मार देगा। हमें इस पर गोली खराब करने की क्या जरूरत है।"
सोहनलाल ने देवराज चौहान को देखा।
देवराज चौहान ने सहमति में सिर हिलाया
सोहनलाल ने कार को सड़क के किनारे रोक दिया। ये हाईवे था। खुली सड़क थी। सड़क के दोनों तरफ इक्का-दुक्का पेड़ थे। झाड़ियां थीं। उसके पार दूर तक रेतीला मैदान नजर आ रहा था। शाम के डूबते सूर्य की तीखी रोशनी उन पर पूरी तरह पड़ रही थी।
कार रुकते ही देवराज चौहान बाहर निकला। सोहनलाल भी बाहर आ गया। देवराज चौहान ने पीछे का दरवाजा खोला और मीनाक्षी को बाहर निकलने का इशारा किया। मीनाक्षी दरवाजे की तरफ सरकी और फिर बाहर निकल आई। उसके साथ-साथ ही जगमोहन भी रिवॉल्वर थामे बाहर निकला।
वो सोहनलाल ही था जिसने सबसे पहले मीनाक्षी के हाथ में नन्ही सी पिस्टल दबी देखी। सोहनलाल के पास इतना भी वक्त नहीं बचा था कि वो चीखकर जगमोहन को सावधान कर पाता।
मीनाक्षी ने वो पिस्टल स्कर्ट की उस पॉकेट में फंसा रखी थी जो कि पेट वाले हिस्से पर थी। ये उन तीनों की गलती थी कि उन्होंने मीनाक्षी की तलाशी नहीं ली। यही सोचा कि, उसके पास हथियार नहीं है। परन्तु ये पिस्टल तो मीनाक्षी सोते समय भी अपने साथ ही रखती थी।
मीनाक्षी के सामने जगमोहन था। उसने पिस्टल का रुख उसकी तरफ करके ट्रेगर दबा दिया। यही वो पल था कि सोहनलाल ने जगमोहन को धक्का दिया और मीनाक्षी पर छलांग लगा दी।
जो गोली जगमोहन की छाती में लगनी थी। वो सोहनलाल के धक्का देने की वजह से उसकी बांह में जा धंसी। उधर सोहनलाल मीनाक्षी से टकराया और उसे लेता हुआ नीचे जा गिरा। मीनाक्षी ने फुर्ती के साथ पिस्टल सोहनलाल की पीठ पर लगाई।
"धांय!"
जोरों का धमाका हुआ।
गोली मीनाक्षी के माथे पर जा धंसी थी।
मीनाक्षी को ट्रेगर दबाने का वक्त ही नहीं मिल पाया था।
देवराज चौहान के हाथ में पकड़ी रिवॉल्वर की नाल से जरा-जरा धुआं निकल रहा था। अगर देवराज चौहान ट्रेगर दबाने की, दो पल की भी देरी करता तो, मीनाक्षी की चलाई गोली ने सोहनलाल को खत्म कर देना था। माथे पर गोली लगते ही मीनाक्षी के शरीर को झटका लगा और उसके हाथ-पांव इधर-उधर फैल गए।
लम्बे पलों तक मौत से भरा सन्नाटा वहां छाया रहा।
जगमोहन की बांह में पिस्टल की वो छोटी-सी गोली धंस गई थी। उसके हाथ से रिवॉल्वर कब की नीचे जा गिरी थी। एक हाथ से उसने गोली लगी बांह को दबा रखा था। कार से टेक लगा रखी थी। चेहरे पर छाए भाव बता रहे थे कि बांह में तीव्र पीड़ा उठ रही है।
सोहनलाल मीनाक्षी के ऊपर से उठा और गहरी गहरी सांसें लेते हुए हाथ झाड़ने लगा।
"ठीक हो।" देवराज चौहान मौत भरे स्वर में बोला ।
सोहनलाल ने सिर हिला दिया।
"अगर तुम जगमोहन को धक्का न देते तो...।" देवराज चौहान ने कहना चाहा।
"अगर तुम इसका निशाना लेने में सैकेण्डों की देर कर देते तो मैं भी न बचता।" सोहनलाल मुस्कराकर कह उठा।
देवराज चौहान भी मुस्कराया और रिवॉल्वर जेब में डालते हुए जगमोहन को देखा।
"तुम ठीक हो?"
"ह... हां।" जगमोहन दांत भींचकर बोला--- "गोली किसी खास ही जगह फंस गई है। दर्द बहुत हो रहा है।"
"कुछ देर तो तुम्हें दर्द सहना होगा।" देवराज चौहान बोला--- "आगे जो जगह आएगी। वहीं पर ही गोली निकाली जा सकेगी। वहां डॉक्टर को तलाश कर लेंगे। इस वक्त मेरे पास ऐसा कुछ नहीं है कि गोली को...।"
"वो छोटा चाकू है।" सोहनलाल कह उठा।
"उससे गोली निकालना ठीक नहीं होगा। इंफेक्शन हो सकता है। सैप्टिक हो सकता है। शरीर में जहर फैल सकता है। इससे तो बेहतर है कि कुछ देर और दर्द सह लिया जाए।" देवराज चौहान गम्भीर हो गया था।
जगमोहन बांह दबाए पीछे वाली सीट पर जा लेटा था। सोहनलाल ने दरवाजा बंद कर दिया। तब तक देवराज चौहान स्टेयरिंग सीट पर आ बैठा था। सिगरेट सुलगाई। सोहनलाल स्टेयरिंग में आकर बैठते ही उसने रफ्तार के साथ कार को दौड़ा दिया।
पीछे सड़क के किनारे वो शांत-चित पड़ी थी। सारी दुनिया से, चिन्ताओं से वो मुक्ति पा चुकी थी। अब उसे आराम ही आराम था। कोई परेशानी बाकी न बची थी।
जगमोहन पीछे वाली सीट पर आंखें बंद किए लेटा सोच रहा था कि अगर वो ठीक जगह गोली चलाने में कामयाब हो जाती तो अब तक शायद वो जिन्दा न रहता। तेजी से दौड़ती कार जब उछलती तो, सीट पर पड़े जगमोहन के शरीर में भी हल्की सी उछाल आ जाती। जहां गोली लगी थी। हथेली से बांह का वो हिस्सा दबाए, पीड़ा को वो कम करने की चेष्टा कर रहा था।
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डेढ़ घंटे बाद छोटा-सा शहर आया तो उन्होंने डॉक्टर को ढूंढ़ा। आठ बज चुके थे। खाली बैठा डॉक्टर, तब अपनी दुकानदारी बंद करके, घर जाने की सोच रहा था, जब वो उसके पास पहुंचे। वो अकेला ही था। एक लड़का उसने छोटे-छोटे कामों और दवा देने के लिए रखा हुआ था, जो तीन-चार दिन से नहीं आ रहा था।
जगमोहन की बांह का हाल देखते ही उसके होंठों से निकला।
"ये तो गोली लगी है। किसने मारी ?"
"जिसने मारी...।" देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा--- "वो अब जिन्दा नहीं है।"
"क्यों... क्या हुआ उसे ?"
"मैंने उसे गोली मार दी।"
"तुमने गोली मार दी उसे। मार दिया। खून कर दिया उसका।" डॉक्टर हड़बड़ा कर कह उठा।
"इसकी बांह से गोली निकालो।" देवराज चौहान ने सख्त स्वर में कहा।
"इस तरह किसी के शरीर में फंसी गोली निकालना अपराध है। पहले पुलिस को सूचना देना...।"
कहते-कहते वो रुक गया।
देवराज चौहान ने जेब से रिवॉल्वर निकालकर उसे दिखाई और वापस रख ली।
डॉक्टर के चेहरे पर घबराहट उभरी।
"इसकी बांह में फंसी गोली तो दूसरा डॉक्टर निकाल देगा।" देवराज चौहान ने दांत भींचकर कहा--- "लेकिन जो गोली तेरे दिल में धंसेगी, उसे निकालने का कोई फायदा नहीं होगा। क्योंकि तब तक तू मर चुका होगा।"
वो हड़बड़ाया सा देवराज चौहान को देखने लगा।
"बान्दर की औलाद।" सोहनलाल मुंह बनाकर बोला--- "तेरी मां ने तेरे को अक्ल नहीं सिखाई।"
"सि... सिखाई...।"
"तो फिर आंखें फाड़े क्या देखता है। बाजू से जल्दी से गोली निकाल, नहीं तो तेरे अन्दर गोली...।"
"मैं अभी निकालता हूं।" वो जल्दी से उठते हुए बोला--- "उधर चलो, पर्दे के पीछे।"
"वो पर्दा है या चार खानों वाली चादर।"
"चादर ही है। चलो वहां।"
बीस मिनट लगाए उसने गोली निकालकर ड्रेसिंग करने में। दवा भी दी। उठती पीड़ा से अब जगमोहन को आराम मिल गया था। सामान्य पीड़ा थी। उसकी उसे परवाह नहीं थी।
"आठ-दस दिन लग जाएंगे, पूरी तरह जख्म ठीक होने में। चिन्ता की कोई बात नहीं।" डॉक्टर ने कहा--- "किसी से कहना मत कि मैंने गोली निकाली है। वरना मुसीबत में पड़ जाऊंगा। पुलिस आएगी। मुझे तंग करेगी। दो-चार हजार रुपया झाड़ लेगी। साथ में अपने बच्चों के लिए विटामिन की गोलियां भी मुफ्त।"
"यहां की पुलिस ऐसी है क्या?" जगमोहन मुस्कराकर बोला।
"हां। क्या तुम्हारे वहां की पुलिस ऐसा नहीं करती। कहां के रहने वाले हो ?"
"रहने वाला तो हिन्दुस्तान का ही हूं। लेकिन जिस शहर का हूं, वहां पुलिस ऐसे डॉक्टर को पकड़ कर जेल में ऐसा बन्द करती है कि वो फिर डॉक्टरी करने के काबिल नहीं रहता।" "शुक्र है, मैं उस शहर में डॉक्टरी नहीं करता।"
देवराज चौहान ने पांच सौ का नोट उसकी टेबल पर रखा और वे बाहर आकर कार में बैठे। देवराज चौहान ने कार आगे बढ़ा दी। रात के नौ बज रहे थे।
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तीन दिन बाद।
सोहनलाल के फ्लैट में।
देवराज चौहान और जगमोहन वहीं थे। अपने बंगले पर अभी वो इसलिए नहीं गए थे कि जॉर्ज लूथरा के आदमी उनके लिए, वहां पर निगाह रखते हो सकते हैं। जॉर्ज लूथरा इतने बड़े खजाने का नक्शा पाने के लिए तड़प रहा होगा। वो अपने आदमियों को पागलों की तरह, उनकी तलाश में दौड़ा रहा होगा। ऐसे में जॉर्ज लूथरा के आदमियों के सामने पड़ना, बेवकूफी थी। खामखाह झगड़ा करने में क्या फायदा। इस झगड़े में जॉर्ज लूथरा को ही फायदा होता, उसे जान माल का नुकसान ही होना था।
वक्त बीतने के साथ जॉर्ज लूथरा का जोश अवश्य कुछ कम हो जाएगा। तब की तब देखी जाएगी।
उन्हें यहां पहुंचे बारह घंटे हो चुके थे। रास्ते में जगमोहन की बांह के जख्म पर देवराज चौहान ने खुद ही बैंडिज की थी। दवा कैमिस्ट की दुकान से ले ली थी।
जगमोहन अभी गहरी नींद से उठा था। पहले से उसकी हालत बहुत बेहतर थी। लगभग सामान्य के करीब थी। सोहनलाल दो घंटे पहले उठा था और अब तक नहा-धो चुका था।
देवराज चौहान बेड पर अधलेटा सा सिगरेट के कश ले रहा था।
जगमोहन उसे देखकर मुस्कराया।
"कैसे हो?"
"बढ़िया।" जगमोहन हौले से हंसा--- "मुझे कुछ नहीं हुआ।"
"मालूम है।" देवराज चौहान हौले से हंसा--- "तुम अभी-अभी रेसकोर्स में दौड़कर, पहले नम्बर पर आए हो।"
जगमोहन के होंठों पर मुस्कान छाई रही।
"हम कब तक अपने बंगले से दूर रहेंगे?" जगमोहन ने कहा।
"अभी दूर ही रहना होगा। जॉर्ज लूथरा आसानी से पीछे हटने वाला नहीं।"
"सच में वो खतरनाक है।" जगमोहन ने गहरी सांस ली--- "ऐसे तो वो पीछा छोड़ेगा नहीं। क्योंकि वो जानता है कि खजाना बहुत बड़ा है और उस तक पहुंचने का नक्शा हमारे पास है। वो उसे लिए बिना मानेगा नहीं। खामखाह के झगड़े में पड़ने से बेहतर है कि रहने के लिए नई जगह खरीद लें।"
देवराज चौहान ने कश लिया। कई पलों की लम्बी चुप्पी के बाद वो धीमे स्वर में बोला।
"यहां आते ही, मैं सबसे पहले मुसीबर खान के खजानों के नक्शों को सुरक्षित जगह रखने गया था। अब उन नक्शों को, सिर्फ नूरा खान को ही सौपूंगा। मुझे यकीन है कि इतनी बड़ी दौलत छोड़कर वो चैन से नहीं मर सकती। मरी होगी तो उसकी इच्छाओं ने उसे दोबारा जन्म लेने पर मजबूर कर दिया होगा। उसने दोबारा या तिबारा भी जन्म ले लिया होगा। वो तब तक जन्म लेती रहेगी, जब तक अपने बाप की दौलत को ठीक तरह समेट न लेगी या फिर उसे भूल नहीं जाएगी।"
जगमोहन, देवराज चौहान को देखता रहा।
"क्या देख रहे हो?"
"तुम्हारी कुछ बात मेरी समझ से बाहर है और कुछ भीतर...। यानी की...।"
"जो मैं कह रहा हूं वो अपनी जगह ठीक है। ये बातें हर किसी की समझ में।"
तभी सोहनलाल ट्रे में तीन चाय के गिलास रखे पहुंचा।
"चाय लो। बातें-वातें तो बाद में भी हो जाएंगी।"
"वक्त क्या हुआ है?" जगमोहन ने चाय का प्याला लेते हुए पुछा।
"तीन बजे हैं दिन के।"
सबने चाय थाम ली।
घूंट भरते हुए कुछ वक्त बीता कि देवराज चौहान बोला।
"हम लम्बे समय तक बंगले पर नहीं जा सकेंगे। जॉर्ज लूथरा वहां से अपने आदमी नहीं हटाएगा। बेहतर होगा कि हम वो बंगला छोड़कर नया बंगला खरीद लें।"
"मैंने तो पहले ही कहा है लेकिन हमारा जरूरी सामान वहां पड़ा है।"
सोहनलाल ने जवाब दिया।
"वो तो किसी चोर को भेज कर मंगाया जा सकता है।"
"चोर को?"
"अपने कई चेले-चपाटे हैं। सामान लाने का काम वो कर...।"
यही वो वक्त था, जब रूई का बादलों जैसा छोटा-सा गोला कमरे में घूमता नजर आया।
देवराज चौहान, जगमोहन चौंके। वो समझ गए कि पेशीराम (फकीर बाबा) के आगमन का सूचक है ये रूई जैसा सफेद गोला। सोहनलाल की आंखें सिकुड़ गई थी।
"ये क्या?" सोहनलाल के होंठों से निकला।
तभी वो गोला हवा में स्थिर हुआ और पल-प्रतिपल बड़ा होने लगा। देखते ही देखते उस गोले ने मानवाकृति का रूप लिया और उसी पल वहां फकीर बाबा नजर आने लगा।
"तुम?" सोहनलाल के होंठों से निकला।
"कैसे हो गुलचंद?"
"अच्छा...।" सोहनलाल के चेहरे पर अजीब से भाव थे--- "तुम... तुम कैसे आए?"
फकीर बाबा के झुर्रियों भरे चेहरे पर, शांत-सी मुस्कान उभरी।
"मुझे आना पड़ा। तुम लोगों के लिए नहीं। अपने फायदे के लिए आना पड़ा।" फकीर बाबा के होंठों से मुस्कान गायब हो चुकी थी--- "कोशिश कर रहा हूं शायद तुम लोगों के हाथों मेरे भले की बात हो जाए।"
"क्या मतलब?" जगमोहन के होंठों से निकला।
फकीर बाबा ने बारी-बारी तीनों को देखा फिर गम्भीर स्वर में कह उठा।
"अब से चंद घंटों बाद देवा ऐसे रास्ते पर पड़ जाएगा, जहां इसकी मुलाकात मिन्नो से होगी। अगर देवा चाहे तो भविष्य के गर्भ में छिपे हादसों और टकराव को रोक सकता है।"
"कैसे ?" जगमोहन के होंठों से निकला।
"मिन्नो के सामने देवा नर्म पड़ जाए तो।"
"ऐसे ही नर्म पड़ जाए।" सोहनलाल कह उठा--- "सिर झुका ले मोना चौधरी के सामने देवराज चौहान। पेशीराम तुम गलत कह रहे हो। ये सब नहीं हो...।"
"सुनो पेशीराम।" देवराज चौहान मुस्कराया-- "किसी के सामने तभी नर्म पड़ा जा सकता है, जब सामने वाला नर्म हो। तुम्हारी बात मान लेना आसान नहीं, जबकि सामने मोना चौधरी हो।"
"तुम पहले तो मेरी बात मान जाते थे देवा । अब...।"
"वक्त के साथ-साथ सब कुछ बदल जाता है पेशीराम।" जगमोहन बोला--- "हम तुम्हारे दुश्मन नहीं हैं। हमें तुमसे हमदर्दी है कि तुम्हें गुरुवर के श्राप से मुक्ति मिल जाए। कोई दूसरा रास्ता हो तो बता दो। देवराज चौहान और मोना चौधरी में दोस्ती हो पाना मुझे सम्भव नहीं लगता।"
"अगर चाहो तो सब कुछ हो सकता है जग्गू।"
जगमोहन कुछ कहने लगा कि देवराज चौहान गम्भीर स्वर में बोला।
"मैं कोशिश करूंगा पेशीराम कि मोना चौधरी के साथ झगड़ा न हो।"
फकीर बाबा की नजरें देवराज चौहान पर जा टिकीं।
"सच में कोशिश करना देवराज चौहान।"
"हां।" देवराज चौहान ने गम्भीरता से, हौले से सिर हिलाया।
फकीर बाबा कई पलों तक खामोशी से उन्हें देखता रहा।
"कुछ कहना चाहते हो पेशीराम ?" देवराज चौहान धीमे स्वर में बोला।
"हां।" फकीर बाबा के झुर्रियों से भरे चेहरे पर गम्भीरता थी।
"क्या ?"
"रानी के बारे में कुछ याद है ?"
"रानी?" देवराज चौहान के माथे पर बल पड़े।
जगमोहन और सोहनलाल की निगाह देवराज चौहान पर गई।
देवराज चौहान और फकीर बाबा एक-दूसरे को देखते रहे।
"भूल गए रानी को ?"
"मैं नहीं जानता।" देवराज चौहान उलझन भरे स्वर में कह उठा--- "कौन है रानी?"
फकीर बाबा के झुर्रियों भरे चेहरे पर मुस्कान फैल गई।
"मैं कैसे बताऊं रानी के बारे में...। वो ही वक्त तुम्हारे करीब आता जा रहा है। सब कुछ तुम्हें खुद-ब-खुद ही मालूम हो जाएगा। समय के चक्र को कोई नहीं रोक सकता। हर जन्म में ये चक्र इन्सान के सामने आता है। तुम्हारे सामने भी आ रहा है, लेकिन कुछ जुदा ढंग से।"
"मैं कुछ भी नहीं समझा पेशीराम कि...।"
"सब कुछ समझ जाओगे। कुछ ही घंटों की बात है कि पूर्वजन्म के समय का चक्र तुम्हें घेर लेगा। वो तुम्हारी तरफ बढ़ता आ रहा है। वहां तुम्हारी मुलाकात मिन्नो से भी होगी।" फकीर बाबा के स्वर में परेशानी के भाव टपकने लगे थे--- "उससे झगड़े की अपेक्षा दोस्ती कर लो, मुझे श्राप से मुक्ति मिल जाएगी। इस बूढ़े शरीर को मैं त्याग सकूंगा। सब कुछ तुम्हारे ऊपर है देवा।"
"कोशिश करूंगा।" देवराज चौहान गम्भीर स्वर में कह उठा--- "मोना चौधरी के ऊपर भी निर्भर है कि वो मेरे साथ कैसे पेश आती है।"
फकीर बाबा ने कुछ नहीं कहा और आंखें बंद कर ली। देखते ही देखते वो शरीर रूई के गोले में बदल कर छोटा होता चला गया। फिर वो नन्हा-सा गोला हवा में लहराता खिड़की से बाहर निकल गया।
उनके बीच कई मिनटों तक खामोशी छाई रही।
वे गम्भीर से एक-दूसरे को देख रहे थे। सोचों में डूबे हुए थे।
"खतरनाक मुसीबत शुरू होने वाली है।" जगमोहन ने गहरी सांस लेकर कहा और आंखें बंद कर ली।
सोहनलाल होंठ सिकोड़कर उसे देखने लगा। जबकि देवराज चौहान के मस्तिष्क में फकीर बाबा का बताया एक ही नाम कौंध रहा था।
"रानी... रानी... रानी।"
कौन है रानी ?
कौन थी रानी ?
पेशीराम क्या कहना चाहता था रानी के बारे में?
"कुछ ही घंटों के बाद पूर्वजन्म के समय का चक्र मुझे घेरने वाला है।" देवराज चौहान बड़बड़ा उठा।
सोहनलाल और जगमोहन ने उसकी बड़बड़ाहट सुनी तो वे व्याकुल हो उठे थे।
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