खाना समाप्त करने के बाद जगमोहन बोला ।
"अब यहां से होटल टूरिस्ट सेन्टर चलते हैं। रात हो गई है, नींद भी आ रही है।"
"चलो।" सोहनलाल ने कहा।
खाना सर्व करने वाला टेबल पर पड़े बर्तन उठाने लगा।
"कितने पैसे हुए?" जगमोहन ने पूछा।
देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगा ली थी।
"मालिक 'बिल' बना रहा है। लेकर आता हूं।" उसने कहा--- "आपके शहर में खाना खिलाने वाले को पैसे देते हैं ना ?"
"टिप की बात कर रहे हो।" सोहनलाल ने कहा।
"हां, वो ही, वो ही!" उसने सिर हिलाया।
"देते हैं।" सोहनलाल मुस्कराया--- "क्यों पूछा?"
"यूं ही।"
"तुम्हें टिप चाहिए।"
"देंगे तो क्यों नहीं लूंगा।" उसने फौरन कहा।
"कितनी दूँ।"
"अब मैं मुंह से क्या कहूं।" वो दांत दिखाकर हंसा--- "जो भी देंगे, ले लूंगा। कई लोग तो दिल खुश कर देते हैं। बहुत ज्यादा टिप दे देते हैं। आप भी मुझे खुश कर देना।"
"जितना बिल आए, उतना ऊपर दे दें।"
"आप तो मजाक करने लगे साहब जी !" बर्तन उठाए वो वहां से चला गया।
यही वो पल थे, जब कश लेते हुए देवराज चौहान की निगाह कुछ दूर खड़ी कार पर गई तो नजरें वहीं की वहीं ठहर गई। उसे कार के दूसरी तरफ पहिए के पास कोई लेटा नजर आया। देवराज चौहान ने कश लिया। चुप्पी से भरी तिरछी निगाह वहीं टिकी रही।
कुछ ही पलों में उसे ये एहसास हो गया कि वो टायर के साथ कुछ कर रहा है।
फिर वो जो भी था, उसे कार से दूर होते देखा। वो सरक कर कार से दूर जा रहा था। यहां की मध्यम सी रोशनियां कार तक जा रही थी। स्पष्ट नहीं तो अस्पष्ट सा ही सब कुछ देवराज चौहान ने देखा। अपनी जगह से उसने उठने की चेष्टा जरा भी नहीं की।
वो जो कोई भी था। उसने टायर के साथ छेड़छाड़ की थी। मतलब कि टायर को बेकार किया होगा कि वो यहां से जा न सकें। देवराज चौहान को समझते देर न लगी कि खतरा सिर पर है।
यहां पर उनके खिलाफ कोई कार्यवाही होती है तो वो सब जॉर्ज लूथरा के आदमी ही करेंगे।
यानी कि जॉर्ज लूथरा के आदमियों का जाल हर उस शहर में फैला है, जहां खजाने दबे हैं और यहां पहुंचते ही मेकअप में होने के बावजूद भी वो पहचान लिए गए। देवराज चौहान ने जगमोहन और, सोहनलाल को देखा।
"मेरी बात ध्यान से सुनो।" देवराज चौहान ने बेहद शांत स्वर में कहा--- "इस वक्त हम खतरे में है। अभी-कभी किसी ने हमारी कार का टायर बेकार कर दिया है।"
"क्या?" जगमोहन चौंका--- "तुमने उसे देखा?"
"कार के टायर के साथ लगे देखा।"
"पकड़ा क्यों नहीं?"
"फायदा नहीं था। आसपास न जाने कितने आदमी है हमारी कार को बेकार करने का मतलब है कि वो हमें यहां रोकना चाहते हैं। हो सकता है, उनके और आदमी आ रहे जो...!"
"सच में जॉर्ज लूथरा के काम करने का ढंग, बहुत ही जुदा और तेज है। वो वक्त बरबाद नहीं करता।" सोहनलाल गम्भीर स्वर में कह उठा--- "पहले ही सब कुछ सोचकर तैयार कर लेता है।"
"अब मेरी बात सुनो।" देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा--- "हम यहां झगड़ा करने, मुकाबला करने या ताकत दिखाने नहीं आए। खजाने को देखने, उसका रास्ता देखने आये हैं।"
"तो?"
"वो जॉर्ज लूथरा है। उसके पास आदमियों की कोई कमी नहीं। दस मरेंगे तो बीस आ जाएंगे। उसका काम ही झगड़ा करना है। जबकि हम अपना काम खामोशी से करने के आदी हैं।" देवराज चौहान कह रहा था--- "मैं नहीं चाहता कि जिस काम के लिए हम आए हैं, वो अधूरा छोड़कर जाना पड़े।"
दोनों देवराज चौहान को देख रहे थे।
"हम यहां से अलग हो रहे हैं।" देवराज चौहान फैसल वाले स्वर में बोला--- "इस रेस्टोरेंट का पीछे वाला दरवाजा अवश्य होगा। दोनों उठो और बाथरूम के बहाने, पीछे में निकलकर होटल टूरिस्ट सेन्टर पहुंचो। उस होटल के प्रवेश द्वार के बाहर ही हम मिलेंगे।"
"हम निकल गए तो तुम क्या करोगे ?" जगमोहन कह उठा।
“मैं भी निकल रहा हूं। इस वक्त ज्यादा सवाल मत करो। कार यहीं खड़ी रहने देंगे।"
सोहनलाल और जगमोहन की नजरें मिलीं।
"तो होटल टूरिस्ट सेंटर में मिलेंगे। प्रवेश द्वार के बाहर।" सोहनलाल ने कहा।
देवराज चौहान ने कश लिया।
सोहनलाल और जगमोहन उठे और रेस्टोरेंट के भीतर की तरफ बढ़ गए।
सामने से आता वेटर मिला। बिल को वो हवा में लहराता आ रहा था।
"साहब जी, किधर चले ? मैं...!"
"बाथरूम।"
"बाथरूम तो कहीं नहीं है। पीछे निकल जाओ। हर तरफ खाली जगह है।"
दोनों आगे बढ़ गए।
वो बिल लेकर देवराज चौहान के पास पहुंचा।
देवराज चौहान ने बिल देखे बिना हजार का नोट उसे थमा दिया। साथ ही उसकी सतर्क निगाह हर तरफ जा रही थी। सबकुछ शांत लग रहा था। तभी उसके कानों में कार के रुकने की मध्यम सी आवाज पड़ी। परंतु हैडलाइट कहीं भी नजर न आई। फौरन ही देवराज चौहान ने छिपी निगाहों से देख लिया कि रेस्टोरेंट से कुछ पहले ही सड़क के किनारे एक कार आ खड़ी हुई थी। उस कार के रुकते ही एक आदमी को अंधेरे में उस कार की तरफ बढ़ते देखा तो देवराज चौहान समझ गया कि कार की तरफ बढ़ने वाला वही व्यक्ति होगा, जो उसकी कार के टायर के साथ कुछ कर रहा था। आने वालों को बताएगा कि वो यहां हैं।
वेटर ने कुछ पल तो नोट को देखा, फिर कह उठा।
"साहब जी। दो सौ नब्बे रुपए का बिल है। आप तो हजार का नोट दे रहे हैं। पांच सौ का...।"
"ले जाओ इसे।" देवराज चौहान बोला। नजरें हर तरफ घूम रही थी। वो देख रहा था कि कार के दरवाजे खुल रहे हैं, उसमें से कुछ लोग बाहर निकल रहे हैं। अंधेरे में वे स्पष्ट नजर नहीं आ रहे थे।
"बढ़िया साहब जी। खुल्ला पैसा लेकर आता...!''
"आना मत।"
"न आऊं!" वो ठिठका।
"नहीं।"
"अ... आपका मतलब कि बाकी के सारे पैसों की टिप हो गई।"
"हां।"
"आप तो मजाक...!"
"भाग जा।"
देवराज चौहान की आवाज में ऐसे भाव आ गए थे कि वो वेटर वहां रुका नहीं। देवराज चौहान को गहरी निगाहों से देखता, हजार का नोट थामे, काउंटर पर बैठे व्यक्ति की तरफ बढ़ता चला गया।
देवराज चौहान ने खत्म हो रही सिगरेट का कश लिया और उसे एक तरफ उछालकर सामान्य ढंग से कार की तरफ बढ़ गया। कार के पास पहुंचा और ड्राइविंग डोर के पास पहुंचकर ठिठका। निगाह पीछे वाले पहिए पर गई। वो बैठा हुआ था। टायर जरा सा उधड़ा महसूस हुआ ऐसा लगता था जैसे छोटे से चाकू से टायर ट्यूब को उधेड़कर काट दिया हो। देवराज चौहान की निगाह उस कार की तरफ गई।
अब कार के पास एक ही आदमी दिखा।
स्पष्ट था कि वो अंधेरे में फैल गए थे। उसे घेर रहे होंगे। वो खुले में था। इस तरह खड़े रहना खतरनाक था। वो कभी भी गोलियां चलानी शुरू कर सकते थे। देवराज चौहान उसी पल वहां से हटा और रेस्टोरेंट की तरफ बढ़ा। पांच-दस-बारह कदम ही उठाए थे---टेबलों के करीब पहुंचने ही वाला था कि एकाएक आगे बढ़ने की दिशा छोड़कर दाईं तरफ को, तीर की भांति दौड़ा।
उस तरफ कुछ भी बना हुआ नहीं था। वो खाली जगह थी। वहां अंधेरा था।
अगर यहां पर गोलियां चलनी शुरू हो जाती तो रेस्टोरेंट वाले लोग भी उन गोलियों का शिकार हो सकते थे। देवराज चौहान नहीं चाहता था कि बे-कसूर लोग मरें। दूसरे, इधर अंधेरा था। वो खुद को भी बचा सकता था और उस पर गोली चलाने---निशाना लेने में उन्हें भी परेशानी होती ।
अभी अंधेरे में पहुंचा ही था कि गोली चलने की तेज आवाज हुई।
देवराज चौहान ने उसी पल खुद को नीचे गिरा लिया।
मालूम नहीं गोली कहां गई। कम से कम उसे नहीं लगी थी। फुर्ती के साथ उठा और आगे दौड़ता चला गया। तभी फायर की आवाज हुई। वो पास के ही पेड़ के पीछे छिप गया। पतला सा तना था। लेकिन इस वक्त वो बहुत महत्व रखता था। इसके साथ ही देवराज चौहान ने रिवॉल्वर निकाल ली।
गोलियों के चलते ही रेस्टोरेंट की तरफ से शोर सा उठने लगा था। वहां मौजूद लोग अवश्य हड़बड़ा गए होंगे कि अचानक गोलियां कैसे चलने लगी।
रिवॉल्वर हाथ में थामे पतले से तने के पीछे छिपा देवराज चौहान सतर्कता से आहट लेने लगा कि उनकी जान लेने वाले कहां हैं। तभी उसे एक नजर आया, जो रिवॉल्वर थामे दबे पांव दौड़ता हुआ अंधेरे में जा रहा था। वो देवराज चौहान को रेस्टोरेंट की रोशनी में कुछ नजर आया था। फिर अंधेरे में गुम हो गया था। देवराज चौहान की निगाह उस पर टिकी रही। कुछ आगे जाकर वो अंधेरे में जमीन पर जा लेटा था।
उस पर से नजर हटाकर देवराज चौहान ने आस-पास देखा।
हर तरफ गहरा अंधेरा ही दिखा।
उस व्यक्ति के अलावा कोई दूसरा न दिखा।
वहां से दूर रोशनियां नजर आ रही थी। उधर रिहायशी इलाका या कोई रेस्टोरेंट-होटल होगा। देवराज चौहान नें पुनः हर तरफ नजरें दौड़ाईं।
वे लोग सावधानी से काम ले रहे थे। तभी तो नजर नहीं आ रहे थे। उनमें से दो-तीन रेस्टोरेंट के भीतर भी गए होंगे। जगमोहन और सोहनलाल को देखने के लिए, परंतु देवराज चौहान को पूरा विश्वास था कि वे दोनों उनके हाथों में नहीं आने वाले---निकल गए होंगे।
देवराज चौहान की निगाह उधर जा टिकी, जिधर वो व्यक्ति अंधेरे में लेटा था। कम से कम तीस कदम दूर था वो। लगातार देखने पर उसके अंधेरे में लेटने का आभास हुआ। वो जहां लेटा था, अभी तक वहीं था। अपनी जगह नहीं छोड़ी थी। यकीनन वो उसे तलाश कर रहा होगा कि वो कहां है। उसी पल देवराज चौहान के कानों में मोबाइल फोन की बेल बज उठी।
करीब से ही बेल की आवाज आई थी।
कोई पास आ पहुंचा था।
देवराज चौहान फुर्ती से पलटा और बेल की आवाज की तरफ नाल करके ट्रेगर दबा दिया। फायर का तेज धमाका हुआ और एक चीख उसके कानों में पड़ी। अंधेरे में उसने स्पष्ट देखा कि कोई नीचे गिर रहा है। उसके हाथ में रिवॉल्वर होने की झलक भी मिली। वो नीचे गिर गया। मोबाइल फोन की बेल अभी भी बज रही थीं। बेल का बजना उसके लिए जिन्दगी और उस व्यक्ति के लिए मौत का कारण बना था।
तभी एक के बाद एक दो गोलियां चलीं। वो तने की ओट में था। गोलियां कहीं अंधेरे में गुम हो गई। दूसरों को उसकी स्थिति का एहसास हो गया था। देवराज चौहान ने अपनी जगह छोड़ी और अंधेरे में एक तरफ दौड़ता चला गया।
गोली चलने का धमाका हुआ।
देवराज चौहान को बालों के पास से गर्म अंगारे के निकलने का अहसास हुआ।
देवराज चौहान ने तुरन्त खुद को नीचे गिरा लिया। वो संभला। पेट के बल लेटे ही लेटे हर तरफ नजरें घुमाई। तभी रेस्टोरेंट की तरफ से दो आदमी दौड़ते दिखे। उनके हाथों में रिवॉल्वरें दबी स्पष्ट नजर आई। वो शायद रेस्टोरेंट से जगमोहन और सोहनलाल को देखकर आ रहे होंगे। गोलियां चलने की आवाजें सुनाई दी तो दौड़े चले आ गए।
कुछ दूर थे वो।
देवराज चौहान उन्हें देखता रहा।
उन दोनों ने छिपने की जरा भी चेष्टा नहीं की। रिवॉल्वरें थामे वे दोनों खड़े यकीनन उसकी ही तलाश में नजरें दौड़ा रहे होंगे। कई पल इसी खामोशी में बीत गए। देवराज चौहान सोच रहा था कि कार में आने वाले पांच या छः लोग तो अवश्य होंगे। उनमें से एक को उसकी गोली लग गई थी। दूसरा उधर पोजिशन लिए जमीन पर लेटा था। दो वो नजर आ रहे थे। यानी कि चार उसके सामने थे। दो और होंगे। सातवां वो होगा, जिसने उन लोगों को यहां बुलाया होगा। जिसने उनकी कार का टायर बेकार किया कि वे, उसके साथियों के आने तक वहां से जा न सकें।
अंधेरा इन लोगों से बचने को सहायक हो रहा था तो परेशानी भी पैदा कर रहा था कि इनका निशाना नहीं ले पा रहा था। इस अंधेरे में फैसला होने में काफी वक्त लग जाना था।
तभी मोबाइल की बेल पुनः बज उठी।
वो ही बेल थी। जो शायद अपनी जान गंवा बैठा था। वहीं से आवाज आ रही थी, जहां से देवराज चौहान दौड़कर इधर आया था। वो दोनों अभी भी अपनी जगह पर खड़े स्पष्ट नजर आ रहे थे।
"ये फोन की बेल तो साजन सिंह की है!" दोनों में से एक ने चीखकर कहा।
"साजन सिंह।" दूसरे ने ऊंचे स्वर में पुकारा।
जवाब में साजन सिंह की कोई आवाज नहीं आई।
"वो मर चुका है।" दूर लेटे आदमी ने ऊंचे स्वर में कहा।
उसकी आवाज देवराज चौहान को भी सुनाई पड़ी।
"उसी हरामजादे ने मारा ?" उन दोनों में से कोई एक बोला था।
"हां, उधर ही है वो।"
अब उन दोनों की नजरें उसकी तरफ हो गई थी।
देवराज चौहान के दांत भिंच गए।
वो दोनों कभी भी इधर बढ़ सकते थे। देवराज चौहान को उन दोनों से कोई परेशानी नहीं थी। जो उधर लेटा हुआ था, उसकी भी चिन्ता नहीं थी। परवाह थी तो उन तीनों की जो उसे नजर नहीं आ रहे थे। वो भी यहीं कहीं अंधेरे में थे और उसके सामने उनकी स्थिति स्पष्ट नहीं थी।
देवराज चौहान को वो दोनों हिलते और सावधानी से इधर आते लगे। दोनों के हाथों में दबी रिवॉल्वरों का आभास तो उसे हो चुका था।
देवराज चौहान की उंगलियां रिवॉल्वर पर सख्ती से लिपट गई। वो नहीं जानता था कि इस वक्त रिवॉल्वर की मैग्जीन में कितनी गोलियां बाकी हैं। इस अंधेरे में चैक भी नहीं किया जा सकता था।
दोनों सावधानी से धीरे-धीरे उसकी तरफ बढ़ रहे थे। उनके चलने का ढंग बता रहा था कि उन्हें उसकी स्थिति का ठीक तरह से आभास नहीं था।
देवराज चौहान बिना हिले पेट के बल नीचे पड़ा रहा।
वे पास आते जा रहे थे। देवराज चौहान की खूंखार निगाह, उन पर टिकी थी।
ज्योंहि वो रिवॉल्वर की रेंज में आए, निशाना लेते हुए देवराज चौहान ने ट्रेगर दबा दिया। नाल से आग सी निकली, तेज धमाका हुआ। एक को गिरते देखा उसने। इससे पहले कि दूसरा कुछ सोच सकता, देवराज चौहान की रिवॉल्वर से दूसरा शोला निकला और दूसरे व्यक्ति को कहीं लगा।
वो नीचे जा गिरा, उसकी चीख स्पष्ट सुनी देवराज चौहान ने।
उसी क्षण देवराज चौहान उछलकर खड़ा हुआ और सीधा उसी तरफ भागा, जो जमीन पर लेटा हुआ था। कुछ दूर था। देवराज चौहान ने जो किया, उसकी तो वो कल्पना भी नहीं कर सकता था। वो सोच भी नहीं सकता था कि देवराज चौहान उसकी तरफ भाग खड़ा होगा।
उसे इस तरह अपनी तरफ आते पाकर वो हड़बड़ा उठा। उसने रिवॉल्वर वाला हाथ सीधा करके गोली चलाई, जो कि देवराज चौहान से दो फीट की दूरी से निकल गई। इसके साथ ही देवराज चौहान उसके करीब जा पहुंचा था। रिवॉल्वर वाला हाथ तो सीधा ही किया हुआ था। उसने एक के बाद एक दो गोलियां चलाई, जो कि उस अंधेरे में उसके शरीर में जा धंसी। वो तड़प भी न सका और शांत हो गया।
देवराज चौहान रुका नहीं। उस अंधेरे में रिवॉल्वर थामे सीधा दौड़ता चला गया। कोई रास्ता नहीं मालूम था। वो दौड़ा इसलिए कि बाकी के तीन उसके पीछे आएंगे और उनकी स्थिति स्पष्ट हो जाएगी।
और हुआ भी वही।
दो आदमी उसे अंधेरे में पीछे दौड़ते दिखे। हालांकि वे दूर थे।
देवराज चौहान ने और भी तेजी से दौड़ना शुरू कर दिया। कुछ देर बाद उसने महसूस किया कि वो सड़क पर दौड़ रहा है। तेज--और तेज दौड़ता रहा वो। चन्द्रमा की रोशनी अब स्पष्ट हो चुकी थी। जमीन की जगहें अब स्पष्ट दिखाई देने लगी थी। कुछ आगे उसे एक कमरा दिखाई दिया, जो कि सड़क किनारे यूं ही बना नजर आ रहा था। देवराज चौहान दौड़ते हुए उसे पार करता चला गया। बीस-पच्चीस कदम आगे जाने के पश्चात पीछे रह गए कमरे की दिशा में मुड़ा और ऐसे एंगल में जा पहुंचा कि पीछे आने वालों को लगे कि वो कमरे के पीछे छिपा है। इसके पश्चात फौरन ही जमीन पर लेट गया।
अब देवराज चौहान को इंतजार था पीछे आने वालों का। रिवॉल्वर हाथ में सख्ती से दबा हुआ था। उसके कानों में दौड़ते कदमों की मध्यम सी आवाज पड़ी। फिर आवाज सुनाई देनी बंद हो गई।
वो ठिठक गए थे, रुक गए थे। इस वक्त वो देवराज चौहान को नजर नहीं आ रहे थे। क्योंकि कमरे की दिशा में वो दूसरी तरफ थे। देवराज चौहान उसी तरह पड़ा रहा। उखड़ चुकी सांसें संयत होती जा रही थी। मौत से भरा अगला खेल अब कभी भी शुरू हो सकता था।
तभी एक कमरे के पीछे से बाईं तरफ से नजर आता दिखा। अंधेरे में वो बहुत हद तक स्पष्ट नजर आ रहा था। उसके हाथ में रिवॉल्वर दबे होने का एहसास हो रहा था। वो आहिस्ता-आहिस्ता सतर्कता से आगे बढ़ रहा था। उसी पल दाईं तरफ से दूसरा जरा-जरा करके आगे बढ़ता दिखा। उसके हाथ में भी रिवॉल्वर दबी थी।
वो दोनों ये सोचकर कमरे के पीछे वाले हिस्से को घेरने के लिए आगे बढ़ रहे थे कि वो कमरे के पीछे छिपा है। ये तो सोच भी नहीं सकते थे कि वो कमरे के पिछवाड़े पच्चीस कदम दूर अंधेरे में रेत पर रिवॉल्वर थामे लेटा है। रिवॉल्वर का रुख भी उनकी तरफ है।
वो दोनों तो सोच रहे थे कि कमरे के पीछे मौजूद उसे अभी खत्म कर देंगे।
दाएं-बाएं से बढ़ते कमरे की दीवार के साथ-साथ घूमते हुए वे पुनः आ मिले।
देवराज चौहान के कानों में उनकी मध्यम सी आवाज पड़ी।
"यहां नहीं है?"
"कहां गया?"
"इसी कमरे के भीतर छिप...!"
"नहीं ! मैंने दरवाजा देखा है। उस पर मोटा ताला लगा है। वो कमरे के भीतर कैसे हो सकता है।" एक ने दृढ़ स्वर में दूसरे से कहा--- "दूर से तो हमने उसे कमरे की तरफ ही मुड़ते देखा था।"
"तो फिर कहां चला गया वो?"
दोनों उसकी रिवॉल्वर की हद में थे।
देवराज चौहान ने रिवॉल्वर वाला हाथ पूरी तरह सीधा किया और ट्रेगर दबा दिया।
रात के सन्नाटे में फायर की आवाज दूर-दूर तक गई। गोली एक की छाती में लगी। उसके शरीर को झटका लगा। पास ही कमरे की दीवार से जा टकराया। फिर वो दोनों हाथों से छाती को थामते हुए नीचे बैठता चला गया।
दूसरा चौंका।
वो तब शायद वहां से भागने के लिए पलटा था कि दूसरी गोली उसकी टांग पर जा लगी। वो चीखकर लड़खड़ाते हुए नीचे जा गिरा। देवराज चौहान फुर्ती से उठा और रिवॉल्वर थामे उसके सिर पर जा पहुंचा।
अंधेरे में दोनों ने एक-दूसरे को देखा। परंतु चेहरे स्पष्ट न देख सके।
"मुझे मत मारो।" दर्द से कराहता वो रो देने वाले स्वर में बोला--- "मैं मरना नहीं...!"
देवराज चौहान ने दांत भींचकर रिवॉल्वर उसकी तरफ की और ट्रेगर दबा दिया।
"नहीं!" वो दहशत से गला फाड़कर चीखा।
मैगजीन खाली थी। गोली निकली ही नहीं।
देवराज चौहान का चेहरा क्रूरता से भर गया। उसने हाथ में दबी रिवॉल्वर दूर फेंकी और नीचे पड़ी उसी व्यक्ति की रिवॉल्वर उठाकर उसकी तरफ करते हुए ट्रेगर दबा दिया।
इस बार दहशत से वो चीख भी न सका।
तेज धमाके के साथ गोली उसके चेहरे और सिर से पार होती चली गई। वो फिर हिल न सका। रिवॉल्वर थामे देवराज चौहान की खतरनाक निगाह वहां के अंधेरे से भरे वातावरण में हर तरफ गई। दूर-दूर तक कोई नजर न आया। दूसरी तरफ तेज रोशनियां नजर आ रही थीं।
देवराज चौहान ने रिवॉल्वर जेब में डाली। रूमाल निकालकर पसीने से भरा चेहरा साफ किया और फिर हाथों को पोंछता हुआ सड़क पर आया और उस तरफ बढ़ गया, जिधर रोशनियां हैं। कार पीछे रेस्टोरेंट में खड़ी थी। जिसका पहिया बेकार हो का था। उसे लेने जाना ठीक नहीं था। वहां खतरा हो सकता था। इतना सब कुछ होने के बाद रेस्टोरेंट वाले ने पुलिस को फोन किया ही होगा। वहां पुलिस से भी सामना होने के चांसेस थे।
चलते-चलते देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगा ली।
वो उन रोशनियों के करीब पहुंचता जा रहा था।
■■■
उस वक्त रात के तीन बज रहे थे, जब देवराज चौहान होटल टूरिस्ट सेन्टर के प्रवेश द्वार पर टैक्सी से पहुंचा। सौ कदम दूर उसने टैक्सी पहले ही रुकवा ली और बाहर निकलकर सिगरेट सुलगाई। ऐसा करने के पीछे उसका मकसद सिर्फ इतना था कि वहां मौजूद जगमोहन और सोहनलाल उसे पहचान सकें।
पहचाना भी।
अंधेरे से निकलकर वो आधा मिनट में उसके पास आ गए।
गेट पर लगी रोशनियां वहां तक आ रही थी।
तीनों में कोई बात नहीं हुई। वो टैक्सी में आ बैठे। टैक्सी आगे बढ़ गई। होटल का गेट खुला हुआ था। टैक्सी भीतर प्रवेश करती चली गई। भीतर जगह-जगह खूबसूरत रोशनियों का इंतजाम था। पक्की सड़क सीधी जा रही थी। होटल की बिल्डिंग अभी दूर थी।
एक कार अभी-अभी बगल से निकलकर गेट की तरफ गई थी। रास्ते में दो बड़े-बड़े लॉन भी आए। जहां कई रंगों की लाईटें रोशन थी और आधी रात के इस वक्त भी वहां टहलते-गप्पे मारते लोग दिखे। अधिकतर संख्या युवा जोड़ों की थी।
इस वक्त मौसम में ठण्डक आ गई थी। दिन भर तपती रहने वाली रेतीली जमीन अब ठण्डी हो गई। उससे टकराकर आने वाली हवा ठण्डी थी। दिन में यही जगह गर्म हो जानी थी।
तीन मिनट बाद टैक्सी होटल के मुख्य द्वार के सामने पोर्च में जा रुकी। वहां तीव्र रोशनियों का प्रकाश हो रहा था जैसे सूरज निकल आया हो।
तीनों टैक्सी से बाहर निकले। टैक्सी वाले को बिल पे किया। वो आगे बढ़ गईं और वे तीनों शीशे के खूबसूरत द्वार की तरफ बढ़ गए। वहां खड़े दरबान ने फौरन दरवाजा खोला और अदब से सैल्यूट मारा। तीनों ने मस्तमौला ढंग के कपड़े पहन रखे थे, जबकि ये होटल महंगा था।
शीशे का दरवाजा पार करते ही उन्हें लगा जैसे किसी स्वर्ग में आ गए हों। ए.सी. की ठण्डी हवा। फर्श पर मखमली कालीन। अजीब सी मस्तिष्क को छू लेने वाली महक सांसों से टकरा रही थी। दीवारों पर ऐसी पेंटिग्स कर रखी थी कि देखते ही बनता था। जिक्र करके तो उस जगह का ब्यान नहीं किया जा सकता था।
वो रिसेप्शन हॉल था।
बीस फीट चौड़ा, डेढ़ सौ फीट लम्बा रास्ता जा रहा था। जहां बेशकीमती सोफे बिछे थे। रात के इस वक्त वहां दो-चार लोग ही बैठे थे। एक तरफ पचास फीट चौड़ा रिसेप्शन डेस्क था। जिसके पास दो युवक और एक युवती मौजूद थी। वे अपने कामों में व्यस्त दिख रहे थे।
तीनों वहां पहुंचे।
"वैलकम सर!" रिसेप्शन पर मौजूद युवक उन्हें देखकर मुस्कराया और एक बार में उनका सिर से पांव तक हाल देख लिया--- "मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं?"
"तीनों के लिए रूम चाहिए।" जगमोहन बोला--- "एक ही रूम में तीनों एडजेस्ट हो सकें तो बेहतर रहेगा।"
"श्योर सर।" मुस्कान उसके चेहरे पर चिपकी हुई थी--- "किस रेंज का कमरा आप लेना चाहेंगे ?"
"क्या रेंज है ?"
"सिंगल रूम दो हजार का। डबल के चार हजार रुपए। अगर आप ए.सी. वाला रूम चाहते हैं तो पांच सौ ज्यादा हो जाएंगे। सुइट लेना चाहते हैं, उसका पन्द्रह हजार से लेकर ऊपर की रेंज है। खाने-पीने के लिए रूम सर्विस है, जो भी आप खाना चाहेंगे वो आपको मिलेगा, लेकिन रूम सर्विस के चार्जिज अलग से हैं। हर रूम में मौजूद मीनू कार्ड में ये सब दर्ज है। क्या आप रूम लेना चाहेंगे?"
"क्यों नहीं?"
"कौन सी रेंज का?"
"सुइट पन्द्रह से ऊपर किस रेंज का है?" जगमोहन उसकी हालत समझ रहा था।
"सुइट!" वो हड़बड़ाकर संभला--- "पन्द्रह-अट्ठारह, बीस और पच्चीस हजार तक सुइट हैं! बहुत महंगा है ये---बेहतर होगा कि आप लोग सादा बेडरूम या फिर किसी अन्य होटल में सस्ता सा कमरा...।"
उसके शब्द मुंह में ही रह गए।
देवराज चौहान के हाथ में हजार के नोटों की गड्डी देख ली थी। वो नोटों को फुरेरी दे रहा था। इसके साथ उसने गड्डी को काउंटर पर रखकर युवक की तरफ सरका दिया।
"मेरे ख्याल में तुम इसलिए परेशान हो रहे थे कि तुम्हें हमारे नोटों की रेंज नहीं मालूम थी।" देवराज चौहान ने बेहद शांत स्वर में कहा। होंठों पर मुस्कान आ ठहरी थी।
"ऐसी बात नहीं सर। वो...वो...!"
"मेरे से बात करो।" जगमोहन बोला--- "ये लाख रुपया एडवांस है। पच्चीस हजार वाला सुइट फौरन बुक करो। नींद बहुत आ रही है। ये चार दिन का किराया है। ज्यादा हुए तो और दे देंगे। कम रहे तो बाकी के वापस ले लेंगे।"
"श्योर सर!" युवक बोला--- "आपका सामान ?"
"कल आ जाएगा, तुम अपना काम जल्दी करो।"
उसने बड़ा सा रजिस्टर अपनी तरफ खींचा कि देवराज चौहान बोला।
"ये तस्वीर किसकी है?"
जगमोहन और सोहनलाल की निगाह भी पीछे की तरफ उठी।
रिसेप्शन के पीछे दीवार पर बेहद खूबसूरत युवती की तस्वीर लगी हुई थी, जो कि मंजे हुए आर्टिस्ट द्वारा बनाई गई थी। उसमें ऐसे रंग भरे थे कि लगता था जैसे तस्वीर से वो युवती अभी बाहर आ जाएगी।
"सर, ये नूरा खान की तस्वीर है।"
"नूरा खान!" देवराज चौहान के होंठों से निकला।
"जी।"
"कौन है ये?"
"सर, आप इस वक्त जहां खड़े हैं, ये कभी इसी नूरा खान की हवेली हुआ करती थी। पचास साल पहले सरकार ने इस हवेली पर कब्जा करना चाहा। क्योंकि इसकी असली मालिक नूरा खान कब की इस दुनिया से जा चुकी थी तो उसके रिश्तेदारों ने सरकार को कठिनता से ये हवेली इस शर्त पर दी कि इसकी मालुकिन नूरा खान की तस्वीर रिसेप्शन डेस्क के पीछे लगाई जाएगी। ताकि आने-जाने वालों को मालूम हो सके कि इस जगह की असली मालकिन नूरा खान है। सरकार ने ये शर्त मान ली। उसके बाद ही यहां होटल बन सका था।"
देवराज चौहान की निगाह तस्वीर पर थी।
"इसकी औलादें तो होंगी। नूरा खान की... वो अपनी मां की जायदाद...!"
"बीते जमाने की बातें हो गई सर। मुझे तो कुछ भी नहीं मालूम। हां, कभी-कभार नूरा खान के दूर के रिश्तेदार आते हैं। उनसे बातों-बातों में एक बार पता चला था कि नूरा खान की दो औलादें हुई थी। बेटी बड़ी थी। वो शादी करके अमेरिका में जा बसी थी। वहां उसका बहुत बड़ा डायमंड बिजनेस था। अब भी है लेकिन वो लोग पूरी तरह वहां के हो गए। लड़का अपने पिता की तरह इंजीनियर बन गया और विदेशी कम्पनियां उसे अपने पास काम के लिए बुलाती थी। आधी जिन्दगी उसकी हिन्दुस्तान में बीती और आधी बाहर। ये तो बीते जमाने की...!"
"असम्भव....।" जगमोहन के होंठों से हैरानी भरा स्वर निकला।
सबकी निगाह उस पर गई।
जगमोहन की निगाह अभी भी नूरा खान की तस्वीर पर थी।
"क्या हुआ ?" देवराज चौहान के होंठ सिकुड़े।
"इसे--इसे तो मैंने चार महीने पहले ही देखा था!" जगमोहन के होंठों से निकला।
"कहां?"
"दिल्ली में---दिल्ली किसी काम से गया था तब। मैंने बात भी की थी। रास्ता पूछा था इससे।"
"वहम हुआ है तुम्हें... तुम...!" सोहनलाल ने कहना चाहा।
"मैंने इसे देखा, इससे बात की थी। इसने मुझे रास्ता बताया...!"
"नूरा खान के चेहरे से मिलता कोई चेहरा...!!"
"नहीं सोहनलाल---वो यही थी... यही थी!" जगमोहन एकटक रिसेप्शन के पीछे लगी तस्वीर को देखे जा रहा था--- "यही थी वो! मैं धोखा नहीं खा सकता। उसकी मांग में सिंदूर था। उसके साथ उसकी बेटी और बेटा भी था। बेटी बड़ी थी और बेटा छोटा। वो... वो अपने बच्चों के साथ बाजार में शॉपिंग कर रही थी। यही थी वो ! मुझे झुठलाने की कोशिश मत करना। मैं सच कह रहा हूं। ये... ये वही थी... ये---ओफ्फ... म... मैं...!!!
रिसेप्शन के पीछे खड़ा युवक जगमोहन को इस तरह देख रहा था जैसे वो पागल हो गया हो।
तभी देवराज चौहान ने उसके पैर पर पैर रखकर दबाया।
जगमोहन ने तस्वीर पर से नजरें हटाकर देवराज चौहान को देखा।
"तुम यहां सुइट की बात कर रहे...!"
"लेकिन ये तस्वीर वाली युवती...?"
"मैं इस वक्त तुमसे कुछ और कह रहा हूं।" देवराज चौहान का स्वर शांत था।
जगमोहन ने गहरी सांस ली, फिर युवक को देखा।
"अभी तक रजिस्टर नहीं भरा।"
"भ... भर रहा हूं सर।" युवक ने हड़बड़ाकर कहा और पैन थामे व्यस्त हो गया।
"कैसा स्टाफ भर्ती कर रखा है।" जगमोहन स्पष्ट तौर पर बड़बड़ा उठा--- "काम छोड़कर कस्टमर की बातें सुनने में लग जाता है। यहां के स्टाफ को सख्त ट्रेनिंग की जरूरत है।"
सब कुछ सुनते हुए युवक जल्दी से रजिस्टर भरने में व्यस्त था।
"लाख रुपया एडवांस लिखना मत भूलना।" जगमोहन बोला--- "जरा मोटा-मोटा लाख रुपया लिखना। मेहनत की कमाई है, टैक्स देते हैं सरकार को। कोने में लिखने की जरूरत नहीं। हो सके तो लाख एडवांस की रसीद अलग से दे देना। पैसे देने के मामले में में जरा वहमी हूं। रसीद से काम पक्का हो जाता है।"
■■■
रिसेप्शन हॉल में गुदगुदे सोफे पर ग्रे कलर का सूट पहने एक व्यक्ति बैठा था। वो देर से अखबार पढ़ने में व्यस्त था। यदा-कदा वो पन्ना पलटता और पुन: पढ़ने में व्यस्त हो जाता। एक घंटे के दौरान वो सिर्फ एक बार उठा था पानी पीने के लिए। उसके बाद वो पुनः अखबार पकड़कर वहीं बैठ गया। पांच-सात और लोग भी थे रिसेप्शन के सोफों पर।दो औरतें तो देर से ऐसे चिपकी बैठी बातें कर रही थी कि जैसे उनके बीच कोई बड़ा विवाद जारी हो।
वो ग्रे सूट वाला व्यक्ति सूरी था।
जिससे साजनसिंह ने बात की थी।
जब से देवराज चौहान, जगमोहन और सोहनलाल वहां आए थे तब से उसकी छिपी निगाह उन तीनों पर ही थी। तीनों को यहां सलामत पाकर वो इतना तो समझ गया था कि साज सिंह और उसके आदमियों के साथ अवश्य कुछ बुरा हुआ होगा। सूरी ने साजन सिंह के साथ मोबाइल पर बात करने को कई बार कोशिश की। लेकिन बात नहीं हो सकी थी। साजन सिंह के मोबाइल की बेल बजती रही लेकिन किसी ने बात नहीं की थी।
साजन सिंह के बात न करने का कारण वो नहीं समझ पाया था। लेकिन उसे मालूम हो रहा था कि साजन सिंह ठीक नहीं रहा होगा। तभी तो ये तीनों यहां तक सलामत आ पहुंचे हैं। वो देवराज चौहान और जगमोहन के हुलिए बाखूबी जानता था। इतनी अच्छी तरह कि उनके मेकअप में होने के बाद भी उन्हें पहचान गया था। वैसे भी साजन सिंह ने फोन करके उसे बता दिया था कि वे तीन हैं। इस कारण भी उसे उन्हें पहचानने में कोई दिक्कत नहीं आई थी। इन्हें यहां देखते ही वो सतर्क हो उठा था।
रात की गहरी खामोशी छाई हुई थी वहां। कभी-कभार ही किसी की आवाज सुनाई दे जाती थी।
सूरी ने मोबाइल फोन निकाल कर नम्बर मिलाया और बात की।
"कहो सूरी ?" उधर से आती आवाज उसके कानों में पड़ी।
"साजन सिंह की कोई खबर ?"
"नहीं, उसे कई बार फोन किया जा चुका है। बेल हो रही है लेकिन वो फोन अटेण्ड नहीं कर रहा।"
"अटेंड नहीं कर रहा या फिर वो बात करने के काबिल नहीं रहा।"
"क्या मतलब?"
"देवराज चौहान, जगमोहन के जैसलमेर पहुंचने पर सबसे पहले उसने ही पहचाना था और ऑर्डर के मुताबिक उसको अपने आदमियों को बुलाकर उन लोगों को खत्म करना था। तब वे लोग एक रेस्टोरेंट में खाना खा रहे थे। साजन सिंह ने मुझे फोन पर बताया था कि उनके साथ उनका साथी सोहनलाल भी है।" सूरी धीमे स्वर में बात कर रहा था। अखबार टांगों पर खुली पड़ी थी। छिपी निगाह रिसेप्शन डेस्क के पास खड़े उन तीनों पर थी।
"तो उसने उन तीनों को खत्म कर दिया...!"
"देवराज चौहान, जगमोहन और सोहनलाल कुछ देर पहले ही होटल टूरिस्ट सेन्टर पहुंचे हैं। मेरी नजरों के सामने रिसेप्शन काउंटर पर खड़े यकीनन कमरा ले रहे हैं।" सूरी ने गंभीर स्वर में कहा--- "मैं तो निश्चिंत था कि साजन सिंह सारा मामला संभाल लेगा। लेकिन मुझे भारी गड़बड़ लग रही है।"
उधर से कोई आवाज नहीं आई।
"वो सच में सामने खड़े हैं?" उधर से कहा गया।
"हां।"
“मैंने सुना था वो मेकअप में है। सही सुना था।"
"हां।"
"तूने उन्हें सही पहचाना?"
"हां।"
"इसका मतलब साजन सिंह मारा जा चुका है। वरना वो फोन करता या फिर फोन सुनता। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।"
"मुझे तो लगता है, उसके आदमी भी नहीं बचे होंगे। बचे होते तो कोई खबर मिलती।"
"तुम ठीक कहते लगते हो। वो लोग क्या कर रहे हैं?"
"अभी रिसेप्शन काउंटर पर ही खड़े हैं।"
"मैं ऊपर बात करता हूं।"
"ठीक है।" सूरी ने फोन बंद किया और अखबार पर नजरें टिका दी।
कुछ देर बाद सूरी ने उन तीनों को वेटर के साथ जाते देखा।
वो नजरों से ओझल हो गए।
तभी सूरी उठा और अखबार लपेटता हुआ रिसेप्शन पर जा पहुंचा।
"सर।" रिसेप्शन पर मौजूद युवक अभी भी रजिस्टर में व्यस्त था कि नजरें उठाकर मुस्कराया।
"ये जो अभी-अभी तीन साहब गए हैं।" सूरी सोच भो स्वर में बोला--- "मेरे ख्याल में मैं इन्हें जानता हूं।"
युवक सूरी को देखता रहा।
"किस रूम में हैं ये तीनों?"
"सुइट नम्बर नाईन में।"
"हूं, थैंक्स!" कहकर सूरी वहां से हंटा और वापस रिसेप्शन के सोफे पर वहीं आ बैठा।
तभी उसके मोबाइल की बेल बजी।
"हां!" उसने फोन खोलकर कान से लगाया।
"कल ऊपर से कोई वहां पहुंच रहा है।"
"वहां, कहां?"
"होटल टूरिस्ट सेन्टर।"
"ओह!"
"तुम्हारा फोन नम्बर आने वाले के पास है। वो वहां पहुंचकर तुमसे बात करेगा। तब तक तुम उन तीनों पर नजर रखो। उनकी हर हरकत की रिपोर्ट तुम्हारे पास होनी चाहिए। राजा भी तुम्हारे साथ है?"
"हां। इस वक्त वो बाहर है।"
"ऊपर वालों ने कहा है कि देवराज चौहान और उसके साथियों के पास कुछ महत्वपूर्ण कागजात हैं, जो कि उनसे लेने हैं। अगर मौका मिले तो उन कागजों को हथियाने से चूकना नहीं।"
"ठीक है।"
"मालूम कर लेना कि वे कौन से रूम में...।"
"नौ नम्बर सुइट में वे लोग ठहरे हैं।"
"गुड। नजर रखो। ऊपर वाले जब वहां पहुंचेंगे तो फोन पर तुमसे बात करेंगे।"
"कौन आ रहा है ऊपर से?" सूरी ने पूछा।
"कम से कम जॉर्ज लूथरा नहीं आ रहा।" जवाब मिला और फोन बंद हो गया।
सूरी ने कान से फोन हटाया और गहरी सांस लेकर स्विच दबाते हुए जेब में रख लिया। फिर अखबार लपेटते हुए उठा और बाहर की तरफ बढ़ गया, जहां उसका साथी राजा मौजूद था।
"इसका मतलब।" राजा ने पूरी बात सुनते ही कहा-;- "साजन सिंह और उसके आदमी गए।"
"लगता तो ऐसा ही है।" सूरी गम्भीर स्वर में बोला।
सूरी और राजा इस वक्त होटल के पार्किंग के पार्क में मौजूद थे। राजा तीस बरस का खूबसूरत युवक था। लेकिन खतरनाक था। तभी तो जॉर्ज लूथरा के कामों से आ जुड़ा था।
"देवराज चौहान को समझने में जल्दी की।" राजा ने गम्भीर स्वर में कहा--- "साजन सिंह जल्दबाजी में गलती कर गया। उसने बिना सोचे-समझे देवराज चौहान पर हाथ डाल दिया।"
"शायद वो जिन्दा हो।"
राजा ने जवाब में कुछ नहीं कहा। उसका गम्भीर चेहरा, दूर से आती रोशनी में चमक रहा था।
"ऊपर वाले किसी को भेज रहे हैं।" सूरी बोला--- "कल तक वो होटल में पहुंच जाएगा। फिर हमसे बात करेगा।"
"हमें अब और भी सतर्क रह कर काम करना होगा।" राजा ने गम्भीर स्वर में कहा--- "ऊपर से आने वाला काम के बारे में अच्छी रिपोर्ट सुनेगा। वो काम पूरा होता हुआ देखना चाहेगा।"
"हम अपने हिस्से का काम बाखूबी पूरा कर रहे हैं।" सूरी ने गम्भीर स्वर में कहा।
"ऊपर से आने वाला ये शब्द नहीं सुनेगा। वो काम पूरा देखेगा। जॉर्ज लूथरा से हमें तगड़े नोट मिलते हैं। ऐसे में हमारा भी फर्ज बनता है कि उसके नोटों की वसूली उसे दें। वरना वो हमें...।"
तभी सूरी के फोन की बेल बजी। सूरी ने फौरन फोन निकाल कर बात की।
"हैलो!"
"साजन सिंह और उसके पांच आदमी मार दिए गए हैं।" उधर से उखड़ा स्वर कानों में पड़ा।
"ओह!"
"उन्हें मारने वाले देवराज चौहान, जगमोहन और सोहनलाल हैं। जो कि तुम्हारे सामने ही होटल पहुंचे हैं।"
"हां।" सूरी का चेहरा कठोर हो गया--- "राजा मेरे सामने है। बोलो, खत्म करूं उन्हें ?"
"तुम्हें बताया है कि कल ऊपर से कोई आ रहा है।" स्वर में एकाएक कठोरता आ गई--- " तुम देवराज चौहान और उसक साथियों पर सिर्फ नजर रखोगे। जरूरी बात हुई तो मुझे कर देना। आगे जो भी करना है, उसके आर्डर तुम्हें कल ऊपर से आने वाला देगा समझ गए।"
"हां।"
उधर से फोन बंद कर दिया गया।
"राजा।" सूरी फोन जेब में डालता हुआ बोला--- "साजन सिंह और उसके पांच आदमियों को शूट करके देवराज चौहान यहां पहुंचा है।"
"इस मामले में हमें बहुत सावधान रहना होगा।" राज ने गम्भीर स्वर में कहा।
"कल का इन्तजार करो।"
■■■
"देवराज चौहान।" जगमोहन कुर्सी पर बैठता हुआ बोला--- "मेरी बात का यकीन करो। मैंने उस तस्वीर वाली युवती को चार महीने पहले दिल्ली में देखा था। मार्किट में उसे रोककर उससे रास्ता पूछा था। मैं गलत नहीं...।"
"मुझे तुम्हारी बात पर पूरा यकीन है।" देवराज चौहान गम्भीर आवाज में कह उठा।
सोहनलाल खामोश सा, गोली वाली सिगरेट के कश लेते दोनों को देख रहा था।
"यकीन है ?" जगमोहन ने उलझन भरी निगाहों से देवराज चौहान को देखा।
देवराज चौहान ने सिर हिला दिया।
"उसके साथ दो बच्चे थे। लड़की बड़ी थी। बेटा छोटा। रिसेप्शन वाले ने भी हमें यही बताया कि नूरा खान के तब दे बच्चे थे। लड़की बड़ी और लड़का छोटा।" जगमोहन बेचैन था।
देवराज चौहान, जगमोहन को गम्भीर नजरों से देख रहा था।
"वो नूरा खान ही थी।"
"जगमोहन ।" सोहनलाल ने कश लेकर गम्भीर स्वर में कहा--- "वो नूरा खान के चेहरे जैसी हो सकती...।"
"नहीं।" जगमोहन ने अपने शब्दों पर जोर देकर कहा--- "वो नूरा खान ही थी। यूं कहो कि रिसेप्शन पर लगी तस्वीर उसी युवती की है। क्या तुम्हें मेरी बात पर अविश्वास है ?"
देवराज चौहान और सोहनलाल की नजरें मिली।
जगमोहन परेशान सा बारी-बारी दोनों को देख रहा था।
"देवराज चौहान की तरह मुझे भी यकीन है कि तुम सही कह रहे हो।" सोहनलाल ने धीमे स्वर में कहा--- "तुम्हारी बात पर अविश्वास करने का सवाल ही पैदा नहीं होता।"
"उसने सिन्दूर लगा रखा था। वो हिन्दू थी। जबकि नूरा खान...।"
"तुम भूल रहे हो कि शादी के वक्त नूरा ने धर्म बदल लिया था।" देवराज चौहान ने टोका।
जगमोहन ने देवराज चौहान की आंखों में देखा।
"क्या कहना चाहते हो ?" जगमोहन सतर्क सा नजर आने लगा।
"तुम्हारी बात को सच मान कर चलता हूं तो इसी नतीजे पर पहुंचता हूं कि नूरा खान ने पुनः जन्म लिया है और वो तब तक जन्म लेती रहेगी, जब तक कि अपना हक, अपने पिता की दौलत न पा ले।"
"ये कैसे हो सकता है।" सोहनलाल बोला--- "भला वो किससे उस दौलत को पाएगी ?"
"ये मैं नहीं जानता।" देवराज चौहान ने स्पष्ट तौर पर कहा--- "ये जन्म-जन्म के रिश्तों और पूर्वजन्म में बची रह गई इच्छाओं का मामला है। इस बारे में मैं कुछ भी ज्यादा नहीं कह सकता। लेकिन नूरा खान का दोबारा जन्म लेना, इसी बात की तरफ इशारा करता है कि पूर्वजन्म के बचे हिसाब वो चुकता करके रहेगी। उस हिसाब में उसके बाप की वो दौलत भी आती है, जो आज भी हैदराबाद, जैसलमेर, जयपुर, खंडाला, लखनऊ और मुम्बई में जमीन के नीचे दबी हुई है। उस पर सिर्फ उसी का अधिकार है।"
जगमोहन कुछ न बोला। देवराज चौहान को देखता रहा।
"ये होटल जो कि कभी मुसीबर खान की हवेली थे। नूरा खान भी यहां आती रहती होगी। कितनी शानदार जगह है। तब वो रानी-महारानी की तरह अपना जीवन बिताती होगी। लेकिन दौलत को अहमियत न देकर, उसने एक इंजीनियर को ही अपना सब कुछ मानकर, हर चीज को ठोकर मार दी।" सोहनलाल ने सोच भरे स्वर में कहा।
"तब ऐसा करना उसके लिए जरूरी भी हो गया था शायद।" देवराज चौहान ने उसे देखा--- "उस किताब में लिखा था। मैंने सब कुछ पढ़ा है। नूरा खान के बढ़ते कदम को रोकने के लिए उसे तरह-तरह की यातनाएं दी। हद कर दी। जिनका जिक्र मैं नहीं करना चाहता। उस इंजीनियर को बुरी तरह की यातनाएं दी। अपनी तकलीफों से ज्यादा उसे इस बात का दुख था कि उसके अब्बा ने उस इन्सान को यातनाएं दीं, जिसे वो अपनी जान से भी ज्यादा चाहती है। यहीं पर उनका मन खराब हुआ और पीछे का सब कुछ छोड़ दिया। लेकिन इच्छाएं कभी नहीं मरती। वो आत्मा को दोबारा जन्म लेने के लिए मजबूर कर देती है। तुमने नूरा खान जैसी युवती को देखा तो कोई बड़ी बात नहीं, वो पुनः जन्म लेकर धरती पर आ गई...।"
सोहनलाल ने टोका।
"मेरे ख्याल में हमें अपने काम की बात की तरफ ध्यान देना चाहिए।" एकाएक सोहनलाल कह उठा।
जगमोहन ने गहरी सांस ली।
"पहनने को कपड़े वगैरह कल बाजार से खरीद लेंगे। जो साथ लाए थे, वो तो कार में रह...।" कहते-कहते सोहनलाल एकाएक ठिठका-;- "तुमने बताया नहीं कि हमारे आने के बाद वहां क्या हुआ था?"
देवराज चौहान ने बताया।
"ओह!" जगमोहन के होंठों से निकला--- "छ: लोगों को शूट किया तुमने।"
"किया नहीं, करना पड़ा।" देवराज चौहान मुस्कराया--- "वरना वे मुझे कर देते।"
"उन लोगों को पता लग गया है कि हम जैसलमेर आ पहुंचे हैं।" जगमोहन के होंठों से निकला--- "ये छोटी सी जगह है और जॉर्ज लूथरा के हाथ बहुत लम्बे हैं। वो हमें आसानी से ढूंढ़ लेंगे। हम तक पहुंच जाएंगे।"
"मैं इस बारे में सोच चुका हूं।" देवराज चौहान ने गम्भीर स्वर में कहा--- "हमें जॉर्ज लूथरा के आदमियों से फिर टकराना पड़ सकता है। सच बात तो ये है कि जॉर्ज लूथरा से इस तरह हम लम्बी लड़ाई नहीं लड़ सकते। उसके आदमी मरेंगे तो और आ जाएंगे। ऐसे में कब तक हम खुद को बचाए रख सकते हैं। एक दिन वो हमें मार देंगे।"
"हमें क्या जरूरत है उनसे लम्बी लड़ाई लड़ने की।" जगमोहन ने मुंह बनाया--- "हमें अपने काम की तरफ ध्यान देना चाहिए। जैसलमेर में मुसीबर खान ने दौलत कहां छिपाई थी ?"
"दो जगह।" देवराज चौहान ने गम्भीर स्वर में कहा--- "एक जगह तो उसकी ये हवेली ही है। जिसे आज होटल का रूप दिया जा चुका है। कुछ घंटे आराम करने के बाद, मुसीबर खान के बनाए नक्शे द्वारा जानूंगा कि यहां पर दौलत कहां छिपाई है। दरअसल अपनी दौलत उसने यहां नहीं छिपाई। बल्कि यहां से, वहां तक, जमीन के नीचे ही नीचे रास्ता जाता है, जहां वो बे-शुमार दौलत मौजूद है। ऐसे में यहां हमें वो रास्ता तलाशना है।"
"नक्शा तुम साथ लाए हो ?" सोहनलाल ने पूछा।
"नहीं। यहां का याद है मुझे। जिन बातों को भूलने का डर था, उन्हें कागज पर नोट कर लिया।"
"और दूसरी जगह कहां है?"
"पहले एक जगह तो देख लें।" देवराज चौहान मुस्कराया--- "सुबह के चार बज रहे हैं। हमें नींद ले लेनी चाहिए।"
■■■
सुबह आठ बजे।
होटल टूरिस्ट सैन्टर के पोर्च में काले रंग की विदेशी कार रुकी। जिसके शीशे भी काले थे। वर्दीधारी ड्राइवर उसे चला रहा था। उसके रुकते ही दरबान फौरन आगे बढ़ा और अदब के साथ पीछे वाला दरवाजा खोल दिया। उसमें से पैंतालीस बरस की औरत और पचास बरस का व्यक्ति बाहर निकला। औरत को देखकर लगता था जैसे अपना बुढ़ापा छिपाने के लिए भरपूर मेकअप कर रखा हो। व्यक्ति के चेहरे पर काली-सफेद फ्रेंचकट दाढ़ी थी और सिर के भी काले-सफेद बाल, गर्दन तक आ रहे थे ।
"ठीक है। ठीक है।" वो व्यक्ति अपनी फ्रेंचकट दाढ़ी पर हाथ फेरकर बोला--- "डिग्गी में सामान है। उसे निकालो।" कहकर उसने औरत की बांह पकड़ी और बड़े प्यार से-बड़े अंदाज से वो भीतर की तरफ बढ़ा। दरवाजे को दूसरे दरबान ने खोल रखा था।
वो भीतर सीधा रिसेप्शन पर पहुंचा।
"वेलकम सर।" रिसेप्शन पर मौजूद खूबसूरत युवती ने मुस्कराकर कहा।
"ठीक है। ठीक है। हम रामसरन बाटलीवाला है। हमारा सुइट आपके पास बुक है कि नहीं?"
"यस मिस्टर बाटलीवाला।" युवती मुस्करा कर बोली--- "आपके सैकेट्री का फोन आते ही हमने आपके नाम की एंट्री...।"
"ठीक है। ठीक है।" रामसरन बाटलीवाला हाथ हिलाकर बोला--- "नम्बर क्या है सुझ्ट का?"
"आठ नम्बर सर। आप अपनी एंट्री के आगे रजिस्टर पर हस्ताक्षर कर दीजिए। वेटर आपको सुइट तक पहुंचा आएगा।"
पाठकों की आसानी के लिए हम बता दें कि रामसरन बाटलीवाला और उसके साथ की औरत और कोई नहीं, हर्षा यादव और मीनाक्षी हैं।
वेटर उन्हें आठ नम्बर सुइट में छोड़ गया।
दोनों ने एक-दूसरे को देखा। वो गम्भीर थे।
"देवराज चौहान, जगमोहन और सोहनलाल बगल वाले सुइट में हैं। नौ नम्बर में।" मीनाक्षी कह उठी।
हर्षा यादव आगे बढ़कर सोफा चेयर पर जा बैठा।
"अब क्या करें ?"
"एक बार हमारा वास्ता उनसे पड़ चुका है।" हर्षा यादव ने शांत स्वर में कहा--- "हमने देवराज चौहान को तगड़ी चोट दी थी। मुझे आशा थी कि देर तक वो उस चोट को याद रखेगा। लेकिन उसने पलट कर वार कर दिया। हमारी आंखों के सामने उस तिजोरी को ले उड़ा, जिसमें खजाने के नक्शे थे। यानी कि देवराज चौहान उससे कहीं ज्यादा है, जितना कि हमने उसे समझा था।"
"इस बार हमें ज्यादा सावधानी से चलना है।"
"हां।" हर्षा यादव ने सिर हिलाया--- "देवराज चौहान यहां नक्शों के दम पर खजाने की तलाश में आया है। उसके पास बेशकीमती नक्शे हैं। जॉर्ज लूथरा हर हाल में खजानों के उन नक्शों को चाहता है।"
हर्षा यादव और मीनाक्षी शांत निगाहों से एक-दूसरे को देखते रहे।
"हमें हर हाल में देवराज चौहान से खजाने के वो नक्शे हासिल करने हैं।" हर्षा यादव एकाएक दांत भींचकर कह उठा।
"देवराज चौहान इस वक्त हमारे हाथों से दूर नहीं है।" मीनाक्षी सख्त स्वर में कह उठी--- "वो खजाने के नक्शों के साथ बगल वाले सुइट में मौजूद है। हम चाहें तो अभी...।"
"हमें ऐसा कोई काम नहीं करना है कि बाद में पछताना पड़े।" हर्षा यादव इन्कार में सिर हिलाता हुआ बोला--- "दो बार देवराज चौहान हमें चोट दे चुका है। एक बार वो तिजोरी ले उड़ा। दूसरी बार जैसलमेर पहुंचते ही हमारे छ: आदमियों को गोली से उड़ा दिया। पहले की तरह उसे कम नहीं समझना है। सोच समझ कर चलना है।"
मीनाक्षी गहरी सांस लेकर, सख्त स्वर में कह उठी।
"हर्षा। मुझसे सहन नहीं हो रहा है कि देवराज चौहान बगल वाले सुइट में, नक्शों के साथ मौजूद है। और हम यहां बैठे सोच रहे हैं कि क्या करें।"
"सहन करो।"
"मालूम है मुझे कि कुछ देर सहन करना होगा।" मीनाक्षी के दांत भिंच गए--- "सूरी को फोन करो।"
हर्षा यादव ने तुरन्त अपना मोबाइल फोन निकाला और सूरी के नम्बर मिलाए।
"हैलो!" उधर से सूरी की आवाज आई।
"अपना नाम बोलो।" हर्षा यादव की आवाज बेहद शांत थी।
"सूरी कहते हैं मुझे।" उसकी आवाज में सतर्कता आ गई थी।
"होटल टूरिस्ट सैन्टर। सुइट नम्बर आठ । अकेले आना।"
"जी, मैं दस मिनट में पहुंचा।"
हर्षा यादव ने फोन बंद करके जेब में रखा।
"तुमने क्या सोचा कि देवराज चौहान से कैसे नक्शे लेने हैं?"
"हमसे ज्यादा बेहतर, सूरी नाम का व्यक्ति बता सकता है कि कैसे करना है काम। वो यहां पहले से है। यहां के हालातों से वाकिफ है। उसके पास हमसे ज्यादा जानकारी है।" हर्षा यादव ने सोच भरे स्वर में कहा।
"आने दो उसे। बात कर लेते हैं।" मीनाक्षी बोली--- "देवराज चौहान के बारे में क्या ख्याल है तुम्हारा?"
"तुम्हारा सवाल मैं नहीं समझा?"
"उसे खत्म कर दिया जाए तो कैसा रहे?"
"जॉर्ज लूथरा की तरफ से मैसेज आ चुका है कि देवराज चौहान को खत्म करने का मौका मिले तो बेशक उसे खत्म कर दिया जाए।" हर्षा यादव कह उठा--- "जॉर्ज लूथरा का कहना है कि देवराज चौहान एक बार पहले उसके रास्ते में आकर साफ बचकर निकल चुका है। ये देवराज चौहान की दूसरी बार है कि उसके मामले में आया। जॉर्ज लूथरा नहीं चाहता कि तीसरी बार देवराज चौहान उसके रास्ते में आए।"
"इस बार देवराज चौहान जिन्दा नहीं बचेगा।" मीनाक्षी के होंठों से गुर्राहट निकली।
"ये आसान काम नहीं है। वो बहुत सतर्क रहता...।"
"हम मुंबई में उसे खत्म कर सकते थे जब वो हमारे फ्लैट पर आता...।"
"तब जॉर्ज लूथरा का आर्डर था कि देवराज चौहान से, वाल्ट के स्ट्रांग रूम तक पहुंचने के लिए योजना निकलवानी है। उस वक्त देवराज चौहान को खत्म करने का ऑर्डर हमें नहीं मिला था। जॉर्ज लूथरा ने शायद जानबूझकर हमें ऑर्डर नहीं दिया कि दूसरा ऑर्डर सुनकर हमसे काम गलत न हो जाए। पहले हम एक काम पूरा कर लें।"
"मेरे ख्याल में तब जॉर्ज लूथरा को कह देना चाहिए था कि देवराज बौहान को खत्म कर दिया जाए।"
"उससे क्या होता?"
"देवराज चौहान अब तक जिन्दा न होता।"
हर्षा यादव, मीनाक्षी को देखने लगा।
"जब हम उस फ्लैट को छोड़कर आ गए थे तो वहां देवराज चौहान पहुंचा था।" मीनाक्षी बोली।
"हां।"
"तब वहां हम अपने आदमी छोड़ सकते थे कि वो पहुंचे और उसे खत्म कर दिया जाए। बहुत आसान था, तब देवराज चौहान को खत्म कर देना। सुनहरी मौका था हमारे पास।" मीनाक्षी का चेहरा कठोर हो गया था।
"हां।" हर्षा यादव सोच भरे स्वर में कह उठा--- "तुम ठीक कह रही हो।"
"कोई बात नहीं। अब भी देवराज चौहान हमारे हाथों से दूर नहीं है।"
"ब्रेक फास्ट का ऑर्डर दो। आगे के बारे में सोचते हैं।"
मीनाक्षी ने सर्विस रूम में इन्टरकॉम पर ब्रेकफास्ट का ऑर्डर दिया।
तभी कॉलबेल बजी।
"सूरी होगा।" हर्षा यादव ने कहा।
मीनाक्षी आगे बढ़ी और सावधानी से दरवाजा खोला।
सामने सूरी ही था।
"यस ?" मीनाक्षी उसे पहले कभी नहीं मिली थी।
"मैडम, मैं सूरी...।"
"आओ।" मीनाक्षी ने दरवाजा पूरा खोल दिया।
सूरी भीतर आया तो उसने दरवाजा बंद किया।
सूरी की निगाह सोफा चेयर पर बैठे हर्षा यादव पर जा टिकी थी।
"गुड मार्निंग सर।"
"आगे बढ़ो और बैठ जाओ।" मीनाक्षी बोली।
सूरी आगे बढ़कर सोफे पर जा बैठा।
मीनाक्षी भी एक सोफे पर जा बैठी।
"आप लोग कब आए?" सूरी ने बात करने के लहजे में पूछा।
"ज्यादा देर नहीं हुई।" हर्षा यादव शांत स्वर में बोला--- "देवराज चौहान कहां है?"
"बगल वाले सुइट में।"
हर्षा यादव का चेहरा कठोर हो गया।
"पूरी बात बोला करो।" मीनाक्षी बोली--- "उसके साथ कितने लोग हैं?"
"दो लोग देवराज चौहान के साथ हैं। जगमोहन और सोहनलाल ।"
"रात हमारे आदमी देवराज चौहान ने कैसे मार डाले?"
"मैं वहां नहीं था।" सूरी संभले स्वर में बोला--- "साजन सिंह ने उस पर हाथ डालने से पहले मुझे फोन किया था कि वो क्या करने जा रहा है। मुझे बताया। उसे विश्वास था कि वो देवराज चौहान और जगमोहन, सोहनलाल को मार देगा। लेकिन फिर पता नहीं क्या हुआ, साजन सिंह अपने पांचों साथियों के साथ मारा गया। ये तो मेरे को बाद में पता चला। उससे पहले ही मैंने देवराज चौहान, जगमोहन और सोहनलाल को यहां आया देख लिया था। मैं राजा के साथ इधर ही नजर रख रहा था। बाद में पता चला कि वो क्या करके आए हैं ?"
"अब सवाल ये है कि देवराज चौहान के पास नक्शे जैसे कुछ कागज हैं। वो हमने लेने हैं और उसे खत्म भी करना है।" मीनाक्षी कह उठी--- "ये काम कैसे किया जाए कि ठीक रहेगा। वो बगल वाले सुइट में है। तुम अपने आदमी लेकर किसी तरह उसके सुइट में जा सकते हो।"
"नो मैडम।"
"क्या मतलब?"
"सुइट के भीतर जाकर कुछ भी करना गलत होगा। एक भी गोली चल गई तो उसी पल होटल के मैनेजमेंट को पता चल जाएगा। यहां हर फ्लोर पर सिक्योरिटी केबिन है।" सूरी ने कहा--- "मेरे ख्याल में उन्हें बाहर निकलने देना चाहिए। यहां से बाहर हर तरफ खुली जगह है। उधर कहीं भी देवराज चौहान का निशाना लिया जा सकता है। जो नक्शे आपको चाहिए वो तब उसके पास हुए तो ले लेंगे। नहीं तो सुइट में रखे होंगे। यहां आकर उठा लेंगे।"
"उसके साथ जगमोहन और सोहनलाल को भी खत्म कर देना।"
"जी।"
"लेकिन असली निशाना देवराज चौहान ही होना चाहिए।" मीनाक्षी कह उठी--- "उसके बाद वे दोनों।"
"यस मैडम।"
"तुम अपनी तैयारी पूरी कर लो। मौके पर चूक नहीं जाना।" हर्षा यादव ने गम्भीर स्वर में कहा--- "हमसे सम्बन्ध बनाए रखना। हमारे फोन नम्बर नोट कर लो।"
सूरी ने हर्षा यादव और मीनाक्षी के मोबाइल फोन नम्बर नोट कर लिए।
"हम चाहते हैं कि इस काम को जल्दी खत्म कर दिया जाए।" मीनाक्षी बोली।
"मैं पूरी कोशिश करूंगा कि एक-दो दिन में ही सब ठीक हो जाए।"
उसके बाद सूरी चला गया।
उनका नाश्ता आ गया।
"तुम्हें नहीं लगता हर्षा कि जॉर्ज लूथरा खामखाह देवराज चौहान से घबरा रहा है।" मीनाक्षी बोली।
"वो घबरा नहीं रहा।" हर्षा यादव मुस्करा पड़ा--- "सतर्कता बरत रहा है। वो नहीं चाहता कि भविष्य में देवराज चौहान, खुलकर उसके खिलाफ उठ खड़ा हो और उसमें, उसका वक्त खराब हो।"
■■■
देवराज चौहान, जगमोहन और सोहनलाल नाश्ता कर चुके थे। सुबह के ग्यारह बज रहे थे। देवराज चौहान के कहने पर, जगमोहन रिसेप्शन से होटल का नक्शा ले आया था कि कौन- सी चीज कहां पर बनी हुई है। वो नक्शे होटल वालों ने ही तैयार कर रखे थे कि यात्रियों को कहीं भी जाना हो तो ज्यादा पूछताछ की जरूरत न पड़े और खुद ही पहुंच जाए।
होटल की इमारत के आसपास भी दूर-दूर तक आने-जाने की जगहें थी। कभी ये हवेली, महल की तरह रही होगी। होटल में अभी भी कई जगहें हवेली का एहसास दिला देती थी।
देवराज चौहान सादे कागज पर दो घंटों से कोई हिसाब लगाने में व्यस्त था। जगमोहन होटल का जो नक्शा लाया था अब उस नक्शे को, अपने बनाये नक्शे से मिला रहा था। अपने बनाए नक्शे में एक खास जगह को वो होटल के नये नक्शे में तलाश कर रहा था कि वो जगह अब कहां हो सकती है।
तभी फोन की बेल बजने लगी।
तीनों की नजरें मिली।
"यहां हमें कौन फोन कर सकता है?" जगमोहन ने कहा।
"देखता हूं।" कहकर सोहनलाल फोन की तरफ बढ़ गया--- "हैलो!" उसने रिसीवर उठाया।
क्षणिक चुप्पी के बाद बेहद शांत आवाज उसके कानों में पड़ी।
"सोहनलाल।"
सोहनलाल की आंखें सिकुड़ी।
"कौन हो तुम?"
"मालूम हो जाएगा। देवराज चौहान को फोन दो।"
कुछ पलों के लिए सोहनलाल रिसीवर थामे, उलझन से खड़ा रहा।
"क्या सोच रहे हो सोहनलाल ।" आवाज पुनः कानों में पड़ी।
"तुम्हारे बारे में मोच...।"
"मेरे बारे में सोचकर वक्त खराब मत करो। देवरार चौहान से बात होते ही सब समझ में...।"
"होल्ड करो ।" कहने के साथ ही सोहनलाल ने रिसीवर फोन के पास रख दिया।
देवराज चौहान और जगमोहन उसे ही देख रहे थे।
"फोन पर जो है, वो मेरी आवाज पहचानता है। उसने मुझे नाम से पुकारा और तुमसे बात करने को कह रहा है।" सोहनलाल ने करीब पहुंचकर कहा--- "मेरे ख्याल में वो जो बात करेगा तुमसे ही करेगा।"
होंठ सिकोड़े देवराज चौहान उठा और फोन की तरफ बढ़ गया।
"हैलो !'' देवराज चौहान ने रिसीवर कान से उठाकर कान से लगाया।
"तुम्हारी आवाज सुनकर मुझे बहुत खुशी हुई देवराज चौहान ।"
देवराज चौहान ने आंखें बंद कर ली। कुछ पलों के आंखें खोली और गहरी सांस ली।
उस आवाज का वो करोड़ों में भी पहचान सकता था।
दूसरी तरफ जॉर्ज लूथरा था।
खतरनाक आतंकवादी जॉर्ज लूथरा । दौलत ही उसके लिए सब कुछ थी। वो हर उस देश के लिए काम करता था जो उसे भरपूर दौलत दे। यूं तो वो हिन्दुस्तानी था लेकिन आतंकवादी का कोई भी अपना देश नहीं होता। वो सिर्फ आतंकवादी था। अपना काम पूरा करने के लिए वो सारी हद पार कर देता था।
"मुझे भी जॉर्ज लूथरा की आवाज सुनकर खुशी हुई।" देवराज चौहान ने सामान्य स्वर में कहा।
जगमोहन और सोहनलाल की नजरे मिली।
"मैंने सोचा नहीं था कि हमारी इतनी जल्दी फिर मुलाकात होगी।" जॉर्ज लूथरा का शांत स्वर कानों में पड़ा।
"हमारी मुलाकात न तो पहले हुई थी और न अब।" देवराज चौहान ने कहा।
"क्या कहना चाहते हो?"
"पहले जो मुझसे मिला वो तुम्हारा डुप्लीकेट था। मैंने उसे खत्म कर दिया था।" देवराज चौहान की आवाज में कोई भाव नहीं था।
"हां।" जॉर्ज लूथरा का हौले से हंसने का स्वर कानों में पड़ा--- "वो मेरा डुप्लीकेट था और तुमने उसे इस कदर बुरे ढंग से मारा कि, जैसे मुझे मार रहे हो। लेकिन बाद में समझ गए कि वो मेरा डुप्लीकेट था।"
"तुम्हारे एक नहीं कई डुप्लीकेट हैं।" देवराज चौहान बोला--- "जहां मौत से सामना करना होता है वहां अपने डुप्लीकेट को भेज देते हो। तुमसे बड़ा डरपोक इन्सान मैंने दूसरा नहीं देखा।"
जवाब में जॉर्ज लूथरा की हंसी कानों में पड़ी फिर शब्द।
"डरपोक शब्द इस्तेमाल न करो। समझदारी कहो। मेरे सैकड़ों डुप्लीकेट मर जाएं, कोई फर्क नहीं पड़ेगा। फर्क तो तब पड़ेगा, जब मैं मर जाऊंगा। मेरे मरते ही सब कुछ थम जाएगा। इसलिए मुझे जिन्दा रहना है।"
"कब तक जिन्दा रहोगे?"
"अंत तक। मुझे कोई नहीं मार सकता। सामान्य मौत मरूंगा मैं।" जॉर्ज लूथरा के स्वर में विश्वास के भाव थे।
"तुम जैसे जब मरते हैं तो दुनिया को खबर भी नहीं होती। चुपचाप बुरी मौत मर जाते हैं।" देवराज चौहान की आवाज में सख्ती आ गई--- "मेरे सामने जब पड़े तो जिन्दा नहीं रहोगे जॉर्ज लूथरा ।"
"एक बार तो तुम मुझे मार चुके हो।" उसकी हंसी की आवाज कानों में पड़ी।
"मैं तुम्हें बार-बार मारूंगा, जब तक तुम मरोगे नहीं।"
"मुझे मारने के लिए तुम्हारा जीवन छोटा पड़ेगा।"
"ये तो आने वाला वक्त बताएगा।"
"तुमने मुझे बहुत बड़ा नुकसान पहुंचाया देवराज चौहान।" जॉर्ज लूथरा उधर से कह रहा था--- "मेरा वो ठिकाना तबाह कर दिया। वो सारे हथियार तुमने तबाह...।"
"वो बात कहो जो मुझे मालूम न हो।" देवराज चौहान ने टोका।
"तुम्हें तो सब मालूम है। क्या कहूं।" जॉर्ज लूथरा के शब्दों में मुस्कान थी--- "तुम्हारे तब के सारे साथी वो काली सिंह, सोनिया बजाज, हीरालाल... सब इस वक्त मेरी नजरो हैं।"
देवराज चौहान के चेहरे पर कठोरता आ गई।
"क्या कहना चाहते हो?"
"मैंने उन्हें कुछ नहीं कहा। बेशक वो तुम्हारे साथ थे, ता मेरी तबाही में। कुछ कहूंगा भी नहीं उन्हें । तब तो वो तुम्हारे मोहरे थे। उनका क्या कसूर । हां, दोबारा फिर उन्होंने मेरे खिलाफ काम किया तो...।"
"पंड्या गद्दार निकला । वरना तुम्हें और भी नुकसान होना था।"
"तुम्हारा गद्दार होगा। मेरे लिए तो उसने बढ़िया काम किया।" जॉर्ज लूथरा के शब्द देवराज चौहान के कानों पड़े--- “तुमने मुझे बहुत बड़ा नुकसान पहुंचाया। लेकिन मैंने तुम्हें खत्म करने के ऑर्डर नहीं दिए। क्योंकि मैं समझदार और बहादुर लोगों की इज्जत करता हूं। उनकी जान को मैं हिफाजत से रखता हूं। बेशक वो मेरा दुश्मन ही क्यों न हो।"
देवराज चौहान की आंखें सिकुड़ी रही।
"कुछ कहोगे नहीं देवराज चौहान।"
"पहले तुम कह लो।"
"मेरे साथ मिल जाओ। तुम जैसे बढ़िया आदमी का मरना पसन्द नहीं आएगा मुझे ।" जॉर्ज लूथरा का शांत स्वर कानों में पड़ रहा था--- "और अब तो तुम्हारे पास खास मौका है, मेरी तरफ हाथ बढ़ाने का। तुम्हारे पास इतने बड़े खजाने का नक्शा है कि हम दोनों बहुत अच्छे ढंग से मिल सकते हैं। वैसे उन नक्शों को तो देख लिया होगा।"
"कुछ-कुछ।"
"कैसा लग रहा है, इतनी बड़ी दौलत के नक्शों को अपने पास पाकर।"
देवराज चौहान होंठ सिकोड़े खड़ा रहा।
"तुम...।"
"हर्षा यादव और मीनाक्षी का जाल, बहुत अच्छा फेंका मुझ पर।" एकाएक देवराज चौहान ने कहा।
"हां। वो सब करना पड़ा। मेरे आदमियों को स्ट्रांग रूम तक पहुंचने का रास्ता नहीं मिल रहा था। तभी तुम्हारे बारे में खबर मिली तो सोचा तुमसे ही स्ट्रांग रूम तक पहुंचने का रास्ता जान लें। ऐसे मौके पर देवराज चौहान जैसा डकैती मास्टर काम नहीं आएगा तो कौन आएगा।"
"और तुमने हर्षा यादव और मीनाक्षी को मेरे सामने पेश कर दिया।"
"करना पड़ा। लेकिन आसान नहीं था ये सब । तुम्हें धोखे से अपने हिसाब से चलाने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ी। तुम्हें किसी भी कदम पर शक हो सकता...।"
"लेकिन मुझे शक नहीं हुआ।" देवराज चौहान साफ स्वर में बोला--- "हर्षा यादव और मीनाक्षी ने मेरे सामने बहुत ही बढ़िया ड्रामा किया कि मैं अंत तक धोखे में रहा।"
"लेकिन तुमने उन्हें हरा दिया। वो जीत कर भी न जीत सके। डकैती तो उन्होंने कर ली। परन्तु तुम उनके हाथों से कितनी आसानी से तिजोरी ले गए। सारी मेहनत पर पानी फेर दिया।" जॉर्ज लूथरा की हंसी से भरी आवाज देवराज चौहान के कानों में पड़ रहीं थी--- "मुझे आशा नहीं थी कि तुम ये सब कर जाओगे।"
"तुमने कैसे सोच लिया कि धोखे से मेरी योजना चुरा कर सफल हो जाओगे।"
"मेरा तो ख्याल था कि सफल हो जाएंगे। लेकिन तुमने होने नहीं दिया।" कुछ पल ठिठक कर जॉर्ज लूथरा की आवाज पुनः कानों में पड़ी--- "हमारी नई-नई पहचान है। धीरे-धीरे ही जानूंगा कि तुम कितने कमाल जानते हो।"
देवराज चौहान ने रिसीवर कानों और कंधे में फंसाया और सिगरेट सुलगाई।
जगमोहन और सोहनलाल पास आ गए थे।
"कहां से बात कर रहे हो जॉर्ज लूथरा ?" देवराज चौहान के चेहरे पर सोच के भाव थे।
"कम से कम जैसलमेर में नहीं हूं।"
"तुम नहीं हो यहां, लेकिन तुम्हारे आदमी तो होंगे।"
"हां, हैं। छः को तुमने मार दिया। कोई फर्क नहीं पड़ता। आदमी तो खिलौना है मेरे लिए। दौलत की चाबी दो तो ढेरों पैदा हो जाते हैं। वैसे इस वक्त तुम मेरे आदमियों से घिरे पड़े हो।"
"मुझे पूरा विश्वास है कि तुम झूठ नहीं कह रहे।" देवराज चौहान के होंठ भिंच गए।
"देवराज चौहान।" जॉर्ज लूथरा का गम्भीर स्वर कानों में पड़ा--- "अब तक तुमने देख लिया होगा कि जो नक्शे तुम्हारे पास है, उन खजानों में कितनी बड़ी दौलत है। वो सब दौलत तुम नहीं संभाल सकते।"
"सही कहते हो।" देवराज चौहान के होंठों पर मुस्कान उभरी--- "बहुत बड़ा खजाना है वो । मेरे ख्याल में तो वो तुम्हारे लिए भी ज्यादा है। तुम भी हजम नहीं कर सकोगे।"
"मेरे काम उस सारी दौलत को हजम कर लेंगे।" जॉर्ज लूथरा का दृढ़ स्वर कानों में पड़ा--- "तुम सोच भी नहीं सकते कि मेरे क्या-क्या काम हैं। मेरे साथ लग जाओ। बढ़िया रहेगा। तरक्की करोगे। खजाने की दौलत से हम आधी दुनिया जीत सकते हैं देवराज चौहान। मेरे साथ-साथ आतंकवाद की दुनिया में तुम्हारा नाम भी चमक...।"
"जॉर्ज लूथरा ।" देवराज चौहान ने टोका।
"हां।"
"नीचे आ जाओ। ज्यादा हवा में उड़ना ठीक नहीं।"
दो पलों की खामोशी के बाद जॉर्ज लूथरा की आवाज कानों में पड़ी।
"क्या कहना चाहते हो?"
"तुम्हारा साथ मैं नहीं दूंगा। ये कोशिश बंद कर दो।"
"जल्दी मत करो। सोच लो। जगमोहन, सोहनलाल से सलाह कर...।"
"बेकार है।" देवराज चौहान ने कश लिया--- "तुम्हारी कोशिश कामयाब नहीं होगी।"
"कोशिश कामयाब अवश्य होगी। आज नहीं तो कल होगी। मैं इन्तजार कर लूंगा। लेकिन तब मुझे बहुत दुख होगा, जब ये खबर मिलेगी कि तुम मेरे आदमियों की गोलियों का निशाना बन गए।"
"मैं ध्यान रखूंगा कि तुम्हारे आदमी मेरा निशाना न ले सकें।"
"देवराज चौहान।" जॉर्ज लूथरा की गम्भीर आवाज कानों में पड़ी--- "बेहतर होगा कि हम आपस में समझौता कर लें। बहुत बड़ा खजाना है। आधा-आधा कर लेते हैं। तुम भी...।"
"सॉरी लूथरा । तुम्हें उसमें से फूटी कौड़ी भी नहीं मिलेगी।" देवराज चौहान ने दृढ़ स्वर में कहा।
"ऐसा है तो तुम भी उसमें से कुछ नहीं ले सकोगे देवराज चौहान।" जॉर्ज लूथरा की आवाज में सख्ती आ गई थी--- "ऊपर से हो सकता है, तुम्हारी जान भी चली जाए।"
"तुम्हें मेरी बहुत फिक्र लगती है।" देवराज चौहान ने सपाट स्वर में कहा।
"तभी तो कह रहा हूं कि मेरे से हाथ मिला लो। बहुत खुश और मजे में...।"
"जॉर्ज लूथरा ।" देवराज चौहान के होंठों से बेहद मध्यम गुर्राहट निकली।
"गुस्सा आ गया।" उसके हंसने की आवाज कानों में पड़ी।
"मैं बहुत जल्दी तुमसे मिलूंगा और हमारी आखिरी मुलाकात होगी।" उसी स्वर में देवराज चौहान ने कहा।
"मुझे आशा नहीं कि हम मिल सकें। तुम जैसलमेर से जिन्दा बाहर नहीं जा सकोगे। घिरे पड़े हो तुम।"
"देखते हैं।" देवराज चौहान ने कहा और रिसीवर रख दिया।
जगमोहन के होंठ भिंचे हुए थे।
"क्या कहता है जॉर्ज लूथरा ?" जगमोहन ने पूछा।
"वो नक्शे चाहता है। खजाना चाहता है।" देवराज चौहान ने कश लेकर सपाट स्वर में कहा--- "नहीं तो मारने की धमकी दे रहा है। उसका कहना है कि हमें, उसके आदमियों ने घेर रखा है।"
"वो सच कह रहा होगा।" जगमोहन के दांत भिंच गए।
सोहनलाल ने खामोशी से सिर हिला दिया।
देवराज चौहान ने कश लिया।
"कोई नहीं जानता था कि हम यहां ठहरे हैं। हमें घेरने के लिए सबसे पहले उन्हें इसी होटल में, इसी फ्लोर पर कमरा लेना होगा। तभी वो ढंग से हमारे खिलाफ कुछ कर सकते हैं।"
"मैं मालूम करके आता हूं कि हमारे आने के बाद, इस फ्लोर पर कौन-कौन आकर ठहरा है।" सोहनलाल ने कहा और दरवाजे की तरफ बढ़ गया।
"रुको।" देवराज चौहान बोला।
सोहनलाल ठिठक कर पलटा ।
"ये जॉर्ज लूथरा का मामला है। इस तरह अकेला जाना ठीक नहीं। जगमोहन को साथ ले जाओ।"
देवराज चौहान के शब्द पूरे होते ही, जगमोहन सोहनलाल की तरफ बढ़ गया।
दोनों बाहर निकल गए।
देवराज चौहान ने दरवाजा भीतर से बंद किया और वापस कुर्सी पर आ बैठा। अपना ध्यान पुनः टेबल पर बिखरे कागज और उन पर बनाए नक्शों पर लगा दिया।
■■■
0 Comments