वैन में से वो ही आदमी निकला, जो शटर के बाहर ताले लगाकर वैन लेकर चला गया था। वो बंद शटर के पास पहुंचा और नीचे झुककर तालों को खोलने लगा। फिर दूसरी तरफ के ताले की ओर बढ़ा और उसे भी खोला। उसके बाद शटर को ऊपर उठाने की चेष्टा की।
शायद भीतर से भी शटर उठाया जा रहा था। इसलिए शटर करीब एक फीट ऊपर उठ गया। वो व्यक्ति फौरन पलटा और वैन की तरफ बढ़ गया। देखते ही देखते वो वैन में बैठा और वैन वहां से लेता चला गया।
शो-रूम का शटर भीतर से उठाया जा रहा था।
तभी वाहन की आवाज वहां गूंजी। एक गहरे नीले रंग की बड़ी सी वैन सड़क पर से नीचे को उतरी और दुकानों के सामने पार्किंग में आ पहुंची। उसकी लाइटें बंद थी। उस वैन के दोनों तरफ सफेद पेंट से शव वाहन लिखा हुआ था। वो पुरानी सी खटारा वैन थी, परंतु उसके ईंजन की आवाज बहुत हद तक सामान्य थी।
अब तक वो शटर पांच फीट ऊपर उठ चुका था।
पांच फीट ऊपर उठे शटर के नीचे से वो चारों आदमी, उस छोटी सी रेहड़ी को धकेलते हुए बाहर निकले। भीतर घुप्प अंधेरा महसूस हुआ। शायद उन्होंने भीतर की सारी लाइटें बंद कर दी थी। तीन व्यक्ति उस रेहड़ी को धकेलते हुए वैन के पीछे वाले हिस्से तक ले आए। पीछे का दरवाजा खोला। उसके बाद वे तिजोरी को उठाकर भीतर रखने में लग गए। उधर चौथे ने शटर को नीचे कर दिया था और उस पर ताला लगाकर मदद के लिए अपने साथियों के पास आ पहुंचा था।
सारा काम बड़ी फुर्ती से हो रहा था।
उन चारों ने उस भारी तिजोरी को उठाकर किसी तरह वैन के पीछे वाले दरवाजे के भीतर, वैन के फर्श पर रखा और धकेलकर भीतर सरका दिया फिर फुर्ती से वैन का दरवाजा बंद कर दिया।
देवराज चौहान का अंदाजा सही था।
इस सारे काम में उन्हें सत्ताईस सेकंड लगे थे।
इन सत्ताईस सैकेण्डों में क्या हो गया। तिजोरी रखने वालों को आभास भी न हो सका था।
देवराज चौहान ने जब शव वाहन वाली नीली वैन को वहां रुकते देखा तो समझ गया कि तिजोरी को इसी वैन में ले जाया जाना है। वक्त कम था। जगमोहन को हरकत में आना था लेकिन जब तक कार में वो दोनों व्यक्ति बैठे उधर देख रहे थे। जगमोहन स्वतंत्रता से कुछ नहीं कर सकता था।
देवराज चौहान ने फुटपाथ के पौधे की ओट में छिपे उन दोनों को देखा। जो उधर ही देख रहे थे। एक पल की भी देरी किए बिना देवराज चौहान ने अपने कपड़ों में से साईलेंमर लगी रिवॉल्वर निकाली और फुटपाथ छोड़कर सड़क पार करता हुआ उनके पास जा पहुंचा।
उधर देखने में वो इतने व्यस्त थे कि इधर आ पहुंचे देवराज चौहान का आभास भी न हो पाया।
देवराज चौहान ने दांत भींचे रिवॉल्वर सीधी की और ट्रेगर दबा दिया। फुस्स की आवाज के साथ गोली निकली और पहले वाले व्यक्ति के सिर में जा लगी। उसे अगली सांस लेने का भी मौका न मिला।
उधर देखता दूसरा व्यक्ति आवाज सुनकर चौंका, तुरंत उसकी गर्दन घूमी।
तभी देवराज चौहान ने दोबारा ट्रेगर दबा दिया।
गोली उसकी नाक तोड़ती हुई पीछे की तरफ निकल गई। उसका सिर सीट की पुश्त से टकराया और खुली खिड़की पर जा अटका। वो भी मर गया था।
दरिन्दा लग रहा था देवराज चौहान। आखों में छाई वहशी चमक स्पष्ट नजर आ रही थी। जॉर्ज लूथरा जैसे खतरनाक आतंकवादी के लिए काम करने वालों के प्रति उसके दिन में कोई दया भावना नहीं थी।
दोनों के शांत होने के बाद देवराज चौहान वहीं कार को ओट में छिपा सामने देखने लगा।
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जगमोहन ने देख लिया था कि देवराज चौहान ने दोनों को संभाल लिया है। दुकानों के बोर्डों पर से इतनी रोशनी आ रही थी कि इतनी बात वो महसूस कर सके। इसके बाद तो जगमोहन ने देर न लगाई।
वो चाईनीज फूड वाली वैन के पास से उठा और तेज-तेज कदमों से उस नीली वैन की तरफ बढ़ा। उसकी चाल में बेहद सामान्य भाव थे। सीधा ड्राइविंग सीट के दरवाजे के पास पहुंचा और हाथ बढ़ाकर दरवाजा खोला। उसे ड्राईव करने वाला, इधर ही देख रहा था।
"क्या है ?" वो उलझन भरे स्वर में बोला।
उसी क्षण जगमोहन ने रिवॉल्वर निकाली और उसकी तरफ करके गुर्रा उठा।
"नीचे आ जा...!"
बदले में उसने जो किया, वो जगमोहन ने नहीं सोचा था। वो किसी भूखे शेर की तरह दोनों हाथों से जगमोहन पर झपट पड़ा।
जगमोहन पल भर के लिए हड़बड़ाया, फिर दांत भींचकर ट्रेगर दबा दिया। बेहद मध्यम सी आवाज के साथ साईलेंसर लगी नाल से शोला निकला और उसके गले को चीरता हुआ पीछे कहीं निकल गया। मध्यम सी चमकती रोशनी में उसकी आंखें फटती और मुंह खुलते देखा। साथ ही खून की बूंदे गिरने का एहसास उसे अपने हाथों और बांहों पर हुआ।
जगमोहन ने फुर्ती के साथ अपना रिवॉल्वर वाला हाथ खींचा और फुटबोर्ड पर पांव रखकर ऊपर चढ़ गया। वो वैन चलाने वाला मर चुका था और नीचे गिरने वाला था कि जगमोहन ने उसे दूसरी सीट की तरफ धकेल दिया। जगमोहन कुछ और वैन के भीतर गया और उसे पूरी तरह दूसरी सीट पर करके खुद ड्राइविंग सीट संभाल ली। साईलेंसर लगी रिवॉल्वर गोदी में रख ली थी।
ये सारा काम सैकेण्डों में हुआ।
वैन के पीछे वाले हिस्से में वो चारों, भारी तिजोरी को भीतर रखते हुए परेशान हो रहे थे कि इधर जो हुआ, वो उन्हें पता न लग सका। वो सोच भी नहीं सकते थे कि ऐसा कुछ हो सकता है। वो निश्चिंत थे कि किसी भी तरह की गड़बड़ हुई तो वहां आस-पास मौजूद, उनके अन्य साथी सब कुछ ठीक कर देंगे। उन्हें यही कहा गया था कि वहां उनके आदमी फैले होगे। लेकिन उनके आदमी चुन चुन कर मारे जा चुके हैं, ये नहीं जानते थे।
वैन स्टार्ट थी।
जगमोहन ने एक बार तसल्ली से पैडलों पर निगाह मारी। गियर देखा, फिर दोनों हाथ स्टेयरिंग पर रख लिए। पांच-छः सेकंड बीते होंगे कि उसके कानों में वैन का दरवाजा बंद होने की आवाज पड़ी।
जगमोहन ने दांत भींचकर क्लच पैडल दबाया और गियर डालकर खिड़की से सिर बाहर निकाला।
"हो गया?" जगमोहन ऊंचे स्वर में बोला।
"हां।" पीछे से आवाज आई।
यही वो पल थे कि जगमोहन ने क्लच छोड़ा और एक्सीलेटर दबा दिया।
वैन ने तीव्र झटका खाया, फिर तेजी से आगे को दौड़ी। वैन के भीतर जोरों की आवाज उभरी। शायद वो तिजोरी दाएं-बाएं गिरी होगी।
उसी पल पीछे से पुकारने की आवाज आई।
लेकिन रुकना किसे था।
जगमोहन तेजी से वैन को दौड़ाता लेता चला गया।
अपनी-अपनी जगह पर छिपे देवराज चौहान और सोहनलाल हाथों में रिवॉल्वर थामे उन चारों को देख रहे थे कि अगर वो वैन के पीछे जाते हैं तो उन्हें रोका जा सके।
वो कुछ कदम तो वैन के पीछे दौड़े, फिर रुक गए। आपस में बात करने लगे। एक ने मोबाइल फोन निकाला और नम्बर मिलाता दिखा।
अब तक तो वैन बहुत आगे निकल गई होगी।
दो-तीन मिनट और बीत गए।
उसने फोन पर बात करनी बंद कर दी। साथ ही वे तेजी से एक तरफ बढ़ गए। वो पैदल ही आगे बढ़ते जा रहे थे कि तभी वो सफेद मारुति वैन उनके पास आकर रुकी। देखते ही देखते वो भीतर बैठ गए। वैन तेजी से आगे बढ़ गई। जगमोहन को वैन लेकर गए पांच मिनट से ऊपर का वक्त हो गया था। देवराज चौहान जानता था कि अब वो हाथ आने वाला नहीं।
"ठीक रहा।" सोहनलाल, देवराज चौहान के पास आ गया था।
"हां। आओ कार में, कुछ देर हमें मारुति वैन पर नजर रखनी है। उसके पीछे जाना है।" देवराज चौहान ने कहा और सोहनलाल के साथ कुछ दूर खड़ी कार की तरफ दौड़ा।
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देवराज चौहान बीस मिनट सावधानी से उस मारुति वैन का पीछा करता रहा। वो वैन यूं ही सड़कों पर चकराती फिर रही थी। यकीनन शव वाहन वाली वैन की तलाश कर रहे थे, जिसमें तिजोरी पड़ी थी। आखिरकार वैन को उन्होंने सड़क के किनारे रुकते देखा। शायद वो ये सोच रहे थे कि वैन अब उन्हें नहीं मिलने वाली।
देवराज चौहान ने कार को उनकी वैन को रुकते पाकर पहले ही रोक ली थी। सोहनलाल बगल वाली सीट पर पसरा गोली वाली सिग्रेट के कश ले रहा था। नजरें उसकी भी सामने थी।
"मेरे ख्याल में वो समझ चुके हैं कि वैन कोई ले उड़ा है।" सोहनलाल बोला।
"हां।" देवराज चौहान का स्वर शांत था--- "सब कुछ जानते हुए भी इस बात का विश्वास कर रहे हैं कि सच में कोई उनके द्वारा हासिल की तिजोरी को ले उड़ा है।"
"वे लोग वैन में बैठ रहे हैं ।" सोहनलाल बोला।
देखते ही देखते मारुति वैन आगे बढी ।
उनकी कार पुनः पीछे लग गई। कार की सारी लाइट ऑफ थी।
पन्द्रह मिनट बाद उनकी वैन वापस उसी जगह पर पहुंच गई, जहां उन्होंने डकैती की थी। कुछ पहले ही उन्होंने वैन रोक ली थी। चारों बाहर निकले और अलग-अलग होकर वहां खड़ी कारों को देखने लगे। उनमें झांकने लगे। शायद वे अपने उन साथियों को तलाश कर रहे थे, जिनके बारे में उन्हें कहा गया था कि वो पास ही होंगे और जरूरत के वक्त सामने आ जाएंगे, परंतु कोई भी नहीं आया था।
देवराज चौहान ने कार आगे बढ़ा दी। मिनटों में वो उस इलाके से बाहर थे।
"क्या हुआ?" सोहनलाल कह उठा।
"अब वे लोग पूरी तरह भटक चुके हैं। परेशान हैं, उन्हें समझ नहीं आ रहा कि क्या हुआ है। अब तक दो कारों में पड़ी अपने साथियों की लाशें पा ली होंगी या पा लेंगे।" देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा--- "जो हुआ, वो सुनते ही जॉर्ज लूथरा फौरन समझ जाएगा कि ये काम हमारा किया हुआ है। हम वहां से हटे नहीं, बल्कि छिप गए थे और मौके पर तिजोरी ले उड़े।"
"जॉर्ज लूथरा को तकलीफ तो बहुत होगी। ये खबर सुनते ही...!"
"हां, तकलीफ होगी। कम होगी या ज्यादा इस बात पर निर्भर करता है कि तिजोरी में उसके काम की क्या चीज है। उसके लिए क्या महत्व रखती है।" देवराज चौहान ने सोचों में डूबे कहा--- "महत्व तो अवश्य रखती है। वरना वो इतनी मेहनत करवाकर डकैती न करवाता। भीतर पहुंचने का रास्ता जानने के लिए हर्षा यादव के कंधे पर बंदूक न रखता। देखते हैं कि तिजोरी में क्या है ?"
चालीस मिनट बाद उनकी कार ऐसे इलाके में पहुंची, जहां जंगल और खेत जैसी जगह थी। देवराज चौहान कार को सड़क से उतारकर कच्चे में लेता चला गया। कार की हैडलाइट उसने कच्चे पर आने से पहले ही बंद कर दी थी। पांच मिनट तक कच्ची सड़क पर वो बढ़ता रहा। तब जाकर उसे वो वैन खड़ी दिखी।
वैन के पास पहुंचकर देवराज चौहान ने कार रोकी और बाहर निकल आया।
सोहनलाल भी बाहर निकला।
एक तरफ से जगमोहन निकलकर पास आ गया।
"आगे वाली सीट पर वैन चलाने वाले की लाश पड़ी है।" जगमोहन ने कहा--- "मारना पड़ा उसे। उसने उस नाजुक मौके पर मेरी रिवॉल्वर पर पागलों की तरह हाथ डाल दिया था।"
"उसकी मौत का दुख मत करो।" देवराज चौहान वैन के पीछे वाले हिस्से की तरफ बढ़ता हुआ बोला--- "वो जॉर्ज लूथरा के लिए काम करता था। जो उस जैसे आतंकवादी के लिए काम करेगा, वो मरेगा ही।"
वैन के पीछे पल्लों को कुंडी लगी थी।
देवराज चौहान ने कुंडी खोली और छलांग मारकर भीतर प्रवेश कर गया। सोहनलाल भी वैन में गया और जेब से छोटी सी टॉर्च निकाल ली। तिजोरी वैन के फर्श पर लुढ़की पड़ी थी। सोहनलाल ने पेंसिल टॉर्च की रोशनी में तिजोरी को चैक किया। उसके दोनों की होल्स को और कम्बीनेशन नम्बर को देखा और टॉर्च बंद करके जेब में डालने के पश्चात गोली वाली सिगरेट सुलगाते हुए कहा।
"इसे खोलने में वक्त लगेगा। बंद करने का सिस्टम तगड़ा है। औजार भी मेरे पास नहीं हैं।"
"खोलने में कितना वक्त लगेगा?"
"कह नहीं सकता। दो-चार घंटे तो अवश्य लगेंगे। तिजोरी को यहीं रखना है क्या?"
"वैन और तिजोरी को अलग-अलग करना है।" देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा--- "ये शव वाहन वाली वैन नकली है। खासतौर से इस काम के लिए इसे तैयार किया गया है। क्योंकि रात को सड़कों पर जाती शववाहन वाली वैन को पुलिस चैक करने के लिए नहीं रोकेगी। जॉर्ज लूथरा नहीं चाहता था कि जब वैन में तिजोरी हो तो रात को रास्ते में कहीं पुलिस रोक ले। इसलिए उसने वैन को ऐसा रूप दिया।"
"क्या करना है?" "
"वैन से छुटकारा पाना है। तिजोरी को वैन से बाहर गिराओ।"
सोहनलाल ने कुछ कहने के लिए मुंह खोला कि चुप हो गया।
दोनों तिजोरी को बाहर की तरफ धकेलने लगे। वो सच में भारी थी। आवाज देकर जगमोहन को भीतर बुलाया गया। तीनों ने तिजोरी को वैन के फर्श पर से धकेल कर उसे नीचे गिराया। वो कूदकर बाहर आ गए। देवराज चौहान वैन का दरवाजा बंद करता हुआ बोला।
"जगमोहन, इस वैन को यहां से लेकर शहर के बीच कहीं छोड़ दो। इस पर से अपनी उंगलियों के निशान साफ कर लेना। मैं तुम्हारे तुम्हारे साथ ही चलता हूं कार पर। कहीं से वैन उठानी है। ऐसी वैन कि जिसमें ये तिजोरी आ सके। इस तिजोरी को यहां से दूसरी वैन में डालकर, यहां से ले चलना है। ऐसी जगह जहां आराम से तिजोरी को खोला जा सके।"
अंधेरे में उन्होंने एक-दूसरे को देखा।
"सोहनलाल ।" देवराज चौहान बोला--- "तुम यहीं रहना। हम कोई वैन लेकर आते हैं।"
सोहनलाल सिर हिलाकर रह गया।
■■■
दिन के दस बज रहे थे।
वो ऊंचा सा महेन्द्र कम्पनी का बंद ऑटो था। रात को एक जगह खड़ा वो जगमोहन के हाथ लग गया था। वो पांच फीट ऊंचा था। जगमोहन उसे ले आया था। देवराज चौहान कार पर साथ ही था।
वहां से उन्होंने वो भारी तिजोरी उठाकर महिन्द्रा ऑटो में डाली और एक उजाड़ जगह पर पहुंच गए थे। पेड़ों झाड़ियों के बीच तालाब जैसी जगह थी। वहां उन्होंने ऑटो छिपाकर खड़ा कर दिया था। तब सुबह के छ: बज गए थे। दिन निकल आया था।
सोहनलाल, देवराज चौहान वाली कार ले गया था और अपने औजारों वाला बैग लेकर दो घंटों में वापस आ गया था और तब से वो तिजोरी खोलने में लगा था। तिजोरी को उन्होंने महिन्द्रा ऑटो से बाहर धकेलकर खड़ा कर दिया था। दोनों खामोश से सोहनलाल को व्यस्त देख रहे थे। कभी-कभार उनकी निगाह दूर वीराने की तरफ उठ जाती। वहां से काफी दूर खेत नजर आ रहे थे। खेतों में इस वक्त शायद ही कोई व्यक्ति नजर आ रहा हो। मुख्य सड़क यहां से आधा किलोमीटर दूर थी। सुबह से अब तक कोई भी इस तरफ आया नहीं था। पेड़ों की छांव ने उन्हें राहत दे रखी थी।
देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगाकर कश लिया।
"जॉर्ज लूथरा तो इस वक्त बल खा रहा होगा।" जगमोहन गंभीर स्वर में कह उठा।
"वो जोरों से हमारी तलाश करवा रहा होगा।" देवराज चौहान ने सिर हिलाकर कहा--- "हमारा बंगला उसने देख रखा है। वहां पर उसने पक्की निगरानी बिठा दी होगी कि हम वहां पहुंचे और वो हमें घेरे।"
"अभी हमें वहां जाने की जरूरत क्या है ?" जगमोहन ने कहा--- "सोहनलाल के फ्लैट में ही रहेंगे।"
"जॉर्ज लूथरा आसानी से ये मामला खत्म नहीं होने देगा।" देवराज चौहान के होंठों पर शांत सी मुस्कान उभरी--- "तिजोरी में उसकी कोई खास चीज है। उसे पाए बिना वो मानेगा नहीं।"
जगमोहन की निगाह तिजोरी की तरफ उठी।
"देखते हैं, इसमें क्या है। उसके बाद ही तय होगा कि जॉर्ज लूथरा को कितनी तकलीफ है।"
देवराज चौहान ने कश लिया।
"तुम्हारा क्या ख्याल है कि तिजोरी में क्या हो सकता...!"
"अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। कम से कम वो तिजोरी में पड़ी दौलत के लिए तो इतने हाथ-पांव नहीं मार सकता। इसमें उसके काम की कोई खास चीज है।" देवराज चौहान की निगाह तिजोरी की तरफ गई।
सोहनलाल अपना काम रोककर गोली वाली सिगरेट सुलगाने लगा था।
"क्या कर रहा है।" जगमोहन उखड़े स्वर में कह उठा।
"देख नहीं रहा।" सोहनलाल ने कश लेकर उसे देखा।
"देख रहा हूं, तभी तो पूछ रहा हूं कि हमें दिखा रहा है या सच में खोल रहा है तिजोरी को ?"
"कुछ देर बाद मालूम हो जाएगा।"
जगमोहन ने गहरी सांस लेकर देवराज चौहान को देखा।
देवराज चौहान सोचों में डूबा कश ले रहा था।
तब दोपहर के तीन बज रहे थे, जब पसीने में भीगे सोहनलाल ने तिजोरी का पल्ला खींचा तो वो खुलता चला गया।
सबकी निगाह तिजोरी के भीतर जा टिकी।
तिजोरी में चंद फाइले । कागजात जैसी चीज थीं। आधी से ज्यादा तिजोरी खाली थी।
"ये क्या ?" जगमोहन हक्का-बक्का सा कह उठा--- "इसमें तो कुछ भी नहीं है!"
"इन फाइलों को बाहर निकालो।" देवराज चौहान बोला--- "कागजों को भी।"
सोहनलाल ने वो सब कुछ बाहर निकाला। मरे ढंग से जगमोहन ने थाम लिया।
"इन्हें कार की पीछे वाली सीट पर रखो।"
जगमोहन दोनों हाथों से फाइलों को संभाले कार की तरफ बढ़ गया।
"सोहनलाल।" देवराज चौहान उसे देखकर बोला--- "इस तिजोरी में कोई गुप्त खाना...!"
"है।" तिजोरी में व्यस्त सोहनलाल बोला--- "नीचे है। खोल रहा हूं। कुछ वक्त लगेगा।"
नीचे छः ईंच मोटी परत नजर आ रही थी। उसमें चाबी का होल नजर आ रहा था। सोहनलाल सलाख जैसी चीज के साथ उस होल में व्यस्त हो गया था।
जगमोहन वापस आया।
"ये अब क्या कर रहा है ?"
"गुप्त खाना है, उसे खोल रहा है।"
"ओह!" जगमोहन की आवाज में जान आई--- "भगवान का नाम लेकर खोल, कुछ माल-पानी निकले।"
सोहनलाल अपने काम में लगा रहा। चूंकि वो ख़ाना नीचे था। ऐसे में उसे खोलने के लिए सोहनलाल को पेट के बल नीचे लेटना पड़ा। पसीने से बुरी तरह भीग गया था वो। लेकिन उस खाने को खोलने में लगा रहा। एक घंटे बाद जाकर कहीं उसकी मेहनत सफल हुई।
वो गुप्त खाना खुला।
उसमें कपड़े की थैली में छोटे-बड़े कई तरह के कागज पड़े थे।
जमोहन ने वो थैली थाम ली।
"शायद कोई और खाना हो।" सोहनलाल पुनः खुली तिजोरी में व्यस्त हो गया।
दस मिनट वो तिजोरी में उलझा रहा, लेकिन और कोई गुप्त जगह उसमें नहीं थी।
सोहनलाल हाथ झाड़कर एक तरफ हो गया।
"इसमें अब कुछ नहीं है।" सोहनलाल ने देवराज चौहान को देखा।
"यहां से चलो।" कहने के साथ ही देवराज चौहान कार की तरफ बढ़ गया।
"सब कुछ बेकार रहा।" जगमोहन ने सोहनलाल को देखा।
सोहनलाल कमीज से पसीने भरे हाथ पोंछता हुआ कार की तरफ बढ़ गया। जगमोहन ने महिन्द्रा वाले ऑटो और तिजोरी पर नजर मारी, फिर कागजों से भरी थैली थामे बे-मन से कार की तरफ चल पड़ा। इतनी भागदौड़ करके हाथ क्या लगा---कुछ भी नहीं।
■■■
फ्लैट पर आने के पश्चात वो तीनों नींद में जा डूबे। बीते दिन की भागदौड़, रात की भागदौड़ और अब भी आधा दिन बीत गया था उन्हें भागदौड़ करते।
नींद लेना जरूरी था।
रात नौ बजे सोहनलाल की आंख खुली, फिर कुछ देर बाद जगमोहन की।
उन्होंने देवराज चौहान को देखा जो कि जाने कब का उठा अपने काम में व्यस्त था। सोफे पर बैठा, सामने सेन्टर टेबल पर कागजों को बिछाए, उनमें व्यस्त था।
"पहले ही दो सप्ताह खराब कर दिए, अब और वक्त खराब कर रहा है।" जगमोहन बड़बड़ा उठा--- "इससे तो अच्छा था कि वाल्ट में रखे जाने वाले दस अरब के हीरों के बारे में सोचते।"
"क्या कहा ?" सोहनलाल हाथ-मुंह धोकर उसके पास पहुंचता हुआ बोला।
जगमोहन ने उसे देखा, फिर मुंह बनाकर कह उठा।
"तेरे को ही याद कर रहा था।"
"किस वास्ते ?"
"अपने ढाई लाख के लिए। तू वो दे दे तो मेरे कई रुके काम पूरे हो जाएंगे।" जगमोहन ने उसे घूरा।
"ढाई लाख के पीछे तेरे काम रुक रहे हैं।"
"वो ही तो मैं कह रहा हूं।"
"इतनी छोटी रकमें मैं नहीं दिया करता।"
"तो।"
"कम से कम पांच-सात लाख की रकम होती तो देने में भी मजा आता।"
"तो पांच दे दे। मैं लेने से मना तो नहीं कर रहा।"
"पांच कैसे दे दूं। देना तो ढाई है। तू ढाई लाख मुझे और दे।"
"फिर क्या होगा ?"
"पांच लाख पूरा हो जाएगा। फिर तेरे को मांगना और मेरे को देना भी अच्छा लगेगा।"
जगमोहन ने उसे घूरा।
"ढाई लाख और दे दूं।"
"हां, पांच पूरा तो करना है।"
"मतलब कि ढाई लाख तो डूबा हुआ है ही, ढाई और डुबो दूं।"
"डूबा कहां है, मेरे पास है। मैं जिन्दा हूं, मर तो नहीं गया। जब मर जाऊं तब डूबा कहना।"
"मतलब कि तू देगा नहीं और डूबा कहने के लिए तेरे मरने तक का इंतजार करूं।"
"हाँ! यही समझ।" सोहनलाल ने मुस्कराकर गोली वाली सिगरेट सुलगाई--- "लेकिन लोगों को सुनने में मजा नहीं आएगा कि ढाई लाख के वास्ते तू मेरे मरने पर रो रहा है। कम से कम पांच लाख तो होना चाहिए। इज्जत की बात है, पांच लाख कहना। इसलिए कह रहा हूं कि ढाई और देकर पांच पूरा कर दे।"
"मुझे पूरा विश्वास है कि ढाई लाख मैं तेरे से जल्दी वसूल कर लूंगा।" जगमोहन ने तीखे स्वर में कहा।
"भगवान तेरे विश्वास को बनाए रखे।"
जगमोहन ने गहरी सांस ली और उठते हुए बोला।
"पेट खाली है, डिनर मंगवा ले।" इसके साथ ही जगमोहन बाथरूम की तरफ बढ़ गया।
सोहनलाल ने हाथ बढ़ाकर फोन का रिसीवर उठाया और डिनर के लिए रेस्टोरेंट के नम्बर मिलाने लगा।
खाने का ऑर्डर देकर हटा तो जगमोहन वापस आ गया।
देवराज चौहान टेबल पर मौजूद कागजों में इस कदर व्यस्त था कि उन्हें एक बार भी नहीं देखा।
"छोड़ो इन बेकार के कागजों को।" जगमोहन बैठते हुए कह उठा--- "क्यों दिमाग खराब करते हो।""
देवराज चौहान ने उसी पल कागजों से नजरें उठाकर जगमोहन को देखा। उसके चेहरे पर गंभीरता नजर आ रही थी, फिर सिगरेट सुलगाकर कश लिया।
"जो फाइलें और कागज तिजोरी में सामने पड़ी थीं, वो महत्वपूर्ण तो है, परंतु हमारे लिए बेकार है।" देवराज चौहान कह उठा--- "जो थैली--कागजों से भरी थैली, नीचे के खाने से निकली है, वो हमारे लिए काम की है।"
"क्या ?" जगमोहन की आंखें सिकुड़ीं।
सोहनलाल भी उसे देखने लगा।
"थैली में मौजूद कागजों के लिए ही जॉर्ज लूथरा इतने हाथ-पांव मार रहा था।"
"क्या है उन कागजों में ?"
देवराज चौहान कुछ पल खामोश रहा। दो बार कश लेने के बाद कह उठा।
"सबसे पहले तो ये जान लो कि वाल्ट का स्ट्रांगरूम भारत सरकार ने किराए पर ले रखा है।"
"क्या?"
"तुम्हारा मतलब है कि इस तिजोरी में सरकार से वास्ता रखते कागजात हैं ?"
"हां, बहुत ही खास और गुप्त कागजात । भारत सरकार ने ये सोचकर चुपचाप वाल्ट का स्ट्रांगरूम किराए पर लिया होगा कि ये महत्वपूर्ण कागजात वहां रखे जा सकें। जो इन्हें पाना चाहे, वो इनकी तलाश में भटकता रह जाए।"
"मैं अभी भी कुछ नहीं समझा।"
सोहनलाल गोली वाली सिगरेट के कश लेते देवराज चौहान को देख रहा था।
"पहली बात तो ये है कि जो कागजात हमारे काम के नहीं हैं, परंतु सरकार के लिए महत्वपूर्ण है, उन्हें किसी भी तरह वापस सरकार तक भेज देना है।" देवराज चौहान ने कहा।
"ये तो हो जाएगा।" सोहनलाल गंभीर स्वर में बोला--- "लेकिन जो कागज हमारे लिए महत्वपूर्ण हैं, उनमें हमारे काम की क्या चीज है।"
"ये बात तो तुम्हें पहले बतानी चाहिए।"
जवाब में देवराज चौहान के होंठों पर मुस्कान उभरी और वो गंभीर नजर आने लगा।
"मेरे सामने जो कागजात खुले पड़े हैं, वो बहुत बड़े खजाने तक पहुंचने का नक्शा है।"
"खजाने का नक्शा ?" जगमोहन हक्का-बक्का सा रह गया।
"ये क्या कह रहे हो ?" सोहनलाल के होंठों से निकला।
देवराज चौहान ने गंभीरता में डूबे सिगरेट का कश लिया।
"ये खजाना इतना बड़ा है कि इसकी कल्पना करना भी कठिन है। मैं खुद भी इस बारे में हिसाब लगाने में लगा हूं। मेरे ख्याल में जहां तक मैं सोच पाया हूं, इस खजाने की दौलत का हिसाब खजाना सामने पाकर ही लगाया जा सकता है।"
दोनों की निगाह देवराज चौहान पर ही रही।
फिर दोनों ने एक दूसरे को देखा।
"तेरे को कुछ समझ में आया ?" जगमोहन ने सोहनलाल को देखा।
"कुछ-कुछ।"
"मेरे को भी कुछ-कुछ ही समझ में आया है।"
देवराज चौहान पुनः कह उठा।
"इन कागजों में खजाने का नक्शा, रास्ता और उन बातों का भी जिक्र है, जिन्हें भारत सरकार ने भागदौड़ करके जाना है। मैं तुम लोगों को सारा मामला खुलासा तौर पर बताता हूं।" देवराज चौहान की गंभीर निगाह जगमोहन और सोहनलाल पर थी--- "भारत सरकार के हाथ जब खजाने के नक्शे लगे, जो नक्शा कम किताब जैसी शक्ल ज्यादा है तो सरकार के बड़े अधिकारियों को इस खजाने का यकीन नहीं आया लेकिन इन नक्शों को और यहां की बातचीत को झूठा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि बहुत पुराने कागजों और उस वक्त की इस्तेमाल की जाने वाली भाषा का हर जगह इस्तेमाल हुआ है। सत्य क्या है, ये जानने के लिए सरकार ने गुप्त रूप से चार लोगों की कमेटी बिठा दी। ताकि वो इन नक्शों की जांच करें। इनसे वास्ता रखती बातों का पता लगाएं कि ये खजाने के नक्शे वास्तव में हकीकत है। बीते पांच सालों से उन लोगों ने भागदौड़ करके जो पता लगाया, वो रिपोर्ट के तौर पर खजाने के नक्शे के साथ ही कागजों पर लिखा है। मैंने वो सब पढ़ा है और उसमें से खास-खास बातें तुम लोगों को बताता हूं।"
दोनों की उत्सुकता भरी निगाह देवराज चौहान पर थी।
"ये बात अठारह सौ कुछ की है। लखनऊ का बहुत बड़ा नवाब था मुसीबर खान । अंधी दौलत थी उसके पास। लखनऊ में कई महल थे उसके। उसका कुनबा रिश्तेदार भी अन्य महलों में रहते थे। मुसीबर खान का बड़ा भाई पाटे खान था, जो कि झगड़ालू आदतों का मालिक था। क्रूरता से भरा। मुसीबर खान का बेहद करीबी रिश्तेदार बहुत बड़ी रियासत का राजा था। मुसीबर खान भी किसी राजे से कम की हैसियत नहीं रखता था। अंग्रेज और स्थानीय लोग उससे अदब के साथ पेश आते थे। बड़े-बड़े बादशाहों जैसे लोगों के साथ उसका मिलना-बैठना था। औलाद के नाम पर उसकी एकमात्र बेटी नूरा थी---नूरा खान ! तब वो तेरह-चौदह साल की थी। बेहद खूबसूरत थी वो। मुसीबर खान के बड़े भाई, पाटे खां की निगाह और कई करीबी रिश्तेदारों की निगाह उसकी दौलत पर थी जो कि सिर्फ नूरा खान की थी। मुसीबर खान के लखनऊ के अलावा हवेलियां और महल जयपुर, जैसलमेर, खंडाला, मुम्बई यानी कि कई जगहों पर थी। मुसीबर खान के यहां शादी यूं ही नहीं होती थी, वहां स्वयंवर रचा जाता था। यानी कि देश के बड़े-बड़े राजाओं-लोगों के लड़के मुसीबर खान की हवेली में इकट्ठे होते और नूरा खान झरोखों में देखकर अपने लिए लड़का पसंद करती। यानी कि ये हैसियत थी मुनीबर खान की।"
जगमोहन और सोहनलाल की नजरें देवराज चौहान पर थीं।
"ये वो बातें हैं, जो उन चारों ने पांच सालों से मालूम करके सबूतों के साथ रिपोर्ट तैयार की। जब मुसीबर खान की बेटी तेरह-चौदह के बीच थी तो उन दिनों मुसीबर खान ने अपनी हवेली का एक हिस्सा बनवाने और ठीक कराने के लिए एक इंजीनियर की सहायता ली। वो नौजवान इंजीनियर अपने काम में बहुत एक्सपर्ट था। अंग्रेज तक अपने कामों में उससे सलाह लेते और उससे काम करवाते थे। वो पतला-लम्बा, खूबसूरत युवक था। मुसीबर खान की हवेली का वो हिस्सा उसने बनवाया। इस दौरान हवेली में उसका आना-जाना रहा और नूरा खान से उसकी आंखें मिलीं। दोनों एक-दूसरे को चाहने लगे। किसी को पता भी न लगा और उनका प्यार इतनी आगे बढ़ गया कि वो लौट नहीं सकते थे। प्यार की हर हद को वो पार कर चुके थे और अपने से ज्यादा वे एक-दूसरे को चाहते थे। मुसीबर खान को जब ये पता लगा तो वो गुस्से से भर उठा। उसने नूरा खान को बेंतों से पीट-पीटकर कमरे में बंद कर दिया। उस युवक को वार्निंग देकर वहां आने को मना कर दिया, परंतु उन दोनों ने कहां रुकना था। उधर पाटे खान ने इस मामले को हवा देनी शुरू कर दी कि हिन्दू और मुसलमान का रिश्ता कैसे हो सकता है। वो भी हिन्दू ब्राह्मण लड़के से। बहुत कुछ हुआ इन बातों को लेकर। जिक्र किया तो बातें बहुत लम्बी हो जाएंगी। बहरहाल उस युवक और नूरा खान ने मन्दिर में ब्याह कर लिया। नूरा खान ने हिन्दू धर्म अपना लिया और नाम भी बदल लिया। मुसीबर खान को अपनी बेटी से प्यार था। वो जो कर सकता था, उसने किया। लेकिन जब देखा कि नूरा खान मरने को तैयार है उस हिन्दू युवक से अलग होने को तैयार नहीं तो थक-हार कर वो चुप होकर बैठ गया। जबकि मंदिर में उनके ब्याह पर पाटे खान अपने लड़ाके लेकर पहुंचा। उधर उस युवक के साथ भी कई आदमी थे। उसका भाई रनबीर भंडारी था। इस ब्याह पर उन लोगों में खासा झगड़ा हुआ। नूरा खान तक घायल हुई। युवक का भाई रनबीर भंडारी भी बहुत घायल हुआ। पाटे खान और उसके आदमी ये शादी नहीं होने देना चाहते थे। उसका ख्याल था कि मुसीबर खान की तरफ से आदेश आएगा कि उन लोगों को खत्म कर दिया जाए। तभी तो वो हवा दे रहा था मामले को। परंतु मुसीबर खान की तरफ से पाटे खान के लिए यही आदेश आया कि खून-खराबा न किया जाए। पाटे खान दिल मसोसकर रह गया। खून-खराबा होने के बाद भी नूरा खान का इंजीनियर युवक के साथ ब्याह हो गया। सच बात तो ये भी है कि मुसीबर खान चाहता तो इस ब्याह को रोक सकता था लेकिन ऐसा उसने इसलिए नहीं किया कि नूरा खान को वो देख चुका था कि उसकी बेटी कितनी जिद्दी है। वो उस युवक के बिना मर जाना पसंद करेगी। हर तरह के जुल्म वो उस पर करके देख चुका था। ऐसे में मन-ही-मन उसने विचार बना लिया था कि वो जहां खुश है, वहीं सही। उसकी किस्मत। मन में ये भी सोच लिया था कि अपनी दौलत में से नूरा खान या उस इंजीनियर युवक को फूटी कौड़ी भी नहीं देगा। मुसीबर खान ने कई बड़े-बड़े काम-धंधे अरब देशों में फैला रखे थे। वहां उसके सैकड़ों रिश्तेदार रहते थे। वहां भी उसकी जमीन-जायदाद और जाने क्या-क्या था। उधर से भी उसे ढेर सारा अंधा पैसा आता था। खैर, तो उन दोनों की शादी हो गई। नूरा खान जो कि महलों में फूलों की तरह पली थी, वो इंजीनियर युवक के सामान्य से मकान में जाकर रहने लगी। वहां उसके सास-ससुर और जेठ रनबीर भंडारी था। जिसने कि ब्याह नहीं किया था और हिन्दू-मुसलमान के झगड़े से उसका मन इतना खराब हुआ कि उनकी शादी के चंद महीनों बाद ही वो इंग्लैंड चला गया, हिन्दुस्तान छोड़ दिया।"
सोहनलाल और जगमोहन, देवराज चौहान को देखे जा रहे थे।
देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगाकर कश लिया, फिर बोला।
"मुसीबर खान जैसे दबंग इंसान की बेटी उसी शहर यानी कि लखनऊ के एक मकान में भंडारी परिवार की बहू बनकर रह रही थी। खान की बेटी का रिश्ता ब्राह्मण परिवार के साथ जुड़े, ये उसके लिए शर्म की बात थी कि उसकी कौम वाले क्या कहेंगे ? जो हुआ, सबने देखा था। सब जानते थे, परंतु किसी की हिम्मत नहीं थी कि इस बारे में मुसीबर खान से बात करता। मुसीबर खान का बड़ा भाई पाटे खान अवश्य आग में घी डालने वाली बातें करता कि शायद मुसीबर खान उस भंडारी परिवार को खत्म करके नूरा खान को वापस ले आए, परंतु मुसीबर खान ने मन ही मन समझौता कर लिया था कि नूरा खान की किस्मत नूरा खान के साथ। अब वो जो भी करे। उससे कोई मतलब नहीं रखेगा। लेकिन बाप का दिल तो बाप का ही होता है। अपने चंद खास आदमियों को नूरा खान और भंडारी परिवार पर नजर रखने को लगा दिया था। सिर्फ ये जानने के लिए कि उसकी बेटी वहां खुश है कि नहीं। लेकिन हमेशा उसे यही खबर मिलती कि वो अपने इंजीनियर पति के साथ बहुत खुश है। मुसीबर खान को ये जानकर शान्ति मिलती। चंद महीने बीते कि उसका पत्थर दिल अपनी बेटी के प्रति पिघलने लगा। उसका दिल कहने लगा कि तोड़ चुका रिश्ता वो पुनः जोड़ ले। जिगर के टुकड़े को कभी-कभार करीब से देख लिया करे। विचारों के बदलने की खास वजह ये भी थी कि उसने अपने भाई पाटे खान की आंख देख ली थी, जो कि उसकी दौलत पर थी। अन्य रिश्तेदार भी अब उसकी दौलत को लेकर बातें करने लगे थे कि इकलौती बेटी, नूरा खान ने तो हिन्दू लड़के से ब्याह कर लिया। अब मुसीबर खान अपनी बे-पनाह दौलत, हिन्दुओं के पास तो जाने नहीं देगा, किसे देगा ? हर कोई उसकी दौलत को पाने का लालच अपने मन में समा चुका था। मुसीबर खान सब समझता था। सबकी नजरें पहचानता था। वो बेवकूफ नहीं था। बहुत दूर की पहले ही सोच लेना, उसकी आदतों में शुमार था। खुद को उसने जिन हालातों में घिरे पाया, उससे वो परेशान हो उठा था कि इस बारे में कुछ सोचना पड़ेगा। उसने सोचा, अपनी बेगम मुमताज से बैठकर ठंडे दिमाग से सलाह-मशवरा किया। आखिरकार दोनों ने यही फैसला लिया कि दुनिया चाहे जो भी कहे, हमें अपनी औलाद का भला सोचना है। इस फैसले के साथ ही उन्होंने अपनी शानदार घोड़ागाड़ी तैयार की। कोचवान तैयार हो गए। अपनी दौलत के जरूरी कागजात लेकर बग्गी में सवार हुए और भंडारी खानदान के घर जा पहुंचे। जहां नूरा खान सुख से रह रही थी। मुसीबर खान इस तरह किसी के घर जाए, ये अपने में बड़ी बात थी। बहरहाल उसने अपनी बेगम मुमताज को वहीं बैठने को कहा और जरूरी कागजों के साथ भंडारी परिवार के दरवाजे पर पहुंचा। वो सोच रहा था कि नूरा ही बग्गी से अपनी मां को लेकर आएगी।"
देवराज चौहान रुका।
जगमोहन और सोहनलाल उसे देख रहे थे।
"ये सब सुनने में अच्छा लग रहा है।" जगमोहन बोला।
"क्यों नहीं लगेगा?" सोहनलाल बोला--- "बे-हिसाब दौलत का मामला है, अच्छा लगेगा !"
"ये बात नहीं। वैसे ही सब कुछ अच्छा लग रहा है।'' जगमोहन ने कहकर देवराज चौहान को देखा--- "आगे बोलो।"
देवराज चौहान ने कश लेकर सिगरेट ऐश-ट्रे में डाली।
"ये इत्तफाक ही रहा कि दरवाजा खोलने वाली नूरा खान ही थी।" देवराज चौहान ने पुन. कहना शुरू किया--- "मुसीबर खान ने नूरा खान को उस इंजीनियर युवक से दूर रखने के लिए हिन्दुओं के खिलाफ उसे बहुत बुरा भला कहा था। वो सब याद था नूरा खान को, भूली नहीं थी । उन जुल्मों को भी नहीं भूली थी जो उस पर और इंजीनियर युवक पर ढाए गए थे। अपने अब्बा को सामने देखते ही वो नफरत से भर उठी। जाने क्यों मुसलमान होते हुए भी उसे मुसलमानों से नफरत हो गई थी। दरवाजे पर खड़े ही खड़े मुसीबर खान ने हाथ में पकड़ा चमड़े का बैग नूरा खान की तरफ बढ़ाकर उससे कहा कि इसमें मौजूद सब कागज उसकी बे-पनाह दौलत से वास्ता रखते हैं। इन कागजों को पढ़कर पता चल जाएगा कि उसने कहां-कहां दौलत को रखा हुआ है। परंतु नूरा खान का गुस्सा तो अपने अब्बा को देखकर चढ़ गया था। अपने अब्बा की बातें और जुल्म सब उसे याद आए, वो दरवाजे पर खड़ी गुस्से से कह उठी कि अगर उसे इस घर में आना है तो अपना धर्म बदल कर आए। हिन्दू बनकर आए, तब वो उससे बात करेगी।"
देवराज चौहान के खामोश होते ही सोहनलाल बोला।
"फिर ?"
"मुसीबर खान सच्चा मुसलमान था। ऐसी बातें तो जैसे सुनना भी उसके लिए पाप था। ये शब्द कहकर नूरा दरवाजा बंद कर चुकी थी। मुसीबर खान कानों को इस तरह हाथ लगाता हुआ बग्गी में वापस आ बैठा। जैसे उसके कान नूरा के शब्दों की वजह से पाप से मैले हो गए हों। वो अपनी बेगम मुमताज के साथ हवेली वापस पहुंचा। जानता था वो कि नूरा अपनी बात की पक्की थी। नूरा को वो पूरी तरह खो चुका है। उसे दौलत की जरा भी भूख नहीं थी। वो शान्ति और प्यार चाहती थी, जो कि उसे अपने पति के रूप में मिल गया था। ये बात भी छिपी न रही कि वो नूरा से मिलने गया था और नूरा ने क्या कहा। पाटे खान मन ही मन खुश था कि मुसीबर खान का बेटी से मोह पूरी तरह टूट गया। अब तो दौलत उसकी हो जाएगी। लेकिन मुसीबर खान अपनी बेटी नूरा खान को बहुत चाहता था। सबकुछ पूरी तरह ऊपर वाले पर छोड़कर मुसीबर खान नूरा खान की खबर अपने आदमियों द्वारा लेता रहा। नूरा खान अपनी जिन्दगी में बहुत खुश रही। वो बाद में लखनऊ से दिल्ली, लाजपत नगर दयानन्द कॉलोनी में आ गई थी। वहां भी भंडारी परिवार का बढ़िया मकान था। अपने इंजीनियर पति के साथ नूरा विदेशों में इंग्लैंड, अमेरिका और स्वीटजरलैंड जैसी जगहों पर भी जाती रही। वक्त बीतने के साथ-साथ मुसीबर खान बूढ़ा होता चला गया। अपनी बेटी नूरा खान से वो कभी नहीं मिल पाया था। नूरा ने उससे कभी मिलने की कोशिश ही नहीं की। उसकी दुनिया अपने इंजीनियर पति और दो बच्चों बेटी और बेटे के बीच खुशी से भरी रही। अब तक मुसीबर खान अच्छी तरह जान चुका था कि नूरा उसकी दौलत को छुएगी भी नहीं। उसका इंजीनियर पति भी दौलत का लालची नहीं है। उधर उसके रिश्तेदार उसकी दौलत को पा लेना चाहते थे। सब कुछ जानते हुए मुसीबर खान मन ही मन गुस्से से भर उठा कि उसकी दौलत का इस्तेमाल---दौलत का सुख उसकी बेटी के भाग्य में नहीं तो किसी के भी भाग्य में नहीं होने देगा। उस दौलत का किसी को इस्तेमाल नहीं करने देगा। दिमाग का वो शुरू से ही तेज था। इसके बाद मुसीबर खान ने बाकी की जिन्दगी अपनी बे-पनाह दौलत को ठिकाने लगाने में लगा दी। इराक-अफगानिस्तान से उसके रिश्ते थे। वहां के कामों से उसे बराबर दौलत आती रही थी। उसके पास इतना बड़ा खजाना इकट्ठा हो चुका था कि दौलत से वो खुद भी तंग आ चुका था। मुसीबर खान ने अपनी खजाने जैसी दौलत को छिपाने के लिए हैदराबाद, जैसलमेर, जयपुर, खंडाला, लखनऊ और मम्बई को चुना। हर जगह उसने भुलभुलैया जैसी जगहें बनाई। हैदराबाद, जैसलमेर, जयपुर और लखनऊ में तो उसकी महल जैसी हवेलियां थीं। उसने अपनी तमाम उम्र, अपनी दौलत को छिपाने के लिए बढ़िया से बढ़िया जगह तैयार करने और दौलत को छिपाने में लगा दी। अपनी खजाने जैसी दौलत उसने उन छः शहरों में बांटकर सुरक्षित ढंग से छिपा दी। इधर पाटे खान को हवा भी नहीं लगी कि उसका छोटा भाई मुसीबर खान सालों से किस काम के फेर में है। पाटे खान जब मुसीबर खान की दौलत पाने के लिए व्याकुल होने लगा तो मुसीबर खान इशारे से उसे समझा देता कि सबकुछ उसे ही देगा। दिखाने के वास्ते मुसीबर खान कभी-कभार उसे कुछ-कुछ देता रहा कि इस बीच चुपके से अपनी सारी दौलत छिपा ले। छिपा भी ली। जिस तरह नूरा खान पक्की थी कि वो अपने अब्बा से रिश्ता नहीं रखेगी। उसकी दौलत भी नहीं लेगी। उसी तरह मुसीबर खान भी पक्का था कि उसकी दौलत का सुख उसकी बेटी नहीं ले सकी तो कोई दूसरा भी नहीं ले सकेगा और अपनी इस कोशिश में वो सफल भी रहा।"
जगमोहन और सोहनलाल देवराज चौहान को देखे जा रहे थे।
"मैं वो ही बता रहा हूं, जो जांच समिति ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है।" देवराज चौहान ने पुनः कहा--- "ये भी लिखा है कि पाटे खान की तब की चली आ रही औलादों की औलादों को वंश-दर-वंश इन सब बातों की जानकारी मिलती रहती है। वो मुसीबर खान के छिपाए खजाने के नक्शे ढूंढते हैं, परंतु अभी तक सफल नहीं हो सके। इस वक्त भी पाटे खान के हाल ही के वंशज मुम्बई में मशहूर खान के रूप में जाने जाते हैं। और वो इन नक्शों को पा लेना चाहते हैं लेकिन यहां तक वे पहुंच नहीं पा रहे।"
कुछ खामोशी सी छा गई वहां ।
जगमोहन ही बोला।
"मुसीबर खान का क्या हुआ?"
"मरने से पहले मुसीबर खान ने लखनऊ में रहने वाली नूरा की दूर की मौसी परवीन नाम की औरत जो कि उनकी विश्वासी थी, सारे नक्शे और दौलत का ब्यौरा उसके हवाले कर दिया। किसी को कानों कान खबर भी न हुई। उसके बाद तो मुसीबर खान की दौलत, उसकी मौत के बाद पहेली बनकर रह गई कि कहां गई। पाटे खान समझ गया कि मुसीबर खान दौलत को छिपा गया है। जाहिर है उसका कोई नक्शा या ऐसा ही कुछ होगा। उसने उस दौलत तक पहुंचने की बहुत कोशिश की लेकिन सफल नहीं हो सका और आज भी उसकी पुश्तें खजाने के नक्शों को तलाश कर रही है और इस वक्त मुम्बई में रहती हैं।"
सोहनलाल की निगाह टेबल पर पड़े कागजों और पुरानी सी बड़ी सी डायरी पर गई।
"ये सब कुछ मुसीबर खान का तैयार किया गया सामान है। नक्शे वगैहरा।"
"हां, ये सबकुछ वही है। इतने लम्बे वक्त और लम्बे सफर को तय करता हुआ ये सारा सामान इस वक्त हमारे सामने मौजूद है ।" देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा--- "जॉर्ज लूथरा जैसा खतरनाक आतंकवादी, जानते हो क्यों इन नक्शों को पाना चाहता है?"
"क्यों?"
"क्योंकि ये दौलत इतनी बड़ी है कि इससे एक नया हिन्दुस्तान बसाया जा सकता है।"
"क्या?" सोहनलाल का मुंह खुला का खुला रह गया।
जगमोहन ने दोनों हाथों से सिर थाम लिया।
तभी कॉलबेल की आवाज गूंज उठी।
वे चौंके। सोहनलाल फौरन उठा, दरवाजे के पास पहुंचा।
"कौन?"
"डिनर सर, रेस्टोरेंट से।"
सोहनलाल ने दरवाजा खोलकर खाने के दो बड़े लिफाफे लिए और पेमेंट करके दरवाजा बंद कर दिया। जगमोहन सिर से दोनों हाथ हटाता हैरानी भरे स्वर में कह उठा।
"इतनी बड़ी दौलत के नक्शे हैं ये ?"
"हां।"
"तो हम इतनी दौलत का क्या करेंगे।" जगमोहन कह उठा।
"ये तुम कह रहे हो!" सोहनलाल खाने के लिफाफों को एक तरफ रखता हुआ बोला।
"हां, मैं ही कह रहा हूं।" जगमोहन कह उठा--- "हर चीज को पाने की सीमा होती है। दौलत भी एक हद तक ही अच्छी होती है। अगर ढेर सारी दौलत हमने एक साथ पा ली तो बाकी की जिन्दगी क्या करेंगे। क्योंकि दौलत पाने की चाहत तो हमारी समाप्त हो चुकी होगी। फिर तो उसे खर्च करने के लिए दौड़ते फिरेंगे।"
देवराज चौहान मुस्करा उठा।
"क्या हुआ?" जगमोहन ने उसे देखा।
"इतनी बड़ी दौलत को पाने की सोचकर तुम घबरा गए हो।" देवराज चौहान बोला।
"ये बात नहीं।" जगमोहन गंभीर था--- "सवाल ये है कि इतनी बड़ी दौलत का हम करेंगे क्या? कितना खा-पी लेंगे। खाने-पीने के लिए हमारे पास दौलत बहुत है। इस खजाने का जरा सा हिस्सा भी हमने पा लिया तो हम बेकार हो जाएंगे। फिर हमारे पास करने को कुछ नहीं होगा।"
"जिन्दगी में पहली बार तुमने दौलत के बारे में सही बात कही है।" सोहनलाल ने गहरी सांस ली।
जगमोहन ने उसे घूरा फिर कहा।
"तेरे से ढाई लाख में लेकर रहूंगा ।"
"जरूर, मैंने कब मना किया। पक्का दूंगा।" सोहनलाल फौरन सिर हिलाकर कह उठा।
जगमोहन उसे घूरता रहा।
देवराज चौहान सोच भरे स्वर में कह उठा।
"ये बाद की बात है कि हम उस दौलत को लेते हैं या नहीं। या फिर क्या करते हैं। कम से कम हमें वहां पहुंचना तो चाहिए। वहां कई हिस्सों में बांटकर दौलत रखी गई होगी। पहले उसे देखें तो सही।"
"जरूर।" जगमोहन फौरन बोला--- "देखने में क्या जाता है?"
"दौलत किस रूप में है ?" सोहनलाल ने पूछा।
"इस किताब में लिखे शब्दों के मुताबिक हीरे-पन्ने-सोने की गिन्नियां, कांसे के बड़े-बड़े घड़ों में-बर्तनों में भर-भरकर रखी गई है।" देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा।
कई पलों तक उनके बीच चुप्पी रही।
"अब क्या करें ?" सोहनलाल ने खामोशी तोड़ी।
"पहले खाना---भूख लग रही है।" जगमोहन ने गहरी सांस ली--- "साथ में बातें भी होती रहेंगी।"
खाना खाकर हटे तो तब रात के बारह बज रहे थे। खाने के दौरान उनमें कोई बात नहीं हुई थी। तीनों ही अपनी-अपनी सोचों में थे। मुसीबर खान का दबाया हुआ दौलत का वो अथाह भंडार, जिससे दूसरा हिन्दुस्तान बसाया जा सके, इतनी दौलत को सामने आ जाने पर कुछ कहने को बाकी रहता ही नहीं था।
खाने से फुर्सत पाकर वे बैठे तो जगमोहन बोला।
"क्या सोचा ?"
सोहनलाल की निगाह देवराज चौहान पर गई।
"मेरे ख्याल में देवराज चौहान ठीक कहता है कि एक बार दौलत को देख लिया जाए।" सोहनलाल ने कहा।
देवराज चौहान दोनों को देखकर बोला।
"जॉर्ज लूथरा के बारे में क्या ख्याल है?"
"जॉर्ज लूथरा !"
"हां, इतनी बड़ी दौलत को वो किसी भी हालत में छोड़ना पसंद नहीं करेगा। इस दौलत को वो आतंकवादी कार्यवाहियों में खुलकर इस्तेमाल कर सकता है। हजारों आदमी खरीदकर, उनसे तबाही मचा सकता है। इस पैसे से वो घातक हथियारों का निर्माण कर सकता है।" देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा।
"हां, जॉर्ज लूथरा ये ही सब करेगा।"
"तो वो इतनी आसानी से कैसे इस मामले को भूल जाएगा। जबकि वो जानता है कि तिजोरी ले जाने वाले हम हैं। उसमें मौजूद नक्शों को हमने पा लिया होगा। अब हम उस दौलत को पाने की चेष्टा कर सकते हैं।" देवराज चौहान दोनों को देखते हुए गंभीर स्वर में कह उठा।
"हमें ये नहीं मालूम कि वो इन खजानों के बारे में कितनी जानकारी रखता है।" जगमोहन ने कहा।
"जानकारी तो अवश्य उसके पास होगी।" देवराज चौहान ने दृढ़ता भरे स्वर में कहा--- "वो इस दौलत के पीछे देर से होगा, तभी तो वो जान गया कि उस दौलत से वास्ता रखते नक्शे सरकार को मिल चुके हैं। सरकार उस दौलत की सत्यता की छानबीन कर रही है कि उसके बाद ही नक्शों के आधार पर दौलत तक पहुंचने की कोशिश की जाए। जॉर्ज लूथरा को उस दौलत से वास्ता रखती और भी कई बातें पता होंगी।"
"फिर तो वो बहुत ही परेशान होकर, बेसब्री से हमारी तलाश करवा रहा होगा!" सोहनलाल बोला।
"पक्का।" जगमोहन ने सिर हिलाया।
उन्होंने एक-दूसरे को देखा।
"क्या वो जानता है कि खजाना कहां-कहां है?" जगमोहन ने पूछा।
"इस बारे में क्या कहा जा सकता है ?"
"मेरे ख्याल में...।" देवराज चौहान कश लेते हुए सोच भरे स्वर में कह उठा--- "हमें जॉर्ज लूथरा से सावधान रहते हुए किसी एक जगह के खजाने तक पहुंचने की चेष्टा करनी चाहिए। जॉर्ज लूथरा से बचने के लिए हमें मेकअप में रहना होगा। उसके आदमी कहीं भी हमारे रास्ते में आ सकते हैं।"
कुछ पल चुप रहकर जगमोहन ने कहा।
"कौन सी जगह के खजाने तक जाया जाए?"
"जैसलमेर ठीक रहेगा। इन दिनों वहां का मौसम बहुत अच्छा होता है।" सोहनलाल कह उठा।
"जैसलमेर में खजाना कहां है ?" जगमोहन ने देवराज चौहान को देखा।
देवराज चौहान की निगाह टेबल पर बिखरे कागजों पर गई, फिर बोला।
"जैसलमेर में मुसीबर खान की कई बड़ी-बड़ी हवेलियां थीं। उनमें से एक खास हवेली थी, जिसके बहुत बड़े ड्राइंग हॉल की पूरी छत पर चेहरा देखने वाले कांच के टुकड़े इस तरह लगा रखे थे कि सब लाइट बंद करके वहां सिर्फ एक माचिस की तीली जला दी जाए तो उन शीशों के द्वारा वो पूरा विशाल हॉल रोशन हो उठता था।"
"ओह!"
"ये सब किताब में लिखा है?"
"हां। जहां-जहां पर दौलत छिपाकर रखी गई है। वहां के बारे में खुलासा तौर पर हाल बताया गया है। उस हवेली में कहां पर उसने किस तरह दौलत छिपाई है, ये मैं पढ़ चुका हूं। खजानों से वास्ता रखता कोई भी कागज हम साथ नहीं ले जाएंगे। जैसलमेर के बारे में बहुत बातें मुझे याद है। जिन बातों को भूलने का खतरा है, उन्हें मैं अपने खास शब्दों में कागज पर उतार लूंगा जो कि मैं ही समझ सकूं। खजाने के इन सारे नक्शों को किसी सुरक्षित जगह पर रखकर जैसलमेर चलेंगे।"
"इतनी सावधानी क्यों ?"
"जॉर्ज लूथरा को भूल रहे हो तुम---वो, हर वो कोशिश करेगा, जिससे खजाने के नक्शे-ब्यौरा, सबकुछ हासिल कर सके। अगर उसे मालूम है कि कहां-कहां पर खजाने हैं तो उन जगहों पर अपने आदमियों को फैला...!"
"जॉर्ज लूथरा को कैसे मालूम हो सकता है कि कहां-कहां, किन शहरों में खजाने रखे थे मुसीबर खान ने। उसके हाथ तो ये नक्शे लगे ही नहीं कि...!"
"पाटे खान के वंशजों को भूल रहे हो तुम। वो मुम्बई में खान के नामों से जाने जाते हैं। जॉर्ज लूथरा उनसे मालूम कर सकता है। उन्हें मालूम है कि वो बेपनाह दौलत किन-किन शहरों में है, परंतु वे ठीक से ये नहीं जानते कि कहां पर है। यही वजह है कि वे हाथ-पर-हाथ रखे बैठे हैं। कोई बड़ी बात नहीं कि जॉर्ज लूथरा ने उनसे आधे-आधे की बात करके इन बातों की जानकारी पा ली हो।" देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा--- "मेरा मतलब है कि जॉर्ज लूथरा को शहरों के बारे में पता लगाना मामूली बात है।"
सोहनलाल ने गहरी सांस ली और गोली वाली सिगरेट सुलगा ली।
"क्या हुआ तेरे को ?" जगमोहन ने उसे देखा।
"सोच रहा हूं, बे-पनाह दौलत को तू पाना क्यों नहीं चाहता ?" सोहनलाल ने मुस्कराकर पूछा।
"जरूरत नहीं। संभालना बहुत कठिन है। जो थोड़ी-थोड़ी आ रही है, वो ही बहुत है।" जगमोहन भी मुस्करा पड़ा।
"मेरे ख्याल में इतनी बड़ी दौलत को करीब पाकर तू घबरा गया है कि...।"
"शायद ये भी हो सकता है।" जगमोहन एकाएक गंभीर हो गया--- "खजाने से एक नया हिन्दुस्तान बस सकता है। मैं कहीं भी नया हिन्दुस्तान खड़ा करने का इरादा नहीं रखता। इतनी दौलत की मुझे जरूरत नहीं।"
तभी देवराज चौहान ने टोका।
"मैं इनमें से कुछ चीजें नोट करके इन नक्शों और किताबों को रात ही रात में सुरक्षित जगह रख आऊंगा। कल सुबह हम जैसलमेर के लिए चल सकते हैं।" देवराज चौहान ने दोनों को देखा।
"चलते हैं ?" जगमोहन ने सिर हिलाया।
"सोहनलाल।" देवराज चौहान बोला--- "हमें जैसलमेर हुलिए बदलकर पहुंचना होगा। अगर वहां पर जॉर्ज लूथरा के आदमी हुए तो हमें पहचान न सकें।"
"मैं अभी मेकअप का सामान और कपड़े वगैरह ले आता हूं।" सोहनलाल तुरन्त उठ खड़ा हुआ।
"कार की भी जरूरत पड़ेगी।"
"दो कारें हैं हमारे पास।"
"वो कारें जॉर्ज लूथरा के आदमियों की देखी हुई हैं। वहां हमें आसानी से पहचाना जा सकता है।"
"ठीक है।" सोहनलाल ने सिर हिलाया--- "कार का भी इंतजाम करता आऊंगा।"
सोहनलाल चला गया।
दरवाजा बंद करके जगमोहन बैठता हुआ बोला।
"अजीब से झंझट में आ फंसे हैं।" देवराज चौहान के होंठों पर छोटी सी मुस्कान उभरी।
"वैसे तो हम दौलत के लिए डकैतियां करते हैं। भागदौड़ करते हैं। अब दौलत का भंडार मिला तो...!"
"कभी-कभी ऐसा भी होता हैं। ये दौलत हमारी आशा से हजारों गुणा ज्यादा है। ऐसे में जाने क्यो इससे दूर रहने का ही मन कर रहा है।"
"क्या तुम्हारा मन भी यही कर रहा है कि इस दौलत से दूर रहा जाए?" जगमोहन के होंठों से निकला।
"हां, जाने क्यों मेरा मन कहता है कि इस दौलत की असली हकदार नूरा खान है। सारी दौलत उसे ही मिलनी चाहिए। ये ठीक है कि उसने दौलत तब नहीं ली। लेकिन साधारण से इंजीनियर के साथ शादी करके जिन्दगी बिता लेने से उसके कितने अरमान दौलत की कमी के कारण दिल में ही रह गए होंगे। हो सकता है उसे दौलत की जरूरत हो लेकिन उसकी जिद्द रही हो कि अपने बाप से कुछ भी नहीं लेगी और यूं हीं उसने जिन्दगी बिता दी। उसका इंजीनियर पति भी दौलत का लालची नहीं रहा होगा।"
"अब न तो नूरा खान रही और न उसका इंजीनियर पति । वो तो कब के...।"
"दोबारा जन्म में विश्वास रखते हो ?"
जगमोहन, देवराज चौहान को देखने लगा।
"जवाब दो।"
"क्यों नहीं विश्वास रखता।" जगमोहन गंभीर स्वर में कह उठा--- "हमारा खुद का ये तीसरा जन्म है। फकीर बाबा यानी कि पेशीराम हमें कई बार पूर्वजन्म में ले जा चुका है। हम अपने पूर्वजन्मों के रिश्ते-नातेदारों से मिल चुके हैं। वहां के हालातों से वाकिफ हैं। हम तो..!"
जगमोहन के शब्द होंठों में ही रह गए।
तभी उन्हें कमरे में सफेद सा गोला घूमता दिखा। वो रुई जैसा---बादल जैसा लग रहा था।
देवराज चौहान की आंखें सिकुड़ीं।
"पेशीराम !"
"फकीर बाबा!" जगमोहन के होंठों से निकला।
उसी पल वो गोला कुछ कदम दूर हवा में रुका फिर धीरे- धीरे बड़ा होने लगा। देखते ही देखते उस गोले ने मानवाकृति का रूप धारण कर लिया, फिर वो आकृति मानव के रूप में आकर स्पष्ट हो गई।
सामने फकीर बाबा उर्फ पेशीराम खड़ा था।
शरीर पर धोती। गले में मालाएं। शरीर का बूढ़ा मांस, झुर्रियों में फंसा नजर आ रहा था। चांदी की तरह चमकते सफेद लम्बे बाल गले तक जा रहे थे।
फकीर बाबा मुस्कराया।
(फकीर बाबा उर्फ पेशीराम के बारे में जानने के लिए अनिल मोहन के देवराज चौहान और मोना चौधरी के एक साथ वाले ये उपन्यास अवश्य पढ़ें- 1. हमला, 2. जालिम, 3. जीत का. ताज, 4., ताज के दावेदार, 5. कौन लेगा ताज, 6. पहली चोट, 7. दूसरी चोट, 8. तीसरी चोट, 9. महामाया की माया ।)
देवराज चौहान ने खुद को संभाला।
जगमोहन आंखें सिकोड़े पेशीराम को देखने लगा था।
"कैसे हो पेशीराम?" देवराज चौहान ने शांत स्वर में पूछा।
"अच्छा हूं।" कहने के साथ ही फकीर बाबा ने जगमोहन को देखा--- "तुम इस तरह मुझे क्यों देख रहे हो?"
"क्योंकि तुम जब भी सामने आते हो, कोई नई मुसीबत लेकर आते हो।"
"हां!" फकीर बाबा मुस्कराया--- "ठीक कहते हो?"
जगमोहन सकपकाया।
"क्या-ठ... ठीक कह रहा हूं मैं?"
"हां।"
"मतलब कि तुम सच में कोई नई मुसीबत लेकर आए हो?"
जवाब में फकीर बाबा मुस्कराया। कहा कुछ नहीं। फिर बोला ।
"मैं तुम लोगों के पास आ रहा था तो इस दौरान तुम लोगों की बातें सुनी। अगर तुम कहो तो इस खजाने और नूरा खान की कुछ बात करूं। यूं तो इन बातों से मेरा कोई वास्ता नहीं।"
देवराज चौहान और जगमोहन की नजरें मिलीं।
"किस सोच में पड़ गए देवा। क्यों जग्गू क्या मेरे पर कोई शक है जो...!"
"नहीं, ऐसी कोई बात नहीं पेशीराम ।" जगमोहन गंभीर स्वर में कह उठा--- "तुमने नूरा खान की बात छेड़ी तो कुछ हैरानी हुई।"
फकीर बाबा कुछ पल खामोश रहा, फिर कह उठा।
"तुम दोनों अच्छी तरह जानते हो कि तपस्या करके मुझे और भी कई तरह की शक्तियां प्राप्त हो चुकी हैं। गुरुवर की कृपा है मुझ पर। यहां होने वाली बातें सुनकर, मैंने अपनी शक्तियों के दम पर जान लिया है कि तब नूरा खान के साथ क्या हुआ था। इस बारे में ज्यादा न कहकर इतना ही बताऊंगा कि नूरा खान और वो युवक इंजीनियर लगातार सात जन्म तक पैदा होते रहेंगे और आपस में शादी करते रहेंगे। स्वर्ग की शक्तियों का फैसला है ये। इस वक्त उनका भी ये तीसरा जन्म है। इस वक्त वो मजे से जिन्दगी बिता रहे हैं और वो भी जानते हैं इन बातों को।"
"वो कैसे जानते हैं?"
"स्वर्ग की पवित्र शक्तियों ने आकर उनसे बात की। कोई वजह थी बात करने की। तो उन्हें अपने पूर्वजन्म की बातें याद आ गई। वे जानते हैं कि कहां-कहां मुसीबर खान ने दौलत को छिपाया था।"
"ऐसा है तो वे ले क्यों नहीं लेते उस दौलत को?"
फकीर बाबा मुस्कराया।'
"वो ही पहले जैसी आदतें हैं उनकी। अपने आप में मस्त, अपने में खुश। रुपए-पैसे की उतनी ही चाह, जितनी कि जरूरतें पूरी हो जाएं। उनकी जरा भी इच्छा नहीं उस दौलत को पाने की।"
"अगर इच्छा जाग जाए तो?" जगमोहन ने पूछा।
"वो मैं नहीं जानता। उनके भविष्य में झांकने की मुझे आवश्यकता नहीं।" फकीर बाबा ने कहा।
"तुम क्या कहते हो?" जगमोहन बोला--- "वो दौलत हम ले लें।"
"इस बात से मेरा कोई वास्ता नहीं। ये तुम लोगों की बातें हैं।" फकीर बाबा ने स्पष्ट कहा।
देवराज चौहान और जगमोहन उसे देखते रहे।
"तुम कैसे आए पेशीराम?"
"ये पूछने कि क्या तुम दोनों को अपने पेशीराम पर तरस नहीं आता।"
"क्या मतलब?"
"तुम लोगों को मैं कई बार बता चुका हूं कि गुरुवर ने श्राप से मेरी सांसें बांध रखी हैं। पहले जन्म में मैंने ही तुम्हें और मिन्नो (मोना चौधरी) को आपस में लड़ाया था। तुम दोनों का झगड़ा बढ़ाया था कि खून की नदियां बह उठी थी। गुस्से में आकर गुरुवर ने मुझे न मरने का श्राप दे दिया था। मेरा शरीर बूढ़ा होता रहेगा और मैं मरूंगा नहीं। मुझे अब उस श्राप से तभी मुक्ति मिल सकती है, जबकि तुम्हारी और मिन्नो (मोना चौधरी) की दोस्ती करा कर गुरुवर को दिखा दूं। क्यों देवा---तू मेरी बात मानेगा नहीं। मिन्नो से दोस्ती नहीं करेगा।"
"पेशीराम। तुम्हारी इस बात का जवाब मेरे पास नहीं है।" देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा।
"क्यों?"
"मोना चौधरी के और मेरे रास्ते अलग-अलग हैं। हम दोनों के रास्ते एक नहीं हो सकते।"
"मेरी खातिर भी नहीं।"
देवराज चौहान खामोश रहा।
"पहले जन्म में तुम मेरी बहुत इज्जत करते थे। क्या अब वो सब नहीं रहा देवा ?"
"वो पहले जन्म की बात थी पेशीराम। इस वक्त मुझे इस जन्म के कर्मों को भी देखना है। ये जन्म भी जीना है। अगर मोना चौधरी मेरे पास आकर दोस्ती का हाथ बढ़ाती है तो मुझे कोई एतराज नहीं।”
"तू तो जानता ही है देवा कि मिन्नो गुस्से वाली है। जिद्दी है। मेरे कहने पर तो क्या, वो अपनी जरूरत को भी तुम्हारे पास नहीं आएगी।" फकीर बाबा गहरी सांस लेकर कह उठा--- "वो पहले भी मेरी बात नहीं सुनती थी और अब भी नहीं सुनेगी। मैं अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करके तुम दोनों की दोस्ती करा सकता हूं। परंतु गुरुवर की आज्ञा नहीं है कि इस काम में मैं शक्तियों का इस्तेमाल करूं। तुम दोनों की इच्छा के मुताबिक ही तुम्हारी और मिन्नो की दोस्ती करानी है।"
"ये तो मुझे संभव नहीं लगता।"
"पेशीराम तुम मोना चौधरी से क्यों नहीं कहते कि वो देवराज चौहान के पास आकर पुरानी-नई दुश्मनी को भूलकर दोस्ती का हाथ बढ़ाए। देवराज चौहान के मन में मोना चौधरी के लिए कोई दुश्मनी-मैल नहीं है।"
"मिन्नो के मन में भी देवा के लिए दुश्मनी नहीं है।"
"तो।"
"वो झुकेगी नहीं। वो चाहेगी कि देवा उसके पास जाकर दोस्ती का हाथ...।"
"बेकार की बातें मत करो।" देवराज चौहान ने सपाट स्वा में कहा--- "वो ही बातें कहो, जो ठीक हो। मैं तुम्हारी इज्जत करता हूं। लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि तुम्हारी हर बात मान लूं।"
फकीर बाबा देखता रहा देवराज चौहान को।
"क्या हुआ पेशीराम ?" जगमोहन बोला ।
"कुछ नहीं।" पेशीराम ने गहरी सांस ली--- "मुझे तो लगता है देवा और मिन्नो का ये जन्म भी बीत जाएगा। इन दोनों की दोस्ती नहीं करा पाऊंगा। मुझे इनके चौथे जन्म का इंतजार करना पड़ेगा। अपने बूढ़े शरीर को यूं ही ढोता रहूंगा। मैं इस शरीर से मुक्ती पाना चाहता हूं। लेकिन श्राप से तभी मुक्त हो सकूंगा, जब इन्हें एक करा दूं। दोनों में शिकायते न रहें।"
कोई कुछ न बोला।
फकीर बाबा ने पुनः कहा।
"अगर इस जन्म में भी दोनों झगड़ कर मर गए तो गुरुवर का दिया श्राप और भी कठोर हो जाएगा।"
देवराज चौहान की आंखें सिकुड़ीं।
"पेशीराम। स्पष्ट कहो, क्या कहना चाहते हो। क्या कहने आए हो ?"
जगमोहन ने आंखें सिकोड़कर देवराज चौहान को देखा, फिर फकीर बाबा को।
"बहुत जल्दी फिर मिन्नो से सामना होने वाला है देवा।"
"क्या ?" जगमोहन चौंका--- "देवराज चौहान और मोना चौधरी के रास्ते फिर एक होने जा रहे हैं।"
"हां जग्गू।"
"कब---कैसे?"
"ये तो वक्त बताएगा, जो बहुत जल्दी करीब आता जा रहा है।" फकीर बाबा ने गंभीर स्वर में कहा--- "इस बार का टकराव, पहले की अपेक्षा ज्यादा खतरनाक है। दोनों या कोई एक अवश्य मरेगा। मान जाओ देवा । मिन्नो से मिलकर उसके दोस्त बन जाओ। ऐसा होते ही टकराव टल जाएगा और तुम दोनों की जिन्दगी की राहें आसान हो जाएंगी। कभी-कभार मिलते रहना तुम दोनों। इस तरह मुझे भी मुक्ति मिल जाएगी और...!"
"पेशीराम।" देवराज चौहान का स्वर सपाट था--- "वो बात ही मत करो, जो नहीं हो सकती। मोना चौधरी मेरे पास आई तो मुझे कोई एतराज नहीं होगा, उसे अपने सामने बिठाने में।"
"वो जिद्दी है। तुम तो मेरी बात सुन लेते हो देवा, वो तो बात भी नहीं सुनेगी। इस बारे में उससे बात करना ही फिजूल है। उसके सितारे मैं देख चुका हूं। वो मेरी बात भी पूरी तरह नहीं सुनेगी। वो ही आदतें हैं उसकी। पहले जन्म में भी वही। दूसरे में भी और अब तीसरे में भी।"
देवराज चौहान और जगमोहन गंभीर निगाहों से उसे देखे जा रहे थे।
"मैं चलता हूं देवा।"
दोनों उसे देखते रहे।
"कोशिश करना कि मिन्नो से टकराव न हो। एक बार उसके सामने झुक जाओगे तो तुम्हारा क्या चला जाएगा। मेरा भला होगा, मैं श्राप से मुक्त हो जाऊंगा। इस बूढ़े शरीर से मेरा पीछा छूट जाएगा। मैं...!"
"कोशिश करूंगा पेशीराम।" देवराज चौहान गंभीर स्वर में बोला।
"तुम्हारे ये शब्द ही मेरे लिए बहुत बड़ा सहारा है। मिन्नो और तेरे रास्ते बहुत जल्द एक होने जा रहे हैं देवा। मेरी बातों को याद रखेगा तो शायद टकराव की स्थिति टल जाए।" फकीर बाबा के शब्द पूरे हुए ही थे कि एकाएक उसके गिर्द बादलों जैसी कोई चीज आ गई। फकीर बाबा नजर आना बंद हो गया। बादलों का वो घेरा छोटा होते हुए गायब होता चला गया।
कुछ पलों के लिए वहां गहरा सन्नाटा छाया रहा।
"अब नई मुसीबत शुरू होने जा रही है।" जगमोहन ने गहरी सांस लेकर कहा।
"मोना चौधरी से टकराव का मतलब है कि फिर से पूर्वजन्म की दुनिया में प्रवेश।" देवराज चौहान का स्वर गंभीर था--- "पहली बार पूर्वजन्म के कालूराम यानी कि पेशीराम के बेटे से टक्कर हुई थी। दूसरी बार पूर्वजन्म की मिन्नो यानी कि मोना चौधरी की बनाई तिलस्मी दुनिया में जा फंसे थे और गुरुवर के शिष्य हाकिम से मौत भरी टक्कर हुई थी जो कि बुरी शक्तियों का महान ज्ञाता था। तीसरी बार सात आसमान ऊपर गए थे वहां---!"
"तब तुम्हारी आत्मा को महामाया और काकोदर ने शैतान के कहने पर कैद में रख लिया था। तुम्हें गला, काटकर मार दिया गया था उस शैतानी चक्र ने।"
"अब क्या होगा?" देवराज चौहान ने जगमोहन को देखा।
"जो होगा, खतरनाक ही होगा। पूर्वजन्म के खतरनाक हादसों के दौर से गुजरना होगा। (पूर्वजन्म के आगामी नए हादसों के बारे में जानने के लिए पढ़ें, अनिल मोहन का नया उपन्यास- 'देवदासी') वहां कुछ भी हो सकता है।" देवराज चौहान ने सोच भरे स्वर में कहा--- "मेरे ख्याल में ये सब हमारे साथ तब तक घटता रहेगा, जब तक कि पेशीराम को श्राप से मुक्ति नहीं मिलती। ये सब बातें पूर्व जन्म के घटनाक्रम से जुड़ी हुई हैं। मोना चौधरी जब भी हमारे सामने आती है, पहले जन्मों के वो हादसे हमारी राहों में आ जाते हैं। उनसे हम बच नहीं सकते।"
"तुम्हारा मतलब कि पूर्वजन्म की छाया तब तक हमारा पीछा नहीं छोड़ेगी, जब तक कि पेशीराम को श्राप से मुक्ति नहीं मिलेगी।"
देवराज चौहान ने जगमोहन को देखकर सिर हिलाया।
"तुम बिल्कुल सही कह रहे हो।"
"क्या ख्याल है तुम्हारा कि इस बार क्या होगा?" देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगाई। कश लिया, फिर सोच भरे स्वर में कह उठा।
"कह नहीं सकता कि इस बार क्या होगा। लेकिन ये पक्का है कि कुछ होने से पहले मोना चौधरी के और मेरे रास्ते एक होंगे। ऐसा होते ही खतरनाक हादसों का दौर शुरू हो जाएगा।"
जगमोहन के चेहरे पर झल्लाहट के भाव उभरे।
"ये पेशीराम न तो खुद चैन से बैठता है, न ही हमें रहने देता है।"
"वो क्या करे---वो तो खुद परेशान है गुरुवर से मिले श्राप से मुक्ति पाने के लिए। लेकिन मेरे और मोना चौधरी में दोस्ती कराए बिना उसे मुक्ति नहीं मिल सकती। हमने तीसरी बार नया शरीर प्राप्त कर लिया, परंतु पेशीराम अपने पहले जन्म का पुराना शरीर लिए ही भटक रहा है। जो कि झुर्रियों से झर्झर होता जा रहा है। मेरे ख्याल में पेशीराम बहुत ज्यादा परेशान है कि श्राप से मुक्त होकर इस पुराने शरीर से छुटकारा पा सके।"
जगमोहन ने गहरी सांस लेकर मुंह फेर लिया।
कुछ मिनट तक उनके बीच शान्ति रही, फिर देवराज चौहान बोला।
"कल हमें जैसलमेर के लिए निकलना है। बेहतर है, कुछ आराम कर लें। आधी रात हो रही है।"
■■■
चलने के अगले दिन शाम को देवराज चौहान, जगमोहन और सोहनलाल जैसलमेर पहुंचे। बारी-बारी उन्होंने कार ड्राइव की थी। रास्ते में एक जगह तो कार भी खराब हो गई थी। रेगिस्तानी जमीन और सीमा के करीब बसा हुआ राजे-रजवाड़ों का शहर था कभी। ऊंची-ऊंची हवेलियां, पतली-लम्बी गलियां। राजस्थानी रंग-बिरंगे कपड़े पहने लोग भले लग रहे थे। पहले के जैसलमेर और अब के जैसलमेर में बहुत फर्क आ गया था।
पहले राजे-रजवाड़ों का हुक्म चलता था वहां।
लेकिन अब बदलते वक्त के साथ-साथ उन हवेलियों और महलों पर सरकार का अधिकार होता चला गया था। कुछ हवेलियों को लोगों ने खरीद लिया था और उन्हें होटलों में बदल दिया था। सरकार ने भी जिन हवेलियों को अपने अधिकार में लिया था, उनमें अधिकतर होटल बन गए थे। भारत सरकार ने जैसलमेर को ट्यूरिस्ट प्लेस घोषित कर दिया था। वहां डूबते सूरज का हसीन नजारा, रेगिस्तानी मंजर, रात की चांदनी में रेत पर अठखेलियां करना---इसके अलावा भी बहुत चीजें थीं। कई विदेशी ट्यूरिस्ट तो होटल में रहने की अपेक्षा रेगिस्तान में लगे टैंटों में रहना पसंद करते थे। जो कि होटल वालों ने ही लगा रखे थे तो कुछ तम्बू वहां के स्थानीय दबदबे वाले लोगों ने लगा रखे थे।
जैसलमेर में गर्मियों में कुछ परेशानी अवश्य होती थी। परंतु रेत की वजह से रात वहां ठण्डी हो जाती थी। जबकि बीच का मौसम वहां रहने के लिए बढ़िया होता था।
जैसलमेर पहुंचते ही जगमोहन ने पूछा।
"हमने कहां जाना है ?"
"मुख्य शहर से कुछ हटकर एक हवेली है। जिसके मुख्य द्वार तक पहुंचने के लिए बहुत ज्यादा सीढ़ियां तय करनी पड़ती थी। सीढ़ियां इतनी ज्यादा है कि इन्सान चढ़ते-चढ़ते हांफने लगता है। उस हवेली के बारे में मुसीबर खान ने नक्शे वाली किताब में यही लिखा था।" देवराज चौहान ने कहा।
"अब उस हवेली में क्या है ?" सोहनलाल बोला।
"सरकारी होटल।"
"फिर वहां तक जाने के लिए सड़क का रास्ता बना लिया होगा।"
"हां, वो रास्ता जरूर बना होगा।" देवराज चौहान ने खिड़की से बाहर देखते हुए सिगरेट सुलगाई।
"मेरे ख्याल में सफर में थकान बहुत हो चुकी है। छत्तीस घंटे हो गए कार चलाते हुए।" सोहनलाल ने बाहर की रोशनियों को देखते हुए कहा--- "कहीं रुककर, हाथ-मुंह धोकर चाय वगैरह पी ली जाए।"
"ऐसा ही करते हैं।" देवराज चौहान ने कहा--- "मैं वहां से उस हवेली के बारे में पता कर लूंगा कि वहां पर किस नाम से होटल खुला हुआ है। इस बारे में मुझे पूरी जानकारी नहीं है।"
तीनों इस वक्त मेकअप में थे। विदेशी ट्यूरिस्टों जैसे लग रहे थे। लापरवाही से पहने कपड़े। लम्बे या छोटे बालों की विग्स लगा रखी थी। जगमोहन और सोहनलाल ने कानों में पीतल की बालियां लगा रखी थी। देवराज चौहान ने गले में अजीब सी चीजों की दो-तीन तरह की मालाएं पहन रखी थी और फोमांचू कट मूंछों की नोक होंठों के किनारों को पार करती हुई ठोढ़ी तक आ रही थी। सोहनलाल ने पांवों में जूते पहन रखे थे, जबकि देवराज चौहान और जगमोहन ने पांवों में हवाई चप्पलें पहनी हुई थी।
वो तीनों दीन-दुनिया से लापरवाह, मौज-मस्ती करने वाले लग रहे थे।
कुछ देर बाद जगमोहन ने एक ऐसे रेस्टोरेंट के सामने कार खड़ी कर दी, जिसके भीतर भी टेबल कुर्सियां लगी नजर आ रही थी और बाहर रेत पर भी टेबल कुर्सियां लगी हुई थीं। बाहर भी रोशनी का पर्याप्त प्रबंध था। लोग-सैलानी भीतर-बाहर बैठे खाने में व्यस्त थे। दो राजस्थानी व्यक्ति अपनी भेष-भूषा में लोगों को खाना खिलाने में व्यस्त थे। करीब आधी टेबल-कुर्सियां भरी पड़ी थी।
तीनों बाहर निकले। लम्बे सफर की वजह से थक चुके शरीर को हाथ-पांव हिलाकर सीधा किया। फिर बारी-बारी एक तरफ मौजूद पानी की टंकी के पास पहुंचे और टूँटी खोलकर हाथ मुंह धोया और एक टेबल पर जा बैठे।
दिनभर की धूप के बाद अब हवा की लहर शुरू हो गई थी। रेत अब ठण्डी होने लगी थी। मौसम बहुत सुहावना होता जा रहा था। आधी रात के बाद हल्की सी ठंडक हो जानी थी।
उनके बैठते ही एक व्यक्ति पास पहुंचा। एल्यूमीनियम का पानी का जग और तीन गिलास रखे और आदत के मुताबिक बारी-बारी तीनों को देखकर बोला।
"का खाओ हो साब जी?"
"तुम क्या खिलाओगे?" जगमोहन बोला।
"या पे तो घनो सब्जी-भाजी हौवे । बोत कुछ मिलो हो।"
"हम तीन हैं। तुम...!"
"वो तो अम देखो हो। महारी आंखें ठीक देखो हो।"
"मेरी सुन।" जगमोहन ने मुंह बनाया--- "मैं तुम्हारी नजर का नम्बर नहीं पूछ रहा। तीन के हिसाब से खाने को ले आ। न तो कम हो सामान, न ज्यादा।"
"ये का बात हौवे । कम-ज्यादा की जिम्मेवारी म्हारो पे तो हौवो ना। का मालूम तम सब्जी कम खावो हो या ज्यादो। अम तो ल दयो। कम-ज्यादा हो तो बताते जाइयो।"
"ठीक है, तुम लेकर आओ। बढ़िया चीजें लाना।"
वो चला गया।
सोहनलाल ने गोली वाली सिगरेट सुलगा ली।
जगमोहन गिलासों में पानी डालने लगा।
"मैं अभी आता हूं।" कहने के साथ देवराज चौहान उठा और रेस्टोरेंट के बाहर ही टेबल-कुर्सी रखे साठ बरस के व्यक्ति के पास पहुंचा। वो रेस्टोरेंट का मालिक था और देवराज चौहान देख चुका था कि खाने वालों से पैसे लेने का काम वो ही कर रहा था। पास पहुंचते ही देवराज चौहान बोला।
"नमस्कार साहबजी।"
"नमस्कार-नमस्कार!" वो सिर उठाकर देवराज चौहान को देखकर बोला--- "बैठो। खाणा-वाणा खा लो।"
"उधर बैठे हैं, खाना शुरू करने वाले हैं।" देवराज चौहान बोला--- "कुछ पूछना था।"
"हुकम!"
"मुसीबर खान की हवेली के बारे में पता होगा?"
"मुसीबर खान?"
"हां, यहां उसकी हवेली थी कभी। अट्ठारह सौ कुछ की बात...!"
"भायो, मैं तो उन्नीस सौ चालीस ने जन्मों हो। म्हारे को अट्ठारह सौ की बात न पता हौवे । यो जैसलमेर पूरो का पूरो ही हवेलियों का शहर हौवे या फिर छोटे-छोटे गांवों का । ज्यादातर हवेलियां खानों और पठानों की थीं। इसमें से कौन सी हवेली किस खान पठान की हौवे, का मालूम?"
देवराज चौहान चंद कदम दूर पड़ी कुर्सी खींचकर पास लाया और बैठता हुआ बोला।
"मैं तुम्हें बताता हूं। वो कभी बहुत शानदार हवेली थी। उसके मुख्य दरवाजे तक पहुंचने के लिए बहुत ही ज्यादा सीढ़ियां तय करनी पड़ती थी। इतनी कि चढ़ने वाला थक जाता था। अब उस जगह को---हवेली को सरकारी होटलों में बदला जा चुका है। ये हवेली मुख्य जैसलमेर के बीच न पड़कर जरा हटकर पड़ती थी।"
"समझो--समझो !"
"कहां पड़ेगी ये हवेली?"
"हवेली न, होटल।"
"वो ही!"
"थारे को वो देखन हो या उधर रहनो हो।"
"रहना है होटल में।"
"सलाह दया थारे को। वो बोत महंगी जगहो हौवे । कपड़े उतर जावे। सरकारी होटल वो जरूर हौवे, पर एक रात उधर रहने को पांच से हजार खरे नोट ले लयो। म्हारी मानो तो कोई सस्तो होटल ढूंढ लयो। बोलो तो इधर ही खाट खोल दयो। सुबहो जबो चाय मिलो तो सौ रुपया रात बितानो को दे दयो। चायो फ्री।"
"सुनी तुम्हारी बात।" देवराज चौहान शांत स्वर में बोला--- "मैं जो पूछ रहा हूं, वो जगह कहां पड़ती है?"
"वो जैसलमेर का सबसे बड़ा और शानदार होटल है। टूरिस्ट सैन्टर बोले हो उसो। इधर से आगे निकल जाओ। रास्ते में पूछ लयो कि ऊंट किधर बांधते हैं। वां पे पौंच जायो तो उधर से टूरिस्ट सैन्टर होटल के बारे में पता कर लयो। सीधी सड़क उधर जावे है।"
"मेहरबानी जनाब।"
"मेहरबानी काहे की, अपणा तो काम हौवे हुकम बजाने का।"
देवराज चौहान वहां से उठा और टेबल की तरफ बढ़ गया।
बूढ़े ने पैसे का गल्ला खोला और उसमें पड़े नोटों को ठीक करने लगा।
तभी तीस-पैंतीस बरस का एक व्यक्ति वहां पहुंचा और उसी कुर्सी पर बैठ गया।
"नमस्कार चाचा।"
"नमस्कार-नमस्कार।" उसे देखे बिना वो बोला--- "थारे भी कुछ पूछना हौवे ?"
"हां।"
"क्या?"
"वो तुम्हारे से क्या पूछ रहा था?"
बूढ़े ने गल्ले से नजरें हटाकर उसे देखा।
"कौन वो ?"
"जो अभी तुम्हारे पास बैठा था। अब उधर बैठा खाना खा रहा है।"
"पागल हौवे वो, म्हारे से अट्ठारह सौ की बात पूछो हो।"
"क्या?"
वो कुछ कहने लगा कि चुप हो गया, फिर बोला।
"थारे को क्या ?"
"मालूम तो हो कि वो क्या पूछ रहा था।"
"थारे को मैं क्यों बताऊं। उधर बैठो हो, जा के पूछ लयो। पर तू हौवे कौण ? थारे को मैं दिन में इधर कई बार घूमते-टहलते देखो हो।" बूढ़े की निगाह उस पर जा टिकी।
"मुझे एक आदमी की तलाश है।" वो व्यक्ति धीमे स्वर में बोला--- "उसे मैं शक्लों-सूरत से नहीं जानता। लेकि उसकी बातें सुनकर उसे पहचान सकता हूं।"
"ये का बात हुई?"
"तुम बताओ कि वो क्या पूछ रहा था?"
"न, हम नेई बतावे।"
उस व्यक्ति ने सौ का नोट निकालकर टेबल पर रखा और उसकी तरफ सरका दिया।
"ये का हौवे ?"
"सौ का नोट, फालतू का। तुम्हें सिर्फ ये बताना है कि वो क्या बात कर रहा था।"
"भायो ये सौ का नोट उठा ले। वजन बोत कम हौवे इसमें।"
उसने दो नोट और ऊपर रख दिए।
"बात न बनो। दो और डालो, पांच तो पूरे हौवे।"
उसने दो नोट और रख दिए।
"उठा लूं!"
"हां।"
"वापस नहीं दूंगा।"
"ये तुम्हारे हैं।"
उसने नोटों को उठाकर गल्ले में डाला। गल्ला बंद किया फिर कह उठा।
"भायो, वो म्हारे से सन अट्ठारह सौ की बात पूछो कि तब कोई मुसीबर खान हौवे । हवेली हौवे उसकी। वो किधर हौवे। म्हारे को का मालूम किधर हौवे। फिर बोले वो कि बोत सीढ़ियां होवे, वो चढ़कर उस हवेली तक पहुंचनो पड़े तो मने बता दयो कि उधर तो सरकारी होटल बन गयो। टूरिस्ट सैन्टर।"
वो फौरन उठ खड़ा हुआ।
"चलता हूं।"
"चल्लो हो, थारा पांच सौ वसूल हो गयो कि नहीं?"
उसने कुछ नहीं कहा और वहां से आगे बढ़ गया।
"भगवान!" वो बड़बड़ा उठा--- "ऐसे चार ग्राहक भेज दयो रोज। म्हारी तो किस्मत तर जायो।"
चलते-चलते उस व्यक्ति ने देवराज चौहान, जगमोहन और सोहनलाल पर नजर मारी। जिनकी टेबल पर वेटर खाना लगा रहा था, वो वहां से हटकर, वहां की रोशनी से दूर अंधेरे में पहुंचा और मोबाइल फोन निकालकर नम्बर मिलाने लगा। कुछ ही देर में दूसरी तरफ से उसकी बात हो गई।
"हैलो !" उसके कानों में आवाज पड़ी।
"मैं साजन बोल रहा हूं।"
"तू तो जैसलमेर में था।"
"वहीं से बोल रहा हूं।"
"कह।"
"देवराज चौहान, जगमोहन इधर जैसलमेर में हैं। साथ में कोई और भी है। वो मेरे सामने उधर खाने की टेबल पर बैठे हैं। उन्होंने घुमक्कड़ लोगों का मेकअप कर रखा है।" उसने कहा।
"वो मेकअप में हैं।"
"हां।"
"और तूने पहचान लिया। जबकि उसका असली चेहरा भी तू ठीक से नहीं जानता।" उधर से कहा गया।
"मेरी बात सुन। पूरी बात समझाकर।" उसने शांत स्वर में कहा--- "वो लोग अभी-अभी जैसलमेर पहुंचे हैं। हम लोगों ने यहां जगह बांट रखी है। मैं इधर हूं। वो लोग इधर आते ही रेस्टोरेंट के मालिक से मुसीबर खान की हवेली के बारे में पूछने लगे। रेस्टोरेंट वाला नहीं बता सका तो उन्होंने कहा कि उस हवेली के मुख्य द्वार तक पहुंचने के लिए बहुत सीढ़ियां तय करनी पड़ती हैं तो रेस्टोरेंट वाले ने बताया कि वो हवेली कब की सरकार ने अपने कब्जे में ले ली थी और आजकल वहां टूरिस्ट सैन्टर के नाम से सरकारी होटल है।"
दो पलों की खामोशी के बाद आवाज आई।
"पक्का है ना कि उसने मुसीबर खान की हवेली के बारे में पूछा?"
"हां, मैंने रेस्टोरेंट वाले को नोट देकर बात की है।"
"तेरे को अपने तौर पर भरोसा है कि वो देवराज चौहान ही है।" दूसरी तरफ से पूछा गया।
"पक्का। लेकिन तीसरा कौन है, मैं नहीं... !"
"सोहनलाल होगा।"
"सोहनलाल ?"
"तू नहीं जानता। पतला सा है तीसरा ?"
"हां।"
"तो फिर वो सोहनलाल ही है। बढ़िया जगह पकड़ा उन्हें । तेरी समझदारी देखकर ऊपर वाले खुश होंगे।" दूसरी तरफ से तारीफी स्वर में कहा गया--- "इस वक्त वो क्या कर रहे हैं?"
"खाना-खाना शुरू कर दिया है।"
"मतलब कि खाना खाकर ये लोग टूरिस्ट होटल जाएंगे ?"
"जो मुझे मालूम हुआ है, उस हिसाब से तो ये अब टूरिस्ट होटल ही जाएंगे।"
"उधर कौन है?"
"सूरी और राजा । और भी हैं। होटल में काम करते हैं। पैसा देकर उन्हें अपना बनाया है।"
"हूं, तू कितनी देर में दूसरों को बुला सकता है। तीनों को खत्म करना है।"
क्षणिक सोच के बाद उसने कहा।
"आधा घंटा या दस मिनट से ऊपर। छः आदमी यहां पहुंच जाएंगे।"
"साजन सिंह !" इस बार कानों में पड़ने वाली आवाज में कठोरता आ गई थी।
"हां।"
"सूरी और राजा को सतर्क कर दे। देवराज चौहान के जैसलमेर पहुंच जाने के बारे में बताकर कह दे कि अगर वो जिन्दा बच गए तो वे टूरिस्ट होटल ही पहुंचेंगे। वहां उन्हें खत्म करना है।"
"समझ गया।" साजन सिंह का चेहरा कठोर हो गया।
"अगर तेरे आदमियों के आने से पहले वो खाना खाकर उठ गए तो...?"
"मैं उन्हें रोक लूंगा। उनकी कार पेंचर कर सकता...!"
"ठीक है, जब वो मर जाएं तो उनके कपड़ों में जो भी सामान हो, निकाल लेना। खासतौर से कागजों पर ज्यादा ध्यान देना। समझ गया या दोबारा समझाऊं।"
"समझ गया।"
"सारा काम निपटाकर मुझे फोन करना कि तू उन्हें खत्म कर सका कि नहीं।"
"खत्म कर दूंगा।" साजन सिंह के होंठ भिंचे हुए थे।
दूसरी तरफ से फोन बंद कर दिया गया था।
साजन सिंह ने उसी पल दो जगह फोन करके उन लोगों को वहां पहुंचने को कहा और कम शब्दों में मामला समझा दिया था। ताकि वे तैयार होकर जल्दी पहुंचे।
फिर उसने सूरी को फोन किया।
"हां।" सूरी की आवाज कानों में पड़ी।
"देवराज चौहान, जगमोहन और सोहनलाल जैसलमेर आ पहुंचे हैं। वो इस वक्त दीनू के रेस्टोरेंट में खाना खा रहे हैं और यहां से वो सीधा टूरिस्ट सेन्टर ही आएंगे।"
"आगे बोल।"
"ऊपर बात हो गई है। ऊपर वाले कहते हैं कि तीनों को खत्म कर दिया जाए। मैंने दूसरे लोगों को फोन कर दिया है। वो आ रहे हैं, कुछ ही देर में उनका निशाना लिया जाएगा।"
"मैं और राजा भी आ जाते...!"
"ऊपर वालों का कहना है कि तुम्हें सारे हालात बताकर सतर्क करके वहीं रहने को कहूं कि अगर वे लोग हमारे हाथों से बच जाते हैं तो होटल टूरिस्ट सेन्टर ही पहुंचेंगे, जो कभी मुसीबर खान की हवेली हुआ करती थी। तब वहां पर तुम लोग उन्हें संभालोगे।" साजन सिंह ने सख्त स्वर में कहा।
"ठीक है, हम यहीं हैं।"
"वैसे मुझे आशा नहीं कि वे मेरे आदमियों के हाथों से बच सकेंगे।"
"वो देवराज चौहान है।"
"है तो इन्सान ही।"
"इन्सान ही होते हैं सब साजन सिंह। लेकिन कोई राष्ट्रपति बन जाता है और कोई चपरासी।"
"तू हमेशा अपना सयानापन झाड़ता रहता है।"
"सयाना हूं तो सयानापन ही झाडूंगा।" सूरी की मुस्कराहट भरी आवाज आई--- "तू देवराज चौहान पर ध्यान लगा। क्या इस वक्त वो तेरी रिवॉल्वर की जद में नहीं है ?"
"है।"
"तो उड़ा दे साले को।"
"बाकी के दो---तब वो क्या गोली खाने के लिए बैठे रहेंगे। खतरनाक लोग हैं, जल्दबाजी ठीक नहीं। ऐसे काम करने का क्या फायदा कि अपनी जान भी चली जाए। वो लोग चल पड़े होंगे। उनके आते ही सब ठीक हो जाएगा।"
"ठीक है, तुम निपटो।"
साजन सिंह ने फोन बंद करके हाथ में दबाया और टहलने लगा। वो बेचैन सा दिखाई दे रहा था। इस वक्त पूरी तरह अंधेरे में था और दूर देवराज चौहान, जगमोहन और सोहनलाल खाना खाते नजर आ रहे थे।
उसने रेडियम के डायल वाली घड़ी पर निगाह मारी। वक्त आगे बढ़ता जा रहा था।
वक्त और बीता।
आधा घंटा पार हो गया।
उधर उसने महसूस कर लिया था कि देवराज चौहान का खाना समाप्त हो गया है। वे तीनों उठने की तैयारी में हैं। अभी तक उसके लोग नहीं पहुंचे थे वहां। अगर ये लोग यहां से चल पड़े तो गड़बड़ हो जाएगी। अब एक ही रास्ता था उन्हें रोकने का कि उनकी कार का टायर पेंचर कर दिया जाए। स्टैनी बदलने में उन्हें पन्द्रह-बीस मिनट तो लगेंगे ही।
साजन सिंह ने फोन जेब में डाला और अंधेरे में ही चक्कर काटकर दूसरी तरफ पहुंचा और जमीन पर लोटकर सरकते हुए सावधानी से कार की तरफ बढ़ने लगा।
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