प्यारा जब उठा तो दोपहर के ढाई बज रहे थे।

उठकर उसने हाथ-मुँह धोया और चाय बनाई। अभी भी शरीर में, रात भर की मेहनत की थकान थी। कुर्सी पर बैठकर चाय के घूँट भरने लगा। मन में था कि चाय पीकर सोनू के पास जाएगा और उसके साथ थैला लेकर खेत में जाएगा, जहाँ पाँच लाख से भरा बक्सा दबा है। थैला भरकर उसमें से पैसे निकाल कर घर में रख लेंगे। चार-पाँच चक्कर में इसी तरह सारा पैसा ले आएंगे।
मन-ही-मन प्यारा खुश था कि पैसा हाथ लग गया।
तभी भिड़े दरवाजे को खोलकर गिन्नी ने भीतर प्रवेश किया।
"गिन्नी तू... आ...।" प्यारा बोला।
गिन्नी का चेहरा लटका हुआ था।
"क्या हुआ तेरे को?" प्यारे के होंठों से निकला।
"दिल कच्चा-कच्चा सा हो रहा है।" गिन्नी थके स्वर में बोली।
"कच्चा-कच्चा? ये क्या बीमारी है?"
"उल्टी आने का मन भी कर रहा है।"
"उल्टी आ रही...।"
"बच्चा पेट में ठहर गया है ना?"
प्यारा चाय का प्याला थामें, फौरन खड़ा हो गया। थोड़ा-सा सकपका-सा उठा था।
"त...तो?"
"अचार खाने का मन होता है, कच्चे आम का अचार। खट्टा-खट्टा...।"
प्यारे की हालत देखने लायक थी।
गिन्नी मुँह लटकाए कह उठी---"मैंने सुना है कि जब बच्चा ठहर जाये तो ये सब होता है। मुझे भी हो रहा है...।"
"ल...लेकिन...।" प्यारे से कुछ कहते न बना।
"मुझे अचार का डिब्बा ला दे।"
"डिब्बा?" प्यारे ने गहरी साँस ली।
"तेरा ही तो बच्चा है। तू नहीं लाकर देगा तो क्या सोनू लाकर देगा?"
"म...मैं देता हूँ...।" कहकर प्यारे ने चाय का प्याला रखा और भीतर चला गया। फौरन ही वापस लौटा।
हाथ में पुरानी सी, छोटी सी शीशी थी, जिसमें अचार के कुछ पीस पड़े नजर आ रहे थे।
"ये ले गिन्नी...।" प्यारा उसे शीशी थमाता बोला--- "ये अचार है।"
"थोड़ा-सा है। शाम तक खत्म हो...।"
"मैं और ला दूँगा...।"
"ठीक है।" गिन्नी ने सिर हिला दिया--- "तू कितना अच्छा है। लक्ष्मण से तो मेरी जान बची।"
"तू लक्ष्मण का नाम मत लिया कर।"
"नहीं लेती।"
"चाची कब आ रही है?"
"कल आएगी माँ...।"
"चाची को बता दियो कि तेरे पेट में बच्चा ठहर गया है।"
"वो मेरी जान ले लेगी...।" गिन्नी ने घबराकर कहा।
"फिक्र मत कर। थोड़ी बहुत मार खा लेना। तब मैं बीच में आकर सब...।"
"प्यारे...।" तभी सोनू की आवाज सुनाई दी।
"सोनू...।" प्यारे के होठों से निकला।
तभी दरवाजे पर सोनू इस तरह आ पहुँचा जैसे कि ब्रेक मारी हो। वो गहरी-गहरी साँसें ले रहा था।
"क्या हुआ?" सोनू की हालत देखकर प्यारा हड़बड़ा उठा--- "सब ठीक तो है?"
"सब, क्या सब?"
"वो...वो...।" प्यारे ने गिन्नी को देखा--- "तू जा गिन्नी, मैं शाम को तेरे को अचार का डिब्बा ला दूँगा...।"
गिन्नी शराफत से अचार की शीशी थामें चली गई।
"अब बोल...?" प्यारे ने सोनू को देखा।
"म...मैं खेतों की तरफ गया था।"
"व...वो पाँच लाख तो ठीक हैं?"
"वो तो ठीक हैं, लेकिन उधर गुम्बद के पास, हर तरफ खेतों में पुलिस ही नजर आ रही है। पता चला कि दिन का उजाला फैलने से पहले ही वहाँ पुलिस आ गई थी।" सोनू कह उठा।
"दिन निकलने से पहले, तब तो हम पाँच लाख वाली पेटी दबा रहे थे।"
"वो जगह, गुम्बद से हटकर है। इसलिए पुलिस ने हमें नहीं देखा। हमने पुलिस को नहीं देखा। पता चला है कि पुलिस ने गन्ने के खेत में खड़ी वैन ढूंढ निकाली है। मुझे तो डर लगा कि कहीं पुलिस ने हमारे पाँच लाख वाली भी पेटी न ढूंढ ली हो...।"
"फिर तूने क्या किया?" प्यारे के होंठों से निकला।
"मैं वहाँ गया, जहाँ रात हमने पेटी दबाई थी। उधर कोई भी नहीं था। मिट्टी खोदने के लिए खुरपी मैं साथ ले गया था। उससे मैंने सारी मिट्टी हटाकर, वो बक्सा देखा। सोचा कि जेब भरकर रुपया लेता आऊँ, लेकिन वो खुली नहीं।"
"नहीं खुली, क्यों?"
"ताला बंद था।"
"ताला तोड़ देता।"
"ताला लटकने वाला नहीं था। भीतर ही फिट ताला था। वो नजर नहीं आता। चाबी लगने की जगह नजर आती है।"
"फिर तूने क्या किया?"
"करना क्या है, उसे वैसे ही मिट्टी में दबाकर, तेरे पास आ पहुँचा।"
"तो उसे खोलोगे कैसे?"
"कुल्हाड़ी से बक्से को काट देंगे। दस मिनट में काम हो जायेगा।"
प्यारा चुप रहा।
"क्या सोच रहा है?"
"पुलिस के बारे में। इतनी देर से पुलिस वहाँ क्या कर रही है?"
"चल, वहाँ जाकर देखते हैं।"
◆◆◆
प्यारा और सोनू दो घण्टों से वहाँ घूम रहे थे।
काफी लोग थे वहाँ। आसपास के गाँवों के। उनकी कॉलोनी के भी। पुलिस ने उन सबको दूर-दूर रखा था। पता चला उन्हें कि गन्ने के खेतों से पुलिस को एक वैन मिली है। जिसमें चार बक्से मिले हैं। परन्तु एक बक्सा गायब है। पुलिस वहाँ पाँचवें बक्से को तलाश कर रही है।
प्यारा और सोनू एक तरफ पहुँचे। प्यारा बोला---
"पुलिस उसी... हमारे वाले बक्से को तलाश कर रही है।"
"हाँ।" सोनू चिंता में दिखा।
"मुझे डर लग रहा है कि अगर पुलिस ने खेतों में दबा वो बक्सा ढूंढ लिया तो...।"
"पुलिस को सपना आना है क्या जो...।"
"मैंने सुना है पुलिस सब ढूंढ लेती है।"
"जादूगर नहीं होती पुलिस।" सोनू हाथ नचाकर बोला--- "तू फिक्र नहीं कर, पुलिस को कुछ नहीं मिलेगा।"
प्यारे ने कुछ नहीं कहा।
"हम आज पैसे नहीं निकालेंगे बक्से से। कल देखेंगे। पहले पुलिस को जा लेने दे।"
"लेकिन मुझे तो पैसों की जरूरत है।"
"जरूरत... कैसी जरूरत?"
"अचार का डिब्बा खरीदना है गिन्नी के लिए।"
"तेरे को क्या जरूरत है गिन्नी के लिए अचार का डिब्बा लेने की? सारा अचार तो चाची खा जायेगी।"
"गिन्नी को हमने जब से कहा है कि उसके पेट में बच्चा ठहर गया है तब से उसका मन कच्चा-कच्चा होने लगा है। उल्टी आने को होती है। खट्टा खाने को मन करता है।" प्यारे ने गहरी साँस लेकर कहा।
"वो वहम में फँस गई है गिन्नी। अच्छा ही है।" सोनू मुस्कुराया--- "चाची की हालत देखने लायक होगी।"
"अब अचार का डिब्बा कहाँ से लाकर दूँ? अभी तक किराया भी नहीं मिला।"
"यहाँ से चल।" सोनू प्यारे का कंधा थपथपाकर बोला--- "कोई इंतजाम करता हूँ। गिन्नी का ये भ्रम बना रहने देना ही ठीक है कि उसके पेट में बच्चा ठहर गया है। चाची को इसी तरह सीधा किया जा सकता है।"
◆◆◆
अगले दिन सुबह दस बजे देवराज चौहान की आँख खुली तो जगमोहन को उसने तैयार होते पाया।
"कहाँ की तैयारी है?" देवराज चौहान ने पूछा।
"अखबार से पता चला है कि कल पुलिस को गन्ने के खेतों में बैंक वैन मिल गई थी। परन्तु उसमें चार बक्से ही मिले। पाँचवा बक्सा नहीं मिला। पुलिस ने वहाँ के सारे खेत छान मारे। परन्तु पाँचवा नहीं मिला।"
"तो?"
"जाकर देखता हूँ, शायद मुझे मिल जाए...।"
देवराज चौहान मुस्कुरा पड़ा।
"समझ में नहीं आता कि वैन लेकर भागने वालों ने वैन को गन्ने के खेतों में क्यों छोड़ दिया? करोड़ों रुपए से भरे बक्से भी नहीं ले के गए।" जगमोहन बोला--- ""आखिर वे चाहते क्या थे?"
"छोटे चोर होंगे। तभी एक बक्सा ले गए।" देवराज चौहान मुस्कुरा रहा था।
"जब वो वैन लेकर भागे थे तो पीछे के दरवाजे खुले थे। एक बक्सा रास्ते में कहीं गिर गया होगा...।"
"फिर तो वह बक्सा पुलिस को मिल जाना चाहिए।"
"पुलिस को नहीं मिला। बक्सा गिरते ही कहीं छुप गया होगा। शायद मुझे मिल जाए।" जगमोहन भी मुस्कुराया।
"कोई फायदा नहीं होगा। मुझे लगता है, वैन ले भागने वाले ही, पाँचवा बक्सा ले गए होंगे।"
◆◆◆
जगमोहन उस इलाके में पहुँचा। कार सड़क के किनारे रोक दी। पैदल ही खेतों की तरफ बढ़ गया। आज पुलिस नजर नहीं आ रही थी। शायद पुलिस को कल दिनभर की तलाशी के बाद विश्वास आ गया होगा कि पाँचवां बक्सा वैन पर हाथ डालने वाले ले गए हैं। कुछ ही देर में जगमोहन खेतों के बीच आ पहुँचा और बक्सा ढूंढने लगा। तेज धूप पड़ रही थी, परन्तु वो खेतों में कहीं गिरे पड़े स्टील के उस बक्से को ढूंढने में व्यस्त हो चुका था।
करीब घण्टे भर बाद उसने खेतों में मलिक और सुदेश को देखा तो उनके पास पहुँचा।
"तुम दोनों यहाँ क्या कर रहे हो?"
"जो तुम कर रहे हो।"
"पाँचवा बक्सा ढूंढ रहे हो?"
"हाँ...।"
"तुम तो कागजों के पीछे थे। फिर नोटों को...।"
"°हमें कागज ही चाहिए। नोट नहीं।" सुदेश बोला--- "शायद उसी पाँचवे बक्से में कागज हों...।"
"तुम लोगों को जान बचाने की फिक्र करनी चाहिए।" जगमोहन ने कहा।
"क्यों?"
"वैन पर से पुलिस को तुम लोगों की उंगलियों के निशान मिल जाएंगे। कभी भी तुम फँस सकते हो।"
"शुक्र है कि सब ठीक है।" मलिक मुस्कुराया।
"क्या मतलब?"
"जो लोग वैन ले भागे, मैं उनका शुक्रगुजार हूँ कि उन्होंने वैन से उंगलियों के निशान अच्छी तरह साफ कर दिए।"
"ये बात कैसे कह सकते हो?"
"पुलिस को वैन पर से किसी भी तरह की उंगलियों के निशान नहीं मिले।" मलिक ने कहा।
"ओह...।" जगमोहन ने गहरी साँस ली--- "तो फँसते-फँसते बच गए तुम लोग।"
"हाँ। अब हमें मिलकर बक्से को ढूंढना चाहिए। तुम्हें पैसा चाहिए और हमें कागजात।"
◆◆◆
स्टील का वो बक्सा बहुत मजबूत था। मजबूत और मोटी पत्तर थी बक्से की।
कुल्हाड़ी का बक्से की चादर पर वार करने से चादर पर कोई खास फर्क नहीं पड़ रहा था। परन्तु प्यारा और सोनू दो घण्टे से बक्से पर कुल्हाड़ी से वार पर वार कर रहे थे।
एक के बाद एक चोट बक्से पर पड़ रही थी।
कभी प्यारा चोटें मारता तो सोनू रखवाली करता। सोनू चोटें मारता तो, प्यारा रखवाली करता।
कुल्हाड़ी से चोटें मारने का सिलसिला बराबर जारी था।
बक्से की चादर धीरे-धीरे कमजोर पड़ती जा रही थी। दो घंटों से वो इस काम पर लगे थे। दोपहर हो रही थी। पसीने से भरे पड़े थे। परन्तु उनके काम की रफ्तार में सुस्ती नहीं आई थी।
शाम के चार बजते-बजते प्यारे और सोनू की मेहनत रंग लाई। उन्होंने स्टील के बक्से की छोटी-सी परत उखाड़ ली थी। भीतर हजार-हजार के नोटों की गड्डियाँ दिखीं।
"सोनू...।" प्यारा खुशी से चिल्ला पड़ा--- "इसमें तो हजार-हजार के नोटों की गड्डियाँ हैं... चिल्लर नहीं है।"
सोनू का चेहरा भी खुशी से चमक उठा था।
"जानता है एक हजार के नोटों की गड्डी कितने की होती है?" सोनू बोला।
"कितने की?"
"पूरे एक लाख की।"
"तेरे को कैसे पता?"
"भगते ने बताया था।"
"फिर तो बहुत सारे लाख हैं। इतने लाखों का हम क्या करेंगे?" प्यारे ने सोनू को देखा।
"आधे-आधे बांट कर अपने घर में डालडे के डिब्बे में भरकर, जमीन में दबा देंगे। जब भी जरूरत पड़ेगी, निकाल लिया करेंगे।"
"लेकिन मेरे पास तो डालडे का डिब्बा ही नहीं है।" प्यारा कह उठा।
"अब क्या डिब्बों की कमी है। बाजार से दस डिब्बे खरीद लेना। घी चाची को दे देना और नोटों को डिब्बे में...।"
"समझ गया... समझ गया...। तू थैला निकाल। नोट भरते हैं।"
पास ही रखा थैला सोनू ने उठाया और खोलकर पास ही बैठ गया।
प्यारे ने नोटों की गड्डियाँ निकालीं।
कुल्हाड़ी के वार से वो गड्डी बीच-बीच से कट चुकी थीं।
"ये नोट तो आधे-आधे कटे...।"
"कुल्हाड़ी से कटे होंगे...। और निकाल। पूरा बक्सा गड्डियों से भरा पड़ा है।
प्यारे गड्डियाँ निकालकर थैले में भरने लगा।
जो कटी होती, उसे एक तरफ रख देते।
थैला भर लिया।
"बस।" सोनू बोला--- "ये फटी-कटी गड्डियों को वापस बक्से में डालकर, बक्से को वापस खेत में दबा कर रख देते हैं।"
"कुछ देर बाद एक चक्कर और लगा...।"
"आज नहीं।" सोनू बोला--- "कल आएंगे। जानता है ये कितना पैसा है?"
"कितना?"
"मैंने गिनी गड्डियाँ, जब तू रख रहा था। ये पूरी बावन गड्डियाँ हैं। मतलब की बावन लाख...।"
"ओह, इतना ज्यादा?" प्यारे का मुँह खुला का खुला रह गया। "चल। बक्से को वापस मिट्टी में दबा देते हैं।
दोनों जोश में थे।
दस मिनट में ही इस बक्से को मिट्टी में दबा दिया।
सोनू थैला थामें खड़ा हो गया।
थैले में पड़ीं गड्डियाँ नजर आ रही है...।" प्यारे बोला।
वहाँ से सरसों तोड़ और थैले के ऊपर इस तरह भर दे की गड्डियाँ नजर नहीं आयें। कोई देखेगा तो यही सोचेगा कि प्यारे और सोनू खेतों से सरसों तोड़ कर ला रहे हैं। साग बनाने का इरादा लगता है।"
प्यारे ने ऐसा ही किया।
थैले में ऊपर-ऊपर सरसों को फँसा दिया।
दोनों वापस चल पड़े।
"गुंबद की तरफ से घर चलते हैं। इधर से बार-बार आना-जाना ठीक नहीं। कोई शक करेगा।" सोनू ने कहा।
"जैसा तू कहे...।"
दोनों दूसरे रास्ते की तरफ बढ़ गए, जो गुम्बद की तरफ से होकर जाता था।
"मजा आ गया प्यारे...।" सोनू खुशी से झूमता कह उठा।
"अब तो मजा ही मजा है। मैं दस-बीस ऑटो डाल दूँगा और किराए पर दिया करुँगा।"
"मैं बड़ी-सी दुकान लूँगा। इतने ज्यादा लाख हैं अब हमारे पास। भगते को मत बता देना।"
"मैं क्या पागल हूँ।"
"आज मैं अचार के पूरे दस डिब्बे खरीदकर गिन्नी को दूँगा।"
"डालडे के डिब्बे भी खरीदना बड़े वाले। उन्हें खाली करके, अच्छी तरह साफ करके, उसमें नोट रखना।"
"हाँ। तू कहाँ रखेगा नोट?"
"मेरे पास एक कनस्तर है। उसमें भरकर पीछे वाले कमरे में दबा दूँगा। उस कमरे का फर्श मिट्टी का है।"
"तेरे पास तो पूरा इंतजाम है। मैं भी कोई इंतजाम कर लूँगा।"
"वो देख...।" सोनू के होंठों से निकला।
अगले ही पल दोनों ठिठक गए।
सामने ही जगमोहन, मलिक और सुदेश नजर आ रहे थे।
"ये तो वो ही हैं।" प्यारे के होंठों से निकला--- "उस रात वाले।"
"अब क्या होगा?" सोनू घबरा उठा।
"तू फिक्र मत कर। उन्हें क्या पता कि यहाँ हम क्या कर रहे हैं। हम तो खेतों से सरसों लेने आए थे।"
"ह...हाँ...।" सोनू ने फौरन खुद को संभाला।
"चल। उनके पास से इस तरह निकलना है जैसे हम उन्हें जानते ही नहीं।"
दोनों आगे बढ़ गए।
सोनू ने थैला कंधे पर लटका रखा था।
जब वे उनके पास से निकले तो एकाएक जगमोहन ने उन्हें पुकारा---
"सुनो...।"
दोनों ने ठिठक कर जगमोहन को देखा। जबकि दोनों की ही टाँगें काँप रही थीं।
"तुम लोगों ने खेतों में पड़ा स्टील का कोई बक्सा देखा है?"
"तुम बक्सा ढूंढ रहे हो?" प्यारे ने जगमोहन को घूरा।
"हाँ...।"
"कबाड़ी हो जो खेतों में बक्से ढूंढ रहे हो? वैसे कबाड़ी लगते तो नहीं...।"
जगमोहन उनके जवाब पर अचकचा उठा।
"आ सोनू...।" प्यारे आगे बढ़ता कह उठा--- "पागल लगता है ये...।"
सोनू भी प्यारे के साथ तेजी से आगे बढ़ गया। थैला कंधे पर लटका रखा था।
◆◆◆
रात के दस बज रहे थे।
प्यारा कुर्सी पर बैठा नोटों में डूबे सपने बुन रहा था। आज जो थैला भर कर लाए थे, सोनू के साथ उन गड्डियों को आधा-आधा बांट लिया था। फिलहाल प्यारे ने गड्डियों को पीछे वाले कमरे में रखे पुराने संदूक में रख दिया था। दस अचार के डिब्बे खरीदकर गिन्नी को दे आया था। आते वक्त खाना भी बाजार से लेता आया था। खुद भी खाया और गिन्नी को भी खिलाया।
गिन्नी अपने घर में चली गई थी।
अब प्यारा फुर्सत में बैठा था कि तभी खुले दरवाजे से चाची ने भीतर प्रवेश किया।
प्यारे ने चाची को सामने देखा तो उछल कर खड़ा हो गया।
चाची के चेहरे पर गुस्सा नाच रहा था।
"हाय-हाय, ये तूने दो दिन में क्या कर दिया कमीने...।"
"क...क्या हो गया?" जबकि प्यारा सब समझ रहा था।
गिन्नी अचार पर अचार खाए जा रही है। दसों डिब्बे खोले बैठी है। कहती है पेट में प्यारे का बच्चा है। उसने मुझे बताया कि तू उसे खेतों में ले गया और रात भर उसे वहीं रखा। तूने तो मुझे बर्बाद कर दिया...। तूने तो...।"
"इसमें चिंता की क्या बात है चाची। मैं उसके साथ शादी...।"
"शादी तो मैं लक्ष्मण के साथ करुँगी। वो मुझे लाख रुपया दे रहा है। तेरे पास कोई काम-धंधा ही नहीं है। तूने तो गिन्नी को बर्बाद कर दिया...। उसे... उसे...।"
"चाची।" प्यारा खुद को संभाल कर मुस्कुराया--- "मैंने गिन्नी को कली से फूल बना दिया।"
"चुप कर कमीने! तू तो...।"
"गिन्नी मेरे साथ शादी करना चाहती...।"
"मैं उसकी माँ हूँ। उसकी शादी वहीं होगी जहाँ मैं चाहूँगी।"
तभी सोनू ने भीतर प्रवेश किया। उसने चाची की बात सुन ली थी।
"चाची ठीक कहती है।" सोनू बोला--- "गिन्नी की शादी वहीं होगी, जहाँ चाची चाहेगी।"
"मैं लक्ष्मण के साथ...।" चाची ने गुस्से से कहना चाहा।
"रुक चाची। रुक... मैं अभी आया...।" प्यारे ने कहा और पीछे वाले कमरे में चला गया।
चाची ने सोनू से कहा---
"एक बार मैं शादी से पहले इसी तरह खेतों में गई थी, पूरी पीठ छिल गई थी। बेचारी गिन्नी ने जाने कैसे सहा होगा। सोनू, तूने क्यों नहीं रोका प्यारे को? आखिर गिन्नी तेरी आधी बहन है...।"
""आधी बहन...?" सोनू सकपकाया।
"तूने राखी नहीं बंधवाई तो क्या हुआ, उस दिन राखी के आधे पैसे ढाई सौ तो दे ही दिए थे। इस तरह गिन्नी तेरी आधी बहन हो गई। बाकी के ढाई सौ आ जाएंगे तो गिन्नी तेरी पूरी बहन बन जाएगी।"
"समझा... समझा...।"
"ये प्यारा मुझे यहाँ रुकने को कहकर, भीतर क्या करने गया...।"
तभी प्यारा कमरे में आ पहुँचा। हाथ में हजार के नोटों की एक गड्डी पकड़ी थी।
"ले चाची...।"
नोटों की गड्डी देखकर चाची की आँखें फैल गईं।
"य... ये क्या है?"
"हजार के नोटों की गड्डी। एक लाख रुपया। अब गिन्नी की शादी मेरे से होगी।"
चाची ने झपटकर, गड्डी थाम ली और अविश्वास भरे ढंग से उसे छुआ।
"प्यारे, यह असली है ना?" चूरण वाले तो नहीं?"
"एकदम असली हैं।" प्यारे बोला--- "क्यों सोनू?"
"हाँ-हाँ, एकदम असली हैं।" सोनू जल्दी से कह उठा--- "बैंक का माल है।"
"त...तूने मकान बेच दिया प्यारे...।" चाची गड्डी को अपने ब्लाउज में डालती खुशी से कह उठी--- "ये बयाना होगा...।"
"चाची, तू मेरे घर की भीतरी बातों में दखल मत दे। अपने काम से मतलब रख...।" प्यारे कह उठा।
"ये ठीक ही तो कह रहा है चाची।" सोनू फौरन बोला।
"हाँ-हाँ, मुझे क्या...।" लाख रुपया हाथ में आ जाने से चाची खुश थी।
"प्यारे सौ का नोट और दे चाची को।"
"सौ का नोट...।"
"तूने कहा था कि सौ ऊपर देगा...।"
"ह...हाँ। लेकिन सौ खुले नहीं हैं।" प्यारे मुस्कुराकर कह उठा।
"कोई बात नहीं। मैं दे देता हूँ...।" सोनू ने कहा और जेब से हजार का नोट निकालकर चाची को थमा दिया।
"मर जावां...।" चाची खुशी से आपे से बाहर हो गई--- "तुम दोनों राजी हो तो गिन्नी की शादी तुम दोनों से करा...।"
"चाची गिन्नी की शादी प्यारे से होगी।" सोनू बोला।
"मैंने कब मना किया।"
"सोचने का वक्त नहीं है। कल-परसों में ही बम-पटाखे फूट जाने चाहिए।
"हाँ-हाँ, कल ही लो। मैं सारा इंतजाम कर देती हूँ...।" चाची के मुँह से नोटों की गर्मी बोल रही थी।
प्यारे ने जेब से एक और गड्डी निकाली और चाची की तरफ बढ़ाते हुए बोला---
"ले चाची, तेरे लिए...।"
"तू मेरे से भी शादी करेगा...।" चाची ने फौरन गड्डी थाम ली। झूमने लगी थी वो।
प्यारे और सोनू की नजरें मिलीं।
"तीसरी गड्डी मत दे देना।" सोनू ने प्यारे से कहा--- "वरना चाची भी डोली में बैठकर तेरे पास आ जाएगी।"
"तीसरी?" चाची के होंठों से निकला--- "कहाँ है तीसरी?"
"बस दो ही थीं...। जा चाची शादी की तैयारियाँ कर। कल धूम-धड़ाका हो जाना चाहिए।" सोनू बोला।
"लेकिन...।" प्यारा बोला--- "हम इतनी जल्दी तैयारियाँ कैसे कर...।"
"मुझ पर छोड़ दे। भगते को सब इंतजार करना आता है। हलवाई है वो। साले को अभी काम पर लगा देता हूँ। बाकी के काम मैं पूरे करूँगा। तू फिक्र मत कर। ऐसे धूम-धड़ाका से तेरी शादी होगी कि... कि सब याद रखेंगे।"
"सदके जावाँ।" चाची तो जैसे आसमान में झूम रही थी--- "मैं तो पहले ही कहती थी कि प्यारे जैसा दामाद तो किस्मत वालों को मिलता है। गिन्नी कितनी भाग्यशाली है जो खेतों में गई और...।"
"अब वक्त बर्बाद मत कर चाची।" सोनू बोला--- "जाकर अभी से तैयारियाँ शुरू कर दे।"
"एक और गिन्नी होती तो, उसका ब्याह मैं तेरे से कर...।"
"जो है, पहले उसे तो निपटा ले चाची...।" सोनू ने गहरी साँस लेकर कहा।
"प्यारे... गिन्नी को तेरे पास भेज दूँ क्या?" चाची ने आँखें नचा कर कहा।
""मेरे पास?"
"रात वापस आ जाएगी।"
"जल्दी क्या है चाची। कल फेरों के बाद उसे पक्के तौर पर घर ले आऊँगा। आज रहने दे।" प्यारे मुस्कुराकर बोला।
चाची चली गई।
"तेरा काम बन गया प्यारे...।" सोनू खुशी से कह उठा।
"तू अभी भगते के पास जा। सारे आर्डर उसे दे दे। तैयारियाँ शुरू कर दे। जो भी मिले, शादी पर आने को कह देना। शादी में बजाने के लिए बम वगैरह भी खरीद लेना। मैं कल बाजार जाकर घोड़ी बुक करा लूँगा। बाजा भी और दूल्हे का सूट भी खरीदना है। कितने काम हैं, पता नहीं हो पाएंगे या नहीं?"
"मैं हूँ ना, तू फिक्र क्यों करता है। अभी भगते से मिलकर आता हूँ।"
◆◆◆
शाम के सात बज रहे थे।
प्यारे की बारात निकल रही थी। वह घोड़ी पर बैठा था। बैंड बज रहा था। ढोलक भी बज रहा था। सबसे आगे सोनू बम-पटाखे छोड़ रहा था। शोर-शराबा इतना था कि कान फट रहे थे।
बारात की भीड़ देखते ही बनती थी।
सोनू ने हर आने-जाने वाले को न्यौता दे दिया था। पास के गाँव को भी बुला लिया था। ऐसे बारात इस तरह लग रही थी जैसे जुलूस हो। रौनक का आलम देखते ही बनता था। जो जैसे कपड़ों में था वैसे ही चला आया था। अधिक लोगों ने चप्पल पहन रखी थी। इलाके के लड़के, बैंड-बाजों के साथ डांस कर रहे थे। किसी चीज की कमी नहीं थी। यह शायद इस इलाके की, अब तक की सबसे शानदार और बड़ी बारात थी।
घोड़ी पर बैठा प्यारा खुशी से फूला नहीं समा रहा था। गिन्नी से उसकी शादी हो रही थी। उसके लिए ये ही बड़ी बात थी। सोनू ने सब कामों को बढ़िया ढंग से संभाल लिया था।
तभी सोनू घोड़ी के पास आ पहुँचा।
"बारात का रूट क्या है?" प्यारा झुकता हुआ सोनू से बोला।
"रूट की तू फिक्र मत कर। सब अपने हाथ में है। दो-तीन गलियों का चक्कर लगाकर वापस आ जाएंगे।"
"भगते ने खाने-पीने का सारा इंतजाम कर...।"
"कर दिया। कर दिया। चिंता मत कर। उसने अपने साथ दो हलवाई और लगा रखे हैं।" सोनू ने शोर में चिल्ला कर कहा।
प्यारे ने सिर हिलाया।
"मैं तेरे को बताने आया था कि वो ही वाले तीन लोग वहाँ खड़े हैं।" सोनू बोला।
"कौन से वाले?"
"जो कल खेतों में मिले थे--- स्टील के बक्से के बारे में पूछ रहे थे।"
"वो यहाँ क्या कर रहे हैं?"
"हमें क्या, जो भी करें...।"
"उन्हें भी शादी पर बुला ले। तू उन्हें मेरे पास भेज। कह दूल्हा बुला रहा है।"
"भेजता हूँ...।" कहकर सोनू चला गया।
दो मिनट बाद ही जगमोहन घोड़ी के पास आ पहुँचा।
प्यारे झुकता हुआ जगमोहन से कह उठा---
"पहचाना मुझे? कल हम खेतों में मिले थे। मैंने तुम्हें कबाड़ी कहा था...।"
"पहचाना...।" जगमोहन ने मुँह बनाकर कहा।
"अब आ ही गए हो तो, खाना खाकर जाना। शगुन भी देना। सोनू ने बताया कि तुम तीन लोग हो। कम-से-कम ग्यारह सौ तो बनता ही है शगुन का। अभी देना चाहो तो अभी दे दो। बाद में तो मैं फेरों में व्यस्त हो जाऊँगा...।"
जगमोहन बिना कुछ कहे, वहाँ से हट गया।
"खाना खाकर जाना...।" घोड़ी पर बैठा प्यारा चिल्ला कर कह उठा।
बारात आगे बढ़ती रही। बाजा-ढोल बजता रहा।
जगमोहन, मलिक और सुदेश के पास पहुँचकर बोला---
"हम वक्त खराब कर रहे हैं। वो बक्सा हमें मिलना होता तो मिल गया होता अब तक...।"
"तो?" मालिक ने जगमोहन को देखा।
"मैं जा रहा हूँ। अब और वक्त बर्बाद नहीं करना चाहता। करने को बहुत काम हैं। कहने के साथ ही जगमोहन आगे बढ़ गया।
"ये तो गया...।" सुदेश कह उठा।
"वो ठीक कहता है, अब वो बक्सा नहीं मिलने वाला। जाने कहाँ पहुँच चुका है...। हमें भी चलना चाहिए।"
"छाबड़ा को क्या कहोगे?"
"भाड़ में गया छाबड़ा!" मलिक ने झल्लाकर कहा।
"वो अपने पैसे वापस माँगेगा...।"
"कौन-सा पैसा?" मलिक मुस्कुराया--- "पहले वो साबित तो करे कि उसने हमें कोई काम करने को कहा था...।"
"तुम ठीक कहते हो। इस बारे में वो अपना मुँह खोलने की हिम्मत नहीं कर सकता।"
"ये काम खत्म हुआ। आओ चलें।" मलिक ने कहा और सुदेश के साथ, बारात की भीड़ से बचता एक तरफ बढ़ गया।
बैंड-बाजा और ढोल बज रहा था।
सोनू नाच रहा था। बम-पटाखे बजा रहा था।
प्यारे की शादी हो रही थी।
समाप्त