“क... क्या बात कर रही हैं विभा जी ?” एक बार फिर जैसे उसके प्राण निकल गए। झपटकर विभा के पैर ही जो पकड़ लिए उसने और लगा गिड़गिड़ाने---- “ऐसा मत कहिए । इस वक्त मुझे दुनिया में आपके अलावा कोई सहारा नजर नहीं आ रहा । आप ही ऐसा कहेंगी तो कहां जाऊंगा? आपको मेरी रक्षा करनी होगी।"
“अब रक्षा करने के लिए तो कह दिया न भई ।” उसके अपने पैरों में पड़े होने के कारण विभा बौखला - सी गई ----“ये गारंटी तो कोई भी नहीं ले सकता कि वह अपने प्रयासों में कामयाब हो ही जाएगा।"
मैं और शगुन उसे विभा उसे विभा के पैरों से उठाने की कोशिश कर रहे थे मगर वह हमारे प्रयास को नाकाम करता कहे चला गया- - “मुझे पूरा यकीन है कि आप प्रयास करेंगी तो नाकाम नहीं हो सकतीं ।”
“ अब पैर तो छोड़ो मेरे, कह तो दिया कि कोशिश करूंगी और वैसे भी, इस अवस्था में जबकि मुझे पता लग गया है कि हत्यारे के अगले शिकार तुम हो, अगर वह तुम्हें मारने में कामयाब हो गया तो भला मेरी ही इससे बड़ी शिकस्त और क्या होगी?”
“ए... ऐसी ही... ऐसी ही कोई बात सुनना चाहता था मैं आपके मुंह से।” कहने के साथ उसने पैर तो जरूर छोड़ दिए लेकिन हाथ अब भी जोड़े हुए था ---- “अब मुझे यकीन हो गया है कि हत्यारा सफल नहीं हो सकेगा। अब बताइए-क्या मैं घर जाऊं?” सचमुच
“ और कहां जाओगे भई ? ”
“ मैं सोच रहा था आप मुझे किसी ऐसी जगह रखेंगी जहां आपके हिसाब से हत्यारा दाखिल ही न हो सके।"
“सुरक्षा के इंतजाम करके किसी भी जगह को ऐसी बनाया जा सकता है। मुझे नहीं लगता कि तुम्हारे लिए घर से सुरक्षित जगह कोई होगी । बस यूं समझ लो कि मराठा से कहकर उसके चारों तरफ ऐसा पहरा लगवा दूंगी कि परिंदा भी पर नहीं मार सकेगा ।”
“पर आप आसपास जरूर रहना।"
“ रहूंगी। मैं भी रहूंगी । ”
“थैंक्यू... थैंक्यू वैरीमच विभा जी ।” कहने के बाद वह खड़ा हुआ । पुनः दाढ़ी-मूछ लगाई, पगड़ी पहनी और बार-बार उसके साथ हमारा भी धन्यवाद अता करता विदा हो गया ।
उसके निकलते ही विभा ने मोबाइल पर संबंध स्थापित किया और बोली----“क्या तुमने हमसे मिलने आए सरदार को देखा?”
“वो धीरज सिंहानिया है बहूरानी।" श्रीकांत की आवाज ।
“गुड ।” वह श्रीकांत की परफारमेंस से खुश हो गई ---- “उस पर नजर रखो, वह हत्यारे का अगला शिकार हो सकता है।"
“मैं उसी के पीछे हूं बहूरानी । ”
विभा ने बगैर कुछ कहे संबंध - विच्छेद किया । मैं कुछ पूछना चाहता था लेकिन वह मौका ही कहां दे रही थी ? एक ही क्रम में दूसरी जगह संबंध स्थापित करके बोली---- "मराठा, कुछ देर पहले मुझसे धीरज सिंहानिया मिलकर गया है।”
वह एक ही सांस में सारी बातें बता गई । सुनने के बाद मराठा ने वही पूछा जो मैं पूछना चाहता था - - - - “क्या आपको लगता है वह सच बोल रहा था ? हत्यारे ने ही धमकी दी है उसे ?”
“हो सकता है पट्ठे ने खुद ही कोई सिम खरीदा हो और अपने मोबाइल पर मैसेज देकर उसे नष्ट भी कर दिया हो। ऐसे दुकानदारों की अभी भी कोई कमी नहीं है जो थोड़े से लालच में बगैर ग्राहक की आइडेंटिटी लिए सिम बेच देते हैं।"
“मेरा ख्याल भी यही है विभा जी ।” गोपाल मराठा की उत्साह से भरी आवाज सुनाई दी ---- “उस हरामी ने शायद ऐसा ही किया है।”
“तुम्हारा ऐसा ख्याल क्यों है?”
“ये हत्यारा इस तरह चेतावनी देकर हत्या करने वाला नहीं है और न ही अब तक उसने कोई हत्या करने से पहले चेतावनी दी है।"
“अगर वह ऐसा कर रहा है तो क्यों कर रहा है ?"
“ अंदर ही अंदर यह डर सता रहा होगा उसे कि अब शायद हत्यारा उसे भी मार डालेगा । इस बहाने से वह सुरक्षा व्यवस्था हासिल करने आया होगा। सोच रहा होगा कि आप और पुलिस आसपास रहेगी तो शायद हत्यारा कामयाब न हो सके ।”
“क्या ऐसा सोचकर वह गलत कर रहा है ?”
इस सवाल का जवाब दूसरी तरफ से एकदम से नहीं दिया गया । इतनी देर तक खामोशी छाई रही जैसे कुछ सोचा जा रहा हो । उसके बाद कहा गया ---- “शायद नहीं, अगर उसकी जगह मैं होता तो शायद यही करता । कौन जान देनी चाहता है अपनी? कौन अपनी सुरक्षा नहीं चाहता ? इसमें बस गलत यह कर रहा है कि वह हमें बेवकूफ बनाकर सुरक्षा व्यवस्था हासिल करनी चाहता है। अगर वह सीधे सीधे भी मदद मांगता तो हम जरूर देते । पुलिस तो है ही इसलिए।"
“ यानी तुम्हारे हिसाब से वाकई उसकी जान खतरे में है ?”
“अकेले उसी की नहीं, मेरी जानकारी में इस वक्त कम से कम तीन ऐसे व्यक्ति हैं जो इस हत्यारे के अगले शिकार हो सकते हैं।"
“कौन-कौन ?”
“वह, मंजू और अशोक ।”
“गुड | तुम ठीक उसी लाइन पर सोच रहे हो जिस पर मेरा दिमाग दौड़ रहा है। इन तीन में से एक तो इस वक्त हमारी नजरों से पूरी तरह ओझल ही है। बाकी बचे मंजू और धीरज । मेरे ख्याल से इन दोनों ही की सुरक्षा का इंतजाम होना चाहिए । इंतजाम भी ऐसा कि इन्हें खुद पता न लग पाए कि इनके चारों तरफ कड़ा पहरा है ।"
“जी।”
विभा ने संबंध-विच्छेद कर दिया। मैं भी कुछ नहीं बोला क्योंकि मुझे अपने सारे सवालों के जवाब मिल चुके थे।
मंजू के बारे में तो खैर नहीं पता कि उसकी सुरक्षा का क्या प्रबंध किया गया लेकिन धीरज सिंहानिया की सुरक्षा का जो इतंजाम किया गया था उसे देख सुनकर मुझे मानना पड़ा कि - कदम-कदम पर विभा गोपाल मराठा की तारीफ यूं ही नहीं कर रही थी ।
बड़ा ही शानदार इंतजाम किया था उसने ।
पहली बात ---- 'सिंहानियाज' नामक उस बंगले के चारों तरफ कम से कम एक दर्जन पुलिसवाले तैनात थे और ऐसे ढंग से तैनात थे कि कोई किसी हालत में नहीं ताड़ सकता था कि वे पुलिसवाले हैं।
दूसरी बात----धीरज सिंहानिया के साथ-साथ उसके पिता अर्थात् गूजरमल सिंहानिया को भी विश्वास में लेकर सभी नौकरों को बंगले से बाहर कर दिया गया था। उनके स्थान पर चार सशस्त्र पुलिसवाले तैनात थे जो हुलिये से नौकर ही नजर आते थे ।
तीसरी और सबसे अहम् बात --- धीरज सिंहानिया के कमरे में एक ऐसा कैमरा छुपाया गया था जिसकी जानकारी खुद धीरज और गूजरमल सिंहानिया को भी नहीं थी । यह काम बंगले में नौकर बनकर गए पुलिसिए ने बहुत ही चालाकी से किया था।
धीरज और गूजरमल से कह दिया गया था कि वे किसी भी तरह से फिक्रमंद न हों। अपने-अपने कमरे में जाकर आराम से सो जाएं।
उनकी सुरक्षा के लिए पुलिस है।
और हम यानी मैं, शगुन, विभा और मराठा बंगले के किचन लॉन में थे। रात के इस वक्त की तो बात ही जिस वक्त कि हमारे चारों तरफ घनघोर अंधेरा था, दिन की रोशनी में भी हमें कोई नहीं देख सकता था । कारण थीं हमारे चारों तरफ फैली वे घनी झाड़ियां जहां के बीच के दृश्य को वहीं आए बगैर नहीं देखा जा सकता था। >
हमारे ठीक सामने धीरज सिंहानिया के बैडरूम का वह हिस्सा था जिसे कांच की दीवार कहा जा सकता है। सचमुच किचन-लॉन की तरफ वाली बैडरूम की दीवार कांच की ही थी । उसे शायद बनाया ही बैडरूम से किचन-लॉन का दृश्य देखने के लिए गया था ।
इस वक्त उस पर मोटे कपड़े के पर्दे खिंचे हुए थे ।
वहां हम इसलिए थे ताकि अगर इतने पहरे के बाद भी कोई किसी करिश्मे से धीरज सिंहानिया के कमरे में पहुंच जाए तो मराठा और शुगन एक ही एक जम्प में कांच की उस दीवार को तोड़ते हुए थीरज को बचाने हेतु जिन्न की मानिंद कमरे में जा पहुंचें।
हमारे इस करिश्मे से हत्यारा भौंचक्का रह जाने वाला था।
हमारी वहां मौजूदगी की जानकारी भी धीरज या गूजरमल में से किसी को नहीं थी और... धीरज के कमरे में लगे कैमरे का फायदा यह था कि इस वक्त हम अपनी आंखों के सामने जगमगा रहे छोटे से टी.वी. पर उसके कमरे का दृश्य देख सकते थे ।
देख ही नहीं सकते थे, उसकी सांसों तक की आवाज को सुन सकते थे। कैमरे के साथ लगा माइक था ही इतना सेंसेटिव ।
रात के बारह बज चुके थे।
बावजूद इसके, धीरज अपने बैड पर लेटने के लिए तैयार नहीं था। टी.वी. पर कमरे में चहलकदमी करता नजर आ रहा था वह | सिगरेट पर सिगरेट फूंक रहा था । चेहरे पर आतंक और फिक्र। “विभा।” मैंने लगभग फुसफुसाते हुए कहा था-- "उसकी हालत से तो लग रहा है कि अपने मोबाइल पर खुद एस. एम. एस. नहीं दिया था उसने सचमुच धमकी मिली है। अगर नाटक किया होता तो हमें यहां तैनात करके खुद बेफिक्र होकर खराँटे मार रहा होता। साफ जाहिर है कि हजार आश्वासनों के बावजूद वह अपने सिर पर मौत का संकट
मंडराता महसूस कर रहा है । "
“ और संकट उसके सिर पर पहुंच भी चुका है।” विभा ने कहा ।
मैंने चौंककर उसकी तरफ देखा ---- “क... क्या मतलब ?”
“मेरी तरफ नहीं, उधर देखो ।” विभा ने टी.वी. की तरफ इशारा किया ---- “संकट साफ नजर आ जाएगा।”
“अरे! ये यहां कहां से पहुंच गया ?" मराठा के मुंह से निकला । शगुन की आवाज ---- “अभी धीरज ने उसे नहीं देखा है।" मैंने देखा ---- कमरे की बाईं तरफ की खिड़की पर पड़े दो पर्दो के बीच से एक चेहरा झांककर धीरज की तरफ देख रहा था । बल्कि चेहरा शब्द शायद मैं गलत लिख गया हूं। केवल आंखें ही चमक रही थीं उसकी । बाकी सिर सहित संपूर्ण चेहरे पर काले रंग का नकाब चढ़ा हुआ था ।
“अरे !” मैं रोमांचित हो उठा ---- “वो तो कमरे में ही पहुंच गया!”
“एक्शन ।” मराठा कमांडो की मानिंद उछलकर खड़ा हो गया । उसके साथ ही शगुन भी खड़ा हो गया था ।
वे एक्शन में आने ही वाले थे कि विभा ने कहा ---- “ठहरो ।” दोनों जहां के तहां ठिठक गए। मैंने और उन्होंने चौंककर विभा की तरफ देखा और विभा आंखों में असंख्य दिलचस्पियां समेटे देख रही थी - - - - टी. वी. पर मौजूद दृश्य को । हम तीनों अपने दिमाग और जिस्मों में उत्तेजना महसूस कर रहे थे जबकि आश्चर्यजनकरूप से विभा बिल्कुल शांत नजर आ रही थी।
“क्या बेवकूफी कर रही हो विभा?” मेरी आवाज में खुद-ब-खुद उतावलापन आ गया था ---- “वह कमरे में पहुंच चुका है ।” “धीरज को उसके बारे में मालूम तक नहीं है।" शगुन बोला ।
“देख रही हूं ।” टी.वी. पर नजर रखे विभा का शांत लहजा ।
“फिल्म नहीं चल रही है टी.वी. पर ।" मैं झल्लाया मराठा की उत्तेजक आवाज----“वो उसे गोली मार सकता है।"
“नहीं मारेगा ।"
“अरे ? आप इतने विश्वास से..
“गोली मारकर उसने पिछला कोई मर्डर नहीं किया है । "
“अरे मगर आंटी, ऐसे मौके के लिए तो एक्शन पहले से ही तय था । खतरा उसके सिर पर पहुंच चुका है। हमें उसके कमरे में..
“मेरे हुक्म के बगैर कोई एक कदम भी नहीं हिलेगा।” विभा की आवाज किसी सेना के केप्टिन के लहजे में बदल गई ।
हमें लगा ----वह पागल हो गई है।
उधर, दो पर्दो के बीच से झांकती आंखें निरंतर नजर आ रही थीं । धीरज पर ही जमीं थीं वे जबकि उसे उनके बारे में बाल बराबर भी आभास नहीं था और फिर, चहलकदमी करते धीरज की पीठ पर्दे की तरफ हुई । सिगरेट पीता अब वह विपरीत दिशा में जा रहा था ।
नकाबपोश को तो जैसे इंतजार ही इस बात का था !
धीरज उस वक्त विपरीत दिशा में दो या तीन कदम ही चल पाया था कि जिन्न की तरह नकाबपोश न केवल पर्दे की ओट से बाहर आया बल्कि एक ही जम्प में धीरज को जा दबोचा उसने ।
उसका एक हाथ धीरज के मुंह पर जा चिपका था ।
दूसरे हाथ में दबे रिवाल्वर की नाल उसकी कनपटी पर ।
उसकी गिरफ्त से निकलने के लिए फड़फड़ाने से ज्यादा कुछ भी तो नहीं कर पाया था धीरज सिंहानिया या ज्यादा से ज्यादा मुंह से आवाज निकालने की कोशिश में 'गूं - गूं' कर पाया था।
सिगरेट उंगलियों से फिसलकर कालीन पर जा गिरी थी ।
नकाबपोश की आवाज हमने साफ सुनी। दांत भींचकर उसने गुर्राते हुए लहजे में कहा था- -“आवाज निकाली तो गोली मार दूंगा।"
उस दृश्य को देखकर हम तीनों के जिस्म का रोंया - रोंया खड़ा हो गया था और... विभा की प्रतिक्रिया देखकर तो उन रोंयों में ऐसी सर्द लहर दौड़ी कि क्या बर्फ के पानी से नहाते वक्त दौड़ती होगी!
कमबख्त के होठों पर मुस्कान थी ।
वह सचमुच ऐसी नजरों से टी.वी. पर नजर आने वाले दृश्यों को देख रही थी जैसे कोई टीन एजर अमिताभ का एक्शन देख रहा हो।
“विभा!” मेरे मुंह से चीख-सी निकल गई- -“हो क्या गया है तुम्हें ? वह उसे मार डालेगा।”
वह हाथ उठाकर चुप रहने का इशारा करती गुर्राई ---- “मेरे हुक्म के बगैर आवाज तक नहीं निकालनी है। जब कुछ करना होगा तो कह दूंगी। फिलहाल उस सबको फिल्म समझकर देखो ।”
“ पर आंटी कहोगी क्या तब, जब कुछ करने का मौका ही..
“ इसे चुप करो वेद ।”
टी. वी. से उस शख्स की गुर्राहट निकल रही थी जिसके चेहरे पर ही नहीं मुकम्मल जिस्म पर काला लबादा था --~-“मैं जानता हूं कुत्ते कि तू सरदार बनकर उस औरत के पास गया था जिसका नाम विभा जिंदल है और उसने गोपाल मराठा से कहकर बंगले के चारों तरफ पुलिस लगवाई है। चाहे जितने पहरे लगवा ले हरामजादे, आज तुझे मेरे हाथों से कोई नहीं बचा सकता ।”
धीरज उसकी गिरफ्त से निकलने की कोशिश करना बंद कर चुका था। ऐसा उसे अपनी कनपटी पर रखे रिवाल्वर के कारण करना पड़ा था। लबादाधारी का बायां हाथ अभी भी उसके मुंह पर था। धीरज फटी-फटी आंखों से कैमरे की तरफ देखता नजर आ रहा था । लबादाधारी एक बार फिर गुर्राया ---- “मुझे मालूम है कि बंगले के चारों तरफ पुलिस है। ये भी जानता हूं कि इस वक्त बंगले में मौजूद तीनों नौकर साले पुलिसवाले हैं लेकिन देख ले, मैं उस सबके बावजूद यहां घुस आया। तेरे सिर पर सवार हूं | यकीन कर सकता है तो कर ---- वे मेरा बाल तक बांका नहीं कर सकेंगे।”
धीरज सिंहानिया को काटो तो खून नहीं ।
चेहरा पीला जर्द नजर आ रहा था ।
“अब मैं तेरे मुंह से हाथ हटा रहा हूं लेकिन याद रख ---- चूं-चां की भी आवाज निकाली तो भेजे में गोली उतार दूंगा। किसी को कानों कान खबर नहीं होगी। साइलेंसर लगा है मेरे रिवाल्वर पर।"
धीरज की हालत ऐसी हो गई जैसे पत्थर का बुत ।
उसके मुंह से हाथ हटाने के साथ लबादाधारी घूमकर उसके सामने आ गया। अब उसके हाथ में दबे रिवाल्वर का साइलेंसर धीरज के सीने के बीचों बीच रखा था।
बोलना तो दूर, होंठ तक नहीं कांप रहे थे उसके ।
यह बात अलग है कि जिस्म पूरा कांप रहा था ।
लबादाधारी ने बायां हाथ लबादे की जेब में डाला ।
उससे एक सीरींज निकाली ।
सीरींज में कुछ भरा हुआ था ।
उसे धीरज की तरफ बढ़ाता बोला ---- “ले, इसे अपने हाथ से अपने बाजू में लगा।"
“मैंने कहा था न!” विभा बड़बड़ाईकरता । बेकार घबरा रहे थे तुम । ” -“वह गोली से हत्या नहीं
“अब तो कुछ करें ?” शगुन मानो पागल हुआ जा रहा था।
विभा ने कहा ---- “सिर्फ देखो।”
उधर, अपने चेहरे पर हवाईयां लिए धीरज मिट्टी के माधो की तरह उसकी तरफ बस देखे जा रहा था ।
“पकड़ इसे । ” लबादाधारी गर्जा ।
और धीरज ने घबराकर सीरींज उसके हाथ से ले ली ।
लबादाधारी का अगला आदेश ---- “अपने बाजू में लगा इसे ।”
“म... मगर क्यों?” धीरज बड़ी मुश्किल से मिमिया सका।
“ रतन को सुंईं से मारना पड़ा था, अवंतिका ने खुद लगा लिया था। चांदनी तो मेरे एक ही हुक्म पर यमुना में कूद गई । किरन भी साली अड़ गई थी, मुझे ही लगाना पड़ा और संजय और सुधा ने तो इस रिवाल्वर की नोंक पर एक-दूसरे को लगा दिया। तू नहीं लगाएगा तो मुझे लगाना पड़ेगा। इंजेक्शन नहीं लगवाएगा तो गोली खाएगा। वैसे ये बेवकूफी अभी तक तेरे किसी साथी ने की नहीं है। उनकी समझ में ये बात जो आ गई थी कि गोली से मरने में बड़ा कष्ट होता है जबकि इंजेक्शन सकून की मौत देता है।"
धीरज सिंहानियां के चेहरे पर आतंक और आंखों में मौत का तांडव चल रह था | कुछ कहने के लिए उसके होंठ फड़फड़ा रहे थे।
“घबरा मत ।” लबादाधारी पुचकारता - सा बोला ---- " इंसुलिन से मरेगा तो लोगों को वहां, अपने बैड पर आराम से पड़ा मिलेगा । जैसे सो रहा हो। जैसे अवंतिका मिली थी । संजय और सुधा मिले थे। गोली से मरेगा तो लोगों को यहां... अपने इस कीमती कालीन पर लहू लुहान हुआ पड़ा मिलेगा। मक्खियां भिनभिनाने लगेंगी तेरे ऊपर।”
“म.. I... मगर क्यों ? ” धीरज यूं बोला जैसे चूहा बोला हो ---- “तुम हम सबको मार क्यों रहे हो ?”
“हां ।” उसने कहा- -“ ये है वो सवाल जो तुझे करना चाहिए । तुझसे पहले वालों ने भी किया था और मैंने जवाब भी दिया था। जवाब तो मिलना ही चाहिए तुम्हें पता तो लगना चाहिए कि तुम्हें किस गुनाह की सजा मिल रही है।” इतना कहने के बाद वह रुका, एकाएक ही आंखों में प्रतिशोध की चिंगारियां - सी नाचने लगी थीं । मुंह से मानों लफ्ज नहीं, अंगारे बरसने लगे---- “सात अगस्त याद है तुझे?”
“स... सात अगस्त ?” धीरज मिमियाया।
उसने एक- एक शब्द चबाया ---- “सन् दो हजार छः ।”
“क... क्या हुआ था उस दिन ?"
“याद नहीं है हरामजादे... याद नहीं है तुझे ?” लबादाधारी के खून में उबाल आ गया ---- “केवल एक को याद था । चांदनी को । तभी तो उसे उसकी इच्छा वाली मौत दी! बाकी सबको याद दिलाना पड़ा।”
धीरज चुप ।
जैसे लकवा मार गया हो ।
“सफारी गाड़ी से मसूरी गए थे तुम सब । वहां केंपटीफॉल के नजदीक एक कॉटेज में रुके थे। रात के वक्त | शराब पर शराब पिए चले जा रहे थे तुम सब | तुम भी और तुम्हारी औरतें भी । पंद्रह साल की एक लड़की बेचारी तुम्हारी खिदमत कर रही थी । जो मांग रहे थे वो बना - बनाकर दे रही थी। फिर तुम्हारी गंदी नजर उस पर पड़ी। उससे कहा हजार रुपए दोगे । अपने सारे कपड़े उतारकर दिखाए । वो बेचारी घबरा गई । मना करने लगी |
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