सुबह के चार बजे थे ।


रुटीन के मुताबिक देवांश सोने के लिए अपने कमरे में जा चुका था ।


दिव्या राजदान के कमरे के भिड़े हुए दरवाजे पर ठिठकी ।


यह भी उसका रुटीन ही था ।


सोने से पूर्व एक बार राजदान के कमरे में जाना ! चैक करना वह ठीक-ठाक सोया हुआ है या नहीं?


हालांकि वह अच्छी तरह जानती थी --- नींद की गोली का असर सात बजे तक रहता है फिर भी, चैक जरूर कर लिया करती थी । 'अनकांशियस माइंड' में शायद यह जानने की जिज्ञासा रहती थी कि वह सो रहा था या मर चुका है?


उसने बेधड़क दरवाजा खोलकर कमरे में कदम रखा।


चौंकी ।


दिल धक्क से रह गया |


दृश्य उसकी उम्मीदों से उलटा था ।


राजदान बैड पर नहीं था । जबकि उसे वहीं होना चाहिए था।


नींद की गोली का असर इतनी जल्दी खत्म नहीं हो सकता था।


फिर उसकी नजर सीधी राइटिंग टेबल पर पड़ी।


कारण टेबल लैम्प का ऑन होना था ।


दिल के धड़कने की गति स्वतः असामान्य होती चली गई । सहमी और डरी सी आंखें सारे कमरे में राजदान को तलाश करने लगीं ।


और फिर !


घुटी - घुटी सी चीख निकल गई उसके होठों से ।


उछल पड़ी वह ।


जहां तक पहुंच चुकी थी वहीं से पलटकर वापस भागी ।


कुछ देर बाद बदहवास हालत में बार-बार देवांश को पुकारती उसके कमरे में दाखिल हुई । कपड़े उतारने के बाद देवांश बिस्तर में घुसने की तैयारी कर रहा था।


दिव्या की आवाज सुनकर चौका ।


अभी ठीक से कुछ समझ भी नहीं पाया था कि वह आयी तूफान की तरह दौड़ती हुई आकर उससे लिपट गई। थर-थर कांप रही थी वह । देवांश ने लगभग चीखकर पूछा--- “क्या हुआ ?”


बदहवासी की ज्यादती के कारण दिव्या जवाब न दे सकी।


बुरी तरह अधीर हुए देवांश ने उसे खुद से अलग किया, दोनों कंधे पकड़कर झंझोड़ता हुआ चीखा---“बोलती क्यों नहीं दिव्या? हुआ क्या है ?”


“व-वो !” दिव्या बुरी तरह हकला रही थी --- “वो कमरे में नहीं है...।”


“कौन वो ?”


“र - राजदान !”


“कहां गया?”


“पता नहीं! टेबल लैम्प ऑन है! टी.वी. टूटा पड़ा है। हं भगवान ! क्या है इस सबका मतलब ?"


आगे कुछ नहीं पूछा देवांश ने । कमरे से बाहर की तरफ जम्प लगाई। दिव्या भी रुक नहीं सकी वहां । उसके पीछे लपकी । देवांश के करीब तीस सेकण्ड बाद राजदान के कमरे में पहुंची । देवांश उस वक्त दरवाजे के नजदीक खड़ा टूटे टी.वी., बिखरी स्क्रीन और 'ऑन' टेबल लैम्प को घूर रहा था ।


दिव्या उसके पीछे पहुंच जरूर गई मगर मुंह से आवाज न निकाल सकी ।


उन्होंने कांच के स्लाइडिंग डोर के पार, बॉल्कनी में भी देखने की कोशिश की, मगर राजदान का कहीं नामोनिशान नहीं था । दोनों इस तरह दबे पांव राइटिंग टेबल की तरफ बढ़े । जैसे बिल्ली कबूतरों के झुण्ड की तरफ बढ़ती है।


आंखें सुसाइड नोट पर चिपक गई !


दोनों में से किसी ने हाथ नहीं लगाया कागज को ।


मेज पर झुके और उसे पढ़ने लगे | लिखा था-


“छोटे --- मेरे लिए तेरी उतनी ही अहमियत है जितनी आंखों के लिए 'तारे' की होती है। आंख में अगर 'तारा' न हो तो आंख नहीं रह जाती क्योंकि उससे देखा नहीं जा सकता । और दिव्या --- तुम मेरी अर्धांगिनी हो ! कितनी गहराई लिए हुए है हिंदी का ये अक्षर ! पत्नी पति का आधा अंग होती है यानी पत्नी के बगैर पति विकलांग है।... और जिसके बगैर 'कोई' विकलांग हो, भला उससे श्रेष्ठ स्थान किसी शख्स की जिन्दगी में और किसका हो सकता है? मैं जानता हूं यह पत्र पढ़कर तुम्हें दुख होगा । तुमने मुझसे वायदा लिया था और मैंने आत्महत्या न करने का वायदा किया भी था । परन्तु ... कभी-कभी आदमी चाहकर भी वायदे नहीं निभा पाता ! मुझ ही को लो - - - दवाएं खानी समय से मरने की खातिर बंद की थीं मगर लगता है ---यह इच्छा भी पूरी नहीं होगी।


मैंने पांच करोड़ का बीमा करा रखा है । वह तीस अगस्त तक वैलिड है। अर्थात् यदि तीस अगस्त से पहले मरता हूं तो तुम्हें पांच करोड़ मिलेंगे, बाद में मरा तो कुछ भी नहीं ! मैं जानता हूं तुम किस कदर कर्ज में बिंधे पड़े हो । अब केवल मेरी पॉलिसी से मिलने वाली पांच करोड़ की रकम ही तुम्हें चक्रव्यूह से निकाल सकती है। मरना मुझे है ही! तीस के बाद मरा तो किसी काम नहीं आ सकूंगा। तुम्हें कर्ज के भंवर - जाल में फंसा छोड़कर गया तो मेरी आत्मा कभी सुकून नहीं पा सकेगी। इस सब पर गौर करके आत्महत्या कर लेना ही उचित समझा। जिसकी नियति ही मरना बन चुकी है, वह एकाध दिन के हेरफेर से तुम्हें भंवर में छोड़ जाये, यह बात किसी भी तरीके से मुझे तर्कसंगत नहीं लग रही । पांच करोड़ की रकम न केवल तुम्हें कर्ज के मकड़जाल से निकाल देगी, बल्कि यदि बाकी पैसे को नई कॉलोनी के निर्माण में लगाया

गया तो बिजनेस पुनः पुरानी चाल से दौड़ने लगेगा ।


छोटे, मुझे पूरा विश्वास है तू ऐसा कर सकेगा ।


और दिव्या, ख्याल रखना मेरे ‘बच्चे' का । तुम तो जानती हो - - - इसके सिर पर सेहरा देखने के कितने अरमान थे मेरे दिल में! यह जिम्मेदारी अब मैं तुम्हें सौंपकर जा रहा हूं! ख्याल रखना अपने बेटे का । कोई गुड़िया जैसी परी ढूंढकर बड़ी धूमधाम से शादी करना इसकी । वादा रहा, और इस वादे को मैं तोडूंगा नहीं - -- आकाश की गहराइयों में से झांककर अपने बेटे की शादी का नजारा जरूर देखूंगा मैं ।


और छोटे, एक जिम्मेदारी तुझे भी सौंपकर जा रहा हूं । तू जानता है दिव्या का मेरे जीवन में क्या स्थान है और वह भी मुझे कितना प्यार करती है। मेरी मौत इसे तोड़ कर रख देगी | तेरा सबसे पहला काम है इसे संभालना । 'सदमे' से उबारना और फिर धीरे-धीरे पुनः शादी के लिए तैयार करना | मेरी यह बात तुझे अजीब लग सकती है और दिव्या बेचारी को तो शायद अपने ऊपर मेरा अत्याचार ही लगे क्योंकि मेरे स्थान पर किसी और के होने की तो वह कल्पना तक नहीं कर सकती मगर... जीवन की कठोर सच्चाइयों से मुंह मोड़कर आदमी मर तो सकता है, जी नहीं सकता। अभी उम्र ही क्या है मेरी दिव्या की? क्या हक है हमें एक जीते-जागते जिस्म को कफन उढ़ाने का ? एक बेटा मां की शादी करेगा! कितना शानदार नजारा होगा वह ? आकाश से झांककर मैं उस नजारे को भी जरूर देखना चाहूंगा।


दिव्या, छोटे के साथ तुम भी पढ़ रही हो न मेरे इन शब्दों को? सहयोग देना इसे उस मिशन में कामयाबी हेतु जो मैं सौंप कर जा रहा हूं। हालांकि मेरी यह इच्छा तुम्हें खुद पर 'जुल्म' लग सकती है, परन्तु यह सोचकर छोटे की बात मान लेना कि तुम्हारे इस अभागे पति की अंतिम इच्छा यही है ।


अंत में, मेरा आशीर्वाद सदा सदा तुम्हारे साथ रहेगा । सुख-समृद्धि हमेशा तुम्हारी दासी बनकर रहें । सुकून तुम्हारा भाग्य बन जाये। सम्मान और शौहरत तुम्हारे कदम चूमें। 1


तुम्हारा - - - आर. के. राजदान


दोनों ने लगभग एक साथ पत्र पूरा पढ़ा ।


- नजरें कागज से हटकर एक-दूसरे की तरफ उठीं। एक-दूसरे की आंखों में झांक रहीं दोनों की आंखों में कहीं कुछ 'गिल्टी' जैसा भाव था | क्या क्या कल्पनाएं की थीं राजदान ने और वे क्या थे ! शायद ये विचार दोनों के दिलो-दिमाग में शोर मचा रहे थे । कदाचित इसीलिए बहुत देर तक वे एक-दूसरे से कुछ कह न सके ।


'अपराध-बोध' ताला बनकर उनके होठों पर लटक गया था।


मगर, जो अपराध और यौन सम्बन्धों की सड़ांध भरी दलदल में गिर चुके हों उन्हें कोई भी 'बोध' बहुत ज्यादा देर तक अपने प्रभाव में नहीं रख पाता । खामोशी भले ही लम्बी हो गयी हो लेकिन जब देवांश बोला तो यूं बोला--- "किस्सा खत्म | "


“लगता तो यही है ।” दिव्या को अपनी आवाज कहीं दूर आती प्रतीत हुई - - - “मगर लाश कहां है ?” -


“यहीं कहीं होगी।” कहने के बाद वह तेज कदमों से स्लाइडिंग डोर की तरफ बढ़ता बोला --- “कागज को हाथ मत लगाना ।”


दिव्या भी उसके पीछे लपकी ।


स्लाइडिंग डोर खोलकर वे बॉल्कनी में पहुंचे।


फंदे पर नजर पड़ते ही, जहां के तहां ठिठके खड़े रह गये।


केवल फंदा था, लाश नहीं थी उसमें |


आरामकुर्सी के चन्द्राकार पायों में 'आड़' ज्यों की त्यों लगी हुई थी ।


उस दृश्य को देखकर दिव्या और देवांश के दिमागों में अनेक सवाल चकराने लगे। दिल जोर-जोर से धड़क रहे थे । दिव्या के मुंह से कांपती आवाज निकली --- “ये... ये सब क्या है देव?”


“बात कुछ समझ में नहीं आ रही ।” फंदे पर नजरें टिकाये देवांश कह उठा --- “जाहिर है, वह यहां फांसी लगाकर मरने वाला था। फंदा खाली है, फिर है कहां उसकी लाश ?”


“उसने हमें देख तो नहीं लिया था ?”


“बेवकूफों जैसी बातें मत करो ।” देवांश झुंझला उठा---“हम उस विशाल पत्थर के पीछे थे। इस बात का पहले ही ख्याल था हमें कि यहां से देखे न जा सकें मगर...


“मगर ?”


“यदि वह आत्महत्या करनी चाहता था तो टी.वी. क्यों टूटा पड़ा है?”


दिव्या पर कोई जवाब होता तो देती भी ।


जाने क्या सोचकर देवांश पलटा । लगभग भागता सा वापस बैडरूम में पहुंचा। दिव्या खुद को अकेली रखने का साहस नहीं जुटा पा रही थी । इसलिए फौरन उसके पीछे लपकी । लगभग दौड़ते हुए ही उन्होंने कमरा पार किया । बाथरूम के


दरवाजे के नजदीक पहुंचे।


वह कमरे की तरफ से खुला हुआ था ।


देवांश ने एक झटके से पूरा खोल दिया ।


बाथरूम से शॉवर चलने की आवाज आ रही थी और साथ ही आ रही थी राजदान के गुनगुनाने की आवाज । दोनों ही इस तरह खड़े रह गये जैसे यकायक पत्थर की मूर्तियों में तब्दील हो गये हों ।


***


कम से कम दो मिनट तक मुँह से आवाज़ निकालने की तो बात ही दूर, एक दूसरे की तरफ देखने तक का होश नहीं आया उन्हें। दोनों पथराई सी आंखों से उस पराछाई का देखते रहे जो ड्रेसिंग और बाथरूम के बीच वाले कांच के दरवाजे पर पड़ रही थी।


शॉवर के नीचे नहा रहे राजदान की परछाई थी वो।


उसकी, जिसकी वे लाश ढूंढते फिर रहे थे ।


वह गुनगुना रहा था।


जैसे बिल्कुल बीमार नहीं हो।


टूटी हुई ड्रेसिंग टेबल और फर्श पर बिखरे कांच पर भी उनकी नजर पड़ चुकी थी।


बात कुछ समझ में नहीं आ रही थी।


सुसाइड नोट कह रहा था --- वह आत्महत्या करने का फैसला कर चुका है। फंदे का बयान था --- पूरी तैयारी कर चुका है फिर टी.वी. और ड्रेसिंग टेबल क्यों टूटे पड़े हैं? इतना निश्चिन्त होकर क्यों और कैसे नहा रहा है आत्महत्या का इच्छुक ?


बहुत ही आहिस्ता से फुसफुसाकर कहा देवांश ने --- “मेरे ख्याल से उसने नहाने के बाद सुसाइड करने का फैसला किया है।”


दिव्या मूर्तिवत् खड़ी रही।


“आओ! चलें यहां से !” कहने के साथ देवांश ने दिव्या की कलाई पकड़ी---“हमें उसे पूरा मौका देना चाहिए।”


दरवाजे से हटने ही वाले थे कि एक झटके से कांच का दरवाजा खुला ।


हड्डियों का पंजर उनके सामने था । केवल एक तौलिया था उसके जिस्म पर ।


कांपकर रह गये दोनों! देवांश के हाथ ने दिव्या की कलाई स्वतः छोड़ दी। न वहां से हटते बना, न मुंह से आवाज निकल सकी ।


".. राजदान के डरावने चेहरे पर ऐसे भाव थे जैसे उन्हें देखकर हैरान रह गया हो ।


“त-तुम ?” खूबसूरत एक्टिंग की उसने --- “तुम यहां?”


“अ-आप नहा रहे थे, भैया?... इस वक्त ?” इसके अलावा देवांश कहता भी क्या ?


“मैं तो खैर नहा रहा था, मगर तुम इतनी सुबह-सुबह यहां क्या कर रहे हो? और... तू तो केवल अण्डरवियर में है छोटे ! जैसे उसी हालत में भागा चला आया हो जैसे सो रहा था।"


“अ - और क्या करता मैं?” बात को संभालने के लिए वह कहता चला गया --- “भाभी मेरे कमरे में पहुंचीं ही इस कदर हड़बड़ाई हुई थीं, जिस हाल में था उसी में दौड़ा चला आया।”


“क्यों दिव्या ?” राजदान की गोल आंखें दिव्या पर जम गईं---“क्या आफत आ गई थी ऐसी ? क्यों तुमने छोटे की नींद में खलल डाला?”


“और क्या करती मैं?” खुद को जस्टिफाइड करने के लिए दिव्या कहती चली गई --- “कमरे में कदम रखा तो बैड से नदारद पाया आपको। टी. वी. टूटा पड़ा था | मेरे तो होश ही उड़ गये । दिल अनिष्ट की आशंका से कांप उठा ! कुछ समझ में नहीं आया क्या हुआ, आप कहां गये? घबराकर चीखती-चिल्लाती देवांश के कमरे में पहुंची। ”


“ओह... !” राजदान के होंठ सुकड़ गये --- “मगर इतनी

सुबह-सुबह मेरे कमरे में आई क्यों थीं तुम ?”


“अलग कमरे में सोती हूं तो क्या आप यह समझते हैं मैं आपका ख्याल नहीं रखती? सारी रात नींद ही कहां आती है मुझे? बीच-बीच में अनेक बार यह देखने आती रहती हूं आप ठीक-ठाक सो रहे हैं या नहीं ?”


“हां! ये तो है! मैं समझ सकता हूं । तुम्हें नींद नहीं आती होगी।”


“मेरे तो होश ही उड़ गये भाभी की बात सुनकर !” देवांश ने कहा---“दौड़ा-दौड़ा कमरे में आया और...


“और?”


“आइए मेरे साथ!” उत्तेजित अवस्था में कहते हुए देवांश ने लपककर राजदान का हाथ पकड़ा और उसे जबरदस्ती बैडरूम में राइटिंग टेबल के नजदीक ले गया । उस पर रखे सुसाइड नोट की तरफ इशारा करता बोला --- “क्या है ये? ... ये क्या है भैया ? ”


“ओह ! .. तो तुम इसे पढ़ चुके हो ?”


“इसे भी पढ़ चुका हूं और बाल्कनी में लटका फंदा भी देख चुका हूं।" देवांश भाई से बेइंतिहा प्यार करने वाले व्यक्ति का जानदार अभिनय करता चला गया ---" आखिर क्या है ये सब ? कौन से गुनाहों की सजा दे रहे हैं आप हमें?”


राजदान ने उनकी तरफ पीठ की और अफसोसनाक स्वर में कहता चला गया---“अच्छा नहीं हुआ यह सब !... मेरी ही बेवकूफी रही । न ये सोचता मरने से पहले एक बार नहा लेना चाहिए । न ही वक्त से पहले यह बात तुम्हारी नॉलिज में आती।”


उधर राजदान बोलता चला जा रहा था, इधर देवांश ने जल्दी से सुसाइड नोट वाला कागज उठाकर दिव्या की तरफ बढ़ाया । दिव्या बुरी तरह हड़बड़ा गई । समझ नहीं सकी देवांश क्या चाहता है? देवांश ने उसे उस कागज को छुपा लेने का इशारा करते हुए मेज पर पड़े पैड से एक कोरा कागज अलग किया। उसे मोड़कर अपने हाथ में लिए राजदान के सामने पहुंचकर बोला --- “यह सब लिखते हुए आपको जरा भी शर्म नहीं आई?”


“क्या मतलब ?”


“आपने हमसे आत्महत्या न करने का वादा किया था । उसके बावजूद ये सब किया । इसका मतलब तो ये हुआ...


“वो तो मैं आ गई समय पर, वरना अब तक तो

आप. ।” कहने से पूर्व वह सुसाइड नोट को अपने वक्षस्थल में ठूंस चुकी थी । वाक्य खुद ही अधूरा छोड़कर राजदान के सामने पहुंची और फूट-फूटकर रो पड़ी । रोते वक्त उसने अपना चेहरा दोनों हाथों में छुपा लिया था। ....


“आपको हम दोनों की कसम है जो फिर कभी इस बारे में सोचा।” कहने के साथ देवांश ने अपने हाथ में मौजूद कागज के टुकड़े-टुकड़े करने शुरू कर दिए । वे छोटे-छोटे टुकड़े दिव्या की तरफ बढ़ाता बोला- - - “लो भाभी! बाथरूम में जाकर फ्लश में बहा आओ इन्हें ।”


— रोती हुई दिव्या ने तुरंत उसके हुक्म का पालन किया । उसे बाथरूम की तरफ बढ़ती देखकर मुंह ही मुंह में दांत किटकिटा उठा राजदान ! जी चाहा --- आगे बढ़कर गर्दन दबोच ले उसकी । परन्तु मन की मन में रखे देवांश की तरफ पलटकर बोला --- “उस एक कागज को फाड़कर फ्लश में बहाने से क्या होगा छोटे? उसमें लिखा सबकुछ पढ़ तो लिया ही है तूने। मैं नहीं समझता, उसके बाद मेरे पास कुछ कहने के लिए बाकी है। तीस अगस्त से पहले मेरा मर जाना ही हम तीनों के हक में है। बस इतना ही कहूंगा ---अड़ंगे मत लगाओ, चैन से मरने दो मुझे ।”


अभिलाषा तो दिव्या और देवांश की भी यही थी । राजदान उनकी अभिलाषा को जान भी गया था। मगर जाहिर नहीं किया । प्रत्यक्ष में उन्हें भी यही नाटक करना पड़ा कि राजदान के इस कदम से उन्हें बहुत दुख हुआ है।


राजदान जानता था वे झूठ बोल रहे हैं, इसके बावजूद खुद को अंजान दर्शाता रहा । कन्विंस करने की कोशिश करता रहा, वे उसे तीस अगस्त से पहले मर जाने दें।


उन्होंने अपना नाटक जारी रखा। राजदान ने अपना ।


जब टी. वी. और ड्रेसिंग टेबल के बारे में पूछा गया तो कहा --- “टी.वी. पर एड्स के बारे में बताया जा रहा था, गुस्से में आकर मैंने स्क्रीन तोड़ दी । ड्रेसिंग टेबल का आइना इसलिए तोड़ा क्योंकि उसमें नजर आने वाला अपना डरावना चेहरा देखकर मैं बौखला गया था । "


नींद की गोली के बारे में उसने कहा--- मैंने खाई ही नहीं थी क्योंकि आज रात सुसाइड करने का इरादा बना चुका था। मतलब ये --- उसने उनके हर सवाल का संतुष्टिजनक जवाब दिया ताकि वे कल्पना तक न कर सकें उसने उन्हें किस हालत में देखा है ।