धाड़ ! धाड़ !! धाड़ !!!


अपने जिस्म के अंदर से आ रही इस आवाज को राजदान ठीक उसी तरह सुन सकता था जैसे कानों के नजदीक नगाड़े बज रहे हों। यह आवाज उसकी अपनी पसलियों से टकराते उसके अपने दिल की थी । दिमाग इस तरह सांय-सांय कर रहा था जैसे उसके रनवे पर सैकड़ों प्लेन एक साथ चीखते-चिल्लाते इधर से उधर दौड़ रहे हों।


किचन लॉन से गुजरते वक्त अजीब-सी लड़खड़ाहट थी उसकी कमजोर टांगों में ।


खुद को अंधेरे में रखे हुए था वह ।


आंखों के समक्ष अभी-भी दिव्या और देवांश के कमरों में पड़े खाली बैड चकरा रहे थे ।


बाकायदा उनके कमरों में टहलकर आया था वह । अंदर से बंद नहीं थे वे ।


क्या वैसा हो सकता है जैसा उसे लग रहा है?


नहीं! नहीं!


हरगिज-हरगिज नहीं हो सकता वैसा ।


क्या हो गया है उसे?


क्यों इतने घिनौने विचार दिमाग में आ रहे हैं?


ऐसा भी तो हो सकता है वे उस चट्टान के पीछे बैट उसी के विषय में वातें कर रहे हों। इस समस्या पर विचार कर रहे हों कि क्या किसी तरह 'उसे' बचाया जा सकता है?


और वह... कितनी गंदी वात सोच रहा है उनके बारे में?


देवांश ! मेरा छोटा ।


आंखों का तारा है वो मेरी |


और दिव्या ।


मेरी अर्धागिनी ।


छिः!


उनके वारे में तो ऐसा सोचकर भी पाप कर रहा हूं में।


जरूर वीमारी के कारण मेरा दिमाग हिल गया । अगर है उन्होंने मुझे यहां, अपनी टोह लेने की कोशिश करते देख

लिया तो थूकेंगे मुझ पर । कहेंगे --- मां-बेटे के सम्बन्ध पर शक करने वाला तू कितना घिनौना आदमी है?


इस सबके बावजूद वह दबे पांव उस चट्टान की तरफ बढ़ता रहा जिसके पीछे वे थे । काफ़ी दिन बाद इतना चला था वह । सांस फूलने लगी थी । टांगें कांप रही थीं। इसके बावजूद वह ऐसे स्थान पर पहुंच गया जहां से झांककर चट्टान के पीछे देख सकता था। उस वक्त वह उखड़ी सांसों को नियंत्रित करने का प्रयत्न कर रहा था जब कानों में देवांश की आवाज पड़ी--- “दिव्या, कितनी बार कहूं डार्लिंग। थोड़ी बहुत सेवा कर लिया करो उसकी।”


“किसकी ?”


“ पतिदेव की अपने । और किसके लिए कहूंगा ?"


"हुंह ! क्या मिलेगा उससे ?”


“वह साला बबलू आता है, टांगें दबाता है उसकी । सिर में तेल लगाता है । घंटों-घंटों बैठा रहता है । कहीं ऐसा न हो, उसकी खिदमत से खुश होकर कोई वसीयत ही कर डाले वह। ऐसी वसीयत जिसके मुताबिक सबकुछ उसी का हो जाये।”


“ ऐसा डर है तो तुम्हीं सेवा क्यों नहीं कर लेते ? आखिर भाई है तुम्हारा ।”


राजदान के कानों में देवांश के शब्द नहीं, पिघला हुआ शीशा उतरा- “मुझे तो बदबू आती है उसके नजदीक जाते। डर लगता है --- पता नहीं कब कौन-सी बीमारी लिपट जाये ।”


“बदबू ?... सिर्फ बदबू आती है तुम्हें ?” दिव्या के शब्द जहरीले तीर बनकर बरस रहे थे राजदान पर --- “मुझे तो घिन आती है उसके जिस्म से । ऐसी सड़ांध जैसे हफ्तों से कोई लाश सड़ रही हो। बड़ी मुश्किल से उबकाई रोके रखती हूं। छोटे-मोटे काम तो करने ही पड़ते हैं। कुछ मिले या न मिले, मगर वो सब मैं नहीं कर सकती जो वह कंगला करता है।"


“मेरे ख्याल से उसकी और उसके मां-बाप की नजर जायदाद के किसी हिस्से पर है । "


“हुआ करे । वसीयत के जरिए किसी को दे ही क्या सकता है वह? है ही क्या अब उसके पास ? सब कुछ तो गिरवी पड़ा है। बाल-बाल बिंधा है कर्जे से ।”


“पांच करोड़ की पॉलिसी को भूल रही हो तुम "


“नोमीनी में मेरा नाम है ।”


“वसीयत के जरिए पासा पलट भी सकता है।”


“मतलब?”


“अगर वह वसीयत में लिख गया ---- पांच करोड़ 'कंगले' को मिलने चाहिए तो पॉलिसी में तुम्हारा नाम होने की कोई । अहमियत नहीं रह जायेगी । कानून मृतक की उसी इच्छा को अंतिम इच्छा मानता है जो मरने से जस्ट पहले व्यक्त की हो ।”


"वह ऐसा नहीं कर सकता।"


“क्यों नहीं कर सकता?”


“ देखा नहीं, कितना बेचैन है हमें किसी आर्थिक जंजाल से बचाने के लिए? बेचारे ने खुद ही दवा खाने से इंकार कर दिया। मेरा दावा है ---उसे पूरा इल्म होगा हम कितने कर्जे में डूबे हुए हैं। सब समझ में आ रहा होगा उसके। यह भी कि - - - इस जंजाल से हमें केवल पॉलिसी के पांच करोड़ निकाल सकते हैं। इसलिए ---उसे किसी और के नाम नहीं कर सकता वह।" •


“अगर वह तीस अगस्त तक मरा ही नहीं तो ?”


“हां! ये है फिक्र की बात ।”


“उस अवस्था में हम क्या करेंगे?"


जवाब में खामोशी छा गई ।


ऐसी खामोशी जो राजदान के कानों में ऐसा शोर मचा रही थी जैसे हजारों चुड़ैलें मिलकर एक साथ शोर मचा रही हों।


दांत भिंच गये उसके ।


मुट्ठियां कस गईं ।


सारा शरीर 'सुन्न' पड़ चुका था ।


जी चाहा--- अभी, इसी पल उनके सामने जाकर खड़ा हो जाये।


इस कल्पना ने उसे रोमांचित कर दिया कि उसे देखकर उनकी क्या हालत होगी?


हक्के-बक्के रह जायेंगे वे ।


वह झपटकर उनकी गर्दन दबोच लेगा और तब तक दबोचे रखेगा जब तक दोनों के प्राण न निकल जायें। परन्तु - ।


नहीं!


हो नहीं सकेगा ऐसा!


उसने कोशिश भी की तो कामयाब नहीं होगा।


बल्कि इसका बिल्कुल उल्टा हो जायेगा ।


शरीर में जान ही कहां है उसके ?


क्षण भर को भले ही हक्के-बक्के रह जाये वे मगर अगले पल --- छोटा झपटेगा । उसका अपना छोटा झपटेगा और गर्दन दबा देगा उसकी । पलक झपकते ही मर जायेगा वह।


इस सबके बावजूद उसके दिमाग में विचार उठा---'क्या सचमुच ऐसा कर सकता है छोटा? वह छोटा जिसे उसने अंगुली पकड़कर चलना सिखाया था?’


यकीन नहीं आकर दे रहा था उसे ।


तभी, पत्थर के दूसरी तरफ छाई खामोशी को तोड़ती दिव्या की आवाज उभरी --- “समस्या वो कंगला नहीं, तेजी से गुजर रहा टाइम है देव! छब्बीस तारीख भी गुजर चुकी है। सत्ताइस में प्रवेश कर गये हैं हम । आज सहित केवल चार दिन बचे हैं। अगर चार दिनों में वह नहीं मरा तो क्या करेंगे?”


“केवल एक ही रास्ता बाकी बचेगा।" देवांश के लहजे में क्रूरता थी ।


“क्या?”


"ठिकाने लगाना पड़ेगा उसे ।”


“क-कैसे?”


“कैसे भी ! सोचना होगा।"


“वक्त ही कहां है सोचने के लिए ?”


“क्या चाहती हो ?”


“ अभी सोचो ।”


“कितनी अजीब बात है, हमें उसकी हत्या के बारे में सोचना पड़ रहा है जो असल में जिन्दा ही नहीं है।"


“अगर उसकी सांसें तीस की रात के बारह के बाद तक चलती रहीं तो...


“ ऐसा नहीं होने दूंगा मैं ।”


“वही तो पूछ रही हूं ----करोगे क्या?”


“कुछ ऐसा करना पड़ेगा जिससे उसकी मौत या तो एड्स से हुई लगे या आत्महत्या ।”


“हम ही बेवकूफ थे। आत्महत्या करने को तो वह खुद ही मरा जा रहा था।"


“ उस वक्त कहां सोचा था दवा के बगैर भी कम्बख्त इतना जी जायेगा ।”


“वाकई! अभी तक चाक-चौबंद है पूरा । मुझे नहीं लगता तीस तक मर सकेगा।”


“देखा जायेगा । पैग बनाओ तुम !”


राजदान के दिमाग में सवाल कौंधा---'तो क्या व्हिस्की भी पीता है छोटा?"


एक बार फिर दूसरी तरफ खामोशी छा गयी थी ।


बहुत आहिस्ता से सिर पत्थर की बैक से निकालकर राजदान ने दूसरी तरफ झांका और... जो कुछ नजर आया उसे देख नहीं सका वह । झटके से वापस खींच लिया अपना चेहरा | आंखें कसकर बंद कर लीं।


***


आंखें उसी तरह कसकर बंद किये बिस्तर पर लेटा था वह।


मगर, दृश्य था कि आंखों के सामने से हट ही नहीं रहा था।


उसकी दिव्या !


उसकी अपनी दिव्या, उसके अपने छोटे की बांहों में थी !


एक भी... एक भी तो कपड़ा नहीं था दोनों के जिस्मों पर।


झरने का पानी लगातार उन पर गिर रहा था ।


एक पल !


सिर्फ एक ही पल के लिए तो देखा था राजदान ने वह दृश्य!


उस एक ही पल में दोनों ने एक साथ कहा था --- 'चियर्स! दोनों के हाथों में जाम थे।


देवांश ने अपना जाम दिव्या के होठों से लगाया था | दिव्या ने देवांश के ।


हे भगवान! क्या सचमुच यह दृश्य उसने अपनी आंखों से देखा था ?


देखकर भी विश्वास नहीं कर पा रहा था राजदान ।


स्वप्न - सा लग रहा था वह सब उसे ।


स्वप्न ही तो था जो आंखें बन्द होने के बावजूद अब भी नजर आ रहा था ।


या... या ऐसा समा गया था कि आंखों से निकलने का नाम ही नहीं ले रहा था ।


घबरा सा गया वह ।


जैसे कमजोर दिल का मालिक हॉरर फिल्म देख रहा हो ।


कुछ इस तरह आंखें खोल दीं उसने जैसे उस दृश्य को कुछ गौर से देखता रहा तो मर जायेगा ।


आंखें खुलते ही उनकी रेंज में कमरे का लिंटर था ।


वही लिंटर जिस पर उसने अपने सम्पूर्ण जीवन का वृत्तचित्र देखा था ।


कुछ देर तक सबकुछ ठीक रहा, फिर उस पर भी वही दृश्य नजर आने लगा जिसे उसने केवल एक पल के लिए देखा था । उससे ज्यादा उस दृश्य को देखने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाया था वह । कई बार जी चाहा था --- - पुनः झांककर उस तरफ देखे ।


परन्तु!


सभी हौसले दम तोड़ चुके थे ।


'उनके' बातें करने की आवाज तब भी उसके कानों में आ रही थीं ।


उसके मर्डर का प्लान बना रहे थे वे ।


छोटे के दिमाग ने शायद काम नहीं किया ।


प्लान पूरा नहीं बन पाया था।


फिर उनके बीच रोमांटिक बातें होने लगीं।


कुछ वैसी आवाजें आने लगीं जैसे वे तूफान की तरफ बढ़ते चले जा रहे हों ।


राजदान में उन्हें उस तूफान में फंसे देखने की हिम्मत नहीं थी।


वहां से हटा !


वापस चल दिया।


आते वक्त यूं लड़खड़ा रहा था जैसे अपनी क्षमता से कई गुना ज्यादा शराब पी गया हो । उस वक्त खुद को अंधेरे में रखने का होश भी नहीं था उसे ।


जानता था---‘उन्हें’ ही एक-दूसरे के अलावा किसी और को देखने का होश कहां है?


वह नहीं जानता अपने कमरे तक कैसे पहुंचा ?


बस इतना याद है---बुरी तरह थक गया था वह ।


'धम्म' की आवाज के साथ किसी लाश की तरह बैड पर गिरा।


घबराकर आंखें बंद की थीं उसने ।


जब वह दृश्य बंद आंखों में भी घुस आया तो आंखें खोल दीं। और अब... वहीं दृश्य लिंटर पर नाच रहा था ।


उससे पीछा छुड़ाने के लिए राजदान एक झटके से उठा । कुछ देर चहलकदमी करता रहा कमरे में ।


तब भी चैन नहीं मिला तो टी.वी. ऑन कर दिया ।


स्टार मूवीज पर कोई सैक्सी फिल्म आ रही थी ।


एक युवा जोड़ा सम्भोगरत था ।


राजदान के देखते ही देखते जोड़ा देवांश और दिव्या में तब्दील हो गया ।


पागल-सा हो उठा राजदान ।


झपटकर राइटिंग टेबल पर रखा कांच का पेपरवेट उठाया। और जितनी भी ताकत उसमें थी, सबकी सब समेटकर टी. वी. स्क्रीन में दे मारा ।


एक जबरदस्त आवाज के साथ स्क्रीन खील-खील हो गई।


बुरी तरह हांफता हुआ वह टूटे टी. वी. को देखता रहा ।


चेहरा लाल हो गया था। शरीर गुस्से से कांप रहा था ।


वह जानता था ---स्क्रीन टूटने की आवाज चाहे जितनी जोरदार हुई हो, वहां तक नहीं पहुंच सकती थी जहां वे थे और ... अन्य कोई इमारत में था नहीं जो इस आवाज को

सुन सकता ।


कुछ देर वह यूं ही खड़ा कांपता रहा ।


फिर एक सिगार सुलगाया ।


सोचा --- 'ये क्या कर रहा हूं मैं?'


क्यों तोड़ डाली स्क्रीन?


क्या मिला इससे?


कहीं पागल तो नहीं होता जा रहा हूं मैं? राजदान को अपनी ही मानसिक अवस्था पर शक होने लगा ।


खुद को नियंत्रित करने का प्रयास करता ड्रेसिंग रूम में पहुंचा।


लाइट ऑन की ।


नजर आइने में नजर आ रहे अपने अक्स पर पड़ी ।


उसे लगा--- आइने में वह नहीं, - आइने में वह नहीं, कोई और खड़ा है ।


कितना कमजोर था वह शख्स !


हड्डियों का पंजर! पिचके हुए गाल ! काले गड्ढों में धंसी ज्योति-हीन गोल आंखें | उड़े उड़े से बाल ! किसी भी तरह उसकी उम्र पचास से कम नहीं लग रही थी । एकाएक आइने में खड़े कमजोर शख्स ने धीरे-धीरे हंसना शुरू कर दिया । बड़े ही व्यंगात्मक अंदाज में हंस रहा था वह । उसकी खिल्ली-सी उड़ाता हुआ । और फिर, लगातार तेज होते-होते हंसी ठहाकों में बदल गयी । आइने में खड़ा वह शख्स ठहाकों । के बीच कहता चला गया --- “तू पागल हो गया है राजदान ! पागल हो गया है तू!” यह सब कहने के बाद वह पुनः खिलखिलाकर हंसने लगा ।


और!


राजदान मानो सचमुच पागल हो गया । टॉप पर रखी अनेक शीशियों में से एक क्रीम की शीशी उठाई और पूरी ताकत से आइने में खींच मारी ।


आइना भी टी. वी. स्क्रीन की तरह बिखर गया ।


जोरदार आवाज के बाद पुनः सन्नाटा छा गया था ।


एक बार फिर वही हालत हो गई जो टी. वी. स्क्रीन को तोड़ने के बाद हुई थी । बुरी तरह हांफता हुआ वह टूटी हुई ड्रेसिंग टेबल को देख रहा था। फिर अपने अंदर से आती

आवाज सुनी --- 'यही सब करते हैं कमजोर लोग! बेजान वस्तुओं पर ही उतार सकते हैं वे अपना गुस्सा मगर.... आइने को तोड़कर यदि तुम यह समझते हो राजदान कि मुझसे पीछा छुड़ा लोगे तो ये तुम्हारी भूल है! मैं आइने में नहीं था, तुम्हारे अंदर हूं! तुम्हारे अंदर !”


“शटअप...शटअप!” राजदान चीख पड़ा ।


अपनी ही आवाज ड्रेसिंग की दीवारों से टकराकर उसके कानों में आ घुसी।


उसकी 'शटअप' का जवाब देने के लिए वहां कोई नहीं था ।


शायद इसीलिए दिमाग में सवाल उभरा --- 'किसे शटअप कहा मैंने?'


कोई भी तो नहीं है यहां ।


क्या मैं दीवारों से बातें कर रहा था ? पागल भी तो यही करते हैं ।


तो क्या मैं सचमुच पागल हो गया हूं?


टी. वी. तोड़ डाला ।


ड्रेसिंग टेबल तोड़ डाली ।


ये सब क्या कर रहा हूं मैं?


खुद को संभालना होगा मुझे ! इस तरह बिखर जाने से काम नहीं चलेगा।


दरवाजा खोलकर वह पुनः बैडरूम में आ गया |


बैड के नजदीक पहुंचा।


साइड दराज पर रखे जग से गिलास में पानी डाला।


पिया ।


और राइटिंग टेबल की तरफ बढ़ गया ।


सुसाइड नोट ज्यों का त्यों लिखा पड़ा था ।


कमरे में नाइट बल्ब की रोशनी थी, बगैर टेबल लैम्प जलाये


उसे पढ़ नहीं सकता था वह । जेब से डिब्बी निकाली।


एक और सिगार सुलगाया ।


उसमें कश लगाने के साथ कुछ देर खुद को नियंत्रित करने

की कोशिश करता रहा।


फिर हाथ बढ़ाकर राइटिंग चेयर एक तरफ सरका दी ।


कुर्सी पर बैठा नहीं वह बल्कि खड़े ही खड़े टेबल लैम्प ऑन किया। झुककर अपने लिखे कागज को पढ़ने लगा। जिस कागज को लिखते वक्त आंखों से आंसू टपक रहे थे, उसी कागज को पढ़ते वक्त उन्हीं आंखों से लहू टपकने लगा ।


सारा चेहरा दहकती हुई भट्टी बन चुका था |


एक झटके से उसने कागज को लेटरपैड से अलग किया ।


गुस्से की ज्यादती के कारण उसे फाड़ने ही वाला था कि हाथ ठिठक गये ।


जाने क्या सोचकर रुक गया वह । कागज वापस मेज पर रख दिया।