अभी-अभी अंकुरित हुई कली जैसी थी वह ।


वह -- जो बड़े-बड़े फूलों वाली फ्रॉक पहने हुए थी । पैरों में काले जूते । घुटनों से थोड़ा नीचे तक सफेद जुर्राब । बालों में रिबन बंधा था। उसकी गांठ को फूल की शक्ल दी गई थी ।


राजदान ने उसे देखा तो देखता ही रह गया । वह गोल चेहरे, गुलाबी रंगत और गहरी काली आंखों वाली लड़की थी। हालांकि उसका फोटो राजदान पहले ही देख चुका था परन्तु यह अन्दाज नहीं लगा पाया था, वह इतनी सुन्दर और सुन्दर से ज्यादा मासूम होगी।


राजदान की हालत देखकर थोड़ी सहम सी गई थी वह ।


बिस्तर पर पड़ा वह सचमुच डरावना नजर आने लगा था। स्वीटी को एक बार देखने के बाद उसने अपनी आंखें बंद कर ली थीं जैसे उस कली को देखने के बाद कुछ और न देखना चाहता हो। उधर, स्वीटी को जैसे बिल्कुल अंदाजा नहीं था कि उसे एक डरावना आदमी देखने को मिलेगा | होंठ रूपी गुलाब की पंखुड़ियों से कोशिश के बावजूद आवाज न निकल सकी । बगल में खड़े बबलू ने कोहनी मारकर उसे कुछ बोलने का इशारा किया । बड़ी मुश्किल से अपने मुंह से आवाज निकाल सकी वह --- “च.. चाचू।”


राजदान ने एक खोल दीं । कहाझटके से गड्ढे में धंसी अपनी गोल आंखें चाचू ही कहेगी मुझे ?” -“च-चाचू? तू भी ———


उसकी आवाज इतनी कमजोर हो चुकी थी जैसे अंधकूप से निकल रही हो ---"जब “जब तुम हो ही चाचू तो और क्या कहेगी स्वीटी ?”


राजदान का जी चाहा --- खुलकर जोरदार ठहाका लगाए मगर ‘खांसी' के डर से ऐसा नहीं कर सका । केवल मुस्कराकर रह गया। मुस्कान भी अब डरावनी हो चली थी।


“चाचू !”-- “स्वीटी तुम्हारे लिए कुछ लाई है !”  बबलू ने कहा---


“म - मेरे लिए ?” राजदान चौंका --- “मेरे लिए क्या ले आई नन्हीं परी ?”


बबलू ने पुनः स्वीटी को कोहनी मारी । बोला ---“दे न!”


स्वीटी ने फ्रॉक की जेब से एक कार्ड निकालकर उसकी तरफ बढ़ाया --- “तू ही दे दे।”


“डरती क्यों है ! चाचू तो फ्रैण्ड हैं अपने ! अपने हाथ से दे न!” कहने के साथ बबलू उसका हाथ पकड़कर राजदान के करीब ले गया ।


स्वीटी ने कार्ड वाला हाथ राजदान की तरफ बढ़ाया।


राजदान ने अपना कमजोर और कांपता हुआ हाथ बढ़ाकर कार्ड ले लिया। कार्ड 'आर्चीज' का था जिसके कवर पर एक बूढ़े के गाल को चूमती छोटी सी लड़की बनी हुई थी ।


राजदान ने कार्ड खोला! उसमें इंग्लिश में शुभकामना लिखी थी । छपे हुए मैटर के ऊपर 'चाचू' और सबसे नीचे स्वीटी का नाम पैन से लिखा गया था । इंग्लिश के मैटर का हिन्दी अनुवाद कुछ यूं था --- “आपकी बेटी परमपिता परमेश्वर से प्रार्थना करती है कि आपका आशीर्वाद भरा हाथ सदा मेरे सिर पर रहे।” पढ़ते ही आंखें डबडबा उठीं राजदान की। एक बार फिर उसने उस मैटर को पढ़ना चाहा परन्तु पंक्तियां धुंधला गईं | आंसू आंखों से कूदकर कनपटियों की तरफ बह चले थे ।


“अरे !” स्वीटी के होठों से कोयल सी कूकी --- “आप रो क्यों रहे हैं चाचू ?”


मुंह से कुछ कह नहीं सका राजदान ! शब्दों के स्थान पर रुलाई फूट पड़ना चाहती थी । हाय उठा और स्वीटी के सिर पर जाकर ठहर गया। बड़ी मुश्किल से कह सका वह- “मासूम बच्चों की प्रार्थना जरूर सुनता है परमपिता है परमेश्वर! मैं रहूं न रहूं, इस हाथ को तू सदा अपने सिर

पर महसूस करेगी । ”


स्वीटी का सारा डर जाने कहां फुर्र हो गया ।


उसके बाद, उसने ठीक उसी तरह चहक चहक कर बातें कीं जैसे बबलू करता था। खुद वह भी चहका था उनके साथ। हंसा भी था। एक बार हंसी खांसी में भी बदली । तब एक तरफ बबलू दूसरी तरफ से स्वीटी उसकी छाती मलने लगे थे।


और अब !


रात का करीब एक बजा था ।


राजदान उनके साथ गुजारे हंसी-खुशी से भरपूर दो घंटों की याद में गुम था। आज उसने दूध के साथ नींद की वह टेबलेट नहीं ली थी जो भट्टाचार्य की हिदायत पर दिव्या हर रात दिया करती थी ताकि वह चैन से सो सके । दिव्या को पता नहीं था आज उसने टेबलेट नहीं ली है। ठीक दस बजे दिव्या ने उसे दूध का गिलास और टेबलेट दी थी । पीठ और बैड के नीचे तकिये लगाये उस वक्त वह बैठा था । खुद को उससे दूर रखे दिव्या, उसके टेबलेट खाने का इंतजार कर रही थी । राजदान ने कहा था --- “टॉवल चाहिए | "


दिव्या सारे बैडरूम में टॉवल ढूंढने लगी थी।


नहीं मिला।


मिलता भी कैसे ?


उसे तो खुद राजदान ने तकिये के गिलाफ के अंदर छुपा रखा था ।


जब ढूंढते-ढूंढते दिव्या झुंझलाने लगी तो राजदान ने कहा --- “नहीं मिल रहा तो छोड़ो न उसे । ड्रेसिंग से निकालकर दूसरा दे दो ।”


वह ड्रेसिंग में चली गई।


यही तो चाहता था राजदान ।


दिव्या के जाते ही उसने टेबलेट गाऊन की जेब में डाली । दूध का गिलास होठों से लगाया और टॉवल के साथ उसके वापस आने तक खाली कर दिया । दिव्या को इल्म तक नहीं हुआ 'उसने टेबलेट नहीं ली है। 'शक' करने की दिव्या पर कोई वजह भी नहीं थी। खाली गिलास उसे पकड़ाते हुए राजदान ने टॉवल ले लिया था । अपने होंठ साफ किये थे ।


“अब मैं जाऊ ?” दिव्या ने कहा था --- “नींद आ रही है।”


“हां ।” कहने के साथ उसने तकिये सीधे किये । उन पर सिर टिकाया और शरीर पर कम्बल खींच लिया था। आंखें बंद करने के साथ कहा था उसने --- “लाइट ऑफ कर देना ।”


कमरे में नाइट बल्ब का उतना ही कमजोर प्रकाश बिखरा रह गया था जितना कमजोर वह स्वयं था । आंखों की झिरी से उसने दिव्या को दरवाजे की तरफ बढ़ते और फिर बाहर जाते देखा था। हर रात की तरह जाते वक्त वह दरवाजे को भिड़ा गई थी।


पिछले चार महीने से वह इस कमरे में नहीं बल्कि बराबर वाले कमरे में सो रही थी । ऐसा उसी के 'हुक्म' पर कर रही थी वह । उसने कहा था --- 'दिव्या, मैं नहीं चाहता जो बीमारियां मुझे हैं, वे तुम्हें भी लगें । एक ही बिस्तर पर रहे तो जाने कब बहक जायें दोनों । ऐसा हो गया तो गजब हो जायेगा। पछताने के लिए भी कुछ नहीं रहेगा हमारे पास ।'


दिव्या ने विरोध किया था ।


काश वह जानता होता, विरोध बनावटी था ।


असल में तो मनमांगी मुराद मिली थी दिव्या को ! कुछ उसी तरह जिस तरह उसने खुद दवा न खाने की बात कही थी । थोड़े नखरों के बाद उसने इस तरह राजदान की बात मान ली थी जैसे इंकार करके उसका दिल न दुखाना चाहती हो ।


उसके जाने के बाद से राजदान उसी पोज में पड़ा था। सूनी आंखें खोले कमरे के लिंटर को निहार रहा था वह । लिंटर पर अपनी सारी जिन्दगी चलचित्र की मानिन्द चलती नजर आई थी उसे ।


फिर वह उठा ।


कम्बल एक तरफ डाला।


कमजोर टांगें बैड से नीचे लटकाईं और बैलेंस बनाता उन पर खड़ा हो गया। इतना कमजोर नहीं हुआ था वह अभी कि चल फिर न पाता । बाथरूम से बैड तक और बैड से बाथरूम तक खुद ही आता जाता था । मगर इस वक्त वह बाथरूम की तरफ नहीं, राइटिंग टेबल की तरफ बढ़ा था ।


नजदीक पहुंचकर टेबल लैम्प ऑन कर दिया ।


“धम्म” से राइटिंग टेबल पर गिर सा पड़ा! दराज खोली । डायमंडयुक्त सोने का पैन और अपने नाम का लेटरपैड निकाला । सिगार सुलगाने के बाद उसने पैन खोलकर कांपते हाथों से लिखना शुरू कर दिया ।


करीब एक घण्टे तक बीच-बीच में खुद को आराम देता लिखता रहा।


कुछ ऐसा जिसके कारण रह-रहकर आंखें डबडबा उठती थीं । कई बार आंसू पलकों से कूदकर उस कागज पर भी गिरे जिस पर 'सुसाइड नोट' लिख रहा था ।


नोट पूरा लिखने के बाद पैड पर कांच का पेपरवेट रखा और पैन बंद करके वहीं डाल दिया। कुछ देर बैठा जाने क्या सोचता रहा । फिर उठा ! कमजोर पैरों पर घिसटता - सा बाथरूम के दरवाजे की तरफ बढ़ा ! ड्रेसिंग में पहुंचा। लाइट ऑन की। अपने कपड़ों की अलमारी खोली ।


अन्य कपड़ों के साथ करीब दस नाइट गाऊन थे वहां ।


राजदान ने सभी से उनकी डोरियां निकाल लीं । लाइट ऑफ करके वापस बैडरूम में आया । डोरियां सेन्टर टेबल पर डालीं और जेब से डिब्बी निकालकर एक और सिगार सुलगाया । सोफा चेयर पर बैठ गया वह सिर पुश्त से टिका । लिया। आंखें बंद कर लीं और तब तक सिगार पीता रहा जब तक सुलगे हुए सिगार से अंगुलियां तपिश महसूस न करने लगीं। जब उसने महसूस किया उसके द्वारा पिये मये इस अंतिम सिगार ने भी साथ छोड़ दिया है तो उसे ऐशट्रे में कुचल दिया।


मेज पर पड़ी डोरियों में गांठें लगानी शुरू कीं। फिर उन्हें 'तिहरी' करके रस्सी की तरह बंटा! उसकी हर गतिविधि से साफ जाहिर था --- जो कुछ कर रहा है, पहले ही से सोचा समझा था । गाऊन की डोरियों से बनाई रस्सी को लिए वह बॉल्कनी में आया।


बॉल्कनी की छत में एक कुंदा लगा हुआ था।


आराम कुर्सी के ठीक ऊपर ।


उसने कुर्सी के चन्द्राकार पायों के चारों तरफ ऐसी 'आड़ ' लगाई कि अब वह उन पर झूल नहीं सकती थी । बैलेंस बनाकर उसके चौड़े हत्थों पर चढ़ा । हाथ ऊंचे करके रस्सी न केवल कुंदे से गुजार दी बल्कि वह फंदा भी बना लिया जो उसे नर्क जैसी जिन्दगी से छुटकारा दिला देने वाला था।


चेहरे पर दृढ़ता के भाव लिए फंदा अपने गले में डाल लिया उसने।


अब बस आराम कुर्सी में जोरदार ठोकर मारनी थी। ऐसी ठोकरं जो कुर्सी को उसके पैरों की पकड़ से दूर पहुंचा दे ! इतनी दूर, कि उसके चाहने के बावजूद पकड़ में न आ सके । वह जानता था - - - ऐसा होते ही फंदा उसके गले में कस जायेगा ।


उस क्षण मौत से बचने के लिए जरूर छटपटायेगा वह । उस छटपटाहट के दरम्यान कोई ऐसी चीज हाथ न लग सके जिससे वह अपने प्रयास में कामयाब हो जाये ।


तभी वह मर सकता था।


पैरों के नीचे से कुर्सी के हटते ही फंदे को अपना काम कर देना था।


उस वक्त गर्दन में फंदा और पैरों के नीचे कुर्सी थी जब नजर परिस्तान बने किचन लॉन पर ठहर गई । हर रात की तरह वह सतरंगे प्रकाश से जगमगा रहा था ।


फव्वारे उछल रहे थे।


झरने गतिमान थे ।


हवा मंद गति से बह रही थी ।


आकाश पर चांदी के थाल - सा चन्द्रमा मुस्करा रहा था ।


‘ओह !' उसके दिमाग में ख्याल उठा --- कितना शानदार नजारा था । कितना मनमोहक ! कितने अरमानों के साथ बनवाया था उसने यह किचन लॉन ।


मगर !


उसे कोई अफसोस नहीं है । भरपूर आनन्द उठाया है उसने इसका। दिव्या के साथ रातें गुजारी हैं उसने वहां! जाड़ों की धूप में दिव्या और देवांश के साथ जाने कितनी बार ब्रेकफास्ट और लंच लिया है ।


कुछ देर मीठी यादें जहन में गर्दिश करती रहीं।


बस एक ही ख्याल ने थोड़ा निराश किया । यह कि - - - वह इस सबको छोड़कर जा रहा है । जाने किस दुनिया में !


कुछ देर बाद उसकी आंखों में इस अद्भुत नजारे को देखने की क्षमता नहीं रह जायेगी। राजदान को लगा --- ऐसे विचार उसके इरादे को हिला सकते हैं। कुर्सी के हत्थे में ठोकर मारने ही वाला था कि नजर एक विशाल पत्थर पर पड़ रहीं


परछाइयों पर पड़ी।”


वे दो थीं ।


राजदान की नजर अटककर रह गई ।


कहीं यह उसका दृष्टिभ्रम तो नहीं है?


भला कौन हो सकता है रात के इस वक्त वहां?


बहुत ध्यान से देखा उसने । परछाइयां थीं।|


रह-रहकर हिल-डुल भी रही थीं वे ।


राजदान को यह समझने में भी देर न लगी कि उनमें से एक परछाई स्त्री की थी, दूसरी पुरुष की । वह उन्हें देख नहीं सकता था। वे जो भी थे --- एक पहाड़ी चट्टान के दूसरी तरफ थे । शायद उनके पीछे कोई बल्ब रोशन था।


उसी के कारण सामने वाले पत्थर पर परछाइयां पड़ रही थीं।


राजदान को समझते देर न लगी, वे चट्टान के दूसरी तरफ इसलिए हैं ताकि बॉल्कनी से देखे न जा सकें परन्तु अपनी परछाईयों पर ध्यान नहीं है उनका । उन पर जो बॉल्कनी से साफ नजर आ रही थीं। नजर वहीं टिकाये राजदान ने गले में से फंदा निकाल लिया ।


वह भूल चुका था कि वह मरने का ख्वाहिशमंद था ।


बैलेंस बनाये उसी के हत्थों से बॉल्कनी के फर्श पर उतर गया ।