माया, प्रिया के घर पर खुश थी। प्रिया उसकी अच्छी देखभाल कर रही थी। प्रिया ने उसके लिए एक प्राइवेट नर्स भी रख दी थी। माया के शरीर के ज़ख्म धीरे-धीरे भर रहे थे, मगर मन का सारा बोझ उतर चुका था। कबीर नियमित रूप से मिलने आता। वह प्रिया से बचने की हर संभव कोशिश करता, मगर फिर भी उसका चंचल मन उसे प्रिया की ओर खींचता। इसी रस्साकशी में वह रूखा और चिड़चिड़ा सा होता जा रहा था।

‘‘कबीर! आजकल तुम बहुत बोर होते जा रहे हो।’’ माया ने शिकायत के लह़जे में कबीर से कहा।

‘‘हाँ, माया ठीक ही कह रही है; आप तो ऐसे न थे मिस्टर कबीर।’’ प्रिया ने कहा।

कबीर को समझ नहीं आया कि प्रिया म़जाक कर रही थी या व्यंग्य।

‘‘प्रिया, तुम्हें पता है कि कबीर गिटार बहुत अच्छी बजाता है?’’ माया ने कहा।

‘‘कबीर, तुमने मुझे कभी नहीं बताया; चुपके-चुपके माया को गिटार बजाकर सुनाते रहे।’’ प्रिया ने शिकायत की।

‘‘कभी मौका ही नहीं मिला।’’ कबीर ने सफाई दी।

‘‘मौके निकालने पड़ते हैं।’’ प्रिया ने कहा।

‘‘आज मौका है, आज सुना दो।’’ माया ने कबीर से अनुरोध किया।

‘‘मगर अभी यहाँ गिटार कहाँ है?’’

‘‘तुम्हारी गिटार मेरे घर पर ही रखी थी कबीर; मैंने मँगा ली है। प्रिया! प्ली़ज कबीर को इसकी गिटार दो... अब कोई और बहाना नहीं चलेगा।’’ माया ने कहा।

प्रिया कबीर की गिटार ले आई। कबीर ने गिटार ट्यून करते हुए माया से पूछा, ‘‘कौन सा गाना सुनोगी?’’

‘‘मुझे तो तुम कई बार सुना चुके हो, आज प्रिया की पसंद का गाना बजाओ; बोलो प्रिया, कौन सा गाना सुनोगी?’’ माया ने कहा।

‘‘हम्म..साँसों की ज़रूरत है जैसे..।’’ प्रिया ने कुछ सोचते हुए कहा।

कबीर ने थोड़ा चौंकते हुए प्रिया की ओर देखा।

‘‘क्यों कबीर, ये गाना अच्छा नहीं लगता तुम्हें?’’ प्रिया ने कबीर की ओर एक तिलिस्मी मुस्कान बिखेरी।

कबीर ने कोई जवाब नहीं दिया। उसने गिटार के तार छेड़ते हुए गाना, बजाना शुरू किया।

‘‘साँसों की ज़रूरत है जैसे, ज़िंदगी के लिए, बस इक सनम चाहिए आशिक़ी के लिए...।’’

मगर, गिटार बजाते हुए कबीर के मन में ये सवाल कौंधता रहा कि प्रिया ने यही गीत क्यों चुना; क्या उसके, प्रिया को छोड़ने के बाद, प्रिया वाकई तड़प रही है? क्या प्रिया की तड़प ऐसी है जैसी कि साँसों के घुटने पर होती है?

कबीर के गाना खत्म करने के बाद प्रिया ने चहकते हुए ताली बजाकर कहा, ‘‘वाओ कबीर! ये टैलेंट अब तक मुझसे क्यों छुपा रखा था? अच्छा एक बात बताओ; मुझे गिटार बजाना सिखाओगे?’’

कबीर फिर मौन रहा। माया ने कहा, ‘‘बोलो न कबीर, प्रिया को गिटार बजाना सिखाओगे?’’

‘‘अरे बाबा मुफ्त में नहीं सीखूँगी, अपनी फ़ीस ले लेना।’’ प्रिया ने म़जाक किया।

‘‘न तो मुझे किसी को गिटार सिखाना है, और न ही आज से किसी के लिए गिटार बजाना है, अंडरस्टैंड।’’ कबीर झुँझलाकर चीख उठा।

‘‘चिल्ला क्यों रहे हो कबीर?’’ माया ने कबीर को झिड़का।

‘‘माया, तुम अंधी हो? तुम्हें दिखता नहीं कि प्रिया क्या कर रही है? समझ नहीं आता तुम्हें? बेवकू़फ हो तुम?’’ कबीर की झुँझलाहट गुस्से में बदल गई।

‘‘क्या कर रही है प्रिया? एक तो वह हम पर अहसान कर रही है, और तुम उस पर चिल्ला रहे हो।’’ माया ने फिर से कबीर को झिड़का।

‘‘तुम दोनों फ्रेंड्स को जो ठीक लगता है वह करो, मगर मुझे बख़्शो, मैं जा रहा हूँ।’’ कहते हुए कबीर उठ खड़ा हुआ।

प्रिया की आँखों में आँसू भर आए। माया ने कबीर को रोकना चाहा, मगर प्रिया ने उसे इशारे से मना किया। कबीर, प्रिया के अपार्टमेंट से चला आया।

कबीर चला गया, मगर माया के कानों में उसके शब्द गूँजते रहे,‘माया तुम अंधी हो? तुम्हें दिखता नहीं कि प्रिया क्या कर रही है? समझ नहीं आता तुम्हें? बेवकू़फ हो तुम?’

क्या प्रिया के मन में अब भी कबीर के लिए चाहत बाकी है? क्या वह वाकई कबीर को उससे वापस लेना चाहती है? क्या प्रिया उस पर सारे अहसान इसलिए कर रही है, कि बदले में कबीर को उससे छीन सके? और कबीर? क्या अब भी उसके मन में प्रिया के लिए जगह है? यदि न होती तो कबीर इस तरह परेशान न होता... कुछ तो है।

कबीर घर लौटकर भी का़फी बेचैन रहा। साँसें कुछ ऐसे बेचैन रहीं, जैसे कि घुट रही हों। रह-रहकर प्रिया के ख़याल आते। उसने प्रिया के साथ न्याय नहीं किया। माया के पास तो फिर भी उसका करियर और उसकी एम्बिशन थे, मगर प्रिया ने तो प्रेम को ही सब कुछ समझा था। माया ने तो उसे कितना बदलना चाहा था; उसकी स्वच्छंदता, उसकी आवारगी पर लगाम कसी थी; उस पर हमेशा रोब और रुतबा जमाया था... मगर प्रिया की तो उससे कोई अपेक्षाएँ ही नहीं थीं। उसने तो उसे वैसा ही स्वीकार किया था, जैसा कि वह था।

कबीर ने अलमारी खोलकर उसके लॉकर से प्रिया की दी हुई घड़ी निकाली। डायमंड और रो़ज गोल्ड की खूबसूरत घड़ी, जिसके डायल पर लिखा था ख्ख्, यानी कबीर खान। कबीर ने घड़ी अपनी कलाई पर बाँधी, और उसे एकटक निहारने लगा। घड़ी की सुइयों की टिक-टिक उसकी यादों में बहते समय को खींचकर उसके बचपन में ले गई।

कबीर के जीवन की समस्त विचित्रताओं की तरह ही उसके जन्म की कहानी भी विचित्र ही थी।

कबीर के माँ और पापा की पहली मुलाक़ात, एक स्टूडेंट रैली में हुई थी। माँ उन दिनों स्टूडेंट लीडर, और अपने कॉलेज की स्टूडेंट यूनियन की प्रेसिडेंट थी, और पापा एक जूनियर पत्रकार। कबीर के होने वाले पापा, कबीर की होने वाली माँ को देखते ही उन पर फ़िदा हो गए; और फ़िदा भी ऐसे, कि उसके बाद चाहे कोई रैली हो, कोई हड़ताल हो कॉलेज या यूनिवर्सिटी का कोई फंक्शन; वे माँ से मिलने का कोई मौका हाथ से जाने न देते। मुलाक़ातें दोस्ती में बदलीं, दोस्ती प्यार में; और प्यार खींचकर ले गया शादी की दहली़ज तक। मगर वहाँ एक मुश्किल थी। कबीर की माँ हिन्दू हैं और पापा मुस्लिम। उनके घरवालों को उनका सम्बन्ध गवारा न था। कहते हैं कि लगभग साढ़े चार सौ साल पहले, मुग़ल बादशाह अकबर ने एक हिन्दू राजकुमारी से शादी कर, हिन्दू-मुस्लिम रिश्तों की साझी तह़जीब की बुनियाद डाली थी; मगर शायद वो बुनियाद ही कुछ कच्ची थी, क्योंकि आज भी भारत में हिन्दू-मुस्लिम बड़ी आसानी से भाई-भाई तो कहला सकते हैं, मगर उसी आसानी से पति-पत्नी नहीं हो सकते। खैर, माँ ने तो किसी तरह अपने घर वालों को मना लिया, मगर पापा के घर वाले किसी भी कीमत पर रा़जी न हुए। फिर पापा ने की एक लव-जिहाद। अपने लव या प्यार को पाने के लिए, अपने परिवार और बिरादरी के खिला़फ जिहाद; और सबकी नारा़जगी मोल लेते हुए माँ से शादी की।

शादी के बाद पापा के सम्बन्ध अपने घर वालों से बिगड़े हुए ही रहे। कुछ औपचारिकताएँ हो जातीं; कुछ ख़ास मौकों पर मुलाकातें या बातचीत हो जाती, मगर इससे अधिक कुछ नहीं। फिर हुआ कबीर। कबीर का होना, उसके बाद यदि किसी और के लिए सबसे अधिक बदलाव लेकर आया तो वे उसके पापा के घर वाले ही थे। पूरा परिवार उसे देखने आया, मगर इस बार उनका आना मह़ज एक औपचारिकता नहीं था; उसमें एक गर्मजोशी थी, एक उत्साह था। कबीर के प्रति उमड़ता उनका प्रेम, उसके पापा पर भी छलकने लगा था, जिसमें भीगकर पापा, अपने आपसी रिश्तों में आई सारी कड़वाहट धो डालना चाहते थे। मगर कुछ देर बाद पापा को समझ आया कि उस प्रेम के पीछे एक डर था; वैसा ही डर, जो प्रेम और घृणा को एक दूसरे का पूरक बनाए रखता है। कभी अपने बेटे के गैरम़जहबी लड़की से शादी कर, उसके दूर हो जाने के डर ने उनके मन में एक घृणा पैदा की थी, और उस दिन अपने पोते के गैरम़जहबी हो जाने का डर उन्हें कबीर की ओर खींच लाया था। उन्हें डर था, कि उनसे दूरी की वजह से कबीर, मुस्लिम संस्कारों से वंचित होकर हिन्दू न हो जाए। वे उसे हिन्दू बनने से रोकना चाहते थे। उनका मानना था कि हर बच्चा मुस्लिम ही पैदा होता है, मगर उसके पालक उसे हिन्दू, सिख या ईसाई बना देते हैं। वे एक और मुस्लिम को का़फिर बनने से रोकना चाहते थे। उन्होंने तो कबीर के लिए नाम भी सोच रखा था... ‘ज़हीर।’ मगर कबीर के पापा उसे ऐसा नाम देना चाहते थे, जो अरबी न लगकर हिन्दुस्तानी लगे; जो बादशाह अकबर द्वारा डाली गई कच्ची नींव को कुछ पुख्ता कर सके; मगर साथ ही ये डर भी था, कि यदि नाम हिन्दू हुआ, तो परिवार के साथ मिटती दूरियाँ कहीं और न बढ़ जाएँ। कबीर का म़जहब तय करने से पहले ही उसके नाम का म़जहब तय किया जाने लगा था। पापा की इस कशमकश का हल निकाला माँ ने; और उन्होंने उसे नाम दिया, ‘कबीर’; यानी महान, ग्रेट। अल्लाह के निन्यानबे नामों में एक... एक अरबी शब्द, जो संत कबीर से जुड़कर, न सि़र्फ पूरी तरह हिन्दुस्तानी हो चुका है, बल्कि अपना म़जहबी कन्टेशन भी खो चुका है। कबीर को समझकर ही समझा जा सकता है कि शब्दों का कोई म़जहब नहीं होता, नामों का कोई म़जहब नहीं होता; म़जहब सि़र्फ इंसान का होता है... भगवान का कोई म़जहब नहीं होता।

बचपन में ही, जैसे ही कबीर को उसके नाम के रखे जाने का किस्सा पता चला, उसे यकीन हो चला कि वह पूरी कहानी बेवजह नहीं थी, और उसके पीछे कोई पुख्ता वजह ज़रूर थी। उसे यकीन हो चला था कि उसके नाम के अर्थ के मुताबिक ही उसका जन्म किसी महान मकसद के लिए हुआ था।

मगर आज कबीर कहाँ आ पहुँचा था? कहाँ रह गया था उसके महान बनने का मकसद? आज वह बस दो लड़कियों के बीच उलझा हुआ था। प्रिया, जो एक अरबपति पिता की बेटी थी; जिसके सामने उसका ख़ुद का कोई ख़ास वजूद नहीं था। दूसरी माया; जिसके अरबपति बनने के सपने थे; जिन सपनों के सामने वह ख़ुद को छोटा ही समझता था। क्या प्रेम में किसी लड़की को अपनी ओर आकर्षित कर लेना ही सब कुछ होता है? क्या उसे अपने प्रेमजाल में उलझाए रखना ही सब कुछ होता है? क्या उसके रूप और यौवन के प्रति समर्पित रहना ही सब कुछ होता है? आ़िखर रूप और यौवन की उम्र ही कितनी होती है? उस उम्र के बाद प्रेम का उद्देश्य क्या होता है? क्या प्रेम का अपना भी कोई महान उद्देश्य होता है? बस यही सब सोचते हुए कबीर की आँख लग गई।

अगली सुबह कबीर की आँख का़फी देर से खुली। अलसाई आँखों को मलते हुए कबीर ने टीवी का रिमोट उठाया और बीबीसी 24 न्यू़ज चैनल लगाया। मुख्य खबर थी – इन द मिडिल ऑ़फ डीप फाइनेंशियल क्राइसिस एनअदर प्राइवेट इन्वेस्टमेंट फ़र्म फ्रॉम सिटी ‘सिटी पार्टनर्स’ कलैप्स्ड। द फ़र्म इ़ज चाज्र्ड विद फ्रॉड्यूलन्ट एकाउंटिंग प्रैक्टिसेस एंड इट्स टॉप ऑफिशल्स आर अरेस्टेड, आल एम्प्लाइ़ज ऑ़फ द फ़र्म फियर जॉब लॉसेस।

कबीर को धक्का सा लगा। सिटी पार्टनर्स ही वह फ़र्म थी, जिसमें माया और कबीर काम करते थे। फ़र्म के डूब जाने का मतलब था, माया और कबीर की नौकरी जाना, माया का फ़र्म में इन्वेस्ट किया सारा पैसा डूबना। एक तो माया की ख़ुद की सेहत खराब थी, उस पर देश की अर्थव्यवस्था की सेहत भी बुरी तरह बिगड़ी हुई थी। एक के बाद एक डूबते बैंक और प्रॉपर्टी मार्केट के टूटने से अर्थव्यवस्था चरमराई हुई थी। ऐसे में माया के लिए नई नौकरी ढूँढ़ पाना लगभग असंभव था; ऊपर से माया पर उसके अपार्टमेंट के क़र्ज का बड़ा बोझ था। नौकरी न रहने का अर्थ था क़र्ज चुकाने में दिक्कत; और क़र्ज न चुका पाने का अर्थ था, अपार्टमेंट का हाथ से जाना। माया के तो जैसे सारे सपने ही बिखर जाएँगे। ऐसे में सि़र्फ एक ही सहारा थी... प्रिया। प्रिया ही मदद कर सकती थी। कबीर ने तय किया कि वह प्रिया से मिलेगा; उसके हाथ जोड़ेगा, ख़ुद का सौदा करेगा; मगर माया के सपने बिखरने नहीं देगा। माया ने सफलता और सम्पन्नता के जो सपने देखे हैं, वे पूरे होने ही चाहिएँ। शायद इसी त्याग में उसके जीवन का उद्देश्य पूर्ण होगा; उसका नाम ‘कबीर’ सार्थक होगा।

कबीर ने प्रिया को फ़ोन किया, ‘‘प्रिया मैं तुमसे मिलना चाहता हूँ।’’

‘‘शाम को घर आ जाओ कबीर।’’ प्रिया ने कहा।

‘‘नहीं, वहाँ माया होगी; मैं तुमसे अकेले में मिलना चाहता हूँ।’’

‘‘ऐसी क्या बात है कबीर, जो माया की मौजूदगी में नहीं हो सकती?’’

‘‘मिलने पर बताऊँगा प्रिया; ऐसा करो तुम लंच करके माया के अपार्टमेंट पर पहुँचो।’’

प्रिया को थोड़ी बेचैनी हुई। पता नहीं कबीर क्या कहना चाहता था। कबीर के पिछली रात के मि़जाज को देखते हुए प्रिया की बेचैनी स्वाभाविक थी। उसी बेचैन सी हालत में वह माया के अपार्टमेंट पहुँची। कबीर वहाँ पहले से ही मौजूद था।

‘‘कहो कबीर।’’ प्रिया के दिल की धड़कनें बढ़ी हुई थीं।

‘‘प्रिया, शायद तुम्हें पता न हो; मगर जिस फ़र्म में माया और मैं काम करते हैं वह डूब गई है।’’

‘क्या?’ प्रिया ने चौंकते हुए कहा।

‘‘हाँ प्रिया, हम दोनों की जॉब भी गई समझो। माया का फ़र्म में इन्वेस्ट किया पैसा भी डूब गया, और उस पर, माया पर इस अपार्टमेंट का छह लाख पौंड का क़र्ज है।’’

‘‘क्या! छह लाख पौंड?’’ प्रिया एक बार फिर चौंकी।

‘‘तुम्हें तो पता है, कि अभी इकॉनमी और प्रॉपर्टी मार्केट की क्या हालत है; माया की सारी कमाई इस अपार्टमेंट में लगी है; उसकी जॉब तो जाएगी ही, और उस पर अगर वह इस अपार्टमेंट को भी न बचा पाई, तो वह टूट जाएगी, बिखर जाएगी।’’

‘‘मैं समझती हूँ कबीर।’’ प्रिया के चेहरे पर चिंता की गहरी लकीरें खिंच आर्इं।

‘‘प्रिया, इस वक्त सि़र्फ तुम्हीं माया की मदद कर सकती हो। तुम मुझे माया से वापस लेना चाहती हो न? मैं तैयार हूँ प्रिया; मगर प्ली़ज, माया के सपनों को बिखरने से बचा लो।’’ कबीर ने विनती की।

‘कबीर।’ प्रिया ने चौंकते हुए कहा।

‘‘क्यों क्या हुआ प्रिया; तुम्हें सौदा पसंद नहीं?’’

‘‘कबीर प्ली़ज शटअप!’’ प्रिया चीख उठी, ‘‘तुम्हें क्या लगता है कि मैं माया की मदद तुम्हें पाने के लिए कर रही हूँ? तुमने प्रेम को सौदा समझ रखा है?’’

‘‘तो किसलिए कर रही हो माया की मदद? किसलिए बन रही हो मसीहा? मुझे नीचा दिखाने के लिए?’’

‘‘कबीर शटअप! जस्ट शटअप!’’ प्रिया फिर से चीख उठी, ‘‘जानना चाहते हो, मैं क्यों माया की मदद कर रही हूँ? क्यों उदार बन रही हूँ? तो सुनो कबीर... जब तुम मुझे छोड़कर माया के पास चले गए थे, तो मेरे सारे भरोसे, सारे विश्वास टूट गए थे। मुझे लोगों पर आसानी से भरोसा करने की आदत थी। मुझे लगता था कि जो लोग मुझे अच्छे लगते हैं, वे अच्छे ही होते हैं, उनकी नीयत सा़फ होती है, उन पर मैं भरोसा कर सकती हूँ; मगर मेरा वह यकीन टूट गया। अच्छाई पर भरोसे का जो मेरा जीवन का फ़लस़फा था, वह बिखर गया; और उस बिखराव ने मुझे भी वहीं पहुँचा दिया, जिसे तुमने कहा था, ‘डार्क नाइट’। मैं डिप्रेशन में डूब गई। उस वक्त मुझे तुम्हारी बात याद आई। मैंने डिप्रेशन और डार्क नाइट पर सर्च किया, और मुझे तुम्हारे गुरु काम के बारे में पता चला।’’

‘‘इस तरह प्रिया से मेरी मुलाक़ात हुई।’’ मैंने, मुझे गौर से सुनती मीरा से कहा, ‘‘प्रिया जब मेरे पास आई, तो वह वैसे ही गहरे अवसाद में थी,जैसे कि कबीर था, जब वह मुझसे मिलने आया था।’’

‘‘कबीर पर मैंने भरोसा किया था; मगर कबीर से कहीं अधिक भरोसा मुझे माया पर था। कबीर से तो चार दिन की मुलाक़ात थी, मगर माया से तो बरसों की करीबी दोस्ती थी। कबीर से कहीं ज़्यादा मेरे भरोसे को माया ने तोड़ा है; कबीर से कहीं ज़्यादा गुस्सा और ऩफरत मेरे मन में माया के लिए है।’’ प्रिया ने अवसाद में डूबी आवा़ज में मुझसे कहा।

‘‘माया से मैं मिल चुका हूँ, वह अच्छी लड़की है।’’ मैंने प्रिया से कहा।

‘‘तो फिर उसने मेरे साथ ऐसा क्यों किया? मुझसे धोखा क्यों किया? मेरा भरोसा क्यों तोड़ा?’’ प्रिया बिफर उठी।

‘‘इंसान अच्छा हो या बुरा, कम़जोर ही होता है; कम़जोरी में ही गलतियाँ भी होती हैं और अपराध भी।’’

‘‘मैंने कौन सा अपराध किया है, जिसकी स़जा मुझे मिल रही है?’’

‘‘तुमने शायद कोई अपराध नहीं किया है, मगर अब अपने मन में क्रोध और घृणा पालकर तुम अपने प्रति अपराध कर रही हो।’’

‘‘आप कहना क्या चाहते हैं, कि मुझे बिना कोई अपराध किए ही स़जा मिल रही है? और जिसने मेरे साथ अपराध किया है, उससे मैं घृणा भी न करूँ? उस पर गुस्सा भी न करूँ? ये कैसा न्याय है?’’

‘‘प्रिया! ईश्वर की प्रकृति में स़जा या दंड जैसा कुछ भी नहीं होता। प्रकृति अवसर देती है, दंड नहीं। हम जिसे बुरा वक़्त कहते हैं, वह दरअसल अवसर होता है उन कम़जोरियों, उन बुराइयों और उन सीमाओं से बाहर निकलने का, जो उस बुरे वक़्त को पैदा करती हैं। जीवन, विकास और विस्तार चाहता है, और डार्क नाइट अवसर देती है, अपनी सीमाओं को तोड़कर विस्तार करने का। जीवन के जो संकट डार्क नाइट पैदा करते हैं, उन संकटों के समाधान भी डार्क नाइट में ही छुपे होते हैं। कबीर की तड़प ये थी, कि वह लड़कियों का प्रेम पाने में असमर्थ था। डार्क नाइट से गु़जरकर उसके व्यक्तित्व को वह विकास मिला, जिसमें उसने लड़कियों को अपनी ओर आकर्षित करना और उनका प्रेम पाना सीखा; मगर तुम इस अवसर में अपनी चेतना के विस्तार को दिव्यता तक ले जा सकती हो। अपनी कम़जोरियों और सीमाओं से मुक्ति ही असली मुक्ति है; स्वयं को घृणा और क्रोध की बुराइयों से मुक्त करो प्रिया। घृणा और क्रोध से तुम सि़र्फ ख़ुद को ही दंड दोगी, माया को नहीं। अपने हृदय को विशाल बनाओ... तुम्हारे डिप्रेशन का इला़ज भी उसी में है, और तुम्हारी डार्क नाइट का उद्देश्य भी वही है।’’