“भैया!” आंधी-तूफान की तरह कमरे में दाखिल होते देवांश ने कहा--- "ये क्या सुन रहा हूं मैं? इतनी घटिया बात आपके दिमाग में आई कैसे ?”


“क्या सुन लिया छोटे, उबाल क्यों खा रहा है ?”


कमरे में आती दिव्या ने कहा --- “मैं तो केवल यह जानना चाहती हूं क्या गलती हो गई मुझसे जो आप ऐसी सजा देनी चाहते हैं?”


“बात क्या है, इतने उखड़े हुए क्यों हो दोनों?”


देवांश ने रोषभरे स्वर में कहा --- “हमारे रहते आत्महत्या करेंगे आप?”


“ओह !” राजदान के मुंह से निकला --- “तो इस कदर दोस्ती निभा गया भट्टाचार्य। साथ देना तो दूर, मेरी रिक्वेस्ट के बावजूद तुम्हें सबकुछ बता गया।”


“आपके दिमाग ने उल्टी दिशा में सोचना शुरू कर दिया है भैया । भट्टाचार्य आपका सच्चा दोस्त है, इसीलिए हमें वह। सब बताया ।”


“बता ही दिया है तो बैठो । अब मुझे खुलकर बात कर लेनी चाहिए।” राजदान का लहजा बेहद शान्त था --- " बैठ छोटे ! तुम भी बैठो दिव्या । सबसे पहले अपने दिमागों से उत्तेजना को छिटको । शांत करो उन्हें । तभी मेरी बातें समझ में आयेंगी।”


“ उस वक्त तक हमारे दिमाग कैसे शांत हो सकते हैं जब तक आप आत्महत्या न करने का वायदा नहीं करते ।”


“ओ. के. | अगर तुम मेरी बात मानोगे तो वैसा कुछ नहीं करूंगा। मगर..


"मगर ?”


“क्या यह गलत है कि मेरे इलाज पर बेइंतिहा पैसा खर्च हो रहा है?”


दोनों ने एक-दूसरे की तरफ देखा । जैसे पूछ रहे हों, क्या जवाब दिया जाये ?


क्या कहना उनके फेवर में होगा ?


“मैं कहती हूं जो भी हो रहा है कौन-सी आफत आ गई ?” दिव्या ने बहुत सोच समझकर कहा --- "कमाया किसने था यह सब? पाई-पाई आप ही की मेहनत का तो फल है।”


“और फिर ।” देवांश ने टोन मिलाई --- “क्या पैसा हमारे लिए आपसे ज्यादा है ।”


“होता है छोटे। कभी-कभी पैसा आदमी से ज्यादा अहम हो जाता है।”


अंततः देवांश ने पूछा--- “आप चाहते क्या हैं?”


“मेरे इलाज पर होने वाला खर्चा फौरन बन्द कर दो ।”


“भट्टाचार्य...


“एक ही तरीका है।” राजदान ने उनकी मनोवांछित बात काटी --- “भट्टाचार्य को कुछ पता नहीं लगना चाहिए। उसकी नॉलिज में मुझे उसकी लिखी हर दवा दी जाती रहेगी जबकि...


“जबकि ?”


“ असल में कोई दवा नहीं खाऊंगा मैं?”


खुशी से झूम उठे दिव्या और देवांश । जी चाह रहा था एक-दूसरे को बाहों में भरकर बल्लियों उछलें । सारी समस्याएं खुद-ब-खुद ढेर हो रही थीं और... ढेर करने वाला था वह शख्स... खुद वह शख्स जिसकी हर सांस उसे 'मौत' की तरफ ले जा रही थी । उनका वश चलता तो पलक झपकते ही राजदान के फैसले को स्वीकृति दे देते । बहरहाल, वही फैसला था उसका जो उनकी अपनी जरूरत थी । बल्कि इस फैसले का मतलब था - - - दवाएं खरीदी ही न जाएं ।


जेवर भी बच रहे थे ।


मगर, दिव्या को कहना पड़ा --- “ऐसा नहीं हो सकता। समझ नहीं रहे आप! जब तक आप हैं, तब तक एक ही धर्म है हमारा। आपको बचाने की कोशिश करते रहना ।”


राजदान ने अजीब सी सख्ती के साथ पूछा--- " यानी तुम मेरी बात नहीं मानोगे?”


“सोचो तो सही भैया, ऐसा कैसे...


“नहीं मानोगे तो मैं भी नहीं मानूंगा तुम्हारी बात। कम से कम आत्महत्या करने से कोई किसी को नहीं रोक सकता।”


“आप ऐसा नहीं करेंगे । ”


दृढ़तापूर्वक कहा राजदान ने --- “मैं ऐसा ही करूंगा दिव्या ।”


“भ- भैया !”


“फैसला तुम दोनों के हाथ में है।" राजदान जबड़े कसे कहता चला गया ---"यह कि---कैसी मौत चाहते हो मेरी। मेरी ख्वाहिश, इलाज के अभाव में स्वाभाविक मौत मरने की है। तुम नहीं मानोगे, मजबूर करोगे तो उस किस्म की मौत को गले लगाना पड़ेगा, जैसी मैं नहीं चाहता ।”


दोनों ‘अवाक' मुद्रा में खड़े रह गये । चेहरों पर हवाइयां उड़ा ली थीं उन्होंने---जैसे मजबूर हो गये हों। समझ न पा रहे हों क्या कहें--- क्या न कहें ।


“बोलो !” राजदान के लहजे में हंटर की सी फटकार थी --- “मेरी कौन सी मौत मंजूर है तुम्हें ?"


“अ - आप --- आप पागल हो गये हैं भैया ।” कांपती आवाज में कहने के साथ देवांश ने न सिर्फ अपनी आंखें भर ली थीं बल्कि फूट-फूटकर रो भी पड़ा और पलटकर रोता हुआ ही कुछ इस तरह तेज कदमों के साथ कमरे से बाहर निकल गया जैसे अब वहां एक पल भी ठहरना उसके बूते से बाहर हो गया हो। यह अलग बात थी कि कारीडोर में पहुंचते ही नाच उठा था वह ।


“पगला!” राजदान बड़बड़ाया । उसके होठों पर ममतामयी मुस्कान थी मगर अगले ही पल वह मुस्कान उसने विलुप्त कर ली । अभी तक ‘अवाक् सी' खड़ी दिव्या की तरफ देखा । काश.. काश इस वक्त वह दिव्या के मन में घुमड़ रहे विचारों को पढ़ सकता । वह सोच रही थी.... कितनी शानदार एक्टिंग कर गया देवांश । अब उसे अपनी भूमिका निभानी थी । उससे भी शानदार तरीके से । मगर कैसे ? क्या करे वह ? निश्चय नहीं कर पा रही थी।।


तभी, राजदान ने अपनी आवाज में हंटर की फटकार को

जारी रखते हुए कहा--- “दिल पर पत्थर रखकर ही सही, छोटा अपना फैसला सुना गया दिव्या ! अब तुम्हें अपना फैसला करना है --- बोलो, कैसी लाश देखना चाहती हो मेरी ? फंदे में झूलती या इस बैड पर सुकून के साथ सोई ?”


दिव्या अब भी अपनी भूमिका तय न कर सकी।


“सोच लो दिव्या ।” राजदान ने अपनी समझ में गर्म लोहे पर चोट की - - - “मुमकिन है इलाज न होने की सूरत में कुछ और दिन जिन्दा रह जाऊं ---- लेकिन अगर आत्महत्या का फैसला करना पड़ा तो...


“नहीं! नहीं!” दिव्या हलक फाड़कर चीख पड़ी थी - - - “किसी कीमत पर आत्महत्या नहीं करेंगे आप।"


राजदान के होठों पर सुकून भरी मुस्कान फैल गई ।


***


उस रात जश्न मनाया था दिव्या और देवांश ने ।


जश्न तो हर रात मनाते थे वे मगर, उस जश्न में कहीं न कहीं तनाव होता था । मगर उस रात के जश्न में कहीं तनाव नहीं था | दिव्या के सामने पहली बार व्हिस्की की बोतल खोली थी उसने । जब दिव्या ने कहा, 'ओह, तो यह काम भी करते हो तुम?' जवाब में देवांश ने न सिर्फ यह कहा कि वह कभी-कभी ले लेता है बल्कि जिद करके एक पैग दिव्या को भी पिला दिया ।


सुरूर में आई दिव्या ने दूसरा पैग अपनी मर्जी से पिया |


उसके बाद, नशे की तरंग में उन दोनों ने बिस्तर में जो धमा-चौकड़ी मचाई तो उस धमा-चौकड़ी का चस्का कुछ ऐसा लगा कि हर रात पीकर धमा-चौकड़ी मचने लगी ।


भट्टाचार्य रोज नई-नई दवायें लिख रहा था । राजदान की हालत दिन पर दिन बिगड़ती जा रही थी । वह सोचता था - - - एड्स के कारण दवायें असर नहीं कर रही हैं । ऐसा तो वह स्वप्न में भी नहीं सोच सकता था कि 'आदर्श' भाई और पत्नी दवा खरीद ही नहीं रहे थे । देवांश औद दिव्या ने ही नहीं, राजदान ने भी अपने ढंग से उसे यह समझा दिया था कि आत्महत्या करने का अब उसका कोई इरादा नहीं है।


राजदान से हुई बातों से पहले ही दिव्या अपने लॉकर से जेवरात निकाल लाई थी । भगवान का लाख लाख शुक्रिया अदा किया था उसने, राजदान के 'सहयोग' के कारण वे बच गये थे।


बैडरूम में, पेन्टिंग के पीछे सुरक्षित रखे थे वे ।


राजदान के समक्ष जब वे अकेले होते तो ऐसा प्रदर्शित करते जैसे उसके दवा न लेने के फैसले से नाराज हों । जैसे मजबूरी में उस स्थिति को कुबूल कर लिया हो । देवांश को इस बात का आश्चर्य जरूर था कि विचित्रा और शांतिबाई गधे के सींग की तरह दुनिया से कहां गायब हो गयीं! उन्होंने कभी उससे सम्पर्क स्थापित नहीं किया। शुरू-शुरू में एकाध बार वह शांतिबाई के कोठे पर गया भी परन्तु न उन्हें मिलना था, न मिलीं । ठकरियाल से मिला था वह, उनके सम्बन्ध में बात की तो यही कहा उसने --- 'सियानी थीं वे जो मेरी सलाह पर शहर छोड़ दिया । न छोड़ा होता तो तुम शायद दुनिया से ही रुख्सत कर देते उन्हें ।' धीरे-धीरे विचित्रा को बिल्कुल भूल गया था वह ।


अब तो केवल दिव्या थी और---राजदान की मृत्यु का

इन्तजार। 


क्या वह सचमुच 'मृत्यु' होगी?


सोचकर मुस्करा उठता था देवांश ।


कितना नायाब तरीका था यह हत्या का !


वह अक्सर सोचता --- 'साला कानून कहता है· पेशेन्ट को


वांछित दवा न दी जाये तो उसकी मौत हत्या होती है 1 कितने नादान हैं कानून बनाने वाले ! पता ही कैसे लगेगा कि पेशेन्ट को वांछित दवा नहीं दी गई ? और जब पता ही नहीं लगेगा तो कर क्या लेगा कानून ? ऐसे कानून बनाने का फायदा ही क्या जिनकी गिरफ्त में कोई आ ही न सके। अब इसी केस को लो... कौन माई का लाल है जिसे भनक भी लग सके कि वह और दिव्या 'हत्या' कर रहे हैं 


‘हत्या !' खुद ही से कहकर कई बार ठहाके लगाये थे देवांश ने।


राजदान हर रोज अपनी 'हत्या' की तरफ सरक रहा था । देवांश और दिव्या उसे जितना कमजोर देखते, पांच करोड़ उतने ही नजदीक नजर आने लगते ।


चिंतित मुद्रा में जब भट्टाचार्य कहता - - - 'क्या बताऊं? असर ही नहीं कर रही कोई दवा, वह हर दिन मौत की तरफ बढ़ रहा है।' वे मुद्रा भले ही ऐसे बनाते हों जैसे जीते जी मर रहे हों लेकिन असल में भट्टाचार्य के शब्द उनका खून बढ़ा देते थे। .


मगर!


जिन्होंने अपने दिमाग के खेत में बोये ही 'बबूल' हों उन्हें

भला 'गुलशन' कैसे मिल सकते हैं? दिन गुजरने के साथ उनकी बेचैनी बढ़ने लगी । दिमाग पुनः तनावग्रस्त होते चले गये ।


वे - - - जो यह सोच रहे थे भाग्य उनके साथ है।


सब कुछ खुद-ब-खुद होता जा रहा है ।


पच्चीस तारीख आते-आते उन्हें लगने लगा... भाग्य पलटा तो नहीं खा रहा कहीं?


दिन पर दिन कमजोर तो हो रहा है राजदान, मगर मर नहीं रहा । घुमा-फिराकर इस बारे में उन्होंने कई बार भट्टाचार्य से पूछ भी लिया । भट्टाचार्य ने हर बार यही कहा --- - "मुझे नहीं लगता अब उसकी जिन्दगी के ज्यादा दिन बाकी हैं।" ये तो वे पूछ नहीं सकते थे कि 'वह तीस अगस्त तक मर जायेगा या नहीं', पूछने का फायदा भी कुछ नहीं था। भला भट्टाचार्य ही इस बारे में कैसे और क्या बता सकता था ? मगर, बड़ा ही अहम सवाल था यह ! खतरनाक भी !


यदि वह तीस तारीख तक नहीं मरा तो क्या होगा?


क्या किसी और तरीके से मारना होगा उसे ?


कल्पना करके कांप-कांप उठते थे दिव्या और देवांश ! पांच करोड़ के लिए उन्हें ऐसा करना ही पड़ेगा! लेकिन क्या वे कर सकेंगे? बीमार आदमी को मरने देना अलग बात है, किसी और तरीके से मार डालना बिल्कुल अलग। क्या वे ऐसा कर सकेंगे? हत्या आखिर हत्या होती है, भले ही उस आदमी की हो जो अगले पल खुद मर जाने वाला हो । तनाव से इस कदर घिरते चले गये थे दिव्या और देवांश कि इस टॉपिक पर आपस में बातें करने तक की हिम्मत नहीं हुई ।


काश वे जान सकते, इस बात को लेकर जितनी बेचैनी उनके दिमागों में थी उससे कहीं ज्यादा राजदान के दिमाग में थी, तभी तो पच्चीस तारीख की रात में उसने बबलू से कहा--- “कल स्वीटी को जरूर लाना बबलू, बस यूं समझ - - - उसे देखना मेरी अंतिम इच्छा है ।”