जीतसिंह चुनिया की खोली में अकेला बैठा सिगरेट के कश लगा रहा था ।


उस घड़ी एक बजने को था और अभी आधा घन्टा पहले वो सोकर उठा था ।


पिछली रात वो भाई सावन्त के साथ सुरंग के रास्ते सुरक्षित होटल पहुंच गया था । होटल से वो भाई सावन्त की ड्राईवर वाली विलायती कार पर उसके साथ पीछे सवार हुआ था और ड्राईवर को फोर्ट चलने का आदेश देकर वो वहां से रवाना हुआ था । माहिम काजवे के पुल पर उसने एकाएक कार रुकवाई थी और उसमें से निकलकर बीच की पटड़ी पार करके परली तरफ पहुंच गया था, जहां कि सावंत की कार तत्काल नहीं पहुंच सकती थी, और जान का खतरा उठाकर वापिस जुहू की ही दिशा में जाती एक चलती बस में सवार हो गया था । कई बसें, टैक्सीयां, लोकल ट्रेनें बदलने के बाद जब उसे यकीन हो गया था कि कंपनी का कोई आदमी उसके पीछे नहीं था तो आखिरकार उसने धारावी का रुख किया था

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ऐंजो की मौत का उसे सख्त अफसोस था । ऐंजो के ख्याल से ही उसकी आंखें भर आती थीं । पता नहीं बेचारे की लाश की क्या दुर्गत की थी उन लोगों ने ।


सुष्मिता से मिले तीन महीने के वक्त का वो आखिरी दिन था । तीन महीने में दस लाख रुपया कमाकर दिखाने की सुष्मिता की शर्त वो पूरी नहीं कर सका था और इसलिए अब वो उसे मुंह दिखाने के काबिल भी नहीं रहा था । दस लाख रुपया हासिल करने की उसकी तमाम कोशिशें नाकाम रही थीं । आखिरी कोशिश में तो माल के साथ जान भी जाते-जाते बची थी । अब उसे लग रहा था कि एडुआर्डो, शालू और धनेकर ही समझदार थे जो नौ नकद को कब्जा बैठे थे और उसके और ऐंजो की तरह तेरह उधार के फेर में नहीं पड़े थे ।


लेकिन उन्हें क्या सपना आना था कि ईरानी के जरिये उनके साथ इतना बड़ा धोखा होने वाला था ।


क्या तकदीर पायी थी उसने ! क्या तकदीर पायी थी !


उसने नया सिगरेट सुलगाया और बेचैनी से पहलू बदलता उसके कश लगाता रहा ।


तब उस घडी उसे ख्याल आया कि एक अरसा पहले उसने परदेसी से चुनिया की खोली के फर्श में बना खाना देखने की इच्छा व्यक्त की थी जिसमें से कि जाफर रंगीले ने उसका माल बरामद किया था और अब खोली उसके कब्जे में थी फिर भी उसे वो खाना देखने की फुर्सत नहीं लगी थी |


अब रखा भी क्या था उसको देखने या न देखने में ।


लेकिन फिर उसे ख्याल आया रंगीले के हाथ तो सिर्फ दो लाख रूपये लगे थे। बाकी पैसा कहां गया ? क्या वो अभी भी वहीं था ? रंगीला कहता था कि उसने खोली की बड़ी बारीकी से तलाशी ली थी लेकिन शायद बड़ी बारीकी से तलाशी न ली हो उसने । क्या पता असल में वो सुई तलाशने की तरह तलाशी न ले पाया हो । - -


नाउम्मीद जीतसिंह के मन में एक नयी उम्मीद जागी ।


लेकिन उम्मीद की रोशनी जैसी जगमगाई, वैसे ही लुप्त हो गयी ।


खोली में कहीं कुछ नहीं रखा था ।


उसने वो टाइल भी तलाश कर ली थी जो कि फर्श पर से अलग हट जाती थी और जिसके नीचे वो खाना था जहां से कि रंगीले ने दो लाख रूपये बरामद किये ।


खाने में उस वक्त धूल की परत के अलावा कुछ नहीं था ।


वो एक खुफिया जगह थी जिसे कि चुनिया ने इस्तेमाल किया था । इस्तेमाल किया था तो पूरी रकम छुपाने के लिए क्यों नहीं किया था ? इतनी बढ़िया जगह उपलब्ध होने के बावजूद वो बाकी रकम छुपाने के लिए कोई नयी जगह क्यों तलाश करता ? नयी जगह ज्यादा बढ़िया थी तो सब कुछ उसने वहीं क्यों न रख दिया ? इसका एक ही मतलब हो सकता था ।


रंगीले के हाथ पूरी रकम लगी थी और वो कमीना मरते दम तक उस बाबत झूठ बोलता रहा था । उसको शूट कर देने में उसने जल्दबाजी की । वो जिन्दा होता तो वो उस पर और ज्यादा दबाव डालकर उससे फिर पूछता कि बाकी रकम उसने कहां छुपाई थी ।


लेकिन वो खानी अब खतम थी । जीतसिंह की बदकिस्मती पर एक और दाग बनकर रंगीला मर चुका था और मुर्दे बोलते नहीं थे ।


वाह री किस्मत |


वो टाइल को फर्श पर वापिस यथास्थान लगाने ही लगा था कि एकाएक वो ठिठका । वो अपलक खाली खाने में झांकने लगा ।

हे भगवान - एकाएक उसकी बुझी हुई आंखों में एक नयी चमक पैदा हुई - हे भगवान ।


रंगीले ने मरते वक्त झूठ नहीं बोला था । उस खाने में से रंगीले के हाथ बारह लाख रूपये लगे नहीं हो सकते थे । वो खाना इतना बड़ा नहीं था कि उसमें बारह लाख रूपये के नोट समा पाते ।


तो ?


उसने टाइल एक तरफ फेंक दी और आंखें फाड़-फाड़कर खाने में झांका ।


एक कोने में धूल में उसे बाल बराबर लकीर बनी दिखाई दी । उसने खाने में हाथ डालकर वो लकीर मिटाने की कोशिश की तो वो न मिटी |


उसका दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। वो दौड़कर खोली की अलमारी जैसी किचन में गया और वहां से एक पतले फल की छुरी तलाश कर लाया । उस छुरी की नोक को खाने में डालकर वो उस बाल जैसी लकीर पर फिराने लगा । लकीर उसकी आंखों के सामने बड़ी होने लगी ।


उस घड़ी उसका दिल पसलियों के साथ धाड़-धाड़ टकरा रहा था और कनपटियों में खून बज रहा था। उस वक्त तो उसे दिल का दौरा पड़ते हटा जबकि खाने की तलहटी में से एक और टाइल उखड़कर उसके हाथ में आ गयी और नीचे नोट झांकने लगे ।

विक्षिप्तों की तरह उसने नोट वहां से निकाल-निकालकर बाहर फर्श पर रखने शुरू किये ।


नया खाना खाली हो गया तो उसने पाया कि वो ऊपरी खाने से क्षेत्रफल में कम-से-कम पांच गुणा बड़ा था ।


तो ये ट्रिक आजमाई थी चुनिया ने माल के संभावित चोर पर । चोर ने ऊपरी खाने से माल बरामद किया और अपनी तलाश को मुकम्मल तौर से कामयाब मानकर तलाश बंद कर दी।


जैसा कि चोर से अपेक्षित था ।


जोकि चुनिया चाहता था ।


कौन सोच सकता था कि एक छोटे खजाने के नीचे ही बड़ा खज़ाना छुपा हो सकता था ।


फिर उसने नोटों की तरफ तवज्जो दी ।


सब नोट सौ-सौ के थे और सौ-सौ की गड्डियों में थे ।


सौ गड्डियां । पूरे दस लाख ।


उसकी नाउम्मीद जिंदगी की आखिरी उम्मीद ।


हार की बंजर धरती का सीना फाड़कर निकली जीत की नयी कोंपल ।


दस लाख ।

उसके अहमतरीन जरुरत जोकि मियाद के आखिरी दिन, बल्कि आखिरी चंद घंटों में, एक करिश्माई तरीके से पूरी हुई थी।


अभी वो हारा नहीं था ।


अभी भी वो जीत सकता था सकता क्या था, अब तो जीत ही जाना था उसने । सुष्मिता को हासिल करने की शर्त पूरी करने का साधन उसकी आंखों के सामने मौजूद था। -


उसने वो सूटकेस खाली किया जिसमें कि वो मूर्तियों को वहां तक लाये थे और उसमें नोटों की गड्डियां भरने लगा ।


सुष्मिता ! - रह-रहकर अपने आप ही उसके मुंह से निकल रहा था मेरी जान, मैं आ रहा हूं। मैं वक्त रहते आ रहा हूं । मैं कामयाबी की गुड न्यूज के साथ वक्त रहते आ रहा हूं। मैं आ रहा हूं ।


***

वो जानता था कि ग्रांट रोड पर स्थित सुष्मिता का ऑफिस छ बजे तक खुलता था ।


तीन बजे वो वहां पहुंचा । उस बार सुष्मिता को फोन करने की जगह वो सीधा उसके ऑफिस में पहुंचा ।


उस घड़ी उसके कदम जमीन पर नहीं पड़ रहे थे और खुशी छुपाये नहीं चुप रही थी । नोटों से भरा सूटकेस उसे गुलदस्ते की मानिंद हल्का लग रहा था ।


" सुष्मिता से मिलना है।" - धड़कते दिल से वो रिसैप्शनिस्ट से बोला ।


"वो तो नौकरी छोड़ गयी ।" - रिसैप्शनिस्ट युवती बोली ।

"नौकरी छोड़ गयी ?" - वो जैसे आसमान से गिरा -

"कब ?"


"दो हफ्ते पहले ।”


"क्यों ?"


"उसकी बहन मर गयी थी । बस उसके बाद आई ही नहीं वो नौकरी पर । इस्तीफा भेज दिया । "


"बहन !...मर गयी ?"

"हां । कहते हैं कैंसर था बेचारी को।"


"क..... कब मरी ?"


"दो हफ्ते पहले । तभी तो सुष्मिता ने आना बंद किया था। "

"ले.... लेकिन नौकरी क्यों छोड़ी ?"


"क्या मालूम क्यों छोड़ी । इस्तीफे में कोई वजह तो लिखी नहीं हुई थी ।”


"कहीं और बेहतर नौकरी मिल गयी होगी !"


" हो सकता है। मेरे को खबर नहीं ।"


"दफ्तर में किसी और को खबर हो ?"


"नहीं है। एक बार नौकरी से किनारा करने के बाद वो यहां किसी से नहीं मिली ।"


"ओह !"


लेकिन वजह जरूर यही थी उसने अपने आपको समझाया जरूर कोई बेहतर नौकरी मिल गयी होगी । आखिर इतनी काबिल, इतनी जहीन लड़की थी वो । -


***

वो चिंचपोकली पहुंचा ।


वहां उसने अपने घर का रुख न किया जिस पर कि तीन महीने से ताला पड़ा हुआ था और जहां से वो तीन महीने से दरबदर था ।


उसके घर से कुछ ही इमारतें दूर सुष्मिता का घर था ।


घर पर ताला लगा हुआ था ।


किसी अज्ञात आशंका से उसका दिल डूबने लगा ।


तभी उसे सुष्मिता की मकान मालकिन दिखाई दी। वो उसे जानती थी । वो लपककर उसके करीब पहुंचा । |


“अरे, जीते !" - उसे देखते ही वो बोली- "कहां था तू इतने दिनों से ?"


- "बस, मौसी, यूं ही इधर उधर धक्के खा रहा था ।" जीतसिंह व्यग्र भाव से बोला- "सुष्मिता के घर को ताला लगा हुआ है, मैं ये जानना चाहता था कि....


"अरे, जीते। शादी के बाद लड़कियां क्या अपने घर पर रूकती हैं ?"


"शादी !" - जीते को अपने दिल की धड़कन रूकती महसूस हुई - "सुष्मिता ने शादी कर ली ?"


"हां"


"कब ?"


"जिस दिन बहन का चौथा किया, उसके तीन ही दिन बाद ।"


"किससे ?"


"चंगुलानी से।"


"चंगुलानी कौन ?"


"अरे, वही वो सिन्धी डिपार्टमेंट स्टोर वाला जिसके पास सुष्मिता नौकरी करती थी ।"


"पुरसूमल ?"


"वही ।"


"लेकिन वो तो बूढा है । उसके तो सुष्मिता से ज्यादा उम्र के बच्चे हैं । "


"लेकिन बीवी नहीं है । मरे चार साल हो गये । और बच्चे भी सब इंग्लैंड में रहते हैं । "


"उसका पता मालूम है, मौसी ?"


“लेमिंगटन रोड पर है उसका डिपार्टमेंटल स्टोर ।"


"स्टोर कहां है, मुझे मालूम है । मेरा मतलब था जहां वो रहती... वो सिन्धी सेठ रहता है ?"


"वो कोलाबा में रहता है । तुलसी चैम्बर्स करके नवी बनी बिल्डिंग है । उसी के एक फ्लैट में ।"


“अच्छा मौसी, मैं फिर मिलता हूं।"

"अरे, सुन तो ।।।"


"लौट के सुनूंगा।"


"तू इतना बदहवास क्यों लग रहा है ? तेरा रंग क्यों उड़ा हुआ है ? खैरियत तो है ?"


" अब तो खैरियत ही खैरियत है, मौसी । जब कहानी ही खत्म हो गयी तो अब खैरियत के अलावा और क्या होगा ?"


"अरे कौन सी कहानी ? जीते, तू कुछ ।”


"लौट के बताऊंगा। अभी जल्दी में हं । "


वो कोलाबा पहुंचा ।


वहां सिन्धी सेठ पुरसूमल चंगुलानी का इमारत की दसवीं मंजिल पर स्थित फ्लैट तलाश करने में उसे कोई दिक्कत न हुई ।


धड़कते दिल से उसने कॉलबैल बजायी ।


दरवाजा खुद सुष्मिता ने खोला ।


उसकी सजधज देखकर जीतसिंह का कलेजा मुंह को आने लगा । खूबसूरत तो वो थी ही, अब नयी ब्याही दुल्हन के लिबास में तो वो परी लग रही थी ।


ऐसी नयी दुल्हन जिसकी बहन को मरे सिर्फ दो हफ्ते हुए थे और जो अपनी कैंसर से पीड़ित बहन से इतना प्यार करती थी कि उसके साथ मर जाने की तमन्नाई थी ।

"तुम !" - उसके मुंह से निकला - "यहां !"


"घबराओ नहीं ।" - जीतसिंह के होठों पर एक फीकी मुस्कराहट आई - “अश्मिता की मौत का अफसोस करने आया हूं।"


"ओह !'


" और शादी की मुबारकबाद देने ।”


“आओ।"


"मुझे भीतर बुलाना जरूरी नहीं । मेरी आमद से तुम्हें कोई दिक्कत हो, ऐसा मैं नहीं चाहता । जिस काम से आया था, वो तो यहां चौखट पर ही हो गया है । बहन की मौत का अफसोस कर दिया । तुम्हें शादी की मुबारकबाद दे, अब और..."


झिझकता-सा वो उसके फ्लैट में दाखिल हुआ। जो सूटकेस पहले उसे फूलों से हल्का लग रहा था, अब उसे मन-मन का मालूम हो रहा था ।


वो उसे उसे सजे हुए ड्राइंग रूम में लायी ।


"बैठो।" - वो बोली ।


"शुक्रिया ।"


जीतसिंह एक सोफाचेयर पर ढेर हुआ तो वो उसके सामने बैठ गयी । जीतसिंह अपलक उसे देखने लगा । तत्काल वो नर्वस भाव से पहलू बदलने लगी और उससे निगाहें चुराने लगी ।

"बहन को क्या हुआ ?" - वो बोला ।


"वही जो होना था ।" - वो वोली ।


"एकाएक कैसे हो गया ? तुम तो कहती थीं कि वो छ-सात हीने तक बिलकुल सेफ थी...' H


"डॉक्टर कहता था।"


"... और उसी वक्फे में से तीन महीने तुमने मुझे दिये थे।"

वो फिर बेचैन दिखाई देने लगी ।


"ये" - जीतसिंह ने सूटकेस को सेंटर टेबल पर रखकर खोला "मैं लाया था। अपने वादे के मुताबिक । वक्त रहते।"


सूटकेस में निगाह पड़ते ही उसके मुंह से सिसकारी निकली । "ये....ये..."


"दस लाख ।" - जीतसिंह धीरे से बोला । "मुझे उम्मीद नहीं थी कि तुम... "उम्मीद होती तो जो किया वो न करतीं ?"


उसने जवाब न दिया ।


"अब अहसास हो रहा होगा कि जिन्दगी कितनी हसीं और दिलकश है और मौत कितनी भयानक और घिनौनी है ।"


"क... क्या ?"

"मेरी बहन मर गयी तो मैं उसके साथ मर जाउंगी । उसके बच्चों को अपने हाथों से समुद्र में डुबो कर । कुछ याद आया ?"


उसके मुंह से बोल न फूटा ।


"लेकिन वो काम मुश्किल था । तुमने आसान काम किया । आसान और फायदेमंद | क्या वान्दा था ? बस एक गरीब के दिल को जरा सी ठोकर ही तो मारनी थी, उसे अपनी जूती के नीचे ही तो मसलना था ।" - उसने असहाय भाव से गर्दन हिलाई - "आखिरकार किया तो ऐन वही किया जिसका मुझे अंदेशा था ।"


"क.... क्या ?"


"गरीबमार । गरीबमार की । वादे से मुकर गयीं ।”


"मेरी मजबूरी थी ।”


"झूठ । ये कहो कि बहन मर गयी तो वादा निभाना जरूरी न रहा । बहन मर गयी तो उसके इलाज के लिए दरकार दस लाख की रकम जरूरी न रही । तुम्हारी बहन का एकाएक वक्त से पहले, तुम्हारी उम्मीद से पहले मर जाना मेरी सजा हो गया ?"


"ये बात नहीं है ।"


“तो क्या बात है ?"


"मुझे उम्मीद नहीं थी कि तुम कामयाब हो पाओगे ।” "उम्मीद मुझे भी नहीं थी लेकिन क्या तुम्हारा फर्ज नहीं बनता था कि जितना वक्त तुमने मुझे दिया था, कम-से-कम उतना वक्त तो मुझे आजमाती ।"


"मैं शर्मिंदा हूं लेकिन...."


"तुम्हारी शर्मिंदगी मेरी उजड़ी कायनात तो नहीं संवार सकती |"


"... मैंने शादी अपने लिए नहीं कि ।”


"तो किसके लिए की ?"


“अपने बहन के उन तीन बच्चों के लिए की जो वो मेरे आसरे अपने पीछे छोड़ गयी थी । तुम समझते हो कि मेरा सपना किसी उम्रदराज बाल-बच्चेदार शख्स से शादी करने का था ?"


"

ओह ! तो कुर्बानी की तुमने अपनी बहन के बेआसरा बच्चों के लिए ?"


"हां।" - इस बार वो कदरन दिलेरी से बोली ।


"ये कुर्बानी दस दिन बाद तो हो नहीं सकती थी ?"


" उसने जोर दिया था। अभी या कभी नहीं जैसी पेशकश थी |"


"अच्छा हुआ तुमने वो पेशकश कबूल की और एक दौलतमंद, रसूखमंद सेठ की सेठानी बन गयीं वरना महज एक वादे की बंदिश में एक निम्न कोटि के प्राणी से, एक तिजोरीतोड़ से नाता जोड़ना पड़ता । अच्छा किया तुमने । हीरा पगड़ी में ही शोभा देता है, जूती में नहीं। अच्छा किया।" - जीतसिंह की आवाज भर्रा गयी, उसकी आंखें भर आयीं, एकाएक वो उठ खड़ा हुआ - "मैं चलता हूं।"


वो दरवाजे की ओर बढ़ा |


"अरे, सुनो।" - वो भी तत्काल उठती हुई बोली - "सुनो।" वो ठिठका, घूमा, उसने प्रश्नवाचक नेत्रों से उसकी तरफ देखा ।


"ये" - सुष्मिता ने सूटकेस की तरफ संकेत किया - "ये तो लेते जाओ।"


" मैंने अब क्या करना है इसका ? मुझे इसकी जरुरत नहीं।”


"मुझे भी जरूरत नहीं ।"


" सुष्मिता की जरूरत भले ही न हो, मिसेज पुरसूमल चंगुलानी की निकल आएगी ।"


"लेकिन...'


"नमस्ते ।"


लम्बे डग भरता वो फ्लैट से बाहर निकल गया ।


संयोगवश खाली लिफ्ट उसी फ्लोर पर खड़ी थी ।


वो लिफ्ट में सवार हो गया । उसने ग्राउंड फ्लोर का बटन दबा दिया । लिफ्ट का स्वचालित दरवाजा बंद हुआ और वो नीचे सरकने लगी ।

वहां लिफ्ट के तनहा पिंजरे में उसके धीरज का बांध एकाएक टूट गया ।


"मां, ओ मां ।” - वो बच्चों की तरह बिलखता हुआ बोला "ओ मेरी मां। क्यों ? क्यों ? क्यों तूने मेरा नाम जीता रखा ?" -


समाप्त